29-Dec-2019 12:00 AM
5226
सैयद इब्राहिम रसखान हिन्दी साहित्य में भक्त कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास-ग्रन्थों में भी उनके बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है। गार्सा द तासी के इतिहास-ग्रन्थ में तो उनका कोई जि़क्र भी नहीं मिलता। शिवसिंह सेंगर लिखित ‘शिवसिंह सरोज’ (1878 ई.) में उन्हें ‘पिहानी वाले’ बताया गया है और यह विवरण दिया गया है कि ‘ये कवि मुसलमान थे। श्री वृन्दावन में जाय कृष्ण चन्द्र की भक्ति भाव में ऐसे डूबे कि फिर मुसलमानी त्याग कर, माला कण्ठी धारण किये हुए वृन्दावन की रज में मिलि गए। इनकी कविता निपट ललित माधुर्यता से भरी हुई है। इनकी कथा भक्तमाल में पढ़ने योग्य है।’ इससे यह पता चलता है कि रसखान वृन्दावन कभी गए थे और वहीं रह गए। पता नहीं शिवसिंह सेंगर ने यह कैसे लिखा कि रसखान की कथा नाभादास कृत ‘भक्तमाल’ में है? ‘भक्तमाल’ में एक छप्पय है जिसमें कृष्ण यानी ‘श्रीव्रजचन्द्रजी के षोडश सखा’ का उल्लेख है। इसी में रसखान का नाम ‘रसदान’ करते हुए उनकी चर्चा है। हो सकता है कि शिवसिंह सेंगर का अभिप्राय ‘दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता’ से हो।
जाॅर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपनी किताब ‘द माॅडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर आॅफ हिन्दुस्तान’ (1889 ई.) में रसखान को ‘पिहानी’ का ही बताया है और उनका जन्म-वर्ष 1575 ई. माना है। गणेशबिहारी मिश्र, श्यामबिहारी मिश्र और शुकदेवबिहारी मिश्र, जो हिन्दी साहित्य में ‘मिश्रबन्धु’ के नाम से जाने जाते हैं, ने अपने ‘मिश्रबन्धु-विनोद’ के पहले भाग (1913 ई.) में रसखान पर किंचित् विस्तार से लिखा है। मिश्रबन्धुओं ने रसखान का जन्म 1558 ई. और मृत्यु 1628 ई. में मानी है।
इन सबसे अनुमान लगाया जा सकता है कि रसखान के कृष्ण-भक्त हो जाने में एक गुत्थी है जो अभी तक सुलझ नहीं पाई है। इतना तो स्पष्ट है कि मध्यकालीन भारतीय समाज और संस्कृति में व्यापक तौर पर हिन्दुओं और मुसलमानों में मिश्रण हुआ था। निश्चय ही हिन्दुओं और मुसलमानों के जीवन जीने के तरीके, खान-पान, मान्यताएँ और विश्वास अलग-अलग रहे होंगे पर जीवन की आवश्यकताओं ने उन्हें एक-दूसरे के क़रीब भी किया था। इसलिए आगे चलकर जीवन जीने के तरीके, खान-पान, मान्यताएँ और विश्वास और यहाँ तक कि भाषा में भी व्यापक मेल-जोल दिखायी देता है। पर यह सवाल तो है ही कि रसखान कृष्ण-भक्ति की ओर कैसे आकृष्ट हुए? ऊपर की किंवदंतियों और जनश्रुतियों से जुड़ी यह बात भी है कि रसखान फारसी में श्रीमद्भागवत पुराण का अनुवाद पढ़ा करते थे। पर हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा जैसा कि आॅड्रे तुरुष्के ने अपनी किताब ‘कल्चर आॅफ इनकाउंटर्स’ में लक्ष्य किया है कि मध्यकालीन धार्मिक विविधता को केवल हिन्दू-मुसलमान के खाँचे में नहीं समझा जा सकता है। ऐसा इसलिए भी कि केवल यही दो समुदाय ही उस समय नहीं थे। फिर भी दोनों समुदायों में जीवन की ज़रूरतों के कारण व्यापक सहयोग भी होता रहा है। अभी त्रैमासिक पत्रिका ‘समास’ में (अंक 17) वरिष्ठ समाजशास्त्री आशीष नन्दी ने सम्पादक से बातचीत के दौरान यह ध्यान दिलाया है कि ‘अयोध्या की सभी देवमूर्तियों (विग्रहों) के कपड़ों के बनाने वाले मुसलमान थे। हज़ार मन्दिरों के सभी कपड़े मुसलमान ही बनाया करते थे। वहाँ के कुछ मन्दिर मुसलमानों के थे। देवताओं के सभी आभूषण भी मुसलमान बनाया करते थे। सभी पर्दे और कपड़े मुसलमान ही सिलते थे। मन्दिरों में इस्तेमाल होने वाले सभी फूल मुसलमान उगाते थे, उन्हीं की स्त्रियों के हाथों की गूँथी मालाएँ अयोध्या के देवी-देवताओं को पहनायी जाती थी। असली अयोध्या वो है। अब ये किसको समझाएँ।’ इससे यह स्पष्ट है कि मध्यकाल में अनेक तरह की साधना पद्धतियाँ एक-दूसरे को प्रभावित करती हुई, एक-दूसरे को काटती हुई और एक-दूसरे को सहयोग देती हुई चल रही थीं। रसखान और आगे चलकर नज़ीर अकबराबादी (1735-1830 ई.) इस पूरी प्रक्रिया के महत्त्वपूर्ण स्तम्भ हैं। निश्चय ही इसमें कृष्ण के खुले व्यक्तित्व का भी योगदान था जिसे लम्बे समय में मिथकीय रूप में जनता द्वारा रचा गया था।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास (1929 ई.)’ में रसखान पर गहराई-से विचार है। उन्होंने रसखान की कविता की लोकप्रियता और उसकी भाषा की विशेषताओं को सामने रखा। ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में वे लिखते हैं कि ‘प्रेम के ऐसे सुन्दर उद्गार इनके सवैयों में निकले कि जनसाधारण प्रेम या श्ाृंगार सम्बन्धी कवित्तसवैयों को ही ‘रसखान’ कहने लगे -- जैसे ‘कोई रसखान सुनाओ।’ इनकी भाषा बहुत चलती, सरल और शब्दाडम्बरमुक्त होती थी। शुद्ध ब्रजभाषा का जो चलतापन और सफ़ाई इनकी और घनानन्द की रचनाओं में है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।’ आचार्य शुक्ल का रसखान की भाषा को ‘शुद्ध’ कहना अपने-आप में काफ़ी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अपने ‘इतिहास’ में वे बहुत कम कवियों की भाषा को शुद्ध मानते हैं। रसखान के अलावा आचार्य शुक्ल ने रीतिकालीन कवि घनानन्द की ब्रजभाषा को शुद्ध, सरस और शक्तिशालिनी कहा है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो गया होगा कि हिन्दी साहित्य के इतिहास-ग्रन्थों में रसखान को किस तरह से देखा गया है? रसखान की रचनाओं का सबसे पहले संग्रह ‘उपन्यासों का ढेर लगा देने वाले’ किशोरीलाल गोस्वामी ने किया। बाद में और कई लोगों यथा प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, बाबू अमीर सिंह और पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने क्रमशः ‘रसखान-पदावली’, ‘रसखान और घनानन्द’ और ‘रसखानि ग्रन्थावली’ नामक संग्रहों में रसखान की रचनाओं का संकलन किया। इन संग्रहों में रसखान की तीन रचनाएँ रखी गई हैं। इन तीनों रचनाओं में सर्वाधिक प्रसिद्ध ‘सुजान-रसखान’ है। इसके अतिरिक्त ‘प्रेम-वाटिका’ और ‘दान-लीला’ रचनाएँ भी हैं। ‘सुजान-रसखान’ में प्रमुखतः सवैये और कबित्त संकलित हैं। हालाँकि, इसमें अल्प मात्रा में दोहे और सोरठे भी हैं। ‘दान-लीला’ में भी सवैये और कबित्त संकलित हैं। ‘प्रेम-वाटिका’ में दोहे हैं। भक्ति साहित्य पर अभी-अभी अंग्रेजी में सम्पादित किताब ‘टेक्स्ट एंड ट्रेडिशन इन अर्ली माॅडर्न नाॅर्थ इंडिया’ (सं. टेलर विलियम्स, अंशु मल्होत्रा, जाॅन स्ट्राटन हाॅवले, आॅक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 2018 ई.) में जापानी विदुषी हिरोको नागासाकी ने यह बात लिखी है कि रसखान द्वारा व्यवात सवैया छन्द दरअसल उत्तर भारतीय काव्य-परम्परा और फ़ारसी छन्द-विधान का मिश्रण था। अपने इसी लेख में हिरोको नागासाकी ने यह भी लक्ष्य किया है कि रसखान की कविता में सूफ़ी दर्शन और कृष्ण भक्ति का मिश्रण बहुत गहरे समर्पण के साथ हुआ है।
रसखान के यहाँ कृष्ण के लिए भक्ति दो रूपों में अभिव्यक्त हुई है। एक रूप तो वह है, जहाँ सीधे-सीधे कृष्ण के प्रति रसखान की अनन्य भक्ति सामने आती है। दूसरी स्थिति में यह भक्ति गोपियों की अनुभूति और उसकी अभिव्यक्ति के रूप में सामने आती है। रसखान की कृष्ण के प्रति जो अनन्यता है, उसे भक्ति का शास्त्रीय वर्गीकरण करने वाले विद्वानों ने ‘सायुज्य’ भक्ति कहा है। रसखान का निम्नांकित सवैया कृष्ण के प्रति उनकी अनन्यता को प्रकट करता हैः
