स्वर्गद्वार प्रभात त्रिपाठी
25-Oct-2020 12:00 AM 5031

सामने समुद्र था। वही का वही जो कल था। वह उसे देख रहा था। पर कुछ ही पलों में वह वहाँ से गायब हो जाता। कोई लहर उसे भीतर पटक देती। उसे लगता जैसे वह चित्त पड़ा है। वहाँ अन्दर की रेतीली दुनिया में, बाहर के समुद्र से परे किसी ऐसी जगह में, जहाँ उसके सुनसान में किसी की आवाज़ तक नहीं पहुँचती, सोचना भी, एक समुद्र को देखते हुए, न देखने जैसा है, सोचता हुआ वह थमा। अपने आप नहीं। अपने आप से अलग, जैसे वहीं, अदृश्य मगर मौजूद, किसी ने उसे आवाज़ देकर बुला लिया हो।
उसने फिर समुद्र की ओर देखा। दूर आसमान को छूती उसकी सीमारेखा पर उठती लहरें, जैसे कोई उजली रेख, असीम नीले में बिजली की तरह दौड़ रही हो। पर कुछ ही पलों में वह फिर लौट आया। अपनी कुढ़न के कुएँ में।
पुरी आने का निर्णय उसने अपनी अचानक सनक के चलते लिया था। उस समय उसके अन्दर ऐसा कुछ घुमड़ा था कि वह यह भी नहीं सोच पाया था कि वहाँ जाकर अकेले करेगा क्या ? उसकी यह यात्रा ही उसकी कुढ़न का एक कारण थी। पहले रायपुर से भोपाल की यात्रा तो उसके लिए ज़रूरी थी। उसके एक मित्र के इकलौते पुत्र की मृत्यु हो गयी थी। हिन्दपाक सीमा पर। उसे आतंकवादियों ने या घुसपैठियों ने गोली मार दी थी, जब वह अपनी फ़ौज के किसी जख़्मी सिपाही को हेलिकाॅप्टर से एयरलिफ़्ट करने गया था। वह सेना में डाॅक्टर था। एक डाॅक्टर को सीमा पर इतने आगे जाकर अपना कर्तव्य निभाने की ज़रूरत नहीं पड़ती, पर वह थोड़ा अतिरिक्त कर्तव्यनिष्ठ था। उसने अपनी जान ज़ोखम में डालकर एक अध्ािक घायल सैनिक को बचाने की कोशिश की थी। ख़बर सुनते ही उसने उसी पल टैक्सी से रायपुर एयरपोर्ट की यात्रा की थी और फिर वहाँ विण्डो से टिकट लेकर भोपाल। वह क़रीब नौ बजे भोपाल पहुँचा था। वहाँ उसे पता चला था, कि आर्मी के हवाई जहाज में अभी थोड़ी देर पहले ही शव भोपाल आया है और मित्र सपरिवार याने अपनी पत्नी और भाई के साथ, उसे घर लाने के लिए गया हुआ है। मित्र के दूसरे सारे रिश्तेदार या दोस्त यारों के लिए वह कतई अजनबी था। सो चुपचाप, वहीं पास के एक होटल में उसने रात गुज़ारी थी, हालाँकि रात भर उसे नींद नहीं आयी थी। वह सोचता रहा था, कि उसके मित्र पर क्या गुज़र रही होगी? यों उसका यह मित्र स्वभाव से ही काफ़ी चुप्पा और गम्भीर व्यक्ति था, लेकिन कोई कितना भी गम्भीर हो, इकलौती सन्तान की इस तरह अकाल मृत्यु के बाद, संयत बने रहना, उसकी कल्पना से बाहर थी। उसने रात की अपनी करवटें बदलने की बेचैनी के दौरान, एकाध्ािक बार उस खूबसूरत जवान लड़के के चेहरे को देखा था। उसे यकीन नहीं हुआ था, कि कल सुबह के बाद यह चेहरा लपटों के रस्ते आकाश के असीम में मिल जाएगा और बची रह जाएगी सिफऱ् राख। उसने उस लड़के को बचपन से जवानी तक पहुँचते, पाँच-छः बार देखा था। जो तस्वीर अभी उसके मन में उभर रही थी, वह उसकी नवीं क्लास की तस्वीर थी, जब वह खुद उसके और उसकी माँ के साथ सिंहाचलम का मन्दिर देखने गया था। उसके बाद, मेडिकल काॅलेज के दाखिले के पहले भी, उसने उसे यहीं भोपाल में देखा था। सिर्फ़ देखा भर नहीं था, उसके साथ दो तीन शामें गुज़ारी थीं। रात के उन बेनींद लमहों में हल्की झपकियों की लहरें सी आती थीं और वह चैकन्ना होकर आने वाली सुबह के बारे में सोचने लग जाता था, जब उसे अपने मित्र का सामना करना पड़ेगा।
