साहचर्य की वैकल्पिक सृष्टि मिथिलेश शरण चैबे
23-Mar-2022 12:00 AM 1214

जीवन की पुनरावृत्ति, भले ही कितनी खूबसूरती से की जाये; वह ‘गल्प’ होने को कमतर ही करती है। गल्प की आत्मा कल्पना ही होती है जिसका यथार्थाभास कराने के उद्यम में ही कई कथाओं का ‘गल्प’ मद्धिम पड़ जाता है। यह बात अचरजकारी है कि हम किसी को उसके मूल स्वभाव से कम, आरोपित व्याख्याओं से ज़्यादा जानते हैं और इस आरोपित को ही प्रतिमान मानकर विश्लेषण का कर्म भी चलता है। जिस जीवन से हम असन्तुष्ट हैं, उसी के अतिरेक में हम उन आकांक्षाओं को पाना चाहते हैं जिनमें असंतोष से विमुख कुछ तृप्तिदायक और औसतपन से ऊपर का अनुभव हो। इस प्रवृत्ति से आक्रान्त व्याख्याकारों ने पाठकों को भी दिग्भ्रमित करने का काम किया है। बड़ी प्रतिक्रियाओं से आकृष्ट होकर पढ़ने वालों से वे कृतियाँ दूर होती गईं जिनमें कल्पना की बड़ी उड़ान थी और जिन्हें पढ़कर कल्पना का कलात्मक आनन्द और जीवन के औसतपन का विलोम मिल सकता था।
आनन्द हर्षुल का उपन्यास ‘चिडि़या बहनों का भाई’ ऐसे ही कलात्मक आनन्द को देने वाला उपन्यास है जिसे रचा है कल्पना की बड़ी उड़ान ने। यह सिफऱ् मनुष्य की कथा नहीं है बल्कि मनुष्य की दुनिया को पूर्णता देने वाले और उसकी एकांगी वृत्ति की केन्द्रीयता को अपूर्णता का ठोस अहसास कराने वाले वे सभी हैं जो वास्तव में अन्य तो नहीं ही हैं। मनुष्य, पक्षी, जानवर, नदी, पहाड़, वृक्ष, ध्ारती, देवता आदि के साहचर्य का वृत्तान्त है यह जिसमें सभी की सक्रिय सहभागिता है। सत्रह वर्षीय भुलवा अपने बालविवाहित माँ-पिता की छठवी और बची हुई अकेली संतान है। पूर्व में जन्मी सभी पाँच बहनें अपने जन्म पर उत्पन्न नाख़ुशी और निरादर पाकर चिडि़यों में बदल चुकी हैं लेकिन वे विलग नहीं होती। भुलवा के नित्य कर्म मछली पकड़ने में व उन्हें उड़कर घर पहुँचाकर उसकी मदद करती हैं। लड़कियों के जन्म पर दुखी होने की सहज समाज प्रतिक्रिया के बरअक्स यह उनके होने और अपने लिए जगह बनाने की अद्भुत कल्पना है। भुलवा का गाँव चारों तरफ़ से पहाड़ों से घिरा था, तीन तरफ़ के पहाड़ों को उसके एक पराक्रमी पुरखे परसन ने हटाकर गाँव में सूर्य, चन्द्र और तारों को साकार किया था। भुलवा का घर उसके अभावों को छुपा लेने का जतन करता है और दरवाज़ा छोटों के लिए विनम्र व बड़ों के अहंकार को झुकाने वाला व्यवहार कर अपना जीवन्त व संवेदनशील होना जताता है।
भुलवा व विराजो का प्रेम, रात को एक-दूसरे को देखने की संकेत युक्ति, मिलन की आतुरता का सुन्दर वर्णन मिलता है। एक बार घटित हुए सम्पूर्ण मिलन के ऐन्द्रिय दृश्य, मिरचुक भूत का प्रभाव व चन्द्रमा का मुग्ध्ा अभिसार किसी भी तरह की विश्वसनीयता की दरकार नहीं रखता। विराजो के अन्यत्र विवाहित होने पर भुलवा का विरह व्यथित होकर गाँव छोड़, पहाड़ चढ़कर ठीक उस दुनिया में पहुँचना जहाँ कभी पूर्वज परसन गए थे, एक और पराक्रम भरी यात्रा है। परसन ने इक्कीस दिन में इक्कीस रोटियों के सहारे पहाड़ के ऊपर की दुनियाँ देखी थीं जहाँ वे नीले शेर में बदल गए थे। बाद में पहाड़ से उतरकर ध्ाीरे-ध्ाीरे मनुष्य में रूपान्तरित हुए परसन की अगुवाई में गाँव वालों ने तीनों पहाड़ों