असल-अनन्त अमित दत्ता
05-Sep-2018 12:00 AM 4923
अज्ञात शिल्पी फ़िल्म बनाना मेरे लिए एक शिल्पी के पदचिन्हों पर चलने जैसा था। मुझे कई प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन करना था और अनुवाद भी। इस प्रक्रिया के दौरान मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे नोट्स व अनुवाद जो मैंने कई श्लोकों व उक्तियों के किये थे, मेरे अन्तर्मन से एक चेतना-प्रवाह की तरह बाहर आये हैं। कुछ की ध्वनि कविता जैसी है। इनमें से कुछ फ़िल्म की आवाज़ भी बने।
 
कौन ?
कौन था वो जिसने पार किया इन हिम की दीवारों को --
अपनी ही प्रतिमा की तलाश में ?
कौन था वो
जिसके मन के दर्पण में प्रतिबिम्बित हुआ था
बीज शिल्प का ?
कौन है वह
जिसका आह्नान हुआ है ?
हे मुक्तिदाता -- हे तारक!
सहायता करो!
अपनी आत्मदृष्टि से ही हम खोज सकें
असल निधि को।
 
रक्षा
हे ईश्वर !
इस चरणभूमि की राह में अब कोई नया ज्वर न हो।
सप्तर्षि व विश्वकर्मा उत्तर की दिशा से मेरे रक्षक हों।
जिसकी तरफ मैं जाऊँ, जिसके भीतर मैं विश्राम करूँ;
उसी दुर्ग में मुझे शरण मिले।
वह मेरी रक्षा करे।
जैसे
बादल के पीछे से तारा झाँकता है --
वैसे
गडरिये की जेब में से भेड़ का बच्चा।
 
तृष्णा
चैराहे पर खड़ा वह अँधोरे में चमकता है,
संशय व विडम्बनाओं का नाश करता हुआ।
हे मुक्तिदाता के तेज़स्वी पुत्र --
मुझे अपने में मिलने दे।
मैं प्रकाश को पाना चाहता हूँ।
मुझे तृष्णा है।
प्रकाश बन मुझ पर कृपा करो।
मुझे लगे बस यही मार्ग है।
मेरा मार्ग- दर्शन करो जैसा तुम करते हो कई साधकों का।
तुम हिसाब रखते हो हर किसी के समय का --
हर कोई
जो अपने-अपने मार्ग पर प्रशस्त है।
चाँद
बादल के पीछे से निकल
मशाल
बन
मार्ग-दर्शन
करे।
 
वृक्ष-परीक्षा
ऐसा पेड़ जो हाथियों ने तोड़ा हो।
जिसमें पक्षियों का वास हो --
उनके घोसले हों --
उस पेड़ को न काटूँगा।
ऐसे पेड़ जो टेड़े-मेड़े हों;
बौने हों
जिनके जड़ें तो दिखें
पर ऊपर से सूख गये हों,
उनको न चुनूँगा।
श्मशान में उगे पेड़।
या फिर मन्दिरों में उगे पेड़।
जहाँ चीटियों की बाम्बी हों -
बाग के अकेले पेड़ --
सीमा चिन्हित करते पेड़
या फिर राह में लगे पेड़।
पलाश
कोवीदरा
शालमली
पिप्पल
वट
आम
पुष्पक
कपित्
विभीटक
वेतसा
...इन सबका मैं त्याग करूँ।
नन्दन
स्यंनदन
शाल
शिमसप
खदिर
धव
किमशुक
पदमक
हरिद्रा
चीनक
अर्जुन
कदम्ब
मधुक
अंजन
देववृक्ष
जातया
रक्तचन्दन...
मैं बस इन्हीं का चुनाव करूँ।
हे ईश्वर!
अगर मैं रास्ता भटकूँ तो
मेरी कुल्हाड़ी को हवा में रोक दो।
 
प्रार्थना
इस पेड़ पर वास करने वाले भूत हों,
या फिर कोई भी प्राणी,
मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ।
कृपया मेरी यह प्रार्थना स्वीकार करें --
अपना स्थान बदलें।
आपकी आज्ञा व अनुमति हो
तो इस पेड़ की लकड़ी को
मैं ब्रह्माण्ड के प्रतिरूप-निर्माण के काम में लाऊँ।
अगर आप किसी कारण इस पेड़ को त्यागने में असमर्थ हों
तो कृपया
मेरे सपने में आकर मुझे सूचित करें।
या फिर
अपने फड़फड़ाने की आवाज़ में
--गुंजन में
-काँव-काँव में
-गूटर गूँ में-
अपने करलव में।
 