पर सुबह वहाँ पहुँचते ही भीड़ देखकर उसे लगा कि शायद आर्मी के अफ़सर की शवयात्रा किसी साध्ाारण आदमी की शवयात्रा की तरह नहीं हो सकती। वह बड़ी मुश्किल से दो पल के लिए अपने मित्र से मिल पाया था, जिसका चेहरा काठ हो चुका था। बाहर रखे शव दर्शन के बाद वह वहाँ से निकल कर, बाहर सड़क पर कुर्सियों पर बैठे अजनबी आगन्तुकों के साथ बैठ गया था। शवदाह के समापन तक सन्ध्या घिर चुकी थी, और वह वहाँ से सीध्ो एयरपोर्ट निकल गया था।
क़रीब नौ साढ़े नौ बजे रात वह रायपुर पहुँचा था और स्टेशन के पास के उस होटल में पहुँच गया था, जहाँ वह तभी रुकता था, जब उसे महज रात काटने के लिए होटल में कमरा लेना पड़ता था। इस बार उसकी ट्रेन शाम को साढ़े चार बजे थी, जिससे उसे घर लौटना था। सादी दाल के साथ दो रोटी खाकर वह बिस्तर पर पड़ गया था, लेकिन फिर उसके दिमाग में रह रहकर अपने मित्र का चेहरा उभरने लगा था, जिससे वह ठीक से बात भी नहीं कर पाया था। पर वह इतना थका हुआ था, कि थोड़ी देर बाद उसे नींद आ गयी थी। सुबह एक अजीबोगरीब सपने से उसकी नींद कुछ इस तरह टूटी, जैसे किसी ने उसे तेज़ आवाज़ के साथ हिलाकर जगाया हो। जागने के बाद भी वह सपने की गिरफ़्त में था, जिसमें वह अपनी छोटी बहन की चलती कार में चढ़ने की कोशिश कर रहा था और उसका ड्रायवर कार को एक छोटे से मैदान जैसी जगह में गोल गोल घुमा रहा था। वह कार की पिछली सीट पर उठंग कर बैठा, कार के खुले दरवाजे को बन्द करने की कोशिश में, उसके हत्थे की तरफ हाथ बढ़ा रहा था, और रूँध्ाती सी आवाज़ में चिल्ला भी रहा था, कि कार का दरवाजा खुला है, और तभी उसकी नींद टूटी थी। अपने को बिस्तर पर साबित पाकर, सपने को सोचते हुए वह मुस्कराया था और सुबह के खुलासे के लिए टाॅयलेट की ओर बढ़ गया था।
नहा ध्ाोकर दो तीन अखबारों के दफ़्तर में कोई चारेक घण्टे तक खिचखिच करने के बाद, जब उसे अपना पावना मिला था, तो उसे अपने इस पेशे से ही नहीं, बल्कि अपने आप से भी घिन सी होने लगी थी। वह कलकत्ते के एक अखबार के लिए पश्चिम ओडि़शा के विशेश संवाददाता के अतिरिक्त, रायपुर के दो तीन अखबारों के लिए, रायगढ़ के इस्पात बिजली और दूसरे लघु उद्योगों के विज्ञापन जुटाने का काम भी करता था। इन्हीं विज्ञापनों से कभी पचीस तो कभी तीस फीसदी उसे कमीशन के बतौर मिलते थे। अभी जब उसे मित्र के बेटे की अचानक मौत के सिलसिले में भोपाल जाना पड़ा, तब उसे इस बात का खयाल नहीं आया था। पर वापसी में ट्रेन के लिए कमरे में पड़े पड़े इन्तज़ार करने की सोच कर, उसके दिमाग में स्वतःस्फूर्त ढंग से यह बात