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पशु हौं तौ कहा बस मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मँझारन।
पाहन हौं तौ वही गिरि को जो धर्यो कर छत्र पुरन्दर धारन।
जो खग हौं तौ बसेरो करौं निलि कालिन्दी कूल कदम्ब की डारन।
इस सवैये में हर स्थिति में रसखान वह होना चाहते हैं जिससे उनका जुड़ाव कृष्ण से बना रहे। इसके साथ-साथ यहाँ यह बात भी लक्ष्य की जा सकती है कि पुनर्जन्म की पुख़्ता अवधारणा जिस प्रकार हिन्दू धर्म में है, उस तरह से इस्लाम में नहीं। फिर भी इसे मानकर रसखान अपनी इच्छा व्यक्त कर रहे हैं। अपनी धार्मिक पहचान के समानान्तर दूसरे की धार्मिक मान्यताओं को आत्मासात करके रचना करना, यह भक्ति की उदार भावना के कारण सम्भव हुआ है। उनके लिए कृष्ण का साथ महत्त्वपूर्ण है चाहे वह गोकुल गाँव के ग्वालों के रूप में हो या नन्द की गायों के रूप में या गोवर्धन पर्वत के पत्थर के रूप में या यमुना किनारे कदम्ब के पेड़ों पर रहने वाले पक्षियों के रूप में। भक्ति की यह अनन्यता और समर्पित भावना दुर्लभ है।
रसखान के कृष्ण की यह विशेषता है कि वे एक ही साथ सगुण भी हैं और निर्गुण भी। उनकी लीलाओं के वर्णन में रसखान उनके ‘लीलाधर’ रूप से भी वाकिफ़ हैं और उनके परब्रह्म रूप से भी। यों तो सूरदास के कृष्ण भी दोनों हैं पर रसखान की विलक्षणता इस बात में है कि उनके कृष्ण एक ही साथ दोनों रूपों में सामने आते हैं। यहाँ उनके निर्गुण रूप के बखान के लिए किसी सन्देशवाहक की ज़रूरत नहीं है। इसीलिए वे कहते हैंः
सेस गनेस महेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं।
जाहि अनादि अनन्त अखण्ड अछेद अभेद सुबेद बतावैं।
नारद से सुक व्यास रहैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।
इस अतिप्रसिद्ध सवैये की कई विशेषताएँ हैं। कविता के धरातल पर भी और विचार के स्तर पर भी। पहली पंक्ति में ‘स’ वर्ण की आवृत्ति, दूसरी पंक्ति में ‘अ’ की आवृत्ति, तीसरी में ‘प’ की आवृत्ति और चैथी पंक्ति में ‘छ’ वर्ण की आवृत्ति हुई है। इस कारण इसमें विशेष प्रकार की संगीतात्मकता आ गयी है जिसके कारण यह आसानी-से ज़ुबान पर चढ़ जाता है। यह तो हुई कविता के धरातल पर बात! विचार के स्तर पर यह एक रचनात्मक वैभव ही है कि जो निर्गुण है, जिसको बड़े-बड़े देवता भी भजते हैं, जिसे वेद अनादि, अनन्त और अखण्ड बताते हैं, श्रेष्ठ भक्त भी उसके स्वरूप का पूरी तरह पता नहीं लगा पाते, वह परब्रह्म यानी चरम सत्ता एक तथाकथित छोटी-सी चीज़ ‘छछिया भर छाछ’ पर साधारण गोपियों, जो न तो कृष्ण को भजती हैं, न उन्हें अनादि, अनन्त और अखण्ड मानती हैं और न ही कृष्ण के स्वरूप को लेकर किसी खोज में लगती हैं, के द्वारा नचाया जाता है। रसखान की कविता भक्ति का प्रेम में रूपान्तरण की प्रक्रिया का श्रेष्ठ रचनात्मक उदाहरण है। इसी से मिलता-जुलता एक और सवैया है ः
ब्रह्मा मैं ढूँढ़îो पुरानन गानन वेद रिचा सुनि चैगुने चायन।
देख्यो सुन्यो कबहूँ न कितूँ वह कैसे सरूप औ कैसे सुभायन।
टेरत हेरत हारि पर्यो रसखानि बतायो न लोग लुगायन।
देखौ दुरो वह कुंजकुटीर मैं बैठो पलोटत राधिका के पायन।