आदर्श
यूप-यज्ञ की तरह ही शिल्पी अपने काम में लगता है।
जिस तरह यज्ञकार के लिए यूप है --
उसी तरह शिल्पकार के लिए माणदण्ड है।
जो यूप के सर को विश्व और उसके दण्ड को कर्म मानता है
व उस माणदण्ड को लेकर चलता है
वही सच्चा शिल्पी कहलाता है।
माणदण्ड सूरज के समक्ष सीधा खड़ा रहता हे
और उसकी परछायी निरन्तर बदलती रहती है --
सुबह की लम्बी परछायी से लेकर दोपहर की छोटी परछायी तक --
शिल्पी बदलते रहते हैं।
 
असल अनन्त
यह मार्ग तो बाधाओं से पटा पड़ा है --
कई व्यवधान हैं --
लो -- भय -- व्याकुलता।
क्या कोई इन बाधाओं के आगे माथा टेक दे ?
या बढ़ चले
आगे
एक मूरख की तरह ?
स्वाभिमानी अहं के आगे तो न झुकेगा।
ज्ञान यहाँ उपयोगी कहाँ --
उसे तो बाहर द्वार पर ही छोड़ कर आना पड़ेगा।
पर ज्ञान को त्यागने का साहस किसी में भी नहीं।
केवल अजन्मा ही लाँघ सकता है गर्भ को
न विद्वान और न सन्त।
अगर माताएँ रास्ता दिखाएँ तो ?
और अगर वह माताओं को देख पाये तो ?
जो असल है वह ढँका रहता है स्वर्ण पलक से --
हे तेजस्वी !
उस पलक को हटाओ
ताकि
हम देख पाएँ
असल अनन्त को।
 
बिम्ब
जो भी अस्थायी है
वह एक बिम्ब है,
चाहे वह इस धरती जैसा ठोस हो या नभमण्डल जैसा विशाल।
जब रूद्र का बाण प्रजापति को बींध डालता है
तो सृजन की प्रचण्डता से अज को बचाने के लिए
पिता के ज्वलन्त बीज
यज्ञस्थल पर आ पड़े।
कुल खण्ड में निहित हो गया।
समस्त ब्रह्माण्ड --
ब्रह्माण्ड के प्रतिरूप में निवास कर सकता था।
 

दायरा
आरम्भ में वृत्त है --
दायरा।
वृत्त ही विश्व है।
जैसे चित्त का मनुष्य में वास है
वैसे ही इसके आकार में ही प्राण-वायु का।
वृत्त ही काल है।
वृत्त की गति उसकी परिधि से नियमित है --
जैसे चित्त चंचलता चित्त-वृत्ति से।
जैसे मनुष्य का सम्बल आत्मा है
जैसे
वृत्त का अमर है।
दायरे का सम्बल अमर है,
इसका बिन्दु ठोस है
जैसे
आत्मा
मनुष्य में।
दायरे के अन्दर
का क्षेत्र
इसका आधार है।
जैसे हर प्राणी फिरते हैं
कई आकार जन्म लेते हैं।
यह जीवन की प्राण-वायु है।
वास्तव में दायरा
ही पूर्ण है।
दायरा खुलता है -- बिन्दु छिटकते हैं।
वही बिन्दु
भेड़ों के आकार लेकर मिमियाते हैं।
शिल्पी दूर क्षितिझ की ओर जाता हुआ एक बिन्दु की तरह ही तो लगता है।
 
संवाद
ना !
पर मैंने अपने शत्रु -- जो मेरे मित्र था उस पर विजय पा ली है।
काश !
इस क्षण इस खेल की समरसता पत्थर पर उकेरी जा सकती।
अगर खेल सम्पूर्ण हो तो शायद ज़्यादा भव्य लगे।
कई सम्भावनाएँ हैं --
परन्तु
इस क्षण
यह खेल
अपने-आप में सम्पूर्ण है
समरसता है --
अगली चाल में सब नष्ट हो जाएगा।
इसे यहीं छोड़ देना उचित होगा।
इसे यहीं छोड़ दें ?
हाँ !
अपने आप में एक सम्पूर्ण क्षण --
इस अधूरे खेल से उत्पन्न हुआ है --
यह क्षण।
हर आकार उसी मूल आकार का
प्रतिरूप ही तो है।
 
देख नहीं पा रहा
प्रतिमा का जन्म कैसे होता है ?
इस
जगत
में
आकार
कैसे उत्पन्न होते हैं ?
मैं देख नहीं पा रहा हूँ !
छा रहे हैं बादल आकाश में।
मधुर संगीत कौन गा रहा है ?
कौन भटका रहा है मुझे ?
या फिर इंगित कर रहा हो --
असल पथ की ओर ?
 