आयी थी, कि इस खाली वक्त का उपयोग अब ध्ान्ध्ो के लिए भी किया जा सकता है, हालाँकि हिसाब किताब और सौदेबाजी का यह काम उसे बिलकुल नहीं सुहाता था, पर खाली बैठे बैठे वक्त काटना तो और भी बड़ी समस्या थी। वैसे उसकी अपनी निजी आर्थिक ज़रूरतें तो कलकत्ते के अखबार से ही पूरी हो जाती थीं। उसकी डाॅ. दीदी तो कई बार यह प्रस्ताव भी कर चुकी थी, कि वह इस खुशामदखोरी के फिजूल ध्ान्ध्ो को छोड़ दे, क्योंकि वह खुद तो न सिर्फ़ सरकारी पेंशन पा रही थी, बल्कि अपने प्रायवेट क्लिनिक से भी वह इतनी तो कमा ही लेती थी, कि पूरे परिवार का खर्च आराम से चल जाए। पर शायद अपने स्वभाव से मजबूर समीर, हर बार अपने ही निर्णय को अपने ही तर्क से काट कर फिर सोचने लगता था, कि हर्ज ही क्या है, कि इस ध्ान्ध्ो को जारी रखने में। लेकिन इस बार जब वह अपना काम निपटा कर लौट रहा था, तो उसे एक तरह की अन्दरूनी थकान और वितृष्ण-सी महसूस हो रही थी। ज़ाहिर तौर पर न सही, पर कहीं अन्दर उसके दिमाग़ में यह बात बार बार अमूर्त तरीके से अपना फन उठा रही थी, कि जिस इकलौती सन्तान को, मित्र ने अपनी औकात से बाहर जाकर डाक्टरी की शिक्षा दिलायी, वही, इस तरह बुढ़ापे में उसे असहाय छोड़कर चला गया। यह सब सोचते सोचते उसे झपकी सी आ गयी और जब उठा तो उसने देखा कि चार बजने में दस ही मिनट बाकी हैं। उसने अपना पिट्ठू टाँगा और सर्र से निकल गया, जैसे अपनी गाड़ी की सीटी सुनने के बाद कोई दौड़ता-सा भागता है। लगभग वैसी ही रफ़्तार में जब वह प्लेटफाॅर्म पर पहुँचा, तो पता चला कि उसकी ट्रेन छह घण्टे लेट थी। पहले से बदहवास दिमाग को इस खबर ने एकदम ही बौखलवा दिया। सामने बरहमपुर होती हुई पुरी जाने वाली यह ट्रेन खड़ी थी। उसने टी टी से बात की। टी टी ने हज़ार एक्स्ट्रा की मांग की। वह राज़ी हो गया। प्लेटफाॅर्म पर थेपले के साथ हरी मिर्च का ताज़ा अचार लेकर वह ए सी टू के लोअर बर्थ नम्बर तेरह पर लेट गया। रात आठ के बाद खाना खाकर सो गया। जब उसकी नींद खुली, तो साढ़े सात बज रहे थे। साढ़े आठ ट्रेन का पुरी एराइवल का समय था। हड़बड़ा कर वह टाॅयलेट की ओर भागा। वापस आया तो पता चला, कि अभी तो कटक पहुँचने में घण्टे भर की देरी है, और आखिर पुरी पहुँचते पहुँचते, पूरे बारह बज गये। बिना हाथ मुँह ध्ाोये, बिना नहाये, उसने एक बियर के साथ खाने की सादा थाली का आॅर्डर दिया, तो उसे इस तरह पियक्कड़ों की तरह गटागट की आवाज़ के साथ पीते और भुक्खड़ों की तरह भात भकोसते देखकर, उसके ऐन बाजू की टेबल पर बैठी विदेशिनी मुस्करा रही थी और साथी को उसकी ओर आँखों से संकेत कर रही थी, पर भोजन में मगन समीर का ध्यान उस तरफ था ही नहीं। खाना खाकर तीन घण्टे तक नींद में ध्ाुत्त पड़े रहने के बाद जब वह निंदासा ही पिंक हाऊस की रेत में ही बने ओपन रेस्तराँ के झाऊघेरे से बाहर निकला, तो तट की तरफ बढ़ते हुए उसे यह भी नहीं याद रहा, कि उसे बायें तरफ नहीं, दायीं तरफ बढ़ना है, जैसे अभी बायीं तरफ केंवटों की बस्ती वाले तट की थोड़ी सूखी सी रेत पर पड़े पड़ेे, वह खुली आँखों से ढलते सूर्य की लालिमा से लिपटते समुद्र की ओर ताक रहा है, पर उसे नहीं, अपनी सोच में उस बदहवास बीते समय को ही देख रहा है, यहाँ आने के बाद भी जिससे उसका पीछा नहीं छूटा है।
