सैयद हैदर रज़ा एक अप्रतिम कलाकार की यात्रा’ यशोध्ारा डालमिया अंग्रेज़ी से अनुवाद - मदन सोनी
20-Jun-2021 12:00 AM 1750

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सन्तृप्ति का दौर
रज़ा को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता भले ही मिलने लगी थी, लेकिन उनकी जि़न्दगी के सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू की ओर अभी ध्यान नहीं दिया गया था। फ़ातिमा के साथ उनका विवाह निराशाजनक रहा था। पहली बात तो यह थी कि उनसे मिलना मुश्किल था क्योंकि वे विभाजन के बाद पाकिस्तान चली गयी थीं और इतनी लम्बी दूरी का रिश्ता बनाये रखना मुमकिन नहीं था। लेकिन इससे भी बड़ी मुश्किल यह थी कि जब वे उनके साथ हिन्दुस्तान में रह रहे थे तब भी उनके बीच असामंजस्य की वजह से इस रिश्ते में कड़ुआहट पैदा हो चुकी थी। कला के प्रति रज़ा के उत्कट लगाव को फ़ातिमा कभी नहीं समझ सकीं और न इस बात को कि रज़ा अपने चित्रों के साथ घण्टों वक़्त क्यों बिताते थे। शायद उन्हें यह अच्छा लगता कि वे कोई नियमित नौकरी करते और स्थायी वेतन लेकर घर आते। जो भी हो, कला उनकी दिलचस्पी का क्षेत्र नहीं था और वे उनके साथ उस स्तर पर रिश्ता नहीं बना सकती थीं।
रज़ा के मुताबिक़, ‘चित्रकार के रूप में मैं अपने काम में पूरी उत्कटता के साथ लगा था और उसके लिए मेरी महत्त्वाकांक्षाओं को समझ पाना मुश्किल था। वह अपने परिवार के साथ बहुत गहरा लगाव रखती थीं जो विभाजन के बाद पाकिस्तान चला गया था और वह उनके पास वहाँ चली गयीं। मेरी जड़ें हिन्दुस्तान में गहरे फैली हुई थीं जहाँ मेरी परवाह करने वाले, मेरी ओर ध्यान देने वाले और मुझे स्नेह करने वाले अध्यापक, दोस्त और सहकर्मी थे।’1
’ अभी हाल, 2021 में यशोध्ारा डालमिया की नयी कि़ताब, श्ैंलमक भ्ंपकमत त्ं्रंए ज्ीम श्रवनतदमल व िंद प्बवदपब ।तजपेजश् प्रकाशित हुई है। यहाँ हम उसके दो अध्याय प्रकाशित कर रहे हैं।
इस अवध्ाि में रज़ा के भाई अक्सर रज़ा से अनुरोध्ा करते रहते थे कि वे फ़ातिमा को पेरिस बुला लें। वे अपने ख़तों में उन्हें लिखा करते थे कि फ़ातिमा बुरी स्थिति में हैं और उन्हेें उनके प्रति दया दिखानी चाहिए। उनकी मौसी, फ़ातिमा की माँ तक ने उन्हेें आगाह करते हुए लिखा था, ‘हैदर मियाँ, सलाम। देखो, होशियार रहना। मैं तुम्हारे कुनबे में सबसे बड़ी हूँ और मेरी इज़्ज़त करना ज़रूरी है। तुम्हें मेरी बददुआओं की नहीं, दुआओं की ज़रूरत है। मुझे लगता है कि तुम जो झूठी बातें मुझे लिखते रहे हो वे इसलिए लिखते रहे हो क्योंकि तुम ग़लत लोगों के बहकावे में आ गये हो...। अब मैं यह तुम्हें इसलिए लिख रही हूँ कि तुम आकर अपनी बीवी को ले जाओ। तुमने उससे कभी न ख़त्म होने वाले प्यार का वादा किया था और उसके साथ शादी की थी और कहा था अगर मैं, तुम्हारी मौसी, तुम्हें उसके साथ शादी नहीं करने दूँगी, तो तुम अपनी जान दे दोगे...। उन दिनों को याद करो जब तुम बगल में कि़ताबें दबाकर स्कूल जाते थे। तुम उसके साथ अपने इश्क़ को लेकर ढेरों बातें बनाया करते थे। तुम या तो इश्क़ में दीवाने थे या दीवानगी का दिखावा करते थे...। मैं तुम्हें आगाह कर रही हूँ कि होशियार रहना नहीं तो मैं वहाँ आकर तुम्हें ऐसा सबक़ सिखाऊँगी कि तुम जि़न्दगी भर याद रखोगे। मैं अब तक ख़ामोश रही हूँ लेकिन अब मेरा पारा चढ़ चुका है...। मेरी बेटी के लिए अच्छे ख़ानदानों से शादी की पेशकशें की गयी हैं। वे उससे मिलते हैं और उसकी खूबसूरती और शराफ़त को पसन्द कर अपने खानदान में उसकी शादी करना चाहते हैं। लेकिन तुम्हारी बीवी राज़ी नहीं होती...’2
उनकी मौसी का इशारा था कि रज़ा, बहुत कुछ अपने पिता की ही तरह, ग़लत किस्म के लोगों की संगत में फँसे हुए थे, ‘उस शैतान से सतर्क रहना जो यूरोप पहुँचकर तुम्हें मेरी बेटी की जि़न्दगी तबाह करने के लिए भड़का रहा है...। तुम्हारे पिता ने भी अपने भाई की ग़लत सलाह मानी थी और दुबारा शादी करके, मेरी बहन की जि़न्दगी में बदअमनी पैदा कर दी थी।’3 उन्होंने तुरुप का पत्ता चलते हुए अपना ख़त समाप्त किया था, ‘अगर तुम मेरे ख़त का तमीज़-से जवाब नहीं देते, तो मैं अपनी बेटी की नुमाइन्दगी करते हुए फ्ऱांस आऊँगी और कोई अच्छा वकील करके राष्ट्रपति द गाॅल के सामने गुहार लगाऊँगी...।4
रज़ा, इन अनिष्टसूचक पत्रों के बावजूद, फ़ातिमा को तलाक़ देने के अपने निश्चय पर अडिग बने रहे क्योंकि उनके इस वैवाहिक रिश्ते से एक अनिवार्य चीज़, हमख़याली, सिरे से नदारद थी। समय के गुज़रने के साथ जैसे-जैसे जानीन के साथ उनका रिश्ता मज़बूत होता गया, वैसे-वैसे रज़ा को लगने लगा कि उनका मौजूदा वैवाहिक जीवन उन्हें सुखी नहीं बना पाएगा। उन्होंने अपने छोटे भाई हसन इमाम को लिखा, ‘मैं इस शादी को ख़त्म करना चाहता हूँ और मैं इसे करके रहूँगा। हैदराबाद पाकिस्तान, से आने वाला हर ख़त मुझे यकीन दिलाता है कि मैं सही हूँ और इनमें फ़ातिमा का वह ख़त भी शामिल है जिसका जवाब देने की मेरी कोई इच्छा नहीं है...। मैंने कभी यह चाहा था कि मेरी बीवी मेरी जि़न्दगी में साझा करेगी, काम करने की मेरी एक योजना थी, एक ऐसी कार्य-योजना जो हर आदमी का हक़ है। उसका कर्तव्य था कि वह आती और मेरे साथ उसमें हाथ बँटाती। मैंने उसके आने के ख़र्च के एक हिस्से का इन्तज़ाम भी किया था और उसके साथ अपने मतभेदों के बावजूद मैंने उससे आने को, और मेरे संघर्ष में शामिल होने को कहा था। जवाब में मुझे सिफऱ् बेवक़ूफ़ी से भरे ख़त, बकवास, गाली-गलौज और अपमान और ध्ामकियाँ ही मिले। मैंने फैसला कर लिया है। अब मुझे कोई परवाह नहीं है। मैंने इस शादी को ख़त्म करने का निश्चय कर लिया है और अगर ज़रूरी हुआ तो मैं लोगों के सामने और खुदा के सामने अपने इस रवैये का बचाव करने को भी तैयार हूँ...। मेरी बीवी ने लगातार मेरे काम में बाध्ाा डाली है। अब दुनिया की कोई भी ताक़त उसे मेरे जीवन में वापस नहीं ला सकती...’5
लेकिन, जानीन के साथ अपने रिश्ते को जारी रखने और उनके साथ विवाह करने के लिए, उन्हें तलाक़ से निपटना ज़रूरी था जो आसान नहीं था। जैसाकि उन्होंने अपने प्रिय मित्र राजेश रावत को लिखा था,
मैं जानीन के माता-पिता से मिला था। उन्हें मेरी स्थिति की जानकारी है। उनका रुख़ उम्मीद के विपरीत बहुत सहानुभूतिशील रहा है। उन्हें कोई बुनियादी आपत्ति नहीं है, लेकिन मुझे तलाक़ की कोशिश करनी होगी। उनको इस समस्या के सारे पहलुओं की जानकारी नहीं है न ही उन्हें यह मालूम है कि वह घर आती रही है। वे मुझे आठवीं बार डिनर पर बुला चुके हैं, कई बार अपने घर पर और कई बार वे उन प्रदर्शनियों में आये हैं जिनमें मैं शामिल रहा हूँ। वे खुश लगते हैं। लेकिन मुझे जल्दी करनी होगी। फ़ातिमा और उसके घर के लोग अच्छी तरह से जान चुके हैं कि मेरे नज़रिया बदलने वाले नहीं हैं। मैं तो दो साल के भीतर मेह्र देने तक की पेशकश कर चुका हूँ। बहरहाल, मैं कुछ समय और इन्तज़ार करूँगा। जून में हमें अलग हुए सात साल हो जाएँगे। उन्होेंने मेरे आखि़री ख़त का जवाब अभी तक नहीं दिया है, हालाँकि हुसैन फ़ातिमा की माँ, का सबसे ताज़ा अल्टीमेटम आठ मार्च का था।6
विवाह
1959 तक रज़ा फ़ातिमा को तलाक़ देने और जानीन से शादी करने की तैयारी कर चुके थे। जैसाकि उन्होंने अपने क़रीबी दोस्त राजेश रावत को लिखा था, ‘मैं एक स्टुडियो की बेन्तिहा तलाश में हूँ। जानीन एक फ़रिश्ता और काॅमरेड रही है। मैंने भी उसपर अच्छा प्रभाव डाला है। उसे बू आख़ (फाइन आर्ट्स) से तीन मैडल मिल चुके हैं और दो यात्रा छात्रवृत्तियाँ प्राप्त हो चुकी हैं, और सालभर के भीतर वह पन्द्रह प्रतियोगिताएँ पास कर चुकी है। फ़स्ग़ा का डिप्लोमा हासिल करने के लिए उसे अब सिफऱ् तीन और परीक्षाएँ पास करना बाक़ी है। मैंने फ़ातिमा को तलाक़ के लिए मनाने को बहुत ज़ोर देकर ख़त लिखे हैं। महीना भर हो चुका है लेकिन मुझे कोई जवाब नहीं मिला। यह बड़ी समस्या है, लेकिन जल्दबाज़ी करने का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि मैं समझता हूँ कुछ तो क़ीमत चुकानी ही पड़ेगी और इसके लिए मुझे कुछ और समय की ज़रूरत होगी।’7
रज़ा और जानीन उत्तरोत्तर क़रीब आते जा रहे थे। उन्होंने राजेश को लिखा था, ‘जानीन बहुत अच्छी है। उसने भी बहुत-सा अच्छा काम किया है। मैं उसके परिवार से नियमित रूप से मिलता हूँ। उन्होंने मुझे मंजूर कर लिया है। मेरी कोशिश इस स्थिति को जारी रखने की है और उम्मीद है कि और अध्ािक ठोस क़दम उठाने में अब ज़्यादा समय नहीं लगेगा।’8 छात्र के रूप में रज़ा से मिलते ही उनकी जिस चीज़ पर जानीन को प्यार आ गया था, वह उन्हीं के शब्दों में यह थी कि ‘जहाँ वे कार्डबोर्ड पर चित्रण कर सकती थीं, वहीं वे विंसर एण्ड न्यूटन के सबसे अच्छे रंगों को चुनकर कैनवस पर काम कर रहे थे- लेकिन उनके मोज़ों में छेद-ही-छेद थे! यह वह आदमी था जिसे अपने पहनावे से ज़्यादा अपने काम की परवाह थी।’9
जनवरी 1959 में रज़ा मई तक ठहरने के इरादे से बम्बई आये। वे यहाँ नेपियन सी रोड पर रुडोल्फ़ वाॅन लायडन के साथ उनके अपार्टमेण्ट में ठहरे और उन्होंने विज्ञापन-जगत के प्रमुख तथा नगर के एक प्रभावशाली व्यक्ति अयाज़ पीरभाॅय से तलाक़ के सिलसिले में मदद माँगी। अयाज़ राज़ी हो गये, और अकबर पदमसी से अनुरोध्ा किया गया कि वे गवाह के तौर पर यह कहें कि फ़ातिमा इसलिए उपस्थित नहीं हो सकी हैं क्योंकि उनका मासिक ध्ार्म चल रहा है। अकबर के मुताबिक़, वे गवाही देने को तैयार हो गये लेकिन उन्होंने वह बयान देने से इंकार कर दिया, ‘उन्होंने (अयाज़) कहा था, ‘आप इतना भर कह दीजिए कि उसके पीरियड चल रहे हैं या इसी तरह की कोई मूर्खतापूर्ण बात।’ मैंने कहा, ‘रज़ा की ख़ातिर भी नहीं।’ जब वे चले गये, तो उनकी, पीरभाॅय की, पत्नी ने कहा, ‘इस बैठक में एक ही भला आदमी था और वह आप थे।’10 अन्त में, 28 फ़रवरी को शाम 6 बजे तलाक़ सम्पन्न हुआ जिसमें मौलाना सैयद अब्दुल हमीद और मौलाना नाजि़र हुसैन गवाह के रूप में मौजूद थे। तलाक़ के दस्तावेजों में कहा गया था कि इमामिया इस्ना अशरी सम्प्रदाय के उसूलों के मुताबिक़ सैयद हैदर रज़ा और मुख़्तार फ़ातिमा के बीच तलाक़ सम्पन्न हुआ। 9,000 पाकिस्तानी रुपये मेह्र के रूप में और 450 रुपये 28 फरवरी से 10 जून 1959 के बीच के समय की इद्दत (मुसलमान औरत द्वारा तलाक़ और पुनर्विवाह के बीच बितायी गयी अवध्ाि के गुज़ारे की राशि) के रूप में न्यूयार्क की वित्तीय संस्थान की माफऱ्त भेज दिये गये। इसी के साथ रज़ा का उनकी पिछली पत्नी के साथ तलाक़ हो गया और इसके बाद फ़ातिमा का क्या हुआ, इसकी कोई ख़ास जानकारी नहीं मिलती।
रज़ा और जानीन का विवाह 3 सितम्बर 1959 को पेरिस में क़ानूनी ढंग से सम्पन्न हुआ। फि़ल्म-निर्माता और कलाकार जहाँगीर (ज़्याँ) भाउनागेरी अपनी नयी मर्सडीज कार में इस नवविवाहित जोड़े को विवाह-स्थल से ले गये। हालाँकि रज़ा गिरजाघर में ईसाई रीति से विवाह करना चाहते थे, लेकिन चूँकि उनका बपतिस्मा नहीं हुआ था, यह मुमकिन नहीं था। वे हिन्दू और इस्लामी फ़लसफ़ों से तो भलीभाँति परिचित थे ही, उन्होंने पेरिस में रहते हुए ईसाई चिन्तन को भी आत्मसात कर लिया था और उनके ऐसे कई कैथोलिक दोस्त थे जिन्हें इस मज़हब के नियमों और विश्वासों की जानकारी थी। विशेष रूप से ज़्याँ द्युशेन के साथ उनका क़रीबी रिश्ता था, जो कैथोलिक पत्रिका कम्युनियो के सम्पादक थे। रज़ा ने कहा था, ‘मैंने ईसाई चिन्तन और मज़हब के बारे में पढ़ा जिसने मुझे गहरे प्रभावित किया। मैंने पुस्तकें पढ़ीं, गिरजाघर गया, मास में शामिल हुआ, और मैंने उस ईसाई आस्था की विशालता का अध्ययन करने की कोशिश की जिसमें उदारता, उपकार, करुणा, क्षमा और ऐसे ही अन्य मूल्यों का सबसे ज़्यादा महत्त्व है। हिन्दू ध्ार्म, इस्लाम और ईसाइयत का अध्ययन करते हुए मैंने पाया कि ये महान मज़हब अपनी उन बुनियादी अवध्ाारणाओं में एक-दूसरे के कितने क़रीब हैं जिन्हें दुर्भाग्य से लोग ग़लत समझे बैठे हैं, और मज़हब, जिसे जोड़ने वाली शक्ति होना चाहिए, विवाद और झगड़े का विषय बन जाता है।’11
भारतीय-फ्ऱांसीसी युगल
ऐसा माना जाता है कि जानीन के माता-पिता, जो समाज के ऊँचे तबक़े से सम्बन्ध्ा रखते थे, इस बात से बहुत खुश नहीं थे कि उनकी एकमात्र सन्तान ने विवाह के लिए न सिफऱ् एक कलाकार को बल्कि एक हिन्दुस्तानी को चुना था। लेकिन वे इतने अक़्लमन्द थे कि उन्होंने इस शादी का विरोध्ा न करना ही ठीक समझा। इस कलाकार-युगल के एक क़रीबी दोस्त ज़्याँ द्युशेन के मुताबिक़, ‘मैं उस समय वहाँ नहीं था। पीछे मुड़कर देखने पर मैं कह सकता हूँ कि उन्हें निश्चय ही झटका लगा होगा और वे दुखी और निराश हुए होंगे- वहीं, इसी के साथ-साथ, फ्ऱांसीसी बूर्ज्वा होने के नाते उनमें इतनी उदारता तो थी ही कि वे यह समझ सकते कि फ्ऱांसीसी शिक्षा ने उन्हें यही सिखाया है- जब आप मोलियर के नाटक पढ़ते हैं, तो आप पाते हैं कि माता-पिता का अपने बच्चों के किसी ग़लत व्यक्ति से विवाह का विरोध्ा व्यर्थ और ख़तरनाक होता है। यह फ्ऱांस की प्राचीन परम्परा के उदारतावाद का आध्ाारभूत पक्ष है।’12
रईसा पदमसी के मुताबिक़, उस समय के प्रचलित फ्ऱांसीसी नज़रिये से देखें तो, फ्ऱांसीसी अभिभावक अपनी बेटी के लिए जिस तरह के दूल्हे की कल्पना करते थे, रज़ा उससे बहुत भिन्न रहे होंगे, ‘मैं आपसे अभिभावकों की बात कर रही थी- वे बहुत सहानुभूतिशील थे। क्योंकि उस ज़माने में किसी फ्ऱांसीसी पिता को यह स्वीकार करना बहुत मुश्किल था कि उसकी बेटी किसी हिन्दुस्तानी मुसलमान से शादी करती। और मैं समझती हूँ कि रज़ा ने उनके पिता से मिलने और उनका हाथ माँगने का अनुरोध्ा करने से पहले लम्बे समय तक इन्तज़ार किया था।’13
जानीन के पिता रेल-विभाग के एक बड़े अध्ािकारी थे और रेल की लाइनें तैयार करने की जि़म्मेदारी सँभालते थे, क्योंकि वे इंजीनियर थे। उन्हें अच्छा वेतन मिलता था और उन्हें यह अच्छा लगा होता कि उनकी बेटी किसी ऐसे व्यक्ति से विवाह करती जिसका कोई नियमित रोज़गार होता और जो उनके समाज का सदस्य होता। द्युशेन के मुताबिक़, ‘उनके पिता का व्यक्तित्व निश्चय ही प्रभावशाली था जिसके सामने जानीन की माँ, फीकी पड़ जाती थीं। वे निश्चय ही ज़्यादा कोमल स्वभाव की थीं ... रज़ा और उनके श्वसुर के बीच विराट खाई थी।’14 कला-इतिहासकार और रज़ा-दम्पति के क़रीबी दोस्त मीशेल अम्बेख़ के मुताबिक़, ‘जानीन की माँ बहुत सुरुचि-सम्पन्न थीं। पेरिस में रज़ा के मकान का सारा फ़र्नीचर- 17वीं सदी का फ़र्नीचर- जानीन की माँ के यहाँ से आया था।’15 मीशेल का यह भी कहना था कि जानीन की माँ ने ही बहुत-सी चीज़ों का भुगतान किया था, ‘वे बहुत सम्पन्न महिला थीं। उन्होंने अपार्टमेण्ट का, कार का भुगतान किया था, हर चीज़ जानीन की माँ से मिली थी।’16
जहाँ तक जानीन और रज़ा के रिश्ते का सवाल था, द्युशेन का कहना था कि ‘वे एक आदर्श दम्पति थे। मैं समझता हूँ कि इसका तो कोई सवाल ही नहीं था कि दोनों अपने-अपने अलग रास्ते पर जाते। उन्हें साथ रहना ज़रूरी था। जानीन ने रज़ा के लिए हिन्दुस्तानी खाना बनाना सीख लिया था। वे उन्हें संक्षेप में र कहकर पुकारती थीं...। उनके काम अलग-अलग थे। वे उनके काम में दख़ल नहीं देती थीं, वे उनके काम में दख़ल नहीं देते थे। मैं नहीं जानता कि आपने जानीन का ज़्यादा काम देखा है या नहीं- लेकिन उनमें बहुत ज़्यादा बदलाव आ गये थे। उनमें खुद को नया बना लेने की क़ाबिलियत थी क्योंकि सब कुछ उस सामग्री पर निर्भर करता था जिसका वे इस्तेमाल किया करती थीं। जानीन ने भौतिक सामग्री के साथ शुरुआत की थी, जबकि रज़ा ने स्पष्ट तौर पर हिन्दू विश्व-दृष्टि के साथ शुरुआत की थी। इस तरह, मैं कहूँगा कि वे विपरीत दिशाओं में काम कर रहे थे।’17
लेकिन, द्युशेन के मुताबिक़, ‘वे एक-दूसरे को प्रोत्साहित करते थे, बिना किसी शर्त के...। जब जानीन की कोई प्रदर्शनी होती थी, तो रज़ा वहाँ होते थे और उनकी प्रदर्शनी से बहुत खुश होते थे, इसी तरह जब रज़ा की प्रदर्शनी होती थी तो वे वहाँ मौजूद होती थीं। वे उनके साथ अमेरिका आयी थीं- वे साथ-साथ गये थे। वे रोज़मर्रा जीवन में वाकई कन्ध्ो-से-कन्ध्ाा मिलाकर काम करते थे- वे एक-दूसरे से बहुत गहरे जुड़े हुए थे, लेकिन वे एक-दूसरे में विलीन हो जाने वाले युगल नहीं थे।’18 रज़ा और जानीन भिन्न थे और पृथक थे, और तब भी उनके बीच सामंजस्य था।
द्युशेन ने लिखा था, ‘हाँ, वे दोनों बहुत प्रभावशाली व्यक्ति थे। जानीन का व्यक्तित्व भी प्रभावशाली था। एक समय था जब मुझे लगता था कि जानीन का काम किसी हद तक रज़ा के काम से प्रभावित था। जब हम उनसे सत्तर के दशक में मिले थे, तो जानीन के कुछ काम पर र का प्रभाव दीखता था, ख़ासतौर से रंगों के मामले में- ढेर सारा काला और लाल और पीला- यह रज़ा की अपनी विशिष्टता है।’19 द्युशेन आगे लिखते हैं, ‘वे अपनी प्रदर्शनियाँ करती थीं और कलाकार के रूप में उनका अपना कौशल और उद्यम था। और यही उनके माता-पिता की निराशा थी- उनके माँ-बाप को यह अच्छा लगता कि वे कोई ठीक-ठाक नौकरी करतीं और नियमित वेतन जैसा कुछ कमातीं।’20 लेकिन, द्युशेन ने जानीन के पिता को एक मुक्त-हृदय और उदार व्यक्ति के रूप में याद किया था, ‘वे रज़ा और जानीन और उनके दोस्तों को एक रेस्तराँ में ले जाकर उनकी ख़ातिरदारी करते थे, और मेरा ख़याल है, उन्होंने एकबार एक कार ख़रीदी थी जिसमें वे उन्हें तमाम उपकरणों, कूँचियों और चित्रों समेत पेरिस से गोर्बियो ले गये थे।’21
अलग-अलग तब भी साथ-साथ
ये युवा कलाकार-युगल आपसी तालमेल बिठाकर एक साथ काम करते थे लेकिन इसी के साथ-साथ उनके काम एक-दूसरे से भिन्न होते थे। दोनों अपने-अपने ढंग से अपने अतीत की गहराइयों में जाते थे और स्मृति की तहों में जाने की उनकी प्रक्रिया उनकी कला में प्रकट होती थी। रज़ा के सन्दर्भ में यह उस प्रकृति और दर्शन के व्यापक समावेशी दृश्य की स्मृति थी जिसके साथ वे बड़े हुए थे। जानीन के सन्दर्भ में, यह उनका अपना सामाजिक वातावरण था, ख़ासतौर से उनका बूर्ज्वा और उचित पालन-पोषण, जिससे वे ज़्यादातर प्रतिकृत हुआ करती थीं।
जिस एक वजह से जानीन रज़ा के प्रति आकर्षित हुई थीं वह यह थी कि उनसे जिस तरह के व्यक्ति से विवाह करने की अपेक्षा की जाती थी, रज़ा उसके ठीक विपरीत थे। इस चीज़ को वे अपनी कला में भी विभिन्न ढंगों से व्यक्त करती थीं। उनकी कला प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि दुनियावी और भौतिक थी। जैसाकि द्युशेन ने उल्लेख किया है, ‘जानीन के लिए रज़ा का आकर्षण था ही इस बात में कि वे बहुत अलग थे। मेरा ख़याल है, मैं इस बात को समझ सकता हूँ- जिस स्त्री से आप प्यार करते हैं वह आपका स्त्री प्रतिरूप नहीं होती बल्कि पूरी तरह भिन्न होती है। हालाँकि उनमें कुछ समानताएँ भी थींः यौवन का महत्त्व। कहा जाता है कि जानीन का काम उन विध्ाि-निषेध्ाों से स्पेष्ट रूप से प्रभावित था जिन्हें एक बच्ची के रूप में उन्होंने अनुभव किया था, और उनका काम उन विध्ाि-निषेध्ाों से उबरने की कोशिश कर रहा था। उनका पालन-पोषण ख़ास कैथोलिक ढंग से बल्कि मैं कहूँगा कि उनके वर्ग के रिवायती फ्ऱांसीसी ढंग से हुआ था... बच्चियों को ठीक से पेश आना चाहिए, लेस पहनना चाहिए, उनकी हेयर स्टाइल ठीक होनी चाहिए, एक तरह का शिष्टाचार, एक तरह का मध्यवर्गीय शिष्टाचार। ज़ाहिर है, उन्हें इस सबका बदला लेना था। और युवावस्था का यह महत्त्व ही दोनों में समान था। उनके व्यक्तित्व पर यौवन की छाप... लेकिन जानीन इससे छुटकारा पाना चाहती थीं... किसी तरह, वहीं रज़ा, इसके विपरीत साफ़ तौर पर बेहतर ढंग से और पूरी तरह से समावेश और अनुकूलन करना चाहते थे।’22
रज़ा उनके इस पक्ष को समझते थे और इसको लेकर उनमें ध्ौर्य था, ‘...वे बेहद भले थे- सम्भवतः उनमें पौरुष का वैसा भाव न्यूनतम था जैसा पुरुषों में स्वाभाविक तौर पर पाया जाता है! और इसी के साथ-साथ वे उन्हें अपने ढंग से जीवन जीने की और अपनी युवावस्था का हिसाब चुकता करने की गुंजाइश देते थे। इसलिए वे निश्चय ही उनकी निजी मुक्ति और वयस्क होने की प्रक्रिया का बेहद महत्त्वपूर्ण पहलू थे। यह समस्या हमेशा हुआ करती थी... वे उन तमाम पुरानी चीज़ों और खिलौनों और गुडि़याओं और ऐसी ही तमाम दूसरी चीज़ों का बार-बार उपयोग करती थीं... एक तरह का सम्मोहन जिसने उन्हें उनकी युवावस्था में अपने वश में कर रखा था और जिससे वे छुटकारा पाना चाहती थीं... सम्मोहन जिसमें उन्हें बाँध्ा लिया गया था- और यह चीज़ उस व्यक्ति के साथ उनके जीवन की संगति में थी जो बहुत ही अलग कि़स्म का था, जिसने उन्हें नये सिरे से क़ैद करने की बजाय आज़ाद किया।’23
इस समय के आसपास का जानीन का काम बचपन के उस सम्मोहन से खुद को मुक्त करने की उनकी तीव्र आकांक्षा को दर्शाता है। संयोजन और रंग पर दक्षतापूर्ण निगाह रखते हुए रचे गये ये अवरुद्ध (बेरीकेडेड) रूपाकार अपनी नाटकीयता और शक्ति से मन्त्रमुग्ध्ा कर लेते हैं। उदाहरण के लिए, उनके द्वारा लकड़ी पर किये गये एक उत्कीर्णन में मध्य में चक्कर लगाती हुई बच्ची एक बूज़्र्वा महिला के उन सारे उपकरणों को ध्वस्त करती लग सकती है जिन्हें वह बड़े होने पर हासिल करने जा रही हैः पंखा, मनके, तस्वीर का फ्ऱेम इत्यादि जो उसके फ्ऱेम को घेरे हुए हैं। क्या यह सम्भवतः इसलिए है कि उनके पिता बहुत वर्चस्वशाली थे? लेकिन द्युशेन के अनुसार, ‘उनके पिता वर्चस्वशाली नहीं थे। उनमें सिफऱ् कल्पनाशीलता की कमी थी। लेकिन यह चीज़ उनके लिए मुश्किल थी हालाँकि वे इसे स्वीकार करते थे- यह एक ऐसी चीज़ थी जो उनकी समझ से परे थी। लेकिन वे बुरे नहीं थे और आर्थिक तौर पर, माली तौर पर उनकी मदद करते थे। वे उनके प्रति भले थे लेकिन उनके लिए उनमें - रज़ा में - कुछ कमी थी महज इसलिए नहीं कि वे हिन्दू (मूल पाठ में यही लिखा है) थे बल्कि इसलिए कि वे चित्रकार थे- वे एक ऐसे व्यक्ति थे जो पूरी तरह विजातीय थे- महज इसलिए नहीं कि वे हिन्दुस्तानी थे। एक तरह से देखें तो उनका हिन्दुस्तानी होना, और महज़ पड़ोसी न होना, बेहतर हो सकता था। रज़ा इतनी दूर के रहने वाले थे कि उनका भिन्न होना सामान्य बात थी, जबकि जो व्यक्ति फ्ऱांस में जन्मा होता उसके पास कोई बहाना न होता।’24
