सात कुबड़ों की सीक्रेट सोसाइटी अमित दत्ता
26-Oct-2020 12:00 AM 5830

सच कहूँ तो मैं अपनी इस बात के सत्य होने के कोई पुख़्ता प्रमाण नहीं दे सकता, अगर आप कुछ ज़्यादा ही हठ करेंगे तो कोशिश करूँगा कि मेरे जो एक-दो दोस्त (जिनके सामने यह सब घटा था) आपकी तसल्ली के लिए उनकी गवाही इस पुस्तक के अन्त ज़रूर छपवा दूँ। पर इस सबसे पहले मैं आपको उन हालातों का ब्यौरा ज़रूर दे दूँ जिनमें मुझे यह पाण्डुलिपी हासिल हुई है। यह कैसा संयोग है कि क्यों यह पाण्डुलिपि मेरे ही हाथ लगनी थी! बात वर्ष २००२ के आस-पास की है। तब मैं मुम्बई में गामदेवी नामक जगह पर रहता था। उन दिनों मुझे कला फि़ल्में देखने और बनाने का शौक हुआ था। ऐसे ही किसी कला फि़ल्म समारोह में आवारागर्दी के दौरान मेरी मुलाक़ात एक अमरीकन फि़ल्मकार से हुई जो कोकण प्रान्त के मराठी यहूदियों (जिन्हें स्थानीय भाषा में शनिवार-तेली कहा जाता है) पर फि़ल्म बनाने भारत आयी थी। चूँकि उसे यहाँ की कोई भी भाषा नहीं आती थी, उसने मुझसे उसकी मदद करने की गुजारिश की जिसे मैंने मराठी भाषा न जानते हुए भी तुरन्त मान लिया। कारण यह था कि वह एक अद्भुत सुन्दर स्त्री थी जिसके सानिध्य में मुझे सात-आठ महीने काटने का अवसर मिल रहा था और ऊपर से उसने मुझे अपने काॅलेज की फ़ीस देने के लिए जो पैसे कम पड़ रहे थे, उसे भरने की पेशकश भी कर दी थी। यह बड़ी आकर्षक पेशकश थी जिसे मैंने ‘थोड़ा सोचने का वक़्त दो’ जैसा छोटा-मोटा नाटक कर के तुरन्त ही मान लिया था। इसी सिलसिले में उसने मुझे एक कमरे का छोटा-सा फ्लैट गामदेवी में किराए पर ले दिया था। मैं वहाँ से अपना काम करने लगा था। पूरा दिन काम करने के बाद मैं शाम को अक्सर सैर करने या बीयर पीने सामने चैक पर स्थित न्यूयाॅर्कर कैफ़े में जाया करता था। रास्ते में दो-तीन कबाडि़यों की दुकानें पड़ती थीं और सामने फुटपाथ पर एक पागल आदमी लेटा हुआ कुछ बुड़बुड़ाता रहता था। मैंने उस पर कोई ज़्यादा ध्यान नहीं दिया क्योंकि मुम्बई में ऐसे कई पागल फुटपाथ पर दिखते रहते हैं। एक बार मैं जब कैफ़े से बीयर पी के लौट रहा था, मैंने देखा कि उस पागल को कुछ काॅलेज के छात्र घेरकर खड़े हैं और हँस रहे हैं। जब पास गया तो उन्होंने मुझे बताया कि जनाब देखिए यह संस्कृत और अंग्रेज़ी में बात करता है। मैंने ध्यान से सुना तो पाया कि वो लड़के सच बोल रहे थे। वो कुछ तो संस्कृत और अंग्रेज़ी में बोल कर ई-फोर, ई-फाइव जैसा कुछ बोलना शुरू हो जाता था। मेरी शतरंज में बचपन से ही रुचि थी इसलिए मुझे यह पता करने में ज़्यादा समय नहीं लगा कि यह शतरंज की नोटेशंज ज़ोर-ज़ोर से बोल रहा है और मन में ही किसी से ब्लाइंडफोल्ड-बाज़ी भी खेल रहा है। बाद में जब मेरी उस पागल से दोस्ती हो गयी तो उसने बताया कि यह ब्लाइंडफोल्ड, यानी मुँह-जुबानी बाजि़याँ भगवान से खेला करता है फिर उसने यह दावा भी किया कि एक दो-बार उसने भगवान को हरा भी दिया है। उसने मुझे वो पूरी बाज़ी मुँह-जुबानी सुना दी थी। भगवान ने काले मोहरों से केरो-केन डिफेंस खेलते हुए मिडल-गेम में ही बाज़ी गवाँ दी थी। ख़ैर, शतरंज की वजह से मुझे इस पागल में दिलचस्पी बढ़ गयी थी। मैंने उसके बारे में आस-पास के लोगों से पूछताछ करनी शुरू की और जो भी जानकारी मिली उसे मैंने अपने सस्ते विडियो कैमरे में रिकार्ड कर लिया। सबसे पहले पूछताछ करने मैं उसके फूटपाथ के सामने वाली कबाड़ी की दुकान पर गया था। उस दुकानदार ने मुझे बताया कि यह अक्सर उससे पुरानी किताबें ले जाता है जिन्हें पढ़कर वापिस कर देता है। इसके अलावा किसी को कुछ नहीं पता था कि वो कहाँ से आया है और कहाँ का है। वह हमेशा कुछ लिखता रहता था और मैं उसको रोज़ कुछ खाना दे आता था, सर्दियों आयीं तो एक कम्बल दिया था और एक बार जब उसकी अपनी क़मीज फट गयी थी तो मैंने उसको अपनी एक ब्राउन रंग के चैक वाली क़मीज दे दी थी जिसे उसने कई महीनों तक पहना था। एक दिन वो उसी क़मीज के साथ गायब हो गया और कभी नहीं दिखा। उसके हाथ में हमेशा एक प्लास्टिक का थैला रहता था जिसे वो जाने से पहले मेरे दरवाजे पर छोड़ गया था। उसको जब मैंने खोला तो अन्दर यह पाण्डुलिपि मिली। थोड़े पन्ने पढ़ने से ही साफ़ हो गया था कि एक उपन्यास लिखने की कोशिश की हुई है। उसने शुरू में 1९३० के बड़े प्रसिद्ध शतरंज के खिलाड़ी मीर सुल्तान खान की कहानी कहने की कोशिश की है जिसकी खोज देसानी नाम का एक रिपोर्टर कर रहा है पर फिर वो अचानक उपन्यास देसानी के जीवन में घुस जाता और फिर अनेक पन्ने उसके जीवन की खोज में इस्तेमाल हो जाते हैं। इस सबके दौरान हमें प्राचीन भारत से लेकर अठाहरवीं और उन्निसवीं शताब्दी के हिन्दुस्तानी जीवन, मुगलों की रसोई से लेकर अंग्रेज़ों की गुप्त समाजों तक; शातिरों से लेकर साध्ाुओं तक; शतरंजे के गूढ़ सिद्धान्तों से हिमालय के गुप्त तन्त्र-मन्त्रों से गुज़रते हुए यह एक पुस्तक किसी बड़ी षड्यन्त्र की तहें खोलने की कोशिश करने में नज़र आती है। इस पुस्तक में हर ओर एक षड्यन्त्र नज़र आता है और अन्त में यह स्थापित करने की कोशिश हुई है कि हमारा वर्तमान अतीत में हुए षड्यन्त्रों से बना हुआ है। यह पुस्तक न तो एक गल्प की तरह व्यवहार करती है है और न ही किसी नान-फिक्शन की तरह। मसलन मैंने अपने शोध्ा में यह पाया कि इस पुस्तक में लगभग सारे ही पात्र असली हैं पर उनके साथ घटित घटनाएँ ज़्यादातर मनगढ़न्त हैं। तारीख़ों में हुई गड़बड़ का तो हिसाब ही नहीं है। तब मैंने अपने एक मनोचिकित्सिक दोस्त से इसके बारे में विस्तार से सलाह-मशवरा किया था और उसको यह पाण्डुलिप पढ़ के सुनाई थी। काफ़ी सोच-विचार के बाद वह बोला कि ‘दिस इस ए फिट केस फोर सिजोफ्रेनिया पैरानाॅयड, झूठ और सच का ऐसा मिश्रण मैंने कहीं नहीं देखा। किताब पढ़ते हुए सर चकराने लगता है। पर लेखक के इंट्रेस्ट और रीडिंग की रेंज देख कर मज़ा आता है। अगर वो बीमार नहीं होता तो शायद एक अच्छा उपन्यास लिख देता।’ तदोपरान्त यह पाण्डुलिपि मेरे पास कई वर्षों तक ऐसे ही पड़ी रही है। हमारी हिन्दुस्तानी परम्परा में माना जाता है की पागल बेशक असत्य बकता है पर उसके ख़ुद का तत्व सत्य के क़रीब होता है। बस उसी वजह से मैंने इसे छपवाने का मन बनाया है।