वह रुका। समुद्र के सामने कुँए में पड़ी उसकी सोच, जैसे उस लहर के हल्के से स्पर्श से ही ध्ाुल पुँछ गयी, जो बिलकुल अचानक की सी कौंध्ा में, गीली रेत की अपनी सीमा लाँघ कर, उस ऊँची जगह तक आ गयी थी, जहाँ वह अपने पाँव फैलाए बैठा था। इस अचानक स्पर्श ने उसे याद दिलाया, कि रेत के गीलेपन को समुद्र की कारगुज़ारी की सीमा मानना हमेशा ही सही नहीं होता। हाथों के सहारे उठते हुए उसने देखा, कि तट के इस हिस्से में सैलानी बहुत कम थे। वह खुद भी इध्ार नहीं बैठता था। आज अपनी बेचैन सी अन्यमनस्कता में वह यहाँ तक चला आया। अभी सोचते हुए उसे यह भी लगा, कि अध्ािकांश चीजों के ऊपर आदमी का कोई वश नहीं होता और इसका ताज़ा नमूना है, घर जाने के बदले उसका इस तरह अचानक पुरी चले आना और फिर यहाँ बैठ कर सोचते रहना, कि बेकार चला आया है वह, और ऐसा सोचते हुए उसने घर लौटने के लिए नहीं, खड़े होने के लिए अपनी हथेलियाँ रेत पर टिकायीं। एक कराह की सी आवाज़ से उसने घुटनों में होती चिलकन को पहचाना। फिर कमर सीध्ाी करते हुए दूर पूरब के स्वर्गद्वार तक पसरी सैलानियों की भीड़ को न देखने सा देखने लगा।
खड़े होने के बाद पल भर के लिए लहरों के उठने गिरने को इस तरह घूर घूर कर देखता रहा, जैसे उसी लहर को फिर से देखने की कोशिश कर रहा हो, जिसने अचानक ही उसके पाँवों को चूमते हुए उसे न सिर्फ़ चैकन्ना और संसारी बना दिया, बल्कि उसके पाँवों को उसके अनजाने ही उस तरफ बढ़ा दिया था, जिध्ार सैलानियों की भीड़ कुछ ज़्यादा थी। सोच तब भी जारी थी। बायें हाथ पर विशाल समुद्र, दायें दूर पर तटवर्ती इमारतें, और पास शाम की लाली में थोड़ी अलग दिखती रेत को ताकता, वह ध्ाीरे ध्ाीरे घिसटने सा आगे बढ़ रहा था। उसने दूर से ही देखा, कि सामने पोलिथिन की चादर तानकर बनायी गयी अस्थायी चाय की दुकान के सामने, प्लास्टिक की बगैर हत्थेवाली दो तीन कुर्सियाँ खाली थीं। सिर्फ़ एक पर, चाय का कप हाथ में लिए एक विदेशिनी बैठी थी। दूर से प्रौढ़ा लगती थी। चाय पीने के बहाने थोड़ी देर इत्मीनान से कुर्सी पर बैठे बैठे शाम के इस बोझिल वक्त को गुज़ारने की इस इच्छा के पीछे, सिर्फ़ बेवक्त की नींद की खुमार और सर का भारीपन ही कारण नहीं था। दोनों हाथ टिका कर चैपाया, दोपाया, बनने और कमर सीध्ाी करने की कोशिश करते समय, पल भर को उसकी आँखों के सामने अँध्ोरा सा छा गया था। और तब वह पल भर के लिए डरा भी था, कि कहीं यह किसी भीतरी बीमारी का संकेत तो नहीं। और फिर उसी वक्त खुश भी हो गया था, कि अगर सचमुच वही बीमारी है, तब तो जाने के इस रस्ते को सबसे कम तकलीफ़देह रास्ता ही कहा जा सकता है। सोचते सोचते वह मुस्कराया, कि पल भर की स्मृति के इस आकार से भी उसका स्वभाव कैसे झाँक रहा है और फिर भी कैसे उसका दिमाग उसे चैकन्ना और संसारी बनाये हुए है। और वह सोच रहा है, कि जल्दी से जल्दी वहाँ पहुँच कर, एक कुर्सी पर कब्जा जमा लेना चाहिए, क्योंकि सैलानियों के कई झुण्ड, सीटी रोड पर बने होटलों से निकल कर, उसी दुकान की तरफ बढ़ते नज़र आ रहे थे। उसकी चाल अपने आप थोड़ी तेज़ हो गयी।
