सृष्टि अमृता भारती
25-Oct-2020 12:00 AM 5108

किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः।
मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यदध्यतिष्ठभ्दुवनानि ध्ाारयन्।।
ऋग्वेद
वह कौन-सा वन था, वह कौन-सा वृक्ष, जिससे ये द्यावा-पृथिवी निर्मित हुए? हे ऋषियों, अपने मन में विचार करो, इन भुवनों को ध्ाारण करते हुए वह कौन-से स्थान पर अवस्थित था?
सृष्टि
यह जगत् उसकी शक्ति का आविर्भाव है।1
उसकी शक्तियों से ही यह जगत् निर्मित है।2
वेद, उपनिषद्, पुराण, स्मृति आदि ग्रन्थों में सृष्टि एवं सृष्टिक्रम का तात्विक एवं दार्शनिक विवेचन तथा उसके प्रथम एवं उत्तरोत्तर प्रादुर्भावों पर विशद विवरण प्राप्त होता है। कथन-उपकथन, वार्ता, संवाद, जिज्ञासा एवं प्रत्युत्तर के रूप में इस पर विस्तार से विचार हुआ है।
सृष्टि के विषय में अध्यात्म-ग्रन्थों से लेकर भौतिक विज्ञान तक शाश्वत जिज्ञासा विद्यमान रही है। ऋषियों ने इस रहस्य का उद्घाटन किया है, पर यह उद्घाटन भी रहस्यमय और गुह्य है और विश्लेषण के लिए समान स्तरीय मनीषा की माँग करता है। पर अब मनुष्य की अन्तश्चेतना में इस जिज्ञासा ने इतना ठोस और वास्तविक रूप ले लिया है कि यह उत्तर के लिए किसी भी जोखिम और कितने ही संकटपूर्ण पराक्रम के लिए उद्यत है। वैज्ञानिकों की प्रयोगशालाएँ हों या दूसरे ग्रहों की ओर उड़ते, ध्वंस होते अन्तरिक्षयान अथवा मनुष्य के अन्दर दहकता अग्निगृह, अनुसन्ध्ाान जारी है। ऐसा पहली बार हुआ है कि मनुष्य हर चीज़ का कोई एक उत्तर पाना चाहता है- और उत्तर वस्तुतः ‘एक’ में ही है, जो अनेक हो सकता है, बहुविध्ा हो सकता है- एकं रूपं बहुध्ाा यः करोति3 और जो अपनी सर्वगत शक्तिमत्ता से एक ही काल में सर्वत्र हो सकता है ः
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्।
सं बाहुभ्यां ध्ामति सं पवत्रैद्र्यावाभूमी जनयन्देव एकः।।4
वैदिक ऋषियों ने उस विश्वचक्षु, विश्वमुख, विश्वबाहु, विश्वपाद ‘एक देव’ का साक्षात्कार किया था जो बाहुओं से (द्यौ में) ध्ामन करता हुआ और तीव्र गतियुक्त पैरों से (पृथ्वी पर) संचरण करता हुआ द्यावा-पृथ्वी को उत्पन्न करता है।
उस एक देव का ध्ान और संचरण उसकी उस गति को प्रकट करता है जो सृष्टि-कर्म की अभिव्यंजक है।
दृश्य-जगत् के आविर्भाव के पूर्व जल था- ‘आप’, इसे ‘श्रुति’ और ‘स्मृति’ दोनों ने स्वीकार किया है- आपो वा इदमग्रे, आपो वा इदं सर्वम्5, आप एवेदमग्र आसुः6 तथा अप एव ससर्जादौ।7 पर यह ‘आप’ प्रभेद और पहचानरहित जल था- अप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्।8 अप्रकेत शब्द जल की अभिज्ञानरहित स्थिति को प्रकट करता है।
‘आप’ या ‘जल’ की अग्रता के विषय में उपनिषद् का यह कथन महत्वपूर्ण है कि उस आत्मा ने, सृजन की इच्छा से, जलों से पुरुष को निकाला- सोऽ्द्भ्य एव पुरुषं समुद्धत्य...।9
सृष्टि के सन्दर्भ में ‘काम’ और ‘तप’ ये दो शब्द सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय में पुनरावृत्ति के साथ उपलब्ध्ा हें। प्रथम हम ‘काम’ शब्द और इसके अर्थ को हृदयंगम करने का प्रयत्न करेंगे। यह शब्द आत्मा और प्रजापति के साथ प्रयुक्त हुआ है- आत्मा अर्थात् ‘सः’ (वह) परमात्म पुरुषः
कामस्तदग्रे समवर्तत ....।10
सोऽकामयत। बहु स्यां प्रजायेय ...।11
प्रजापतिरकामयत प्रजायेय ...।12
प्रजाकामो वै प्रजापतिः।13 आदि
‘काम’ परमात्मा सत्ता की इच्छा शक्ति है और यह इच्छा अपने पूर्ण स्वातन्त्र्य से विश्व के प्रकाशन का कारण है। तन्त्रागम में यह परम चैतन्य है, चिति, जो स्वेच्छा से अपने ही पृष्ठ या पट पर विश्व का उन्मीलन करती हैः
स्वेच्छया स्वभित्तौ विश्वमुन्मीलयति।14
सृजन में उपादान कारण का अभाव सर्वत्र मान्य है।
यह इच्छा ही है जिसके द्वारा चिदात्मा देव अन्तःस्थित इस विश्व को बाहर प्रकाशित कर देता है ः
चिदात्मैव हि देवोऽन्तःस्थितमिच्छावशाद्बहिः। ...
प्रकाशयेत्।।15
श्री अरविन्द ने इस इच्छाशक्ति को ‘सर्वशक्तिमान, सर्वप्रभुत्वमय और सर्वआनन्दमय’16 कहा है।
ब्राह्मण में इस ‘काम’ के विषय में यह उद्घोषणा है ः
कामो भूतस्य भव्यस्य। सम्राडेको विराजति।17
इस कथन की व्याख्या भट्टभास्कर इस प्रकार करते हैं ः
स एव वशी स्वतन्त्रः कामः
ईश्वरस्य इच्छाशक्तिः कामः
कारणात्मना एकमेव वस्तु दीप्यते
उत्पत्ति हेतुः एको विराजति।18 आदि
स ईक्षत19- उसने सोचा या विचार किया, इस ‘ईक्षा’ शब्द में भी इच्छा अन्तःगर्भित है।
दूसरा शब्द ‘तप’ है जो सृजन में ‘काम’ के उपरान्त आता है ः
तपसस्तन्महिनाजायतैकम्।20
स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा।21
तमभ्यतपत्तस्याभितप्तस्य।22
सो ...ऽभ्यतपत्; ... अभितप्त ...।23 आदि
तप शब्द विचार या भाव-संक्रेन्द्रण का सूचक है, एकाग्रता का। ‘इस तप की महिमा से विश्व की सृष्टि हुई।’24
उसने तप किया और तप की शक्ति से सर्व का सृजन किया, जो कुछ भी है, सर्व का...
स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा। इदं सर्वमसृजत। यदिदं किंच।25
‘तप’ के साथ ब्राह्मण में एक शब्द और है- ‘अन्तर्वान्’ ः
स तपोऽतप्यत।
सोऽन्तर्वानभवत्।26
भट्ट भास्कर इस ‘अन्तर्वान्’ शब्द की व्याख्या’ ‘गर्भवान्’ कहकर करते हैं- गर्भवानभूत्।
काम प्रथम बीज था- रेतः प्रथमं27 जो तप की महिमा से गर्भवान् होकर विश्व की सृष्टि करता है। यह ‘रेतः’ वह सारभूत तेज है जो उत्पत्ति के लिए स्वयं में स्वयं को ध्ाारण करता है।28
‘काम’ और ‘तप’ ‘स’ से, ‘आत्मा’ से ‘ब्रह्मा’ या ‘प्रजापति’ से जुड़े हुए हैं। इन्हें ही ‘अक्षर पुरुष’ कहा गया है, जिससे विश्व उत्पन्न होता है या इस सृष्टि में सब कुछ उत्पन्न होता है- अक्षरात् सम्भवतीह विश्वम्।29
वह ही इस सम्पूर्ण विश्व का जनक है- त्वं विश्वेषां जनिता यथासः।30 वह ही यह जगत् है- पुरुष एवेदं विश्वम्।31 और वह ही विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता32 है।
उस ‘परम ईश’ का स्पष्ट कथन है- ‘मैं ही सबका उद्गम हूँ, मुझसे ही सब प्रवर्तित होता है’ः
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते।33
‘सर्व सृष्टियों का आदि, अन्त और मध्य मैं ही हूँ’ ः
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहम् ...।34
अज और अनादि मैं ही लोकों का ईश्वर हूँ ः
लोकमहेश्वरम्।35
सृष्टि या विश्व के विषय में यह शाश्वत जिज्ञासा प्रश्न के रूप में आश्चर्य को अन्तर्सात् किये है, एक ऐसे रहस्य को, जो प्रकाशमय होकर भी ‘परोक्षप्रिय’ है और जो प्रश्न में ही उत्तर को अन्तर्लुप्त कर देता है। यह जिज्ञासा स्वयं उत्तर का अन्तर्भाव है।
सृष्टि विषयक प्रश्न को श्रुति में विविध्ा रूपों में प्रस्तुत किया गया है। ‘क्या इसका अध्ािष्ठान था, क्या उपादान कारण था और कैसे इसे (सृष्टि-कार्य) किया गया?’36
कौन इसे जानता है? कौन इसके विषय में कथन कर सकता है कि यह सृष्टि कहाँ से आयी है, कैसे उत्पन्न हुई है? इससे पहले देव भी नहीं थे। अतः कौन जानता है, यह कहाँ से आविर्भूत हुईः
को अद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव।।37
जिससे यह उद्भूत हुई है, वही इसे ध्ाारण कर सकता है, या नहीं कर सकता; जो उस परम व्योम में इसका अध्यक्ष है, वह अवश्य जानता होगा या न जानता होगाः
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दध्ो यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद।।38
जानने, न जानने का यह बोध्ा अनिवर्चनीयता प्रकट करता है। और यह भी कि पूर्णतया कौन जान सकता है?
पुनः उपादान कारण के विषय में प्रश्न है ः
किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः।
मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यदध्यतिष्ठभ्दुवनानि ध्ाारयन्।।39
वह कौन-सा वन था, वह कौन-सा वृक्ष, जिससे ये द्यावा-पृथिवी निर्मित हुए? हे ऋषियों, अपने मन में विचार करो, इन भुवनों को ध्ाारण करते हुए वह कौन-से स्थान पर अवस्थित था?
