समन्दर अनुवाद - बिन्दु भट्ट
23-Mar-2022 12:00 AM 2472

झपकी लग गयी थी। आँख खुली तब टैक्सी पुल पर गुज़र रही थी। पुल के दोनों ओर समन्दर की खाड़ी का पानी था। बीच बीच में ऊपर उठी हुई ज़मीन के टुकड़ों पर अगर (समुद्री नमक) के सफ़ेद दाग़ दिख रहें थे। मैंने टैक्सी के शीशे को उतारा। खारी हवा चेहरे से टकराई। गहरी साँस लेकर हवा छाती में भरी। दादाजी कहते- ‘खाड़ी माने समन्दर की उलटी। इसमें क़ागज़ के जहाज़ भी नहीं चल सकते।’
दादाजी। गहरी टीस उठी। गाँव पहुँचूँगा तब उनकी हालत कैसी होगी? बैठे होंगे कि लेटे होंगे? मैं लेटे हुए दादाजी की कल्पना भी नहीं कर सकता। वे हमेशा मुझे खड़े ही दिखे हैं। तस्वीर जैसा दृश्य- तन कर खड़े दादाजी और पीछे समन्दर।
कल देर शाम को मैं अपने नेवल बेस के होम पोर्ट विशाखापट्टनम् में ड्यूटी से लौटा। कमरे का दरवाज़ा खोल ही रहा था कि सेल फ़ोन की घण्टी बजी। पिताजी का फ़ोन था। अचरज हुआ। आम तौर पर माँ-पिताजी के फ़ोन उन लोगों के सोने जाने से पहले आते।
‘हाँ, भाभा।’ मैं पिताजी को ‘भाभा’ कहता हूँ।
‘हरि...ड्यूटी पर हो?’
‘नहीं, बस अभी-अभी कमरे में आया हूँ।’
‘सुन....तू जल्द से जल्द कब निकल सकता है?’
उनकी आवाज़ में अजीब-सी हड़बड़ी थी। आवाज़ थोड़ी काँप रही थी। कुछ ठीक नहीं था।
‘क्या हुआ है, भाभा? कोई इमरजेंसी है?’
‘बाबूजी की तबियत बहुत खराब है। तीन दिन पहले गाँव से वीरजी का फ़ोन था।’ वीरजी चाचा पिताजी के चचेरे भाई थे। उनकी हमारे गाँव में पंसारी की छोटी-सी दुकान थी।’ उसने कहा कि बाबूजी की तबियत बिगड़ी है। साँस बहुत चढ़ती है, बी.पी ऊपर-नीचे हो रहा है, शुगर भी बढ़ गयी है। डाॅक्टर को बुलाया था। उन्होंने तुरन्त अस्पताल में भर्ती करने को कहा है। लेकिन वे मानते नहीं हैं।’
मेरी सारी ताक़त जवाब दे गयी। कुरसी पर बैठ गया। सीने में गट्ठा जैसा फँस गया। पिछले कुछ सालों से दादाजी पर उमर का असर दिख रहा था। दमे की तकलीफ़ पुरानी थी, फिर भी वे इस क़दर बीमार हो सकते हैं, यह माना नहीं जा सकता था। आखि़री बार मिला था तब उन्होंने कहा था- ‘हरि, ज़ल्दी ब्याह कर ले। तेरे बच्चों को समन्दर पर ले जाना है।’
और अब इस तरह एकाएक...
‘तुझे छुट्टी मिल सकेगी? कैसे भी कर के ज़ल्दी आ जा। मुझे उनकी हालत ठीक नहीं लग रही है। तुझे बहुत याद कर रहे हैं।’ पिताजी ने कहा था।
‘आप गाँव पहुँच गये हैं?’
‘वीरजी का फ़ोन आया उसी रात ही मैं और तेरी बाई यहाँ आ गये हैं। हमने भी बाबूजी को बहुत समझाया कि अस्पताल में ठीक से इलाज हो सकेगा। साफ़-साफ़ मना कर रहे हैं। तू आ ही जा। शायद तुम्हारी बात मान लें। वैसे भी इस उमर में ...कुछ कह नहीं सकते। तू समझ रहा है न, मैं क्या कह रहा हूँ?’
पिताजी ने समझ बूझकर मुझे आ जाने के लिए कहा होगा। वे जानते हैं नेवी में बिना वजह छुट्टी नहीं मिलती। शायद दादाजी की सेहत सचमुच ज़्यादा खराब थी। चिन्ता के साथ अपराध्ा भाव जागा, मानों हम सबने दादाजी को अकेला छोड़ दिया हो। तबादले के कारण पिताजी बरसों पहले बाहर निकल गये थे। मैं काॅलेज में पढ़ने के लिए दूसरे शहर गया, फिर नेवी में भरती हुआ। दादा-दादी गाँव में ही रहे आये। पिताजी उन्हें अपने साथ रहने का आग्रह करते रहते, पर वे मानते नहीं थे। दो साल पहले दादी की मृत्यु के बाद तो वे एकदम अकेले हो गये थे। फिर भी गाँव छोड़ने को तैयार नहीं थे। वैसे वीरजी चाचा देखभाल करते थे, लेकिन आखिर वे भी कितना कर सकते हैं।
बहुत ज़ोर देकर कहते तो दादाजी एक ही सवाल पूछते- ‘वहाँ समन्दर है?’ पिताजी हाथ मलते रह जाते।
मैंने लेपटाॅप में फ़्लाईट की जानकारी ली। रात को एक बजे विशाखापट्टनम से हैदराबाद होकर जानेवाली फ़्लाईट थी। बड़े तड़के अहमदाबाद पहुँचकर, एयरपोर्ट से टैक्सी ले लूँ तो दोपहर तक गाँव पहुँच जाऊँगा। अपने सीनियर से फ़ोन पर बात की। उन्होंने परिस्थिति भाँप ली। एक हफ़्ते की छुट्टी लेकर मैं निकल पड़ा था।
सुबह हो गयी थी। आकाश में बादल से छाये थे। बादल थे कि ध्ाूल छायी हुई थी? जी खराब हो गया। अनिश्चितता ने घेर लिया। मैं पहुँचूँगा तब दादाजी...बड़ी मुश्किल से आँसू रोके। अशुभ विचार करने की ज़रूरत नहीं थी। मैं पहुँचूँगा तब वे ठीक-ठाक ही होंगे। मानेंगे नहीं फिर भी जबरदस्ती अस्पताल में ले जाएँगे। दादाजी को कुछ नहीं होगा, कुछ नहीं हो सकता।
पुल गुज़र गया था। खाड़ी पीछे छूट गयी थी। सड़क के आसपास तितर-बितर बबूल, थूहर, सूखे तने, ध्ाूप में जली हुई घास। कुछ दूर पवन-चक्की के लम्बे पंखे ध्ाीरे-ध्ाीरे घूमते दिखे। काफ़ी लम्बी दूरी तय कर मैं क़रीब आ गया था लेकिन फिर भी दादाजी से बड़ी दूर था।
ड्राईवर ने टैक्सी सड़क के किनारे होटल की ओर मोड़ी। मैं नीचे उतरा। सारी रात जागने के बाद सुस्ती लग रही थी। बाहर की हवा अच्छी लगी। परिचित गन्ध्ा उठी। किसी के क़रीब आ जाने का एहसास जागा। मैं जब भी गाँव आता हूँ तब हर बार यही महसूस करता हूँ, पर आज अच्छा नहीं लगा। जिस कारण से अचानक मुझे आना पड़ा था, उसका बोझ मन पर था।
मैं भी ड्राईवर के पीछे खुली जगह में गया। चाय मँगवाई। ड्राईवर सिगरेट सुलगा रहा था। वह चार-पाँच बार इस तरफ आ चुका था। हम समय पर घर पहुँच जाएँगे।
समय पर? टीस उठी। पहुँचूँगा तब दादाजी...
चाय पी कर टैक्सी में बैठा। ड्राईवर आया नहीं था।
पिताजी को फ़ोन किया, ‘भा जगे?’
‘जाग रहे हैं कि सो रहें हैं उसका पता ही नहीं चलता। थोड़ी देर पहले चार-पाँच चम्मच काँजी बड़ी मुश्किल से पिलायी। डाॅक्टर देख गये।’
‘कुछ बोले?’
‘कुछ नहीं। बाबूजी अस्पताल में भर्ती होने को तैयार नहीं हैं। मैंने कहा, शाम तक राह देखते हैं। हरि आकर समझाएगा। डाॅक्टर ने कहा कि इसमें बाबूजी की मर्जी का सवाल ही नहीं पैदा होता। जो करना चाहिए वह तो करना ही चाहिए...परन्तु तू आ जा, फिर तय करते हैं।’
मैं समझ नहीं पाया, मेरी राह देखने का क्या मतलब? बहुत देर न हो जाए उसके पहले-
‘भाभा, मुझे लगता है कि मेरी राह मत देखिए। उन्हें अस्पताल में एडमिट कर ही दीजिए। इस उम्र में हम रिस्क नहीं ले सकते। डाॅक्टर की सलाह को ही मानना चाहिए।’
फ़ोन पर खामोशी रही। पिताजी ने फ़ोन बन्द कर दिया क्या?
‘भाभा?’
‘हँ...’ उनकी आवाज़ गहरे उतर गयी थी। गला खँखारकर स्वस्थ हुए। ‘बाबूजी घर में ही रहना चाहते हैं, हरि।’
‘हाँ, पर उनकी ऐसी हालत...’
‘ऐसी ही हालत है इसीलिए तो कह रहा हूँ... डाॅक्टर सुबह-शाम दो बार आता है। घर पर भी अच्छे से इलाज चल रहा है। तू आ जा, फिर...’
‘भाभा...’
‘हँ...’
‘कुछ ठीक नहीं लग रहा है। आप भी हिम्मत हार गये...’
‘नहीं...नहीं इसमें हिम्मत हारने जैसा क्या है? बाबूजी की उमर भी ऐसी है न कि सब सोच कर चलना पड़ता है। तू चिन्ता मत कर। सब ठीक-ठाक हो जाएगा।’
‘आपने उन्हें बताया कि मैं आ रहा हूँ?’
‘हाँ।’
‘क्या बोले?’
‘क्या पता - वे समझे कि नहीं। बस, मेरी ओर देखते रहें। बहुत कमज़ोरी आ गयी है।’
एक दुबली काया... खाट पर पड़ी हुई... होश और नीम बेहोशी की स्थिति के बीच झूलती। शायद पिताजी उन्हें अस्पताल ले जाना नहीं चाहते थे। लेकिन क्यों? मैंने आँखें मसली। गले में ख़राश आ गयी। किसी समय दादाजी नहीं रहेंगे ऐसी स्थिति का आज के पहले कभी विचार आया ही नहीं। कई बरसों से उनसे दूर रहना पड़ा है, फिर भी वे लगातार मेरे साथ ही रहे हैं। एक पल में मेरा सारा बचपन आँखों के सामने से गुज़र गया। वे समन्दर की लहरों के नीचे ढँक गये हैं। मैं देख रहा हूँ- पानी से बाहर आता उनका सिर और फिर पूरा शरीर...
दादाजी से फ़ोन पर बात करने की इच्छा को बड़ी मुश्किल से रोका, मैं उन्हें कहना चाहता था- ‘भा, तैयार रहना, समन्दर पर जाना है न!’
’’
दादाजी ने मुझे बताया था- ‘तुझे पता है, हरि, अपने दादा-परदादा में कोई मरा नहीं हैं, सब समन्दर में चले गये हैं।’
हम अपने गाँव के समन्दर के कच्चे किनारे पर बैठे थे। यह जगह पुरानी जैटी से दूर थी। इस तरफ सिवा मछुआरों के कोई नहीं आता था। मैं गीली बालू से घर बनाता था। दादाजी मेरे बगल में पैर फैला कर बैठे थे। उनकी चिलम के ध्ाुएँ से तम्बाकू की गन्ध्ा उठ रही थी। वे काफ़ी देर से मौन थे। बीच-बीच में मैं उन्हें देख लेता था। चाहता था कि वे बालू का घर बनाने में मेरी मदद करें। उस दिन वे मेरे क़रीब बैठे थे, फिर भी मानों कोसों दूर निकल गये थे। उनकी नज़र समन्दर पर ठहर गयी थी।
हम हर सुबह समन्दर पर आते। टूटे हुए गढ़ के नुक्कड़ से बाहर निकलते ही समन्दर से आती हवा के थपेड़ों से मेरी आँख बन्द हो जाती, बाल बिखर जाते। मैं सिर उठाकर दादाजी को देखता। वे पूछते- ‘थक गया? गोदी में उठा लूँ?’ मैं ज़ोर-ज़ोर से सिर हिलाता। वे कहते- ‘छाभास!’ दादाजी की शाबाशी से मैं खुश हो उठता। उनका हाथ छुड़ाकर आगे दौड़ लगाता।
‘वे चिल्लाते- ‘हरि, रुक...’ मैं रुक जाता। ‘शर्त लगानी है? समन्दर पर पहले मैं पहुँचता हूँ या तू?’
मैं उनका हाथ फिर से पकड़ लेता। समन्दर को लेकर दादाजी को हराने की मैं सोच ही नहीं सकता था। मेरे लिए तो समन्दर उनके अकेले की ही अमानत थी। हम आगे बढ़ते।
गढ़ के बाहर पक्की सड़क थी। बाहर से आते वाहन इसी सड़क से गाँव में प्रवेश करते। उस तरफ कुछ आगे जाने पर मोड़ आता। वहाँ नदी थी। उस पर पुल बना था। बरसात के दिनों में नदी में पानी आता और उसका बहाव पुल के नीचे होता हुआ समन्दर से जा मिलता। समन्दर भी खुद चल कर नदी से मिलने आता हो वैसे उसके ज्वार का थोड़ा पानी फैल कर आगे बढ़ता। बरसात के मौसम के बाद थोड़े ही समय में नदी सूख जाती। गाँव के लड़के खाली नदी की कछार में पतंग उड़ाते या क्रिकेट खेलते। किसी शाम मैं और दादाजी नदी की बालू में बैठते।
दादाजी कहते- ‘ऐसी तो कई नदियाँ जगह-जगह पर समन्दर से मिलती हैं। बेचारी भाग-भाग कर मीठा पानी लाती हैं, लेकिन समन्दर उस सब को खारा कर देता है। इसे मीठा पानी रास नहीं आता, तो क्या किया करे?’