यार-ए -शातिरी
यह दुनिया एक षड्यन्त्र है
-- अनाम
1.1 मथुरा के हलवाई और चतरंग के शैदाई -- चैध्ारी खुशी लाल चतरंगवाला
अपने ज़माने के मशहूर शतरंज के खिलाड़ी चैध्ारी खुशी लाल चतरंगवाला दुनिया से उकता चुके थे पर खुदकुशी नहीं करना चाहते थे। कारण थोड़े ध्ाार्मिक थे और थोड़े नैतिक। उनका मानना था कि एक अच्छे शातिर को कभी खुदकुशी नहीं करनी चाहिए। कम उम्र में मन में वैराग पैदा हो गया था इसलिए शादी नहीं की थी। चूँकि पेशे से वह एक कुशल हलवाई थे इसलिए शादी के कई न्योते आये थे, पर उचटे हुए मन से शादी करने का साहस नहीं हो रहा था। थक-हार के दूर के रिश्तेदारों ने बात चलाना भी बन्द कर दिया था। ‘यह तो सारा दिन शतरंज में डूबा रहता है या फिर अपने वैरागी मन में। बेचारी निर्दोष बाला का क्या दोष? उसकी तो जि़न्दगी बर्बाद करने वाली बात है --यह कमबख्त सारी उम्र अकेले ही निकाल ले तो ठीक है।’ पर चैध्ारी खुशी लाल अकेले नहीं थे। उन्होंने मन बहलाने के लिए खरगोश, हिरण और मोर पाल रखे थे। जम कर माँस खाते थे पर एक उसूल था -- वे कभी भी अपने पाले हुए जानवर का माँस या अपनी बनायी हुई मिठाई को हाथ नहीं लगाते थे। माँस खाना वो अपना ध्ार्म जैसा मानते थे। चूँकि वह एक सारस्वत ब्राह्मण थे, उनका मानना था कि जब भी वह किसी पशु या पक्षी के माँस को खाते हैं, उसको मोक्ष मिल जाता है। वह विशुद्ध शाकाहारी ब्राह्मणों के मोहल्ले में रहते थे। मोहल्ले के लोग उनकी पीठ पीछे उनके फूले हुए मोटे पेट को कब्रगाह बोलते थे। कभी-कभी बाज़ी कमज़ोर पड़ने पर वह तेज़ हाँफ़ने लगते। बाज दफ़ा सामने बैठा खिलाड़ी उनके हाँफ़ने से घबरा कर हार जाता था। वह कई वर्षों से कोई भी बाज़ी नहीं हारे थे। उन्हें शतरंज की दुर्लभ किताबें इकट्ठा करने का शौक था। ‘गनीमत है शादी नहीं की वरना इन किताबों के लिए पैसे नहीं बचते। बीवी बच्चे भूखे मरते।’, झुँझला कर बोल उठते, जब भी उनसे कोई शादी की बात छेड़ता। फिर एक दिन मन में विचार आया कि मिठाई की दुकान और सब किताबें बेच-बाच कर सन्यास ले लें और साध्ाु बन जाएँ। तुरन्त पास के एक मठ में जाकर बात भी कर ली। मठ के महन्त जी के दिव्य प्रवचन से उत्साहित हो उन्होंने मिठाई की दुकान तो बेच दी पर फिर पता नहीं क्यों शतरंज की किताबों को बेचने का साहस न हुआ। कई हफ़्तों इस ऊहपोह की स्थिति में तड़पने के बाद उन्होंने सन्यास का विचार ही त्याग दिया। फिर मन में आया कि अपने संस्मरण लिखें। अपने प्रिय मित्र और गायक ओंमकारनाथ ठाकुर के साथ वह खच्चर पर बैठकर पूरे भारतवर्ष में घूमें थे। उन्होंने कई रजवाड़ों और अंग्रेज़ों के यहाँ होने वाली शतरंज की प्रतियोगिताओं में भाग लिया था। ओंमकारनाथ ठाकुर राजा को गाना सुनाते और खुशीलाल शतरंज की चालें सिखाते। कभी ओंमकारनाथ को इनाम मिलता था कभी इनको। दोनों ने अभ्यास करके शतरंज के खेल को गायन से जोड़ दिया था। जब भी ओंमकारनाथ कोई ख़ास सुर लगाते खुशीलाल को पता चल जाता कौन-सी चाल चलनी है। यानी मालकौंस है तो पद्मव्यूह रचना है। भैरवी है तो गरुड़व्यूह। दरबारी है तो मकरव्यूह और अगर राग तोड़ी है तो मण्डलव्यूह। इस गुटबन्दी से दोनों मन चाहे फल पाते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के ठीक पहले यह दोनों यूरोप में घूम-घूम कर वहाँ के राजाओं को अपना हुनर दिखा रहे थे। इटली के तानाशाह मूसोलिनी को जब छह महीने नींद नहीं आयी तो इन दोनों ने मिलकर उसका उपचार किया था। ओंमकारनाथ ने इन मौक़ों के लिए तैयार किया हुआ अपना ख़ास राग गाया और खुशीलाल ने पारसी पद्धती के चार चालों वाले व्यूह को रचने में इतना समय लिया कि तानाशाह को अन्ततः नींद आ गयी। इसी तरह जब जगदीश चन्द्र बोस ने पौध्ाों पर संगीत का असर देखना चाहा था तो ओंमकारनाथ ने उनके पौध्ाों के लिए अपना ख़ास राग गाया था -- पौध्ो झूम के तेज़ी से बढ़ने लगे थे। उस दौरान खुशीलाल जगदीश चन्द्र बोस के साथ शतरंज खेलते रहे थे। उन्होंने जगदीश चन्द्र बोस को अपने हाथ का बनाया हुआ चेस-सेट भेंट किया था (जो आप आज भी उनके संग्रहालय में देख सकते हैं।) अपने इन खट्टे-मीठे अनुभवों को लिखने के लिए उन्होंने गाँव के जि़ल्दसाज से एक छोटी डायरी बनवा रखी थी। उसमें वह अपनी सारी बाजि़यों और कहानियों को नोट करते थे। चमड़े की जिल्द वाली यह डायरी बड़ी ख़ास थी। इसमें एक गुप्त जेब थी जिसमें उन्होंने कई ख़ूफियाँ चालें लिख कर जमा कर रखी थीं। (नींद लाने वाले और पौध्ाों को नचाने वाले जैसे ख़ास रागों का नाम व नोटेशन भी खुशीलाल की ख़ुफिया डायरी में दर्ज थे।) ओंमकारनाथ ठाकुर तो आगे जाकर बहुत प्रसिद्ध हुए। पन्द्रह अगस्त को जब देश आजाद हुआ तो उन्होंने ही अपने गुरु पुलुस्कर की तर्ज पर वन्दे मातरम गाया था। उनको बाद में पद्मश्री मिला। पर शतरंज की बिसात पर बेहतरीन पद्मव्यूह रचने वाले को पद्मश्री न मिला। खुशीलाल की प्रसिद्धि अपनी मिठाई की दुकान तक ही सीमीत रही। उन्हें अपनी गुमनामी पर ज़्यादा अफ़सोस नहीं था बस इस एक बात का मलाल था कि उनकी मिठाइयाँ उनकी बाजि़यों से ज़्यादा प्रसिद्ध हैं। खुशीलाल का परिवार कई बार उजड़ चुका था। जब भी कोई टब्बर खैबर पार करता इनके घर पर हमला ज़रूर करता। खुशीलाल के दादाजी अक्सर अपने परिवार का इतिहास सुनाते थे। ऐसा लगता था कि बड़ी-बड़ी सेनाएँ इनके घर पर ही हमला करने के लिए ही खैबर पार करती थीं। कई जगहों भटकने के बाद इनके पूर्वजों को पहला स्थायी ठिकाना वृन्दावन में मिला था। (उन्हीं दिनों घनानन्द भी मुगल बादशाह मुहम्मद शाह से रूठ कर वहाँ आ गये थे। खुशीलाल के पूर्वजों ने ही उस घटना का ब्योरा दिया था कि घनानन्द ने जर-जर माँगे जाने पर तीन मुट्ठी ध्ाूल नादिरशाह के सिपाहियों पर फैंक कर रज-रज बोला था। सिपाहियों ने गुस्से में घनानन्द का हाथ काट डाला था। मरते वक़्त घनानन्द ने जो आखि़री छन्द अपने रक्त से लिखा था, उसे खुशीलाल के लकड़दादा ने अपनी ख़ुफिया डायरी में नोट कर लिया था।) बाहरी आक्रमणों के डर से ख़ुफिया डायरी रखने का रिवाज इनके यहाँ कई पीढि़यों से था। (हर पीढ़ी पहली पीढ़ी की डायरी में से कुछ ख़ास बातें टीप लेती थी। ऐसे कुछ ख़ास जानकारियाँ पहली पीढ़ी से अगली पीढ़ी जाती रहती थीं।) हिन्दी के महान निबन्ध्ाकार पण्डित रामचन्द्र शुक्ल को घनानन्द सम्बन्ध्ाी यह सब जानकारी खुशीलाल ने अपने पुश्तैनी ख़ुफिया डायरी से ही दी थी और घनानन्द द्वारा रक्त से लिखा गया आखि़री छन्द भी।
इन सब जानकारियों के अलावा इनकी ख़ानदानी डायरी में तरह-तरह की मिठाइयाँ बनाने की विध्ाियाँ भी दर्ज थीं। अगर किसी को कोई नयी मिठाई सूझती तो वह उसमें जोड़ देता। इसी तरह इस ख़ानदान के पास तीन सौ पैंसठ प्रकार के पकवान बनाने की विध्ाियाँ थीं। अगर वे चाहते तो हर दिन एक नयी मिठाई बना सकते थे। उनके एक पूर्वज ने दिल्ली के एक ग़रीब जैन व्यापारी पर तरस खाकर उसको इस डायरी में से केवल एक मिठाई -- सोनहलवे की विध्ाि बतायी थी। जल्दी ही वह व्यापारी पैदल से ठेले पर आ गया और फिर चाँदनी चैक की एक बहुत बड़ी दुकान का मालिक बन बैठा। वह दुकान सन 1790 से सन 2018 तक चली थी। उस व्यापारी ने मथुरा आकर इनके पूर्वज का शुक्रिया अदा किया और दुकान कैसे बनाये, इसका नक़्शा भी ले गया। उसने अपनी दुकान बिल्कुल खुशीलाल की दुकान जैसी ही बनायी। व्यापारी ने एक नायाब हरकत अपनी तरफ से जोड़ दी -- वह घण्टा बजा कर अपनी मिठाई बेचने लगा था। इसलिए उसका नाम घण्टेवाली की दुकान से प्रसिद्ध हुआ। 1954 में बम्बई में चाँदनी चैक नामक एक फि़ल्म बनी। उस फि़ल्म में 1920 का चाँदनी चैक दिखाया गया था। उन्होंने दिल्ली आकर घण्टेवाली की दुकान का पूरा नक़्शा उतारा और बम्बई में हूबहू सेट लगा दिया। उस फि़ल्म के पहले हिस्से में नया-नया अमीर हुआ एक उजड्ड व्यक्ति बहुत ही जहीन नवाब ख़ानदान में शादी करना चाहता है और उसके लिए उसने एक बिचैलिये को नियुक्त कर रखा है। एक जगह बिचैलिया उसे घण्टेवाले की दुकान से मिठाई ख़रीदने की सलाह देता है -- क्या पता नवाब की बेटी सोहनहलवा खाकर उसे पसन्द कर ले! (नवाब की बेटी मीना कुमारी थी। बिचैलिया का किरदार जीवन नामक एक कश्मीरी पण्डित ने किया था। अगर मन में उत्सुकता हो कि खुशीलाल की दुकान किस तरह की होती होगी तो इस फि़ल्म के उन्निस वें मिनट पर देखा जा सकता है।) इस जैन व्यापारी के पूर्वज बनारसीदास ने 1641 में अपनी आत्मकथा-- अधर््ाकथानक नाम से लिखी थी। यह व्यापारी ख़ानदान इतना अमीर होने के बावजूद अचानक ग़रीब क्यों हुआ, उसके कुछ इशारे उस किताब में मिल जाते हैं। ख़ैर, इन सब कारणों इस डायरी की बड़ी हिफ़ाजत की जाती थी। अन्त में यही डायरी खुशीलाल की मृत्यु का कारण भी बनी।
खुशीलाल की हत्या बड़ी रहस्मय परिस्थितियों में हुई थी। उनकी हत्या किसने और क्यों की, इस पर कुछ ख़ास तफ़्तीश नहीं हुई। उनकी मामूली-सी दिखनी वाली डायरी के सिवा हत्या करने वाले ने उनके घर से कुछ भी नहीं चुराया था। अपनी हत्या से कुछ समय पहले खुशीलाल को एक ही सपना बार-बार आ रहा था। उनसे कोई डायरी छीन रहा है और वे द्वितीय विश्वयुद्ध के समय के छोड़े गये एक टैंक पर खड़े हैं। बसन्त का मौसम है और टैंकों पर जमी मिट्टी पर रंग-बिरंगे फूल आ गये हैं। उन पर अंग्रेज़ बच्चे खेल रहे हैं। यह सपना भी उन्होंने इस डायरी में दर्ज किया था। खुशीलाल की मृत्यु के बाद उनका एक कमरे का घर खण्डहर में बदल गया था। उनकी किताबों का संग्रह यूरोप के एक मशहूर विद्वान ने उनके दूर के रिश्तेदारों को अच्छी क़ीमत दे कर ख़रीद लिया था। उस विद्वान को भी शायद इसी डायरी की तलाश थी। घर में जब किताबें थीं तो घर एक कमरे का होते हुए भी समृद्ध लगता था। किताबों के जाने के बाद ऐसा लगता था कि उस एक कमरे के घर और उसके साथ पूरे भारत में ही दरिद्रता चली आयी थी। इसकी जो भी थोड़ी बहुत तफ़्तीश की गयी उससे पता चला कि उनकी मृत्यु से कुछ महीने पहले कुछ रूसी सन्यासी मथुरा-वृन्दावन घूम रह थे। उनमें से कुछ एक इनके यहाँ शतरंज खेलने आते थे। कुछ लोगों का मानना था कि इनकी हत्या रूसी जासूसों ने करवायी थी। रूसी सरकार ने क्रान्ति के बाद अपनी साम्यवादी विचारध्ाारा का लोहा मनवाने के लिए शतरंज का खेल चुना था। अलेक्सजेंद्र फेदोरोविच झेनेवेस्की ने शतरंज को अपने सैनिकों की ट्रेनिंग के लिए एक कारगर हथियार माना था। एक अंग्रेज़ इतिहासकार एच. जे. आर मुरे ने 1913 में जब शतरंज का विस्तृत इतिहास लिखा तो उसमें उसने साफ़-साफ़ लिख दिया कि भारत में इस खेल का जन्म हुआ है और इस देश में इस विषय पर कई प्राचीन पुस्तकें मौजूद हैं। तो इसी घुंघराले बालों वाले अलेक्सजेंद्र फेदोरोविच ने अपने सैनिक जासूसों को पूरे भारत में फैला दिया था। उनको हिदायत थी कि भारत में जो भी गुप्त विध्ाियाँ हैं -- यानी तरह-तरह के चक्रव्यूह, हमले और बचाव की जानकारियों, उनको एकत्र करके रूस ले आएँ। उन दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ को पाने के लिए उनके जासूस छद्म वेश में पूरे भारत में घूम रहे थे। किसी तरह उनको भनक लग गयी कि खुशीलाल के पास कुछ गुप्त नक़्शे और व्यूह वगैरह हैं। जब वह सन्यासी बन कर मठ जाना चाहते थे तब उन्होंने इस डायरी की बात विस्तार से मठ के महन्त जी को बता दी थी। उसने उनसे पूछा भी था कि इस डायरी का अब वो क्या करें? महन्त जी ने उत्तर में केवल एक रहस्मय मुस्कान दी थी। उसी मठ में इनकी मुलाक़ात एक रूसी सन्यासन से हुई थी। कम्प्यूटर आने तक सोवियत लोगों का शतरंज पर एकछत्र राज जो रहा है, ख़ुफिया इरादों में उसमें खुशीलाल की डायरियों का बहुत बड़ा योगदान माना जाता है। इसकी पुष्टि एक भगोड़े सोवियत जासूस ने अमेरिका में की थी। उसने यह भी बताया था कि कैसे स्टालिन ने खुशीलाल की डायरियाँ पाने के बाद अलेक्सजेंद्र फेदोरोविच को भी मरवा दिया था। (हाल में ही इस जासूस का ख़ुफिया इंटरव्यू यूट्यूब पर ग़लती से शाया हो गया था।) कई लोगों को शक है कि इसकी जानकारी पूर्व विश्व-विजेता बाॅबी फिशर को हो गयी थी क्योंकि उसकी माँ एक सोवियत जासूस थी। उसने इस डायरी के कुछ पन्ने बाॅबी को उपलब्ध्ा करवा दिये थे। 1972 में आइसलैंड में उसकी बोरिस स्पासकी पर शानदार जीत (ख़ासकर छठी बाज़ी) खुशीलाल की डायरी से मिली जानकारी के कारण ही थी। इस बाज़ी के बाद स्पासकी ने खड़े हो कर ताली क्या बजा दी, बाॅबी फिशर की पीछे अमेरिका और सोवियत रूस दोनों देशों की ख़ुफिया एजेन्सी पीछे पड़ गयीं। (हम सब जानते हैं उस बेचारे की क्या दुर्गति हुई।) फिर 1999 में के.जी.बी. के पूर्व जासूस मित्रोखिंन की आॅर्कायव दुनिया के सामने आ गयी। केम्ब्रिज के प्रोफेसर क्रिस्टफर ऐंड्रू को इस डायरी का जि़क्र उसमें मिला था पर चूँकि वो सारी आर्कायव मित्रोखिंन ने अपने हाथ से टीपी थी वह पूरी डायरी नोट नहीं कर पाये थे। ऊपर से शतरंज में ज़्यादा रुचि न होने के कारण किताब में इसका जि़क्र मात्र ही आया। फिर यह डायरी रूस से भी गायब हो गयी। कहा जाता है कि बाद में किसी तरह यह डायरी रूसी माफि़या के हाथ लग गयी थी। संयोगवश उसी समय ऐम्स्टर्डैम से वैन गाफ के दो तैल-चित्र चोरी हुए थे। उन चित्रों के साथ यह डायरी बहुत सालों तक माफि़या करेन्सी बन कर एक गैंग से दूसरे गैंग के पास भटकती रही। केम्ब्रिज के अन्य प्रोफेसर ओलेग की इस डायरी में बहुत रुचि थी और वह इस पर एक किताब लिखना चाहते थे। उन्हें किसी तरह इसकी भनक लग गयी। उन्होंने रूसी माफिया के साथ गुप्त कांटैक्ट करके यूक्रेन जा कर यह डायरी हासिल कर ली। उनकी खुशकिस्मती यह थी कि सोवियत विघटन और कम्प्यूटर-एंजिन के आने के बाद शतरंज की दुनिया में इस डायरी का महत्व ख़त्म हो चुका था और शीत-युद्ध के बाद रूस और अमेरिका की सरकारों की रुचि भी इसमें ख़त्म हो चुकी थी, इसलिए माफि़या के लिए भी इस डायरी का कोई ज़्यादा महत्व नहीं रह गया था। उन्होंने प्रोफेसर ओलेग को यह डायरी बहुत ही मामूली क़ीमत पर बेच दी थी। इस डायरी पर उन्होंने कई साल काम करके एक किताब लिखने की कोशिश तो की पर उसके प्रकाशन के ठीक पहले ही वे अचानक गायब हो गये। उनके दफ़्तर से मिले कुछ दस्तावेज़ों से यह संकेत मिलते हैं कि डायरी पढ़ कर उनका मन वैरागी हो गया था और वो शायद हिमालय तपस्या करने चले गये हैं। सन 1982 में मुझे यह डायरी संयोग से भारतीय उच्च संस्थान, शिमला में कश्मीर तन्त्र पर शोध्ा करने आयी एक वयोवृद्ध आॅस्ट्रियन तपस्वनी ने दी थी। वह प्रोफेसर ओलेग को हिमालय के किसी कन्दरा में मिली थी। प्रोफेसर अब इसे छपवाने के इच्छुक नहीं थे। उन्होंने इतनी दुर्लभ चीज़ क्यों इस आॅस्ट्रियन तपस्वनी को दे दी और उसने फिर मुझे क्यों दे दी -- यह मेरी समझ से बाहर है। शायद आॅस्ट्रियन तपस्वनी को इसमें ज़्यादा रूचि न होने के कारण इसके महत्व का ज़्यादा अंदाजा नहीं था। मेरी शतरंज में रुचि को जानकर उन्होंने इसे पार्टिंग-गिफ्ट के रूप में दे दिया था। अपने हाथ से सिले हुए झोले में से यह डायरी निकालते हुए उन्होंने हँस कर बताया था कि मुझे यह डायरी देते समय प्रोफेसर बोल रहे थे कि इसे पढ़ कर आदमी वैरागी या पागल हो जाता है। हो सकता है कि आप भी कहीं वैरागी न हो जाओ। (इस किताब को और आगे बढ़ाने से पहले मैं इस ख़तरे से पाठक को भी आगाह करता हूँ।) वैसे मैंने जब डायरी देखी तो उसके कई पन्ने फटे हुए थे। मुझे तो कुछ किस्से-कहानियाँ, बेसिर पैर के सपने, कुछ शतरंज की बाजि़याँ, राग-रागनियों के नोटेशंज, शतरंज की पहेलियाँ (जिन्हें नक़्शे बोला जाता है) जैसी चीज़ें मिलीं। यह कोई रुहानी या तिलस्मी किताब तो नहीं थी कि कोई ऐसी सूक्ष्म-दृष्टि मिल जाए कि किसी का मन वैरागी हो जाए। ख़ैर मैं इस पुस्तक में कई जगह पर इस डायरी को ज्यों का त्यों पेश कर रहा हूँ। कटी-फटी जिल्दों से बेतरतीब किस्से-कहानियाँ।
नोटः मुगलों के समय हिन्दू कायस्थ और ब्राह्मण दुकानदार अपने मुनाफे का हिसाब रखने की लिए गुप्त लीपी स्रोप्ती का इस्तेमाल करते थे। यह डायरी इसी लिपि में लिखी गयी थी। अगर कहीं हिन्दी थी भी तो पुरानी। मैनें उसे आजकल की भाषा में लाने का प्रयास किया है। इसकी मूल प्रति भारतीय उच्च संस्थान, शिमला की लाइब्रेरी में सुरक्षित है।
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1.2 नाम का सुल्तान - नवाब का नौकर और मेरा दोस्त -- मीर सुल्तान खान
1930, हेस्टिंग्स, ब्रिटेन
त्इ8! अरे यह क्या हुआ? एक तुरले वाले नौकर ने भूतपूर्व विश्व-विजेता को हरा दिया! नौकर का नौकर जनाब! क्या ज़माना आ गया है -- आने वाला है समय जब हमारा राज ख़त्म साहब। एक अनपढ़ नौकर! आह! पहले रैम्जी मैकडाॅनल्ड्स की गोल काॅन्फ़रेन्स और ठीक उसी समय यह बाज़ी। नहीं मैं ज़्यादा भावुक नहीं हो रहा हूँ जनाब। त्इ8! यह कोई साध्ाारण बाज़ी नहीं है। उसका राजा खड़ा रहा बीचों-बीच। कमबख़्त ने पूरी गेम में कैसलिंग तक नहीं की। सौ साल बाद याद रखना, इतिहासकार कहेंगे -- हिन्दुस्तान में हमारी हुकूमत गाँध्ाी, गोल काॅन्फ़रेन्स, कांग्रेस से नहीं -- इस त्इ8 चाल से गयी। पर जनाब इसने कैसलिंग क्यों नहीं की? न इसको पढ़ना आता है न लिखना -- यह जीत कैसे गया? कैसे जनाब? सोचिए हमारे साम्राज्य का चैंपियन एक नौकर! मुसलमान! पूरी बाज़ी में अपना राजा तक नहीं हिलाया। अड़ा रहा शान से। अरे! चर्चिल ने शायद ठीक ही कहा है मुसलमानों में ही होता है ऐसा दम। हिन्दू तो बस हवाई किले बनाते हैं। अच्छा? वैसे मैंने सुना है कि चर्चिल मुसलमान बनने वाला है? उसका परिवार सकते में है जनाब। अरे उसे जो करना करे पर यह बाज़ी देखिए जनाब! और हमारे आक्स्फर्ड-केम्ब्रिज के शोहदो को देखो तो -- कैसे तन के खड़े हैं। पाईप मुहँ में डाल कर पोज दे रहे हैं। कमाल है। शर्म नहीं आती -- एक नौकर से हार गये। हाय! नौकर नहीं जनाब नौकर के नौकर से। और यही मूर्ख उसे सिखाने के लिए नियुक्त भी किये गये थे। नवाब ने मोटी तनख्वाह दी होगी। हमारे बेवक़ूफों को तो हराया पर यह तो क्यूबा का चैंपियन? किलेबन्दी भी नहीं की जनाब -- हमारा राज हिन्दुस्तान में ख़त्म। अच्छा तो हो सकता है कि अपने चर्चिल को इसकी भनक लग गयी हो। शतरंज का खेल वह बख़ूबी जानता होगा -- उसके बाप ने ही तो आक्स्फर्ड का चेस-क्लब स्थापित किया था और इसने ख़ुद हिन्दुस्तान जाते हुए समुद्री जहाज की प्रतियोगिता जीती थी। अपना चार्ली मुसलमान बन कर इंडिया का सुल्तान बनने का सपना तो नहीं देख रहा जनाब? फ्री-मेसन रोक लेंगे उसे? मैं कहता हूँ कि पहले तो यह आक्स्फर्ड केम्ब्रिज बन्द करो। क्या बकवास है-- दस साल पहले एक ग़रीब ब्राह्मण आ कर हमें गणित सिखा गया और अब यह मुसलमान नौकर -- हमारे साम्राज्य का चैंपियन, हाय!’
यह प्रलाप सुनने का सौभाग्य सिंध्ा के एक गाँव से भागे हुए सत्रह वर्षीय रिपोर्टर को हुआ। बात यूँ थी, कि कुछ अंग्रेज़ हेस्टिंग्स इंटर्नैशनल कांग्रेस की शतरंज की एक बाज़ी देख कर बार में आ गये थे। यह वार्तालाप शायद एक या दो बोतलों के बाद ही शुरू हुआ होगा, इसलिए इसमें कौन क्या बोल रहा और कितने लोग बोल रहे हैं, पता लगाना ज़रा मुश्किल है। देसानी चूँकि सत्रह वर्षीय था इसलिए बार में बैठा दूध्ा पी रहा था। उसने इस वार्तालाप को थोड़ी देसी गालियाँ भर कर अपने महत्वाकांक्षी उपन्यास के लिए रख छोड़ा था। बीस वर्ष बाद जब उसका उपन्यास छपा तो उसकी बड़ी तारीफ़ हुई। टी एस इलियट ने उसकी प्रस्तावना लिखी थी। पर पता नहीं क्यों उसने उपन्यास से यह प्रलाप हटा दिया था। (इसका उद्धरण हमें केवल खुशीलाल की डायरी में ही मिलता है)। देसानी ब्रिटेन गोलमेज़ सम्मेलन की रिपोर्टिंग के लिए आया था। इस पहली गोलमेज़ में गाँध्ाी जी नहीं आये थे।
नोटः गोल-मेज़ सम्मेलन में मेज़ गोल नहीं थी - और शायद मीर सुल्तान खान एक नौकर भी नहीं था। हाल में ही एक अंग्रेज़ ग्रैंडमास्टर ‘सुल्तान खानः एक हिन्दुस्तानी नौकर जो बरतानिया साम्राज्य का शतरंज का चैम्पियन बन बैठा’ नामक कि़ताब लिखने की हिमाक़त कर बैठा। सुल्तान खान की पोती (जो केम्ब्रिज से अर्थशास्त्र की पढ़ाई कर चुकी थी) ने उस अंग्रेज़ को अंग्रेज़ी में ही ज़बरदस्त डाँट लगा दी। सुल्तान खान की पोती की तीन आपत्तियाँ थीं, पहली तो यह कि उसने सुल्तान खान को एक ‘हिन्दुस्तानी’ नौकर क्यों बोला - 1947 तक वो बरतानिया सल्तनत का बाशिन्दा रहा और उसके बाद एक गर्विला पाकिस्तानी। दूसरे वो एक ‘नौकर’ भी नहीं था बल्कि पीरों के ख़ानदान से ताल्लुक़ रखता था जिसके पास खुद की एक सौ चैदह एकड़ ज़मीन थी। तीसरे वो अनपढ़ नहीं था और अच्छी-ख़ासी अंग्रेज़ी जानता था। इन तीन नुक़्तों को विस्तार से लिखकर पोती ने माँग की कि यह अंग्रेज़ ग्रैंडमास्टर सुल्तान खान के परिवार से माफ़ी माँगे और अपनी कि़ताब को वापिस ले। इन पंक्तियों को लिखे जाने तक यह बहस जारी है। पर हमें तो जो देसानी और अन्य लेखक बता गये हैं, वही बताना पड़ेगा।
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1.3 30 दिसम्बर 1930, वेवर्ली होटल, हेस्टिंग्स
होटल के गलियारे में खड़ा सुल्तान खान अपने गले को बार-बार मफ़लर से ढकने की कोशिश कर रहा था। उससे यहाँ की ठण्ड सही नहीं जा रही थी और उस पर शतरंज का खेल। कहाँ फंसा दिया कर्नल साहब ने। उसे यकीन हो चला था कि अगर वह ज़्यादा देर यहाँ रहा तो मर जाएगा। क्या मुसीबत! यह सब सोचते हुए जब वह प्लेइंग-हाॅल में दाखिल हुआ तो वहाँ के दीवारों में फैली भाप की गर्माहट से उसकी जान में जान आयी। उसे लगा आज बाज़ी ठीक रहेगी। सामने भूतपूर्व विश्व चैम्पियन बैठा था। उसकी अपनी मुसीबत, अपनी सोच। वर्तमान विश्व-विजेता अलाईखीन से रीमैच को लेकर वह पेशोपेश में था। अपने ही विचारों में डूबा हुआ। पिछले वर्ष उसने यह टूर्नामेंट आसानी से जीत ली थी। इस बार मन कुछ उखड़ा हुआ था और सामने भारत से आया एक किसी नवाब का मुलाजिम। कैसा खेलेगा यह? कापा उत्सुक था। (वेवर्ली होटल का आज हेस्टिंग्स में नामोनिशान नहीं मिलता है। शायद उसको इस टूर्नामेंट के बाद तोड़ दिया गया।) अमेरिका के अभिशप्त जीनियस पाॅल मर्फी के अवतार कापा का व्यक्तित्व भव्य था। सामने बैठ जाए तो आँख उससे हटती नहीं थी।
नोटः पाॅल मफऱ्ी का पुनर्जन्म कोई हवाई उपमा नहीं था, कापा को असल में पाॅल मफऱ्ी का अवतार समझा जाता था। इसके कई सबूत कापा के बचपन में मिल चुके थे।
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1.4 ओल्ड रोअर गिल
हेस्टिंग्स का ओल्ड रोअर गिल का जंगल शहर के बीचो-बीच एक ऐसा स्थान था जहाँ चलते हुए मध्यकालीन युग में पहुँचने का एहसास होता था। कापा आज शाम की सैर उसी जगह पर करने का सोच रहे थे। ब्लड-प्रेशर की बीमारी थी और कापा सैर का शौकीन था। चहचहाते पक्षियों और वनस्पतियों के बीचो-बीच वह अपने आप को सहज कर पाते थे। चलना-सोचना।
सुल्तान खान के घोड़े की चाल -- समझदार कापा जैसे कोई घडि़याल -- जो पानी पीते घोड़े की टांग पकड़ ले। सुल्तान खान भारतीय पद्धति का खेल जानता था। किलेबन्दी या तो करता नहीं था या फिर इतनी देर से कि कोई अज्ञानी खिलाड़ी हँसना ही शुरु कर दे। इसी भ्रम की स्थिति में ओल्ड रोअर गिल 1935 में आम जनता के लिए खोला जाना था। कापा वहाँ सैर करते हुए चालें सोचना चाहता था। सुल्तान खान 1928 में भारत का चैम्पियन बना। अब वहाँ उससे अच्छा खेलने वाला कोई नहीं था। अंग्रेज़ों का भ्रम हुआ कि वह केवल एक अनपढ़ नौकर है जो मोहरे घसीटने से ज़्यादा कुछ नहीं जानता -- न शतरंज के सिद्धान्त न उसका विज्ञान। पर ग़ौर करो तीन बार बरतानिया का चैंपियन बन बैठा। तो यह बहुत बड़ी ग़लतफहमी होगी जनाब। भारत में छोटे-छोटे राजाओं के यहाँ कई शतरंज के खिलाड़ी मुलाजिम थे। उनका काम ही था तनख़्वाह लेकर सिफऱ् शतरंज खेलना। सुल्तान खान का जन्म 1905 में हुआ पर उससे पहले भी कई कमाल के खिलाड़ी पूरे भारत में फैले हुए थे। पर यह ज़रूर है कि सुल्तान खान को पश्चिमी पद्धति की ओपनिंग के सिद्धान्त इतना नहीं आते थे।
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1.5 वेरा और फ़ातिमा
। ेबतमंउपदह बवउमे ंबतवेे जीम ेाल पज ीें ींचचमदमक इमवितम इनज जीमतम पे दवजीपदह जव बवउचंतम पज जव दवू - यह वाक्य लिखते हुए टामस पिंचोन के मन में वेरा थी कि नहीं, कह नहीं सकते पर अपनी मृत्यु से ठीक पहले वेरा के मन में यही वाक्य कौंध्ाा था। तितली बम या ैचतमदहइवउइम क्पबाूंदकपह बम जो वेरा मैंचीक और उसकी बहन की जान लेने वाला था। वेरा फ़ातिमा को प्रैक्टिस करवाने नवाब के घर आती थी। सुल्तान के साथ-साथ फ़ातिमा भी बर्तानिया की चैंपियनशिप की तैयारी कर रही थी। थोड़ी-सी मोटी पर सौम्य मुख, हँसमुख और शान्त स्वभाव वाली वेरा की मृत्यु फ़ातिमा के लन्दन से जाने के कई वर्षों बाद हुई। वेरा सुल्तान खान को कई बार हरा चुकी थी। (वेरा और फ़ातिमा की कहानी विस्तार से बाद में।)