तैत्तिरीय ब्राह्मण में उसी ‘एक की ओर संकेत है, जो ‘स’ है, ‘आत्मा’ है, ‘ब्रह्म’ है ः
ब्रह्म वनं ब्रह्म स वृक्ष आसीत्।40
यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः।41
ब्रह्माध्यतिष्ठभ्दुवनानि ध्ाारयन्।42
सृष्टि में अन्य किसी उपादान कारण या उपकरण सामग्री की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि वह सर्वशक्तिशाली है- तस्य सर्वशक्तित्वात्।43
यह रोहित है, प्रजापति, जो अपने बल से द्यावा-पृथिवी को दृढ़ करता है- अदृंहद् द्यावापृथिवी बलेन।44 यही द्यावा-पृथिवी की रचना भी करता है- रोहितो द्यावापृथिवी जजान।45
वस्तुतः यह जगत् अविद्यमान नहीं, अव्यक्त था, तब उस अव्यक्तता से ही व्यक्त जगत् का आविर्भाव हुआ। उसने स्वयं ही स्वयं को रचा- तदात्मानं स्वयमकुरुत।46 इसीलिए इसे ‘सुकृत’ अथवा ‘स्वयंकृत’ कहा जाता है।
तान्त्रिक वाङ्मय में भी जगत् व्यक्त और अव्यक्त है। वह ‘उन्मीलन’ और ‘निमीलन’ है- उस परम ईश का उन्मेष और निमेष। बाह्य-प्रसरण के रूप में ‘उन्मेष’ जगत् का प्राकट्य है और अन्तर-प्रत्याहार के रूप में ‘निमेष’ जगत् का विलुप्तीकरण है।
वह परम सत्ता अन्तर्वस्तुरहित नहीं है। उसमें सम्पूर्ण चराचर विश्व उसी प्रकार विद्यमान है जैसे बट-वृक्ष के बीज में महावृक्ष विद्यमान होता हैः
यथा न्यग्रोध्ाबीजस्थः शक्तिरूपो महाद्रुमः।
तथा हृदयबीजस्थं विश्वमेतच्चराचरम्।।47
तन्त्रागम में रचनात्मक सौन्दर्य के साथ इस विश्व का चित्र प्रस्तुत किया गया हैः
अन्तर्विभाति सकलं जगदात्मनीह
यद्वद् विचित्ररचना मकुरान्तराले।
बोध्ाः पुनर्निजविमर्शनसारयुक्त्या
विश्वं परामृशति नो मकुरस्तथाऽयम्।।48
जिस प्रकार दर्पण में अनेक वस्तुएँ यद्वत् प्रकट होती हैं, उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत् चैतन्य में प्रकाशित होता है। पर इस चैतन्य में विमर्श की शक्ति है और यह जगत् को जानता है, पर दर्पण इस वस्तु-वैचित्र्य को नहीं जानता।
यह चैतन्य ही है जो इस सम्पूर्ण चराचर विश्व को उत्पन्न करता है-
चैतन्यात्सर्वमुत्पन्नं जगदेतच्चराचरम्।49
आगमिक दृष्टिकोण की प्रस्तुति करते हुए इस जगत् के विषय में जयरथ उद्धरण प्रस्तुत करते हैं। जगत् एक प्रत्यक्षता है- रूप अथवा देश का सघन संहत रूप। वह चैतन्य शक्ति यह ठोस आकार किस प्रकार ग्रहण करती है, उसी का भावात्मक चित्रण है- ‘चिति शक्ति का अमृत, आनन्द के उल्लास से विस्तार प्राप्त करता है। उसी समय यह पीयूष राशि घन होकर आकार ग्रहण कर लेती है। यही जगत् है और यही परम शिव का प्रत्यक्ष शरीर है’ ः
आश्यानं चिद्रसस्यौघं साकारत्वमुपागतम्।
जगद्रूपतया वन्दे प्रत्यक्षं भैरवं वपुः।।50
तन्त्रागम में काल-दृष्टि से जगत् की सृष्टि (उन्मीलन, उन्मेष) और संहार (निमीलन, निमेष) को एक नित्य क्रम कहा गया है जो निरन्तर चल रहा हैः
दिने दिने सृजत्येवं संहरेच्च दिनक्षये।51
दिन इसे प्रकट कर देता हे, रात्रि इसे समेट लेती है।
भगवान् कहते हैं- दिन के आगमन पर सब उस अव्यक्त से व्यक्त होते हैं और रात्रि के आगमन पर सब उस अव्यक्त में प्रलीन हो जाते हैं ः
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।।52
उस अक्षर पुरुष से इस विश्व की उत्पत्ति का चित्रण उपनिषदों ने अनेक उपमानों और सृदश विम्बरूपों से किया है।
इनमें विश्व-सृष्टि के रहस्य एवं प्रकार को दृष्टान्तों से प्रकट करने का प्रयत्न किया गया है। पहला दृष्टान्त है ः
जिस प्रकार मकड़ी जाले को रचती एवं ग्रसती है, अर्थात् अपने ही शरीर के तन्तुओं को बाहर फैलाती और उन्हें अपने में समेट लेती है। जैसे पृथिवी से औषध्ाियाँ उत्पन्न होती हैं। जैसे पुरुष के शरीर से केश और लोम उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार उस ‘अक्षर’ पुरुष से यह विश्व उत्पन्न होता है ः
यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च
यथा पृथिव्यामोषध्ायः सम्भवन्ति।
यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि
तथाक्षरात्सम्भवतीह विश्वम्।।53
दूसरा दृष्टान्त है, जैसे मकड़ी तन्तुओं पर ऊपर संचरण करती है तथा जैसे अग्नि से अनेक क्षुद्र चिनगारियाँ उड़ती हैं, उसी प्रकार इस आत्मा से समस्त प्राण, समस्त लोक, समस्त देवगण और समस्त प्राणी विविध्ा रूप से उत्पन्न होते हैं ः
स यथोर्णनाभिस्तन्तुनोच्चरेद्यथाग्नेः क्षुद्रा विस्फुलिङ्गा
व्युच्चरन्त्येवमेवास्मादात्मनः सर्वे प्राणाः सर्वे लोकाः सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि व्युच्चरन्ति।54
‘ऊर्णनाभि’ का दृष्टान्त अन्य उपनिषदों में भी उपलब्ध्ा है।55
‘वह’ ही विश्व का रचयिता है, स्रष्टा है- स विश्वकृत्।56
वह ही जगत्रूप ज्योतिर्मय है। सर्वगत और इस पूरे भुवन का रक्षक है। वह ही इस विश्व का नित्य नियम से शासन करता है। सृष्टि, पालन और नियमन- किसी भी रूप में कोई अन्य हेतु विद्यमान नहीं है- नान्यो हेतुर्विद्यते।57
वस्तुतः जगत् जीवन की अभिव्यक्ति है। उस परम चैतन्य की प्राणशक्ति का आविर्भाव। चराचर सृष्टि चैतन्य की ही प्राणमयता है।
(1) स्वशक्तिप्रचयोऽस्य विश्वम्। शि.सू., 3.30 (2) शक्त्योऽस्य जगत्कृत्स्नम्। उद्ध्ाृत, आगम (3) कठ उप., 2.2.12 (4) ऋक्ः, 10.81.3 (5) महानारा. उप., 14.1 (6) बृहद्. उप., 5.5.1 (7) मनु., 1.8; तैत्ति. सं, 7.1.5.1 (8) ऋक्., 10.129.3 (9) ऐत. उप., 1.1.3 (10) ऋक्, 10.129.4; तैत्ति. ब्रा., 2.4.1.10 (11) तैत्ति. उप., ब्रह्मा.6 (12) तैत्ति. ब्रा. 2.2.3.14 (13) प्रश्न उप., 1.4 (14) प्रत्यभिज्ञा., 2 (15) ईश्वरप्रत्यभिज्ञा, 1.5.7 (16) श्री अरविन्द, एस्सेज आॅन दि गीता, वाल्यू. 13, पृ. 567 (17) तैत्ति. ब्रा., 2.4.1.9 (18) वही, भट्टभास्करमिश्र भाष्य (19) ऐत. उप., 1.1.1 (20) ऋक्, 10.129.3 (21) तैत्ति. उप., ब्रह्मा., 6 (22) ऐत. उप., 1.1.4 (23) वही, 1.3.2 (24) ऋक्, 10.129.3 (25) तैत्ति. उप., ब्रह्मा., 6 (26) तैत्ति. ब्रा., 2.2.9.54 (27) वही, 2.8.9.75; ऋक्, 10.129.4 (28) ऐत. उप., 2.2.1 (29) मुण्डक उप., 1.1.7 (30) अथर्व., 4.1.7 (31) मुण्डक उप., 2.1.10 (32) वही 1.1.1 (33) गीता, 10.8 (34) वही, 10.32 (35) वही, 10.3 (36) ऋक्., 10.81.2 (37) वही, 10.129.6; तैत्ति. ब्रा., 2.8.9.75 (38) ऋक्., 10.129.7 (39) ऋक्., 10.81.4; तैत्ति. ब्रा., 2.8.9.76 (40) तैत्ति. ब्रा., वही। (41) वही, 2.8.9.77 (42) वही। (43) तैत्ति. ब्रा., 2.8.9.77, भट्टभास्करभाष्य (44) वही, 2.5.2.6 (45) वही। (46) तैत्ति. उप., ब्रह्मा. 7 (47) परात्रिंशिका, 24 (48) परमार्थ सार, पृ. 39, योगराज द्वारा उद्ध्ाृत (49) शिव सं., 1.49 (50) जयरथ द्वारा उद्ध्ाृत, तन्त्रा., 8.2-3 (51) स्वच्छन्द, 11.251 (52) गीता, 8.18 (53) मुण्डक उप., 1.1.7 (54) बृहद. उप., 2.1.20 (55) मैत्री उप., 6.22; ब्रह्म उप., 3 (56) श्वेता. उप, 6.16 (57) श्वेता. उप. 6.17


सृष्टि- एक का अनेकत्व

उसने (एक ने) चाहा, मैं बहुत हो जाऊँ।1
सृष्टि के आरम्भ में जो एक और अवर्ण (अरूप) था, वह अपनी शक्ति के योग से अनेक प्रकारों और अनेक रूपों को ध्ाारण करता है।2
वह विश्व-स्रष्टा अनेक रूप है।3
जिस प्रकार प्रदीप्त अग्नि से सहस्रों चिनगारियाँ निकलती हैं, उसी प्रकार उस ‘अक्षर’ से अनेक प्रकार के नाम-रूपादि (भावाः) उत्पन्न होते हैं।4
उस अनन्त ईश्वर का यह रूप भिन्न-सदृश होकर स्थित है।5
‘आत्मा’ ही कृमि, कीट, पशु-पक्षी, मानव हो जाता है। यह ‘एक’ है जो अन्तहीन नानाविध्ाता में स्वयं को अभिव्यक्त कर रहा है।6