थोड़े दूर जहाज़ बाड़ा था। वहाँ दो-तीन जहाज़ बनाने का काम चलता। हम जहाँ बैठते वहाँ से जहाज़ के ढाँचे अस्थि पंजर जैसे लगते।
‘अपने गाँव में कद्दावर जहाज़ बनाये जाते, हरि। वाढा जाति के लोग जहाज़ बनाने में बड़े क़ाबिल। अब पाल वाले जहाज़ का चलन बन्द हो गया है, सो ये ध्ान्ध्ाा बिल्कुल चैपट हो गया। पुराने ढंग के जहाज़ का ज़माना गया। मसीन लग गये। एक ज़माने में यहाँ के बने हुए जहाज़ समन्दर के रास्ते कई-कई देशों की यात्रा करते।’
गाँव के कुछ खाते-पीते घर के सुखी लोगों ने पुल के उस तरफ कोठियाँ बनायी थीं। दादाजी को वे लोग फूटी आँख नहीं सुहाते। वे सोचते, गढ़ के बाहर रहने गये लोगों ने समन्दर से द्रोह किया था। दादाजी के लिए गढ़ के बाहर के सारे इलाके का मालिक सिफऱ् समन्दर था।
हम पक्की सड़क से समन्दर पर नहीं जाते। वहाँ से समन्दर थोड़ा दूर पड़ता। नुक्कड़ से बाहर निकलते ही सामने बनी सँकरी और उबड़-खाबड़ पगडण्डी पकड़ लेते। झाड़-झंखाड और खड्ड-गढ्ढों से होकर चलना पड़ता। दादाजी को पगडण्डी ही पसन्द थी। वे जल्द से जल्द समन्दर पर पहुँचना चाहते। ‘इस तरफ जाने से समन्दर का जल्द ही सामना हो सकता हैं।’ मुझे भी पगडण्डी अच्छी लगती। उसका सिफऱ् यही कारण था कि वह दादाजी को अच्छी लगती थी। दूर से समन्दर के दिखायी पड़ते ही दादाजी की रफ़्तार बढ़ जाती। उनकी रफ़्तार से कदम मिलाने में मुझे लगभग दौड़ना पड़ता।
समन्दर की भीगी रेत पर पैर रखते ही वे मेरा हाथ छोड़ देते। फतूही उतार कर रेत पर फेंक देते। लम्बे-लम्बे डग फाँदते हुए पानी में घुस जाते। घुटनों तक पानी में खड़े रहते। इसके बाद ही उन्हें याद आता कि मैं भी उनके साथ आया हूँ।
‘खड़ा क्यों है? लगा छलाँग।’
मानों मैं उनके न्योते की राह देख रहा था वैसे दौड़ता उनके पास पहुँच जाता। पानी मेरे सीने तक आता। सरकती रेत से पैरों के तलुओं में गुदगुदी होती। ज्वार के समय लहरों के थपेड़े से मैं गिर जाता। दादाजी खिल-खिलाकर हँस पड़ते। पानी में खड़ा करने के लिए मेरी ओर हाथ नहीं बढ़ाते।
‘भेंण के ...मल्लाह का बचवा होकर एक लहर नहीं झेल सकता? उठ खड़ा हो... हो जा खड़ा! समन्दर से टक्कर लेना नहीं सीखेगा तो बड़ा होकर क्या करेगा?’ कभी मेरे मुँह में खारा पानी भर जाता। दो-तीन घूँट पेट में उतर जाते। ‘कोई बात नहीं, पेट साफ़ हो जायेगा,’ दादाजी कहते।
वे आगे बढ़कर काफ़ी गहरे पानी में गुम हो जाते। उन पर लहरें फैल जाती। मेरा कलेजा मुँह को आ जाता। दादाजी बह जाएँगे तो मैं क्या करूँगा? थोड़ी देर बाद कुछ दूर उछलती लहरों के बीच उनका सिर दिखायी पड़ता। शरीर पानी से ऊपर उठता। चेहरे पर से पानी झटक देते। सारी देह पर पानी की ध्ाारें बहती।
‘तू भी गोता लगा,’ वे कहते। शुरू में मैं डरता तो मेरा हाथ खींच कर पानी में मुझे फेंकते। ‘हाथ-पैर चला। ऐसे ही सीखते जाते हैं। दो-चार बार डूबाकर समन्दर खुद तैरना सिखाता है।’
मैं थोड़ा-थोड़ा तैरना सीख गया था। लेकिन बहुत आगे नहीं जाता। दादाजी काफ़ी आगे निकल जाते। मैं उन्हें वापिस बुलाता।
‘तू आ न।’
मैं खड़ा रहता। दादाजी मेरा मजाक उड़ाते, ‘फट्टू ! अपने बाप जैसा डरपोक मत बन। वरना अपनी नहीं जमेगी, बता देता हूँ हरि।’
मैं नाराज़ हो जाता। उन्हें पता चल जाता। लहरों को चीरते मेरे पास आते। गोदी में उठा लेते।
‘मेरा हरि तो बहादुर है, थोड़ा बड़ा होने पर मुझसे भी आगे निकल जाएगा।’
मैं दादाजी के कन्ध्ो पर सिर रखता। गहरी साँस लेता। उनमें से समन्दर की गन्ध्ा आती।
‘भा, आप समन्दर जैसे बास रहे हैं !’
‘अच्छा !’
मैं अपना हाथ उनकी नाक के पास ले जाता।
‘सूंघों, आपके जैसी बास आती है?’
दादा हँस पड़ते। गुदगुदी करते। ‘तेरे में से भी खारी-खारी बास आती है। तू खारा, मैं खारा - और ये समन्दर भी खारा !’
पानी से बाहर निकलते। शरीर पोंछने की ज़रूरत नहीं पड़ती। ध्ाूप और हवा से शरीर सूख जाता। वे बालू में बैठते। फतूही की जेब से चिलम और तम्बाकू की थैली निकालते। मैं गीली बालू खोदता। दादाजी मेरे खेल में शामिल हो जाते। हम लम्बी नाली बनाकर समन्दर का पानी अपने बालू के घर तक लाते। लौटने समय दादाजी बड़े बेमन से खड़े होते। शरीर से चिपकी ध्ाूल बिना झटके हम घर की ओर लौटते।
दादाजी टाँगे फैलाये बैठे थे। चिलम बुझ गयी थी। उनकी निगाह दूर समन्दर में दूर तक स्थिर हो गयी थी। अचानक बोले- ‘तुझे पता है हरि, हमारे पुरखों में से कोई मरा नहीं है, सब समन्दर में चले गये हैं।’
मैं उनका मतलब नहीं समझा था, परन्तु चाहता था कि उनको पता न चले। हमारे बीच एक गुप्त समझौता था। वे जो कहें उसे मैं समझ लेता और मैं जो कहूँ उसे वे।
‘आपको किसने बताया?’
‘मेरे दादा ने।’
मैंने सिर हिलाया। इतना समझ में आया कि मेरे दादाजी के दादा ने उन्हें कुछ कहा था और वे वही मुझे बता रहे थे।
‘कब?’
‘मैं छोटा था तब।’
‘आप भी छोटे थे, भा?’
‘हाँ, तेरे बराबर।’
‘आपके भी दादा थे?’
‘थे न।’
कितने बड़े?’
‘मेरे बराबर।’
कभी मेरे बराबर रहे होंगे वैसे दादाजी को देखने की मैंने कोशिश की। उन्हें मेरी जगह पर और उनकी जगह पर उनके दादाजी की कल्पना की।
‘आपके दादा को किसने बताया?’
‘उनके दादा ने।’
समन्दर में चले जाना, मतलब?’
उन्होंने समन्दर की ओर हाथ बढ़ाया, दूर तक अँगुली से दिखाया। हाथ के इशारे से ‘चला जाना’ समझाया।
‘इस समन्दर में?’ मैंने उनकी बतायी दिशा में देखा। मानों वे लोग उसमें चले गये हैं तो कहीं तो दिखेंगे।
‘समन्दर यह हो या और कोई, फ़रक नहीं पड़ता है। मेरे दादा जहाज़ में अफ्रीका गये थे। नहीं लौटे। समन्दर में बड़ा तूफान उठा। जहाज़ टूट गया। दादा के साथ जहाज़ में जो गये थे वे सारे समन्दर में चले गये।’
अनजान समन्दर में जाता हुआ जहाज़ मेरी आँखों के सामने आया। उसमें बैठे हुए लोग। तूफ़ान के कारण आसमान तक उछलती लहरें। इध्ार-उध्ार डोलता जहाज़। घोर गरज के साथ जहाज़ हरहराकर टूटा होगा। वे लोग लुढ़क गये होंगे। बचने के लिए जूझे होंगे... फिर समन्दर में चले गये होंगे।
‘अपने गाँव के कई लोग समन्दर में चले गये हैं। जहाज़ी सफ़र के लिए निकलते, परन्तु लौट कर नहीं आते।’
‘तो फिर उन्हें नहीं जाना चाहिए न?’
‘जाना पड़ता है, हरि। दरियालाल की पुकार होने पर कोई घर में बैठा नहीं रहता। बिस्तर पर मरने के बदले समन्दर में चले जाना बेहतर। मल्लाह के बच्चे का यही ध्ारम है। सब जानते हैं, समन्दर या तो पार लगाता है या डुबाता है, फिर भी कलेजा नहीं काँपता। खतरे की बात सुनते ही बाजुओं में पाल बन्ध्ा जाते हैं। जाना मतलब जाना, फिर भले ही न लौटे।’
मैंने पूरे समन्दर में दूर तक देखा किया। वे सब समन्दर में कहाँ चले जाते होंगे? कहीं तो समन्दर का छोर होगा। वे उसे पार कर लेते होंगे। वहाँ गाँव बसा कर उसमें रहते होंगे। शायद वे लोग वहाँ से हमें देखते भी होंगे।
‘आपके भाभा भी जहाज़ में बैठ कर चले गये थे, भा?’
‘उन्होंने कराँची तक दो बार जहाज़ी सफ़र किया था। समन्दर के रास्ते व्यापार में मन्दी आयी थी। अपने बन्दरगाह से जहाज़ चलने बन्द हो गये थे। बरसों से पानी के साथ खींची आती बालू के ढेर के ढेर से बन्दरगाह का रास्ता पट गया था। जहाज़ किनारे नहीं आ सकता। काफ़ी दूर खड़ा करना पड़ता था। मेरे भाभा ने सोचा कि गाँव के सेठों की तरह छोटा-मोटा कोई ध्ान्ध्ाा कर ले। दूसरी बन्दरगाह पर गये। दिवाला निकाला। किसी को मुँह दिखाने के काबिल न रहें, गले में भारी पत्थर बाँध्ा समन्दर में चले गये।’
दादाजी चुप हो गये थे। बुझी हुए चिलम मुँह में लगाये बैठे रहे थे। जब वे चुप हो जाते, बात को आगे बढ़ाने की जि़म्मेदारी मेरी रहती।
‘भा, आप गये हैं कभी समन्दर में?’
वे हँसे। ‘रोज़ डुबकी तो लगाता हूँ।’
‘वैसे नहीं, आपके दादा और उनके जैसे लोग जहाज़ में जाते थे वैसे?’
‘न, नहीं गया। मौका ही नहीं मिला ...पर बात तो समन्दर में चले जाने की है न? ऐसा नहीं है कि समन्दर में जाने के लिए जहाज़ में जाना ज़रूरी है। समन्दर को अपने में संजोए रहें तो किसी दिन समन्दर खुद चलकर हमें लेने आएगा। तू देखना, किसी को पता भी नहीं चलेगा और एक दिन मैं समन्दर में चला जाऊँगा।’
हम लोग कुछ दिन समन्दर पर आ नहीं सके थे। दादाजी को बुख़ार आया था। रोज़ रात को मेरे सोने से पहले कहते- ‘कल तैयार रहना।’ मैं सुबह उनके पास जाता तब वे निढाल लेटे रहते। दस-बारह दिन बाद बुख़ार उतरने पर हम समन्दर पर आये थे। कमज़ोरी के कारण वे समन्दर तक आते-आते थक गये थे।
‘इसका क्या करेंगे, भा?’ मैंने पूछा।
‘किसका?’
‘समन्दर का।’
‘क्या करना है इसका?’
‘इसे अपने घर ले चलें?’
‘इस समन्दर को?’
मैंने हाँ कहा।
‘तेरा कहना है कि इसे अपने घर ले चले?’
‘हाँ।’
‘क्यों?’
‘हम इतने दिन समन्दर पर नहीं आ सके। इसे ही अपने घर ले चलें। घर में ही हो तो कोई समस्या नहीं रहेगी?’
दादाजी की आँखों में चमक आयी।
‘ठीक है तू कहता है तो ले चलते हैं। चल उठ।’
उन्हें मेरी बात जँची ये मुझे अच्छा लगा, लेकिन समन्दर को घर ले जाना आसान नहीं था।
‘लेकिन भा, इसे ले जाएँगे कैसे?’
‘थैली में डाल लें?’
‘थैली में तो नहीं समाएगा न।’
‘ये भी ठीक। बोरे में भर लें। फिर बोरा पीठ पर लाद लें और चल पड़ें।’
‘बोरा भी छोटा पड़ेगा, भा।’
वे जैसे समन्दर को नाप रहे हो वैसे गौर से देखते रहें।
‘बैलगाड़ी ले आएँ? गाड़ी में लाद कर ले चलें।’
ये बात मुझे जँची।
‘तो... तो बड़ा मजा आएगा....लेकिन इसे घर में रखेंगे कहाँ?’
‘आँगन में। अपना आँगन बड़ा है, समा जाएगा।’
मैंने होंठ भींचें। दिखा, पूरा आँगन मानों समन्दर है। लहरें घर की देहरी से टकरा रही हैं।
‘ठीक हैं न?’ दादाजी ने पूछा। अब समन्दर को घर ले जाने का विचार उनका हो गया था। ‘ठीक है कि नहीं- या फिर अभी भी तुझे कोई आपत्ति है?’
मेरे मन में कुछ और चल रहा था। मन हिचक रहा था।
‘मुझे तो कोई आपत्ति नहीं है, पर दादी, भाभा, बाई... ये लोग चिल्लाएँगे। बिल्ली भी पालने नहीं देते और फिर यह तो समन्दर।’
‘कान बन्द कर लेंगे, और क्या !’ वे हँसें। मैं हँस नहीं सका। मेरे मन में भाँति-भाँति के संशय उठ रहे थे।
‘भा, समन्दर को आँगन में शायद न रहना हो और अगर वह घर में रहने को कहेगा तो?’
‘मना कर देंगे। कहेंगे उसे- तुम घर में नहीं रह सकते।’
‘मानेगा?’
‘अरे कैसे नहीं मानेगा? तू मेरी बात मानता है न?’
‘मेरी बात अलग है, मैं आपका पोता हूँ। आप ही तो कहते हैं कि समन्दर आपका दादा है। वह आपकी बात नहीं मानेगा, आपको उसकी बात माननी चाहिए।’
उन्होंने जवाब नहीं दिया। सोच में पड़ गये। कोई उपाय सूझता नहीं था। एक का हल निकालते तो दूसरा सवाल खड़ा हो रहा था।
वे थोड़ी देर बाद उठे।
‘हम उलझन में फँसे इससे बेहतर है कि समन्दर से ही मैं पूछ आता हूँ कि उसे क्या करना है? ज़रा देखे तो सही कि क्या कहता है।’
पानी में पैर डुबोए वे खड़े रहे, मानों समन्दर से बातें कर रहे हो। वापस आये।
‘पूछा?’
‘हाँ, पूछा तो सही, लेकिन मना कर रहा है। बोला कि घर ले जाने की बात छोडि़ये। यहीं ठीक हूँ।’
मैं निराश हो गया।
‘कोई बात नहीं। उसे नहीं आना है तो ठीक है यहीं रहे। हम ज़बरदस्ती थोड़ी न कर सकते हैं। तू फि़कर मत कर। ये यहाँ से कहीं नहीं जाएगा। हम उसके पास आते-जाते रहेंगे। साफ़ मना कर रहा है तो क्या हो सकता है।’
समन्दर अपने में मगन उछल रहा था। देर तक पीठ के बल चित लेटा था। पानी ध्ाूप में चमक रहा था। मछुआरों की नावें उस पर तैर रही थी। ऊपर सफ़ेद पंछी उड़ रहे थे। तेज़ हवा चल रही थी। समन्दर की बात सही थी। उसे ऐसा खुलापन चाहिए। आँगन में उसका मन नहीं लगता।
दादाजी ने मेरे बालों पर हाथ फेरा।
‘कल से लोटा लेकर आएँगे। लौटते वक़्त एक-एक लोटे जितना समन्दर घर ले जाएँगे। ठीक है न?’
