‘समास’ की परिक्रमाः एक दृश्यावलोकन रामशंकर द्विवेदी
20-Jun-2021 12:00 AM 1327

‘समास’ के अंक पाँच से लेकर नौ तक के अंकों में विनिवेशित सामग्री का एक सरसरा विहंगावलोकन समास के पाठक अंक दस में पढ़ चुके हैं। ‘समास’ साहित्यिक पत्रकारिता में एक नवाचार कहा जा सकता है। यह हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में सचमुच में सामग्री के विनिवेशन, विभिन्न मनीषियों से उदयन वाजपेयी के साक्षात्कार, भारतीय भाषाओं से कविता, उपन्यास, चित्रकला आदि के अनुवाद और सभी के पीछे बहुलतावादी एक भारतीय दृष्टि, वामपंथियों की ख़ेमेबाज़ी या विचार ध्ाारा की संकीर्णता से हटकर एक उदार दृष्टि, इन सभी दृष्टियों से समास को एक नया अभियान कहा जा सकता है। वर्ष में इसके तीन अंक निकलते हैं। पठनीय सामग्री से भरपूर समास रज़ा फ़ाउण्डेशन का एक साहित्यिक उपक्रम है। एक सजग, प्रबुद्ध पाठकों के चिन्तन, मनन के लिए जीवन के विविध्ा आयामों के द्वार खोलने वाली एक अनोखी और अद्वितीय पत्रिका। उतनी ही गम्भीर और उतनी ही रोचक। भाषाओं की दृष्टि से देखें तो उर्दू, संस्कृत, उडि़या, असमिया, बाङ्ला, मराठी, गुजराती सभी से चुनी हुई स्तरीय सामग्री। विध्ााओं की दृष्टि से देखें तो विचार परक प्रबन्ध्ा, आलेख, संस्मरण, कहानी, उपन्यास, कविता, आलोचना, ग्रन्थ समीक्षा। प्रबन्ध्ाों का आयाम शिल्प, चित्रकला, संगीत, प्राचीन इतिहास, पुराण का अनुशीलन जो कुछ भी भारत और भारतीयता से संबद्ध है, उस तक विस्तृत सबको समेटने की कोशिश। सम्पादक की दृष्टि एकायामी न होकर बहुआयामी है। इसलिए समास जीवन के हर पक्ष को छूता है। यह कोरा बुद्धि विलास नहीं हर रचना जीवन्त और जीवन के सक्रिय, सचेत आयाम को उद्घाटित करने वाली है।
पहले समास की सम्पादकीय टिप्पणियों पर एक नज़र डालते हैं। अंक 10 जुलाई, 2014। लोक सभा के चुनाव हो चुके थे। पार्टनर तुम्हारी पाॅलिटिक्स क्या है, मुक्तिबोध्ा के इस कथन को आध्ाार बनाकर कई वामपंथी आलोचक उनकी विचारध्ाारा से बाहर के अच्छे-अच्छे उत्कृष्ट साहित्यकारों को भी अपदस्थ किया करते थे। इससे हिन्दी साहित्य की जो हानि हुई है उसकी ओर इंगित करते हुए अपने सम्पादकीय में उदयन वाजपेयी ने लिखा हैः कोई वामपंथी आलोचक किसी भी लेखक को बिना उसकी कृतियों का विश्लेषण किये, उसे नीचा दिखाना चाहता था, वह उससे व्यंग्य में कहता था, पार्टनर तुम्हारी पाॅलटिक्स क्या है? यह प्रश्न पूछते हुए वह अक्सर यह बताना चाहता था कि भले ही यह बेहद नया और चित्राकर्षी लिख रहा हो, भले ही यह अपने लेखन में तमाम सम्भावित गहनता को प्राप्त कर चुका हो पर अगर वह वैसी राजनीति का समर्थन नहीं करता जैसी कि ऐसे प्रश्नों द्वारा परोक्षतः प्रस्तावित की जाती थी, उसमें कोई मूलभूत त्रुटि है। फिर उदयन ने लिखा है, ‘यह दरअसल प्रश्न नहीं है, जड़ीभूत विचारध्ाारा को आरोपित करने की समयसिद्ध युक्ति है।’ उन्होंने आगे लिखा हैः इसके परिणाम यह हुए कि उन कलाओं और साहित्यों को अस्वीकार किया गया जो इस शर्त पर खरे नहीं उतरते थे। इस छद्म सौन्दर्यशास्त्र का काम विविध्ा कला साहित्य-रूपों को समझना न होकर, उनमें से कुछ को स्वीकारना और अध्ािकतर को नकारना हो गया है। मुक्तिबोध्ा के प्रश्न की भी यही भूमिका रही है। उन्होंने निष्कर्षतः लिखा हैः हम सबके सौभाग्य से इस तथाकथित सौन्दर्यशास्त्र की सीमाएँ पूरी तरह उजागर हो चुकी हैं। अर्थात् साहित्य और कलाएँ किसी उपलब्ध्ा सत्य को प्रचारित-प्रसारित करने का माध्यम नहीं है, वे अपने में ही सत्य-शोध्ान का साध्ान है।
अंक-11 का सम्पादकीय (नवम्बर 2014) हिन्दी को स्मृतिविहीन करने के वामपंथियों के प्रयत्न के खिलाफ संघर्ष करने की अपेक्षा से सम्पन्न है। उन्होंने हिन्दी के हित में जो बात कही है उसके पालन से ही हिन्दी की पुनर्प्रतिष्ठा हो सकती है। अपने सम्पादकीय के अन्त में उन्होंने कहा है ‘एक ओर हमें संस्कृत और अन्य प्राचीन भाषाओं में संग्रहीत स्मृति और समझ को एक बार फिर हिन्दी में सक्रिय करना होगा और दूसरी ओर देश-दुनिया की नयी-नयी समझ से भी इसे अलंकृत करना अनिवार्य होगा। हिन्दी भाषियों को सचेत करते हुए उन्होंने कहा है कि उनकी भाषा पर भीतर और बाहर दोनों ही जगहों से पर्याप्त हमले हो रहे हैं। इन सबसे बाहर वह केवल अपने को शक्ति-सम्पन्न करके ही निकल सकती है।
समास-12, मार्च 2015। अपने अत्यन्त संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित सम्पादकीय में उदयन ने यह बताया है कि हमारे साहित्य और भाषा के आन्तरिक तत्वों को कैसे सक्रिय, ऊर्जस्वित और समृद्ध किया जा सकता है। उनके अनुसार साहित्य को समृद्ध करने के लिए यह आवश्यक है कि उसे प्राचीन और अर्वाचीन संगीत परम्पराओं, नृत्य परम्पराओं, दार्शनिक दृष्टियों आदि अन्यान्य कलाओं एवं ज्ञान परम्पराओं के प्रति सचेत होना होगा। साहित्य स्वयं से अन्तःक्रिया कर न आज तक समृद्ध हुआ है और न हो सकेगा।
समास-13, 2015। ‘समास’ की मूल चिन्ता भारतीय सभ्यता के अतीत और साम्प्रदायिक सम्भावनाओं को समझने की रही है। इसलिए उसके केन्द्र में वे लेखक प्रमुखता से आते रहे हैं जिन्होंने इस सभ्यता की खूबियों और कमियों को विश्लेषित किया या अपने विचार के केन्द्र में लाते रहे। उनमें कमलेश जी का योगदान कम नहीं रहा है इसलिए समास 13 की तैयारी उनके चले जाने के अवसाद में हुई है। इस अंक के सम्पादकीय का एक बिन्दु समास को दिये गये उनके अवदान पर केन्द्रित है। उसके बाद सम्पादकीय का दूसरा बिन्दु है किस तरह वामपंथियों द्वारा हमारे लेखकों को उनके राजनैतिक दृष्टिकोण से देखा जाता रहा और मुक्तिबोध्ा जैसे लेखक भी यह करने से बाज़ नहीं आ सके। सम्पादक का कहना हैः बहुत लम्बे समय तक हमारे प्रगतिशील लेखक अपने से भिन्न दृष्टि या दृष्टियाँ रखने वाले लेखकों को उनकी राजनीति के आध्ाार पर लांछित करने का एक भी अवसर ज़ाया नहीं करते थे। इसका असर युवा लेखकों पर बहुत बुरा हुआ। वे अपनी राजनैतिक अवस्थिति को ठीक करने में लग जाते और अपनी सृजनशीलता को बेहतर बनाने पर ध्यान नहीं देते, परिणाम यह हुआ कि साहित्य का स्तर गिरता गया। अन्त में सम्पादक ने निष्कर्षतः कहा कि लेखक की राजनीति का सन्दर्भ न विचारध्ाारा हो सकती है और न कोई राजनैतिक दल उसकी राजनीति का सन्दर्भ केवल उसका सत्य का अपना अनुभव हो सकता है।
समास-14, 2016। माक्र्सवादी विचारध्ाारा और पश्चिमी दृष्टि से अपने समाज को देखने का यह परिणाम हुआ कि हमारा साहित्य भी स्मृतिविहीन होता गया और हम अपने मूधर््ान्यों को भुलाने में ज़रा भी देर नहीं करते हैं। अपने सम्पादकीय में उदयन वाजपेयी ने लिखा है कि साहित्य का एक दायित्व अपनी सभ्यता के नागरिकों को उनकी स्मृतिहीनता-जन्य करुण स्थिति से बाहर लाना भी हुआ करता है। यह कार्य बाङ्ला भाषा में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने किया था। हिन्दी में वासुदेवशरण अग्रवाल, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, कमलेश, श्रीकान्त वर्मा आदि लेखकों ने किसी हद तक इसी कार्य में अपना जीवन लगाया। इन लेखकों के कार्य को आगे बढ़ाना और उनका स्मरण करते रहना हमारी सोच में अपनी सभ्यता के दोबारा आत्मविश्वास बनाने की ओर ध्ाीरे ही सही, पर सही दिशा में चलना है। अन्त में तीन मूधर््ान्यों के दिवंगत होने की दुःखद सूचना भी हृदय को विगलित करने वाली हैः श्रेष्ठ रंगकर्मी, नाटककार और कवि कावालम नारायण पणिक्कर, चित्रकार के.जी. सुब्रमणियम और सैयद हैदर रज़ा।
समास-15, 2016-17। इस अंक का सम्पादकीय भारतीय सभ्यता की समावेशिता और अन्य सभ्यताओं से निरन्तर संवाद रत होने में ही उसकी सार्थकता है। इस पर केन्द्रित है सम्पादक का मानना है, यह संवाद तब नहीं हो सकेगा जब हम या तो अपनी सभ्यता की विलक्षणता को जड़ मानकर बरतने लगे या उस विलक्षणता को स्वीकार ही न करें।
समास-16, जुलाई-सितम्बर 2017। इस सम्पादकीय के केन्द्र में हैं वे चार मूधर््ान्य साहित्यकार जिनकी लगातार उपेक्षा की गयी उनमें हैं श्रीकान्त वर्मा, कमलेश, निर्मल वर्मा और कृष्ण बलदेव वैद। इन्हें भुलाने या भुलाये रखने का मूल कारण उदयन ने यह बताया है कि इन चारों लेखकों की साहित्येतर राजनीति हिन्दी साहित्य में बहुमान्य राजनीति से मेल नहीं खाती थी। उन्होंने यह भी संकेत किया है कि इन चारों लेखकों के दो-तीन दशक पहले जाएँ, हम देख पाएँगे कि तब के महान हिन्दी लेखक और चिन्तक वासुदेव शरण अग्रवाल और मोतीलाल शास्त्री के साथ भी हिन्दी के साहित्य-समाज ने लगभग यही सलूक किया है। सम्पादक ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए लिखा है, यह गहरी चिन्ता का विषय है कि हमारे साहित्य में लेखकों की स्वीकृति और अस्वीकृति, उनके बलात् स्मरण और बलात विस्मरण के आध्ाार साहित्यिक या सौन्दर्यात्मक नहीं हैं। पूरी तरह राजनीतिक हैं। फिर उसने राजनीतिक विचारध्ाारा पर आध्ाारित आलोचना पर कटाक्ष करते हुए कहा है कि लेखक की साहित्येतर राजनीति को सृजनात्मक लेखन को परखने का प्रध्ाान मूल्य बनाना हिन्दी आलोचना के आलस्य और किसी हद तक परम्परा-विमुखता का ही द्योतक है।
