12-Dec-2017 05:56 PM
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हिन्दी के हाल के जिन चार मूर्धन्य कवि-लेखकों का पिछले दशक में बल्कि उससे भी अधिक में अपेक्षया कम स्मरण होता है, संयोग से उन्होंने जितना योगदान हिन्दी कविता और कथा साहित्य में किया है, वह अन्यों की तुलना में अगर बहुत नहीं, कुछ अधिक और विलक्षण ही है। इन कवि-लेखकों में दो अनूठे कवि हैं और दो उतने ही अनूठे कहानीकार और उपन्यासकार। इनके अलावा भी ऐसे पहले के कई लेखक हैं जिनका योगदान तथाकथित चर्चित कवि-लेखकों से कहीं अधिक है पर जो अब शायद ही कभी याद किये जाते हैं। हमने जिन लेखकों को भूलाकर समकालीन हिन्दी साहित्य की इमारत तामीर की है, वे उसकी समृद्धि का कारण हो सकते थे। शायद यही कारण है कि इन लेखकों की विस्मृति ही हमारे हिन्दी साहित्य की अपेक्षाकृत विपन्नता का एक कारण है। हमने जिन चार कवि-लेखकों का ज़िक्र पहली पंक्ति में किया है वे हैं, श्रीकान्त वर्मा और कमलेश, निर्मल वर्मा और कृष्ण बलदेव वैद। पहले दो हिन्दी के मूर्धन्य कवियों में हैं, बाद के दो हिन्दी के श्रेष्ठ गल्पकार। इन चारों को विस्मृति के कुहासे में झोंकने के कुछ अलग-अलग कारण भी हैं पर कम-से-कम एक कारण चारों को भुलाने का या भुलाने की कोशिश करने का यह है कि इन चारों कवि-लेखकों की साहित्येतर राजनीति हिन्दी साहित्य में बहुमान्य राजनीति से मेल नहीं खाती थी। (वैद साहब की स्थिति इससे अलग है। उन्हें उनके लेखन की अद्वितीयता और प्रयोगधर्मिता के लिए तिरस्कृत किया गया।) इसका अर्थ यह है कि इन कवि-लेखकों के तिरस्कार का जो सांस्थानिक उपक्रम हिन्दी साहित्य में किया गया, उसका कारण इन चारों के साहित्य में न होकर किन्हीं साहित्येतर कारण में है। हिन्दी के इन कवि लेखकों में से कम-से-कम निर्मल वर्मा के साहित्य को पूरी तरह विस्मृत करने का उपक्रम जो उनके जीवनकाल में ही बहुत ज़ोर-शोर से शुरू हो गया था, उनकी मृत्यु के बाद उसका असर धीरे-धीरे कम होना शुरू हो गया। आज निर्मल जी के साहित्य पर आलोचनात्मक निबन्ध भले ही उनके साहित्य की गहनता के अनुरूप न लिखे जा रहे हों पर उनके पाठकों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। यह एक अजीब विडम्बनात्मक स्थिति है जहाँ एक लेखक का साहित्य किसी आलोनात्मक उपक्रम की अनुपस्थिति बल्कि निन्दात्मक और उथले आलोचनात्मक उपक्रम की उपस्थिति में भी अपने आप ही अपना पाठक वर्ग विस्तृत करता जा रहा है। श्रीकान्त वर्मा, कमलेश और कृष्ण बलदेव वैद के साहित्य के साथ ऐसा उस हद तक नहीं हो रहा। अगर इन चारों लेखकों के दो-तीन दशक पहले जाएँ, हम देख पायेंगे कि तब के महान हिन्दी लेखक और चिन्तक वासुदेव शरण अग्रवाल और मोतीलाल शास्त्री के साथ भी हिन्दी के साहित्य समाज ने लगभग यही सलूक किया है। कितने आश्चर्य की बात है कि आज के अधिसंख्य हिन्दी लेखकों को सम्भवतः इन दोनों ही लेखकों के नाम तक पता नहीं होंगे, उनके साहित्य की बात तो दूर है। यह गहरी चिन्ता का विषय है कि हमारे साहित्य में लेखकों की स्वीकृति और अस्वीकृति, उनके स्मरण और बलात् विस्मरण के आधार साहित्यिक या सौन्दर्यात्मक नहीं हैं। वे पूरी तरह राजनैतिक हैं और उनकी राजनीति को भी उनके साहित्य में खोजने के स्थान पर, उनके वक्तव्यों या उनकी सामाजिक स्थितियों में रेखांकित करने की कोशिश की जाती है। हम यह सहज ही भूल गये हैं कि किसी भी लेखक की राजनीति उसके लेखन के सौन्दर्य का ही एक आयाम हुआ करती है और यह आयाम जिसे राजनैतिक या नैतिक आयाम कहा जा