यहाँ कहा जा रहा है कि उस परम ब्रह्म को मैंने पुराणों और गीतों में खोजा। उसे मैंने चैगुने चाव से वेद की ऋचाओं में ढूँढ़ा कि शायद उन्हें पता हो। मैंने उसे न तो देखा, न ही उसके बारे में सुना और न ही यह जान पाया कि उसका स्वरूप और स्वभाव कैसा है? मैं उसे पुकारता और खोजता हुआ थककर हार गया क्योंकि किसी पुरुष या स्त्री ने उसका पता नहीं बताया। वह मुझे कहीं नहीं मिला पर अन्त में वह कुंजकुटीर में छुपकर राधा के पैरों को दबाता हुआ मिला। ऊपर के दोनों सवैयों को मिलाकर पढ़ने पर कुछ बातें सैद्धान्तिक रूप से भी समझ में आती हैं। पहली बात तो यह है कि भक्ति की शास्त्रीय अवधारणा के समानान्तर उसकी अपेक्षाकृत लौकिक अवधारणा भी सशक्त है। अगर यह नहीं होती तो वह परम ब्रह्म एक क्षुद्र-सा लगने वाला काम क्यों करता? दूसरी बात यह कि भक्ति में जानने से अधिक महसूस करने की बात है। ऊपर की तीन पंक्तियों में महसूस करने से अधिक जानने की बात है जबकि चैथी पंक्ति में देखने की बात कही जा रही है। तीन पंक्तियों में ज्ञान की बात है तो चैथी में अनुभव की। इस दृष्टि से देखने पर लगता है कि रसखान की भक्ति में जैसे कबीर और सूर की भक्ति मिल गयी हो। ऐसा इसलिए कि कबीर ‘अनुभव’ यानी ‘आँखिन देखी’ की बात करते हैं और सूरदास विवशता में ही सही पर स्वीकार करते हैं कि वे ‘सगुन पद’ ‘गा’ रहे हैं। भक्ति की शास्त्रीय अवधारणा यह कहती है कि ईश्वर की कृपा से तीनों लोकों में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त हो सकता है, तमाम तरह के ऐश्वर्य हासिल हो सकते हैं, मोक्ष मिल सकता है। रसखान ऐसी कोई कामना नहीं करते। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि वे हर हाल में कृष्ण से जुड़े रहना चाहते हैं। जैसे किसी से सच्चे प्यार का कोई कारण नहीं होता वैसे ही सच्ची भक्ति का भी कोई कारण नहीं होता। यहीं पर रसखान के सूफ़ी दर्शन से प्रभावित होने की बात भी समझ में आती है। ईराक की प्रसिद्ध सूफ़ी सन्त राबिया ने कहा है कि हे ईश्वर, यदि मैं नरक के भय से तुम्हारी पूजा करती हूँ तो मुझे नरकाग्नि में जला दो, यदि स्वर्ग की आशा में मैं तुम्हारी उपासना करती हूँ तो मुझे स्वर्ग से निकाल दो परन्तु यदि मैं तुम्हारी उपासना केवल तुम्हारे लिए करती हूँ तो अपने शाश्वत सौन्दर्य को मुझसे न छिपाओ। रसखान भी यही बात दूसरे अन्दाज़ से कह रहे हैं। रसखान की भक्ति में शास्त्रीय अवधारणा के समानान्तर लौकिक अवधारणा को नीचे दिए जा रहे सवैये से भी समझा जा सकता हैः
या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवो निधि को सुख नन्द की गाइ चराइ बिसारौं।
रसखानि कबौं इन आँखिन सों ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक रौ कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं।
हिन्दी साहित्य में इस सवैये को कृष्ण के कथन के रूप में पढ़ा-पढ़ाया जाता रहा है। लोग ऐसे प्रसंग की कल्पना कर लेते हैं कि मथुरा में रहते हुए कृष्ण यह सब सोच रहे हैं। अपने पुराने दिनों को याद कर रहे हैं और उन पर आज के अपने ऐश्वर्य को न्योछावर कर रहे हैं। यहाँ इस अर्थ से कोई असहमति नहीं प्रकट की जा रही है परन्तु इसमें इस अर्थ की भी सम्भावना है कि यह सारा कुछ एक भक्त कह रहा है। ऐसी सम्भावना के स्वीकार से राबिया के कथन से रसखान की भावना का सम्बन्ध दिखायी देगा। एक भक्त अपने भगवान की लीला की वस्तुओं पर तीनों लोकों के राज को त्याग देने की बात कह रहा है। वह संसार की प्रसिद्ध आठों सिद्धियों और नवों निधियों को भी भूल सकता है यदि उसे नन्द की गाय चराने को मिल जाए। उसके मन में यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह अपने इष्ट की लीला-स्थली को जी भर के निहार सके। इतना ही नहीं, वह करोड़ों ऐश्वर्यशाली सोना-चाँदी के महलों को करील के कुंजों पर न्योछावर कर रहा है। इससे रसखान की भक्ति का अनन्य और समर्पित रूप दिखायी देता है।