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1.6 न्यूज़-रील
कितनी अजीब बात है सुल्तान खान के बारे में हम कुछ ज़्यादा नहीं जानते पर वह ज़माना न्यूज रील का था। पर ऐसा लगता है कि उसकी कोई ज़्यादा फ़ोटोग्राफी नहीं हुई। सुल्तान खान का खेल सीध्ाा-सपाट। सिद्धान्तिक मोहरों का चुनाव बेहतर खानों पर बेहतर मोहरा रखता जाए खान। मध्य को हथियाता हुआ। उसे तेज़ शुरुआत पसन्द नहीं थी। एक बार शुरुआत हो जाए फिर देख लेंगे मिडिल गेम में या आखिर में।
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1.7 ं3 लाइन
जैसे ही सुल्तान ने ं3 लाइन खेली कई पुरानी यादें लौट आयीं -- शिमला, मीठा टिवाणा में अभ्यास के दिन -- गुरबख्श राय, कृष्ण लाल सारडा। यह इंडियन डिफेंस कहाँ से आया जनाब?
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1.8 नीला मफ़लर
अगर आज आसमान काला ना होता तो सुल्तान फिर से नीला मफलर न पहनता पर क्योंकि आसमान में फिर से काले बादल छाये थे, सुल्तान अन्दर से नीला स्कार्फ ले आया। पिछले कई दिनों से ठण्ड बढ़ती जा रही थी और यहाँ कोई सुनने को तैयार ही नहीं कि ‘भाई मैं यहाँ मर भी सकता हूँ!’, सुल्तान दबी आवाज़ में चिल्लाया। सुल्तान की आवाज़ पतली सी थी उसे दबी आवाज़ में चिल्लाने की आदत नवाब साहब की नौकरी के कुछ दिनों बाद हो गयी थी। ऊँची आवाज़ में चिल्लाना तो नवाबों के शौक होंगे। एक बात साफ़ कर दूँ, ‘नवाब साहब इतने बुरे नहीं हैं बल्कि अच्छे हैं, भले हैं, वरना मुझे यहाँ क्यों लेकर आते? नवाब साहब ने शतरंज खेलने के लिए मुझे अलग कमरा तक दे दिया है।’
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1.9 अजीब-द-तुर्क
नवाब साहब तैयार होते हुए।
‘जनाब आप निराश न हों। सुल्तान ने दो साल पहले ही पश्चिमी तरीका सीखा है। वल्र्ड चैम्पियन बनने में समय लगता है साहब। आप ज़रा भी निराश न हों। बर्तानिया का चैम्पियन बन जाना यह कोई मामूली बात नहीं है पर बेचारे की शुरुआत इतनी तगड़ी नहीं है। जैसे कि किसी अंग्रेज़ ने बोला था उसका शुरुआती खेल के बारे में-- इसववक बनतकसपदह रमवचंतकल! बस शुरू की दलदल पार हो जाए तो उसका घोड़ा सरपट भागता है जनाब। ज़रा सोचिए अगर उसका जीवन ही उसकी शतरंज जैसा हो --शुरुआती हिचकिचाहट के बाद दौड़ने लगे। ओपनिंग पर काम करवा दीजिए बस।’
कभी-कभी नवाब और नौकर पगड़ी पहनकर शतरंज खेलते थे। उनकी पगडि़याँ आपस में टकराती थी।
‘एक बात बताओ, यह विंटर का क्या चक्कर है’, नवाब साहब बोले। मालिक गुलाम मोहम्मद हँसा, ‘अजीब ही है कर्नल साहब, मैं भी कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। सुल्तान ने उसका कोई पिछले जन्म का उध्ाार तो नहीं चुकाना? सब से जीत जाता है और उससे हार! कमाल है जनाब! सुल्तान टूर्नामेंट के टाॅप पर होता है विंटर सबसे नीचे और जो एक मात्र गेम सुल्तान ने इस पूरे टूर्नामेंट में हारी होती है वह बस इसी विलियम विंटर से! अजीब है-- अजीब-अजीब द तुर्क!’
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1.10 ओडो का काला घोड़ा
अगर कापा और सुल्तान की बाज़ी देखी जाए तो ऐसा लग सकता है कि सफ़ेद मोहरों से खेलने वाला काले से कई गुना बेहतर है, जबकि ऐसा नहीं था। कापा अपने श्रेष्ठतम फाॅर्म में था। सुल्तान शुरुआत बहुत सीध्ाी करता था-- ज़्यादा होशियारी या चमत्कार नहीं। वैसे भारतीय शतरंज में केवल चमत्कारी कम्बीनेशन खेलने वालों को श्रेष्ठ माना जाता था। उनका मानना था कि चमत्काररहित बाज़ी का हम आदर नहीं करते। सुल्तान ने अपना घोड़ा 3ि पर रख दिया यानी छ3ि -- कापा ने भी कुछ वैसा ही किया -- द6ि। सुल्तान ने मध्य हथियाया फ4 से। तो यह हुई रानी के प्यादे की शुरुआत यानी रानी के प्यादे की चाल (ुनममदश्े चंूद वचमदपदह ..द3ि.द6िध् क4.क6ध्ब4.इइ7ध्दब3.म6ध्ं3।)
(नोटः सुल्तान खान का यह सिस्टम कुछ सालों बाद बहुत प्रसिद्ध हुआ। सबसे ज़्यादा इसे अस्सी के दशक में कास्परोव ने खेला था।
नवीं चाल कापा की? ‘मैं कुछ ज़्यादा महत्वाकांक्षी हो गया था’ यह बात कापा ने उस रात खुद से कही -- वह मेज़ पर बैठा अपनी इस चाल का विश्लेषण कर रहा था। कापा को यह बात दिलचस्प लगी कि यहीं हेस्टिंग्स में सन 1066 में जब एंग्लो-सैक्सन सेना नाॅर्मन सेना का पीछा कर रही थी तो उनकी रणनीति बिल्कुल ऐसे ही थी--उसके घोड़े की चाल जैसी! अगर वह पीछे रह कर अपने मोर्चा सुदृढ़ करता तो शायद बेहतर होता? बायु टेपेस्ट्री में ओडो का काला घोड़ा जैसे कि उसकी छम4 की चाल! पर परिणाम बिल्कुल उल्टा! बाद में कापाब्लांका ने जब बायु टेपेस्ट्री फ्रांस के संग्रहालय में देखी तो पता नहीं क्यों उसको फिर से यही बाज़ी और उसकी छम4 चाल याद आयी। हेस्टिंग्स और सुल्तान खान की बाज़ी-- विलियम हरामजादा या विजेता? -- उसकी और एंग्लो सैक्सन राजा हैरोल्ड की लड़ाई की याद क्यों आती रही? इस हार की पीड़ा हेराल्ड की आँख में लगने वाले तीर से कम नहीं थी। कमाल की बात यह है कि हेराल्ड की तरह कापा को भी दो तरफा आक्रमण का सामना करना पड़ा था। सुल्तान की चैदहवीं चाल ी4! क्योंकि उसने किलेबन्दी नहीं की थी और डरा भी नहीं था। भारतीय पद्धति में अक्सर किला कोने में न बना कर, मध्य में ही बना लिया जाता है। इसलिए वह दो तरफा आक्रमण कर पाया था। इस अनोखे संयोग से कापा को दुख भी हुआ और अजीब-सी खुशी भी! उसने सुल्तान से दोस्ती कर ली और कुछ दिनों बाद उससे मिलने नवाब के घर भी गया। सुल्तान ने कापा को विस्तार से समझाया था कि भारतीय पद्धति की शतरंज कैसे खेली जाती है।
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1.11 देसानी अपने आपको जीनियस मानता था
सत्रह की आयु में इंग्लैंड आकर कुछ ही महीनों में उसने लेबर पार्टी के मन्त्री जाॅर्ज लैंसबरी को कैसे काबू किया, भगवान ही जानता है। उसको ब्रिटिश म्यूजियम की लाइब्रेरी में पढ़ने की छूट मिल गयी। अब वह किसी ध्ामाके की फि़क्र में था कि कुछ ऐसा करे कि तुरन्त नाम हो जाए। इतनी कम उम्र में ऐसी सोच शायद वाजिब ही है। तभी उसने सुना कि भारत से एक नवाब का नौकर इंग्लैंड में शतरंज खेलने आया है। उसके दिमाग में बिजली सी कौंध्ा गयी। यह तो बढि़या मौका है। नवाब जो खुद जाॅर्ज पंचम का ए.डी.सी. है यानी नौकर का नौकर मालिक को हरा सकता है। उन दिनों देसानी बेहद ग़रीब था और ठण्ड इतनी ज़्यादा थी कि उसको अपने सेकण्ड-हैंड कोट को गर्म रखने के लिए उसमें पुराने अखबार ठूसने पड़ते थे। फिर भी उसने किसी तरह पैसों का इन्तजाम किया और सुल्तान खान की हर टूर्नामेंट में पहुँच जाता। शुरुआत में उसने कभी भी सुल्तान से मिलने की कोशिश नहीं की। बस दूर कहीं मंडराता रहता। उसे शतरंज में इतनी दिलचस्पी तो नहीं थी पर यह पूरी स्थिति बड़ी मजेदार थी। कुछ वर्षों बाद जब उसको पता चला कि नवाब की एक और नौकर फ़ातिमा ने औरतों की चैम्पियनशिप जीत ली है तो उसकी खुशी का तो ठिकाना ही न रहा। दो अनपढ़ नौकर यहाँ बर्तानिया में आकर इतने पढ़े-लिखे अंग्रेज़ों को शतरंज जैसी दिमागी खेल में हरा दें। कमाल ही तो है, और सुना है कि उन्हें पश्चिम-विध्ाि की शतरंज सीखे हुए कुछ ही वर्ष हुए हैं। भारत में तो इनके मुकाबले का कोई खिलाड़ी नहीं होगा। पर ऐसे खिलाड़ी यूँ ही पैदा नहीं होते हैं-- पीछे एक परम्परा होती है, एक पूरा सिस्टम होता है। अपने इस एक निष्कर्ष से देसानी आश्वस्त था। आगे जाकर वह ऐसे शातिरों की पूरी फौज ही ढूँढने वाला था। टूर्नामेंट में जब उसको कोई चाल समझ में नहीं आती थी तो इध्ार-उध्ार से पूछने लगता और कुछ देर बोरियत होने लगती और वापिस लौट आता। तब उसने एक अंग्रेज़ चेस-मास्टर विलियम विंटर से दोस्ती कर ली। सुल्तान खान विलियम विंटर से हमेशा हार जाता था जबकि वह उससे कहीं ज़्यादा तगड़ा खिलाड़ी था। विलियम जो भी देसानी को बताता या समझाता था, वह बड़ी तफ़सील से उसे अपनी डायरी में नोट कर लेता था। उसका मन था कि इस विषय पर वह या तो एक रिपोर्ट लिखें या फिर एक उपन्यास। उसने इस में से कुछ भी नहीं लिखा। बाद में उसने एक उपन्यास लिखा जो बहुत पसन्द भी किया गया (और जल्द ही भुला भी दिया गया)। उसके उस उपन्यास में कहीं भी शतरंज या सुल्तान खान का जि़क्र नहीं मिलता है। देसानी चाहता था कि उस उपन्यास के बलबूते पर साहित्य का नोबल पुरूस्कार मिल जाये। भारत आकर उसने एक पत्रिका के सम्पादक खुशवन्त सिंह से मुलाकात की और उसको मनाया कि वह नोबल के लिए उसके नाम की सिफारिश करे। जब खुशवन्त सिंह ने इस बात पर हैरानी ज़ाहिर की ‘कि एक किताब पर नोबेल कैसे मिल सकता है?’ तो उसने जवाब दिया की एक अच्छी किताब दस औसत किताबों से तो बेहतर। खुशवन्त सिंह उसके इस तर्क से आश्वस्त नहीं हुए। देसानी का दिल टूट गया। खुशीलाल और प्रोफेसर ओलेग की तरह उसके मन में भी वैराग जाग गया। साध्ाु बनकर वह दक्षिण भारत के शहर सेलम के समीप कहीं गुम हो गया। कई वर्षों बाद वह टेक्सस विश्वविद्यालय में बुद्धिज्म पढ़ाते हुए मिले। उनका देहान्त 91 बर्ष की आयु में हुआ। उन्होंने कभी शादी नहीं की। आखिरी दिनों में विश्वविद्यालय के छात्रों ने ही उनकी देखभाल की थी।
नोटः उसमें से एक छात्र को इस अध्ाूरे उपन्यास की पाण्डुलिपि मिली थी। वह छात्र एंटीफा का सदस्य था। काॅपीलेफ्ट के चक्कर में उसने इस अध्ाूरी पाण्डुलिपि को इण्टरनेट पर डाल दिया और सबके सामने यह प्रस्ताव रखा कि कोई भी अगर इस उपन्यास को पूरा करना चाहे तो उसे पूरी आज़ादी है। मुझे यह बात ठीक नहीं लगी। मुझे लगा यह उपन्यास बेशक अध्ाूरा ही हो, इसको छपना देसानी के नाम से ही चाहिए। इसलिए मैंने देसानी की अध्ाूरी पाण्डुलिपि को ही छपवाने का प्रण ले लिया। देसानी अंग्रेज़ी का जीनियस बेशक था पर उसको हिन्दी नहीं आती थी फिर भी उसने इसे हिन्दी में लिखने का सोचा, यह थोड़ी अजीब बात है। भाषा थोड़ी पुरानी है और अंग्रेज़ी के शब्दों से पटी पड़ी है-- पर कहानी दिलचस्प है। पाठक अगर भाषा पर ज़्यादा ध्यान न देकर विषय-वस्तु को देखेंगे तो किताब का रस आएगा। कहानी अध्ाूरी भी है और मज़ेदार भी। अगर कुछ त्रुटियाँ रह गयी हो तो इसे 17-18 वर्षीय युवक के अद्भुत प्रयास के रूप में ग्रहण करें।
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1.12 कड़ाके की ठण्ड
हेस्टिंग्स का मौसम -- इस ठण्ड से बढ़ कर कुछ होता है क्या? मीठा टिवाणा की तपती ध्ारती और लू इससे कितनी बेहतर। इस अनजाने देश में अकेले ठण्ड को सह पाना मुमकिन था क्या? अकेलेपन से ठण्ड का अहसास बढ़ गया था। सुल्तान कुछ सोच नहीं पा रहा था। ठण्ड से दिमाग सुन्न हो गया था। नवाब साहब ने सुना तो हँसे। ग़नीमत है तापमान इतना भी कम नहीं था -- 7 और 2 डिग्री के बीच लटकता रहता था। फिर भी बुखार, गला खराब।
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1.13 फ़ैसला
सुल्तान खानरू पतला शरीर। सांवला रंग। पिचके हुए गाल। शर्मिला नौजवान।
उमर हयात खानरू देख कर ऐसा लगे कि अभी तलवार निकालकर किसी का सिर काट दे।
सुल्तान खान का सामना आज कापाब्लांका से था। नवाब साहब सुल्तान से ज़्यादा नर्वस थे।
इसलिए उन्होंने फैसला किया कि वह आज टूर्नामेंट हाॅल नहीं जाएँगे।
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1.14 हेस्टिंग्स में शतरंज की कांग्रेस 1920 से शुरू हुई थी
नार्मन विलियम द हरामजादा खुद भी एक शतरंज का खिलाड़ी था। भतीजे से जब वह हारा तो शतरंज का बोर्ड उसके सर पर फोड़ दिया। (उसको शक हुआ कि भतीजा बेईमानी कर रहा था।)
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1.15 हेस्टिंग्स का चेस-सेट और अलर्ट घोड़ा
सुल्तान खान जब सुबह उठा तो गला खराब था। खाँसी कल से बेहतर थी। आज की बाज़ी को ले कर थोड़ी खुशी, थोड़ा उत्साह और थोड़ी घबराहट थी। उसने अपनी बिस्तर के पास पड़ी शतरंज की बिसात पर एक सरसरी नजर दौड़ायी। कुछ खास विचार नहीं आया। वही पुरानी घिसी-पिटी चालें। कुछ ऐसा नया करूँ कि कर्नल साहब खुश हो जाएँ। सुल्तान के कमरे में दो ड्रेसिंग टेबल थे। शीशे के अन्दर शीशा और उसमें उभरती अन्तहीन छवियाँ। शतरंज की चालों का तिलिस्म। सुलतान के होटल का कमरा। एक सोफा। टेबल। छत से लटकती गोल लाइट। बिस्तर दो दीवारों के कोने में फिट किया गया था। खाट के सामने एक स्टूल जिस पर उसने शतरंज का बोर्ड रख दिया था। आध्ाी दीवार सफ़ेद, आध्ाी पर वाॅलपेपर। अजीब सा कमरा। नहा-ध्ाोकर सुल्तान बाहर निकला। कमरा श्वेत-श्याम था पर बाहर का गलियारा बहुत ज़्यादा रंगीन। हरे रंग के बड़े-बड़े खम्बे। पीला ज़र्द पियानो। लाल सोफे। नीली छत। दीवारों पर सुनहरी बत्तियाँ। हैट टांगने के लिए सुनहरे स्टैंड। सुल्तान ने एक बार सोचा भी था कि शायद हैट पहन लेनी चाहिए थी। पर पहन नहीं पाया-- शर्मा गया। एक दो बार पगड़ी ज़रूर पहनी पर बाद में उसको भी त्याग दिया। गुलाबी रंग की लैंप-शेड के नीचे बैठकर नाश्ता किया और आज होने वाले खेल के बारे में सोचा।
1.16 प्रश्न और उत्तर
प्रश्नः जैसा कि हर बड़े ग्रन्थ की उत्पत्ति एक प्रश्न से हुई है, उसी तरह ही जनाब मैं आपसे पूछता हूँ, क्या ‘भारत में ऐसा कोई शतरंज का खिलाड़ी हुआ है जिसने अंग्रेज़ों के ज़माने में अपना लोहा मनवाया हो, ध्ाूम मचा दी हो, इस निरीह देश में खाली पेट जीनियस कोई हुआ है?’
उत्तरः हाँ, एक नौकर। नौकर का नौकर। बात थोड़ी पेचीदा है। भारत तब एक बड़ा देश था। अभी टुकड़े नहीं हुए थे इसलिए कहना आसान नहीं। आज़ादी के बाद सुल्तान खान का घर पाकिस्तान कहलाया। पर कहानी केवल उसकी ही नहीं बल्कि उस एक जीनियस के पीछे खड़ी उस पूरी जमात की है। अजीबो-ग़रीब लोग। शतरंज के खिलाड़ी दरबार में ऐसे मुकर्रर किये जाते थे जैसे कि लड़ने वाले मुर्गे। कई राजा और छोटे छोटे नवाब जिन्हें मुर्गे-बटेर लड़वाने का शौक था, उन्होंने शतरंज के खिलाड़ी भी रख लिये थे। यह कहानी उस जमात की है -- विलक्षण, थोड़े सनकी पर कुल मिलाकर बहुत मज़ेदार लोग।
1.17 सुल्तान की सैर
सुल्तान का रंग सांवला। शर्मिला। पतली आवाज़। काले बाल। पिचके हुए गाल। कद में थोड़ा छोटा। चैड़ा माथा। कमरे में लगे दो शीशों में मुँह देख तैयार हुआ। तय किया कि टूर्नामेंट हाॅल तक पैदल ही जाएगा। थोड़ा खाना पच जाएगा, रगों में खून दौड़ेगा -- फिर तो कई घण्टे बैठना ही है। शतरंज खेलते हुए सुल्तान खान कभी अपनी कुर्सी से नहीं उठता था। घण्टों तक कोई हरकत नहीं। उसकी सोच उसके गालों के नीचे हिलती एक मांसपेशी में थी। शतरंज का खेल एक नशा है। होटल से बाहर निकला। होटल ऐसा जैसे दो आयामी कार्डबोर्ड। बाहर से सपाट पर अन्दर घुसते ही तीन आयामी दुनिया। दीवार पर आई वी की बेल चढ़ी हुई थी। आध्ाी लाल ईंटे आदि हरी आई वी। सुल्तान दाहिने मुड़ा। सामने गली थी। दो दीवारें एक दूसरे की ओर झुकी हुई -- उसमें से निकलने के लिए एक पतली-सी जगह। सामने समन्दर का किनारा। कई गाडि़याँ बेतरतीब ढंग से खड़ी हुईं। टूर्नामेंट हाल तक चल कर जाने में सुकून था। गली के मुहाने पर एक बार चलते हुए घर का ख्याल आया। अब्बा की सीख थी कि तगड़ी किलेबन्दी करो -- दुश्मन अन्दर न आने पाये। कभी गुस्सा न करना। ध्यान लगाना। एकाग्रता और शिद्दत से पोजीशन को तरह-तरह से परखना। चैकन्ना रहना -- एक क्षण की सुस्ती भी पूरी बाज़ी पलट सकती है। कृष्ण लाल सारडा और गुरबख्श राय के साथ खेलते हुए इन पहलुओं पर खूब काम किया जाता था। यह सीख अब्बा ने तब दी थी जब उसने देखा था कि सुल्तान कमज़ोर पोजीशन में हतोत्साहित हो जाता है। सामने ढलान, उसके ठीक बाद झुका हुआ स्ट्रीट लैम्प, कोने में एक दुकान पीछे अनगिनत मकान। तापमान 7 से 11 डिग्री के बीच। हेस्टिंग्स सुन्दर शहर था। अपनी सोच में सुल्तान आगे बड़ा तो सामने क्वींस रोड था। चैड़ी सड़क--दोनों तरफ भव्य भवन। सड़क के बायीं ओर तीन गाडि़याँ खड़ी थीं। कुछ औरतें खरीदारी करती हुईं। शान्त ध्ाीमी जगह। गर्मी का मौसम होता तो शायद अच्छा होता। ठण्ड में सुकून भी ठण्डा। तभी सुल्तान एक दुकान के सामने ठिठका -- शीशे से शतरंज के घोड़े के आकार का केक दिख रहा था। ऊपर वाली मंजिल पर दो खिड़कियाँ जिसके बाहर गुलदस्तों में रंग-बिरंगे फूल खिले हुए थे। केक के ऊपर लिखा हुआ था -- हेस्टिंग्स का बड़े कान वाला चैकन्ना घोड़ा।
नोटः कुछ वर्षों बाद इस टूर्नामेंट के नाम से हेस्टिंग्स चेस-सेट का निर्माण किया गया था। उस चेस-सेट की खास बात उसका खड़े कानों वाला चैकन्ना घोड़ा था।
1.18 कापा की सैर
कापा जब सुबह उठे तो सबसे पहले शीशे में अपना मुँह देखा -- उनके कमरे में भी छत से लटकती एक गोल लाइट थी। शीशे के सामने शीशा जिसमें से झाँकते अनगिनित कापा। कापा सुन्दर थे। पढ़ने के शौकीन -- बिस्तर पर कई किताबें बिखरी हुई थीं। हेस्टिंग्स में हर साल एक शतरंज के अन्तर्राष्ट्रीय सितारे को आमन्त्रित किया जाता था। इस साल के सितारे कापा थे। कापा अपने सितारे होने को लेकर सजग थे। सजध्ाज कर टूर्नामेंट हाॅल जाते थे। आज उन्होंने भी टूर्नामेंट हाॅल तक पैदल जाने का निर्णय किया। इध्ार-उध्ार गलियों में बने मकानों को देख कर कापा ने लम्बी साँस ली -- शुक्र है यहाँ ब्रिटेन में आर्ट-डेको नामक बीमारी अभी तक घरों के अन्दर नहीं घुसी। (अलबत्ता होटलों के गलियारों में पहुँच गयी थी।) होटलों के ऐसे माहौल में कापा अपने आप को असहज महसूस करते थे। कारण कई और भी थे -- रहस्यमय औरत की अफ़वाह तो ज़ोर पर थी ही -- आजकल कापा का ज़्यादातर समय खेल की तैयारी के बजाय चिट्ठी-पत्र लिखने में जाता था। पहले अलयेखिन का पचड़ा ऊपर से हवाना में आर्थिक संकट। क्यूबा ने बजट कम कर दिया तो पद नीचा हो गया और फिर जुलाई 1930 को (यानी इस टूर्नामेंट के कुछ महीने पहले) उन्होंने कापा को काम से ही निकाल दिया था। कैसी जिल्लत का सामना करना पड़ा था! बेरोजगार कापा आज के अपने प्रतिद्वन्दी यानी नवाब के नौकर से कुछ ज़्यादा बेहतर हालत में नहीं थे। दिसम्बर 1930 से जनवरी 1931 तक कापा यहीं हस्टिंग्स में रहने वाले थे। आज तीसरे राउंड में उनका मुकाबला दुनिया के सबसे बेहतरीन स्वभाविक खिलाड़ी सुल्तान खान से था। उन्हें हार का सामना करना पड़ा। बाद में कापा ने बताया कि बेशक वह अपनी बेहतरीन फाॅर्म में नहीं थे पर यह निश्चित है कि सुल्तान एक जीनियस है। उन्होंने यह भी बताया कि कभी-कभी उनके दिमाग में से सब कुछ गायब हो जाता है। आज वही दिन था। फिर भी वह दूसरे नम्बर पर आया। एवे प्रथम और सुल्तान खान तीसरे। सुल्तान अगर ड्रा बाजि़यों को जीतने के चक्कर में उनको इतना न खींचता तो शायद पहले या दूसरे नम्बर पर आ जाता। आज की हार से कापा की ग्यारह साल चली आयी भाग्य-रेखा टूट गयी। पिछले ग्यारह सालों से कापा ने ब्रिटेन में एक भी मुकाबला नहीं हारा था। अलयेखिन से विश्व-विजेता का ताज भी तो वापस लेना था। ऐसा सोचते हुए कापा ने अपनी कपड़ों की अल्मारी खोली। छोटा कापा मफऱ्ी का अवतार -- अजीब तर्क की मशीन के अन्दर से बौने के रूप में बाहर आ आया। कापा ने आँखे खोलीं। सुल्तान की पहली चाल थी छ3ि!
1.19 पहली चाल - छ3ि
सुल्तान खान अभी भी चाय की दुकान के सामने खड़ा इस चाल पर विचार कर रहा था। कापा दूसरी गली से आगे निकल गया। आर्ट-डेको की जिग-जैग छतें और दीवारें। शीशे और ध्ाातु का चक्र-वक्र। भूल-भुलैया। तिरछी लकीर। गोल कोने। चमकता काला शीशा -- जिसके कोने क्रोम से चमकाए गये थे। बस कुछ ऐसी ही चाल थी यह।
1.20 कापा की मिस्ट्री-वुमन और अहमद तोता
‘मैंने लिखना बाद में सीखा, शतरंज खेलना पहले। मैंने कभी शतरंज का विध्ािवत अध्ययन नहीं किया -- जब खेलता हूँ तभी अध्ययन हो जाता है’
‘आपने अपने से पहले महान शातिरों की बाजि़याँ तो देखी होंगी?’
‘नहीं जनाब बिल्कुल नहीं’, कापा शान्त भाव से बोले।
कापा हेस्टिंग्स की गलियों में ऐसे चल रहे थे जैसे कि एक नवाब। ध्ाीरे-ध्ाीरे कदम बढ़ाते हुए। सध्ाी हुई चाल। देसानी अचानक हाँफ़ने लगा था। क्या आज पूछ ले वह खास प्रश्न जो उसके मन में कई दिनों से कुलबुला रहा है? कर दे वह हिमाकत, खिड़की पर बैठे उस तोते जैसी जिसने महाराजा के सम्भोग में विघ्न डाला था? (उस रंग-भंग से उपजे अचानक अध्यात्म बोध्ा से महाराजा को मोक्ष मिल गया था)। अली शातिर का अहमक तोता अहमद जो ‘रुक जा मूर्ख’ कह कर भागा था। इतनी उत्तेजना के बीच ऐसी फटकार सुन महाराजा का ध्यान अध्यात्म की ओर गया था। अली यानी करामत अली-- शतरंज का बेजोड़ खिलाड़ी था। पूरी दिल्ली में उस से बेहतर कोई नहीं था। सन 1841 की बात है छियालीस वर्षीय करामत अली ने उसी राजा से शर्त लगा कर छह हज़ार रुपयों की बाज़ी जीत ली थी। उन दिनों के छह हज़ार मतलब आज के पैंतीस लाख। इस बात की रिपोर्ट ब्रिटेन में करते हुए एक अंग्रेज़ ने कहा था कि दिल्ली में आजकल शतरंज बड़ी मशहूर है। चूँकि हमने सारा भारत जीत लिया है मुसलमान और राजपूत अपना गुस्सा मैदान-ए-जंग की बजाय शतरंज की बिसात पर निकाल रहे हैं। अचानक देसानी रुका और कापा की ओर मुहँ करके बोला -
‘मिस्ट्री वुमन की अफ़वाहों के बारे में कुछ कहना चाहेंगे? क्या सध्ाी हुई चालों से मोक्ष मिल सकता है?’, देसानी ने हिम्मत कर ही दी थी।
‘मोक्ष?’
‘हाँ मुक्ति।’
‘मुक्ति, मोक्ष यह कैसी बातें कर रहे हैं आप?’
-- कापा देसानी के प्रश्नों के अजीबो-ग़रीब पैटर्न से सपकपा से गये थे।
देसानी ने कापा की तरफ ज़्यादा ध्यान न देकर अपना बोलना जारी रखा --
‘गाने वाला तोता और सुई पिरोने वाली चिडि़या। चिडि़या अली के लिए बीड़ी जलाती थी जनाब। उसके एक कन्ध्ो से फुदक कर दूसरे पर आ बैठ जाती और बीड़ी उसके मुँह पर लगाती, इस दौरान अली अपनी शतरंज में मसरूफ़ रहता था।
नोटः ब्रिटिश न्यूज रील कम्पनी पाथे ने 1920 में अली के पोते हसन को यह करतब करते हुए फि़ल्माया था। अब यह फि़ल्म इण्टरनेट पर देखी जा सकती है।
कापा हँसे, ‘मैं भी शतरंज अपने मनोरंजन के लिए ही खेलता हूँ, यह बात अलग है कि थोड़े पैसे भी बन जाते हैं। चालें मेरे अवचेतन से बस ऐसे ही आती हैं, जैसे किसी बैंक क्लर्क को हिसाब। जैसे वह अपना काम बखूबी करता है बस ठीक वैसे ही मैं। शतरंज में कोई मिस्टिसिजम या रहस्य नहीं है।’
‘तो क्या आप गणित में अच्छे थे?’
‘मैं जानता हूँ कि मेरे कई दोस्त मेरे से कहीं ज़्यादा गणित जानते हैं। हाँ, परीक्षा में मेरे नम्बर निन्यानवे प्रतिशत नम्बर ज़रूर आये थे।’
देसानी मुस्कराया और बोला ‘जाॅर्ज लैंसबरी की वजह से लाइब्रेरी में दाखि़ला मिल गया था इसलिए थोड़ा शोध्ा कर आया हूँ। लास्कर ने 1922 की अपनी किताब डमपद ॅमजजांउच िउपज ब्ंचंइंसंदबं में साफ़ लिखा है कि कापाब्लांका का खेल साफ़ और सादा है-- लाॅजिकल और तगड़ा। कोई रहस्य या छुपी हुई कृत्रिम सोच नहीं। आप उसके विचार उसके मुँह पर पढ़ सकते हैं -- अगर वह आप को चकमा देने की कोशिश कर रहा हो या आपसे डर कर ड्रा करके भागना -- सब उसके चेहरे पर दिख जाता है। पर यह सब होते हुए भी, उसका चेहरा पारदर्शी है -- उसको ठीक-ठाक पढ़ पाना आसान नहीं है। हमेशा विचारों में खोया हुआ कापा। उसको जटिलता पसन्द नहीं है। उसको पहले से ही पता होना चाहिए कि वह कहाँ की ओर अग्रसर है। खेल किस ओर जा रहा है, किस ओर जाना चाहिए। उसकी आत्मा एक गणितज्ञ की है, कवि की नहीं -- उसकी स्पिरिट रोमन है, ग्रीक नहीं।’
कापा यह सुन कर मुस्कुराए, बोले, ‘शतरंज खेलते हुए क्योंकि हम बहुत पास-पास बैठते हैं इसलिए एक दूसरे का भाव पढ़ना बहुत आसान और महत्वपूर्ण हो जाता है -- दूसरे का मन पढ़ने की आदत पड़ जाती है। कभी-कभी तो अन्तर्यामी होने जैसी स्थिति आ जाती है, सामने बैठे चेस-मास्टर की खुशी, गम, गर्व और वासनाओं तक का पता चल जाता है।
‘कभी-कभी ऐसा तो नहीं लगता कि सब कुछ छोड़-छाड़ कर किसी मोनेस्टरी का मोंक बन जाऊँ? -- देसानी ने टोका।
कापा हँसे बोले कि ऐसी कोई बात नहीं है -- ‘मेरी याददाश्त बहुत कमज़ोर है। बचपन में जो एक बार पढ़ लिया, याद रहता था पर अब बिल्कुल उल्टा है। पहले तो तीन-तीन पन्ने इतिहास के पढ़ कर ज्यों के त्यों दोहरा देता था पर जैसे-जैसे बड़ा होता गया हूँ, कोशिश यही रहती है कि फ़ालतू की कोई भी चीज़ याद न रहे। बस जो चीज़ याद रखनी है वही रहे। इसका मैनें इतना अभ्यास किया कि मुझे भूलने की बीमारी सी हो गयी है। जैसे देखो मैं आपसे बातें करते हुए लगता है रास्ता भूल गया हूँ।’
‘आप फि़क्र न करें श्रीमान, मुझे याद है मैं भी तो वहीं जा रहा हूँ -- आपको ठीक समय पर पहुँचा दूँगा’। देसानी तुरन्त बोला, उसको डर था कि चिन्तित हो कर कापा कहीं यह दिलचस्प कहानी सुनाना न बन्द कर दें।
सामने हेस्टिंग्स की खाली सड़क पर खड़ीं इक्का-दुक्का कारें।
