Home
About
...
SAYED HAIDER RAZA
Awards and Recognitions
Education
Exhibitions
Journey
Social Contributions
About Raza Foundation
Trustees
Raza Chair
Awardees
Artists
Authors
Fellowships
Grants Supports 2011-12
Grants Supports 2012-13
Grants-Supports-2013-14
Grants-Supports-2014-15
Press Coverage
Collaborative Programs
Events
Festival
AVIRAAM
Mahima
Raza Smriti
Raza Utsav
UTTARADHIKAR
Krishna Sobti Shivnath Nidhi
Yuva
Aaj Kavita
Aarambh
Agyeya Memorial Lecture
Andhere Mein Antahkaran
Art Dialogues
Art Matters
Charles Correa Memorial Lecture
DAYA KRISHNA MEMORIAL LECTURE
Exhibitions
Gandhi Matters
Habib Tanvir Memorial Lecture
Kelucharan Mohapatra Memorial Lecture
Kumar Gandharva Memorial Lecture
Mani Kaul Memorial Lecture
Nazdeek
Poetry Reading
Rohini Bhate Dialogues
Sangeet Poornima
V.S Gaitonde Memorial Lecture
Other Events
Every month is full of days and weeks to observe and celebrate.
Monthly Events
Upcoming Events
Video Gallery
Authenticity
Copyright
Publications
SAMAS
SWARMUDRA
AROOP
Raza Catalogue Raisonné
RAZA PUSTAK MALA
SWASTI
RAZA PUSTAKMALA REVIEWS
Supported Publication
OTHER PUBLICATIONS
Exhibition
Contact Us
संशोधन या काटाकूटी जय गोस्वामी अनुवाद: रामशंकर द्विवेदी
SAMAS ADMIN
04-Sep-2018 12:00 AM
6685
वही काण्ड फिर कर डाला ? उफ्, तुम्हारे ऊपर अब कोई वश नहीं रहा। तुम्हें लेकर अब तो चलने से रहा...’ कवि ने चौंककर पलटकर देखा।
गृहिणी।
‘तुमने यह क्या कर डाला, एक बार देखो तो। पूरा कमरा पानी से लबलबा भरा है। बिस्तर तक भीग गया...’
कवि को होश आया। यही तो। नहाते-नहाते तौलिया पहनकर वह निकल आया। पूरी देह से पानी झर रहा है। सिर के बालों से भी। हाँ, कागज़ों के ऊपर भी गिर गया है।
जाओ। बाथरूम में फिर घुस जाओ, जल्दी से। दो मिनिट बाद अगर वह काटाकूटी न करते तो क्या तुम्हारा काम नहीं चलता। उससे महाभारत अशुद्ध हो जाती।
कवि स्नानघर में वापस आ गया। सचमुच उससे ग़लत काम हो गया था। ऐसा काम वह पहले भी कर चुका है। छोटे-छोटे दो कमरे हैं। उसी से लगा हुआ स्नानघर है। कमरे में उजाला नहीं आता है। सवेरे से ही ट्यूब लाइट जलाकर रखनी पड़ती है। कमरे में अगर पानी पड़ जाए तो सुखाने में समय लगता है। पर नहाते-नहाते दिमाग में एक सुधार आते ही उसी हालत में खाट के ऊपर फैली हुई हाल में लिखी कविता पर झुकने से वह अपने को रोक नहीं पाया। कागज़ के भीग जाने का उसे यह खयाल ही नहीं था, काटकर हाशिये पर उसने एक शब्द ‘आछिल’ लिख दिया।
कवि को अपने ऊपर क्रोध हो आया। एकबार कोई पंक्ति या सुधार दिमाग में आने पर फिर दुनिया की किसी भी वस्तु का उसे कोई ख़याल ही नहीं रहता। पूरे दिन कविता की जितनी पंक्तियाँ आती हैं, उससे अधिक तो सुधार आते हैं। जैसे उस पंक्ति के बदले यदि यह पंक्ति होती। उस शब्द के बदले क्या यह शब्द ठीक है ? यहाँ तक कि इस चिह्न के बदले अगर वह चिह्न होता। खड़ी पंक्ति के बदले प्रश्न वाचक चिह्न ? या विस्मयादि बोधक! एक कविता जब दिमाग में आती है, तब लिखने के पहले दो-चार दिन वह दिमाग में घूमती रहती हैं। यह बहुत कुछ एक नशे की तरह होता है। वह गुप्त रूप से मन को आच्छन्न किये रहती है। किन्तु कागज़ पर एक बार लिखित रूप में आ जाने के बाद जैसे ही उसका संशोधन मन में आएगा और वह आएगा ही, तब उसे यदि हर बार छूटे हुए खाली कागज़ पर जब तक दर्ज न किया जाए, तब तक वह अपने को रिहाई नहीं देता। सिर्फ़ कागज पर दर्ज करने तक ही नहीं, छपने चले जाने के बाद अगर दिमाग में सुधार आ जाए और उसका ऐसा भाग्य है कि वह आता ही है, तब प्रूफ़ में जाकर उसे दर्ज कराना पड़ता है। प्रेस के लोग नाराज़ हो जाते हैं। यह स्वाभाविक भी है। एक काम तीन बार में करना पड़ता है। उसके बाद भी यदि छपने जाने के ठीक एक क्षण पहले कोई संशोधन मन में जाता है तो फिर एक और काण्ड। सभी को मना-मनू कर फिर बदलाव किया जाता है। वह समय मानो नशे की तरह होता है। दूसरों को असुविधा हो रही है या नहीं, इस ओर ध्यान जाता ही नहीं है।
इसी वजह से प्रेस के सहयोगी श्यामपद बाबू से लेकर अपनी गृहिणी तक से कवि ने बार-बार झिड़की खायी है। पर वह अपने को बदल नहीं पाया है। स्नानघर में जाकर फिर नल खोलकर नहाते-नहाते कवि ने अपनी पत्नी के नाराज़ी भरे निर्देश सुने; ‘चायना, दोनों कमरों में पौंछा तो लगा दे।’
चायना! इसी चायना की वजह से यह सब झँझट हुआ है। दो दिन हुए, इस घर में काम पर आयी है यह लड़की। वे लोग सामने के घर के पीछे जो रेल लाईन है, उसके किनारे एक झोपड़ी में माँ-भाइयों के साथ, महीना भर पहले आकर ठहरे हुए हैं। दुमंजिले पर मिहिर बाबू के घर जो बड़ी लड़की काम करती है, चूँकि वह पाँच घरों का काम करती है, इसलिए उसके पास समय नहीं है, इसीलिए वह इस लड़की को लाकर काम पर लगा गयी है। उसने बताया है कि यह नयी-नयी आयी है। गृहिणी ने पूछा, इसके पहले तुम्हारा घर कहाँ था ? लड़की बोली, मेरा घर वनगाँव में था।
अभी हाल में आयी है, इसलिए भूल नहीं पायी है। आज भी सवेरे-सवेरे जब वह लिख रहा था यानि उजाला कम होने की वजह से, स्नानघर के किनारे पश्चिमाभिमुख जो खुला हुआ बरामदा है जिससे प्रकाश और प्रकृति और पक्षी, नारियल के वृक्ष, एक टुकड़ा मेघ, जो सब देखे जा सकते हैं, वहीं पर खड़े होकर रोज़ की तरह सोच रहा था कि भाग्य से दो-चार पंक्तियाँ मिल सकती है या नहीं। भाग्य से उसे मिल भी गयीं और लिखना शुरू करने के बाद वह सुन रहा था कि चायना नाम की लड़की गृहिणी से कह रही है, हमारा घर तो वनगाँव में है। वहाँ पर इतना धुँआ धूल नहीं है। इतना शोरगुल भी नहीं है। कवि सोच रहा था बेचारी भूल नहीं पा रही है, जीविका की खोज में कलकत्ता आकर अपने गाँव को भूल नहीं पा रही है।
कवि भी क्या अपने गाँव को भूल पाया है ? उसका अपना घर भी तो था गाँव की ही सीमा पर। वह भूल जाएगा। यह लड़की लोगों के घर की महरी है। वह भी काम करके ही खाता है। कुछ लिख कर भी खाता है। सभी का कहना है कि लिखकर खाने से अच्छा लिखना नहीं हो पाता है। न हो। खाना तो हो जाता है। अथवा इसी वजह से खाना कौन देता है। उसकी लिखने-पढ़ने की ही नौकरी है। एक नौकरी है घर साफ़ करना और बर्तन माँजना। दोनों गाँव छोड़कर आये हैं।
जो वह लिख रहा था, उसमें उसने दो पंक्तियाँ लिखी थीं- मेरा घर वसीरहाट में था ? अथवा मेरा घर बनगाँव में था ? स्नान करते-करते सहसा उसे लगा ‘मेरा घर था बनगाँव में’ कर दिया जाए तो कैसा रहे ? कैसा-वैसा तो जानता नहीं, करना ही होगा। मेरा घर था वसीरहाट में। मेरा घर था बनगाँव में। उसमें अन्तिम प्रश्न पर दो चिह्न लगाने होंगे। जैसा मन में आया वैसा काम। स्नानघर खोलकर तुरन्त सोने के कमरे में। फिर वही सब झमेला। उस दृष्टि से चायना ही तो ज़िम्मेदार है। चायना ‘रहती थी बनगाँव में’ अगर यह न किया जाता तो उसे कविता में न जोड़ता कवि। ‘थी और रहती थी’ एक बांग्ला में घटी अभिव्यक्ति है और एक बांग्ला की अभिव्यक्ति हो सकती है। दोनों तरह के लोग ही गाँव-देहात छोड़कर शहर में आ रहे हैं। काम खोजने। अनेक दिशाओं से अनेक जातियाँ आकर यहाँ मिल जाती हैं। अनेक तरह की लड़कियाँ भी आती हैं। जिन लड़कियों को काम नहीं मिल पाता है, वे आखिर में अपने शरीर को ही जीविका का साधन बना लेती है। वे अपना शरीर तुड़वाकर खाती हैं। अच्छा, अगर सन्तान बीच में आ जाए तो ये लोग क्या करती हैं ? अखबारों में प्रायः जो इस शीर्षक से विज्ञापन निकलते हैं कि पता-ठिकाना चाहिए, उनमें सद्योजात परित्यक्त शिशुओं की तस्वीरें रहती हैं, जिनके माँ-बाप को खोजा नहीं जा सकता है, वे क्या कई बार इन सब माँओं की सन्तानें होती हैं ? ये शिशु क्या भूमिष्ठ होने तक प्रतीक्षा करते हैं अथवा उसके पहले ही गर्भपात करा दिया जाता है। ओ भगवान! दुनिया में कितना कुछ घटता रहता है। एक अज्ञात भय से मानो कवि काँप उठा। जो शरीर को तुड़वाकर खाती हैं, जो शरीर को बेचती हैं, वे लोग और कौन-सा काम करेंगी ? शरीर के अलावा और कोई मूलधन नहीं है उनके पास।
कवि भी क्या बहुत कुछ उन जैसा ही नहीं है। लिखने के अलावा और कोई विद्या तो वह जानता नहीं है। इसीलिए लेखन से उसे अपनी जीविका का उपार्जन करना पड़ता है। यहीं उन सब औरतों के साथ क्या उसकी समानता नहीं है ? क्योंकि, शरीर जब शरीर के पास आता है तब वह एकान्त में आनन्द को ही व्यक्त करता है। गुप्त रूप से। केवल आनन्द नहीं, शरीर कई बार दुःख को व्यक्त करने के लिए दूसरे शरीर को अपने पास खींच लाता है। ठीक वैसे ही जो कविता एक समय कवि के एकान्तिक दुःख-आनन्द की गोपन अभिव्यक्ति थी, आज उसी को खुले रूप में बेचने की वस्तु बनाने का दौर आ गया है। इसके अलावा, कुछ लिखकर दिन-ब-दिन उसे डाले रखकर पुराना होने देने का अवकाश तो अब रहा नहीं। लिखने के तुरन्त बाद ही तो वह प्रेस में चला जाएगा। इस स्थिति में, अन्तिम क्षण तक जितना संशोधन किया जा सकता है, उसका प्रयास करता हुआ कवि चलता रहता है। यह करते-करते ही भाषा के साथ अपने सम्बन्ध की सीमा देखी जा सकती है। जानी जा सकती है कि आज भी वह कितना नहीं जानता, अपनी भाषा, शब्द और छन्दों के विषय में, जीवन के विषय में। जिस तरह से एक सरोदिया केवल सुर के माध्यम से जीवन में प्रवेश कर सकता है, अन्धो के हाथ में जैसे उसी सरोद के अलावा और कोई लाठी नहीं होती है, कवि के पास भी वैसे ही अन्धो की लाठी होती है: शब्द। शब्दों से ही वह जीवन में, उसके रूप, रस, गन्ध में प्रवेश-पथ पा लेता है। और किस उपाय से यह सब एक उपायहीन व्यक्ति जान पाएगा।