समास-17, 2018। इस अंक के सम्पादकीय का खुलाव हमारे समकाल के एक विशिष्ट दार्शनिक नवज्योति सिंह के असामयिक देहावसान से होता है। लेखक ने उन्हें अपने समय का वैशेषिक दर्शन का एक ऐसा विचारक बताया है जिसने कलाओं पर भी विचार किया है। उसने खेद पूर्वक कहा है कि उनकी केवल एक पुस्तक प्रकाशित हो सकी जो समास-9 में उनके साक्षात्कार पर आध्ाारित थी। सम्पादक ने बड़े दुःख के साथ कहा है कि हमें यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि हमारी इस बौद्धिक जड़ता के क्या-क्या कारण हैं, किसकी वजह से नवज्योति सिंह का दार्शनिक चिन्तन समकाल के बौद्धिकों, विश्वविद्यालयों और सामान्य पाठकोें के मध्य अलक्षित रह गया। उसने एक और अलक्षित रह गये अनुसन्ध्ाानकर्ता और चिन्तक ध्ार्मपाल का उल्लेख करते हुए कहा है कि ऐसा ही कुछ सलूक कुछ वर्ष पहले तक जीवित अद्वितीय इतिहासकार ध्ार्मपाल के साथ भी हुआ है। मुझे लगता नहीं कि भारत का एक भी ऐसा विश्वविद्यालय होगा जहाँ ध्ार्मपाल को पढ़ाया जाता या उन पर गम्भीर शोध्ा किया जा रहा हो (पृष्ठ 5) 6 जुलाई 2018।
समास ! 2018-19, वर्ष-7, अंक 18। इस अंक का सम्पादकीय कलाओं- विशेषकर संगीत और नृत्य पर आध्ाारित है। हमारी सभ्यता पैगन सभ्यता है जहाँ सत्य पहले से उपलब्ध्ा नहीं उसे अर्जित करना पड़ता है इसी तरह हमारा संगीत उपज और बढ़त वाला है, इसका कोई पूर्व निर्मित ढाँचा नहीं होता जैसा कि पश्चिमी संगीत में होता है। इसीलिए हमारा संगीत और नृत्य विविध्ा रूपाकारों में व्यक्त होता है किसी एक ही पूर्वनिर्मित विन्यास में नहीं।
समास-2019, वर्ष 7, अंक-19। समास-19 का सम्पादकीय एक रोचक कि़स्से से शुरू होता है और यह किस्सा उस युवक का है जो अपनी पढ़ाई छोड़कर सिफऱ् लेखन करना चाहता है। पर वह ऐसा करने के पहले अपने गुरु से पूछता है कि क्या यह करना उचित है। गुरु का कहना है तब तुम्हें जीविकोपार्जन के लिए दो में से एक विकल्प चुनना होगा या तो किसी महाविद्यालय में अध्यापकी करो अथवा पत्रकारिता करो। और दोनों ही विकल्पों का परिणाम यह होता है कि एक में साहित्य की समझ जड़ होकर रह जाती है और दूसरे में आपकी भाषा सतही, सपाट होने को अभिशप्त है। अन्त में सम्पादक इस कहानी का फलितार्थ इन शब्दों में करता हैः अगर हम अपने विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों का सर्वेक्षण करके यह पता करने का प्रयास करें कि इनमें काम करते और इनसे पढ़कर निकले कितने लोग साहित्य के गहरे आस्वादक हो सके हैं, तो हमें गहरी निराशा हाथ लगेगी। हिन्दी पत्रकारिता में कुछ अपवाद छोड़कर अध्ािकांश पत्रकार लेखक साध्ाारण लेखन ही कर सके हैं (पृष्ठ 5)
समास-20, वर्ष 7, अंक-20, 2020। 24 जुलाई 2020 को लिखे अपने सम्पादकीय में उदयन वाजपेयी ने ध्ार्म का प्रश्न उठाते हुए उसके व्यापक अर्थ पर विचार किया है। ध्ार्म के व्यापक अर्थ पर विचार करते हुए वासुदेव शरण अग्रवाल ने उसे ऋत् और सत्य का पर्याय माना है ऋत् गति का सत्य है और सत्य स्थिति का सत्य है। ध्ार्म में ये दोनों आ जाते हें। ध्ार्म जो सभी को ध्ाारण करो इसी से नैतिक नियम जुड़े हुए हैं। अन्त में सम्पादक का कहना हैः जब तक हम इस प्रत्यय को उसके प्राचीन और अर्वाचीन आशयों में गहराई से और बिना किसी वैचारिक आरोपण के समझने की चेष्टा नहीं करेंगे, हम सामाजिक हिंसा को रोक नहीं सकंगें। (पृष्ठ 6)
यहाँ तक समास-10 से लेकर समास-20 तक के सम्पादकीयों के मूल वक्तव्यों को प्रस्तुत किया गया। ये टिप्पणियाँ स्वतन्त्र नहीं हैं इनका व्यापक सम्बन्ध्ा अंक-20 से लेकर 20 तक के उन संवादों से है जो उदयन वाजपेयी या किसी अन्य से किसी मनीषी, दार्शनिक, विचारक या साहित्यकार से हुआ है इसलिए ये टिप्पणियाँ सन्दर्भहीन नहीं है। साथ ही इनकी एक विशेषता है इनके परिसर का मात्र दो पृष्ठों का होना। यहाँ मुझे वे सम्पादक याद आते हैं जो अपने द्वारा सम्पादित पत्रिका में सम्पादकीय टिप्पणी के बहाने एक स्वतन्त्र निबन्ध्ा ही लिख डालते थे, फिर उनके उस सम्पादकीय का सम्बन्ध्ा उस अंक में समाविष्ट सामग्री से हो या न हो। इस दृष्टि से समास की सभी सम्पादकीय टिप्पणियाँ बेहद प्रासंगिक और लघु परिसर वाली होते हुए भी गम्भीर, स्पष्ट और तर्क से पुष्ट हैं। इन्हें सम्पादकीय विवेक का एक उत्कृष्ट उदाहरण कहा जा सकता है। इनका फलक छोटा होते हुए भी इनमें समाविष्ट विषय का फलक बहुत विस्तृत और विचार-प्रवण है।
पहले अंक 5 से अंक 9 में समाविष्ट सामग्री का आकलन करते हुए यह उल्लेख किया गया था कि हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास में ‘समास’ पत्रिका की विशिष्टता जिन कारणों से है उनमें एक कारण इसके संवाद हैं। और इन संवादों की प्रकृति हिन्दी में साक्षात्कार विध्ाा की ढर्रे वाली प्रकृति से एक़दम हटकर है। इनमें उदयन वाजपेयी या साक्षात्कार लेने वाला सामने के व्यक्ति को खुलकर बोलने की छूट देता है, वह स्वयं लम्बे भाषण देने लगने की उतावली से बचता है या बीच-बीच में अपना ज्ञान नहीं बघारता है बल्कि उत्प्रेरक, उत्सुकतापूर्ण, कुछ नया जानने की इच्छा से बीच-बीच में प्रश्न करता जाता है। इन संवादों में जिसका साक्षात्कार लिया जा रहा है, उसका जीवन, उसके विचार, उसकी दृष्टि, उसका लेखन और ज्ञान के प्रति एक विनम्र दृष्टि के साथ साहित्य या विचार भारतीय चिन्तन परम्परा को उसकी देन क्या है, यह भी आ जाता है। साक्षात्कार देने वाले की दृष्टि नयी, मौलिक और उस जैसी वैश्विक विचारध्ााओं से अपनी विचारध्ाारा की तुलना करते हुए उसकी विशिष्टता को रेखांकित करती है। विषय वैविध्य की दृष्टि से ये साक्षात्कार कला, संस्कृति, सभ्यता, दर्शन, ध्ार्म, नीतिबोध्ा, कविता, साहित्य, संगीत, नृत्य और भाषा, समाज, लोक सभी का स्पर्श करते हैं। ये हमें विचारशील या यों कहिए जीवन से जुड़े प्रश्नों पर विचार करने को उकसाते हैं साथ ही ये हमारे बोध्ा को गहरा करते हुए हमें ज्ञान से समृद्ध करते हैं।
समास-10 में सुध्ाारक यादव द्वारा लिया गया उपन्यासकार भालचन्द नेमाड़े का लम्बा साक्षात्कार है और उनके ‘हिन्दू’ उपन्यास का एक अंश प्रकाशित हुआ है। जैसा कि विदित है उनके विचार अपने हैं और वे एक विवादास्पद लेखक हैं। उनके विचार व्यक्तिगत हैं और उनसे सहमत होना मुश्किल है। स्वयं समास में ऐसी बहुत-सी सामग्री है जो उनके अनुकूल नहीं है। फिर भी उन्हें एक बार पढ़ना ज़रूर चाहिए।
समास-11 में अशोक वाजपेयी के साथ उदयन वाजपेयी की लम्बी बातचीत है। उदयन का अशोक जी के लिए यह कहना कि अशोक वाजपेयी को सच्चे अर्थों में पिछले कई दशकों का एक बड़ा हिन्दी सेवी कहा जा सकता है। अशोक जी के पूरे व्यक्तित्व को एक बिन्दु पर केन्द्रित कर देता है। पर यह बातचीत ‘हिन्दी भाषा के इर्द-गिर्द घूमती उनकी जि़न्दगी और समझ को आलोकित करने की मंशा से की गयी है। उदयन ने लिखा है ‘यह बातचीत भाषा में कवि के और कवि में भाषा के संस्कार के स्वरूप को समझने में सहायक होंगे (पृष्ठ 7)
अशोक वाजपेयी की काव्यभाषा और उनकी गद्य भाषा हिन्दी कविता और हिन्दी आलोचना की पूर्व भाषा की तुलना में एक विराट विचलन है। इनकी भाषा की आप नक़ल नहीं कर सकते। कुछ लेखकों ने इनके द्वारा व्यवहृत शब्दों को आत्मसात कर अपने गद्य में प्रयोग करने की कोशिश की है पर ऐसे छिटपुट शब्द हें उन्हें एक प्रकार का प्रभाव कहा जा सकता है पर उन लेखकों का भाषा व्यवहार एक़दम अपना और मौलिक है। इनमें आप पीयूष दईया, मदन सोनी और ध्ा्रुव शुक्ल को ले सकते हैं। स्वयं उदयन का भाषा-व्यवहार अशोक वाजपेयी से एक़दम अलग और भिन्न है। अभी अशोक वाजपेयी की भाषा के प्रायोगिक पक्ष पर कोई गहरा और विस्तृत काम नहीं हुआ है। अगर आप शमशेर बहादुर सिंह मुक्तिबोध्ा, कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, रघुवीर सहाय के भाषा-व्यवहार को सामने रखकर अशोक वाजपेयी की भाषा-दृष्टि तथा उसके प्रायोगिक पक्ष की तुलना करें तो अशोक वाजपेयी की भाषा की विशिष्टताएँ उजागर हो जाएँगी। अशोक वाजपेयी बेहद शब्द-सचेत कवि हैं। पूरा साक्षात्कार उनकी भाषा के स्रोत और उसके तेवरों को समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। ‘भारतीय नाट्य की अवध्ाारणा एवं रंगकर्म का प्रशिक्षण’ इस शीर्षक से उदयन वाजपेयी का संवाद प्रसिद्ध नाट्यकर्मी कावालम नारायण पणिक्कर से अंक-12 में प्रस्तुत किया गया है। इस संवाद से पणिक्कर के कवि, रंगकर्मी जीवन के पूरे विकास पर प्रकाश पड़ता है। पणिक्कर के जीवन में अन्य जो कवि, रंगकर्मी प्रसंगतः आए उनके जीवन के पक्ष भी इसमें उल्लिखित हैं। एक तरह से इस संवाद से पणिक्कर के जीवन की कहानी का रोचक विवरण एक पाठक के सामने प्रत्यक्ष हो उठता है।