‘मैं तो अपनी खेली हुई बाज़ी को भी याद नहीं रखता! यह बताना महत्वपूर्ण है कि इस भूलने की बीमारी को मैंने बड़ी मुश्किल व मेहनत से अर्जित किया है, इसके नुकसान तो जो हैं सो हैं पर फ़ायदा यह है कि बाज़ी जीतूँ या हारूँ -- कुछ देर बाद मेरा दिमाग स्वतः सब-कुछ भुला देता है। रात को सुकून की नींद आ जाती है।’
तभी सामने जाती कार को रास्ते देने के लिए कापा रुके और देसानी की ओर मुहँ करके बड़े अभिमान से बोले -- ‘मुझे हर रात बिस्तर पर सुकून की नींद लेते देखा जा सकता है। देखिए एक शातिर की यादाश्त एक महान संगीतकार की यादाश्त जैसी होती है। जैसे कि एक महान संगीतकार पियानो पर बैठा और बस अवचेतन मन से बजाता गया बिना म्यूजिक-शीट की तरफ देखे, उसी तरह शातिर बिना बाजि़याँ रटे शतरंज की बिसात पर कई प्रकार की युक्तियों का निर्माण करता है। अगर संगीतकार कोई नोट भूल भी जाये तो उसको अगले या पिछले नोट का जो आभास होता है, उससे वह बजाना जारी रखता है। इसलिए मैं भी एक बार में एक ही चाल सोचता हूँ। संगीत और शतरंज में कुछ तो गहरा रिश्ता है, इस पर शोध्ा होना चाहिए, फिलिडोर का उदाहरण ले लीजिए -- आध्ाुनिक शतरंज सिद्धान्तों के जनक और एक महान संगीतकार।’ कापा अपने तर्क से बड़े खुश थे--चहक रहे थे।
देसानी द कंट्रेरियन ने आदत अनुसार फिर से टोका और अपना ज्ञान बघारने के लिए एक लम्बी सूची उगल दी -- लास्कर गणित के प्रोफेसर। पाॅल मफऱ्ी एक वकील। तराश एक डाॅक्टर। पिल्सबरी -- वकील। अलायेखीन -- वकील। जुकरटाॅरट -- डाॅक्टर। स्टाॅनटन शेक्सपीअर के स्काॅलर। बक्ली -- इतिहासकार।
कापा चुप से हो गये। देसानी को भी अचानक ग्लानि ने आ घेरा, बात बदलने की कोशिश की, ‘आज आप सुल्तान खान से खेलने जा रहे हैं, आपका इस हिन्दुस्तानी खिलाड़ी के बारे में क्या विचार है?’ कापा थोड़े रुके, सोचे, फिर अपना फेडोरा हैट उतार कर उसकी क्रीज को थोड़ा ठीक किया और बोले, ‘भारत एक गर्म देश है -- पहले के अनुभव हमें बताते हैं कि यहूदी और स्लाव लोग इस खेल में अव्वल रहे हैं’। ‘तो फिर इस भारतीय मुसलमान खिलाड़ी के बारे में आपका क्या विचार है?’ कापा थोड़ा सचेत स्वर में बोले, ‘वैसे मुझे नहीं लगता कि शतरंज के लिए जाति का कुछ ख़ास महत्व है। पर हमें एक बात तो समझनी होगी कि शतरंज क्योंकि एक घरु खेल है तो ठण्डे इलाके इसमें बेहतर है -- नहीं मेरा यह मतलब नहीं था कि कोई भारतीय मुसलमान या हिन्दू शतरंज नहीं खेल सकता -- आप कृपया इस को अन्यथा न लें और आप मेरे तर्क को पूरा सुनें’, कापा थोड़े याचना के स्वर में बोले, ‘बात दोहराता हूँ --क्योंकि शतरंज खेल एक ठण्डोर खेल है इसलिए ठण्डे इलाकों में ज़्यादा खेला जाता है। ऐसे इलाकों में जहाँ मौसम अच्छा होता है, वहाँ आप अन्दर नहीं बैठ सकते। आपका मन बाहर आकर मटरगश्ती करने को ललचाता है।’
‘और अंग्रेज़ खिलाड़ी?’
‘अंग्रेज़ खिलाड़ी आमतौर पर ध्ौर्यवान होते हैं --शतरंज खेलने के लिए बहुत बढि़या गुण हैं -- अजीब बात यह है यह लोग अपने स्कूल का ज़्यादातर समय बाहर खुले में बिताते हैं, और तो और सर्दियों में भी बाहर रहते हैं -- शिकार वगैरह जैसी घटिया गतिविध्ाियों में समय ख़राब करते हैं, इसलिए यह लोग शतरंज बचपन में नहीं सीख पाते हैं। बचपन में सीखी शतरंज की बात ही कुछ और होती है जनाब! इसलिए अंग्रेज़ों में अच्छे खिलाड़ी तो बहुत हैं एक भी ऐसा नहीं जो विश्व-पटल पर खड़ा हो सके।’
‘भारत की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है अब शायद सुल्तान खान कुछ अलग करके दिखाए। हमारे यहाँ बात कुछ पेचीदा है, तवक्को की जाती है कि अच्छे घरों के लड़के इन सब खेलों से दूर रहें -- इस्लाम में यह खेल हराम है और हिन्दुओं में पाप। हिन्दुओ में वैसे थोड़ी उलझन है क्योंकि पहले भारत में शतरंज पांसो के साथ खेली जाती थी -- हमारे कई प्राचीन ग्रन्थों में पांसो को बहुत बुरा माना गया है।’ कापा फिर से रुक गये और सोचने लगे ‘पाँसो के साथ शतरंज कैसी होती होगी? इसका दार्शनिक आध्ाार क्या है?’
‘इस का दार्शनिक आध्ाार हिन्दुओं की यह मान्यता है कि शतरंज जैसी गेम आॅफ द विल में भी भाग्य का दखल होना चाहिए।’
‘यानी चाँस’, कापा बोले ‘बहुत दिलचस्प बात है -- ‘फिर कैसे गायब हुए पांसे?’
‘कुछ ध्ार्म-शास्त्रों ने मना किया और ऊपर से पेशावर के आस-पास ग्रीक आ गये’
‘वैसे यह ग़लत ध्ाारणा है -- जैसे पहलवान शरीर की कसरत करते हैं ठीक वैसे ही यह दिमाग़ी कसरत के तौर पर ली जा सकती है --वैसे जनाब आज तारीख क्या है?’ कापा अचानक चिन्तित स्वर में बोले
‘दिसम्बर 31- 1930’ -- देसानी ने तारीख़ बतायी पर कापा बिना सुने ही तेज़ क़दमों से आगे बढ़ गये। देसानी अपने जगह ठगा सा खड़ा था। तभी कापा अचानक पीछे मुड़ कर चिल्लाये -- आज की बाज़ी के बाद ओल्ड रोअर गिल की सैर पर मिलना -- कुछ और बातें पूछनी हैं आपसे।’
1.21 सुल्ताना बुलबुल
और जैसा तय हुआ था कापा और देसानी एक बार फिर मिले। ओल्ड रोअर गिल एलेग्जेंडर पार्क के उपरी हिस्सों के साथ-साथ गुजरती थी। एक संकरी सी घाटी जिस के तल पर एक छोटी साफ़ नदी निरन्तर बहती रहती थी। अभी तक यह जगह आम जनता के लिए नहीं खोली गयी थी -- कापा को वहाँ सैर करने के लिए लिए ख़ास इजाज़त लेनी पड़ी थी। कापा सोचते हुए ध्ाीरे-ध्ाीरे चल रहे थे क्योंकि वह आज की बाज़ी हार चुके थे देसानी ने सोचा शतरंज की बजाय किसी और विषय से बात शुरू करनी चाहिए। गिल का रास्ता बहुत सुन्दर था। तभी कापा रुक गये और बड़े ध्यान से नीचे ध्यान देखने लगे। देसानी भी उत्सुकतावश पास आकर खड़ा हो गया -- बैंगनी रंग के पौध्ो के समीप एक घोंघा घिसटता हुआ चल रह था -- पीछे गीली ज़मीन पर एक रेखा-सी बन रही थी। ‘जीतोगे तो आप ही’, देसानी फुफुसाया। ‘नहीं!’ कापा बोले, ‘मेरी इस हार के बाद एवे के पास जीतने के ज़्यादा अवसर हैं। मेरा ग्यारह साल का रिकाॅर्ड टूट जाएगा -- पिछले ग्यारह सालों में मैंने बरतानिया में कोई भी प्रतियोगिता नहीं हारी है।’ कापा अपनी लाठी टिकाते हुए आगे बड़ गये। देसानी को दृश्य लुभावना लगा। गहरी कटी हुई घनी घाटी। एकदम शान्त। कभी-कभी किसी पक्षी की आवाज़ से सन्नाटा और गहरा जाता था। फर्न और हरी काई से भरे हुए रास्ते पूरे माहौल को बहुत ही सुन्दर और रहस्यमयी बना रहे थे। कापा अपने काले हैट और सूट में ध्ाीरे-ध्ाीरे लाठी टिकाकर चलते हुए उदास लग रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे इस संकरे हरे रास्ते के जरिए वह इस प्रकृति के साथ एक हो जाएँगे -- उसका हिस्सा बन जाएँगे। देसानी भागते हुए उनके पीछे आया और बोला, ‘जनाब यह जो पक्षी आप देख रहे हैं जिसे अंग्रेज़ फ्लाइकैचर कहते हैं -- हम हिन्दू लोग दूध्ाराज और मुसलमान सुल्ताना बुलबुल कहते हैं -- सुल्तान इसको सुल्ताना ही कहता होगा।’ कापा पहली बार खुल कर हँसे, ‘कमाल है शहर के बीचो-बीच इस गिल में आकर ऐसा लगता है जैसा कि आप किसी मध्ययुग में पहुँच गये हैं -- नाॅर्मन हरोलड और एँग्लो--सैक्सन विलियम की लड़ाई यहीं कहीं हुई होगी -- आपने बायु टेपेस्ट्री देखी है? अंग्रेज़ों ने उसकी एक नक़ल बनवायी थी।’
‘हाँ देखी है --हूबहू -- बस नग्न छवियों के गुप्तांगों को ढक दिया -- पर इतनी भयंकर लड़ाई में नग्न लोग क्या कर रहे थे साहब?’ देसानी ने पूछा।
‘मेरी आज की बाज़ी मुझे इसी लड़ाई जैसी लगती है मैंने अगर अपना घोड़ा इतनी जल्दी आगे नहीं बढ़ाया होता तो ...जब युद्ध के समय यह अफ़वाह फैली की विलियम मारा गया है तो विलियम ने अचानक मुड़कर हेलमेट खोलकर अपना चेहरा दिखाया था। ठीक वैसे ही मुझे इस प्रतियोगिता में अपनी वापसी करनी है और अलयेखिन को हेल्मट खोल के अपना मुहँ दिखाना है कि मैं अभी भी मैदान में डटा हुआ हूँ।’
‘आपके कहने पर मैंने पूरी कहानी पढ़ी है जनाब -- पर मेरे विचार से हैरल्ड मरा नहीं बल्कि ईसाई साध्ाु बन गया था। जब विलियम द हरामजादा के बारे में पढ़ रहा था तो पता नहीं क्यों मुझे रैम्जी मैकडाॅनल्ड्स की बार-बार याद आ रही थी। सुल्तान खान उन्हीं की वजह से यहाँ आ पाया है।’
‘उसकी वजह से? कैसे?’, कापा की उत्सुकता जागी।
‘रैम्जी ने गोलमेज़ कांफ्रेंस बुलायी है। इसके मालिक उमर हयात खान जाॅर्ज पंचम के ख़ास दोस्तों में से हैं -- इनको बरतानिया सरकार की तरफ से ख़ास न्योता गया था -- उनके गुप्त सलाहकार हैं। इसी कारण से यहाँ हैं आजकल। सुल्तान खान ग़रीब नौकर -- वह बेचारा यहाँ कहाँ खेलने आ पाता। जब नवाब साहब दफ़्तर जाते हैं तो यह थोड़ा-बहुत अभ्यास कर लेता होगा। हो सकता है कि जब यह गोलमेज़ ख़त्म हो जाए तो आप कभी इसका नाम न ही सुनो।’
‘ओह अच्छा? अजीब बात है -- सुल्तान तो जीनियस है -- बिना किसी सिद्धान्तिक ज्ञान के यह इतना अच्छा खेलता है। अगर दो-चार किताबें पढ़ लेता तो पता नहीं क्या कर कर देता -- विश्व-चैम्पियन भी बन सकता था।’
‘बन सकता था? क्यों महोदय? अभी फक़्त चैबीस साल का ही तो है। यानी आप से आध्ाी उम्र का। आप तो
तैंतीस की उम्र में विश्व चैम्पियन बने -- अभी भी सुल्तान के पास नौ-दस साल हैं। क्या पता!’ -- कापा ने स्वीकृति में सिर हिलाया, ‘पर आपने ही कहा कि हो सकता है कि उसके मालिक के जाने के बाद वह कभी खेले ही न -- ख़ैर जैसा मैंने पहले कहा मौसम पर भी निर्भर करता है -- पर मैं यह जानने को उत्सुक हूँ कि विलियम से तुम्हें रैम्जी की याद कैसे आ गयी?’
‘अरे आप नहीं जानते रैम्जी एक खेत पर काम करने वाले मजदूर की नाजायज औलाद है -- रैम्जी-द -हरामजादा -- विलियम-द-हरामजादा’, ऐसा कह कर देसानी हँसने लगा। पर कापा को हँसी नहीं आयी -- उनकी तनी हुई भृकुटियाँ देखकर देसानी भी चुप कर गया।
‘यह बायु टेपेस्ट्री किसने बनायी थी साहब,’ देसानी ने बात बदलने की चेष्टा की।
कापा अभी भी देसानी के प्रश्नों की अजीबो-ग़रीब छलाँगों के अभ्यस्त नहीं हुए थे, इसलिए कुछ सकपका कर बोले, ‘विलियम की पत्नी रानी मटिल्डा और उसकी दासियों का काम माना जाता है, यहाँ के लोग कहते हैं कि यहीं इंग्लैंड में ही किसी ने किया है। वैसे आजकल ब्रिटेन के लोग मानते हैं कि अच्छा ही हुआ नाॅर्मन लोगों ने हमें जीत लिया नहीं तो हम एक अलग-थलग द्वीप ही रहते और कभी भी यूरोप का हिस्सा न बनते।’
‘ यह तो बिलकुल वैसी बात हुई जैसा कि कहा जाता है कि जब विलियम ने हेस्टिंग्स के समन्दर किनारे पर पैर रखा था तो फिसल गया था तब अपने सैनिकों के सामने अपना मान रखने और झेंप मिटाने के लिए जो मिट्टी हाथ में आयी उसको लेकर बोला अब जीत मेरी है!’ देसानी ने अपनी मुट्ठी हवा में उठा दी थी।
‘नाॅर्मन हमले को अपना लिया -- बायु टेपेस्ट्री का श्रेय भी ले लिया -- यह अंग्रेज़ बड़े चालाक हैं साहब। भारत की कई उपलब्ध्ाियों का भी श्रेय ले रहे हैं।’
कापा ने शायद देसानी की बात नहीं सुनी और बोलना जारी रखा, ‘मैंने अपने बेटे को केवल एक बार ख़त लिखा था -- तब वह तीन साल का था -- पहले वाक्य में ही हिदायत दी थी कि यह ख़त सम्भल कर रखना और उसको इक्कीस की उम्र में फिर पढ़ना। पढ़ने की यह उम्र एक इंसान का सबसे अच्छा समय होता है और उसके साथ-साथ दो ज़रूरी हुनर-- तैराकी और मुक्केबाज़ी, दोनों आने चाहिए, ताकि तुम अपने-आप की हिफ़ाजत कर सको -- पानी में और ज़मीन पर। इसी तरह मुझे भी अपनी ही सलाह पर अमल करते हुए सुल्तान खान से भारतीय पद्धति की शतरंज सीखनी चाहिए। सुल्तान खान का किलेबन्दी न करना और उसकी मिडल-गेम व अन्त पर जो पकड़ है, उसने मुझे बहुत प्रभावित किया है। इस प्रकार की शतरंज अलग सोच वाली परंपरा से ही उपज सकती है’, ऐसा कहकर कापा ने बातचीत बन्द करने का संकेत दे दिया। बाद में उन्होंने सुल्तान खान से मुलाकात की और अपने शतरंज के प्राइमर में उसका एक छोटा-सा ब्योरा भी लिखा। उनका विवरण रुबेन फाइन द्वारा लिखे 1935 के फोल्क्स्टोन ओलिंपियाड के ब्योरे से थोड़ा अलग था। ‘आप जानना चाहेंगे कि सुल्तान खान ने आपको कैसे और क्यों हराया?’ देसानी के ऐसा पूछते ही कापा का मुँह लाल हो गया। यह लाली गुस्से की ना होकर हाइपरटेंशन की थी जो उनको ठीक बारह साल बाद मार देने वाली थी। फिर भी उन्होंने सयंत भाव से जवाब दिया, ‘कहिए, पर ज़रा जल्दी मुझे कहीं पहुँचना है।’ देसानी को विश्वास था कि उसने एक बार बात कहना शुरू की तो वह पूरी सुन कर ही मानेंगे। उसने गला साफ़ किया और बड़े रहस्यमयी ढंग से बोला, ‘पद्मव्यूह! जनाब पद्मव्यूह! बड़ी दिलचस्प बात है कि पुत्तूर नारायण भट्ट नामक एक मालाबरी ने एक संक्षिप्त पर बड़ा महत्वपूर्ण ग्रन्थ चतुरंग पर लिख डाला था -- चतुरंगअष्टका। जैसा कि नाम से ही ज्ञात है -- चतुरंगअष्टका यानी आठ शब्दों से बना हुआ। इसके दो छन्द ही ढूँढ़ पाया हूँ। भारत में यह खेल राजा और ब्राह्मणों को पसन्द था। इन छन्दों और मोहरों की चालों को समझना कम से कम मेरे लिए तो बड़ा मुश्किल काम है। छन्द जो इस्तेमाल हुए वह इस प्रकार से हैं, मसलन घोड़े की चतुर चैथी चाल तब प्यादे का आगमन और इस छद्मयुद्ध का रूप एक कमल जैसा। जिसे कहा जाता है सूचीरोजा, यानी सुई और कमल जैसा। तरह-तरह के राजाओं और मन्त्रियों से सजा हुआ। राजा आगे बढ़ता है अपने मन्त्री के साथ। वर्ग के आकार में खड़े होते हैं प्यादे। इनको पीछे से सहारा देते हाथी। उसकी रक्षा करते सैनिक, अन्ततः रथ की मदद के साथ जीती जाती है बाज़ी। यह सब संस्कृत में था जनाब, मैंने आपके लिए अनुवाद किया है। राजा अपने मन्त्री के साथ मिलकर यह कह कर शत्रु को छलावा देता है कि उसके पास तो केवल एक प्यादा है लेकिन पास में रखकर घोड़ा और हाथी, केवल एक प्यादे की चाल से जीत लेता है बाज़ी। शत्रु को छल से जीता जाता है जनाब!’ कापा ने थोड़ा सोच कर बोला, ‘आज की बाज़ी तो सुल्तान ने बहुत साफ़-सुथरी तरीके से जीती थी, तुम्हें क्या लगता है सुल्तान ने छल किया होगा? और वैसे इसमें बुरा भी क्या, एकदम जायज़ ही तो है शतरंजी छल। पर क्या उसने यह सब पढ़ रखा होगा?
‘कभी-कभी हिन्दुस्तान में शास्त्रीय विद्या लोक-कथाओं, मुहावरों और कहावतों इत्यादि में घुसकर आम लोगों तक पहुँच जाती है। अब इस सब का ज्ञान उसको हो ही, कह नहीं सकते, नियम भी तो बदले हैं। नवाब ने दो हिन्दुस्तानी खिलाडि़यों को उसके अभ्यास के लिए नियुक्त किया था। हो सकता है उन्होंने बताया हो?’
‘पर सुल्तान खान तो अनपढ़ हैं?’
‘इसका भी पक्का पता नहीं, हो सकता है अंग्रेज़ी न जनता हो। पर अपनी भाषा में ख़ूब पढ़ा-लिखा हो। आप जब उनसे मिलेंगे तो पता कीजिए, सच क्या है। वैसे आजकल अलयेखिन भी कलकत्ता में है।’
‘कलकत्ता में उसको क्या काम हो सकता है? कहीं कुछ गुप्त भारतीय पद्धतियाँ सीखने तो नहीं गया है?’
‘साहब एक बात बताएँ, 1927 से पहले आप उस से एक भी बाज़ी नहीं हारे थे फिर उसने आप को विश्व चैम्पियनशिप मैच में कैसे हरा दिया?’
‘उसने मुझ नहीं हराया, मैंने अपने आपको हराया था। न मैंने कोई मानसिक तैयारी की थी और न ही शारीरिक।’
‘अति-आत्मविश्वास! ग्यारहवीं बाज़ी ने आपको निराश कर दिया था। मैं जानता हूँ आपको हारने की आदत नहीं। हारने से अवसाद आ घेरता है। क्वींस-गैम्बिट-डेक्लाइन्ड छोड़कर कुछ और खेला होता तो शायद बात बन जाती।’
‘सुल्तान खान से यही सीखना है बिल्कुल अलग तरह का खेल। ऊपर से अलायेखिन अपनी बाजि़याँ भी तो सुध्ाारता है।’
‘सुध्ाारता है? मतलब?’
‘उनको और कठिन और दिलचस्प बना कर प्रकाशित कर देता है। हाल में ही उसने कहा कि मैंने फ्लाँ खिलाड़ी को मात्र पन्द्रह चालों में हरा दिया है और वह उसकी बेहतरीन बाजि़यों में से एक है। बाद में उसने वह बाज़ी शतरंज की एक प्रमुख पत्रिका में प्रकशित भी कर दी। बाज़ी वास्तव में बेहतरीन थी। पत्रिका ने उस बाज़ी के साथ उन दोनों का शतरंज खेलते हुए एक फ़ोटो भी प्रकाशित किया था। जब मैंने उस फ़ोटो को ध्यान से देखा तो उसमें स्पष्ट दिख रहा था कि वह दोनों पन्द्रह से कहीं ज़्यादा चालें चल चुके हैं। खैर इससे क्या फ़र्क पड़ता है उसने मुझे तो हरा ही दिया और आज का विश्व-चैम्पियन भी है।
‘नवाब चाहता है कि सुल्तान अलयेखिन को हराये इसलिए उन्होंने उसे डिनर पर बुलाया है।’
‘ओह! कहीं उसी दिन मैं भी न पहुँच जाऊँ इस बात का ध्यान रखना होगा।’
ऐसा कह कर कापा गिल के कोहरे में खो गये।
नोटः इस मुलाकात के बाद देसानी कभी भी कापा से नहीं मिला। उसने यह साक्षात्कार कहीं छपवाया भी नहीं। ठीक बारह साल बाद कापा की मृत्यु ब्रेन-हेमरेज से हुई। ब्रेन-हेमरेज का कारण उनके रक्तचाप का अचानक बढ़ जाना था। और रक्तचाप बढ़ने का कारण कापा की पहली पत्नी और बेटे के मुकदमे थे। यह वही बेटा था जिसकी तीसरी वर्षगाँठ पर कापा ने पत्र लिखा था और उसे इक्कीस वर्ष की आयु में उस पत्र को फिर से पढ़ने की हिदायत दी थी। मृत्यु के समय उनके बेटे की उम्र इक्कीस वर्ष थी।
अलयेखिन ने कापा के मृत्यु के बाद लिखा कि सन 1925 में जब वह उनको हरा कर विश्व-विजेता बना था तब उसको अपने जीतने की उम्मीद कतई न थी। कापा उस वक़्त तक उससे कहीं बेहतर खिलाड़ी थे। उसने कापा की हार का कारण उनका अति-आत्मविश्वास बताया था। इस बयान के बाद अलयेखिन भी ज़्यादा समय जीवित नहीं रहे। उसकी मृत्यु कापा के जाने के चार साल बाद रहस्यमयी परिस्थितियों में हुई। नाजि़यों का समर्थन करने के आरोप में उस को प्रतियोगिताओं के आमन्त्रण मिलने बन्द हो गये थे। सोवियत सितारे बोतनिविक (कहा जाता है कि खुशीलाल की डायरी का सबसे ज़्यादा फायदा उसी को हुआ था। वह जल्द ही विश्व-विजेता बनने वाला था) से होने वाली विश्व चैम्पियनशिप की तैयारी करते हुए उसकी मृत्यु एक छोटे से होटल में हुई। उसकी मृत्यु का एक अजीब-सा फोटो लिया गया था। आराम कुर्सी पर पड़े हैं। सामने टेबल पर बर्तनों का ढेर। गर्दन अपनी दायीं ओर लटकी हुई। पास में रखी किताबों की अल्मारी में इक्का-दुक्का किताबें। सामने की टेबल पर शतरंज की बिसात बिछी हुई -- उस पर एक भी चाल नहीं चली गयी है। यह फोटो देखकर ही देसानी ने निष्कर्ष निकाला कि या तो इनकी हत्या फ्ऱेंच डेथ-स्क्वाॅड ने की है या सोवियत कम्युनिस्टों ने। 1946 यानि जिस साल इनकी मृत्यु हुई, उसी साल अलयेखिन को एक टूर्नामेंट खेलने के लिए लन्दन बुलाया गया था। रूबिन फाइन और अन्य खिलाडि़यों द्वारा विरोध्ा करने पर वह आमन्त्रण वापस ले लिया गया। रूबिन फाइन वही ग्रैंड मास्टर था जो सुल्तान खान को 1933 के फोल्कस्टोन ओलिंपियाड के बाद डिनर पर मिला था। अलयेखिन अपने आखिरी दिनों में बेहद ग़रीब और बीमार था। उससे कोई बात नहीं करना चाहता था। वह अपने कमरे में ऐसे छटपटाता था जैसे कि पिंजरे में एक शेर। मौत से कुछ दिनों पहले तक उसे निरन्तर यह लगता रहा कि कोई उसका पीछा कर रहा है। यही बात बताने के लिए उसने अपने एक दोस्त को फ़ोन किया था और उसका आखिरी वाक्य था कि मेरे पास सिगरेट पीने तक के पैसे नहीं हैं।
देसानी के नोट यहीं खत्म हो जाते हैं। कितनी अजीब बात है, कुछ ही दिनों में यह तीनों, यानी कापा, अलाईखीन और रूबिन फाइन -- सुल्तान खान से बारी-बारी मिलने वाले थे।
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कापा अपने सूट सेविल्ल-रो से सिलवाते थे। आज उन्हें अपने नये सूट को लेने वहीं जाना था। उन्होंने अपने दराज से लन्दन का मानचित्र निकाला और ग़ौर किया कि रीजेंट पार्क से सेविल्ल-रो कोई एक मील की दूरी पर था और रीजेंट पार्क के पास ही थी ऐल्बर्ट स्ट्रीट जहाँ सुल्तान खान अपने मालिक उमर हयात खान के साथ रहता था। चूँकि कापा चलना पसन्द करते थे, उन्होंने निर्णय लिया कि सेविल्ल-रो के दर्जी की दुकान से पहले रीजेंट पार्क जाएँगे और फिर वहाँ कुछ देर टहल कर सुल्तान खान के घर पे। सिविल-रो से पार्क तक पहुँचने में कापा को कुल पच्चीस मिनट लगने चाहिए थे और रीजेंट पार्क में घूम कर ऐल्बर्ट स्ट्रीट पहुँचने में पन्द्रह--यानी कुल चालीस मिनट की सैर। जबकि रीजेंट पार्क से उमर हयात खान की रिहायश केवल पन्द्रह सौ कदम की दूरी पर थी फिर भी कापा को पार्क से वहाँ पहुँचने में एक घण्टे से ज़्यादा का समय लग गया था। वह मिलने के समय से बहुत पहले ही पार्क पहुँच गये थे। काफ़ी देर इध्ार-उध्ार टहलते रहे थे। वर्तमान आर्थिक स्थिति, पत्नी, प्रेमिका, शतरंज की नयी पद्धतियाँ, घूम-घूम कर इन सब पर गहन विचार किया। कापा की ताकत -- उनका एकमात्र नशा -- उनका अकेलापन था, इसलिए उन्होंने सोचा कि नवाब के घर जाने से पहले अगर पार्क में थोड़ा अकेले टहल लें तो मन के अन्दर इतना अकेलापन इकट्ठा हो जाएगा कि एक-आध्ा घण्टा किसी के साथ बिता सकेंगे। इस एक-डेढ़ घण्टे में बहुत कुछ बदल गया। उस एक घण्टे की सैर के दौरान उन्हें आने वाले समय का पूर्वाभास-सा हुआ। उनकी शादी टूटने वाली थी। उनकी पत्नी क्यूबा के एक बड़े खानदान से आती थी। शादी के बाद गुस्से में उसके परिवार ने कापा की डिमोशन करवा देनी थी। कापा की दूसरी शादी ओल्गा से होने वाली थी। ओल्गा अपने आप को एक राजकुमारी बतलाती थी जबकि कोई नहीं जनता था कि वह वास्तव में थी कि नहीं। कापा कहीं जाना पसन्द नहीं करते थे और न ही किसी से मिलना। अगर किसी पार्टी में जाते भी तो कोई पुराना जनरल पकड़कर उससे किसी बीती जंग की रणनीति पर चर्चा करते। सुल्तान खान से मिलने के दो कारण थेः एक तो भारतीय पद्धति की शतरंज सीखना और उमर खान के साथ जंगी परामर्श करना। ओल्गा से उन्होंने शादी इसलिए की थी क्योंकि वह उनके अकेलेपन में बाध्ाा नहीं डालती थी।
कापा दजऱ्ी की दुकान से अपना नया सूट पहनकर निकले थे। जेब में हाथ डाला तो शतरंज का एक मोहरा मिला। दुकान के बाहर निकलते ही ठिठके, यह क्या? क्या यह एक दर्जी का तरीका था, उनका सम्मान करने का या ऐसे ही कोई संयोग? कापा कुछ देर सोचते रहे, फिर मुस्कुरा कर उन्होंने मोहरा वापिस जेब में डाल लिया। कापा के घर पर कभी भी शतरंज का बोर्ड नहीं होता था जब भी कोई उपहार में मिलता, बच्चे ले जाते या मकान बदलते वक़्त गुम हो जाता। कापा ने मोहरा जेब से वापिस निकाल अपनी मुट्ठी में लिया और आगे बढ़ गये। ओल्गा ने बाद में ‘लास्ट लेक्चरस आॅफ कापा’ किताब की प्रस्तावना में इसका जि़क्र किया और कापा ने सुल्तान खान से साथ होने आगे होने वाली मुलाकात का। कापा तीस साल उसी दुकान से सूट सिलवाते रहे थे। उनके पास ज़्यादा चीज़ें नहीं थी पर जो भी थीं, वे महंगी और अच्छी क्वालिटी की। वे अपना हैट तक नहीं बदलते थे जब तक वह घिस कर फट न जाए।
1.22 ओल्गा का एरिका टाइपराइटर
कापा सोफ़े पर बैठे आज ही खरीदे हुए सस्ते शतरंज के बोर्ड पर नजर गड़ाये बैठे हैं। उनकी उँगलियाँ बड़ी नज़ाकत से लकड़ी के मोहरों को इध्ार से उध्ार कर रही हैं। वह रेडियो पर होने वाले अपने लेक्चर के लिए कुछ शतरंज के नक्शे यानी चेस-पजल्स बना रहे थे। ओल्गा कापा की सोच का हिस्सा बनना चाहती थी। कापा ने उसको खुश करने के लिए बोले -- ‘लेक्चर तो हम दोनों ही लिखते हैं’-- वह इससे आश्वस्त नहीं हुई। कापा को पीले रंग के नोट पैड पर लिखते देख कर तुरन्त उसके पास गयी और बोली कि क्यों नहीं तुम मुझे डिक्टेट करवाते और मैं सीध्ाा टाइप करती जाती -- तुम्हारे लिए कितना आसान होगा। ‘पर मेरी प्यारी चेरी, तुम्हें तो शतरंज का कुछ भी नहीं पता -- स्पेनिश भाषा भी नहीं जानती।’ ओल्गा ने बिना इन्तज़ार किये आनन-फानन में अपना टाइपराइटर सेट कर दिया और तुरत-फुरत में पूरा आर्टिकल टाइप कर दिया। इसी किताब में सुल्तान खान के साथ आज होने वाली मुलाकात का जि़क्र आने वाला था। ओल्गा एरिका टाइपराइटर पर कापा की चालें चलती थी।
ओल्गा के एरिका टाइपराइटर पर देसानी के छात्र का एक बेतुका पर दिलचस्प नोटः
अर्नस्ट जूंगर की किताब और पहले विश्व-युद्ध में सिर से ऊपर निकलती गोलियाँ। ऐसा लगे कि हर बार टाइप करने पर गोलियाँ चल रही है। ट्रेंच में पहला विश्वयुद्ध। बहुत ही ध्ाीमी मौत जो आँकड़ों में बहुत तेज़ व भयानक दिखायी देंगी। ट्रेंच में ठण्ड और बारिश से सिकुड़ा हुआ छप-छप की आवाज़ करता हुआ एक सैनिक। मुहँ में गीला सिगरेट। यह सब याद आता है। जब मैं अपने एरिका टाइपराइटर को देखता हूँ, पर यह वह टाइपराइटर नहीं जिस पर अर्नस्ट जूंगर काम करता होगा। याद रखिए! यह बाद का है। ढूँढ़ने पर भी इसका रेजिस्ट्रेशन नम्बर नहीं मिला। एरिका टाइपराइटर ब्रेख़्त और आइरिस मर्डाक का चहेता। एरिका-दस और एरिका-बीस सुन्दर हैं। मेरे पास तो शायद 1961 का है। प्लास्टिक का -- इतना सुन्दर नहीं। फाॅंट सुन्दर है। एक्शन ठीक पर अहसास हल्का है। मैंने इसको फिर भी ले लिया - क्यों ले लिया याद नहीं। मेरे सामने 2010 के उग्र-दर्शन का वह अंक खुला हुआ है जिसमें ब्रेख़्त अपने मुँह में सिगार लगाये सामने पड़ी बिसात पर ध्यान लगाए हुए हैं। सामने बैठे हैं वाॅल्टर बेंजामिन -- इतना मग्न हो चुके है कि उनका चेहरा शतरंज की ओर न होकर हमारी ओर है। वह देखते हुए भी नहीं देख रहे हैं क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि उनका ध्यान शतरंज में ही है।