हाँ, ऐसे भी कुछ लोग हैं, जो शब्द का अन्य दृष्टि से भी प्रयोग करते हैं। दूसरे को छिन्न-भिन्न करने। दूसरे को नष्ट करने। दूसरों के दोष निकालने के आनन्द से ऐसे व्यक्ति की शुरुआत होती है। ऐसे लोगों की भी खूब पूछ, बोलबाला, समृद्धि और कीर्तिगाथा इस धराधाम पर विद्यमान है। किन्तु कवि अपने भाग्य को प्रणाम करता है, हाथ में एक सरोद या बेहाला या एक बाँसुरी पानी में बहते-बहते उसके हाथ में आ जाती है। भाग्यवश उसने उसे छाती से लगाकर रख लिया था। राजा ने कवि के हाथ में सितार रखकर दूसरे को एक घातक की भूमिका दी थी। यह सब एक ही दरबार में हुआ। एक ही श्रोता और एक ही दर्शक। एक ही सभासद। राजा को पता है कौन क्या कर सकेगा। घातक एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में छिन्न मुण्ड लिए दर्पपूर्वक राजदरबार को पार कर जाता है, लोग भय से उसकी कुर्निश बजाते हैं, और आपस में फुसफुसाते हैं, देखो, इसकी कैसी कीर्ति है। एकदम भूलुण्ठित कर दिया है ? ऐं ! देखा, यह है हिरण्यकश्यपु। दूसरा व्यक्ति कहता है, क्या कह रहे हो, यह तो घटोत्कच है। तीसरा कहता है, तुम्हें खाक पता है, यह रासपुटिन के अलावा और कोई नहीं है। यही सब चर्चा करते-करते लोग घर चले जाते हैं।
कई प्रहर बाद उसका वादक जाग जाता है। एक-एक पर्दे पर उसकी उँगली पड़ती जाती है, और अब तक भयवश जिस रुलाई को लोग रोकर व्यक्त नहीं कर पा रहे थे, वही सब क्रन्दन झरझर कर निकल पड़ता है उनकी आँखों को धोता हुआ। खुलकर नहीं, गोपन एकान्त में। अपने-अपने गोपन कोने में। सुर तो हर जगह पहुँच जाता है। इस राजदरबार ने कवि के हाथों में एक बाँसुरी पकड़ा दी है। सारे आघातों के बाद एक फूँक लगानी पड़ती है। एक फूँक मात्र। ऐसे ‘बजाओ हे मोहन! बाँसुरी रीझ-मन-भेदन बाँसुरी वादन-’
सुर अपने हर कण-कण में उठकर अश्रु प्राप्त करता है। कवि का बड़ा भाग्य है, जो लाठी की नोंक पर पोटली बाँधकर इस जीवन में इतना चलने के बाद उसे यह काम मिल गया है।
स्नान करते-करते कवि ने देखा उसके पीछे राजा खड़ा है। स्नानघर में।
राजा की वाणी फूटी, ‘देखो कैसी अशान्ति हो गयी! तुम्हें क्या ज़रूरत थी!
‘इसका अर्थ ?’
‘सुन नहीं पा रहे हो ?’
कवि ने सुना, बाहर रह-रहकर डाँट-फटकार चल रही है। ‘कोई व्यवहार-ज्ञान अगर होता’ भाग्य था कि चायना कामकर चली नहीं गयी थी। नहीं तो मुझे ही यह कमरा साफ करना पड़ता।
राजा कूदकर स्नानघर के टूटे जंगले पर चढ़ जाता है। मानो वह वृक्ष की डाल हो। फिर वह कहता है, ‘नहाने के बाद निकलकर भी तो तुम सुधार कर सकते थे।’
कवि बोला, ‘इस समय क्या जयदेव का जमाना है। उस युग में सुधार करूँ या न करूँ इस दुविधा को लेकर मैं नहाने गया था और तुमने आकर सुधार लिख दिया था, ‘देहि पदपल्लवमुदारम्’ और मेरी गृहिणी भी तब तुम्हे पहचान नहीं पायी थी। अब ज़माना दूसरी तरह का है। अपना सुधार स्वयं ही करना पड़ता है।
राजा के मुख पर दुष्टता से भरी हँसी थी। यह राजा एक बालक था। उसके शरीर पर कोई वस्त्र नहीं था। सिर पर मयूर पंख। कमर पर पीताम्बर बँधा था। उत्तरीय में एक तरफ खुसी हुई थी तिरछी बाँसुरी।
‘तुम किन्तु अपनी पत्नी को बहुत परेशान करते हो ?’
इस बार कवि को क्रोध आ गया, ‘परेशान करता हूँ, माने ? तुम्हीं तो सारी बरबादी की जड़ हो। जब-तब दिमाग में सुधार ला देते हो। मन में पंक्तियाँ ला देते हो। लाकर मुझे विपत्ति में डाल देते हो। अब जाओ यहाँ से। मैं दफ़्तर जाने के समय लोगों का घर में आना पसन्द नहीं करता हूँ।’ राजा सर्र से टूटे काँच की दरार से खिड़की के बाहर चला गया। उसके बाद काँच के खोखल में सिर घुसाकर बोला, ‘दिमाग में अगर पंक्तियाँ नहीं आएँगी तो खाओगे क्या ? नौकरी तुम्हें कैसे मिलती ? गृहिणी को क्या खिलाते ? लड़की को हाॅस्टल में रख पाते!... दुर्भाग्यशाली, दुर्भाग्य...।’
राखाल राजा गायब हो गया।
और कवि मर्माहित हो गया। छिः। आखिर में राखाल राजा ने भी यही बात कह दी। नहीं, आज से लेखन को लेकर कभी सोचूँगा नहीं। पत्रिका की ओर से जो माँग होगी, बैठकर उसे अविलम्ब लिखकर दे दूँगा। सुधार-वुधार रहने दो। वह सब किया जाए तो घण्टो लग जाएँगे। श्यामपद बाबू को असुविधा होगी। बूढ़े व्यक्ति हैं। नाराज़ होते हैं। यह भी कवि के तरफ से अन्याय है। मेरी गृहिणी को असुविधा होती है। रात में नींद आने के बाद इतनी बार उठकर लाइट जलाना। गृहिणी, लड़कियाँ आदि को अनिद्रा का दुःख भोगना पड़ता है। कुल दो ही तो कमरे हैं। एक कमरे में रोशनी जलाने, कलम उठाने, पुस्तक पढ़ने में खुटर-पुटर तो दूसरे कमरे में परेशानी तो होगी ही। गृहिणी की अभी हाल में आयी नींद दूसरी-तीसरी बार टूट गयी। हे भगवान! रात में दोनों आँखों की पलकें एक करने की गुँजाइश भी नहीं है। घर-परिवार को भी कोई सुख नहीं दिया। थोड़ा सो लूँ, उसका भी कोई उपाय नहीं है।
सच तो है। लोगों की तारीफ़ पाने के लिए सभी को परेशान करने की क्या ज़रूरत है। कैसी अपूर्णता रहती है। अपने भीतर स्थित जैसे कोई कह रहा है, जो काम करने आये हो, उसी को विशुद्ध रूप से करो। किन्तु कविता त्रुटि रहित नहीं होती है। फिर भी उस सीमा के जितने पास जाया जा सकता है, जाने का प्रयास करूँ। मेरे भीतर स्थित कोई यह सब कहता रहता है। कौन कहता है ? इस बार उसे चुप कराना होगा।
‘क्या बात है ? घटकारी की तरह क्यों खड़े हो ?’
‘ऐं।’
‘नहाने में तो एक घण्टा लगा दिया। अब भी मन-ही-मन कुछ बुदबुदाते जा रहे हो। लिखना समाप्त नहीं हुआ ?’
‘वह कुछ नहीं है। लगभग पूरा हो आया है।’
‘मेरा खाना भी लगभग बन गया है। चलो बैठो खाने।’
सोने के कमरे में ही आसन बिछाकर ज़मीन पर ही कवि का खाना होता है, खाने की मेज़ उन लोगों के यहाँ नहीं है। कवि के रिश्तेदार नन्दूबाबू ने कहा है कि किराये पर एक खाने की टेबिल और चार कुर्सियाँ ला देंगे। किराया है एक सौ बीस रूपया महीना। इसके अलावा किराये पर दो पंखे और एक अलमारी भी वे लोग रखना चाहते हैं। अलमारी खरीदने की उनकी सामथ्र्य नहीं है। टेबिल की भी क्या ज़रूरत है, कवि ने कहा। खासा काम तो चल रहा है।
गृहिणी ने कहा, नहीं, दरकार नहीं है। श्यामलदा शेफाली दीदी का घर देखो न! कितनी सुन्दर मेज़ है, उनके यहाँ। वे लोग कितनी व्यवस्था से रह रहे हैं।
इस पर कवि ने कहा, ‘सभी एक-से नहीं होते हैं मेरी गिन्नी! इसके अलावा वे दोनों ही नौकरी करते हैं।’
इस पर गृहिणी को अपने विरूद्ध क्रोध करने की और भी भूमि मिल गयी, ‘दोनों ही नौकरी करते हैं। मैं भी तो नौकरी करती थी। तुम्हीं ने तो नहीं करने दी।’
इस पर कवि ने आहत होकर कहा, ‘मैंने नहीं करने दी! तुम्हारे स्वास्थ्य ने ही नहीं करने दी।’
‘वैसा तो बीच-बीच में सभी को होता रहता है, उसके बाद तो मैं एकदम ठीक हो गयी थी।’
‘कहाँ, एकदम तो ठीक नहीं हुई थी। हर बार काम के समय कई मास लगातार एक-के-बाद एक तुम्हारा स्वास्थ्य खराब होने लगा था। तुम वह सब क्या सहन कर सकती थी ? घर-घर, गली-गली घूमने-फिरने का था वह काम।’
‘फिर भी। इम्युनाइज़ेशन के समय कितने बच्चों को पकड़ा जा सकता था। स्कूल चलाने पर, कितने बच्चे आते हैं, पता है, एकबार एक बस्ती में, एक बच्चे ने मुझसे क्या कहा था ? मुझे गोद में ले लेंगी!’
‘पता है, फिर उसके बाद उस बच्चे को तुम बस्ती से लाकर अपने घर में रखना चाहती थी। उसकी माँ को भी तुमने प्रायः राज़ी कर लिया था।’
‘तुमने उसे नहीं लाने दिया।’
कवि ने पुनः अपने पक्ष के समर्थन का प्रयास किया, ‘मैंने नहीं लाने दिया। इसका अर्थ ? हमारी क्या वैसी हालत है ? मिस्टू के हाॅस्टल का खर्चा। घर का इतना किराया। इतना सब भार, इस पर और एक बच्चे को लाकर क्या हमारा खर्चा चल सकता था, बोलो न।’
गृहिणी की आँखें अचानक तीखी हो गयीं, ‘ठीक-ठीक चलता। तुम्ही नहीं चाहते। बच्चा नहीं चाहते। तुम निष्ठुर हो, निष्ठुर।
कवि आगे बढ़कर गृहिणी का कन्धा पकड़ लेता है, ‘सुनो तो, ज़रा चीज़ों को समझ कर देखो।’
वह झटके से अपना शरीर छुड़ा लेती है, ‘खबरदार, तुम मुझे छुओ नहीं। मेरा स्पर्श नहीं करोगे।’ कहते-कहते छाती के पास उसका कुर्ता पकड़कर कवि के बाँये कन्धो पर घूँसे मारती रही। पूरी बाँह समेत बाँया कन्धा उसे सुन्न लगने लगा। कवि रसोईघर के पास खड़े होकर यह देखने लगा कि कहीं फेंक कर मारने के लिए पास में कोई थाली-कटोरी है या नहीं। नहीं है, यह देखकर निश्चिन्त होकर दाहिने हथेली से धीरे-धीरे उसके सिर पर चपत लगाता है और कहता है शान्त हो, शान्त हो। गृहिणी स्थिर दृष्टि लेकर धम्म से खाट पर बैठ जाती है।
कितने दिन पहले की है यह घटना।
कवि खाने पर बैठकर पहले भात सानने लगता है।
गृहिणी कहती है, ‘पहले मछली नहीं। करेला खाइए। यह है।’
कवि ओ, हाँ-हाँ कहता हुआ करेला खाने लगता है।
‘अब दाल। यह है। तुमने खाना भी नहीं सीखा है।’
‘आँ, ऐं।’
‘पाँच वर्ष तो पूरे हो गये हैं।’
कवि जल्दी-जल्दी खाने लगता है। ‘हाँ पाँच बरस, न!