नियम
मूल से धीरे-धीरे उठती है प्रतिमा।
आकार के नियमों का ज्ञान।
नियमों के ज्ञान से
तत्त्वबोध।
तत्त्वबोध से धारणा।
धारण से पवित्र गानों का बोध

जन-जीवन में
कथाओं व मिथकों का जन्म।
इन पवित्र ध्वनियों से
प्रतिमाओं का निर्माण होता है।
जो अन्ततः लौट जाती हैं अपनी मूल अवस्था की ओर।
पत्थर हाथ में बदलता है -- हाथ पथर में।
उसके ऊपर एक नन्हा-सा पौधा उग आता है।
 
मूल
प्रश्नः
रेखा क्या है ?
इसका भाव क्या है ?
उत्तरः
रेखा न्यास का आधार है।
यह एक नदी जैसी होती है।
कर्म की अनुभूति में
यह अधिभूत

अधिदैवत
जैसी होती है।
रेखाएँ
वृत्त
ऐसी
काटती हें
जैसे
ईश्वर
संसार
को
काटता है।
यह धरती हमें सहन करें !
तभी
आकाश की किरणें बादलों के पीछे से फूट पड़ती हैं।
शिल्पी के हाथ पर प्रकाश से बने रेखा-चित्र जन्म लेते हैं।
 
धरा
यह धरा कार्णिक-क्षेत्र है।
प्रकाश एक दायरे की तरह।
वर्ग समुद्र का संकेत हैं।
जिसको विभाजित किया है --
समान रूप से हवाओं की रेखाओं ने।
यह धरती हमें सहन करे !
चाँद की परछायी जो नदी में गतिमान है --
शिल्पी के ध्यान को नौ भागों में विभाजित करती है।
 
त्रिकोण
सीधा खड़ा
आग का त्रिकोण
और
नीचे झुका हुआ
जल का त्रिकोण
मिलते हैं --
अपने इस महान मिलन से
वे मानव को
दिव्यता प्रदान करते हैं।
और ऐसे घने संसार का निर्माण करते हैं।
जिसमें जल, अग्नि व वायु --
रेखाओं में रखे जाते हैं।
 
षट्कोण
षट्कोण देवों को आकर्षित करें
और
वह अपने वास्तविक भाव प्रकट करें।
बिन्दु व मरमन गुणा हों
आकार उत्पन्न हों --
प्राण वायु से भरपूर !
प्राण वायु से बने हुए आकार
अपने अन्दर पहाड़ जैसी ठोस वस्तु को रख सकते हैं।
आकाश से होता है वज्र प्रहार
पहाड़ के कुछ टुकड़े शिल्पी के सपने में आ पड़ते हैं।
 
रेखाएँ
रेखाएँ सूत्रों का पालन करें
और लयबद्ध हों।
सीधी अग्नि रेखाएँ
क्षैतिज जल रेखाएँ
विकर्ण वायु रेखाएँ
मिल कर
प्रतिमाओं के तरह-तरह की चरित्र विशेषताएँ
उकार लाती हैं।
श्रमिक का सख्त हाथ --
अपने द्वारा उकेरी प्रतिमा के कोमल हाथ को सहलाता है।
 
वर्षा व बीज
जैसे वर्षा
से तरह-तरह के बीज उत्पन्न होते हैं
वैसे ही रेखाएँ
तरह-तरह के आकारों को जन्म देती हैं।
बाधाओं की वर्षा से बचने के लिए
शिल्पी अपनी प्रतिभा के छाते के नीचे शरण लेता है।
बीज छाते से टकरा कर इधर-उधर छिटक कर
ऐसे आकारों का निर्माण करते हैं
जिस पर वह गर्व करता है।
 