को चढ़ा था और उन्हें नष्ट कर दिया था, चैथा पहाड़ स्वयं ही छोटा हो गया था। अब भुलवा से भी कुछ होना है जिसने बगैर किसी इन्तजाम के पहाड़ चढ़ना शुरू किया था लेकिन तमाम फलदार वृक्षों ने असमय ही फल देकर उसकी मदद की थी। ऐसी ही मदद पहाड़ के ऊपर सोनई व रुपई तालाबों ने शीतलता व तृप्ति तथा आम के पेड़ ने रसभरे आम देकर की। यह सारा वृत्तान्त प्रकृति व मनुष्य को एकमेक कर देता है। पहाड़ पर शंकर देवता भूत पिशाचों के संग नृत्य करते हैं जिसे छुपकर भुलवा देखता है और पकड़ा जाता है। भूत-पिशाचों की मुक्ति के लिए सम्पूर्णता से ‘नाचा’ ही एकमात्र युक्ति है। जब शंकर के समक्ष भुलवा को पेश किया जाता है तो शंकर भुलवा से तुरन्त ही नाचा का अभ्यास करने के लिए कहते हैं और ऐसा करने की वजह स्वरूप राजा राउत और राजा विरज की मैत्री का एक किस्सा सुनाते हैं जिसके वे स्वयं एक चरित्र हैं। इस किस्से में राजा राउत के पुत्र अछरिया और राजा विरज की पुत्री चतुरा के विवाह की प्रक्रिया का, एक ब्राह्मण के माध्यम से, जो तोता बनने की शक्ति रखता है, रोचक वर्णन है। इस कथा में नाचा को चरितार्थ करने का विचार मुख्य रूप से है। वह अध्ाूरा रह गया था जिसके लिए ग्यारह बार अछरिया और चतुरा ने जन्म लिया और शंकर के अनुसार अबकी बार भुलवा और विराजो के रूप में। भुलवा का गाँव छोड़, पहाड़ ऊपर की दुनिया में पहुँचने तथा शंकर से सम्वाद व नाचा अभ्यास करने अवध्ाि लम्बी है। इध्ार गाँव में माँ-पिता, लौटकर वापस आई विराजो सहित उसकी पाँचों चिडि़याँ बहनें भुलवा की अनुपस्थिति से अत्यन्त व्याकुल रहती हैं। उसकी पाँचों बहनें किंचित आभास और व्यापक अनुमान लगाकर पहाड़ को पार करने के लिए उड़ान भरती हैं। पहाड़ के ऊपर उगे हुए पेड़ असमय रसीले फल देकर पाँचों को तृप्त करते हैं। वे पता लगाते हुए सोनई-रुपई, आम के पेड़ आदि से मदद पाकर भुलवा के पास पहुँचती हैं। भुलवा तथा चिडि़या बहनें वापस गाँव लौटना चाहते हैं। शंकर भुलवा को विराजो व चिडि़या बहनों के संग पृथ्वी पर नाचा को अपना कर्म बनाने के लिए कहते हैं। भुलवा शंकर से बहनों के मनुष्य रूप में बदलने का निवेदन करता है। शंकर भुलवा के आग्रह-अनुरोध्ा पर पाँचों बहनों के मनुष्य रूप में रूपान्तरित होने का वरदान देते हैं लेकिन स्त्री-पुरुष रूप में नहीं, तृतीय लिंग वृहन्नला के रूप में। सभी पहाड़ से ध्ारती पर अपने गाँव आते हैं। गाँव में ‘सभी ने पहली बार देखा है पक्षियों को मनुष्य बनते।’
गाँव के स्त्री जीवन की नियति के मार्मिक और दारुण दृश्य सहज ही यहाँ मिलते हैं। एक तरफ पुरुष से समानता की नाउम्मीदी और दूसरी तरफ कठिनाइयों की अध्ािकतम जवाबदेही के साथ घिसटती भुलवा की माँ का चरित्र स्त्री इच्छा की दुव्र्याख्या को प्रकट करता हैः
”कमरे में देह रहती थी पति की हर रात। हर रात उसकी भी देह रहती थी। रहती थी एक चुप देह उसकी। उसकी देह के कहने पर कमरे में नहीं होती थी कोई आवाज़। कमरे में कुछ घटता नहीं था उसकी देह के कहने पर। घटता था सब कुछ पति के चाहने पर। पति के चाहने पर हो रहा था सब कुछ। एक बार भुलवा की माँ ने अपनी ओर पीठ किये पति की बाँह पकड़कर खींचा अपनी ओर तो पति ने कहा- वेश्या मत बन...