सूरदास पर लिखते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उनकी विशेषता बतलाते हुए कहा है कि सूर की बड़ी भारी विशेषता है, नवीन प्रसंगों की उद्भावना। यहाँ निवेदन यह है कि कोई भी कवि या रचनाकार मिथकीय या पौराणिक प्रसंगों या चरित्रों को आधार बना रचना करता है तो उसकी रचना में नवीनता या रचनात्मकता बिना नवीन प्रसंगों की उद्भावना के आ ही नहीं सकती। मिथकीय और पौराणिक चरित्र उसे यह छूट देते हैं कि वह अपनी रचनाशीलता के हिसाब से उनमें अर्थ और प्रसंग भर सके। ऐसा इसलिए भी कि किसी भी ऐसे रचनाकार का उद्देश्य मिथकीय या पौराणिक प्रसंगों या चरित्रों की पुनप्र्रस्तुति करना कतई नहीं होता। यही कारण है कि जयदेव की राधा से विद्यापति की राधा अलग है। विद्यापति की राधा से भिन्न सूरदास की राधा है। सूरदास की राधा से आधुनिक कवि धर्मवीर भारती की रचना ‘कनुप्रिया’ की राधा अलग है। अतः यह देखना दिलचस्प होगा कि रसखान नवीन प्रसंगों की कहाँ और कैसी उद्भावना करते हैं? कुछ प्रसंगों से यह बात शायद स्पष्ट हो।
रसखान ने कृष्ण के बाल-रूप का उतना वर्णन नहीं किया है जितना कि गोपियों से उनके प्रेम का पर एक जगह वे कहते हैं कि कृष्ण धूल से भरे हैं और उनके सिर पर सुन्दर चोटी बनी हुई है। वे आँगन में खेलते हुए खाते फिर रहे हैं। उनके चलने से पैजनी बज रही है और वे पीली कछोटी पहने हुए हैं। उनके इस रूप को देखकर करोड़ों कामदेव की सुन्दरता न्योछावर है। कौवे का बड़ा सौभाग्य है कि वह कृष्ण के हाथ से माखन-रोटी छीनकर ले गया।
धूर भरे अति शोभित स्याम जू तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरैं अँगना पग पैंजनी बाजती पीरी कछोटी।
वा छवि को रसखानि बिलोकत बारत काम-कला निज कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी।
इस सवैये में भी भक्ति का लौकिक और अलौकिक रूप मिश्रित है। प्रथम तीन पंक्तियों में लौकिक रूप वर्णित है। चैथी पंक्ति में जो कहा जा रहा है कि कौवे का बड़ा सौभाग्य है कि वह कृष्ण के हाथ से माखन-रोटी छीन कर ले गया। यदि इसके कारण पर विचार करें तो स्पष्ट होगा कि कौवे का सौभाग्य इसलिए है कि वह कृष्ण के हाथों से छीनकर ले जा रहा है जो दरअसल परब्रह्म हैं। यानी सर्वोच्च सत्ता को एक सामान्य या तुच्छ कौवा भी जीत सकता है। इस सवैये में जो यह विषमता है वही हमें आकर्षित करती है। मान लीजिए यदि ऐसा कुछ वर्णन होता कि कृष्ण कौवे से प्रसन्न होकर उसे अपने हाथों से रोटी खिला रहे होते तो इसका प्रभाव कभी भी वैसा नहीं पड़ता जैसा अभी पड़ा है।
गोपियों के साथ कृष्ण के सम्बन्ध भिन्न-भिन्न तरह के हैं। कभी वे कहती हैं कि सब कुछ करेंगी लेकिन कृष्ण के अधरों पर रहनेवाली मुरली को अपने अधरों पर नहीं रखेंगी। कभी वे कहती हैं कि यशोदा का यह छोरा मुरली बजाता है और ब्रज में विष फैला रहा है? कभी कहती हैं कि पूरे ब्रज में कृष्ण के प्रेम का डंका बज रहा है। गोपियाँ कृष्ण के रूप पर लुब्ध हैं। इसके साथ-साथ वे कृष्ण के मुरली बजाने पर अपनी सुध-बुध खो बैठती हैं। कृष्ण से प्रेम के कारण और कृष्ण के मुरली बजाने के फलस्वरूप गोपियों की कुल की लज्जा ख़त्म हो जाती है। विद्यानिवास मिश्र द्वारा संपादित ‘रसखान रचनावली’ में ढेरों ऐसे छन्द हैं जिनमें गोपियाँ ‘कुल की कानि’ यानी ‘कुल की लज्जा’ के टूट जाने की बात करती हैं। इन घटनाओं में भी रसखान द्वारा नवीन प्रसंगों की उद्भावना नज़र आती है। इन छन्दों में रसखान की स्वच्छन्द कल्पना अपनी उड़ान भरती है और अनेक मार्मिक प्रसंगों की रचना करती है।