वे इस युवा दम्पति के लिए बहुत ही सुख-शान्ति से भरे हुए दिन थे। वास्तुविद् और फ़ोटोग्राफ़र ज़्याँ पाॅल गुसैल और उनकी पत्नी मिजो के मुताबिक़, ‘...और फिर जब हम उनसे मिले, जब मैं उनसे पहली बार पेरिस में मिलने गया था, तो उनका एक तरह का स्टुडियो था जो कलाकारों के लिए डिज़ाइन किया गया था और किराये पर दिया जाता था। मुझे नहीं मालूम कि वह संस्कृति विभाग की ओर से उपलब्ध्ा कराया गया था या पेरिस शहर की ओर से। यह बुलवाख़ सेक्रेतान में था- यह शहर के उत्तरपूर्वी हिस्से में स्थित पेरिस का 19वाँ इलाक़ा (डिस्ट्रिक्ट) था। और उनके पास एक ऊँचे कमरे वाला, उत्तर की ओर खुलती बड़ी-सी खिड़की से युक्त एक स्टुडियो और रहने के लिए छोटे कमरे थे और उन्होंने वहाँ कई बार हमारी ख़ातिरदारी की थी।’25 60 के दशक में भी वे एक छोटे-से फ़्लैट में रहा करते थे जिसमें तीन कमरे थे और कोई बाथरूम नहीं था, जहाँ रज़ा अपने हिन्दुस्तानी दोस्तों को रहने के लिए आमन्त्रित किया करते थे।
इस युवा दम्पति के आतिथ्य में कुछ ऐसी गर्मजोशी हुआ करती थी कि उनके दोस्त अक्सर अपनी शामें बिताने वहाँ चले आते थे। बहुतों के लिए वे हिन्दुस्तानी कलाकार दम्पति लगते थे। द्युशेन के अनुसार, ‘जो लोग उन्हें जानते नहीं थे वे सोचते थे- जानीन के बाल भी बिल्कुल काले थे, साथ ही उनका वर्ण भी साँवला था - बहुतों को लगता था कि वे भी हिन्दुस्तानी हैं। और जब वे सेक्रेतान या रु दे शराँ में मेहमानों को ख़ातिरदारी के लिए ले जाते थे, तो जानीन हिन्दुस्तानी ढंग से साड़ी पहनकर, सजती-सँवरती थीं। जो लोग उन्हें जानते नहीं थे, वे सोचते थे कि वे रज़ा हिन्दुस्तानी चित्रकार हैं और वे उनकी हिन्दुस्तानी बीवी हैं।’26 वे पहली स्त्री थीं जिनके साथ उन्हें सच्चा प्रेम हुआ था, ‘जानीन के पहले- आप जानते हैं कि वे फ्ऱांस आने के बाद उनसे मिले थे- उस समय वे बहुत कम उम्र थे। आपको अहसास नहीं होता लेकिन कलाकारों के उस समूह के सब बहुत कम उम्र थे! अब तो लोग यात्राओं के अभ्यस्त हैं। लेकिन वे इसके अभ्यस्त नहीं थे। इसलिए वह बड़ा साहसिक उद्यम था। और वे इस फ़ाइन आर्ट्स स्कूल में जाते हैं और लम्बे काले बालों वाली उस खूबसूरत स्त्री को देखते हैं- वे सुन्दर थीं- जानीन। शायद थोड़ी-सी मर्दाना, लेकिन सुन्दर। और उन्हें उनसे इश्क़ हो गया। इस तरह, जानीन के पहले कोई और स्त्री नहीं थी। बेशक, वे पहले शादी कर चुके थे। इसलिए मेरा ख़याल है, अपनी पहली बीवी के साथ उनका यौन-सम्बन्ध्ा रहा होगा। लेकिन कोई सन्तान नहीं थी...’27
रज़ा की मित्र-मण्डली में अकबर पदमसी, राम कुमार और कृष्ण खन्ना शामिल थे। सूज़ा भी उनसे मिलने आते थे, और शुरुआती दिनों में पदमसी के साथ मिलकर उन दोनों ने पेरिस में प्रदर्शनी भी की थी। पेरिस का प्रवासी समुदाय भी दोस्ती और सहयोग का एक स्रोत था। वहाँ प्राण तलवार, राजेश रावत, बलबीर, जहाँगीर (ज़्याँ) भाउनागेरी, बल्दून ढींगरा, ज़्याँ तथा कृष्णा रिबो, अनिल डि सिल्वा और फि़लीप वीजिए जैसे हिन्दुस्तानी अध्येता, और प्रख्यात फ़ोटोग्राफ़र काग़्ती-ब्रेसाँ भी थे जिन्हें वे कश्मीर यात्रा के समय से जानते थे। कई अवसरों पर ये लोग ज़्याँ और फ्रेनी भाउनागेरी के बेसमेण्ट फ़्लैट में ‘आलू और साध्ाारण रेड वाइन’ का आनन्द लेते हुए ज़ोरदार चर्चाएँ किया करते थे।28 और, ‘...फ्ऱांसीसी कला पर, मातीस और सेज़ाँ और फेह्नाँ लेजे पर’ ये ज़ोरदार बहसें हुआ करती थीं ‘जो ऐसे मुद्दों पर होती थीं जिन्हें भाउनागेरी आज ‘अल्प वयस्क तत्त्व मीमांसा’ (‘जूवनाइल मेटाफि़जि़क्स’) की संज्ञा देते हैं। वे दुनिया का पुनराविष्कार करने की प्रक्रिया में थे, अपने लिए एक नयी दिशा तैयार करने की प्रक्रिया में!’29
याद करने का वक़्त
इस मुकाम पर ये ज़्याँ भाउनागेरी थे जो रज़ा के न सिफऱ् सबसे ज़्यादा क़रीब थे बल्कि जो उनके जीवन में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव भी लाये थे। यह बात बहुत स्पष्ट नहीं है कि दोनों की मुलाक़ात कैसे हुई थी। सम्भवतः यह मुलाक़ात सूज़ा के माध्यम से हुई थी जो लन्दन से लिखे गये एक ख़त में उल्लेख करते हैं कि ‘ज़्याँ भाउनागेरी 10 जनवरी से बम्बई में होंगे, जैसाकि उन्होेंने मुझे बताया था। लेकिन उनका कहना था कि वे ज़्यादातर वक़्त पूना में अपनी पत्नी के घर पर बिताएँगे। मैंने उन्हें तुम्हारे पेरिस आने के बारे में बताया था। वे पिछले कई वर्षों से पेरिस में रहते रहे हैं और अभी भी वहीं रहते हैं। वे तुम्हें पेरिस के बारे में कुछ ताज़ा जानकारी देंगे। वे महीने भर की छुट्टियाँ बिताने के बाद हिन्दुस्तान से पेरिस की उड़ान भरेंगे। प्रसंगवश, जब मैं इस बसन्त में पेरिस जाऊँगा, तो उन्हीं के यहाँ ठहरूँगा। मैंने मार्च तक पेरिस जाने की व्यवस्था कर ली है। वे तुमसे मिलने को बहुत उत्सुक हैं और मुझे उम्मीद है कि वे तुम्हारे लिए मददगार रहेंगे।’30
ज़्याँ सिफऱ् एक आकर्षक व्यक्ति ही नहीं थे बल्कि उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे पाॅटर, लिथोग्राफ़र, चित्रकार और सिरेमिस्ट तो थे ही, लेकिन मुख्यतः वे एक प्रतिभाशाली डाॅक्यूमेण्ट्री फि़ल्मकार थे। उन्होंने पेरिस में तीन दशकों से भी ज़्यादा समय तक यूनेस्को के साथ काम किया था और इस संगठन के लिए उन्होंने जिन फि़ल्मोें का निर्देशन या निर्माण किया था उन्हें प्रतिष्ठित फि़ल्म-समारोहों में पुरस्कृत किया गया था। इसी दौरान उन्होंने 1954-57 के दरम्यान और फिर इन्दिरा गाँध्ाी के आग्रह पर 1965-67 में बम्बई में फि़ल्म्स डिवीज़न के लिए भी काम किया था, जब डाॅक्यूमेण्ट्री फि़ल्म ने हिन्दुस्तान में अपनी जगह बनायी थी। उस समय के उनके शिष्यों में प्रसिद्ध डाॅक्यूमेण्ट्री फि़ल्मकार एस. सुखदेव और प्रमोद पति शामिल थे। पारसी पिता और फ्ऱांसीसी माँ से जन्में ज़्याँ ने इसके पहले 1939 में भी बम्बई में रहकर हिन्दुस्तान में काम किया था जब द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत में रायटर ने उन्हें संवाददाता के रूप में नौकरी पर रखा था। उन्होंने तुर्की के वाणिज्य दूतावास की स्थापना भी की थी और कुछ समय के लिए टाटा सन्स में भी रहे थे, डाॅक्यूमेण्ट्री फि़ल्मों के लिए पटकथाएँ लिखी थीं और कार्टून स्ट्रिप्स तैयार की थीं और आदी मजऱ्ाबान के साथ मिलकर गुजराती काॅमेडियाँ लिखी थीं। उसी दौरान उनमें जादुई युक्तियों के प्रति जुनून विकसित हुआ था। टाॅक-एच कॅन्सर्ट पार्टी के सदस्य के रूप में वे सैनिकों, अस्पताल के वार्डों और पीओडब्ल्यू के लिए मनोरंजन पेश किया करते थे; जादूगरी की अत्यन्त प्रभावशाली संस्थाओं ने उनकी प्रतिभा का सम्मान करते हुए उन्हें अपनी मण्डली में शामिल किया था।
पेरिस में ज़्याँ और फ्रेनी की प्रसिद्ध शामों का समापन जादूगरी के करतबों से होता था। जब 11 अप्रैल 2004 को ज़्याँ की मृत्यु हुई थी, तो पत्रकार दिलीप पडगाँवकर ने उनके मृत्यु लेख में लिखा था, ‘जितने भी दिन मैं पेरिस में रहा, उस दौरान भाउनागेरी के घर जाने के निमन्त्रणों में जादू का वादा हमेशा शामिल होता था। फ्रेनी ध्ानसाक पकाने की जि़म्मेदारी सँभालती थीं और ज़्याँ सुनिश्चित करते थे कि हम यह व्यंजन वह वाइन पीते हुए खाएँ जो वे सीध्ो वाइनयार्ड के बैरल से लेकर आते थे। लेकिन यह खाना और पीना उनके आतिथ्य का छोटा-सा हिस्सा था। असल में तो जिस तरह के लोग उनके यहाँ जमा होते थे और जिस तरह ज़्याँ उनका मनोरंजन करते थे, वह हमारी शामों को आनन्द से भर देने वाला होता था। उनके मेहमानों में कवि, अकादेमिक, लेखक और फि़ल्मकार शामिल होते थे। जीवन और साहित्य के बारे में अंग्रेज़ी में उनके हँसी-मज़ाक देर रात तक जारी रहते थे...। और फिर जब पार्टी अपने शिखर पर पहुँचती थी, वे अपने जादुई करतब दिखाते थे जिन्हें देखकर मेहमान आश्चर्य से अवाक् रह जाते थे।’31
उनके इसी छोटे-से बेसमेण्ट फ़्लैट में, उनकी बेटी जानीन, भरूचा, रज़ा, अकबर और कभी-कभार सूज़ा की मौजूदगी को याद करती हैं। दरअसल, जब जानीन के बचपन में उनके माता-पिता घर पर नहीं होते थे, तो ये तीनों अक्सर उनकी देखभाल किया करते थे। इस क़दर, कि वे याद करती हैं, कि वे उन तीनों के नामों को एकसाथ मिलाकर पदमसी-रज़ा-सूज़ा के रूप में गाया करती थीं क्योंकि वे नाम उन्हें अविभाज्य लगते थे। जानीन की बचपन की जीवन्त स्मृतियाँ इन तीनों की उपस्थिति से जुड़ी हुई हैं। ‘पापा और मामा दो छोटे-छोटे कमरों में - दो छोटे-छोटे बेडरूम में नहीं - रहा करते थे। वह अण्डरग्राउण्ड फ़्लैट था। पापा कड़की में थे, साथ ही वे यूनेस्को में काम की शुरुआत कर रहे थे। और मैं उनके पैर देखती थी, उनके जूते - जब वे चलते थे - एक छोटी-सी खिड़की थी - आप बेसमेण्ट की उस खिड़की से देख सकते थे। और मैं सचमुच बहुत खुश रहती थी क्योंकि वे सारे समय हमारे साथ होते थे...। जहाँ तक मुझे याद है, मैं पाँच साल की थी और कभी-कभी जब पापा और मामा बाहर चले जाते थे, ये तीनों या उनमें से कोई एक मेरी देखभाल करते थे और मैं उन्हें सीढि़याँ उतरते हुए देखकर गाती थी... पदमसी-रज़ा-सूज़ा...। उस समय की हमारी जि़न्दगी में उनकी, उन तीनों की बहुत बड़ी उपस्थिति थी।’32
उन्होेंने साथ मिलकर कुछ बहुत अच्छा समय बिताया था। ‘वे थ्री मस्केटियर्स की तरह थे - अविभाज्य। सचमुच ही बहुत प्यारे। हम नमक के साथ आलू खाते थे, कोई मक्खन नहीं। हर कोई कड़की में था! और सचमुच - वाइन और आलू। और मेरी वजह से ही उन्होंने अपनी जि़न्दगी में पहली बार पीनट बटर की खोज की थी। मैं छोटी-सी चम्मच में पीनट बटर लेकर लाॅलीपाॅप बनाती थी। उसपर थोड़ी-सी चीनी भुरककर उन सबको पीनट बटर लाॅलीपाॅप खिलाती थी! मुझे बहुत गर्व था - पदमसी-रज़ा-सूज़ा के लिए यह मेरा योगदान था।’33
रज़ा की मौजूदगी उनके लिए विशेष अहमियत रखती थी और वे उनके पिता द्वारा ख़रीदी गयी एक अविस्मरणीय कृति को याद करती हैं जो उस हर मकान की बैठक में टँगी रहती थी जहाँ वे रहे थे। दरअसल, लगता है कि ज़्याँ रज़ा के काम के सबसे शुरुआती ख़रीदार थे और उन्होंने उनसे ‘ओ दे केन्य’ (1951) जैसी अविस्मरणीय कृति ख़रीदी थी। जानीन दुखी मन से याद करती हैं कि बाद में रज़ा ने ज़्याँ से यह चित्र कम क़ीमत पर वापस ख़रीद लिया था और उसे बाज़ार-दर से लगभग तीन गुनी क़ीमत पर बेचा था।34
उनका अपार्टमेण्ट उनके पिता के बनाये रेखांकनों, जलरंग-चित्रों, पाॅटरी से अँटा हुआ है, लेकिन उसमें सूज़ा, रज़ा और पदमसी के काम भी मौजूद हैं - जो मूलतः ज़्याँ के संग्रह से हैं। जानीन की, और उनकी बहन आशा की, कलात्मक प्रवृत्तियाँ, निश्चय ही, उस समय से ही पोषित होती रही थीं जब उनके घर में रविशंकर जैसे कलाकारों का नियमित आना-जाना हुआ करता था। रज़ा भी रविशंकर से पहली बार सम्भवतः ज़्याँ के घर पर ही मिले थे, ‘हाँ - वह (मुलाक़ात) पहली बार हमारे ही घर में हुई थी। इसके बाद रज़ा ने भी वही करना शुरू कर दिया।’35 और इस तरह रज़ा भी रविशंकर तथा दूसरे कलाकारों को अपने घर आमन्त्रित कर शाम की पार्टियाँ आयोजित करने लगे।
कुछ दृष्टियों से जानीन के अनुभव ज़्याँ द्युशेन द्वारा बयान किये गये अनुभवों से मिलते-जुलते हैं। उन्होंने और उनकी पत्नी ने 70 के दशक के रज़ा के कुछ चित्र हासिल किये थे, जो रज़ा का सर्वश्रेष्ठ समय रहा था, और उन्होंने वे सारे चित्र बचाकर रखे थे, सिवा उस बड़े चित्र के जिसे रज़ा ने उनसे उस संग्राहक के लिए कम क़ीमत पर बेचने का आग्रह किया था जिसने उनसे कहा था कि वह हिन्दुस्तान में एक संग्रहालय स्थापित करने जा रहा था। उन्होंने उस संग्राहक को तो वह चित्र बेचने से मना कर दिया लेकिन रज़ा के लिए बेचने से वे मना नहीं कर सके और, इसलिए उन्होंने बेमन से वह चित्र रज़ा को बेच दिया था। बाद में ज़्याँ को इण्टरनेट से जानकारी मिली कि उस चित्र को लन्दन की एक नीलामी में ऊँचे दामों पर बेच दिया गया था!36
कलाकार-द्वय
उन दिनों की एक महत्त्वपूर्ण उपस्थिति ज़्याँ और कृष्णा रिबो की हुआ करती थी। जानीन याद करती हैं, ‘वह एक बहुत ही सुखमय परिवार था और मुझे उनके घर जाने की याद है। सत्यजित रे पापा के अच्छे दोस्त थे...। वे कृष्णा और ज़्याँ रिबो के घर की एक बैठक में आये थे और वे काफ़ी थके और उदास लग रहे थे। सचमुच जैसे सारी दुनिया का बोझ उनके कन्ध्ाों पर हो। और जैसे ही उन्होंने पापा को देखा, तो उनकी आँखें चमक उठीं और वे प्रफुल्लित हो उठे। यह देखकर मैं चकित रह गयी थी।’
कृष्णा और ज़्याँ रिबो रज़ा और जानीन के क़रीबी दोस्त थे और अक्सर उनके घर पाये जाते थे। एक पत्र में रज़ा ने उनको लिखा था, ‘हमें मिले हुए वाक़ई बहुत अरसा हो गया है। हमने कई बार तुमसे सम्पर्क करने की कोशिश की ताकि हम तुम्हें अपने नये घर में बुला सकते और अपना नया काम तुम्हें दिखा सकते। शुइली इपेग़्ने में सेल दे फ़ेत के लिए तैयार किया गया बड़े आकार का दूसरा ‘कोलाज’ अगले हफ़्ते स्टुडियो से रवाना होने वाला है। हम चाहते हैं कि तुम देखते और हमें बहुत खुशी होगी अगर तुम मंगलवार, 21 अक्टूबर को डिनर पर आ सको...’38
कृष्णा रिबो (जो विवाह के पहले राॅय थीं) कला-संग्राहक थीं और ज़्याँ बहुत ही सफल उद्योगपति थे। दोनों की मुलाक़ात कलकत्ता की एक पार्टी में हुई थी और इस मुलाक़ात में ही दोनों एक-दूसरे पर मोहित हो गये थे। बाद में ज़्याँ और कृष्णा का अभिसार जारी रहा और फिर दोनों ने विवाह कर लिया। कृष्णा 1947 के बसन्त में आयोजित उस पार्टी में शामिल हुई थीं जो हार्पर्स बाज़ार के सम्पादक ने फ्ऱांसीसी फ़ोटोग्राफ़र आॅरी काग़्ती-ब्रेसाँ के सम्मान में आयोजित की थी। वहाँ उनकी मुलाक़ात श्लम्बर्गर के चेयरमेन ज़्याँ रिबो से हुई थी। ज़्याँ रिबो ने बाद में कृष्णा का वर्णन करते हुए उन्हें ‘वेलेस्ले काॅलेज से आयी तीन अत्यन्त आकर्षक और सुन्दर युवतियों में से एक’ कहा था। ये नौजवान युगल उत्सुक कला-संग्राहक भर नहीं थे बल्कि उन बहुत-सी सान्ध्य पार्टियों के मेज़बान भी हुआ करते थे जो उनके कला-समृद्ध अन्तरंग कक्षों में आयोजित हुआ करती थीं।39 कृष्णा सिफऱ् इतिहासकार और हिन्दुस्तान और चीन की प्राचीन कलात्मक वस्तुओं और वस्त्रों की संग्राहक और कला-संरक्षक ही नहीं, उनका और उनके पति का राष्ट्रपति फ्ऱांसुआ मितेराँ और प्रध्ाानमन्त्री इन्दिरा गाँध्ाी से, साथ ही बर्मा के जनरल ने विन से भी अच्छा परिचय था। उनकी सांस्कृतिक मर्मज्ञता के पीछे वह विपुल सम्पत्ति थी जो के श्लम्बर्गर के मुखिया होने और एक विशाल वैश्विक कार्पोरेशन द्वारा तेल-भण्डारों की खोज के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले उपकरणों के उत्पादन में लगभग एकत्र अध्ािकार रखने वाली कम्पनी के उनके द्वारा किये गये रूपान्तरण के नाते एकत्र हुई थी।
पत्रकार सुनील सेठी उल्लेख करते हैं कि ‘कृष्णा ने अपने बचपन में अपने क्रान्तिकारी और जोशीले कम्यूनिस्ट चाचा सोमेन्द्र नाथ ठाकुर को कलकत्ता के रेलवे स्टेशन पर अंग्रेज पुलिस द्वारा हथकड़ी बाँध्ाकर ले जाए जाते देखा था और उनके बचपन की यह स्मृति ज़्याँ रिबो के उस वीरतापूर्ण कीर्तिमान से मेल खाती थी जिसके तहत वे फ्ऱांसीसी प्रतिरोध्ा आन्दोलन में शामिल हुए थे और कम्यूनिस्टों की मदद से बुशेनवाल्ड से भागे थे। उनके इन अनुभवों की वजह से उन्हें सहज ही वामपन्थियों से सहानुभूति थी। लेकिन उनके राजनैतिक सम्पर्कों के बावजूद कला में उनकी गहरी रुचि ने उन्हें जबरदस्त रिश्ते में बाँध्ा रखा था। उनकी अँगुलियाँ तीन महाद्वीपों - अमेरिका, यूरोप और एशिया - की नब्ज़ पर अविचल रूप से टिकी होती थीं।’40
उनके विपुल संग्रह में मैक्स अन्स्र्ट, जोआन मीरो, आॅरी काग़्ती-ब्रेसाँ और इस्माउ नोगुची जैसे कलाकारों के काम ही नहीं थे, बल्कि एम.एफ. हुसैन और जे. स्वामीनाथन जैसे हिन्दुस्तानी उस्तादों के काम भी थे। उनके विशाल संग्रह के कुछ हिस्से को बाद में कृष्णा रिबो ने म्यूजी गीमे (गिमेट म्यूजि़यम) को दान कर दिया था, जहाँ ज़्याँ एण्ड कृष्णा रिबो कलेक्शन नामक एक स्वतन्त्र दीर्घा संचालित है।41
रिबो की मृत्यु 1986 में पेरिस में हुई थी और उनके इकलौते बेटे क्रिस्ताॅफ़ ने 1990 में स्विट्ज़रलैण्ड में एक त्रासद कार-दुर्घटना में अपनी जान गँवा दी थी। ज़्याँ की मृत्यु के बाद कृष्णा ने कला और वस्त्रों के संग्रह के लिए अपनी यात्राएँ जारी रखीं जिसके लिए उन्होंने अपना समय फ्ऱांस और हिन्दुस्तान के बीच बाँट रखा था। सेठी के मुताबिक, उस गम्भीर क्षति के बावजूद कृष्णा ने अपना जीवन जारी रखा क्योंकि ‘वह निजी त्रासदी उन्हें न तो उनकी खोजों से डिगा सकी, न जीवन के प्रति उनके उत्साह को कम कर सकी। पति और पुत्र की मृत्यु के बाद भी वे संकल्पपूर्वक आगे बढ़ती रहीं और हर साल हिन्दुस्तान, चीन और जापान की तथा साल में कई बार अमेरिका की यात्राएँ करती रहीं। एक चैथाई सदी तक उनकी उपस्थिति को दुनिया के संग्रहालयों और विक्रय-स्थलों पर गम्भीरता से लिया जाता रहा। आमतौर से काले रंग की और अक्सर उनके दोस्त इसी मियाकी द्वारा तैयार की गयी पोशाक ध्ाारण किये मादाम रिबो जब अपनी छोटी-सी अँगुली उठाती थीं, तो अध्येता ठहर जाते थे और नीलामी करने वालों के हथौडे़ हवा में थम जाते थे। केवल उनके दोस्तों को ही इजाज़त थी कि वे वेस्टबोर्न ग्रोव के अन्दरूनी इलाक़े में स्थित प्रामाणिक पारसी रेस्तराँ में शामें बिताने, उनकी खुशामद करने की सम्भावना के साथ उन्हें तंग कर सकते थे, और उन शामों को आनन्द से भर सकते थे।’42 सेठी इस मार्मिक टिप्पणी के साथ अपनी बात समाप्त करते हैं - ‘निर्मम ढंग से विकसित होते कैन्सर के बावजूद उन्होंने दो साल पहले किसी तरह पाण्डुआ और गौर के दर्शनीय स्थलों की यात्रा की थी। अपनी मृत्यु के कुछ महीने पहले ही वे अन्ततः अपने अपार्टमेण्ट की शरण में लौटी थीं - उस प्रशान्त दुनिया में जहाँ से नेपोलियन के मक़बरे की छाया में उनका निजी उद्यान दिखायी देता था।’43 कृष्णा रिबो की मृत्यु पेरिस के उनके घर में 27 जून 2000 को हुई थी।
एक अन्तरंग मित्र
सम्भवतः रज़ा के सबसे प्रिय दोस्त राजेश रावत थे। उनके बीच निरन्तर सम्पर्क इस बात का प्रमाण है। रज़ा से उनकी मुलाक़ात सम्भवतः उनके विद्यार्थी जीवन के दिनों में हुई थी और उनके बीच साझा करने के लिए इतना अध्ािक था कि उनका रिश्ता लगातार प्रगाढ़ होता चला गया। राजेश रज़ा की कलात्मक संवेदना से मेल रखने वाले कवि थे, वे हिन्दुस्तान में दिलचस्पी और दख़ल रखते थे, और उन्होंने भी कलात्मक अभिरुचि की फ्ऱांसीसी महिला, जेनेविएव से विवाह किया था। शाम के समय ये चारों लोग बाहर जाया करते थे और इस दौरान उनके बीच बहुत ओजस्वी और दिलचस्प चर्चाएँ हुआ करती थीं। रज़ा के सबसे ज़्यादा अन्तरंग राजेश थे, जिनके साथ वे अपने अन्तरतम विचारों में साझा करते थे और मुश्किलों से भरे अपने शुरुआती दिनों के तनावों को हल्का करते थे। जैसाकि उन्होंने एकबार राजेश को लिखा था, ‘मैं सिटी के दिनों को याद करता हूँ। उनमें पछतावे जैसी शायद कोई बात नहीं है। लेकिन पूरा-का-पूरा झुण्ड। कैफ़ेटेरिया कैण्टीन - वही घिसी-पिटी बातचीत। मैं उसके साथ अपना तालमेल बिठा नहीं पाता था। दूसरे लोग शायद बिल्कुल सामान्य बने रहते हों, लेकिन सिफऱ् मैं ही था जो बात को गम्भीरता से लेता था। लेकिन फिर मुझे यक़ीन हो चला था कि इसमें बहुत सारी ऊर्जा बरबाद हो जाती थी जिसे बचाकर रखना और उसका अपने हित में इस्तेमाल करना ज़रूरी था।’44 उन शुरुआती दिनों को रज़ा कई रूपों में याद करते थे, ‘ये वे दिन थे जब हम रिल्के को बहुत चाव से पढ़ा करते थे। अब मैं उन्हें कम पढ़ता हूँ, लेकिन मुझे उनके कुछ विचारों का महत्त्व पहले से ज़्यादा समझ में आ रहा है। मुझे वे जीने और काम करने के क्षणों में ज़्यादा समझ में आते हैं।’45 उन्होंने रिल्के को अपने अन्दर रचा-बसा लिया था, ठीक उसी तरह जैसे निरन्तर हिन्दुस्तानी बने रहते हुए भी उन्होंने फ्ऱांसीसी जीवन-शैली को रचा-बसा लिया था।
रज़ा के कई हिन्दुस्तानी-फ्ऱांसीसी दोस्त थे जिनसे वे और जानीन प्रायः मुलाक़ातें किया करते थे। लेकिन इनमें सबसे ज़्यादा जानीन के साथ उनका रिश्ता पूरी तरह सन्तोषप्रद था। वे केवल पत्नी की भूमिका में ही सहायक नहीं थीं, बल्कि कलाकार के रूप में भी उनकी जीवन्त और सृजनात्मक साथी थीं। रज़ा के काम के साथ-साथ उनकी सृजनात्मक यात्रा जारी थी, जिसमें उनकी जड़ें और व्यापक दृष्टि निरन्तर जगह पा रही थीं। जहाँ उन्होंने कैनवस पर चित्रण जारी रखा, जानीन ने नयी-नयी सामग्री के साथ विभिन्न माध्यमों में प्रयोग किये। वे कई अर्थों में रज़ा की भंगुर ऊँचाइयों की विषमता में थींः ज़मीनी, समकालीनता और भौतिकता से प्रतिबद्ध और व्यावहारिक तथा दैनन्दिन जीवन के प्रति पूरी तरह चैकन्नी। दोनों ने मिलकर एक अर्थवान और सामंजस्यपूर्ण सम्मोहक दुनिया रची थी, जो उनकी आजीवन लम्बी यात्रा के दौरान क़ायम रही। आखि़रकार वह समय आया जब रज़ा का जीवन सन्तोषप्रद बन सका। मुश्किलों के उथल-पुथल से भरे दौर के बाद, अब वे जीवन की ख़ूबसूरती का जश्न मना सकते थे।
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जादुई फूल गुनगुना रहे थे
रज़ा ने जानीन मोंजिला को जो बहुत-से ख़त लिखे थे, उनमें 1953-54 के दौरान लिखे गये ख़त बहुत ख़ास थे क्योंकि इन ख़तों में उनके रिश्तों की प्रगाढ़ता और कलाकार के रूप में रज़ा का संघर्ष ज़ाहिर होता है। अब तक जानीन के साथ इस युवा कलाकार का उत्कट समर्पण से भरा वह रोमांस शुरू हो चुका था जिसकी पूर्णाहुति कुछ वर्ष बाद उनके अत्यन्त सन्तोषप्रद वैवाहिक जीवन के रूप में होने जा रही थी।
रज़ा इस समय बीच की अवस्था में भी थे - एक ओर वे फ्ऱांस के गाँवों की नैसर्गिक समृद्धि को प्रतिबिम्बित करते अपने क्षिप्र तूलिकाघातों के साथ एक कलाकार के रूप में अपनी स्वाध्ाीनता अर्जित करने के दौर से गुज़र रहे थे और दूसरी ओर, दो वर्ष बाद उन्हें प्रसिद्ध प्री दे ला क्रिटीक (क्रिटिक्स अवार्ड) के रूप में मान्यता मिलने जा रही थी, जिसके साथ उनकी अन्तर्राष्ट्रीय यात्रा शुरू हुई थी।
जानीन को लिखे गये उनके ख़त इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं कि उनमें कवियों, दार्शनिक विचारों और स्वाभाविक ही रोमांस का संकेत मौजूद हैं। वह विभिन्न कला-माध्यमों और उनके निजी संघर्ष के बीच आवाजाही करता है और प्रेम की कीमियागिरी से परवान चढ़ता है। जानीन स्वयं ही प्रतिभाशाली कलाकार थीं और अपनी प्रयोगशीलता के बल पर वे रज़ा के दृष्टिकोण में निहित आदर्शवाद को सन्तुलित करती थीं। यह दो कलाकारों के बीच का वह पत्र व्यवहार भी था जो एक उत्प्रेरक और निरन्तर संवाद की शक्ल ले रहा था। ये ख़त उस सुख और विक्षोभ की ओर संकेत करते हैं जिनसे यह कलाकार पेरिस आने के कुछ वर्षों बाद तक गुज़रता रहा था। हमें उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्तियों में जानीन के साथ उनकी संगति और एक कलाकार के रूप में उनके जीवन की असुरक्षाओं का अहसास भी होता है। अब तक अज्ञात रही इन पत्रों की विषय-वस्तु में एक सिलसिला है और नीचे अंकित ख़तों में वह विषय-वस्तु अपनी समूची प्रशान्त ऋजुता में प्रकट होती है ः

