20-Jun-2021 12:00 AM
1706
के.बी. जिनन बच्चों की शिक्षा और संज्ञान (काॅग्निशन) के मार्गों पर विचार करने वाले भारत के अद्वितीय चिन्तक और एक्टिविस्ट हैं। जिनन साहब केरल के त्रिशूर और उसके निकट के एक गाँव में रहते हैं। उन्होंने अपनी शुरुआती शिक्षा एक सैनिक स्कूल में प्राप्त की थी, उसके बाद वे भोपाल के एक राष्ट्रीय तकनीकी संस्थान में पढ़ने आ गये थे। इस दौरान उन्हें यह अनुभव होना शुरू हो गया था कि हमारे देश के बड़े संस्थानों में लगभग किसी को सीखने में कोई रुचि नहीं है, विद्यार्थियों का सारा ध्यान डिग्री लेने तक सीमित है। इसके बाद श्री जिनन अहमदाबाद के प्रसिद्ध राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान में आगे की शिक्षा के लिए चले गये। यहाँ रहते हुए उन्होंने उन रास्तों का आभास होना शुरू हो गया था जिनपर वे आगे जाकर चलने वाले थे। पिछले अनेक वर्षों से श्री जिनन बच्चों की शिक्षा और मनुष्य मात्र के संज्ञान के स्रोतों और मार्गों को समझने के लिए विभिन्न कोणों से बड़े होते बच्चों को ध्यान से देखते, सुनते और समझने के प्रयास में लगे रहे हैं। जिनन साहब को मैंने सबसे पहले उनके एक ‘वेबिनार’ में बोलते हुए सुना था। उन्हें सुनकर बच्चों की शिक्षा और पालन-पोषण के विषय में मुझे अपने तमाम विचार टूटते हुए जान पड़े। मुझे यह महसूस हुआ कि मैं एक ऐसे व्यक्ति को सुन रहा हूँ जिसने बच्चों के मन और मानस को बहुत भीतर तक देखा और अनुभव किया है। मैंने उनकी खोज की और अपने उन मित्रों की सहायता से मुझे उनसे सम्पर्क करने में ज़्यादा समय नहीं लगा जो बच्चों की शिक्षा पर काम करते हैं। के.बी. जिनन से मेरी यह बातचीत तीन दिनों तक ‘आॅनलाइन’ हुई थी। जिनन साहब उन बिरले लोगों में हैं जो मानवीय अस्तित्व को आत्यन्तिक स्तर पर प्रभावित करने की योग्यता रखते हैं। उनकी संज्ञान सम्बन्ध्ाी खोजें मनुष्यों के प्रति उनकी गहरी करुणा और लगाव से उत्पन्न हुई हैं।
उदयन- आपके बच्चों पर निरन्तर शोध्ा का सम्बन्ध्ा निश्चय ही आपके अपने बचपन के अनुभव से होगा, किसी हद तक। आप अपने बचपन के बारे में कुछ कहिए।
जिनन- मेरा जन्म केरल में स्कूल के शिक्षकों के घर हुआ। मुझे अपने बचपन की स्मृति बहुत अच्छी नहीं है। मेरे पिता सख़्त थे। चूँकि मेरे माता और पिता दोनों शिक्षक थे, विशेषकर पिता के प्रभाव के कारण हमारा घर ही स्कूल में तब्दील हो गया था। इसलिए एक अर्थ में मुझे नहीं लगता कि मेरा बचपन सुखद था। सख़्त पिता का होना, बच्चों के लिए अच्छा नहीं होता।
उदयन- सख़्त पिता कहने से आपका क्या आशय है? सख़्त पिता के कई आशय हो सकते हैं।
जिनन- उनका अकेला ज़ोर पढ़ने पर था। उन्होंने हमें कभी पड़ोस के बच्चों के साथ घुलने-मिलने या खेलने नहीं दिया। इसलिए हमारी बहुत कुछ कै़द में बितायी जैसी जि़न्दगी थी। पाँचवी कक्षा में मैं तिरूवनन्तपुरम् के सैनिक स्कूल चला गया जो एक और तरह का जेल था। लेकिन सैनिक स्कूल का यह थोड़ा-सा फ़ायदा था कि घर पर हमारे पिता हमें बहुत जल्दी पकड़ लेते थे लेकिन कक्षा में तीस छात्रों के होने के कारण आपको थोड़ा ज़्यादा गंुजाइश मिल जाया करती थी। इसलिए मुझे सैनिक स्कूल अपने घर की तुलना में ज़्यादा पसन्द था, क्योंकि वहाँ पलायन के अध्ािक अवसर थे। पाँचवी कक्षा में मैं होस्टल में था, वह सैनिकों जैसी जि़न्दगी थी।
उदयन- वहाँ किस तरह की पढ़ाई होती थी?
जिनन- वहाँ वैसी ही शिक्षा होती थी- जैसी हर जगह होती है इसलिए इसमें क्या आश्चर्य है कि सभी स्कूल यह दावा करते रहते हैं कि वे श्रेष्ठ हैं। लेकिन जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि शिक्षा की सारी व्यवस्था, सारा ढाँचा बेकार और जीवन के विरुद्ध है।
उदयन- यह मैं समझता हूँ। हम उस पर बाद में आयेंगे। लेकिन पहले यह बतायें कि वहाँ आपके किस तरह के दोस्त थे।
जिनन- दरअसल मैं खेल-कूद में अव्वल था। इसी कारण उन्होंने मुझे उस स्कूल में रहने दिया। वरना पढ़ाई में हमारी कक्षा के बत्तीस छात्रों में मेरा नम्बर कभी भी छब्बीस से बेहतर नहीं हो पाया। मैं हमेशा ही सत्ताईवें, अट्ठाइवें और तीसवें नम्बर पर आता था। मुझे कक्षा में रहना कभी पसन्द नहीं था। किसी तरह मैं परीक्षा में पास हो जाता था।
उदयन- आप कौन-से खेल खेलते थे?
जिनन- मैं एक अच्छा एथलीट था। सौ मीटर दौड़ में मैं स्कूल, राज्य आदि का विजेता जैसा था। वह अकेला ही मेरा मनोरंजन था।
उदयन- आपको अपने स्कूल के दिनों की और क्या चीज़ें याद है?
जिनन- मैं एक तरह का विद्रोही था। लेकिन केवल एक हद तक क्योंकि उसके बाद सैनिक स्कूल बाहर फेंक दिया जाता। हालाँकि मुझे दो-तीन बार लगभग स्कूल के बाहर कर दिया गया था। लेकिन खेलों में प्रवीण होने से मैं बच गया।
उदयन- स्कूल में आपके अपने दोस्तों से कैसे सम्बन्ध्ा थे?
जिनन- उस तरह के बन्ध्ानों के बीच भी लोग मनोरंजन के रास्ते ढूँढ ही लेते हैं। इसलिए हम बच्चों को दबाव उस तरह महसूस नहीं होता था। वहाँ दबाव था, बन्ध्ान थे लेकिन उन सब के बीच हमने अपने मन को ख़ुश रखने के रास्ते खोज लिये थे। वह सैनिक स्कूल था इसलिए सभी लोगों से फौज में जाने की अपेक्षा की जाती थी। जब मैं दसवीं या ग्यारहवीं कक्षा में था, मैं अपना नाम सैकण्ड लेफ्टिनेन्ट के.बी. जिनन लिखा करता था। आप उस विचार के बाहर सोच भी नहीं सकते थे। जब आप सैनिक स्कूल में भर्ती होते हैं, सारा परिवेश ऐसा बनाया जाता है कि आप नेशनल डिफ़ेंस एकेडमी (एन.डी.ए.) में पढ़कर फौजी अफ़सर बने। मुझे अपनी वह निराशा याद है जिसने मुझे मेरे एन.डी.ए. में दाखिल पाने में विफल रहने पर घेर लिया था। वह लगभग जीवन का अन्त महसूस होता था। जब हम छोटे होते हैं, हमें इस तरह के दबाव महसूस नहीं होते, हम उन स्थितियों को सामान्य समझते रहते हैं। हम यही सोचते थे कि जीवन इतना ही है कि आप फौजी अफ़सर बन जाएँ। आज जब मैं उस बारे में सोचता हूँ, मुझे विश्वास नहीं होता कि मैं कितना ख़ुश हूँ कि मैं एन.डी.ए. के लिए चुना नहीं गया।
उदयन- आपका एन.डी.ए. में न चुना जाना हम सबके लिए शुभ ही रहा है। अगर आप वहाँ चले गये होते तो आप भी एक और अफ़सर बनकर रह जाते। या शायद ऐसे अफ़सर बन जाते जो कुछ प्रश्न आदि उठाता।
जिनन- मुझे लगता है कि मैं वहाँ देर तक टिक नहीं पाता। या तो उन्होंने मुझे निकाल दिया होता या मैं खुद बाहर आने का रास्ता खोज लेता। मैं यह इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जैसे जैसे आप बड़े होते हैं, आप अपने ऊपर बढ़ते दबाव को झेलने में असमर्थ हो जाते हैं। लेकिन जब आप 18, 19 या 20 वर्ष होते हैं आप उस सारे दबाव को तोड़ कर बाहर आने की कोशिश करते हैं।
उदयन- आप स्कूल के बाद कहाँ गये? क्या आपने किसी विश्वविद्यालय में दाखि़ला ले लिया?
जिनन- पहले की शिक्षा व्यवस्था में आप ग्यारहवीं पास करके डिग्री पाने के लिए, काॅलेज आदि में सीध्ो भर्ती हो सकते थे। हम सैनिक स्कूल के छात्र स्कूल की पढ़ाई के बाद सीध्ो डिग्री के लिए जा सकते थे। जैसा लगभग सभी के साथ होता है, बिना सोचे समझे मेरी दिलचस्पी का दूसरा क्षेत्र इंजिनियरिंग था। मैं तब जानता तक नहीं था कि वह होती क्या है। क्योंकि सभी लोग वही कर रहे थे इसलिए मुझे भी लगा कि मुझे भी वही करना चाहिए। मैंने एक साल तैयारी की, सारा कुछ रट-रुट लिया और अच्छे नम्बर पाकर भोपाल के बड़े इंजिनियरिंग महाविद्यालय, एम.ए.सी.टी. (जिसे अब एम.ए.एन.आई.टी. कहते हैं) में जाकर पढ़ने लगा।
उदयन- इसका अर्थ हुआ कि आप किसी हद तक हमारे शहर भोपाल के भी हैं।
जिनन- वह शहर मुझे बहुत पसन्द है। वह मेरे दूसरे घर जैसा है।
उदयन- आप भोपाल के इस महाविद्यालय में इंजिनियरिंग पढ़ने आ गये...
जिनन- मैं यह नहीं कह सकता कि मैं इंजिनियरिंग पढ़ रहा था, पर इतना ज़रूर है कि मैं एम.ए.सी.टी. में था। मैं ज़्यादा पढ़ना चाहता था सो मैं वहाँ छह वर्ष रहा। पहले वर्ष तो मैं कक्षाओं में जाता था पर दूसरे वर्ष से मैंने वह बन्द कर दिया। सौभाग्य से मुझे महाविद्यालय से निकाल भी दिया गया था। साल भर के लिए छात्रावास से। वह मेरा प्रस्थान बिन्दु था। तृतीय वर्ष के दौरान या शायद द्वितीय वर्ष 1982 में। पहली बात तो यह है कि देश भर के इंजिनियरिंग महाविद्यालय ऊपर से नीचे तक औसत दर्जे के हैं। हमारे महाविद्यालय में केवल आपस में झगड़े होते रहते थे। वहाँ दो छात्र समूह होते थे, एक बिहारी समूह और दूसरा उसका विरोध्ाी समूह। इस विरोध्ाी समूह में बिहारियों के सिवा सभी लोग होते थे। झगड़ा इस बात पर था कि पैसों पर किसका नियन्त्रण होगा। मसलन मैस का सचिव महत्वपूर्ण होता था और महाविद्यालय का अध्यक्ष भी। हमारे उस काॅलेज में राजनैतिक दलों से सम्बद्ध छात्र संघ नहीं थे। या तो बिहारी समूह था या उसके विरोध्ाी। हमारी राजनीति उतनी ही थी। मैं भी इनमें से एक समूह था। जब उसके बारे में आज सोचता हूँ, वह अजीब जि़न्दगी जान पड़ती है।
उदयन- आप कह रहे थे कि उन्हीं दिनों आपको कोई नया रास्ता, कोई प्रस्थान बिन्दु मिला, वह क्या था?
जिनन- दो-तीन घटनाएँ हुईं। मुझे याद है कि मैंने उन्हीं दिनों बू्रनो को पढ़ा जिन्हें स्टेक पर जला दिया गया था। मुझे उस किस्म की कि़ताबें पढ़ने में आनन्द आने लगा। मुझे यह महसूस हुआ कि हमारी इंजिनियरिंग शिक्षा व्यवस्था या मेरी इसके पहले की शिक्षा में हमें कोई भारतीय नाम सुनाई नहीं देता। मैं कोई देशभक्ति का झण्डा उठाये व्यक्ति नहीं था। मेरा सवाल तो महज यह था कि क्या इन लोगों ने कुछ किया ही नहीं है? इसके बाद से मैंने अपने आसपास के परिवेश पर ध्यान देना शुरू कर दिया और पाया कि हमारे काॅलेज के न तो छात्र और न शिक्षक सीखने के प्रति सचमुच प्रतिबद्ध थे। यह एक दिलचस्प रहस्योद्घाटन था क्योंकि एक तथाकथिक शैक्षिक संस्थान में ऐसा तो कोई होना ही चाहिए जो सीखने और शिक्षा में दिलचस्पी ले रहा हो। वहाँ के सारे छात्रों के ध्यान का केन्द्र परीक्षा पास करना, कोई विचित्र प्रवेश-परीक्षा जैसे आई.ए.एस. आई.पी.एस. या ओ.एन.जी.सी. आदि में उत्तीर्ण हो होकर कहीं बाबू होना था। एक तरह का इंजिनियरिंग क्लर्क होना। तब से मैं यह सोचने लगा कि जिसे हम शिक्षा कहते हैं, वह है क्या? हम यह सब क्यों कर रहे हैं। उन दिनों हमारे महाविद्यालय ऐसे एक दो शिक्षक थे जिनके आप खुले मन से बात कर सकते थे। उनमें से एक श्री नायक थे। वे एक स्कूल चलाते थे। वे बच्चों में मेरी दिलचस्पी को जानते थे। जब मुझे महाविद्यालय से साल भर के लिए निकाला गया, वे बोले अगर तुम चाहों तो स्कूल में बच्चों के बीच रहो। मैं स्कूल में रहकर वहाँ पढ़ाने लगा। मैं बच्चों के साथ रहना चाहता था। मैं जानना चाहता था कि हम उनके साथ ठीक-ठीक ऐसा क्या करते हैं जो उनका गहरे तक नुक़सान करता है। मैं उस स्कूल में साल भर रहा। उस महाविद्यालय से निष्कासन ने मुझे पढ़ने और कुछ और करने का पर्याप्त अवकाश दिया। उस एक साल में मैं बिल्कुल ही काॅलेज नहीं गया। उस साल मैं ब्रिटिश काउसिंल लाईब्रेरी का सदस्य बन गया और कि़ताबें पढ़ने लगा। मैंने रसेल के अपने बच्चों पर किये प्रयोगों पर उन्हें पढ़ा। वे एक छोटा-सा स्कूल चलाते थे। मैंने गाँध्ाी के बारे में भी पढ़ा। वे अद्भुत खोज थे। क्योंकि तब तक माक्र्सवादी होने के कारण मैं गाँध्ाी को नहीं पढ़ता था।
उदयन- क्या आप उन बरसों में माक्र्सवादी थे?
जिनन- एक तरह का। मैं कह नहीं सकता कि उसे क्या कहा जाये। वह कुछ इस तरह से थाः मेरा परिवार वामपन्थी विचारों का था। हालाँकि मैंने माक्र्सवाद का अध्ययन नहीं किया था। आप मुझे छद्म-वामपन्थी कि़स्म का कह सकते थे। लेकिन इस सब के बीच एक प्रोफे़सर थे, श्री जैन। वे शिल्पकार थे। वास्तु-कला विभाग में थे। मैं भी कुछ-कुछ करने लगा था, उसे कला कहना ठीक है या नहीं, कह नहीं सकता। मेरी श्री जैन से दोस्ती हो गयी।
उदयन- आप किस सामग्री से काम करते थे?
जिनन- मैं सूखे पत्ते उठा लेता था या सूखे बीज आदि। मैं उनके साथ कुछ करता था। मैं कविता भी लिखने लगा था। मैंने उसे किसी को पढ़ाया नहीं। श्री जैन ने मुझे गाँध्ाी को पढ़ने कहा। उन्होंने मुझे कहा कि तुम गाँध्ाी जैसे दिखते हो। उन्होंने मुझे ‘सत्य से मेरे प्रयोग’ पढ़ने को दी। वह कि़ताब पढ़ना मेरे लिए अद्भुत अनुभव था। मैं इसके लिए श्री जैन का शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने मुझ पर गाँध्ाी पढ़ने का दबाव बनाया। वह मेरी अपने लिए अनुपम खोज थी। उनमें सरलता थी, तब भी उनके चिन्तन की सूक्ष्मता स्पष्ट नज़र आती थी। यह बहुत कम होता है। मैं दूसरी पुस्तकें भी पढ़ रहा था। उन दिनों में आयन रेंड से बहुत प्रभावित हुआ था। मैं उन्हें पढ़कर कुछ दिनों बहुत व्यक्तिवादी रहा पर गाँध्ाी जी के विचारों के कारण मेरे मन में सन्तुलन आया। उन्होंने जीवन का दूसरा आयाम दिखाया। लेकिन तब भी मैं आयन रेंड का आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे कुछ ठोस करने की प्रेरणा दी। मुझे उस उपन्यास का कुछ भी याद नहीं है लेकिन वह भाव मेरे साथ रह गया कि हमें अपने जीवन में कुछ प्रामाणिक करना चाहिए।
उदयन- गाँध्ाी के विषय में क्या आप यह कह रहे हैं कि आप जीवन में सीध्ाी-सरल चीज़ें करके भी बेहद जटिल ढंग से विचार कर सकते हैं।
जिनन- उनके करने और कहने में अन्तर्विरोध्ा नहीं था। मुझे उनमें यह चीज़ बहुत आकर्षक लगी कि वे करने के पहले कहते नहीं थे। उनका अनुभव हमेशा ही उनके ज्ञान का केन्द्र रहा। उन्होंने अपने अनुभव से जो भी सीखा, उसके ही सत्त्व को ध्ाारण कर उसे समझा। मैं इस तरह आज कह पा रहा हूँ लेकिन जब मैंने उन्हें पढ़ा था, उन्हें भावना के स्तर पर पढ़ा था। मैं उन्हें पहली बार पढ़कर बहुत रोया था। मुझ पर इस बात का गहरा असर हुआ था कि उनकी जैसी सरलता और भोलेपन के साथ वे सारे विश्व को प्रभावित कर सके। मुझे याद है कि कई लोग गाँध्ाी जी के विषय में यह कहते रहते थे कि वे ऐसे नहीं थे, वैसे नहीं थे, तब मैं उन्हें लगातार यह कहता रहता था कि मुझे ऐतिहासिक गाँध्ाी में कोई रुचि नहीं है, मुझे उन गाँध्ाी में रुचि है जिन्हें मैं रच रहा हूँ। मुझे वह रचना ऊर्जस्वित कर रही है। मैं जानता नहीं कि वह तथ्य है या नहीं। मुझे तथ्यों में दिलचस्पी भी नहीं, मुझे तो उनके लेखन ने अद्भुत अन्तर्दृष्टि दी है।
उदयन- आपकी बच्चों की शिक्षा की आलोचना का बिन्दु यह रहा है कि वहाँ ज्ञान जानने की प्रक्रिया से पहले ही दे दिया जाता है। शायद गाँध्ाी जी में आपने यह देखा होगा कि वहाँ अनुभव हमेशा ज्ञान के पहले आता है। तब तक आपने जानने की प्रक्रिया का ज्ञान के पहले आने को अनुभव नहीं किया होगा। गाँध्ाी में पहली बार देखा होगा।
जिनन- शायद आप ठीक कह रहे हैं। लेकिन तब मैंने इसे इस तरह नहीं सोचा था।
उदयन- मैं यह इसलिए कह रहा हूँ कि जानने की प्रक्रिया और ज्ञान के सम्बन्ध्ा का उलट जाना (जिससे जानने की प्रक्रिया ज्ञान के पहले आये) ही आपकी दृष्टि की दार्शनिक पीठिका है।
जिनन- बिल्कुल।
उदयन- क्या आप गाँध्ाी को पढ़ने के बाद उनकी चर्चा अपने दोस्तों से भी कर रहे थे या आपने अपने इस अध्ययन को गोपनीय ही रखा था?
जिनन- वहाँ ऐसे लोग नहीं थे जिनसे ऐसी बातें की जा सकें। इंजिनियरिंग काॅलेज में गाँध्ाी पर शायद ही कभी चर्चा होती होगी। न सिर्फ़ गाँध्ाी पर बल्कि किसी और चीज़ पर भी चर्चा नहीं होती, सिर्फ़ अमिताभ बच्चन जैसों की फि़ल्में देखने जाया जाता था। शायद ही किसी को इन सब विषयों में कोई रुचि रही होगी। लेकिन हम इसके लिए किसी को भी दोष नहीं दे सकते। यह नहीं कहा जा सकता कि किसी में कोई दोष था। दरअसल परिवेश ही वैसा था। हमने अपने लोगों के लिए इसी तरह के जीवन की व्यवस्था की है। आध्ाुनिकता का लक्ष्य सभी को दोयम दर्जे का बनाना है। उसमें अविश्वसनीय स्तर की मूढ़ता उत्पन्न करने की सामथ्र्य है। हमारे काॅलेज के लोग उसी में फँसे थे।
उदयन- वे उसी मूढ़ता में श्रेष्ठता हासिल करने में लगे रहते हैं।
जिनन- इसीलिए उन्हें दोष देना ग़लत है। वे बेचारे तो इस परिवेश के भुक्त-भोगी और पीडि़त हैं। बल्कि इस सारे परिवेश को प्रोत्साहित करने वाले भी इसके शिकार ही है। इस पूरे प्रसंग में खलनायक कोई नहीं है। ये सब परिवेश के शिकार है और इन स्थितियों ने इनको पूरी तरह ग्रस लिया है।
उदयन- मुझे लगता है कि अलावा महात्मा गाँध्ाी के कोई भी और यह सोच नहीं पाया कि हम आध्ाुनिकता से बाहर निकल सकते हैं। हम सबने आध्ाुनिकता को मानव जाति की नियति मान रखा है। लेकिन कोई भी युग नियति नहीं होता।
जिनन- मेरी दृष्टि में आध्ाुनिकता मूलतः अनुभव का नकार है। मैं यह भी कहता हूँ कि आध्ाुनिकता के मायने है, मध्यस्थता के सहारे जानना। यहाँ अनुभव का नकार है और शरीर का। ज्ञान कोई दूसरा देता है और आप उसे ग्रहण कर लेते हो। चाहे वह ध्ाार्मिक ज्ञान हो या वैज्ञानिक। मुझे इन दोनों में कोई खास फ़र्क दिखायी भी नहीं देता। ऐसी कोई भी समझ जो व्यक्ति द्वारा वास्तविकता के अनावरण के पहले ही प्राप्त हो जाती है, मष्तिष्क के काम करने के ढंग को निश्चय ही प्रभावित करती होगी। मष्तिष्क की निर्मिति को प्रभावित करती है।
उदयन- इसका अर्थ यह भी हुआ कि आपके अनुसार आध्ाुनिकता में ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया कुछ ऐसी है जिसमें आपके अनुभव और इस तरह जीवन का ही नकार है इसलिए इसमें जीते मनुष्य वास्तविक मनुष्य न रह जाकर प्रेतछाया (फे़टम) हो जाते हैं।
जिनन- बिल्कुल। यह इसलिए है क्योंकि आप उस ज्ञान के सृजन के समय उपस्थित नहीं रहते। जैसे ही कोई आपको बना-बनाया ज्ञान देता है, आपकी संज्ञानात्मक व्यवस्था पुनर्संयोजित हो जाती है। इससे अज्ञात का क्षरण होता है, संज्ञान की प्रक्रिया का भी क्षय हो जाता है। इससे गुणात्मकता का भी क्षय होता है, ऐन्द्रिकता का क्षय होता है और प्रवृत्तिमूलक ज्ञान (इन्ट्यूशन) का भी। इससे उस सबका लोप हो जाता है जो इन्द्रियों का क्षेत्र है, सौन्दर्य का और अज्ञात का। इस सबका क्षरण हो जाता है। इसीलिए आध्ाुनिकता में आप सभी को आत्मविश्वस्त पाएँगे क्योंकि किसी को कुछ पता नहीं है।
उदयन- शायद इसलिए क्योंकि वे नियन्त्रण करते हैं और नियन्त्रित होते हैं।
जिनन- अपने काॅलेज दिनों के बहुत बाद एक बार मैं भोपाल गया था। विप्रो ने शिक्षा में संलग्न लोगों के लिए कोई आयोजन किया था। हम कहीं जा रहे थे और मैंने देखा एक जगह लिखा था, ‘यह कुछ बाँटने की जगह है’। उन दिनों साक्षरता मिशन चल रहा था। वह जगह किसी राशन की दुकान की तरह ही थी जहाँ ज्ञान बाँटने का काम चल रहा था।
उदयन- इंजिनियरिंग काॅलेज और गाँध्ाी जी को खोजने के बाद आप क्या करते रहे?
जिनन- गाँध्ाी जी को पढ़ने के बाद अगले दो साल इंजिनियरिंग काॅलेज में रहते हुए मैंने तय किया कि मैं अन्तिम वर्ष की परीक्षा में नक़ल करके पास नहीं होऊँगा। पहले साल भी बिना नक़ल के ही पास हुआ था पर दूसरे से चैथे साल तक नकल करके ही पास हुआ करता था। अन्तिम वर्ष में मैंने पढ़ाई की और पास हुआ। मैंने तब दो और फैसले किये; पहला यह कि मैं जीवन में ऐसा कोई काम नहीं करूँगा जो मुझे पसन्द नहीं है। मुझे लगा कि आध्ाुनिकता का अभिशाप यह है कि 95 प्रतिशत लोग वह काम कर रहे हैं जो वे करना नहीं चाहते। वे अपनी जि़न्दगी को किसी तरह से खींच रहे हैं। दूसरा फ़ैसला यह किया कि मैं अपना समय दूसरों को नहीं दूँगा यानी मैं नौ से पाँच बजे की नौकरी नहीं करूँगा। इसलिए जब मैंने इंजिनियरिंग की परीक्षा पास कर ली तो मुझे यह स्वांग करना पड़ा कि मैं नौकरी ढूँढ रहा हूँ वरना हमारे जैसे सीमित आमदनी के परिवार के माँ-पिता नाराज़ हो जाते। उस पर मैं घर का बड़ा बेटा था और मेरा यह कहना मुश्किल पैदा कर देता कि मैं काम करना नहीं चाहता पर दरअसल मेरी अन्तःप्रेरणा इतनी शक्तिशाली थी कि स्थितियों से समझौता करते नहीं बना। कई लोग ऐसी प्रेरणा होने पर यह निर्णय लेते हैं कि वे ऐसा कुछ समय के बाद करेंगे। मुझे लगा ‘कुछ समय बाद’ कुछ नहीं होगा। ‘कुछ समय बाद’ जैसी कोई चीज़ नहीं होती। यदि तुम कुछ करना चाहते हो, तुरन्त करो फिर चाहे जैसी भी स्थिति हो। संयोग से उन्हीं दिनों मैंने बम्बई के आई.डी.सी. (इण्डस्ट्रियन डिज़ाइन कोआॅपरेशन) में आवेदन दिया था। मेरा चयन उस बरस वहाँ नहीं हुआ। लेकिन जब मैं वहाँ परीक्षा देने गया था, मुझे किसी ने बताया कि अहमदाबाद में डिज़ाइन का एक और संस्थान है, एन.आई.डी., वह भी बहुत अच्छा है। एक बार फिर मैंने सालभर कुछ नहीं किया। और अगले साल मैं एन.आई.डी. में चला गया। अहमदाबाद के उस संस्थान में मुझे विलक्षण अनुभव हुआ। शुरूआत में वहाँ मुझे लगा था कि मुझे अब कम-से-कम तीन साल तक नौकरी की चिन्ता नहीं करना है क्योंकि मुझे छात्रवृत्ति मिलती थी। वहाँ स्नातकोत्तर पढ़ाई के लिए जाने का ख़ास मक़सद यही था। साथ में छात्र-जीवन जीने का भी सुख रहेगा। लेकिन जब मैं एन.आई.डी. पहुँचा तो मुझे समझ में आया कि वह कमाल की जगह है। वहाँ मैं सीखने के गहरे स्तरों में दिलचस्पी लेने लगा। सीखने के परिवेश का अर्थ क्या होता है? आदि। मैं यह सब पश्चात-विवेक से बोल रहा हूँ। मैं सीखने के परिवेश और शिक्षण के परिवेश में अन्तर करता हूँ। एन.आई.डी. में सीखने का परिवेश था जहाँ सब लोग सीखने में जुटे थे। वहाँ शिक्षक-शिक्षण जैसा कुछ नहीं था। वहाँ अटेण्डेन्स नहीं ली जाती थी। जब छात्र एक-दूसरे से मिलते थे तो आपस में पूछते थे कि वे उन दिनों क्या खोज रहे हैं। जिन लोगों को सीखने में दिलचस्प थी, वे पुस्तकालय में घण्टों बैठे रहते थे, या कुछ करते रहते थे। वहाँ इस तरह बिल्कुल अलग परिवेश था जैसा कि कई वास्तुकला के महाविद्यालयों में होता है। मेरे इंजिनियरिंग काॅलेज में भी वास्तु-कला का विभाग, बाकी विभागों से बहुत अलग था। वहाँ भी लोग रात-रात भर काम करते थे, नयी तरह का करते थे। आज मुझे लगता है कि वास्तु-कला और डिज़ाइन में कुछ ऐसी अद्भुत सम्भावना है जिसके सहारे सारी शिक्षा की पुनर्कल्पना की जा सकती है। इन दोनों ही विषयों में एक तरह अमूर्त गुण हैं। मैं उन कथ्यों और प्रक्रियाओं की बात नहीं कर रहा जो वे आजकल इस्तेमाल में ला रहे हैं। वे भी आध्ाुनिक दृष्टि के विन्यास में फँस गये हैं। लेकिन इन दोनों ही ध्ााराओं में बहुत सम्भावना है जिसके सहारे शिक्षा को सचमुच नये ढंग से सोचा जा सकता है। मैं हमेशा कक्षा में रहकर कुछ न कुछ कर रहा होता। लेकिन ध्ाीरे-ध्ाीरे मुझे यह समझ में आने लगा कि किस तरह हमारे सौन्दर्य बोध्ा का औपनिवेशीकरण हो रहा है और कैसे एन.आई.डी. में सच्चा पश्चिमी परिवेश बनाया गया है। वहाँ कुछ इस तरह था कि आपको पश्चिमी आदर्शों को आत्मसात करने के लिए पूरी स्वतन्त्रता दी जायेगी जिससे आप उपनिवेशीकृत हो जायें। इसलिए हम जब स्वतन्त्रता की बात करते हैं, हमें उसे परिभाषित करने वाली सीमा को निश्चय ही देखना चाहिए। मुझे लगता है कि इस तरह के अत्यन्त परिष्कृत संस्थानों से नुकसान ही कहीं ज़्यादा होता है। औपनिवेशीकरण भी कहीं अध्ािक शक्तिशाली ढंग से होता है।
उदयन- सूक्ष्मतर स्तर पर...
जिनन- एक और बात पश्चात बोध्ा के आध्ाार पर, मुझे समझ में आ रही है कि जो लोग वि-उपनिवेशीकरण के कार्य में संलग्न थे, वे भी वह कार्य आध्ाुनिकता के ढाँचे में ही कर रहे थे। वे उसी ढाँचे में पश्चिमी ज्ञान की जगह भारतीय ज्ञान रख देना चाहते थे। उन्होंने कभी भी ज्ञान की निर्मिति की प्रक्रिया पर कभी ध्यान नहीं दिया। दरअसल सौन्दर्यबोध्ा कभी भी उनका सरोकार नहीं था। आज वास्तुकला या डिज़ाइन के क्षेत्र में यही सब हो रहा है। इसलिए भी एन.आई.डी. में रहते हुए मैं संस्कृति के प्रश्न में गहरी दिलचस्पी लेने लगा। अगर आपका सौन्दर्यबोध्ा अपना नहीं हैं, अगर आप अपना ज्ञान स्वयं नहीं रचते, अगर मूल्यों की कसौटी आपकी अपनी नहीं है तब संस्कृति का कोई अर्थ नहीं रह जाता। तब वह केवल सिर्फ़ नाचना-गाना रह जाता है जैसा कि अमरीकियों के साथ हुआ है। मुझे यह भी लगता कि आध्ाुनिक सन्दर्भों में संस्कृति के सच्चे अर्थ का कोई मूल्य नहीं है। अगर आप स्वयं ज्ञान का सृजन नहीं करते, संस्कृति का प्रश्न ही नहीं उठता। मेरा ख्याल है कि हर पीढ़ी को ज्ञान का पुनर्सृजन करना होता है। हो सकता है आप किसी नये ज्ञान का सृजन न भी करें पर ज्ञान का पुनर्सृजन अनिवार्य है। पारम्परिक समाजों में ज्ञान का पुनर्सृजन और पुनर्परिष्कार हुआ करता है।
उदयन- उपलब्ध्ा ज्ञान का पुनर्सृजन और परिष्कार...