मैंने बेमन से सिर हिलाया। समन्दर एक-एक लोटे जितना हमारे घर आने को मना नहीं करेगा।
समन्दर को घर ले जाने की बात कई दिनों तक मेरे मन से गयी नहीं थी। मैं उसके बारे में सोचता रहता था। समन्दर को आना ही चाहिए। लेकिन ये सम्भव कैसे हो? वह तो आने से ही मना कर रहा है। अगर दादाजी ज़ोर देकर समझाएँ तो हो सकता है। वैसे मैं भी बात कर सकता हूँ। अब तो वह मुझे भी पहचानता है।
दरअसल उस बेचारे ने घर देखा ही नहीं है। घर में क्या-क्या होता है, कौन-कौन होता है, घर में रहने का मज़ा कैसा होता है - उसे कुछ पता नहीं है। खुले में अकेला उछलता रहता है। किनारा छोड़कर बाहर निकला ही नहीं है। ज्वार के समय थोड़ा-सा आगे बढ़ता है, फिर जहाँ से आया था वहीं दुबक जाता है। किनारों से बाहर क्या है, वह देखे तब पता चले न कि दुनिया क्या है। कहूँगा उसे- बा के हाथ का बना मज़ेदार खाना मिलेगा। कुएँ का मीठा पानी पीने को मिलेगा। खारा पानी पी-पी कर ऊब नहीं गया तू? हमारे घर में नरम गद्दे हैं। जी चाहे उतना तू सोये रहना, कोई उठाएगा नहीं। अगर आँगन में नहीं रहना है तो ऊपरी मंजि़ल पर तेरा इन्तज़ाम करेंगे। नींद उड़े तो ऊपर के बरामदे का दरवाज़ा खोल कर छत पर चले जाना। मैं तेरे लिए दातून ले आऊँगा। दूध्ा नहीं पीना है तो बाई तेरे लिए कहवा बना देगी, कहेगा तो चाय बना देगी। तेरे साथ-साथ मुझे भी एकाध्ा घूँट पीने को मिलेगी। नहाने को गरम पानी मिलेगा। नहाना हो तो नहाना वरना हाथ मुँह ध्ाो लेना। गली में खेलेंगे, पतंग उडाएँगे, कंचे से खेलेंगे। तुझे ही जिताऊँगा, बस? हमारे घर में रात को सब इकट्ठे बैठ कर खाते हैं। दूध्ा में भिगोई बाजरे की रोटी खाना। काम निपटाकर दादी जब खाट पर बैठे तब उनके एक ओर तू और दूसरी ओर मैं। दादी से कहेंगे- ‘कहानी सुनाओ न।’ मेरी दादी कभी किसी बात की मना नहीं करती।
दादी कहानी कहेगी-
‘एक था समन्दर ..’
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दादाजी ने भी समन्दर की कहानियाँ सुनायी थीं। एक कहानी समुद्र मन्थन की थी। देवों और दानवों ने अमृत पाने के लिए समन्दर को बिलोया था। अमृत निकलने के बाद देवों और दानवों के बीच लड़ाई हुई थी। दानव हार गये थे, देव सारा अमृत ले गये थे।
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समुद्र मन्थन की कहानी मुझे जँची नहीं थी। किसी ने समन्दर का विचार ही नहीं किया। समूचा बिलो डाला। उसने भीतर जो संजोकर रखा था वह सब हड़प कर गये। मन्थन के समय समन्दर को कितना दुःख हुआ होगा। उस कहानी को सुनने के बाद मैं समन्दर पर गया तो उछलती लहरें और किनारे पर बिखरते झाग देखकर मुझे लगा था, मानों उसका मन्थन अभी भी पूरा नहीं हुआ है। दिन-रात के मन्थन के कारण ही समन्दर में तूफान उठते हैं। ज्वार-भाटे की वजह भी यही है।’
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समन्दर का दिल बहुत बड़ा होता है, हरि, बहुत व्यापक। वह अपना सब कुछ दूसरों को दे देता है फिर भी चुकता नहीं। भीतर से भरा-भरा ही रहता है। बेफि़कर होकर जितनी ताकत हो उतना ले जाइए आप।’
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मुझे देवों से बड़ी कोफ़्त होती थी। दानवों को ध्ाोखा दिया, मेहनत करवायी, लेकिन अमृत दिया नहीं। यह ठीक नहीं किया। यह तो सरासर अन्याय है। दानव बेचारे कहाँ जाएँ। दादाजी बताते थे कि दानव हार गये तो समन्दर में छुप गये।
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‘भा, आप कहते थे न कि विष्णु भगवान समन्दर में सोते हैं?’
हाँ, तो?’
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‘दानवों के साथ समन्दर में क्यों रहते हैं?’
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‘समन्दर सबको अपनाता है। किसी को मना नहीं करता। है कितना बड़ा ! जिसको भी रहना हो, रह सकता है।’
‘भा, दानव आज भी समन्दर में रहते होंगे?’
‘रहते हैं न। कई नाविकों ने समन्दर में उन्हें देखा है। जहाज़ में जा रहे हों उस समय अचानक कोई राक्षस समन्दर से निकलता है। सफ़र से लौटने पर वे लोग ऐसे कई तिलस्माती किस्से बताते हैं। हम जैसे लोगों को तो वे किस्से गप्प ही लगे।’
दिलचस्पी जग रही थी। ‘भा, ऐसा कोई किस्सा बताइये न।’ दादाजी के पास समन्दर के किस्सों का पिटारा भरा पड़ा था। बस, मेरे पूछने भर की देर होती।
‘सुन, यह बात सच्ची है या झूठी मुझे नहीं पता, पर सुनी है। अपने गाँव का जहाज़ माल लाद कर जा रहा था समन्दर के मझध्ाार में। अमावस की रात थी। अँध्ोरा था। सारे दिन के काम से थकान से चूर सब गहरी नींद में थे। सिफऱ् एक आदमी समन्दर पर नज़र टिकाए सुक्कान पर बैठा जाग रहा था। अनुकूल हवा के कारण जहाज़ सरपट भाग रहा था। दो एक दिन में किनारे पहुँचने का अनुमान था। समन्दर तालाब-सा शान्त पड़ा था। इतने में नाखुदा ने देखा कि जहाज़ से कुछ ही दूरी पर एक बड़ा सा उबाल उठा। पानी आसमान जितना ऊँचा उड़ा। उसमें से डर लगे ऐसा कुछ दिखा। नाखुदा की चीख निकल गयी। सब जग गये। जहाज़ के ठीक सामने कमर तक पानी में एक बड़ा राक्षस आध्ाा पानी में और आध्ाा बाहर खड़ा था। उसने झपट कर जहाज़ का आगे का हिस्सा पकड़ लिया। ध्ाक्का लगने से सब लुढक पड़े। कोई कुछ कर सके उसके पहले तो ध्ामध्ामाहट करता राक्षस जहाज़ पर आ ध्ामका। उसका सिर बड़े से पतीले सा था। ऊपर से खुला। मुँह फाड़े सबको निगलने उसने ध्ाावा बोला। चीख-पुकार मच गयी। अफरा-तफरी में कोई इध्ार भागता कोई उध्ार नीचे तहखाने की ओर भागता। बचने वाले तो नहीं थे फिर भी जान बचाने भाग रहे थे। राक्षस एक ही निवाले में सबको गटक जाए उतना बड़ा। ऐसे में हुआ यह कि उसका पैर मोटे रस्से में फँस गया। किसी ने रस्सा खींचा और राक्षस ओंध्ो मुँह गिरा। गिरते ही पतीले जैसे सिर में से सारा पानी नीचे फैल गया। राक्षस छटपटाकर मर गया।’
मैं भी दीदे फाड़े दादाजी की बातों से खड़ा हुआ दृश्य देख रहा था।
‘भा, ऐसा ताकतवर राक्षस अचानक कैसे मर गया?’
‘यही तो खूबी है कुदरत की, हरि। उस राक्षस की सारी ताकत उसके सिर में भरे हुए पानी में थी। पानी के फैलते ही राक्षस कमज़ोर पड़ गया और मर गया। समन्दर की बातें सुनते हैं तब जा कर पता चलता है कि समन्दर में क्या-क्या होता है। एक बार नाखुदा और मल्लाहों ने अपने जहाज़ के साथ चलते, यहाँ तक कि टकरा जाए उतना सटकर चल रहे दूसरे जहाज़ को देखा। वे चिल्लाए लेकिन उध्ार से जवाब नहीं आया। कोई नज़र नहीं आया। सुक्कान पर कोई नहीं था फिर भी जहाज़ ठीक से चला जा रहा था। पूरे जहाज़ में आदमी का बच्चा नहीं था।’
‘फिर भी जहाज़ चल रहा था?’
‘भूत चला रहा था।’
मेरे रोंएँ खड़े हो गये। दादाजी समन्दर के भूत की एक और बात कहने जा रहे थे, लेकिन उन्हें रोककर मैं उनके बगल में दुबक गया था।
......
दादाजी ने अगस्त्य ऋषि की भी कहानी सुनायी थी। देव और दानव के बीच लड़ाई चलती ही रहती। एक बार एक लड़ाई में दानव समुद्र में छिप गये थे। अब वे लोग समुद्र से बाहर निकले ही नहीं तो क्या किया जाए। सो सब देवों ने अगस्त्य ऋषि से प्रार्थना की कि दानवों को समुद्र से बाहर निकालें। अगस्त्य ऋषि सातों समुद्र का पानी पी गये। चूँकि समुद्र सूख गया सो सारे दानव दिख गये।
मैं नहीं मान सका। एक आदमी पृथ्वी के सारे समुद्र का पानी कैसे पी सकता है? दादाजी ने समझाया कि पुराने जमाने में कई ऋषि बड़े शक्तिमान थे। उन्होंने कठिन तपस्या कर के भाँति-भाँति की सिद्धियाँ हासिल की थी।
मेरे दिमाग में कुछ ओर चल रहा था। दादाजी समझ गये।
‘किस सोच में पड़ गया, हरि?’
‘भा, अगर हम अगस्त्य से बात करें तो वे मदद करेंगे?’
‘क्यों? तुझे क्या काम है?’
‘वे अपने गाँव के समन्दर का सारा पानी पी जाए, फिर कुल्ला कर सारा उगल देंगे तो, एक ओर पानी और दूसरी ओर उसमें रही हुई रेत के ढेर अलग हो जाएँगे। फिर तो अपनी बन्दरगाह से जहाज़ वापस चलने लगेंगे कि नहीं?’
दादाजी ठहाका मार कर हँस पड़े। मुझे लगा, वे मेरा मज़ाक़ उड़ा रहे हैं। ऐसा नहीं था। वे मेरे सुझाव से बड़े खुश हुए थे।
‘वाह, हरि। ऐसा तो किसी को सुझा ही नहीं है। लेकिन... मान लो कि ऐसा हो गया फिर भी पहले सा जहाज़ी कारोबार फिर से चालू नहीं हो सकता। वे जहाज़ गये, उन जहाज़ों पर उछाह से चढ़नेवाले नाख़ुदा गये, वे व्यापारी गये। व्यापार करने की राहो-रस्म बदल गयीं। समन्दर के साथ-साथ इन्सानों के दिलोदिमाग भी रेत से भर गये हैं, हरि।’
मैं दादाजी की हताशा समझ नहीं सका था। आपने समझाने की कोशिश भी नहीं की थी।
हमारा घर पुराना था। कोठी सा। नीचे सहन, एक कमरा, रसोई। घर को घेरे जंगलेवाला गलियारा। पहली मंजि़ल पर दो कमरे। उसकी ऊपरी मंजि़ल पर एक लम्बा कमरा था। उसके एक दरवाज़े से लगी खुली बड़ी छत थी।
सभी कमरों की छत मज़बूत लकड़ी की थी। दरवाज़े भी वैसे ही मजबूत। ये लकड़ी मलाबार से आयी थीं। घर में लम्बी-चैड़ी खिड़कियाँ थी। उन पर पुराने जमाने के रंग-बिरंगी डिज़ाईनवाले शीशे लगे थे। खिड़की जब बन्द होती, शीशे से निकलती रंग-बिरंगी शहतीरें फर्श पर गिरतीं। कहीं-कहीं रंगीन शीशे टूट जाने पर सादा शीशे लगाये गये थे।
‘अब वैसे शीशे नहीं मिल सकते। पहले तो बेल्जियम से और दूसरे देशों से बड़े अच्छे शीशे आते थे। हमारे बन्दरगाह पर जहाज़ चलते थे तब परदेस से कई सारी चीज़ें आती थीं। बहुत बड़े पैमाने पर व्यापार चलता था। अब सब बन्द हो गया...’ दादाजी की आवाज़ में हमेशा एक अफ़सोस सुनायी देता रहता।
समन्दर के रास्ते व्यापार करने वाले सेठों की पुरानी हवेलियाँ गाँव में थीं। मैं जब दादाजी के साथ सँकरी गलियों से गुज़रता, शानदार हवेलियों को देखने के लिए सिर उठाकर खड़ा रहता। भाटिया, लोहाणा, बनिए, वोरा कौम के सेठों ने देश-विदेश में व्यापार के केन्द्र खड़े किये थे। उस सम्पत्ति से ये हवेलियों लदी-फदी रहती। दादाजी को हरेक हवेली के मालिक के नाम याद थे। ‘ये हंसराज सेठ की हवेली, इसमें लध्ाा सेठ रहते, ये नेणसी सेठ की कोठी, ये अली मामद वोरा की हवेली।’ वे नाम बोलते आगे बढ़ते। मैं बन्द ड्योढ़ी, खिड़की, दरवाज़ें, झरोखे देखा करता था। मुझे लगता मानों हरेक हवेली के सेठ सबसे ऊपर के झरोखों में खड़े हैं और समन्दर में गये हुए अपने जहाज़ का रास्ता देख रहे हैं।
‘समूचा गाँव भुतहा हो गया है। समन्दर का किनारा रेत से पट गया तो एक जमाने की चमक-दमक चली गयी। हवेली के वारिस मुम्बई, कलकत्ता, मद्रास जैसे शहरों में चले गये। बचे रह गये मल्लाहों के वारिस। अपने पुरखों की हिम्मत और परख से जहाज़ चलाते थे। सबको सेठों के नाम याद है लेकिन जिनके बलबूते पर जहाज़ चलते थे, उन सब लोगों के नाम सारे ही भुला दिये गये है।’
एक दिन हम एक हवेली के पास से गुज़र रहे थे। कई बरसों से बन्द हवेली खुली थी। दादा जाँच करने भीतर गये। साफ़-सफ़ाई के लिए हवेली खोली गयी थी। शायद उसके वारिस में से कोई थोड़े दिनों के लिए आने वाले थे। दादाजी ने कहा- ‘बेचने आ रहे होंगे, वरना किसे परवाह है इस गाँव की।’
उस दिन मैंने पहली बार भीतर से हवेली देखी। पक्का बड़ा सा आँगन। ऊँची छत वाले विशाल कमरे। बैठक में झाड़-फानूस, दीवारों में बने बड़े आलों के दरवाज़ों पर लगे आईने। हवेली ख़ाली करते समय जिसे उठाया नहीं जा सकता वैसे भारी फर्नीचर पर कपड़े ढँके थे। दीवारों पर तस्वीरें और चित्र टंगे थे। उसमें रौबीले सेठ और अभिजात सेठानियाँ भुतहा हवेली की खाली जगहों को अपलक ताक रहे थे। हवेली सीलन से भर गयी थी। खिड़की के टूटे शीशों से भीतर आ जाते कबूतरों की बीट बास रही थी।
हवेली से बाहर निकलने के बाद मैंने दादाजी से पूछा- ‘भा, हमारे घर को हवेली कहा जा सकता है?’