9 अप्रैल 1953
जानीन,
मैं पिछले दो हफ़्तों की एक-एक चीज़ के बारे में सोच रहा हूँ। मैं पेरिस के अपने सुखद दिनों के बारे में भी सोच रहा हूँ और हिन्दुस्तान के अपने अतीत के बारे में भी। दिमाग़ के लिए सारे विचारों का, जीवन के सारे किये-अनकिये कृत्यों का परीक्षण करना ज़रूरी है...
मैं उस सबके बारे में सोचता हूँ जो हो रहा है। फ्ऱांस आने के बाद ही मैंने आज़ादी महसूस की है। हिन्दुस्तान में बहुत सारी चीज़ें थीं, बहुत सारी जि़म्मेदारियाँ थीं, रिश्ते थे, लगाव थे। उस समय स्पष्ट ढंग से सोच पाना मुमकिन नहीं होता था, जीवन को उस ढंग से जी पाना मुमकिन नहीं था जैसे उसे जिया जाना चाहिए...
व्यक्ति के भीतर ज्ञात और अज्ञात, दोनों तरह की चीजे़ं होती हैं, इसलिए निरन्तर संवाद और अनपेक्षित वार्तालाप से ही कुछ परिणाम सामने आते हैं। हम आध्ो निश्चय और आध्ो अनिश्चय की स्थिति में होते हैं। हम अज्ञात तक पहुँचने के लिए इस ज्ञान का, इस निश्चयात्मकता का सहारा लेते हैं। जो नहीं है उससे ज़्यादा सुन्दर कुछ भी नहीं होता...
समय के साथ मेरे विचार बदले हैं। 1951 का पेरिस वही नहीं है जो 1953 का पेरिस है। पहले जो चीज़ मुझे आनन्दित करती थी, अब नहीं करती। जो पेरिस आज मेरा है, वह बहुत छोटा-सा है, तब भी यही वह पेरिस है जिससे मैं प्रेम करता हूँ। पहले से कहीं ज़्यादा।
और यह 1951 का पुराना पेरिस असहनीय हो गया है। लेकिन मैं दूसरों जैसा ही हूँ, असहज, लेकिन हमेशा उपस्थित, मानो कोई बदलाव सम्भव न हो, मानो इससे अलहदा कुछ मुमकिन ही न हो...
हर कहीं कला के व्यापारियों की दीर्घाएँ हैं। यहाँ मातीस का एक रेखांकन है, मैगी लोगोंसाँ के दो चित्र हैं, और युवा कलाकार हैं जो प्रसिद्ध नहीं हैं लेकिन जिनमें भरपूर प्रतिभा है और शायद निकट भविष्य में वे बड़े नाम साबित होंगे। अकेली इन दो सड़कों पर भी हर महीने छत्तीस प्रदर्शनियाँ होती हैं। जो छत्तीस कलाकार (अपना काम) प्रदर्शित करते हैं, वे उम्मीद पर टिके होते हैं। जहाँ तक कला के व्यापारी का सवाल है, उसे अपनी भूमिका की जानकारी है, और अगर वहाँ देखने या ख़रीदने के लिए कोई नहीं भी आता, तब भी वह अपना कारोबार करना जानता है...
यह बाज़ार है, बल्कि उससे भी बदतर एक मेला है, जहाँ तमाम तरह के गन्दे खेलों, छद्मों, दिखावों, ढोंगों, गै़रजि़म्मेदाराना बकवासों, पाखण्डों, घिनौनी वेश्यावृत्तियों से ज़्यादा और कुछ नहीं होता। यह बहुत दुखदायी है। हम एक ऐसे समय पहुँचते हैं जब यह चीज़ हमारी सहन-शक्ति से बाहर हो चुकी होती है, ख़ासतौर से इसलिए कि हम जानते हैं कि दूसरे लोगों की ही तरह हम भी इस त्रासद स्थिति का हिस्सा हैं और आविष्कारों और प्रगति के बावजूद, संस्कृति, ध्ार्म और ज्ञान के बावजूद, हम अभी भी सतही स्तर पर जी रहे हैं, हमारे भीतर जीवन के स्पन्दन नहीं हैं, हमने कुछ भी समझा नहीं है। और ऐसे में यह ख़याल ध्ाीरे-ध्ाीरे सुन्दर और सार्थक लगने लगता है कि आप सिफऱ् यही कर सकते हैं कि वहाँ से भागकर 5वीं मंजि़ल के इस 314 नम्बर के कमरे में आ जाएँ, और दरवाज़ा बन्द कर घुटनों के बल बैठ यह पढ़ें ः
‘सब कुछ और ख़ुद से असन्तुष्ट अब मैं इतना चाहता हूँ कि ख़ुद को रात की ख़ामोशी और एकान्त में आज़ाद कर लूँ। जिन्हें मैंने प्रेम किया, जिनके गीत गाये, उनकी आत्माएँ मुझे बल प्रदान करती हैं, सम्बल देती हैं, संसार के झूठ और दूषणकारी अवसाद से बाहर लाती हैं और मेरे प्रभु, मेरे ईश्वर! यह तेरी कृपा है कि मैं कुछ ऐसी सुन्दर कविताएँ लिख पाता हूँ जो मुझे विश्वास दिलाती हैं कि मैं अवशिष्ट मनुष्य नहीं हूँ, कि मैं उनसे कमतर नहीं हूँ जिनसे मैं नफ़रत करता हूँ...’
पूरी तरह तहस-नहस हो जाने के बाद मैंने नये सिरे से शुरुआत की थी। और तब भी मैं सोचता हूँ कि आखि़र मैं दुखी महसूस क्यों करता हूँ।