‘वही तो।’
कवि खाना समाप्त कर देता है।
गृहिणी कहती है, ‘यह तुम्हारी तनाव की दवा है।’
अच्छा।
दिमाग पर लगभग समाप्त कविता धावा बोल रही है। इस कविता को क्या नाम दिया जाए। छोटा-मोटा कोई नाम तो इसे देना ही होगा। लोग या मानुषजन। लोग, यही नाम चल सकता है।
पानी पीकर कन्धो पर लटकाने वाले झोले में काॅपी-किताबें आदि लेकर, छाता डालते-डालते कवि कविता के नाम की खोज करता रहा। गृहिणी ने उसकी ओर पूरे दिन का खर्चा बढ़ा दिया, बीस रुपया। गृहिणी बोली, ‘आज मैं थोड़ा जाऊँगी।’
‘कहाँ जाओगी ?’
‘देखती हूँ, कहाँ जाती हूँ।’
‘नौकरी ढूँढने ?’
‘हाँ, अगर ढूँढ सकी। घर में बैठे-बैठे क्या करूँगी ? पाँच बरस पहले यदि ढूँढती...
कवि सड़क पर निकल गया।
दो
कवि पैदल चला जा रहा है।
पाँच वर्ष। पाँच वर्ष बहुत-सा समय व्यस्त रहने के लिए था। कर्महीन बने रहने के पक्ष में। भूल जाने के पक्ष में। बस की पंक्ति आज छोटी है। शायद किसी वजह से सरकारी छुट्टी है। उन लोगों का कार्यालय बेसरकारी है। पंक्ति में खड़े कवि को बड़ी जल्दी खिड़की के पास वाली सीट मिल गयी। अब वह निश्चिन्त है। अब वह रास्ते में मन-ही-मन कविता को ठीक से सजा सकेगा। नहीं, सुधार नहीं। यहीं पर बैठे-बैठे शुरू से अन्त तक एकबार मन-ही-मन पढ़कर उसे अच्छी तरह समझ लेना। फिर काट-छाँट बाद में।
बस चल दी। टाकुरिया पुल के ऊपर आ गयी है। सहसा खिड़की के बाहर एक चेहरा। राखाल राजा। माथे पर जूड़ा है। हाथ में बाँसुरी है। खिड़की के बाहर बस के साथ-साथ उसी रफ़्तार से उड़ता जा रहा है। उसका उत्तरीय भी फर-फरकर उड़ता जा रहा है।
‘क्यों उस समय नाराज़ हो गये थे ? नहाते समय।’
‘नहीं, नाराज़ होने से क्या होगा। और सुधार करने से भी क्या होगा।’
‘यह तो नाराज़गी भरी बात है।’
‘नहीं, नाराज़गी नहीं। सभी के लिए सिर्फ़ असुविधाएँ ही पैदा करना। कोई भी तो परिश्रम का अर्थ समझना नहीं चाहता। उन सब चीज़ों को देखता ही नहीं है कोई। अरे...!’
कवि ने देखा एक डबल-डेकर बगल से चली जा रही है। राखाल राजा कहाँ चला गया ? कवि ने खिड़की से थोड़ा झाँक कर देखा, दुमंज़िले की एक खिड़की को हाथ से पकड़ कर झूल रहा है। कवि को देखकर उसने हाथ हिलाया। बन्दर है क्या ? आज और क्रोध नहीं आ रहा है।
डबल-डेकर धीरे-धीरे चलती है। और मिनीबस ज़ोर से।
कवि को लेकर मिनीबस के आगे बढ़ते ही दोनों हाथ पसारकर खिड़की के बाहर राखाल राजा फिर से हवा में तैरने लगता है। हवा से मयूरपंख हिलता जा रहा है। बाँसुरी कमर में खौंसने के प्रयास में उसके हाथ से फिसल कर नीचे भागती हुई मारूति की छत पर गिर पड़ी। एक डुबकी-सी लगाकर पकड़ लिया उसे। बड़ा दुधर्ष लड़का है।
खिड़की के बाहर उड़ते हुए राखाल राजा ने कमर में वंशी खौंसते कहा, ‘क्यों वह बात कह रहे हो।’
‘कौन-सी बात।’
‘वही जो कहा, परिश्रम का अर्थ कोई समझना नहीं चाहता है। उन सब बातों की ओर कोई देखता ही नहीं है। कोई तुम्हारे कार्य की ओर देखे, क्या तुम इसीलिए लिखते हो ? दूसरों की तारीफ़ पाने के लिए ?’
‘नहीं, ठीक वह नहीं, माने...’
‘दोपहर में, धूप भरे मैदान में, मैं जब बाँसुरी बजाता हूँ, पक्षी भी जब गाना बन्द कर देते हैं, कौन सुनता है वह बाँसुरी ? कोई सुनता है क्या ? कोई सुने, क्या मैं इसीलिए बजाता हूँ ?’
‘रुद्र सुनता है।’
‘रुद्र! हाँ, वह ठीक है।’
प्रान्तर प्रान्तर के कोने में रुद्र बैठा है, इसीलिए वह सुनता है। कवि सोचने लगा, प्रान्त कहने के बाद फिर ‘कोना’ कहने की क्या ज़रूरत थी। प्रान्त का अर्थ ही है सीमा, किनारा, छोर। उस पर भी कोना। ऊँ हूँ। ठीक-ठीक वह मान नहीं सका।
राखाल राजा खिड़की के उस तरफ से बात काट देते हैं, ‘जैसे तुम बहुत जानते हो। तो फिर तुक कैसे मिलती ?’
‘हाँ, तुक के लिए ही वह शब्द वहाँ लाया गया है। यह तो ठीक नहीं है। थोड़ा सुधार कर सकते थे।’
‘ऊँहूँ, फिर वही सुधार, जिसने यह लिखा है वह तुमसे कितने हज़ार गुना बड़ा कवि है। क्या इसे तुम जानते हो।’
‘जानता हूँ।’
‘और उसने कितने हज़ार सुधार किये हैं, क्या यह भी तुम जानते हो ?’
‘जानता हूँ।’ इसी वजह से ग़लती नहीं देखूँगा।’
‘देखोगे ? किन्तु खोजोगे नहीं। तुम तो ग़लती ढूँढ़ रहे थे।’
‘प्रान्तर प्रान्तेर कोणे रुद्र वसि ताई शोने’ क्या इसका कोई विकल्प है। हो सकता है।
कवि लज्जित हो गया। सचमुच में इसका कोई विकल्प नहीं हो सकता है। यह तो निश्चित है।
राखाल राजा का कहना है- त्रुटि खोजने गये कि मरे। दृष्टि कलुषित हो जाएगी। जीवन में फिर अच्छाई देख नहीं पाओगे। अन्धी आँखों से भटकते-भटकते एक दिन फिर कीचड़ में गिर पड़ोगे। तो फिर, रुद्र कोने में बैठकर ही शायद नहीं सुनता, यह ठीक है। न, सुनता नहीं है।’
राखाल राजा का यह निश्चय है,
‘तो फिर कहाँ बैठकर सुनता है ?’
‘ऊपर! देखो, प्रान्तर प्रान्तेर कोणे से सुर ऊपर उठता जा रहा है, कितनी ऊँचाई पर उठता जा रहा है। कितनी ऊपर। दूर और ऊपर उठता जा रहा है सुर। इसका अर्थ है रुद्र वहीं पर है। तारसप्तक के ऊपर उसका आसन है। वहीं पर वह रहता है।’
‘रुद्र है कौन ?’
‘जो सुनता है वह रुद्र है। निःसंग, धूप से पीड़ित दोपहर के समय की बाँसुरी को जो सुन लेता है।’
जो रुद्र है वह प्रतापी, प्रबलशक्ति वाला है। वह निःसंग है। वह मग्न है। वह कवि है।’
‘वह देखो। कण्डक्टर आ रहा है।’
कवि ने मुँह घुमाकर देखा, जी कण्डक्टर। कवि दस का एक नोट आगे बढ़ाकर कहता है, ढाकुरिया, ग्रेट ईस्टर्न का एक टिकिट दीजिए।
कण्डक्टर थोड़ा परेशान है, फुटकर दो रुपया दें।
‘नहीं है भाई।’
‘नहीं है तो पहले क्यों नहीं बताया। छुट्टी के दिन पैसेंजर तो हंै नहीं। रखिए, बाद में देखता हूँ।’
कवि अप्रतिम चेहरे से खिड़की की तरफ देखने लगता है। राखाल राजा गायब था। वह क्यों रहेगा। जब ज़रूरत होगी, उस समय वह नहीं रहेगा। दुधर््ाष लड़का है न! चालाक और चतुर।’
बस कर्ज़न पार्क पार कर रही है। कवि उठकर खड़ा हो गया। दस का नोट उसके हाथ में है। अपराधी की तरह खड़ा हो गया कण्डक्टर के सामने। कण्डक्टर रुपया छोड़कर फुटकर पैसे और टिकिट दे रहा है। हेल्पर दरवाजे़ पर खड़ा चिल्ला रहा है, उतरिये-उतरिये। कवि अपराधी की तरह चेहरा लिए उतर पड़ता है।
आॅफ़िस पहुँचकर कवि ने देखा, टेबिल पर चिट्ठियों के साथ विशेष ज़रूरी लिखा हुआ एक लिफ़ाफा भी पड़ा हुआ है। विश्वनाथ हाजरा ने उसे बताया कि उसकी कविता में छापे की दो भूलें हो गयी हैं। एक में ‘मौन प्रतिमा’ शब्द हो गया है, ‘यौन प्रतिमा’। दूसरी में ‘मरूरमणी’ शब्द हो गया है ‘ससरमणी’। काफ़ी छोटी और दुःखभरी चिट्ठी है। होने की ही बात है। सम्पादक को भी इसी आशय की चिट्ठी लिखी गयी है, विश्वनाथ बाबू ने उसे यह जानकारी भी दी। सहकारी श्यामलदास ने आकर उससे पूछा- ‘प्रूफ़ किसने देखा था ? आपने ?