1934 की गरमियों की बात है वाॅल्टर बेंजामिन ब्रेख़्त से मिलने डेनमार्क आये थे। वहाँ उन्होंने एक शतरंज की बाज़ी खेली जिसके तीन चित्र मिले हैं। अगर उन्हें ध्यान से देखा जाए तो पता चलता है कि बेंजामिन काले मोहरों से खेलते हुए फ्ऱेंच डिफेन्स खेल रहे हैं। इसका मतलब यह हुआ कि ब्रेख़्त ने पहली चाल म4 चली है और बेंजामिन ने म6 -- इस बाज़ी को पुनर्जीवित किया जा सकता है,
1 म2दृम4 म7दृम6 2 क2दृक4 क7दृक5 3 म4दृम5 ब7दृब5 4 2िदृ4ि ब5दृब4 5 ह2दृह3 ठ8िदृइ4 बीमबा 6 छइ1दृक2 ठइ4×क2 7 ठब1×क2 7िदृ6ि 8 म5×6ि फक8×6ि

थोड़े देर बाद का एक ओर चित्रः

बाज़ी थोड़ी आगे बढ़ चुकी है। इस चित्र में मोहरों की स्थिति कुछ इस प्रकार से हैः

ब्रेख़्त सफे़द व बेंजामिन काले मोहरों से खेल रहे हैं। अब हम नहीं जानते कि इस वक़्त किसकी चाल है, सफ़ेद की या काले की -- जब मैंने यह स्थिति स्टोकफिश नामक अत्याध्ाुनिक चेस एंजिन में डाली तो उसने कुछ ऐसा दिखाया-- यानी अगर ब्रेख़्त की चाल है तो वह बेंजामिन से बेहतर हैं। जबकि उनका राजा पूरी तरह से इक्स्पोज्ड है। (शायद उनका अड्वैंटिज ज़्यादा देर रहेगा नहीं।)
़घ् (़0.75) 23 1.फी5़ (8ध्32) 1256 ादध्े
1.छ3ि छक6 2.फम2 ठक7 3.ठह2 फ5ि 4.छह5 ज्ञम7 5.ी5 ी6 6.छ3ि त्ीब8 7.छी4 फक3 8.फÛक3 बÛक3 9.त्क1 ज्ञ7ि 10.ह4 छम7 11.छ3ि छब6 12.त्Ûक3 छम4
़घ् (़0.75) 0रू12 22ध्34 ज्ठरू0
और अगर काले की यानी बेंजामिन की चाल है तो ब्रेख़्त और भी कम बेहतर हैं। पर राजा इतना खुला छोड़ा हुआ है। अन्त में क्या हुआ होगा। कोई नहीं जानता रू
़घ् (़0.30) 27 1...व्-व् (1ध्43) 1075 ादध्े
1...व्-व् 2.ठह2 इ5 3.छ3ि ठक7 4.छम5 फम7 5.ं3 ं5 6.ी5 छÛम5 7.कÛम5 ठब6 8.ह4 छी6 9.फ3ि छ7ि 10.फी3 इ4 11.ंÛइ4 ंÛइ4 12.व्-व् छी6 13.ठम3 छ7ि 14.ठ3ि इ3 15.ह5
़घ् (़0.30) 1रू43 26ध्36 ज्ठरू0
फ्ऱेंच डिफेन्स का अविष्कार 1834 में दो शहरों--पेरिस व लन्दन के मध्य खेली गयी बाज़ी में हुआ था। यह बाज़ी चिट्ठी द्वारा खेली गयी थी। निमजोविच ने 1910 - 1920 में इसका विकास किया। 1936 में ब्रेख़्त बेंजामिन को एक ख़त में लिखते हैं- हमारा चेस बोर्ड अनाथ बैठा है और हर आध्ो घण्टे में एक याद, एक कँपकपी सी कौंध्ा जाती है- जैसे कि तुमने अपनी चाल चली हो।
ब्रेख़्त को बेंजामिन की मृत्यु की बारे में बहुत बाद में पता चला- 1941 के उत्तराधर््ा में, तब वह बेंजामिन के लिए एक कविता लिखते हैं ः
ज्ंबजपबे व िंजजतपजपवद ंतम ूींज लवन मदरवलमक
।ज जीम बीमेेइवंतक ेमंजमक पद जीम चमंत जतममश्े ेींकम.
ज्ीम म्दमउल जीमद कतवअम लवन तिवउ लवनत इववोय ज्ीम सपामे व िने? ळतवनदक कवूद, वनजचसंलमक.
;ज्व ॅंसजमत ठमदरंउपद ॅीव ज्ञपससमक भ्पउेमस िॅीपसम थ्सममपदह भ्पजसमतद्ध
अजीब है- दो जर्मन दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान फ्ऱेंच डिफेन्स खेलते हैं। शतरंज को खेलने वाले जानते हैं कि म4.म6 से शुरू हुई बाज़ी ऐसी बनती हैं जैसे कि ट्रेंच में लड़ा हुआ युद्ध, पहला विश्व-युद्ध, अर्नस्ट जूंगर के सर से ऊपर निकलती और फिर छाती में घुसती फ्ऱेंच गोलियाँ। और बाद में इसका विवरण उनके एरिका टाइपराइटर पर टाइप होता हुआ, ऐसी ध्वनि- कि हर बार टाइप करने पर ऐसा लगे कि गोलियाँ चल रही है -- गोलियाँ छप रही हैं। अन्ततः एरिका एक ऐसे देश का टाइपराइटर बना जिसके बीचों-बीच एक दीवार थी।
1.23 दस एल्बर्ट स्ट्रीट
रीजेंट पार्क चार सौ एकड़ में फैला हुआ था। गोलाकार -- उत्तर से दक्षिण की ओर ब्राॅड-वाॅक इसको बीच में से काटती हुई। एक बार तो जान नैश ने इसका सत्यानाश लगभग कर ही दिया था। सामने जमी हुई झील पर फिसलते हुए उनको पन्द्रह जनवरी को हुए हादसे की याद आ गयी। क्वीन मेरी का बगीचा अभी-अभी साध्ाारण नागरिकों के लिए खोला गया था। कापा शाही बगीचे के बीचों-बीच जाकर खड़े हो गये। कुछ शराबी मोटे जूते पहन कर उस पर फिसल रहे थे। उनको चैंसठ साल पहले हुए एक हादसे की याद आ गयी जब क़रीब दो सौ लोग जमी हुई बर्फ की परत के अचानक टूट जाने से इसमें गिर गये थे। इतनी सर्दी में ठण्डा बर्फीला पानी। कापा की कँपकपी छूट गयी। लगभग चार साल पहले उन्हें बिलकुल ऐसी ही कँपकपी छूटी थी जब अलयेखिन ने उनसे विश्व-विजेता का खि़ताब जीत लिया था। कापा को डर था कि कहीं सुल्तान खान के घर पर उससे मुलाक़ात न हो जाए।
कापा रीजेंट पार्क से होते हुए दस एल्बर्ट स्ट्रीट वाले पते पर पहुँच गये। हयात खान एक किराये के मकान में रह रहे थे। जब कापा गेट पर पहुँचे तो नवाब साहब बाहर छोटे से लाॅन में बैठे हुए थे। उन्होंने कापा को देखा तो हैरान हुए -- पैदल ही आ गये? कापा भी हैरान हुए -- इतनी ठण्ड में बाहर क्यों बैठे हैं ? हिन्दुस्तान एक गरम देश है। इनको तो हमसे भी ज़्यादा ठण्ड लगती होगी। अन्दर किचन में सुल्तान खान जल्दी-जल्दी सन्तरे छील रहा था। बात यूँ थी कि जब भी ध्ाूप निकलती थी तो नवाब साहब अपने सारे काम छोड़ कर अपने छोटे से लाॅन में बैठ कर संतरे खाते थे। उनके साथ दो और लोग बैठे हुए थे। उनके अर्दली गुलाम क़ासिम और एक शर्मिला सा नौजवान जो हाल में ही हिन्दुस्तान से आया था। नवाब साहब आराम से बैठ कर सन्तरों का इन्तज़ार कर रहे थे और यह दोनों ठण्ड में बुरी तरह ठिठुर रहे थे। कापा को देख कर गुलाम क़ासिम तुरन्त गेट की ओर लपका। शर्मिला नौजवान केम्ब्रिज में दाखि़ला चाहता था। नवाब साहब उसके लिए सिफ़ारिश-पत्र लिखने का सोच रहे थे। गुलाम क़ासिम ने गेट खोला। कापा मुस्कुराते हुए अन्दर आये। नवाब साहब ने आगे बढ़ कर उनका इस्तेक्बाल किया। नवाब साहब का किराये का घर लाला ईंटो का बन हुआ था। अन्दर के कमरे गहरे रंग के थे। नक़्क़ाशीदार गलीचे, मोटे परदे -- सर्दी से बचने का सारा इन्तजाम था। दीवारों पर तैल -चित्र। घर सुन्दर था और अच्छी जगह पर था। नवाब साहब इसको ख़रीदना चाहते थे पर बेटा मान नहीं रहा था। पिता की फिजूलखर्चियों से परेशान होकर उसने अपनी माँ के साथ घर छोड़ दिया था। उसको पिता का सुल्तान खान और फ़ातिमा पर इतना पैसा बर्बाद करना कभी अच्छा नहीं लगा था। (बाप-बेटे की बीच एक भयंकर झगड़ा होने वाला था)। कापा को लेकर नवाब साहब अन्दर आ गये थे। सुल्तान खान के हाथ में छीले हुए सन्तरे और मुहँ पर मीठी मुस्कान। हवा में सन्तरे की भीनी गंध्ा। उध्ार उस नौजवान और गुलाम क़ासिम की जान में जान आयी। वे भी तुरन्त अन्दर आ गये। अक्सर बाहर ठण्ड में ठिठुरते हुए बैठना पड़ता था। नवाब साहब का घर कुछ इस तरह का था कि लाॅन में ध्ाूप वर्गाकार रूप में केवल एक ख़ास हिस्से पर पड़ती थी। नवाब साहब एक ध्ाूप के टुकड़े को पकड़ लेते और वहाँ कुर्सी लगा मज़े से सन्तरे खाते। सामने छाँव में शर्मिला नौजवान और गुलाम ठिठुरते रहते। बाद में इन दोनों ने इस ठिठुरने का बदला अपने-अपने तरीक़े से लिया। शर्मिला नौजवान नवाब साहिब की सिफ़ारिश से केम्ब्रिज पहुँच गया और वहीं पढ़ते हुए ही उनके मन में हिन्दुस्तान से अलग और उससे भी पवित्र एक देश बनाने का विचार आया था। जब बाद में वह देश वाक़ई में अस्तित्व में आ गया तो उसके बनने के तुरन्त बाद ही नवाब साहिब की सारी जायदाद ज़ब्त कर ली गयी क्योंकि उनकी यूनियनिस्ट पार्टी एक तो ध्ार्म-निरपेक्ष थी और ऊपर से बरतनिया सरकार की हिमायती। गुलाम क़ासिम ने अपना बदला नवाब साहब के पैसों का गबन करके किया था। जब नवाब साहब के बेटे के हिन्दू मुंशी ने इस गबन को पकड़ लिया तो नवाब साहब ने अपने बेटे से गुलाम कासिम को बक्श देने की गुहार लगायी थी। उन्होंने बड़ी मुश्किल से किसी समय वफ़ादार रहे नौकर का बचाव किया। यह बात बहुत कम लोगों को पता थी कि पहले विश्व युद्ध में इसी गुलाम क़ासिम ने नवाब साहब की जान बचायी थी। नवाब साहिब भी जानते थे कि अगर वह उसे बाहर ठण्ड में नहीं बैठाते तो शायद गुलाम यह हरकत नहीं करता। उसके बेटे ने अपने पिता की बात तो रखी पर इसके बदले में उनको यह लन्दन वाला घर ख़रीदने का विचार त्याग देना पड़ा। सुल्तान खान और फ़ातिमा की शतरंज का कैरीअर भी इसी कारण से ख़त्म हुआ। फ़ातिमा दूसरे कमरे में वेरा मानचिक के साथ बैठी अभ्यास कर रही थी। सुल्तान किचन के बीचों-बीच खड़ा मुस्कुरा रहा था। ड्राॅइंग-रूम की एक टेबिल पर शतरंज की बिसात बिछा दी गयी। बिसात सचमुच बिछा ही दी गयी थी क्योंकि वह लकड़ी की न हो कर कपड़े की थी। समुद्री जहाज से सफ़र करते समय सुविध्ाा रहती है। नवाब साहब मुस्करा कर बोले। कापा और सुल्तान आमने सामने बैठ गये। नवाब साहब, रहमत अली और गुलाम मोहम्मद, फ़ातिमा और वेरा भी उनका खेल देखने आ गये। पर कापा की दिलचस्पी सुल्तान खान के साथ बाज़ी खेलने में नहीं थी। वह बात की तह तक पहुँचना चाहते थे और भारतीय पद्धति की शतरंज पर मशविरा करना चाहते थे। जब उन्होंने किसी तरह यह बात सुल्तान खान के सामने रखी तो सुल्तान खान को तो अच्छा लगा पर बाक़ी सब मायूस हो गये और अपने-अपने काम पर चले गये। इस तरह वह एक बहुत ही उम्दा चेस के पाठ से वंचित रह गये। पहले तो उसने शतरंज का मतलब समझाया -- चतरंग से शतरंज से चेस तक का सफ़र -- बिसात पर बिछी बाज़ी। बिसात का मतलब गलीचा। गलीचा बिछता है साहब -- यह लकड़ी का बोर्ड नहीं। फिर कई नाम रुक्का, सुफ्रा, नट , राजा, शाह, पादशाह, मन्त्री, फरज, वज़ीर, फरजींन, फिला, हाथी, अस्प, घोड़ा, प्यादा, मन्त्री, इत्यादि। वज़ीर जिसे आप क्वीन कहते हैं -- वह हमेशा राजा के बायीं और खड़ा रहेगा -- जैसा कि वह राजा के दरबार में खड़ा रहता था। यह सब उसी हिसाब से होता है। शाह की पहली चाल घोड़े जैसी भी हो सकती है -- इसी से किलेबन्दी की जाती है। वज़ीर दुश्मन के राजा का सामना करता है। अंग्रेज़ी में इस पद्धति को क्राॅसवायर कहा जाता है। तभी सुल्तान खान को अपने दरबार की याद गयी -- नवाब घोड़े की तरह उछलता हुआ -- गुलाम क़ासिम बायीं ओर खड़ा - उसको हँसी आ गयी। उसकी हँसी ऊँची और पतली थी। ‘हमारे यहाँ सफ़ेद-काले खानों का रिवाज न था। कई नियम इसी कारण से बने। कई बार तो हम ज़मीन पर बिसात बना कर पत्थरों से खेल लेते थे। प्यादे का पहला क़दम -- केवल एक। कई बार एक समय पर चार प्यादे एक साथ। अच्छा एक बात --राजा जब घोड़े की तरह उछले तो कोई मोहरा नहीं पीट सकता। अगर प्यादा आठवें घर पहुँच जाए तो बस वही बनेगा जिस जगह का वो प्यादा है -- यानी घोड़े के सामने वाला प्यादा आठवें घर पहुँच कर केवल घोड़ा ही बन सकता है -- आपके यहाँ तो आज़ादी है -- मनचाहा बनने की। हमारे यहाँ वज़ीर के आगे वाला प्यादा ही वज़ीर बन सकता है। नौकर का बच्चा नौकर -- राजा का बच्चा राजा। कभी दो वज़ीर नहीं हो सकते। अगर मोहरा जिन्दा है तो उसको मरवा कर ही अगले घर जा कर जिन्दा हो सकता है। तब तक उसको सातवें घर पर खड़े हो कर इन्तज़ार करना होगा। इन्तज़ार करते समय उसको कभी भी मारा भी जा सकता है। हमने भी अपनी शतरंज को तीन हिस्सों में बाँटा है -- अवैल-अद-दुरुस्त -- अवसात अद-दुरुस्त और आखि़र-अद-दुरुस्त। आध्ाी जीती बाज़ी को बुर्द और ड्राॅ को बाज़ी-क़ायम। राजा अगर अकेला बच जाए तो उसको फक़ीर कहा जाता है जिसका कोई दोस्त नहीं। मुझे यह सब अपने पिता से पता चला। शतरंज की बाज़ी ध्ाीरे बढ़ती है -- एक राग की तरह। एक बार इस ध्ाीमी आँच पर पकने वाली बाज़ी की आदत लग जाए तो पश्चिम की तेज़ चालें बेहूदा लगती हैं जनाब’, सुल्तान अपनी पतली आवाज़ में चहक कर बोला। कापा को तो विश्वास नहीं हुआ। भारतीय पद्धति की शतरंज ज़्यादा तार्किक!। हिन्दुस्तान जैसा पिछड़ा देश शतरंज जैसा खेल को कैसे इजाद कर सकता है ? इतने में नवाब अचानक अन्दर आ गये। उनके मुहँ पर हवाईयाँ उड़ी हुई थीं। उन्होंने इशारे से सुल्तान को अन्दर बुलाया। कापा सामने पड़ी बिसात को ध्यान से देखने लगे। (इस सब के अलावा भी बहुत कुछ बताया सुल्तान खान ने। पर न वो देसानी समझ पाया और न मैं। मैंने बहुत सी नोटेशंज पाठकों की सुविध्ाा के लिए हटा दी हैं)। इस दौरान दरवाज़े के पीछे से आती कुछ आवाजें -- एक हरकारा आया था -- गुप्त समाचार ले कर। यह कोई आम हरकारा न था। ऐसे कामों के लिए ख़ास आदमी नियुक्त किया जाता था जो अपनी ख़ास टैक्सी में आता था। उस टैक्सी का नम्बर हमेशा ३०२ होता था। ध्यान दीजिए भारतीय गणितज्ञ रामानुजम जब बीमार पड़े थे तो हार्डी उन्होंने देखने इसी टैक्सी से गये थे। यह कोई संयोंग नहीं था महाराज। नवाब साहब के घबराने का कारण था उनका लाइट-बल्ब जिसके नीचे बैठ कर कापा और सुल्तान खान शतरंज खेल रहे थे। नवाब साहब लगभग चिल्लाते हुए बोले -- आज तारीख़ क्या है? सुल्तान खान ने तब कलेंडर जैसी कोई चीज़ निकाली -- वह एक मशीन थी -- उसमें वह कुछ नम्बर जल्दी-जल्दी टाइप करने लगा। और उसके बायीं ओर लगे हैंडल को जब उसने घुमाया तो उसके होश उड़ गये। इतनी देर में गुलाम क़ासिम भी अन्दर आ गया था। उसने हिसाब करके बताया की एक हज़ार घण्टों के ऊपर का समय हो चुका है। इतना सुनते ही नवाब साहब सोफ़े पर ध्ाप्प से बैठ गये। फीबस कार्टल केवल बल्ब का माफिया न था, बल्ब के माध्यम से वे लोग ऐसे कई सीक्रेट-सोसाइटीओं में घुस गये थे जहाँ पर दुनिया को कंट्रोल करने के तरीके इजाद किये जाते थे। नवाब साहब अभी नये-नये ही दाखिल किये गये थे इसलिए ज़्यादा घबराये हुए थे। उन्होंने दीवार पर से अपनी चाँदी की छड़ी उतारी और ताबड़तोड़ बल्बों को तोड़ने लगे। नवाब साहब की ग़लती बस यह थी कि उन्होंने सीक्रेट सोसाइटी के नियम का उल्लंघन कर दिया था। उन्होंने यह बल्ब अमेरिका से खरीदा था। शिकागो के पास एक छोटे से गाँव की औरतों ने यह बल्ब बनाया था। नवाब साहब ने अपना बल्ब तो फोड़ दिया पर उनके बाक़ी बनाये बल्ब कभी फ्यूज नहीं हुए। उनमें से एक आज भी जला हुआ है और शिकोगो के फायर डिपार्टमेंट के दफ़्तर पर लटका हुआ देखा जा सकता है। इस बल्ब का जन्मदिन हर साल मनाया जाता है। नवाब साहब को जब सीक्रेट सोसाइटी से निकाल दिया गया तो उन्होंने इसका बदला कापा को पूरा रहस्य बता कर लिया। पर यह सब तो बाद में होने वाला था, अभी तो उन्हें तैयार होकर सीक्रेट सोसाइटी की मीटिंग में जाना था। वह अपने साथ कापा भी को लेते गये। सीक्रेट सोसाइटी को जब पता चला कि नवाब अपने साथ कापा यानी शतरंज के भूतपूर्व वल्र्ड-चैंपियन को लेते आये हैं तो उन्होंने उनको सेरेमनी में शिरकत करने की ख़ास इजाजत दे दी। उन्हें उम्मीद थी कि शतरंज के इतने महान ग्रैंडमास्टर जब हमारी सोसाइटी में शामिल होंगे तो हमारी शक्ति बढ़ेगी। इसके कई साल बाद एक शतरंज का विश्व-चैम्पियन बिल्डरबर्ग का मेंबर भी बना। उसकी कहानी बाद में। नवाब घबराकर कापा को साथ ले गये और कापा घबरा कर देसानी को। अब देसानी कैसे एडमिशन पा गया, भगवान ही जानता है। उस मीटिंग में देसानी की मुलाकात -- कुमारास्वामी, रत्ना देवी, अलिस्टेर क्राउली (दुनिया का सबसे बदमाश व्यक्ति जो खुद को एक बेहतरीन शतरंज का खिलाड़ी भी मानता था।) उस दिन उसने कापा के साथ एक बाज़ी भी खेली। उसका खेल अच्छा था पर चर्चिल का खराब। बाहर वही टैक्सी खड़ी थी। जाने से पहले नवाब ने जल्दी-जल्दी सुल्तान के कान में कुछ बात कही। कापा को हिन्दुस्तानी नहीं आती थी इसलिए ज़्यादा कुछ समझ नहीं पाए इतना ज़रूर पता चला कि बात शतरंज की थी और एंड-गेम के बारे में थी। कापा को तब तक पता नहीं था कि वह कहाँ जा रहा है। फिर भी उसने रास्ते में देसानी के अपार्टमेंट पर रुकने का फैसला किया और हो सके तो उसको साथ भी लेता जाए।
1.24 उस मीटिंग में घटी कुछ खास घटनाएँः
क्राउली ने कुमारस्वामी से लड़ाई की। रत्ना देवी ने हिन्दुस्तानी राग गाया। चर्चिल ने हाल के बीचों-बीच रखे एक पुराने से शतरंज बोर्ड के नीचे लगा एक बटन दबाया तो उसमें से एक छोटा और एक अजीब सा दिखने वाला शतरंज का बोर्ड बाहर आया। वह शतरंज पाँसो से खेली जानेवाली थी। इस मशीन का इजाद लाला राजा बाबू ने किया था। इस सीक्रेट सोसाइटी में उस दिन कुछ खास गेम नहीं बनी -- हिटलर सत्ता में आ गया -- गोलमेज़ कांफ्रेंस विफल हो गयी -- चर्चिल ने बाद में लाखों भारतीयों को अकाल से मार दिया। जनरल डोयर और जनरल डायर भी उपस्थित थे। जलियाँवाला बाग के बाद जब उन पर मुकदमा चला तो नवाब साहब ने इसी मीटिंग के चलते उनका बचाव किया था। पर इस दौरान एक बड़ी विचित्र घटना घटी -- जब उन्होंने सारे मोहरे उस विशाल शतरंज के बोर्ड पर सजाये तो अजीबोग़रीब मुखोटे पहनकर कई लोग उसके आसपास खड़े हो गये। उन्होंने पाया एक मोहरा कम है तभी उनका सरदार जिसने लाल लबादा पहना था (और जिसका मुकुट सबसे विचित्र और भयंकर था) ने अपना हाथ बढ़ाया और बहुत ही विनम्रता से कापा से कहा -- ‘कृपया मोहरा दीजिए कापा।’ कापा सकपका गये, बोले ‘मोहरा मेरे पास? मेरे पास मोहरा कैसे हो सकता है?’ उन्होंने महसूस किया कि सरदार अपने मुखोटे के पीछे मुस्कुरा रहा है। उन्होंने घबराहट में अपना जेब में हाथ जो डाला तो उनको वही मोहरा मिला जो दजऱ्ी ने उनकी जेब में डाला था। ठीक वही मोहरा जो सामने बिछी बिसात से नदारद था। कापा घबरा गये, उन्होंने तुरन्त वह मोहरा मुखिया को दिया। उसने मोहरा अपनी जगह लगाया और ख़ूब रगड़ कर पाँसे फैंके। बाज़ी शुरू हो गयी थी। मुखिया ने पहले पाँसों पर दिखते नम्बरों को बड़े ध्यान से गिना और फिर उस हिसाब से चाल चल दी। इस पहली चाल में ही लोगों की आहें निकल गयीं। एक अजीब सी खामोशी छा गयी। तभी लोग पीछे हटे और कापा ने देखा कि पीछे वही शर्मिला नौजवान खड़ा है जो उन्हें नवाब के घर पर मिला था। इसके बाद एक सफ़ेद और हरे मुखोटे लगाए व्यक्ति ने उस चाल का बड़े ध्यान से मुआयना किया और कुछ बुदबुदा कर एक छोटे से कागज पर कुछ लिखकर अपने मुखिया को दे दिया। मुखिया ने उसको पढ़ा और सिर हिला कर शर्मिले नौजवान को पास बुलाया। जैसे ही वह शर्माता हुआ पास आया, उसने बड़े रहस्यमय अन्दाज में वह कागज़ का टुकड़ा उसके हाथ में दे दिया। कापा चूँकि अभी इस समाज के स्थायी सदस्य नहीं बने थे, उन्हें उस नोट को पढ़ने की अनुमति न थी पर बाद में नवाब साहिब ने उन्हें बताया कि उस कागज़ पर लिखा था कि नौजवान का केम्ब्रिज में दाखि़ला हो गया है -- वहाँ वह एक नये देश का नाम सोचे--भारत के दो टुकड़े होने ज़रूरी है।
नोटः देसानी को यह सारा तमाशा दिलचस्प भी लगा और डरावना भी। पर सबसे आकर्षक लगा, वो यान्त्रिक चेस-बोर्ड जिसे किसी भारतीय केम्पलिन ने इजाद किया था। उसने भारत जा कर उसकी इजाद करने वाले लाल राजा बाबू (जिनका पूरा नाम लाल बाबू कायस्थ था) का पता चलाया। उनकी मृत्यु हो चुकी थी। उनके बारे में जो भी जानकारी उन्हें मिली वो तथ्यात्मक सी थी। देसानी ने भी उसे उसी शुष्क अन्दाज में लिख दिया।
1.25 लाला राजा बाबू
एच. जे. आर. मरे द्वारा लिखित ‘ए हिस्ट्री आॅफ चेस’ (1913 में पहला इडिशन)-- शतरंज के इतिहास पर सबसे महत्वूर्ण व बड़ा काम। नौ सौ पन्नों का यह ग्रन्थ शतरंज के इतिहास को कई कोणों से टटोलता है। एच. जे. आर. मरे एक इंग्लिश स्कूल इन्स्पेक्टर और शतरंज के इतिहासकार। इनके पिताजी आक्स्फर्ड इंग्लिश डिक्शनेरी के पहले एडिटर। मरे ने अपने जीवन-काल में केवल दो पुस्तकें लिखीं, पहली तो ‘ए हिस्ट्री आॅफ चेस’ और दूसरी ‘ए हिस्ट्री आॅफ बोर्ड गेम्ज अदर देन चेस’। शतरंज का इतिहास लिखने के लिए उन्होंने दस साल से ज़्यादा का समय लिया और पहली बार सबूतों के साथ साबित किया कि शतरंज का जन्म भारत में हुआ था। आज भी इतिहासकार इनके काम को प्रमाणिक मानते हैं। इस महाग्रन्थ में लाला राजा बाबू का नाम कुल पाँच बार आता है -- पृष्ठ 82, 83, 87, 347 व 362 पर। लाला राजा बाबू ने 1901 में ‘मोआल्लिम-उल-शतरंज’ नामक एक किताब भी लिखी थी। (उनसे पहले दुर्गाप्रसाद भी 1890 में रिसाला-ए-शतरंज लिख चुके थे।) सीसा का बेटा रूमी --पोता दाईर का। उसने ही तो अविष्कार किया शतरंज का। दीवाना-शाह के अविष्कार के बारे में सूचना हमें ‘मोआल्लिम-उल- शतरंज’ से मिलती है। एक ऐसे तरीक़े की शतरंज जिसमें राजा दीवाना हो जाता है -- यानी राजा अकेला और उसके खि़लाफ पूरी फौज। हाँ, राजा के पास एक ख़ास ताक़त होती थी -- वह किसी भी मोहरे की तरह चल सकता था -- चाहे घोड़े की तरह कूदे या रानी की तरह लपके। लाला राजा बाबू पटियाला से थे। उनके पिता जी लाला छुट्टी लाल महाराजा राजेन्द्र सिंह मोहिन्दर बहादुर के समय सरकारी नौकर थे। लाला बाबू ने अपने पिताजी से शतरंज सीखी। 1890 में लाला बाबू राजा के ए.डी.सी. नियुक्त हुए। शतरंज के अलावा वे क्रिकेट के भी एक निपुण खिलाड़ी थे। हम सब जानते ही हैं महाराजा पटियाला ख़ुद भी क्रिकेट जबरदस्त खेलते थे। रंगीन मिजाज़ महाराजा। शिमला का स्कैंडल-पोईंट उन्हीं के नाम से जुड़ गया, जब उन्होंने अपने तबेले की देख-रेख करने वाले अंग्रेज़ की बेटी को भगा कर शादी कर ली। अंग्रेज़ घबरा गये। उन्हें उनके होने वाले बच्चों का डर सताने लगा था। उनको ख़तरा था कि कहीं आगे जा कर यह मिश्रित रेस भारत पर क़ब्जा ही न कर ले। उन्हें हिन्दुस्तानियों से उतना डर नहीं लगता था जितना इस मिश्रित जाति से। लाला राजा बाबू को अपने जीवन का सबसे बड़ा सम्मान शिमला चेस क्लब में हर साल होने वाली टूर्नामेंट में सन 1899 में मिला। उन्होंने यह खि़ताब 28 में से 27 बाजि़याँ जीत कर हासिल किया था। उस समय हिन्दुस्तानी खिलाड़ी और ख़ासकर लाला राजा बाबू एंड-गेम के माहिर दिखते हैं। कर्नल हचिन्सन के साथ उनकी एक बाज़ी मिलती है -- खेलते हुए लाला बाबू एक मोहरा शुरू में ही गवाँ बैठे हैं पर बाद में उन्होंने विरोध्ाी के राजा को खुले में -- बिलकुल बोर्ड के बीचों-बीच पटक दिया और जीत गये। 1900 में लाला बाबू ने 20 में से 19 बाजि़याँ जीत कर अपनी सफलता दोहरायी। 1901 में फिर से। पर यह सब शतरंज के खि़ताब जीतने और एक किताब लिखने के साथ-साथ एक ऐसा विलक्षण अविष्कार उन्होंने किया (जो आज तक भी किसी को पता नहीं है।)। उन्होंने एक ‘आॅटमैटिक चेस रिकार्डर’ भी बनाया था! एक तरह से उन्होंने चेस-बोर्ड को एक टाइपराइटर के साथ जोड़ दिया था। हर मोहरे के साथ एक चाबी जुड़ी हुई थी जो हर खाने के मध्य में स्थित एक सुराख़ में घुसायी जा सकती थी। जैसे ही आपने चाल चली इस सुराख़ में चाबी घुसाने से उसके साथ जुड़ा टाइपराइटर सक्रिय हो जाता था और चाल व समय (जो दो घडि़यों पर रिकाॅर्ड होता था) उस पर अंकित हो जाता था। उसमें मोहरे का नाम और वह किस खाने पर रखा गया, सब कुछ। और अगर आपने दूसरे का मोहरा काबू किया है तो अपने मोहरे को घूमा दीजिए -- ग्(न) यानी घोड़ा या कोई भी मोहरा -- ऐसे आपकी पूरी बाज़ी संग्रहीत होती जाएगी। इसका पता हमें (पृष्ठ 269-270) जुलाई 1904 की ब्रिटिश चेस मैगजीन से चला है। कहते हैं उन दिनों कुन्दनलाल सहगल शिमला में टाइपराइटर बेच रहे थे और राजाओं की महफिलों में गा रहे थे और लाला बाबू अपनी मशीन को न बेच पाने के कारण निराशा थे। (आगे देसानी ने लिखा है कि उसने यह मशीन ढूँढने की बड़ी कोशिश की पर सफलता नहीं मिली।) यह मशीन कब और कैसे बनी और लाल राजा बाबू की मृत्यु कैसे हुई -- इसका जिक्र चैध्ारी खुशी लाल की डायरी में भी था पर उनका विवरण इतना अनोखा था कि इस पर विश्वास करना बहुत मुश्किल था।
ख़ैर ः
अक्टूबर 1895
लाला बाबू को बुलाया गया। वह अभी-अभी शिमला से अपनी नयी खोज ‘कैसे दो ट्रेनों को आपस में टकराने से रोकें’ का वायसराय के सामने कामयाब प्रदर्शन करके लौटे थे। इध्ार राजा साहब उनका बेसब्री से इन्तज़ार कर रहे थे। कल रात-भर मंत्रणा में थे, विषय था -- शतरंज का इतिहास। जब लाल बाबू को इसके बारे में बताया गया तो उनको आश्चर्य न हुआ। लाला बाबू कोई नौकर न थे। किसी छोटी रियासत के छोटे राजा के छोटे पुत्र रहे होंगे। अब वह बड़ी रियासत के राजा के ए.डी.सी. थे। मन्त्रणा कक्ष के बाहर पहुँचे ही थे, ठिठके, थोड़ा हिचकिचाये। ऐसा लगा अन्दर कुछ गहन बातचीत चल रही है। बाहर से ही खाँस कर अपने आने की सूचना दे दी। एक अर्दली बाहर आया। अन्दर जाने का इशारा करके बड़ी तमीज़ से दरवाज़े के साथ सट कर खड़ा हो गया। अन्दर एक बड़ी मेज़ के इर्द-गिर्द, बड़ी-बड़ी दाढ़ी वाली पाँच विद्वान बैठे थे। सामने ढेरों किताबें। राजा साहब विचारमग्न थे। लाला बाबू को आते देखा तो बड़े खुश हुए। उनको पास बैठने का इशारा करके वह वापिस पुस्तक में खो गये। लाला बाबू थोड़े असमंजस से इध्ार-उध्ार देखने लगे। तभी राजा साहब ने अचानक अपनी किताब मेज़ पर पलटी और कहने लगे -- ‘मैं लाला बाबू का परिचय करवा दूँ, यह हमारे देश के शतरंज के चैम्पियन हैं। जिस विषय पर हम सब रात-भर बात करते रहे, मुझे आशा है लाला बाबू उसे अवश्य सुलझावेंगे। यह शतरंज के माहिर तो हैं ही, आविष्कारक भी हैं। हमें पूरी उम्मीद है, लाला बाबू वह मशीन बना ही लेंगे।’ फिर उन्होंने लाला बाबू को विस्तार से बताया कि वह चाहते हैं कि शतरंज की चालों का मुद्रण करने वाली एक मशीन का निर्माण हो। अभी तक तो सब खिलाड़ी अपने हाथों से ही अपनी चालें लिखते हैं। कई ग़लतियाँ करते हैं। कई बाजि़यों पर विवाद उठ खड़ा हुआ है। इसलिए वह चाहते हैं कि ऐसी मशीन हो जो अपने-आप हर चाल को रिकार्ड कर ले। इसके लिए उन्हें जिस चीज़ की भी आवश्यकता होगी, दिला दी जाएगी। पूरे विश्व के लिए यह एक नयी अनोखी चीज़ होगी। हम चाहते हैं कि हमारी रियासत ही इसका अविष्कार करे। लाला बाबू को बात जँच गयी। मन में खुशी हुई। कब से वह इसके बारे में सोच रहे थे। उनके पास इस मशीन का ब्लू-प्रिंट तैयार था। फिर थोड़ा घबराये। ज़रूर राजा साहब को इस का पता होगा ही। उनके गुप्तचर हमेशा आस-पास मँडराते रहते हैं। फिर मेरे मुहँ से ही क्यों सुनना चाहते हैं? क्या यह सब सुना कर मेरी परीक्षा लेना चाहते हैं? क्या मैं इनको बता दूँ कि मशीन तो लगभग तैयार है। लाला बाबू थोड़े संकोची स्वभाव के थे। कुछ हाँ या न, ऐसा ही कुछ बोल कर चुप हो गये। राजा साहब मन ही मन मुस्कुरा रहे थे। उनको पता चल चुका था कि लाला बाबू को बात भा गयी है, अब वह मशीन बना कर ही दम लेंगे। पर राजा साहब नहीं जानते थे कि लाला बाबू के मन में मशीन लगभग बन कर तैयार है। तभी अचानक एक लम्बे दाढ़ी वाले दार्शनिक ने दूसरे की दाढ़ी पकड़ ली। दोनों ज़ोर-ज़ोर से झगड़ रहे थे। लाला बाबू को थोड़ी हँसी तो आयी पर दबा कर बैठ गये। उनको महाराज की ऐसी गोष्ठियों के बारे में भली-भांति पता था। राजा साहब को पहले गुस्सा आया पर फिर झगड़े का कारण जानकर मन्द-मन्द मुस्कुराने लगे। अचानक लाला बाबू की तरफ मुड़े और बोले कि यह झगड़ा तो आपको ही सुलझाना पड़ेगा। लाला बाबू का चेहरा पीला पड़ गया। जब उन्हें झगड़े का कारण पता चला तो घबराये। अगर वह सन्तोषजनक उत्तर न दे पाये तो उसका परिणाम उनको पता था। झगड़े के तीन कारण थे --चतुर्रंग पहले चतुरंग और फिर शतरंज कैसे बनी? चतुरंग में पासों का इस्तेमाल क्यों होता था और शतरंज में क्यों नहीं? वज़ीर रानी में कैसे तब्दील हुआ? लाला बाबू मशीन तो बचपन से ही बना रहे थे। ब्लाइंड्फोल्ड खेलने में निपुण उनको मशीन की क्या ज़रूरत थी? रुई-लोपेज के ठइ5 का तोड़ तो उन्होंने कब का निकाल डाला था। उनको कभी इसका श्रेय न मिला। (कालान्तर में वह बर्लिन-डिफेन्स के नाम से जाना गया।) मशीन का अविष्कार उन्होंने घर की तहख़ाने में किया था। तहख़ाने में लाला बाबू का टाइपराइटर संग्रहालय था। लाला बाबू को अपने टाइपराइटर संग्रह से बड़ा मोह था। वह मोह ख़ूब काम आया। टाइपराइटर को अगर शतरंज की भाषा सिखा दी जाए तो? यानी आप जैसे ही राजे के आगे रखा प्यादा दो घर आगे करें तो टाइपराइटर में हरकत हो और वह लिख दे -- म4। लाला बाबू खुशी से उछल पड़े थे। बाद में उन्होंने समय को मार्क करने का तरीक़ा भी निकाल लिया था। कुछ ही महीनों की मेहनत के बाद मशीन तैयार थी व बख़ूबी काम कर रही थी। पर कुछ बात थी कि लाला बाबू राजा साहब को मशीन दिखाने से क़तरा रहे थे। ऐसा क्या था आखि़र? लाला बाबू को आभास हुआ था कि मशीन कभी-कभी कहना नहीं मानती है और मनमाने ढंग से काम करती है। पहले-पहल तो उन्हें लगा कि उनकी मशीनरी में कुछ गड़बड़ है पर बाद में बात कुछ और लगी। मसलन जब वह अपने आप से खेलते थे तो जब काले की तरफ से खेलते थे, गोरे की तरफ से क्या चाल चली थी, भूल जाते और गोरे की तरफ से खेलते तो काले की तरफ से क्या खेला था, सब भूल जाते। लाला बाबू थोड़ा घबराए हुए थे। ख़ैर राजा साहब के अनुरोध्ा को तो ज़्यादा देर ठुकरा नहीं सकते थे। हिम्मत कर उन्होंने राजा साहब को अपनी इजाद के बारे में बता ही दिया। वह मारे खुशी के उछल पड़े। उसी समय वह लाला बाबू के तहख़ाने में गये और मशीन को अपनी आँखो से देखा। बाद में उन्होंने उस मशीन का पेंटट भी करवा लिया। राजा साहब यह मशीन पूरे संसार में बेचना चाहते थे। ब्रिटिश चेस मैगजीन में उन्होंने इस मशीन का इश्तेहार भी दिया था। अंग्रेज़ों ने इस पर कोई तवज्जो न दी। असल में उनको बड़ी तकलीफ़ हुई कि उन्होंने इसका अविष्कार क्यों नहीं किया। वैसे तो राजा साहब उनके आगे गुहार लगाते रहते थे कि उनके राज्य की तोंपों की सलामी बढ़ा दी जाएँ। अब उसी राजा का नौकर यह मशीन ले आए? इतना बुद्धिमान नौकर से तो पूरा बरतानिया राज ख़तरे में पड़ जाएगा। उन्होंने उस इश्तेहार को दबा दिया, यह कह कर कि भई होगी कोई मशीन। और थोड़ा सा मज़ाक बना कर यह भी कह दिया कि हम तो अपने हाथ से अपनी चालें लिखेंगे। किसी को लेनी हो यह मशीन तो पटियाला जा कर ले ले। इस तरह आज तक किसी को इस मशीन के बारे में नहीं पता। (यह पहली कहानी है जिसमें इसका उल्लेख हुआ है।) इसी तरह राजा साहब की उम्मीदों पर पानी फिर गया, न तो तोपों की सलामी मिलीं और न ही मशीनें बिकीं। राजा साहब को मशीन बहुत पसन्द थी, उसे हमेशा सिरहाने रखते थे। उसमें हमेशा एक उम्दा कागज़ लगा रहता था। जैसे ही राजा साहब कोई मोहरा हिलाते, शतरंज की चाल उस कागज पर अपने आप अंकित हो जाती। इस तरह कई बेहतरीन बाजि़याँ संग्रहीत हो गयीं। (किताब के अन्त में ऐसी कुछ बाजि़याँ दी जा रही है।)। इस दौरान लाला बाबू अपनी एक पुस्तक उर्दू में लिखकर ‘यार-ए-शातीरी’ दरवाज़े पर खड़े थे। आज क्रिकेट का मैच खलेकर लौटे थे। माथे पर पसीना था। जल्द ही यारे-शातीरी का एक-एक पन्ना राजा साहब को मुँहजुबानी याद हो गया। बोले, यह तो कमाल की पुस्तक है। हम इसका प्रकाशन ख़ुद करेंगे। इस तरह जब वह पुस्तक प्रकाश में आयी तो अंग्रेज़ों को फिर भनक लगी। वह भी कुछ प्रतियाँ चुरा कर ले गये। बाद में उन्होंने उसका चोरी-छुपे अनुवाद भी करवा लिया। (आज भी इसकी एक प्रति ब्रिटिश लाइब्रेरी में सुरक्षित है।) आज सुबह से ही महाराज मशीन को सामने रख कर यारे शातीरी में दी गयीं बारह पहेलियाँ सुलझाने में लगे हुए थे। राजा साहब ने इन पहलियों को सुलझाने के लिए तीन दिन व दो घण्टे लिए। जैसे ही राजा साहब ने पहली पहेली हल की, उनको अजीब सा लगा। पहेली हल करने के लिए उन्हें दोनो तरफ से सोचना पड़ा था। जबकि वह ख़ुद शतरंज के बेहतरीन खिलाड़ी थे और वह काले व गोरे, दोनों तरफ से सोचने में माहिर थे पर इस बार कुछ अजीब हुआ, काले की तरफ से सोचते तो गोरे की तरफ से क्या सोचा, भूल जाते और काले की तरफ से सोचते तो गोरे की तरफ से भूल जाते। इसका फल यह हुआ कि उन्हें अपने-आप से खलेने में ही रस आने लगा। किसी दूसरे की ज़रूरत ही नहीं। ऐसा सोच कर उन्होंने तय किया कि अब वह केवल अपने आप से खेला करेंगे। उन्होंने शतरंज की टेबल दरवाज़े के पास लगा दी और तय किया कि जब कमरे से बाहर जाएँगे तो काले की तरफ से चाल चलेंगे और जब अन्दर आएँगे तो गोरे की तरफ से। हर बार। चाहे एक क्षण के लिए ही दरवाज़े से बाहर जाएँ। यह प्रक्रिया दोहराते रहेंगे निरन्तर। और उन्होंने ऐसा किया भी। उन्हें अपने-आप से खेलने कि लत लग गयी। हमेशा आनन्द में रहते थे। बाहर जाते हुए काले और अन्दर आते हुए गोरे। उध्ार लाला बाबू अंग्रेज़ों द्वारा की गयी अपनी उपेक्षा से प्रसन्न न थे। उन्हें क्या पता था कि जो बीज उन्होंने यारे-शातीरी में बोये हैं एक वक़्त एक नवाब का नौकर उन्हें सींच कर अंग्रेज़ों का बादशाह बन बैठेगा। मशीन हर क्षण के टुकड़े कर रही थी। विस्मृति उभरती थी, हर चाल व खटाक् की आवाज़ के साथ। क्योंकि मशीन आपकी हर चाल का मुद्रण करती थी, आपका मन पढ़ना उसका काम था। स्यालकोट से मँगवाये हुए महँगे सफ़ेद कागज पर यह सौदा होता था। मशीन कुछ ले नहीं रही थी बल्कि दे रही थी -- दो स्वभाव! एक दूसरे से अनभिज्ञ। महाराज का स्वभाव वैसे भी तो गोरे व काले में बँटा हुआ था। पर अब फ़र्क यह था कि काले को गोरे की व गोरे को काले की स्मृति न रही थी। आज ख़ास दिन था। महाराज क्वीन गैम्बिट डिक्लाइंड पर विचार करना चाहते थे। वह किंग्स इंडियन गैम्बिट के माहिर थे। उन्हीं की वजह से ही इस ओपनिंग का नाम किंग्स इंडियन रखा गया था। (लोग सब भूल जाते हैं।) तीन प्यादों से मध्य बोर्ड पर क़ब्जा करने की तकनीक उन्होंने अपने दादा से सीखी थी। उनके दादा मुग़लों व अफ़गानों से लोहा ले चुके थे। दादा ने यह तकनीक उनको युद्ध के वास्ते सिखायी थी। राजा साहब ने कभी लड़ाई नहीं की, वह अपनी इस शिक्षा को शतरंज के उपयोग में ले आए। पुरानी लड़ाई की तकनीक वैसे भी बेकार हो चुकी थी। अब तो दो कोस की दूरी से ही मध्य हथिया जा सकता था। पर शतरंज में यह तकनीक अब भी एकदम घातक थी। राजा साहब ने अपने दादा से जो भी सीखा, शतरंज में उसका उपयोग किया। पहले उन्होंने चतरंग सीखी। चार लोग खेलते थे। पाँसो का इस्तेमाल होता था। राजा साहब ने विचारा कि हो सकता है कि महाभारत में कौरव और पाण्डव चतरंग ही खेल रहे हों। शकुनि गांध्ाार से ही तो था। अब चैपड़ के खेल में इतनी पेचीदगी और छल कहाँ। चतरंग के खेल में चार राजा होते थे। आपस में सन्ध्ाियाँ इत्यादि भी कर ही सकते थे। अगर कभी कोई राजा हार कर खेल से बाहर हो जाता था तो उसको वापिस भी लाया जा सकता था। अलग ज़माना था। अंगे्रज़ों के राज में यह सब मुमकिन नहीं था। राजा साहब ख़ुद भी बस नाम के ही राजा बचे थे। अंग्रेज़ों ने रंग-बिरंगे कपड़े पहना कर इन्हें अपने राजा का ए.डी.सी. नियुक्त करके ऐसा मुहँ बनाया कि कोई बहुत बड़ा अहसान कर दिया हो। लाला बाबू जानते थे के वह एक नौकर के नौकर हैं। राजा साहब चाहते थे कि और कुछ हो न हो कम से कम तोपों की सलामी ही बढ़ जाए। आज कुछ ऐसा ही सोचते हुए जब राजा साहब अपने कमरे से बाहर निकले तो उन्होंने गोरे की तरफ से चाल चली। वह जीत रहे थे। ध्ाीरे-ध्ाीरे बाज़ी बढ़ती गयी। किसी ने ध्यान नहीं दिया (सिवाय लाला बाबू के)। राजा साहब का स्वभाव विचित्र होता जा रहा था। गोरा वाद-विवाद, दर्शन, गुण, रीति, अलंकार वक्रोक्ति व ध्वनि इत्यादि पर ख़ूब चर्चा करता था। दूर-दूर से दार्शनिक व बुद्धिजीवियों को आमन्त्रित किया जाता था, जिनके रहने व खाने-पीने की व्यवस्था महल में ही की जाती थी। राजा साहब उनसे रात-रात भर दर्शन व आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा करते। वीणा बजाते। सात्विक भाव से उद्यान में घूमते इत्यादि। काला इस सबके विपरीत भोग विलास में डूबा रहता था। व्यक्ति एक था स्वभाव दो थे। सब यह बात जानते थे और समयानुसार अपना आचरण बदल लेते। सबको इसकी आदत हो गयी और ध्ाीरे-ध्ाीरे महाराज के दो स्वभाव सहज रूप से स्वीकार भी कर लिये गये। अब इसके अलावा चारा भी क्या था? पर मशीन अपना काम जारी रखे हुए थी। राजा साहब का गोरा भाग, जब वह सफ़ेद मोहरा चलते थे और काला भाग जब वह काला मोहरा चलते थे -- एक दूसरे से अलग होते चले गये। राजा साहब का मस्तिष्क दो भागों में बँटा जा रहा था और एक भाग को दूसरे के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। राजा साहब काले की तरफ खेलते तो भोग विलास में डूब जाते और जब सफ़ेद की तरफ से खेलते तो दर्शन में खो जाते। इस तरह, हे पाठक, शरीर से एक व्यक्ति होते हुए भी राजा साहब मानसिक रूप से दो व्यक्तियों में बदल चुके थे। मशीन अपना काम जारी रखे हुए थी, वह इस पर रुकने वाली नहीं थी। और जैसे ही एक दिन जब काले ने गोरे को मत दी। (देखिए यह बाज़ी) मशीन ने खटाक् की आवाज़ से आखि़री चाल को टाइप कर दिया -- खटाक् की आवाज़ इतनी ज़ोर की थी कि राज्य के लोगों ने सोच कि शायद भूकम्प आया है। उस आवाज़ के साथ एक चमत्कार हुआ। राजा के मस्तिष्क के साथ-साथ उनका शरीर भी गोरे और काले में बँट गया। राजा साहब के शरीर से एक और शरीर निकल आया। अब दो मस्तिष्कों के पास अपने-अपने शरीर थे। दोनों देखने में एक जैसे पर दोनों के दिमाग अलग-अलग। एक विलासिता में लिप्त, दूसरा ध्यान व दर्शन में मग्न। यह बात किसी को पता नहीं चली (ख़ुद राजा साहब को भी नहीं)। पूरे प्रदेश में बड़ी गड़बड़ हुई। महल के अन्दर तो और भी भ्रम की स्थिति थी। लोगों के आपस में मन-मुटाव तो हुए ही, कभी-कभार झगड़े की नौबत भी आ जाती थी। लोगों को ग़लतफ़हमी होती थी। (अपनी सुविध्ाा के लिए हम अब राजा साहब को गोरा व काला कहेंगे)। मसलन जब काला अपनी रानियों के पास लेटा हुआ अंगूर खा रहा होता था तो गोरा बाहर बाग में बनायी अपनी कुटिया में ध्यान-मग्न होता था। इन दोनो घटनाओं के विपरीत गवाह होते थे और एक दूसरे को झूठा कहते हुए सिर फोड़ देते थे। बहुत दिनों तक किसी को पता नहीं चला कि राजा दो हो चुके हैं। फिर एक दिन लाला बाबू ने काले से खेलना शुरू किया तो गोरे ने उसकी मात दिखायी। लाला बाबू को शक हुआ। उन्होंने राजा साहब से अनुरोध्ा किया कि उनके साथ खेलने का मौका दें, उसने एक नयी ओपनिंग सीखी है, बताना चाहते हैं, फिर उन्होंने एक साथ एक ही दिन दोनों से अलग-अलग ओपनिंग खेलीं तो पता चल गया। दोनों के जवाब अलग-अलग प्रकार के थे। उन्होंने यह बात सारे राज्य में ढिंढोरा पिटवा कर बता दी कि एक ही शक्ल के दो राजा हैं और लोग हैरान-परेशान न हों। कुछ ही दिनों में सब सहज हो गया। लोगों ने राजा के दो रूपों को एक साथ देखा ज़रूर पर उस पर आश्चर्य करना बन्द कर दिया। काले के कर्म और काले होते गये। अन्ततः अंग्रेज़ों ने उस पर कई लोगों की हत्या का मुकदम दायर कर दिया। (आज भी उस मुक़दमे की एक प्रति शिमला स्थित वायसराय लाज जो अब भारतीय उच्च संस्थान के नाम से जानी जाती है, की लाइब्रेरी में देखी जा सकती है।) पर गोरा अपने यम नियम व संयम के कारण प्रजा में बड़ा लोकप्रिय हुआ। वह दर्शन, इतिहास, सौंदर्य-शास्त्र व शतरंज का प्रकाण्ड पण्डित माना जाने लगा। कुछ समय उपरान्त गोरे के मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। उध्ार ख़राब दिनचर्या के कारण काला बीमार पड़ गया और जल्द ही चल बसा। कहते हैं कि अपनी मृत्यु के दिन भी उसने दस अण्डों का ओमलेट खाया था। उसी दिन गोरे ने भी रात को चोरी-छुपे अपना सारा राज-पाट त्याग कर हिमालय की और प्रस्थान किया। वहाँ वह दूर एक गुफा में रहने लगा। कुछ वर्षों बाद भारत को अंग्रेज़ों से आज़ादी मिल गयी। गोरा अपने कर्मों के कारण अमर हो गया। कहते हैं अगर कोई शतरंज की बाज़ी तीसरी चाल व बिसात पर बत्तीस मोहरे रहते ही बूझ ले तो अमर हो जाता है। यह सिद्धि गोरे को तुरन्त ही प्राप्त हुई। आज तक भी संसार का सबसे बेहतरीन कम्प्यूटर केवल सात मोहरों की चाल ही बूझ पाया है। कुछ ही दिनों बाद लाला बाबू की मृत्यु हुई। कारण उनका शतरंज की बारह पहेलियाँ हल नहीं कर पाने की शर्म था। यह पहेलियाँ मशीन ने ही बनायी थी। (अभी भी महल के किसी तहख़ाने में वह मशीन सुरक्षित रखी हुई है)। मशीन की पहेलियाँ केवल गोरा हल कर पाया था। कहते हैं आज भी जब हिमालय की चोटियों पर बर्फ गिरती है तो चाँदनी रात में श्वेत वस्त्र ध्ाारण किये हुए एक वृद्ध आदमी अपनी सफ़ेद लम्बी दाढ़ी में दिखता है। अगर उसको कोई व्यक्ति दिखता है तो वह पहले तो उसे ब्लाइंड्फोल्ड शतरंज की बाज़ी के लिए आमन्त्रित करता है और अन्त में वही मशीन की बारह पहेलियाँ पूछता है।
यह रही मशीन की बारह पहेलियाँ, (मुझे ऐसा लगता है कि यह पहलियाँ मशीन की न हो कर -- लाल राजा बाबू की हैं। मरे की किताब में यह पहलियाँ उन्हीं के नाम से दी गयी हैं। और इसके हल जो हैं -- वो शायद खुशी लाल ने लिखें हैं )