पर चाय दुकान के पास पहुँचते ही, मालकिन युवती को स्टोव में चाय बनाते देख वह चैंकने सा ठिठक गया, लेकिन रुका नहीं। एक चाय, कहकर, वह उस विदेशिनी के ऐन बाजू की कुर्सी पर बैठ गया। जब वह युवती चाय लेकर आयी, तब उसने उसे थोड़े गौर से देखा। वह पचीसेक की लगती थी। साँवले रंग की। चेहरा बिलकुल भावहीन और निर्विकार। कोई चार साल पहले होटल में इससे मुलाकत हुई थी। कमरे में झाड़ूपोंछा करवाने के बाद, चारे की तरह उसने उसको पचास रूपये दिए थे, और उसे अच्छे से याद है, कि इतनी देर तक कमरे में उसके सवालों का जवाब देते हुए, काम में लगे रहने के दौरान, उसका चेहरा उसी तरह भावहीन और निर्विकार बना हुआ था, जैसे अभी उसे चाय का कप थमाते हुए लग रहा है।
‘आप लला दा के दोस्त हैं न ?’ उसने सीध्ाी सरल ओडि़या में कहा। रत्ती भर स्मृति की खनक भी उसकी आवाज़ में नहीं थी, जबकि वह उसे देखता हुआ, पुराने दिनों की याद में ही डूबा हुआ था। उसे इस बात की खुशी हुई थी, कि इसे याद है, कि वह पहले भी यहाँ कई बार आ चुका है और होटल मालिक का दोस्त है। थोड़ा दायें मुड़कर उसको देखते हुए बातचीत जारी रखने के लिए उसने पूछा, ‘तुम्हारी तो शादी हो गयी थी न?’ ‘हाँ,’ उसने संक्षेप में कहा, ‘मैंने उसे छोड़ दिया ?’ ‘क्यों ?’ समीर ने यूँ ही सा सवाल दागा, जबकि इस तरह के भावहीन मुख से बतियाने में उसे ऊब-सी होने लगी थी।
समीर के सवाल के जवाब में उसने किस्से जैसा कुछ लम्बा सुनाने की भूमिका सी बाँध्ाी, तो कुर्सी पर दायें मुड़कर थोड़ी कष्टकारी मुद्रा में उससे मुखातिब, समीर का ध्यान अचानक ही एक खनकती खिलखिलाहट से भटक गया। उसने बाजू में खड़ी युवती को अनसुना करते हुए, उसके पीछे से आती खिलखिलाहट पर नज़र डालने की कोशिश की और एक पुलकती-सी हैरत ने उसे सिहरा दिया। वह वही थी।
और यह तीसरी बार का इत्तफाक था, जब वह उसे यूँ देख रहा था, जैसे वह किसी चमत्कारी घटना की तरह, वहाँ अवतरित हो गयी हो। उसने मार्क किया था, कि अचानक उससे नज़र मिलते ही तान्या ने (उसका यह अजीबोगरीब विदेशी-सा लगता नाम उसने पिछली बार इस कमनीय स्त्री के घर पर ही सुना था) अपनी आँखें फेर ली थीं, और अपनी सहेली से एकदम सटकर उससे कुछ कहने लगी थी। समीर कुछ पलों तक भकुआया सा उसे ताकता रहा। मन ही मन इन्तज़ार करता रहा, कि वह ज़रूर दुबारा उसकी ओर देखेगी। सामने खड़ी चायवाली, उसे इस तरह विस्मयविभोर ताकते देखकर, वहाँ से चुपचाप पोलिथिन की अपनी छानी वाली दुकान पर चली गयी। दो पल बाद कड़वी कुढ़न के साथ, वह फिर समुद्र की ओर मुड़ गया और गर्म चाय को इस तरह गटागट पी गया, जैसे नीट जिन पी रहा हो।