कवि ने स्वीकार किया, हाँ, उसी ने प्रूफ़ देखा था। ज़िम्मेदारी उसी की है।
श्यामलबाबू ने इस पर कहा- ‘प्रूफ़ देखते-देखते आपने यह क्या कर दिया था ? शायद आप अपनी रचना में संशोधन करने की सोच रहे थे। वही है आपकी समस्या महाशय। उसी एक अंक में आपकी कविता भी छापी गयी हैं। उसमें तो कोई ग़लती है नहीं।
सिर नीचा कर, अपराधी का-सा चेहरा लिये कवि अपनी मेज़ पर लौट गया। सचमुच में अपनी रचना का प्रूफ़ और दूसरे की रचना का प्रूफ़ क्या वह एक-सी सतर्कता से नहीं देखता है। यह आरोप क्या सत्य है।
नहीं, सत्य नहीं है। किन्तु, इसे प्रमाणित करने का कोई उपाय नहीं है। आखिर भूल तो भूल ही है। अगले अंक में चिट्ठी-पत्री के स्तम्भ के अन्त में भूल सुधार निकालना होगा। सुधार का नोट।
टेबिल पर दो लिफाफ़े थे। इनमें डाक से आयी रचनाएँ हैं। इनमें कई तो फ़ाइल में चली जाएँगी, मुख्य चयनकत्र्ता के पास भेजे जाने के लिए। कई जाएँगी टेबिल के नीचे।
प्रतिदिन टेबिल के नीचे से कितने अपरिचित लेखकों का अभिशाप कवि की तरफ आ जाता है।
सिर्फ़ टेबिल के नीचे से ही नहीं। टेबिल के ऊपर से भी और अपरिचितों का ही नहीं, परिचितों का भी अभिशाप उसमें रहता है। टेबिल पर ही रखी हुई है डाक से आयी एक नयी पत्रिका। उसमें माधव सेन की एक गद्य रचना है। माधव सेन, मौका मिलते ही, कवियों को चिकोटी काटते हैं या उन पर अनेक क्षेत्रों से आक्रमण करते हैं। स्पष्ट रूप से, नाम हो अथवा न हो, व्यक्तिगत रूप से या मित्रों के समागम में। सामने आने पर दोनों मित्रता का मुखौटा धारण कर लेते हैं। यह उस व्यक्ति की निगाह देखते ही समझा जा सकता है। वह सदा असन्तुष्ट, उपदेश प्रिय और बकवाद प्रिय रहा है, अपनी रचनाओं में और स्वभाव में। इस गद्य रचना पर एक नज़र डालकर कवि ने देखा कि सभी को घूलिसात किया गया है और इस समय कैसा लिखा जाना चाहिए, इसका निर्देश दिया गया है। स्वयं उस पर भी आघात की कोशिश की गयी है। वही लोग आते हैं घातक श्रेणी में। कवि ने उस पत्रिका को बन्द कर अपने बैग में रख लिया। यह ठीक है कि इस गद्य रचना को पढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं है। पर कई युवा कवियों की रचनाएँ भी इसमें हैं, घर जाकर उन्हें पढ़ना होगा।
कवि के पास की कुर्सी खाली है। उसका वरिष्ठ सहकर्मी आज आया नहीं है। उसके बदले आज उसी कुर्सी पर आकर राखाल राजा बैठ गया है। सिर पर मोरपंख और कमर में खुसी हुई बंशी। कवि ने गम्भीर स्वर में कहा, ‘काम कर रहा हूँ। यहाँ परेशान मत करो।’
राखाल राजा ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया, ‘उसके बाद कण्डक्टर ने दस रुपये का नोट तोड़ दिया?’
‘हाँ तोड़ दिया। कभी किसी काम में तुम्हें मैंने मदद करते हुए देखा नहीं। वही कितने बरस पहले एकबार नहाने जाने पर वही ‘देहि पदपल्लवमुदारम्’ लिख देने के अलावा। परेशानी तो देखते नहीं हो।’
राखाल राजा ने आँखें लाल कर लीं, ‘ए, बेकार की बात मत करो। यहीं तो उस दिन बेड़ा बाँधते समय उल्टी तरफ़ से रस्सी बढ़ाकर मैंने दे दी थी।’
‘फिर कब सहायता की ?’
‘वही जब तुम गाना बना रहे थे और कचहरी की काॅपी में उसे लिख भी रहे थे। हाँ, यह ज़रूर है उस बार मैं लड़की के रूप में आया था।’
इतने में फ़ोन बज उठा।
कवि ने उठा लिया। गृहिणी थी।
‘हाँ, बताओ।’
‘वह आया था।’
‘कौन ?’
‘गोपाल।’
कवि ने थूक निगलकर कहा, ‘इसीलिए फ़ोन किया ?’
‘हाँ, सुनिए ना, स्कूल में भर्ती हो गया है।’
‘पाँच बरस तो उसे मैंने खाने को दिया था।’
‘अच्छा तो है।’
‘जाते समय ना, थकैंयां लेता हुआ चला गया। मैं उसे पकड़ नहीं पायी।’
‘अच्छा ठीक है। मैं घर आ रहा हूँ, उसके बाद तुम्हारी सारी बातें सुनूँगा। कैसी हो ?’
सुनिए ना! अकेले घर में जैसे पागल हूँ ऐसा लगता रहता है। क्षिप्रा दी के पास जाऊँ एकबार? उनसे नौकरी के बारे में कहूँगी ?’
‘पहले मैं घर आ जाऊँ। उसके बाद बातचीत होगी।’
‘अच्छा! तो तुम तुरन्त घर चले आओ।’
कवि ने मुड़कर देखा कि राखाल राजा गायब हो गया था। सीट पर सिर्फ़ उसका मोरपंख पड़ा हुआ था। डाल गया है। कवि ने उसे उठाकर अपने झोले में रख लिया।
‘नमस्कार।’
कवि ने ताककर देखा एक युवक था।
‘कहिए’।
‘मेरा नाम विकास मजूमदार है।’
‘अच्छा।’
‘मुझे एक चिट्ठी मिली है।’
लिफाफा खोलकर युवक एक चिट्ठी बढ़ा देता है उसकी तरफ़।
‘हाँ। पूजा अंक के बारे में चिट्ठी है। क्या रचना लाये हो ?’
‘नहीं।’
‘यह क्या ? क्यों नहीं लाये ?’
‘तीन रचनाएँ लिखी थीं। एक भी अच्छी नहीं बन सकी। यह पूछने आया हूँ कि क्या और भी समय दिया जा सकता है ? चिट्ठी में तो इसी महीने के पहले सप्ताह की बात लिखी हुई है।’
कवि हँस पड़ा, ‘हाँ! ज़रूर दिया जा सकता है। बैठिए न।’
युवक बैठा नहीं। उसके सिर के बाल छोटे-छोटे हैं। उसकी भाषा में थोड़ा पूर्वी बंगाल का लहजा है।
कवि ने पूछ ही लिया, ‘आप कहाँ रहते हैं ?’
‘मेरा घर बनगाँव है।’
कवि को याद आ गयी चायना की बात। मेरा घर है बनगाँव। घर जाकर अपनी रचना समाप्त करनी होगी। कवि ने लक्षित किया उस युवक के पैरों में हवाई चप्पल है।
कवि ने पूछा, ‘आप हवाई चप्पल क्यों पहने हैं ? इसे पहने-पहने बस में चढ़ना तो बहुत खतरनाक है।’
उस लड़के ने जवाब दिया, ‘मैं तो बस में बैठता ही नहीं हूँ। आप मुझसे तुम कहें।’
‘अच्छा ठीक है। बस में क्यों नहीं बैठते हो ?’
‘अच्छा नहीं लगता है। मैं पैदल ही घूमता रहता हूँ।’
यह सुनकर कवि अवाक् हो जाता है। बोलता है, ‘वाह! तुम तो काफ़ी पैदल चल सकते हो।’
‘लेख कब तक देना होगा ?’
‘अगले सप्ताह मिल जाना चाहिए ?’
‘अच्छा। लेख जमाकर देने के बाद क्या उसमें थोड़ा संशोधन कर दिया जाएगा ? अगर ज़रूरत पड़ी तो?’
फिर संशोधन ?
कवि पुनः हँस पड़ा। ‘कर दिया जाएगा। मुझे जानते हो ? कैसे ? बैठो न!’
‘आज तो चलता हूँ। नीचे मेरा मित्र खड़ा है। काॅलेज स्ट्रीट जाऊँगा।’
‘कौन मित्र है ? क्या मैं उसे जानता हूँ ?’
‘शान्त! शान्तव्रत है।’
कवि पहचान गया। उसका चेहरा कवि की आँखों के आगे उद्भासित हो उठा। चश्मा लगाये हुए। एकदम काला। चश्मा के नीचे चमकती हुई आँखें। उसकी हँसी बच्चों जैसी।
इसी बीच फ़ोन बज उठा।
हाथ में फ़ोन लेकर कवि ने कहा, ‘मुरारी दा- आ’ मुरारी दा और एक उसके अग्रज सहकर्मी हैं। कवि का जो फ़ोन हैं, उसके सामने ही बैठे हुए हैं। अधिकतर फ़ोन उन्हीं के आते हैं। उल्टी तरफ से मुरारी दा का आवाज़ सुनायी पड़ी, ‘ले रहा हूँ भाई हाँ, हलो, कवि उस युवक की ओर मुड़ा। उस युवक ने कहा, ‘आज तो चलता हूँ।’
‘फिर आना।’
कवि तरुण कवि के सिर पर मयूरपंख देखने लगा। वह मन ही मन सोचने लगा, ‘एक दिन यह दुनिया को जीत लेगा।’ फिर फ़ोन बज उठा।
‘हलो।’
‘श्यामल लाल से कोई मिलना चाहता है। उन्हीं का विज़िटर है। रिसेप्शन पर।’
फ़ोन रखकर कवि ने कहा, ‘श्यामल बाबू, नीचे कोई व्यक्ति है।’
‘नीचे कोई व्यक्ति है यह इस दफ़्तर का चलताऊ शब्द है। दफ़्तर तिमंज़िले पर है। एक मंज़िल पर रिसेप्शन है। इसीलिए संक्षेप में कहा जाता है ‘नीचे व्यक्ति है।’
सीट पर बैठकर एक लिफ़ाफ़ा खोला भर था कि फिर फ़ोन बज उठा।
गृहिणी।
‘हाँ, कहो।’
‘वह आया था। फिर से’
‘कौन ?’
‘गोपाल। तुम जल्दी से चले आओ।’
‘आ रहा हूँ। तुम्हारी तबियत कैसी है ?’
‘ऐसा लग रहा है कि साँस फिर से फूल रही है। साँस लेने में तकलीफ़ हो रही है।’
‘दवा खायी है ?’
‘नहीं। खाकर क्या होगा ?’
‘ऐसा मत करो। खा लो। कैसी हो! मैं शाम के पहले ही आ जाऊँगा।’
‘अच्छा।’
कवि ने घड़ी देखी। डाॅ. सेनगुप्त तो आज मिल नहीं सकेंगे। वे तो परसों बैठेंगे। क्या किया जा सकता है। कल उन्हें सवेरे-सवेरे घर पर ही पकड़ा जाए। किसी अज्ञात कारण से स्त्री का शरीर फूलता जा रहा है। धीरे-धीरे। इसी के साथ उसका चिड़चिड़ापन बढ़ता जा रहा है। बेचैनी भी। इसके साथ-साथ साँस की बीमारी, हाँफ़ना। एकाध और स्त्रियों को होने वाली बीमारी। सभी बीमारियों को कवि जानता भी नहीं है।
नहीं जानता है ? अपनी स्त्री की बीमारी के बारे में ? यह क्या बात है ? अपराधी की तरह चेहरा हो गया कवि का। अपने ही सामने। गत पाँच वर्षों से ऐसा ही चल रहा है। पाँच बरस। पाँच बरस क्या बहुत लम्बा समय है।
कवि ने देखा, उसका अग्रज सहकर्मी शुभ्रांशु चैधुरी अन्दर आया। घुसते ही अपनी सीट की ओर न जाकर, उल्टी तरफ श्यामल बाबू की सीट की तरफ जाकर उसने कहा, ‘देखिए तो श्यामल क्या मेरा धारावाहिक छपने चला गया ?’