जैसा कि संकेत किया गया कि रसखान की गोपियाँ बार-बार ‘कुल की कानि’ के न रहने या उसके टूट जाने या नष्ट हो जाने की बात करती हैं। भारतीय समाज में कुल या परिवार की इज़्ज़त को बचाने का जि़म्मा लड़कियों को ही दिया गया है। संस्कृत से लेकर हिन्दी साहित्य में जो नायिका-भेद की अवधारणा आयी है उसका यदि समाजशास्त्रीय अध्ययन किया जाए तो लड़की के बनने की प्रक्रिया को साहित्यिक तौर पर समझ पाएँगे। लड़की की यौनिकता पर भी अनेक तरह के पहरे हैं। इन सबके पीछे यही बात डर के रूप में बैठी लगती है कि लड़की या स्त्री अपनी मजऱ्ी से कोई सम्बन्ध न बना ले। जैनेंद्र कुमार के प्रसिद्ध उपन्यास ‘त्यागपत्र’ (1937 ई.) में कथावाचक प्रमोद अपनी बुआ मृणाल के बारे में यह बताता है कि मृणाल की भौजाई उसे ‘आर्य गृहिणी’ के आदर्श के रूप में ढालना चाहती थीं। ‘आर्य नैतिकता’ के बोझ तले भारत की स्त्रियाँ दबी रहती हैं। रसखान की गोपियाँ खुलकर कृष्ण से अपने प्रेम को स्वीकार करती हैं। दरअसल, कृष्ण के व्यक्तित्व में ही वह सम्भावना है कि किसी प्रकार के बाहरी बन्धन को न माना जाए। उदाहरण के लिए कृष्ण एक से नहीं बल्कि अनेक गोपियों से प्यार करते हैं। जिससे सबसे अधिक प्यार करते हैं यानी राधा उससे विवाह नहीं करते। मथुरा जाते हैं तो वहाँ भी कुब्जा से प्रेम करने लगते हैं। एक नहीं बल्कि अनेक शादियाँ करते हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि कृष्ण का व्यक्तित्व भारतीय जनता ने इस रूप में रचा है कि पूर्व-निर्धारित नैतिकता वहाँ ध्वस्त हो जाती है। रसखान की गोपियाँ कृष्ण के प्रति अपने प्रेम, अपनी चाहत और अपनी समर्पण-भावना का बिना डरे वर्णन करती हैं। नीचे दिए जा रहे कबित्त में गोपियाँ कृष्ण के असर को स्पष्ट कह रही हैंः
ब्याही अनब्याही ब्रजमाहीं सब चाही तासों,
दूनी सकुचाई दीठि परै न जुन्हैया की।
नेकु मुसकानि रसखानि की बिलोकत ही,
चेरी होत एक बार कुंजनि दिखैया की।
मेरो कह्यो मानि अन्त मेरो गुन मानि है री,
प्रात खात जात ना सकात सौंह भैया की।
माइ की अँटक जौं लौं सासु की हटक तौ लौं,
देखी ना लटक मेरे दूलह कन्हैया की।
इस कबित्त में गोपी साफ़-साफ़ कह रही है कि क्या विवाहित और क्या अविवाहित, सभी उसे यानी कृष्ण को चाहती हैं। भाई की कसम सुबह-सुबह क्या खाऊँ! जब तक अपने दूल्हे कृष्ण का अपने प्रति झुकाव नहीं देखा तभी तक माँ की रोक और सास की मना करने की हालत है। इसी तरह से एक गोपी यह कहती हैः
जा दिन तें निरख्यो नन्दनन्दन कानि तजि घर बन्धन छूट्यो।
चारु बिलोकनि की निसि मार सम्हार गई मन मार ने लूट्यो।
सागर को सरिता जिमि धावत रोकि रहे कुल को पुल टूट्यो।
मत्त भयो मन संग फिरै रसखानि सरूप सुधारस घूट्यो।
इस सवैये में रसखान की विराट कल्पना-क्षमता का पता चलता है। गोपी का कहना है कि जिस दिन से मैंने नन्दनन्दन यानी कृष्ण को देखा, उस दिन से ही लज्जा त्याग दी और घर के बन्धन छूट गए। उस सुन्दर को देखने के बाद मैंने किसी तरह रात भर अपने को सँभाला परन्तु कामदेव ने मेरा मन लूट लिया। जिस तरह से नदी समुद्र से मिलने के लिए दौड़ती है वैसे ही मैं भी कृष्ण से मिलने के लिए दौड़ी और कुल का पुल टूट गया। मैं मतवारी होकर संग फिरती रही और उसके सुन्दर रूप का अमृत लूटती रही। इस सवैये में कुल के पुल टूटने का प्रयोग सर्जनात्मकता का विस्फोट है। ठीक इसी प्रकार एक गोपी उस आर्य नैतिकता के टूटने की भी बात करती हैः
रंग भर्यो मुसकात लला निकस्यो कल कुंजनि तें सुखदाई।