जिनन- इन समाजों में एक तरह से कोई शिक्षण नहीं होता। उस अर्थ में वे अज्ञात के क्षेत्र में रहते हैं, ज्ञान का सृजन करते हैं। यह हो सकता है कि वे अपने पिता को देखकर कुछ दोहरा रहे हों, लेकिन दोहराव की इस प्रक्रिया में वे ज्ञान का सृजन कर रहे होते हैं। इन समाजों में अनुभव की महत्ता सबसे अध्ािक है।
उदयन- जब आप इस तरह सृजन करते हैं, आप पुनर्सृजन भी नहीं करते बल्कि आप ‘उसी’ ज्ञान का सृजन करते हैं। आप की ही बात को अगर बढ़ाऊँ तो शायद हम कह सकते हैं कि जब कोई व्यक्ति अपने अनुभवों के आध्ाार पर जानने की प्रक्रिया में ‘उसी’ ज्ञान का सृजन करता है, उसका जीवन उस ज्ञान को त्यागता या नकारता नहीं है। इस तरह वह अपने जानने की प्रक्रिया में कभी भी अनुपस्थित नहीं होता और जब वह जानने की प्रक्रिया को पार करके ज्ञान तक पहुँचता है, वह उस ज्ञान में उपस्थित रहता है। तब भी जब वह ज्ञान या जानना वही पहिया क्यों न हो जिसका आविष्कार उसके पुरखे कर चुके हैं।
जिनन- पहिए का पुनराविष्कार आवश्यक है। बहुत सारे प्रत्यय-जाल (ट्रेप-वडर््स) हैं। इनमें से एक प्रत्यय-जाल हैः पहिए का पुनराविष्कार मत करो। मैं सोचता हूँ, हमें पहिए का पुनराविष्कार करना ही चाहिए। अगर आप जीव-जगत देखें, वहाँ केवल पुनराविष्कार हो रहा है। इसके अलावा कुछ भी नहीं हो रहा। तब भी वह क्रीडात्मक, लीलामय, सृजनात्मक और स्वतः स्फूर्त होता है। जीव-जगत की यही सुन्दरता है और इसे ही लोग समझते नहीं है। वे जीव-जगत का केवल यान्त्रिक आयाम देखते हैं, वे यह नहीं देखते कि जीव-जगत स्वतःस्फूर्त है, वहाँ सृजनशीलता, आनन्द, क्रीड़ा सब हैं, तब भी वहाँ वही बनता रहता है, जो बन चुका है।
उदयन- क्या आप सोचते हैं कि डार्विन के विकासवाद में लगातार नये बनने के विचार में ही इसी समस्या का कण मौजूद है? मैं अक्सर कहता हूँ कि डार्विन ने स्पेस में यात्राएँ की थी और समय का सिद्धान्त दिया था। शायद इसीलिए आध्ाुनिकता ने प्रकृति पर भी अपना यह सिद्धान्त आरोपित कर दिया और कहा कि वह निरन्तर नया सृजन करती रहती है। इसके स्थान पर आपकी कही बात कहीं अध्ािक मौज़ँू जान पड़ रही है। प्रकृति निरन्तर वही का वही सृजन करती है पर हर बार कुछ अध्ािक परिष्कृत...।
आप एन.आई.डी. के विषय में शुरू में कह रहे थे कि वहाँ खुलापन था पर वहाँ ऐसे कौन से लोग थे जिनसे आप प्रभावित हुए। क्या दशरथ पटेल आदि वहाँ थे।
जिनन- दशरथ तब तक वहाँ नहीं थे। एक बात वहाँ थी कि किसी को भी वहाँ ज्ञान की राजनीति में रुचि नहीं थी। अनेक शिक्षा संस्थानों का यह दुखद पक्ष है। वे यह नहीं समझते कि ज्ञान राजनीति होती है। इसलिए एन.आई.डी. में ज्ञान के किंचित गहरे आयाम ग़ायब थे। चूँकि वे ज्ञान के राजनीति से अनभिज्ञ थे इसलिए पश्चिमी में बहाउवास के समय ज्ञान उत्पन्न (1920 के दशक में जर्मनी में) को इस संस्थान में क्रियान्वित किया गया। इसलिए वहाँ सौन्दर्य के मूल्य पश्चिमी ही थे। इसलिए वहाँ भी गहरे प्रश्नों पर विचार-विमर्श नहीं था। हम शायद कह सकते हैं कि एन.आई.डी. बहाउवास को सीखने का खुला स्थान था।
उदयन- क्या आप सोचते हैं कि एन.आई.डी. जैसे संस्थान वैसे बन जाते हैं जैसे वे हैं क्योंकि हम डिज़ाइन के अपने विचारों को भूल चुके हैं?
जिनन- मैं सोचता हूँ कि जब से अंग्रेज़ों ने यहाँ अपनी शिक्षा व्यवस्था लागू की, ‘हम’ वहाँ थे ही नहीं। अगर हम देखें कि आध्ाुनिक शिक्षा के प्रतिमानों में क्या है तो हम पाएँगे कि वहाँ केवल पश्चिम ही उपस्थित है। वहाँ पश्चिम के सिवा कोई नहीं है। अगर वे किसी स्वदेशी ज्ञान परम्परा को इसमें शामिल भी करते हैं तो ऐसा केवल पश्चिम के ढाँचे में ही किया जाता है और बहुत सी स्वदेशी लोग इसी विचार से प्रसन्न हो जाते हैं कि अब वे वहाँ पहुँच गये हैं। यह उनके अपने स्वदेशी ज्ञान की अप्रमाणिकता के कारण होता है। उनकी अपने बारे में समझ के अभाव में। अगर आप आयुर्वेद की मिसाल लें तो यह देख सकते हैं कि आयुर्वेद कभी भी आध्ाुनिक एलोपैथिक व्यवस्था के ढाँचे में नहीं समा सकती। बल्कि उसे आध्ाुनिक शिक्षा व्यवस्था कहना चाहिए। सारी आध्ाुनिक शिक्षा के प्रतिमान, वे जो कुछ भी पढ़ा रहे हों, एक ही प्रतिमान से तय होते हैं। उन्होंने इसी तरह आयुर्वेद के प्राणों को मार डाला और उसके स्थान पर एक छद्म कार्यक्रम ले आये हैं। मेरे एक दोस्त कहा करते थे कि जिस तरह प्रवासी भारतीय (एन.आर.आई.) होते हैं वैसे देशवासी भारतीय भी होते हैं, शिक्षित लोग देशवासी भारतीय (रेजिडेंट इण्डियंस) है। इनमें आर.एस.एस. जैसी संस्थाओं के लोग शामिल हैं जो भारत के बारे में बातें अवश्य करते हैं लेकिन उनके विमर्श में भारत की आत्मा नहीं है। उन्होंने आध्ाुनिक प्रतिमानों के आध्ाार पर एक और भारत की रचना कर ली है।
उदयन- आप यह बिल्कुल सही बात कह रहे हैं। हमें यह समझना आवश्यक है। आप एन.आई.डी. में तीन वर्ष रहे...
जिनन- मैं वहाँ हुए एक रोचक अनुभव के बारे में बताता हूँ। मैं वहाँ जाकर सब कुछ अपने आप करने लगा। वहाँ पाठ्यक्रम आदि सब था पर मुझे सौन्दर्य में गहरी दिलचस्पी उत्पन्न हो चुकी थी। मुझे सौन्दर्य की राजनीति में रुचि पैदा हो गयी थी। उसकी प्रमाणिकता का प्रश्न महत्वपूर्ण हो गया। मैं एन.आई.डी. से बाहर निकल कनोरिया कला केन्द्र चला जाता था। अहमदाबाद में वह ऐसा एक स्थान था, जहाँ जाकर समय बिताता, कुछ कलाकारों से मिलता, कुछ करता। जिस एक बात ने एन.आई.डी. में मुझे विचलित कर दिया वह यह थीः काम करने से पहले योजना बनाना। मैं इसे ग़लत मानता था क्योंकि ऐसा करने पर आप अपने शरीर को अपनी बुद्धि से अलग कर देते हैं। पहले से मेज़ पर बैठकर योजना बनाने से यह होता है कि आपके दिमाग में ‘काम’ पहले ही ‘घट’ जाता है, बाद में आप उसे क्रियान्वित करते हैं। ऐसे में शरीर को बुद्धि की गुलामी करना पड़ती है। यह मुझे नापसन्द था। मैं सीध्ो सामग्री पर काम करना चाहता था। मैं कबाड़खाने जाता और वहाँ हथौड़े चलाता, कुछ पत्थर ले लेता और उनपर काम करता। मैं सीध्ो काम करने लगा और इस तरह अपने शरीर को वापस अपने भीतर ले आया। शरीर महत्वपूर्ण हो गया। संस्थान में सिरेमिक विभाग था। मेरी उसकी तकनीक आदि में बहुत रुचि नहीं थी, लेकिन मेरी दिलचस्पी कुछ करने, महसूस करने, छूने और सीध्ो-सीध्ो सामग्री को समझने में थी। ख़ुशकि़स्मती से वहाँ के विभागाध्यक्ष ने मुझे उस विभाग में काम करने की इजाज़त नहीं दी क्योंकि मैं औपचारिक रूप से प्रोडक्ट्स डिज़ाइन का छात्र था। लेकिन तब भी मेरी दिलचस्पी मिट्टी से काम करने में थी। मैं मिट्टी लेकर अपने कमरे में चला जाता और काम करने लगता। वैसे काम करना बहुत खूबसूरत था क्योंकि कमरे में काम करने के कारण मैं मिट्टी पर काम करने से जुड़ी सारी व्यवस्थाओं से बच गया। मैं यह कहूँगा कि मुझे मिट्टी ने ही बताया कि मिट्टी को कैसे बरता जाता है। यह मुझे किसी शिक्षक ने नहीं बताया। मिट्टी ही बताती है कि तुम मेरे साथ कैसा व्यवहार करो। इस तरह मेरा सामग्री से सीध्ाा सम्पर्क होने लगा। यही पारम्परिक कलाकार करते रहे हैं। उन्होंने सामग्री या पदार्थ से ही शिक्षा ली है। वहाँ यह नहीं है कि उन्हें कोई बता रहा हो कि उन्हें मिट्टी के साथ क्या करना चाहिए। मुझे लगा कि परम्परा और आध्ाुनिकता में यह मौलिक फ़कऱ् है। उन दिनों मेरे साथ यह अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना घटीः मैं यह सीख गया कि कैसे सीखा जाता है। मुझे किसी ने पद्धति या प्रक्रियाएँ नहीं सिखायीं।
जैसा कि आध्ाुनिक शिक्षा व्यवस्था में होता है कि आपको बताया जाता है कि तुम इस पद्धति से यह करो तो यह परिणाम होगा। विशेषकर मिट्टी के काम में यह बताया जाता है कि तुम स्लेपवर्क करो, या पेचवर्क करो आदि। मेरा सौभाग्य कि मैं इस सब से बच गया।
इसके बाद मुझे प्रोजेक्ट मिला था कि मैं कोलकाता की गूँगी-बहरी लड़कियों के साथ कोई सृजनात्मक कार्य करूँ। यह कई मायनों में विलक्षण अनुभव था। आप यह मानकर चलते हैं कि आप बोलते हैं और दूसरे आपको समझते चलते हैं। इस तथ्य को कम ही चुनौती मिलती है। मैं पहली बार ऐसे समूह के साथ काम कर रहा था, जहाँ बोलने का कोई मतलब नहीं है। वे लड़कियाँ न सुन सकती थी, न बोल सकती थीं। मैं शुरू में वहाँ से भाग जाना चाहता था। मैंने अपने गाईड को ख़त भी लिखा कि मैं यह स्थिति सम्भाल नहीं सकता। संयोग से वह ख़त उन तक पहुँचा ही नहीं।
उदयन- यह वहाँ काम करते हुए आपकी आरम्भिक प्रतिक्रिया थी।
जिनन- वह इसीलिए थी क्योंकि मैं उस स्थिति को सम्भाल ही नहीं पा रहा था। उन्होंने मुझे जवाब नहीं दिया सो मैं वहाँ रहता रहा और कुछ ही दिनों में मुझे वहाँ आनन्द आने लगा। मुझे इस सम्पर्क में अर्थ नज़र आने लगे। आप ऐसे लोगों को जो बोल नहीं सकते, सुन नहीं सकते, कुछ नया करने को प्रेरित कैसे करेंगे? आप उनसे नयेपन के बारे में कैसे बात करेंगे। आप उनके सामने भंगिमाएँ बना सकते हैं पर आप उन्हें नया कहने के लिए क्या करेंगे? वह बहुत-सी अच्छा तीन-चार महीनों का प्रयोग था। कोलकाता में रहते हुए मुझे अनेक लोगों से मिलने का अवसर मिला। वहाँ ऐसे लोग रहते थे जो सचमुच गहरे थे। मुझे याद है कि मैं एक शख़्स दीपक मजूमदार से मिला था। मैं पहली बार ऐसे व्यक्ति से मिल रहा था जो प्रामाणिक था जिसके अपने विचार थे। वह पुस्तक से शिक्षित नहीं थे। उनके पास कहने को अपना कुछ था। कुछ समय बीतने के बाद मैंने तय किया कि कोलकाता ही मेरा घर होगा। अपना डिप्लोमा प्रोजेक्ट करने के बाद मैं वापस कोलकाता चला गया। वहाँ मेरी अनेक दिलचस्प लोगों से मुलाकात हुई, कुछ फि़ल्मकार थे, कुछ कलाकार थे। मैंने कुछ समय शान्ति निकेतन में भी गुज़ारा। मैंने वहाँ जाकर रहने का भी विचार किया था पर शान्तिनिकेतन की स्थिति तब भी दुखद ही थी। अब तो वह पूरी तरह ख़राब स्थिति में है। मुझे लगा कि वहाँ लोग टैगोर पर परजीवी बन गये हैं। शान्ति निकेतन में दो-तीन महीने रहने के बाद मैंने सोचा कि यह वह जगह नहीं जहाँ मैं रह सकूँ, वहाँ स्वांग अध्ािक था। खुद बंगाली लोग ऐसे लोगों को ‘आतेल’ कहा करते थे। ‘आतेल’ यानि छद्म बौद्धिक। वहाँ कुछ दिलचस्प लोग भी थे जो कुछ-कुछ करने की कोशिश कर रहे थे।
उदयन- सोमनाथ होर उन दिनों वहाँ रहे होंगे।
जिनन- वे अद्भुत व्यक्ति थे। उनका काम बहुत सुन्दर है। मैं उनसे मिला था। वे ज़्यादा नहीं बोलते थे। इस बीच मैंने यह भी तय कर लिया था कि डिज़ाइन मेरे बस की बात नहीं है, मुझे तो शिल्पकार होना है। मैंने शिल्प बनाना प्रारम्भ कर दिया। मैंने अपने कामों का प्रदर्शन करना भी शुरू कर दिया।
उदयन- यह सब आप कोलकाता में रहते हुए ही कर रहे थे?
जिनन- उन दिनों मैं बहुत से कलाकारों से मिलता था, कला-दीर्घाओं (गैलरियों) में जाता था। लेकिन पता क्यों मुझे लगा कि वह सब बिल्कुल ही निरर्थक था। वहाँ एक तरह माफि़या था जिसे ख़रीदार, गैलरी-वाले, पत्रकार और ख़ुद कलाकार संचालित करते हैं। उस सब में जीवन या आध्यात्मिक अनुभव का सच्चा अंवेषण नहीं था। वे लोग इन सब की बातें ज़रूर करते थे, लेकिन उनकी गतिविध्ाियों में इन सबका सिरे से अभाव था। वे ये सब बातें इसलिए करते थे क्योंकि इससे पैसा मिलता था। इन सब बातों को जानबूझकर बनाया और बनाये रखा जाता था जिससे सामान्य आदमी इस सब के रहस्य को समझ न पाये और उसके प्रभाव में आ जाये। बहरहाल मैं इस सब से पूरी तरह निराश हो गया और मैंने यह सोचकर शिल्प करना छोड़ दिया कि यह सब मुझसे होगा नहीं।
उदयन- आप वहाँ कितने सालों तक थे?
जिनन- मैं वहाँ बहुत नहीं रहा। सिर्फ़ 1988 से 1992 तक तीन साल से कुछ अध्ािक रहा। लेकिन वहाँ रहते हुए सौभाग्य से मेरा सम्पर्क कारीगरों के समुदायों से होने लगा। वह मेरे लिए बेहद महत्वपूर्ण अन्तरण था। इसी बीच एक दिलचस्प घटना घटी। मुझे नागालैण्ड में आमन्त्रित किया गया। मैं वहाँ मुकुपचुंग में जाकर रहा, जहाँ ‘आओ’ समुदाय रहता था।
उदयन- वह जगह क्या थी?
जिनन- चुचुइम्लान। वहाँ एक गाँध्ाीवाद संगठन था जो इन लोगों को सभ्य बनाने का प्रयास कर रहा था। लेकिन आदिवासी लोगों का मेरा अनुभव इससे ठीक उलटा था। मुझे लगता था कि वे कहीं अध्ािक सभ्य हैं और उन्हें चाहिए कि वे हमें सभ्य बनायें। हम उन्हें सभ्य बनाने में क्यों लगे हैं? वे जिस तरह का जीवन जी रहे थे, वह अद्भुत था। हालाँकि मैं वहाँ केवल दो हफ़्तों तक ही था पर मैं यह देख सकता था कि वहाँ स्त्रियाँ स्वतन्त्र हैं, उन पर बिल्कुल भी कोई पाबन्दी नहीं है। बच्चे अपना समय अद्भुत ढंग से बिताते हैं। मुझे यह लगा कि आदिवासी जीवन भारत के तथाकथित मुख्यध्ाारा के जीवन से कहीं अध्ािक बेहतर और सभ्य है। हम उन्हें क्यों सभ्य बनाने में लगे हैं? मैं वहाँ रहते हुए कुछ लोगों को पढ़ने भी लगा। वेरियर एल्विन तब मेरे जीवन में आये। मैंने उन्हीं दिनों नृत्तत्वशास्त्री हेमिंगडोफऱ् को भी पढ़ा। उनका लिखा एक वाकि़या मेरे स्मृति में अटका रह गया है। उन्होंने आश्चर्य से लिखा है कि दो आदिवासी समुदायों के बीच कुछ समस्या थी तो एक समुदाय के लोगों ने जाकर दूसरे समुदाय की जगहों पर आगज़नी की और बहुत गड़बड़ हो गयी। मामला काफ़ी बिगड़ गया। उन दिनों अंग्रेज़ शासक वहाँ थे। उन्होंने दोनों समुदायों के लोगों को समझौते के लिए बुलाया। हेमिंगडोर्फ़ भी वहाँ थे। दोनों समुदायों के मुखिये आये और वे टेन्ट में बैठकर बातें करने लगे। मुखियों के साथ दोनों ही तरफ़ के कुछ लोग भी आये थे। हेमिंगडोर्फ़ ने विलक्षण चीज़ देखी कि दोनों ही समुदायों के लोग जो आपस में बुरी तरह से लड़े थे, वे जल्दी ही दोस्त बन गये और एक दूसरे का मज़ाक़ उड़ा रहे थे। वे आपस में बता रहे थे कि वे कैसे भागे थे, या छुपे थे, कैसे उन्होंने आग लगायी थी वगैरह। हेमिंगडोर्फ़ को समझ नहीं आया कि कैसे ये लोग इतनी जल्दी सारा लड़ाई-झगड़ा भूलकर दोस्त बन गये। ऐसा ही तो बच्चे भी करते हैं। बच्चे में भी यह क्षमता होती है कि वह लड़ाई-झगड़ा तुरन्त भूल जाता है। वे ये सारी त्रासदियाँ ढोते नहीं हैं। वे नाराज़ होते हैं तो उसे रोकर तुरन्त शान्त कर लेते हैं। हेमिंगडोर्फ़ का यह अनुभव मेरे साथ बना रहा। इस घटना ने ग्रामीण आदिवासी समुदायों के प्रति मेरे दृष्टिकोण को गहरे तक प्रश्नांकित किया। जब मैंने कारीगरों के साथ काम करना शुरू किया तो मेरे सामने यह मूल प्रश्न था कि मैं एक उपनिवेशीकृत मनुष्य की तरह उपनिवेशीकृत डिज़ाइन जिसके पास पश्चिमी सौन्दर्यबोध्ा है, इन लोगों के साथ कैसे व्यवहार करूँ? वहाँ मुझे उनके साथ काम करने के लिए रखा गया था। उन्हीं दिनों मैंने ‘डू नथिंग’ (कुछ न करो) पद्धति विकसित की। इससे मेरा आशय यह था कि मैं इन कारीगरों का सचमुच मैं सम्मान करता था, मेरे पास उन्हें सिखाने कुछ नहीं था, मुझे उन्हें वह जगह देनी है जहाँ वे उस आत्मसम्मान के साथ काम कर सकें जिसे शहरी या कस्बाई तथाकथित विशेषज्ञ उनसे छीन लिया करते थे। मुझे लगा कि मुझे उनके आत्मसम्मान पर डाका नहीं डालना चाहिए। हम शहरियों ने अपना आत्मसम्मान पश्चिमी बुद्धि के हाथों में सौंप दिया है। हमें कम-से-कम उसे उन लोगों से छिनना नहीं चाहिए जिनके पास वह अभी भी है। वे ही अब थोड़े से बचे खुचे भारतीय हैं। हम उन्हें वैसा बने रहने दें। इस दृष्टि से मैंने एक पद्धति विकसित की है जहाँ लगभग कोई विशेष पद्धति नहीं थी। आप कुछ खास नहीं करें। उनके काम को समझें और आप ग्रामीण कारीगर और शहरी बाज़ार के बीच किसी तरह के मध्यस्थ बन जायें। इस पद्धति से यह सम्भव हुआ कि उन कारीगरों ने बिल्कुल मौलिक और सुन्दर काम तैयार किये।
उदयन- आप उनसे किसी भी विशेष चीज़ या शैली की माँग नहीं कर रहे थे।
जिनन- न मैं माँग कर रहा था, न वे मेरी नक़ल कर रहे थे। जब मुझे ऐसा लगा कि वे मेरे किये की नकल कर सकते हैं, मैंने कैसा भी शिल्प बनाना बन्द कर दिया। इस सब के कारण कमाल का काम होना शुरू हो गया। इसके अलावा, उनका अपने बच्चों के प्रति व्यवहार हमारा अपने बच्चों के प्रति व्यवहार से हज़ार गुना बेहतर था। ग्रामीण स्थिति में ‘पेरेन्टिंग’ जैसा कुछ नहीं था। बच्चे सौ प्रतिशत मुक्त थे, उनके माता-पिता यह जानने की चिन्ता नहीं करते थे कि वे कहाँ गये हैं। यह इसलिए नहीं था कि वे अपने बच्चों से प्यार नहीं करते थे। यह इसलिए था क्योंकि वे जीवन पर विश्वास रखते थे। उनमें जीवन के प्रति अथाह विश्वास है। अपने बच्चे का ‘निजीकरण’ आध्ाुनिक घटना है। जबकि आदिवासी-ग्रामीण इलाके का बच्चे लगभग सबका होता है। वहाँ वह सिर्फ़ अपने माता-पिता का नहीं होता। मैं उस सम्बन्ध्ा का अध्ययन गहराई से करने लगा। एक बार मैं ओडि़सा की एक बड़ी सुन्दर बागशाला में था जहाँ कुम्हारों के साथ काम कर रहा था। मेरे पास केवल कि़ताबें थीं। लेकिन उनके साथ रहते हुए मुझे कि़ताबों की निस्सारता का अचानक बोध्ा हुआ। मैंने सोचा, मेरे चारों ओर इतना सुन्दर जीवन है- कहीं कुम्हार काम कर रहे हैं, कहीं बुनकर, कहीं गुलोल लोग हैं जो भेड़ों की देखभाल करते हैं, कहीं किसान हैं, (वह आत्मनिर्भर किस्म का गाँव था जहाँ हर तरह के लोग थे) - और मैं कि़ताबें पढ़कर अपना समय जाया कर रहा हूँ। मुझे कि़ताबें पढ़ने की निस्सार अनुभव हुई और तब से मैंने पढ़ना पूरी तरह बन्द कर दिया। एक और चीज़ बहुत स्पष्ट हुई कि ज्ञान सांस्थानिक चीज़ नहीं है जिसे आप स्कूल-काॅलेज़ों में पाते हैं। जब आप इस तरह के ग्रामीणों के बीच रहते हैं, आप यह महसूस करते हैं कि ज्ञान सामुदायिक चीज़ है और वह हर जगह मौजूद है और हरेक व्यक्ति ज्ञान में ही है या ज्ञान में शामिल है। मेरे मन में यह स्पष्ट हो गया कि ज्ञान सामुदायिक कार्यकलाप है। इसलिए मैं यह ध्यान से देखने लगा कि लोग काम कैसे करते हैं। मुझे सबसे महत्वपूर्ण बात यह समझ में आयी कि आदिवासी ग्रामीण इलाक़ों में शिक्षा नहीं दी जाती। कुम्हार का बच्चा कुम्हारी अपने आप सीख जाता है। उसका पिता उसे कुछ भी सीखने को नहीं कहता। वे दस बरस के होते तक बच्चे से कुछ भी नहीं चाहते। सिर्फ़ कभी कुछ उठाने वग़ैरह को कहते हैं। दस-ग्यारह या बारह साल का होने तक बच्चे कुम्हारी अपने आप सीख चुके होते हैं। वे तब तक कई नक़ली चूल्हें, भट्टी आदि बना चुके होते हैं, बर्तनों को आग में झूठ-मूठ पका चुके होते हैं। वे हर तरह की चीज़ें करते रहते हैं लेकिन उनके माता-पिता उस सब में कोई हस्तक्षेप नहीं करते। उनके माता-पिता उनके पास जाकर तब तक उन्हें यह नहीं कहते कि तुम्हें यह करना चाहिए या नहीं। इसलिए बच्चा उस उम्र तक पूरी तरह स्वायत्त और स्वतन्त्र रहता है। हरेक के पास अपना अवकाश होता है। कोई किसी से किसी तरह की मांग नहीं करता। सभी का एक-दूसरे के प्रति गहरा सम्मान रहता है।
उदयन- क्या आप वहाँ बहुत समय तक रहे थे, उन लोगों को काम करता देखते हुए?
जिनन- मैं वहाँ, जैसा कि मैं आपको बता चुका हूँ, ‘कुछ नहीं’ कर रहा था। मैं भले ही कुछ नहीं कर रहा था पर मैं पूरी तल्लीनता से उनका अवलोकन करता कि वे क्या कर रहे थे, कैसे कर रहे थे, वे अपने बच्चों का ध्यान किस तरह रख रहे हैं, गर्भवती स्त्रियाँ भी किस तरह काम कर रही हैं। मेरे लिए उनकी सारी सामाजिक जि़न्दगी महत्वपूर्ण हो गयी थी। मैं यह जानना चाहता था कि वे लोग कैसे जीते हैं। शहरों में आपको ये सारी चीज़ें देखने में नहीं आती। शहरों में बहुत-सा जीवन कृत्रिम हो गया है और उस गाँव में जीवन प्रामाणिक ढंग से हो रहा था जिसमें लम्बे समय तक बहुत कम ही बदलाव की आवश्यकता होती थी। लेकिन तब भी वह हर समय ताज़ा था, सुन्दर था। हम शहरों में ऊब की शिकायत करते हैं। मुझे शहरों की यही विडम्बना लगती हैः हम नयेपन की बात करते हैं पर तब भी हमें ऊब की शिकायत रहती है। हम व्यक्ति-वैशिष्ट्य की बात करते हैं पर हमारे पास वह नहीं है। हमारी व्यक्ति-वैशिष्ट्य की ध्ाारणा नक़ली है। मेरा विचार है कि आध्ाुनिकता में सच्चा व्यक्ति-वैशिष्ट्य होता ही नहीं है। अगर आप अपने आप ज्ञान का सृजन नहीं करते, आपको व्यक्ति-वैशिष्ट्य की बात नहीं करना चाहिए। मैं समझता हूँ कि ज्ञान की स्वतन्त्रता ही सबसे बड़ी स्वतन्त्रता होती है। इसे लोग समझ नहीं पाये हैं।
उदयन- आप वहाँ रहते रहे और अपने आस पास के जीवन को देखते रहे। ध्ाीरे-ध्ाीरे नागालैण्ड के उस गाँव में रहते हुए ‘बच्चे’ की आपकी ध्ाारणा पूरी तरह बदल गयी।
जिनन- पूरी तरह। मैंने शायद आपसे पहले भी कहा है कि उस समय मैंने पढ़ना पूरी तरह छोड़ दिया। मैंने उन्हीं दिनों एक शब्द बनायाः अनुभव का भाषाकरण (टेक्स्चुलाईजे़शन आॅफ़ एक्सपीरियंस) मैं तब तक ईवान इलीच के बारे में नहीं जानता था। उन्हें मैंने बाद में पढ़ा पर मैंने दो तरह के होने के ढंगों को समझना शुरू कियाः एक में भाषाकृत अनुभव था दूसरे में प्रामाणिक अनुभव। इसलिए मैंने पूरी तरह पढ़ना बन्द कर दिया था इसलिए मेरी संज्ञानात्मक व्यवस्था पुनर्संयोजित होने लगी। पढ़ने वाले की चिन्तन प्रक्रिया यह होती हैः वह ‘पढ़ता है, फिर सोचता है, पढ़ता है फिर सोचता है।’ एकाध्ा बार दुनिया में आता है और फिर पढ़ता है और तब सोचता है। वह एकाध्ा बार संसार में आता है और फिर से वह वही शुरू कर देता हैः पढ़ता है और सोचता है। यह सारी व्यवस्था ज्ञान का विश्लेषण करने का प्रयत्न है। ज्ञान को याद करना है। इन लोगों की संज्ञानात्मक व्यवस्था इस पद्धति पर निर्भर है। जबकि अपढ़ व्यक्ति की संज्ञानात्मक व्यवस्था के गुण ये हैंः वह अज्ञान के क्षेत्र में रहता है, उसे अपनी इन्द्रियों का उपयोग करना होता है, उसे अपने चारों ओर के संसार का ध्यान से पर्यवेक्षण करना होता है। जिज्ञासा मानवी आविष्कार नहीं है, वह जीवन मात्र में बुनी होती है। हर जीवित प्राणी जिज्ञासु होता है। अपढ़ व्यक्तियों की संज्ञानात्मक पद्धति इन्द्रियों, पर्यवेक्षण पर निर्भर होती है। वे समझने का प्रयास नहीं करते, समझ को अपने आप होने देते हैं। आध्ाुनिकता के लिए मेरा कहना है कि तर्कणा (रीज़निंग) समझने की इस स्वभाविक प्रक्रिया को होने नहीं देती। इसकी सारी तथाकथित समझ तर्कणा (रीज़निंग) के द्वारा उत्पन्न हुई है। यह सब भाषा के संसार में ही होता है। इसलिए वास्तविक समझ विकसित हो ही नहीं पाती। जबकि एक आदिवासी-ग्रामीण व्यक्ति के लिए समझ अनुभव के संसार में बिना किसी प्रयास के सहज ही विकसित होती है। एक प्रत्यय है जो संज्ञान-वैज्ञानिकों (कोग्नीटिव साईंटिस्टों) ने बनाया हैः स्व-संयोजित व्यवस्था। वे यह भूल जाते हैं कि मनुष्यों की भी स्व-संयोजित व्यवस्थाएँ होती हैं और ज्ञान भी स्व-संयोजित होता है। अगर आप उसे बनाने तर्कणा का बल प्रयोग न करें। इस बेहद मूलभूत विचार पर संज्ञान वैज्ञानिक काम नहीं कर रहे हैं। अन्ततः मैं यह जान गया हूँ कि संज्ञान-विज्ञान (कोग्नीटिव साईंस) मिथक है। आध्ाुनिकता में सभी कुछ पश्चात-विचार है। सबसे पहली बात तो यह है कि आप ग़लत क्षेत्र से शुरुआत करते हैं। उन्होंने एक शब्द खोज निकाला है रूपंकरण (एम्बोडिमेंट), इसकी ज़रूरत ही क्या थी? यह सोचा ही कैसे जा सकता है कि कभी रूप या शरीर नहीं था। यह सवाल कोई नहीं पूछता। आध्ाुनिकता की विडम्बना यह है कि वह ग़लत क्षेत्र में है और सोचती है कि सभी ग़लत क्षेत्र में हैं। अभी तक शरीर या रूप नहीं था और अचानक वे कह रहे हैं कि रूपंकरण (एम्बोडिमेंट) महत्वपूर्ण है।
उदयन- वे अपने दोषों को सार्वभौमिक दोष की तरह प्रस्तुत करते हैं।
जिनन- बिल्कुल। कुछ ऐसा जान पड़ता है मानो सारा कुछ पश्चिमी आध्ाुनिक लोग ही खोज रहे हैं और वे सभी को सिखा रहे हैं। ग़ैर-पश्चिमी शिक्षितों की मुश्किल यह है कि वे इस सब को स्वीकार कर लेते हैं। वे सोचते हैं कि सभी कुछ पश्चिम के लोग ही खोज रहे हैं। एक दूसरा शब्द है- आलोचनात्मक विचार (क्रिटिकल थिंकिंग)। मुझे यह शब्द अजीब जान पड़ता है। आजकल इसका बोलबाला है। मैं पूछता हूँ आप किस के प्रति आलोचनात्मक होना चाहते हैं। आपकी आलोचना की प्रामाणिकता क्या है? मान लीजिए आपने दस कि़ताबें पढ़ रखी है तो आपकी आलोचना की वही कि़ताबें होंगी क्योंकि आपके पास कोई सीध्ाा अनुभव तो है नहीं जिसके कारण आप आलोचनात्मक हो सकें? हम इन बातों को चुनौती नहीं देते। दे भी दें तो उसे सुनता कौन है?
उदयन- आपने कहा है कि हमें अपनी इन्द्रियों को खुला रखना चाहिए। माना कि हमने आध्ाुनिकता में अपनी इन्द्रियों को हानि पहुँचायी है। आपका इससे क्या आशय है?