‘नहीं शुभ्रांशु दा, आज पहला प्रूफ़ आया है।’
‘देना तो भाई प्रूफ़।’
कवि को पता है, शान्त, संकोची शुभ्रांशु चैधुरी नाराज़ होने, अन्यमनस्क या उद्विग्न होने पर जाने-पहचाने व्यक्ति को भी भाई कहने लगता है। शुभ्रांशु चैधुरी प्रूफ़ लेकर उसके हाशिए पर छोटे-छोटे अक्षरों में कुछ लिखने लगा।
फिर फ़ोन बजने लगा।
शुभ्रांशु चैधुरी ने कवि से कहा, ‘थोड़ा फ़ोन उठाइए भाई।’
फिर भाई। इसका अर्थ है कि वह अब भी उद्विग्न है। कवि ने फ़ोन उठाकर कहा, ‘हाँ, नहीं, वे आज नहीं आये हैं।’
प्रूफ़ वापस करते समय कवि ने शुभ्रांशु चैधुरी से पूछा, ‘शायद तथ्यों की कोई गड़बड़ी थी।’
शुभ्रांशु ने इस पर जवाब दिया, ‘न, न। एक जगह भाषा कम ज़ोरदार लग रही थी, कल रचना जमा करने के बाद से ही। जितना हो सका, उसे ठीक तो कर दिया है।’
शुभ्रांशु चैधुरी के चेहरे पर उस उद्विग्नता की छाप अब नहीं है। उसने फिर कहा, ‘जाने दीजिए, बाद में पुस्तक छपते समय तो सुधार करने का मौक़ा मिल ही जाएगा। तब देख लूँगा।’
फिर सुधार का प्रसंग। इतने समय से इतने पाठकों को जीतने के बाद आज भी इतना संशोधन करना पड़ता है शुभ्रांशु चैधुरी को। तो फिर आजीवन सुधार करते जाना ही एक लेखक का भविष्य है। सारे जीवन वह भूल करता रहेगा। पूरे जीवन वह संशोधन करता रहेगा। लेखक की ज़िन्दगी यही है। शुभ्रांशु के साठ वर्ष पार हो जाने के बाद भी कवि ने यही एक चीज़ देखी है बार-बार। उसकी किसी भी रचना को लेकर चारों ओर उच्छ्वास की बाढ़ आ जाती थी। लेखक चुपचाप बना रहता है। घर लौटते-लौटते कवि से एकान्त में उसने कहा था, समझ लो अभी भी ठीक-ठीक संशोधन नहीं हो सका है। थोड़ा अगर दूसरी तरह से लिखता तो वह अच्छी हो जाती। अच्छा, पुस्तकाकार होते समय देख लूँगा। असल में लेखक ही यह समझ सकता है कि वह क्या चाहता था और क्या कर पाया है। दूसरे लोग उसे नहीं समझ पाएँगे। जो आघात पहुँचाने वाले हैं उनकी बात अलग ही है। वे तो सर्वज्ञ हैं और सब कुछ समझ सकते हैं।
फिर फ़ोन बजने लगा। आॅफ़िस में यही एक परेशानी है। इस बार फ़ोन उठाया शुभ्रांशु चैधुरी ने। ‘हेलो’ कहते हुए उसने कहा, ‘हाँ’। उसके बाद उसने कवि की ओर देखा। ‘तुम्हारा है।’
कवि ने फ़ोन लेते ही समझ लिया कि उसकी गृहिणी है।
‘सुनिए, आज के अख़बार में दूसरे पन्ने पर एक बच्चे की तस्वीर निकली है। छह महीने का बच्चा है। माँ-बाप का ठिकाना पूछा गया है। इस समय ‘लिलुया होम’ में है। माथे पर काजल का टीका है। देखा है ?’
‘नहीं।’
चलो न, उस बच्चे को हम लोग ले आएँ। हम लोग उसे पाल-पोसकर बड़ा करेंगे। एक मनुष्य बनाएँगे।
‘पहले मैं घर आ जाऊँ। घर पहुँचकर इस पर बात करूँगा।’
‘मुझे तो पता है घर आकर तुम क्या कहोगे। तुम इंकार कर दोगे। पूरे जीवन ‘न’ के अलावा कभी कुछ कहा है तुमने।’
‘अच्छा, अब फ़ोन रख रहा हूँ।’
फ़ोन रखकर कवि ने कहा, ‘शुभ्रांशु दा, आज मैं ज़रा जल्दी जा रहा हूँ।’
तीन
सचमुच में कवि थोड़ा पहले ही निकल गया।
जाने के लिए नीचे आते ही देखा कि रिसेप्शन पर उसका पहचाना हुआ एक लड़का खड़ा हुआ है।
‘क्या तुम शान्तनु हो। किसके पास आये हो।’
‘आपके ही पास आया हूँ।’
‘बताओ, क्या ख़बर है।’
इस पर लड़के ने इधर-उधर देखा। ‘आपसे थोड़ी-सी बात करनी थी।’
‘चलो। चलते-चलते सुनूँगा।’
रास्ते में निकलकर उस लड़के ने कहा, ‘मेरे लेख का शायद कुछ हुआ नहीं ?’
कवि ने ताककर देखा, लड़के का चेहरा विपन्न, व्यथित लग रहा है, अन्तिम सान्ध्य आलोक पड़ रहा है उसके करुण, सुन्दर मुख पर।
‘क्या बात है,’ कवि हँसने लगा। ‘शायद किसी ने तुमसे कुछ कहा है।’
‘नहीं, आपने ही तो कहा है, कुछ हुआ नही है ? आप मुझसे स्नेह करते हैं इसीलिए आपने ठीक ही कहा है, उत्साहित करने के लिए ? क्या मुझे लिखना बन्द कर देना चाहिए ?’
कवि रुककर खड़ा हो गया। ‘चलो सड़क के उस पार, उस चाय की दुकान पर थोड़ा बैठते हैं।’
दो कप चाय और टोस्ट सामने लेकर फिर से बातचीत शुरू हो गयी।
‘तुम्हारी रचना सचमुच में अच्छी है या नहीं, क्या मैं यह जानता हूँ ?’
‘यानि ?’
‘मैं जितना समझता हूँ, उसी आधार पर अच्छी कह रहा हूँ पर मेरी समझ ही तो एकमात्र आधार नहीं है, वही सर्वश्रेष्ठ भी नहीं है। अच्छे की धारणा भी तो पूरी तरह संशोधित हो सकती है। उसमें भी सुधार हो जाता है। क्या ऐसा नहीं है ? सचमुच में अच्छा क्या है, उसी को समझने में ही पूरा जीवन कट जाता है। हम लोग उसी को समझने का प्रयास करते रहते हैं। तुम अपनी तरह से करते हो। मैं अपनी तरह से करता हूँ।’
‘आप और मैं ? कितना अन्तर है।’
‘क्या अन्तर है बताओ तो। तुमने मुझसे पन्द्रह वर्ष बाद लिखना शुरू किया, मैंने तुमसे पन्द्रह वर्ष पहले लिखना शुरू कर दिया है। इतना ही तो फ़र्क है। पर एक ही प्रकाश-अन्धकार में रास्ता खोजते हुए हम दोनों चले जा रहे हैं।’
उस युवक ने अवाक् होकर कहा, ‘आप इस तरह से कह रहे हैं, यद्यपि दूसरा कोई अन्य तरह से कहता।’
‘यही स्वास्थ्यकर है। हर व्यक्ति अलग है, वह अपने अनुसार ही तो दुनिया को समझना चाहेगा।’
‘कोई अगर सबको समझ लेता है। अन्य को भी।’
‘तब उसे ज्ञानी कहते हैं।’
‘किन्तु ज्ञानी होने के कारण क्या किसी को भी अपमानित करने का अधिकार हो जाता है ?’
‘यही देखो, तुम कह रहे हो ना, क्या हुआ। किसी ने अवश्य तुमसे कुछ कहा है। किसने कहा है ?’
‘माधव सेन ने।’
कवि का चेहरा थोड़ा फ़ीका पड़ गया। ‘क्या कहा है, उन्होंने ?’
‘उस दिन आॅफ़िस में आपको अपनी ‘दुर्ग’ पत्रिका दे गया था न।’
‘हाँ, हाँ।’
‘पत्रिका देकर निकल ही रहा था कि देखता हूँ सामने की सिगरेट की दुकान के पास माधव सेन और अमल वसु खड़े हुए हैं। मैंने उनसे पूछा- माधव दा आप ठीक से तो हैं, पत्रिका मिल गयी आपको। उन्होंने कहा, वह तो मिल गयी। पर, तुम्हारे क्या हाल हैं! ऐं, तुमने तो अपना चैनल बदल दिया है, मैंने ऐसा सुना है। आजकल आते-जाते नहीं। बड़े पेड़ से नाव बाँध दी है, हाँ ? मैंने कहा, बड़े पेड़ का मतलब ? वे कहने लगे, अब तुम बहुत चालाक हो गये हो, बड़े पेड़ का अर्थ नहीं जानते! तुम्हारा लिखना तो कुछ हो नहीं रहा है। ‘दुर्ग’ पत्रिका में तुम्हारी तीनों रचनाएँ बहुत खराब हैं। वे पढ़ी ही नहीं जा पाती है। आजकल इतना खराब क्यों लिख रहे हो?’
इस पर कवि क्या कहे, कुछ सोच नहीं पाया। उसके बाद उसने पूछा, ‘तुमने क्या कहा ?’
‘मैंने कहा- शायद वे रचनाएँ अच्छी नहीं बन पड़ी हैं। स्वयं तो समझ नहीं सका। इसीलिए छपने दे दी थीं। फिर भी माधव दा ‘संकेत’ पत्रिका में आपकी दोनों रचनाएँ खूब अच्छी लगी हैं।’
‘वाह यह तो तुम्हारी जीत है।’
‘इसका अर्थ ?’
‘माधव सेन ने, माधव सेन की अपनी रुचि से यह बात कही है, तुमने अपनी रुचि का प्रमाण दिया है।’
‘नहीं, अर्थात् मैंने कहा, ‘दुर्ग’ पत्रिका में देने के पहले मैंने तो वे रचनाएँ आपको दिखा ली थीं। तब आपने कहा था, ठीक है।’
‘वह जो कहा था, वह अपनी विचार-बुद्धि के अनुसार कहा था, माधव सेन के विचार ठीक ही होंगे, यह क्या मैं कह सकता हूँ।’
‘आप अच्छे से तो हैं, पूछने पर अगर कोई कहता है, चैनल चेंज कर दिया हे, बड़े पेड़ से नाव बाँध दी है, इसका क्या अर्थ है ?’
‘क्यों, क्या समझ नहीं पा रहे हो, यह उसकी रुचि है।’
‘बड़े पेड़ का क्या अर्थ है, पता है ?
‘क्या अर्थ है ?’
‘पहले बीच-बीच में मैं उनके पास जाया करता था, आजकल नहीं जाता हूँ। आपके पास आता हूँ। उन्हें इसी बात का पता लगा है। उसी ओर उन्होंने इशारा किया है।’
‘बस, बस और नहीं शान्तनु। इस प्रसंग को लेकर आगे हम बात नहीं करेंगे।’
‘क्यों। आप नाराज़ हो गये ?’
‘नहीं। नाराज़ नहीं। अपना बचाव। सतर्कता। इस प्रसंग पर बात करने का अर्थ है, अपने मन को गन्दे, कुत्सित कीचड़ में खींचकर ले जाना। इसी तरह हमारा मन और जीवन जीविका निर्वाह की वजह से सदा कीचड़ के आसपास घूमता-फिरता रहता है। निरन्तर सुधार करते-करते उसे बाहर लाना पड़ता है। उसे ऊँचा उठाना पड़ता है। रचना की ओर लाना पड़ता है। हम जो लिखते हैं, मन के अलावा हमारा और कोई सम्बल नहीं है, अपनी इच्छा से क्या उसे कोई नष्ट करना चाहेगा ?’
‘तो फिर मैं क्या करूँ ?’
‘कोई अगर यह कहता है कि रचना खराब है उसे सहज रूप से लेना चाहिए। दुनिया में सभी को तुम्हारी रचना अच्छी लगे, ऐसा कभी नहीं होता पगले! माधव सेन के साथ कभी भेंट हो तो आप अच्छे हैं, यह कहते हुए उनसे दूर हट जाना।’
माधव सेन जैसे लोगों की आँखें महत्वाकांक्षा और ईष्र्या से अन्धी होती हैं, यह ठीक है, पर इतनी छोटी उम्र के तरुण पर क्या उसका प्रयोग करना चाहिए ?
वह लड़का असहाय की तरह कहता है, ‘मैंने इसीलिए कहा था, सिर्फ़ वही तो कहा था।’
कवि नहीं जानता है कि इसके बाद उस लड़के से उसे क्या कहना चाहिए। अपमान के आघात से वह छटपटा रहा है। लड़का बुद्धिमान है। सान्त्वना देने से ही वह सम्भल जाएगा। कवि यह नहीं समझ पा रहा है कि उसे क्या कहना चाहिए ? वे लोग इस समय बड़ी सड़क के किनारे खड़े हुए हैं। सामने से व्यस्त शाम का ट्रेफ़िक भागा चला जा रहा है, रुकता भी जा रहा है। लड़के के चेहरे पर सड़क पर लगे होर्डिंग की रोशनी पड़ रही है। वह इस समय भी ट्यूशन करने जाएगा। क्या कहना चाहिए उसे। ऐसी स्थिति में वह स्वयं क्या करता ? सहसा घूमकर खड़े होकर कवि ने कहा, ‘सुनो, तुमसे कोई चाहे जो कुछ कहे, तुम घर जाकर कोरे कागज़ के सामने बैठ जाओगे और एक कविता लिखोगे।’
‘मतलब, क्या इसी मानसिक स्थिति में कविता लिखी जाती है ?’