एक समय की बात है
एक समय की बात है -- कोई एक जीवित वस्तु थी
जिसका कोई नाम न था।
उसके आकार का भी किसी को ज्ञान न था।
उसने अपने उसी आकार से आकाश और धरती को रोक लिया था।
यह देख देवों ने उसको पकड़ धरती पर पटक दिया था।
उसका चेहरा नीचे की तरफ था और देव उसको ऊपर से दबा रहे थे।
इसी अवस्था में वह सदैव पड़ा रहा।
तब ब्रह्मा ने
उसको पूर्ण किया
और
उसका नाम वास्तु-पुरुष रखा।
 
इच्छा
पत्थर को तरह-तरह के दूध से नहला कर
उसके रंग व घनेपन में आते परिवर्तन
को देख कर
शिल्पी
रासायनिक-सूत्र
बनाता है --
जैसे
ईश्वर
मानव
को
इच्छाओं
से
नहला कर।
 
रिक्त-स्थान
एक
योगी
के
लिए स्थान
एक मृगचर्म
की तरह होता है।
जब वह जाता है
तो
अपने संसार
को
लपेट
कर
अपने साथ ले जाता है।
 
आकाश-आकाश
आकाश
ही नाम

रूप
को
सिद्ध
करता
है।
 
आकाश
से आने वाले प्रकाश से नहीं
आकार
शिल्पी के मन की साधना से
उज्ज्वलित होता है।
 
आकाश
आकाश एक माप है।
पंजर व कोशट का निर्माण होता है --
जिसमें संसार को रखा जा सके
उसका निर्माण
वृत्त

रेखाओं
से हुआ है।
निर्गुण को सगुण
में बदलता है।
अव्यक्त को व्यक्त
में।
 
प्रतीत-प्रतीक-प्रतिमा
जब वास्तुकार ध्यान लगाता है
तो उसकी अन्तर-दृष्टि से ध्यानरूप उभरता है।
प्रतीत
प्रतीक
प्रतिमा
क्रमशः
यह तीन आवश्यक मूल हैं।
वह बिम्ब है --
प्रतीक --
उदाहरणतः
अँगूठे के आकार का।
शिल्पी अपना माथा पत्थर पर टिकाता है।
उसकी अँगूठी अँगूठे में नहीं है।
उसकी शिल्प-वर्तनी जो उसने पत्थरों की दीवारों पर उकेरी है।
उसकी अँगूठी में दर्पण है जिसमें वह अपना चेहरा देखता है --
बीज खोजता है।
 
आनन्द
प्रकृति
के रूप
उन लोगों
के
हृदय में उत्पन्न होते हैं
जो रचनात्मक
आवेग से ओत-प्रोत रहते हैं।
कमल का फूल शाम को बन्द होता है।
कहते हैं
उस रात शिल्पी के स्वप्न में एक मछली आयी थी।
 
रस
विभिन्न रेखाओं के
मिलन से उत्पन्न होते हैं।
रस।
क्षैतिज जल रेखाओं से --
तरलता व तृष्णा के रूप पैदा होते हैं,
उदास व निष्क्रियता के भी।
विकीर्ण रेखाओं से
उग्र व शक्तिशाली क्रुद्ध रूपों का निर्माण होता है।
सीधी रेखाओं से शक्ति रूपों का निर्माण होता है।
इस संसार में मन के कारण ही हम विभिन्न भावों को ग्रहण करते हैं।
शिल्पी के मन के दर्पण में --
परछाईं दिखती है।
अँगूठी रगड़ने से आकाश में बिजली चमकती है।
 
हमेशा उससे दस अंगुल ज़्यादा
पुरुष जिसके
सहस्त्र सिर हैं,
सहस्त्र आँखें,
सहस्त्र पाँव,
धरा को चारों ओर से घेरने का प्रयत्न करता है
पर
वह
है
हमेशा
उससे दस अंगुल ज़्यादा।
नीली रात में बर्फ़ का सफे़द पहाड़ चमकता है।
उभरता है
कौन ?
- सी राह पकड़े शिल्पी ?
 