जिनन- हमारी इन्द्रियाँ ही हमें सूचनाएँ देती हैं। सभी जीवित प्राणी एक या अध्ािक इन्द्रियों का उपयोग करते हैं। यह सिर्फ़ आध्ाुनिक मनुष्य ही है जिसने इन्द्रियों से सूचनाएँ लेना बन्द कर दिया है। मैं कई वर्षों से स्नात्कोत्तर छात्रों की कार्यशाला लेता रहता हूँ। मैं दो सवाल उनसे अक्सर पूछता हूँ जिन्हें आप नवमीं कक्षा के छात्र से लेकर किसी भी शिक्षित व्यक्ति से पूछ सकते हैंः पहला आकाश का क्या रंग हैं? इसके जवाब में 99 प्रतिशत लोग कहेंगे, नीला, कुछ चतुर सुजान कहेंगे, सफ़ेद या ऐसा ही कुछ। दूसरा, पत्ते का रंग क्या होता है? मुझे इसका जवाब अमूमन मिलता है, हरा। अध्ािकतर यही जवाब मिलते हैं। मैंने यही नवमीं कक्षा के पहले के छात्रों से पूछा, तो उस छोटे से छात्र ने पलट कर जवाब दिया कि आप दिन के किस समय की बात कर रहे हैं। इस पूरे तन्त्र में हम शिक्षक हैं और छोटा लड़का छात्र तब भी वह एक सामान्य पर महत्वपूर्ण सवाल पूछता है। सच्चाई यह है कि हमें सवाल पूछना आता ही नहीं। इस पूरे प्रकरण से यह दिखता है कि शिक्षक की इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो चुकी हैं।
उदयन- आपने यह कमाल की बात कही है। हममें अध्ािकतर इन्द्रियों के होते हुए भी उनका उपयोग नहीं करते। हमने इन्द्रियों को ‘बायपास’ कर लिया है, हम उन्हें दरकिनार कर जीवन बिताने लगे हैं।
जिनन- दरअसल उपस्थिति का उपस्थिति की तरह अर्थ एक ऐन्द्रिक अनुभव है। यह भी है कि ध्यान लगाना या आध्यात्मिक क्रिया करना आदि सभी इन्द्रियों को जाग्रत करने के उपाय है। बिना इन्द्रियों के अनुभव कहाँ, जीवन कहाँ और ज्ञान कहाँ? हमने दरअसल ज्ञान का मिथक रच रखा है। आजकल आध्ाुनिक विमर्श एक दावा कर रहा हैः ज्ञान का लोकतन्त्रीकरण। मैं समझता हूँ कि केवल और केवल ग़ैर-साक्षरों’ के संसार में ही ज्ञान का लोकतन्त्रीकरण होता है क्योंकि आप जैसे ही कहते हैं कि आपको ज्ञान प्राप्त करने पढ़ना पड़ेगा, आप तुरन्त ज्ञान को प्राप्त करने का मार्ग अवरुद्ध कर देते हैं। ज्ञान संसार का होता है और इन्द्रियाँ उसे बिना किसी चुनाव के ही ग्रहण करती रहती हैं। इसलिए ग़ैर-साक्षरों के लिए इन्द्रियाँ ही ज्ञान को सभी को उपलब्ध्ा करा देती है। इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं होता क्योंकि इन्द्रियाँ अपने आप क्रियाशील रहती हैं। आप इन्द्रियों को अवरुद्ध अवश्य कर सकते हैं या उन्हें मार सकते हैं। पर एक बच्चे के लिए इन्द्रियाँ सहज रूप से अनायास ही सक्रिय रहती हैं। यही प्रकृति का ध्ार्म है।
उदयन- आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, बच्चे की इन्द्रियों को अलग से क्रियाशील करना नहीं पड़ता। वे अपने आप ही वैसी रहती हैं, खुली और ग्रहणशील!
जिनन- मैं समझ नहीं पाता कि कोई भी शिक्षा ज्ञान के इस मौलिक हेतु इन्द्रियों के बिना कैसे दी जा सकती है। मैंने जड़ों से जुड़े रहने की ध्ाारणा पर विचार करना भी शुरू किया। यहाँ भी मुझे यही समझ में आया कि बिना इन्द्रियों के जड़ों से जुड़े रहना सम्भव नहीं। पेड़ की जड़ों से अलग मनुष्य अपनी जड़ें साथ लेकर चलता है। इन्द्रियाँ ही मनुष्य की जड़ें हैं। आप जहाँ भी हो, अगर आपमें पर्यवेक्षण की क्षमता है तो आपकी जड़ें उत्पन्न हो जाती हैं। कई लोग सोचते हैं कि जड़ों से जुड़ने के लिए आपको अपने अतीत या बचपन में देखना चाहिए। यह ग़लत है। जड़ों से जुड़ना एक निरन्तर क्रिया हैं, अगर आपकी इन्द्रियाँ सक्रिय हैं। जड़ों से जुड़ना कोई अतीत व्यामोह नहीं है। यहाँ बचपन को याद करने जैसा कुछ नहीं।
उदयन- इसका आशय यह हुआ कि मनुष्य जहाँ भी है, अगर उसकी इन्द्रियाँ खुली हैं और ग्रहणशील वह तुरन्त अपनी जड़ें जमा लेगा। उसे बचपन में इसलिए जाने की आवश्यकता नहीं है।
आपने अभी तक जो कहा है, उससे वह संज्ञानात्मक-क्षति (कोग्निटिव डेमेज) किसी हद तक पता चल जाती है जिसका आपने अन्यत्र जि़क्र किया है। आपने अभी कहा कि जब आपने पढ़ना बन्द
’ मैंने ‘निरक्षर’ का उपयोग बन्द कर दिया है। उसमें कोई कमी नज़र आती है। इसके स्थान पर मैं ‘ग़ैर-साक्षर’ का उपयोग करता हूँ।
कर दिया, आपका दिमाग दोबारा संयोजित हुआ। आपके संज्ञानात्मक-क्रियाकलाप पुनर्संयोजित हुए, आप यह कह कर क्या कह रहे हैं।
जिनन- अपने नागालैण्ड के प्रवास के बाद ही मैं बच्चों का व्यवस्थित रूप से अध्ययन करता रहा हूँ। जाने क्यों मेरा अनुभव तन्त्र अध्ािकतर उन चीज़ों का तिरस्कार करता रहा है जिसकी चर्चा पश्चिमी चिन्तक चलाये रखते हैं। मैं यह मानता रहा हूँ कि आपको ध्यान से देखना (पर्यवेक्षण) करते रहकर समझते रहना पड़ेगा। मैंने अपने इस अध्ययन के चलते पुणे में तीन वर्षों के लिए स्कूल भी चलाया था। वह स्कूल पुणे शहर के बाहर था। हम बच्चों को मुक्त छोड़ देते थे। वहाँ के बच्चों का मानस ग्रामीण था। बच्चे स्वतन्त्र रहकर कई अद्भुत चीज़ें अपने आप करते रहते थे। और हमने उन बच्चों के क्रिया-कलापों का अभिलेखन भी किया। मैं वहाँ शिक्षकों से यह पूछता था कि बच्चे आपकी नक़ल करेंगे, पर क्या आप इसके लायक हैं कि वे आपकी नकल कर सकें। उनसे दूसरा सवाल मैं यह पूछता था कि क्या आप भी सीखने को तैयार हैं? अगर आप खुद सीखने के इच्छुक नहीं हैं तो आप बच्चों का समय बर्बाद कर रहे हैं। बच्चों में पैदाइशी सीखने की प्रवृत्ति होती है। दिक्कत यह है कि शिक्षक बच्चे को शिक्षा देना सीखाता है। बच्चे अनुभव मात्र को सीखते हैं। जब बच्चा शिक्षक को शिक्षा देते देखता है तो वह पढ़ाना सीख जाता है। यह एक महत्वपूर्ण संज्ञान नियम (कोग्निटिव रूल) है जिसे आध्ाुनिक शिक्षा ने भुला दिया है। अगर बच्चे का सामना एक सीखने वाले व्यक्ति से होगा, वह भी सीखने लगेगा। बच्चे की नैसर्गिक प्रवृत्ति सीखने की होती है। उसे सिखाना नहीं पड़ता। परेशानी यह है कि उनका सामना सिखाने वालों (शिक्षकों) से होता है, सीखने वालों से नहीं। वे ज्ञान हासिल करने की स्थिति होते है, वे ज्ञात के क्षेत्र नहीं होते। इस तरह देखें तो उनके साथ दो दुर्घटनाएँ घटती हैं, पहली यह कि उन्हें बना बनाया ज्ञान मिल जाता है और दूसरा सिखाने वाला (शिक्षक) जो शिक्षा दे रहा है, वह ज्ञान का सर्जक नहीं है। इस जगह मैं कहूँगा कि शिक्षाशास्त्रियों ने एक मूलभूत संज्ञान नियम (कोग्निटिव रूल) भुला दिया है।
मैं एक और प्रत्यय का इस्तेमाल करता हूँः संज्ञानात्मक-बेसुरापन (कोग्निटिव डिसोनेन्स)। जब शरीर और दिमाग़ दो अलग चीज़ें सीख रहे हो तो वहाँ संज्ञानात्मक-बेसुरापन होता है। आध्ाुनिक शिक्षा आपके शरीर और दिमाग को विभाजित कर देती है क्योंकि शिक्षा केवल दिमाग़ की होती है, शरीर उसमें भागीदार नहीं हो पाता। मान लीजिए कोई आपको तैरना या योग सिखा रहा है। यह सिखाना सबसे पहले अमूमन भाषा के माध्यम से ही होगा। दिमाग़ भाषा को ग्रहण करेगा और शरीर को कहेगा कि तुम ऐसा करो, वैसा करो। लेकिन जब आप देखते और सीखते हैं तब यहाँ भाषा की मध्यस्थता नहीं होती और वह विभाजन नहीं हो पाता।
उदयन- यानी भाषा की मध्यस्थता के साथ ही शरीर और दिमाग़ में विभाजन हो जाता है।
जिनन- इन दो प्रकार के सीखने में दिमाग दो तरह से बनते हैं। आदिवासी-ग्रामीण इलाकों में दिमाग़ अनुभव के सहारे बनता है। जबकि आध्ाुनिकता में पहले भाषा आती है और दिमाग़ अपनी ही कहानी बनाने लगता है। परम्परा में भाषा अनुभव से विकसित होती है। आप बेंगलुरू झुग्गियों की मिसाल ले लें। वहाँ बच्चे चार साल के होने तक चार-चार भाषाएँ सीख जाते हैं। उन्हें कोई शिक्षा नहीं मिलती। वे झुग्गियों में रहने वाले ग़ैर-साक्षरों के बच्चे होते हैं और शिक्षा उनके जीवन में होती नहीं है। लेकिन वहाँ के वयस्क भाषाएँ बोलते हैं पर किन्हीं सन्दर्भों में। मान लीजिए कोई वयस्क कहता है कि कुर्सी को मेज़ के पास लाकर रख दो। बच्चा देखता है कि कुर्सी को मेज़ के पास रखा जा रहा है। या कोई कहता है कि पानी का गिलास ला दो। बच्चा देखता है कि पानी का गिलास लाया जा रहा है। इस स्थिति में वयस्क आवाज़ उत्पन्न कर रहा है और बच्चा अर्थ बना रहा है। जबकि आध्ाुनिकता में अर्थ ही दे दिया जाता है। यहाँ भाषा अपने अर्थों के साथ सिखायी जाती है और इस तरह उसमें बच्चे की भागीदारी को रोक दिया जाता है।
उदयन- यहाँ बच्चा रोबोट में तब्दील होने लगता है।
जिनन- बिल्कुल। आध्ाुनिकता में भाषा आध्ाारित संज्ञान-व्यवस्था होती है। इसमें बना बनाया ज्ञान होता है जो भाषाकृत होता है। ऐसी मानसी व्यवस्था में केवल तर्कणा और सोचना ही क्रियाशील होते हैं। अगर आप तर्कणा के युग (एज आॅफ़ रीज़न) को ध्यान से देंखे, आप पाएँगे इसकी स्थापना मुद्रणालय (प्रेस) की स्थापना के दो-तीन सौ वर्षों बाद हुई है। मुद्रण प्रेस ने मुद्रित शब्द को समूचे यूरोप में फैलाया। जब एक हद तक वहाँ के लोग पढ़ने लगे, उस संस्कृति में सोचने की व्यवस्था स्थापित हुई क्योंकि पढ़ने से सोचने और तर्क करने की प्रक्रियाओं को प्रेरणा मिलती है। जबकि आदिवासी ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में ऐन्द्रिक समझ विकसित होती है। यहाँ भाषा इसलिए है कि आप अपने समझे हुए की बात कर सकें। न कि समझ बनाने के लिए (जैसा कि आध्ाुनिकता में होता है)। यह मूलभूत फ़र्क है। मिसाल के लिए जब बच्चा पहली बार आम खाता है फिर दूसरी बार खाता है, फिर तीसरी बार। वह अपनी इन्द्रियों के सहारे इन अनुभवों की सामान्यता को ग्रहण करता है।
उदयन- यह ‘आम’ शब्द के सहारे नहीं होता।
जिनन- ऐसी स्थिति में इन्द्रियों के सहारे ही मानसिक व्यवस्था बनती है। यहाँ बच्चे को हर अनुभव की स्मृति रहती है जिसका नाम है, आम या आमची, या माँगा। इन सबमें अनुभव नहीं बदलता। इसलिए ग़ैर-साक्षर व्यक्ति की संज्ञान-व्यवस्था (कोग्निटिव-सिस्टम) अनुभव और इन्द्रियों से उपजती है, भाषा उसका एक अंश मात्र होती है और वह भी छोटा-सा अंश।
उदयन- ऐसा कोई बच्चा जब पन्द्रह साल की उम्र में कुछ पढ़ता है तब क्या उसका पठन किसी अलग तरह का होगा?
जिनन- निश्चय ही। आप कहावतों को देखिए। आध्ाुनिकता में कहावतें अर्थहीन हैं क्योंकि कहावतों की जड़ अनुभवों में होती है। मैं आपको एक दिलचस्प बात बताता हूँ। मैं डिज़ाइन और वास्तुकला महाविद्यालयों में जाता हूँ। मैंने विशेषकर डिज़ाइन के संस्थानों में एक बात देखी है कि पढ़ाई के शुरुआती पहले और दूसरे या तीसरे वर्ष तक दिल्ली, बम्बई, बैंगलुरू, जैसे महानगरों के छात्रों का बोलबाला रहता है क्योंकि उनको अच्छे से बोलना आता है। इन वर्षों में गाँव से आये लोग बहुत चुप-चाप रहते हैं क्योंकि वे बातचीत के इस खेल में कमज़ोर होते हैं। पर जब वे तीसरे या उसके बाद के वर्षों में पहुँचते हैं तो वे वह करने में जो वे कर रहे होते कहीं बेहतर होते हैं क्योंकि उनकी पृष्ठभूमि ‘करने’ की है। इसीलिए ऐसा व्यक्ति जिसकी जड़ें अनुभव में होती है, जब पढ़ता है, वह बेहतर पाठक होता है, उसकी समझ बेहतर होती है। वह अपने दिमाग में अजीब अजीब कहानियाँ नहीं बनाता। इन्द्रियों के साथ एक बात और भी है। वे प्राकृतिक होती हैं इसलिए जब आप उनका उपयोग करते हैं, आप प्रकृति से जुड़ें रहते हैं। आप जैसे ही इन्द्रियों को अपने जीने के ढंग से हटा देते हैं, आप प्रकृति से दूर चले जाते हैं। अलगाव और कुछ नहीं, इन्द्रियों से, अनुभवों से, अपने प्राकृतिक अस्तित्व से दूर जाना है।
उदयन- अपनी इन्द्रियों से दूर जाने से संज्ञान-क्षति (कोग्निटिव डेमेज) होगी ही।
जिनन- ऐसी स्थिति में समस्या यह है कि आप कुछ भी संज्ञान में ले ही नहीं रहे हैं। कोग्निशन हो ही नहीं रहा है। हमारा शरीर तीन आयामों की दुनिया को समझने के लिए बना है। जब मैं आपको कुछ काली चीज़ दिखा कर ‘काला रंग’ कहता हूँ तब ठोस संज्ञान होता है पर मैं आपको सिर्फ़ काला रंग कहता हूँ तो आप उसके अर्थ का अनुमान लगाते हो। अनुमान लगने की सामथ्र्य होनी चाहिए पर उसके पहले मूर्त संज्ञान आवश्यक है। हम मूर्त अनुभव को नकार कर सीध्ो अनुमान लगाने में लग गये हैं। कि़ताबों के उपयोग से हम काल्पनिक अर्थ के आध्ाार पर कल्पनाएँ कर रहे हैं। मैं एक बार मर्शेल मेकलुएन को सुन रहा था। उसने एक कमाल की बात कही कि ‘रीडिंग’ शब्द का मूल अर्थ है, ‘अन्दाज लगाना’। पढ़ने का अर्थ है कि आप तेज़ी से अनुमान लगा रहे हैं। हम अपने पढ़े के विषय जितने भी निश्चित रहें पर सच यह है हमने ऐसा करके अपने दिमाग में केवल कहानी गढ़ ली है। हमारे अपने अन्दाजों के विषय में ऐसी निश्चिंतता ही आध्ाुनिकता की विडम्बना है।
उदयन- हमें अपने स्कूल के बारे में कुछ और बताइए?
जिनन- वह स्कूल पहले से ही काम कर रहा था। मेरी एक मित्र ने मुझे उस स्कूल में आमन्त्रित किया। वहाँ 2011 में जाने के पहले तक मैं लोगों से यह कहता घूम रहा था कि बच्चों को स्कूल मत भेजो- वे ख़तरनाक होते हैं। मैं आज भी यही कहता हूँ। हमने अपनी सबसे क्षति स्कूल बना कर की है। सीखने का स्थान स्कूल है, यह विचार ही सीखने की अस्तित्वगत प्रवृत्ति को नष्ट कर देता है। सीखने की प्रवृत्ति अस्तित्व मात्र में है, केवल मनुष्यों में नहीं। जब आप बच्चे से कहते हो कि आप स्कूल में सीखते हो, आप उसे यह भुलवा देते हो कि जीवन ने उसे ज्ञान दिया है और यह भी वह जीवन की अपनी ज्ञान व्यवस्था एक अंश है।
उदयन- शायद इसलिए क्योंकि तब बच्चे के लिए स्कूल के अलावा सारे स्थान अज्ञान के अवकाश बन जाते हैं।
जिनन- और वह बच्चा स्वयं भी ज्ञान का सर्जक नहीं रह जाता।
उदयन- इस तरह वह जीवन के ज्ञान-नाट्य का चरित्र नहीं रह जाता।
जिनन- पर मैं उस स्कूल में गया और सारे शिक्षकों को एकत्र कर उन्हें सीखने के विषय में अपने सरोकार बताए। मैंने उन्हें यह भी बताया कि हम कभी बच्चों को ध्यान से देखते नहीं हैं। मैं उन्हें कहा कि जो एक चीज़ आपको यहाँ नहीं करना है, वह है शिक्षा देना। आप यहाँ बच्चों को शिक्षा मत दीजिए। आप यहाँ वो सब कीजिए जिसमें आपकी सचमुच रुचि है। अगर आपको खाना बनाने में सचमुच रुचि है, आप खाना बनाईए। अगर कपड़े सिलने में है, आप कपड़ा सिलिए। अगर आप कि़ताब लिखना चाहते हैं या पढ़ना चाहते हैं, आप लिखिए या पढि़ए। पर जो भी करिए, पूरी लगन से करिए। मैं चाहता हूँ कि आपकी लगन को ही बच्चा सीखे, आपकी काम की लगन को। दूसरी बात मैंने यह कही कि हमें एक समूह की तरह यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि बच्चा क्या है? बच्चे को खुला छोड़ो, उन्हें जो चाहे सो करने दो। मैंने एक और बात की। मैंने वहाँ से कचरा पेटी के विचार को हटा दिया। मैंने आदिवासी-ग्रामीण इलाक़ों में देखा है कि वहाँ कचरा जैसा कोई शब्द नहीं है। वहाँ कचरे की पेटी नहीं होती। हम आध्ाुनिक संसार में बच्चों को व्यवस्थित रूप से कचरे पैदा करने की शिक्षा दे रहे हैं, विशेषकर घरों की बैठक में कचरे का डिब्बा रखकर। मैंने उनसे कहा कि कचरे का विचार यहाँ, स्कूल में होना ही नहीं चाहिए क्योंकि कचरा प्रकृति में होता ही नहीं है। प्रकृति में कचरा कुछ नहीं होता, यह आध्ाुनिक मनुष्य की रचना है। शुरू में इससे कुछ लोगों को समस्या हुई क्योंकि वे ज़रूरत से ज़्यादा साफ़ सुथरे कि़स्म के थे। मैंने उनसे कहा कि बच्चों के मन में कचरे की ध्ाारणा नहीं होती क्योंकि उनके लिए सब कुछ काम का होता है, उपयोगी होता है। वह टूटी पत्ती हो, टूटी बोतल हो। सारी चीज़ें साबूत हों या टूटी-फूटी, उनके काम की होती हैं। उन्हें जब भी किसी चीज़ की ज़रूरत होगी, वे कुछ ढूँढकर उसका उपयोग लेंगे। मैंने कहा, कचरा पेटी मत रखो और साफ़ सफाई ज़रूरत से ज़्यादा मत करो। चीज़ें जहाँ जैसी बिखरी पड़ी है, वैसी ही रहने दो। मैंने अध्यापकों से कहा कि आप लोग बच्चों को ध्यान से देखो-सुनो और उसका अभिलेखन करो। इसके फलस्वरूप हमारे पास बच्चों पर क़रीब चार हज़ार विडियो तैयार हो गये। हमने उन्हें व्यवस्थित भी किया। हम अध्यापक शाम को बैठते और इन विडियो को देखते और यह जानने की कोशिश करते कि क्या हो रहा है। इससे हम सीखने की कोशिश करते।
उदयन- क्या आप अपने उस अनुभव से कुछ साझा करेंगे?
जिनन- पहले ही हफ़्ते हमने एक विडियो देखा कि एक बच्चा ए-4 आकार के काग़ज़ पर कुछ रेखांकन कर रहा था। फिर दूसरा बच्चा आया और वह भी उसी काग़ज़ पर रेखांकन करने लगा। इसके बाद एक और आया फिर एक और। ये चारों बच्चे एक काग़ज़ कुछ बनाने लगे। न किसी ने किसी से पूछा, न किसी ने किसी को मना किया। कुछ देर बाद जिस बच्चे ने रेखांकन करना शुरू किया था, वह उठकर चला गया। बाकी रेखांकन करते रहे। यहाँ हम सभी के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण सबक थाः बच्चे जि़म्मेदारी लेते हैं पर वे एकाध्ािकारी नहीं होते। वे एक-दूसरे के स्वातन्त्र्य का इतना सम्मान करते हैं कि उन्हें ‘ध्ान्यवाद’ आदि वे सारी बकवास बातें करने की ज़रूरत नहीं होती, जो आजकल हम कहते हैं। वे न तो शामिल होने की इजाज़त ले रहे थे, न जाने की। जबकि यह सब आध्ाुनिक परिवेश में अनिवार्य हो गया है। यह इसीलिए सबक़ था क्योंकि मनुष्यों को ऐसा ही होना चाहिए। उन्हें एक-दूसरे के इतने क़रीब होना चाहिए कि उन्हें इस तरह की औपचारिकताओं की आवश्यकता न पड़े। जब हमारी क़रीबी में सचाई होती है, ये सारे शब्द निरर्थक हो जाते हैं। ज़ाहिर है, आजकल व्यवहार में सचाई है ही नहीं, इसलिए ये सारे शब्द हैं। हम वहाँ इसी तरह बच्चों के व्यवहारों को रिकार्ड करते रहे।
उदयन- क्या आप हमें इसी तरह की कुछ और अभिलिखित घटनाएँ बता सकते हैं?
जिनन- उस स्कूल में बच्चों के साथ काम करते हुए आध्ाुनिक मूल्य-बोध्ा पर गहरे प्रश्न उठने लगे। उनमें और बच्चों के मूल्य-बोध्ा में बहुत फ़कऱ् है। जब मैं ‘बच्चे’ कहता हूँ, मेरा आशय सभी जगह के बच्चों से है। यह बात अलग है कि शहरों में हम उन्हें बहुत क्षति पहुँचाते हैं। जब मैं बच्चे कहता हूँ, मेरा आशय ‘ग़ैर-साक्षर’ भी होता है क्योंकि तब तक वे ‘प्रशिक्षित’ नहीं किये जा पाते हैं। बच्चों के यहाँ जब कोई किसी काम में दिलचस्पी लेना बन्द कर देता है, वह हट जाता है और इसकी किसी को कोई शिकायत नहीं होती। जबकि यह हमारे लिए बड़ी समस्या है। दूसरी महत्वपूर्ण बात थी, नेतृत्व का प्रश्न। हमारी एक अमरीकी दोस्त भी हमारे स्कूल का भाग थीं। शुरू में उन्हें हमारे काम करने के ढंग पर आपत्ति थी पर ध्ाीरे-ध्ाीरे वे उसे समझ गयीं और वहाँ बच्चों को मिली स्वतन्त्रता और अ-शिक्षा का वे भी आनन्द लेने लगीं। यह इसलिए था कि उनकी समझ में ‘शिक्षा’ सबसे अध्ािक महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसके बगैर ‘सीखना’ कैसे होगा? बहरहाल, एक दिन हम बैठे बच्चों के बारे में कुछ लिख रहे थे। हमारे पास हर बच्चे का विडियो रिकार्ड था, उसके आध्ाार पर हम हर बच्चे के विषय में कुछ लिख लेते थे। वे कोई विडियो देखकर पूछने लगीं, ‘इनका नेता कौन है?’ यह आध्ाुनिक व्यक्ति का प्रामाणिक प्रश्न है। आध्ाुनिक व्यक्ति नेता और अनुयायी के रूप में मनुष्यों को समझता है। यह सुनकर मैं बच्चों को इस दृष्टि से देखने लगा। मैंने पाया वहाँ इस सन्दर्भ में बिलकुल अलग व्यवस्था होती है। बच्चों की दुनिया में नेतृत्व तो होता है पर नेता कोई नहीं होता। उन बच्चों में ग़ैर-शाब्दिक सम्प्रेषण हो रहा था। वे एक दूसरे की आवश्यकता को मानो महसूस कर लेते थे। कोई बच्चा कहीं खड़ा है और दूसरे को देख रहा है। वह बिना कुछ कहे सुने पहले बच्चे की आवश्यकता के अनुरूप प्रतिक्रिया करता था।
छह बच्चे मिलकर घर बना रहे थे। वे ईट उठाकर घर बना रहे थे। कभी कभार वे एक दूसरे को निर्देश देते थे पर वहाँ नेता और अनुयायी की व्यवस्था नहीं थी। मुझे याद है कि मैं एक बार एक पश्चिम के व्यक्ति के साथ नाव पर जा रहा था। वह नाव पर नियन्त्रण कर रहा था। वह चप्पू चला रहा था और नाव में बैठे लोगों को लगातार निर्देश दे रहा था। लेकिन अगर आप किसी भी भारतीय नाविक के साथ जायें, यह सब शायद ही कभी हो। वहाँ सब लोग अपने आप संतुलन स्थापित कर लेते हैं मानो सभी मिलकर ‘एक शरीर’ बना ले रहे हों। तब जब आप नाव में सवारी कर रहे हों। अगर आप पागल या आध्ाुनिक ढंग से शिक्षित नहीं हों, तब आपको एक शरीर का अंश बनना नहीं आयेगा। सबके मिलकर एक शरीर बनाने का विचार कमाल का है। इसी तरह जब बच्चे काम करते हैं, वे सब मिलकर एक दिमाग़ बन जाते हैं। मेरे भाई का एक लड़का कभी स्कूल नहीं गया। अब 19 वर्ष में उसने फिजि़क्स पढ़ने को महाविद्यालय में दाखिला ले लिया है। एक दिन वह मुझे बता रहा था कि किस तरह बच्चों का दिमाग़ मिलकर एक हो जाता है। वह बता रहा था कि वो अपने चार दोस्तों के साथ पेड़ पर चढ़ा हुआ था और वे कल्पना कर रहे थे कि वह पेड़ समुद्र में चलती नाव है। वे एक दूसरे से कह रहे थे कि देखो वहाँ एक टापू है और वे सभी दोस्त वहीं कहीं टापू देखने लगे। कुछ इस तरह मानो वहाँ सचमुच में कोई टापू हो जिसकी ओर वे सब नाव से जा रहे हों। यह बच्चों के साथ सम्भव है। उनका दिमाग़ एक साथ काम कर सकता है और वे वह देखने लगते हैं जो आप बता रहे हैं। यह आध्ाुनिक मनीषा को समझना मुश्किल है। मुझे याद है हमारे परिवार का एक बच्चा हमारी भांजी को कह रहा था कि मैं इस तितली के साथ उड़ना चाहता हूँ। इस पर मेरे आध्ाुनिक ढंग से शिक्षित पिता कह रहे थे कि नहीं, ऐसा करने से तुम गिर पड़ोगे। यही आध्ाुनिक मनीषा करती हैः वह बच्चों के साथ रहना नहीं जानती।
उदयन- आप पुणे के बाहर स्थित उस स्कूल में तीन वर्षों तक रहे।
जिनन- हाँ। उनके लिए मुझे वहाँ रोज़-रोज़ सहते रहना कठिन हो गया था। इसलिए मैं वहाँ महीने के दस दिन बिताता था वरना उनके लिए बहुत कठिन हो जाता। उन्हें भी साँस लेने की जगह चाहिए होती थी। मैं वहाँ दस बारह दिन रहकर बीस या पच्चीस या तीस दिन के लिए वहाँ से चला जाता, क्योंकि मेरे वहाँ रहने से कामों में प्रगाढ़ता बहुत बढ़ जाती। बातचीत बहुत होती, बच्चों पर बनाये विडियो देखे जाते आदि आदि। मेरे वहाँ न रहने पर वहाँ रोज़मर्रा का ढर्रा चलने लगता और वहाँ के लोगों को कुछ राहत जैसी मिल जाती। इस तरह मैं वहाँ तीन सालों तक रहा। हमने इस तरह वहाँ व्यवस्थित रूप से बच्चों की संज्ञान-व्यवस्था (कोग्निटिव सिस्टम) का अध्ययन किया। बच्चे वास्तविक दुनिया को समझने में सामथ्र्य होते हैं, उसका ज्ञान उत्पन्न करने में भी।
उदयन- आपने बच्चों के अपने अध्ययन के दौरान यह प्रक्रिया कैसे बूझी थी?
जिनन- किसी भी वस्तु का एक आकार होता है, उसका कोई प्रकार्य होता है, वह किसी सामग्री का बना होता है, उसके बनने की कोई प्रक्रिया होगी और उसमें संरचनात्मक स्थायित्व होता है। किसी भी चीज़ के ये पाँच आयाम होते हैं। आकार, सामग्री, प्रकार्य, प्रक्रिया और संरचनात्मक स्थायित्व। मैं यह कह सकता हूँ कि यही संसार है। अपनी हर गतिविध्ाि में बच्चे उसे ही अन्वेषित करने का प्रयास करते हैं। न तो खेल जैसा कुछ है, न खिलौने जैसा कुछ। बच्चे अपने खिलंदड़ेपन में संसार की पुनर्रचना करने का प्रयास करते हैं। वे खेलने के लिए खिलौने नहीं बनाते, वे संसार की पुनर्रचना कर रहे होते हैं जिससे वे उसे समझ सकें। आपने बचपन में कि़ताब को खोलकर उसे उलटा रखकर ‘घर’ बनाया होगा। हर बार घर को बच्चे ऐसे ही क्यों बनाते है? मैंने बहुतों से पूछा है, वे सभी यही कहते हैं कि उन्होंने भी बचपन में ऐसा किया था। यह आकार या रूप का अध्ययन है। बच्चे कई बार मेज़ पर चादर डालकर कहते हैं कि यह घर हैः यह घर का प्रकार्य है। वे तकियों, कुर्सियों आदि जो भी मिल जाये को रखकर भी घर बनाते हैंः वह घर बनने की प्रक्रिया है। इन तीनों आयामों का समझकर बाकी दो आयाम वे खुद समझ जाते हैं। जब बच्चे मेज़ पर कपड़ा डालकर घर बनाते हैं, वे सामग्री का भी अध्ययन कर लेते हैं क्योंकि वे समझ जाते हैं कि कपड़े की क्या सीमा है, किसी भी सामग्री की सामथ्र्य क्या है? आदि। और एक बार वे घर बना लेते हैं तो वे यह भी समझ लेते हैं कि यह संरचना किस तरह बनी रहेगी। बच्चा संरचना के स्थायित्व को इस तरह समझ जाता है। अपनी तमाम गतिविध्ाियों में बच्चा ठीक यही कर रहा होता है। बच्चा हर अनुभव से दोबारा गुज़रता है, हर अनुभव की पुनर्रचना करता है और इसी मार्ग से उसकी समझ बन रही होती है। बच्चा एक ख़ास समय पर माँ होने का खेल खेलता है। जब आप बच्चे को बनी बनायी गुडि़या देते हैं, आप उसमें प्रकृति प्रदत्त विकास की प्रक्रिया को नष्ट कर देते हैं। बच्चा माँ होने का अभिनय तब करता है जब वह मातृत्व का खुद अनुभव करता है। तीन साल की उम्र से पाँच छह साल तक बच्चा माँ होने का खेल खेलता है। बच्चा कुछ भी उठा लेगा और कहेगा कि यह मेरी बेटी है या बेटा है, उसे दूध्ा पिलायेगा, सुलाएगा आदि। वह वही सब करेगा जो ऐसे समय होता है पर यहाँ वह यह सब अपनी कल्पना से करेगा। वह ऐसी कोई भी चीज़ उठा लेगा जो थोड़ा बहुत बच्चे की तरह लगता हो और कहेगा कि यह मेरा बच्चा है। फिर उससे यह खेल छूट जायेगा और वह दूसरे खेल में प्रवेश करेगा। बच्चा जिस भी गतिविध्ाि में संलग्न होता है, वह उसके अनुभव पर आध्ाारित होती है। वह अपने खेल के बच्चे को दूध्ा तब पिलायेगा जब उसे पिलाया जाता था। सम्भवतः उसके इस खेल के छह महीने पहले ही उसका माँ का दूध्ा पीना छूटा हो। खिलौने आदि सभी कुछ बच्चों की संज्ञान व्यवस्था (कोग्निटिव सिस्टम) को क्षति पहुँचाते हैं। दरअसल संज्ञान व्यवस्था सारी आध्ाुनिकता से ही क्षतिग्रस्त होती है। यह सिर्फ़ स्कूल में पढ़ने-लिखने भर से ही क्षतिग्रस्त नहीं होती, टेलिविजन, खिलौनों आदि सभी कुछ बच्चों के बल्कि संज्ञान व्यवस्था के विरुद्ध है।
उदयन- आप क्या यह कह रहे हैं कि आध्ाुनिकता में यह विचार है कि बच्चे को उसके यथार्थ का अपना संज्ञान खुद विकसित ही न करने दो। इसकी जगह उसे यथार्थ का बना बनाया या तैयारशुदा संज्ञान दे दो जिससे वह उपलब्ध्ा संज्ञान की कारा में रहा आये। इसी कारा में बरसों पहले आपने ख़ुद को सैनिक स्कूल में पाया था।
जिनन- मैं नहीं सोचता कि यह व्यवस्था कम से कम शुरुआत में जान-बूझकर बनायी गयी थी। सुध्ाार बिगाड़ बाद में हुए। पर जब वे स्कूल बना रहे थे, वे सोचते थे कि यह अच्छा रहेगा। मुझे याद है कि कई समयों में लिखित (मुद्रित भी) शब्द के विरुद्ध चेतावनी दी जाती रही हैं। प्लेटो, अरस्तू से लेकर भारत में भी अनेक आध्यात्मिक परम्पराओं में यह चेतावनी दी जाती थी और है। यह कहा जाता रहा है कि इस तकनीक के प्रति सावध्ाान रहने की ज़रूरत है वरना ये आपको नष्ट कर सकती है। लेकिन लोगों को यह क्षति समझ में नहीं आयी है कि इसने हममें किस तरह का अलगाव उत्पन्न किया है। पर यह अच्छा समय है क्योंकि डिजिटल दुनिया नये निरक्षर पैदा कर रही है। इसके आलोक में ‘साक्षर निरक्षर’ यह समझ पाएँगे कि किस तरह साक्षरता ने मौलिक ‘साक्षर निरक्षर’ पैदा किये थे। इन सब से यह पुनर्परिभाषित हो रहा है कि ज्ञान किस तरह उत्पन्न होता है। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि लिखित शब्द के आने के बाद ज्ञान वह हो गया जिसे लिखा जा सके, जो लिखा नहीं जा सकता था, उसे ज्ञान की श्रेणी से हटा दिया गया। इसके फलस्वरूप संवेदनाएँ चली गयीं, मानवीय मूल्य भी, सौन्दर्य चला गया। आपका लिखना और पढ़ना ही सब कुछ हो गया। आज के सन्दर्भ में देखें तो यह कहना होगा कि जिस भी चीज़ को डिजिटल माध्यम में ढाला जा सके, वही ज्ञान है।
उदयन- इस तरह लोगों की तीन कोटियाँ बन गयी हैं, विशुद्ध निरक्षर, साक्षर पर डिजिटल दृष्टि से निरक्षर और डिजिटल दृष्टि से साक्षर (या कुशल)।
जिनन- मैं होने के तीन प्रकार को मानता हूँ। पहला वह जिसमें व्यक्ति की इन्द्रियाँ सक्रिय होती है, जिसकी जड़ें जैविकी में होती है, वह इस तरह जीता है मानो उसके भीतर प्रकृति जी रही हो। दूसरे प्रकार में वे लोग हैं जो छपे हुए शब्द के सहारे जीते हैं और अन्तिम प्रकार में वे लोग हैं जो डिजिटल संसार के सहारे जीते हैं। अब मैं कुछ विवादास्पद कहना चाहता हूँ। मैं उस बारे में बहुत निश्चित नहीं हूँ पर मैं उस विचार पर कुछ और अध्ािक ठहरना चाहता हूँ। मुझे यह लगता है कि संसार का नया ‘स्त्रैणकरण’ ‘डिजिटल आयोजन (इन्टरफ़ेस)’ के कारण हुआ है।
उदयन- आपका इससे क्या आशय है?