‘यह तो मैं नहीं जानता, मैंने जितनी बार आघात खाया है, जितनी बार आनन्द पाया है, किसी कागज़ के सामने जाकर बैठ गया हूँ। कोरे कागज़ के सामने बैठने पर तुम देखोगे, वही है जल की धारा, सच, जल की धारा। उसमें अपना चेहरा देखा जा सकता है, दुनिया का भी।
‘जितने आघात मिलें, कोरे कागज़ के सामने जाकर बैठो। मैं इसीलिए बैठता हूँ। मैं और मेरी कलम। इससे अधिक मैं कुछ नहीं कर सकता। इससे अधिक मैं तुम्हें कुछ और सिखा भी नहीं सकता।’
शाम का समय पार कर भीड़ में चपटी बस से सड़क पर कवि उतर पड़ा। उतरते समय उसके कुर्ते का बटन टूट गया। छत्ते का हेण्डिल एक व्यक्ति के कुर्ते में अटक गया। भीड़ में उसके कन्धो का झोला फँस गया। लोगों का तिरस्कार और खींचतान सहन करते हुए कवि उतर पाया। अपने सामने कवि जितना शब्द, कागज़, कोरा पन्ना, संशोधन आदि रात-दिन कहता हुआ क्यों न चले किन्तु भीड़ में वह एक भुने चिवड़े की तरह तुच्छ व्यक्ति है। उससे वह कैसे बचेगा।
इन सब चीज़ों से अगर वह बचेगा तो वह लिखेगा कैसे ? उसकी रचना में जीवन कहाँ से आएगा ?
बस स्टाॅप से उसका घर काफ़ी भीतर है। मोड़ पर खड़ा रिक्शावाला लगभग उसका पहचाना हुआ था। एक किशोर रिक्शे वाले ने उसे पुकारा, बाबू चलना है। उसका नाम था, फुचका।
कवि ने हाथ हिलाकर कहा, ‘नहीं, गड्ढ़ों-खन्दकों भरा रास्ता है। भीड़ का इतना दबाव झेलने के बाद अब इतने हिचकोले वह नहीं सहेगा। शाम के वातावरण में धीरे-धीरे पैदल चलकर जाना ही श्रेयस्कर है।
चलते-चलते कवि को सुनायी पड़ा सामने की कैसेट की दुकान के साउण्ड बाॅक्स से गमगमाता हुआ एक स्वर, पेट काटा चाँदीवाला। सुमन चट्टोपाध्याय। कई बार सुना हुआ गाना कवि के कानों में और एक बार पड़ने लगा। रिक्शा चलाने वाले एक बच्चे की कहानी कह रहा है, यह गाना। वह लड़का भी क्या उस फुचका की तरह सीट पर बैठकर आड़े-तिरछे होकर रिक्शा चलाता है ? पैडल पर उसका ठीक से पैर नहीं पहुँचता है इसलिए ? गाने के साथ बीच-बीच में आकाश में अनेक पतंगें उड़ती जा रही हैं। रिक्शा चलाते-चलाते वह बच्चा उन्हें देखता जा रहा है और रिक्शे पर सवार बाबू की आॅफ़िस जल्दी पहुँचने की बकझक उसे ठेलती जा रही है। पतंग उड़ रही है। ‘मुक्ति की पतंग’ उसे खबर दे रही है। कवि अक्सर फुचकी के रिक्शे से जाता है। कवि ने भी क्या कभी फुचकी को इसी तरह जल्दी चलने की हिदायत दी है ? हाँ दी है। उस समय वह कवि नहीं था। एक परेशान पेसेंजर बाबू मात्र। हज़ार-हज़ार आॅफ़िस बाबू क्या इस तरह से प्रतिदिन डाँटते नहीं रहते हैं, जल्दी पहुँचने की वजह से ? गाने की गति इस तरह की है कि रिक्शा चलाने का वेग और डाँट खाने की भय मिश्रित तेज़ी, एक साथ प्रस्फुटित हो उठती है, एक ही चंचल छन्द में हालाँकि मन क्षुब्ध हो उठता है।
‘मुक्ति की तरंग उसे ख़बर भेज रही है’, चार मात्रा के मात्रावृत्त में यह गीत लिखा गया है जिसमें आज सामान्य रूप से कोई व्यवहार नहीं करता पर काम कैसे पाया जाए।
किन्तु कवि ने स्वयं भी तो चार मात्रा के छन्द में बहुत दिनों से नहीं लिखा। सहसा कवि के मन में विचार आया कि इस फुचका को लेकर वह भी तो लिख सकता था। वह तो उसकी भी हरेक दिन की अनुभूति है। नहीं! वह नहीं लिख सका। एक अपराधी की तरह कवि ने अपना सिर नीचा कर लिया अपने ही सामने। कवि देख सका, गाने के उस अनचिन्हे रिक्शेवाले के सिर पर सुमन चट्टोपाध्याय ने लगा दिया है एक मयूरपंख। कवि को याद आने लगीं दो लाइनें ‘यह जो देख रहा हूँ/आदिकाल की दीवार फोड़कर/ जंगली वृक्ष का अंकुर खेल रहा है अपने हाथ-पैर फटकारते हुए।’ कितनी अद्भुत छवि है। कवि भी तो गाँव के पास रहता था। कितना टूटा-फूटा पुराना घर, उसकी दीवार पर पीपल अथवा बरगद का पौधा क्या उसने देखा नहीं है, देखा नहीं अभी हाल में छतनार हुआ जंगली वृक्ष ? पर वह यह चीज़ नहीं कर सका। टूटी हुई दीवार थिर है। यह ठीक है। वृक्ष सजीव है पर वह भी तो अचल है। टूटी-फूटी कठोर दीवार के बीच उसका बन्धन एक झटके में मुक्ति और गतिशीलता पा गया, जंगली वृक्ष का अंकुर बच्चे की तरह हाथ-पैर फैलाते हुए खेल रहा है। हाथ-पैर फैलाने वाले एक शिशु की उपमा से हाल में अंकुरित पौधा जीवन्त हो उठा। जड़ता से लड़ता हुआ यह भी उसने देखा। ऐसी असामान्य कल्पना उसके हाथ में कभी नहीं आयी। न, वह ऐसी कल्पना कभी नहीं कर सका।
वह नहीं कर सका तो क्या हुआ, कोई और तो कर सका। एक कवि के न कर पाने का संशोधन एक दूसरे कवि ने कर डाला। यही तो कवि का काम है। सभी ने मिलकर प्रस्तुत कर दी एक बड़ी कविता। इसी तरह से तो भाषा बची रहती है। कविता बची रहती है। कवि सोचने लगा, किन्तु उस समय यह बात उसके मन में क्यों नहीं आयी ? अगर याद आ जाती तो वह शान्तनु से यह कहता, ‘हम लोग यदि इस अनवसर पर स्वप्न देखते हैं तो इससे अन्य लोगों को क्या मतलब। तुम, मैं और हम सब लोग अपनी सामथ्र्य के अनुसार लिखते हैं। हम लोगों के हाथ में यदि महत कविता नहीं आती तो इससे किसी का क्या बिगड़ता है।’
कवि का मन यह सोचते हुए खुश हो उठा। कवि शाम की हवा में धीरे-धीरे चलने लगा अपने घर की ओर। उसे याद भी नहीं रहा कि उसने अपनी स्त्री से कहा था कि शाम से पहले ही वह घर लौट आएगा।
घर पहुँचते ही वह नहाने घुस गया। निकलते ही उसे सुबह-सुबह लिखी ‘लोकजन’ कविता के संशोधन के लिए फिर बैठना होगा। संशोधन। यही एक अचूक प्रक्रिया है। अपने को संशोधित करना। अपनी कविता का संशोधन। काटते-काटते उस क्षण जो सटीक और योग्य है, उसी भाषा को खोजकर उसका प्रयोग करना। कुछ समय बाद हो सकता है वह इतना उपयुक्त न लगे, इस क्षण के लिए विकल्पहीन भाषा उतनी सक्षम न हो। दूसरे दिन हो सकता है उसका कोई नया संशोधन दिमाग में आ जाए, हो सकता है वह शायद नयी कविता के चेहरे के रूप में सामने आए। तब निष्ठा से उसी की खोज में निकल पड़ो। निरन्तर काटते-काटते सत्य के शतधा छिन्न रूप, फिर भी सत्य एक दिन पकड़ में आ जाएगा। आज की दुनिया में, आज के समय में सत्य क्या शतरूपों में छिन्न-भिन्न नहीं है ? शतरूप में छिन्न हमारे मन की तरह।
उसका नहाना खत्म हो गया। अपने सामने अपना एक विचार खड़ा कर पाने से, थोड़ी गरिमा लेकर स्नानघर से निकल आया कवि।
चार
सामने की दीवार से टिककर, रात में सोने से पहले, कवि ‘लोकजन’ कविता को घिस-माँजकर परिष्कृत कर रहा था। इसी समय गृहिणी आ धमकी, ‘क्या अब भी तुम्हारी कविता का अन्त नहीं हुआ है ? पूरे दिन मुझसे बात करने की तुम्हें फुरसत नहीं मिलती है ? फ़ोन पर तो तुमने कहा था घर पहुँचकर बात करूँगा।’
कवि ने सिर उठाया, ‘हाँ, हाँ, कहो।’
कवि के हाथ में कलम थी। कवि की आँखों पर लिखने-पढ़ने का गोल चश्मा। कवि की गोद में लेटर पेड। पेड पर उल्टी-सीधी लकीरें।
गृहिणी ने कहा, ‘आज वह फिर आया था गोपाल। पूरे दिन शैतानी करता रहा।’
कवि ने कहा, ‘आज उसे कुछ खाने को दिया था ?’
‘वह तो कब का दे चुकी हूँ। सवेरे नकुलदाना1, बताशा और जल और दोपहर में दिया है लूची और गोपीठ।’
‘वाह! खूब अच्छा खाना तो दिया है।’
गृहिणी की आँखें और चेहरा चमकने लगा ‘आज पूरे दिन घुटनों पर चलता हुआ पूरे कमरे में घूमता-दौड़ता रहा। सहसा देखा कि स्कूल की पोषाक में है। पीठ पर बस्ता है। पाँच वर्ष के बालक का बस्ता इतना बड़ा। पकड़ने गयी तो भाग गया। कमरे में जाकर देखा, वहाँ नहीं था।’
‘यहीं न ?’
‘देखोगे आकर ?’
रसोई घर और बरामदे के बीच के एक कोने में गृहिणी के ठाकुर जी विराजमान हैं। काठ का बड़ा बक्सा है। वही ठाकुर जी का सिंहासन है। उसमें सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा की मूर्तियाँ हैं। पत्थर का एक छोटा-सा शिवलिंग है। बगल में घुटने के बल चलने की मुद्रा में गोपाल हैं। माथे पर मुकुट। हाथ में लड्डू है। इन गोपाल के लिए अलग से सिंहासन है। पीतल का है। उसके सामने स्टील की छोटी-सी थाली और गिलास है। गिलास में जल है। दो थालियों में से एक में बताशा और दूसरी में लूची तथा गोकुल पेठा है। दो-तीन बड़े-बड़े काले चींटे बैठे हुए हैं, उस पर।
कवि ने निश्चिन्त होकर कहा, ‘हाँ, वही तो। सब ठीक ही तो है।’
1. शक्कर में पगा एक विशेष बांग्ला व्यंजन
‘न, सब ठीक नहीं है। ठीक हो सकता था। काश ठीक होता। पाँच वर्ष पहले तुम्हीं ने तो सब खत्म कर दिया था।’
कवि का मुँह स्याह पड़ गया। कवि कठोर हो गया। कहने लगा ‘सुनो, मेरे पास और कोई उपाय था ही नहीं। माने हमारे पास और क्या था। उपाय...’
‘उपाय नहीं था ? उपाय किसे कहते हैं ?’