सकता है, का कोई सम्बन्ध उसके वक्तव्यों आदि से नहीं हुआ करता है। उदाहरण के लिए, यह सच है कि अँग्रेज़ी भाषा के महान कवि एज़रा पाउण्ड ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इटली के राष्ट्रीय रेडियो स्टेशन से कुछ ऐसे वक्तव्य दिये थे जिनसे उनका यहूदियों के विरुद्ध होना इंगित होता था पर उतना ही सही यह भी है कि उनका यह यहूदी विरोध उनके लेखन में आज तक रेखांकित नहीं किया जा सका। उनकी कविताओं की नैतिक दृष्टि किसी भी तरह मुसोलिनी की राजनीति से मेल नहीं खाती। इस कारण भी अँग्रेज़ी साहित्य में उनका मान धीरे-धीरे बढ़ता ही रहा है।
यहाँ प्रश्न यह है कि हमारे साहित्य में आखिरकार लेखक की राजनीति ही उसके साहित्य के मूल्यांकन का आधार कैसे बन गयी ? यह कैसे हो सका कि मुक्तिबोध जैसे संवेदनशील लेखक भी ऐसा गैर-जिम्मेदार वक्तव्य दे सके कि ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ हर साहित्यिक संस्कृति में साहित्यिक कृतियों के मूल्यांकन के कुछ वस्तुनिष्ठ मूल्य हुआ करते हैं। इन्हीं मूल्यों के आधार पर किन्हीं साहित्यिक कृतियों को श्रेष्ठ और किन्हीं अन्य को अपेक्षाकृत साधारण माना जाने लगता है। ये वस्तुनिष्ठ मूल्य जिन्हें सौन्दर्यशास्त्रीय मूल्य भी कहा जा सकता है, सभी को पता होते हैं इसलिए जब भी किसी साहित्यिक कृति को श्रेष्ठ या साधारण कहा जाता है तो साधारण पाठकों को भी यह पता चल जाता है कि ऐसा क्यों किया जा रहा है। ऐसी आत्मसजग साहित्यिक संस्कृति में आलोचकों का धर्म इन वस्तुनिष्ठ सौन्दर्यशास्त्रीय मूल्यों के आधार पर साहित्यिक कृतियों को पूरी संवेदनशीलता और कल्पनाशीलता के सहारे पढ़ना होता है। वे यह देखने का प्रयत्न करते हैं कि उदाहरण के लिए किसी कृति में ‘ध्वनि’ या ‘रस’ या ‘वक्रोक्ति’ आदि किस-किस तरह से चरितार्थ हो रही है। या उसमें किस तरह के छन्द का विधान हुआ है (यहाँ यह स्पष्ट कर देना शायद समीचीन हो कि हिन्दी में दुर्भाग्य से ‘छन्द’ शब्द को अँग्रेज़ी के ‘मीटर’ के अर्थ में लिया जाता है। यह आधी-अधूरी समझ है। छन्द शब्द का अर्थ ‘मीटर’ से कहीं अधिक व्यापक होता है। ‘मीटर’ या ‘तुकबन्दी’ आदि छन्द के बहुत थोड़े-से उदाहरण भर है पर छन्द की व्याप्ति इनसे कहीं अधिक है। भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में यह लिखा है कि ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसमें छन्द न हो और ऐसा कोई छन्द नहीं जिसमें शब्द न हो। इस आलोक में देखने पर हमें गद्य तक में छन्द अनुभव हो सकता है)। चूँकि हमारी अधिकांश आलोचना यह सब करने में समर्थ नहीं है इसलिए उसने वस्तुनिष्ठ मूल्य के रूप में लेखक की साहित्येतर राजनीति को उसके साहित्य पर लागू करके उसके साहित्य का मूल्यांकन करने का नितान्त अनुचित रास्ता ले लिया है। लेखक की साहित्येतर राजनीति को सृजनात्मक लेखन को परखने का प्रधान मूल्य बनाना हिन्दी आलोचना के आलस्य और किसी हद तक परम्परा-विमुखता का ही द्योतक है। शायद यही कारण है कि हिन्दी अपने जिन कवियों और लेखकों को पहली पंक्ति में रखकर आत्म गौरव से भर सकती थी, उन्हीं की उसने निरन्तर अवहेलना कर स्वयं को निरन्तर विपन्न किया है। हिन्दी साहित्य को अपने सच्चे गौरव को प्राप्त करने के लिए अपने मूल्य विधान का पुनरीक्षण करना होगा। प्रश्न यह है कि क्या उसके युवा और युवतर कवि-लेखक सस्ती ‘फेसबुकीय’ लोकप्रियता के फेर से बाहर निकलकर अपनी भाषा में गहन साहित्यिक मूल्यों को पुनर्प्रतिष्ठित करने का अपेक्षाकृत कठिन मार्ग चुनेंगे।