उस दिन से भुलवा की माँ देह की इच्छा को देह के भीतर दबाकर रखना सीख गयी है। सीख गयी है कि पति अपनी स्त्री के साथ सोना चाहे तो वह पति का अध्ािकार है। प्रेम है पति का। पर अगर पत्नी सोना चाहे तो इतनी बड़ी निर्लज्जता है कि जैसे वह पति के साथ नहीं, कई पुरुषों के साथ सोना चाह रही हो...“
भुलवा की पहली बहन के जन्म पर यह पुरुष प्रतिक्रिया का दृश्य भी कितना दारुण है-
”लड़की पैदा होने की बात सुन भुलवा के बाबू के चेहरे पर बादल उतर आये। चेहरे की ध्ाूप गायब हो गयी। अचानक उसका चेहरा काला पड़ गया।
भुलवा का बाबू अपनी बेटी को देखने जचगी वाले कमरे में गया ही नहीं है।
बेटी बाप का इन्तजार करती रह गयी है। अठारह साल से भी कुछ माह छोटे इस पिता बने लड़के में लड़का पैदा करने की यह आदिम इच्छा कहाँ से आई है ?“
भुलवा की केन्द्रीय कथा के साथ ही उपन्यास में सोनई व रुपई जुड़वा बहनों का किस्सा, अपने सौन्दर्य के कारण जिन्हें तालाबों में रूपान्तरित होना पड़ता है तथा घसियारे से सम्बद्ध वृहत मनुष्य, देवता व अन्न की उत्पत्ति का किस्सा गल्प का आनन्द तो देते ही हैं जीवन के उन सूक्ष्म अभिप्रायों को भी टटोलते हैं जो अब हमारी दृष्टि से ओझल ही हैं।
इस उपन्यास में सजीव-निर्जीव का भेद पूरी तरह विलीन है। पक्षियों से, मछलियों से तो सहज सम्वाद है ही, सब्जियों से, वृक्षों से, पहाड़ से, नदियों से, मछली की हड्डियों से, दरवाज़े व घर से भी बिना किसी व्यवध्ाान के बातचीत मिलती है। देवता से भी समान स्तर पर सम्वाद है। अभिव्यक्ति के लिए ‘स्वरूप’ कोई बाध्ाा नहीं है। मनुष्यों की परस्पर बातचीत से ज़्यादा यहाँ मनुष्य के अन्य जीवन उपस्थितियों से बोलने के दृश्य हैं। यहाँ सभी अपनी स्वभाविकता के प्रतीक रूप में आये हैं। चिडि़या, नीले शेर, तोता, बृहन्नला, बृहत पुरुष और देवता तक हम मनुष्य स्वभाव के विविध्ा आयामों को देख सकते हैं।
उपन्यास की कथा, कथा-भाषा, कल्पना पर विचार करते हुए एक दृश्य में आये शंकर देवता की उक्ति को उद्धृत करना अर्थपूर्ण लगता है-
”ब्राह्मण की पोथी में मेरी एक कथा थी। कथा पूरे उड़ान पर थी। कल्पना की उड़ान। हर ब्राह्मण एक नयी पोथी रच रहा है। रच रहा है एक नया शंकर। हर ब्राह्मण यह कह रहा है कि उसकी ही कथा सबसे सच्ची है।“
यह उपन्यास भी एक नयी कथा है, पूरे उड़ान पर, कल्पना की उड़ान। जिसमें जीवन हिस्से में आते दुखों का ठोस एहसास है, किसी के लिए नियति की तरह अविकल्प तो किसी के लिए विमुख होकर ठेलने की कवायद की तरह है। लेकिन कोई भी चरित्र दुःख से इतना अतिक्रमित नहीं कि जीवन सौन्दर्य से ही विमुख हो। सभी जैसे अपने यथार्थ के विरुद्ध यत्नशील हैं और सभी में पारस्परिकता एक अनिवार्य सूत्र है। सिफऱ् मनुष्य को ही नहीं, देवता को भी मनुष्य की ज़रूरत, वृक्ष-नदियों-पहाड़ और पक्षियों के साहचर्य की दरकार है। हर अस्तित्त्व दूसरे से सघन रूप से सम्बद्ध है। इसे पढ़कर हम यह भी अनुभव करते हैं कि शारीरिक शक्ति और पराक्रम भौतिक बदलाव ला सकते हैं, भौतिक रूपान्तरण में त्रुटियाँ भी आ जाती हैं लेकिन निश्छल भावनात्मक लगाव स्थायी और त्रुटिमुक्त बदलाव लाते हैं। ऐसे बदलाव में देर तो लगती है लेकिन समस्त मानवीय-दैवीय-मानवेतर शक्तियाँ इसी के लिए एकमेक होती हैं।
निपट गद्य से मुक्त काव्यात्मक और सूक्तिपरक भाषा ने इसे पठनीयता के स्तर पर समृद्ध किया है और लम्बे कथाकाल व अनेक किस्सों के मध्य आवाजाही को सुगमता दी है। यहाँ आवाजाही ‘स्वरूप’ के स्तर पर भी है। यह उपन्यास एक ऐसे ‘स्पेस’ को रचता है, सम्बन्ध्ाों और साहचर्य की एक वैकल्पिक सृष्टि को साकार करता है, जो अमूर्त में तो निरन्तर है, भले ही उसे हम अनुभव न कर पाते हों। यह हमारे सम्मुख बहुत सारे ऐसे अभिप्रायों को उजागर कर देता है, जिन्हें हम ‘मनुष्य केन्द्रीयता’ के आलोक में अलक्षित करते हैं। ऐसे ही अलक्षित संसार का अनुभव करने, यह उपन्यास पढ़ा जाना चाहिए।
चिडि़या बहनों का भाई
आनन्द हर्षुल
राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली
450@ रुपये

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