पत्थर
अगर पत्थर पर स्वर्ण-रेखाएँ दिखें -
अरे यह तो ऐसी विकृति पैदा करेगा --
जिस पर ध्यान लगाते ही कल्पना बिखर जाए।
बहुत सख्त पत्थर --
ताँबे जैसा लाल रंग --
यह भी ठीक नहीं --
जब पत्थर पर धातु जैसे दाग हों, धुँए जैसा रंग हो --
यह पत्थर तो सबसे खोटा।
पत्थर की परतों के बीच अगर धातु की चमकती पीली रेखाएँ दिखें
तो उस पत्थर का त्याग कर।
पत्थर काटने पर अगर गोलाकार रेखाएँ दिखें
तो यह जीवन का सूचक हुआ।
बालूपत्थर अच्छा है !
अगर समूचा पत्थर एक ही रंग का है
तो वह सबसे उपयुक्त है।
अगर पत्थर इन रंगों में से एक है तो वह सबसे बेहतर है --
श्वेत-पùा के रंग जैसा- कबूतर के रंग जैसा व काले भँवरे के रंग जैसा।
ऐसा विचार कर शिल्पी मुड़ता है --
सामने एक चट्टान है -
- शिल्पी ध्यान से देखता है --
अरे !
यह चट्टान तो दिन में कई रंग बदले।

रूप
रूप का भाव आवश्यक है।
रूप से प्रेरणा उपजती है।
प्रेरणा से दिव्य-दृष्टि
जिसका कार्य भेदनविद्या है।
हे देवी, उठो! तुम कहाँ सोयी हो ?
मैं भयभीत हूँ।
क्या मैं
अक्षम को सक्षम में बदल सकता हूँ ?
हे देवी, शान्त हो
तुम नेत्र हो --
मुझे दृष्टि दो --
तुम आश्रय हो
मुझे आश्रय दो --
एक चट्टान का मुँह खुलता है--शिल्पी उसमें अपना आवास बनाता है।
शिल्पी के छैनी की मधुर आवाज़ समस्त ब्रह्माण्ड में गूँजने लगती है।
 
शिल्पी
शिल्पी प्रतिमाओं को गढ़ कर सिद्धी प्राप्त करता है।
दिव्य के साथ एकाकार हो जाने के लिए ?
सांसारिक लक्ष्यों
या
आत्मिक लक्ष्यों के लिए ?
शिल्पी रात को भी काम जारी रखता है।
उसकी मछली की परछायीं -- पानी में
मन के दर्पण में --
वह सीढ़ियाँ चढ़ता है बार-बार।
 
तत्व
हस्त-मुद्राएँ
प्रतिमा के भाव को उजागर करती हैं।
अस्त्र
प्रतिमा की शक्ति को प्रकट करते हैं।
वाहन
प्रतिमा के स्वभाव को उजागर करने का एक खास माध्यम है।
जब प्रतिमा के अंग ब्रह्मबिन्दु या मरमन पर आधारित होते हैं --
प्रतिमा की नाभी से --
प्रतिमा सुघड़ व सम्पूर्ण बनती है।
तब पत्थर में ईश्वर का वास होता है।
शिल्पी को सपना आता है -- उसकी छेनी पत्थर से टकराती है।
उसकी बनाई कन्दराएँ --
आकार
वह पूरा न होकर भी पूरा होगा और पूरा होकर भी अधूरा।
वहाँ गिरगिट का वास होगा।
पत्थर काटने पर गोलाकार रेखाएँ दिखेंगी।
 

निराकार से आकार
निराकार से उत्पन्न होता है आकार:
ध्वनि से लक्षण -
लक्षण से रूप --
रूप से भाव --
भाव से गुण -
गुण से क्रिया -
क्रिया से आचार -
आचार से उपाय -
उपाय से चेष्टा --
चेष्टा से मार्ग --
मार्ग से रूपण --
रूपण से प्रतिरूपण --
प्रतिरूपण से
प्रतिमा निर्माण
वह कलाकार जिसका सैद्धान्तिक ज्ञान उसके कौशल से ज़्यादा है उसकी कला समय के साथ ऐसे शिथिल पड़ जाती है जैसे कायर सिपाही युद्धभूमि पर। और वह कुशल शिल्पी जिसको सैद्धान्तिक ज्ञान नहीं है वह एक ऐसे अन्धो आदमी की तरह हो जाता है जिसे कोई भी रास्ता भटका दे।
बीज को अपने मन की गुफा में ही तलाशना होगा।
बीज उसके हाथ में गिरता है।
उसकी मुट्ठी बन्द होते ही --
पोखर में कमल का फूल खिलता है।
कोई फुसफुसाता है --
ईश्वर वहाँ वास करता है जहाँ नदियाँ हों, कुंज हो, पर्वत हों, चश्मे हों, बाग हों।