10 अप्रैल 1953
मैंने अभी-अभी वह पढ़ा जो मैंने लिखा था। मैं देखता हूँ कि मैं सिफऱ् अपने बारे में ही बात करता हूँ। मैं ‘प्रिय रज़ा’ सम्बोध्ान के साथ भी यह ख़त लिख सकता था, लेकिन अपने अर्थ में शायद यह वही सम्बोध्ान लिये हुए है। मैं जानता हूँ कि यह तुम्हें ही सम्बोध्ाित है। इसे तुम्हें भेजते हुए मैं अपनी अन्तरतम गहराई में झाँककर देख रहा हूँ। तुम मुझे ठीक-से नहीं जानती - (मेरे बारे में) अपनी समझ के बावजूद। अगर इन बातों से तुम्हें ऊब होती हो, तो मुझसे कह देना। इन काग़ज़ों को कचरादान में फेंक देना आसान होगा, लेकिन ध्यान रहे कि तुम्हें इनके बहुत छोटे-छोटे टुकड़े करने होंगे, क्योंकि ये सिफऱ् तुम्हें पढ़ने के लिए है, और इन्हें किन्हीं दूसरों के हाथों में नहीं पड़ना चाहिए...
आज मैं पूरे दिन भागता रहा। मुझे बहुत खुशी है कि मुझे सोफ़ोक्लीज़ के साथ-साथ वे कुछ दूसरी पुस्तकें भी मिल गयीं जिनकी मुझे तलाश थी, फिर टिकिट, परमिट्स और चेक्स भी मिल गये। यह कोई मज़ाक नहीं था और मैं तुमसे यह इसलिए कहना चाहता हूँ क्योंकि मेरे मौजूदा सरोकारों के सन्दर्भ में वास्तविकता के साथ यह सम्पर्क चैंकाने वाला था। इस दुनिया की वास्तविकता जिसमें रहने का हमें गौरव प्राप्त है...
‘क्षत-विक्षत दिया है उन्होंने मेरा रास्ता और मुझे अपनी मनोव्यथा को बढ़ाने के लिए किसी की मदद की ज़रूरत नहीं।
‘अब मेरी आत्मा मुझमें पिघल रही है...
‘भय हवा की तरह उसका पीछा करते हैं, रात के समय बादल को पार करने के जोखि़म से मिला छुटकारा भेदता है मेरी हड्डियों को और चैन नहीं लेतीं मेरी शिराएँ
‘मेरी पीड़ा की तीव्रता से बदल लिया है अपना रंग मेरे वस्त्र ने, मेरी देह से चिपक जाता है वह और जकड़ लेता है मुझे मेरी पोशाक की चेन की तरह...
‘विस्मित कर दिया है मुझे पीड़ा से भरे दिनों ने, ध्ाूल और राख जैसा दिखता हूँ मैं...
‘एक विलाप है मेरी वीणा और एक सिसकी है मेरी बाँसुरी का स्वर
लेकिन सच्चे हृदय से कुछ कह देना भर काफ़ी नहीं होता। यह मैं तब भी जानता था जब बच्चा था और इसपर आज भी विश्वास करता हूँ कि विचारों को उनकी अन्तिम परिणति में चरितार्थ करने और पाने का संकल्प ज़रूरी होता है...
हर दिन मुझे एक नयी खोज की ओर ले जाता है। मैं डर जाता हूँ, और यह डर साध्ाारण नहीं है। यह किसी बच्चे या बड़े व्यक्ति का भय नहीं है। यह सन्तुलन और मेरे दुर्बल हिस्से के प्रति मेरे उस हिस्से का गढ़ा हुआ भय है जो शक्तिशाली है।
यह सही है कि तुम किसी व्यक्ति का आकलन तभी कर सकते हो जब वह परिस्थितियों पर खरा उतरता हो।
मैंने आज़ादी को ग़लत समझा है...
(एक पेज ग़ायब है)
जो शुभकामनाएँ फलित नहीं होतीं उनकी अपनी महत्ता होती है। तुम्हारे पास ज़रूरत की हर चीज़ है। निराश होने की कोई ज़रूरत नहीं है। तुम्हारा जीवन तुम्हारे हाथों में है। तुम इसे अपने विचारों के अनुरूप, अपने विकल्पों के अनुरूप मन-माफि़क शक्ल दे सकती हो...
मैंने पाॅल वैलरी को पढ़ा। उसका यह अंश मुझे पसन्द आया,
मैं बीस साल का था, और मुझे विचारों की शक्ति में विश्वास था। मैंने विचित्र ढंग से, होने और न होने की पीड़ा भोगी। कभी-कभी मुझे अपने भीतर अकूत शक्तियों का अहसास होता था। उन्होंने इन मुश्किलों के सामने घुटने टेक दिये और मेरी विध्ोयात्मक शक्तियों की कमज़ोरी मुझे छलने लगी। मैं खुशमिज़ाज था, दिखने में सहज, अन्तिम क्षणों में मज़बूत साबित होने वाला, अवमानना के मामले में अतिवादी, सराहना के मामले में पूरी तरह खुला, आसानी से प्रभावित हो जाने वाला, यकीन के मामले में असम्भव। मुझे उन कुछ विचारों में आस्था थी जो मुझ तक पहुँचे थे। मेरे अस्तित्व के साथ उनकी अनुकूलता को मैं स्वीकार करता हूँ जिसने उन्हें उनके सार्वभौम मूल्यों के एक ख़ास लक्षण की वजह से ध्ाारण किया था जो मेरे दिमाग में अत्यन्त स्पष्ट रूप से प्रगट हुआ था, उसे अपराजेय लगा था; आकांक्षा जिस चीज़ को उत्पन्न करती है वह हमेशा सर्वथा स्पष्ट होती है।
विचारों की इन परछाइयों को मैंने अपने गोपनीय रहस्यों की तरह छिपाकर रखा। मैं इनके अजीबो-ग़रीब होने को लेकर शर्मिन्दा था मुझे लगता था, वे बेतुके हैं मैं जानता था कि वे वैसे हैं भी और नहीं भी हैं। वे अपने में निर्रथक थे, लेकिन अपनी अद्वितीय सामथ्र्य में उस विश्वास की शक्ति रखते थे जो मेरी रक्षा करता था। कमज़ोरी के इस रहस्य को लेकर उपजी ईष्र्या मुझे एक तरह की ऊर्जा से भर देते थे। तुम शायद कहोगी, ‘वह बहुत कम-उम्र था’।