यह तो स्पष्ट ही है कि इस सम्पूर्ण दृश्य जगत् के परोक्ष में कोई एक सत्ता है, एक पुरुष, एक आत्मा, एक चेतना, कोई एक देव जिसने अनेक रूपता में इस विश्व की सृष्टि की और जो अकेला ही इस विश्व को परिवेष्टित किये हुए हे- विश्वस्यैकं परिवेष्टितारम्।7
यह सम्पूर्ण जगत् उसी में आता और जाता है- यस्मिनिनदं सं च वि चैति सर्वम्।8 वह ही विश्व का अध्ािपति है विश्वाध्ािपः9 और यह सम्पूर्ण जगत् उसी के अवयवों से व्याप्त है- तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्।10
वह अग्नि है, आदित्य है, वायु और चन्द्रमा है। वह बीज है, ब्रह्म है, जल है और सब प्राणियों का पिता प्रजापति है।11 वह एक बीज को बहुविध्ा किस्मों में विकसित करता है- एकं बीजं बहुध्ाा यः करोति।12 वह एक रूप को अनेक प्रकार कर देता है- एकं रूपं बहुध्ाा यः करोति।13
यह महात्मा देव विश्वकर्ता है- एष देवो विश्वकत्र्ता महात्मा।14
उसी की महिमा से इस लोक में यह शाश्वत चक्र घूम रहा है- देवस्यैष महिमा तु लोके येनेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम्।15
यह प्रकृति और उसके ये अनन्त रूप उसी एक से निःसृत हैं। उसी से ये समुद्र, ये पर्वत हें। ये सर्वरूपा नदियाँ उसी से प्रवाहित होती हैं। उसी से यह समस्त वनस्पति जगत् है। वही वह रस है जिसके कारण यह अन्तरात्मा भौतिक तत्वों के साथ स्थित रहती है ः
अतः समुद्रा गिरयश्च सर्वेऽस्मात् स्यन्दन्ते सिन्ध्ावः सर्वरूपाः।
अतश्च सर्वा ओषध्ायो रसश्च येनैष भूतैस्तिष्ठन्ते ह्यन्तरात्मा।।16
उपनिषदों में इस एक की अनेकता का बहु प्रकार से कथन किया गया है। एक ओर यह अग्नि है, आदित्य है, वायु और चन्द्रमा है, शुक्र, ब्रह्म, जल और प्रजापति है17- तद् अग्नि, तद् आदित्य अर्थात् ‘तदेव’ ‘वह ही’ यह सब है- इस प्रकार इन विशिष्ट रूपों में उस एक की सर्वरूपता को प्रकट किया गया है, तो साथ ही जीवन की अत्यन्त सामान्य अवस्थाओं को यह तू ही है- त्वम् असि इन वचनों से रेखांकित किया गया है ः
त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी।
त्वं जीर्णो दण्डेन वंचसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः।।18
लिंग और वय के भेद में वह है- अभेद रूप से। ‘तुम स्त्री हो, तुम पुरुष हो, कुमार और कुमारी भी तुम ही हो। तुम ही वह वृद्ध हो, जो लाठी की टेक से चलता है।’ इन आत्मीय वचनों के उपरान्त उपनिषद् में पुनः वही एक निष्कर्ष है या सर्वोच्च सत्य का स्वीकार कि तुम ही उत्पन्न होने पर अनेक रूप ‘विश्वतोमुख’ हो जाते हो या जब तुम उत्पन्न होते हो तो यह विश्व तुम्हारी अनेकरूपता से भर जाता है।
क्योंकि अनादि यह एक ही सर्वत्र व्याप्त होकर स्थित है- अनादिमत्त्वं विभुत्वेन वर्तसे।19
फिर भी इसकी कोई प्रतिमा नहीं है, न तो कोई प्रतिमान ही है- न तस्य प्रतिमा अस्ति।20
अनन्त रूपों में अभिव्यक्त यह एक और अव्यक्त है- यदेकमव्यक्तमनन्तरूपम्21
यदि हम तृण का, पर्ण का सूक्ष्मता से निरीक्षण करें और तब नक्षत्रों से व्याप्त आकाश का गहनता से अवलोकन करें तो उस एक उपस्थित के बोध्ा को प्रत्यक्ष कर सकते हैं, क्योंकि वह ‘एक’ ही वस्तुओं का सत्य है और उसकी सर्वव्यापकता को विभाजित नहीं किया जा सकता। यह सर्वव्यापकता प्रतिरूपता में बहुध्ाा होकर, विविध्ा होकर प्रकट होती है, पर इसे खण्डित नहीं किया जा सकता।
उस एक से आकाश, द्यावा-पृथिवी आवृत हैं, येनावृतं खं च दिवं मही च।22
इसी से यह जगत्, ये प्राणी उत्पन्न होते हैं और यह ही है जो वनस्पति, मनुष्य और पशुओं में तथा चराचर विश्व में प्रविष्ट होकर रहता है ः
यतः प्रसूता जगतः प्रसूती ...।
यत औषध्ाीभिः पुरुषान्पशूंश्च विवेश भूतानि चराचराणि।।23
यह जगत् की नाभि के रूप में सर्व को ध्ाारण करता है- विश्वं बिभर्ति भुवनस्य नाभिः।24
उस एक दिव्य सत्ता ने अपनी शक्ति से इस नानात्मक जगत् की सृष्टि की है या कहना चाहिए कि अपनी ही अनन्त सत्ता में इसका प्रकाशन किया है।
श्री अरविन्द ने इस एक सत्ता और उसकी बहुविध्ाता का व्यापक एवं वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। वस्तुतः यह परात्पर सत्ता जिस प्रकार व्यक्ति में, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड में स्वयं को अनेक विध्ाता में अभिव्यक्त करती है। उनके शब्द हैं, ‘‘सत्ता’ एक है, पर यह अ-द्वितीयता अनन्त है और स्वयं में स्वयं की अनन्त बहुलता और विविध्ाता है। ‘एक’ ही ‘सर्व’ है। यह केवल मुख्य या मूलभूत एक ‘सत्ता’ नहीं है बल्कि एक ‘सर्व-सत्ता’ है। ‘एक’ की अनन्त विविध्ाता और ‘अनेक’ की शाश्वत एकता एक ही सत्य के दो रूप या दो यथार्थ हैं जो विश्व-सृष्टि का आध्ाार हैं।’25
श्री अरविन्द का कथन है, ‘सृष्टि कुछ नहीं में से कुछ की निर्मिति नहीं है या एक में से दूसरी चीज़ का निकल आना, बल्कि यह ब्रह्मन् का आत्म-प्रक्षेपण है। यह सचेतन सत्ता का नाम और रूपों में आविर्भाव है।’26
‘‘उस ‘एक’ की अद्वितीयता ‘विविध्ाता’ का गुह्य आध्ाार है। यह ‘एकत्व’ है, जो विविध्ाता को रचता और कायम रखता है।’27
यह एक ही चिदात्मा है जो अनेक आभास रूपों में और भेदों में प्रकट होने में सक्षम हैः
आभासभेदादेकत्र चिदात्मनि तु युज्यते।28
यह एक ही सत्ता है जो स्वयं बिना किसी भेद या परिवर्तन के कालक्रम के अनेक क्रिया-रूपों में अभिव्यक्त होती है।29
गीता में भगवान का विश्वरूप दर्शन उस परम एक की विश्वरूपता का सांगोपांग दर्शन है। अर्जुन उस अव्यय आत्म-रूप के दर्शन का आकांक्षी है, दर्शयात्मानमव्ययम्।30 भगवान एक स्थान पर, एक देह में इस सम्पूर्ण जगत्, चराचर विश्व को अर्जुन के लिए प्रकट करते हैं, इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्। मम देहे...।31 ये भगवान के ही रूप हैं, सैकड़ों, हज़ारों, नानाविध्ा, दिव्य, नाना वर्ण और आकृतियों में, मे ...रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः। नाना विध्ाानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।32 भगवान की एक सत्ता में अर्जनु अदृष्टपूर्व आश्चर्यों का दर्शन करता है। वह सर्वाश्चर्ययुक्त, अनन्त और विश्वतोमुखदेव की एकमेव विराट्ता में समस्त लोकों, देवों, तत्वों, जीवों, प्राणियों का साक्षात्कार करता है।
अर्जुन इस देवाध्ािदेव के शरीर में अनन्त रूपों में विद्यमान इस सम्पूर्ण विश्व का एक स्थल पर दर्शन करता है ः
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकध्ाा।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा।।33
अर्जुन के प्रति भगवान् के स्पष्ट वचन हैं कि मेरे विस्तार का कोई अन्त नहीं है, नास्ति अन्तो विस्तरस्य मे।34
यह ‘बहुध्ाा’, ‘विविध्ाा’, अनन्तरूप विश्व, इसका सम्पूर्ण अनेकत्व और विस्तार उस एकमेवाद्वितीयम्35 में सन्निहित है। वह ही वस्तुओं का, लोकों का, प्राणियों का सत्य है, सारभूत सत्य और सबमें, सर्वत्र विद्यमान है। इस विश्व की प्रतीयमान अनेकरूपता में वह एक ही सद् है, जिसका विद्वान् अनेक रूपों में कथन करते हैं, एकं सद् विप्रा बहुध्ाा वदन्ति।36
उस पूर्ण ईश्वर से ही यह पूर्ण जगत् निःसृत होता है। वह पूर्ण ही इस पूर्ण जगत् का सृजन करता है ः
पूर्णात् पूर्णमुदचति पूर्णंः पूर्णेन सिच्यते।37
वह ‘एक’ अपनी अद्वितीयता में पूर्ण है, यह जगत् अपनी विविध्ा ‘अनेकता’ में पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण का आविर्भाव हुआ और तब भी जो शेष रहा, वह पूर्ण है ः
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।38