1.
काले की चाल।
गोरे को मात --
पर बात नहीं इतनी आसान।
प्यादा को भाया अगर बना वज़ीर
तो कुछ नहीं पाया।
वज़ीर का शौर्य भी तो किसी काम न आया उसने तो केवल रथ के पहिये को अटकाया।
उध्ार प्यादा न बना ऊँट, न बना हाथी और न बना वज़ीर
फिर उसने दुश्मन को कैसे हराया? (तीन चालों में मात )

2.
गोरे की चाल --
प्यादे को बढ़ाया
जो जा रानी से टकराया --
कुरबानी दे कर हाथी से पिटवाया

3.
यह चाल तो सबसे आसान
गोरे ने सफ़ेद ऊँट के चक्कर में प्यादा आगे क्यों सरकाया?
ध्ात तेरे की --
मैं इतना भी न सोच पाया? (एक चाल में मात )

4.
काले बेचारे की हुई पिटायी --
उसने अपनी रानी भी गँवायी --
गोरे के मोहरे छह
और उसके केवल तीन
फिर भी उसके पास
एक चाल थी ऐसी
जिससे उड़ जाए गोरे की नींद
प्यादा बड़ा पाजी
मारी ऐसी छलाँग
पीछे खड़े साथी ने भरी हुंकार
अपनी क़ुरबानी दे कर
काले ऊँट
ने पलटी बाज़ी

5.
गोरे का जी मचलाया
असब से फँसाया
रूख से ललचाया

6.
यह चाल सबसे मुश्किल --
लम्बी है चढ़ायी
अश्व का बलिदान
फिर आठ चालों का काम

7.
हे हाथी दे लालच रूख को
और जब वो हाथी को हथियाये
सरका दे सरबज को
तब
गोरा घर को जाए

8.
यहाँ सब उलटा है --
गोरा पहुँच गया है काले के घर
काला पहुँच गया है गोरे के
हम हार मानते हैं करते है गुहार
अगली चाल में जो होने वाले हैं शर्मसार
ऐसा दाँव चलिओ
एक चाल के लिए ही सही
स्थगित हो जाए निश्चित हार।

9.
वज़ीर का करके बलिदान
काले को दे दो चार चालों में मात

10.
आसान है -- अगर सीध्ाा सोचोगे आप
काले को दोगे -- दो चालों में मात
थोड़ा टेढ़ा होते ही --
निश्चित है हार
एक चाल की ही तो
है बात

11.
अगर गोरे का फरज चल गया सही चाल
तब काले शाह का होगा बुरा हाल
चिल्ला कर बोला -- ‘हाय ओ रब्बा
मेरे पास तो केवल एक ही है मुरब्बा’

12.
काले की है हालत ख़स्ता
उसके पास न कोई रस्ता
शुक्र है अभी उसी की है चाल
ढूँढो उपाय
नहीं तो अगली ही चाल में
काला अपने घर को जाए