8 जून 1953
मैंने यह ख़त तुम्हें कल लिखा था, और मैं नहीं जानता कि मैं यह तुम्हें भेजूँगा या नहीं। चाहता तो यही था कि मैं इसे अपने पास ही रखता, जैसे कई दूसरे रख छोड़े हैं। किन्हीं ख़ास क्षणों में विचारों को समझ लेने की क़ाबिलियत मेरे शोध्ा में मददगार होती रही है।
आज सुबह तुम्हारा ख़त आया। मैं तुम्हें अभी लिखने वाला हूँ, लेकिन यह काग़ज़ मेरे समक्ष बहुत चमक रहा है और दूसरा बहुत ही बुरी हालत में।
अस्तु, मैं तुम्हें इतवार के अपने विचार भेजता हूँ।
(पाॅल) क्ले मुझे हमेशा सम्मोहित करते रहे हैं। मैं उन्हें अच्छी तरह जानता हूँ, और हर सम्भव कोशिश कर उनका काम बार-बार देखता हूँ। इस बार (उनके काम में) कुछ नयी चीज़ों की ओर मेरा ध्यान गया। कला, कला पर आध्ाारित होती है। मुझे यक़ीन है। प्रकृति बहुत अहम् भूमिका निभाती है, लेकिन (उसके द्वारा) रच दिये गये रूपाकारों के चलते वह भिन्न रूप ले लेती है। मैं समझता हूँ कि हर कलाकार को अपने प्रशिक्षण के लिए अपने उस्तादों का चुनाव करना चाहिए। मुमकिन है कि वे बहुत ज़्यादा प्रभावित हो जाएँ, लेकिन अगर उनमें चुनी गयी परम्परा की चेतना होती है, तो वे उसे निश्चय ही समझते हैं।
मैं अपने रास्ते पर चलता जाता हूँ, उस सूरत में भी चलता जाता हूँ जब मेरे गुरु मुझे कुछ देर के लिए मेरे स्वत्व के अहसास से वंचित कर देते हैं। इटली में मैंने उन्हें बहुत क़रीब से देखा था और वे मुझसे कहा करते थेः ‘जाओ, अपना सत्य खोजो।’
जीद को पढ़ते हुए अन्ततः मुझे उनको सच्चे रूप में पेश करती एक पुस्तक हाथ लगी, जो बहुत अच्छी है ः
नथेनियल, अब तुम मेरी पुस्तक फेंक दो। जो कुछ भी तुमने पाया है, उससे मुक्त हो जाओ! मुझे छोड़ दो; तुम मुझे सता रहे हो; तुमने मुझे जकड़ रखा है, तुम्हारे प्रति मेरे अतिरंजित प्रेम ने मुझे घेर रखा है। मैं यह ढोंग करते हुए तंग आ चुका हूँ कि मैं किसी को सिखा सकता हूँ। मैंने तुमसे कब कहा था कि मैं तुम्हें अपने जैसा बनाना चाहता हूँ? मैं तुमसे प्रेम करता ही इसलिए हूँ कि तुम मुझसे भिन्न हो; मैं तुम्हारी उसी चीज़ से प्रेम करता हूँ जो मुझसे भिन्न है। सिखाऊँ! फिर मुझे कौन सिखाएगा? नथेनियल, क्या मैं बताऊँ? मैंने अन्तहीन रूप से खुद को शिक्षित किया है। करता रहता हूँ। मैं जो कुछ भी कर सकता हूँ, उसको लेकर मुझे कभी उलझन नहीं होती।
नथेनियल, मेरी पुस्तक फेंक दो; उससे सन्तुष्ट मत हो जाओ। यह मानकर मत चलो कि तुम अपना सत्य कहीं और पा सकते हो; यह सबसे ज़्यादा शर्मनाक है। अगर मैं तुम्हारा भोजन जुटाऊँगा, तो तुम्हारी उसे खाने की चाह नहीं रह जाएगी; अगर मैं तुम्हारा बिस्तर बिछाऊँगा, तो तुम (महज़) सोने के लिए उसपर नहीं सो पाआगे।
मेरी पुस्तक फेंक दो; खुद से कहो कि यह जीवन की एक हज़ार सम्भावित मुद्राओं में से महज़ एक मुद्रा है। उस कर्म को जानो जो किसी दूसरे (व्यक्ति) ने भी किया होता (और) वह मत करो। जो तुम्हारी ही तरह किसी दूसरे ने कहा होता, वह मत कहो - मत लिखो वह जो तुम्हारी ही तरह किसी और ने लिखा होता। अपने प्रति आसक्त मत बनो, सिवा उस स्थिति के जब तुम्हें लगे कि इस आसक्ति का अवलम्ब तुम्हारे सिवा अन्यत्र नहीं है, और तुमने प्रतिक्रिया की है, अध्ौर्य के साथ या ध्ौर्य के साथ, आह! (वही) मनुष्यों में सबसे अद्वितीय मनुष्य है।
मेरी दुनिया झुँझला देने वाली है। मैं इसे छोड़ देना चाहता हूँ। मुझे बताया गया है कि साँ जग़्मा दे प्ग़ेस में काफ़ी चहल-पहल है। मैं जाकर देखना चाहता हूँ कि क्या वहाँ कुछ दिलचस्प है।
तुम जानती हो कि मैं तुमसे मिलकर हमेशा खुश होता हूँ। मैं कहूँगा कि यह एक ज़रूरत है। नहीं जानता कि मेरे विचारों से तुम्हें ऊब होती है या नहीं। लेकिन हम तब भी ऊबे हुए हैं।
तुम्हारा,
रज़ा
पेरिस, 5 जुलाई 1953
प्रिय जानीन,
तुमने मुझे एक ऐसी अनुभूति से परिचित कराया था जो अजनबी लगती थी, जो उन दूसरों से सम्बन्ध्ा रखती थी जिनसे मैं नफ़रत करता था, आनन्द की वह मध्ाुर अनुभूति, जो (अब) सिफऱ् मेरी हो सकती है।
तुमने मेरे भीतर एक ऐसी अनुभूति जगायी है, उसकी सम्पूर्णता में, जिसे कैसे बयान किया जाए, मैं नहीं जानता, और तब भी वह मेरे सारे ख़तों में ज़ाहिर होती है, जबकि मैं उसके बारे में बात नहीं करता। तुमने मुझे क्षणों की उस विलक्षण मोहकता को समझने के लिए भी प्रेरित किया है जिसे मैं अक्सर नज़रअन्दाज करने या बरबाद करने की भूल किया करता था। मैं कैसे बताऊँ कि इसका मेरे लिए क्या मानी हो गया है, जो सुख या दुख से भरे दिन और रातों को निगलती रहती थी, इस शून्य के अस्तित्व से बेख़बर।
मैं अपने सपनों में डूबा हुआ हूँ। अनवरत स्वप्न, अगर उनके बारे में सोचता हूँ, तो उदासी से भरे, अगर विशुद्ध अनुभूतियों की उत्कटता के समक्ष समर्पण कर देता हूँ, तो आनन्द से भरे। अब मैं और नहीं खोज रहा हूँ। क्या कोई नयी राह होगी? मैं नहीं जानता। नतीजे - मैं अब उनके बारे में नहीं सोचता।
जानीन, मैं मुस्कराहटों की मीठी फसल का और दुखदायी दिनों के समाप्त होने का इन्तज़ार कर रहा हूँ।
तुम्हारा अपना
रज़ा