यह पूर्णत्व ही उस ‘एक’ और इस ‘अनेक’ का अन्तरतम सत्य है।
(1) सोऽकामयत। बहु स्याम्...। तैत्ति. उप., 2.6 (2) य एकोऽवर्णो बहुध्ाा शक्तियोगाद्वर्णाननेकान्निहितार्थो दध्ााति। -श्वेता. उप., 4.1 (3) विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम्। वही, 5.13 (4) ...यथा सुदीप्तात्पावकाद्विस्फुलिङ्गाः सहस्रशः प्रभवन्ते ...। तथाक्षराद्विविध्ााः ...भावाः प्रजायन्ते ...।। -मुण्डक उप., 2.1.1 (5) देवा मनुष्याः पशवः पक्षिवृक्षसरीसृपाः रूपमेतदनन्तस्य विष्णोर्भिन्नमिव स्थितम्।। -वि.पु., 1.19.47 (6) श्री अरविन्द, दि लाइफ डिवाइन, वाल्यू. 18, पृ. 340 (7) श्वेता. उप., 5.13 (8) वही, 4.11 (9) वही, 4.12, 15 (10) वही, 4.10 (11) वही, 4.2 (12) वही, 6.12 (13) कठ उप., 5.12 (14) श्वेता. उप., 4.17 (15) वही, उप., 6.1 (16) मुण्डक उप., 2.1.9 (17) श्वेता. उप., 4.2 (18) वही, 4.3 (19) वही, 4.4 (20) वही, 4.19 (21) महानारा. उप., 1.5 (22) वही, 1.3 (23) महानारा. उप. 1.4 (24) वही, 1.6 (25) श्री अरविन्द, दि लाइफ डिवाइन, वाल्यू. 19, पृ. 660 (26) वही, दि उपनिषद्स, वाल्यू. 12, पृ. 80 (27) वही, पृ. 81 (28) ईश्वरप्रत्यभिज्ञा. का., 2.19 (29) वही, 2.18 (30) गीता, 11.4 (31) वही, 11.7 (32) वही, 11.5 (33) वही, 11.13 (34) वही, 10.19 (35) छान्दो, 6.2.1 (36) ऋक्, 1.164.46; अथर्व., 9.10.28 (37) अथर्व., 10.8.29 (38) ईशा. उप., आरम्भ।


भुवनानि विश्वा-लोकाः

आत्मा में ही सारे लोक हैं।1
ये लोक... यह सब यह आत्मा ही है।2
ये सारे भुवन उसी से उत्पन्न हुए हैं।3
वह ही लोक है।4
उसी में ये लोक और लोकवासी स्थित हैं।5
इस संसाररूपी अश्वत्थ-वृक्ष का मूल ऊपर की ओर और शाखाएँ नीचे की ओर हैं। यह सनातन है।6
ब्रह्मा आदि पक्षियों ने इस वृक्ष पर सत्य आदि सात लोकों के घोंसले बना रखे हैं।7
भुवन, लोक, ध्ााम आदि शब्दों की बहुवचनात्मकता से यह प्रकट होता है कि ये अनेक हैं और इनकी समष्टि ही यह विश्व या जगत् है। उपनिषदों में इन लोकों को विशेषार्थ रूप से तीन एवं सात की संख्या में स्वीकार किया गया है- जैसे ‘त्रिदिवे’8 त्रय इमे लोकाः9, त्रींल्लोकान्10, त्रिभिर्लोकैः11, इम एव त्रयो लोकाः12, त्रिषु लोकेषु13 तथा सप्त इमेलोकाः14 आदि। आठ लोकों- अष्टौ लोकाः15 का उल्लेख भी है। अनेक ऐसे स्थल हैं, जहाँ संख्या का उल्लेख नहीं है, पर इनकी अनेकता का कथन किया गया है, जैसे इमे लोकाः16, सर्वान् लोकान्17, इमान् लोकान्18, सर्वेषु लोकेषु19, ते लोकाः20 तथा सर्वेलोकाः21 आदि।
पुराणों में चैदह भुवनों का वर्णन भी है और सामान्य रूप से भी इनका कथन किया जाता है। पृथ्वी- ‘भूः’ के ऊपर छह लोक हैं- भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक- अर्थात् भूसहित सात लोक। पृथ्वी से नीचे सात लोक हैं- पाताल, रसातल, महातल, तलातल, सुतल, वितल और अतल। इस प्रकार सत्यलोक से लेकर अतल तक चैदह भुवनों की गणना पूरी होती है।
अन्यत्र उपनिषद् में ‘ब्रह्माण्ड’ के रूप में चैदह भुवनों में से ऊपर के सात लोकों का क्रम यथावत् है, पर नीचे के सात लोकों के क्रम में अन्तर है। यथा-
भूर्लोकभुवर्लोकस्वर्लोकमहर्लोकजनलोकतपोलोकसत्यलोकं
चातलपातालवितलसुतलरसातलतलातलमहातलब्रह्माण्डम्।।22
सुबाल उपनिषद् में प्रश्नोत्तर के रूप में इन लोकों का तात्त्विक वर्णन प्राप्त होता है। प्रश्न रैक्व के हैं। उत्तर सम्भवतः घोर अंगिरा के हैं, क्योंकि इसी उपनिषद् में यह कथन उपलब्ध्ा है कि यह ‘विद्या’ घोर अंगिरा ने रैक्व को प्रदान की थी, एतां विद्यां ...घोराङ्गिरा रैक्वाय ददौ।23
प्रश्नोत्तरों के रूप में इन लोकों का क्रमिक वर्णन इस प्रकार है-
तब रैक्व ने प्रश्न किया, ‘भगवन्, ये सब (लोक) किसमें प्रतिष्ठित हैं’,
कस्मिन् सर्वे प्रतिष्ठिता भवन्तीति?
उन्होंने उत्तर दिया, रसातल लोकों में- रसातल-लोकेषु।
पुनः प्रश्न था, ‘रसातल लोक किसमें ओत-प्रोत हैं- कस्मिन् रसातल लोका ओताश्च प्रोताश्च?
उत्तर था- भूः लोकेषु।
भूलोक किसमें ओतप्रोत हैं- कस्मिन् भूः लोका ओताश्च प्रोताश्च?
भुवर्लोकेषु।
भुवः लोक किसमें ओत-प्रोत हैं- कस्मिन् भुवर्लोका ओताश्च प्रोताश्च?
सुवर्लोकेषु।
कस्मिन् सुवर्लाेका ओताश्च प्रोताश्च?
महर्लोकेषु।
कस्मिन् महर्लोका ओताश्च प्रोताश्च?
जनोलोकेषु।
कस्मिन् जनोलोका ...?
तपोलोकेषु।
कस्मिन् तपोलोका ...?
सत्यलोकेषु।
कस्मिन् सत्यलोका ...?
प्रजापतिलोकेषु ...?
कस्मिन् प्रजापतिलोका ...?
ब्रह्मलोकेषु।
कस्मिन् ब्रह्मलोका ओताश्च प्रोताश्च?
तब आध्ाारभूत उत्तर है कि सब लोक आत्मा में, ब्रह्म में मणियों के समान गुँथे हुए हैं- सर्वलोका आत्मनि ब्रह्मणि मणय इवौताश्च प्रोताश्चेति।24
गीता में भी मणिः सूत्रं इवात्मनि25 तथा अन्यत्र भी मणौ सूत्रमिवात्मनि26 उल्लेख प्राप्त होता है।
हर लोक की बहुवचनात्मकता इस तथ्य की परिचायक है कि हर लोक-सृष्टि अनेक अथवा असंख्य होकर विद्यमान है। ये सभी लोक परस्पर संयुक्त हैं और आत्मा अथवा ब्रह्म में प्रतिष्ठित हैं। ब्रह्माण्ड में सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, सप्तर्षि तथा शुक्र, बुध्ा, अंगारक, बृहस्पति, शनि आदि ‘ज्योतिश्चक्र’ कहलाते हैं।27 इनके साथ अट्ठाईस नरक लोकों का कथन भी है।28
उपनिषद् में भूः, भुवः, स्वः, महः आदि लोकों का वर्णन इस रूप में किया गया है-
‘भूः’ यह लोक है- भूरिति वा अयं लोकः।
‘भुवः’ अन्तरिक्ष है- भुव इत्यन्तरिक्षम्।
‘सुवः’ दूसरा लोक है- सुवरित्यसौ लोकः।
‘महः’ सूर्य लोक है- मह इत्यादित्यः।
और तब यह निष्कर्ष है कि आदित्य से ही सारे लोक वृद्धि को प्राप्त होते हैं- आदित्येन वाव सर्वे लोका महीयन्ते।29
वैदिक ऋचाओं की व्याख्या में श्री अरविन्द अग्नि के लिए प्रयुक्त विशेषण ‘जातवेदाः’ शब्द का अर्थ ‘जन्मों और लोकों का ज्ञाता’ रूप में करते हैं। उनका कथन है कि जहाँ अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनन्द शक्तियाँ संचरण करती हैं- वे पाँच लोक- भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः हैं।30
वैदिक अवध्ाारणा में यह जगत् सात वर्गों में विभाजित है। यह एक ऐसा चक्रीय रथ है जो सात घटकों से युक्त है- सप्त युंजन्ति रथमेकचक्रम्।31 साथ ही यह कथन भी है कि रथ में सात चक्र हैं, जिसे सात अश्व वहन करते हैं- सप्तचक्रं सप्त वहन्त्यश्वाः।32
परमेश्वर ने पृथ्वी से लेकर सप्तध्ााम पर्यन्त इस जगत् को रचा- अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे। पृथिव्याः सप्त ध्ाामभिः।33
महर्षि दयानन्द ने सप्त ध्ाामभिः की व्याख्या पृथिवी जलाग्निवायुविराट्परमाणु प्रकृति आदि सप्तभिः पदार्थैः के रूप में की है।
वह एक ईश सातों लोकों को व्याप्त करता है- सप्त ध्ाामानि परियत्।34
ये सातों लोक परस्पर संवाद और सामंजस्यपूर्ण हैं- सात बहनों की तरह परस्पर मैत्रीपूर्ण- सप्त स्वसारो अभि सं नवन्त।35
‘वैदिक सृष्टि विज्ञान’ ग्रन्थ में सात लोक या ध्ाामों में विभाजित इस विश्व का इस प्रकार कथन किया गया है- ‘जगत् सात वर्गों में विभाजित है- पंच महाभूत- पृथ्वी (ठोस अवस्था), जल (द्रव अवस्था), वायु (गैसीय अवस्था), अग्नि (ऊर्जा, प्रकाश, ताप, विद्युत्), आकाश (सर्वव्यापक माध्यम, सर्वव्यापी काॅस्मिक विकिरण), दिक् (अन्तरिक्ष लोकों के बीच का स्थान), काल (समय-सृष्टिकाल)। ...मूल भौतिक सत्ता अविनाशी एवं नित्य है तथा ईश्वर ने इसी मूल शक्ति को जगत् रूप में व्यवस्थित किया है।’36