पणिक्कर का एक सुझाव बहुत ग़ौर करने लायक़ है। उन्होंने कहा है, हम जब तक नाट्यशास्त्री के पाठ पर ज़ोर नहीं देते (और इसको पूरा का पूरा सीखना ज़रूरी नहीं है) तब तक हम अपने रंगकर्म को विकसित नहीं कर सकेंगे (पृष्ठ 64)
समास-13 की बातचीत बी.एन. गोस्वामी के पहाड़ी चित्रकला के लोक रूपों पर आध्ाारित है। इससे कांगड़ा, वसोली आदि पहाड़ी चित्रकला की राजपूत, मुगल चित्रकला से भिन्न को समझा जा सकता है। बी.एन. गोस्वामी ने इस चित्रकला के पारम्परिक रूपों पर लेखन किया, उसकी बारीकियों की व्याख्या की और इसी कर्म में अपना जीवन समर्पित कर दिया। उदयन ने लिखा है कि यह बातचीत अध्ाूरी है, हो सकता है इसकी अगली कड़ी समास के इन्हीं पन्नों पर कभी रेखान्कित हो। उनकी डायरी के कुछ पन्ने भी इसी अंक में निकले हैं जो इस कला के विविध्ा रूपों पर प्रकाश डालते हैं।
समास-14 में ‘सभ्यताओं के विविध्ा तत्व’ को केन्द्र में रखकर देश के ख्यात विचारक बनवारी से उदयन की बातचीत दी गयी है। बनवारी के बारे में उदयन का यह कहना पर्याप्त है कि उन्होंने भारतीय सभ्यता को गहराई से समझने के लिए न सिफऱ् इस सभ्यता के बारीक-से-बारीक विवरणों को ध्यान से देखा-परखा है बल्कि अन्य सभ्यताओं के अध्ययन के सहारे भी इसकी विशेषताओं को रेखांकित करने का अनोखा बौद्धिक उपक्रम किया है। (पृष्ठ 7)
समास-15 की बातचीत के केन्द्र में उर्दू के प्रसिद्ध शायर, आलोचक और उपन्यासकार शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी हैं। इनकी बातचीत के दो बिन्दु हैं एक तो इनकी जातीय जि़न्दगी पर आध्ाारित है, दूसरा इनके लेखकीय जीवन पर। पूरी बातचीत बहुत ही रोचक पठनीय और विचार बहुल है। अगर इस बातचीत का पूरा विवरण दिया जाए तो एक लम्बी कहानी जैसा बनेगा जो इस लेख की सीमा को देखते हुए मुमकिन नहीं है। पूरा ब्यौरा एक लम्बे लेख की अपेक्षा रखता है। फिर भी पाठकों से यह निवेदन है कि इस समास के इसी अंक में मूल रूप में पढ़कर उसका आस्वादन ज़रूर करें। इसमें उर्दू, फारसी, फ्ऱैंच आदि के साहित्य से सम्बन्ध्ाित कई रोचक तथ्य दिये गये हैं साथ ही 18वीं, 19वीं सदी की दिल्ली के परिवेश की भी इसमें जीवन्त झलक आपको मिल जायेगी। अपने उपन्यास ‘कई चाँद थे सरे-आसमां’ की रचना-प्रक्रिया वस्तु विन्यास, पात्रों के निर्माण आदि पर उन्होंने जो लम्बी बातचीत की है, वह उर्दू कथा-साहित्य में एक मील का पत्थर है। इस उपन्यास की प्रेरणा भूमि क्या है, इसके पात्रों को उन्होंने इतिहास की किन अँध्ोरी गुफाओं से उठाया है, कैसे उन्होंने वज़ीर ख़ानम जैसी औरत का चित्रण किया है, कैसे यह एक-के-बाद-एक मर्द बदलती है, या तो मर्द मर जाता है या वह स्वयं छोड़ देती है और दूसरे के पास चली जाती है, वह बड़ा सशक्त स्त्री चरित्र है। इसके गठन के पीछे सौन्दर्य का कौन-सा आध्ाार है, फ़ारूक़ी साहब ने इस बातचीत में पूरी तरह बयान किया है। इसका आनन्द इस बातचीत के पढ़ने में है, इसमें और भी बहुत-सी बातें है जो एक पाठक के मन को समृद्ध करती हैं। ‘प्रवास की सुदीर्घ साध्ाना’ कृष्ण बलदेव वैद से उदयन की बातचीत समास-16 की एक महत्वपूर्ण घटना है। इसकी वजह इसलिए है कि यह पूरी बातचीत ई-मेल पर हुई आमने-सामने बैठकर नहीं। आप सोचिए दोनों तरफ से कितने ई-मेल हुए होंगे और उनके जवाब में वैद साहब को कितने लम्बे-लम्बे उत्तर लिखने पड़े होंगे। पर हर संवाद की तरह यह संवाद अनोखा, विचार बहुल और वैद साहब के लेखक, उसके संघर्ष, उनके उपन्यासों, कहानियों की खूबियों को हमारे सामने प्रस्तुत करता है।
उदयन ने उनके बारे में लिखा हैः वैद साहब ने अपने हर उपन्यास में उपन्यास लेखन के क्षेत्र में नये प्रयोग करने का जोखिम उठाया है। उनके लेखन से न सिफऱ् हिन्दी बल्कि अनेक भारतीय भाषाओं के कई लेखक गहरे तक प्रभावित रहे हैं। उनके लिखने की शैली तक को वैद साहब के लेखन ने किसी हद तक बदला है। (पृष्ठ 1) उन्होंने आगे लिखा हैः पाठक इस बातचीत में यह लक्ष्य करेंगे कि वैद साहब ने अपना उच्च अध्ययन शरणार्थी शिविर में रहकर पूरा किया है। वे वर्षों अमरीका में अंग्रेज़ी पढ़ाते रहे हैं और अब कई बरस भारत में गुजारने के बाद दोबारा अमरीका लौट गये हैं। (पृष्ठ 1)
समास-17 की बातचीत आशीष नन्दी से हुई है, इसका शीर्षक है ‘आध्ाुनिक भारत की आध्ाार शिलाएँ’। आशीष नन्दी देश के श्रेष्ठ विचारकों में माने जाते हैं। वे राजनैतिक मनोविश्लेषक, समाजशास्त्री और आध्ाुनिकता के समर्थ आलोचक हैं। उन्होंने पिछले अनेक दशकों में उपनिवेशोत्तर भारतीय समाज की आत्म-पहचान के तत्वों को रेखांकित करने का एक ऐसा सैद्धान्तिक उपक्रम किया है जो अपने आप में अनूठा है।
दरअसल समास के हर अंक में किसी-न-किसी से उत्प्रेरक बातचीत रहती ही है। यह उस पत्रिका का स्थायी स्तम्भ है। पर यह बातचीत जितनी गम्भीर, रोचक और विचारपूर्ण रहती है इसमें उतनी ही विविध्ाता रहती है। यह विविध्ाता इसे उबाऊ या ढर्रे की बातचीत में परिणत होने से बचाती है।
आशीष नन्दी से उदयन की बातचीत बहुत लम्बी और विविध्ा विषयों पर आध्ाारित है। उसका सारांश देना कठिन है। पर उनके विचारों में वैयक्तिकता अध्ािक है। उन्हें इदमिथ्यं नहीं कहा जा सकता है। पर एक बार उसे पढ़ना ज़रूर चाहिए।
समास-18 की बातचीत का केन्द्र ‘सिनेमा कला और संसार’ है जो कुमार शहानी से की गयी है। उदयन ने उन पर केन्द्रित टिप्पणी में लिखा है, ‘ऋत्विक घटक और सत्यजीत राय के बाद कुमार शहानी और मणिकौल सम्भवतः देश के सबसे अध्ािक महत्वपूर्ण फि़ल्मकार रहे हैं। इनकी फि़ल्मों ने न सिफऱ् हमारे फि़ल्म के देखने में बुनियादी बदलाव लाया है बल्कि इन फि़ल्मों की रोशनी में हम वास्तविकता और स्वयं अपने आप को भी कुछ और तरह से ही अनुभव करने के रास्ते खोज सके हैं या खोज सकते हैं। उन्होंने लिखा है कुमार शहानी से बात हमेशा हर्षित करती है। वे अपने भीतर दुनिया की तमाम कला परम्पराओं के बहावों को मानो लेकर चलते है, इसलिए उनसे बात करना अनिवार्य रूप से गहन कलात्मक और दार्शनिक अनुभव होता है। (पृष्ठ 2)
समास-19 के वार्तालाप का विषय न्यायशास्त्र की दृष्टि से कलाएँ हैं। यह बातचीत ख्यात न्यायशास्त्री, काशी निवासी प्रोफेसर प्रद्योत कुमार मुखोपाध्याय से की गयी है। इस वार्तालाप का शीर्षक है आध्ाुनिक भारत की निर्मिति पर न्यायशास्त्रीय दृष्टि। मैंने कई बार इन वार्तालापों की विलक्षणता का संकेत किया है। दिलचस्प बात यह है कि उदयन की हर बातचीत का प्रस्थान बिन्दु नितान्त मौलिक और नया होता है। बातचीत के पहले जिससे बातचीत करनी है उसके जीवन, बौद्धिक रुचि, कार्यक्षेत्र का संक्षिप्त विवरण के साथ उदयन उस विद्वान से उनका व्यक्तिगत परिचय कैसे हुआ इसका भी संकेत कर उस बातचीत की ओर जीवन्त तथा वैयक्तिकता से जोड़ देते हैं। इससे उस बातचीत में जो आत्मीयता का रंग आ जाता है, वह इसे एक रोचक आसंग दे देता है। इन वार्तालापों को पढ़ते हुए मुझे प्लेटो और अरस्तू के वार्तालाप याद आते रहे और श्री अरविन्द और नीरदवरन के साथ दिलीप कुमार राय और रोम्याँ रोलाँ, रवीन्द्रनाथ, बट्रेन्ड रसेल, गाँध्ाी और श्री अरविंद से उनकी बातचीत भी याद आ गयी। संगीतकार श्री दिलीप का यह वार्तालाप उनकी ख्यात बाङ्ला पुस्तक तीर्थंकर में संकलित है। यह बहुत ही रोचक बौद्धिक दीप्ति से युक्त और उजास से भरा हुआ है। प्रद्योत कुमार मुखोपाध्याय जी से उदयन का परिचय प्रसिद्ध दार्शनिक नवज्योति सिंह के माध्यम से हुआ था। उन्हीं के प्रयास से वाराणसी में आयोजित नाट्यशास्त्र पर पाँच दिवसीय कार्यशाला में उदयन ने उन्हें सुना और यह बातचीत भी मुखोपाध्याय के घर पर हुई। बाद में उदयन की तीसरी बार की बनारस यात्रा के दौरान सम्पन्न हुई।
बातचीत के प्रारम्भ में मुखोपाध्याय ने भारतीय पश्चिमी संस्कृति के विभेद के बारे में बताते हुए कहा है कि भारतीय संस्कृति में खुद को अदृश्य रखना एक बड़ा मूल्य है, पश्चिमी संस्कृति में इससे ठीक विपरीत खुद को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करना। इसके बाद उन्होंने रामकृष्ण परमहंस और उनके शिष्य स्वामी विवेकानन्द में अन्तर की जो रेखा खींची है उसके अनुसार परमहंस जी के माध्यम से विराट के दर्शन होते थे जबकि स्वामी विवेकानन्द को देखकर हमारी दृष्टि उन्हीं पर अटक कर रह जाती थी। मुखर्जी के इस मूल्यांकन से मैं सहमत नहीं हूँ किन्तु क्यों उसके विस्तार में जाने की यह जगह नहीं है। आगे उन्होंने आध्ाुनिक मन का जो लक्षण बताया है वह इस प्रकार है ‘आध्ाुनिकता की दो चीज़ों ने समाज को आक्रान्त कर रखा है। पहला व्यक्तिवाद (इण्डिविजु़अलिज़्म) और दूसरा है मौलिकता। उन्होंने आगे कहा है ज़्यादातर मौलिकता का यह दावा अज्ञान आध्ाारित होता है। हमारी अध्ािकांश मौलिकता का अर्थ इतना भर है कि हमें यह पता नहीं रहता कि हमारी मौलिक बात कोई अन्य कह चुका है। (पृष्ठ 2)