वह तान्या ही थी। उसने भी, समीर को अभी तट पर ही नहीं, उसके काफ़ी पहले, होटल में, उसना भात भकोसते और बियर पीते समय ही देख लिया था। उस समय भी उसकी यही सहेली दीपा उसके साथ थी, जिससे यहीं पुरी में तीनेक साल पहले उसकी मुलाकात हुई थी। एक साथ एक कमरे में तीन दिन के अपने अन्तरंग सान्निध्य के दौरान, दोनों ने यह भावुक-सा निर्णय लिया था, कि वे इसी महीने की इसी तारीख को पुरी में इसी तरह मिलने की कोशिश ज़रूर करेंगी। दीपा, उराँव जनजाति से थी, पर जे.एन.यू. से अँग्रेजी में एम.ए.करने के बाद, उसकी जबान में ही नहीं, शायद उसके रूप रंग में भी कुछ ऐसा निखार आ गया था, कि काले रंग के बावजूद, वह सपाटे से किसी का भी ध्यान अपनी ओर खींचती थी। तान्या से उसका परिचय दीपा के ब्वाय फ्ऱेंड के जरिए हुआ था, जो पुरी का ही रहने वाला था, और तान्या का दूर का रिश्तेदार भी था।
अभी समीर को अपनी तरफ ताकते देखकर, जानबूझकर उसने उसकी ओर से अपनी नज़रें हटा ली थीं। उसे थोड़ा अटपटा यह भी लग रहा था, कि वही नहीं, दीपा भी बहुत छोटे साइज के हाफ़ पैंट में थी, और दोनों रेत पर पूरा पैर फैलाये बैठे थे। दीपा के कानों पर पर झुककर वह फुसफुसायी, उसने हमें पहचान लिया है।
‘तो तू जाकर उससे मिल क्यों नहीं आती।’
‘ना।’ तान्या ने सपाटे से कहा। फिर एक बार चाय की दुकान के सामने की कुर्सी पर बैठे, समीर की गर्दन दायीं मुड़ी। लगभग नाटकीय मुद्रा में तान्या ने फिर उसकी तरफ से आँखें फेर लीं।
‘क्या मजाक है ?’ दीपा ने कहा, ‘तू उसके पास जाती क्यों नहीं ?’ ‘मजाक नहीं, खेल है’ तान्या ने मुस्कराते हुए कहा, पर उसका यह खेल दीपा को काफ़ी बचकाना लग रहा था। जब होटल में पहली बार, भात भकोसते इस लगभग बूढ़े का परिचय देते हुए उसने बताया था, कि ये समीर अंकल हैं, और थोड़े दूर के रिश्ते में अब्बू के भाई भी लगते हैं। उसने इस अंकल से राउरकेला की पार्टी के दिन, अपने घर में हुई मुलाकात के बारे में ही नहीं, बल्कि बिलकुल अजनबी की तरह दिल्ली में हुई दिलचस्प मुलाकात की बात भी, पूरे डिटेल्स में बतायी थी और यह भी जोड़ा था, कि उस पहली और परिचयहीन मुलाकात के दिन भी, इन्हें देखकर तान्या को अपने बीत चुके अंकल की याद आयी थी।
अभी दीपा के कहने के बाद भी, वह उनके पास नहीं गयी, पर बीच-बीच में उस तरफ अपनी नज़र ज़रूर घुमाती रही। उसकी इस तरह की नाटकीय बेरुख़ी देख कर, समीर भीतर ही भीतर चिडचिड़ा-सा गया था, लेकिन वह भी बीच-बीच में उसकी तरफ गर्दन मोड़ मोड़कर देखना बन्द नहीं कर सका था। एक छोटे से हाफ़पैंट में रेत पर पैर फैलाकर बैठी, इन दो युवतियों की उघरी टांगों को देख कर, शुरू में समीर को लगा था, कि यह हर बात में विदेशी स्त्रियों से होड़ करने के एक नये और बहुप्रचलित फैशन का स्थानीय नमूना भर है, लेकिन जब उसकी नज़र चिकने स्निग्ध्ा सघन केश पीठ पर फैलाये, तान्या के मुख पर पड़ी थी, तो बेसाख्ता