वस्तुतः ये लोक चेतना के ही विभिन्न स्तर हैं जो एक ही आत्मा या एक ही देव में अध्ािष्ठित हैं- यस्मिंल्लोका अध्ािश्रिताः।37 तथा उसी से उत्पन्न भी होते हैं- एतस्मादात्मनः सर्वे लोकाः ...व्युच्चरन्ति।38 यह आत्मा ही समस्त प्राणियों का लोक है- अयं वा आत्मा सर्वेषां भूतानां लोकः39 या इस आत्मलोक की ही उपासना करनी चाहिए- आत्मानमेव लोकमुपासीत40।
चेतना-स्तर की विभिन्नता के कारण ही इन लोकों को ऊध्र्व और अध्ाोमुख कहा गया है- लोका ऊध्र्वाश्चावृत्ताश्च।41 इसी अर्थ में इस विश्व-वृक्ष की शाखाओं को ऊपर और नीचे फैला हुआ कहा गया है- अध्ाश्चोध्र्वं प्रसृतास्तस्य शाखा।42
इस विराट पुरुष की देह के विभिन्न अंगों के रूप में इन लोकों की परिकल्पना की गयी हैः
भूर्लोकः पदयो तस्य
भुवर्लोकस्तु जानुनि
सुवर्लोकः कटिदेशे
नाभिदेशे महर्जगत्
जनोलोकस्तु हृद्देशे
कण्ठे लोकस्तपस्ततः
भुवोर्ललाटमध्ये तु सत्यलोको व्यवस्थिताः।।43
आत्मा ही ‘परम लोक’ है। यह ही मनुष्य की परम गति, परम सम्पदा, परम आनन्द है- एषोऽस्य परमो लोक ...।44 यह मन है- उसकी संकल्प-विकल्पात्मक गति जो चेतना की परम स्थिति को अनेक लोक-स्तरों में विभक्त कर देती है। इसलिए एक विशेष चेतना-स्तर के रूप में मनोलोक का कथन है- मनो हि लोकः45 तथा चित्त से उपचित हुए लोकों का कथन है- चित्तान् वै स लोकान्।46
उपनिषदों में इस प्रकार के उल्लेख प्रायः देखे जा सकते हैं कि संकल्प के अनुरूप लोक की प्राप्ति होती है- यथा संकल्पितं लोकं47, पुण्य से पुण्यलोक की प्राप्ति होती है- पुण्येन पुण्यं लोकं...48 और पाप से पाप लोक की- पापेन पापं।49 और सत्त्व गुण के प्रवृद्ध होने पर अमल लोकों की प्राप्ति होती है- लोकानमलान्प्रतिपद्यते।50
शुद्ध सत्त्व मनुष्य जिस लोक को भी अपने मन से उद्भासित करता है, वह उस लोक को जय कर लेता हैः
यं यं लोकं मनसा संविभाति ...तं तं लोकं जयते ...।51
ये लोक कर्म से प्राप्त हैं- कर्मों ने इनकी रचना की है- लोकान्तर्मचितान्।52
कर्म के परिणामस्वरूप उपनिषदों में ‘अन्ध्ातमिस्र’ और ‘हीनतर लोकों’ का उल्लेख भी हैः
असूर्या नाम ते लोका अन्ध्ोन तमसावृताः ...।53
तथा
लोकं हीनतरं चाविशन्ति।54
जब मनुष्य की चेतना विकास को प्राप्त होती है, तब वह क्रमशः उत्तरोत्तर गति करता हुआ ऊध्र्व तथा ऊध्र्वतर लोकों में संचरण करता है- ‘उपरि उपरि लोकेषु चरति।’55
श्रेष्ठ लोकों को अनेक नामों से अभिहित किया गया है। जैसे, स्वर्गलोक56, देवलोक57, अमृतलोक58, सुवर्ग लोक59, प्रजापति लोक60, अनन्त लोक61 आदि।
आनन्दमीमांसा में आनन्द के क्रमशः ऊध्र्वतर, प्रवृद्ध, पवित्र-प्रगाढ़तर और विकसित स्तरों के उल्लेख से भी यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि विभिन्न लोक चेतना के ही विभिन्न स्तर हैं। श्रेष्ठ श्रोत्रिय मनुष्य से लेकर ब्रह्मपर्यन्त आनन्द के स्तरों को हम मनुष्य, गन्ध्ार्व, देवगन्ध्ार्व, पितृ, कर्मदेव, देव, इन्द्र, बृहस्पति, ब्रह्मस्तरों से अभिहित कर सकते हैं।62
वस्तुतः चेतना जब तक आत्मा या ब्रह्मलोक तक नहीं पहुँचती, तब तक उसके अन्दर संसार-वृक्ष जीवित रहता है- जन्म-मृत्यु का क्रम, आवागमन, पुनरावर्तन बना रहता हैः
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनः।63
आब्रह्मभुवनपर्यन्त सभी लोक पुनरावर्ती हैं। ...
वास्तव में यह ब्रह्म ही है जो अमृत है, दीप्ति है। वह ही पथ और वह ही लक्ष्यरूप लोक है- सा गतिः लोक एव सः।64
यह ब्रह्मलोक है जिसे वे प्राप्त करते हैं, जिनमें तप, ब्रह्मचर्य और सत्य प्रतिष्ठित हैं- तेषामेवैष ब्रह्मलोको येषां तपो ब्रह्मचर्यं येषु सत्यं प्रतिष्ठितम्।65
अब एक अन्य दृष्टि से चेतना के भूः, भुवः आदि सात स्तरों का उल्लेख और संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है। ये सप्त लोक- सप्त इमे लोका66 परा एवं अपरा सृष्टि के सात स्तर हैं।
आत्मा, चैतन्य या परम सत्ता एक एवं अविभक्त है, किन्तु अपनी अवरोहणशील एवं आरोहणशील गति में इन सात सोपानों अथवा सात अनुक्रम-श्रेणियों का निर्माण करती है। इनमें सत्, चित्, आनन्द- ‘ये पहले तीन सोपान मौलिक एवं आध्ाारभूत हैं। ये आत्मिक सत्य के प्रकट परम स्तर हैं, जहाँ सत्, चित्, आनन्द का एकत्व, शक्ति एवं आनन्द है।’67
ये तीनों तत्त्व ‘ऊध्र्व गोलाधर््ा’ का निर्माण करते हैं। श्री अरविन्द ने औपनिषदीय प्रज्ञान के अनुरूप इसे ‘पराधर््ा’ सृष्टि की संज्ञा दी है। शंकराचार्य उपनिषद् में उल्लिखित परमे पराधर््ो68 शब्द की व्याख्या हृदय-आकाश - परमे पराधर््ो हार्दाकाशे69 के रूप में करते हैं। अन्यत्र भी इस पराधर््ा को द्युलोक के पराधर््ा में- दिव परे अधर््ो70 निरूपित किया गया है। शंकराचार्य की व्याख्या है कि द्युलोक अर्थात् अन्तरिक्ष से परे ऊपर के तीसरे स्वर्ग लोक में द्युलोकात्पर ऊध्र्वेऽधर््ो स्थाने तृतीयस्यां दिवीत्यर्थः ...।71
अपने निरूपण में श्री अरविन्द के शब्द हैं- ‘सत्य’ चेतना का चैथा स्तर विज्ञान है जो इन तीन के साथ संयुक्त है। यह अनन्त विविध्ाता में एकत्व को प्रकट करता है। सत्-चित्-आनन्द एवं विज्ञान की चतुष्क शक्ति ही आत्मा के शाश्वत ज्ञान पर स्थित सृष्टि के पराधर््ा का निर्माण करती है।’72
ये ही चार- सत्यः, तपः, जनः, महः - लोक हैं।
सृष्टि के तीन अन्य स्तर या लोक निम्न गोलाधर््ा की रचना करते हैं। यह ‘अपराधर््ा’ सृष्टि है।
ये मन, प्राण, शरीर के लोक हैं- स्वः, भुवः, भूः।
विज्ञानमय लोक ‘पराधर््ा’ के वैशिष्ट्य से युक्त होने पर भी पराधर््ा एवं अपराधर््ा इन दो सृष्टियों के बीच का संयोजक जोड़ है। विज्ञानमय लोक की चेतना सत्-चित्-आनन्द एवं शरीर, प्राण, मन के बीच कड़ी का कार्य करती है।
पराधर््ा लोकों की चेतना अपराधर््ा लोकों की ध्ाूमावृत चेतना पर नित्य एक प्रकाशमय दबाव की तरह बनी रहती है कि वह अपने शुद्धतम रूप में अवस्थित उद्गम-स्थल की ओर लौट सके। यही दबाव चेतना के हर स्तर पर विद्यमान है, जो विकास को गति प्रदान करता है। ‘पराधर््ा’ सम्पूर्ण ब्रह्माण्डीय सृष्टि का, समस्त भुवनों और लोकों का आध्ाार है।
तन्त्रागम में पराधर््ा और अपराधर््ा लोक-सृष्टियों का शुद्ध अध्वा, अशुद्ध अध्वा के रूप में उल्लेख है। परम चेतना (चितिः) अपने अवरोहण-क्रम मे इन लोकों का निर्माण करती है और आरोहण-क्रम में इनका विलय करती हुई परम शुद्ध चेतना-स्तर तक पहुँचती है। सदाशिव से भूमि-पर्यन्त ये समस्त तत्त्व एक ही चेतना के विभिन्न लोक-स्तर हैं।