जिनन- मैं यह कह रहा हूँ कि ग्रामीण आदिवासी इलाकों में सच्चा ‘अधर््ानारीश्वर’ गुण मिलता है। हममें ‘स्त्री’ और ‘पुरूष’ दोनों ही तत्त्व सक्रिय रहते हैं। छपे हुए शब्द के आने के साथ ही पुरुष तत्व हावी हो गया क्योंकि इसमें तार्किकता ही सर्वोपरि हो जाती है इसलिए शरीर, इन्द्रियों और स्वतःस्फूर्तता का तिरस्कार होता है। इसके कारण मनुष्य के नारी तत्व का तिरस्कार हो जाता है। मनुष्य के स्त्री तत्त्व का लोप हो जाता है क्योंकि आपकी इन्द्रियों को निष्क्रिय कर दिया जाता है। डिजिटल व्यवस्था आने के बाद हम अपनी इन्द्रियों का बहुत विकृत ढंग से उपयोग करते हैं और केवल दो इन्द्रियों का इस्तेमाल करते हैंः दृश्य और श्रव्य इन्द्रियों का। यह उपयोग भी बेहद कटे-फटे, टूटे-फूटे ढंग से होता है। इसके कारण मनुष्यों में एक नयी तरह का स्त्रीत्व तैयार हो रहा है। मैं यह भी सोचता हूँ कि आज जिस तरह की यौनिकता प्रकट हो रही है, वह भी इसी का परिणाम लगती है।
उदयन- अगर मैं आपकी बात पर विचार करूँ तो कह सकता हूँ कि इस छद्म स्त्रीत्व के हावी होने के कारण मनुष्य के शौर्य को व्यक्त होने का कोई स्थान नहीं मिल पाता और वह असमय ही फट पड़ता है, एक और फि़दाईन के रूप में दूसरी ओर बलात्कारी की तरह। ये दोनों ही हर स्त्री-पुरुष में उपस्थित शौर्य के विकृत प्रस्फुटन लगते हैं। हम जैसे-जैसे डिजिटल व्यवस्था से घिरते जा रहे हैं, यौन-हिंसा बढ़ रही है और आतंकवाद बढ़ता ही चला जा रहा है।
जिनन- मेरा यह मानना भी है कि डिजिटल परिवेश के बढ़ने से पुरुषों और स्त्रियों में समलैगिंकता भी बढ़ती जा रही है। वे पहले भी समलैगिंग होते थे पर अब मनावैज्ञानिक रूप से भी वे अध्ािक से अध्ािक समलैंगिग होते जा रहे हैं। आज, संज्ञान (कोग्निशन) का वातावरण ही ऐसा है। मेरा कहना है कि सब कुछ संज्ञान से ही सम्भव होता है, कोग्निशन से। आपका जो संज्ञान होता है, आप वही होते हो। आप अपने संज्ञान से ही निर्मित होते हैं। आपकी मूल्य-व्यवस्था, आपकी प्रवृत्ति, सब कुछ संज्ञान से निर्मित होते हैं क्योंकि हम जो भीतर लेते हैं वही हममें रूप लेता है।
उदयन- हम पूरे समय कुछ न कुछ इन्द्रियों से ग्रहण करते ही रहते हैं।
आपका मैंने कमाल का एक वाक्य सुना है जिसका मुझ पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा हैः बच्चा सत्य, नैतिकता, स्वतन्त्रता और विश्वास में जन्म लेता है। इसमें मुझे यह समझ में आता है कि बच्चा स्वतन्त्रता में जन्म लेता है पर उसका नैतिकता में जन्म लेना क्या है? (नैतिकता को अंग्रेज़ी के एथिक का समतुल्य मानकर यह कहा जा रहा है। उसे ध्ार्म भी कह सकते हैं।) आपके एक यूरोपीय मित्र ने इस वक्तव्य पर बढ़त करते हुए कहा था कि बच्चे का ऐसा होना ही उसका प्रकृतिमय होना है। इसका यह आशय हुआ कि नैतिकता (ध्ार्म) आप जीवन जीते हुए नहीं सीखते आप उसके साथ पैदा होते हैं।
जिनन- बिल्कुल यही है। जीवन की आकांक्षा जीवन को बनाये रखना है। दरअसल जीवन मात्र में ये सब चीज़ें उपस्थित होती हैं। सारे जीव-जन्तु नैतिक होते हैं, केवल मनुष्य ही नहीं। मैंने बहुत शोध्ा करके यह पाया है कि प्रकृति में एक ‘मातृ-तत्व’ (मदर-प्रिंसपल) होता है। इसका अर्थ यह है कि बच्चा कभी भी किसी भी माँ से नहीं अकुलाता। मेरे पास बाघ का एक दिलचस्प विडियो है जहाँ उसने एक लंगूर का शिकार किया है। वह उस मरे हुए लंगूर को पेड़ पर खाने के लिए ले जाता है। जब वह बाघ पेड़ कर चढ़ रहा था, उसने मरे हुए लंगूर से कुछ नीचे गिरते हुए देखा। जब बाघ ने उस ओर देखा तो पाया, वह लंगूर का छोटा-सा बच्चा है। वह लंगूर से चिपका हुआ था जब उसे बाध्ा ने मारा था। बच्चे को देखते ही बाघ लंगूर को छोड़कर पेड़ के नीचे गया और लंगूर के बच्चे के साथ हो गया। वह भूख भूल गया, क्रोध्ा भी। फिर अगले तीन घण्टों तक उसने लंगूर के बच्चे के साथ दिलचस्प समय बिताया। इसके बाद से मैं इस तरह की विडियो फि़ल्मों में खोज में लग गया। ऐसी बहुत-सी विडियो फि़ल्में हैं।
एक और विडियो है जिसमें हिरण को शेरनी बचाती है। यह सच है कि शेर उसे मारने की फि़राक़ में है पर शेरनी उसे मारने नहीं दे रही। इस तरह की कई घटनाएँ प्रकृति में होती रहती हैं जिनसे यह समझ में आता है कि प्रकृति में ऐसी कोई शक्ति है, ऐसा कोई मौलिक तत्व है जो हर बच्चे को, हर जीव-शिशु को बचाना चाहता है। उसका पोषण करना चाहता है। यह मनुष्य की खोज नहीं, यह प्रकृति में ही निहित है। जीवन हमेशा ही अपने को बचाना चाहता है, उसका पालन-पोषण करना चाहता है। आध्ाुनिक पालन-पोषण का माॅडल (सस्टेनेन्स माॅडल) बकवास है। लालन-पालन हमारा निर्णय नहीं, जीवन मात्र का गुण है। चूँकि जीवन अपना लालन-पालन करना चाहता है, वह हमें तीन चीज़ें देता हैंः पहली है नैतिक व्यवस्था इसके चलते आप ही भक्ष्य है, आप ही भक्षी। आप दोनों ही बन जाते हैं। हर जीव यही है भक्ष्य भी, भक्षी भी। इस तरह एक अद्भुत सन्तुलन उत्पन्न होता है। आप पाएँगे कि एक खाया-पिया शेर (जिसका पेट भरा है) लेटा रहेगा और उसके आसपास हर तरह के जानवर खाते-पीते रहेंगे। वह केवल तब परभक्षी होगा जब वह भूखा रहेगा। वरना नहीं। कल ही मुझे किसी ने एक विलक्षण विडियो भेजा है। वह अफ्रीका का है। अपने जाल में बैठी मकड़ी शिकार का इन्तज़ार कर रही है। एक छोटा-सा मेंढक जाल में कूद कर फँस जाता है। वह जाल से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है पर वह उसमें उलझ गया है। तभी ध्ाीरे-ध्ाीरे मकड़ी आती है और मेढ़क को चखती है। शायद उसे उसका स्वाद पसन्द नहीं आता। वह पीछे हटती है और अपने जाल के वे सारे रेशे काट देती है जिनसे वह छोटा मेंढक फँसा था। वह मेंढ़क को भाग जाने देती है। अगर वह उसे खा नहीं सकती, वह उसे क्यों फँसा कर रखे। मैं जानता हूँ कि कई लोग इसे रूमानी समझेंगे पर मैं समझता हूँ कि जीवन का एक ही उद्देश्य है कि वह अपना लालन-पालन करना चाहता है। वह इसके लिए हर सम्भव प्रयास करता है।
उदयन- इसे ही आप ‘मातृ-तत्त्व’ ‘मातृ-सिद्धान्त’ कहते हैं। यह पहला तत्त्व हो गया। बाकी दो क्या हैं?
जिनन- मैंने अभी जो कहा वह जीवन का नैतिक आयाम है। मैं यह भी समझता हूँ कि जीवन तीन प्रश्नों ‘क्यों’ ‘क्या’ और ‘कैसे’ पर घट रहा है। ‘क्यों’ नैतिक आयाम है। ‘क्या’ संज्ञान (कोग्निटिव) तत्त्व है और ‘कैसे’ सौन्दर्य आयाम या तत्त्व है। ये तीनों ही हर गतिविध्ाि में परिलक्षित होते हैं। दरअसल मुझे सौन्दर्य में गहरी दिलचस्पी है। ये तीन तत्व, ‘क्या’ ‘क्यों’ और ‘कैसे’ प्रकृति में अन्तर्निहित हैं। मैं यह भी कहता हूँ कि हमें ये तीन तरह के ध्यान (अटेन्शंस) दिये गये हैं। सामान्य आदमी में तीनों ध्यान सक्रिय रहते हैं। लेकिन जब आपमें किसी एक तरह का ध्यान किंचित अध्ािक तीव्र होता है तब आप में एक विशिष्ट रूझान उत्पन्न होता है। अगर आप एक अच्छे कवि या अच्छे लेखक हैं, आपमें ‘क्या’ का ध्यान अध्ािक तीव्र होगा। उसकी दिलचस्पी ‘क्यों’ और ‘कैसे’ में कम होगी। सुन्दर चीज़ को देख-सुन कर आप उसका आनन्द लेते हैं। बहुत सारे प्रश्न नहीं पूछते पर जैसे ही आप ‘कैसे’ के प्रश्न पर आते हैं आप टेक्नोलाॅजी बनाने पर आ रहे होते हैं। पर अगर आप ‘क्यों’ पर आते हैं, वह शुरू में अदृश्य रहा आता है पर ध्ाीरे-ध्ाीरे वह अपने को प्रकट करने लगता है। ये तीनों ध्यान हैं। किसी कारण किसी में कोई अध्ािक होता है किसी में कोई और। किसी में तीनों बराबर से रहते हैं।
उदयन- अगर किसी में कोई एक ध्यान अध्ािक है, वह उसके स्वभाव को इंगित करने लगेगा। आप यह कह रहे हैं कि सामान्य ध्ारातल पर ये तीनों ही एक साथ सक्रिय होते हैं।
जिनन- जब आप कुछ सुनते हैं, आप इस बात पर ध्यान लगाते हैं कि ‘क्या’ सुनायी दे रहा है। यह पहली बात है। अगर आप सुनी जा रही भाषा के ‘कैसे’ पर ध्यान देने लगते हैं, आप बहुत करके उसकी व्याकरण समझ जायेंगे। और जब उस पर ‘क्यों’ का ध्यान लगाएँगे, आप बोलने वाले का सामाजिक और मानसिक सन्दर्भ समझ ने की ओर बढ़ेंगे। तब आप यह सोचने लगेंगे कि यह व्यक्ति यह सब ‘क्यों’ बोल रहा है वगैरह। हो सकता है कि यह सब कहते हुए मैं कोई कहानी बुन रहा हूँ पर मेरी कई बरसों से यही भावना है।
उदयन- एक कवि की तरह मैं आपकी बात को बिल्कुल समझ रहा हूँ। कवि के लिए ‘क्या’ बहुत महत्वपूर्ण होता है और ‘कैसे’ और ‘क्यों’ बहुत बाद में आते हैं। इसलिए होता यह है कि कवि लिखता पहले है, उसे समझता कहीं बाद में है।
जिनन- हमारे समय की त्रासदी यह है कि लोग कविता समझाने की कोशिश करते हैं।
उदयन- मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ। यह मैं कई बार दे चुका हूँ। यह पुरी के जगन्नाथ के बारे में है। आप उडिसा में रह चुके हैं, इसलिए आप उनसे परिचित होंगे। उनकी आँखें बहुत बड़ी बनायी जाती हैं। मैंने वहाँ के मुख्य पण्डित से पूछा कि जगन्नाथ की आँखें इतनी बड़ी क्यों हैं? वे होशयार व्यक्ति थे, वे समझ गये और बोले कि आप मुझसे इसलिए पूछ रहे हैं क्योंकि आपके मन में इन आँखों के बारे में कोई विचार है। मैंने उनसे कहा कि यह मन्दिर है और मन्दिर में खड़े होकर अपनी व्याख्या करने में मुझे संकोच है। इस पर उन्होंने कहा कि आप कहिए। मैं बोला कि जगन्नाथ जगत को बनाने वाले हैं और उनकी आँखें इतनी बड़ी इसलिए हैं क्योंकि वे अपनी ही रचना, यानि जगत को देखकर चकित हो गये हैं। उनकी आँखें विस्मय के कारण बड़ी हो गयी है। वे आपकी दृष्टि से देखें तो कह सकते हैं कि उनकी बड़ी आँखें जगत के ‘क्या’ को देखकर चकित हो गयी हैं। जगन्नाथ की आँखें कह रही हैं कि ‘मैंने यह ‘क्या’ बना दिया है।’ लेखक या कलाकार पर सौन्दर्य का यह दबाव होता है कि वह अपने ही काम पर चकित हो जाता है।
जिनन- लेखक अक्सर अपने लिखे को पढ़कर खुद चकित हो जाता है और सोचता है कि क्या मैंने ही यह लिखा है?
उदयन- अगर आप अपने लिखे से खुद चकित नहीं होते, आप बेहतर लेखक नहीं है। ऐसी स्थिति तभी होती है जब आपको पहले से ही पता होता है कि आप क्या रचने वाले है। बहरहाल हम बच्चों और भरोसे या विश्वास की बात कर रहे थे।
जिनन- इस बारे में मैं यह कहूँगा कि छोटे बच्चे कभी झूठ नहीं बोलते। झूठ उनकी चेतना में ही नहीं होता। एक घटना बताता हूँ। बच्चे ने कुछ किया था और मैं उससे बोला कि मुझे इस बारे में सच बताओ। उस दिन उसने पहली बार जाना कि सच के अलावा भी कोई चीज़ होती है जो बोली जा सकती है। बाद में उसने फिर कुछ किया और मैं उससे बोला कि मुझे पता है कि तुम मुझसे झूठ बोल रहे हो। मैंने यह भी कहा कि तुम्हारा चेहरा ही मुझे यह बता रहा है। इस तरह अनजाने ही मैंने उसे दूसरा पाठ पढ़ा दिया कि झूठ बोलने के लिए यह ज़रूरी है कि झूठ बोलते समय दूसरी तरह चेहरा बना लिया जाए। यही बात आदिवासियों के साथ भी हैः वे कभी झूठ नहीं बोलते। उन पर पूरी तरह भरोसा किया जा सकता है। मैं यह कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि हम अपने होने में सत्य में ही स्थित हैं। बच्चे सत्य में पैदा होते हैं। हम उन्हें झूठ बोलना सिखाते हैं। हम ही उन्हें ध्ाोखा देना सिखाते हैं, चीज़ें क़ब्ज़े में करना सिखाते हैं आदि। बच्चे के लिए सभी चीज़ें उसकी हैं और कुछ भी उसका नहीं है। वह यह नहीं जानता कि फलाँ चीज़ उसकी है, कोई और चीज़ किसी और की। यह सब बच्चे पर ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान देने के कारण होता है। हम उसे कहते हैं कि वह तुम्हारा नहीं हैं, तुम्हारा तो यह है। आदिवासी-ग्रामीण इलाकों में बच्चों को विशेषकर रूप से कुछ भी नहीं दिया जाता। वहाँ वह कुछ भी इस्तेमाल कर सकता है। वह भले ही उसका हो न हो। संज्ञान-विज्ञान (कोग्निटिव साईंस) के लोग यह दर्शाने का बहुत प्रयास कर रहे हैं कि अर्थव्यवस्था की जड़ें जैविकी में होती हैं। यह सौ प्रतिशत ग़लत है। आध्ाुनिकता के साथ मुश्किल यह है कि वह सब कुछ पश्चिमी चिन्तन के आध्ाार पर साबित करना चाहती है। उन्हें उससे बाहर आने की आवश्यकता है। मैं अक्सर कहता हूँ कि अगर आपको कुत्ते का स्वभाव समझना है तो आपके पास दो-तीन रास्ते हैं। पहला यह कि आप जंगल जाकर कुत्ते को देखें। दूसरा यह कि उस कुत्ते को शहर में देखें जो यहाँ-वहाँ घूमता फिरता है। तीसरी यह कि आप अपने पालतू कुत्ते का अध्ययन कर लें। आप कि़ताब भी पढ़ ही सकते हैं। कि़ताब पढ़ने के तो हम लोग अब विशेषज्ञ बन गये हैं। पर हमें कुत्ते को समझने कम-से-कम सड़कों पर भटकते कुत्ते का तो अध्ययन करना ही चाहिए। हमारी समस्या यह है कि हम नियन्त्रित (कन्ट्रोल्ड) कुत्ते का अध्ययन करते हैं और कह देते हैं कि यही कुत्ते की प्रकृति है। पश्चिमी वैज्ञानिक यही कर रहे हैं। अगर उन्हें सौन्दर्य, संज्ञान या मूल्यों आदि की जैविक जड़ें जाननी है, उन्हें ग्रामीण-आदिवासी लोगों का अध्ययन करना चाहिए। और वह भी आध्ाुनिकता के सन्दर्भ में नहीं। इसलिए भी ग़ैर-पश्चिमी बौद्धिकों को एकत्र होकर अपनी बात रखना चाहिए। एक चीज़ और हो रही हैः कुछ लोग अपने विषय में कुछ अध्ािक आत्मालोचनात्मक हैं। लेकिन उनमें भी इतनी मानवीयता नहीं है कि वे अपने पश्चिमी दायरे से बाहर आकर देखें। मुझे नहीं पता कि आपने कभी यह एक्रोनिम (शब्द-संक्षेप) ॅम्प्त्क् सुना है या नहीं। इसका आशय है, ‘वेस्टर्न एजुकेटेड इन्डस्ट्रियलाईज़्ड रिच डेमोक्रेटिक’ का। (पश्चिमी, शिक्षित, औद्योगिकीकृत, दौलतमन्द, लोकतान्त्रिक व्यक्ति) इस संक्षेप को भी एक पश्चिमी व्यक्ति ने ही बनाया है। उसने इसे कैसे बनाया? वह मनोविज्ञान पढ़ रहा था और उसने कुछ ऐसे ‘परीक्षक-खेल’ बनाये थे जिससे यह पता चल सके कि वे लोग किस मानसिकता के हैं। यही मनोवैज्ञानिक जब किसी दक्षिण अमरीकी देश जाता है तो पाता है कि वहाँ के लोग उन सारे नियमों को मानते ही नहीं है जो इसने बनाये हुए हैं। उनके अपने अलग नियम हैं। यह होने पर वह पश्चिमी लोगों के उन पूर्वाग्रहों को समझता है जो मनोवैज्ञानिक अध्ययन पर उन लोगों में पाये गये हैं क्योंकि वे जिन लोगों का अध्ययन करते हैं उनमें से 95 प्रतिशत अमरीका से आते हैं और उनके सभी निष्कर्ष उनके अमरीकी युवकों के अध्ययन के आध्ाार पर आते हैं। यह देखकर ‘वियर्ड’ शब्द-संक्षेप बनाया गया। पर यही कुछ सभी अध्ययनों के विषय में सही है। अब वे दिमाग़ के बायें और दायें भाग में विभाजन के बारे में बातें कर रहे हैं। अगर उन्हें सच्चा अविभाजित मष्तिष्क समझना है तो उन्हें ग़ैर-साक्षर व्यक्ति का अध्ययन करना चाहिए। यह वे नहीं करते। वे केवल साक्षर व्यक्तियों का अध्ययन करते हैं और वहीं से सभी तरह के निष्कर्ष निकालते हैं।
उदयन- आपने साक्षर और ग़ैर-साक्षर व्यक्ति के संज्ञानों में अन्तर को रेखाकिंत किया है। साक्षर व्यक्ति में, इसके अनुसार, ज्ञान ‘जानने की प्रक्रिया’ के पहले ही आ जाता है जबकि ग़ैर-साक्षर व्यक्ति में जानने की प्रक्रिया में ही ज्ञान का सृजन होता है। इन दोनों तरह के लोगों के संज्ञान (कोग्निशन) में क्या बुनियादी फ़कऱ् होते हैं।
जिनन- इन दो तरह के संज्ञान में पहला सबसे महत्वपूर्ण फ़र्क है कि ग़ैर-साक्षर संज्ञान में सन्दर्भ अज्ञात होता है, वह निरन्तर बदलता रहता है, वह त्रिआयामी होता है, उसमें अनुभव बहुआयामी होता है। वहाँ कोई सिखाने वाला नहीं है। साक्षर संज्ञान में ज्ञान पहले से तैयार रहता है, वह ‘रेडीमेड’ होता है, वहाँ शिक्षा दी जाती है।
अज्ञात और ज्ञात हममें दो तरह के व्यवहार उत्पन्न करते हैं। अज्ञात के क्षेत्र में आपको अनिवार्यतः विनम्र होना होता है, वहाँ इसके अलावा कोई रास्ता नहीं होता। उसमें आप अहंकारी होकर अपनी शर्तें लागू नहीं करवा सकते। ‘अज्ञात’ की स्थिति में विनय और मानवीयता स्थापित होती है। अज्ञात और ज्ञात प्रतिमान शुरू से ही मनुष्यों के जीवन मूल्यों को प्रभावित करते हैं। अज्ञात के क्षेत्र में आपको ध्यान देना होता है। जीवन का अस्तित्वगत परिवेश ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न करता है जिससे जीवन जिया जाता रहे। इसके साथ ही हर प्रजाति को ऐसी कुछ गुण मिले हुए हैं जो जीवन को बनाये रखने में आवश्यक होते है। बाह्य स्थितियाँ और भीतरी गुणों का समावेश आवश्यक है। होता यह है कि जब बाह्य परिस्थितियाँ बदलती हैं, स्वभाविक रूप से भीतरी गुण भी बदलते हैं। हममें सारे गुणों की सम्भावना है। हममें उनकी सामथ्र्य है। कुत्ता वही है पर वह घर में एक तरह से व्यवहार करता है, जंगल में दूसरी तरह से। मानवीय व्यवहार भी बाह्य परिस्थितियों के बदलते ही पूरी तरह बदल जाता है। मैंने आपको बताया था कि मैं वे सारी चीज़ खोजता रहता हूँ जिनका सम्बन्ध्ा सीखने से हो। वे प्रकृति में हों, पेड़-पौध्ाों में, मनुष्य में या कहीं भी। मुझे एक बहुत ही दिलचस्प विडियो मिला जो वन्य-बालक के विषय में है। (वन्य-बालक वे बालक होते हैं जिन्हें पशु पालते पोसते हैं।) मैंने ऐसे तीन प्रसंग देखें हैं। तीन वन्य-बालकों को तब पाया जा सका जब वे दस या ग्यारह या बारह साल के हो चुके थे। एक प्रसंग में बच्चे को कुत्तों ने पाला था क्योंकि उसके माता-पिता हमेशा नशे में रहते थे। वे उस बच्चे की ज़रा भी देखभाल नहीं करते थे। बच्चा कुत्तों के साथ रहकर कुत्तों सा ही हो गया। वह देखने में ज़रूर मनुष्य लगता था पर व्यवहार में वह कुत्तों जैसा ही था। यह कुत्तों जैसा ही चलता था। इसलिए यह कह सकते हैं कि हममें चलने की सम्भावना सोयी रहती है, हम चल ही लेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं है। यही कुछ देखने के साथ भी है। हमें आँखें देखने को प्रदान की गयी हैं पर यदि हम बच्चे को पहले तीन वर्ष अँध्ोरे में रखें, उसमें देखने की क्षमता समाप्त हो जाएगी। हमारे सारे ऐन्द्रिक गुण केवल सम्भावनाएँ हैं। इसलिए बाह्य परिस्थितियाँ हमारी निर्मिति के लिए गहरे स्तर तक जिम्मेदार हैं। पारम्परिक परिस्थितियों चूँकि जीवन का पोषण करने के लिए बनायी गयी हैं, इसलिए प्रकृति प्रदत्त गुण ऐसी परिस्थितियों में जाग्रत हो जाते हैं।
ग़ैर-साक्षर और साक्षरों के बीच एक मौलिक अन्तर यह है कि ग़ैर-साक्षरों में नैसर्गिक गुणों के जाग्रत होने से संज्ञान उत्पन्न होता है। जबकि आध्ाुनिक मानव-केन्द्रित स्थितियों में आपको एक बाहरी माध्यम अनुकूलित करता है। ग़ैर-साक्षरों में जाग्रत करना प्रमुख है, साक्षरों में अनुकूलन। पर पारम्परिक परिस्थितियों में भी थोड़ा बहुत अनुकूलन होता ही है और आध्ाुनिक स्थितियों में जाग्रत करना। शिक्षण प्रक्रिया बहुत अध्ािक सत्यानाशी हो गयी है, विशेषकर इसलिए भी यहाँ हम बने बनाये (रेडीमेड) ज्ञान को सौंपने का काम करते हैं। ये दोनों ही चीज़ें (अनुकूलन और रेडिमेड ज्ञान का दिया जाना) बच्चों की समूची आन्तरिक व्यवस्था को पुनर्संयोजित कर बहुत ही यान्त्रिक, क्लोन के जैसे व्यवहार का रास्ता बना देती हैं। साक्षर लोगों इसलिए आत्मविश्वासी होते हैं क्योंकि उनका कभी भी अज्ञात, अनिश्चय से सामना नहीं हुआ होता। उन्होंने अपने ज्ञान पर कभी सन्देह नहीं किया होता। वे हमेशा ही निश्चयात्मक तथ्यों से व्यवहार करते रहते हैं। इसलिए उनके व्यवहार में ग्रामीण आदिवासी लोगों से मौलिक अन्तर होता है।
उदयन- आप संज्ञान या कोग्निशन जिसे कह रहे हैं, उसे कुछ और स्पष्ट करिए।
जिनन- मैं संज्ञान केवल मानसिक प्रक्रियाओं को नहीं कह रहा। जैसा कि पश्चिमी लोग कहते हैं। मैं संज्ञान को व्यवहार की सम्पूर्ण निर्मिति की तरह देख रहा हूँ। मैं यह भी कहूँगा कि व्यवहार भी संज्ञान के भीतर ही आता है। क्योंकि मनुष्य सब कुछ सोखता है।
उदयन- अगर हम ग़ैर-साक्षर के अज्ञात से घिरे रहने के विचार पर आयें तो इस विषय में आपने कहा है कि यह आपको अध्ािक विनम्र बनाता है जिससे सम्भवतः आपका आशय यह है कि इस स्थिति में सारी मूल्य व्यवस्था ही अलग तरह की हो जाती है।
जिनन- जब आप ‘अज्ञात’ से शुरू करते हैं, आप चकित होते हैं। इन लोगों के भीतर जिज्ञासा हमेशा बनी रहती है। ऐसा क्यों है कि आध्ाुनिक शिक्षित लोगों को जिज्ञासु होने का स्वांग भरना पड़ता है। नब्बे प्रतिशत लोगों में कोई जिज्ञासा नहीं होती, वह पूरी तरह खत्म कर दी जाती है। किन्हीं विशेष परिस्थितियों में अगर वह बच भी जाती है तो वह अजीब सी मनुष्य-केन्द्रित जिज्ञासा होती है। वह जीवन का पोषण करने नहीं होती। इसलिए जीवन का जीवन को पोषित करने का मूल उद्देश्य नष्ट हो जाता है क्योंकि हमारे भीतर जीवन द्वारा दी गयी जिज्ञासा सक्रिय नहीं हो पाती। ‘अज्ञात’ के क्षेत्र में ही विनम्रता, जिज्ञासा और आश्चर्य की प्रतिष्ठा होती है क्योंकि आप अज्ञात के साथ केवल एक ही व्यवहार कर सकते हैं कि आप उसका अन्वेषण करें। तब आपके पास एक ही रास्ता बचता है कि आप जिज्ञासु रहें। इन दोनों में फ़र्क़ यह है कि ग़ैर-साक्षर लोग वास्तविक संसार के बारे जानते हैं जबकि साक्षर लोगों पर लिखित सूचनाएँ आरोपित की जाती हैं। यह सच है कि वे उस सब को ज्ञान कहते हैं और इससे मैं पूरी तरह असहमत हूँ क्योंकि उन्होंने जो याद कर लिया है, उसे ही वे ज्ञान मान लेते हैं। इसलिए शब्द और संसार का फ़कऱ् सामने आने लगता है। मैं यह कहता हूँ कि साक्षर शब्द सीखते हैं पर ग़ैर-साक्षर संसार सीखते हैं। इसके कारण शब्द साक्षरों को ध्ाारण कर लेते हैं जबकि संसार ग़ैर-साक्षरों को रूप देता है, उन्हें बनाता है। मैं यह बताता चलूँ कि ‘ग़ैर-साक्षर’ का मैं दुर्गुण की तरह इस्तेमाल नहीं कर रहा। इस तरह की तमाम शब्दावली साक्षरों की बनायी हुई है। यह देखना दिलचस्प है कि साक्षर लोग संसार को किस तरह बनाते हैं। उनके संसार में हमेशा ही ऊँच-नीच रहती है। हर समय कोई किसी को नीचे गिराकर अपनी ऊँचाई दिखाता है। दूसरी बात यह है कि वे हमेशा ही पश्चात-विचार करते हैं। वे किसी चीज़ को बहुत बाद में याद करके वर्तमान सन्दर्भ में ले आते हैं जो दरअसल अर्थहीन है।
उदयन- आप सौन्दर्य के बारे में बहुत बात करते हैं। आपको उस विषय पर अपने विचार रखना चाहिए। यह ऊपर देखने पर साध्ाारण पर दरअसल अस्तित्वगत प्रश्न है। यह हमारे जीवन का लगभग संचालक तत्व है फिर हम इसे इस तरह भले ही न पहचान पायें।
जिनन- मैं अभी हाल में कुछ पढ़ रहा था कि मैंने पाया कि सौन्दर्यशास्त्र (एस्थेटिक्स) पश्चिम के दार्शनिक चैखटे में सत्रहवीं शती में ही जोड़ा गया है। यह सच है कि कला मानसिक कर्म का सृजन है पर वह भी पश्चात-विचार है। आप शैक्षणिक प्रतिमानों (पैराडाइम) को देख लीजिए, उसमें केवल ज्ञान ही केन्द्रीय रहा है। बाद में यह महसूस किया गया है कि लोगों में इन्द्रिय-शैथिल्य आता जा रहा है तो उन्होंने शिक्षा में कला को भी जोड़ दिया। पर कला के आने के बाद भ्रम बढ़ गया। इस सबका बहुत बाद जब यह पता लगा कि इस तरह शिक्षा से बदमाश उत्पन्न हो रहे हैं तब मूल्य-शिक्षा की बात लायी गयी। ये सारी बातें पश्चात-विचार हैं। आजकल ‘होलिस्टिक’ शिक्षा की चर्चा होती है। वे हर थोड़े समय बाद एक नयी चीज़ जोड़कर ‘होल’ (सम्पूर्ण) शिक्षा बनाने का प्रयास करते रहते हैं। वे यह भूल गये हैं कि हमारी अपनी प्रकृति ही सम्पूर्ण होने की है। शिक्षाविद् सोचते हैं कि उन्होंने ध्ाोखे से खण्ड-खण्ड शिक्षा दी, अब वे उसे ‘होलिस्टिक’ या सम्पूर्णतावादी बनाने की कोशिश कर रहे हैं। मैं इसे आध्ाुनिकता का ‘न्यूनता-रोग’ (डिफि़सिट सिन्ड्रोम) कहता हूँ। आध्ाुनिकता ‘कमी’ या न्यूनता या डिफि़सिट से शुरू होती है जबकि परम्परा सम्पूर्णता से शुरू होती है। आप इस सब को पीछे बढ़ाते हुए ‘अज्ञात’ या ‘ज्ञात’ के क्षेत्र में रहने तक जा सकते हैं। वहीं से ये दोनों बातें शुरू होती है।
उदयन- क्या आप ‘न्यूनता-रोग’ (डिफि़सिट सिन्ड्रोम) की कुछ व्याख्या कर सकते हैं?