‘तुमने तो कहा ही है। मुझे जो वेतन मिलता था, उससे खर्चा चलता नहीं।’
‘लड़की को होस्टल में भेज दिया। दिल सूना हो गया। पूरे दिन मैं क्या करते हुए रहूँ।’
‘वह तो तुम्हीं ने दबाव डाला था। हर दिन जब भी मैं आॅफ़िस से लौटता, उसके बाद एक ही रटन, होस्टल देखो, होस्टल देखो। नहीं तो क्या मेरी सामथ्र्य थी, होस्टल में रखकर पढ़ाने की।
‘यहाँ अगर रहती तो क्या वह मनुष्य बन पाती ? तुम तो पूरे दिन कविता और केवल कविता लेकर बैठे रहते हो। कविता लिख गयी, फिर कितनी बार सुधार। उसके बाद आॅफ़िस से गद्य लिखने का काम दिया गया तो घर आकर दिन-पर-दिन वही हाँडी जैसा मुँह किये बैठे रहना और कागज़ फाड़ते रहना। उधर वेतन में कटौती होने लगी। उसकी अशान्ति अलग से। इस स्थिति में लड़की मुँह में ताला लगाए बैठी रह सकती है क्या। होस्टल न भेजती तो क्या करती ? मुझे एक बूँद समय नहीं देते थे। लड़की की देखरेख करते नहीं थे।’ कवि असहाय महसूस करने लगा।
‘क्या करूँ ? मेरे पास समय है क्या, बताओ ?’
‘किसी ने आकर कहा, अमुक कवि ने मुझसे खराब बात कही है, इस पर उसे घण्टों समझाने का समय तो तुम्हें ठीक-ठीक मिल जाता है। उसके मन को शान्ति दिये बिना तुम्हारा जैसे काम चलता ही नहीं।’
कवि विस्मय में पड़ गया। ‘ये सब नये लड़के हैं। हाल में ही लिखना शुरू किया है। मैं अगर उन्हें साहस नहीं बँधाऊँगा तो कौन बँधाएगा ?’
‘बँधाओगे। पर अपनी बहू-बिटिया को नहीं देखोगे। लड़की को मैं रोज़ पीटती थी पढ़ने के लिए। मार खाते-खाते ढ़ीठ हुई जा रही थी। यही तो दो कमरे हैं। पास में ही निम्न लोगों की बस्ती है। चारों तरफ खेलने की ज़रा भी जगह नहीं है। समवयस्क एक-दो सखी, सहेली नहीं हैं। मनुष्य हो पाती बेटी यहाँ रहने से ?’
‘और तुम्हारी नौकरी ? नौकरी की बात नहीं कही ?’
‘नौकरी तो छोड़ ही दी। मैं नौकरी करूँ, यह तुम्हीं नहीं चाहते थे। उसके बाद स्वास्थ्य। शरीर तो मेरे लिए आफ़त है। काम के बाद तो और भी खराब होता गया। इसलिए नौकरी छोड़ दी। पर मैंने बच्चों को लेकर ही रहना चाहा था। कहा था, घर पर एक क्रेच बना लूँ। छोटी-छोटी सब गुड़ियाँ आएँगी। उन्हें सँभालूँगी। खिलाऊँगी। सुलाऊँगी। पढ़ाऊँगी। तुम राजी नहीं हुए।’
कवि मानो आकाश से गिर पड़़ा हो। ‘तुम क्या पागल हो गयी हो ? इतने छोटे से कमरे में क्रेच हो सकता है कभी। बच्चों के माँ-बाप राजी क्यों हो जाएँगे। इसके अलावा मकान मालिक एतराज करता। फिर तुम्हारे ऊपर नौकरी छोड़ने के लिए मैंने दबाव तो नहीं डाला था ? और बच्चों को लेकर रहो, इस पर भी मैंने कोई आपत्ति नहीं की कभी।’
गृहिणीं फुत्कार उठी, ‘आपत्ति नहीं की, इसका अर्थ ? तुम्हीं ने तो कहा था, छोड़ दो।’ कवि की देह सिहर उठी। ‘चुप करो। चुप। वह तो अपनों के लिए। तुम्हारा वह होम। वह सड़क पर घूमने वाले बेकार लड़के। इन सब पर तो मैंने कभी आपत्ति नहीं की थी।’
‘तो फिर सारे दिन मैं क्या करूँगी, बताओ तो। मैं फिर से जाऊँ शिप्रा दी के पास?’
कवि का चेहरा चूर-चूर हो गया। अब तक अपने आवेश को दबाए हुए था, अब एक दम उबल पड़ा।
‘शिप्रा दी ? फिर ? तुम्हें क्या उन सब अपमानों की बात याद नहीं है। वह सब ठट्ठा-मज़ाक उड़ाना? रात नौ बजे तक तुम से होम की खरीददारी कराना और दूसरे दिन अन्य सहकर्मी महिलाओं से तुम्हारा अपमान कराना ? होम की जिन बच्चियों के बारे में तुम घर आकर भी रात में लेटे-लेटे सदा सोचा करती थी, उन्हें तुमसे मिलने न देना। एक-दूसरे के बीच वही सब छिपकर निन्दा करना। क्या यह सब तुम्हें याद नहीं है ? याद नहीं है एकाउटेण्ट के द्वारा रुपयों का प्रसंग छेड़कर तुम्हें नीचा दिखाना ?’
‘हाँ, याद आता है, याद आता है।’
‘फिर शिप्रा दी की उसी बहन की बात याद नहीं आती है, जो अपनी इच्छानुसार आॅफ़िस से चली जाती है और जब मन हुआ आॅफ़िस आ गयी, मानो यह उसके बाप का काम है। उसकी साड़ी, गहने और हीरा मोती जड़ी नाक की कील लेकर तुम्हें अपमानित करना, यह सब तुम्हें याद नहीं आता है ?’
‘आह, आह, अब अधिक मत कहो।’
‘और घर आकर दिन-पर-दिन तुम्हारा तकिया भिगोना और मुझसे छिपकर जाना। उनके पास अब तुम फिर जाओगी, जिन शिप्रा दी ने नौकरी छोड़ देने के बाद ड्राइवर के हाथों तुम्हारे लिए वारविडल उपहार में भेज दिया था। मानो, समाजसेवा छोड़ देने के बाद घर बैठकर गुड़ियाँ खेलना ही तुम्हारा काम होगा। क्या मैं उनसे भी खराब हूँ। बताओ, मैं क्या उनसे भी अधिक निष्ठुर हूँ।’
‘अब चुप हो जाओ, चुप।’
‘फिर वही दीपाली ? लोपामुद्रा ? जो तुम्हारी इस सरलता को मूर्खता कहकर सदा आड़ में हँसती रहती हैं। यहाँ तक कि सामने भी, हाँ, सामने भी, मैं अचानक कमरे में घुस रहा था, इसलिए यह सब समझ सका था। तुम नहीं समझ सकी थीं। तुम्हें तकलीफ होगी, इसलिए मैंने तुम्हें बताया नहीं। तुमसे इसी तरह रुपया उधार लिया, स्वयं सम्पन्न होते हुए भी। और वह रुपया था, अपने प्रकाशक से उधार लिया हुआ, तुमने जब उसे वापस माँगा, तब तुम्हें पत्र लिखकर भेजा कि तुम किस रुपये की चर्चा कर रही हो, यह वे समझ नहीं पा रही हैं। और तुम्हें झूठा कहा गया है यह सोचकर दुःखी होती रही, आॅफ़िस से आकर मैंने देखा है तुम बिना नहाये पूरे दिन इसी स्थिति में बैठी हुई हो, मुँह में एक दाना भी तुमने नहीं लिया है। मुझसे कहा, दीपाली ने मुझे झूठी कहा है। बताओ, क्या यह सब नहीं हुआ है ?
‘हुआ है।’
‘और इसके बाद भी तुम बच्चों के साथ रहोगी इसलिए एक-के-बाद एक आर्गनाईज़ेशन में घूम रही हो, ठोकरें खाती फिर रही हो, घण्टों तीखी धूप में पैदल चलते-चलते थका शरीर लेकर वह सब फ़ील्ड वर्क करते हुए और भी अपने स्वास्थ्य को भद्दा कर डाला। इसके बाद भी तुम उन सब लोगों के पास पुनः जाना चाहती हो ? फिर भी ?’
एक साँस में इतनी सब बातें कह डालने के बाद कवि हाँफ़ने लगा। उसे अपने भीतर खालीपन-सा लगने लगा है। जीभ पर कडुआ-कडुआ स्वाद। ख़राब बातें, कुत्सित प्रसंग कहने की उसकी इच्छा नहीं होती है। मन में अंधोरा हो जाता है। पर इसका कोई उपाय नहीं है। अपनी स्त्री को वह जानता है। उसे पुनः आहत होने से बचाने के लिए इन सब चीज़ों की याद दिलाने के अलावा उसके सामने और कोई मार्ग नहीं था। अपना सर्वस्व दाँव पर लगाने वाले युवक-युवतियाँ सचमुच में रास्ते में भटकने वाले बच्चों के लिए, लड़कियों के लिए काम करते हैं पर उसकी स्त्री ग़लत जगह पर जा पड़ी थी। बल्कि ग़लत जगहों पर।
प्रति-आक्रमण से उसकी स्त्री कुछ दिशाहीन ज़रूर हो गयी थी। अबकी बार उसे शब्द खोजे नहीं मिले। अथवा अपने मन में ही मानो अपनी हालत का विश्लेषण करती रही, ‘अच्छा अब नहीं जाऊँगी, नहीं जाऊँगी तो फिर करूँगी क्या ? मैं क्या करूँ बताओ तो ? क्या करूँ, सूनी के तो बच्चा हुआ है। उससे कहूँ कुछ दिन यहाँ आने के लिए। मैं उन लोगों की देखभाल कर सकूँगी।’
‘अपनी बहन की। यहाँ आना तो बाद की बात है, तुम्हारी बहन तुमसे बात भी करेगी क्या? अपमानित कर तुम्हें भगा तो नहीं देगी ? पूजा के उपलक्ष्य में वस्त्र देने जाते समय जैसा कि उसने किया था ? फिर तुम रोते-रोते घर लौटकर बीमार होकर तो नहीं पड़ जाओगी। याद रखो, यह तुम्हारी वही बहन है, जिसे तुम देखे बिना रह नहीं पाती थी। अन्ततः पड़ोसियों के पास जाकर उसकी खोज-खबर लेती थी और वह इसी बात को लेकर व्यंग्य करती थी।’
कवि धीरे-धीरे पारिवारिक होता जा रहा है। और भी असहाय होती गयी कवि पत्नी। दिशाहीन की तरह पुनः कहने लगी तो फिर मैं पूरे दिन क्या करूँगी, वह बच्चा, वह बच्चा अगर हमारे पास रहता।’
कवि ने ध्ौर्यहीन होकर कहा, ‘फिर वही बात। कहा ना, मैं जो वेतन पाता हूँ उसमें बच्चे को रखने का कोई उपाय नहीं था, और एक व्यक्ति को लाने का....’
‘उपाय नहीं था इसका क्या अर्थ है ? मैंने रेड लाइट एरिया में काम करते समय क्या देखा नहीं है घूम-घूमकर ? वे सब महिलाएँ भी अपने बच्चों को बड़ा करती हैं या नहीं ? सिर्फ़ अपने बच्चे ही नहीं, कूड़ाघर में फेंके गए दो-तीन दिन के बच्चों को भी अपने कमरे में लाकर बड़ा करती हैं वे लोग। जो महिलाएँ लोगों के घर में काम करती हैं, वे भी कष्ट सहकर, अपने बच्चों को बड़ा करती हैं, और मैं, मैं नहीं कर पाऊँगी ?’
कवि की पत्नी रोते-रोते गिर पड़ी। और कवि का सामाजिक सिद्धान्त इस बार हिल गया। उसकी समझाने वाली सत्ता अपने को व्यक्त करना चाहती है। ‘नहीं, सुनो, वे लोग दूसरी परिस्थिति, दूसरी तरह की सामाजिक स्थिति में रहती हैं। येन-केन प्रकारेण वे बाल बच्चे ला सकती हैं इस दुनिया में। हम लोग वैसा नहीं कर सकते हैं। हम लोगों को बहुत कुछ सोचना पड़ता है, कई ज़िम्मेदारियाँ लेनी पड़ती हैं, जैसे-तैसे तो...’