(1) आत्मनि सर्वे लोकाः। बृहद. उप., 2.5.15 (2) इमे लोकाः ...इदं सर्वं यदयमात्मा। वही, 4.5.7 (3) यतो जातानि भुवनानि विश्वा। श्वेतारु उप., 4.4 (4) लोक एव सः। मैत्री उप., 6.24 (5) यस्मिंल्लोका निहिता लोकिनश्च। मुण्डक उप., 2.2.2@तस्मिंल्लोकाः श्रिताः सर्वे ...। कठ उप., 2.31 (6) ऊध्र्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः। वही (7) सत्यनामादिसप्तलोकब्रह्मादि भूतपक्षिकृतनीडः। वही, शंकरभाष्य (8) प्रश्न उप, 2.13 (9) छान्दो., उप., 2.12.1 (10) वही। (11) बृहद. उप., 1.3.22 (12) वही, 3.9.8 (13) वही, 5.14.1 (14) मुण्डक उप., 2.1.8 (15) बृहद. उप., 3.9.26 (16) वही, 2.4.6 (17) श्वेता. उप., 3.1; छान्दो. उप., 8.7.1 (18) बृहद. उप., 5.4.1 (19) छान्दो. उप., 5.3.7; 5.18.1 (20) बृहद. उप., 4.4.11 (21) वही, 2.15.1 (22) आरुणिक उप., 7 (23) सुबाल उप., 7.1 (24) सुबाल उप., 10.1 (25) गीता, 7.7 (26) ध्यानबिन्दु उप., 6 (27) वेत्तम मणि, पुराणिक एन्साइक्लोपीडिया, पृ. 456 (28) वि.पु, अं., 1 (29) तैत्ति. उप., शिक्षा., 5 (30) श्री अरविन्द, दि सीक्रेट आॅफ दि वेद, वाल्यू. 10, पृ. 271, पादटिप्पणी (31) ऋक्., 1.164.2; अथर्व., 9.9.2 (32) वही, 1.164.3; अथर्व., 9.9.3 (33) ऋक्., 1.22.16 (34) वही, 10.122.3 (35) ऋक्., 1.164.3; अथर्व., 9.9.2 (36) भावना शर्मा, वैदिक सृष्टि विज्ञान, पृ. 179 (37) श्वेता. उप., 4.13 (38) बृहद. उप., 2.1.20 (39) वही, 1.4.16 (40) वही, 1.4.15 (41) छान्दो. उप., 2.2.3 (42) गीता, 15.2 (43) नादबिन्दु उप., 3.4 (44) बृहद. उप., 4.3.32; 4.3.20 (45) छान्दो. उप., 7.3.1 (46) वही, 7.5.3 (47) प्रश्न उप., 3.10 (48) वही, 3.7; महानारा. उप., 5.9; छान्दो. उप, 5.10.10 (49) प्रश्न उप., 3.7 (50) गीता, 14.14 (51) मुण्डक उप., 3.1.10 (52) वही, 1.2.12 (53) ईश उप., 3 (54) मुण्डक उप., 1.2.10 (55) मैत्री उप., 4.6 (56) छान्दो. उप., 3.13.16; कठ उप., 1.1.12 (57) बृहद. उप., 1.5.16 (58) आत्मप्रबोध्ा उप., 1 (59) महानारा. उप., 22.1 (60) आरुणेय उप., 1 (61) कठ उप., 1.1.14 (62) तैत्ति. उप., ब्रह्मा. 8 (63) गीता, 8.16 (64) मैत्री उप., 6.24 (65) प्रश्न उप., 1.15 (66) मुण्डक उप., 2.1.8 (67) श्री अरविन्द, दि लाइफ डिवाइन, वाल्यू. 19, पृ. 662-663 (68) कठ उप., 1.3.1 (69) वही, शंकरभाष्य (70) प्रश्न उप., 1.11 (71) वही, शंकरभाष्य (72) श्री अरविन्द, दि लाइफ डिवाइन, वाल्यू. 19, पृ. 662.663

मनुष्य लोक- पृथिवी

यह पृथ्वी ध्ाात्री, विध्ाात्री और सबकी आध्ाारभूता है।1
यह पृथ्वी पूषा है, क्योंकि सबका पोषण करती है।2
यह पृथ्वी रस और गन्ध्ा से पूर्ण है।3
पृथ्वी समस्त रत्नों से पूर्ण है।4
पृथ्वी विस्तारयुक्त है, माता है। यह विश्व को ध्ाारण करती है।5
पृथ्वी इन चराचर प्राणियों का रस है।6
पृथ्वी विकास की भूमि है, जहाँ समस्त शक्तियाँ मिलती हैं और प्रकट होना चाहती हैं।7
मनुष्य-लोक यह पृथिवी है- भूलोक, जिसे मत्र्यलोक, जीवलोक आदि संज्ञाओं से भी अभिहित किया जाता है। उपनिषद् में इसे देवलोक, पितृलोक आदि की तुलना में अध्ाोवर्ती-सा स्वीकार किया गया है- अध्ा इव हि मनुष्यलोकः।8 गीता में इसके लिए नर लोक ‘नृलोक’9 संज्ञा भी है।
यह संसार है, जो निरन्तर संसरणशील है। यहाँ जन्म है, जीवन है, मृत्यु है। आवागमन और परिवर्तन है। इस लोक को कर्मप्रध्ाान- अयं हि लोकः कर्मप्रध्ाानः10 माना गया है क्योंकि उस लोक से मनुष्य इस लोक में कर्म के लिए लौटता है- तस्माल्लोकात् पुनरेत्यस्मै लोकाय कर्मण इति।11
यह लोक कर्मबन्ध्ानमय है- लोकोऽयं कर्मबन्ध्ानः।12
यह वह लोक है, जहाँ कर्म-बन्ध्ा उत्पन्न करने वाली जड़ें फैली हुई हैंः
अध्ाश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्ध्ाीनि मनुष्यलोकेः।13
पर यह कर्मभूमि-कर्महीन्14 यज्ञरूप ही है, अर्थात् उत्तम कर्म की परिचायक। ईश्वर ने इसी यज्ञरूप कर्म के लिए इस विशाल लोक का निर्माण किया थाः
उरुं यज्ञाय चक्रथुरु लोकं ...।15
यह मनुष्य-लोक है जहाँ मनुष्य कर्म के द्वारा शीघ्र ही सिद्धि अर्थात् उत्कर्ष प्राप्त करता हैः
क्षिपं्र हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।16
यही वह लोक है जहाँ मनुष्य की श्रेष्ठ सन्तानें ज्ञान को प्राप्त कर शुभ कर्मों के फलरूप पुण्य-लोक में गमन करती हैंः
इयं मही प्रति गृह्णतु चर्म पृथिवी देवी सुमनस्यमाना।
अथ गच्छेम सुकृतस्य लोकम्।।17
यह भूलोक, यह ध्ारा असंख्य ग्रहों के मध्य एक ऐसी प्रयोगशाला है, जहाँ मनुष्य अपने कर्म और चिन्तन के द्वारा अपने शरीर और दैनिक जीवन में रूपान्तरण को क्रियान्वित करता है। जहाँ ईश्वर अनेक विरोध्ाों, द्वन्द्वों और विसंगतियों के बीच मनुष्य के प्रतिमान के रूप में मूर्तित और अवतरित होता है- सोऽवतीर्णो महीतले।18
यह वह ध्ारा है जहाँ मनुष्य अन्ध्ाकार में प्रकाश, क्षुद्रत्व में बृहत्, मृत्यु में अमरत्व और हर अल्पता में पूर्णता को प्राप्त करना चाहता है। जहाँ वह असत् से सत् की ओर, अन्ध्ाकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमृत की ओर जाने की अभ्यर्थना करता हैः
असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मा अमृतं गमय।19
‘ऋग्वेद की ऋचाएँ विद्वान् के लिए ‘मनुष्य-लोक’ का पथ प्रशस्त करती हैं। वहाँ वह तप से, ब्रह्मचर्य से, श्रद्धा से सम्पन्न होकर महिमा का अनुभव करता है’ः
तमृचो मनुष्यलोकमुपनयन्ते, स तत्र तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया सम्पन्नो महिमानमनुभवति।20
असंख्य एवं असंख्यविध्ा क्षुद्र एवं विशाल प्राणियों का आवास है यह भूमण्डल- जलचर, भूचर, नभचर- कोटि-कोटि प्राणियों से भरा हुआ। पर प्राचीन वाङ्मय में यह स्पष्ट उल्लेख हे कि ईश्वर (विष्णु) ने मनुष्य को आवास-स्थान प्रदान करने की इच्छा से इस भू को विस्तीर्ण कियाः
विचक्रमे पृथिवीमेष एताम्। श्रेयाय विष्णु मनुषे दशस्यन्।21
मनुषे दशस्या।22
ईश्वर ने ध्ार्मयुक्त कर्म, गुण और स्वभाववाले मनुष्यों के लिए यह भूमि दी थीः
अहं भूमिमददामाय्र्याय।23
‘पृथिवी’ शब्द विस्तारसूचक भी है।
‘भूमि’ और ‘पृथिवी’ शब्द का अर्थ करते हुए ब्राह्मण में कथन है कि यह ध्ारा प्रतिष्ठित हो गयी- ‘अभूद्’ इसलिए इसका नाम ‘भूमि’ हुआ। यह फैल गयी- ‘अप्रथयत्’ अतः इसका नाम ‘पृथिवी’ हुआ।
अभूद्वाऽइयं प्रतिष्ठेति। तत् भूमिरभवत्तामप्रथयत्सा पृथिव्यभवत् ...।24
भूमि की विस्तीर्णता पृथिवी है- तत्पृथिवीमप्रथयः25
भूमि के विस्तारसूचक विशेषण के रूप में भी पृथिवी शब्द का प्रयोग किया गया है- जैसे मेघ से विस्तीर्ण भूमि- अभ्रेण पृथिवीं भूमिं ...।26
विस्तार के अर्थ में यह पृथिवी है और माता है- मातरं पृथिवीं भूरिवर्पसम्।27
इस रूप में यह ‘महाभूमि’28 तथा महद् आयतन है- भूमेर्महदायतनम्।29
पृथिवी की ‘स्थिति’ के विषय में यह उल्लेख अत्यन्त महत्वपूर्ण है- ‘ब्रह्माण्ड सात कोशों से निर्मित है और हर कोश पहले कोश से निःसृत है। सातवाँ कोश जो इस क्रम से प्रथम कोश से निःसृत हुआ है, अन्य छहों कोशों से विस्फोटित होकर चारों ओर अनेक दूरियों में विस्तृत है। यदि ब्रह्माण्ड को अनुलम्ब काट दें तो अत्यन्त अभ्यन्तर में पृथिवी है।’30
तन्त्रागम में पृथिवी को परम चेतना का संहत रूप तथा अवरोहण-क्रम का अन्तिम और ठोस छत्तीसवाँ तत्व स्वीकार किया गया है। यही पृथिवी मनुष्य के प्राणशरीर में मूलाध्ाार है, ऊध्र्वतर लोकों की पीठिका।
ध्ारातत्व की व्याख्या करते हुए तन्त्रागम के विद्वान् परमहंस का कथन है- ‘ध्ारा सृष्टि का अन्तिम तत्व है। शिवरूप ‘तत्’ का भाव ही तत्व कहलाता है। जब हम किसी को ‘तत्व’ की संज्ञा प्रदान करते हैं तो उससे यह आगमिक अर्थ भी निकलता है कि वह शिव का ही प्रकाश है, जो इस रूप में प्रकाशित है। ध्ारा को जब हम ‘तत्व’ कहते हैं तो यह मानकर कहते हैं कि यह उसी परम शिव का अविभाग प्रकाश ध्ारा के रूप में प्रकाशमान हो रहा है। यह भी ब्रह्म है। निखिल तत्वों को बृंहित करने वाला ध्ारातत्व ब्रह्म है’31 ः
ध्ारातत्त्वाविभेदेन यः प्रकाशः प्रकाशते।
स एव शिवनाथोऽत्र पृथिवी ब्रह्म तन्मतम्।।32
वेदों में तीन पृथिवी या तीन प्रकार की पृथिवी का उल्लेख है- तिस्त्रः पृथिवीः।33
इन तीनों पृथिवियों में जो श्रेष्ठतम है, वह हमारा भूलोक है ः
इमा यास्तिस्त्रः पृथिवीस्तासां ह भूमिरुत्तमा।34
वेदों में अनेक स्थलों पर ‘द्यावापृथिवी’ का संयुक्त रूप से उल्लेख हुआ है ः
मही द्यावापृथिवी35
प्र द्यावा यज्ञैः पृथिवी36
यह सूर्य है, जो उषा-काल में द्यावापृथिवी को अपने प्रकाश से भर देता है ः
यथेमे द्यावापृथिवी सद्य पर्येति सूर्यः।37