दादाजी ने गम्भीरता से जवाब दिया- ‘ना, हरि, हम लोग जहाज़ी करनेवाले। व्यापार ध्ान्ध्ाा हमारे बस का नहीं। सेठ लोग गाव तकिए पर बैठे रहें और जहाज़ी बीच समन्दर में तूफ़ानों से टक्कर लेते रहते। हमारा काम सेठ के माल को देश-विदेश में पहुँचाने का और वहाँ से नया माल लादने का। उसी में गुज़र-बसर हो पाये तो ग़नीमत, हवेली नहीं बन सकती।’
‘फिर भी हमारा घर तो काफ़ी बड़ा है।’
‘उसके पीछे एक बड़ा लम्बा किस्सा है। यह घर मोतीलाल भाटिया ने मेरे पिता के दादा नारण बाबा को भेंट किया था। मोतीलाल सेठ का अपनी बन्दरगाह पर बहुत बड़ा कारोबार था। उनके अपने चार जहाज़ चलते थे। सेठ को नारण बाबा पर पक्का भरोसा। जब बहुत बड़ा सफ़र होता तो उस समय नारण बाबा को ही जहाज़ सौंपते। नारण बाबा बड़े कडि़यल। सारी तैयारी करके ही सफ़र करते। समन्दर में क्या-क्या आफत आ सकती है उसका उन्हें पूरा अन्दाज़ा रहता। साथी भी वैसे ही चुनते। वे मोतीलाल सेठ का माल लेकर जंजीबार की ओर जा रहे थे। मँझध्ाार में पाँच-छह समन्दरी लुटेरों ने जहाज़ को घेरा। नारण बाबा समय पर चैकन्ने हो गये। जैसे ही लुटेरे जहाज़ में चढ़े कि नारण बाबा और उनके साथियों ने मार कर सबको समन्दर में फेंक दिया। शुक्र भगवान का कि वे लुटेरे नौसिखिए थे। उनका जहाज़ भी छोटा था वरना बीच समन्दर में लुटरों से भीड़ना मतलब मौत का सौदा। नारण बाबा छह सात महिने बाद सकुशल लौटे। लुटेरों से जहाज़ को कैसे बचाया उसकी बात मोतीलाल सेठ को बतायी। सेठ खुश हो गये। लुटेरे अगर जहाज़ लूटते तो सेठ की इज़्ज़त को बट्टा लगता। सेठ रास्ते पर आ जाते, तन पर पहने कपड़ों के सिवा कुछ नहीं बचता। मोतीलाल आदमी बड़ा दिलावर। उसने क़दर की। यह घर नारण बाबा के नाम कर दिया।’
घर में नीचे का कमरा दादा-दादी का था। मँझले तल्ले का एक कमरा मेरे माँ-बाबूजी था। मैं घर के सभी कमरों में मन चाहे ढंग से डोलता रहता। सबसे ऊपर की मंजि़ल बन्द रहती। दादाजी माह-दो माह में वहाँ जाते। मुझे कहते- ‘चलो, हरि, ऊपरी तल्ले पर।’ मैं उनके पीछे-पीछे दो-दो सीढियाँ चढ़ता। ऊपरी मंजि़ल बरसों पुराने असबाब से पटी रहती। मोटे-लम्बे रस्से, फटी हुई दरियाँ, बड़े देग, लम्बे चमचे और कई चीज़ें। हमारे ऊपरी मंजि़ल पर पहुँचने के बाद दादाजी थोड़ी देर खड़े रहते। मानों वहाँ किस लिए आयें है, यह भूल गये हों। गहरी साँस लेकर आसपास का सब सूँघते। ज़रूरत न हो फिर भी कमरे में ध्ारी चीज़ों को उलटते-पुलटते। दो बड़े बक्से ठूँस-ठूँस कर भरे थे। उन्हें खोलते। सब बाहर निकालते और फिर दुबारा ठूसते। शायद वे तसल्ली करते होंगे कि सब कुछ सुरक्षित है न! इसके अलावा वहाँ कुछ करना नहीं होता था।
मैंने ऊपरी मंजि़ल में एक छोटी सी सन्दूक़ची देखी थी। ख़ाली थी। दादाजी से पूछकर उसमें समन्दर किनारे से बीन कर इकट्ठे किये शंख-सीपियाँ भरे। दादाजी ने बड़े बक्से से दो शंख और तीन-चार जापानी खिलौने दिये थे। उन्हें भी मैंने सन्दूक़ची में रखा। मैं अपनी सन्दूक़ची को नीचे ले जाना चाहता था लेकिन दादाजी ने मना कर दिया। ‘यहाँ आकर खेलना। नीचे की दुनिया और यहाँ की दुनिया अलग हैं।’
ऊपरी मंजि़ल का सामान दादाजी और मेरा गुप्त ख़ज़ाना था। उनमें की कई वस्तुएँ हमारे पुरखों के ज़माने की थी। वे लोग जहाज़ी सफ़र को जाते होंगे तब इनमें की कई वस्तुओं का उपयोग करते होंगे। मैं उन्हें हाथ से सहलाता तब लगता, मानों समन्दर में जा चुके लोगों को छू रहा हूँ।
और भी सामान दादाजी ने जहाज़ों के मलबों में से इकट्ठा किया था। एक टूटा हुआ लंगर था। दादाजी ने कहा था कि जहाज़ों को स्थिर रखने के लिए ऐसे लंगरों को डालना पड़ता। दो-तीन गडारी थी। दादाजी ने छत में बँध्ाी डोर में एक गडारी लटकाई, उस पर रस्सा डाल कर, उसका उपयोग समझाया था। वे ऐसे कई जंग लगे साध्ानों के नाम बोलते और जहाज़ में उनके उपयोग की जानकारी देते। मैं ग़ौर से सुनता। एक बड़े बक्से में फटे हुए पाल का लम्बा-चैड़ा टुकड़ा तहा कर रखा था। मैंने पूछा तब दादाजी ने कमरे के खम्भे से पाल की तरह बाँध्ा कर बताया था। ध्ाीरे-ध्ाीरे मुझे समझ में आने लगा था कि दादाजी ऊपरी मंजि़ल पर आते ही क्या सूँघते हैं। मुझे भी ऊपरी मंजि़ल से समन्दर की गन्ध्ा आने लगी थी।
एक आदम कद आईना कोने में खड़ा था। उसका फ्ऱेम नहीं था। शीशे की पीठ पर कई जगहों से मुल्लमा छूट गया था। कमरे में रखी चीज़ों का प्रतिबिम्ब उसमें दिखता। मुझे लगता कि उस शीशे में एक और कमरा है। उसमें रहते लोग किसी को दीखायी नहीं पड़ते। वे लोग चुपचाप सब ताकते रहते हैं। आध्ाी रात को शीशे से बाहर निकल कर कमरे की चीज़ों का इस्तेमाल करते हैं। कमरे में जहाज़ चलाते हैं, रस्सा खींचते हैं, लंगर डालते हैं, देग में खाना पकाते हैं। फिर मानों किसी बन्दरगाह पर उतरे हों वैसे पूरे घर में और गाँव में घूमने निकलते हैं। समन्दर किनारे टूटी जेटी तक हो आते हैं। दरियालाल के मन्दिर में दर्शन करते हैं। बन्द गोदामों और हवेलियों में भी चक्कर लगा आते हैं।
यह बात मैंने किसी को बतायी नहीं थी। दादाजी को भी नहीं। वह मेरे अकेले का रहस्य था। उसमें किसी और को प्रवेश करने की छूट नहीं थी।
हम दोनों के अलावा ऊपरी मंजि़ल पर कोई जाता नहीं था। दादी के पैरों में वात की बड़ी तकलीफ़ थी और घुटने काम करते नहीं थे। पिताजी को अपने दफ़्तर से ही फ़ुर्सत मिलती नहीं थी। माँ के वहाँ जाने की कोई वजह नहीं थी। एक दिन दादाजी बाहर गये थे तब दादी, पिताजी और माँ के बीच हो रही बातें मैंने सुनी थी। ऊपरी मंजि़ल में बरसों पुराने माल-सामान को लादे रखने की दादाजी की जि़द से वे लोग नाराज़ थे। मैं उनके साथ सहमत नहीं था। दादाजी को उस मंजि़ल में जो दिखायी देता था वह औरों को नहीं दिखायी नहीं दे सकता था।
गर्मियों में मैं और दादाजी ऊपरी मंजि़ल की छत पर बाहर सोते। बड़ा मज़ा आता। मोटी दरी पर तकिए डाल लेटे रहते। समन्दर से आती ठण्डी हवा, ऊपर खुला आकाश। ढलती रात में हवा में सीलन बढ़ती। छत पर मुझे सब दिव्य और अगम्य लगता। मैं भूल जाता कि हमारे दो के अलावा और भी लोग हैं घर में।
दादाजी आकाश में दिखायी देते अलग-अलग तारों का परिचय करवाते। वह सात तारों का गुच्छा दिखायी देता है? वह सप्त ऋषि है... उध्ार देख, मंगल का तारा... और वह हीरे-सा जो चमक रहा है, शुक्र का तारा है। उनकी उँगली आकाश में चारों ओर घूमती रहती। हर तारे से जुड़ी कहानी भी बताते जाते।
‘और देख, वह जो दिख रहा है न वह ध्ा्रुव का तारा है। मैंने तुझे ध्ा्रुव की कहानी सुनायी थी न? यही है वह। अपनी जगह से हटता ही नहीं कभी। उत्तर में ही उगता है। पुराने जमाने में जहाज़ी करनेवाले ध्ा्रुव का तारा देख कर जहाज़ की दिशा तय करते थे। समन्दर में जहाज़ कहाँ है और वैसी सब बातें जानने के लिए उन लोगों का अपना हिसाब भी अलग रहता।’
मेरी नज़र दादाजी की अँगुली के साथ आकाश में घूमती रहती। मैं एक अलग प्रकार की गति और तरलता में डूब जाता। आत्म विश्वास जागता कि इतने बड़े आसमान में तारे दिख रहे हैं, और दादाजी मेरे साथ हैं तब तक मैं दिशा नहीं भूलूँगा और मेरा जहाज़ डूबेगा नहीं।
मेरी आँखें उनींदी हो जाती। मैं दादाजी से और चिपकता जाता। एक पैर उनके पैरों पर डाल देता। दादाजी का हाथ एक निश्चित लय में मुझे थपकियाँ देता रहता। मैं सो जाता। सपना देखता। मैं और दादाजी जहाज़ में बैठकर तारों के देश में गये हैं। ध्ा्रुव तारे की बन्दरगाह पर लंगर डालते हैं। सभी तारों के पास जाते हैं। समन्दर किनारे जैसे मैं शंख और सीपियाँ बीनता हूँ वैसे दादाजी एक के बाद एक तारे उठाकर मुझे दे रहे हैं। मैं नींद में भी तारों की जगमगाहट में जागता रहता था।
एक रात नींद ज़ल्दी आयी नहीं। मैं टकटकी लगाये आकाश की ओर घूर रहा था। दादाजी भी जाग रहे थे।
‘भा, समन्दर के ऊपर ऐसा ही आकाश होता होगा?’
‘ऐसा ही। मल्लाह जहाज़ में लेटे-लेटे आकाश ताकते रहते और आहें भरते रहते’।
‘आहें क्यों भरते रहते?’
‘वे सब अपने घरवालों को गाँव में ही छोड़कर अकेले जहाज़ी सफ़र पर गये होते थे। लौटने में महीनों लग जाते। घरवालों की याद बड़ी सताती रहती। बहुत दुःख होता है।’
‘दुःख क्यों होता होगा?’
‘होता ही है। तू अकेला दूसरे गाँव जाए तो हमारी याद तुम्हें दुखी नहीं करेगी? तुझे दुःख होगा और हमें भी होगा। किसी को अच्छा नहीं लगता।’
अपने घर के लोगों के बिना किसी अंजान जगह पर मैं अकेला हो सकता हूँ, यह विचार ही मैं सह नहीं पाया। दादा-दादी, बाई-बाबूजी कोई न हो तो रह कैसे पाऊँ। गला भर आया। स्कूल में जब दाखिला लिया तब शुरू के दिनों में घर का एक भी व्यक्ति मेरे साथ नहीं है यह बात याद आने पर मैं रोता था। ये लोग तो महीनों परदेश चले जाते। वे लोग वहाँ जहाज़ पर अकेले, परिवार के सब लोग गाँव में अकेले।
बात बदलने के लिए नया सवाल पूछा-
‘भा, जंजीबार, मस्कत और वैसे सब गाँवों में ऐसा ही आकाश होता होगा?’ दादाजी से सुने हुए कई जगहों के नाम मुझे याद रह गये थे।
‘आकाश हर कहीं एक समान ही होता है। कहीं भी जाए हमारे साथ ही वह चलता है।
‘लेकिन, भा...’ मुझे क्या पूछना है वह याद नहीं आया। आकाश को देखता रहा। यकायक भूला हुआ सवाल याद आया।
‘भा, समन्दर बड़ा गहरा होता है?’
‘बहुत ही गहरा। कितना गहरा हैं उसका पता आज तक किसी को नहीं चला है।’
‘समन्दर के नीचे क्या होता है?’
वे सोच में पड़ गये। मानों समन्दर के तल तक गहरे उतर गये हों। ‘समन्दर के नीचे समन्दर ही होता है। ऊपर के समन्दर से भी गहरा। एक थान पर दूसरे थान की तरह एक समन्दर के नीचे दूसरा। उसके नीचे तीसरा।’
मुझे उनका जवाब सुनकर सन्तोष नहीं हुआ, फिर भी मान लिया। फिर नया सवाल खोजा।
‘भा, आकाश में इतने सारे तारे, सूरज, चन्दा है तो समन्दर में भी’, वे उठ बैठे।
‘समन्दर की बात ही रहने दे, हरि। इसकी बात ही निराली है। कई जहाज़ उसके तल में पड़े हैं। समूचे गाँव के गाँव समन्दर में डूब गये हैं। किसन भगवान की द्वारिका की बात तो तूझे पता ही है न? वह पूरी की पूरी आज भी समन्दर में पड़ी है। किसम-किसम की मछलियाँ, मगरमच्छ और कई तरह के जीव-जानवर समन्दर में रहते हैं। पानी के अन्दरूनी पेड़-पौध्ो अलग। कई जगहों पर समन्दर के तल में ऐसे ध्ामाके होते हैं। मानेगा तू? पानी में आग भी लगती है!’
मैं बीच में बोलने जा रहा था कि उन्होंने मुझे रोका।
‘और सुन, किसी-किसी जगह पर पानी के ऐसे भँवर उठते कि उसमें अगर जहाज़ फँस जाए तब तो कई जहाज़ों के जहाज़ चक्कर काटते-काटते जा पहुँचें गहरे तल में।’
मैं नहीं मान सका। दादाजी को ताकता रहा। किसी के भी दादाजी मेरे दादाजी जितना नहीं जानते होंगे। वे कहीं नहीं जाते। फिर भी कई जगहों पर होते हैं।
‘भा, आकाश समन्दर जितना ही गहरा?’
‘दोनों असीम और अथाह।’
‘अथाह?’
‘थाह ही नहीं पा सकते।’
‘हाँ, लेकिन उसका कहीं तो सिरा हाथ लगता होगा न?’
‘पर सिरा हो तब भी हमारे हाथ न लगे, हरि।’
‘फिर भी भा, कहीं तो खतम होता होगा न?’
‘वे ख़तम नहीं होते फिर से आगे बढ़ते रहते हैं।’
मैं दादाजी का जवाब समझने के लिए थोड़ी देर चुप रहा।
‘भा, समन्दर और आकाश कहीं मिलते हैं?’