28 मार्च 1954
प्रिय जानीन,
मुझे अपने विचार तुम तक पहुँचाने के लिए कल पूरे दिन लिखते रहना पड़ा। पोख़्ते दाॅग्लियाँ के कैफ़े में जाने की बहुत इच्छा थी लेकिन मैं उसे दबाये रहा। तुम्हें देखते हुए भी तुमसे बात न कर पाना ज़्यादा तकलीफदेह होता।
और अब मैं यहाँ हूँ, और 11.35 हो रहा है। मुमकिन है तुम अभी भी कैफ़े में हो। कभी-कभी तुम दरवाज़े की तरफ देखती होगी। शायद मैं, यहाँ अकेला हूँ, मेरे सामने तुम्हारी आँखें हैं, कल वाली आँखें।
वे चमकती हैं और मुझे चैंध्ािया देती हैं।
मैं उन्हें इतना प्यार करता हूँ कि उन्हें इस तरह देखने के लिए दुख भोगता हूँ।
ढेर सारे चुम्बन,

जल्दी ही मिलूँगा।
मुझे खुश और जीवन्त रहना ज़रूरी है। और मेरी खुशी, तुम अच्छी तरह जानती हो, इस पर निर्भर करती है कि तुम क्या कहती हो।
उसे पाकर मैं बचाये रखने का निश्चय कर रहा हूँ।

पेरिस, 1 जुलाई 1954
प्रिय जानीन,
सूज़ा की दीर्घा खुल रही है। मैं रावत और इज़ाबेले के साथ गया था, जेनेविएव ने डाॅक्टर से मिलने का समय ले रखा था। वे लगभग सोलह चित्र और बीस रेखांकन प्रदर्शित कर रहे हैं। विषादपूर्ण अभिव्यक्ति का भव्य प्रदर्शन - उन तमाम चीज़ों की ही तरह जिससे तुम्हारी अपनी जान ले लेने की इच्छा होती है। सूज़ा वहाँ सीढि़यों के पास चुपचाप खड़े हुए थे। मैंने उनसे हैलो कहकर हाथ मिलाया। इसके अलावा एक भी शब्द नहीं। मैंने चित्रों और रेखांकनों को देखा। मुझे बेहतर और बड़ी प्रदर्शनी की उम्मीद थी...। अगर आज शाम तुम यहाँ होतीं, तो मुझे अच्छा लगता। मुझे हर कदम पर तुम्हारी याद आती है। सौभाग्य की बात यह है कि मैं तुम्हें लिख सकता हूँ और तुम्हारे ख़त प्राप्त कर सकता हूँ...। उनके सारे कैनवस अकथनीय उदासी से भरे हुए हैं। उन्होेंने निश्चय ही दुख भोगा होगा। गुणवत्ता की दृष्टि से उनके सिफऱ् पाँच-छह चित्र ही मुझे पसन्द आये। रेखांकन कमाल के हैं...। मैं बीस मिनिट रुका और गुडबाई कहे बिना ही वहाँ से चला आया।
मैं दीवाने की तरह काम करना चाहता हूँ। जानीन, मुझे हर दिन ख़त लिखो, जैसे तुम लिखा करती थीं। मैं तुम्हें अपने क़रीब महसूस करना चाहता हूँ - अपने क़रीब। मैं इस वक़्त तुम्हारे सारे ख़तों के साथ हूँ। मेरे सामने तुम्हारा गुलाबी तौलिया है, मैंने उसे अभी-अभी ध्ाोया है; आज मैं बेहद थक गया हूँ। आओ, मुझे ढाढस बँध्ााओ। शुभ रात्रि।

शुक्रवार, 12.10
आज सुबह मैं माइयू के यहाँ था और श्रीमती कैले के साथ डेढ़ घण्टे की हिन्दी कभी बहुत सुखद नहीं होती, सिवा उस समय के जब मैं 600 फ्रैंक लेकर उनके घर से निकलता हूँ। लौटकर मैंने रावत की मदद की, जो शनिवार को शहर छोड़ रहे हैं। सम्भवतः यह सिलसिला दोपहर के बाद जारी रहेगा। लेकिन मैंने सब कुछ के बावजूद काम करने का पक्के तौर पर फ़ैसला कर लिया है।
तुम्हारा ख़त एकमात्र सान्त्वना है। मेरी जानीन, तुम्हारी वजह से ही मुझमें जीवन है।
तुम्हारा रज़ा
आज शाम को मिलेंगे,

तिथि अंकित नहीं
...उसने (स्पष्ट नहीं कि किसने) मुझे अपने स्कूल के बारे में, नृत्यों के बारे में, अपने प्रेम-सम्बन्ध्ाों के बारे में और साँ जेग़्माँ के जीवन के बारे में कि़स्से सुनाये। और फिर तुम्हारे बारे में, बहुत ही सौम्य ढंग से बात की, और फि़लहाल उसकी गहरी इच्छा तुम्हारे साथ नाचने की है। उसका कहना है कि तुम बहुत खूबसूरत हो। लेकिन बहुत चतुर भी। वह जानने को उत्सुक है कि मैं क्यों नहीं नाचना सीखता। ‘यह अच्छा होता है। यह बहुत मुश्किल नहीं है। मैं अब बहुत अच्छा नाचता हूँ। नहीं, यहाँ ठीक नहीं है, इस शहर में। जानीन से कहो। उससे मिलो, वह तुम्हें सिखा देगी ...वगै़रह, वगै़रह।’
मैंने उसे हम लोगों के बारे में (क़तई) कोई संकेत नहीं दिया। इसके विपरीत, मैंने उससे कुछ हाल-चाल पूछे। उस बेवकूफ़ को पता ही नहीं है कि मेरा कि़स्सा काफ़ी पुराना हो चुका है, और जो रिश्ता मैंने बनाया है, वह अनन्त काल तक बना रहने वाला है। एक दिन उसे पता चल जाएगा, जैसे हर किसी को।
बारिश होने लगी। बफऱ् के छोटे-छोटे फ़ाहे गिरने लगे, जिन्हें फ्ऱांसीसी में क्या कहा जाए, यह मैं कभी नहीं जान पाऊँगा।
मुझे यह अच्छा लग रहा है कि मैंने हिन्दुस्तान के बारे में बात की। या सिफऱ् अपने बारे में बात की जोकि मैंने अन्त में की।
तुम्हारे एक लिफ़ाफ़े पर मैंने नीस की तस्वीरें देखीं। क्या तुम आगा खान से मिली हो? इस लिफ़ाफ़े पर मैं लिखावट बदल दूँगा, लिफ़ाफ़ा तक बदल दूँगा ताकि इसकी ओर दुष्ट लोगों का ध्यान न जाए।
माइ डियर, मैं पोस्ट आॅफि़स में हूँ। आखि़री निकासी के लिए सिफऱ् पाँच मिनिट बचे हैं। दो दिन पहले मुझे तुम्हारा मनी आॅर्डर मिला था। समझ में नहीं आता कि इसके बारे में कैसे लिखूँ। जानीन, मुझे अल्मारी में भी ढेर सारी चीज़ें मिली हैं।
मुझे ख़त लिखो - तुम्हारे ख़त मुझे असाध्ाारण आनन्द देते हैं, और काम करने की शक्ति भी।
तुम्हारे लिए, रज़ा
पुनश्चः बहुत ज़्यादा औपचारिक मुलाक़ातों से बचो।
प्यार,
रज़ा

पेरिस, 21 जुलाई 1954
प्रिय जानीन,
मैं तुम्हें एक पत्र भेज रहा हूँ जो मैं हुसैन को भेजना चाहता हूँ और मैं चाहता हूँ कि तुम इसे माॅतों भेज दो। मैंने इसे बन्द नहीं किया है। तुम इसे पढ़ सकती हो। तुम देखोगी कि इसमें एक फाॅर्म है जिसे मैंने अपनी ही लिखावट में पहले ही भर दिया है। इसलिए इसे ठीक से बन्द कर रजिस्टर्ड पत्र के रूप में भेजना। इसमें अतिरिक्त टिकिट लगाने होंगे। मैंने सिफऱ् सौ फ्ऱेंक का ही टिकिट लगाया है।
मैं कल तुम्हेें फ्ऱांसीसी अनुवाद भेजूँगा। मेरा ख़याल है पत्र उसके लायक़ ही है, और अगर मैं वह करना चाहता हूँ जो करने की मेरी इच्छा है, तो यह उससे भिन्न नहीं हो सकता। जैसाकि (पुनश्च) के अन्तर्गत मैंने लिखा है, मैं कुछ हफ़्तों के लिए पेरिस छोड़कर दक्षिण फ्ऱांस जा रहा हूँ। यह इसलिए है क्योंकि मैं बिल्कुल भी नहीं चाहता कि इस महीने मुझे परेशान किया जाए, ताकि मैं काम कर सकूँ।
मैं यह पत्र पोस्ट आॅफि़स पहुँचाने की जल्दी में हूँ। मैंने तुम्हें एक पत्र सुबह भेजा था और शाम को लिखना, जारी रखूँगा।
मेरे मन में तुम्हारे प्रति जो स्नेह है, काश मैं उसे इन काग़ज़ों में उँडेल सकता।
ढेर सारे चुम्बन। जल्दी मिलूँगा।
रज़ा
अभी भी 2 जुलाई है।
अभी यह घटनाओं से भरे दिन की सिफऱ् शाम हुई है।
और यह ‘मैं’ हूँ जो अकेला हूँ और शान्त।
मुझे गर्व है एक देश पर, समृद्ध और वैभवपूर्ण, पूरी तरह से मेरा।
मैं वहाँ जाऊँगा, रहने और प्रेम करने।
पूरी तरह।
रात 10.30...एक रेखांकन बुरी तरह बिगड़ता ही चला जा रहा है।
तिथि अंकित नहीं
मैं साहित्य की परवाह नहीं करता, लिखते समय, विचार अस्तित्व से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो उठता है। और परमेश्वर ही जानता है कि आज अस्तित्व ही सबसे ज़्यादा मानी रखता है। अपने ख़तों के सहारे मैं हर पल खुद को तुम्हारे साथ बाँध्ाता जाता हूँ, मैं बोलता हूँ, मैं नाचता हूँ, मैं हँसता हूँ, मैं रोता हूँ, बेक़ाबू।
उन्हें मेरे आँसुओं और मुस्कराहटों की तरह लो। इसमें प्रेम मेरी उपलब्ध्ाि होगी। मैं इसमें सफल होऊँगा। बुरी बात यह है कि ज़रूरत से ज़्यादा सोचने की मेरी बहुत बुरी आदत है (हो सकता है, यही किसी दिन मेरी शक्ति बन जाए)। मुझे अब तक की सारी घटनाओं को संक्षेप में रखना मेरी मज़बूरी है। मेरा ख़याल है कि सब कुछ अच्छा और सही है। और इससे भिन्न नहीं हो सकता था। मेरी सबसे बड़ी जि़म्मेदारी तुम हो।
इसके अलावा, एक ही चीज़ है जो मुझे सही या ग़लत साबित कर सकती हैः चित्र। देखेंगे।
ढेर सारे चुम्बन, शुभ रात्रि। कल मिलेंगे।
रज़ा

पेरिस, 6 जुलाई 1954, सुबह 9.30
क्या तुम जाग चुकी हो? क्या मेरी ने तुम्हारा ‘लज़ीज़’ नाश्ता तैयार कर दिया है? एक बार फिर, मैं हैलो कह रहा हूँ और यह मैं इस सुबह ख़ास तौर से कहना चाहता हूँ। क्योंकि जीवन अन्ततः बहुत सुन्दर चीज़ है। मैं तुम्हारा पत्र और दो पोस्टकार्ड पाकर खुश हूँ। गोर्बियो से आया ख़त मुझे बहुत पसन्द आया और मुझे उम्मीद है, मैं उस पर आज बाद में काम करूँगा। हाँ, मेरी जानीन, मुझे इस समय गोर्बियो में होना चाहिए था - माॅतों से मात्र सात किलोमीटर दूर! एक दिन मैं निश्चय ही प्रोवाँस में बस जाऊँगा।
मेरी प्रिया, आज की सुबह कल की सुबह से ज़्यादा असाध्ाारण है। कई दिनों से यहाँ का मौसम ख़राब था - मैंने तो ओवरकोट लगभग निकाल ही लिया था। मैं सोच रहा था कि क्या सूरज तुम्हारे प्रति (जहाँ तुम हो, वहाँ) ज़्यादा उदार नहीं है। सौभाग्य से बाहर ज़बरदस्त चमक है, जो दिमाग आत्मा को दीप्त कर रही है। तुम्हारा ख़त 8.15 पर आया। मैंने एक कैफेटेरिया में, एक तनहा मेज पर, पढ़ते-पढ़ते सोचते हुए अच्छा ख़ासा आध्ाा घण्टा बिताया। और उसके बाद मैंने गुनगुने और ठण्डे पानी से नहाया। जानता हूँ कि दक्षिण का समुद्र कुछ अलग ही चीज़ है, लेकिन यहाँ, इस छात्रावास में यह सबसे बड़ा आनन्द है।
मैं तुम्हेें पूरी तरह बदला हुआ महसूस करता हूँ। जानीन, मेरी जानीन। मैं तुम्हें अन्तहीन कोमलता से प्यार करता हूँ। तुम्हारे ख़तों में मुझे बहुत गहरी समझ दिखायी देती है, जिसकी मैं तहे-दिल से आकांक्षा करता हूँ। इसलिए, मुझे पूरी उम्मीद है, लेकिन मुझे लगता है कि जो तय है उसे स्वाभाविक और स्वाध्ाीन ढंग से विकसित होना चाहिए। वह समय लेगा।
जहाँ तक मेरा सवाल है, मेरा प्रेम तो अपनी अनन्यता से ही सिद्ध है। यह प्रेम का एकमात्र सबूत होता है। मुझपर जुनून सवार है और मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि अब दुनिया की कोई ताकत मुझे तुमसे अलग नहीं कर सकती।
मैं ठीक-से काम करता हूँ। और यह वह काम है जहाँ तुम सही समय पर मददगार होती हो और जिसको लेकर तुम्हें भी उतना ही गर्व होगा जितना मुझे है। सच कहूँ, तो मुझे बहुत-सी यात्रा करनी है। होक्यमबोह्न्य कल्पना को उत्प्रेेरित करने वाला गाँव है। सारे तत्त्व प्रकृति में निहित हैं। रोमन छतें किसी अमूर्त चित्र से मिलती-जुलती हैं। मेरी जानीन, इस तरह के कार्ड मेरे लिए बहुत अध्ािक अपरिमित रूप से मददगार होंगे। सौभाग्य से तुम्हें उनको चुनना आता है। बिना संकोच किये और भी ख़रीदना।
प्यार।
रज़ा

2.15
मैंने काम किया, खाना खाया और दोपहर की थोड़ी-सी नींद के बाद इस ख़त को डाक के डिब्बे में छोड़ने से पहले इसमें कुछ शब्द और जोड़े। सूरज डूब गया है। तुम मेरी सलाह की बहुत परवाह नहीं करतीं लेकिन मेरा कहना है कि तुम समुद्र में बहुत दूर तक मत जाया करो। ये खेल पहले मज़ेदार हुआ करते थे। अब तुमपर अपने रज़ा की जि़म्मेदारी है। और मेरा यह भी आग्रह है कि अगर पानी बहुत ठण्डा हो, तो उसमें ज़्यादा देर मत रहा करो। मैं सचमुच चाहता हूँ कि मौसम, सुन्दर हो और तुम्हें एकदम सही वातावरण मिले। मैं तुम्हारी त्वचा को देखने का इन्तज़ार नहीं कर सकता।
मैं वादा करता हूँ कि वाइन के मामले में मैं सावध्ाानी बरतूँगा, ठीक से खाऊँगा और अपनी सेहत का ख़याल रखूँगा।

11 जुलाई 1954
जानीन,
मेरे ख़तों को सँभालकर रखना।
तरह-तरह के अहसासों के बीच जो कुछ कहा गया होता है, उसमें सोच-विचार बहुत कम होता है। तात्कालिक तौर पर कही गयी बातें हवा में उड़ जाती हैं। कृत्य, तथ्य, सारे कि़स्से हज़ारों व्याख्याताओं में (खो जाते हैं) स्मृतियाँ ध्ाुँध्ाले अतीत में बिला जाती हैं। ये ख़त अपरिवर्तनीय वास्तविकता हैं जो टिकी रहेगी। इन्हें सँभालकर रखो।
इनमें मैं हूँ। मैं अपने ख़तों के माध्यम से खुद को समर्पित करता हूँ। और तुमसे कहता हूँ। क्योंकि मुझे पूरी तरह से तुम्हारे भरोसे की ज़रूरत है। मुझे तुम्हारे लिए यक़ीन दिलाना ज़रूरी है कि इस दुनिया में ऐसे लोग हैं जो प्रेम कर सकते हैं और प्रेम को पाने की पात्रता रखते हैं।
मुझे तुम्हारे लिए यह विश्वास दिलाना ज़रूरी है कि सच्चा प्रेम अनन्य होता है और मैंने सिफऱ् एक व्यक्ति को पुकारा है और वह व्यक्ति तुम हो। परमात्मा मुझे शक्ति दे कि कि ‘मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ’ इस तरह कह सकूँ जिस तरह कभी नहीं कहा गया।
कुछ ही घण्टों के भीतर मैं माॅतों में, तुम्हारे पास होऊँगा। तुम्हें शायद मेरे स्वागत की तैयारी करनी पड़े। मैंने ऐसी उत्कण्ठा कभी महसूस नहीं की। तुम मेरी परिस्थितियों की बेहूदगी से वाकि़फ़ हो, और अगर मैं आ रहा हूँ, तो इसलिए कि मेरा समूचा वजूद तुम पर केन्द्रित है। इस अवस्था तक पहुँचने में मेरी साँसें थमने लगती हैं। मैं जीना चाहता हूँ।
मुझे आने में दो दिन लगेंगे, लेकिन मैं अभी, इस ख़त के माध्यम से, अपना जीवन तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ और तुम्हारा हाथ माँग रहा हूँ।
मैं तुम्हें दो साल से जानता हूँ। मैं अपनी सामथ्र्य भर चाहता था कि तुम मुझसे दूर चली जाओ, उतनी दूर जितनी तुम चली गयी थीं। मेरा अतीत डरावना रहा है। मैं अकेला था, कड़ुवाहट से भरा हुआ, अपनी परिस्थितियों के प्रति चैकन्ना। मैं नहीं चाहता था कि मेरी छाया तुम्हारी राह में आती। इस तरह, महीनों बिताये जा सकते हैं।
याद करता हूँः मैंने तुम्हें एक आराध्य में बदलते देखा। मुझे लगा कि तुम मेरे हृदय के गड्ढे को पूर रही हो। और अब मैं तुम्हें एक-एक रेशे और एक-एक पल में फैला हुआ पाता हूँ।
मैं माॅतों में दस दिन की छुट्टियाँ बिताने नहीं आ रहा हूँ। मैं एक आजीवन रिश्ता जोड़ने आ रहा हूँ, तुम्हारे लिए अपनी अपरिहार्यता साबित करने। हमारा संघर्ष बहुत बड़ा होगा। तुम सब कुछ जानती हो। लेकिन तुम्हारे साथ होने पर मैं हर बाध्ाा को दूर करना सीख जाऊँगा। मेरे संघर्ष को तुम्हारे संघर्ष में बदलना होगा, मेरा जीवन उसे थामेगा, हमारा होगा वह। ज़रूरी होगा कि मेरी ही तरह तुम भी इस सामंजस्य की कामना करो, और हम दोनों मिलकर जिस शक्ति को रचेंगे, वह हर मुश्किल पर विजय पा लेगी।
मैं तुम्हें अपनी बाँहों में लेने आ रहा हूँ। मैं तुमसे कुछ इस तरह यह कहने आ रहा हूँ कि ‘मैं तुमसे प्रेम करता हूँ’, जैसे कभी नहीं कहा गया। मैं अपने होंठों को तुम्हारे होंठों में डुबा देने आ रहा हूँ। मैं साँस लेने आ रहा हूँ। मुझे अभी से महसूस होने लगा है कि ध्ारती काँप रही है, आकाश प्रतीक्षा कर रहा है।
रज़ा

पेरिस, 12 जुलाई 1954
प्रिय जानीन,
मैंने तुम्हारे ख़त और रेत से अपना चेहरा मला, और फिर उसे चूमा, उसपर हर कहीं हस्ताक्षर कर दिये।
कल, इस समय तक पूरा समुद्र-तट मेरा होगा। मैं पानी और ध्ाूप में नहाऊँगा। ध्ारती मुझे ऊष्मा देगी और हवा शीतलता, रोशनी मुझे चूमेगी और मैं लगातार तुम्हारी आँखों को चूमूँगा।
स्टेशन के प्लेटफाॅर्म पर ज़ाहिर है मैं सावध्ाानी बरतूँगा। मैं सिफऱ् तुमसे हाथ मिलाऊँगा। वही एक सौभाग्य होगा। लेकिन उसे जल्दी ही स्टेशन और बुरे लोगों से छुट्टी मिल जाएगी।
जहाँ तक मेरा सवाल है, मुझे किसी का डर नहीं है, न लोगों का, न नेताओं का, न देवताओं का। तुम ‘होने’ और ‘न होने’ के बीच का चुनाव हो, और मैं होना चुनता हूँ और होऊँगा।
मैं शायद तुम्हारे इयरिंग ले आऊँगा। वे मैं तुम्हें पहना दूँगा। मैंने तुमसे कह ही दिया था कि पिछली रात मैंने वे अपने सामान के साथ बैग में रख लिये थे। लगभग सारी तैयारी हो चुकी है। मैं 16,000 फ्ऱैंक, वापसी का टिकिट और अनन्त अनुराग लेकर आ रहा हूँ।
इस विलम्ब को लेकर परेशान मत होना। मैं अपने बारे में निश्चित हूँ। सब कुछ ठीक से निपट जाएगा। विश्वास करो कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ और कल पहुँच रहा हूँ। मैं एक केक और त्जिज़ानो लाऊँगा। तुम जानती हो कि वह क्या चीज़ है जिसकी प्रतीक्षा करना मुझे सबसे ज़्यादा मुश्किल है - तुम्हारी त्वचा का रंग।
प्रिय, मुझे दुख है कि तुम्हें कमरे की तलाश में इतना ज़्यादा भटकना पड़ा। तुम अपने घर के क़रीब ही कोई कमरा ले सकती थीं, भले ही एक-एक दिन के लिए एक हज़ार फ्ऱैंक क्यों न देना पड़ते। फिर हम देखते। मुझे तुम्हारे ऊपर इस तरह का काम थोपना अच्छा नहीं लगता। तुम मेरी को मेरी ओर से शुक्रिया ज़रूर कह देना। उसने मेरी हमेशा मदद की है और इसके लिए मैं उसका बेहद शुक्रगुज़ार हूँ... जब तक तुम्हें यह ख़त मिलेगा, तब तक मैं तट पर पहुँच जाऊँगा। हर पल तुम्हारे क़रीब पहुँचता जाऊँगा। पृथ्वी जितनी विस्तृत होकर मुझे ढँक लो, सोख लो।
कामना करता हूँ कि सूर्य चमकता रहे... कल 13ः32 बजे।

28 जुलाई 1954
अजीब संयोग है कि तुम अपना यह जन्मदिन ट्रेन में बिताओगी। मैं इस यात्रा को अर्थपूर्ण मानता हूँ। मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं और हवा के कण-कण में हर कहीं तुम्हारा अनुसरण करती रहेंगी।
यह बहुत महत्त्वपूर्ण दिन है जो तुम्हें मेरे राज्य में ले आया है। पच्चीस वर्ष, रानी बनने को एक पुरुष का चुनाव करने के लिए एक चैथाई सदी।
इस वक़्त ठीक 10 बजकर 50 मिनिट हो रहे हैं। मैं मिलने के लिए आतुर हूँ और इस, अनिर्वचनीय आनन्द से मैं तुम्हारी राह में हर कहीं फूल बिखेर रहा हूँ।
रज़ा

तारीख़ अंकित नहीं, अगस्त 1954
शनिवार, 23ः30
चूँकि तुम काम पर गयी होती हो, मैं तुमसे शाम को मिलता हूँ, थोड़ी थकी, लेकिन प्रसन्न और मुस्कराती हुई, तुम काफ़ी बदल गयी लगती हो। सबसे महत्त्वपूर्ण तो यह है कि तुम इतनी सुन्दर कभी नहीं लगती थीं, क़सम खाकर कहता हूँ, माॅतों में भी नहीं जहाँ का वातावरण वास्तव में तृप्ति से भर देने वाला था। और इसके अलावा, तुम अब पहले से ज़्यादा सौम्य, ज़्यादा समझदार, उदार, उस स्वभाव के ज़्यादा अनुरूप हो गयी हो जो मेरी समझ से तुम्हारा वास्तविक स्वभाव है। और इसलिए, जब तुम खुद को मेरी बाँहों में सौंप देती हो, मुझे अन्तहीन सुख मिलता है, इस स्थिति में भी, जबकि हम बमुश्किल घण्टे भर के लिए मिल पाते हैं।
आज शाम विदा होते हुए मैं यही और हम दोनों के बारे में हज़ारों बातें सोच रहा था, इस क़दर कि मुझे ख़याल ही नहीं रहा कि हम तीन दिन तक मिल ही नहीं पाएँगे।
यह हास्यास्पद और बहुत दुखद है। मेरे टी.एस.एफ. ट्रांजिस्टर रेडियो ने भावुक संगीत बजाया। मैंने उसे तीन बार बदला, सुना और बन्द कर दिया। एकबार वहाँ रेडियो पर, कोर्सिका के बारे में चर्चा हो रही थी।
हमें वहाँ हर हाल में जाना होगा, हम दोनों को, जहाँ हमारा अपना एक प्लाॅट होगा और सारा समय हमारा होगा, जहाँ से हमें ‘खदेड़ने’ कोई नहीं आएगा।
मेरे पास तुम्हारा आज भेजा गया ख़त है, जिसे मैंने कई बार पढ़ा, जो मुझे अनुराग से ओतप्रोत लगा। जानती हो कि तुम अब, ज़्यादा खुलकर और उत्तरोत्तर बेहतर ढंग से लिखने लगी हो। और क्या तुम जानती हो कि अब तुम मुझे प्रेम करने लगी हो, जो हर दिन बढ़ता ही जाता है।
मैं तुम्हारी आँखें चूमते हुए तुम्हें शुभ रात्रि कहता हूँ।

पेरिस, 10 अगस्त 1954
प्रिय जानीन,
मैंने बेहद जज़्बात और दुख से भर कर आज सुबह 9.15 पर तुम्हारी पावती को पढ़ा।
मुझे लगता है कि अब तुम्हें कह देना चाहिए था कि मैं ही तुमसे मिलने आया था। तुम सब कुछ बता सकती थीं।
मुझे नतीजों का अहसास है, लेकिन मैं समझता हूँ कि अगर तुम ठीक इस वक़्त मेरी जि़न्दगी में साझा करती होती, तो यह कम तकलीफ़देह होता। क्योंकि उनका रवैया वाक़ई असहनीय है, और अगर मैं तुम्हारी जि़न्दगी में आ जाता हूँ, तो यह रवैया लम्बे समय तक जारी नहीं रह सकेगा।
मुझे खेद है कि बेचारी मेरी इस मामले में ख्वाहमख्वाह उलझ गयी है, जबकि उसका इससे कोई लेना-देना नहीं है।
काश, मैं तुमसे अभी मिल पाता और बात कर पाता।
मैंने पेरिस के उपनगरीय नक़्शे पर शाम्पीनी एस-माग़्न को ढूँढ़ निकाला है और मैं समझता हूँ कि अगर तुमने हल्का-सा भी इशारा किया होता, या अगर कल मुझसे न आने को न कहा होता, तो मैं वहाँ आकर तुमसे मिल सकता था।
मैं पोख़्ते दे शाग़ोतों के लिए पी.सी. और जोएँवील के लिए बस पकड़ता और फिर वहाँ से टैक्सी ले लेता। मैं शाम्पीनी में हर कहीं तुम्हारा स्कूल ढूँढता और वह मुझे मिल जाता क्योंकि इंसान अगर परमात्मा को भी सच्चे हृदय से खोजता है तो वह भी उसे मिल जाता है।
मैंने पूरा ज़ोर लगाकर इस लोभ का संवरण किया क्योंकि मुझे हर हाल में काम करना ज़रूरी था। अगर मैं लिखता हूँ तो इसलिए कि पीड़ा कम हो सके, तुमसे कह सकूँ कि तुम्हारा दर्द मेरा है, और मैं सब कुछ करूँगा ताकि ये दिन जितना जल्दी मुमकिन हो बीत सकें।
मेरा अभी भी विश्वास है कि जिस रफ़्तार से सब कुछ चल रहा है, उसकी वजह से ऐसा ही होगा, यह मुमकिन होगा, इसे मुमकिन होना होगा। मुझे ज़रा भी सन्देह नहीं है। तुम देखोगी। मैं जानता हूँ कि इस वक़्त सब कुछ मुश्किल लग रहा है और हालात कभी-कभी हास्यास्पद हो उठते हैं। हम इस स्थिति से बाहर निकल जाएँगे। हम आज़ाद होंगे, हमारा अपना जीवन होगा, हमारा सुख होगा। तुम्हें अपने चित्त को शान्त रखना होगा। तुम्हें भविष्य की खुशहाली के बारे में सोचना चाहिए, और यह सोचना चाहिए कि तुम्हारी सारी बाध्ााएँ, मुश्किलें और दुख हमें एक-दूसरे को और भी अध्ािक प्रिय, और भी अध्ािक मूल्यवान बना देंगे। हम जीवन को जीने लायक बना देंगे। यह सब होगा और तब तुम मुझसे कहोगीः क्या तुम्हें वह दिन याद है, और वह दिन याद है...
फि़लहाल तो प्रिय जानीन, सिफऱ् इतना सोचो कि हम एक-दूसरे को प्रेम करते हैं और इसी वजह से हम एक-दूसरे को पा लेंगे।
सब कुछ तुम्हारे लिए और हमेशा के लिए।
रज़ा