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1.26 कापा की दुविध्ाा --वज़ीर या फिर बिसात की रानी
कापा कभी भी इस बात का पता नहीं लगा पाये कि उनकी जेब से ठीक वही मोहरा क्यों निकला जो उस गुप्त संस्था की ‘अजीब’ बिसात से ग़ायब था। (इस बिसात का नाम ‘अजीब’ क्यों था, इसकी भी एक कहानी है) तो क्या यह सब पहले से तय किया हुआ षड्यन्त्र था? जेब से जो मोहरा मिला वह रानी यानी क्वीन था-- सबसे ताक़तवर मोहरा। कापा ने गौर किया कि वहाँ सब लोग उसे वज़ीर बोल रहे थे। भारतीय या अरब पद्धति से तो वह वज़ीर ही था। पर वहाँ तो सब पश्चिम के गोरे लोग थे -- वे लोग उस मोहरे को फेर्स क्यों कह रहे थे? उसे रानी कहने में क्या समस्या थी? आखि़र वज़ीर ही क्यों? चूँकि इतना कुछ अनोखा इतनी जल्दी घटित हो गया -- कापा को हर जगह षड्यन्त्र ही नज़र आने लगे थे क्या? जैसे कि उस मीटिंग में केवल मर्द ही थे -- एक भी औरत नहीं? तो क्या दुनिया को कंट्रोल केवल पश्चिम के गोरे मर्द ही कर रहे हैं? औरतों का इसमें कोई स्थान नहीं ? जैसे कि नवाब के घर पर बैठीं वेरा और फ़ातिमा। क्या इसी कारण वो यहाँ नहीं आयी थीं? कापा को थोड़ा अफ़सोस हुआ कि उसने सुल्तान के साथ एक भी बाज़ी नहीं खेली। कितने शौक़ से वे लोग उनका खेल देखने आये थे। वेरा और फ़ातिमा उस समय विश्व की दो सबसे बेहतरीन शतरंज खेलने वाली औरतें थीं। वेरा पच्चीस साल की और फ़ातिमा अठारह। ठीक उसी वक़्त वेर्नर मैग्नस मैक्सिमिलीयन फ््ऱलेहर वान ब्राउन अपने अध्यन -कक्ष में बैठा व-2 राकेट का ब्लू-प्रिंट बना रहा था। जब उसने वी-2 राकेट बनाया होगा तो उसने शायद ही सोचा होगा कि लन्दन पर गिरने वाले चैदह सौ दो में से एक वेरा के घर पर जा गिरेगा। वेरा का जीवन दुःख भरा था। (ऐसा लगता है कि देसानी को इसके बारे में लिखते हुए बड़ा दुःख हुआ था।) रूसी कम्मूनिस्टों ने वेरा का घर उजाड़ दिया। पिता चेकोस्लोवकिया चले गये और माँ हेस्टिंग्स में आकर बस गयीं थीं। घर पर बैठी दो रानियाँ -- फ़ातिमा और वेरा। वेरा फ़ातिमा को सिखाने नवाब के घर पर आती थी। वैसे फ़ातिमा सुल्तान से भी सीख ही सकती थी पर नवाब ने यह उचित न समझा और वेरा को मुक़र्रर किया। वेरा को भी पैसों की ज़रूरत थी। वेरा केवल चैबीस साल की थी पर देखने में चालीस से कम न लगे। इसके उल्टा फ़ातिमा केवल अठारह वर्ष की पर देखने में सोलह की। वेरा विश्व-विजेता और फ़ातिमा नवाब की नौकर। वेरा एक अमीर घर में पैदा हुई और फ़ातिमा एक ग़रीब घर में। वेरा दुखी थी और फ़ातिमा सुखी। कम उम्र में इतना दुःख झेलना पड़ा था। व-2 बम की वो क्या ट्रेजेक्टरी थी -- एक बिशप की चाल की तरह जो वेरा के घर पर आ गिरा। जिस वक़्त कापा यह सोच रहे थे ठीक उसी क्षण वेरा ने रानी की चाल चल दी -- क्वीन एंड गेम। जब वेरा ने क्वीन बोला तो फ़ातिमा को लगा कि उसे इसको ठीक करना चाहिए -- बोली ‘जी समझ गयी -- वज़ीर यहाँ से वहाँ चलेगा’ -- ‘नहीं’ वेरा बोली ‘रानी कहो’ -- ‘इससे हम दोनो को समझने में आसानी रहेगी।’ फ़ातिमा पहले तो सुल्तान खान से सीखती रही थी। उसने उसे वज़ीर कहने की आदत डाल दी। अब रानी न बोला जाए। वेरा बेचारी ग़रीबनी। थोड़े से पैसों के लिए हर किसी को शतरंज सिखानी पड़ती थी। हरे रंग की संकरी सीढ़ी सीध्ाी ऊपर जाती थी। वहाँ वेरा हाथ बाँध्ो खड़ी रहती थी। अगर कोई देर से आए तो हल्का सा डाँट भी देती थी। कमरे के अन्दर एक कोने में छोटी-सी अंगीठी के ताप में शतरंज का अभ्यास। थोड़े ही दिनों में खेल इतना निखर जाए कि हर और छुपी हुई चालें दिखने लगें। वेरा ने भी तो कहीं से सीखा ही था -- जी हैं! वही मरोकजी-पाश के जनक मरोकजी से जिसके रचे व्यूह ने बदला लिया उस घटिया बन्दे एल्बर्ट बेक़र से। एल्बर्ट बेक़र बड़ी बदतमीजी से बोला कि अगर कोई मर्द खिलाड़ी वेरा मेंचिक जैसी औरत से हार जाए तो उसे वेरा मेंचिक क्लब का सदस्य बना देना चाहिए। किस्मत का खेल समझिये या फिर मरोकजी-पाश का -- वेरा ने एल्बर्ट को ऐसे बाँध्ाा जैसे सफ़ेद घोड़ा सी4 और ई4 प्यादों के बीच में -बाँध्ाता है काले को, कि उस क्लब का पहला सदस्य वो ख़ुद बन गया। तीस से भी कम चालों में वेरा ने उसे पछाड़ दिया था। मरोकजी पाश का तोड़ 1950 के बाद मिलने वाला था। तब तक वेरा मेंचिक जिन्दा न बची। वान ब्राउन के वी-2 बम ने उसकी केवल पैंतीस वर्ष की आयु में हत्या कर दी। ‘अरबों का वज़ीर यूरोप की रानी में कैसे बदल गया। पहले तो वे भी फेरस बोलते रहे -- अचानक वेरा चैसेर की कविता ज़ोर-ज़ोर से गाने लगी। सामने बैठी फ़ातिमा चैंक गयी। कुछ समझ नहीं आया पर वेरा की आवाज़ में दुःख वही था जो उसके अपने से सत्ताईस साल बड़े पति के मरने पर हुआ -- वही दुःख जो नाइट को अपनी पत्नी के मरने पर हुआ -- जिसकी पत्नी वह रानी थी, जिसे वो हार बैठा था भाग्य की बिसात पर। वेरा की कुर्सी खिड़की के पास थी। वहाँ से वही ध्ाूप अचानक फूट पड़ी, उसके मुख पर जिसके लालच में नवाब ने अपना सत्यानाश करवा लिया था--
।ज जीम बीमेे ूपजी उम ेीम ख्थ्वतजनदम, हंद जव चसमलमय ॅपजी ीपत ंिसेम कतंनहीजे ख्चपमबमे, कलअमते
ैीम ेजंस वद उम, ंदक जववा उल मिते.
।दक ूींद प् ेंू उल मिते ंूंलम,
।ससें! प् ावनजीम दव समदहमत चसंलम.
मध्यकालीन खिलाड़ी जब चाल चलता था तो अपने मोहरे की कीमत केवल बिसात पर उसकी स्थिति से नहीं बल्कि उसकी समाज में क्या हैसियत है, उसको भी ध्यान रखता था। जैसे कि नाइट को रूख के समान माना जाता था जबकि बिसात पर उसकी ताक़त उसके मुक़ाबले कुछ भी न थी। जैसे कि मौगालिए। सुल्तान और फ़ातिमा की हैसयित भी ऐसी ही कुछ थी। और वह इससे भली-भाँति परिचित थे।
‘पूर्वी औरतें शतरंज की चैम्पियन रहीं हैं क्या?’ ‘हमारे पश्चिम के मिथकों में पूर्वी औरतें रहस्यमय-- बेहतरीन शातिर पर इश्क़ में कमज़ोर पड़ जाने वाली सुन्दरियाँ।’, वेरा मुस्कुरायी। सामने बैठी फ़ातिमा उतनी ही सुन्दर -- अंग्रेज़ी न जानते हुए भी शर्मा गयी। वज़ीर रानी किस साल बना होगा? फ़ातिमा ने टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में पूछा -- सन एक हज़ार के आस-पास। वज़ीर वैसे तो बहुत निक्कमा था -- एक बार में एक खाना चले वो भी टेढ़ा। मरोकजी ने मुझे बताया था कि स्पेन में मिली एक हिब्रू किताब में साफ़ लिखा है -- राजा और रानी में कोई अन्तर नहीं। वैसे जो मुझे पता है वो सब उसने ही सिखाया है। शतरंज की चालें, उसका इतिहास। मरोकजी अभी तो क्लर्क का काम करता है -- अभी शतरंज से छुट्टी ले ली। पैसा कहाँ है इसमें? चैसर की कविताएँ और शतरंज का इतिहास -- सब मुँहजुबानी जानता है जैसे उसके बही-खाते में उछलते आँकड़े। कमाल है - मैं तो बेडमिंटन खेल लूँ उतना काफ़ी। मेरी बहन ओल्गा और मैं। ऐसा कह कर वेरा ने अचानक अपने घोड़ें को ई5 पर रख कर फ़ातिमा का आवारा वज़ीर पीट दिया और मुस्कुरा कर फिर चैसेर का शेर सुनाया लगभग, गा कर --
श्।दक ूींद प् ेंूही उल मिते ंूंलमएध्।ससें! प् ावनजीम दव समदहमत चसंलम.श्
यह कोई संयोंग नहीं था कि स्पेन से मिली यहूदियों की किताब से पता चला था रानी को मिली इस नयी ताक़त का। ‘और हम कभी न भूलेंगे कैस्टील की इजबेल को’, तभी नवाब साहिब कमरे में दाखि़ल हुए। फ़ातिमा और वेरा तपाक से उठ खड़े हुए। नवाब साहिब क्या बाहर खड़े यह सब सुन रहे थे? ‘हम’ से आपका क्या मतलब? क्या आप अरब मूरों के वंशज हैं?’, वेरा ने उत्सुकता दिखायी। ‘नहीं, हम तो राजपूत मुसलमान हैं। परमार राजपूत। पर एक बार मुसलमान बनने पर हम सब के सुख-दुःख एक जैसे ही हैं।’ कैस्टील की इजबेल एलिजाबेथ-एक की टक्कर की थी। ग्रनाॅडा से मूरों को बाहर निकाल उसने यहूदियों के साथ भी यही किया और स्पैनिश इंक्वज़ीशन शुरू कर दिया। जब इसने दो सौ हज़ार यहूदियों को स्पेन से निकाल बाहर किया तो उन्होंने इसका बदला नयी-नयी सीखी -- ‘पागल रानी की शतरंज’ पूरे तुर्की और यूरोप में फैला कर लिया। स्पेन के यहूदियों ने इस नयी शतरंज में कई अनूठे प्रयोग किये और अनगिनत नायाब चालें और चक्रव्यूह ढूँढ लिये -- सदियों से बेहतरीन शातिर इसी जाति से आते रहे। वे यहूदी जो ईसाई नहीं बने -- आध्ाुनिक शतरंज उन्हीं का खेल है। यह लोग खाजर जाति के हैं -- इनकी आँखें हरी या नीली होती हैं। सोलहवीं शताब्दी में स्पेन के ही रुय लोपेज ने सबसे शानदार किताब लिखी थी। आपको तो याद ही होगा ई4, ई5, न.फ.3, न.सी.6, ब.ब.5। ‘पर यह ‘पागल रानी की शतरंज’ सबको पसन्द नहीं आयी’, वेरा ने सख़्ती से नवाब साहब की बात काट दी। ‘एक फ्राँसीसी कवि ने काले और सफ़ेद खानों पर तरह-तरह की गालियों के आध्ो-आध्ो शब्द कुछ इस तरह से लिखे कि हर चाल से एक नयी तुकबन्दी हो और उससे औरतों के लिए हर बार एक नयी गाली बने। शतरंज को उन्होंने औरतों से इश्क़ और नफ़रत दोनों से जोड़ दिया। किसी ने गालियाँ लिखीं और किसी ने प्रेम कविताएँ। प्रेम पर बनी प्रेम-शतरंज या लव-चेस जिसके चैंसठ पद -- शुक्र का इश्क़ मंगल से, जिसका साक्षी बुध्ा था। मंगल कसतेलवी का प्रतीक जो लाल मोहरों से खेल रहा था। लाल मोहरे जो वीनस का पक्ष पाने के चक्कर में सफ़ेद हो गये। वीनस विनयोलस का प्रतीक था। वह खेला हरे मोहरों से जो बाद में काले हो गये। जबकि बुध्ा (जो प्रतीक था फेनोल्लार का) केवल देखता रहा टकटकी बाँध्ा कर।’ नवाब साहब भी एकदम सहम से गये। फेनोल्लार की तरह वेरा की ओर बस टकटकी बाँध्ो देखते रहे।
पर वेरा ने अपना काम बख़ूबी किया। उससे शतरंज सीख कर फ़ातिमा 1932 में बरतनिया की औरतों की चैम्पियन बन गयी। वेरा जबकि कई बार विश्व-विजेता बनी (एक बार तो उसने कमाल की बाज़ी खेल कर सुल्तान खान को भी हरा दिया था -- उसका प्यादा खिसक कर सातवें घर कैसे पहुँचा -- सुल्तान भी न समझ न पाया था।) पर वह कभी भी बरतानिया की चैम्पियन न बन पायी क्योंकि वह देश-विहीन थी। उसे अभी तक बरतानिया की नागरिकता नहीं मिल पायी थी।
नोटः इसके आगे देसानी की पाण्डुलिपि कुछ टूट सी जाती है --कुछ पन्ने फटे हुए और स्याही के फैलने से ध्ाुँध्ाले अक्षर। मैंने थोड़ी मेहनत करके इसको पढ़ने योग्य बनाया था। देसानी के विचार अजीब, टूटे-फूटे अनगढ़े से। कई बार मेरा सिर चकरा जाता था -- कहाँ पर खुशी लाल की डायरी ख़त्म होती है और कहाँ पर देसानी की पाण्डुलिपि शुरू?
1.27 सात कुबड़ों की सीक्रेट सोसायटी
कापा बेचारे शतरंज के खेल के चैम्पियन क्या हो गये कि उनको भ्रम हो गया अन्तर्यामी होने का। जैसे आजकल अंग्रेज़ आइ.सी.अस. अफ़सर भारत आ कर अपना रौब झाड़ते हैं। उनको तो यह तक पता नहीं चला कि जिस नक़ाबपोश ने उनसे मोहरा माँगा था, वो आदमी नहीं एक पुतला था। इस पुतले की कहानी कुछ यूँ हैः 1683 में जब तुर्कों ने आस्ट्रिया पर हमला किया तो उन्होंने किसी तरह तो विएना का बचाव कर लिया पर उनके मन में तुर्कों का डर हमेशा के लिए बैठ गया इसी कारण जब हंगरी के तीस वर्षीय जीनीयस कंप्लिन, जो बेचारा पहले ट्रान्सलवेनिया की खदानों के लिए पम्प और मारिया थेरेसा के महलों के लिए फव्वारे वगैरह डिजाइन करता रहा था, उसने जब अपने जीवन का मास्टरपीस बनाया तो यूरोप के लोगों को आकर्षित करने के लिए उसने अपने उस गुड्डे का नाम तुर्क ही रखा जो बाद में ‘अजीब’ के नाम से भी जाना गया। कमाल की एंजिनिरिंग और जादू का मिश्रण -- जिसके रहस्य को खुलने में सत्तर वर्ष से ज़्यादा समय लग गया। अब उसने किया क्या था? जनाब उसने मशीन और इंसान का ऐसा मिश्रण बिठाया कि तुर्क के भेष में एक पुतला शतरंज खेलने लगा था। मशीनी पुतला, जो आँखे मटका-मटका कर बड़े बड़े खिलाडि़यों को हरा देता था। उसने कैथ्रिन-द-ग्रेट और नेपोलियन सहित कई जाने-माने लोगों के साथ शतरंज खेली और तो और महान शातिर फिलिडोर के साथ भी। नेपोलियन ने जब खेल में बेइमानी की तो गुस्से में इस पुतले ने अपने बिसात पर से मोहरे गिरा दिये। नेपोलियन अन्ततः हार ही गया तो उसने गुस्से में इस पुतले पर छह गोलियाँ दाग दीं। कंप्लिन बार-बार कहता रहा की जनाब यह केवल एक छलावा है और कुछ नहीं। उसकी बातों का किसी ने यक़ीन नहीं किया और यह तय हो गया कि कोई बड़ा षड्यन्त्र रचा जा रहा है -- यूरोप को तुर्कों के अध्ाीन करने का।
(नोटः पर यह तुर्क था कौन और पूरा मामला क्या था -- इसका भारत और इस सीक्रेट सोसायटी के साथ क्या सम्बन्ध्ा था इस पर देसानी ने खोज की है पर उसने न जाने क्यों सब तारीखें गड्ड-मड्ड कर रखीं हैं बाक़ी तथ्य दिलचस्प तो हैं पर बे-तरतीब। क्या उसने इस तरीक़े से इसलिए लिखा कि पाठक को उलझा सके या शायद ऐसी पहेलीनुमा कोड भाषा में लिखा कि जिसको जानना हो उसे ही पता चले?)
यह तुर्क लकड़ी का बना हुआ एक पुतला था। सफ़ेद पगड़ी, ध्ाारियों वाला कुर्ता, फर वाली जैकेट, सफ़ेद दस्ताने और और गुलाम कट मूँछें। सामने रखा टेबिल कोई चार से साढ़े चार फुट चोड़ा। दो फुट गहरा और तीन फुट ऊँचा। इसके सामने वाले हिस्से में तीन दरवाजे़ थे। नीचे एक दराज जिसको ऐसे रंग किया हुआ था कि वह एक दराज़ दो दिखें। इस मेज़ के पिछले हिस्से में दो दरवाज़े थे जिसमें से एक इसकी रीड की हड्डी का काम करता था। इस पुतले का दायाँ हाथ मेज़ पर रखे शतरंज के बोर्ड के पास रहता था। उसके बाएँ हाथ में एक चुरूट रहती थी। उसकी आँखे और गर्दन ऐसी हिलती थी जैसे कोई तम्बाकू के स्वाद का मज़ा ले रहा हो। आदम-कद का यह पुतला यूरोप के लोगों के दिलों में ख़ासा ख़ौफ पैदा कर रहा था। पर मुझे यह समझ में नहीं आया कि जोसफ़ को क्या ज़रूरत थी कि वह कंप्लिन को बोले कि अपने शतरंज के पुतले को पुनर्जीवित करो? और उसने उसे तुर्क ही क्यों बनाया? जोसफ़ ने उसे पुनर्जीवित करने के लिए तभी क्यों बोला जब वह ख़ुद तुर्कों के खि़लाफ लड़ रहा था? यह बात कुछ समझ में नहीं आयी। क्या यह आस्ट्रिया में प्रचलित तुर्की काफ़ी की वजह से था या कि इस कारण से कि आस्ट्रिया के लोग अपने नौकरों को तुर्की पोशाक पहनाते थे। कंप्लिन कभी भी तुर्क को वापिस जिन्दा नहीं करना चाहता था। उसको थोड़ा बहुत यूरोप में घूमाने के बाद उसने उसको खोल-खाल के लकड़ी के बक्सों में बन्द कर दिया। उसने तो शुक्र मनाया जब उसका तुर्क से पीछा छूटा। जब मारिया थेरेसा बीमार पड़ी तो कंप्लिन ने उसके लिए ऐलिवेटर वाला बिस्तर बनाया। अन्ध्ाों के लिए टाइपराइटर और बोलने वाली मशीन। भला बन्दा था बेचारा पर यह अंग्रेज़ सबसे शातिर निकले। कंप्लिन को ख़बर भी न होगी कि उसकी बोलने वाली मशीन (जिसकी तारीफ़ गोइथे ने भी की थी) ग्राहम बैल को टेलिफोन को इजाद करने के प्रेरणा देगी और उसका तुर्क कार्टराइट को पावर-लूम बनाने की प्रेरणा देगा। (इसी पावर-लूम के बल पर बरतानिया ने हिन्दुस्तान की अर्थ-व्यवस्था को तबाह कर दिया था।) कंप्लिन की मृत्यु के बाद उसके बेटे ने यह तुर्क माइल्जेल को बेच दिया। 1854 की एक रहस्यमय आग में जब यह जल गया तो उसके बाद कभी नहीं दिखा। हमारी कहानी इसी आग के बाद शुरू होती है। बाद में यह साबित ज़रूर हो गया कि उस समय के बेहतरीन शातिर, चिन्तक, कलाकार, वैज्ञानिक व लेखक इस षड्यन्त्र में शामिल थे। (उन दिनों यह अफ़वाह भी फैली कि बगदाद के सुल्तान के पास शतरंज खेलने वाला एक बन्दर है। वही बन्दर इसी तुर्क के अन्दर बैठा हुआ शतरंज खेल रहा है।) एक ख़ास योजना के तहत शतरंज के माहिर लोग इस पुतले के अन्दर घुस कर शतरंज खेलते थे। क्योंकि मेज़ छोटा होता था और इस के अन्दर घुटन में बैठ चुप कर के खेलना पड़ता था -- यह बुद्धिमान लोग कुबड़े होते गये और बाद में इन कुबड़ों ने अपनी एक गुप्त साॅसायटी बना ली। पहले-पहल तो शायद वो ऐसे ही गप-शप के वास्ते मिलते थे पर फिर जब उन्होंने देखा कि उस समय के लगभग सारे ही बुद्धिजीवी उनके पास हैं तो उन्हें लगा वह पूरे विश्व पर क़ब्जा कर सकते हैं। मेज़ के अन्दर से शतरंज खेल कर उनका शरीर और बिसात एक ही चीज़ हो गयी थी। 1931 में जब कापा और नवाब साहिब जब उस सोसायटी में गये थे तो उन्होंने इस बात पर पता नहीं क्यों ध्यान नहीं दिया था कि नक़ाबपोश पुतले के बगल में छह कुबड़े खड़े थे। सातवाँ कुबड़ा पुतले के अन्दर था। 1854 में इन्होंने ही चाल्र्स विल्सन के संग्रहालय में आग लगवायी थी। माइल्जेल की मृत्यु के बाद यह पुतला एदगर एलन पो के डाॅक्टर ने ले लिया था। उसकी इसमें रुचि पो के उस लेख से हुई जिसमें उसने इसके विज्ञान को समझने की चेष्टा की थी। (वह लेख लिखने के बाद पो के लेखन में चमक आ गयी थी। वह पहला ‘एब्स्ट्रैक्ट-रीजनर’ बना जो बाद में शरलोक होल्मस के काम आया। उसको इतनी जल्दी जो सफलता मिली इससे शक ज़रूर होता है कि शायद पो भी एक कुबड़ा था पर इसके कोई सबूत नहीं मिलते हैं)। उस आग के बाद यह कहानी भी ख़ूब फैली कि आग की लपटों में से तुर्क की चीख़ें सुनायी दी थीं -- वह ज़ोर-ज़ोर से चैक-चैक चिल्ला रहा था। पुतला पता नहीं कैसे यहाँ लन्दन आ गया और कई सालों तक वह इस गुप्त-समाज की बैठकों में दिखता रहा था। ध्ाीरे-ध्ाीरे इसका रंग-रूप बदल गया। शुरू में कुल पचपन कुबड़े इसके सदस्य थे पर अब केवल सात ही बचे थे। सारे आदेश पुतला देता था और उसके कहे पर ही दुनिया चलती थी। और कुबड़े बारी-बारी से उसके अन्दर प्रवेश करते थे। बाक़ी कुबड़ों व सदस्यों को इसका कहना आँख मूँद कर मानना पड़ता था। अगर उन्हें कोई फैसला अच्छा न भी लगे तो बहुत विनम्रता और ध्ाीरज से अगले कुबड़े का इन्तज़ार करना होता था। जिस स्वभाव का कुबड़ा उसके अन्दर होता उसी के अनुसार दुनिया चलती। कुबड़ा दयालू या क्रूर। एक बार तो एक छोटी लड़की भी इसकी सदस्य बनी और बहुत जल्दी तरक़्क़ी कर पुतले में जा घुसी। पर वह दयालू निकली और एक-आध्ा बार आदेश देते वक़्त उसने अन्दर से छींक मार दी थी। और तो और जब कई वर्षों तक उसका कूबड़ भी न निकला तो उसे इस सोसायटी से निकाल दिया गया। (बाद में वान ब्राउन को ख़ास संकेत भेज कर उसके घर पर वी-2 बम गिरवा के उसकी हत्या कर दी गयी थी)। तभी से औरतों को इस सोसायटी से बाहर रखा जाने लगा। सोसायटी में होने वाली गुप्त कारवाईयों के अध्ययन से प्रथम और द्वितीय विश्व-युद्ध को समझा जा सकता था। इस पुतले का रहस्योद्घाटन शतरंज के खिलाड़ी फिलिडोर के पड़पोते जाक मूरेट ने कर दिया था। वह शराबी था और उसको हमेशा पैसों की ज़रूरत रहती थी। पहला कुबड़ा ही दगाबाज निकला। क्या यह मात्र संयोग था कि जिस वर्ष तुर्क का विश्व-भ्रमण बन्द हुआ उसी साल पाॅल मफऱ्ी का जन्म हुआ और जब वह अल्पायु में सारे दुनिया के शतरंज के माहिरों को हराने के बाद पागलपन का शिकार हुआ तो अपने बरामदे में टहलता हुआ यह कहता हुआ पाया गया -- ‘वो फहराएगा कैस्टील का झण्डा मद्रिद की दीवारों पर -- पराजित शहर की चीख़ें और छोटा राजा शर्म से भाग खड़ा होगा’। रानी जब ताक़तवार हुई तो फ्रायड ने यह निष्कर्ष क्यों निकाला कि पिता को मारने के लिए बच्चे को अपनी माता का साथ मिल गया है। जब उसने यह बात कही तो तुर्क के बुत के अन्दर वह ख़ुद बैठा हुआ था। वह भी इसी सोसायटी का एक कुबड़ा था। भारत के लाल राजा बाबू कंप्लिन के अवतार थे और एकमात्र भारतीय कूबड़े जिन्हें इस साॅसायटी की सदस्यता प्रदान की गयी। इस पुतले की मरम्मत से लेकर कई नये वैज्ञानिक अविष्कार उन्होंने इसी सोसायटी का सदस्य रहते हुए किये थे।
नोटः देसानी के डायरी यहीं ख़त्म होती है। उसके अनुसार उसने यह सब जानकारी कापा को नवाब के घर से लौटते वक़्त दी थी। कापा को यह सब जान कर अचरज तो हुआ पर बिना कुछ कहे वे चुपचाप सारी बात सुनते रहे। लम्बी सैर और इस कहानी के बाद अन्ततः देसानी का फ्लैट आ गया। जब देसानी उनसे इजाज़त ले कर अन्दर जाने को हुआ तो कापा ने उसको कुछ क्षणों के लिए रोका और कुछ झिझकते हुए पूछा कि 1784 में लन्दन में तुर्क सबसे पहले सेविल-रो में ही क्यों दिखाया गया? ठीक वहीं पर जहाँ से कापा अपने सूट सिलवाते थे?
1.28 मुलाकात -दो
लन्दन, दिसम्बर-1931
डाॅक्टर जेकल और मिस्टर हाइड नामक फि़ल्म देख कर अलयेखिन सिनेमा-हाॅल से बाहर निकले तो कुछ हैरान-परेशान से थे। वे फर्डेरिक मार्च के अभिनय से इतने मुतास्सिर हुए थे कि कई वर्षों बाद आज मन में फिर से टीस उठी -- शायद उन्हें भी अभिनेता बन जाना चाहिए था। एक बार लड़कपन में शतरंज से घबरा कर उन्होंने अभिनेता बनने का सोचा था। जुनून इतना बढ़ गया था कि तभी नये-नये खुले सिनेमा के स्कूल में दाखि़ल लेने भी चले गये थे। शुक्र है दाखि़ला नहीं हुआ और शतरंज के विश्व-विजेता बन गये। अचानक अपने आपको डाॅक्टर जेकल और मिस्टर हाइड की भूमिका में सोच कर हँस पड़े और अकेले सड़क पर चलने लगे जबकि वह कार में बैठ कर वापिस जाना चाहते थे। उनको डर था कि अगर पैदल गये तो कापा रास्ते में दिख जाएगा। उनका यह बेवजह डर कापा की हर जगह पैदल जाने की आदत से उपजा था। सड़क पर प्रकाश कम था। काली मनहूस सी रात -- बिलकुल उस फि़ल्म के जैसी। पीछे से स्ट्रीट-लैम्प का प्रकाश उनकी परछायीं को लम्बी और भयानक बना रहा था। अलयेखिन अचानक रुके और मटमैली पीली रौशनी से बनी अपनी काली परछायीं को ध्यान से देखने लगे। जीवन में पहली बार अलयेखिन को अपनी-आप पर तरस आया -- आखि़र क्या हैं वो? अभागे या भाग्यवान? अमीर या ग़रीब? सच्चे या झूठे? बेवक़ूफ या चालाक? बेचारे या बुरे? तभी उनकी परछायीं पेड़ में बदल गयी। अलयिशा नामक पेड़ की पैदायश अलयेखिन को समझना बहुत मुश्किल था। अलयेखिन को अचानक मरने की तीव्र इच्छा हुई। हैरानी हुई कि कई बार मौत के मुहँ से निकलने के बाद भी जीवन को सहेजने और अपने ढंग से जीने के संघर्ष में व्यस्त इनको अचानक यह मरने का ख़याल कैसे आ गया? मरने का ख़याल मनहूस नहीं था बल्कि मन हल्का और रात कम बोझिल लगने लगी। वापिस जा कर सुल्तान खान से दो-चार ब्लिट्स बाजि़याँ खेलने से आने वाला आनन्द मन को प्रफुल्लत कर गया।
चालीस वर्षीय अलयेखिन कुछ ही दिन पहले लन्दन पहुँचे थे। लन्दन में वह नवाब सर उमर हयात खान के मेहमान थे। आज अकेले फि़ल्म दखने आ गये थे। वह चाहते थे कि सुल्तान खान भी उसके साथ आता पर एक तो उसको अंग्रेज़ी नहीं आती थी दूसरे नवाब साहब के यहाँ उसको अक्सर इतना काम रहता था कि तफ़रीह के लिए बाहर निकलना लगभग नामुमकिन था। यह कोई मामूली बात नहीं थी कि एक के बाद एक शतरंज के इतने बड़े-बड़े दिग्गज सुल्तान खान से मिलने आ रहे थे। नवाब साहिब बड़े फ़ख़्र से यह मुलाक़ातें आयोजित करते थे। उनको पूरा विश्वास था कि कुछ एक महीनों बाद सुल्तान इन सबको पछाड़ कर वल्र्ड-चैम्पियन बन जाएगा।
देसानी के नोट्सः इसके आगे पाण्डुलिपि में कुछ नहीं है। कई प्रश्न अनुत्तरित रह गये। अलयेखिन ने सुल्तान खान से क्या बात की? क्या वह कभी उस सीक्रेट सोसायटी में जा पाया? क्या उसको उन्होंने कापा की तरह अपना कूबड़ा बनाने की चेष्टा की? क्यों सुल्तान खान कभी भी अलयेखिन को हरा नहीं पाया? अलयेखिन की मृत्यु रहस्यमय परिस्थितियों में हुई थी। कूबड़ा बनने से इंकार करने की वजह से तो नहीं?
देसानी ने अपने तौर पर कुछ जानकारी इध्ार-उध्ार से एकत्र की थी, कुछ ख़ास लोगों के इन्टरव्यू वैगरह ले करः
1.29 इन्टरव्यू - एक
अलयेखिन अजीब आदमी था साहब। अनगिनत चालों के जोड़ से जादू पैदा कर देने वाला माहिर शातिर। भाग्य से अमीर ख़ानदान के यहाँ जन्म लिया और फिर रूसी क्रान्ति में यही भाग्य दुर्भाग्य में बदल गया। छोटी उमर में नाम कमा लिया था। शतरंज का शौक़ इतना गहरा था कि बिलकुल पागलपन, एक बार अल्जेबरा की कक्षा में मास्टरजी ने कोई प्रश्न किया तो अचानक खड़ा हो कर बोला, हाँ पता चल गया -- अगर घोड़ा फलाँ खाने पर चले तो बाज़ी मेरी। पूरी कक्षा हँसने लगी थी। अल्जेबरा का उत्तर चेस नोटेशंज से दे दिया। सबको लगा कि यह पागल तो न जाने कब दुनिया जीत जाए। इस अभागे का दुर्भाग्य देखिए साहब -- मनहाईम, जर्मनी में जहाँ यह लोग टूर्नामेंट खेल रहे थे -- अलयेखिन साफ़ जीत रहे थे और बड़े खुश थे। उस प्रतियोगिता के दौरान ही अचानक पहला विश्व-युद्ध छिड़ गया और दुश्मन देश से होने की वजह से पकड़ कर जेल में डाल दिये गये। लोगों ने गलियों में पीटा और उनकी स्कोर-शीट को उन्होंने जासूसी कोड समझ लिया। क्या यह किसी प्रकार का संकेत था कि पहले विश्व-युद्ध के समय उनके आखि़री प्रतिद्वन्दी ने फ्रेंच-डिफेन्स खेला था? किसी तरह छूट के वापिस पहुँचे तो माता-पिता चल बसे। पिता तो एक साल तक जर्मन जेल में रहे फिर बोलश्विकों ने निर्ममता से उनका क़त्ल कर दिया। अलयेखिन ख़ुद रेड- क्राॅस में काम करते हुए बाल-बाल बचे और बम से जख़्मी हो कर कोई एक महीना एक ही मुद्रा में हाॅस्पिटल के बेड पर पड़े रहे - शेल-शाॅक्ट्ड! वहीं पर लेटे-लेटे कई ब्लाइंड्फोल्ड बाजि़याँ खेलीं जो बाद में शतरंज के इतिहास की बेहतरीन बाजि़यों में शुमार की गयीं। अस्पताल से छूटे तो मास्को पहुँच कर दो बहादुरी के मेडलों से नवाजा गये। पर तभी रूसी क्रान्ति हो गयी और अलयेखिन एक शहर से दूसरे शहर भागते फिरे। जब बोलश्विकों ने सत्ता पर क़ब्जा कर लिया तो चूँकि यह कुलीन वर्ग से आते थे तो शत्रु की श्रेणी में पाये गये। माता-पिता की अपार सम्पत्ति जब्त हो गयी। यह ज़माना यानी 1918-1919 का साल, लाल-आतंक के नाम से जाना जाता है -- भयंकर समय, जब हर ओर गिरफ़्तारियाँ की जा रही थीं, गोलियाँ मारी जा रही थीं। किसी को भी शक के आध्ाार पर पकड़ा जा सकता था। चूँकि अलयेखिन लाल न हो के सफ़ेद माने जाते थे, उनकी गिरफ्तारी कभी भी हो सकती थी। उनके कुछ दोस्तों ने उनको जब्त की हुई सम्पति बाँटने वाले डिपार्टमेंट में नौकरी दिला दी (विडम्बना यह कि उनकी ख़ुद की सम्पति भी उसी विभाग के पास जब्त थी)। इस नौकरी के वास्ते उन्हें काॅम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनना पड़ा था फिर भी वह अपनी गिरफ्तारी से बच न पाये। तुरन्त ही उनको गिरफ़्तार करके गोली मारने के आदेश दे दिये गये। फायरिंग स्क्वाॅड के सामने जाने से केवल दो घण्टे पहले वे कैसे बचे, इसकी कई कहनियाँ हैं -- एक तो यह कि त्रोत्सकी ख़ुद ही उनके पास आये और जेल में बैठ कर शतरंज खेली। दूसरे कि किसी अफ़सर ने बचा लिया। अलयेखिन ने ख़ुद भी रूबेन फाइन को बताया था कि चेका की जेल में उन्होंने कुछ वक़्त गुज़ारा था। (यह बात कि त्रोत्सकी ने अलयेखिन की जान बचायी -- रूबेन फाइन ने ही देसानी को बतायी थी)। ख़ैर मौत से बाल-बाल बचने के बाद पता नहीं अलयेखिन के दिमाग को क्या झटका लगा कि उन्होंने शतरंज छोड़ कर अभिनता बनने का फैसला कर लिया, और तुरन्त ही नैशनल फि़ल्म स्कूल में दाखि़ले के लिए आवेदन दे दिया फिर अचानक मन बदल गया और टाइफस हो गया। उसी वक़्त हुई पहली सोवियत प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और जीत भी गये! पर उस वक़्त की हालत क्या बताऊँ साहब, उस हाल में जहाँ प्रतियोगिता हो रही थी इतनी ठण्डा थी कि खिलाड़ी काँपते हुए मोहरे उठाते थे। कई काँपते हुए हाथ ग़लत मोहरे को छू लेते थे तो झगड़े हो जाते। ठण्डा कमरा और खाने को रोटी नहीं। खिलाडि़यों ने हल्का-सा प्रोटेस्ट किया तो अलयेखिन ने तुरन्त आगे बढ़ कर उनका समर्थन कर दिया। उनके लिए यह एक बहुत बड़ी ग़लती साबित हुई। मास्को की ख़ुफिया पुलिस को संकेत दे दिया गया कि अपने इस नये चैम्पियन पर नया मुकदमा चलने के लिए कोई सबूत जुटाए जाएँ। किस्मत अच्छी थी कि उन्हीं दिनों अच्छी जर्मन और फ्ऱेंच भाषा जानने के कारण इसको दुभाषिये का काम मिल गया था। वहीं पर इसकी एक इक्तालिस वर्षीय स्विस महिला से मुलाक़ात हुई और जल्दी से शादी करके किसी तरह देश से बाहर निकल भागे। अलयेखिन ने अपने जीवन में चार बार शादी की और हमेशा अपनी से बड़ी औरतों से। मुझे उसने एक बार कहा था ‘मैं शतरंज खेलता नहीं बल्कि लड़ता हूँ बिसात पे। सामरिक को स्ट्रैटेजी से, फंतासी को विज्ञान से और कोंबीनेटिव को पोजिशनल से मिला कर मैं कोशिश करता हूँ शतरंज की हर बाज़ी जीतने की।’ यह बात उसने मुझे 1927 में कापाब्लांका के साथ विश्व-चैम्पियन्शिप का मैच जीतने के बाद कही थी। जब कापा मैच हार गये तो उन्होंने पत्र लिख कर अपनी हार मान ली-- ‘प्रिय अलयेखिन! मैं हार मानता हूँ। तुम अब विश्व-चैम्पियन हो। कृपया मेरी मुबारकबाद क़बूल करो, शुभकामनाएँ, कापाब्लांका।’ बाद में कापा ख़ुद चेस-क्लब गये और नये चैम्पियन का अभिवादन किया -- हाथ मिलाये -- गले मिले -- लोगों ने ख़ूब तालियाँ बजायीं। पर अन्दर की बात बताऊँ तो कापा के लिए वह अवाॅर्ड-सेरेमोनी असहनीय थी। उनको यह बात साफ़ हो गयी थी कि अलयेखिन के जीतने से एक नयी तरह की शतरंज पैदा हो गयी है। स्टेनिट्ज के बाद की शुद्ध शास्त्रीय शतरंज का ख़ात्मा हो गया है और एक नयी तरह का खेल पैदा हो चुका है -- एक तरह का मनोवैज्ञानिक युद्ध। इस जीत के नशे में अलयेखिन अपने जीवन का एक ओर (जिसे शतरंज की भाषा में) बलंडर कहते हैं, कर दिया। नये विश्व-विजेता के रूप में वह जब पेरिस पहुँचे तो उन्होंने अपनी शराब का गिलास उठा कर टोस्ट बनाया ओर ऊँची आवाज़ में दुआ की कि ‘बोलश्विकों के अजेय होने का भ्रम हमें बिलकुल ऐसे ही तोड़ देना चाहिए जैसे कि मैंने अभी-अभी कापाब्लांका के अजेय होने का मिथ तोड़ा है आमीन!” इस टोस्ट की ख़बर उसी महफिल में बैठे अलयेखिन के दोस्त और सोवियत जासूस साशा ने सोवियत चेस माफिया के जनक क्रिल्यांको तक पहुँचा दी। क्रिल्यांको ने तुरन्त एलान कर दिया कि आज से अलयेखिन हमारा दुश्मन है -- हम उसके साथ एक दुश्मन जैसा ही सलूक करेंगे। उध्ार कापा अपना खि़ताब वापिस पाने के लिए तड़प रहे थे और जल्दी से रिटर्न-मैच मैच खेलना चाहते थे। यह रिटर्न-मैच क्यों नहीं हो पाया, इसका किसी के पास कोई जवाब नहीं था। अगर ढंग से तफ़्तीश की जाए तो एक जासूसी उपन्यास लिखा जा सकता है। आरोप-प्रतियारोपों का लम्बा सिलसिला चला जिसका कोई हल नहीं निकला। मूल बात यह है कि कापा नियमों में बदलाव चाहते थे यानी की बाजि़यों में कुछ कमी की जाए -- अनगिनत बाजि़याँ खेल कर वह थक जाते थे। अलयेखिन इसके लिए तैयार नहीं थे, उन्होंने इस बात को इतना टाला कि ऐसा प्रतीत होने लगा कि शायद अलयेखिन अपना खि़ताब खोने से डर रहे हैं। अन्ततः दोनों महान ग्रैंड्मास्टर एक दूसरे के बड़े दुश्मन बन गये। वैसे कापा भी कभी पैसे का प्रबन्ध्ा तो न कर पाये। अलयेखिन ने इसका जवाब उस समय के शतिरों को दो गुटों में बाँट कर दिया -- नीओ-रोमांटिक यानी हाइपर-माॅडर्निस्ट और सुध्ाारक गुट। हाइपर-माॅडर्निस्ट शातिरों का कहना था कि सीध्ाा मध्य पर हमला क्यों करना है? बगल से मध्य पर ज़्यादा अच्छी तरह दबाव डाला जा सकता है। यह बाज़ी को शुरू करने का कारुणिक तरीक़ा था। शतरंज ख़ुद एक ट्रैजिक कला है -- क्योंकि कई बार शातिर अपनी उत्थान के लिए अपने से बाहरी शक्तियों पर निर्भर है। पर कभी न भूलें शास्त्रीय पद्धति से खेलने वाले रूबेन्स्टायन, मार्शल और रूडाॅल्फ को। उध्ार क्रयलेंको ने अपना दमन जारी रखा हुआ था, पहले तो उसने शख़्मती पत्रिका यह कह के बन्द करवा दी कि इसमें राजनीतिक लेख नहीं छपते हैं और यही एक वजह है कि अलयेखिन जैसा गद्दार भी इसमें अपने लेख लगातार छपवा रहा है। पर अलयेखिन की खुशी ज़्यादा देर टिकी नहीं। 