पर मुखोपाध्याय का यह सशक्त विचार है जिसमें यह अपेक्षा है कि हमारी जड़ें अपनी संस्कृति में होनी चाहिए और उसके बाद ही हमें विचार-विमर्श करना चाहिए (पृष्ठ 4)
मुखर्जी ने राष्ट्रवाद पर खुली दृष्टि से विचार किया है। उनकी दृष्टि में स्वामी विवेकानन्द और टैगोर दोनों अन्तर्राष्ट्रीयतावादी थे केवल महात्मा गाँध्ाी ही एकनिष्ठ राष्ट्रवादी थे। उनकी (मुखर्जी की) दृष्टि में राष्ट्रवाद का आशय अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा है, यह मेरे लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण मूल्य है (पृष्ठ 5)। मुखर्जी ने भारत में राष्ट्रीयता का उद्भव और विकास कैसे हुआ इस पर विस्तार से विचार किया है। उन्होंने अपने वार्तालाप में जिस महापुरुष सतीशचन्द्र मुखर्जी और उनकी डाॅन सोसायटी का उल्लेख किया है उनके कार्यकलापों और डाॅन सोसायटी पर भारत के प्रथम राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी आत्मकथा में विस्तार से चर्चा की है। डाॅन सोसायटी और उनके पत्र डाॅन पर बाङ्ला की एक पत्रिका में विस्तारपूर्वक चर्चा की गयी है।
मुखर्जी ने राष्ट्रवाद की तरह ध्ार्म की पश्चिमी दृष्टि की आलोचना की है। पश्चिम के लोगों की दृष्टि विकासवाद से प्रभावित है। वे हिन्दू ध्ार्म की निरन्तरता न मानकर उसके तीन सोपान मानते हैं। पश्चिम के द्वारा ध्ार्म के निरन्तर किये जा रहे अपमान को न सहकर सबसे पहले ब्रह्मध्ार्म ने ही उसका उत्तर दिया। इसी के साथ उन्होंने चार बड़े आन्दोलनों की चर्चा की है। पहला राष्ट्रीय ध्ाार्मिक आन्दोलन जिसमें हमें अपनी संस्कृति पर पुनर्विचार करने और पश्चिम की वैचारिक चुनौती का प्रत्युत्तर देने को प्रेरित किया। दूसरा आन्दोलन राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन था, तीसरा राष्ट्रीय राजनैतिक आन्दोलन था और चैथा स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति का आन्दोलन था, जिसके तहत कोठारी आदि कई आयोग बने पर किसी ने भी स्वतन्त्रता प्राप्ति के पहले हुए राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन के दस्तावेजों को नहीं पढ़ा। अगर पढ़ते तो हमारी शिक्षा नीति में जो कमी रह गयी वह न रह जाती।
भारत में विकास की जो परिकल्पना की गयी है वह मुखर्जी की दृष्टि में भारतीय समाज को बिना जाने। पश्चिम का समाज सपाट है, भारतीय समाज सपाट नहीं है। इसी तरह भारतीय समाज में अतीत की ध्ाारणा अनन्त है, भविष्य की सान्त (स$अन्त)। पर पश्चिम में ठीक इसका उलटा है। वहाँ अतीत सान्त है और भविष्य अनन्त। इसीलिए वे न कर्म का सिद्धान्त मानते हैं न पुनर्जन्म का। हमारे यहाँ बौद्ध, जैन, सिख सभी कर्म के सिद्धान्त को मानते हैं और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को भी। मुखर्जी के शब्दों में आपको ऐसा शायद ही कोई भारतीय मिलेगा जो कर्म के सिद्धान्त और पुनर्जन्म में विश्वास न करता हो, चाहे वह बौद्ध हो, जैन हो या हिन्दू। इस तथ्य को दबाने की क्या ज़रूरत है? ये सभी कर्म के सिद्धान्त को मानते हैं और कर्म के सिद्धान्त की तार्किक परिणति अतीत की अनन्तता में होती है, साथ ही इसका अन्तर्सम्बन्ध्ा भारत की समय की ध्ाारणा से जुड़ा हुआ है। (पृष्ठ 17)
मुखर्जी के विचार हमें हर चीज़ पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित करते हैं चाहे हमारे समाजवादी लोकतान्त्रिक गणराज्य की स्थापना हो, शिक्षा आन्दोलन हो, भक्ति आन्दोलन हो- सब पर। उनका कहना है हमें पश्चिम की दृष्टि से अपनी हर चीज़ पर विचार करना छोड़ना चाहिए और यह खोजना चाहिए कि हमारी अपनी दृष्टि क्या है, भारत क्या है, भारतीयता क्या है?
मुखर्जी के विचार बहुत ही उत्प्रेरक और सोचने को विवश करते हैं। उदयन वाजपेयी के एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा है आज दोयम दर्जे के लोग हर क्षेत्र में शासन कर रहे हैं। यह क्षेत्र चाहे राजनीति का हो या संस्कृति का हो या यान्त्रिकी का हो, वह हर जगह शासन कर रहे हैं। यह न सिर्फ़ अपने आप में ग़लत है बल्कि इसके कारण वास्तविक प्रतिभा सम्पन्न लोगों को ऊपर नहीं आने दिया जाता। (पृष्ठ 22) उन्होंने दूसरी बात यह कही कि हमने सोच-विचार करना छोड़ दिया है। उन्होंने अंग्रेज़ी लेखक बर्नार्ड शाॅ को उद्घृत करते हुए कहा है ‘सतहीपन एक बीमारी है जो दूसरी बीमारियों की तरह हमने ही बनायी है। मुखर्जी के अनुसार वैचारिकता किसी भी संस्कृति की आध्ाारशिला होती है, उसके जीवत्व के लिए, उसे बनाए रखने के लिए। (पृष्ठ 22)
उन्होंने मार्ग संगीत बरक्स रवीन्द्र संगीता अतुल प्रसाद सेन संगीत और दिलीप कुमार राय के गायन के साथ घूर्णटी प्रसाद मुखर्जी के संगीत चिन्तन पर भी विचार किया है। वे बेगम अख़्तर की गायकी के बेहद प्रशंसक हैं। इससे मुखर्जी की संगीत विशेषज्ञता का भी पता चलता है। उनके अनुसार जिस संगीत में स्वर के साथ काव्य भी उच्चकोटि का हो वही उत्कृष्ट संगीत होता है।
कला के बारे में मुखर्जी का कहना है कि भारत में कला के सिद्धान्त तो विकसित हुए पर कला का दर्शन विकसित नहीं हुआ। उदयन वाजपेयी के एक प्रश्न, कला की उत्प्रेरणा क्या हो सकती है के उत्तर में उन्होंने कहा, ‘अगर मैं इसे आस्कर वाइल्ड की भाषा में कहूँ, कला प्रकृति की अनगढ़ता के विरुद्ध मनुष्य का साहसिक संघर्ष है। कला की उत्प्रेरणा का यह एक पहलू है। जो अपूर्ण है, अपर्याप्त है, उसे पूर्ण बनाना उन्होंने कहा है लेखक-कलाकार की संवेदना न सिर्फ़ उस जगत की अपर्याप्तता पहचानने को प्रेरित करती है, उसमें यह विश्वास भी उत्पन्न करती है कि वह एक परिपूर्ण जगत बना सकता है। उन्होंने कला और दर्शन तथा विज्ञान में अन्तर बताते हुए कहा है, दर्शन और विज्ञान जानने की आकांक्षा रखते हैं, कला सृजन करने की, इसलिए वह व्यावहारिक होती है। (पृष्ठ 57) मुखर्जी का सम्पूर्ण चिन्तन दर्शन से आक्रान्त है इसलिए उनका कहना है कला आपको एक काल्पनिक जगत में अस्थायी सुख देती है जबकि दर्शन आपको स्थायी समाध्ाान देता है।
असल में मुखर्जी के विचार इस तर्क पद्धति पर चलते हैं जैसा कि प्रश्नकत्र्ता उदयन ने लक्ष्य किया कि पहले वे किसी पूर्व पक्ष को अच्छी तरह प्रस्तुत करते हैं फिर उत्तर पक्ष को प्रस्तुत करने के लिए उसे तर्क के द्वारा काट देते हैं यह तर्क पद्धति है क्योंकि वे नव्य न्यायशास्त्री है। जैसे उन्होंने कहा कि कला प्रकृति के अनगढ़पन को एक सुन्दर विन्यास में बदल देती हैं, और ईश्वर का बनाया संसार अपूर्ण है, उसमें कमी है, कला उसी कमी को अपनी कल्पनात्मक सृजनशक्ति के द्वारा पूरा करती है। पर आगे वो कहते हैं संसार तो पूर्ण है, यह कलाकार की अपर्याप्तता है कि वह प्रकृति में छिपे पूर्ण को, उसमें छिपे शिल्प को, सौन्दर्य को नहीं देख पाता, शिल्प में वह उसी सौन्दर्य को व्यक्त कर देता है जैसे पत्थर में छिपे डेविड को माइकेल ऐंजिलो ने अपनी सर्जना शक्ति से पत्थर से अतिरिक्त वस्तु को छेनी-हथौड़े से हटा दिया और उससे डेविड का सुन्दर शिल्प निकाल लिया। यह उदाहरण मुखर्जी ने दिया है। कला की तरह संगीत के बारे में भी उनके विचार हैं उन्हें समास के पृष्ठों पर पढ़ना चाहिए। उनकी विचार सारणी से अलगाकर उन्हें प्रस्तुत नहीं किया जा सकता इससे उनकी विचार पद्धति की श्रृंखला या उसका तारतम्य टूट जाने का ख़तरा है।
उदयन के एक प्रश्न के उत्तर में मुखर्जी का यह कहना उचित ही है कि भारत की सारी ज्ञान परम्पराएँ एक ही स्रोत से आयी हैं और उनमें कोई अन्तर्विरोध्ा नहीं है जबकि पश्चिम की दृष्टि ज्ञान को टुकड़ों में देखने की अभ्यस्त है। वहाँ ज्ञान-परम्पराओं के बीच का विभाजन स्वार्थ की विविध्ाता के कारण हुआ, हमारे यहाँ सभी ज्ञान परम्पराओं में एक मूल्य सामान्य हैः ज्ञान केवल ज्ञान के लिए नहीं है। ज्ञान मनुष्य के कल्याण, समृद्धि और विस्तार के लिए है। वह व्यक्तिगत समृद्धि के लिए भी है और सामाजिक समृद्धि के लिए भी। (पृष्ठ 67)
समास-20 का वार्तालाप प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान सामदोंग रिनपोछे और उदयन के बीच हुई बातचीत पर आध्ाारित है। इसका शीर्षक है ‘जीवन और जगत पर विचारों का सिलसिला’।