जिनन- हर प्राणी प्रचुरता के गुणों के साथ पैदा होता है। ये मानसिक गुण नहीं हैं, उनसे कहीं गहरे हैं। इनके विषय में न बात होती है, न इन पर विचार किया जाता है। ये जीवन के वे तथ्य है जो प्रदत्त है, ये दिये हुए तथ्य है कि हर प्राणी प्रचुरता में रहते हैं। अध्ािकांश ग़ैर-साक्षर लोग आने वाले कल के विषय में नहीं सोचते। वे ‘वर्तमान’ में पूरी तरह प्रसन्नता से रहते हैं। यह इसलिए है क्योंकि वे प्रचुरता में रहते हैं। इसके विपरीत जब साक्षर अपने कामों की योजनाएँ आने वाले कल को ध्यान में रखकर बनाते हैं, वहाँ न्यूनता होकर रहती है क्योंकि आने वाला कल न्यूनता या डिफि़सिट से ही आता है।
उदयन- आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं।
जिनन- क्या आपको ‘गुरूजी’ रवीन्द्र शर्मा की याद है?
उदयन- बिल्कुल। वे आदिलाबाद में रहते थे और हमारी अक्सर बात होती थी। जाति प्रथा की उनकी समझ विलक्षण थी। संयोग से वे बड़ौदा कला संस्थान में नसरीन मुहम्मदी के छात्र भी थे।
जिनन- उन्होंने एक बार मुझे बताया था कि पारम्परिक समाज में प्रचुरता इसलिए भी रहती थी क्योंकि वे चीज़ों की गिनती नहीं करते थे। चीज़ों को गिनने के कारण आप प्रचुरता में रहना छोड़कर न्यून होते चले जाते हो। चीज़ों की गिनती करते ही आप प्रचुरता में कमी लाना शुरू कर देते हैं। आदिवासी-ग्रामीण लोगों के ज्ञान के बारे में एक बार दिलचस्प बात मुझे यह भी पता चली कि वे केवल प्रचुरता में ही नहीं, ‘समयहीनता’ में रहते हैं क्योंकि वे अपनी उम्र नहीं जानते। और हम अपने हर जन्मदिन के साथ अपनी मृत्यु की गणना में लगे रहते हैं। ग़ैर-साक्षर व्यक्ति उस विचित्र समय में नहीं रहता जो हमने बना लिया है। इसलिए ही आदिवासी-ग्रामीण इलाकों में ऊब का कोई अनुभव नहीं है। जैसे कचरे का नहीं है। न प्रकृति में कचरा होता न आदिवासी-ग्रामीण इलाकों में। ऊब का अनुभव तब होता है जब समय आगे न सरक रहा हो। मैंने यह हमेशा देखा है कि आप जब भी आदिवासी- ग्रामीण इलाकों में जायें, आप ग्रामीण लोगों को बस का इन्तज़ार करते देखेंगे। वे ऐसा घण्टों कर सकते हैं पर उन्हें थोड़ी-सी भी ऊब नहीं होती। जबकि हमारे जैसे लोगों के साथ अगर ऐसा एक मिनट के लिए भी होता है, हम ऊब महसूस करने लगते हैं। हम बेचैन हो जाते हैं, हमें समझ में नहीं आता कि हम क्या करें। बहुत बुनियादी स्तर पर हमें यह समझ बदलनी होगी कि मनुष्य होने का क्या अर्थ है?
उदयन- आपकी बस के इन्तज़ार की बात को अगर जन्मदिन मनाने की बात से जोड़कर देखें तो हम यह भी कह सकते हैं कि अगर हमें पाँच मिनट भी बस का इन्तज़ार करना पड़े तो हम ये पाँच मिनट अपनी पूरी जि़न्दगी से घटा कर देखते हैं क्योंकि हमने भविष्य में अपनी जीवन की (भले ही ग़लत) गणना की हुई है। इस कारण हमारे भीतर डर उत्पन्न होता होगा और इस डर को ढाँकने ऊब होती होगी। शायद ऊब आवरण है।
जिनन- पश्चिमी प्रतिमानों के हिसाब से ऊब ही सृजन को सम्भव करती है। यह नितान्त ग़लत विचार है। वे यह नहीं समझ पा रहे कि ऊब न होने का क्या आशय है? यहाँ भी सृजन पर दृष्टि डालनी होगी। आध्ाुनिक सृजन का अध्ािकांश अहंकेन्द्रित होता है जिसका सम्बन्ध्ा मनुष्य की ख़ुशहाली होता है न कि जीवन मात्र की समृद्धि या ख़ुशहाली से। मैं दरअसल इसे सृजनात्मकता कहता ही नहीं हूँ, इसे विध्वंसात्मकता कहता है। मैं सृजन और विध्वंस में फ़कऱ् करता हूँ। सृजन जीवन की प्रक्रिया का अंश भर है। आप भी नयी चीज़ों को खोजते हैं पर यह खोज जीवनमात्र और हर प्राणी के लिए होती है। इसे मैं सृजनात्मक कहता हूँ। आदिवासी सृजन निजीकृत नहीं होता, वह केवल आपके लिए नहीं होता। इसका पेटेंट नहीं होता, इसकी वित्तव्यवस्था नहीं बनती। जबकि आध्ाुनिक सृजनात्मकता स्वार्थी होती है। वह जीवन की प्रक्रिया के अनुकूल नहीं होती। मैं आध्ाुनिकता के विषय में यह दिलचस्प बात पा रहा हूँ कि वह लगातार शब्दों को अनुकूलित कर उनका वे अर्थ दे रही है जो उसके लिए बेहतर हों, उसके हित के हों। ऊब ऐसा ही शब्द है जिसका वे उत्सव मना रहे हैं। बहुत से लोग उसके बारे में इस तरह बात करते हैं मानो वह कोई महान अनुभूति हो।
उदयन- मैं यहाँ से एक और ध्ाारणा की ओर आपके ध्यान का विस्तार चाहता हूँ। आपने अभी एक बीज-विचार रखा कि हम सभी सामथ्र्य या किन्हीं गुणों की सम्भावना के साथ पैदा होते हैं। इसमें आपने उस वन्य-बालक का उदाहरण दिया था जिसे कुत्तों ने पाला तो वह खुद भी कुत्तों जैसे व्यवहार करने लगा। आज जीवविज्ञान में यह बात लगभग स्वीकृत हो चुकी है कि हमारे शरीर की बल्कि हर प्राणी के शरीर की हर कोशिका में यह सामथ्र्य या सम्भावना रहती है कि वह शरीर का कोई भी अंग बन सके। पर चूँकि मिसाल के लिए नाक की कोशिका के लिए बाकी सारी सम्भावनाएँ चरितार्थ नहीं हो पातीं, इसलिए वह कोशिका नाक बन जाती है। हमें ग्रामीण-आदिवासी परिवेश में सामथ्र्य या सम्भावना के बारे में कुछ और विचार करना चाहिए क्योंकि अभी ही आपने आध्ाुनिक परिवेश में न्यूनता-रोग (डिफ़ीशिएंसी सिन्ड्रोम) में बात की है और अब वे सम्पूर्णतावादी (होलिस्टिक) पद्धति की चर्चा कर रहे हैं। लेकिन मेरी दृष्टि में यह जोड़-तोड़ की सम्पूर्णता है (सम्मेटेड होलिज़्म) है जिसका आशय है कि यहाँ गणितीय सम्पूर्णता है। लेकिन सामथ्र्य और ‘अज्ञात’ का सामना करते रहने के विचार एक अलग तरह की सम्पूर्णता या ‘होलिज़्म’ का प्रस्ताव है जो जैविक है न कि गणितीय। ये दो अलग की सम्पूर्णताएँ या ‘होलिज़्म’ हैं।
जिनन- कल मैं अधर््ानारीश्वर की बात कर रहा था। वह सम्पूर्णता है। दरअसल कई द्वैत साथ आकर सम्पूर्णता की रचना करते हैं। परूष और स्त्रैण गुण साथ आकर एक सम्पूर्णता बनाते हैंः अधर््ानारीश्वर। वैयक्तिकता और सामूहिकता साथ आकर एक हो जाते हैं। पारम्परिक समाजों में वैयक्तिकता और सामूहिकता एकनिष्ठ होकर हर व्यक्ति में रहती हैं। जबकि आध्ाुनिकता में सामूहिकता को हटा दिया जाता है। और साथ ही अतीत को भी हटा दिया जाता है। यह इसलिए है क्योंकि वे उस ज्ञान पर निर्भर है जो बाहर से आ रहा है। जबकि पारम्परिक आदिवासी-ग्रामीण समाज सीध्ो-सीध्ो जीवन के ज्ञान पर निर्भर हैं। इस दृष्टि से उनका अस्तित्व अपने आप लाखों वर्ष पुराना हो जाता है। इसलिए उनका दिमाग़ जिस क्षण में सार्वभौमिक सार्वकालिक है उसी क्षण में विशिष्ट भी है। सामथ्र्य सार्वभौमिक-सार्वकालिक दिमाग में होती है। इसलिए जब आध्ाुनिकता ‘सामथ्र्य’ को नकारती है, वह सार्वभौमिक-सार्वकालिक मानस को भी नकार देती है और तब वह अहंकेन्द्रित व्यक्तिमत्ता सम्पन्न मानस बनाती है जो केवल इसी एक जीवन से ‘इनपुट’ ले पाता है, इसी एक जीवन से निवेशित हो पाता है। आध्ाुनिक शिक्षा मानस को केवल ‘अभी’ से निवेशित करती है। ‘अभी’ यानि वह ज्ञान जो ‘अभी’, इस समय उपलब्ध्ा है। और केवल वह ज्ञान जो भाषाकृत हो चुका है। पारम्परिक समुदायों में मनुष्य का अस्तित्व ही लाखों-करोड़ों वर्ष के ज्ञान में ही रहता है। वहाँ उसी का प्रकटन होता रहता है। वहाँ वह ज्ञान उन मनुष्यों में निरन्तर जागता रहता है।
उदयन- क्या आपने ग्रामीण-आदिवासी इलाकों में ऐसा कुछ विशेष अनुभव किया है जो शहरों में मुश्किल ही है।
जिनन- उन इलाकों में क्रोध्ा बहुत कम किया जाता है। मैंने उन इलाकों में यह देखा है कि वहाँ कोई भी बच्चे को ‘नहीं’ नहीं कहता। आध्ाुनिक घरों में बच्चे लगातार केवल ‘नहीं’ सुनते रहते हैं। दरअसल क्रोध्ा, भय ऐसी संवेदनाएँ हैं जिन्हें अस्थायी रूप से इस्तेमाल किया जाता है और फिर भूल जाया जाता है। बच्चे का नैसर्गिक स्वभाव ख़ुश और सन्तुष्ट रहना है। इसलिए बच्चे अगर नाराज़ हो भी जायें तो वे कुछ मिनटों के लिए वैसे होते हैं फिर वे वह सब भूलकर ख़ुश हो जाते हैं। यह बच्चे का स्वभाव है पर आध्ाुनिक सन्दर्भों में वह हर दिन क्रोध्ाित होता है, भयग्रस्त होता है क्योंकि यही कुछ उसके माता-पिता और उसका स्कूल हर समय कर रहे होते हैं। इसलिए बच्चों के अस्थायी गुण स्थायी हो जाते हैं। क्रोध्ा और भय महत्वपूर्ण हैं लेकिन वे किसी विशेष स्थिति का सामना करने प्रयुक्त होते हैं फिर उन्हें चले जाना चाहिए।
उदयन- वे संचारी संवेदनाएँ होती हैं...
जिनन- मैंने देखा है कि मेरी बच्ची आग के डर का कैसे सामना करती है। जब वह चार-पाँच साल की थी, वह कुछ पकाना चाहती थी। अपने आप। यह इच्छा स्वप्रेरित ही थी। उसका भाई नदी जाकर मछली ले आया। सबसे पहले उसने वह मछली उससे छीन ली। उसे डर था कि वह उसे अपने पास ही न रख ले। वह भाग कर घर पहुँची, रसोई में जाकर तेल आदि निकाला। खुद अपना चूल्हा तीन ईटों की मदद से बनाया। मुझे याद है, वह किस तरह माचिस की तीली जलाने की कोशिश कर रही थी। पर वह डर भी रही थी। वह तीली जलाती और वहाँ से भाग जाती। उसने वह सब जिस तरह ध्ाीरे-ध्ाीरे किया, बहुत खूबसूरत था। आदिवासी-ग्रामीण लोगों में यह खास बात है कि चूँकि वहाँ बच्चों के काम में हस्तक्षेप नहीं किया जाता इसलिए बच्चे अलग-अलग स्थितियों का सामना करना सीख जाते हैं। शहरों में जब भी बच्चों का विवाद होता है, उनके माता-पिता आकर झगड़ा करने लगते हैं। ग्रामीण इलाकों में ऐसा नहीं होता क्योंकि बच्चों के कामों में हस्तक्षेप नहीं किया जाता, वे खुद सीख जाते हैं कि विवादों को कैसे सुलझाएँ। डर वहाँ भी होता है, पर बच्चा जानता है कि उसका सामना कैसे किया जाए। मैंने दूसरे भी कई उदाहरण देखें हैं। आपने भी यह देखा होगा कि जब भी बच्चा सीढि़याँ देखता है, वह ऊपर की सीढ़ी से नीचे कूदता है। बच्चे बिल्कुल ठीक-ठीक जानते हैं कि किस सीढ़ी से किस पर कूदना है। एक बार वे एक सीढ़ी कूदने में निष्णात हो जाते हैं तो एक छोड़कर दूसरी पर कूदते हैं। इसका अर्थ है कि यह जीवन में ही अन्तर्निहित है कि कैसे कितना कूदना है, वरना बच्चा सबसे ऊपर की सीढ़ी से सबसे नीचे की पर न कूद जाता। इससे साफ़ समझ में आ सकता है कि हममें अन्तर्निहित एक विवेक है, अपना ख़याल रखने की आवश्यकता है और डर भी है। ये सब हमारी भीतरी व्यवस्था का भाग हैं जिनका बच्चा उपयोग कर पाता है बशर्ते वयस्क उसमें अनावश्यक डर पैदा न करें। या उनकी मदद न करते रहें। मैंने न्यूनता रोग (डिफि़सिट सिन्ड्रोम) को बच्चों के सन्दर्भ में ही अध्ािक अन्वेषित किया है। मैंने पाया कि किस तरह बच्चे के पैदा होते ही आध्ाुनिक समाज शिक्षा के सहारे उसमें न्यूनता (डिफि़सिट) पैदा करता रहता हैं। आध्ाुनिक शिक्षा का प्रयास यह है कि आप बच्चे को कहें कि तुम्हें सीखना नहीं आता। इसका यह अर्थ भी है कि वह बच्चे को बताए कि तुमने सामथ्र्य नहीं है। इसी के साथ अगर आप ग्रामीण-आदिवासी स्थिति को देखें तो पाएँगे कि वहाँ अनचाही मदद या हस्तक्षेप नहीं है। बच्चा अपनी चीज़ों का ब्यौरा खुद ले लेता है। उसे ख़ुद समझ लेता है। आध्ाुनिक समाजों में बच्चों को शुरू से ही ‘न्यूनता’ दी जाती रहती है।
उदयन- क्या हम आपके इस विचार पर और बात करें कि बच्चे में शिक्षा के सहारे न्यूनता (डिफि़सिट) निवेशित की जाती है। मैं समझता हूँ कि इस एक चीज़ के कारण राजसत्ता अध्ािक शक्ति सम्पन्न हो जाती है। राजसत्ता आदिवासी-ग्रामीण समाजों में इतनी शक्ति सम्पन्न इसलिए नहीं हो पाती क्योंकि उन समाजों के सदस्यों ने अपनी सामथ्र्य को समझ लिया है, उन्हें वैयक्तिक और सामूहिक प्रश्नों के समाध्ाान पाने में विशेष मुश्किल नहीं होती। इसी सन्दर्भ में उस आध्ाुनिक शिक्षा को देखें जो हममें बचपन से ही न्यूनता (डिफि़सिट) को डाल देती है, वह आध्ाुनिक राजसत्ता के शान्ति सम्पन्न होने के रास्ते खोल देती है और यही नहीं उसे निरन्तर शक्तिशाली बनाती जा रही है। इसलिए हमें यह उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि राजसत्ता इस तरह की शिक्षा पद्धति को समाप्त कर सकेगी क्योंकि ऐसा करके वह अपने अस्तित्व को ही ख़तरे में डाल रही होगी। अपनी शक्ति को घटा रही होगी। इसे माक्र्सवादी विचार की विडम्बना ही माननी चाहिए कि वे राजसत्ता के खत्म होने की बात तो करते हैं पर शिक्षा पर उस तरह विचार नहीं करते जैसे आप और अन्यों ने किया है। वे यह भूल जाते हैं कि राजसत्ता के खत्म हो जाने का यही पहला क़दम है। मसलन जब आप बच्चे से यह कहते हैं कि तुम मेरे मदद के बग़ैर गिर पड़ोगे, आप उसी क्षण सत्ता के एजेन्ट हो जाते हैं।
जिनन- मैं राजसत्ता को अलग से बहुत महत्व नहीं देता क्योंकि दरअसल हमारी सामुदायिकता ही सत्ता हो गयी है। हम ही सत्ता बन गये हैं। हम राजसत्ता के एजेन्ट नहीं हैं, हम ही सत्ता है क्योंकि हम खुद ही ऊँच-नीच में जीते हैं। हमारा बच्चों के प्रति व्यवहार भी इसी से संचालित होता है। अब माता-पिता बचे ही नहीं हैं, सभी बच्चों के शिक्षक हो गये हैं। हर जगह हर कोई शिक्षक की तरह व्यवहार करने में लगा है।
उदयन- इसका आशय यह है कि आध्ाुनिक संसार से माता या पिता का लोप हो गया है। उनके स्थान पर सभी शिक्षक की भूमिका में आ गये हैं।
जिनन- बिल्कुल। मैं मातृ-भाषा के लोप की भी बात करता हूँ और यह भी कि उसे पितृ-भाषा ने विस्थापित कर दिया है। मेरे लिए मातृ-भाषा वह है जो आप अपने भीतर से सीखते हैं और जो भाषा आप पर आरोपित की जाती है, पितृ-भाषा है। वे सारी भाषाएँ जो सीखायी जाती हैं, पितृ-भाषाएँ हैं। मैं यह कह कर पिता या माता होने का निरादर नहीं कर रहा। मातृ-भाषा सम्पूर्णता में (होलिस्टिक) रहती है। बेंगलूरू की झुग्गियों के बच्चों की, मैं कहूँगा, चार मातृ-भाषाएँ होती हैं। कन्नड़, तेलुगु, तमिल और हिन्दी। वे तीन-चार वर्ष की उम्र तक ये भाषाएँ बोलने लगते हैं। यहाँ झुग्गी का अर्थ है ग़ैर-साक्षरों का स्थान जहाँ कोई पढ़ाता नहीं है। शहरों में लगातार शिक्षण होता रहता है। आप जितने बड़े शहर में होते हैं, आपको उतना अध्ािक शिक्षण मिल कर रहता है। अमरीका जैसे देशों में तो वे बच्चों को अच्छी तरह नष्ट करने में लगे हैं। क्योंकि आप बच्चे से उसी तरह बातें करते हों, उसे पढ़कर सुनाते हो। उस बच्चे पर भाषा की बम वर्षा होती रहती है। वे यह नहीं समझते कि भाषा हमारे जीवन का एक बहुत छोटा अंश है। लेकिन उसकी इतनी अध्ािक व्याप्ति हो गयी है मानो भाषा के अलावा और कुछ हो ही नहीं। हमारा अंश होने की जगह, वह हमारी मालिक बन गयी है। न मौन के लिए जगह बाक़ी है, न अनुभव के लिए, न इन्द्रियों के लिए, न अन्तज्र्ञान के लिए। इन सबके लिए कोई जगह छोड़ी ही नहीं जा रही।
उदयन- और इसके ऊपर यह बात भी है कि पढ़ाई जाने वाली भाषा पहले से ही तैयार-शुदा होती है। वह भी खुले रूप में नहीं पढ़ाई जाती। इससे यह होता है कि बच्चों को पहले से तैयार ध्ाारणाएँ सौंप दी जाती हैं और बच्चे उन उपलब्ध्ा ध्ाारणाओं से व्यवहार करते रहते हैं न कि संसार से जो उनके चारों ओर फैला रहता है।
जिनन- इसमें भी सबसे ज़्यादा ख़तरनाक बच्चों को यौन-शिक्षा दिया जाना है। अगर आप आदिवासी-ग्रामीण इलाकों को देखें, आप पाएँगे कि बच्चे को जन्म देना ऐसी घटना है जिसे बच्चे अक्सर देखते हैं। जानवरों को बच्चे को जन्म देना आदि। यह उनके लिए आम फ़हम घटना है। वे इनसे यह निष्कर्ष भी सहज ही निकाल लेते हैं कि यह भी बच्चा दे रही है, यह भी...। मेरी माँ ने भी बच्चा दिया है। इस सब में उनके लिए कुछ अनोखा नहीं बाक़ी नहीं रहता। वे यह सब देख रहे होते हैं। वहाँ यौनिकता को समझने की जैविक तैयारी भी रहती है। बारह-तेरह साल की उम्र में वह यौनिकता को एक तरह से समझने की स्थिति में होता है। अब शहरों आदि में आप बच्चों को उससे कहीं पहले यौनिकता सीखने को बाध्य कर रहे हैं। उन्हें समझ में ही नहीं आता कि किस बारे में बात हो रही है। इस कारण पूरे समय मानसिक कल्पना ही आकार लेती रहती है। जबकि नैसर्गिक संज्ञान में मानस के कथ्य अपने अस्तित्व के अनुभव से आते हैं। मानस और शरीर का विभाजन दो कारणों से होता है, पहला तो शिक्षण है दूसरा भाषा का शिक्षण। शिक्षा के सहारे आप मानस को सीध्ो-सीध्ो निवेशित कर रहे हैं, उसे ‘इनपुट’ दे रहे हैं। मानस शरीर के रास्ते सूचनाएँ ग्रहण नहीं कर रहा। इस सबमें शरीर की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। इससे शरीर तिरस्कृत हो जाता है। समूची आध्ाुनिकता शरीर के खि़लाफ़ युद्ध है। अब वे यह दावा कर रहे हैं कि कृत्रिम विवेक (आर्टिफि़शियल इन्टेलिजेन्स) जीवन की तरह ही है।
उदयन- इसके फलस्वरूप शरीर सिरे से ही तिरस्कृत हो जाएगा।
जिनन- मैं अक्सर कहता हूँ कि स्त्रीवादी आन्दोलन परुष आन्दोलन है। वास्तविक स्त्रीवाद अस्तित्व के इस विभाजित रूप में कभी सम्भव नहीं होगा। यह अस्तित्वगत प्रश्न है, राजनैतिक प्रश्न नहीं है। यह आध्यात्मिक प्रश्न है। अगर अस्तित्व ही विभाजित हो गया हो, तो स्त्रैण और परुष गुण भी विभाजित हो जाते हैं। दरअसल विवाद स्त्री और पुरुष के बीच नहीं है बल्कि गुणों (स्त्रैण और परुष) के बीच के विभाजन है। यह एक आन्तरिक द्वन्द्व है।
उदयन- आदिवासी-ग्रामीण सन्दर्भ में स्त्री-स्वतन्त्रता का प्रश्न किस स्थिति में है?
जिनन- दरअसल हम उन पर अपने विचार आरोपित कर रहे हैं। अगर आप आदिवासी-ग्रामीण लोगों के साथ सचमुच रहें, आप पाएँगे कि हमारे जैसे विचार वहाँ नहीं हैं। वहाँ भूमिकाएँ स्पष्ट हैं। आध्ाुनिक संसार में हमें कहा जाता है कि बच्चे नहीं होना चाहिए। माँ होने के विरुद्ध युद्ध-सा छिड़ा हुआ है। लेकिन आदिवासी-ग्रामीण पारम्परिक समाजों में माँ होने में गौरव अनुभव किया जाता है। अगर कोई माँ बनने के योग्य नहीं, उसे माँ होने की भूमिका के स्थान पर कोई और भूमिका दे दी जाती है। आध्ाुनिक लोगों की समस्या यह है कि वे अपने जीने के ढंग को ही एकमात्र ढंग मानते हैं और उसे ही सारे मनुष्यों और यहाँ तक की प्रकृति तक पर आरोपित करते रहते हैं। वे हर जगह अपनी ध्ाारणाएँ प्रक्षेपित करते रहते हैं।
उदयन- आप तो अध्ािकतर शहरों में नहीं रहते।
जिनन- मैं इन दिनों आदिवासी-ग्रामीणों के साथ रहता हूँ। मेरी पत्नी ग़ैर-साक्षर है। वे कभी स्कूल नहीं गयी हैं। यहाँ कुम्हारों की बस्ती है। मैं इस गाँव में 1993 में आया था और मैं इन लोगों के साथ रहने लगा। दरअसल इन सब लोगों ने बर्तन बनाने छोड़ दिये थे। क़रीब तीस वर्षों यहाँ वेश्यावृत्ति होती रही। राज्य सरकार ने कुछ करने का विचार बनाया। मैं पहले से कुम्भकला (पाॅटरी) और कारीगरी कर रहा था। आॅक्सफेम इण्डिया ने मुझसे बात की और मैं कोलकाता छोड़कर यहाँ इस गाँव में आ गया। मैं यहाँ इसलिए आया क्योंकि मुझे लगा कि मुझे ग़ैर-साक्षरों के साथ रहने का एक और अवसर मिल रहा है। चूँकि यहाँ कोई हस्तक्षेप नहीं होगा तो मैं ‘नो टीचिंग’ (कोई शिक्षा नहीं) का अपना प्रयोग भी कर सकूँगा। इसलिए मैं लोगों के बीच कार्य करते हुए मौलिक काम कर सका, जिन्हें मेरी ओर से कुछ भी बताया नहीं जा रहा था। हम यहाँ हज़ारों नये विचार उत्पन्न कर सके। मैं यह सब सिर्फ़ यह बताने को कह रहा हूँ कि मैं यहाँ लोगों के बीच रहता हूँ, उनके रिश्तों को समझने की कोशिश करता हूँ, वे रहते कैसे हैं और कैसे स्त्री और पुरुष आपस में सम्बन्ध्ा रखते हैं। इन पर आध्ाुनिकता का प्रभाव पड़ा है। यहाँ भी समस्याएँ है। यहाँ तलाक लेकर किसी और से विवाह करना कहीं अध्ािक लचीला है। ऐसे कई आदिवासी समुदाय हैं जो स्त्रियों की ज़रूरतों पर पुरुषों की तुलना में कहीं अध्ािक ध्यान देते हैं। मुझे लगता है कि पारम्परिक समाज लिंग भेद को उसी तरह लेते हैं जैसा कि प्रकृति लेती है। प्रकृति ने जीवन को चलाये रखने स्त्री को पुरुष की तुलना में कहीं अध्ािक सामथ्र्य दी है। स्त्रियों को कहीं अध्ािक मानसिक और संवेदनात्मक शक्ति मिली हुई है। आध्ाुनिक समाज के पुरुष सदस्य यह कहते रहते हैं कि स्त्रियाँ कमज़ोर होती हैं। यह बिल्कुल सच नहीं है।
उदयन- शायद इसीलिए ऐसा कहा जाता होगा। आप किस गाँव में रहते हैं? उसका क्या नाम है?
जिनन- अर्वाकोड, यह नीलम्बूर में है। यहाँ केवल कुम्हार रहते हैं।
उदयन- पूरे गाँव में सिर्फ़ कुम्हार हैं?
जिनन- जी हाँ। केरल में गाँव की स्थिति बहुत अलग है। अन्य जगहों पर गाँव अलग से नज़र आते हैं, यहाँ ऐसा नहीं है। केरल में ऐसे कारीगर समुदाय नहीं है जो विशेष यहीं यानि केरल के ही हों। मसलन मेरे गाँव के लोग आन्ध्ा्रप्रदेश के तेलुगु भाषी हैं। दक्षिण केरल में तमिल कुम्हार हैं। बाँस से काम करने वाले समुदाय कर्नाटक हैं। मैं सोचता हूँ कि सम्भवतः केरल आदिवासी समाज रहा है और उन्होंने कुशल लोगों को अन्य जगहों से बुलाया है। यही आप बस्तर में पाते हैं। आदिवासियों के पास विशेष कौशल नहीं होते, वे सभी कुछ करने में कुशल होते हैं। विशेष कौशल सम्पन्न लोगों को यहाँ बाहर से बुलाया गया और वे यहीं के होकर रह गये। मसलन इस गाँव के लोग अभी भी तेलुगु बोलते है। मेरी पत्नी भी तेलुगु का अपना संस्करण बोलती हैं।
उदयन- क्या वह तेलुगु मलयालम मिश्रित है?
जिनन- एक तरह से।
उदयन- ये लाग यहाँ कब आये थे?
जिनन- इस बारे में कुछ कहानियाँ कही जाती हैं। मुझे इतिहास में विशेष रुचि नहीं है। मैं इतिहास को बहुत खतरनाक अनुशासन मानता हूँ।
उदयन- अब हम आपके एक और विचार आते हैं। आपने कहा है कि जहाँ बच्चे को साक्षर करने का प्रयास नहीं किया जाता, वहाँ बच्चा स्वभाविक रूप से अमूर्तन करने लगते हैं।
जिनन- पहले तो अमूर्तन को ही समझना होगा। अमूर्तन समझने की प्रक्रिया का स्वभाविक अंश है। जब आप कुछ ठोस देखते हैं, आपका उसका प्रारम्भिक सम्बन्ध्ा बनता है। आरम्भिक सम्बन्ध्ा ठोस जगत से ही बनता है। जब आप ठोस जगत से सम्पर्क बनाते हैं, आप उससे कुछ निष्कर्ष भी निकालते हैं, वह अमूर्तन होता है, एब्सट्रेक्शन होता है। अमूर्तन का विचार कला से आया है। उसके बाद हम अमूर्त ज्ञान आदि के बारे में सुनते रहते हैं। मैं उस बारे में बहुत भ्रमित रहता था। पर अब मुझे समझ में यह आता है कि अमूर्तन वह सब शायद नहीं है, अमूर्तन ग्रामीण-आदिवासी समाजों में सहज रूप से होता है। अमूर्तन चीज़ों की समझ है। ठोस जगत से सम्पर्क के माध्यम से वे उसका अमूर्तन समझने की स्थिति में आ जाते हैं। यह बिल्कुल नैसर्गिक है। इसे वे अमूर्तन आदि कुछ नहीं कहते। जैसे वे व्याकरण की चर्चा नहीं करते पर यह जाहिर है, वे उसका उपयोग करते हैं। वह उनके भीतर उसी तरह पैठी हुई है उसी तरह जैसे तर्क-विध्ाान। तर्क-विध्ाान भी हमारे भीतर पैठा हुआ है। उसकी चर्चा करना आवश्यक नहीं। वह ऐसा कुछ नहीं है जिसे अलग से अपने भीतर लाने की आवश्यकता हो। तर्क-विध्ाान हमारी जीवन व्यवस्था का ही नैसर्गिक भाग है। आपके पास अतिरिक्त तर्क-विध्ाान की ज़रूरत नहीं है। इसी तरह अमूर्तन भी जीवन की सम्पूर्णता का ही एक अंश है। और उसे इस तरह बरता जाता है कि वह अलग से दिखायी नहीं देता। आध्ाुनिकता के विषय में यह दिलचस्प बात है कि वह हमें एक अवसर दे रही है कि हम यह सच्चे तौर पर यह जान सके कि जीवन का संयोजन सचमुच कैसे हुआ है, उसके भाग क्या हैं और उन्हें कैसे आपस में संयोजित किया गया है, साथ ही हमें यह भी पता लग रहा है कि आध्ाुनिकता ने किस तरह इस को विभाजित कर इसे ग़लत-सलत समझ लिया है।
उदयन- आपने यह भी कहा है कि बच्चे के लिए यह कहीं बेहतर है कि वह रेखाचित्र बनाने बाद भाषा पर जाये। मैं एक मिसाल देता हूँ। भोपाल के निकट एक स्थान है, भीमबेटिका। वहाँ ठेरों शैल-चित्र हैं। लेकिन आप उन रेखांकनों में आवाज़ महसूस कर सकते हैं क्योंकि उनमें गति है, ठहराव है। नाचना है, मानो किसी ताल पर। तब तक कोई लिपि अस्तित्व में नहीं आयी थी। आप लगभग यही कह रहे हैं कि बच्चा भी पहले रेखांकन करे जैसा कि भीमबेटिका में हुआ था, फिर लिपि पर आये। पर आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?