‘रुको। स्त्री सिर उठाती है। उसके घुटने पर लग जाती है, उसके सिंदूर की बिन्दी और घिसट जाती है माथे के दाँयी ओर। उसकी आँखों में आँसू हैं।
‘तुम जानते हो कि हमारे परिवार में और एक व्यक्ति के आने से तुम्हारे ऊपर दबाव पड़ेगा। तुम्हें आमदनी बढ़ाने का प्रयास करना पड़ेगा और उसका एक ही रास्ता है। तुम्हें और भी गद्य लिखना होगा। अगर ऐसा होता है तो तुम्हारी कविता की क्षति होगी, ऐसा तुम मानते हो। इसीलिए तुम गद्य लिखना नहीं चाहते। क्योंकि तुम कवि बने रहना चाहते हो। हाँ ? स्वार्थपरायण कवि? केवल इसीलिए तुम कहते रहे नष्ट करो, नष्ट करो। दिन-पर-दिन यही कहते रहे, मैं राजी नहीं हुई, मैंने देरी की, फिर भी आखिर में मैं राजी हो गयी थी, मैं राजी हो गयी।
नारी फिर से दुःख के कारण टूट गयी।
कवि ने धीरे से झुककर उसके कन्धो पर हाथ रखा।
‘हटो। खबरदार मुझे छूना मत। तुम कवि होगे कवि ? जिस कलम से तुम कविता लिखते हो, उसी कलम से तुमने खुशामद भरी चिट्टी लिखी थी डाॅ. सेनगुप्त को। उसी कलम से नर्सिंग होम का फ़ार्म भरा था। उसी कलम से, अगर मेरी कोई क्षति होती है तो उसके लिए कोई दूसरा उत्तरदायी नहीं होगा, इस शर्त पर हस्ताक्षर किये उसी कलम से।’
सहसा कवि की पत्नी को कोई चीज़ खोजने पर मिल गयी। ‘यही, यही तो है, यही तो इस समय तुम्हारे हाथ में है। यह कलम है अथवा छुरी ?’
कवि ने सिहरते हुए देखा, उसके दोनों हाथ रबर के दस्तानो से ढँके हुए हैं। उसके लिखने का पेड टेª हो गया। उसमें अक्षर नहीं औज़ार हैं। उसके हाथ में कलम नहीं, गर्भपात कराने के डाॅक्टरी हथियार हैं। वह घातक है। वह भी एक हत्यारा है। अपनी सन्तान को मारने वाला। जिन्हें वह घातक समझता है, उनसे भी बड़ा घातक।
रमणी के केश खुल गये हैं। उसके दोनों कपोल आँसुओं से भीगे जा रहे हैं। खिड़की से पीठ लगाये खड़ी बिखरे बालों वाली उसने तब कहा, ‘मैं सारे दिन घर में रहती हूँ, इन दो कमरों के बन्द घर में बन्दी की तरह रहती हूँ और वह छोटा, गोपाल, पूरे दिन बकैयाँ भरता हुआ खेलता फिरता है। मैं जानती हूँ मेरे पेट में गोपाल ही आया था। उसे लूची पसन्द है, उसे दूध की बर्फ़ी पसन्द है और बैगन की सब्ज़ी। वह आकर अच्छी तरह खा जाता है। हर बार अलग उम्र लेकर आता है। किसी दिन उस खाट पर छह महीने के बच्चे की तरह हाथ-पैर फैंकता हुआ खेलता रहता है। किसी दिन दो वर्ष के बच्चे के की तरह लड़खड़ाता हुआ बरामदे में दौड़ता है और छप्प से गिर पड़ता है। सफ़ेद जांगिया, पीठ पर पाउडर, पैरों के तलुए एकदम गुलाबी, मेरा पैदा न हुआ बच्चा पूरे दिन अकेला घर में दौड़ता फिरता रहता है, मैं उसे पकड़ नहीं पाती और स्कूल की पोशाक में आज आया था, पाँच बरस के बड़े लड़के के रूप में, स्कूल जाने के लिए तैयार यहीं तो है, वह रहा...’
कवि ने दरवाज़े की ओर देखा, दरवाज़े पर नीला, कृष्ण वर्ण का बालक था, स्कूल की पोषाक में। सिर पर मोरपंख। कवि ने कहा, ‘यह क्या! यह तो राखाल राजा है।’
उसकी स्त्री ने कहा, ‘यही तो गोपाल है।’
नीलवर्ण का बालक अन्तध्र्यान हो गया।
स्त्री हाहाकार कर उठी, ‘बताओ, अब मैं अपने को लेकर क्या करूँ! बताओ, क्या करूँ।’
कवि दोनों हाथ जोड़कर मन-ही-मन कहता जा रहा है, हे राजा! हे रुद्र! मेरा पुरुषार्थ जाग्रत करो। पाँच वर्ष से अधिक समय से मैं स्त्री-स्पर्श से रहित हूँ। मेरे जंग लगे शरीर में एक बार पुरुषार्थ के रूप में अवतरित होओ। एक बार के लिए मुझे जगा दो, सन्तानार्थ जगा दो मुझे।’
यही स्तुति मन-ही-मन उच्चारण करते-करते कवि आगे बढ़ गया अपनी नारी की ओर। अन्तिम आश्रय की तरह कवि ने उसके कन्धो पकड़ लिये। उसे अपनी ओर खींचा, ‘आओ, हम लोग उसे फिर ले आएँ। हम दोनों, एक साथ यदि इच्छा करें, वह ज़रूर आएगा। आओ, मेरी सहायता करो। तुम मेरी सहधर्मिणी हो, आओ सहवास धर्म के द्वारा हम पुनः सन्तानोत्पत्ति की ओर चलें।’
स्त्री बिजली की तरह छिटक कर अलग हो गयी, ‘तुम छुओगे नहीं मुझे। पाँच वर्ष से मैंने तुम्हें अपने को छूने नहीं दिया है, इस समय भी छूने नहीं दूँगी, कभी छूने नहीं दूँगी।
यह सुनकर कवि आहत हो जाता है, पर विस्मित नहीं है, ‘ऐसा क्यों कर रही हो ? आओ। मुझे लो। अबकी बार हम लोग उसे वापस नहीं जाने देंगे। इस बार उसे अपने घर ले आएँगे। उसे पाल-पोसकर बड़ा करेंगे।’
‘अब नहीं होगा। नहीं होगा। पाँच वर्ष पहले ही तुम्हें यह जान लेना चाहिए था कि अब नहीं होगा।’
‘क्या जान लेना चाहिए था।’
‘उस समय तुम यह नहीं जानते थे कि मेरे शरीर की हालत क्या थी। बताओ, नहीं जानते थे ?’
जानता था, कवि अन्ततः यह जानता था कि उसकी स्त्री के गर्भाशय में कुछ खराबी थी। भ्रूण नष्ट करने के पहले डाॅक्टर सेनगुप्त ने यह जानकारी दी थी।
‘पाँच वर्ष पहले ही डाॅक्टर सेनगुप्त ने बता दिया था, उसे (भ्रूण को) नष्ट करने के आघात से फिर कोई सन्तान नहीं होगी। काफ़ी देर हो गयी थी। गर्भ में सन्तान खूब बड़ी हो गयी थी। शायद उसका शरीर बनना शुरू हो गया था। हाथ-पैर बनने शुरू हो गये थे। पर पूरे नहीं बन पाये थे। इसीलिए अब कोई सन्तान नहीं होगी। किसी भी तरह नहीं होगी।’
कवि हाहाकार कर उठा, ‘होगा। होगा। एक बार हम लोग प्रयास करके तो देखें?’
‘नहीं ?’ स्त्री घूमकर खड़ी हो गयी। आँखों में आँसू चमक रहे थे। उसका आँचल धरती में लोट रहा था। होंठ खुल रहे थे। चेहरे की रेखाएँ बिगड़नी शुरू हो गयी थीं। रुकी हुए रुलाई की वजह से।
‘नहीं। यह तुम्हारी कविता नहीं है कि जितनी बार खुशी हो उतनी ही बार उसमें संशोधन कर डालो, सुधार कर डालो। यह जीवन है। जीवन को एक दो बार काटने से, उससे जो रक्त बहना शुरू होता है, कई बार वह पूरे जीवन बन्द नहीं होता। मेरा रक्त बहना बन्द नहीं हुआ, यह देखो! पूरे जीवन मेरा रक्त बहना बन्द नहीं हुआ। यह देखो, मैं तुम्हारी कविता नहीं हूँ, कहते-कहते पास के कमरे में तेज़ कदमों से जाकर उसने दरवाज़ा बन्द कर दिया। पास की खाट पर उसके धम्म से गिर पड़ने की आवाज़ हुई। फफक कर रोने की आवाज़ भी आने लगी। काटछाँट की गयी खून से लथपथ एक कविता का फफकना।
कवि आधो अँधोरे कमरे में पश्चिम की तरफ की खिड़की के पास जड़ की तरह खड़ा रह गया। कवि के संशोधन का सिद्धान्त और उसकी गरिमा काँच के बरतन की तरह झनझनाती हुई टूटकर कमरे में बिखर गयी। कदम रखते ही पैरों में गड़ जाएगा वह काँच, इसी डर से कवि वहाँ से हिल नहीं पा रहा है। बहुत देर तक वह स्तब्ध बना रहा। काँच के वे सब टुकड़े अँधोरे में भी एक प्रिज्म की तरह खण्ड-खण्ड चित्र दिखा रहे हैं। उनकी तरफ देखा नहीं जा रहा है। अभी हुए कलह की छबियाँ। बाहर, इस तीनतला से दिखायी दे रहा है, डामर रोड, उसके पास बड़ा नाला और ट्यूबवेल और उस तरफ कूड़ेदानी। बन्द हो गयी चाय की झोपड़ी वाली दुकान। उसी दुकान की तरफ से बस्ती शुरू हो जाती है।
पर इस समय बस्ती में रोज़ जैसा हो-हल्ला नहीं है। जैसे किसी कारण से सबकुछ स्तब्ध है। सड़क पर भी लोगों की चहल-पहल नहीं हो रही है। सिर्फ़, दूर रेल लाइन पर मालगाड़ी के दो डिब्बे धड़-धड़ आवाज़ करते हुए रुक गये। और उतनी दूर से आयी आवाज़ के बाद चारों ओर और भी निस्तब्धता हो आयी। समझ में आया कि रात बढ़ रही है।
कवि ने देखा, चाँद के उजाले में, नाले से उठकर आया एक विचित्र आकार का प्राणी। नज़र डालते ही यह समझ में आया कि यह एक अधूरा मानव शिशु है। एक विशाल भ्रूण है। उसका सिर अस्वाभाविक रूप से बड़ा है। उस पर बाल नहीं है, वह केशहीन है। चपटी चीज़ की तरह। पैरों की तरफ मेंढ़क की पूँछ के आकार की कोई चीज़ है। अँधोरे में धीरे-धीरे हवा में उद्भासित हो उठती है, ढलते हुए आलोक में वह उड़ती रहती है। उसकी आँखें अभी प्रस्फुटित नहीं हुई हैं। उसके दोनों हाथ अभी अधूरे हैं। उन अधूरे हाथों में से एक में वह जैसे कोई एक चीज़ पकड़े हुए है। क्या है वह, लम्बी-सी कोई चीज़ ?
चाँद का मलिन उजाला थोड़ा उज्ज्वल हो उठता है। कवि उस चीज़ को पहचान लेता है। अधूरे हाथ में चपेटी हुई वह और कुछ नहीं बाँसुरी है, बाँसुरी।
«
चक्रव्यूह प्रेमलता वर्मा
कहानियाँ
SAMAS
»
×
© 2025 - All Rights Reserved -
The Raza Foundation
|
Hosted by SysNano Infotech
|
Version Yellow Loop 24.12.01
|
Structured Data Test
|
^
^
×
ASPX:
POST
ALIAS:
sanshodhan-ya-kaataakootee-jay-gosvaamee-anuvaad
FZF:
FZF
URL:
https://www.therazafoundation.org/sanshodhan-ya-kaataakootee-jay-gosvaamee-anuvaad
PAGETOP:
ERROR: