06-Apr-2017 08:18 PM
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स्वतन्त्रता के पहले भारत के अनेक बौद्धिकों और सामान्य जन को इस बात का गहरा एहसास था कि वे भारत में अँग्रेज़ी राज को हटाने के लिए ही नहीं, भारतीय सभ्यता को दोबारा शक्ति और ऊर्जा सम्पन्न करने संघर्षरत हैं। उस समय के इस बोध को महात्मा गाँधी और उन्हीं की तरह के अन्य चिन्तकों ने परिभाषित करने में केन्द्रीय भूमिका निभायी थी। हिन्द-स्वराज इसकी पहचान का दस्तावेज़ है। गाँधी जी के चरखे का महत्त्व यह भी था कि वह भारतीय सभ्यता को पुनः ऊर्जस्वित करने का प्रतीक था। इस अर्थ में उन वर्षों में हम भारतीयों को एक हद तक यह एहसास था कि हम किस तरह की सभ्यता हैं और हम कहाँ तक पश्चिमी सभ्यता से अलग हैं। इस एहसास का यह परिणाम था कि हम पश्चिम के दार्शनिकों और चिन्तकों से अपनी तरह से संवाद कर सकते थे। इन सबके कई उदाहरण दिये जा सकते हैं पर यहाँ उसका अवकाश नहीं है। स्वतन्त्रता से लेकर आज तक हमारे भीतर अब यह बोध क्षीण होता चला जा रहा है कि हम एक भिन्न हालाँकि अन्य सभ्यताओं से संवादरत सभ्यता के नागरिक हैं। भारत के विलक्षण दार्शनिक रामचन्द्र गाँधी ने अपनी एक किताब में लगभग दो दशक पहले यह चिन्ता व्यक्त की थी कि हम भारतीयों में यह एक आत्यन्तिक कमी है कि हम अपने कार्यकलापों और चिन्तन में ख़ुद को भारतीय सभ्यता नामक एक विराट सहकार का सदस्य उस हद तक मानने के आदी नहीं है जिस हद तक अन्य सभ्यताओं के सदस्य ऐसा करते हैं। हम या तो अपने को बौद्ध या जैन या शैव या शिया या सुन्नी या ऐसे ही किसी समुदाय का सदस्य अवश्य मानते हैं पर ऐसा करते हुए हम अधिकांशतः यह विस्मृत कर देते हैं कि ये सारे समुदाय एक विराट सहकार, जिसे भारतीय सभ्यता नाम से अभिहित किया जा सकता है, के सदस्य हैं। कुछ वर्ष पहले ही कुँवर सुरेश सिंह के सम्पादन में पीपुल आॅफ़ इण्डिया परियोजना के तहत भारत के सभी सम्प्रदायों की गणना की गयी थी और उसमें यह पाया गया था कि इस देश में साढ़े तीन हज़ार से अधिक सम्प्रदाय रहा करते हैं। यदि इस परियोजना के इन परिणामों को हम ध्यान में रखें, हम यह कह सकते हैं कि हमारी यह सभ्यता साढ़े तीन हज़ार ढंगों से अपने को प्रकट और चरितार्थ करती है। पर जिस कमी की ओर रामचन्द्र गाँधी ने इशारा किया था, वह स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद बढ़ती चली गयी। एक ओर ऐसे बौद्धिक आये जिन्होंने भारत की सभ्यता की विलक्षणता को या तो लांछित किया या उसे पूरी तरह नज़र अन्दाज़ कर दिया। दूसरी ओर ऐसा सोचने वालों की भी कमी नहीं रही जो यह मानते हैं कि भारतीय सभ्यता किसी एक चीज़ का नाम है, जो आसानी से परिभाषेय है। ये दोनों ही दृष्टियाँ इस हद तक अधूरी हैं कि इन्हें बिना किसी संकोच के ग़लत कहा जा सकता है। यह सच है कि भारतीय सभ्यता अनेक अर्थों में अन्य सभ्यताओं से मिलती-जुलती है। ऐसा होना सहज भी है क्योंकि सभी सभ्यताओं के मूल में मानव प्रकृति हुआ करती