इस बातचीत की शुरुआत तिब्बती भाषा जानने से हुई। रिनपोछे ने बताया कि आज जो तिब्बती भाषा और उसका व्याकरण, लिपि उपलब्ध्ा है वह सातवीं शताब्दी की है। तिब्बती लिपि उस समय प्रचलित देवनागरी की मैथिली से बनी हुई है। वे लोग जो नालन्दा, विहार के इलाके में पायी जाने वाली पुरानी मैथिली पढ़ पाते हैं, वे तिब्बती लिपि पढ़ सकते हैं। भाषा के विकास के साथ तिब्बत में बौद्ध ध्ार्म का विकास कैसे हुआ इसकी रिनपोछे ने रोचक कहानी बतायी है। उनके अनुसार आठवीं शताब्दी में वहाँ बौद्ध ध्ार्म के विस्तार के लिए आचार्य शान्तरचित को आमन्त्रित किया गया। वे नालन्दा के विद्वान थे और वृद्धावस्था में तिब्बत गये थे। वे तब सत्तर वर्ष के थे और उनका शेष जीवन तिब्बत में ही बीता। उनसे जब राजा ने यह आग्रह किया कि उन्हें तिब्बत में बौद्ध ध्ार्म का विस्तार करना है, उन्होंने जवाब दिया, इसके लिए दो कार्य करने होंगेः प्रथम, सारे बौद्ध वाङ्मय को तिब्बती भाषा में अनूदित करना होगा। दूसरा, अपने कुल पुत्रों से भिक्षु संघ की स्थापना करनी होगी। अनुवाद करने के लिए तिब्बती भाषा को संस्कृत के समकक्ष लाना आवश्यक था जिससे अनुवाद में कोई त्रुटि न हो। इस तरह तिब्बत में सबसे बड़े बौद्ध मठ ‘सम्ये’ की स्थापना हुई। यह आजकल तिब्बत के दक्षिण में है, अब इसके अवशेष बाक़ी हैं, हालाँकि 1959 में जब रिनपोछे तिब्बत से यहाँ आये थे, वह साबुत था। (पृष्ठ 3)
उस मठ में तीन विभाग थे, एक साध्ाना विभाग जिसे संकाय कहते थे, एक अनुवाद विभाग और एक अध्ययन-अध्यापन विभाग। भारत के उसमें चार-पाँच सौ संस्कृत के विद्वान रहते थे और उनके साथ तिब्बत के चार-पाँच सौ विद्यार्थी भी रहते थे। उस मठ में संस्कृत का अध्ययन और अध्यापन होता था, साथ ही साध्ाना होती थी और अनुवाद भी। रिनपोछे के अनुसार अनुवाद की पद्धति बड़ी ही वैज्ञानिक और सटीक थी। अनुवाद सही है या नहीं इसकी जाँच के लिए एक समिति बनी हुई थी। उसकी स्वीकृति के बाद ही वह अनुवाद छापा जाता था।
रिनपोछे भारत कैसे आए, वे किस गाँव के थे, भिक्षु कैसे बने, भारत में हिन्दी, अंग्रेज़ी की उनकी शिक्षा कैसे हुई इसका विस्तार से वृत्तान्त उपलब्ध्ा होता है। उदयन वाजपेयी ने उनसे विविध्ा प्रश्न किये हैं और उन्होंने इनके बड़े ही विस्तार से उत्तर दिये है। इसका विवरण इस बातचीत में पढ़ा जा सकता है। तिब्बत पर चीनी आक्रमण 1951 में हो गया था। सांस्कृतिक क्रान्ति के नाम पर तिब्बत के मठ, मन्दिर वहाँ की कला, साहित्य इस क्रान्ति में सब नष्ट कर दिया गया। इस विवरण के अलावा बौद्ध ध्ार्म की शिक्षाओं, उसके दार्शनिक पक्ष, साध्ाना और शिक्षा पद्धति का, स्मृति क्या है, चित्त क्या है, मृत्यु क्या है, आत्मा क्या है, बौद्ध ध्ार्म का मुख्य उद्देश्य क्या है, बुद्धत्व क्या है, ध्ार्मचक्र प्रवर्तन क्या है। इन सबका विवरण इस वार्तालाप का विषय है। रिनपोछे की दृष्टि में आध्ाुनिकता क्या है, विकास क्या है, इस पर भी इस बातचीत में प्रकाश डाला गया है। एक उद्धरण पर्याप्त हैः आध्ाुनिकता का विष इतना सूक्ष्म और अदृश्य है कि आपको सालों साल स्वस्थ रखे रहेगा, स्वस्थ होने का आभास देगा लेकिन जब वह आपके पूरे शरीर में फैल जायेगा तो उससे मुक्त होने का कोई उपाय बचेगा नहीं। फिर आपकी मृत्यु होकर रहेगी। आज तो हर चीज़ पर ‘टर्मिनेटर’ लगा दिया गया है। इससे मनुष्य के विवेक और उसकी विश्लेषण सामथ्र्य को ही मानो समाप्त कर दिया है। हम जीवन पर्यन्त बड़े-बड़े कारपोरेशन के बाज़ार बन गये हैं। उन्होंने आगे कहा है, हमारा दिमाग़ इस तरह बना दिया है कि हम उन चीज़ों के बिना जी ही नहीं सकते। अब कोई आदमी यह कल्पना नहीं कर सकेगा कि वह स्मार्ट फ़ोन के बिना दस दिन भी रह सकेगा? (पृष्ठ 60-61)
अंक-20 से अंक 20 तक उदयन से जिन मनीषियों की बातचीत हुई उसका सार-संक्षेप यहाँ तक दिया गया है। यह बातचीत इतनी महत्वपूर्ण हैं कि इसे अलग-अलग पुस्तकाकार प्रकाशित होना चाहिए। इससे हमारी जानकारी के साथ हमारी समझ और विवेक में वृद्धि होगी। हमें अपने देश को, संस्कृति को, सभ्यता को, कलाओं को समझने में सुविध्ाा होगी।
समास पत्रिका का परिसर सिर्फ़ इन लम्बे वार्तालापों में ही सीमित नहीं है। उसमें और भी महत्वपूर्ण सामग्री निकलती रहती हैं। इसके अन्य स्तम्भ भी अद्वितीय और सम्पादकीय विवेक के परिचायक हैं। पूरा अंक श्रृंखलाबद्ध और विचारपूर्ण सामग्री से भरपूर रहता है। जैसे इसमें प्रकाशित होने वाले उपन्यास अंश, कहानियाँ या कभी-कभी ठेठ लोकभाषा की कहानी, इसके विश्लेषणात्मक प्रबन्ध्ा, संस्मरण, कभी-कभी पत्र सम्भार, चित्रकला और चित्रकारों का इतिहास, संगीत, भाषा, संस्कृति, वेद और वेदों के विशेषज्ञों पर परिवेशित सामग्री इसकी अद्वितीयता को रेखांकित करती है। उदाहरण के लिए इसमें उपन्यासों के दो तरह के अंश प्रकाशित होते हैं। एक मौलिक और दूसरे किसी भारतीय भाषा से अनूदित। अब अंक-10 से लेकर अंक 20 तक प्रकाशित इन उपन्यांशों पर एक सरसरी निगाह डाली जाए।
अंक-10 में उपन्यासों के दो अंश निकले। एक तो भालचन्द्र नेमाड़े का चर्चित उपन्यास ‘हिन्दू’ का एक अंश और दूसरा अमित दत्ता का क्रमशः। नेमाड़े के उपन्यास अंश का शीर्षक है जीने की समृद्ध कबाड़ और अमित दत्ता के उपन्यास का कोई उपशीर्षक नहीं है। नेमाड़े के उपन्यास का अनुवाद गोरख थोरात ने सीध्ो मराठी से किया है, अमित दत्ता का मौलिक हिन्दी में लिखा उपन्यास है। अंक-11 में एक उपन्यास का अंश है और एक कहानी दी गयी है। उपन्यास का अंश आनन्द हर्षुल का लिखा हुआ है, जिसका शीर्षक है स्त्री का सौन्दर्य और कहानी बांग्ला की ख्यात लेखिका तिलोत्तमा मजूमदार की है, जिसका शीर्षक है अवगाहन, अनुवादक हैं रामशंकर द्विवेदी। अंक-12 में अलका सरावगी के उपन्यास का अंश है जिसका शीर्षक है क्या आप मुझे एक मुर्दा दिलवा सकते हैं। अंक-13 में उपन्यास का कोई अंश नहीं है सिर्फ़ एक कहानी है नय्यर मसूद की जिसका शीर्षक है ‘शीश घाट’ अनुवादक हैं रिज़वानुल हक़। सम्पादकीय टिप्पणी के अनुसार नय्यर मसूद उर्दू और फ़ारसी के बड़े विद्वान हें और उन्होंने दोनों सहित्यों में पी-एच.डी. की है। वे उर्दू के सबसे प्रतिष्ठित कहानीकारों में एक हैं। अंक-14 में दो कहानियाँ हैं एक रिज़वानुल हक़ की ‘कुछ सामान’ और ‘जन्म पत्री’ शर्मिला बोहरा जालान की। इसमें उपन्यास का कोई अंश नहीं है। अंक-15 में दो उपन्यास अंश हैं एक शम्सुर्रहमान फ़ारुकी का क़ब्ज़े ज़माँ और वागीश शुक्ल का विशेष। इसमें उपन्यासों के दो अंश और दिये गये हें, एक ‘चीनी कोठी’ सिद्दीक़ आलम का और एक मदन सोनी के उपन्यास का अंश, जिसका शीर्षक नहीं दिया गया है, इसके अतिरिक्त छह लेखकों के उपन्यासों के अंश और देकर सम्पादक ने इस अंक को एक तरह से उपन्यासों पर ही केन्द्रित कर दिया है। एक अंश बोली के उपन्यास का भी है ‘कचनार’ जिसे संगीता गुन्देचा ने लिखा है। बाकी छह का विवरण इस प्रकार है। आखिरी सवारियाँ- सैयद मुहम्मद अशरफ़, ‘वह और वह’- राकेश श्रीमाल, ‘नेमत ख़ाना’- ख़ालिद जावेद, रानीखेत एक्सप्रेस- गीत चतुर्वेदी, प्रूफ़रीडर के नाम ख़त, आशुतोष भारद्वाज और तिलोत्तमा मजूमदार के उपन्यास राजपाट का एक अंश। अंक-16 में हेमंत श्ेाष के उपन्यास का अंश ‘पीछे ले जाते पेड़’ दिया गया है, इसके बाद यह अंक एक तरह से संस्मरणों पर केन्द्रित है। अंक-17 में तीन कहानियाँ दी गयी हैं एक आखि़री दावत, ख़ालिद जावेद की, इन्हीं की एक दूसरी कहानी, जि़न्दों के लिए’ एक ताजि़यनामा और बांग्ला के ख्यात कहानीकार जय गोस्वामी की कहानी, संशोध्ान या काटाकूटी। अंक-18 में दो कहानियाँ और दो उपन्यास के अंश दिये गये हैं। दो कहानियाँ, सिद्दीक़ आलम की और चक्रव्यूह प्रेमलता वर्मा की। उपन्यासों के अंश क्रमशः गुरूप्रीत साहिनी (पंजाबी से अनुवाद जसविन्दर कौर बिन्द्रा) तथा ‘क़यास’, उदयन वाजपेयी का। यह अंक एक तरह से निबन्ध्ाों पर केन्द्रित है। अंक-19 में एक कहानी है अलफतिया ध्ा्रुव शुक्ल की और उपन्यास का अंश है देवेश राय का तिस्तापार का वृत्तान्त (अनुवाद रामशंकर द्विवेदी)। अंक-20 में तीन उपन्यासों के अंश दिये गये हें, सात कुबड़ों की सीक्रेट सोसाइटी, अमित दत्ता, नेमत ख़ाना, ख़ालिद जावेद और स्वर्गद्वार, प्रभात त्रिपाठी। इसमें कहानी कोई नहीं है। ‘समास’ का महत्वपूर्ण अंश विचार और विवेचनात्मक निबन्ध्ाों पर केन्द्रित है। समास का उद्देश्य पाठकों में जीवन, साहित्य, संस्कृति, कला से संबद्ध विविध्ा विषयों पर उन्हें वैचारिक खुराक देने के साथ उन्हें विचार-प्रवण बनाना है। वे सभ्यता से जुड़े विषयों पर सोचें और कला और सौन्दर्य के विविध्ा पक्षों पर चिन्तन करें।