जिनन- मैं यह आध्ाुनिकता के सन्दर्भ में कह रहा हूँ जहाँ लिखित भाषा बहुत महत्वपूर्ण हो चुकी है। मैं लोगों से यह पूछता हूँ कि क्या आप दिल्ली गये हैं और क्या आप कन्याकुमारी भी गये हैं? जब हम दिल्ली जाते हैं हमारे दिमाग़ में यह आता है कि दिल्ली जाते हुए हम ऊपर जाते हैं (अगर भोपाल या मुम्बई से जा रहे हों) और अगर कन्याकुमारी जाते हैं तो यह आता है कि नीचे जा रहे हैं। दरअसल दो आयामों से सम्बन्ध्ा हमारी संज्ञान व्यवस्था को प्रभावित करता है और हम इस विषय में सजग भी नहीं हैं। इस तरह हम दो आयामी स्पेस में रहने लगे हैं न कि वास्तविक तीन आयामी स्पेस में। सारा संज्ञान दो आयामी स्पेस में हो रहा है। जब मैं तीन वर्षों तक पुणे के स्कूल में बच्चों का अध्ययन कर रहा था, मैंने यह देखना शुरू किया कि वे क्या करते हैं और क्या रेखांकित करते हैं। वह सम्बन्ध्ा जल्द ही स्पष्ट होने लगा। वे जो अनुभव करते थे, वही खेलते थे। खेलने से मेरा आशय वह अन्तर्सम्बन्ध्ाी गतिविध्ाि है जिसमें वे तरह तरह की चीज़ें बनाते हैं। खेलना वह संज्ञान-गतिविध्ाि (कोग्निटिव एक्टिविटी) है जिसमें बच्चे तीन आयामी दुनिया को तीन आयामों के सहारे ही समझते हैं जबकि रेखांकन वह संज्ञान गतिविध्ाि है जिसमें बच्चे तीन आयामी संसार को दो आयामी स्पेस के सहारे समझते हैं। यहाँ मैं एक बात जोड़ देना चाहता हूँ कि रेखांकन करना बच्चे के लिए अनिवार्य नहीं है। अगर आप परम्परा पर ध्यान दें तो आप पाएँगे कि केवल कुछ समुदायों में ही रेखांकन होता था। हर समुदाय में रेखांकन नहीं होता था। मसलन बंगाल के पटुआ समुदाय या पटचित्र बनाने वाले समुदायों के बच्चों में रेखांकन होता था। बर्तन बनाने वाले समुदायों में नहीं होता था। जुलाहों के बच्चे भी रेखांकन नहीं करते थे। यह इसलिए क्योंकि रेखांकन पटुआ आदि समुदायों के लिए उपयोगी कर्म है। जबकि खेलना और चीजे़ं बनाना आपकी संज्ञान-व्यवस्था का भाग है जिससे आप संसार को उसकी अनुकृति बनाकर समझते हैं। इस तरह बच्चे की हर गतिविध्ाि उसके विशेष सन्दर्भ में संसार को सम्बन्ध्ाित स्पेस में समझने का यत्न होती है। आध्ाुनिक समय में हम अध्ािकतर दो आयामी स्पेस के सहारे संसार समझते हैं। बच्चे जब रेखांकन करते हैं, उन्हें स्वभाविक रूप से यह पता रहता है कि तीन आयामी संसार के सन्दर्भ में दो आयामी रेखांकन क्या है। इसलिए जब वे लेखन से परिचित कराये जाते हैं, वे यह समझ पाते हैं कि लिपि वास्तविक दुनिया की प्रतिनिध्ाि मात्र है। आज हम इन दोनों के बीच भ्रमित हो रहे हैं। संसार हमसे छीन लिया गया है, हमारा केवल शब्दों से सम्पर्क बाक़ी है।
उदयन- जिसका अर्थ यह हुआ कि संसार शब्दों के बाद यानि अनुदर्शी ढंग से आता है।
जिनन- वो भी कभी-कभी। हमेशा नहीं। कई लोगों के लिए वह वापस आता ही नहीं है। अब शिक्षाविदों ने एक विचित्र विचार रखा हैः अनुभव से सीखना (एक्सपीरिन्शियल लर्निंग)। आपको इन शब्दावलियों की विचित्रता को देखना चाहिए। वे कह रहे हैं कि अनुभव से सीखना’ होगा मानो बिना अनुभव के भी सीखा जा सकता हो। यही वह पश्चात-विचार है जिसका मैं जि़क्र कर रहा था। मैं यह पूछना चाहता हूँ कि क्या जीवन में ऐसा क्षण भी होता है जब आप कुछ अनुभव न कर रहे हों। वे ‘अनुभव क्या है’ और ‘सीखना क्या है’ के बीच भ्रम फैला रहे हैं।
उदयन- हम अगर वापस ग़ैर-साक्षरों के ‘अज्ञात’ के इलाके में रहने की बात पर आयें तो क्या हम यह कह सकते हैं कि ‘अज्ञात’ के इलाके में रहने वाले व्यक्ति के लिए मृत्यु भी भय का कारण नहीं होगी। वह तो ग़ैर-साक्षर ‘अज्ञात’ का सामना करता ही रहता है। उसके लिए मृत्यु भी एक और ‘अज्ञात’ ही होगी। इससे अलग कुछ नहीं।
जिनन- यह एक और बात है जो मैंने गाँव में देखी। मैंने एक ऐसी माँ देखी जिसका बच्चा नहीं रहा था। वह कुछ ही दिनों में सामान्य हो गयी। जिस तरह मानसिक स्तर पर चीज़ें आध्ाुनिक मनुष्य पर प्रभाव डालती है वैसा आदिवासी-ग्रामीण लोगों के साथ नहीं होता। मानसिक क्षति बहुत हद तक आध्ाुनिकता की समस्या है। जब वे ‘अच्छे रहने’ के बारे में बात करते हैं, आध्ाुनिक लोग बेतुकी बात करते हैं और अपने इस बेतुकेपन में इस हद तक जाते हैं कि बच्चों को यह सलाह देते हैं कि उन्हें ध्यान लगाना चाहिए। वे यह भूल जाते हैं कि बच्चे हमेशा ही ध्यान की अवस्था में होते हैं।
उदयन- जैसे तमाम जानवर...
जिनन- सारा जीवन ध्यान में ही होता है अलावा शिक्षित लोगों के।
उदयन- इसीलिए उन्हें श्रीश्री आदि की आवश्यकता होती है।
जिनन- शरीर और मस्तिष्क के विभाजन के विषय में मैं आपको एक दिलचस्प घटना बताना चाहता हूँ। एक दिन मेरी माँ और मेरे भाई की पत्नी टेलिविजन देख रहे थे। वे ख़बरें सुन रहे थे। आप जानते ही होगे कि वहाँ ख़बरें कैसे दी जाती हैं। कोई स्क्रीन पर पूरी गम्भीरता से ख़बरें सुना रहा था। साथ में बेकग्राउण्ड संगीत बज रहा था। मेरे पास उसकी विडियो रिकार्डिंग भी है। वे दोनों ध्यान से ख़बरें सुन रहीं हैं और उनके शरीर उसके साथ के संगीत पर थिरक रहे थे। मैंने शरीर और मस्तिष्क के विभाजन की बात करते हुए शायद कहा हो कि शरीर के पास अनुभव के अलावा कोई भी गुंजाइश नहीं है। शरीर पूरे समय अनुभव करता है। क्लासरूम में शरीर शिक्षक की प्रभुता और भय, कि़ताबें, कि़ताब की गन्ध्ा आदि सभी का अनुभव करता है। शरीर का कि़ताब का अनुभव मष्तिष्क के कि़ताब के अनुभव से अलग होता है। शरीर के लिए आप कुरान पढ़ रहे हों या बाइबिल, माक्र्स पढ़ रहे हो या गीता सभी कुछ एक-सा है। मस्तिष्क के लिए उनमें अन्तर होते हैं। पढन से इस अर्थ में शरीर की क्षति होती है। बल्कि यह कहना अध्ािक वाजिब होगा कि समस्या पढ़ने से नहीं बल्कि समझने से होती है। अगर मैंने कुछ पढ़ा और मुझे समझ में नहीं आया तो मैं उसे ‘अज्ञात’ की तरह अपने भीतर थामे रह सकता हूँ। लेकिन अध्ािकांश शिक्षित लोग न समझने की स्थिति में भी एक तरह की समझ को अपने थोप कर अपने ‘पढ़े हुए’ पर विश्वास करने लगते हैं। इससे यह होता है कि न समझने पर भी आप अपने ऊपर तर्क बुद्धि से बलपूर्वक एक समझ आरोपित कर लेते हैं, हालाँकि आप समझे नहीं होते। आप सोचते हैं कि चूँकि एक विशेषज्ञ कुछ बता रहा है तो वह ठीक ही होना चाहिए। इसलिए दरअसल समस्या पढ़ने से नहीं, बिना समझे किसी बात से सहमत होकर उसकी समझ अपने पर आरोपित कर लेने से होती है। संकट समझ के स्तर पर है। अगर हम यह जानते हैं कि किस तरह पढ़ा जाता है तब तो ठीक है। इसलिए जब मैं कुछ लिखता हूँ, मैं उसे पढ़ने वालों से कहता हूँ कि आप इसे उसी तरह पढ़ो जैसे कविता पढ़ी जाती है। उसे ‘समझने की कोशिश’ मत करो। अगर यह अपने आप समझ में आ जाये तो ठीक है वरना इसे भूल जाओ। इस तरह का पढ़ना लोग भूल गये हैं क्योंकि शिक्षा व्यवस्था ऐसी है जिसमें आपको तुरन्त जवाब देना पड़ता है। आपको अगर कुछ ग़लत भी बताया जा रहा है आपको उसे तुरन्त समझ कर जवाब देना होता है।
उदयन- यह बात कविता पढ़ने तक पर लागू होती है। उसे इस तरह पढ़ाने का चलन है कि वह समझ में आने के पहले क्षत-विक्षत होकर नष्ट हो जाती है।
जिनन- मुझे एक बच्चे से जुड़ी दिलचस्प घटना याद है। वह दूसरी या तीसरी कक्षा में था। उसने एक दिन स्कूल से आकर मुझे बताया कि उसके शिक्षक ने उसे बताया कि पहले लोग सोचते थे कि पृथ्वी गोल होती है, अब वे जानते है कि वह चपटी है। मैं चुप रहा आया। बच्चा भी यही देखता है कि वह पृथ्वी चपटी है। छह महीने बाद मैंने उसे याद दिलाया। वह मुस्कराने लगा और बोला, नहीं, नहीं ऐसा नहीं है। इसका उल्टा है। मैं सोचने लगा कि छह महीनों में शिक्षक ने उसके साथ क्या किया होगा। या तो उसने इस बच्चे को मारा-पीटा होगा और कहा होगा कि पृथ्वी चपटी नहीं, गोल है या उसने बच्चे से आग्रह किया होगा कि वह पृथ्वी को गोल ही कहे वरना उसकी नौकरी चली जायेगी। यह ही हुआ करता है। बच्चे के लिए पृथ्वी चपटी होती है। वह गोल तो तब होती है जब वह अनुमान करने की क्षमता विकसित कर लेता है। मस्तिष्क की कुछ भी समझने की एक प्रक्रिया होती है। पहले वह ठोस स्थिति के सहारे समझता है, उसके बाद अनुमान से। लेकिन इस सब का स्कूल व्यवस्था में ध्यान नहीं रखा जाता। इसलिए बच्चे के पास केवल एक रास्ता होता है कि वह सहमति में सिर हिलाये और कहे ‘हाँ’।
उदयन- और पृथ्वी को गोल बना दे। पृथ्वी का पहले सीध्ो ठोस अनुभव करने के स्थान पर अनुमान के सहारे पृथ्वी को गोल कर ले।
जिनन- मैं अक्सर एम.टेक. आदि स्तर तक पढ़े लोगों से कहता हूँ कि वे अपनी आँखें बन्द कर पृथ्वी की कल्पना करें। फिर मैं उनसे पूछता हूँ कि उन्होंने वहाँ क्या देखा? उन्होंने जो देखा, उसका आकार क्या था? मुझे सामान्यतः दो जवाब मिलते हैं। बहुत लोग कहते हैं कि उन्होंने आर्मस्ट्रांग या ऐसे ही किसी की भेजी पृथ्वी की तस्वीर देखी। और बाक़ी कहते हैं कि उन्होंने स्कूल में रखा ग्लोब देखा। बहुत कम लोगों के दिमाग में पृथ्वी की विराटता आती है। शिक्षा से यह होता है।
उदयन- अगर मैं पृथ्वी की अन्तरिक्ष से भेजी गयी तस्वीर के दिमाग में आने के खतरे की बात करूँ, तो कहना होगा कि इन्हीं लोगों में से कुछ के लिए पृथ्वी ‘डिस्पोजि़बल’ है, उन्हें इस तरह पृथ्वी को नियन्त्रित करने की बात पर विश्वास करना आसान हो जाता है। अगर आप पृथ्वी को उसकी विराटता में देखेंगे, तब आप उसमें अपनी छोटी सी भूमिका खोजेंगे।
जिनन- यह स्कूल से ही शुरू हो जाता है जब आप बच्चे को ग्लोब दिखाकर कहते हो कि यह पृथ्वी है।
उदयन- इस तरह की शिक्षा जाने-अनजाने ही इस ग्रह के नष्ट किये जाने की भूमि तैयार कर रही है। आध्ाुनिकता अन्ततः उसी पृथ्वी को नष्ट करने में लग गयी है जिस पर उसका जन्म हुआ था।
जिनन- आपको यह दिलचस्प लगेगा कि वे जो पृथ्वी को बचाने की मुहिम चलाये हैं, आप उनके प्रतीक चिन्ह (लोगो) देखिए। वहाँ हमेशा ही पृथ्वी हाथों के भीतर होती है। पृथ्वी को लेकर यह ध्ाारणा लोकप्रिय है। इसकी वास्तविक व्यापकता को लेकर हमें कोई आश्चर्य नहीं होता और न हमें यह सूझता है कि हम इसमें ध्ाूल के कण जितने ही हैं। शिक्षा यह कर रही हैः पहले वह लोगों में ‘बचकानापन’ पैदा करती है, वह व्यापकता को संकुचित कर किसी विद्रूप में बदल देती है। आज हमारे चारों ओर ‘बचकाने वयस्क’ हैं। इसलिए वे पृथ्वी के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।
उदयन- शायद इसलिए क्योंकि बचकानापन साक्षरता के कारण आसान हो जाता है। आप एक बार उन्हें साक्षर कर दें, तब आप उन्हें लिखित भाषा के सहारे नियन्त्रित कर सकते हैं, वह सब ज्ञान देकर जो ज्ञान होता ही नहीं है।
जिनन- एक बात मैं विशेष रूप से कहना चाहता हूँ। हम आमतौर पर यह कहते हैं कि ‘लोगों को नियन्त्रित करना’ मानो कोई नियन्त्रित कर रहा हो। मैं समझता हूँ कि इस तरह एक खलनायक बनाना ठीक नहीं है। दरअसल छापाखाना आने के बाद से साक्षरता ने विराटता को खत्म ही कर दिया है। उसने हर चीज़ को निश्चितता में संकुचित कर दिया है। मैं सोचता हूँ कि इस सब के लिए हमें सामूहिक रूप से जिम्मेदारी लेनी होगी मानो यह सब हमारा ही किया ध्ारा हो। हम जैसे ही खलनायक बनाते हैं, हम अपनी जिम्मेदार नहीं उठा रहे होते। मैं भी अब पश्चिम को नहीं कोसता। मैंने पश्चिम को लिखित भाषा से विस्थापित कर लिया है। वे ख़ुद ‘लिखित भाषा’ के शिकार हैं। अगर ‘लिखित या मुद्रित भाषा’ (यानि टेक्स्ट) हमारे पास पहले आ गयी होती, हम भी उत्पीड़क हो गये होते। पश्चिम के साथ दो चीज़ें हुईंः पहली यह कि ईसाई बन्द ध्ार्म है जहाँ सब कुछ निश्चित है आपको यह करना चाहिए यह नहीं आदि। इसके कारण जिज्ञासा नहीं बचती। दूसरी चीज़ ‘टेक्स्ट’। ध्ाार्मिक विश्वास का लिखित भाषा या टेक्स्ट से संयोग के कारण कहीं अध्ािक खतरनाक ‘बन्द (दिमाग़ी)’ पैदा हो गयी है। हर चीज़ बिल्कुल निश्चियात्मक हो गयी। ध्ार्म और विज्ञान ने साथ आकर सब कुछ को बन्द कर दिया।
उदयन- यह भारत जैसे पैगन समाजों में उतना नहीं हुआ।
जिनन- बहुत हद तक तो नहीं हुआ पर तब भी हुआ क्योंकि हमेशा ही भाषा का इस्तेमाल पूरी सावध्ाानी से नहीं हुआ। कई तरह के ‘वेदी’ होते हैं, जैसे ‘त्रिवेदी’, ‘चतुर्वेदी’ आदि। अगर वे पुस्तकालयाध्यक्ष ही बने रहते तो अच्छा होता मतलब वे अपने दिमाग में भाषा ध्ाारण किये हुए थे। वे उसका उपयोग नहीं करते थे। वे यह स्वांग नहीं करते थे कि वे जानकार हें।
उदयन- क्योंकि वह भाषा अज्ञेय ही थी।
जिनन- इस तरह कई लोगों के लिए वह भटकाव नहीं थी लेकिन वे लोग जो इसे समझना चाहते हैं, बिना उसे अनुभव किये वह केवल भाषा है। कबीर की कृतियों में भी ऐसे ही एक पण्डित की कहानी है। वह नाविक के साथ नदी में जा रहा है। पण्डित पूछते हैं कि क्या उसे अमुक वेद पता है, नाविक जवाब देता है कि उसे वह वेद पता नहीं है। फिर पण्डित किसी और वेद के बारे में पूछता है। नाविक को वह भी पता नहीं है। जब नाविक पण्डित के पहले प्रश्न का जवाब ‘नहीं’ में देता है, पण्डित उससे कहता है कि तब तो तुम्हारी आध्ाी जि़न्दगी बेकार है। दूसरे प्रश्न का उत्तर ‘न’ में देने में वह नाविक से कहता है कि तब तो तुम्हानी तीन-चैथाई जि़न्दगी बेकार है। इसके कुछ देर बाद नाविक पण्डित से पूछता है कि क्या उन्हें तैरना आता है। पण्डित के ‘न’ कहने पर नाविक कहता है कि तब तो आपकी पूरी जि़न्दगी बेकार है। क्योंकि तब नाव डूब रही थी। मैं कह रहा हूँ कि हमारी परम्परा में यह दोष तब आ गया था जब हम ज्ञान के प्रति कुछ कम सावध्ाान हो गये। आदम के ईडन वाटिका में सेब खाने का किस्सा भी ज्ञान के दुरुपयोग का ही प्रसंग है। ज्ञान के व्यवहार में अयोग्यता का किस्सा।
उदयन- क्या इस पर कुछ कहेंगे?
जिनन- मुझे इस बारे में भी बहुत कम ही पता है। बाइबिल में आदम-हव्वा का कि़स्सा आता है। ईश्वर उनसे कह रहे हैं कि आपको यह सब नहीं खाना है। तब एक साँप आकर उन्हें वह सेब खिलवा देता है। उसके बाद वे स्वर्ग से निष्कासित हो गये। इसी तरह की कहानी बाईबिल में है। मैं पूरी कहानी जानूँ या न जानूँ इतना समझ सकता हूँ कि मनुष्यों को कई बार यह हिदायत दी जाती रही है कि उसे ज्ञान के प्रति बहुत अध्ािक सावध्ाानी बरतनी चाहिए। ख़ासकर लिखे हुए ज्ञान के प्रति। प्लेटो की वह कहानी भी है जिसमें मिस्र का राजा के पास एक आदमी आकर कहता है कि उसने ‘अक्षर’ (अल्फ़ाबेट) खोज लिये हैं और आप उनका इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन राजा उनका इस्तेमाल करने में बिल्कुल ख़ुश नहीं है। वह कहता है कि यह अच्छा विचार नहीं है। इवान इलिच पन्द्रहवीं शती की एक बेहद दिलचस्प बात बताता है। जब कोलम्बस पुर्तगाल की महारानी इसाबेला की खातिर विश्व विजय पर निकलता है, उस समय एक व्यक्ति है जो महारानी को उसकी अपनी जनता को जीतने में मदद कर रहा है। यह आदमी स्पहानी भाषा का शब्दकोश तैयार करता है। वह रानी से जाकर कहता है कि अगर आप शब्द-कोश को परिभाषित करती हैं, लोग आपकी आज्ञानुसार ही शब्दों का उपयोग करेंगे, क्योंकि उनका अर्थ बँध्ा जायेगा। अगर हमारे पास सामान्य (जो सभी के पास एक-सा है) शब्द-कोश है, आप लोगों को नियन्त्रित कर सकेंगी। इसे लेकर इसाबेला ख़ुश नहीं होती, वह यह नहीं करना चाहती। लेकिन बाद वह सब व्यवस्थित किया जाता है। मैं सोचता हूँ कि कई लोगों ने हमें इस बारे में चेताया है लेकिन यह दुखद है कि जब भी कोई हमें इस बारे में चेतावनी देता है, उसे यह कह कर दरकिनार कर दिया है कि उनके पास ऐसा करने का अवश्य ही कोई दुष्प्रयोजन होगा। जब कोई कहता है कि छोटे बच्चों को लिखना मत सिखाओ, हम तुरन्त कहते हैं कि यह करना हमारा अध्ािकार है और इस तरह हम अपने को नुकसान पहुँचा लेते हैं। हमें यह पता ही नहीं कि इस सबको किस तरह ध्यानपूर्वक बरता जाता है। हमारे पास भाषा को बरतने का विवेक नहीं है।
उदयन- और इसीलिए भाषा आपको लेकर वहाँ चली जा सकती है जहाँ जाना आप शायद न चाहते हों। इस तरह वह आपके अनुभवों को विस्थापित कर देती है।
जिनन- वे जगहें अक्सर निरर्थक होती हैं। दरअसल वह आपको कृत्रिम कल्पना की ओर ले जाती है। इटालो केल्विनो ने एक जगह अद्भुत बात कही हैः आपके चारो ओर देखने को इतना अध्ािक है कि इसमें आपका सारा जीवन लग जायेगा। आपको कहीं घुसकर देखने की आवश्यकता ही कहाँ है। आपकी सहज कल्पना में ही पृथ्वी इतनी व्यापक, सुन्दर और अन्वेषण योग्य है कि आपको उसके लिए निरर्थक कृत्रिम कल्पना करने की आवश्यकता ही कहाँ है। ज़ेन उस्ताद क्या करता है? वह घास की एक पत्ती को जीवनभर देखता रहता है। उस एक ज्ञान से उसे बाकी सब समझ में आने लगता है।
उदयन- अब हम अपनी कुछ पीछे छूट गयी बात पर लौटें। आप कह रहे थे कि ग़ैर-साक्षर समाजों में जहाँ आध्ाुनिक ढंग की शिक्षा नहीं होती, जहाँ बच्चे को अपने आपसे सीखने दिया जाता है और जहाँ उनकी सामथ्र्य को जागृत होने दिया जाता है, ऐसे समाजों में अगर कोई टकराव या द्वन्द्व उत्पन्न भी होता है, उसे आपस में ही सुलझा लिया जाता है, उसके लिए किसी लिखित क़ानून की आवश्यकता नहीं होती। क्या आप सोचते हैं कि हर तरह के टकरावों को सुलझाने की सामथ्र्य मनुष्यों में होती है।
जिनन- यह इसलिए है क्योंकि जीवन की बुनियादी नैतिकता स्वयं जीवन से आती है। इसके बारे में हमें अलग से चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं होती। अगर आप कुछ बच्चों को अकेला छोड़ दें और आप यह देखें कि वे एक दूसरे से कैसे व्यवहार कर रहे हैं। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि उनमें जीवन को बचाये रखने वाले गुण बद्धमूल हैं। पहली बात तो यह है कि वे झूठ नहीं बोलते। संयोग से यह ऐसा गुण है जिसे आध्ाुनिक लोग विचित्र समझते हैं। उनमें साझा करने की प्रवृत्ति होती है। आध्ाुनिक परिवेश में ऐसा बच्चा मिलना मुश्किल है क्योंकि हम ऐसी कुछ चीज़ें कर रहे हैं जिनसे हमारे समाज में बच्चे नष्ट हो रहे हैं। पहली तो यह ध्ाारणा और व्यवहार कि घर में केवल एक बच्चा होना चाहिए। यह ख़तरनाक है। मेरा विश्वास है कि आपके कम-से-कम तीन बच्चे होने चाहिए। दूसरी बात यह है कि आप अपने जीने की व्यवस्था के कारण अपने बच्चे को बेहद आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी बना रहे हैं। आप उनका कुछ अध्ािक ही ध्यान रख रहे हैं और उन्हें महसूस करा रहे हैं कि वह बेहद महत्वपूर्ण व्यक्ति है। इस तरह आप बच्चों को शुरूआत से ही स्वार्थी, व्यक्तिवादी और नखरैल होने की ओर मोड़ देते हैं। ऐसे बच्चों में कोई भी मानव मूल्य नहीं होंगे।
उदयन- लेकिन आदिवासी-ग्रामीण परिवेश में स्थिति अलग होती है।
जिनन- वहाँ बच्चे पर इस तरह कृत्रिम ध्यान नहीं दिया जाता।
उदयन- वहाँ उसे केन्द्रीकृत नहीं किया जाता।
जिनन- मैंने इस गाँव में देखा है कि तीन साल का होने तक बच्चा पूरी तरह स्वतन्त्र हो जाता है। वह अपना खाना खुद खाता है। उसे माँ खाना नहीं खिलाती। वहाँ बच्चे अच्छे से खाते हैं, तभी खाते हैं जब खाना चाहिए। तीन से चार साल के होने तक वे अपने छोटे भाई-बहनों का ध्यान रखने लगते हैं।
उदयन- वे उन्हें मातृत्व प्रदान करने लगते हैं...
जिनन- बिल्कुल। छह साल के होने तक वे पकाने भी लगते हैं। अगर माँ बच्चे से कहती है कि मुझे वह गिलास उठा दो, तो यह जीवन का ही अंग है। अगर माँ कुछ कर रही है और वह उठ नहीं सकती, वह सहज रूप से बच्चे से कुछ कुछ करने को कहती ही है। मैंने एक और चीज़ पर ध्यान दिया हैः आध्ाुनिकता शत प्रतिशत वयस्क-केन्द्रित है। आदिवासी ग्रामीण क्षेत्र भी बाल केन्द्रित नहीं है। वे जीवन-केन्द्रित हैं। किसी पर भी विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। हम आध्ाुनिक स्थापत्य को इनमें से कुछ बदलावों का दोषी मान सकते हैं।
उदयन- वह किस तरह?
जिनन- पारम्परिक समाजों के घरों में फ़र्श का ही हर काम के लिए उपयोग होता है। खाना बनाने से लेकर बैठने, खाने और सोने तक के लिए। हर काम के लिए फ़र्श का ही उपयोग होता था। बच्चा भी उसी फ़र्श पर घुटने के बल चलता, सब कुछ होते हुए देखता है, वह फ़र्श पर बैठे व्यक्ति से रिश्ता बना पाता है क्योंकि वह भी वहीं बैठकर बातें करता है। अब यह मुश्किल है कि व्यक्ति हमेशा खड़े रहते हैं और अगर बैठते हैं तो सिफऱ् कुर्सियों पर। इसलिए बच्चा उस ऊपरी स्तर पर घट रहे जीवन में हिस्सेदार नहीं हो पाता। रसोईघर भी तीन से अध्ािक फ़ीट ऊपर चला गया है। अब बच्चे को अनुभव ही नहीं हो पाता कि क्या पक रहा है। घर के हर काम खड़े होकर हो रहे हैं। जबकि गाँव में बच्चा पैदा होने के बाद से ही हर क्रियाकलाप देख-सुन सकता था क्योंकि वे ज़मीन पर होते थे। टोकनी बनाने वाला फ़र्श पर बैठकर अपना काम करता था, आदि। इस तरह बच्चे की अपने चारो ओर घटते जीवन तक पहुँच थी। कुछ लोग आज ही बता रहे थे कि इन दिनों बच्चों की घुटने चलने की अवस्था लाँघ ली जा रही है क्योंकि बच्चे के पास घुटने चलने की जगह नहीं है। घुटने चलने में मुश्किल भी है क्योंकि सारा फ़र्श ही चिकना बनने लगा है। अब गोबर लिपा फ़र्श नहीं होता। अब फ़र्श संगमरमर का बनाया जाता है। वह ठण्डा होता है और चिकना। बच्चे को ऐसे में घुटने चलना मुश्किल हो जाता है। अब बच्चा हाथ-पाँव से चलता भी नहीं है। वह सीध्ाा चलने लगता है। दुर्भाग्य से माता-पिता भी यही चाहते है। मुझे लगता है इससे भी शायद संज्ञान-प्रक्रिया में फ़र्क़ पड़ता है। बच्चे का हर अवस्था से न गुज़रना भी ठीक नहीं है। इस क्षेत्र में पर्याप्त शोध्ा नहीं किया गया है। मैं कहता रहता हूँ कि हमें एक सीखने की शोध्ा-शाला शुरू करना चाहिए जिसमें हम बच्चे का जीवन और जीवन मात्र को समझने का प्रयास करें। जैसे जैसे ज़्यादा से ज़्यादा लोग पश्चिम पर निर्भर होते जा रहे हैं, उनकी हालत बिगड़ती जा रही है। इस सारे प्रतिमान या जीने का ढंग पर पुनर्विचार होना चाहिए। उसे पुनर्संयोजित करने की आवश्यकता है। तभी बद्धमूल संज्ञान (रूटेड कोग्निशन) सम्भव है। मैंने कोशिश की कि अध्ािक से अध्ािक लोग अपने बच्चों को ध्यान से देखें, उनका दस्तावेज़ बनायें और उन पर्यवेक्षणों का साझा करें। लेकिन उसके लिए ज़्यादा लोगों बल्कि ज़्यादा संगठित लोगों की आवश्यकता होगी। दरअसल हमारे पास बहुत सारे ऐसे शोध्ाकर्ता होना चाहिए जो इन सब ध्ाारणाओं को प्रश्नांकित करें और मौलिक प्रश्न पूछें। आज क्या हो रहा है? आज शोध्ाकर्म में ‘पियर रिव्यू’ जाल के कारण आप वही लिख सकते हैं जो औरों ने लिखा है। कोई भी बिल्कुल नयी दृष्टि समस्या बन जाती है। मुझे नहीं पता कि क्या कोई ऐसा विश्वविद्यालय या संगठन सामने आयेगा जो सच्चे अर्थों में ‘विस्कूलीकरण’ (डिस्कूलिंग), संस्कृति और जीवन को ग़ैर-पश्चिमी (या ग़ैर वैकल्पिक) तरह से समझने का प्रयास करेगा। आजकल एक शब्द चला है, वैकल्पिक माॅडल। पर वह भी आध्ाुनिकता का ही एक संस्करण है। वह शायद आध्ाुनिकता से भी ज़्यादा ख़तरनाक है क्योंकि उसे प्राप्त करने पर लोगों को लगने लगता है कि उन्हें समाध्ाान मिल गया है। हमें एक नये तरह के स्पेस में जाना होगा।
उदयन- आपने यह भी कहा है कि बच्चे कभी आलसी नहीं होते। आलस्य बहुत अध्ािक आध्ाुनिक अनुभव है। आध्ाुनिक समाज वह है, जिसे आप पाठ-केन्द्रित समाज कहते हैं, उसमें आलस्य एक महत्वपूर्ण तत्त्व है क्योंकि उसमें काम को विश्राम से अलगा दिया गया है।
जिनन- आध्ाुनिक समाज में जब भी कोई चंचल बच्चा नज़र आता है उसे ए.डी.एस. (अटेंशन डेफि़सिट सिण्ड्रोम) या अवध्ाान न्यूनता रोग की श्रेणी में डाल दिया जाता है। आप बच्चे को सच्चे अर्थों में भौतिक स्पेस की पूरी छान-बीन करने ही नहीं देते, और उसे पूरी तरह नियन्त्रित करने का प्रयास करते हैं और तब वे विद्रोह कर देते हैं। आपके बच्चे को नियन्त्रित करने के फलस्वरूप ही उसमें क्रोध्ा, विद्रोह, हिंसा और नष्ट करने का भाव आता है। मैंने एक बच्चा गोद लिया था। ऐसा सहज ही हुआ। मैं इस गाँव में रह रहा था। यह बच्ची जब वह दो-तीन महीने की ही थीं, हमारे घर आने लगी। मैं उसकी देखभाल करता। मैंने उसके सन्दर्भ में कुछ निर्णय लियेः मैं उसे कभी ‘नहीं’ नहीं कहूँगा। मैं उससे कभी झूठ नहीं बोलूँगा और हमेशा उसके पीछे चलूँगा, उसका मार्गदर्शन नहीं करूँगा। इन निर्णयों के कारण ही मैं बच्चे को समझने का अवसर पा सका। मैं यह क्यों कह रहा हूँ। अगर मैं उसे ‘नहीं’ नहीं कहता तो मुझे अपनी स्थिति इस तरह व्यवस्थित करनी होगी, मुझे वे सारी चीज़ें जिनके कारण मैं ‘नहीं’ कह सकता होऊँगा, उसके सामने से हटानी होगी। मसलन अगर मेरे पास एक बहुत महँगा कप है और अगर मैं नहीं चाहता कि वह उसे न छुए, मुझे उसे उसके रास्ते से हटाना चाहिए।
उदयन- आपको भी उसका उपयोग करना बन्द कर देना चाहिए। हमें इस स्थिति में महँगी चीज़ों का उपयोग कम करना होगा कि बच्चे को अपने ही घर में असहज ढंग से न रहना पड़े।
जिनन- लोग मुझे अक्सर कहते रहते हैं कि हमारे पास कीमती चीज़ें हैं, हम उन्हें बचाने के लिए ‘नहीं’ कैसे नहीं कहें। तब मैं कहता हूँ कि आपके लिए कौन अध्ािक क़ीमती हैंः वे चीज़ें या आपका बच्चा।
उदयन- आपके महँगी चीज़ें हटाते ही बच्चे के लिए ‘नहीं’ भी किसी हद तक हट जायेगा।
जिनन- यह बच्ची अपनी माँ के साथ एक दूसरे घर में रहती थी। साढ़े सात-आठ बजे उसकी माँ उसे हमारे घर छोड़ कर अपने काम पर निकल जाती थी। इस तरह मुझे इस बच्ची के पोषण का अवसर मिल गया। मैं सात-साढ़े सात बजे तक कम्प्यूटर और कैमरे पर काम करता हूँ और जब तक वह यहाँ आती है, यह सब एक तरफ रख दिये जाते हैं। मैं जानबूझकर फ़र्निचर जैसे मेज़-कुर्सियों आदि नहीं रखता। मेरे घर में फ़र्श ही सारे क्रियाकलापों के लिए इस्तेमाल होता है। जब यह बच्ची बहुत छोटी थी, खाना बनाने का काम भी फ़र्श पर ही होता था। मैं यह कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि हम जो भौतिक संरचना (डिज़ाइन) और मानसिक अवकाश बच्चे को उपलब्ध्ा कराते हैं, वह आध्ाुनिकता की जीवन-विरोध्ाी दृष्टि से उत्पन्न हुए हैं। आध्ाुनिकता ने बच्चों के काम, खेल, सीखना और कला में विभाजन कर दिया है। कला को कर्म अलग कर दिया गया है उसी तरह खेल से भी। खेलने के लिए आध्ाुनिक शहरी लोग बच्चों को खिलौने देते हैं और उन्हें काम नहीं करने दिया जाता। सीखने को गम्भीर काम माना जाता है जो कि़ताबों की मदद से कुछ नियत घण्टों में कराया जाता है। ग्रामीण इलाकों में इससे बिल्कुल अलग ये सारी चीज़ें यानी काम, खेल, सीखना और कला को विभाजित नहीं किया जाता। वे एक ही प्रक्रिया का भाग होती हैं। बच्चा काम करने से पीछे नहीं हटता क्योंकि उसके लिए काम करना खेलना ही होता है। बच्चे के लिए हर काम क्रीडामय होता है। अपने खिलन्दड़े स्वभाव के कारण बच्चा झाड़ू भी लगाता है, बल्कि वह वे सब काम करना चाहता है जो उसकी माँ करती हैं। वह उसका खेल होता है। वह हर काम जो पिता करता है, बच्चा भी करना चाहता है। इन सब चीज़ों को विभाजन का बच्चों पर बुरा असर पड़ रहा है। और यह भी चिन्ताजनक है कि शहरी जीवन में बच्चों के लिए स्थान नहीं है। वे कहीं आ-जा नहीं सकते। पेड़ों पर नहीं चढ़ सकते, न पहाड़ पर। मैं हमेशा सोचता हूँ कि किसी भी समाज की सभ्यता और संस्कृति को उनके अपने बच्चों के प्रति नज़रिये से ही आंका जा सकता है। यह हर समाज का बुनियादी लक्षण है। अगर आप आध्ाुनिकता के बच्चों को दिये अवकाश को देखेंगे, आप तुरन्त यह जान सकेंगे कि इससे अध्ािक खराब परिवेश बच्चों को दिया ही नहीं जा सकता था। हर विज्ञापन में आप बच्चे से झूठ बोलते हैं। बच्चों को इन सारे झूठों से बचने के कोई नियम क़ानून नहीं हंै। बच्चा मानो हमेशा ही भटकाव के लिए उपलब्ध्ा रहता है। ऐसी कोई सरकार नहीं, न कोई संस्था है जो इसकी जिम्मेदारी ले सके। कम-से-कम पाँच साल और उसके कम की उम्र के बच्चे के लिए किसी भी किस्म का विज्ञापन नहीं होना चाहिए। कम्पनियाँ जान-बूझकर ऐसे विज्ञापन बनाती हैं जिनमें वे बच्चों के जरिए उसके माता-पिता को फँसा सकें। इस रास्ते अनिश्चितता और भय के सृजन पर आध्ाुनिकता पलती है। इसके बरअक्स पारम्परिक समाजों में अनिश्चितता इसलिए नहीं होती क्योंकि वे केवल ‘आज’ के लिए जीते हैं। वे आने वाले कल की चिन्ता नहीं करते।
उदयन- इसीलिए शायद बच्चा कभी आलसी नहीं हो पाता क्योंकि उसके पास आलस्य का समय ही नहीं होता...
