02-Aug-2023 12:00 AM
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यह बहस पुरानी है कि राजसत्ता को कलाकार या कला-संस्थानों की सहायता करनी चाहिए या नहीं। राजसत्ता में काम कर रहे नौकरशाह अक्सर यह कहते और करते पाये जाते हैं कि कलाकारों को अपने वित्तीय संसाधन खुद जुटाना चाहिए (मानो देश के नागरिक टैक्स केवल इसलिए देते हों कि सरकारी कर्मचारियों को वेतन मिल सके), राजसत्ता से उनको ऐसी सहायता की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। इसके पीछे सम्भवतः तर्क यह है कि कलाएँ सिर्फ़ ‘सज्जात्मक’ होती हैं, उनकी समाज की गतिकी (डायनामिक्स) में कोई विशेष भूमिका नहीं होती। इसलिए यह प्रश्न वाजिब ही है कि राजसत्ता का कलाओं से क्या सम्बन्ध हो? कम-से-कम एक ऐसे समाज में जो खुद को लोकतान्त्रिक कहकर गौरव अनुभव करता हो। क्या राजसत्ता को कला के सृजन में हस्तक्षेप करना चाहिए? ज़ाहिर है इस प्रश्न का उत्तर बहुत बड़ा ‘नहीं’ है। क्या राजसत्ता को कलाओं का संरक्षण करना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर ‘हाँ’ भी है और एक अनिश्चय भी। निश्चय ही राजसत्ता को प्राचीन शिल्प, स्थापत्य, चित्रकला आदि का संरक्षण करना चाहिए लेकिन इस संरक्षण के नाम पर उसे इनकी आधुनिक प्रस्तुति में हस्तक्षेप से बचना चाहिए। क्या राजसत्ता को कलाओं के संवर्धन के लिए वित्तीय साधन उपलब्ध कराने का प्रयास करना चाहिए? इस प्रश्न का जवाब स्पष्ट ‘हाँ’ है। राजसत्ता का धर्म है कि वह देश के रंगकर्म, कलात्मक (ग़ैर बाज़ारू) सिनेमा, शिल्प, चित्रकला आदि को सम्भव करने पर्याप्त वित्तीय सहायता दे। ऐसा करके वह इन कलाओं या इनके प्रयोक्ताओं पर उपकार नहीं करेगी। यह करना उसका दायित्व है। यही मूल प्रश्न है : यह राजसत्ता का दायित्व क्यों है? किसी भी समाज में कलाओं का दायित्व उस समाज के नागरिकों में नैतिक-बोध, जिसे पारम्परिक शब्दावली में धर्म-बोध कहते हैं, को जीवन्त रखना है। यह दायित्व कलाओं के सिवाय कोई भी और अनुशासन पूरा नहीं कर सकता। यह केवल कलाओं के लिए सम्भव है कि वे नागरिकों के न सिर्फ़ सौन्दर्य बल्कि नैतिक-बोध को जाग्रत याकि जीवन्त रख सकती हैं। एक ऐसे समाज की कल्पना हो ही नहीं सकती जिसके नागरिकों का नैतिक-बोध या तो जड़ हो गया हो या विलुप्त। विज्ञान और टैक्नोलॉजी नागरिकों के जीवन को आसान कर सकते होंगे (हालाँकि यह भी भ्रम ही है।) लेकिन उनमें यह सामर्थ्य नहीं है कि वे नागरिकों में उनके नैतिक-बोध को जीवन्त और सक्रिय बना सके। कला का अपने पाठक या दर्शक या श्रोता से सम्बन्ध का स्वरूप ही कुछ ऐसा है कि कला के अनुभव के दौरान उसमें उसका विवेक जाग्रत हो जाता है। यह विवेक ही है जिसके जागने से नैतिक-बोध सक्रिय होता है। हर नागरिक का नैतिक-बोध हर दूसरे नागरिक से थोड़ा-सा अलग होता है। इस अलगाव के कारण हर नागरिक का नैतिक-बोध राजसत्ता द्वारा संचारित औसत नैतिक-बोध को प्रश्नांकित करता है। लोकतन्त्र में राजसत्ता ‘औसत नैतिक-बोध’ का व्यवहार करती है। लेकिन कला के सम्पर्क में आने पर नागरिकों के ‘विशिष्ट नैतिक-बोध’ सक्रिय हो जाते हैं। इस सक्रियता के फलस्वरूप वे राजसत्ता द्वारा व्यवहृत और संचारित ‘औसत नैतिक-बोध’ को प्रश्नांकित करना शुरू कर देते हैं। इस प्रश्नांकन के कारण ‘औसत नैतिक-बोध’ भी जड़ होने से बच जाता है और जीवन्त बना रहता है। उसे स्वयं को निरन्तर पुनर्नवा करना पड़ता है। अगर एक समाज में कलाओं का व्यापक स्तर पर समर्थन और स्वीकार है तो उसमें हमेशा ही नैतिक-बोध की जीवन्तता बनी रहेगी। दूसरे शब्दों में वह समाज नैतिक या पारम्परिक शब्दावली में कहे तो धर्म-सम्मत बना रहेगा। कलाओं के क्षीण होने से अनिवार्यतः नागरिकों का नैतिक-बोध भी क्षीण होता चला जाता है। यह सच है कि हर मनुष्य बल्कि हर जीव नैतिक-बोध के साथ ही जन्म लेता है। लेकिन इसे कम-से-कम मनुष्यों में बार-बार जाग्रत करने की आवश्यकता होती है। कलाएँ ही इस आवश्यकता को पूरा कर सकती हैं इसीलिए उनका संवर्धन और समर्थन राजसत्ता का बुनियादी क़िस्म का धर्म है। अगर कोई राजसत्ता इस धर्म को त्याग देती है तो इसका आशय यह है कि वह यह कोशिश कर रही है कि सारे नागरिक एक सी औसत नैतिकता का पालन करें और इस तरह अपने मनुष्य होने को त्याग कर रोबोट हो जाये। या आज्ञाकारी गुलाम। रोबोट या गुलामों से किसी भी जीवन्त और समृद्ध समाज की रचना नहीं हो सकती। विज्ञान और टैक्नोलॉजी के गुण गाना ठीक है लेकिन उनसे उन सब की अपेक्षा करना जो केवल कला और साहित्य कर सकते हैं, हिंस्र भोलापन है। एक ऐसा भोलापन जो पूरे समाज को नष्ट कर सकता है।
यह आग्रह कि मसलन साबुन या कम्प्यूटर की तरह कलाओं को भी अपने वित्तीय संसाधन बाज़ार से पाने की कोशिश करना चाहिए इसलिए खोखला है क्योंकि आधुनिक बाज़ार का नागरिकों के नैतिक-बोध से कोई सम्बन्ध नहीं है। उसके लिए यह बेहतर ही है कि नागरिक विवेक-शून्य हो जायें। लेकिन लोकतान्त्रिक राजसत्ता के दायित्व बाज़ार से भिन्न हैं। जब वह कलाओं की वित्तीय सहायता करती है, अपना धर्म ही निभाती है।
भोपाल,
30 जून, 2023
उदयन वाजपेयी