‘कुछ कह नहीं सकते। मैंने सुना है कि एक आदमी का जहाज़ पानी के बहाव में खिंच गया सो समन्दर और आकाश जहाँ मिलते हैं उस जगह पहुँच गया। वहाँ सब सफ़ेद। ज़मीन सफ़ेद। समन्दर सफ़ेद। आकाश सफ़ेद। समन्दर और आकाश एक हो गये थे। चारों ओर बादल और नमक की परतें जम गयी थीं। उसका जहाज़ पल में तैरे, पल में उड़े। अपने गाँव लौटा तब किसी ने उसकी बात मानी नहीं। सबको लगा, ये आदमी पगला गया है।’
मुझे वह आदमी पागल नहीं लगा। उसने ज़रूर वैसी जगह देखी होगी। आकाश नीचे झुक गया होगा। समन्दर ऊपर उठा होगा। बादल समन्दर की लहरें बन गये होंगे। लहरें बादल बन गयी होंगी। मैं भी समन्दर के किनारे खड़ा होकर दूर देखता हूँ तब लगता है कि दोनों एक हो गये हैं। ऐसी ही जगह होगी।
मैं उत्तेजना में डूब गया था। समन्दर में रहने को मिले तो बड़ा मजा आये। ख्यालों में देखा। हमारा गाँव समन्दर के गहरे तल में है। सारे घर और हवेलियाँ नावों की तरह तैर रहे हैं। किसी के घर जाना हो तो गलियों में तैरते-तैरते जाना होता। पानी के बीच खड़ा रहना हो तो लोगों को लंगर डालने पड़ते। घर को भी स्थिर रखना हो तो लंगर डालना पड़ता। अगर कोई चीज़ उठानी हो तो गड़ारी में रस्सा डालकर उठा लेना पड़ता।
समन्दर में जो लोग चले गये हैं वे ऐसे ही किसी गाँव में रहते होंगे।
मैं दरी पर लेट गया। दादाजी के ऊपर पैर रखा। मुझे लगा, मानों मैं विष्णु भगवान की तरह समन्दर पर लेटा हूँ और दादाजी शेषनाग।
मैं उठ बैठा।
‘भा, पहले आकाश बना कि समन्दर?’
दादाजी ने उबासी ली।
‘उसका जवाब कल दूँगा, इस वक़्त सो जा। देर से जागेगा तो सवेरे समन्दर पर कैसे जा पाएँगे।’
वे मेरे बालों में अँगुलियाँ फेर रहे थे। मैं ध्ाीरे-ध्ाीरे नींद में डूब रहा था। पल में समन्दर में तैरता, पल में आकाश में उड़ता। दादाजी के भीतर पैठा, मानों उनके शरीर में समूचा समन्दर हो। मैं किनारे पर बने बन्दरगाहों पर घूमता रहा।
दादाजी और समन्दर अलग-अलग नहीं रहे थे, एक हो गये थे।
हमारे घर का आँगन भी बड़ा था। उसके चारों ओर बनी दीवार के ऊपर काँच के नुकीले टुकडे़ लगे थे। एक दिन दादाजी बीस-पच्चीस फूट का खम्भा उठवा लाये। आँगन के कोने में मज़दूरों से गहरा गड्ढा खुदवा कर उसमें गड़वाया।
घर में किसी को भी जचा नहीं। पिताजी बड़बड़ाते रहे- ‘ऐसा पागलपन? आँगन में इसकी क्या ज़रूरत है? किसी दिन टूटेगा तो बेवजह लेने के देने पड़ जाएँगे।’ जब बात निकलती दादी भी तब ‘मुआ यह मस्तूल’ कहकर कोसती।
ढलती दोपहर में आँगन में छाँह थी। दादाजी खम्भे के पास खटिया डाले लेटे थे। मैं उनके पास लेटे-लेटे खम्भे को ऊपर से नीचे तक देख रहा था।
‘भा, ये लम्बा खम्भा है क्या?’
‘मस्तूल,’ दादाजी ने जवाब दिया।
‘हाँ, लेकिन उसका मतलब क्या?’
‘मस्तूल मतलब जहाज़ में ऐसे मस्तूल होते हैं।’
दादाजी के पास एक किताब थी। वे उसे ले आये। उसमें अलग-अलग प्रकार के जहाज़ों की तस्वीरें और चित्र थे। उसमें से उन्होंने भाँति-भाँति के जहाज़ के मस्तूल दिखाये। फिर जहाज़ों के चित्रों के अलग-अलग हिस्सों पर अँगुली रखकर बोले- ये ‘ध्ामुसो’ है, ये ‘ध्ाामण’ है, ये ‘टांगरो’ और ये...’
अजीब शब्द सुनकर मुझे हँसी आयी।
‘हँसने की बात नहीं है। ये सब जहाज़ के हिस्से और साध्ानों के नाम है। इनमें से एक भी साध्ान ठीक से काम न करें तो जहाज़ मझध्ाार में ही खतम हो जाए।’
दादाजी बड़ी गम्भीरता से सब दिखा रहे थें। मैं दिलचस्पी से देखने लगा।
‘मल्लाहों की बोली भी अलग।’ ‘मठार हुआ’ ऐसा बोले तो समझो कि पवन ध्ाीमी हो गयी है। मठार होने पर जहाज़ एकदम ध्ाीमा हो जाए, या फिर खड़ा रह जाए।’
दादाजी ने किताब सम्भाल कर अलग की।
‘हरि, अपने गाँव के सेठों के व्यापार का सारा दारोमदार जहाज़ पर। वे लोग जहाज़ बनवाने के लिए काफ़ी पूँजी ख़र्च करते। लाखों रुपए ख़र्च करके बना जहाज़ और उसमें लदा माल, नाख़ुदा के भरोसे सौंप देते। जहाज़ी व्यापार भरोसे के दम पर ही हो सकता है। न कोई सेठ ध्ाोखा देता, न कोई मल्लाह दग़ा करता। अगर किसी की नियत में खोट आ जाए तो दरियालाल खुद ही माफ़ न करे, जीते जी ही उसे दिन में तारे दिखा दे।’
बड़े होने पर मैं समझ पाया था कि दादाजी मुझे जानकारी देते थे उससे विशेष वे अपने आप से बातें करते थे। उनकी आवाज़ में सुनायी देती कचोट मुझे उस उम्र में भी विकल कर देती थी।
‘अपनी बन्दरगाह पर देश-विदेश के झण्डे लहराते थे। गाँव के महाजन सेठ, दूसरे मुल्क के व्यापारी, बिचैलिए, माल लाने और ले जाने के लिए मज़दूर, मल्लाह, जहाज़ बनानेवाले कारीगर। भाँति-भाँति के लोगों से गाँव का बाज़ार और बन्दरगाह गूँजते रहते थे। समन्दरी सफ़र का मौसम आये उस समय तो किसी को भी साँस लेने की भी फ़ुर्सत होती नहीं थी। सगुन विचार कर सफ़र पर निकलते थे। मल्लाह जहाज़ पर चढ़ गये हों और उनकी औरतें उन्हें जाते हुए देखने के लिए समन्दर पर इकट्ठी हुई होतीं। जहाँ तक दिखायी देता रहें वहाँ तक जहाज़ को ताकती रहती, फिर बच्चों के हाथ पकड़ घर की राह लेती। गाँव में सन्नाटा छा जाता था, हरि। जहाज़ पर गये हैं वे लोग, कब लौटेंगे उसका कोई अन्दाज़ नहीं होता, लौटेंगे भी कि नहीं इस बात का डर बना रहता।’
मैं पास में खड़े मस्तूल को देखता रहा। आसपास का सब भूल गया। मैं और दादाजी मझध्ाार में जहाज़ पर लेटे हैं, चारों ओर पानी है। गाँव को छोड़े महीनों गुज़र गये हैं।
‘जहाज़ लौटने लगते तब बन्दरगाह पर भीड़ लगती। जहाज़ से उतरकर सब अपने घरवालों से गले मिलते, सेठों की गद्दी पर हिसाब-किताब होता, सफ़र अच्छे से पूरी होने की खुशी दिखायी देती। जो अभी लौटे नहीं हों उनके घर वालों की जान गले में अटकी रहती। रोज़ नयी मन्नत मानते। समन्दर पर नज़रें बिछाए खड़े रहते। मल्लाह की औरत ओरग (समन्दर की पूजा) करें। बुरी ख़बर आने पर होते विलाप से समन्दर भी विकल हो जाता। लोग उम्मीद छोड़ते नहीं। नहीं ही लौटेंगे ऐसा मान लिया हो फिर भी रात-बेरात किसी का दरवाज़ा पीटा जाए और सामने भूत जैसा आदमी दिखायी पड़े। समन्दर के रहम करने पर ही वह किनारा पा सका होगा। होंठ सिल गये होते और दीदे फटे के फटे। जिनका लौटना बाक़ी होता उनके घरवालों को जवाब देना बहुत भारी पड़ जाता।’
दादा की आवाज़ भीग गयी और मेरी आँखें। ‘फिर भी समन्दर से लगाव कम नहीं होता था। खून में ही समन्दर उमड़ रहा हो ऐसे में किनारे कौन बैठा रह सकता है? जैसी दरियालाल की मरज़ी कहकर अपने मन को मजबूत करते। कच्ची उमर के लड़के मौसम शुरू होने की राह देखते रहते। गाँव में जब जन्माष्टमी के दो दिन बाद मल्लाह कृष्णजी की सवारी निकालते हैं तब तू देखता हैं न, कैसे उछल-उछल कर सब नाचते हैं, ढोल बजाते हैं। वे सारी समन्दर की हिलकोरें। समन्दर चाहे जितना हराये, कोई हार माने ही नहीं।’
रवाड़ी निकलती उस दिन मुझमें भी अजब प्रकार का जोश जागता। सिर पर रुमाल बाँध्ा कर दादाजी के साथ पूरा रास्ते नाचता।
ऐसी कोई बात करते तब दादाजी के चेहरे पर विचित्र झुर्रियाँ दिखायी देतीं। मैं उनके हाथों की खुरदुरी नसों पर हाथ फेरता। सोचता- दादाजी से मुझे ये सब बातें नहीं कहनी चाहिए। हर बार दुखी होते हैं। परन्तु मन का बोझ कहें बिना वे रह नहीं सकते थे।
‘गाँव के ज़्यादातर घर समन्दर पर निभते थे। जहाज़ चलने बन्द हो गये फिर सब समन्दर से अलग हो गये। पेट भरने के लिए नये ध्ान्ध्ो खोजने पड़ते हैं, यह बात तो समझ में आती है लेकिन समन्दर को बिल्कुल भूल जाए, किनारा कर जाए, ऐसा कोई करता होगा?’
एक नयी आह, शायद नपुंसक जैसा। अर्थहीन विरोध्ा का भाव।
‘भा, वैसे तो आप भी उसमें से बाहर निकल गये है न?’
‘फिर भी...समन्दर से दूर नहीं रहा। काफ़ी हाथ-पैर मारे। अपने बन्दरगाह पर जहाज़ी व्यापार बिल्कुल नहीं रहा तो दूसरे बन्दरगाह पर गया। काण्डला-नवलखी बन्दरगाह के बीच लोंच चलायी। मुम्बई गया। जहाज़ की बड़ी कम्पनी में नौकरी की। लेकिन उसका कोई मतलब नहीं। पहले के ज़माने में बाज़ुओं और सीने की ताक़त से जहाज़ चलते थे, अब मशीनें लग गयी। मशीन वाली आग बोट चलाना एक बात है और मल्लाह की तरह जहाज़ चलाना कोई और मज़ा नहीं आया। लौट आया। जहाज़ बाड़े में काम किया, लाईट हाउस में चैकीदार बना, तेरे बाप को पढ़ाया। अब उमर हुई सो कुछ नहीं करता।’
दादाजी से सुनी जहाज़ी व्यापार की कितनी ही बातें मुझे याद आ गयी। दादाजी जहाज़ पर चढ़ सके होते तो अच्छा होता। पाल खींच रहे हैं, मस्तूल पर फर्राटे से चढ़ते हैं, सुक्कान सम्भाल कर ‘सलाम, बेली’ बोल कर बुला रहे हैं।
‘सब बदल गया अब तो... महाजनी बन्द हुई, गोदामों पर ताले पड़ गये। सेठ लोग तो चले गये, लेकिन समन्दर के नशेड़ी आदमी कहाँ जाएँ? समन्दर का खींच ले जाना सहा जा सकता है परन्तु ग़रीबी की मार सहन नहीं होती। मुझमें बहता मल्लाह का खून ठण्डा पड़ता नहीं था। जेटी पर चला जाता। ताकता रहता। एकाध्ा भटका हुआ जहाज़ इस तरफ आ पहुँचे... किसी को पूछने के लिए भी नहीं रुकूँगा, सीध्ो चढ़ जाऊँगा जहाज़ में।’
मानों सहना मुश्किल हो वैसे वे आँगन में चक्कर काटने लगे। फिर ड्योढ़ी से बाहर चले गये। बहुत व्यथित होते तब मुझे भी अपने से अलग कर देते। मैं भी उनकी तरह आँगन में चक्कर काटने लगा।
पिताजी घर में थे। बोले- ‘बापा का पिछलग्गू ये लड़का अपना बचपन भूल गया है।’
माँ ने कहा- ‘अकेले-अकेले क्यों चक्कर काट रहा है? दोस्तों के साथ खेलने जा। कब तक दादा की पूँछ बना रहेगा?’