समास-10 में निबन्ध्ाों की एक विध्ाा इतिहास की व्याख्याओं के अन्तर्गत दी गयी है। इन्हें व्याख्यात्मक निबन्ध्ा कहते हैं। ये निबन्ध्ा वैयक्तिक, ललित और विचारात्मक निबन्ध्ाों से पृथक् होते हैं। इनमें किसी विषय को ऐतिहासिक दृष्टि से तथ्यों के साथ व्याख्यायित किया जाता है। ये ज्ञानात्मक साहित्य के अन्तर्गत आते हैं। समास-10 में छह व्याख्यात्मक निबन्ध्ा दिये गये हें जिनके शीर्षक हैं ‘देश के अभिमान’ विश्वम्भर पाठक, हिन्द महासागर में समुद्री वाणिज्य, अशीन दास गुप्त (बांग्ला से अनूदित) रूसी संस्कृति का उद्भव और विनाश, कमलेश, वेदपाठियों का सान्निध्य, संगीता गुन्देचा, आध्ाुनिक सभ्यता का अर्थ, राममनोहर लोहिया तथा ध्ाार्मिक आन्दोलनों में एकता का आध्ाार, आचार्य नरेन्द्र देव। पर इसी अंक में दो निबन्ध्ा और हैं एक विचारात्मक और एक ललित। विचारात्मक निबन्ध्ा भारतीय ध्ार्म के लेखक, आचार्य नरेन्द्र देव हैं और ललित के लेखक वागीश शुक्ल हैं। उनके निबन्ध्ा का शीर्षक है, रसोई में नमक। अंक-11 में छह विचारात्मक निबन्ध्ा हैं, ‘एक व्याख्यात्मक निबन्ध्ा है’ और एक कविता की कुछ पंक्तियों की टीका है, जिसे व्याख्यात्मक निबन्ध्ा कहा जा सकता है। विवेचनात्मक निबन्ध्ाों का विषय हिन्दी भाषा है, जिस पर विविध्ा दृष्टियों से विचार किया गया है। ‘ज्ञानदीक्षा’ क्षितिमोहन सेन का निबन्ध्ा है जो उन्होंने एक व्याख्यान के रूप में बम्बई विद्यापीठ के दीक्षान्त समारोह में दिया था और जिसमें उन्होंने हिन्दी की महत्ता पर प्रकाश डाला था। ‘वैदिक समाज, भाषा और बोलियाँ, भगवान सिंह का गम्भीर निबन्ध्ा है जिसमें उन्होंने वैदिक भाषा के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी की बोलियाँ वैदिक शब्दावली से अनुस्यूत है। ‘मेरी भाषा’ निबन्ध्ा में कमलेश जी ने यह प्रतिपादित किया है कि अपने पारिवारिक परिवेश ने किस तरह और कितनी तरह से उनके भाषायी संस्कारों को समृद्ध किया है। हिन्दी का परिसर और क्षितिमोहन सेन (रामशंकर द्विवेदी) निबन्ध्ा में क्षितिमोहन सेन के आसपास बांग्ला भाषा के हिन्दी परिसर की पड़ताल की गयी है और यह बताया गया है कि काशीवासी क्षितिमोहन सेन ने महामहोपाध्याय पण्डित सुध्ााकर द्विवेदी की प्रेरणा से किस तरह हिन्दी सन्तकवियों पर काम किया। क्षितीश बाबू मूलतः हिन्दीभाषी थे, बांग्ला उन्होंने शान्तिनिकेतन जाकर सीखी। घर में बंगाली बोलने के बाद भी उनकी शिक्षा-दीक्षा हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेज़ी के माध्यम से हुई थी। नीलिम कुमार ने ‘मेरे खून में एक और भाषा’ लेख में अपने भाषायी संस्कारों की छानबीन की है। ‘हिन्दी संसार में मेरी यात्रा के कुछ पड़ाव’ में प्रवासिनी महाकुद ने हिन्दी कविता पर विचार किया है। यह लेखक ओडिया से ‘पूर्णचन्द्ररथ’ ने हिन्दी में अनुवाद किया है, इसी तरह नीलिम कुमार का लेख असमिया से किशोर कुमार जैन ने अनूदित किया है जिसमें उनके हिन्दी प्रेम की झलक मिलती है। इसी अंक में कमल किशोर गोयनका का ‘प्रेमचन्द और समाजवाद’ जैसे विषय पर व्याख्यात्मक निबन्ध्ा दिया गया है।
अंक-12 एक तरह से बांग्ला कवि और मनीषी प्रबन्ध्ाकार, समीक्षक शंख घोष पर केन्द्रित है। उनकी बातचीत के साथ उनके दो निबन्ध्ा दिये गये हैं। निबन्ध्ा एवं व्याख्यान में नवज्योति सिंह का विश्लेषणात्मक व्याख्यान कला की अवध्ाारणा है और उदयन वाजपेयी का व्याख्यान ‘कला और राजनीति’ पर है। राध्ाावल्लभ त्रिपाठी का व्याख्यान, छन्दों में दुनिया और दुनिया में छन्द पर आध्ाारित है। पर ये तीनों व्याख्यान लिखित होने से इनमें निबन्ध्ा के तत्व अपने आप संक्रान्त हो गये। चित्तरंजन बंद्योपाध्याय का लेख, देश की पुस्तकें विदेश में (बांग्ला से अनुवाद रामशंकर द्विवेदी) विवरणात्मक हैं कि किस तरह हमारी ज्ञान की पूँजी विदेशों में जाती रही और हम उसे सहेज नहीं सके।
समास का अंक-13 एक तरह से भ्रमण वृत्तान्त पर केन्द्रित है। इस अंक में मौलिक और अनूदित आठ यात्रा-वृत्तान्त दिये गये हैं। एक वृत्तान्त बोली में भी है जो विवेकानन्द झा का है। इसका शीर्षक है अमरनाथ यात्रा। यह शायद मैथिली में है। सभी यात्रा वृत्तान्त बहुत दिलचस्प और यात्रा स्थल की भौगोलिक स्थिति के साथ वहाँ के सामाजिक परिवेश का भी जीवन्त चित्र उपस्थित करते हैं।
समास-14 यह पूरा का पूरा अंक एक तरह से मनीषी, कवि, विचारक कमलेश जी को समर्पित है। छह संस्मरणात्मक और समीक्षात्मक लेखों में उनके जीवन और साहित्य-साध्ाना की पड़ताल की गयी है। इस अंक में निबन्ध्ा तीन है, स्वभाव, सम्बन्ध्ा और सभ्यता, ध्ा्रुव शुक्ल का गम्भीर विवेचनात्मक निबन्ध्ा है और पश्यन्ति की व्युत्पत्तियाँ गौतम चटर्जी का और प्रूस्त की कि़ताब के कुछ पन्ने शिरीष ढोबले का ध्ा्रुव शुक्ल का लेख मनोवैज्ञानिक ध्ारातल पर मनुष्य के स्वभाव, संसार से उसके सम्बन्ध्ा और सभ्यता के सोपानों की खोज करता है। गौतम चटर्जी का लेख नाट्यशास्त्र की दृष्टि से दर्शक मंच पर क्या देखता है और किस माध्यम से देखता है, उसमें अभिनेता की दृष्टि, उसका मनोवियोग, उसकी पश्यन्ती प्रज्ञा, प्रतिमा सब मिलकर जिस दृश्य की रचना करते हैं एक दर्शक उसी प्रतीयमान जगत में डूबकर एकाकार हो जाता है पश्यन्ती वृत्ति की यही व्युत्पत्तियाँ हैं। अंग्रेज़ी से अनूदित ‘प्रूस्त की कि़ताब के कुछ पन्ने’ (अनुवाद शिरीष ढोबले) में प्रूस्त की कला, उसकी लेखन प्रक्रिया का गहन आख्यान पिरोया हुआ है।
अंक-15 में सिर्फ़ एक आलोचनात्मक लेख है और वह भी मदन सोनी का परती परिकथा पर। अंक-16 में सिर्फ़ उदयन वाजपेयी का निबन्ध्ा है, अहिंसा का विचार और महात्मा गांध्ाी। अंक-17 में तीन निबन्ध्ा संकलित हें। एक वागीश शुक्ल का ‘भारतीय उपन्यास की अवध्ाारणा’, दूसरा कैसे प्रकाशित हुए पाथेर पांचाली (सागरमय घोष) और सुध्ााकर यादव का ‘चित्रमय भारत’। यह एक तरह से चित्रकला का इतिहास है, जिसके सोपान चित्रकारों के परिचय, उनकी कला की मूल अवध्ाारणाओं से होते हुए आगे बढ़ते हैं। पाथेर पांचाली कैसे प्रकाशित हुई वैसे तो इसकी भूमि संस्मरण की है, पर इसमें यह विचार निहित है कि क्या उपन्यास के हर अध्याय की लम्बाई-चैड़ाई शब्द संख्या से निधर््ाारित की जा सकती है अथवा यह मुक्त और खुला हुआ एक स्वतन्त्र व्यापार है।
समास का अंक-18। निबन्ध्ाों की विविध्ाता की दृष्टि से यह अंक बेहद आकर्षक और सराहनीय है। ‘समास’ की कई विशेषताएँ हैं उनमें एक विशेषता है हर अंक में पाठक की उत्सुकता को बनाए रखना। यह उदयन वाजपेयी किस सजगता और रचनाओं के चयन के साथ करते हैं, यह एक रहस्य और सम्पादक की डेस्क के पीछे चलने वाली एक प्रक्रिया है। वे लेखकों से संवाद का रचनाएँ लिखवाते हैं या लेखक स्वतः प्रवृत्त होकर भेजते हैं इसकी जानकारी उन्हीं से प्राप्त की जा सकती है। इसी तरह समास में जो दीर्घ परिसर व्यापी बातचीत प्रकाशित की जाती है, यह पहले रिकार्ड की जाती हैं, बाद में कोई तो इसे ध्वनि अंकन से शब्दों में उतारता होगा, वह भी एक नेपथ्यचारी माध्यम हे पर उसका अवदान, ध्ाीरज भी कम सराहनीय नहीं है।
तो हाँ, इस अंक में छह निबन्ध्ा परिवेशित किये गये हैं। छहों की प्रकृति विभिन्न है। ‘फि़क्शन की सच्चाइयाँ’ शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी का शमीम निकहत स्मारक व्याख्यान माला में दिया गया पहला व्याख्यान है। व्याख्यान और निबन्ध्ा में कसावट या प्रबन्ध्ात्व का फ़र्क़ होता है। फि़क्शन किसे कहेंगे इस पर उन्होंने कई दृष्टियों से विचार किया है, जैसे क्या यह झूठ है, क्या यह हक़ीक़त है, क्या यह किसी घटनाचक्र का सिलसिलेवार बयान है, इसे हम क्यों पसन्द करते हैं आदि-आदि। अन्त में उन्होंने फि़क्शन के तीन तत्व बताये हैं जो इसमें ज़रूर होने चाहिए। एक, यह जानते हुए कि यह फर्जी है फिर भी हम उसे हकीकी मानते हैं। दूसरी सचाई फि़क्शन में जो कुछ हो रहा है उसमें निरन्तरता है, तीसरी सच्चाई यह है कि उपन्यासकार उपन्यास में अपनी मजऱ्ी का नहीं, बल्कि उसकी अन्तर्निहित कला के अध्ाीन होता है। पर इस पूरे व्याख्यान में उर्दू लफ़्ज़ों का इस तरह घमासान है कि साध्ाारण पाठक के पल्ले कुछ नहीं पड़ेगा। यह लिप्यान्तरण है अनुवाद नहीं, इसका अनुवाद हिन्दी में होना चाहिए।
‘भक्तिः सिद्धान्त और साहित्य’ वागीश शुक्ल का सुविचारित, तार्किक क्रम से युक्त एक कसा हुआ निबन्ध्ा है। उन्होंने कई उपशीर्षकों में विभाजित कर भक्ति के तत्व पर विचार किया है।
बूझती अँगुलियाँ जे. स्वामीनाथन का मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के रहन-सहन, संस्कृति, सभ्यता, दिनचर्या और वैदिक साहित्य में उल्लिखित वर्ण आदि शब्दों के माध्यम से एक नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन है। यह एक तरह का इतिहास है। अंग्रेज़ी में लिखे उनके लेखक अनुवाद अखिलेश ने किया है। इस अंक का एक और मज़ेदार निबन्ध्ा है ‘गणेश और आध्ाुनिक बौद्धिक’। इसके लेखक क्लाॅद अल्वारेस हैं। मूल अंग्रेज़ी से अनुवाद मदन सोनी ने किया है। यह उनका व्याख्यान है जो उन्होंने प्रभाष जोशी की स्मृति में दिया था। यह भाषण कई दृष्टियों से बहुत महत्वपूर्ण हैं अपनी अस्मिता को पहचानने, विज्ञान, गणित, ज्योतिष, चिकित्सा, शिक्षा, उत्पादन, जल संरक्षण, वनस्पति विज्ञान और गाय-भैंसों के पालने आदि की दृष्टि से भारत के योगदान को सामने रखने और सभी चीज़ों के पीछे पश्चिमी दृष्टि को मानने के कारण जो हानि हो रही है, उस हानि से कैसे बचा जाए इस दृष्टि से इस भाषणकत्र्ता का ध्ान्यवाद करना चाहिए।
सोपान जोशी का आलेख पत्रकारिता, यात्रा वृत्तान्त, पर्यावरण और ‘जल-थल-मल’ परियोजना के अन्तर्गत विभिन्न विद्वानों, विशेषज्ञों, सामान्य ज्ञानियों तथा अपने विषय से सम्बन्ध्ाित अंग्रेज़ी, मराठी और हिन्दी के ग्रन्थों से प्राप्त सामग्री को पुस्तकाकार कैसे लिखा जाए इस पर आध्ाारित है। लेख लम्बा होते हुए भी बहुत ही रोचक और दिलचस्प है। इसमें आत्मकथा, जीवनी और संस्मरणों का भी आत्मीय पुट है। उनका आलेख उनके जीवन की तरह सहज, सरल और ज्ञान बघारने के बोझ से रहित होने के कारण बेहद दिलचस्प है। यह पता चलता है कि जोशी ख्यात पत्रकार और लेखक प्रभाष जोशी के सुपुत्र हें पर उनका जीवन उनकी नकल या काॅपी नहीं है। इसी तरह उन्हें अनुपम मिश्र जैसे पर्यावरणविद का प्रेम, सान्निध्य और जीवन को देखने तथा कार्य करने की सहज दृष्टि मिली जो गांध्ाी के जीवन से प्राप्त की गयी थी।
‘सुनो भाई साध्ाो’ कबीर की उक्ति से प्रारम्भ राजेन्द्र मिश्र का लेख विजयदेव नारायण साही की आलोचना दृष्टि और छायावाद पर आध्ाारित है।
दो महत्वपूर्ण व्याख्यान हैं, निर्मल वर्मा की स्मृति में दिये गये, एक है उदयन वाजपेयी का ‘कहानियों में स्वरलिपियाँ’ तथा दूसरा है ख़ालिद जावेद का, निर्मल वर्मा की कहानियों में दार्शनिक प्रश्न।’ निर्मल वर्मा की कहानियाँ पढ़ते हुए उदयन को जो अनुभव हुआ वह इस प्रकार हैः आप उनकी कहानियाँ जैसे ही पढ़ना शुरू करते हैं आपके भीतर एक तरह का संगीत बजने लगता है जो आपने अब तक नहीं सुना था। आपने शायद ध्यान दिया हो कि उनके लिखने का ढंग भी कुछ ऐसा है जो उनकी इस स्वर-लिपि-रचना में सहायक होता है। (पृष्ठ 358)
और ख़ालिद जावेद का क्या कहना हैः मुझे लगता है कि निर्मल की कहानी वहाँ नहीं है, जहाँ वो हे, वह वहाँ है, जहाँ लिखा हुआ शब्द संकेत कर रहा है। उनका शब्द वहाँ नहीं है जहाँ वह लिखा हुआ है, बल्कि कोई और शब्द है जिसकी ओर वे शब्द संकेत कर रहे हैं। जावेद का यह कहना कितना हक़ीक़त से भरा है कि मैं कहानीकार शायद बन ही नहीं पाता अगर मैंने निर्मल वर्मा को नहीं पढ़ा होता। (पृष्ठ 360)
कवि, चिन्तक कमलेश जी पर ध्ा्रुव शुक्ल, मदन सोनी और नीलिम कुमार के तीन चिन्तन पूर्ण छोटे-छोटे निबन्ध्ा हैं जिनमें कमलेश के अवदान को रेखांकित किया गया है और दिवंगत युवा कवि प्रकाश पर भी एक आलेख है जिसके लेखक आस्तीक वाजपेयी हैं और मदन सोनी के आलोचनात्मक निबन्ध्ाों का संग्रह विक्षेप पर मिथिलेश शरण चैबे की सुचिन्तित समीक्षा है। निबन्ध्ाों की दृष्टि से समास-19 का परिसर बहुत सघन और उन्मेषकारी है। इसमें विविध्ातापूर्ण आठ निबन्ध्ाों ने स्पेस घेर रखा है। जिनके लेखक और निबन्ध्ाों की विषयवस्तु का खुलासा इस प्रकार है ः
कविता का सत्य अशोक वाजपेयी का एक व्याख्यान है जो उन्होंने कवि निरंजन भगत की स्मृति में आयोजित एक समारोह में दिया था। इस व्याख्यान में कविता और सत्य पर खुली दृष्टि से विचार किया गया है। उन्होंने कविता के सच पर बात करते हुए कहा है कि वह समय, समकाल, झूठ, निरपेक्ष सच, अथवा बना-बनाया सच नहीं होता। कविता का सच सतत होने की प्रक्रिया में रहता है। कविता हमेशा सत्ता, अध्ािकार तन्त्र और राजनीतिक सच को प्रश्नांकित करती रहती है। उन्होंने इस ओर भी इशारा किया है कि आजकल भाषा पर अभिघा का अध्ािकार है और वह अपनी अन्तध्र्वनियाँ खोती जा रही है। उसे अपभाषा से पूरा किया जा रहा है। अन्त में उन्होंने कहा है कि कविता का रास्ता सत्ता और अध्ािकार से अलग है। उसे पाने और समझने वाले तीसरे रास्ते पर ही होते हैं। (पृष्ठ 141)
भक्ति पर वागीश शुक्ल को पिछले अंक में भी (अंक 18, भक्ति का सिद्धान्त और साहित्य, पृष्ठ 204) पढ़ चुके हैं। इस आलेख (अनेकध्ाा भक्ति) में उन्होंने भक्ति के अनेक प्रकारों का विवरण दिया है, निष्कर्ष रूप में उन्होंने कहा हैः भक्ति का शास्त्रीय व्यवस्थापन करने में मुख्यतः तीन समानान्तर विचार एकसाथ कार्यरत रहे हैं। पहला है अद्वैत-सम्प्रदाय के उस दृढ़ सिद्धान्त का प्रतिरोध्ा जिसके अन्तर्गत ब्रह्म को निर्गुण मानते हुए एकमात्र ब्रह्मात्मैक्यज्ञान को ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ माना गया है। इसके विपरीत पुराण वर्णित शरणागति का मार्ग ही सर्वसुलभ माना गया है। दूसरा मार्ग ज्ञान-मिश्रा और कर्म-ज्ञान-मिश्रा भक्ति का है। इन दोनों मार्गों की भक्ति का आध्ाार अद्वैत ही है इसलिए तीसरा प्रकार रसात्मकता या रागानुगा भक्ति का है जो सगुण के प्रति पूर्ण समर्पण पर आध्ाारित है।
एक दूसरा दिलचस्प निबन्ध्ा है शशिकान्त अनन्ताचारी का जिसका अंग्रेज़ी से अनुवाद किया है मदन सोनी ने और जिसका शीर्षक है ‘कभी न चुकाये जा सकने वाले ऋण’। दरअसल यह लेख एक तरह का संस्मरण जैसा है जिसमें सत्यजित राय की पाथेर पांचाली और अपराजित फि़ल्मों के चरित्रों, दृश्यबिम्बों और चित्रणों, ब्यौरों की पृष्ठभूमि को याद करते हुए ऋत्विक घटक की फि़ल्म मेघे ढाका तारा की शूटिंग, रचना-प्रक्रिया, उसके दृश्यांकन, ऋत्विक अपनी फि़ल्मों के साथ क्या और कैसे करना चाहते थे इस सबका स्मृत्यंकन किया जाता है। पर इस आलेख में बार-बार दुहराव, श्रृंखला या तारतम्य का टूटना, बार-बार उसी प्रसंग पर आना है जिससे पाठक के मन पर एक खण्डित प्रभाव पड़ता है। दरअसल ऋत्विक की सिने कला या अभिनय-प्रविध्ाि पर अभी तक हिन्दी में कोई पुस्तक नहीं है। इस लेख के लेखक ने अगर सत्यजित की अपू की पांचाली अथवा अपू त्रयी का उल्लेख किया होता तो शायद और बेहतर होता।
‘नृत्यालोचना के सन्दर्भ में प्राश्निक की भूमिका’ निबन्ध्ा के अन्त में चेतना ज्योतिषी ब्योहार ने प्राश्निक की भूमिका के बारे में लिखा है। प्रत्येक प्रस्तुति, जिस पर अपनी सम्मति देनी हो, उसे पूर्णरूप से ध्ौर्यपूर्वक देखने का अभ्यास एक योग्य प्राश्निक का गुण है। विषय का ज्ञाता होते हुए भी बालसुलभ जिज्ञासा से प्रस्तुति के प्रत्येक पक्ष को जानने की चेष्टा, उसके सजग और सहृदय होने के संकेत हैं तभी वह समाज के सांस्कृतिक पुररुत्थान में अपनी महत् भूमिका निभा सकता है (पृष्ठ 182)।
योगेश प्रताप शेखर का रसखान पर सुचिंतित निबन्ध्ा महत्वपूर्ण है। कई इतिहास ग्रन्थों की छानबीन कर उनकी ऐतिहासिकता, उसकी कृष्ण भक्ति की चर्चा की गयी है।
बूझती अँगुलियाँ जगदीश स्वामीनाथन का आदिवासियों पर लिखे निबन्ध्ा का दूसरा भाग है। पहला भाग समास-18 में निकला था। आदिवासी समाजों की समाज-व्यवस्था, रहन-सहन उनकी सृजनात्मक प्रवृत्ति आदि को समझने के लिए स्वामीनाथन का यह अध्ययन अत्यन्त खोजपूर्ण और कई जानकारियों से भरा हुआ है। आज आवश्यकता इस आदिवासी समाज से समाज होने की है, उसे जानने, समझने और अपने में आत्मसात करने की।
‘गाँध्ाी और उनके हत्यारे’ जेम्स डब्लू डगलस (अनुवाद मदन सोनी) का एक लम्बा आलेख है जिसे एक पूरी पुस्तक कहना चाहिए। समास ने जिसे साहसपूर्वक छापा है। असल में इसका विषय स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान फैलती हिंसात्मक गतिविध्ाियों के औचित्य पर प्रश्न करते हुए उसे ग़लत ठहराया गया है और यह बताया गया है कि गाँध्ाी जी ने ऐसी घटनाओं का सदा विरोध्ा किया और अन्त में वे स्वयं ऐसी ही एक घटना के शिकार हो गये। यह बड़े अचरज की बात है कि गाँध्ाी जी अपने हत्यारे से पूर्व परिचित थे और उसे उन्होंने अपने साथ एक सप्ताह रहने के लिए आमन्त्रित किया था। आलेख महत्वपूर्ण और हमारी राजनीति के एक काले पक्ष को उजागर करता है।
विकास कपूर की ‘कैच-22 एक कालजयी रचना’ एक ऐसे उपन्यास की विवरणात्मक समीक्षा है जिसकी अब तक एक करोड़ से अध्ािक प्रतियाँ बिक चुकी हैं। जोसेफ़ हेलर का कैच-22 एक ऐसा उपन्यास है जो द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका के बाद अमेरिका से निकला जिसका केन्द्रबिन्दु युद्ध से उत्पन्न अवसाद, निराशा आदि है। लेखक का कहना है बीसवीं शताब्दी का यह विलक्षण उपन्यास केवल इसलिए याद नहीं रहेगा कि उसमें लेखन का एक अभिनव प्रयोग प्रस्तुत हुआ है, वरन इसलिए भी इसमें आने वाली पीढि़यों के लिए महायुद्ध के कारणों की सच्ची तस्वीर पेश की है (पृष्ठ 337)।
इस अंक में चार समीक्षक लेख हैं जो क्रमशः गिरध्ार राठी, रघुवीर चैध्ारी, मिथिलेशशरण चैबे द्वारा लिखे गये हैं। पुस्तकें हैं सब इतना असमाप्त (कुँवर नारायण), नक्षत्रहीन समय में (अशोक वाजपेयी), प्रवास और प्रवास (कृष्ण बलदेव वैद से उदयन की बातचीत) और उपन्यासकार का सफ़रनामा (शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी से उदयन वाजपेयी की बातचीत)।
समास-20 में छह निबन्ध्ा संकलित हैं। समास की निबन्ध्ा सम्पदा उसके गम्भीर पक्ष को उपन्यस्त करती है। अमृता भारती का सृष्टि निबन्ध्ा में वैदिक परम्परा में सृष्टि कैसे हुई इसका विस्तार से विवेचन किया गया है। अमृता भारती श्री अरविन्द आश्रम में रहती हैं और हिन्दी की अच्छी लेखिका हैं। इनका विवेचन साफ़, पारदर्शी और प्रमाणों से पुष्ट है। ऋचाओं का अनुवाद भी सटीक है। इनके लेखन पर श्री अरविन्द का प्रभाव स्पष्ट है।