जिनन- ...क्योंकि वे सारा दिन शारीरिक रूप से व्यस्त रहते हैं। अगर आप एक छोटे बच्चे को दिनभर देखते रहें तो पाएँगे कि वे हमेशा ही कुछ न कुछ कर रहे होते हैं। रात में बेसुध्ा सोते हैं। आध्ाुनिक बच्चों में आलस्य इसलिए भी है क्योंकि वे कक्षाओं में आठ-आठ घण्टे बिना कुछ किये बैठे रहते हैं। इसका सम्बन्ध्ा आधुनिक शिक्षा पद्धति से है जिसके चलते उनका शरीर निश्चल होता है। इतना अध्ािक निष्क्रिय रहने शरीर का स्वभाव नहीं है। न ही उसकी ऐसी आदत होती है। उसे लगातार सक्रिय रहना होता है, कुछ न कुछ करते रहना होता है। हम स्कूलों में बच्चों को घण्टों बैठा कर रखते हैं। उन्हें पढ़ने को बाध्य करते रहते हैं। सुनने को भी। इसलिए थोड़े-से भोजन के अवकाश में, उस अन्तराल में बच्चों की ऊर्जा का विस्फोट होता है पर वह भी केवल कुछ स्कूलों में ही बाक़ी है। अब वह अन्तराल भी कई स्कूलों में नियन्त्रित किया जाता है। आध्ाुनिक मनुष्यों ने कभी भी बच्चों की वास्तविक आवश्यकताओं का सम्मान नहीं किया। पहले उनके शरीर को निष्क्रिय बनाया जाता है फिर इसके अभाव को बाॅडी-बिल्डिंग आदि भरा जाता है। हमारे ग्रामीण-आदिवासी स्कूलों में यह कृत्रिम बाॅडी-बिल्डिंग और व्यायाम नहीं होते क्योंकि वे सारा दिन अपने शरीर के साथ कुछ न कुछ कर ही रहे होते हैं। उन्हें बाॅडी-बिल्डिंग की ख़ातिर एक अतिरिक्त घण्टे की ज़रूरत नहीं होती।
उदयन- इसलिए वहाँ किसी की भी जि़न्दगी में आलस्य का प्रवेश नहीं होता।
जिनन- आप देख सकते हैं कि उस समाज में बूढ़े लोग भी कुछ न कुछ करते ही रहते हैं। मेरी माँ अब नवासी वर्ष की हैं। यह सच है कि लम्बे समय तक शिक्षक रही हैं, लेकिन उस सबका उन पर बहुत असर नहीं है। लेकिन अच्छी बात यह थी कि वे हमेशा कुछ न कुछ करती रहती थी। जब वे पढ़ाने भी जाती थीं, वे लौटकर बगीचे की देखभाल करती थीं। इसलिए अब भी वे भले ही जल्दी थक जाती हों और बहुत स्वस्थ न हों, लेकिन जब भी उन्हें थोड़ी बहुत ताकत महसूस होती है, वे काम करने लगती हैं। वे और उन जैसे लोग जानते ही नहीं है कि आराम कैसे किया जाता है। वे हमेशा ही ऊर्जस्वित बने रहते हैं। शारीरिक रूप से वे ठीक रहते हैं। हमारी प्रकृति तो यह है कि हम आलसी नहीं होते। हम शहरी लोग आलसी हो गये हैं। मैं खुद आलसी हो गया हूँ। आलस्य ने शरीर को ध्ाारण कर लिया। यही बात बहुत से शिक्षित लोगों के साथ हो गयी है।
उदयन- हमने स्वामित्व की भावना की बात भी की थी। ग्रामीण-आदिवासी परिवेश में बच्चों में स्वामित्व की यह भावना नहीं होती।
जिनन- मेरे दोस्त का दोस्त सूरत के पास किसी ग्रामीण हाट गया था। वह साप्ताहिक हाट है। वहाँ आदिवासी और ग़ैर-आदिवासी सभी आते हैं। मेरे दोस्त का दोस्त जेवरात का व्यापार करता है। उसे वहाँ एक बात दिलचस्प लगी। आदिवासी हाट में आते, चीजे़ं खरीदते और चले जाते। अगर किसी का कुछ पैसा देना बाकी रहता, विक्रेता उसका नाम नहीं लिखता था। लेकिन जब भी ग़ैर-आदिवासी का पैसा उध्ाार रहता, विक्रेता उसके नाम पर पैसा ज़रूर लिखता। जब हाट उठ गयी, हमारे दोस्त के दोस्त ने पूछा कि तुम लोग आदिवासी लोगों की उध्ाारी क्यों नहीं लिखते। विक्रेता बोले, कि आदिवासी कभी ध्ाोखा नहीं देते। वे अपनी उध्ाारी याद रखकर पैसा वापस कर देते हैं। यही कुछ मैं यहाँ केरल के एक गाँव में भी देखता हूँ। जब भी ग्रामीण आदिवासी इलाक़ों के लोग पैसा उध्ाार लेते हैं, वे उसे लौटाना अपनी जि़म्मेदारी समझते हैं। आपको उनका वह उध्ाार याद रखने की ज़रूरत नहीं होती। मैं आपको उन सम्बन्ध्ाों के विषय बताने की कोशिश कर रहा हूँ जो उनके वस्तुओं के साथ हैं। उनकी निष्ठा के बारे में। ऐसे भी कई स्थान है जहाँ ताले नहीं लगाये जाते। ताला-चाबी का इस्तेमाल नयी चीज़ है। मेरा दोस्त बता रहा था कि वह बस्तर में आदिवासियों के साथ रह रहा था। अबूझमाड़ में। वहाँ बहुत छोटी झोपडि़याँ होती हैं। बड़ी से बड़ी दस फुट लम्बी दस फुट चैड़ी से अध्ािक नहीं होतीं। उन्हीं में सब कुछ होता है, उसी में कुत्ता, सुअर आदि भी रहते हैं। मेरे दोस्त ने उनमें से एक से कहा कि तुम लोग अपना घर बड़ा क्यों नहीं बना लेते। उस आदिवासी व्यक्ति को समझ में ही नहीं आया कि मेरा दोस्त क्या बोल रहा है। फिर वह बोला, ‘यह हमारा घर नहीं है। हमारा घर तो बाहर है!’ यहाँ घर की समझ में कितना अन्तर है। जब तक आपका मानस प्रकृति का भाग बना रहता है, आप प्रकृति द्वारा संचालित होते हैं, आपकी मूल्य व्यवस्था बिल्कुल अलग होती है। वहाँ स्वामित्व नहीं होता। वह वैसा ही होता है जैसी प्रकृति है। लेकिन जैसे ही मानस मनुष्य-केन्द्रित हो जाता है, वह अपने नियम खुद बनाने लगता है जो अमूमन प्रकृति के विरुद्ध होते हैं। हमें हमारे आध्ाुनिक प्रत्ययों जैसे दूरगामी और निकटगामी (लाॅन्ग टर्म और शाॅर्ट टर्म) पर सोचना चाहिए। आदिवासी समाज में ऐसे प्रत्ययों का उपयोग इसलिए नहीं होता क्योंकि ये दोनों ही उनके लिए एक हैं। जबकि आध्ाुनिक जीवन में वे अन्तर्विरोध्ाी हैं। आपके दूरगामी लक्ष्य और निकटगामी लक्ष्य अलग-अलग और अन्तर्विरोध्ाी होते हैं। निकटगामी (शाॅर्ट टर्म) लक्ष्य हमेशा ही नुक़्सानदेह होते हैं और आप तब उम्मीद करते हैं कुछ समय बीतने पर चीज़ें सुध्ार जायेंगी।
उदयन- लेकिन वैसा कभी होता नहीं है। क्या आपको लगता है कि आज ऐसी शिक्षा सम्भव है जिसका आप जि़क्र कर रहे हैं, जिसमें बच्चे का मानस प्रकृति से जुड़ा रह सकता हो।
जिनन- बिल्कुल है। यह बिल्कुल सम्भव है, अगर हम इस सब को गहराई से समझे और ऐसी समझ के साथ कुछ लोग और अभिभावक एकत्र हो सकें। लेकिन वह बहुत आसान नहीं होगा क्योंकि हम इतना नुकसान कर चुके हें कि हमें इस रास्ते पर बहुत सम्भल कर चलना होगा। हम पहले ही ग़लतियों पर खड़े हुए हैं। हम प्रकृति के विरोध्ा में ही खड़े हैं। बच्चा हमारे जीवन में प्रकृति की तरह ही आता है। हमें बच्चे से सीखने की प्रक्रिया में ही समझ बनानी होगी। मुझे लगता है कि हमें तीन तरह के लोग ही बचा सकते हैं। पहली तो प्रकृति ही है। हमें देखना चाहिए कि प्रकृति कितने ध्ाीरज से सीखती है और अगर हममें विनय है, हम प्रकृति से उतने ही ध्ाीरज से सीख सकते हैं। दूसरे ग़ैर-साक्षर लोग हमें सीखा सकते हैं अगर हम उन्हें अपना जैसा न बना लें। क्या आप ‘निरन्तरता की ध्ाारणा’ से वाकि़फ़ हैं? एक महिला हैं, जाँ लीडलाॅफ़। वे पाँच-सात वर्ष अमेज़ाॅन के वासियों के साथ रहीं। वहाँ के लोगों से उन्होंने कुछ अद्भुत सीखा। उन्होंने उस पर छोटी-सी कि़ताब लिखी है। उन्होंने भी इस विषय में बहुत सुन्दर लिखा है। बच्चों में अपनी सामथ्र्य होती है। बच्चे के आने से पहले वयस्कों को भी तैयारी करनी चाहिए जिसके चलते उन्हें केवल फ़र्श या ज़मीन का दैनन्दिन जीवन में उपयोग करना शुरू करना चाहिए। इसके लिए चूँकि हमारे पास कोई मार्ग-दर्शक नहीं है, इन सब का उपयोग ध्ाीरे-ध्ाीरे करना चाहिए वरना ये ख़तरनाक हो सकते हैं। इसके लिए शायद हमें गै़र-साक्षर लोगों से मार्ग-दर्शन पा सकते हैं।
उदयन- असली सवाल इसके बाद भी यह है कि स्कूलों का क्या होगा?
जिनन- जब हम पुनर्विचार कर रहे होंगे, हमें पूरे जीवन की नयी तरह से कल्पना करना होगी। केवल आर्थिक व्यवस्था के लिए ही नहीं। आज सभी चीज़ें की कल्पना मुनाफ़े और अर्थ-व्यवस्था में संकेन्द्रित हो गयी हैं। अगर यही स्थिति रही तो हमें पुनर्विचार या पुनर्कल्पना से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। ये सारी समझ बेकार है। अगर हमें जीवन, प्रकृति आदि के बारे सचमुच चिन्ता है तो सम्पूर्ण जीवन पर पुनर्विचार करने का प्रयास करना चाहिए। आज कोई भी ऐरा-गै़रा विकल्प सुझाता रहता है। वैकल्पिक शिक्षा, वैकल्पिक चिकित्सा आदि। ये सब पैसा बनाने की फि़राक़ में रहते हैं। इसलिए सब अपने समाध्ाान बेचने में लगे रहते हैं। जब तक ‘ध्ान’ हमारे सोच के केन्द्र में रहेगा, हम जीवन और प्रकृति पर पुनर्विचार कर ही नहीं सकते। अगर जीवन स्वयं केन्द्र में है, तो बच्चे महत्वपूर्ण हो जाते हैं, प्रकृति भी। हमें जीवन की अन्य प्रत्ययों में, अन्य चैखटों में परिभाषा करनी होगी जहाँ प्रेम, सेवा, नैरन्तर्य, जीवन को बनाये रखने की विध्ाियाँ आदि महत्वपूर्ण होंगी।
उदयन- आपकी दृष्टि में वह क्या है जिसे कला कहा जायेगा?
जिनन- दरअसल मेरा कला से सम्बन्ध्ा विच्छेद हो गया है। मैं अब सौन्दर्य पर केन्द्रित हूँ। यह इसलिए हुआ क्योंकि मुझे लगा कि कला भी जैसा कि उसे आज समझा जाता है खेलों, ड्राईंग आदि की तरह ही आध्ाुनिकता की निर्मिति है। आध्ाुनिकता ने सौन्दर्य को भी ग़लत समझा है। उसने ज्ञान नामक चीज़ बनाकर और उससे व्यवहार करने को ही सीखना मान रखा है। इस तरह सीखना पूरी तरह मानसिक कर्म होकर रह गया है। जब आध्ाुनिकता ने सभी चीज़ों का मानसीकरण कर दिया, जब उसने सभी चीज़ों को मानसिक क्रिया बनाकर रख दिया उसने सारे कार्य-कलापों को मस्तिष्क की गतिविध्ाि की तरह देखना शुरू कर दिया। जब मैं आदिवासी-ग्रामीण इलाकों में गया, मैंने पाया कि आत्माभिव्यक्ति जैसी कोई चीज़ नहीं होती। दूसरी विचलित करने वाली चीज़ मैंने यह अनुभव की कि सौन्दर्य आध्ाुनिक संसार के लिए ऐन्द्रिक नहीं, मानसिक अनुभव है। जब आध्ाुनिकों ने ज्ञान की प्रक्रिया में इन्द्रियों की भूमिका को नकार दिया, उन्होंने उनकी भूमिका को जीवन के हर क्षेत्र में भी नकारा। आध्ाुनिकता का किसी भी चीज़ की ओर जाने का ढंग है, उसके बारे में सोचना और उसे समझ लेना। कला भी सोचकर समझ ली जाने वाली चीज़ हो गयी। इस बारे में मेरे मन में तभी से शंकाएँ आने शुरू हो गयी थी जब मैंने एन.आई.डी. में पढ़ना शुरू किया था। सबसे बड़ा अपराध्ा सभी को अपनी तरह के सोचने के ढंग में परिवर्तित करने में है जहाँ आप सभी को यह संसार आपकी अपनी तरह से दिखाने को तैयार कर लें। यह ध्ार्मान्तरण से भी गयी-गुज़री चीज़ है। ध्ार्मान्तरण अलग से नज़र आता है लेकिन यह परिवर्तन ज्ञान के भेष में किया जाता है और कला में यह परिवर्तन इससे भी अध्ािक ख़राब है। दुखद यह है कि गै़र-पश्चिमी कलाकार भी वैश्विक पश्चिमी कला को ही सार्वभौमिक मानते हैं। मैं इसलिए यहाँ के कलाकारों से बात करने से गुरेज़ करता हूँ क्योंकि मैं उनके साथ तर्क नहीं करना चाहता। यह इसलिए क्योंकि मैंने जो भी समझा है, वह अनुभव से है। मैं अनुभव पर तर्क नहीं कर सकता। आप कि़ताबें पढ़कर तर्क करते रह सकते हैं। लेकिन अगर मैंने कुछ देखा है, कुछ अनुभव किया है, मैं अपने अनुभव का साझा कर सकता हूँ पर मैं उस पर तर्क नहीं कर सकता।
उदयन- मैं यह समझता हूँ, सत्य के अनुभव और तर्क के सत्य के बीच के अन्तराल को मैं समझता हूँ।
जिनन- यह सालों का अन्वेषण रहा है। ऐसा नहीं कि मैंने लोगों को पढ़ने का प्रयास नहीं किया। एन.आई.डी. में पहले पहल मैं सौन्दर्य पर उपनिवेशीकरण के प्रभाव के बारे में सजग हुआ। इसका यह आशय कतई नहीं कि मैं पश्चिम के लोगों का सम्मान नहीं करता। मैं जानता हूँ कि जर्मनी के ‘बाहुवास’ आन्दोलन के पाॅल क्ले जैसे कलाकारों का जीवन उनके अपने सन्दर्भ में बेहद खूबसूरत, विश्वसनीय था। हमारा वह सन्दर्भ नहीं है। हम केवल उस सन्दर्भ की नकल कर वह नाट्य यहाँ रचने का प्रयास कर रहे हैं। मैंने बहुत सारे दिन केन्डिन्सिकी, पाॅल क्ले के कामों को देखते हुए गुज़ारे हैं। लगभग सारे पश्चिम उस्ताद चित्रकारों के चित्र देखते हुए। यह स्पष्ट रहना चाहिए कि उन्होंने अपने परिवेश में बहुत अध्ािक विश्वसनीय अन्वेषण किया है। शुरू में मुझे एक तरह की राजनैतिक समस्या का सामना करना पड़ा। मुझे लगा कि हमारा उपनिवेशकरण हुआ है। मैं यह सोचने लगा कि मैं कैसे अपना विउपनिवेशीकरण करूँ। इस सन्दर्भ में सौन्दर्य से मेरा पहला सामना तब हुआ जब मेरी एक दोस्त ने एक ‘लोगो’ डिज़ाइन किया था। उसने उसके छह संस्करण तैयार किये थे। उसने मुझे वे संस्करण दिखा कर पूछा कि मुझे उनमें से कौन-सा पसन्द है। मुझे उन छहों में कोई अन्तर नज़र नहीं आया। तभी मुझे समझ में आया कि उनमें अन्तर अवश्य है पर मेरे आँखें इतनी संवेदनशील नहीं हो पायी हैं कि वे वह अन्तर देख पाती। एन.आई.डी. जैसी संस्थान में सौन्दर्य के विषय में संवेदनशीलता विकसित करने का ही प्रयास किया जाना चाहिए। सौन्दर्य हर तरफ है, प्रश्न यह है कि वह क्या है, कि क्या हम उसके प्रति पर्याप्त संवेदनशील है। हम विकलांग लोगों की शिक्षा के विषय में बात करते रहते हैं पर यह भी सच है कि हमारे संस्थानों ने सौन्दर्य बोध्ा से विकलांग लोग उत्पन्न कर दिये हैं। ब्यूटी-डिसेबल्ड-पीपल। केवल वही नहीं बल्कि ऐसे लोग भी जिनका सौन्दर्य बोध्ा विकृत है। ब्यूटी-डिसटोर्टेड-पीपल। मैं यहाँ तक कहूँगा कि जो लोग कला में प्रशिक्षित हुए हैं, मसलन कलाकार या डिज़ाइनर्स, वे ब्यूटी-डिसटोर्टेड लोग है। उनका सौन्दर्य बोध्ा विकृत हो गया है। उन लोगों को जो अन्य पेशों में आये हैं जैसे वाणिज्य, यान्त्रिकी आदि में आप कुछ सुन्दर दिखाइए, वे उससे प्रतिकृत होना जानते नहीं है। बहुत थोड़े से लोग जो बिल्कुल साध्ाारण विषयों जैसे इतिहास या दर्शन या मनोविज्ञान आदि पढ़ते हैं, उनमें पता नहीं क्यों उतनी विकृति नहीं आयी है। शायद इसलिए क्योंकि उनका कला से किसी भी स्तर पर सामना होता ही नहीं है। इसलिए वे कहीं अध्ािक मुक्त ढंग से या नैसर्गिक रूप से सौन्दर्य से प्रतिकृत होते हैं। मैंने एन.आई.डी. में कई सारे प्रयोग किये यह समझने कि हम सौन्दर्य को किस तरह देखें। उनमें से एक प्रयोग यह था कि मैं महान कलाकारों के कामों को निरन्तर देखता रहा लेकिन मैं उनका नाम और उनका समय जानने की कोशिश नहीं करता था। हरेक को कला के इतिहास, उसके काल और उसकी शैली आदि को जानने में रुचि रहती थी। मुझे लगा कि किसी चित्र को पसन्द करने या न करने का आध्ाार यह नहीं होना चाहिए। इस तरह मैं उन फन्दों से बचने की कोशिश में बहुत से व्यक्तिगत प्रयोग करने लगा जिनमें आध्ाुनिकता आपको फँसाती है। मुझे याद है कि मैंने फ़ोटोग्राफ़ी का पाठ्यक्रम किया। वह दो हफ़्तों का था। लेकिन मैं उसे छह महीनों तक हर रोज़ करता रहा। मैंने किसी दोस्त से कैमरा उध्ाार ले लिया और वह पाठ्यक्रम करता रहता। मैं जानता था कि थोड़े से दिनों में आप किसी भी काम के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकते। आपको वह काम हर रोज़ करना पड़ता है। मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि मैं कला को अपने तई गहराई से अनुभव के स्तर पर समझने का प्रयास कर रहा था। मुझे लगता है कि अनेक सौन्दर्यशास्त्री कला की बातें ज़रूर करते हैं लेकिन उन्हें इस सबका अनुभव नहीं है। वे सिर्फ़ यह बता सकते हैं कि काण्ट ने क्या कहा था या भरत ने। मैं एक बार किसी व्यक्ति से कला के अनुभव के बारे में बता रहा था कि उसने मुझसे कहा कि आप आनन्द कुमार स्वामी को क्यों नहीं पढ़ते।
उदयन- ऐसा तब कहा जाता है जब आप किसी भी अनुभव को उसके अपने वैशिष्ट्य में ग्रहण नहीं कर पाते। अगर सिद्धान्त में कला के अनुभव के सत्य को व्यक्त करने की सामथ्र्य होती तो सिद्धान्त जानकर ही लोगों का काम चल गया होता। सिद्धान्त का सौन्दर्य यह नहीं है। वह कुछ और है।
जिनन- ये सारी चीज़ें पहले पहले दिमाग से नहीं समझी जाती। कला के अनुभव के बाद आप उस पर विचार करने के उद्देश्य से उसपर दिमाग लगा सकते हैं। लेकिन शुरूआत में हमें उसके अनुभव पर ठहरना चाहिए। उस अनुभव में डूबना चाहिए। यही सौन्दर्य के साथ सम्भव है। यह चिन्तन में नहीं होता। एन.आई.डी. जाने के कुछ समय बाद से ही मैं डिज़ाइनर होना नहीं चाहता था। मैं न तो वस्तुएँ बनाना चाहता था न उन्हें बेचना चाहता था। मैंने सोचा कि मैं शिल्प करता हूँ। बाद में, मैं कोलकता जाकर शिल्प बनाने लगा लेकिन तीन प्रदर्शनियों के बाद ही मैं समझ गया कि यह गैलरी, प्रदर्शनी आदि मुझसे नहीं होंगे और मैं वह बन्द कर दिया। लेकिन मैं काम करता रहा। तभी मैंने शान्तिनिकेतन जाकर वहाँ भी पश्चिमीकृत सौन्दर्यशास्त्र के व्यवहार को देखा। वहीं मैंने बिना किसी सैद्धान्तिक आध्ाार के सौन्दर्य के अनुभव का किंचित गहराई से अन्वेषण करने का प्रयास किया पर वह वहाँ बहुत नहीं हो सका। लेकिन जब मैंने आदिवासी-ग्रामीण लोगों के साथ काम करना शुरू किया, मैं वहाँ एक बहुत दिलचस्प बात देखने लगा। अगर आप आध्ाुनिक परिदृश्य देखें, आध्ाुनिक स्थापत्य, डिज़ाइन आदि सभी हर शहर में लगभग एक से लगते हैं। आप जब आदिवासी-ग्रामीण अंचलों में जाते हैं, आप पाएँगे हर आदिवासी-ग्रामीण अंचल में एक अलग सौन्दर्यात्मक दृष्टि है। आन्ध्ा्र प्रदेश के घर हों या नागालैण्ड के, बिहार के हों, कच्छ के, हर जगह वे अलग ढंग होते हैं।
उदयन- यह कहने को साध्ाारण सी बात है पर इसमें आध्ाुनिकता की एक गहरी विडम्बना उजागर होती हैः यहाँ व्यक्ति के अलगाव पर इसका इतना अध्ािक ज़ोर है तब भी इसके अध्ाीन बने शहर या स्थापत्य एक जैसे हैं।
जिनन- मैं आपको एक घटना सुनाता हूँ। एक दिन मैं एक स्त्री को मिट्टी की गोल तश्तरी बनाते देख रहा था। वह पहले मिट्टी को बेलकर पट्टी बनाती थीं और चाकू से गोला काट रही थीं। वे इस पट्टी से गोल तश्तरियाँ बनाना चाह रही थीं। मैंने पाया कि वे हर बार के ठीक-ठीक गोला काट रही थीं। मैं सोचने लगा कि वे ऐसा कैसे कर पा रही हैं। एन.आई.डी. के पहले वर्ष में हमारा प्रशिक्षण हर दिन रेखा और गोला खींचने के लिए होता था। हम यह घण्टे भर तक करते थे। मैं यह चकित होकर सोचने लगा कि यह स्त्री किस डिज़ाइन संस्थान गयी होगी कि यह परफे़क्ट गोले बना रही है। यह तब हुआ जब मैंने पढ़ना बन्द कर दिया था। आमतौर लोगों पर निष्कर्ष निकालने का दबाव रहता है। पर पढ़ना बन्द करने के बाद से मुझ पर निष्कर्ष देने का दबाव हट गया। मैं चीज़ों को सिर्फ़ देखता हूँ। जब आप किसी चीज़ को देखते हैं, आपको निष्कर्ष देने की ज़रूरत नहीं होती। जब मैं ऐसा करने लगा तो ऐसा होता था कि जब एक ही चीज़ बार-बार सामने आती थीं, उसकी देखने की स्मृतियों में एक पैटर्न बन जाता था क्योंकि आप हर बार ध्यानपूर्वक देखते थे। यह करते हुए एक दिन मुझे अचानक यह विचार आया कि आदिवासी-ग्रामीण लोग सौन्दर्य से जुड़े अपने किसी नैसर्गिक गुण के सहारे अपने आस-पास की चीज़ों से प्रतिकृत होते हैं। मुझे उन लोगों और नागर लोगों में यह फ़र्क नज़र आता है कि नागर लोग कुछ करके उसमें सौन्दर्य को जोड़ते हैं जबकि ग्रामीण-आदिवासी परिवेश में लोग जो करते हैं, वह सुन्दर हो जाया करता है। वे उसे सुन्दर बनाने की इच्छा से नहीं बनाते। यह महत्वपूर्ण है। वे जो भी करते हैं, वह इसलिए सुन्दर हो जाता है क्योंकि चीज़ों की यही स्वभाविक प्रवृत्ति है। यह इसलिए नहीं है क्योंकि उनके दिमाग में उसे सुन्दर बनाने का कोई विचार है। इसे ही आध्ाुनिकता ने खण्डित किया है। यह मेरे अन्वेषण का बेहद निर्णायक मोड़ रहा हैः मैंने सौन्दर्यबोध्ा का विउपनिवेशकरण से अपना सफ़र शुरू किया था, जहाँ मैं सौन्दर्य बोध्ा के राजनैतिक आयाम का अवलोकन कर रहा था, वहाँ से मैं सौन्दर्यबोध्ा के जैविक या नैसर्गिक आयाम पर आया। यह आयाम कहीं अध्ािक गहन और सार्वभौमिक है। यह दो तरह के लोगों के बीच का फ़र्क नहीं है यानि उपनिवेशीकृत और विउपनिवेशीकृत लोगों के बीच का फ़र्क। यह सौन्दर्यबोध्ा इससे कहीं अध्ािक गहरा है, इतना कि हर मनुष्य में इस स्तर पर यथार्थ से प्रतिकृत होने की क्षमता है। लेकिन चूँकि हमने अपनी जैविकी को नकार दिया है, हम मानसिक स्तर से प्रतिक्रिया करने लगे हैं।
उदयन- क्या आप यह कह रहे हैं कि आध्ाुनिक मनुष्य या कहें किसी भी तरह से उपनिवेशीकृत मानस (जहाँ वह आध्ाुनिकता से ही उपनिवेशीकृत हो, ज़रूरी नहीं है। वह किसी भी तरह से उपनिवेशीकृत हो, चाहे तो ज्ञान की किसी अवध्ाारणा से) दरअसल कुछ करता है और फिर उस पर सौन्दर्य के किसी तैयारशुदा या अपेक्षाकृत कम तैयारशुदा विचार को आरोपित कर देता है जबकि आदिवासी-ग्रामीण परिवेश के सदस्यों के कुछ करने की प्रक्रिया ही सौन्दर्य उत्पादन की प्रक्रिया होती है।
जिनन- केवल ज्ञान को लिखा जा सकता है, उसे ही भाषाकृत किया जा सकता है, अनुभूतियों और संवेदनाओं को नहीं। अगर आप ‘लेखन’ का इतिहास देखें तो पाएँगे कि शुरूआत में उसका इस्तेमाल केवल कुछ चिन्ह लगाने आदि में ही किया जाता था। वह कभी विचारों के सम्प्रेषण के लिए प्रयुक्त नहीं होता था। आप जि़न्दगी के अध्ािकतर अनुभवों को नहीं लिख सकते। शायद इसीलिए कई सभ्यताओं में सयाने लोग ‘लेखन’ को लेकर चिन्तित हुए थे। यह चेतावनी भी स्पष्ट रूप से दी गयी थी कि इसके व्यवहार से बचो। अगर आप पश्चिम का भी इतिहास देखें, आप पाएँगे कि सत्रहवीं या अठारहवीं शती तक ही आत्माभिव्यक्ति का विचार आया है। उसके पहले वहाँ उस अर्थों में कलाकार नहीं थे जिस अर्थ में हम उन्हें आज समझते हैं। लियोनार्दो आदि अपने चित्रों में आत्माभिव्यक्ति नहीं कर रहे थे। वे कुशल कार्य कर रहे थे। वह वैसा कलात्मक काम नहीं था जैसा हम आज समझते हैं जिसमें कोई विशेष तरह के विचार का अन्वेषण किया जाता है। यह विभाजन शुरू में पश्चिम में भी नहीं था। यह मस्तिष्क के शरीर पर क़ब्ज़ा कर लेने के बाद की घटना है। अगर आध्ाुनिक व्यक्ति के किसी कार्यकलाप को देखें। मसलन आप डिज़ाइनर को देखें। वकमिंस्टर फ़ुलर कहते हैं कि रूप प्रकार्य से पहले आता है। इसीलिए रूप और प्रकार्य का निश्चय ही स्पष्ट विभाजन हो चुका है। पारम्परिक सन्दर्भ में रूप और प्रकार्य के बीच का विभाजन नहीं है। वे साथ रहते हैं। इसीलिए कर्म और सौन्दर्य साथ हो जाते हैं। वे जो करते हैं इसलिए सुन्दर हो जाता है क्योंकि वहाँ कर्म करने के बाद सौन्दर्य के विषय में नहीं सोचा जाता। हर गढ़न विशेष संवेदनशीलता के साथ की जाती है, और स्वतः ही वह सुन्दर हो उठती है।
मैंने एक बहुत महत्वपूर्ण चीज़ समझ ली है कि हर सामग्री का अपने ध्ार्म होता है, उसे बरतने के अपने नियम होते हैं। आदिवासी ग्रामीण लोग बिना किसी अतिरिक्त सजगता के सामग्री के उस विशेष गुण को, उस ध्ार्म को छू पाते हैं और इसलिए वह सामग्री सुन्दर हो जाती है। यहाँ दो चीज़ें हैंः पहली सामग्री की अपनी सम्भावना है। मानो सामग्री कह रही हो, मैं इसके योग्य हूँ।, दूसरी चीज़ यह है कि व्यक्ति चूँकि अपने अहंकार से परिचालित नहीं होता, वह सामग्री के ध्ार्म के साथ बहने लगता हंै। उस सामग्री के अपने स्वभाव के साथ। यही कारण है कि आदिवासी-ग्रामीण लोग चाहे जिस सामग्री में काम करें- चाहे वह मिट्टी हो, बाँस हो या कुछ और - सामग्री के अपने गुण निखर कर सुन्दर हो उठते हैं। यहाँ सामग्री पर कलाकार या शिल्पी के अहंकार का वैसा आरोपण नहीं होता जैसा आध्ाुनिक परिवेश में होता है। आध्ाुनिक शिक्षा में यह निहित है। मसलन जब आप मिट्टी पर काम करने की शिक्षा लेते हैं, आपको काम करने की कुछ पद्धतियाँ और नियम सिखाये जाते हैं और जब आप मिट्टी पर काम करने जाते हैं, आप वे सीखी हुई पद्धतियाँ और नियम मिट्टी पर लागू करने लगते हैं। आप मिट्टी या किसी सामग्री से जुड़ते नहीं हैं, न उससे सीखते हैं।
उदयन- आपने यह बड़ी खूबसूरत बात कही है। सामग्री का बोलना, उसका कलाकार को सुझाव देना। यह कह सकते हैं कि कलाकार को अपने भीतर सामग्री को सुनने की कोशिश करना चाहिए। शायद आध्ाुनिक व्यक्ति के अकेलेपन का कारण भी यही है कि उसके भीतर प्रकृति नहीं बोलती। उसके भीतर उसका अकेलापन बोलता है।