उनको तसल्ली हो इसलिए बाहर गया। गली में खेलते दोस्तों ने बुलाया- ‘हरि, आ जा।’
मैंने जवाब नहीं दिया। ओसारे पर बैठ गया। दादी वैसे ही नहीं मुझे घुन्ना नहीं कहती थी।
’’’’’
दादाजी के साथ था तब तक न मेरी उमर बढ़ती थी और न तो घटती थी। दादाजी की बातें सुनते मेरी उमर चारों ओर फैल जाती थी। उसमें समय का भेद नहीं रहता था। एक पल वर्तमान में होता, अगले पल अतीत में-एक ऐसा समय जिसे मैंने देखा नहीं था, परन्तु थोड़ा बहुत महसूस किया था। मेरा हरेक कदम दादाजी के क़दमों में खो जाता था। वे मेरा हाथ थामे समय के नये-नये किनारों पर ले जाते थे। वे उनके किनारे थे और नहीं भी थे। वे मेरे किनारे नहीं थे फिर भी थे। हम एक ऐसे समन्दर के सामने खड़े रहते थे, जो कहीं नहीं था।
सवेरे समन्दर से लौटने के बाद मैं पाठशाला जाने की तैयारी करता। दादा मेरा बस्ता उठाकर मुझे छोड़ने आते थे। मैं भीतर जाऊँ तब तक वे खड़े रहते थे। फिर बाज़ार जाते। इतवार या छुट्टी के दिन समन्दर से घर लौटने की जल्दी नहीं होती थी। समन्दर पर पहुँचकर, लहरों के साथ कुस्ती कर, गीले कपड़ों में हम समन्दर के किनारे-किनारे दूर तक जाते थे। मैं सीपियाँ-शंख बीनता था। दादाजी झोला उठाये रहते। मैं उसमें अपना ‘माल’ भरता जाता था।
भाटे के बाद किनारे की रेत पर चित्र-विचित्र रेखाएँ अंकित हो जातीं। मैं उन रेखाओं को सुलझाने की कोशिश करता। दादाजी कहते- ‘ये सब समन्दर की झुर्रियाँ हैं, साला यह भी बुढ्ढा हो गया है।’ मुझे वे रेखाएँ समन्दर के नक़्शे जैसी लगतीं। वह नक़्शा कहीं ले जानेवाला या पहुँचानेवाला नहीं था। ज्वार के समय मिट जानेवाला था।
थोड़ी दूर जाने पर चेरियाँ (समुद्र तट की वनस्पति) आते। समन्दर के उथले पानी में मोटी जड़ें रोपकर उगे चेरियाँ मुझे अच्छे लगते थे। किनारे पर उगे हुए रावळ पत्री (समुद्रतट की वनस्पति) के बैंगनी फूल समन्दर की शोभा बढ़ाते। थकान लगने पर हम बैठ जाते। दूर लाइट-हाउस दिखायी पड़ता। एक ओर समन्दर का असीम जल, दूसरी ओर लाइट-हाउस के पीछे हमारा गाँव। सफ़र पूरा करके लौटते मल्लाहों के रुखे चेहरे दूर से लाइट-हाउस को देखकर पहली बार नरम पड़ते होंगे।
मैंने कहा- ‘भा, ये लाइट-हाउस नहीं होता तो अपना गाँव गुम हो जाता।’
वे खुश हुए। ‘साब्बास, हरि।’ मेरा सीना चैड़ा हो गया, मानों मैं भी अपने ढंग से समन्दर को पहचानने लगा हूँ।
छुट्टी के दिन दादाजी के साथ बाज़ार में जाता। सँकरी गलियों में खाली हवेली की परछाइयाँ पड़तीं। रास्ते में मिलते लोग दादाजी के पास रुकते। मेरे सिर पर हाथ रखकर अपनी गलियों में खो जाते थे। दरियालाल के मन्दिर में दर्शन करके, गाँव के चैक के टावर से होते हुए हम आगे बढ़ते। गढ़ के नुक्कड़ से लगे भीतर के हिस्से में ख़ाली मैदान था। वहाँ लम्बी क़तारों में बन्द दुकाने थीं। किसी समय इन दुकानों में सेठ लोग बैठते थे। दुकानों के पिछवाड़े बन्द गोदाम थे। थोड़े गोदामों को तोड़ कर उसमें नयी दुकानें बनी थीं। बाकी के गोदाम और दुकानों की चाबियाँ किसके पास होगी, यह भी गाँव के लोग भूल गये होंगे।
हम पहुँचते तब बन्द दुकानों की सीढि़यों पर थोड़े वृद्ध बैठे होते। कुछ हमारे बाद आते। बैठे हुए आने वाले की हाजरी दर्ज नहीं करते थे। आना अनिवार्य हो अथवा अर्थहीन हो इस तरह सब बैठे रहते। वे लोग अलग-अलग व्यक्ति नहीं लगते थे। वे एक हुजूम थे और उनका कोई चेहरा नहीं था। मैं थोड़े-थोड़े समय पर खड़ा होकर मैदान में रबर का टायर घुमा लेता था। गढ्ढे खोदकर दुबके हुए कुत्ते मुश्किल से आँख खोलकर देख लेते। गायें घूरे में मुँह डाल ऐसा-वैसा खाया करती, फिर रास्ते के बीच बैठकर जुगाली करती रहती। कौओं की काँव-काँव सुनायी देती।
पहिया घुमाते-घुमाते ऊब जाता तब दादाजी के पास बैठ जाता।
उन्हीं बातों के पुजऱ्े सुनायी पड़ते। हर एक के पूर्वजों ने समन्दर में जहाज़ी काम किया था। कुछ वापस आये थे, कुछ समन्दर में रुक गये थे। हर एक जन के पास कहने को ढेरों बातें थीं। चेहरे की उभरी हुई हड्डियों में दबी हुई आँखों से वे लोग सब दुबारा देखने की कोशिश करते थे। उनके चेहरों पर एक समान अफ़सोस छाया रहता - पीछे छूट जाने का भाव, अब लौटनेवाली नहीं है उस जि़न्दगी का अफ़सोस।
कोई वृद्ध पुरानी बातों से बचने के लिए वर्तमान में कूदने की कोशिश करता। गाँव से कौन दुबई-मस्कत-अबुध्ााबी गया, किसकी सगाई हुई, कौन-सा नेता चुनाव में खड़ा रहनेवाला है। सब नज़र बचाते इध्ार-उध्ार देखने लगते और कुछ भी नहीं सुनने को छटपटाते। थोड़ी खामोशी के बाद फिर से ‘सागर तरंग’, ‘हिरावन्ती’, ‘सुगारपासा’ जैसे जहाज़ों के नाम सुनायी देने लगते। टुकड़ों-टुकड़ों में चलती बातों में मोड़ आ जाते। एक की बात पूरी हुई हो उसके पहले दूसरा अपना जहाज़ लेकर आ जाता। नये मल्लाह, नये नाख़ुदा, नये सेठ, नया जहाज़ और नये तूफ़ान... सारा अतीत वर्तमान बन जाता। वह बात भी अध्ाूरी रह जाती। कोई क्रम रहता नहीं, न कोई आरम्भ, न कोई अन्त। बातों के बीच आ जाती खाली जगहों में थकान, हताशा, ठण्डी आहें और खाँसी-बल्ग़म के रेशे उड़ते रहते।
बड़े होने पर याद करता हूँ तब वे लोग निर्जन द्वीप पर बैठे दीखते हैं। उन्हें किसी मस्तूल पर झण्डा बाँध्ाना नहीं था, ध्ाूप-दीप-अगरबत्ती लोबान से समन्दर और जहाज़ की पूजा नहीं करनी होती थी। कोई माल मझध्ाार में फेंकना बाक़ी नहीं था। लंगर डाले जा सके ऐसा कोई बन्दरगाह उनके लिए नहीं रहा था। सफ़र में जाने के सारे-सारे मौसम पूरे हो गये थे। हवा मन्द ही रहती है। पाल तार-तार हो गया था। समय के समुद्री लुटेरों ने उन्हें लूट लिया था।
मैं दादाजी को देखता। वे अध्ा-खुली आँखों से सबको देखा करते। सबके बीच होने के बावजूद वे उनके साथ नहीं होते थे। मुँह खाली-खाली कुछ चुभलाता रहता था। मैं उनका ध्यान अपनी ओर खींचना चाहता, परन्तु हिचकिचाता, मानों उस स्थिति से उन्हें बाहर खींचना कोई बड़ा पाप हो। सहसा सचेत हो जाता कि मैं उन लोगों में से नहीं हूँ। अपना समय खोजने मैं पहिया उठाकर मैदान में गोल-गोल चक्कर लगा आता। मैं भी कहीं पहुँच नहीं पाता था और फिर से दादाजी के बग़ल में बैठ जाता था।
बन्द दुकानों के तख़्तों पर बैठे लोगों में कोई फ़कऱ् नहीं हुआ होता। जागते बैठे होते, फिर भी सोये रहते। नींद में भी भीतर से जागते लगते। पर यह जागना अलग था। आँखें खुलने के बाद वे जो दुनिया देखना चाहते होंगे वह दुनिया तो समन्दर की रेत में दफ़न हो गयी थी।
एकाध्ा आदमी औचक जगा हो वैसे अचानक खड़ा हो जाता। घटना जैसा कुछ होता। सब उसकी ओर सिर घुमाते। वह चलने लगता। न विदा, न फिर मिलने की बात। वह कहीं जा रहा है ऐसा महसूस भी नहीं होता। वहाँ कोई जगह खाली होती ही नहीं, मानों वहाँ कोई बैठा ही नहीं था।
बाहर गाँव से आयी बस से आया हुआ अनजान पेसेंजर थैला उठाये आता दिखायी पड़ता तो सब एक-दूसरे की ओर ताकते, मानों पूछते हो कि इस गाँव में आने की इस आदमी को क्या ज़रूरत है।
खाली मैदान में ध्ाूल के बवण्डर उठते। अखबारों की रद्दी, गायों की चबायी गयी प्लास्टिक की थैलियाँ, कुत्तों के कान फड़फड़ाने से हवा पर पड़ी खरोंचें, घिसटते पैरों की आहटें, बन्द हवेलियों और मल्लाहों के घरों से उठता खालीपन- सब कुछ ऊपर उठें और अध्ार में लटक जाएँ। बुड्ढे सुस्त आँखें खोलते, फिर मूँदते, छड़ी पास खिसकाते- और कोई संकेत हुआ हो उस तरह से चल देते। सबकी पीठ समन्दर की तरफ होती।
हम गली में गिरती परछाइयों में चलने लगते। मैं दादाजी का हाथ पकड़ता। वे चैंक गये हों वैसे मेरी तरफ देखते, मानों मैं कौन हूँ और क्यों हूँ उसे याद करने की कोशिश कर रहे हो।
समन्दर की गन्ध्ा में दादाजी के पसीने और चिलम की तम्बाकू की गन्ध्ा घुल जाती। कुछ बड़ा होने पर मुझे समन्दर की अलग से गन्ध्ा आने लगी थी। रात की हवा में समन्दर की नमी की गन्ध्ा भी जुड़ जाती। मछुआरों की नावों से मछली की गन्ध्ा आती। शंख-सीपियों में से समन्दर के अन्तःतल की गन्ध्ा उठती। किशोरावस्था में सूखी और गीली रेत की गन्ध्ा का अन्तर समझ में आया था। ज्वार और भाटे के अलग-अलग पानी की गन्ध्ा में से आनेवाली जि़न्दगी के अर्थ समझने की शुरुआत हुई थी।
बचपन में दादाजी की आँखों से देखा समन्दर आगे चलकर अपनी नज़र से दिखने लगा था। कभी वह म्लान और उदास लगता, मानों अपना बन्दरगाह रेत से भर देने के अपराध्ा भाव से तड़पता हो। किनारे तक पहुँचने से पहले उसका उन्माद सहसा खिसिया जाता। लहरें उठती, परन्तु उसमें क्षोभ होता। हमारे समन्दर की अब ज्वार में दिलचस्पी नहीं थी। ज्वार के समय भी भाटे में सरक जाने की उतावली दिखायी पड़ती। वह अपना सत्त्व खोकर मछुआरों की नावों की आवन-जावन से बिखरती तरंगों तक सिमट गया था। बन्दरगाह के सारे जहाज़ बिना अपनी दिशा बदले कहीं खो गये थे। एक दूसरे से टिककर खड़े जहाज़ों के बीच से एक लहर भी बड़ी मुश्किल से गुज़रती। अब तो सारा किनारा खाली हो गया था। हमारे समन्दर को लाईट हाउस से शर्म आती थी।
पूरा गाँव किसी आतंक तले जी रहा था। मझध्ाार के तूफ़ानों की चुनौतियों को अपना सीना तानकर झेलनेवाले लोग रेत से पटी बन्दरगाह का सन्नाटा झेल पाते नहीं थे। उनके समानान्तर नयी पीढ़ी समन्दर को दरकिनार करके सिरे से जीने की शुरुआत करने को जूझ रही थी। उन्होंने पान -बीड़ी, चाय-पानी, किराने की छोटी-छोटी दुकाने लगायीं थी। ठेले चला रहे थे। कुछ बस और ट्रक चलाने लगे थे। थोड़े लोग अरब देशों में काम करने गये थे।
वे लोग हाथ पर हाथ ध्ारे बैठे नहीं रह सकते। उन्हें लंगर, पाल और मस्तूल के सपने दफ़्न कर देने थे। जहाज़ बाड़े में बनते बचे-खुचे जहाज़ में अपनापन नहीं रहा था। वे जहाज़ अपनी बन्दरगाहों से सफ़र करने वाले नहीं थे। बोली में फ़र्क आने लगा था, पुराने शब्द मिट रहे थे। समन्दर किनारे मल्लाह औरतें आँखों पर हथेली की छाँह किए राह नहीं निहार रही होगी अब। गाँव में शुरू हुए काॅलेज में लड़के-लड़कियाँ पढ़ने लगे थे। समन्दर ने जहाज़ का गला घोंट दिया, परन्तु जीवन का गला नहीं घोंट सकता। उसने पटे हुए किनारे को पार कर उस ओर जाने की तैयारी शुरू कर दी है।
दादाजी मल्लाहों के घर जाते। उनके पास संजोई हुई समुद्री सफ़र की बातें सुनते। घर लौट कर उन बातों को पुराने बही खाते के बचे हुए कोरे पन्नों पर लिख लेते। कहते- ‘जो बीत गया है उसे भुलाने नहीं दिया जा सकता।’
मैं दादाजी के साथ किसी के घर गया होता तो बीता हुआ समय मेरे भीतर खुलने लगता। समुद्री जन समुदाय के कई व्यक्ति जीवन्त हो उठते। मैं मान ही नहीं सकता था कि वे सारे व्यक्ति इन वीरान बनी गलियों में किसी समय जीते-जागते चल-फिर रहे होंगे।
एक कबी बहन नामक मल्लाहन थी। केवल पुरुषों को ही समन्दर का सफ़र करने की छूट थी तब कबी बहन अपने पति मीठू के जहाज़ ‘रामपासा’ की नाख़ुदा बनकर समन्दर और जि़न्दगी से जूझी थी। समन्दर से बड़ी मुश्किल से लौटा हुआ एक आदमी उसके दुरुस्वप्न से बाहर निकल नहीं पाया था। रात के अँध्ोरे में उसकी चीखें सुनायी देती- ‘बचाओ...बचाओ...’ उसने अपने को बचाने के लिए चीखें नहीं मारी थीं, अपने साथियों को बचा नहीं पाने पर यातना की अँध्ोरी गली में गुहार लगायी थी। उसकी चीखों की गूँज उठती और गाँव का एक-एक जन जाग उठता।
उन लोगों में से कितने ही पराये देश के क़ैदखानों सड़े हैं। समुद्री लुटेरों ने उन्हें पकड़ा है और बड़ी मुश्किल से छूटकर अध्ामरे-से घर लौटे हैं। आपने समन्दर के थपेड़े और मूसलाध्ाार वर्षा की मार खायी है। डूबते जहाज़ को बचाने के लिए उसमें लदा हुआ माल मजबूरन समन्दर के अपार जल में होम कर दिया है। जहाज़ से लुढ़ककर अपार जल में डूब जाते साथियों को दीदे फाड़े देखा है और कुछ नहीं कर पाने की लाचारी में गूँगे हो गये हैं। जो भी हाथ लगा, उसे पकड़ कर किनारा पाने की जद्दोजहद की हैं। कई सफ़रों ने सही सलामत किनारों पर लंगर डाला है, कई अध्ाूरी रह गयी है। जो भी हुआ होगा, उन्होंने सीने में साहस संजोए रखा है, सिर हमेशा ऊँचा रखा है।
उन्होंने समन्दर के आकाश में चाँद देखा है। काली सियाह चट्टान जैसे अँध्ोरे को ताकते रहे हैं। दिन भर की जाँगर-तोड़ मेहनत के बाद ढोलक-खंजड़ी के ताल पर और मंजीरे की खनक पर समन्दर को भजन सुनाये हैं। हवा का रुख बूझकर पाल की दिशा बदली है। आसमान में तारे देख कर सुक्कान बदला है। क्षितिज पर से उड़कर आते पंछियों के संकेत से नज़दीक आ रही ज़मीन की दूरी नापी है।
जहाज़ के डेक पर खड़े-खड़े उन लोगों ने दूर सरकते परिजनों को अदृश्य होते देखा है। लौटने पर किनारे पर लगी भीड़ में उन्हें चिन्ह लिया है। मछुआरन की बन्द आँख और खुले होंठ पर रावलपत्री का फूल फेरनेवाला मछुआरा मछुआरन के बहते आँसू पोंछते समय हाजि़र नहीं रहा। बुलन्द आवाज़ से साथियों का होसला बढ़ाया है और सबसे छिपकर जहाज़ के कोने में हिचकी भर ली है।
समन्दर उनके लिए पाल की तरह खुला है और पाल की तरह चिन्दी-चिन्दी हो गया है।
मैं दादाजी के साथ गाँव की सूनी गलियों में घूमता तब मुझे लगता कि वे सब भी हमारे साथ चल रहे हैं। आसपास देखता, तो कोई नहीं होता। गलियाँ खाली। गाँव में सन्नाटा।
कुछ दूरी पर एक समन्दर उछल-उछल कर हवा में हाथ भाँजता रहता।
बरसात का मौसम लगे उसके पहले भयानक तूफ़ान की चेतावनी दी गयी थी। पिताजी दफ़्तर से ख़बर लाये थे। रेडियो भी बता रहा था कि बड़ी तेज़ आँध्ाी चलेगी, समन्दर में लहरें काफ़ी ऊपर तक उठेगी। भारी वर्षा होगी। मछुआरों को समन्दर में नहीं जाने की सूचना दी जा रही थी।
पिताजी ने हमसे कहा- ‘थोड़े दिन समन्दर पर मत जाना।’
दिन ढलते तेज़ हवा चलने लगी। सुबह उठे तब आकाश में काले बादल मँडराने लगे थे। पिताजी बड़े तड़के ही दफ़्तर चले गये थे। मैं और दादाजी ऊपरी मंजि़ल की छत पर गये। आसपास के पेड़ सनसनाती हवा में इध्ार-उध्ार टकरा रहे थे।
दादाजी के माथे पर चिन्ता की रेखा दिखायी दी।
‘हरि, मैंने किसी को नहीं बताया है, लेकिन दो दिन पहले मैंने सपना देखा था। उसमें हमारे मस्तूल पर ‘ध्ो’ को देखा था।’
‘ध्ो?’