तन्मयता
जैसे
वर्षा से
अन्न पैदा
होता है उसी तरह ध्यान
से तन्मयता।
तन्मयता से
मनुष्य
दिव्य की ओर अग्रसर होता है।
शिल्पी पेड़ के नीचे सोता है।
आकाश में एक पक्षी उड़ता है।
शिल्पी उठ खड़ा होता है।
उसे प्रतीत होता है --
जैसे उसे आज्ञा मिल गयी हो ।
 
ज्ञान
प्रतिमा के आकार के निर्माण के लिए छह अंगों का ज्ञान आवश्यक है:
शैलम
खिलपंजर
मरमाणि
शैलभेदन
अंगप्रयोग
सम्बन्धप्रमोदन
जब
यह सोचता है वह --
थैला खोलता है।
सामान निकालता है
दायरा बनाता है --
दायरे में तरह-तरह के आकार जन्म लेते हैं
त्रिकोण-षटकोण में जो बदला।
वह दिशा-भ्रमित होता है --
फिर वह बुदबुदाता है:
शैलम
खिलपंजर
मरमाणि
शैलभेदन
अंगप्रयोग ....
 
पानी व पत्थर
शिल्पी आँखे मूँदता है --
स्मरण करो
कि अनुरेखन न करने से आकार बिगड़ जाता है।
इनको अनदेखा करने से प्रतिमा त्रुटिपूर्ण हो जाती है।
जैसे कि
समस्त ब्रह्माण्ड सूक्ष्म ब्रह्माण्ड में प्रतिबिम्बित होता है।
तत्वरेखाओं पर आधारित होने से रूप की आत्मा उजागर होती है --
उकेरी गयी प्रतिमा की भी।
शिल्पी आँखें खोलता है --
सामने
पत्थरों पर पानी के बहने की आवाज़ --
पानी पत्थरों पर निशान छोड़ता जाता है।
पानी व पत्थर धूप में चमकते हैं।
 
पत्थर का फूल
बिम्ब
के रूपों
से प्रतिमा
के अंगों
का जन्म होता है।
वृक्ष की जटाओं से पत्थर की मूरत झाँकती है।
उसके हाथ में पत्थर का फूल है।
पत्थर के हाथी पर पत्थर का शेर है।
पत्थर का कलश -- पत्थर की माला।
पत्थर का चुम्भन -
पत्थर के वाद्य-यन्त्र।
पत्थर के पक्षी
पत्थर के तोते -- पत्थर के कबूतर
पत्थर की मूरत के हाथ में पत्थर का फूल है।
पत्थर का भँवरा है।
पत्थर का रंग भी भँवरे जैसा है।
अरे यही पत्थर तो श्रेष्ठ है !
 
श्रेष्ठ
पाँच प्रकार के लोहे की छेनियाँ उत्तम मानी जाती हैं:
1. लांजी -
2. लांगली
3. गृढ़दन्ति
4. शूचिमुख
5. वज्र
वैसे ही यह शिष्य:
मैं तत्तपुरुष गांधार से।
मैं छड़योजात-कलिंग व मगध की श्रेणियों से।
मैं वामदेव काश्मीर के प्रमुख गणों में से एक
मैं भैरव -- दक्षिण के महान गुरूओं के कुल से --
जिनके आवास पहाड़ों की गुफाओं में है।
 
चेतना
धरती स्वयं दिव्य चेतना है --
छोटे से छोटे में भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड समाहित होता है।
हर किसी में हर कोई निहित है।
समस्त में समस्त निहित है।
प्रकाश व चेतना
वह मूल बिम्ब
जो
संसार के समस्त तत्त्वों में प्रतिबिम्बित होता है।
वह शिल्पी के मन में बैठा है।
किसी कस्तूरी मृग की तरह --
वह प्रकाश को ढूँढे।
पुशण के ज्वलंत पद-चिन्हों पर चलना आसान नहीं।
पहाड़ पर एक सोने की दिव्य भेड़ दिखती है।
उसकी चमक में शिल्पी को रात में राह दिखती है।
शिल्पी अचानक ठिठक कर रुक जाता है।
सामने चैराहे पर उसके औज़ार पड़े हैं --
और चार रास्ते।
पर उसको जाना कहाँ है ?
कौन सी दिशा है ?
कौन है वह ?
कौन है वो ?
जिसका आव्हान हुआ है ?
कौन है ?
कौन है ?

 

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