जिनन- मैं आदिवासी-ग्रामीण अंचलों में इस बात को ध्यान से देखने लगा कि वहाँ सुन्दरता क्यों हैं। तब बहुत सी घटनाएँ साथ लाने लगीं। एक दिन मैंने देखा कि ज़मीन पर बैठे दो लोग आपस में बातें कर रहे हैं। कुछ देर बाद एक और व्यक्ति वहाँ आ गया। पहले से बैठै दो लोगों ने अपना स्थान ज़रा बदलकर उस तीसरे आदमी के जगह बना दी। मुझे तुरन्त लगा कि वहाँ एक तरह पुनर्संयोजन हो रहा है। तभी मुझे लगा कि प्रकृति भी इसी तरह संयोजन, पुनर्संयोजन के रास्ते अपने को व्यवस्थित करती रहती है। उसके बाद से मैं उस हर गतिविध्ाि को ध्यान से देखने लगा जो वहाँ लोग कर रहे थे। मैंने पाया कि हर गतिविध्ाि लयात्मक थी चाहे वहाँ एक व्यक्ति हो, दो हों, तीन या अध्ािक। हर जगह अद्भुत समंवय और लयात्मकता थी। और इसके लिए कोई उन्हें कुछ कह नहीं रहा था। मैंने इनमें से कई के विडियो भी बनाये हैं। आपने ख़ानाबदोश लुहारों को देखा होगा कि वे कैसे लोहे की अनेक चीज़ें बनाते हैं। इसमें अध्ािकतर स्त्रियाँ हथौड़ा चलाती हैं और पुरुष सामग्री (यानि लोहे) को चिमटी से पकड़कर नियन्त्रित करते हैं। कई बार दो लोग हथौड़ा चला रहे होते हैं। उन्हें यह करते देखना कैसा अद्भुत अनुभव होता है। विशेषकर इसलिए भी कि उन्हें कोई भी अनुशासित नहीं कर रहा होता है। मैंने एक बार दो मछलीमार नाविकों को अरब सागर में देखा था। वे काटामरान (एक विशेष तरह की नाव) चला रहे थे। यह देखना अद्भुत था कि वे कैसे एक लय में काटामरान चला रहे थे। मैंने ऐसी सारी जगहों पर कमाल की लयात्मकता देखी। तब मुझे महसूस हुआ कि जीवन ने अपने को इसी तरह व्यवस्थित किया है। हम जब भी कुछ सुन्दर देखते हैं, हमें संज्ञानात्मक सरलता महसूस होती है, कोग्निटिव ईज़। मुझे लगा सब कुछ का सम्बन्ध्ा संज्ञान से है लेकिन केवल तब जब आप उसके बारे में सोच नहीं रहे हों। प्रकृति अपने को इस तरह व्यवस्थित करती हैं कि न्यूनतम ऊर्जा में महत्तम कार्य सम्भव हो पाये। इसी स्थान पर मेरे समझ से, सौन्दर्य की भूमिका है। सौन्दर्य वह है जो हमें नैसर्गिक रूप से संचालित उचित कार्य कराता है।
उदयन- आप जिस लय की चर्चा कर रहे है, उस पर सोचने से ऐसा महसूस होता है कि प्रकृति की लयात्मकता बहुत समावेशी होती है। मसलन दो लोग आपस में एक लय में बातचीत कर रहे हैं और तभी वहाँ एक तीसरा व्यक्ति आ जाता है तो यह तीसरा बड़े आराम से उनमें शामिल हो जाता है और लय भी नहीं टूटती। इसका यह आशय हुआ कि वह लय पहले से ही बहुत समावेशी थी। इसलिए जब भी कोई नया तत्त्व (यहाँ तीसरा व्यक्ति) दो व्यक्तियों में शामिल होता है, उसे पहले की लय को अपने पर आरोपित नहीं करना पड़ता। दरअसल वह अपनी लय से आता है और उसके दो बात करते लोगों में शामिल होते ही उन तीनों के बीच एक नयी ही लय उत्पन्न हो जाती है। और इसी में एक और व्यक्ति शामिल होने पर एक और लय के उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है।
जिनन- दरअसल समावेशी या अपवर्जक होने की समस्या पूरी तरह आध्ाुनिक है। यह शुरू होती है इन्द्रियों के नकार से। लोग ज्ञान के जनतन्त्रीकरण के बारे बात करते हैं। मेरे दृष्टि में यह व्यर्थ विचार है। असली जनतन्त्र को मारने के बाद ही इस तरह के जनतन्त्र की चर्चा की जा रही है क्योंकि आपको समझ में नहीं आया है कि ‘सीखना’ है क्या। आप सोचते हो कि हर व्यक्ति को पढ़ना चाहिए और फिर ज्ञान हासिल करना चाहिए। जब हम अपनी इन्द्रियों का उपयोग करते हैं, हमें किसी के सहारे की आवश्यकता ही नहीं होती। वह बिना किसी चयन के होता रहता है। समावेशी होना पश्चात विचार नहीं है, प्रकृति ऐसी ही है।
उदयन- प्रकृति के कार्य करने का यही ढंग है। आपने प्रकृति के अनुरूप क्रियाशील होने की बात कही थी। यहाँ एक सवाल उठता है कि मैं एक तरह से प्रकृति के अनुरूप चलूँगा या एक तरह से प्रकृति से कदम मिलाकर चलूँगा, आप दूसरी तरह से, कोई और तीसरी तरह से। इससे अलग-अलग रूपाकार बनेंगे और अगर हम दोनों मिलकर कार्य करते हैं तो एक तीसरा रूपाकार बन जायेगा। इसका अर्थ यह है कि प्रकृति इस बात की अनुमति देती है कि आप अनेक तरह से उसके साथ चल सकें, उसकी अनुरूपता में सक्रिय हो सकें।
जिनन- यह ठीक है। आप देखिए कि कैसे विभिन्न समुदाय अपना घर बनाने मिट्टी का उपयोग करते हैं। यहाँ किसी एक परिवेश में उनका ढंग या प्रतिक्रिया काफ़ी एक-से होंगे। मसलन वे जो बस्तर में करते हैं या कच्छ में या आन्ध्ा्र प्रदेश में, आपस में कुछ भिन्न हो सकते हैं लेकिन किसी एक क्षेत्र के भीतर उनके कामों में समानता होगी। दरअसल उपयोग में आने वाली सामग्री भी बताती है कि आप उस पर कैसे काम करेंगे। उन क्षेत्रों में सामग्री ही काम की प्रकृति को निर्देशित करती है।
उदयन- मैं सिर्फ़ मिट्टी को ही सामग्री नहीं मान रहा बल्कि उस पर काम करने वाला व्यक्ति भी विशेष सामग्री है। उसकी अँगुलियाँ कैसी है, उसकी आँखें कैसी हैं, आँखों का कोण क्या है आदि। यह मानव सामग्री मिट्टी के सम्पर्क में आयेगी और रचना करेगी। मैं यह कह रहा हूँ कि मसलन बस्तर के मिट्टी के कामों के बीच व्यापक समानता होगी लेकिन उनके बीच बहुत सूक्ष्म अन्तर भी होंगे।
जिनन- मैं आपको एक बहुत दिलचस्प चीज़ बताता हूँ। मैं अहमदाबाद एन.आई.डी. में तीसरे वर्ष की कक्षा में था। बात तब की जब पहले वर्ष के छात्रों ने माॅडल के रेखांकन किये थे। किसी व्यक्ति को बुलाकर लाया गया था, वह वहाँ बैठा था और छात्र अलग-अलग कोणों से उसका रेखांकन कर रहे थे। वे रेखांकन नोटिस बोर्ड पर लगाये गये। हमारे शिक्षक ने मुझ से कहा कि वहाँ चलकर वे रेखांकन देखते हैं। मेरा तब तक उन छात्रों से परिचय नहीं हुआ था। मैं उन्हें मोटे तौर पर जानता था। रेखांकनों को देख हम बता सकते थे कि कौन-सा रेखांकन किसने किया है, हर रेखांकन में छात्र के अंचल की छाप थी। मैंने यह दिलचस्पी बाद में भी बनाये रखी। बाद के वर्षों में जब मैं भारत के अनेक अंचलों में घूम रहा था।, मुझे एक बेहद दिलचस्प बात पता चली। आप देश की अलग-अलग जगहों पर गाँध्ाी जी, इन्दिरा गाँध्ाी, सुभाष चन्द्र बोस आदि बहुत व्यक्तियों के शिल्प देखें। आप पाएँगे कि जब आप बंगाल में है तो आपको मूर्तियों में बंगाली गाँध्ाी दिखेंगे, तमिलनाडु में तमिल गाँध्ाी दिखेंगे। आप शायद यही कह रहे थे। हममें कुछ ऐसा है जिसे हम बिना जाने ही उस सब में रख देते हैं जो हम करते हैं।
उदयन- यह अहंकारपूर्ण कर्म नहीं है।
जिनन- बिल्कुल। इसे जानबूझकर नहीं किया जाता। हम चाहें न चाहें, हमारी छाप हमारे काम पर आकर रहेगी।
उदयन- क्या आप पारम्परिक समाजों के अपनी भाषा से सम्बन्ध्ा के बारे में कुछ कह सकते हैं। वे भी गाने गाते हैं, उनकी भी लोक कथाएँ होती हैं, उनके तरह-तरह के संगीत भी होते हैं। इसका अर्थ है कि वे निरन्तर भाषा से सम्बन्ध्ा बना रहे हैं। हमारा भी भाषा से सम्बन्ध्ा है। भले ही हमारे मामले में यह होता है कि शुरूआत में भाषा हम पर आरोपित की जाती है और उसके बाद हम भाषा सीखने पर मजबूर हो जाते हैं। इसके बरअक्स शायद पारम्परिक समाजों के सदस्य भाषा सहज ही सीखते हैं और फिर आवश्यक होने पर उसका उपयोग करते हैं।
जिनन- हमारे भाषा से बर्ताव में पारम्परिक समाजों से दो बड़े अन्तर हैं। आदिवासी-ग्रामीण क्षेत्रों में भाषा की जटिलता को बच्चों के लिए कम नहीं किया जाता। बच्चा भाषा से उसी तरह जूझता है जैसा कि वह अनुभव के क्षेत्र से है। आध्ाुनिक सन्दर्भों में हम भाषा की जटिलता को बच्चों के लिए बहुत कम कर देते हैं। हम बच्चों को मूर्ख मानकर उन्हें ककहरा या अल्फ़ाबेट्स पढ़ाते हैं। इन दोनों की संज्ञान-संस्कृतियों में यह मूल फ़र्क है। आदिवासी-ग्रामीण क्षेत्रों में भाषा के कथ्य की जटिलता कभी भी बदलती नहीं है और बच्चा उसे किस ढंग से बरतेगा, यह बच्चे की सामथ्र्य पर निर्भर करता है। जब हम भाषा की जटिलता को कम देते हैं, बच्चे को वास्तविक संसार के तीसरे दर्जें के संस्करण से सामना करना पड़ता है। इस तरह देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इन दोनों तरह की भाषा के बनावों में बहुत फ़र्क है। एक सन्दर्भ में भाषा जीवन ही है और इसीलिए आदिवासी-ग्रामीण समाज में शब्द और संसार की अन्तर्निष्ठा बनी रहती है। कभी-कभी मैं यह भी कहता हूँ कि अनुभव ‘क्रियापद’ हैं और भाषा ‘संज्ञा’ है। इन इलाकों में बच्चों को दूसरों की बराबरी पर रखा जाता है। उनके लिए भाषा का सरलीकरण नहीं किया जाता। बच्चा दूसरों के ही स्पेस में रहता हुआ बड़ा होता है। यही सच्चा समावेशी परिवेश है। पश्चिम में बच्चों के लिए भाषा का सरलीकरण होता है और वे बच्चों की इस तरह की मदद करने का उत्सव मनाते है। वे यह नहीं समझते कि जिस क्षण आप ‘मदद करने’ की बात करते हैं, आप ‘ऊँच-नीच’ बना लेते हैं।
उदयन- मुझे लगता रहा है कि कहानी या कविता सबसे पहले आयी होगी, फिर वाक्य, फिर शब्द और अन्त में अक्षर आये। इसलिए जब हम बच्चों को ग़लत छोर से सिखाने लगते हैं, हम भाषा की उत्पत्ति का नैसर्गिक दिशा की अवहेलना करते हैं।
जिनन- बिलकुल यही है। ग्रामीण-आदिवासी बच्चे पहले सम्पूर्णता का अनुभव करते हैं और फिर उसके हिस्सों को बूझते हैं। वे भले ही हिस्सों का अन्वेषण करते हों पर वे पहले सम्पूर्णता का अनुभव करते हैं। मैं पहले आपसे घर के अन्वेषण की बात कर रहा था। वहाँ भी यही है। बच्चे पहले घर को उसकी सम्पूर्णता में अनुभव करते हैं और फिर वे उसके विभिन्न पहलुओं में जाते हैं।
उदयन- पारम्परिक स्थापत्य कला में सम्भवतः ऐसा ही होता था। मैंने रणकपुर मन्दिर के बारे में ऐसा पढ़ा है। वहाँ भी पहले मन्दिर को उसकी सम्पूर्णता में कल्पित किया गया था फिर उस सम्पूर्णता के योग्य ईटों के आकार को तय किया गया था। मैं यह इसलिए कह रहा हूँ कि भाषा का सम्पूर्णता में अनुभव महत्वपूर्ण है क्योंकि भाषा इसी तरह विकसित हुई है। यही उसकी जन्मकथा है। यह विचार कि भाषा हिस्सों में उत्पन्न हुई और फिर मानव मस्तिष्क ने उसे सम्पूर्णता में बदला, ग़लत है और इसलिए बच्चों को इस तरह भाषा सीखना कृत्रिम और शायद घातक है।
आप ग्रामीण-आदिवासी क्षेत्रों के नृत्यों के बारे में क्या सोचते हैं? वह भी व्यापक अर्थ में भाषा ही है। हालाँकि उसे सिर्फ़ भाषा कहना उसे सीमित करना ही हो।
जिनन- उन क्षेत्रों में शरीर हमेशा ही लय में रहता है। वे जो भी करते हैं, लयात्मक होता है। इसी रोज़मर्रा की लय का ही अल्प विस्तार ही नृत्य है। वरना वे एक विशेष अर्थ में हमेशा ही नृत्यरत रहते हैं। कल मैंने इस गाँव में जहाँ मैं रहता हूँ, यह देखा कि जो लड़का यहाँ की एक दुकान में कुछ सामग्री काट कर गोल लपेटकर ग्राहकों को दे रहा था, शायद क्योंकि वह शिक्षित नहीं था, उसमें भी लयात्मकता बनी हुई थी। मैंने यह बात उन शहरी मज़दूरों में भी देखी है जो गाँवों से गये हैं। मेरे पास एक विडियो है जिसमें एक व्यक्ति किसी ध्ाातु का तार सीध्ाा कर रहा है। वह वो काम जिस तरह कर रहा है, उसमें विशिष्ट लय है।
मैं भाषा के विषय में वह विशेष बात आपको बताना चाहता हूँ जो मैं अनुभव करता रहा हूँ कि लिखित भाषा ने दरअसल किया क्या है? उसने भाषा को आँखों का विषय बना दिया है।
उदयन- सुनने के विषय के स्थान पर देखने का विषय।
जिनन- हाँ। इसमें भाषा से हमारे सम्बन्ध्ाों में मूलभूत परिवर्तन आया है। इसने भाषा से हमारे सम्बन्ध्ाों को सिरे से बदल दिया है। दूसरी बात यह है (जिसका जि़क्र इवान इलिच ने किया है) कि पहले लोग ज़ोर से पढ़ते थे। बोलने का अर्थ ही था ज़ोर से बोलना क्योंकि सामुदायिकता का बोध्ा हमारी ‘जीन्स’ में था। इलिच एक ध्ार्म संकट की बात करते हैं। वे कहते हैं कि पुराने किसी समय में किसी मठ में ईसाई सन्त एम्ब्रोज़ रहते थे। वे जागे हुए थे, बाकी सब सो रहे थे। वे सो नहीं पा रहे थे। उन्होंने मोमबत्ती जलाई और बाईबल खोल ली। वे इस ध्ार्मसंकट में थे कि वे पढ़े या न पढ़े। वे कभी कि़ताब को देखते, कभी सोते लोगों को। अचानक उन्होंने पाया कि वे मन में भी पढ़ सकते हैं। आज भी अगर पास के गाँवों की चाय की दुकानों आदि में जायें, आप पाएँगे कि वहाँ लोग ज़ोर-ज़ोर से पढ़कर सुना रहे हैं। वे मन में नहीं पढ़ रहे। मन में पढ़ने की शुरूआत ‘दूसरे’ के नकार का एक चरण है। इसलिए मन में पढ़ना सामाजिक अलगाव का शुरूआती चरण है कि आपको ‘दूसरे’ की आवश्यकता ही नहीं है। मोबाईल टेलिफोन इस अलगाव को और भी बड़े स्तर पर कर रहा है। आज किसी को भी किसी और की ज़रूरत नहीं है।
उदयन- मुझे याद है कि मेरी माँ ज़ोर से पढ़ती थीं। वे पढ़कर अपनी दोस्त को सुनाती थीं।
जिनन- समुदाय की विचार हमेशा ही हमारा आत्मीय हिस्सा रहा है। मन में पढ़ने से एक और वर्जना अस्तित्व में आयी।
उदयन- आपके ग्रामीण-आदिवासी जीवन के पर्यवेक्षणों से यह निकल रहा है, जो आप कहते भी हैं कि सीखना अपने आप होता है। जैसे ही सीखने का संस्थानीकरण होता है और शिक्षित करने का प्रयास किया जाता है, सीखने की नैसर्गिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप होने लगता है।
जिनन- आप पारम्परिक आयुर्वेद सीखने को लें। यहाँ-वहाँ कई श्रेष्ठ वैद्य रहा करते थे। वहाँ सीखने का परिवेश हुआ करता था। सीखने के लिए सीखने का परिवेश होना ज़रूरी है, वहाँ ऐसे दूसरे लोग भी होने चाहिए जो खुद भी सीख रहे हों। जुलाहा अपना बुनने का काम करता है और वहाँ उपस्थित बच्चे को सीखने का परिवेश मिल जाता है और वह बुनना सीखता है। इसी तरह जब आयुर्वेद का वैद्य अपनी विद्या का प्रयोग करता है, वह यहाँ वहाँ ध्ाूम कर मरीज़ देखता है, उसके घर भी मरीज़ आते हैं। बच्चा यह सब देखता रहता है और अपने आप समझता रहता है। वैद्यकि सीखने वाला शिष्य ऐसे व्यक्ति से जुड़ा रहता है जो खुद निरन्तर सीखने की प्रक्रिया में रहता है। लगभग हर वैद्य परिवार की हर पीढ़ी में एकाध्ा उस्ताद तो होता ही था। उनसे बच्चा इस तरह सीखता रहता था। कपड़ा बुनाई में भी हम कई नाम सुनते हैं, बनारसी कपड़ा, भागलपुर, कांजीवरम आदि। आध्ाुनिक परिवेश में लगभग बेहतर चीज़ें केवल किन्हीं बहुत थोड़ी-सी जगहों, महानगरों में होती हैं पर पारम्परिक परिवेश में लगभग हर गाँव में कोई न कोई विशिष्ट कारीगरी या अन्य काम होता ही था। इस हर गाँव में सीखने का अद्भुत परिवेश हुआ करता था। उन लोगों में अपने कौशलों के प्रति कहीं अध्ािक निष्ठा थी। इसीलिए वहाँ सीखना का परिवेश था।
उदयन- और तब प्रतिभा की पहचान और सम्मान भी उन दिनों पर्याप्त था।
जिनन- बिल्कुल था। अगर आप श्रेष्ठ शास्त्रीय संगीतकारों को देखें। वे प्रदर्शन के फेर में नहीं रहते थे। वे कला की प्रक्रिया में रहते थे। उस्ताद गायक अपनी रचना को अन्तिम उत्पाद की तरह प्रस्तुत नहीं करते थे। इसलिए उनकी पहचान का स्वरूप भी अलग होता था। केरल राज्य सरकार ने छटवें दशक में एक महान संगीतकार को एक राजकीय पुरस्कार देना तय किया। शासन के कुछ लोगों ने जाकर उन्हें बताया कि उन्हें राज्य का सम्मान मिला है। उन्होंने पूछा, ‘किस कारण से?’ उन्हें अपने काम के लिए सम्मान की ध्ाारणा समझ में ही नहीं आयी। अन्ततः उन लोग उन्हें भरोसा दिला दिया कि उन्हें त्रिवेन्द्रम आकर सम्मान ग्रहण करना है। वे गये लेकिन इस सम्मान के बदले कुछ पुरस्कार सरकार के लिए भी लेते गये। एक तरह का रिटर्न अवार्ड!
उदयन- इसी तरह एक बार केरल के ही महान कुडियट्टम नर्तक चच्चू चाक्यार को राज्य सम्मान दिया गया था। वे कावालम नारायण पणिक्कर (जो स्वयं श्रेष्ठ रंगनिर्देशक और लेखक थे और उन दिनों केरल संगीत नाटक अकादमी के सचिव थे) के साथ सम्मान समारोह में गये। उन्होंने कहा, ‘पणिक्कर, यह सब पाँच बजे से पहले ख़त्म कर लो क्योंकि मुझे सन्ध्या पूजन के समय से पहले वापस घर पहुँचना है। मैं उस समय तक नहीं रुक पाऊँगा।’ चच्चू को राज्य सम्मान से ज़्यादा रुचि सन्ध्या पूजन में थी। वे बोले, ‘पणिक्कर मन्त्री बाद में बोलते रहेंगे, मुझे सम्मान दिलवाओ और मैं जाऊँ।’ ये वे लोग थे जो अपनी विद्याओं या कलाओं की सम्भावनाओं को टटोलने की प्रक्रिया में निरन्तर रहते थे।
जिनन- उनके नृत्य या संगीत का प्रयोग प्रदर्शन नहीं होता था। वह बहुत गहरी स्तर पर आन्तरिक प्रक्रिया होती थी। उन्हें देखने वाले उन गहन प्रक्रियाओं में भाग ले रहे होते थे। आध्ाुनिकता के हमारे चेतना पर हावी होते ही यह सारी प्रवृत्ति बदल गयी है।
उदयन- यह ख़राब सवाल है, मैं जानता हूँ पर फिर भी पूछता हूँः अब क्या सम्भावना है? लेकिन यह ऐसा सवाल है जिसका आप जैसे व्यक्ति को सामना करना ही पड़ेगा। मैं समाध्ाान सुझाने की बात नहीं कर रहा पर उस ओर बढ़ने की दिशा की बात पूछ रहा हूँ।
जिनन- मैं चैबीस घण्टे का एक्टिविस्ट हूँ। मैं संसार बदलना चाहता हूँ लेकिन मैं यह कहता रहता हूँ कि इस बदलाव में शायद हज़ार साल लगेंगे। हमें उसका बीज आज डालना होगा। उसके बाद भी यह पक्का नहीं कि बदलाव होगा भी। अगर आप ग़लत शोध्ा को मिलते सहयोग को देखें तो आपको आश्चर्य होगा कि करोड़ों डालर फि़जूल के शोध्ाों पर खर्च हो रहे हें। मैं इतने समय से थोड़े से सहयोग की कोशिश कर रहा हूँ, वह होता नहीं। मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ, उसे साबित करने के विडियो दस्तावेज़ मेरे पास हैं, आपको मेरा लिखा पढ़ने की आवश्यकता तक नहीं, वे विडियो पर्याप्त है, पर उन्हें संयोजित करने और शोध्ाकर्मियों का समूह बनाने की कोशिश कर रहा हूँ, वह होता ही नहीं। अब यह आवश्यक है कि लोग साथ आयें, आपस में सहयोग करें और जिस क्षेत्र में उनकी रुचि हो, काम करें और ‘क्या करना चाहिए’ पर पुनर्विचार करें।
उदयन- आप इस दिशा में क्या कर रहे हैं?
जिनन- मैं कई कार्यशालाएँ कर रहा हूँ। मैं कई डिज़ाइन संस्थानों में जा रहा हूँ। दो चीज़ें बुनियादी हैंः पहली यह कि आप स्कूलीकरण को कैसे रोकें? दूसरी यह कि पहले से स्कूलीकृत बच्चों का विस्कूलीकरण कैसे करें? मैं इन चीज़ों को लेकर प्रयोग कर रहा हूँ। मुझे खुद भी विस्कूलीकृत होना है। जब मैं डिज़ाइन या स्थापत्य के स्कूलों में जाता हूँ, मैं उनका विस्कूलीकरण करने का प्रयास करता हूँ। स्कूलीकृत लोगों के साथ के सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे सोचते हैं कि वे शिक्षित हैं। उन्हें उस तथाकथित शिक्षा से बाहर लाना मुश्किल काम है। शिक्षा व्यवस्था ने सबसे बड़ा नुकसान शिक्षितों को अहंकारी बनाकर किया है। उन्हें अपने पर अनर्गल भरोसा हो जाता है। ये सब सच्चे सीखने वाले के लिए घातक हैं। अपने पर ऐसा भरोसा सीखने के विरोध्ा में है। सीखने के लिए आप में एक तरह लचीलापन होना चाहिए। साहस होना चाहिए कि आप कह सकें कि यह मुझे नहीं आता। आपमें किसी भी चीज़ के विषय में अनिश्चय होना चाहिए। सारी स्कूल व्यवस्था निश्चयात्मकता का व्यवहार कर रही है। मैंने आपसे कहा ही है कि तर्कणा (रीज़निंग) समझ को शार्टसर्किट करती है। मैं यह भी कहता हूँ कि तर्कणा संज्ञान का नहीं, व्यवस्थापन का औज़ार है। अगर कोई आपको सूचनाएँ दे रहा है तो आप उसे इस तरह व्यवस्थित करते हैं कि आप उसे तुरन्त याद कर सकें। वरना आपको उस सूचना के अलग-अलग हिस्से याद करने में कठिनाई होगी। यहाँ तर्कणा (रीज़निंग) की भूमिका होती है। वह दरअसल भण्डारण का औज़ार है। तर्कणा शक्ति का फिजूल में बढ़ा-चढ़ा मूल्य है। मैं आपको एक अजीब बात बताता हूँ कि जब साक्षर आदमी की आँखें जब कुछ देखती है, वे सोच रहे होते हैं इसलिए आँखें कुछ नहीं देखतीं। आप शारीरिक रूप से उपस्थित और मानसिक रूप से ग़ायब रहते हैं। आध्ाुनिक आदमी की परिध्ाि की दृष्टि (पेरिफ़ेरल विज़न) पूरी तरह जा चुकी है। वे कि़ताब या स्क्रीन के चैखटे में देखने का ही अभ्यासी हो जाता है। उसकी आँखें पूरे समय एक तयशुदा फ़ोकल लेंक्थ पर होती हैं और उसकी परिध्ाि भी तयशुदा होती है। साध्ाारण देखना ‘अनफ़ोकस्ड’ होता है। जब गै़र-साक्षर व्यक्ति देखता है उसकी दृष्टि बहुत लचीली-ढीली होती है। जब भी कहीं कुछ होता है, उनका ध्यान वहाँ बँध्ा जाता है और फिर वह वहाँ से छूट जाता है। पहले ‘फ़ोकस’ होता है फिर ‘डिफ़ोकस’ हो जाता है। मनुष्य की सामान्य स्थिति ‘डिफ़ोकस्ड’ ध्यान की है। और हमारी सभी इन्द्रियाँ ध्यान की स्थिति में आने को तैयार रहती हैं। जैसे ही कुछ घटता है, ध्यान बँध्ाता है और फिर हट जाता है। यह नैसर्गिक व्यवस्था है लेकिन यह हमारी स्कूलों में कभी क्रियाशील नहीं हो पाता। मैं ऐसे कई प्रयोग तैयार किये हैं जिससे आपकी आँखें देखना शुरू कर सकें। मैं अपने छात्रों से कहता हूँ कि वे परिध्ाि पर ध्यान लगाये फिर कभी कहीं और ध्यान लगवाता हूँ। मैं वे प्रयोग करने की कोशिश कर रहा हूँ जिससे इन्द्रियाँ जाग सकें, जिससे उनमें सौन्दर्यबोध्ा जाग सके। वे समझ कैसे उत्पन्न करें, ज्ञान कैसे जन्म ले। दो स्तरों पर समझना आवश्यक हैः बच्चे की प्रकृति की सच्ची समझ पैदा करना और उसके योग्य परिवेश उसे देना। दूसरा यह समझना कि स्कूलीकरण ने उसे कितना नुक़्सान पहुँचाया है, उसकी संज्ञान-आदतों को व्यवहारिक आदतों को और शारीरिक आदतों को। इन सभी आदतों को समझकर उन पर काम करने की आवश्यकता है। मैं विस्कूलीकरण की अकादमी खोलना चाहता हूँ जिसमें तीस-चालीस छात्र हों। मैं सिर्फ़ प्रक्रिया शुरू करना चाहता हूँ। वहाँ कोई शिक्षा न हो। मैं लोगों को भ्रमित करता हूँ कि वे स्वयं अन्वेषण करने में लगे।
आप अगर मोण्टेसरी शिक्षा को देखें, वहाँ के कोई भी शिक्षक अपनी इन्द्रियों का उपयोग नहीं करते हैं। वे सिर्फ़ इतना जानते हैं कि मोण्टेसरी ने बच्चों को इन्द्रियों का उपयोग करना सिखाने को कहा था। यह सुखद है। मैं इन्द्रियों पर काम किये एक प्रसिद्ध व्यक्ति की कि़ताब पढ़ रहा था। मुझे लगा, वह अपने अनुभव की बात करेंगी। इतना भयानक था, यह जानना कि वे यह बता रही थीं कि जेन आॅस्टिन ने अपनी कि़ताब में इन्द्रियों के विषय में क्या कहा है आदि। वे इन्द्रियों पर नहीं लेखकों की बातें बता रही थीं। पश्चिम के लोगों की मुश्किल यही है कि केवल दूसरों की कि़ताबों को पढ़कर उन पर बात करना जानते हैं। उनसे बात करना इसीलिए मुश्किल है।
उदयन- क्योंकि उन्होंने अपने अनुभवों का तिरस्कार कर रखा है।
जिनन- पश्चिम में शोध्ा की निरर्थकता का एक उदाहरण मैं आपको बताता हूँ। उनकी एक विज्ञान है, न्यूरोएस्थेटिक्स (तन्त्र-सम्बन्ध्ाी सौन्दर्यशास्त्र)। वे वहाँ कुछ कलाकार को लेकर उन्हें किसी चित्र को देखने की कहते हैं और पूछते हैं कि वे उस चित्र पर क्या सोचते हैं। इस दौरान वे उनके मस्तिष्क को देखकर मूर्खतापूर्ण कहानियाँ गढ़ते हैं। मैंने इस पर एक लेख लिखा था। उसमें मिसाल थी कि अगर आपको भोजन की जैविकी पता करना है, आप क्या करेंगे? आप पिज़्ज़ा की जैविकी समझेंगे या चपाती की? या आप कहीं अध्ािक शारीरिक अनुभव के स्तर पर उसे जानने का प्रयास करेंगे। मिसाल के लिए भूख को। वे क्या कर रहे हैं कि वे किसी कलाकार का चित्र एक कलाकार को दिखाते हैं, और उसके दिमाग़ का परीक्षण करते हैं। वे कला नामक उत्पाद को देखकर उसकी जैविकी पता कर रहे हैं।
उदयन- दरअसल वे वैज्ञानिक एक दिये हुए उत्पाद (कला) की प्रतिक्रिया रिकार्ड कर रहे हैं।
जिनन- अगर हमें भोजन के प्रति हमारी प्रतिक्रिया में देखना है तो हमें यह देख पाएँगे कि पिज़्ज़ा सामने रखने पर भूखे व्यक्ति की एक प्रतिक्रिया होगी, पेट-भरे व्यक्ति की दूसरी।
उदयन- साथ ही यह प्रतिक्रिया आपके पिज़्ज़ा के पुराने अनुभव से भी परिवर्तित होगी। और अगर पिज़्ज़ा से कोई और संयोग जुड़ा है तो प्रतिक्रिया और भी अलग होगी। मिसाल के तौर पर अगर आपने अपना पिछला पिज़्ज़ा अपनी उस बहन के साथ खाया था जो अब दुनिया में नहीं है, तब आपकी उसके प्रति प्रतिक्रिया बिल्कुल अलग होगी।
जिनन- हम आज पश्चिम में हो रहे अनेक फि़जूल शोध्ाों को खोज कर बाहर ला सकते हैं। और वे इसका उत्सव मना रहे हैं। पहली बात यह है कि अध्ािकतर लोगों को उसे चुनौती देना आता नहीं है। वे लोग भी जो विउपनिवेशीकरण पर काम करते हैं, उन्हें भी यह नहीं आता।
मैं पश्चिम के कई मूल निवासी शिक्षाशास्त्रियों से सम्पर्क करने की चेष्टा कर रहा हूँ, उनमें से अनेक उपनिवेशीकृत हो चुके हैं। इसलिए वे पारम्परिक शिक्षा की बात इस तरह करते हैं जिससे वह मुख्य ध्ाारा की शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा बन सके।
उदयन- यह कैसे सम्भव है?
जिनन- सच्ची पारम्परिक शिक्षा सम्पूर्णता लिये होती है। इस सम्पूर्णता लिये शिक्षा दृष्टि का आत्मविभाजित शिक्षा व्यवस्था में कैसे समावेश हो सकता है। ऐसा करने पर वह आत्म-विभाजित आध्ाुनिक शिक्षा का हिस्सा या टुकड़ा बन जायेगी।
उदयन- आप रवीन्द्र शर्मा जैसे चिन्तकों के बारे में क्या सोचते हैं। आप उनके काम के बारे में क्या सोचते हैं?
जिनन- वे अद्भुत व्यक्ति थे। रवीन्द्र शर्मा उस ज्ञान परम्परा में रह रहे थे जिसकी बातें मैं कर रहा हूँ। वे हर समय ध्यान से देखते-सुनते रहते थे। वे पढ़कर बातें नहीं करते थे। उनकी संज्ञान-प्रक्रिया में मेरी दिलचस्पी थी, न कि उनके ज्ञान के कथ्य में। कहानी ठीक है पर वे उन कहानियों को कैसे कहते थे, यह अध्ािक महत्वपूर्ण था। वे वह सब कैसे देख पाते थे, जो दूसरे नहीं देख पाते थे। रवीन्द्र शर्मा का मूल्य उस जगह था। आप उनकी कही कहानियों को अन्यत्र भी पढ़ सकते थे। मैं सोचता हूँ कि रवीन्द्र शर्मा का योगदान इस बात में है कि उन्होंने बताया कि जानने के दूसरे रास्ते भी हैं। उनसे जुड़े किसी भी व्यक्ति ने इसको खोजा नहीं है।