मैं तब हीं निकसी घर तें तकि नैन बिसाल की चोट चलाई।
रसखानि सो घूमि गिरी धरती हरिनी जिमि बान लगे गिरि जाई।
टूटि गयो घर को सब बन्धन छूटिगो आरज लाज बड़ाई।
गोपी कह रही है कि मैं जब घर से निकली तब कृष्ण कुंज से मुस्काते हुए निकले और उन्होंने अपने नेत्रों की चोट से मुझे घायल कर दिया। मैं ज़मीन पर ऐसे गिर पड़ी जैसे बाण लगने पर हिरणी गिर जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में घर के सारे बन्धन छूट गए और ‘आर्य लज्जा’ भी नष्ट हो गयी।
एक गोपी यह कह रही है कि अब तक मुझे कुछ समझ में नहीं आया कि कृष्ण के साथ आँखें नचा-नचा कर ब्रज में लोग क्यों हँसते हैं। मेरी सास रोज़ यह देखकर ठण्डी साँसें भरती हैं और मेरी माँ की कान्ति रोज़ क्रमशः नष्ट हो रही है। चारों ओर पिता की कसम का शोर सुनती हूँ और मेरा मन उलझता जाता है। पर मैं क्या करूँ? उसे देखकर मेरा जी हुलसता ही जाता हैः
समझी न कछू अजहूँ हरि सों ब्रज नैन नचाइ नचाइ हँसै।
नित सास की सीरी उसासनि सों दिनहीं दिन माइ की कान्ति नसै।
चहुँ ओर बबा की सौं सोर सुनै मन मेरेऊ आवति री सकसै।
पै कहा करौं वा रसखानि बिलोकि हियो हुलसै हुलसै हुलसै।
गोपियाँ कृष्ण की मुरली की ज़बरदस्त चाहने वाली हैं। एक गोपी तो यहाँ तक कह देती है कि पति मेरा परदेस गया हुआ है परन्तु मुरली सुनकर मेरी देह में जैसे कामदेव सजने लगता है। अब मैं क्या करूँ? मेरा कोई वश ही नहीं हैः
बजी है बजी रसखानि बजी सुनि कै अब गोपकुमारि न जीहै।
न जीहै कोऊ जो कदाचित कामिनी कानी मै वाकी जु तान कू पीहै।
कू पीहै बिदेस सँदेस न पावति मेरी व देह को मैन सजी है।
सजी है तो मेरे कहा बस है सु बैरिन बाँसुरी फेरि बजी है।
इतना ही नहीं, बाँसुरी के प्रति गोपियों के मन में ईष्र्या भाव भी है। एक गोपी तो चिढ़कर यहाँ तक कह देती है कि अब ब्रज में केवल बाँसुरी ही रहेगी। एक कहती है कि पूरे बाँस को ही कटवा डालने का उपाय कीजिए क्योंकि न रहे बाँस न बाजे बाँसुरी। ऊपर यह उल्लेख किया गया था कि एक गोपी को यह लगता है कि यशोदा का छोरा बाँसुरी बजा रहा है या पूरे ब्रज में विष फैला रहा है? उसी कबित्त में गोपी यह भी कहती है कि मैंने दूध दूहा, उसे ठण्डा होने के लिए रखा और फिर उसमें मिलाने के लिए रखा जामन कि पड़ा-पड़ा खट्टा हो जाएगा। इसी बीच कृष्ण ने बाँसुरी बजायी और सब कुछ उलट-पुलट हो गया। उसका यह करना सारे नर और नारियों को बिल-बिलाने पर मजबूर कर देगाः
दूध दुह्यो सीरो पर्यो तातो न जमायो कर्यो,
जामन दयो सो धर्यो धर्योई खटाइगो।
आन हाथ आन पाइ सबही के तबहीं तें,
जबहीं तें रसखानि तानन सुनाइगो।
ज्यौंहीं नर त्यौंहीं नारी तैसी ये तरुन बारी,
कहिए कहा री सब ब्रज बिललाइगो।
जानिए न आली यह छोहरा जसोमति को,
बाँसुरी बजाइगो कि विष बगराइगो।
रसखान के यहाँ स्वच्छन्दता की प्रवृत्ति भरपूर है। इसलिए उनकी प्रेम-भावना में व्याकुलता और भावाकुलता दोनों हैं। प्रेम की भावाकुलता के कारण दोनों यानी प्रेमी और प्रेमिका की जो सहज एवं स्वाभाविक दशा होती है, उसका वर्णन रसखान ने अपने एक लाजवाब कबित्त में किया है। एक सखी दूसरी सखी से प्रेमी-प्रेमिका (सम्भवतः कृष्ण-राधा ) की भावाकुलता का वर्णन करते हुए कह रही है कि ऐ सखी! आजकल दोनों सारे लोक-लाज त्यागकर सभी प्रकार से प्रेम में सराबोर हैं। यह बात दो दिन में सब जगह फैल जाएगी, भला कोई कब तक विकसित चन्दा को हाथों में छुपा सकता है! आज ही देखा कि यमुना किनारे दोनों एक-दूसरे को मुड़-मुड़ कर देख मुस्कुरा रहे थे। दोनों एक-दूजे की बलैयाँ ले रहे थे और कृष्ण को गाएँ भूल गयीं और राधा को गागर उठाना!