पेरिस, बुध्ावार, 22 सितम्बर
प्रिय जानीन,
लगता है मैं तुम्हारे बिना कुछ भी नहीं कर सकता। मुझे हर पल तुम्हारी ज़रूरत महसूस होती है और इन दिनों जब कमरे की समस्या मुझे किसी प्रेत की तरह सता रही है, मैं कामना करता हूँ कि तुम यहाँ होतीं। जानती हो, डार्लिंग, इस महीने के समाप्त होने के पहले मुझे कुछ करना बेहद ज़रूरी है - अक्टूबर में यह असम्भव हो जाएगा। गुइ में छात्रों की संख्या हर दिन बढ़ती जा रही है और इस मोर्चे पर मैंने सारी उम्मीदें खो दी हैं।
मुझे जल्दी ही अपने दोस्तोें के पास जाकर कमरे के लिए बात करनी होगी।
इसका मुझपर भयानक दबाव है, और लगता है कहीं ऐसा न हो कि 15 अक्टूबर के बाद मुझे किसी होटल में शरण लेनी पड़े।
आज शाम मैं घर की तरफ चल पड़ा मैंने श्लेसिंगर के साथ थका देने वाला दिन बिताया था; और घर पर लगभग छह बजे मुझे तुम्हारा ख़त पड़ा मिला जिसने मुझे आनन्द से भर दिया। मेरी छोटी-सी चुहिया, मेरा ख़याल है, मेरे साथ है और मेरे लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। मैंने आज दोपहर में ही तुम्हें ख़त भेजा है और यह मेरा दूसरा और साँ गफ़ैल में भेजा गया सम्भवतः आखि़री ख़त है। विश्वास करो, ऐसा सिफऱ् इसलिए है क्योेंकि मुझे यह भी नहीं पता है कि तुम्हारे पास इतना समय भी है कि तुम पोस्ट आॅफि़स जाकर इसके बारे में पता लगा सको। पोस्ट आॅफि़स को डाक रोककर रखने के लिए लिखना दुखद है, जबकि आज मैं कैनवासों पर चीख सकता हूँ कि मैं उसे प्यार करता हूँ, मैं उसे प्यार करता हूँ, अपनी छोटी-सी रेटोनी को मैं प्यार करता हूँ। तब भी, यह सुविध्ााजनक है कि कुछ समय यही सिलसिला जारी रहे। मैं सचमुच ही तुम्हें लिखना चाहता हूँ, जो कुछ भी यहाँ करता हूँ उसके बारे में बताना चाहता हूँ, तुमसे हज़ारों सवाल करना चाहता हूँ। उम्मीद है यह ख़त तुम्हारे पास शनिवार तक बल्कि शायद शुक्रवार तक पहुँच जाएगा, और इस बीच तुम मुझे लिखोगी कि तुम वापस कब लौटीं और सोमवार को पोस्ट आॅफि़स जाने का समय निकाल पायीं या नहीं।
हालाँकि, प्रिय रेटोनी, तुम्हारे जाने के बाद से मैंने बहुत थोड़ा-सा ही काम किया हैः मात्र दो पोर्टेªट। मुझे श्लेेसिंगर के साथ अक्सर बाहर जाना पड़ा, और कल के लिए मैं माफ़ी चाहता हूँ क्योंकि मुझे कुछ काम करना और कमरे के लिए लोगों से सम्पर्क करना ज़रूरी था। मेरे पास नन्हीं बताई को देने के लिए मेले की रसीद भी है। खन्ना अभी भी यहीं हैं, और मैं उनसे अक्सर मिलता हूँ। बंगाली एक हफ़्ते के लिए चला गया है और यह अच्छा ही है। लेकिन तब भी अपने लिए मेरे पास बहुत कम समय बच पाया, और मुझे लगता है कि मैं तुम्हारे साथ बहुत आसानी से साँ ग़फैल आ सकता था। काश कि ट्रेन थोड़ी और आगे तक गयी होती। हाँ, ग़्वाशों को लेकर चिन्ता मत करो। मुझे उसकी ज़रूरत नहीं है। मैं सिफऱ् इतनी आशा करता हूँ कि रेखांकन और पुस्तक से तुम्हें कोई परेशानी न हो।
मैं तुम्हारे पिता को चित्र बनाते देख सकता हूँ। और तुम्हें, उनको सलाह देते। और तुम्हारी माँ को, जो तुम दोनों को सराहना के भाव से देख रही हैं। अगर वे इस कला को संजीदगी से लें, तो तुम उन्हें एक चित्रकार का पता दे सकती हो, जो एक अच्छा शिक्षक साबित होगा, ख़ासतौर से अगर मामला लैण्ड स्केप का हो।
रेटोनी
माई डियर, आइ लव यू, गुड नाइट। कल मिलेंगे।
तिथि अंकित नहीं
प्रिय जानीन,
आज के दिन की शुरुआत मैंने तुम्हारे ख़त के साथ की। तुम्हारा तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। तुम जानती हो कि यह मुझे वह शक्ति देता है जिसकी मुझे बेहद ज़रूरत है। लेकिन उसके साथ मुझे घर से आया एक ख़त भी मिला, और मिस्टर रावत का ख़त भी जो आ चुके हैं। इस तरह, भरपूर सामग्री। इस समय शाम के 5 बज रहे हैं। मेरे सामने तुम्हारा ख़त है, और आज सुबह से मैं सिफऱ् यही सोच रहा हूँ कि कल तुम्हें मेरा ख़त नहीं मिला, और मैं डाक की इस निराशाजनक हालत से अच्छीं तरह वाकि़फ़ हूँ। लेकिन प्रिय, मैंने तुमसे कहा था कि मैं तुम्हारे जाने के पाँच दिन बाद लिखूँगा, बहुत सीध्ाा-सादा लिखूँगा ताकि पत्रों के खोने से बचा जा सके।
फ़ातिमा ने घुटने टेक दिये हैं। वह अपने ख़त में अपने नजरिये के बारे में कैफि़यत दे रही है, और तमाम ग़लतफ़हमियों को लेकर पछता रही है। मैं जानता हूँ कि यह पैंतरा है। वे देखना चाहते हैं कि मुझ पर इसका क्या असर होता है। मैं उन्हें (महज़) दो शब्द लिखकर कह दूँगा कि अब बहुत देर हो चुकी है, और अब दुनिया की कोई भी ताक़त मेरे फैसले को नहीं बदल सकती। इसके अलावा मैं जल्दी ही पदमसी को लिखकर उनसे शादी और तलाक़ के बारे में जानकारी मागूँगा। लगता है कि हिन्दुस्तान की संसद में कोई क़ानून पारित हुआ है जो अब लागू हो गया होगा।
अब्दुुल्ला मेरे लिए कृपापूर्वक पिछले शनिवार की वल्र्ड पत्रिका की प्रति लेकर आ रहे हैं जिसमें इसके ब्यौरे हैं। मैं और भी पूछताछ करने जा रहा हूँ और मुझे पक्का विश्वास है कि सारा समाध्ाान निकल आएगा। मेरी रेटोनी, नये क़ानूनों पर भरोसा करो।3 मैं नहीं समझता कि इन सवालों को लेकर जो बदलाव लाये गये हैं, वे अस्थाई हैं।
हाँ, मैं सोलांज से कहने वाला हूँ कि वे मेरे लिए कोई सही वकील मुहैया कराएँ। मैं यह भी पता करूँगा कि यहाँ किस तरह नोटिस जारी कर तलाक़ की माँग कर सकता हूँ, और क्या चार सालों तक अलग रहना पर्याप्त, जायज़ वजह नहीं है।
मेरी प्रिया, विश्वास करो कि मैं अपने समूचे अस्तित्व से तुमसे प्रेम करता हूँ, और मैं वह सब कुछ करूँगा जिससे समस्याओं का ठीक से समाध्ाान निकल सके। लेकिन यह भी समझ लो कि अगर कुछ भी नहीं हुआ, तो हम शादी करने हिन्दुस्तान जाएँगे।
अपने दिन ध्ाूप में रेत पर बिताओ, अपनी सेहत का ख़याल रखो, ठीक-से खाओ, ठीक-से आराम करो, और जितना जल्दी-जल्दी मुमकिन हो, मुझे लिखो। उम्मीद है, तुम्हारे माँ-बाप तुमसे ठीक-से पेश आते होंगे, लेकिन अगर वे तुमसे कुछ बुरा कहते हों, तो यही सोचो कि तुमने इस दुनिया के सबसे भले इंसान का दिल जीता है, वह तुमसे प्यार करता है, और वह तुम्हें सुखी रखने के लिए कुछ भी करने को तैयार होगा। ये दिन गुज़र जाएँगे। मेरे संकल्प पर भरोसा रखो, और विश्वास करो कि मैं पूरी तरह तुम्हारा हूँ। तुम्हारी आँखों का चुम्बन।
रेटोन
मैं अब्दुल्ला से फिर-से मिला था। उन्होंने मुझसे एकबार फिर पूछा कि क्या मैंने तुम्हें लिखा था। मैंने कहा हाँ, लेकिन मैंने मेरी का कि़स्सा नहीं लिखा था। हाँ, उन्होंने कहा, और वे चाहते हैं कि जब तुम आओ तो मेरी तुमसे बात करे। इसलिए इस मामले से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। इन ख़तों को सुरक्षित रखना।

तिथि अंकित नहीं
12.30
मेरा टी.एस.एफ. (ट्रांजिस्टर रेडियो) मध्ाुर और तीव्र ध्ाुनें बजा रहा है। मैं बिस्तर पर लेटा रहा, विक्षुब्ध्ा, सोने में असमर्थ। मेरी खिड़की से तारों भरा आकाश दिखता है जहाँ एक बड़ा और शान्त चन्द्रमा जगमगा रहा है। मेरी टाँगों के बीच आग ध्ाध्ाक रही है।
मैं आज रात तुम्हारे उन काँपते होंठों के बारे में सोच रहा था, जो भीगे हुए थे। इस पल मैंने उन्हें अपने होंठों से छुआ होता और फिर अपना सिर उनके बीच रख दिया होता। मैंने तुम्हें झकझोरा होता, नोचा होता, समेटा होता और चूमा होता। मैंने तुम्हें सुला दिया होता और मैं भी सो गया होता।
मैं दिन भर के काम से थके तुम्हारे उदास चेहरे के बारे में सोच रहा हूँ। अब मैं उसे अपनी मुड़ी हुई बाँह का सहारा दिया करूँगा ताकि तुम वहाँ आराम सको। मैं तुम्हें चन्द्रमा से लोरी सुनवाऊँगा, हल्के-हल्के झुलाऊँगा, सहलाऊँगा और सुला दूँगा, और मैं भी सो जाऊँगा।
मेरी जानीन, मुझे उस हर चीज़ से नफ़रत है जो हमें अलग रखती है। मैं अब तुमसे मिलने के लिए और इन्तज़ार नहीं कर सकता।
मेरे चारों ओर चार दीवारें हैं और कई और भी फ़र्श हैं और सीढि़याँ हैं और सड़कें हैं। मुहल्ले हैं और ज़मीन के नीचे से गुज़रती एक पूरी-की-पूरी सड़क है, और पीटी. आॅफ वेन्से -
क्या वह दोस्ताना होगा? कल का सूरज। आह, किस क़दर नीरस और दर्दनाक रात रही।
रेटोन

8.15
बारिश हो रही है। मैं आऊँगा, इस मौसम के बावजूद, चाहे सैलाब ही क्यों न आ जाए। मैं ‘उसका’ पीछा करूँगा जो जो तुम्हारा पीछा कर रहा है। रात 11.45 पर जैसाकि तय हुआ था।
तुम्हारा,

सुबह 10 बजे
तुम्हारी टाइयर समय पर आ गयी है। बारिश और तेज़ हो गयी है। मैं आता हूँ।

तिथि अंकित नहीं
इस सोमवार की दोपहर तुम मुझसे मिलने आयी होतीं। रिम्बाँ की इन पंक्तियों को एकबार फिर से पढ़ो, वही पंक्तियाँ जिनसे तुम परिचित हो।
जादुई फूल गनगुना रहे थे। घास से आच्छादित ढलान उसे हल्के से थामे हुए थे।
अद्भुत रूप से आकर्षक जन्तु घूम रहे थे।
जमा हो रहे थे तूफ़ानी बादल अनन्त गर्म आँसुओं से बने उफ़नते समुद्र पर।

जंगल में एक परिन्दा है, उसका गीत तुम्हें रोक लेता है और तुम्हें लजा देता है।
एक दीवार-घड़ी है जो बजती नहीं।
एक गड्ढा है सफ़ेद जन्तुओं का घोंसला है जिसमें।
एक कैथेड्रल है जो डूबता है और एक झील है जो ऊपर उठती है।
झाडि़यों में लावारिस छोड़ दी गयी एक छोटी-सी घोड़ा-गाड़ी है, या वह जो तेज़ी-से भागती
है सड़क पर, फीतों से सजी हुई।
जंगल के किनारे से गुज़रती सड़क पर वर्दीध्ाारी बाल-अभिनेताओं का एक दस्ता दिखायी देता है।
जब तुम भूखे और प्यासे होते हो, अन्ततः कोई होता है जो तुम्हें खदेड़ देता है।4


सन्दर्भ-सूची

1ः सन्तृप्ति का दौर
1. सैयद हैदर रज़ा अशोक वाजपेयी, पैशनः लाइफ़ एण्ड आर्ट आॅफ़ रज़ा, राजकमल बुक्स, 2005, पृ.40
2. रज़ा के नाम फ़ातिमा की माँ का ख़त, हैदराबाद, तिथि अंकित नहीं
3. वही
4. वही
5. हसन इमाम के नाम रज़ा का ख़त, पेरिस, तिथि अंकित नहीं
6. राजेश रावत के नाम रज़ा का ख़त, पेरिस, 2 मई 1957
7. राजेश रावत और जेनेविएव के नाम रज़ा का ख़त, पेरिस, 1 जुलाई 1956
8. राजेश रावत के नाम रज़ा का ख़त, पेरिस, 8 अप्रैल 1958
9. गीति सेन, बिन्दुः स्पेस एण्ड टाइम इन रज़ाज़ विजन, मीडिया ट्रांसेसिया इण्डिया लिमिटेड, 1997, पृ. 74
10. अकबर पदमसी, लेखक के साथ एक साक्षात्कार में, बम्बई, फ़रवरी 2017
11. पैशन, पूर्वोद्धृत, पृ.56
12. ज़्याँ द्युशेन, लेखक के साथ एक साक्षात्कार में, पेरिस, अक्टूबर 2016
13. रईसा पदमसी, लेखक के साथ एक साक्षात्कार में, पेरिस, सितम्बर 2017
14. ज़्याँ द्युशेन, लेखक के साथ एक साक्षात्कार में, पेरिस, अक्टूबर 2016
15. मिशेल अम्बाख़, लेखक के साथ एक साक्षात्कार में, गोर्बियो, सितम्बर 2016
16. वही
17. द्युशेन साक्षात्कार, पूर्वोद्धृत
18. वही
19. वही
20. वही
21. वही
22. वही
23. वही
24. वही
25. गुसेल साक्षात्कार, पेरिस, अक्टूबर 2016
26. द्युशेन साक्षात्कार, पूर्वोद्धृत
27. रईसा पदमसी, पूर्वोद्धृत
28. बिन्दु, पूर्वोद्धृत, पृ. 61
29. वही
30. रज़ा के नाम सूज़ा का ख़त, लन्दन, 29 दिसम्बर 1949
31. दिलीप पाडगाँवकर, ‘ज़्याँ मैजिकल स्पेल’, टाइम्स आॅफ़ इण्डिया, 2 मई 2004
32. जानीन भरूचा, लेखक के साथ साक्षात्कार, पेरिस, सितम्बर 2017
33. वही
34. वही
35. वही
36. द्युशेन साक्षात्कार, पूर्वोद्धृत
37. भरूचा साक्षात्कार, पूर्वोद्धृत
38. ज़्याँ और कृष्णा के नाम रज़ा का ख़त, पेरिस, 13 अक्टूबर 1969
39. ूूूण्ूपापचमकपंण्बवउ
40. सुनील सेठी, ‘इन मेमोरियॅम, कृष्णा रिबाॅ 1927-2000, ूूूण्पदकपं-ेमउपदंतण्बवउ 2000
41. ूूूण्ूपापचमकपंण्बवउ
42. सुनील सेठी, पूर्वोद्धृत
43. वही
44. राजेश रावत के नाम रज़ा का ख़त, पेरिस, 2 मई 1957
45. वही

2ः जादुई फूल गुनगुना रहे थे
1. अनुवादक की टिप्पणीः पदमसी जल्दी ही उनके स्टुडियो ‘एतेलिए 17’ में शामिल हो गये। पेरिस में उनकी पहली प्रदर्शनी 1952 में आयोजित हुई। कलाकारों ने अज्ञात रूप से चित्र प्रदर्शित किये थे, लिहाजा उन्होंने फ्ऱांसीसी पत्रिका जुग़्नेल द’आख़त द्वारा दिया गये पुरस्कार में चित्रकार ज़्याँ कैग़्जू के साथ साझा किया था।
2. उनकी पहली पत्नी जिनके साथ अभी तलाक़ होना है।
3. अनुवादक की टिप्पणीः इस पत्र का सम्बन्ध्ा रज़ा की पहली पत्नी से है जो अविभाजित हिन्दुस्तान में रहती थीं, और बाद में पाकिस्तान में रहने लगी थीं। इस वजह से रज़ा और मोंजिला को क़ानूनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। इस पत्र में वे अपने विवाह की योजना बना रहे हैं और रज़ा के पिछले वैवाहिक सम्बन्ध्ा को तोड़ने का तरीक़ा खोज रहे हैं।
4. आर्थर रिम्बाँ, इल्युमिनेशन्स , पी.एन. रिव्यू 199, खण्ड 37, अंक 5, अनु. जाॅन एशबरी, मई-जून 2011

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