‘समन्दर का पंछी। अगर वह जहाज़ के मस्तूल पर बैठे तो बड़ा अपशगुन होता है। या तो तूफ़ान आता है, या कोई बड़ी आफ़त आती है।’
मैंने मुंडेर पर से नीचे देखा। मस्तूल पर कोई नहीं था, पर मुझे शक हुआ कि तेज़ हवा से मस्तूल थोड़ा-थोड़ा हिल रहा था।
‘मस्तूल गिर पड़ेगा तो, भा?’
‘तेज़ आँध्ाी में टूट भी सकता है।’
तो फिर? क्या करेंगे?’
‘कुछ नहीं हो सकता। मस्तूल टूटने पर समूचा जहाज़ लड़खड़ा जाता है।’
जहाज़? हम तो घर में थे। दादाजी क्या कह रहे थे?
मेरा हाथ पकड़ा।
‘चलो।’
‘कहाँ?’
‘समन्दर पर।’
‘ऐसे में? भाभा ने मना किया है, समन्दर पर मत जाना। समन्दर तूफ़ानी होगा।’
‘तेरा भाभा तो... मैं हूँ न तेरे साथ। चल, फटाफट लौट आएँगे। देखे तो सही कि समन्दर कितना तूफ़ानी हुआ है।’
किसी को पता न चले उस तरह से हम एक के बाद एक करके ड्योढ़ी से बाहर निकले। सारे पेड़ बिजने तरह झुल रहे थे। कई डालियाँ टूटकर रास्ते पर गिर पड़ी थी। झड़े हुए पत्ते उड़ रहे थे। गढ़ के बाहर खुले में हवा का ज़ोर बढ़ा। हवा की विपरीत दिशा में चलना मुश्किल हो गया। कच्ची पगडण्डी से होकर जैसे-तैसे समन्दर पर पहुँचे।
लहरें बड़ी ऊँची उठ-उठकर टकरा रही थी। एक लहर टूटती तो दूसरी उठ आती थी। समन्दर पर से काले-सियाह बादल घिरे चले आ रहे थे। हवा के कारण स्थिर खड़ा नहीं जा रहा था। हम अपनी हमेशा की जगह पर पहुँच नहीं सके। पटखनी खाती लहरों का पानी काफ़ी आगे तक आ गया था।
‘देख? कैसा पागल हो रहा है।’
मैंने सिर हिलाया।
‘यह तो कुछ नहीं है, सोच हरि, मझध्ाार में कैसे लहरें उठ रही होगी। समूचा जहाज़ ऊपर-नीचे, एक-एक जोड़ चरमराता बज उठता होगा।’
क्षितिज पर बिजली कौंध्ाी, दहाड़ सुनायी दी।
‘मस्तूल बस उखड़ने को है, सुक्कान हाथ में नहीं रहता, जहाज़ घड़ी में इस ओर पलटी मार रहा है तो घड़ी में उस ओर। कोई भी आदमी सीध्ाा खड़ा नहीं रह पा रहा है। देख रहा है न?’
देखना क्या था? मेरी नज़रों के सामने कोई जहाज़ नहीं था, न कोई मल्लाह। हवा की सांय-सांय सुनायी दे रही थी। लहरें पगला गयी थी। दूर से उफान आता, लहर समन्दर के तल से उठती, साँप के फन-सी आगे बढ़ती और फिर पछाड़ खाती। फेन हमारे पैरों तक आ जाते थे।
आँखें चैंध्ािया जाए, ऐसी बिजली और कान फाड़ दे ऐसे ध्ामाके।
मुझे डर लग रहा था। दादाजी ज़ल्दी से घर लौट चले तो अच्छा, लेकिन वे तो किसी और दुनिया में खो गये थे।
बड़ी-बड़ी बूँदे गिरने लगी थी। मैंने दादाजी का हाथ हिलाया।
‘भा, घर चलिए।’
‘इत्ते में डर गया?’
वे बेमन से लौटे। गढ़ तक पहुँचने से पहले बरसात टूट कर गिरी। बिना रुके दिन भर बरसती रही। हवा के झकोरे कम नहीं हो रहे थे। आँगन का मस्तूल इध्ार-उध्ार डोल रहा था।
दोपहर बाद खबरें आने लगी थी। नदी में पानी बढ़ा है। गाँव में सब जगह पानी भर रहा था। हमारे इलाके में वैसे भी कम बारिश होती है। गाँव में जमा पानी को बाहर निकालने का रास्ता ही नहीं बना था। कुछेक घरों में पानी भर गया था। दादाजी ने कहा- ‘अगर पानी पलट कर ज़ोर करेगा तो सारे घरों में पानी भर जाएगा।’ हमारी गली में मानों नदी बह रही थी। गली का पानी ड्योढ़ी से होकर आँगन में आ रहा था। थोड़ा बढ़ेगा तो घर में घुस जाएगा। हम देहरी पर खड़े थे। पिताजी दफ़्तर से आ नहीं पा रहे थे। दादी माला लेकर खटिया पर बैठ गयी थी। बा निरीह लग रही थी।
पानी घर की देहरी को छूने को था।
दादाजी चिल्लाए- ‘पानी उलीचना पड़ेगा। हरि, तेरी बाई से कह कि बाल्टी-टब ले आये। ज़ल्दी कर।’
बा भागते हुए सब ले आयी। दादाजी बाल्टी लेकर आँगन में दौड़ गये।
‘घामट उलीचो’ दादाजी की चीख सुनायी दी। वे बाल्टी में पानी भर-भर कर ड्योढ़ी से बाहर फेंक रहे थे।
‘घामट?’ मुझसे पूछे बिना रहा न गया।
‘जहाज़ में समन्दर का पानी जो भर जाता हैं न वह... ले, तू भी ज़ोर लगा, पानी निकाल...’
मैं दादाजी के साथ जुड़ गया। बा भी टब से घामट निकाल रही थी। दादाजी बीच-बीच में चिल्ला रहे थे- ‘चलो बेली, होसियार... दम लगा कर हैसा.. ज़ोर लगाओ..’
बरसात लगातार हो रही थी। सवेरे से बिजली बन्द थी। दादी कमरे से बाहर आकर ओसारे के अँध्ोरे में खड़ी-खड़ी माला के मनके फेर रही थी।
‘हे आशापुरा माता, पत रखना.... घर में पानी ना घुसे, मेरा गोविन्द दफ़्तर से सकुशल घर लौट आए...’ बरसात की झड़ी, बादलों की गरज और बिजली की कौंध्ा के बीच उसके बोल सुनायी पड़ रहे थे।
गली के पानी का बहाव तेज़ी से लगातार आँगन में आ रहा था। जी जान से घामट निकालने की हमारी कोशिश का कोई मतलब नहीं रहा था। दादाजी बीच-बीच में ‘हैसा हो’ करते हुए हमारा जोश बढ़ा रहे थे। मैं थक गया था, बाई थक गयी थी, लेकिन दादाजी बिना इध्ार-उध्ार देखे पानी उलीच रहे थे।
शाम के बाद बरसात का ज़ोर कम हुआ। गली से पानी उतरने लगा। बारिश एकदम रुक जाने के बाद भी तीन दिन तक आँगन पानी से भरा रहा। उन तीन दिनों में दादाजी खाट से खड़े नहीं हो पाये थे। उनमें इतनी ताकत कहाँ से आयी थी ये कोई समझ नहीं सका था। उसका कारण सिफऱ् मैं जानता था।
’’’’’
मुझे सबसे पहली बार समन्दर पर मेरी माँ और दादी ले गयी थीं। हमारे परिवार का एक रिवाज था। घर का पहला बेटा जब दो महिने का हो जाता उसे समन्दर पर ले जाते। परिवार की स्त्रियाँ ही जाती। बच्चे के सिर से समन्दर का पानी छुआती, देह पर बून्दों का छिड़काव करती, थोड़ी देर उसे समन्दर के किनारे लुढ़कातीं। दिया जलातीं, नारियल चढ़ातीं, समन्दर की पूजा करतीं।
यह रिवाज केवल हमारे परिवार में ही था। गाँव में और कहीं नहीं था। यह रिवाज कब से शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता था। दादाजी भी नहीं।
दादी ने कहा- ‘तेरा भाभा जब दो महिने का हो गया उस दिन मैं, मेरी सास, बड़ी ननद उसे समन्दर पर ले गये थे। उसके पाँव पानी में डुबोते ही जो बुक्का फाड़कर रोने लगा कि बस।’
दादाजी ने जोड़ा- ‘जो समन्दर से पहली मुठभेड़ झेल जाए, उसे ही समन्दर अपने क़रीब आने देता है। देख रहा है न, तेरा बाप समन्दर के नाम पर कैसे बिदकता है। वहाँ टहलने भी नहीं जाता। समन्दर की ओर देखने के लिए भी जिगरा चाहिए, हरि।’
‘मैं रोया था, दादी?’ मैंने पूछा।
‘अरे ना, ना, तू तो हँस रहा था’। जवाब दादाजी ने दिया।
‘और आप, भा?’
उन्हें याद ही न हो ऐसा जवाब उन्होंने दिया- ‘मैंने तो अपनी माँ के हाथ से सीध्ो समन्दर में छलांग लगायी थी।’
दो महिने के मेरे दादाजी समन्दर में डुबकी लगा रहे हों, ऐसा मुझे दिखा। मैं हँस पड़ा। पानी में डूबे बच्चे का सिर थोड़ी देर बाद लहरों के बीच से बाहर निकलता है, बित्ते भर के शरीर पर से पानी बह रहा है।
‘अगर ऐसा है तो आपके भाभा, दादा और वे सब दो महिने के होते ही जहाज़ी सफ़र पर चल दिये होंगे!’
हम तीनों हँस पड़े।
मैं नेवी के जहाज़ के डेक पर मझध्ाार में खड़ा होता तब सोचता- मेरा जब बेटा होगा तब घर के सब लोगों को समन्दर के बीच ले जाऊँगा। मेरी बाई से कहूँगा- ‘तेरे पोते के सिर पर मझध्ाार के पानी का छिड़काव कर।’
हूक उठी। उस समय दादाजी हमारे साथ होंगे? इस वक़्त तो वे घर में खाट पर लेटे हैं। कई दिनों से समन्दर पर नहीं जा पाये होंगे। मुझे तो पता भी नहीं कि इस उमर में वे समन्दर पर जाते भी होंगे या नहीं। उनसे बहुत दूर हो गया हूँ। एक उम्र थी जब परछाईं की तरह उनके साथ रहता था, अब उनके बारे में कुछ नहीं जानता।
उनके पास पहुँच कर कहूँगा- ‘बापा, ज़ल्दी ठीक हो जाइए। आपने मुझे अपना समन्दर दिखाया था, मैं आपको अपने समन्दर बताऊँगा।’
उनका समन्दर, मेरे समन्दर।
वही उमड़ती लहरें, वही खारी हवा, हर समन्दर से उठती एक सी गन्ध्ा-फिर भी हम दोनों के समन्दर अलग हो गये थे।
मैं जब छठवीं कक्षा में आया उन दिनों में हमारे घर का वातावरण थोड़ा तंग लगने लगा था। मानों घर के दो हिस्से हो गये थे। एक तरफ दादी, पिताजी और बाई। दूसरी ओर दादाजी। किसी महत्त्वपूर्ण बात के फैसले पर नहीं पहुँच पाने की बेचैनी झलक रही थी। दादाजी की प्रवृति में ख़ास फ़र्क नहीं पड़ा था। वे अपने में मस्त रहते थे। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था। किसी ने मुझे बताया नहीं था, बताने की ज़रूरत भी नहीं थी। उस उम्र में घर के किसी निर्णय को लेकर मैं अपनी कोई राय देने की स्थिति में नहीं था। अन्दर-अन्दर चर्चाएँ चलती रहती। अगर उनके बीच मैं जा पहुँचता तो ध्ाीमी आवाज़ में चलती बातें बन्द हो जाती। मेरे हटने पर फिर से बात आगे बढ़ती। शायद उन्होंने मुझे दादाजी के पक्ष का मान लिया होगा। मुझे यह अच्छा लगता था।
एक शाम दादाजी घर पर नहीं थे। दादी पिताजी से कह रही थी- ‘बात करके देख ले हालाँकि वे मानेंगे नहीं।’
‘बाई, समय बदल गया है, उन्हें भी बदलना चाहिए।’
‘जो भी कर लेकिन सोच-विचार करके करना। एक बार दिमाग बिदक गया तो फिर वे किसी की नहीं सुनेंगे इतना याद रखना।’
किसे बदलना होगा? दादाजी को? वे ऐसा क्या कर रहे थे कि उन्हें खुद को बदलना पड़े? वे घर की किसी भी बात में माथा पच्ची करते नहीं है। वे अपने निश्चित नित्य-क्रम में रहते। मेरी सारी जि़म्मेदारी आपने उठा ली थी। बाज़ार से साग-सब्ज़ी लाते। दोपहर बाद लायब्रेरी में बैठते। शाम को थोड़े वकील, डाॅक्टर, गाँव के अगुआ लोगों के साथ बागीचे की बेंच पर बैठते।
मैं कुढ़ रहा था। मेरे घरवालों को दादाजी की कौन-सी बात अच्छी नहीं लग रही थी।
इतवार को राज़ खुला। समन्दर से लौटकर मैंने और दादाजी ने नाश्ता किया। दादाजी उठे।
‘एक मिनट, भा,’ पिताजी ने कहा।
दादाजी बैठे। मैं भी खड़ा रहा।
‘भा, एक बात कहनी है।’
‘कह दो... इसमें इस क़दर हिचकिचाना क्या?’
‘बात ज़रा नाजुक है। अपना घर पुराना हो गया है। काफ़ी मरम्मत माँग रहा है। इतने बड़े घर की हमें ज़रूरत भी नहीं है। मुझे तरक़्क़ी मिलेगी तो हमें गाँव भी छोड़ना होगा।’
‘साफ़-साफ़ बता, क्या कहना चाहता है?’
‘हमें यह घर बेच देना चाहिए। मैंने बाज़ार में पूछताछ की है। इन दिनों अच्छे दाम मिल रहे है।’
‘फिर रहेंगे कहाँ?’
‘गाँव से बाहर। पुल की ओर नये मकान बन रहे हैं वहाँ।’
‘गाँव से बाहर?’ दादाजी तैश में आते-आते रुक गये। ‘मैं गाँव के बाहर रहने नहीं जाऊँगा। अपनी बात आप सब जानो।’
खड़े हो गये। दादी ने रोका- ‘गोविन्द की बात तो पूरी सुनिये।’
खड़े रहे।
‘ठीक है। अगर आप मना करेंगे तो फिलहाल घर नहीं बेचेंगे। एक काम करते हैं, ऊपरी मंजि़ल पर दो-तीन कमरें बना सकते हैं। आँगन से सीधे ऊपर के लिए सीढियाँ निकाल लें तो ऊपर की मंजि़ल अलहदा हो जाएगी, किराये पर चढ़ा सकते हैं। वैसे भी वहाँ कूड़ा-करकट भरा पड़ा है।’
दादाजी ने जवाब नहीं दिया। कुछ देर बेटे की ओर देखते रहें, फिर धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए ड्योढ़ी से बाहर चले गये। दोपहर को भोजन के लिए भी नहीं आये। सबको चिन्ता हुई। मैं पूरा दिन घर में चक्कर काटता रहा। पिताजी स्कूटर लेकर उन्हें खोजने गये, नहीं मिले, शाम से पहले मैं समन्दर पर गया। वे हमारी हमेशा की जगह पर बैठे थे। पूरा दिन ऐसी धूप में समन्दर पर बैठे रहें?