एरी आजु काल्हि सब लोक लाज त्यागि दोऊ,
सीखे हैं सबै बिधि सनेह सरसाइबो।
यह रसखान दिना द्वै में बात फैलि जैहै,
कहाँ लौं सयानी चन्दा हाथन छिपाइबो।
आजु हौं निहार्यो बीर कालिन्दी तीर,
दोउन को दोउन सों मुरि मुसकाइबो।
दोऊ परैं पैयाँ दोऊ लेत हैं बलैयाँ इन्हैं,
भूलि गईं गैयाँ उन्हैं गागर उठाइबो।
ऊपर ‘कुल-कानि’ की चर्चा की गई है। इस दृष्टि से अगर देखा जाए तो रसखान की गोपियाँ सूरदास की गोपियों से भिन्न हैं। सूरदास की गोपियाँ सिर्फ़ ‘भ्रमरगीत-प्रसंग’ में आत्मविश्वास से भरी हैं और वे जी भर के उद्धव का उपहास करती हैं। रसखान के यहाँ भ्रमरगीत प्रसंग अलग से नहीं है। रसखान की गोपियाँ, सास, ननद और बचाव करने वाले के समानांतर अपनी दृढ़ता और प्रेम को अभिव्यक्त करती हैं। एक गोपी कहती हैः
तुम चाहो कहौ सो कहौ हम तौ नन्दवारे के संग ठईं सो ठईं।
तुम ही कुलवीने प्रबीने सबै हम ही कुछ छाँडि़ गईं सो गईं।
रसखान यों प्रीत की रीति नई सु कलंक की मोटैं लईं सो लईं।
यह गाँव के पासी हँसैं सो हँसैं हम स्याम की दासी भईं सो भईं।
इस सवैये का विश्लेषण हम करें तो पाएँगे कि इसमें गोपी की दृढ़ता के साथ-साथ उसके द्वारा दी जा रही चुनौती भी अभिव्यक्त हो रही है। वह कितने विश्वास से यह कह रही है कि ‘तुम्हें जो कहना है कहो। हम तो श्याम के साथ दृढ़ संकल्प ले चुकी हैं। तुम होगे कुलीन और प्रवीण पर हमने यह कुलीनता और तथाकथित प्रवीणता छोड़ दी है। यह प्रेम की नयी रीति है, जिसमें हम ने कलंक की गठरी ले ली है। गाँव के बहेलिये हँसें तो हँसें। हम तो श्याम की दासी हो गयीं सो हो गयीं।’ यहाँ तथाकथित कुलीनता का तिरस्कार तो है ही, साथ-ही-साथ गाँव के लोगों को बहेलिया कहा जा रहा है, जो काफ़ी व्यंजक है। इसी तरह एक गोपी कहती हैः
सास की सासन ही चलिबौ चलियै निसि द्यौस चलावै जिंही ढंग।
आली चबाव लुगाइन केर जातन ये ननदी ननदौ संग।
भावती औ अनभावती भीर मैं छ्वै न गयौ कबहूँ अंग सो अंग।
बैर करैं घर ही में तब रसखानि सौं मोसों कहा भयो रंग।
इस सवैये में गोपी सास के अनुशासन और ननद की चुगली एवं उसके द्वारा उड़ायी गयी अफ़वाह से परेशान है। हाल यह है कि जाने या अनजाने और प्रिय एवं अप्रिय भीड़ में भी प्रिय का स्पर्श प्राप्त नहीं हुआ है। घर में बैर करने पर ही राग यानी प्रेम मिल सकता है। दरअसल, सास और ननद पितृसत्ता के ढाँचे में निर्मित स्त्रियाँ हैं, जिनके सामने नयी बहू को अनेक तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। सास का अनुशासन और ननद की चुगली से लोक साहित्य भी भरा हुआ है। लोकगीतों में ‘जनम के बैरी छोटकी ननदिया’ जैसी उक्तियाँ खूब मिलती हैं। ज़ाहिर है कि अगर इस दमघोंटू माहौल से बाहर निकलकर प्रेम की स्वच्छन्द दुनिया में जाना है तो घर से बैर करना ही होगा। यहीं पर पूरे मध्यकालीन हिन्दी साहित्य और भारतीय साहित्य की एक विशेषता सामने आती है। मध्यकाल में चाहे जितनी भी कटूक्तियाँ स्त्रियों के बारे में कही गयी हों पर वहीं पहली बार लम्बे अरसे के बाद स्वयं स्त्रियाँ काव्य-रचना करती दिखायी देती हैं और कवियों के यहाँ भी एक स्वछन्द मनोलोक निर्मित होता है। यही कारण है कि रसखान की गोपियाँ स्पष्ट घोषणा करती हैं कि ‘गृह काज समाज सबै कुल लाज लला ब्रजराज को तोरत है।’
इस प्रकार हम देखते हैं कि रसखान का काव्य समर्पण, स्वच्छन्दता, नवीन प्रसंगों की उद्भावना और सहज कलात्मकता से रचा गया है। इस काव्य में भारत की सामासिक वैचारिकता की गहरी पृष्ठभूमि है। यहाँ प्रेम अपनी उदात्तता, मार्मिकता और सहृदयता के साथ उपस्थित है। यहाँ प्रेम में समर्पण के साथ-साथ एक दृढ़ता, आत्मविश्वास और अपने होने की गरिमा भी है। ‘प्रेम-वाटिका’ में एक दोहा हैः
लोक-वेद-मरजाद सब लाज काज संदेह।
देत बहाए प्रेम करि बिधि-निषेध को नेह।
लोक, वेद, मर्यादा, लज्जा, काज और संदेह सबको प्रेम बहा देता है। क्या करना चाहिए यानी विधि और क्या नहीं करना चाहिए यानी निषेध इन सबका भी कोई निर्देश प्रेम में नहीं होता। इन सबसे मुक्त मनुष्य ही काम्य है, जो रसखान की कविता में उपस्थित है।