1935 में हाॅलंड में कुछ अनोखा हुआ और एवे नामक एक खिलाड़ी ने अलयेखिन से विश्व-विजेता का खि़ताब छीन लिया। अपनी हार से अलयेखिन इतना घबरा गया कि अचानक पैंतरा बदला कर क्रिल्यांको को सोवियत सिस्टम की तारीफ़ करते हुए एक ख़त लिख दिया। कई हफ़्तों के इन्तज़ार के बाद जब वहाँ से कोई जवाब नहीं नहीं आया तो रिटर्न-मैच की तैयारी शुरू कर दी और अन्ततः एवे से 1937 में खि़ताब वापिस भी जीत लिया। इसके बाद अपने वतन वापिस जाने की इच्छा फिर से बलवती हुई और माफ़ी माँगते हुए कई और पत्र लिख दिये-- किसी का जवाब नहीं आया। अब रूस में स्टालिन का दमन ज़ोरों पर था। किसी को भी शक के आध्ाार पर मौत के घाट उतार दिया जा रहा था। 1938 में तो क्रिल्यांको को ही गोली मार दी गयी। उसकी कहानी भी बड़ी अजीब है। फिर कभी। 1939 में अलयेखिन और कापा आखि़री बार मिले। ब्वेनाॅस एरीज के ओलम्पियाड में अलयेखिन ने एक बार फिर कापा को सिफऱ् बीस चालों में हरा दिया। इस टूर्नामेंट के बीच में ही द्वितीय विश्व-युद्ध छिड़ गया और परिस्थितियाँ एकदम वैसीं बन गयीं जैसे कि पहले विश-युद्ध के दौरान मनहाईम के टूर्नामेंट के दौरान बनी थीं। अलयेखिन और तारतकोवर ने जर्मन टीम का बहिष्कार करने का प्रस्ताव रखा। इसी दौरान कापा के साथ फिर से मैच की बात चल पड़ी थी। इसके बाद अलयेखिन वापिस पेरिस आ गये और फ्राँसीसी फ़ौज में दुभाषिये का काम ले लिया। पर दुर्भाग्य ने यहाँ भी पीछा न छोड़ा और 1940 की गरमियों में अलयेखिन का क्षेत्र जर्मन क़ब्जे में आ गया। इसके बाद अलयेखिन का पतन (जिसे शतरंज की भाषा में एंड-गेम कहते हैं) शुरू हो गया। उसने अपनी चैथी पत्नी ग्रेस के साथ पोर्तुगल से अमेरिका भागने की योजना बनायी। 1941 में नाजि़यों ने आखि़रकार अलयेखिन को लिज्बन जाने की इजाज़त तो दे दी पर पत्नी को साथ नहीं ले जाने दिया। इसके अलावा उन्होंने उससे यहूदी खिलाडि़यों के खि़लाफ कुछ भद्दे लेख भी लिखवा लिये। जर्मन क़ब्जे वाले क्षेत्र में रहते हुए उसने कुल सोलह प्रतियोगिताओं में भाग लिया जिसमें से उसने तेरह में विजय हासिल की। 1942 में उसको प्राग में जा कर रहने का आदेश दिया गया। वहाँ वो स्काॅर्लेट फीवर से मरते-मरते बचे। बीमारी के दौरान वह उसी अस्पताल में भर्ती हुए जहाँ उनके ग्रैंड्मैस्टर दोस्त रेती ने अपना इलाज करवाया था। रेती की इस बीमारी से मृत्यु हो गयी थी। पर कमाल की बात यह कि अलयेखिन ने न केवल बीमारी को मात दी बल्कि बुखार से थोड़ा बाहर आते ही उसने बड़े शानदार तरीक़े से प्राग की चेस-टूर्नामेंट जीत ली। उन्हीं दिनों केरेस नामक ग्रांडमास्टर भी जर्मनी के क़ब्जे वाले क्षेत्र में मौजूद थे। अलयेखिन ने उसे कई बार न्योता भिजवाया कि भाई कि चलो हम दोनों वल्र्ड-चैम्पियन्शिप खेल लेते हैं। अब तो जर्मन लोगों का ही राज रहने वाला है। केरेस ने जब मना कर दिया तो अलयेखिन ने उपहास में कहा यह सब कमबख़्त मेरे बूढ़े होने का इन्तज़ार कर रहे हैं। उन्हीं दिनों अलयेखिन के भाई की मृत्यु हो गयी और कुछ एक सालों बाद बहन की ख़बर भी आ गयी। नाजि़यों की करारी हार के बाद अलयेखिन अकेलेपन और बीमारी के उस दौर में एक ख़ाली पड़े होटल में पड़े पत्र लिखते रहे --गिड़गिड़ाते हुए अपने दोस्तों को अपने बारे में सफाई देते हुए। तभी एक अच्छी ख़बर आयी कि ब्रिटिश चेस एसोसिएशन ने युद्ध के बाद होने वाली पहली टूर्नामेंट में खेलने का न्योता भेजा है। पर कुछ ही समय बाद यही ख़बर बुरी ख़बर में बदल गयी। क्योंकि उन्होंने युद्ध के समय जो यहूदियों के खि़लाफ लेख लिख थे (उसने एक लेख में यह स्पष्ट करने की कोशिश की थी कि कैसे एक आर्यन शतरंज का खिलाड़ी सामी खिलाड़ी से बेहतर होता है। दूसरे उसका एक इन्टरव्यू, जिसमें उसने कहा मैं मुबारकबाद देता हूँ कापा को जिसने लासकर जैसे यहूदी से विश्व-विजेता का खि़ताब जीत लिया।) इन्हीं कारणों से ब्रिटिश चेस एसोसिएशन ने न्योता वापिस ले लिया था। (उनके न्योते का प्रतिवाद रूबेन फाइन नामक अमरीकी ग्रांडमास्टर ने किया था। इसका नाम इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अलयेखिन के बाद यह भी सुल्तान खान से मिलने उसके घर गये थे)
अलयेखिन की मृत्यु रहस्यमय परिस्थियों में उसी होटल में हुई। उसके बेटे का मानना था कि सोवियत सीक्रेट पोलीस ने उनकी हत्या करवायी है। कापा ने उसके मरने के बाद कहा, ‘वह एक ठेठ स्लाव थे, भूरे बाल, नीली आँखें -- जब भी वह किसी टूर्नामेंट में दाखि़ल होते सब तुरन्त उसकी तरफ देखने लगती। छह भाषाएँ जानने वाला शातिर। सोबोर्न से कानून की डिग्री, कमाल की स्मरण-शक्ति।’ हाॅलैण्ड का एवे (जिसने उससे एक बार खि़ताब जीत लिया था) ने कहा, ‘उसको अलेन-इछ (ंसमपद-पबी) बोलना चाहिए। जिसका जर्मन भाषा में मतलब है -- नितांत अकेला!’
इतना लिखने के बाद देसानी ने एक चार्ट बनाया हुआ है -- जिसमें अलयेखिन के जीवन के उतार-चड़ाव और भाग्य-दुर्भाग्य को मापा हुआ है। चार्ट की रेखा ऊबड़-खाबड़-सी ऊपर-नीचे जाती दिखती है।
1.30 इन्टरव्यू-2
कापा की विध्ावा ओल्गा
कापा के हर किसी के साथ अच्छे सम्बन्ध्ा थे सिवाय अलयेखिन के। मैंने उसे पहली बार काल्र्सबड के आस-पास कहीं देखा था। मेरे विचार से 1936 के आस-पास। गरमियों के दिन थे। एक गार्डन में पार्टी चल रही थी। मैं किसी से बात कर रही थी कि अचानक मेरे सामने बिखरे बालों वाला एक व्यक्ति आकर खड़ा हो गया। वह किसी दुकान का सेल्समान जैसा दिख रहा था। वह अलयेखिन था। क्या वो आकर्षक था? जी नहीं! बिलकुल इसके विपरीत फीका-से व्यक्तित्व वाला। मैंने उसको तुरन्त पहचान लिया। उसके कई फोटोग्राफ देख रखे थे। कापा का पक्का दुश्मन। मैं तो उसको देखते ही घबरा गयी। उसने झुक कर अपना परिचय दिया, ‘मेरा नाम अलयेखिन है -- मैं आपसे अकेले में कुछ ज़रूरी बात करना चाहता हूँ।’ इसके बाद वह मुझे बाग एक कोने में ले गया और बड़ी सख़्ती से बात करने लगा। आज भी मुझे याद है उस बाग में हर जगह छोटे-छोटे टमाटर के पौध्ो लगे हुए थे। उसने मुझसे कहा कि कापा उसके बारे में जो भी राय रखे पर लोगों के सामने जब भी हम मिलें तो एक-दूसरे का अभिवादन करना चाहिए। अभी जब मैं उससे मिला तो उसने मेरी तरफ देखा भी नहीं। ‘कापा के पास इस व्यवहार के लिए कुछ कारण तो होंगे।’, मैंने थोड़ा रूखे शब्दों में जवाब दिया। ‘शायद’, अलयेखिन बोला, ‘बेशक एवे ने मुझसे विश्व-विजेता का खि़ताब जीत लिया है और वो अफिशल वल्र्ड-चैम्पियन है तब भी सारी दुनिया जानती है कि इस वक़्त दुनिया में केवल दो ही सबसे बेहतरीन खिलाड़ी हैं -- मैं और कापा’। ‘नहीं ‘कापा और आप’, मैंने उसको तुरन्त दुरुस्त किया। ‘यह बात तुम जानते भी हो फिर भी तुम उसे रिटर्न-मैच नहीं दे रहे हो।’ उसने मेरी तरफ अजीब सी नज़रों से देखा और बोला ‘एवे के साथ हुए मैच के दौरान मैं बीमार था। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ’। ‘इसी तरह तुम्हारे साथ हुए मैच में कापा की तबियत भी ठीक नहीं थी।’ उसने फ्राँसीसी भाषा में मुझे कहा श्ब्श्मेज पउचवेेपइसम कम चंतसमत ंअमब अवने. टवने मजमे नदम जपहतमेेमश् यानी आपसे बात करना बहुत मुश्किल है आप एक शेरनी हैं। इसके बाद मैंने उससे कभी बात नहीं की। हम एक दूसरे पर रूसी और फ्ऱेंच भाषा में चिल्ला रहे थे। एक भाषा से दूसरी भाषा पर कूद रहे थे। जब मैं वापिस आयी तो कापा को बताया कि अलयेखिन ने मुझे एक शेरनी कहा है। कापा ने मुझे पूछा कि अलयेखिन तुम्हें कैसा लगा? तो मैंने कहा कि अगर किसी मर्द की आप चिकोटी काटें तो आम आदमी तो दहाड़ेगा पर अलयेखिन किकियाएगा, ऐसा सुनते ही कापा ने मेरा हाथ पकड़ कर चूमा और बोला, ‘तुम तो हो ही मेरी शेरनी।’ फिर अचानक उनका चेहरा सख़्त हो गया और थोड़े तल्ख़ स्वर में बोले -- मुझे अलयेखिन से नफ़रत है।
1.31 इन्टरव्यू - तीन
रूबिन फाइन जिसने द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद अलयेखिन पर पाबन्दी लगवायी थी
जनाब मेरी पहली इच्छा या इम्पल्स तो यह थी कि डाॅक्टर एवे मेरे बारे में बात करें -- अपने मुहँ से अपनी तारीफ़ कैसे करूँ। फिर मैंने सोचा कि जब मैं ख़ुद ही एक साइको-एनालिस्ट हूँ, तो निष्पक्ष-रूप से अपने बारे में बात करने में क्या हर्ज? मेरा जन्म 1914 को न्यूयाॅर्क में हुआ। मैंने स्कूल और काॅलेज में ख़ूब शतरंज खेली पर यह बताते हुए मुझे बेहद शर्म आ रही है कि ग्रांडमास्टर बनने तक मैंने शतरंज पर एक भी किताब नहीं पढ़ी थी। मेरे जीवन में मेरा पहला शतरंज का नायक अलयेखिन था। मेरे शुरुआती दिनों यानी 1930-31 के दौरान उसका खेल शानदार था। अगले साल मैं जब उसे पेसोडिना में मिला तो उसका खेल थोड़ा डगमगाता-सा हुआ था। बड़ी मेहनत से ही सही पर उस दिन मैंने बाज़ी ड्राॅ करवा ली थी। कुछ सालों बाद उसके बारे में कई कहानियाँ फैलने लगी थीं कि वो शराबी है , अपनी बीवी को पीटता है वगैरह। उसने चार शादियाँ की। हर बार उसकी पत्नी उससे कई वर्ष बड़ी होती थी। एक तो इतनी बूढ़ी थी की बाक़ी ग्रांड-मास्टर उसको फिलिड़ोर की विध्ावा बोलते थे। फिलिडोर सत्रहवीं शताब्दी का खिलाड़ी था जनाब। उसने एक बार शराब के नशे में दो पत्र लिखे -- पहला रूसियों को काॅम्युनिजम की तारीफ करता हुआ और दूसरा जर्मन सरकार को नाजी सिस्टम की तारीफ़ करता हुआ। और चूँकि वे शराब के नशे में ध्ाुत्त थे, उसने उन पत्रों को विपरीत लिफ़ाफ़ों में डाल कर पोस्ट कर दिया। और जर्मन क़ब्जे के दौरान उसने यहूदी और आर्यन शतरंज की बात करके तो हद ही कर दी थी। शतरंज का जीनियस पर मानसिक रूप से बीमार आदमी।
इसके बाद अलयेखिन और सुल्तान खान का कोई लिखित जि़क्र नहीं है पर देसानी ने पाण्डुलिपि के अगले पृष्ठ पर एक श्याम-श्वेत तस्वीर चिपका रखी है। उसमें सुल्तान खान, नवाब साहब और अलयेखिन समेत शतरंज की दुनिया की कुछ जानी-मानी हस्तियाँ देखी जा सकती हैं।
अलयेखिन देर रात वापिस पहुँचे। सुल्तान खान के कमरे की खिड़की में से हल्की टिमटिमाती पीली रौशनी बाहर लगे छोटे से पेड़ पर छिटकी हुई थी। जैसे ही अलयेखिन ने दरवाज़ा खटखटाया सुल्तान के कमरे से मेज़ सरकने की आवाज़ आयी। अचानक उसके कमरे की रौशनी तेज़ हो उठी और पेड़ के परे गेट पर खड़े अलयेखिन के पीठ पर आ पड़ी। अलयेखिन की परछायी और गहरा गयी। वह ध्ाीमे क़दमों से मुख्य दरवाज़े की ओर बढ़े। वह नवाब साहब को जगाना नहीं चाहते थे। जैसे ही सुल्तान ने दरवाज़ा खोला उनकी जान में जान आयी। ‘ओह अभी तक सोये नहीं?’ दरवाज़ा खुलते ही अलयेखिन ने औपचारिकता-वश पूछा -- उनको अंदाजा था कि न चाहते हुए भी सुल्तान रोज़ रात को दो-तीन घण्टा अभ्यास ज़रूर करता है। सुल्तान को अभी भी अंग्रेज़ी समझने में मुश्किल होती थी, ऊपर से अलयेखिन का रूसी लहजा। उसने आदर से अपना सिर हिला दिया और उनके कमरे की ओर इशारा किया। ‘अरे अभी नहीं दोस्त, सोने से पहले तुम्हारे साथ कुछ बाजि़याँ खेलना चाहूँगा।’ सुल्तान कुछ समझ नहीं पाया तो अलयेखिन ने हवा में प्यादा खिसका कर बताया कि वह उसके साथ शतरंज खेलना चाहते हैं। सुल्तान खुश हो गया। उसे अकेले ख़ुद से खेलने में वैसे भी मज़ा नहीं आता था। पर नवाब साहिब का हुक्म था रोज़ रात को खाने की बाद अभ्यास करने का। दोनों कमरे के अन्दर आ गये। मेज़ पर चेस-बोर्ड रखा हुआ था। अलयेखिन इध्ार-उध्ार देखने लगे। क्या सुल्तान खान बिना किसी किताब के ऐसे ही प्रैक्टिस कर रहा है? यह कैसे मुमकिन है? और बिना किसी और की बाज़ी का अवलोकन किये बिना कैसे वो अपना खेल ध्ाारदार बना सकता है?
सुल्तान बहुत ध्ाीमा खेलता था। सफ़ेद मोहरों से खेलता हुआ भी ऐसा लगता था कि वह काले मोहरों से खेल रहा है। अत्याध्ािक हिफ़ाजती खेल। ऐसा विचार आते ही अलयेखिन सावध्ाान हो गया। बेहद साध्ाारण शुरुआत के बाद सुल्तान ध्ाीरे-ध्ाीरे बाज़ी पर पकड़ बनाता जाता था। अलयेखिन ने उसकी दो कमज़ोरियाँ अपनी गुप्त डायरी में नोट की थीं। पहली तो उसकी साध्ाारण व कमज़ोर ओपनिंग और दूसरी बाज़ी लम्बी हो जाने पर उकता जाना। (ऐसे में वह कमज़ोर चालों पर उतर आता था।) उस रात अलयेखिन ने सुल्तान को 108 चालों में हराया। बाद में अलयेखिन जो सपना आया था वो भी उसकी डायरी में लिखा हुआ हैः
सफ़ेद स्लाव बच्चा। बिशप के काले पैर। पैराशूट से उतरते दो प्यादे। शुरुआत ध्ाीमी मध्य तेज़ व तीखा अन्त।
सुल्तान कभी भी अलयेखिन को हरा नहीं पाया।
1.32 मुलाकात-तीन
1933 - फोकस्टोन ओलम्पियाड
अठारह वर्षीय रूबेन फाइन -- एक खब्ती किस्म का नौजवान और शतरंज का बेहतरीन खिलाड़ी। सब जानते हैं कि शतरंज के खिलाड़ी का स्वभाव उसकी बाजि़यों में झलकता है। इसी तरह रूबेन फाइन की बाजि़याँ उसकी तरह ही खब्ती व ढीठ थीं। ऊपर से वह अमरीका जैसे आत्म-विश्वासी देश का नागरिक -- वह देश जिसने दो सौ साल पहले ही अंग्रेज़ों को निकाल बाहर किया हो -- वहाँ के एक आज़ाद ख़याल नौजवान को एक गुलाम देश का नवाब अपनी मध्याकालीन सामन्ती हेकड़ी दिखाने की ग़लती कर बैठा। बाद में रूबेन फाइन ने इस मुलाक़ात का बड़े कठोर शब्दों में वर्णन किया। ऐसा लगता है कि उस समय नवाब साहिब की मानसिक हालत कुछ ज़्यादा अच्छी नहीं रही होगी। फोकस्टोन में बरतनिया टीम का वैसे भी कुछ ख़ास परदर्शन नहीं रहा था -- सुल्तान खान के नेतृत्व में टीम का दसवाँ नम्बर आया था। देसानी की अनुसार सुल्तान के इस ख़राब प्रदर्शन के बाद नवाब साहब का मन शतरंज और सुल्तान खान की और जि़म्मेवारी लेने से उठ गया था। पता नहीं फिर क्यों उन्होंने टूर्नामेंट ख़त्म होने के बाद पूरी अमरीकी टीम को घर खाने पर बुला लिया था ? एक वजह यह हो सकती हो सकती है कि बचपन से ही नवाब साहिब को जिससे डर लगता था यानी जिससे से वह कभी कोई बाज़ी या शर्त हार जाते थे तो उसे अपने घर पर नौकर रख लेते थे। अमरीकी टीम को नौकर तो नहीं रख सकते थे पर घर खाने पर बुला कर रौब तो झाड़ ही सकते थे। अमरीकी टीम में कुल चार लोग थे पर पाँच मेहमान आये थे -- रूबेन फाइन, फ्ऱैंक जेम्ज मार्शल, आर्थर विल्यम डेक, इसाक काशदान और उसकी पत्नी। बेशक वे टूर्नामेंट जीत गये थे पर आज उन में से कोई भी कुछ ख़ास अच्छे मूड में नहीं था। आखि़री कुछ राउंड इतने अच्छे नहीं गये थे। ख़ासकर स्वीडन की टीम आखि़र में बड़े साहस से खेली। उन्होंने पता नहीं कहाँ से रानी का जुआ कहलवाने वाली शुरुआत में कुछ फेरबदल कर के सबको कन्फ्यूज कर दिया। चैध्ारी खुशी लाल के अनुसार यह तकनीक कोई इतनी भी बढि़या नहीं थी। वे इसे आजमा कर त्याग चुके थे। स्वीडन का तीसरा नम्बर विरोध्ाी खेमे में मचने वाली अफरा-तफरी से आया। यह तकनीक बाद में ‘फोकस्टोन वेरीएशन’ के नाम से जानी गयी। इसमें काला अपनी रानी के तरफ वाली प्यादों को फैला कर सफ़ेद के गुर्दे पर लात मरता है।
नोटः अलयेखिन फ्राँस की तरफ से खेलते हुए गोल्ड मेडल जीतता है, लेकिन शतरंज को खेल से ज़्यादा कला मनाने वाले प्रसिद्ध कलाकर मार्सेल दूशां की वजह से इनकी टीम आठवें नम्बर पर रही।
1.33 मुलाक़ात
सब अलग-अलग रास्तों से आने वाले थे। नवाब के घर के बाहर की गली के मोड़ पर इन्तज़ार करने का प्लान था। रूबेन फाइन सबसे पहले पहुँच गया था -- कोने पर खड़ा हो कर ठिठुर रहा था। नवाब के घर के बाहर एक शीशे का पोर्च था -- वहाँ शायद ठण्ड कम हो इसलिए फाइन ने गली के कोने को छोड़ सीध्ाा अन्दर जाना ठीक समझा। थोड़ी ही देर में ध्ाीरे-ध्ाीरे सब लोग वहीं सीध्ो पोर्च पर ही आ गये। किसी ने यह सवाल नहीं पूछा कि तयशुदा मुक़ाम यानी गली के कोने पर इन्तज़ार क्यों नहीं किया गया। तभी वहाँ पर एक नौकर आया और उनको बड़े अदबो आदर से बिठा दिया गया। उनको बहुत इन्तज़ार करना पड़ा था। फाइन को शक था कि इन्तज़ार जानबूझकर करवाया जा रहा था। बैठने की व्यवस्था भी बड़ी अजीब-सी थी -- बैठक एक गैलरीनुमा जगह थी -- इतनी संकरी कि एक दूसरे की तरफ मुँह करके बैठना नामुमकिन था। सब लोग एक ही पंक्ति में बैठ कोई दस मिनट तक खिड़की से बाहर देखते रहे थे -- बाहर थोड़ी ध्ाुन्ध्ा और ठण्ड से शीशे ध्ाुँध्ाले होते जा रहे थे। फाइन ने ध्यान दिया कि नवाब साहब को शतरंज का ख़ासा शौक है -- हर चीज़ यानी टेबल, कुर्सी, मेजपोश, परदे सब चीज़ें काले-सफ़ेद थीम में थीं। तभी उसे बाहर ध्ाुँध्ाली खिड़की में से दो भयानक कुत्ते दिखायी दिये -- एक काला और एक सफ़ेद। उन कुत्तों को देखकर सब डर गये और इध्ार-उध्ार देखने लगे। वे मन ही मन यह मुआयना कर रहे थे कि क्या कुत्तों के अन्दर आने का कोई तरीका है? कहीं अन्दर न आ जाएँ ! फाइन ने भी घूम कर देखा और पाया कि खिड़की, दरवाज़ा --कुछ भी तो खुला नहीं है, अन्दर आने का कोई गुंजाइश नहीं -- सबने मन ही मन चैन की सांस ली।
काशदान ने तो मज़ाक भी किया कि महाराजा ने शतरंज को कुछ ज़्यादा ही गम्भीरता से ले लिया है -- कुत्तों को भी सफ़ेद और काले रंग में रख छोड़ा है। सब हँस रहे थे कि अचानक कानदाश की पत्नी ने ज़ोर से चीख मारी। फाइन को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कानदाश और उसकी पत्नी उसको पीछे न मुड़ने का इशारा कर रहे थे। फिर भी जब फाइन ने हिम्मत कर कनखियों से पीछे देखा तो उसके होश उड़ गये -- दोनों भयानक कुत्ते उसके ठीक पीछे खड़े थे। यह अन्दर कैसे आ गये? फाइन घबराकर अपनी कुर्सी पर खड़ा हो एक बुत की तरह ठहर गया। उसको लगा कि अगर वह जरा-सा भी हिला तो कुत्ते उसको काट खाएँगे। उसी समय नवाब के नौकर को जाने क्या सूझा कि उसी बुत की अवस्था में खड़े फाइन के हाथ में नवाब साहब की चार पृष्ठों की बायोग्राफी थमा गया। उसमें नवाब साहब के बहादुरी के कारनामे लिखे हुए थे। फाइन को बहुत गुस्सा आया पर कुत्तों के डर से हिला नहीं --साँस रोक कर खड़ा रहा। नौकर के जाते ही उसके पीछे-पीछे कुत्ते भी चले गये। सब की साँस में साँस आयी और काँपते हाथों से नवाब साहब की बायोग्राफी टटोलने लगे। नवाब साहब कुल बीस मिनटों बाद उनसे मिलने आये। फाइन ने ध्यान दिया कि उनको उनकी जीवनी वाले पर्चे को पढ़ने में भी बीस मिनट ही लगे थे। अन्दर आते ही नवाब साहब ने बिना किसी से आंख मिलाये सब को एक साथ सम्बोध्ाित किया -- ‘आपसे मिलकर अच्छा लगा वरना यहाँ तो बस अपने कुत्तों से बात करनी पड़ती है-- क्या अकेलापन है।’ फाइन को आश्चर्य हुआ कि इतने नौकर-चाकर होते हुए भी नवाब साहब अपनी आप को अकेला बोल रहे हैं -- कुत्तों से बातें करते हैं। ‘सुल्तान खान तो यहीं रहता है आपके साथ --उसके साथ हर रोज शतरंज पर दिलचस्प बातें या बाजि़याँ तो होती ही होंगी’ --फाइन हिम्मत करके बोला। बाकी अमेरिकी टीम खिसिया कर हँसी, पर नवाब साहब बिना कोई जवाब दिये वापिस चले गये। तभी नौकर ने बाहर आकर सबको अन्दर डाइनिंग रूम में आने का इशारा किया। सब को समझ में आ गया था कि इन्तज़ार लम्बा चलेगा। इस दौरान नौकर कुछ खाने-पीने का सामान व शरबत इत्यादि छोड़ गया था। सब लोग समय काटने के लिए नवाब साहब की किताबों की अलमारियों के इर्द-गिर्द घूमने लगे। फाइन ने नवाब की अलमारी में रखी कुछ किताबों के नाम अपनी डायरी में नोट कर लिए थे ः
1द्ध ज्ीम ब्वउचसमजम प्दकपंद भ्वनेमाममचमत ंदक ब्ववा इल थ्ण्।ण् ैजममस ंदक ळण् ळंतकपदमतण्
2द्ध ज्ीम भ्पेजवतल व िठतपजपेी प्दकपं इल श्रंउमे डपससण्
देसानी का नोटः
फाइन को तो इन किताबों को पढ़ने का समय नहीं मिला होगा तभी तो उसने सुल्तान और उसके नवाब के बारे में इतनी हैरानी से लिखा है -- अगर वो उनको ध्यान से पढ़ लेता तो उसे मामला समझ आ जाता। पहली किताब यानी ज्ीम ब्वउचसमजम प्दकपंद भ्वनेमाममचमत ंदक ब्ववा -- स्टील और गार्डिनर नाम की दो अंग्रेज़ औरतों ने 1888 में लिखी थी। इस का मक़सद हिन्दुस्तान आयी नयी-नयी अंग्रेज़ अफ़सरों की बीवियों को हिन्दुस्तानी नौकरों को ढंग से रखने व बरतने के तौर-तरीक़े सिखाना था। चूँकि हिन्दुस्तानी राजे और नवाब जो हर चीज़ में अंग्रेज़ों की नक़ल करते थे --उन्होंने भी उनकी देखा-देखी इस किताब को कण्ठस्थ कर रखा था और इसी किताब के हिसाब से अपना घर-बार चलाते थे। फ़र्क सिर्फ़ यह था कि यह किताब अंग्रेज़ औरतों के लिए लिखी गयी थी और वो ही इसे पढ़ती थीं पर चूँकि हिन्दुस्तानी औरतों का घर चलाने में इतना दख़ल नहीं था -- वहाँ के मर्द इसे पढ़ने लगे थे। हर राजा और नवाब को इस किताब में लिखे गुर मुहँ-जुबानी याद थे -- बाद में यह गुर प्ब्ै अफसरों और आज़ादी के बाद हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी हुक्मरानों और प्।ै अफसरों तक पहुँच गये। इसी वजह से हिन्दुस्तानी नवाबों और राजाओं की बहुत-सी आदतें अंग्रेज़ ग्रहणियों से मिलती थीं। कुछ सलाहें इस प्रकार थीं -- हिन्दुस्तानी नौकर आज्ञाकारी तो होता है पर थोड़ी ढील देते ही अपनी पुरानी मैली व गन्दी हरकतों पर उतर आता है। इन औरतों ने ऐसे नौकरों से निपटने के लिए कुछ ख़ास इनाम और सजाएँ मुक़र्रर कर रखी थीं। पहले महीने-दर-महीने के हिसाब से रख लो -- बिलकुल कम तनखा पर। और अगर ठीक सेवा करे तो थोड़ा-थोड़ा बढ़ाते रहो। खि़दमतगार को नौ रुपये महीने पर रखो। अगर ठीक काम करे तो एक आध्ा रुपया बढ़ा दो -- और अगर ख़राब काम करे या झूठ बोले तो कम कर दो। इस किताब में लेखिका ने इस बात पर बड़ा ज़ोर दिया है कि हिन्दुस्तानी नौकर एक बच्चे जैसा है -- और उसने सबसे ढीठ नौकर को अरण्डी का तेल पिलाने की सलाह दी है। तर्क यह था की शारीरिक कष्ट से नौकर को अपनी ग़लती याद रहती है। जब यह नौकर बार-बार पख़ाने भागेगा तो दूसरे नौकर इसको यह कह कर छेड़ेंगे -- ‘मेम साब ने तुमको ज़रूर अरण्डी का तेल पिला देना होगा।’ इस शर्म से वह कभी भी दोबारा ग़लती नहीं करेगा। सबसे अच्छा प्लान है कि नौकर को कम उम्र में ही पकड़ लो और बख़्शीश पर निर्भर करके ध्ाीरे-ध्ाीरे तरक़्क़ी दो। कभी भी ज़्यादा समय के लिए एक ही नौकर को मत रखो -- बदलते रहो। अगर हम हिन्दुस्तानी नौकरों को ही ढंग से न रख पाये तो उनका इतना बड़ा साम्राज्य कैसे रख पाएँगे?
चूँकि सुल्तान खान भी एक नौकर था -- एक और जो बहस अंग्रेज़ों के बीच होती थी कि सुल्तान खान पढ़ना-लिखना जानता है कि नहीं -- अंदेशा यह था कि अगर वो बिना पढ़े-लिखे इतना अच्छा खेल लेता है तो थोड़ी बहुत थ्योरी पढ़ लेने के बाद तो इसको वल्र्ड-चैम्पियन बनने से कोई नहीं रोक पाएगा। नौकरों की शिक्षा की हिन्दुस्तान में क्या व्यवस्था होती होगी ? देसानी की पाण्डुलिपि पढ़ते हुए लगता है कि उसने इस विषय पर डूब कर शोध्ा और विचार किया है। गाँध्ाी ने 1931 के गोलमेज़ सम्मलेन में एक लम्बा चैड़ा भाषण दिया था कि हम तो बहुत पढ़े लिखे थे -- अंग्रेज़ों ने आकर हमें अनपढ़ बना दिया है। इस बात पर बड़ा हो हल्ला हुआ था। तब ढाका विश्व-विद्यालय के कुलपति फिलिप हार्टाग ने इसका बहुत बुरा मनाया था और गाँध्ाी से इस विषय पर कई साल तक बहस करते रहे थे। पर हिन्दुस्तानी संस्कृति और सभ्यता की निन्दा और नीचा दिखाने की जिम्मेवारी जेम्ज मिल की ख़तरनाक क़लम को मिली थी। उसे यह काम करने के लिए कभी हिन्दुस्तान आने की ज़रूरत भी न हुई --इंग्लैंड में बैठे-बैठे ही उसने सन 1817 में तीन मोटे ग्रन्थ इस विषय पर छाप दिये, उसने यह काम इतना बख़ूबी किया कि उसकी यह किताबें भारत में नियुक्त होने वाले अंगे्रज़ अफ़सरों के लिए मैन्यूअल से बन गयीं और उनके देखा-देखी हिन्दुस्तान के राजाओं और नवाबों ने भी अपने ही लोगों से अंग्रेज़ों जैसा व्यवहार की नक़ल करनी शुरू कर दी थी। नवाब का अपने नौकरों और ख़ासकर सुल्तान खान के प्रति अपने इस व्यवहार को इस पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है। पता नहीं क्यों जेम्ज मिल को हिन्दुओं से बड़ी नफ़रत थी, उसके अनुसार ‘हिन्दुओं में चीनियों की तरह निष्ठाहीनता, मक्कारी, और नमकहरामी कूट-कूट कर भरी हुई है और यह दोनों क़ौमें अपने बारे में बड़ी-बड़ी ड़ींगे हाँकती हैं। अगर कभी हिन्दुस्तानियों के पास थोड़ा पैसा आ जाए तो जो मुस्लिम हैं वो तो तो तुरन्त ऐयाशियों में डूब जाते हैं पर हिन्दू तब भी कंजूस बने रहते हैं। अगर सच कहूँ तो हिन्दुओं में हिजड़ों की तरह एक अच्छा गुलाम बनने के सारे गुण हैं। यह ख़ुद और इनके घर बहुत गन्दे होते हैं।’ देसानी को यह पढ़ कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि जेम्ज मिल ख़ुद भी ग़रीब घर से आया था और एक मोची का बेटा था। वो क्या कारण थे कि उसे अपने जैसे गुलामों से सहानुभूति की जगह इतनी नफ़रत पैदा हुई? वो भी बिना कभी हिन्दुस्तान जाए हुए ? जेम्ज मिल का विश्वास था कि यूरोप के लोग हिन्दुस्तानियों से बेहतर हैं -- ‘हिन्दू लड़ तो बिलकुल नहीं सकते, न ही इनके पास रस्ते हैं, न नदियों पर पुल, यह लोग विज्ञान और चिकित्सा में भी शून्य हैं। हाँ कुछ एक कामों में वह अंग्रेज़ों से अच्छे हैं -- महीन बुनाई , कताई, रंगाई, क़ीमती पत्थरों की कटाई और लच्छेदार बातों में। पर अगर आप उनकी कपड़ा बनाने वाली खड्डी देखें तो आपके तो होश ही उड़ जाएँ। इतनी भद्दी खड्डी से यह इतनी परिष्कृत व जटिल बुनकारी कैसे कर लेते हैं? दरअसल ऐसी सभ्यता जो अपने भोंडे व साध्ाारण औज़ारों से इतने दक्षता से काम ले लेती है, वह तो उसके एक असभ्य समाज होने के लक्षण हैं।’ इसके बाद उसने इस किताब में हिन्दुओं को कुछ और गालियाँ दी हैं और अपनी नस्ल को उनसे हर मामले में बेहतर बताया है। माक्र्स, विल्बेरर्फोक, मैकाले जैसे लोग भी हिन्दुस्तानियों के बारे कुछ ऐसे ही विचार रखते थे। उनके विचार में हिन्दुस्तानी तभी सभ्य हो सकते हैं जब वो अपनी हिन्दुस्तानियत छोड़ दें।
देसानी को यह सब पढ़ कर बड़ा गुस्सा आया -- उसने तय किया कि वह भारत जा कर इसकी तफ्तीश करेगा --उसने भारत जाकर सबसे पहले पण्डित सुन्दरलाल से बातचीत की -- उनकी किताब पर अंग्रेज़ो ने हाल में प्रतिबन्ध्ा लगाया था।
पण्डित सुन्दरलाल के कुछ विचार, देसानी की नोटबुक सेः
हिन्दुस्तान में में जिस भी प्रान्त में कम्पनी का शासन जमता गया वहीं पर हज़ारों साल पुरानी प्रणाली सदा के लिए मिट्टी में जाती गयी। अपने यहाँ के राजे रजवाड़े बेशक ऐय्याश होते थे पर अपना ध्ान यहीं इस देश में ख़र्चा करते थे। पर अंग्रेज़ों ने सारा ध्ान इंग्लिस्तान भेज दिया और तो और अपने नवाब, राजा भी इंग्लिस्तान में बंगले ख़रीदते हैं। अपना सारा ध्ान वहीं ख़र्च करते हैं। देश तेज़ी से निधर््ान होता जा रहा है।
रूबेन फाइन की डायरीः
यह सुल्तान खान की कहानी सबसे अनोखी निकल आयी। सुल्तान उसका कोई पद नहीं था- नाम था। एक मज़ाक था - एक नौकर को सुल्तान का नाम दे देना। दरअसल वह महाराजा के यहाँ वह एक नौकर था। (फाइन ने न जाने नवाब को महाराजा क्यों कहा था)। नौकरी दौरान ही शायद नवाब को पता चला होगा कि यह तो शतरंज का जीनियस है या फिर उसने उससे कोई बाज़ी हारने से नौकर रख लिया होगा। नवाब ने उसे थोड़ी अंग्रेज़ी सिखाने की भी कोशिश की थी पर सुल्तान बड़ी ख़राब अंग्रेज़ी बोलता था और हिन्दुस्तानी लिपि में अपने चालों को नोट करता था। यूरोप की लिपि को तो वो पढ़ भी नहीं पाता था। टूर्नामेंट के बाद के बाद महाराजा ने हमारी पूरी टीम खाने पर बुलाया। जब हम अन्दर आये तो महाराजा ने यह कह के हमारा स्वागत किया कि आपसे मिल के अच्छा लगा नहीं तो मैं अपने ग्रे-हाउंड कुत्तों से ही बात कर पाता हूँ। हमने तो सुन रखा था कि मुसलमानों को शराब पीने की इजाजत नहीं होती पर वो तो ख़ूब पी रहे थे। मुझे बाद में बताया गया कि उन्होंने इस के लिए बरतनिया हकूमत से ख़ास इजाजत ले रखी थी। उसके नौकर ने हमें चार पन्नों की एक बायोग्राफी थमा दी थी जिसमें उनकी बहादुरी के करनामे दर्ज थे। उस जीवनी को ध्यान से पढ़ने के बाद तो यही लगा की इनका सबसे बड़ा कारनामा तो बस यही है कि वो एक महाराजा पैदा हुआ। इस दौरान सुल्तान खान जिसकी वजह से हम वहाँ थे -- महाराजा उसके साथ महज एक नौकर की तरह बर्ताव कर रहा था। शायद हिन्दुस्तानी क़ानून के अनुसार सुल्तान महाराजा का नौकर ही था पर फिर भी हमें बड़ा अजीब लगा कि एक शतरंज का महान खिलाड़ी, एक ग्रांडमास्टर हमारे खाने की टेबल लगा रहा है -- खाना ला रहा -- पानी ला रहा है -- और जब हम खाना खा रहे हैं तो वो हाथ बाँध्ा कर पीछे खड़ा है।’
यूरोप में नवाब का यह आखि़री डिनर था और सुल्तान खान का भी। नवाब का लन्दन में काम ख़त्म हो गया था और उसे अपने बेटे के विरोध्ा के कारण लन्दन वाला घर ख़रीदने का विचार त्याग देना पड़ा था। अन्ततः नवाब बड़े भारी मन से हिन्दुस्तान लौट गया और उसके साथ सुल्तान खान और फ़ातिमा भी। कुछ महीनों बाद नवाब की मृत्यु हो गयी और पश्चिम में सुल्तान खान और फ़ातिमा की कहानी को जल्द ही भुला दिया गया।
पर यह बात कोई नहीं जनता था कि उनके लन्दन से गायब होने के बाद भी देसानी ने अपनी खोज जारी रखी थी और उनको ढूँढते हुए हिन्दुस्तान जा पहुँचा था -- उसकी इस पाण्डुलिपि में कई बार ऐसा लिखा है कि इस खोज के दौरान मुझे कई ऐसे विचित्र आध्यात्मिक अनुभव हुए हैं जिसके कारण मेरी जि़न्दगी बदल गयी है। पर उसने अपने ये सब आध्यात्मिक अनुभव सुल्तान खान की कहानी में क्यूँ मिला दिये इसको समझना बड़ा मुश्किल है। एक बार तो ऐसा लगा कि कहीं दो अलग-अलग पाण्डुलिपियाँ मिल तो नहीं हो गयी हैं। ख़ैर इसमें जो कुछ भी मैं छाँट पाया हूँ उससे सुल्तान खान इतना बड़ा खिलाड़ी कैसे बना, उसकी एक बड़ी अनोखी कहानी बाहर आती है। तो मुलाहिजा फरमाइए यह कहानी जो कई वर्षों तक देसानी की अप्रकाशित पाण्डुलिपी में छिपी रही है।

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