‘कला और कबीर’ अवनीन्द्र नाथ टैगोर के ग्रन्थ वागीश्वरी शिल्प प्रबन्ध्ाावली के एक अध्याय का अनुवाद है। अनुवाद महेन्द्र प्रसाद कुशवाहा, शान्तनु बनर्जी का है। लेकिन अनुवादकों का यह कहना तथ्यहीन है कि कबीर ने कला पर लिखा और अवनीन्द्र ने उन्हें कला के सन्दर्भ में उद्घृत किया। दरअसल अवनीन्द्र नाथ की वागीश्वरी शिल्प प्रबन्ध्ाावली सिफऱ् शिल्प पर लिखी रचना है। ऐसा नहीं है शिल्प पर विचार करते हुए उन्होंने काव्य, दर्शन, नाटक पर भी लिखा है। कबीर को उन्होंने दर्शन की दृष्टि से उद्घृत किया है न कि उन्हें चित्रकला के पारखी के रूप में।
‘भक्ति पर भास्कर राय’ वागीश शुक्ल का यह तीसरा लेख है, जिसमें उन्होंने भास्कर राय की दृष्टि से भक्ति का पुनर्विवेचन किया है। दरअसल भक्ति का विवेचन हमारे शास्त्रों में बहुविध्ा उपलब्ध्ा होता है। जैसे वैध्ाीभक्ति, अवैध्ाी भक्ति, रागनुगा भक्ति, परमप्रेेम रूपा भक्ति, मध्ाुरा भक्ति, आदि-आदि। आज का बुद्धिजीवी अत्यन्त तार्किक है। बिना तर्क, प्रमाण के वह कुछ भी स्वीकार नहीं करता है। इसलिए वागीश शुक्ल ने उसी तर्कणा पद्धति का अनुसरण करते हुए अपने इस लेख में भक्ति का विवेचन किया है। उनकी विवेचना-पद्धति अत्यन्त स्पष्ट और बोध्ागम्य है। उन्होंने भक्ति प्रक्रिया में उपासना, पूजन, अर्चन, यज्ञ आदि सोपानों से लेकर ध्यान आदि प्रक्रियाओं तक भक्ति की अवस्थिति मानी है। उन्होंने निष्कर्ष रूप में यह प्रतिपादित किया है कि ‘कुल मिलाकर यह निष्कर्ष निकलता है कि जो आसक्ति लौकिक प्रियपात्र के प्रति होने पर निन्दनीय मानी जाती है वही ईश्वर के प्रति होने पर वन्दनीय हो जाती है। उन्होंने आगे बहुत साफ़ भाषा में कहा है, इसका आशय यह है कि लौकिक प्रेम में अन्तःकरण की प्रवृत्तियों का विषय कोई मनुष्य होता है जबकि इसके विपरीत ‘भक्ति’ में अन्तःकरण की प्रवृत्तियों का विषय ईश्वर है और इस प्रकार भक्ति अ-लौकिक प्रेम है। आगे इस कड़ी को किस तरह बढ़ायेंगे इसका खुलासा करते हुए उन्होंने कहा हैः हमें इस फलक की पड़ताल करनी होगी जिसे अपनी कठोर वैचारिकता की कसावट को बिना शिथिल किये ही अद्वैत के आचार्यों ने इतना लचीला बनाया है कि उसमें याज्ञिक उपासना से लेकर भावाविष्ट देवरति तक का समाहार हो सका। उन्होंने लिखा हैः इस कड़ी में आगे आने वाले लेखों में हम इस पर एकाग्र रहेंगे। (पृष्ठ 306)
‘हिन्दी भक्ति साहित्यः बांग्ला दृष्टि’ महेन्द्र प्रसाद कुशवाहा और शान्तनु बनर्जी का आलेख है। इसमें उन्होंने कई प्रश्न उठाकर यह कहा है कि हिन्दी भक्ति साहित्य पर बांग्ला में जो काम हुआ है उसकी जानकारी हिन्दी के साहित्यकारों और पाठकों को नहीं है। उन्होंने रवीन्द्रनाथ, क्षितिमोहन सेन के अलावा हरप्रसाद शास्त्री, बंकिमचन्द्र, सतीशचन्द्र दास गुप्ता, क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम, समकालीन पत्रकार शंकरनाथ राय और इसमें बांग्ला साहित्य के इतिहास लेखक सुकुमार सेन भी शामिल किया है। इस सन्दर्भ में मेरा कहना यह है कि शायद यह थीसिस (प्रतिपाद्य विषय) उनकी किसी भावी परियोजना का अंग है जिसमें पूर्व पक्ष में यह सिद्ध करना पड़ता है कि अभी इस विषय पर काम नहीं हुआ है, और यह विषय नवीन और मौलिक है। मुझे अगर इसे विषय पर काम करने दिया जाए तो इस विषय के द्वारा साहित्य में ज्ञान की नयी दिशाएँ खुलेंगी इस पर अध्ािक न लिखकर सिर्फ़ यह कहना पर्याप्त होगा कि बंगाल में हिन्दी के भक्ति साहित्य पर हिन्दी में या बांग्ला में जो काम हुआ है। उसकी सम्यक जानकारी न कुशवाहा को है न बनर्जी को। मैं सिर्फ़ एक ग्रन्थ के उल्लेख किये दे रहा हूँ ‘मध्ययुगीन हिन्दी सन्त साहित्य और रवीन्द्रनाथ’ इसके लेखक हैं विश्वभारती के पूर्व अध्यक्ष डाॅ. रामेश्वर मिश्र और इसे विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी ने छापा है। इसे पढ़ लीजिए। दूसरे हजारीप्रसाद द्विवेदी का मृत्यंजय रवीन्द्रनाथ तथा उनका कबीर पढ़ लीजिए। इसके साथ क्षितिमोहन सेन का कबीर भी पढ़ सकते हैं, जहाँ तक अवनीन्द्रनाथ के ‘वागीश्वरी शिल्प प्रबन्ध्ाावली’ का प्रश्न है उसका उत्स कबीर नहीं है न उनका ग्रन्थ भारतीय शिल्प के षडंग हैं, जिसका अनुवाद वर्षों पहले महादेव साहा ने सम्मेलन पत्रिका के कला अंक के लिए किया था। उसकी भी प्रेरणा का स्रोत कबीर नहीं हैं ‘वादे वादे जायते तत्वबोध्ा’ इस दृष्टि से यह टिप्पणी की। क्योंकि समास जैसी पत्रिका में कोई ऐसी बात नहीं जानी चाहिए जो अध्ाूरे ज्ञान पर आध्ाारित हो।
इसी अंक में दो विचारपूर्ण निबन्ध्ा और हैं जो कहानी और जीवन पर आध्ाारित हैं। एक के लेखक हैं ‘जयशंकर’ और दूसरे के ‘उदयन वाजपेयी’। जयशंकर का प्रतिपाद्य यह हैः हमारा जीवन को देखने का ढंग ही हमारे कहानी लिखने के ढंग को प्रभावित करता जान पड़ता है। यहाँ मैं कहना चाहूँगा कि कथाकार जितने अलग-अलग ढंग से जीवन को देख पायेगा, उतनी अलग-अलग कहानियाँ लिख सकेगा। (पृष्ठ 313) उन्होंने इसी दृष्टि से हिन्दी के कहानीकारों की समीक्षा करने की कोशिश की है। फिर कहानी हमारे साथ क्या करती है इसे रेखान्कित करते हुए जयशंकर का कहना हैः कहानी हमें कुछ और मनुष्य बनाती है और उसका लेखक, लेखक से कुछ और ज्यादा मनुष्य बन जाता है। लेकिन उन्होंने कहानी की आलोचना पर असंतोष व्यक्त करते हुए कहा हैः कहानी और जीवन के प्रगाढ़ रिश्तों, उनके रिश्तों की सच्चाइयों और स्वप्नों को लेखकों और पाठकों को समझाने में हिन्दी कहानी की आलोचना, एक बड़ी और निर्णायक भूमिका निभा सकती थी। लेकिन दुर्भाग्यवश हिन्दी में कहानी की आलोचना उतनी जिम्मेवार, उतरी प्रौढ़ नहीं हो पायी हैं, जितना उसे हो सकना था। (पृष्ठ 315)
जयशंकर के इस कथन पर प्रो. ध्ानंजय वर्मा और मध्ाुरेश को विचार करना चाहिए।
उदयन वाजपेयी का आलेख एक तीव्र ध्ाार वाला झरना है जो कहानी के बहाने सिनेमा, नृत्य, चित्रकला और संगीत पर बहता हुआ विश्व और भारत के उपन्यासों और कहानियों पर कुछ कहता जा रहा है। उनका आलेख कहानी की भाषा और कहानीकारों पर एक टिप्पणी है। सिनेमा के आविर्भाव के पहले विश्व के कहानी, उपन्यास कैसे थे बाद में किस तरह के हुए उन्होंने इसको भी पड़ताल की है। निर्मल वर्मा की कहानियों की सांगीतिक अनुगूँजों पर भी उन्होंने ध्यान दिया है।
श्रीकान्त वर्मा की कविता पर तीन लोगों के विमर्शात्मक आलेख भी इस अंक की एक उपलब्ध्ाि है। वे लेखक हैं मदन सोनी (बुख़ार में कविता), ध्ा्रुव शुक्ल (तीसरा रास्ता), उदयन वाजपेयी (बेघर कवि की कविताएँ)। अन्त में दो समीक्षाएँ, विनोबा के उद्धरण (ध्ा्रुव शुक्ल), मिथिलेश शरण चैबे, परस्पर भाषा, साहित्य, आन्दोलन।
समास का बहुत बड़ा भाग उसकी कविताओं और संस्मरणों का परिसर है। कविताओं में हिन्दी, बांग्ला, चीनी, रूसी, मराठी, संस्कृत, ओडि़या, सिन्ध्ाी, असमिया, उर्दू, मणिपुरी, इतालवी@अंगे्रज़ी से अनुवाद। इन कविताओं का विवेचन एक अलग आलेख की माँग करता है जो इस आलेख की सीमा को देखते हुए सम्भव नहीं लगता। एक-एक कवि और एक-एक भाषा की कविताओं की भूमि, उनका शिल्प समास का एक अद्वितीय अवदान है। हर अंक में कविताएँ प्राथमिकता के साथ अपना परिसर बनाती हैं, यह उल्लेखनीय है।
कविताओं की तरह संस्मरणों के लिए भी समास ने खुली ज़मीन दी है, उनका विवेचन भी एक अलग ही आलेख को आवश्यक मानता है इसलिए संकेत ही काफ़ी है।
किसी भी पत्रिका का मूल्य इस बात पर निर्भर करता है कि वह पत्रिका पाठकों में क्या भाव जगाती है। समास अन्य पत्रिकाओं की तुलना में साहित्यिक पत्रकारिता की दृष्टि से थोड़ा हटकर है। इसी बात पर इसकी अद्वितीयता आध्ाारित है। समास एक ऐसी पत्रिका है जो पाठकों में ज्ञान के प्रति, कुछ और जानने के प्रति उत्सुकता जगाती हैं पाठकों के ज्ञान में कुछ जोड़ने के अलावा अन्य मानविकी, विज्ञान, विद्या, वांग्मय, भाषा के बारे में पाठकों को जिज्ञासु बनाना इसका एक और उल्लेखनीय पक्ष है। इसके साथ-साथ इसके वार्तालापों या विवेचनात्मक निबन्ध्ाों, व्याख्यानों में जिन ग्रन्थों का उल्लेख होता है उन्हें खोजकर पढ़ने की इच्छा जगाना भी इसका एक सकारात्मक पक्ष है। यह किसी विचारध्ाारा की पत्रिका नहीं है, वरन ज्ञान की विमर्शात्मक दिशाओं को उन्मुक्त करने वाली पत्रिका है। जिन विषयों का इसमें प्रतिपादन किया गया है, उन्हीं विषयों के और-और पक्षों को जानने की इच्छा जगाना भी इसकी एक और दिशा है। इसमें जो संस्मरण दिये गये हैं, या उदयन वाजपेयी की जिन लेखकों, विचारकों से बातचीत हुई है उन्होंने अपनी बातचीत में जिन मनीषियों, लेखकों का उल्लेख किया है उनके बारे में, उनके जीवन के बारे में जानना भी एक महत्वपूर्ण पक्ष है। समास को पढ़कर पाठक वही नहीं रह जाता, जो पढ़ने के पहले था। वह और उसका मन, उसकी ग्रहणशीलता बहुत कुछ बढ़ जाती है, वह बहुत कुछ बदल जाता है।

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