सूर्य के प्रकाश का उल्लेख पृथिवी एवं भूमितल के संयुक्तीकरण के साथ भी हुआ है ः
मित्रः संसृज्य पृथिवीं भूमिं च ज्योतिषा सह।38
कुछ टीकाकार यहाँ ‘पृथिवी’ को ‘द्यौ’ रूप में स्वीकार करते हैं। तदनुसार अर्थ हुआ कि सूर्य ने अपनी ज्योति से द्यावा-पृथिवी को एक कर दिया या जोड़ दिया।
यह वाक्य कि प्रजापति ने प्रजाओं को रचकर उन्हें द्यावा पृथिवी के बीच भर दिया- प्रजापतिर्वै प्रजाः सृष्ट्वा ता द्यावापृथिवीभ्यां पर्यगृह्णात्39 द्यावापृथिवी के नित्य संयोग और सह-अस्तित्व का सूचक है।
सभी शास्त्र-ग्रन्थों में इस भूलोक के सुन्दर रूपात्मक चित्र प्राप्त होते हैं। यह ससागरा ध्ारा ‘सप्तद्वीपवती’40 है। इसे ध्ोनु, ध्ारित्री, लोकध्ाारिणी कहा गया हैः
भूमिधर््ोनुधर््ारित्री च ध्ारणी लोकध्ाारिणी।41
यह पृथिवी ध्ान-ध्ाान्य से पूर्ण है- इमां पृथिवीं वित्तेन पूर्णां।42 यह बलवती, प्रसिद्ध और ध्ानानां नेत्री है- सेना ह नाम पृथिवी ध्ानंजया ...।43
यहाँ अन्न की बहुलता है। यहाँ अनेक मनुष्य हैं और अनेक अन्यजीव भी ः
अन्नस्य भूमा पुरुषस्य भूमा पशूनां त इह श्रयन्ताम्।44
पृथिवी नित्य, स्थिर और दृढ़ है- ध्ा्रुवा पृथिवी।45
इसे शतर्चसं महित्वा भी कहा गया है। इसकी व्याख्या करते हुए भट्ट भास्कर का कथन है- शतविध्ागतियुक्तामेतां पृथिवीम्।46
इस प्रकार स्थिति और गति दोनों रूपों में पृथिवी का उल्लेख है।
वैदिक वाङ्मय में उपलब्ध्ा पृथिवी के साथ संयुक्त, पृथिवी के स्तोत्रों से पूर्ण ऋचाएँ यह उद्घोष करती हैं कि यह भूमि हमारी माता है और इसका पार्थिव-सा प्रतीत होनेवाला यह रूप अपनी दिव्यता से, अपनी सम्पदाओं की बहुलता से और जीवनी-शक्ति से परिपूर्ण अपने ध्ानध्ाान्य एवं रस से हमें भरण-पोषण और रक्षण प्रदान करता है।
अथर्ववेद के ‘पृथिवी सूक्त’ (12.1) के तिरेसठ मन्त्रों में पृथिवी के बाह्य और आन्तरिक अनेक रूपों की उदात्त, सौन्दर्यबोध्ाक एवं काव्यात्मक परिकल्पनाएँ हैं, जो मनुष्य के दैनिक जीवन के यथार्थ और आन्तरिक जीवन के उत्थान से जुड़ी हुई हैं। इस सूक्त का संक्षिप्त अध्ययन हमें इस सम्बन्ध्ा के प्रति प्रबुद्ध कर सकेगा, जो मनुष्य मात्र का इस ध्ारा से है। प्रायः उद्ध्ाृत ऋषि की यह वाणी- माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः47 हमारे जीवन का, उसकी चरितार्थता का सत्य है।
अब हम इस सूक्त के संक्षिप्त परिशीलन से अपनी इस ध्ारा के रूप एवं स्वरूपगत सौन्दर्य और वैशिष्ट्य को जानने का प्रयत्न करेंगे।
यह पृथिवी विश्वम्भरा है, ध्ान-ध्ाान्य का आगार वसुध्ाानी48, सुनहरे वक्षवाली- हिरण्यवक्षा।49 यहाँ समुद्र, नदी-निर्झरों के रूप में जल की ध्ााराएँ हैं,50 अरण्य और हिमाच्छादित पर्वत हैं।51 यह ध्ारा औषध्ाियों की माता है, दृढ़ और विस्तृत है। और तब एक लाक्षणिक कथन है कि यह ध्ार्म से ध्ाारण की गयी है ः
मातरमोषध्ाीनां ध्ा्रुवां भूमिं पृथिवीं ध्ार्मणा ध्ाृताम्।52
इस पृथिवी पर दूध्ा की बहुल ध्ााराएँ हैं- सा नो भूमिर्भूरिध्ाारा पयो दुहाम्।53 यह हमारी भूमि मुझे माता के समान दुग्ध्ापान कराए- सा नो भूमिर्विसृजतां माता पुत्राय मे पयः।54
पृथिवी के साथ अपने चिरन्तन सम्बन्ध्ा केा मनुष्य अनेक रूपों में अनुभव करता है। पृथिवी गन्ध्ामयी है। मनुष्य का आग्रह है- हे पृथिवी, तुझसे जो सुगन्ध्ा उठती है, तेरी वनस्पतियों से, तेरे जलों से, उससे तू मुझे सुगन्ध्ाित कर ः
यस्ते गन्ध्ाः पृथिवि संबभूव यं बिभ्रत्योषध्ायो यमापः।
...तेन मा सुरभिं कृणु ...।।55
इस पृथिवी पर अन्न की शक्ति से मत्र्य मनुष्य जीवित रहते हैं- भूम्यां मनुष्या जीवन्ति स्वध्ायान्नेन मत्र्याः।56
यह पृथिवी नाना वीर्यपूर्ण औषध्ाियों को ध्ाारण करती है- नानावीर्या औषध्ाीर्या बिभर्ति पृथिवी...।57
इस पृथिवी की सुगन्ध्ा कमल पुष्पों में प्रविष्ट होकर भर गयी है, उसे उषा-काल में वायु आदि अमत्र्य देव ध्ाारण करते हैं।58 यह पृथिवी चट्टानों, पाषाणों और ध्ाूलि से निर्मित है।59 इसके तल पर वृक्ष, वनस्पतियाँ दृढ़ होकर खड़े रहते हैं, यह पृथिवी सबका आध्ाार है- पृथिवीं विश्वध्ाायसं60 उससे प्रार्थना है कि हमसे कोई द्वेष न करे- मा नो द्विक्षत कश्चन।61
इस पृथिवी पर अनेक ऋतुएँ हैं, दिन और रात हैं।62
यह पृथिवी परिक्रमणशील है और सूर्य के साथ सामंजस्यपूर्ण है- संविदाना दिवा।63
मनुष्य की प्रार्थना है, हे माता, तुम मुझे कल्याण रूप से सुप्रतिष्ठित करो- भूमे मातर्निध्ोहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम्।64
‘हमारी सन्तानें तुम्हारी गोद में रोगरहित रहकर वृद्धि को प्राप्त हों’ और हम जागृत प्रबुद्ध रहकर तुम्हारे लिए अपना सब कुछ अर्पित कर देंः
प्रतिबुध्यमाना वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम।65
एक ओर यह समर्पण है, दूसरी ओर मनुष्य अपनी इस ऐश्वर्यमयी माता से ध्ान-ध्ाान्य, अन्न-जल, दुग्ध्ा, मणि-रत्न, स्वर्ण विपुलता में चाहता है ः
भूमिरध्ाि ब्रवीतु मे पृथिवी पयसा सह।66
मणिं हिरण्यं पृथिवी ददातु मे।67
पृथिवी पर अनेक पथ हैं, उन पर सज्जन और दुर्जन सभी तरह के लोग रथ आदि से यात्रा करते हैं। मनुष्य की प्रार्थना है कि इन रास्तों पर हमें कोई शत्रु या तस्कर न मिले। जो कुछ मंगलकारी है, वह हमें प्रदान कर- यच्छिवं तेन नो मृड।68
एक मन्त्र में इस पृथिवी के विश्वमाता रूप की अभिव्यंजना है कि कैसे यह पृथिवी अनेक भाषा बोलनेवाले और अनेक ध्ार्मों के लोगों को समान गृह में वास कर रहे प्राणियों की तरह ध्ाारण करती है ः
जनं बिभ्रती बहुध्ाा विवाचसं नानाध्ार्माणं पृथिवी यथौकसम्।69
अग्नि इस पृथिवी का अध्ािपति देता है, मनुष्य उसके लिए हवि अर्पण करता है- पृथिव्यै ...अग्नयेऽध्ािपतये स्वाहा।70
अग्नि अन्तःगर्भा रूप से इस पृथिवी में, वनस्पतियों, जलों और पाषाणों में, मनुष्यों और पशुओं में विद्यमान है। मनुष्य अग्नि प्रज्वलित करते हैं। वे घृतप्रिय हैं और हवि के ध्ाारक हैं ः
अग्निर्भूम्यामोषध्ाीष्वग्निमापो बिभ्रत्यग्निरश्मिसु।
अग्निरन्तः पुरुषेषु गोष्वश्वेष्वग्नयः।।71
अग्निं मर्तास इन्ध्ाते हव्यवाहं घृतप्रियम्।72
यह पृथिवी हमारा विशाल निवास स्थान है और महान् ईश्वर प्रमादरहित होकर इसकी रक्षा करता है ः
महत् सध्ास्थं महती बभूव ...महांस्त्वेन्द्रो रक्षत्यप्रमादम्।73
‘पृथिवी-सूक्त’ में ऋषि-वाणी की अभिव्यंजना से यह साक्षात् प्रतीति मिलती है कि यह ध्ारा भौतिक तत्त्व का प्रतीक होने पर भी एक ऐसी दिव्यता को अन्तर्सात किये है जो जीवन-तत्व के रूप में देश-काल के अन्दर स्पन्दित-प्रतिस्पन्दित है। इसकी एक अन्य उदीयमान अवस्था भी है जो विकृति से रहित है।
ऋषि की यह उद्घोषणा है- ‘हे पृथिवी, मैं भौतिक तत्व से तेरा निर्माण करता हूँ। तेरा यह प्रत्यक्ष शरीर विरूपता को प्राप्त हो गया है। तेरे स्थिरीकरण में जो कुछ कट-फट गया या क्षतयुक्त हुआ, मैं ज्ञान की शक्ति से उसका अपहार करता हूँ। तू अपनी वास्तविक प्रकृति को नष्ट मत होने दे’ ः
पृथिवीं त्वा पृथिव्यामा वेशयामि तनूः समानी विकृता त एषा।
यद्यद् द्युतं लिखितमर्पणेन तेन मा सुस्रोब्र्रह्मणापि तद् वपामि।।74
वैदिक वाङ्मय में सर्वत्र प्राप्त पृथिवी की ऋचाओं से उसके हिरण्यमय, ज्योतिर्मय ऐसे स्वरूप का साक्षात्कार होता है, जो सर्वप्रद, सर्वशक्तिमय, अविकृत और नित्य है।
श्री अरविन्द के शब्दों में, ‘पृथिवी में समस्त अन्तःशक्तियाँ, प्रभविष्णुताएँ और समस्त सम्भावनाएँ हैं। ...पृथिवी में एक पृथक् भूमण्डलीय चेतना है जो इस ग्रह पर विद्यमान जीवन के विकास के साथ विकसित होती है।’75