है। पर सभ्यताएँ केवल मानव प्रकृति का प्रकटन नहीं होती, वे मानव प्रकृति के प्रकृति मात्र से संवाद में जन्म लेती हैं। सभ्यताओं के मूल में मनुष्य और उसके चारों ओर फैली विविध वनस्पतियों और पशु-पक्षियों की सम्पदा के बीच बहुआयामी संवाद हुआ करते हैं। प्रकृति का स्वरूप हर जगह एक-सा नहीं होता। वह जलवायु के अनुसार अपना अलग स्वरूप धारण कर लेती है। इसलिए मनुष्य और प्रकृति का संवाद हर जगह एक-सा नहीं होता। इस संवाद के परिणामस्वरूप स्वयं मानव प्रकृति, विशेषकर मनुष्य की सामूहिक चेतना भी खुद रूपान्तरित हो जाती है। सभ्यताओं में भिन्नता यहीं से आती है। पर चूँकि मानवीय प्रकृति में, वह कहीं की भी हो, निरन्तरता होती है और इसी तरह पृथ्वी के अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग होते हुए भी प्रकृति में भी निरन्तरता होती है इसीलिए ऐसी कोई सभ्यता नहीं हो सकती जो अपने में बन्द हो। वह अन्य सभ्यताओं से अलग तो हो सकती है पर यह उसके हाथ में नहीं कि वह अन्य सभ्यताओं से संवादरत न हो। सभ्यताओं के बीच के संवाद सिफऱ् मनुष्य द्वारा नियन्त्रित नहीं होते। उनमें मनुष्य से परे की शक्तियाँ भी क्रियाशील रहती हैं। शायद यही कारण है कि पृथ्वी पर अनेक सभ्यताएँ होते हुए भी, वे एक-दूसरे से संवादरत रही आती हैं। यह सच है कि इस संवाद का केन्द्र विभिन्न विश्व व्यवस्थाओं में बदलता रहता है, पर ऐसा कभी नहीं हो सकता कि सभ्यताओं का यह परस्पर संवाद बन्द हो जाये। आज संवाद का केन्द्र पश्चिमी सभ्यता हो गयी है। यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है, इसे केन्द्र बने ज़्यादा-से-ज़्यादा चार सौ बरस बीते हैं और यह भी सही है कि जो विधायक शक्ति, जैसा दार्शनिक नवज्योति सिंह मानते हैं, पश्चिमी सभ्यता में आज है, वह और कहीं नहीं, पर यह भी सच है कि इससे भारतीय सभ्यता की अपनी विलक्षणता नष्ट नहीं हो जाती। भारत को अपनी विधायक शक्ति पाने के लिए अन्य सभ्यताओं से निरन्तर संवाद करते रहना होगा, पर यह संवाद तब नहीं हो सकेगा जब हम या तो अपनी सभ्यता की विलक्षणता को जड़ मानकर बरतने लगें या उस विलक्षणता को स्वीकारे ही नहीं। जब किसी सभ्यता को उसकी भीतरी विविधता और ग्राह्यता से अलगाकर परिभाषित करने की चेष्टा होती है, उसका पतन शुरू हो जाता है और तब राजनैतिक शक्तियों को यह सुविधा हो जाती है कि इस पतनशील सभ्यता को किसी तरह के राष्ट्रवाद में संकुचित कर वहाँ के नागरिकों की बौद्धिक संवादधर्मिता को नष्ट कर दें। यह भारत जैसी सभ्यता के लिए और भी अधिक अमंगलकारी स्थिति है क्योंकि वैसे तो सभी सभ्यताएँ संवादशील हुआ करती हैं और किसी हद तक समावेशी भी होती ही हैं पर भारतीय सभ्यता की संवादधर्मिता और इसीलिए उसकी पारम्परिक समावेशिता बेहद ऊँचे स्तर की रही है। पर अब यह समावेशिता और संवादधर्मिता प्रश्नांकित हो रही है। उसकी पुनर्प्रतिष्ठा करना भी आज के महत्वपूर्ण बौद्धिक उद्यमों में है।
उदयन वाजपेयी
दिनांकः 22 जनवरी, 2017