‘भा..’
उन्होंने मेरे सामने देखा। हाथ पकड़कर क़रीब खींचा।
‘हरि...’
‘हाँ।’
‘ऊपर की मंजि़ल खाली नहीं करूँगा।’
‘नहीं करेंगे।’
‘हमारा घर बेचने नहीं दूँगा।’
‘नहीं देंगे।’
‘तू मेरे साथ है न?’
‘सब लोग आपके साथ ही हैं, भा। अब घर चलिए, किसी ने खाया नहीं है।’
उन्होंने फतुही पहनी। समन्दर से पानी की अँजुरी भरकर मुँह धोया। मेरा हाथ पकड़ा, फिर छोड़ दिया।
उस दिन मैं उनके आगे चला था, वे मेरे पीछे-पीछे आये थे।
पिताजी को प्रमोशन मिला तब मैं आठवीं कक्षा में था। उनका तबादला नायब तहसीलदार के रूप में दूसरे गाँव में हुआ था। वे हम सबको साथ ले जाना चाहते थे, दादाजी ने तो मना ही कर दिया था। मैं भी नहीं जा सका। पिताजी का तबादला स्कूल के सत्र के बीच में हुआ था। अधबीच में स्कूल नहीं छोड़ा जा सकता था। पिताजी अकेले गये। नयी जगह पर अकेले रहना रास नहीं आया। थोड़े महीनों बाद बाई को उनके साथ जाना पड़ा। उस शहर का स्कूल अच्छा नहीं था। पिताजी ने निर्णय किया कि मेरी पढ़ाई अपने गाँव में ही हो। घर के कामकाज और खाना बनाने के लिए पूरे दिन की नौकरानी रख ली थी। मैं और दादाजी हमसे हो सकता उतना हाथ बँटाते। माँ दो-तीन महिने में चक्कर लगा जाती।
मेरा जीवन बदल गया था। जि़म्मेदारी का एहसास होने लगा था। दादाजी का नित्य क्रम भी बदल गया था। वे सुबह-शाम दोस्तों के पास जाते, लेकिन ज़ल्द घर आ जाते। मुझे अपनी पढ़ाई के लिए काफ़ी समय देना पड़ता था।
एस.एस.सी. और बारहवीं में मुझे अच्छे अंक मिले। पिताजी चाहते थे कि मैं काॅलेज की पढ़ाई के साथ सिविल सर्विस की परीक्षा की तैयारी करूँ। मैंने अपनी केरियर के बारे में खास सोचा नहीं था। मैं अहमदाबाद के अच्छे काॅलेज में पढ़ाई कर सकूँ इसके लिए पिताजी वहाँ तबादला करवाने की कोशिश कर रहे थे। तबादला होने तक मुझे होस्टल में रहना था।
शहर में मेरे अकेले रहने का विचार दादाजी को जँचा नहीं था। लेकिन उसके अलावा और कोई उपाय भी नहीं था। वे उखड़े-उखड़े रहने लगे। मुझसे दूर रहते, ज़्यादा बात नहीं करते, पिताजी आते तब मेरे केरियर को लेकर बातें होती। दादाजी ग़ैर मौजूद-से बैठे रहते।
मेरे जाने का दिन क़रीब आ रहा था। दादाजी ज़्यादा समय घर से बाहर रहते। मुझसे कतराते, पिताजी ने कुछ दिनों की छुट्टी ली थी। अहमदाबाद में मेरी ठीक-ठाक व्यवस्था हो उसके लिए वे मेरे साथ आनेवाले थे। बाई एक-दो माह गाँव में रुकनेवाली थी। उन दिनों पिताजी ने आग्रहपूर्वक पहली बार दादी को अपने साथ रहने को कहा- दादा माने नहीं। पिताजी एक-दो बार भड़क गए, लेकिन बाई ने बरजा।
‘ज़रा सोचिए तो सही, इस उम्र में गाँव छोड़ना आसान नहीं है।’
‘मुझे पता है, वे क्यों गाँव छोड़ने को तैयार नहीं है।’
‘क्यों?’
‘हर बार पूछते हैं- वहाँ समन्दर होगा? मानों समन्दर के बिना जिया ही नहीं जा सकता।’
‘जुनून है तो है। थोड़ा समय बीतेगा फिर खुद मान जाएँगे।’
मैं भी दादाजी के पास जाने से कतराता था। पास जाने से डरता। बिना माँ-पिताजी के रह सका, लेकिन दादाजी न हो ऐसे गाँव में रहना... हिचकी बंध जाती। हम खाने बैठते तब उन्हें जल्दी-जल्दी कौर निगलते देखकर मेरा कलेजा मुँह को आ जाता। उनसे आँख मिला नहीं पाता था।
मेरे जाने से पहले की शाम को दादाजी ने मुझसे कहा- ‘ऊपरी मंजि़ल पर आना’।
ऊपरी मंजि़ल ...हम दोनों की प्रिय जगह। शायद मुझे विदा देने के लिए उन्हें वह जगह सबसे उचित लगी होगी। वे छत की मुंडेर पर हाथ दबाए खड़े थे। कुछ देख रहे होंगे या नज़र ख़ाली-ख़ाली भटक रही होगी? यकायक मुझे याद आया, हालाँकि छत से दिखता नहीं है लेकिन समन्दर उसी दिशा में था।
मैं उनके पास खड़ा रहा। वे चुप रहें।
मैंने उनके हाथ पर हाथ रखा। उन्होंने मेरे सामने नहीं देखा। मेरी हथेली अपनी मुट्ठी में जकड़ कर खड़े रहे। ये वह पल थे, जिसमें सबकुछ कहा जा चुका था।
अचानक कुछ याद आ गया हो वैसे उन्होंने फतुही की भीतरी जेब से मुड़ा हुआ काग़ज़ निकाला, मुझे दिया। अंग्रेजी पत्रिका का पन्ना था। उसमें एक तस्वीर थी। कुछ जवान सफ़ेद कपड़ों, सफ़ेद जूते, पींक केप की वर्दी पहनकर तिरंगे को सलामी दे रहे थे।
मैंने दादाजी के सामने देखा।
‘ये सब हमारी नौ सेना के जवान हैं। समन्दर बीच रहकर देस की पहरेदारी करते हैं।’
मुझे आश्चर्य हुआ। मेरे जाने के एक दिन पहले वे यह तस्वीर क्यों दिखा रहे हैं?
‘हरि, अपने दादा की एक बात मानेगा? तू भी बड़ा होकर नौ सेना में भरती होना।’
मैंने उनके दोनों हाथ पकड़ लिये। यह भी हम दोनों के बीच हुआ एक पक्का और गुप्त अनुबन्ध था। दादाजी ने मेरा भविष्य स्पष्ट कर दिया था।
शुरू-शुरू में बड़ा तकलीफ़देह लगा। मेरा घर कहीं और मैं होस्टल में कहीं और।
एक-एक दिन गिन-गिन कर बितता था। रात में नींद उड़ जाती तब आँख की कोर तक बह आते आँसू रोकने की ताकत नहीं रहती थी। ऐसी रातों में अपने गाँव के सन्नाटे को बड़ी तीव्रता से अनुभव किया था शायद!
पहले साल दीपावली की छुट्टियाँ हुई। मैं माँ-पिताजी के पास जाने के बदले दादाजी के पास गया। पूरी रात सफ़र करने के बाद बड़े सवेरे अपने गाँव पहुँचा। बीते छह महिने से मैं दादा-दादी से मिला नहीं था। बस से उतरकर हिचकिचाता खड़ा रहा कि कहाँ जाऊँ? फिर बस अड्डे के पास एक परिचित के चाय के ठेले के पास अपना बेग रखकर कच्ची पगडण्डी से समन्दर की ओर चला। सुबह की चढ़ती धूप में समन्दर को देखने के साथ हमारे बीच का लम्बा वियोग स्पष्ट हो गया। मैं दौड़ा नहीं, समन्दर के निकट जाने के पल-पल को अपने भीतर उतारता धीरे-धीरे चलता रहा।
समन्दर पर हल्का कोहरा था। उसके आवरण के बीच मैंने दादाजी को देखा। अपनी हमेशा की जगह पर, वे समन्दर को देख रहे थे। मेरी ओर उनकी पीठ थी। मैं उनके पास पहुँचा।
‘मानों मेरी परछायीं की आहट सुन ली हो वैसे बिना सिर घुमाये बोले- ‘आ गया, हरि?’
मैं उनकी बाँहों में दुबक गया। पहले वे रोये या मैं, उसकी सुध नहीं रही।
‘भा, आपको नहीं पता था कि मैं आज सुबह की बस से आनेवाला हूँ?’
‘था न। तेरी बस का टेम पूछने रोज़ बस अड्डे जाता था।’
‘तो फिर यहाँ क्यों बैठे हैं? मैं सीधे घर जाता तो?’
‘मुझे पता था कि तू अपने दोनों दादा को मिलने सीधे यहीं आएगा।’
टैक्सी ने नदी के पुल का मोड़ लेकर गढ़ में प्रवेश किया। मैं ड्राइवर के कन्धे पर हाथ रखने जा रहा था कि टैक्सी रोके, वहीं उतर जाऊँ। सीधे समन्दर पर जाऊँ। नहीं, आज दादाजी समन्दर पर मेरी राह नहीं देख रहे थे। वे कमरे में खाट पर लेटे थे- नीम-बेहोश, शायद पूरे बेहोश। बेहोश नहीं होंगे। वे मेरी राह देख रहे थे।
सुबह पिताजी से बात हुई उसके बाद मैंने फोन नहीं किया था। उनका भी नहीं आया था। सब ठीकठाक ही होगा।
टैक्सी संकरी गली में घर तक नहीं आ सकती थी। मैं उतरा, ड्राइवर को चाय-नाश्ते के पैसे दिये। मैंने उसे आज की रात यहीं रुक जाने को कहा। शायद ज़रूरत पड़े, भा को भुज ले जाना पड़े।
गली में मुड़ा। आँगन की मुंडेर से मस्तूल दिखा। मस्तूल की नोंक पर रस्से से बंधा सफ़ेद कपड़ा दिखा, वह कपड़ा ...पाल ...दादाजी ने ऊपरी मंजि़ल पर बक्से में सम्भाल कर रखा पाल का टुकड़ा ...रोंए खड़े हो गये।
ड्योढ़ी खुली थी। भागता भीतर गया। डाॅक्टर दादाजी का बी.पी. नाप रहे थे। पिताजी, बाई, वीरजी चाचा और दूसरे दो-एक लोग खाट के पास खड़े थे। मैं पिताजी के पास गया। उन्होंने मेरी ओर देखा। आँखें सूखी थीं। मैंने होंठ भींच लिये।
डाॅक्टर खड़े हुए।
‘बी.पी. बहुत कम हो गया है। पल्स भी पकड़ में नहीं आ रही है।’
‘डाॅक्टर साहब मेरी टैक्सी बाहर खड़ी है। इन्हें अभी हाॅस्पिटल में-’
‘उन्होंने मेरी ओर देखा। पिताजी से पूछ- ‘हरि?’
पिताजी ने सिर हिलाया।
‘बड़ी देर हो गयी है, हरि.... वे घर से ही जाना चाहते हैं।’
वीरजी चाचा डाॅक्टर को छोड़ने गये। मैं खाट की पाटी पर बैठ गया। दादाजी का हाथ पकड़ा, शायद उन्हें याद आए, इस हाथ को पकड़ कर मैं...
बाई ने मेरे कंधे पर हाथ रखा।
‘हरि...’
मैं जवाब नहीं दे सका।
दादाजी की आँखें बन्द थी। श्वासोच्छ्वास बहुत मन्द और अनियमित थे। वे निश्चल लेटे थे। सीधे सफ़ेद दाढ़ी बढ़ गयी थी। चेहरे पर सब कुछ निपटा कर बैठे इंसान जैसी असीम शान्ति थी। एक भी झुर्री नहीं। कोई असमंजस नहीं। होंठ दृढ़ता से बन्द थे। वे मुझे अलग लगे। इस दादाजी को मैं पहली बार देख रहा था।
आँगन के मस्तूल से बंधा पाल... आपने तैयारी कर ली थी।
झुका। माथे पर होंठ रखे। खारा स्वाद आया। मेरी आँख से आँसू टपका। सावधान हो गया। समन्दर खेनेवाले की बिदाई के समय कोई रोता नहीं है।
कान के पास मुँह ले गया।
‘भा, आ गया हूँ, भा...’
उनकी हथेली अपनी हथेली में ले ली।
‘भा...हरि बोल रहा हूँ...’
होंठ कुछ खुले। दादाजी के पाताल से केवल मुझे सुनायी दे ऐसा गहरा नाद उठा। मझधार में चल रहे मन्थन की गरज... वे कुछ कह रहे थे... किसी को पता भी नहीं चलेगा ऐसे समन्दर में चला जाऊँगा...
बड़ी थकान लगी हो, ऐसे होंठ फिर बन्द हो गये। मैं मानने को तैयार नहीं था, उन्होंने कहा था- समन्दर कभी भी थकता नहीं।
‘भा... (हिचकी भीतर ही रोके रखी।) उठिए, भा, चलिए समन्दर पर चलते हैं...’
पीछे से किसी के होंठ से छूटा हुआ रुदन सुनायी दिया।
आँखें खोलने में तकलीफ़ हो रही थी। ज़रा-सी खुली पलकें मेरी ओर स्थिर हुई। स्मित दिखा याकि मेरा वहम था? मेरी हथेली में दबी उनकी उँगलियाँ सुगबुगाई। सुन लिया है, उन्हें पता है कि हरि आ गया है। जहाज़ पर चढ़ने का टेम हो गया है।
बन्दरगाह पर झण्डे लहरा रहे थे। पूरा गाँव इकट्ठा हुआ है। सबसे आगे मैं हूँ, पास में मेरे पिताजी, बाई थोड़ी पीछे खड़ी है। नारियल चढ़ा दिया गया है। प्रसाद बाँट दिया गया है। समन्दर के पानी में कुमकुम, फूल और दूध डालकर पूजा हो गयी है।
सामने दिखते जहाज़ पर भी एक झण्डा लहरा रहा है। दादाजी सुक्कान पकड़े बैठे हैं। उन्होंने सिर पर लाल रुमाल बाँधा है। माथे पर कुमकुम अक्षत का तिलक है।
जहाज़ धीरे-धीरे खिसकने लगा है। जहाज़ का मोरा घूमने लगा है।
दादाजी ने हाथ उठाया। सिर पर बंधा रूमाल खोल हवा में हिलाया।
जहाज़ धीरे-धीरे बन्दरगाह से बाहर निकल गया। दादाजी अब नहीं दिखायी देते हैं। वे अपने सफ़र पर चल पड़े हैं। दूर जाते जहाज़ का आकार छोटा होते-होते बिन्दु जैसा हो गया... बाद में तो वह भी नहीं। मात्र समन्दर का अपार जल, दूर दिखायी पड़ता क्षितिज। एक ऐसा सफ़ेद प्रदेश, जहाँ समन्दर और आकाश एक हो जाते हैं।
मेरे भा समन्दर में चले गये थे। नये किनारे पर उतरेंगे। वहाँ उनसे पहले जो पहुँच गये हैं, वे समन्दर खेनेवाले उनकी राह देख रहे होंगे।
उनमें घुल-मिल जाने से पहले भा पीछे मुड़कर देखेंगे।
भा को दिखायी देगा- हमारे गाँव के समन्दर पर एक लड़का गीली रेत में घर बना रहा है। और भी कोई उसके साथ है। वह रेत में नाली बनाकर समन्दर का पानी घर तक ला रहा है।

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