उनके शब्द हैं- ‘यह पृथिवी है, जिसमें स्वर्ग की अपेक्षा गहन गम्भीरतर शक्ति है।’76
पृथिवी पर ‘दिव्य साम्राज्य’ का कथन प्रायः अवतार पुरुषों ने किया है। समस्त सौर-जगत् में यही एक ग्रह है, जो इस महान् स्वप्न या सत्य को चरितार्थ करने में सक्षम है।
यह हमारी ध्ारा ही है, जहाँ प्रेम, भक्ति, सौन्दर्य और आनन्द का कम्पन है और जहाँ दिव्य सम्पदा रूप गुणों को प्राप्त और अभिव्यक्त किया जा सकता है और जहाँ अपनी दिव्यता को मानव रूप में प्रकाशित करने के लिए भगवान् देवों के सम्पूर्ण वैकुण्ठ को इस पृथ्वी पर उतार लाते हैं-
भूमावुत्तारितं सर्वं वैकुण्ठं स्वर्गवासिनाम्।77
श्री अरविन्द का कथन है- ‘यह लोक, जिसमें हम रहते हैं, यह कोई प्रयोजन शून्य संयोग नहीं है, जो अकस्मात् ही बिना किसी अर्थ के ‘देश’ की शून्यता में घटित हो गया है। यह स्थान एक विकास का परिदृश्य है, मंच और घटना-स्थल, जिसमें शाश्वत ‘सत्य’ ने, वस्तुओं के रूप में प्रच्छन्न रहकर, आकार ग्रहण किया है और जो युग-युगान्तरों से, गुप्त रूप में, प्राकट्य की प्रक्रिया में विद्यमान है।’
यह पृथिवी, यह मनुष्य लोक- यहाँ द्वैत है, द्वन्द्व है। यहाँ केवल प्रकाश या केवल अन्ध्ाकार नहीं है। यहाँ केवल पुण्य या केवल पाप नहीं है- इसमें दोनों सन्निहित हैं- उभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्78
इसीलिए यहाँ सम्भावनाएँ हैं। यहाँ परिवर्तन की किसी भी ऊध्र्वता को अध्ािगत किया जा सकता है। रूपान्तर के किसी भी आयाम पर सक्रिय अन्वेषण और लक्ष्य को सिद्ध किया जा सकता है।
‘यह पृथिवी, यह मनुष्य-लोक अत्यन्त विशिष्ट है। यही वह लोक है, जहाँ चैत्य तत्व, अन्तरात्म तत्व और विकास का नियम विद्यमान है। विकास का यह नियम सत्ता के दूसरे स्तरों पर विद्यमान नहीं है। दूसरे लोकों में चीजे़ं एक खास ढाँचे में पूरी तरह जड़ी हुई हैं और वहाँ प्रगति की कोई क्रिया नहीं है।’79
मनुष्य की भाँति ही पृथिवी भी संक्रमणशील है। निरन्तर परिवर्तन के अन्दर गतिशील। पर मनुष्य इस पार्थिव ध्ारा पर अमरत्व का आकांक्षी है और वह इसे चरितार्थ भी करता है। यही वह स्थल है, जहाँ दिव्यता को प्रतिष्ठित होना है। मनुष्य अपने रूपान्तर द्वारा इस पृथिवी पर रूपान्तर घटित कर सकता है।
अन्य लोकों में विकास नहीं है। वहाँ सब उस लोक-स्तर की अनुरूपता में व्यवहार करते हैं। ‘पृथिवी विकास का पार्थिव क्षेत्र है।’80
‘दूसरे लोक प्ररूपता के लोक हैं- अपने प्रकार, प्ररूप और नियम में निधर््ाारित और आबद्ध। विकास पृथिवी पर घटित होता है, अतः प्रगति के लिए पृथिवी ही उपयुक्त स्थान है। दूसरे लोकों की सत्ताएँ एक लोक से दूसरे लोक में अग्रगति नहीं करतीं। वे अपने ही प्ररूप में स्थिर रहती हैं।’81
‘भारतीय विचारणा में विकास पृथिवी पर है और यदि देवता भी अपने देवत्व से परे जाना चाहते हैं और मोक्ष के आकांक्षी हैं तो इस प्रयोजन के लिए उन्हें पृथिवी पर उतरना होगा।’82
वस्तुतः ‘समस्त अ-विकासशील लोक अपनी स्वयं की समस्वरता में सीमित हैं और पृथिवी पार्थिव लोक होने पर भी, दुःख, असामंजस्य, विसंगति और अपूर्णता से युक्त होने पर भी एक विकासशील लोक है। किन्तु इस अपूर्णता में उच्चतर तथा बहुमुखी पूर्णता की लालसा है। इसमें अन्तिम ससीमता है, फिर भी यह परम असीम के लिए उत्कण्ठित है।’83
पुराण में कथन है कि मनुष्य देवताओं की अपेक्षा अध्ािक भाग्यशाली हैं, जो स्वर्ग-अपवर्ग (मोक्ष) के मार्गभूत इस लोक में जन्म लेते हैं- स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।84 क्योंकि इस अनन्त ‘कर्मभूमि’ में जन्म लेकर मनुष्य समस्त कर्मों को भगवद्-अर्पण करके, पवित्र होकर परमात्म तत्त्व में लय प्राप्त करते हैं-
अवाप्य तां कर्ममहीमनन्ते तस्मिल्लयं ये त्वमलाः प्रयान्ति।85
इस पार्थिव भूलोक से मनुष्य के अस्तित्व और प्रयोजन को संयुक्त करते हुए श्री अरविन्द के शब्द हैं- ‘मनुष्य केवल शरीर, प्राण और मन नहीं है, वह एक आत्मा है, जो स्वर्ग में नहीं, अपितु इस भूलोक में दिव्य सिद्धि (चरितार्थता) के लिए अवतरित हुई है।-86 मनुष्य रूप में ‘यह आत्मा इसलिए इस पार्थिव भूमण्डल में अवतरित हुई है कि निम्न प्रकृति स्वयं को रूपान्तरित कर उच्च प्रकृति का रूप ले सके।’87
मनुष्य में और मनुष्यलोक में दिव्य साम्राज्य की स्थापना वह लक्ष्य है, जिसकी पूर्णता के लिए ‘प्रकृति’ निरन्तर श्रमशील है।
(1) सेयं ध्ाात्री विध्ाात्री च सर्वभूतगुणाध्ािका। आध्ाारभूतां सर्वेषां मैत्रेय! जगतामिति!! वि.पु., 2.4.98 (2) इयं वै पूषेयँ ही द ँ् सर्वं पुष्यति यदिदं किंच। बृहद. उप., 1.4.13 (शंकरभाष्य- इयं पृथिवी पूषा। इयं हीदं सर्वं पुष्यति ...।) (3) अभ्द्यो गन्ध्ागुणा भूमिरित्येषा सृष्टिरादितः। मनु., 1.78 (4) सर्वरत्नमयी भूमिः। स्व. तन्त्र, 10.225 (5) पृथिवीं मातरं महीम्। विश्वं बिभर्ति पृथिवी। तैत्ति. ब्रा., 2.4.6.58 (6) एषां वै भूतानां पृथिवी रसः। बृहद. उप., 6.4.1 (7) श्री अरविन्द, लैटर्स आॅन योग, वाल्यू. 23, पृ. 1086 (8) बृहद. उप., 3.1.8 (9) गीता, 11.48 (10) शंकरभाष्य, बृहद. उप., 4.4.6 (11) बृहद. उप., वही। (12) गीता, 3.9 (13) वही, 15.2 (14) वि.पु., 2.3.25 (15) ऋक्., 7.99.4 (16) गीता, 4.12 (17) अथर्व., 11.1.8 (18) कृष्ण उप., 3 (19) बृहद. उप., 1.3.28 (20) प्रश्न उप., 5.3 (21) तैत्ति. ब्रा. 2.4.3.12 (22) ऋक्., 7.99.3 (23) ऋक्., 4.26.2 (24) शत. ब्रा., 6.1.1.15 (25) ऋक्., 8.89.5 (26) वही, 5.85.4 (27) अथर्व., 1.2.1 (28) कठ उप., 1.1.24 (29) वही, 1.1.23 (30) वेत्तम मणि, पुराणिक एन्साइक्लोपीडिया, पृ. 456 (31) परमहंस मिश्र व्याख्या, तन्त्रा. 10.168 (32) परमहंस मिश्र व्याख्या, तन्त्र. 10.168 (33) ऋक्., 1.34.8; 7.104.11 (34) अथर्व., 6.21.1 (35) ऋक्., 4.56.1 (36) वही, 7.53.1; अथर्व., 8.9.16 (37) अथर्व., 6.8.3 (38) यजु. (वाजस.), 11.53 (39) शत. ब्रा., 3.8.4.17 (40) नृसिंहपूर्वतापनीय उप., 5.2 (41) महानारा. उप., 4.5 (42) शत. ब्रा., 11.56.3 (43) तैत्ति. ब्रा., 2.4.2.19 (44) अथर्व., 5.28.3 (45) तैत्ति. ब्रा., 2.4.2.19 (46) भट्टभास्कर मिश्र भाष्य, तैत्ति. ब्रा., 2.4.3.12 (47) अथर्व., 12.1.12 (48) वही, 12.1.6 (49) वही। (50) वही, 12.1.3 (51) अथर्व., 12.1.11 (52) वही, 12.1.16 (53) वही, 12.1.9 (54) वही, 12.1.10 (55) वही, 12.1.23 (56) वही, 12.1.22 (57) वही, 12.1.2 (58) वही, 12.1.24 (59) वही, 12.1.26 (60) वही, 12.1.27 (61) वही, 12.1.23-25 (62) अथर्व, 12.1.36 (63) वही, 12.1.63 (64) वही। (65) वही, 12.1.62 (66) वही, 12.1.59 (67) वही, 12.1.44 (68) वही, 12.1.47 (69) वही, 12.1.45 (70) वही, 6.10.1 (71) अथर्व., 12.1.19 (72) वही, 12.1.20 (73) वही, 12.1.18 (74) वही, 12.3.22 (75) श्री अरविन्द, दि लेटर्स आॅन योग, वाल्यू. 22, पृ. 17 (76) वही, कलेक्टेड पोयम्स, वाल्यू. 5, पृ. 575 (77) कृष्ण उप., 25 (78) प्रश्न उप., 3.7 (79) एम.पी. पण्डित, दि कन्सेप्ट आॅफ मैन इन श्री अरविन्द, पृ. 24 (80) श्री अरविन्द, लेटर्स आॅन योग, वाल्यू. 23, पृ. 1086 (81) वही, वाल्यूरु 22, पृ. 11 (82) वही, पृ. 67 (83) वही, पृ. 388 (84) वि. पु., 2.3.24 (85) वही, 2.3.25 (86) श्री अरविन्द, सोशल एण्ड पोलिटिकल थाॅट, वाल्यू. 15, पृ. 213 (87) वही, दि सिन्थेसिस आॅफ योग, वाल्यू. 20, पृ. 4.

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