उसे अपने ध्ाुर बचपन की एक नन्हीं लड़की की याद आ गयी थी। तान्या के लम्बोतरे चेहरे के साफ़ साँवले रंग के आध्ो को ढाँपते, उसके केशों की वजह से नहीं, उसके चेहरे की वजह से भी नहीं, बल्कि उसके चेहरे पर झिलमिलाते उसके खिलन्दड़े स्वभाव की वजह से, वह अचानक ही अपनी उस पहली गर्लफ्रेंड को याद करने लगा था, जो उसके घर के सामने ही रहती थी। तब उसकी उम्र बमुश्किल दस ग्यारह की रही होगी। घर के सामने की हमउम्र लड़की से उनकी दोस्ती कुछ ऐसी गाढ़ी थी, कि स्कूल के बाद का सारा समय उसी के साथ कटता था। वह लड़की आनन फानन अपने बगीचे के अमरूद के पेड़ पर चढ़ जाती थी। चढ़ने को वह भी चढ़ जाता था, लेकिन वह इस डगाल से उस डगाल तक इतनी फुरती और सहजता से जाती थी, कि नन्हीं बन्दरिया लगती थी। वह स्वभाव से ही खिलंदड़ी और बातूनी थी। चाहे गली में गेंद, पिटठूल का खेल हो, चाहे पेड़ पर चढ़कर कूदने फाँदने का खेल, चाहे कंचे हो या लटटू, हर तरह के खेल में वह लड़कों से भी आगे रहती थी। बातूनी भी वह बहुत थी और उसे देखकर ही लगता था, जैसे शरारत और मासूमियत दोनों एक साथ उसकी आँखों से झाँक रहे हैं। लेकिन बचपन की वही अन्तरंग, दस ग्यारह की कच्ची उम्र में ही भगवान के घर चली गयी थी और समीर उस समय यह तक समझ नहीं पाया था, कि इतनी कम उम्र में कोई कैसे मर सकता है। वह उसके जीवन में मृत्यु की पहली अनुभूति थी, प्रेम की भी। रोचक यह भी था, कि तान्या के पतले ओठ, सलीके से लम्बी नाक, चैड़ा माथा और पीठ पर बिना घूँघर वाले सीध्ो पसरे केशों को देखकर, बिना किसी शारीरिक समानता के उसे अपनी माँ की याद भी आ रही थी। लेकिन दस कदम दूर तक जाकर, खुद ही उससे बात करने के अपने ही सुझाव पर अमल करने के बदले, वह भी अपनी मर्दाना इज्जत बचाये रखने की जिद पर अड़ा था।
पर दोनों के अडि़यलपने में एक बड़ा फ़र्क था। तान्या उसे चिढ़ाने का खेल खेल रही थी, और समीर, अपनी तरफ से पहले बात न करने की जि़द पर अड़ा, मन ही मन कुढ़ रहा था।
समीर से थोड़ा पीछे की ओर दायीं तरफ उन दोनों की बातचीत जारी थी। सूरज डूबने ही वाला है, अभी थोड़ी देर में अँध्ोरे में समुद्र डरावना लगने लगेगा, दीपा ने कहा, जबकि वह अभी भी मन ही मन अपनी इस नयी दोस्त पर झल्ला रही थी। झल्लाहट की वजह भी थी। तान्या जानबूझ कर एक बूढ़े आदमी को परेशान कर रही थी और वह बूढ़ा तो लगता था, कि इस रूपसी के इन्द्रजाल में पूरी तरफ फँस चुका था। गर्दन घुमा घुमाकर हर दो तीन मिनट में वह उनकी तरफ देखने लगता था। तान्या अब उसके बाजू में बैठी नहीं थी। उसकी गोद में सिर रखकर चित्त लेट गयी थी। कह रही थी, ‘हम लैंप पोस्ट के एकदम पास हैं, और फिर यह रात तो पूनो के क़रीब की चाँद रात है।’ उसने कहा और अपनी आँखें मूँद लीं। उसकी मुँदी पलकों की ओर देखते हुए दीपा को उसकी पलकें झपकने की अदा याद आयी। और उसे लगा कि उसके नैन ही नहीं, उसकी पलकें भी खूबसूरत हैं। तपाक से झुककर उसने उसकी पलकों को चूम लिया। आँखें खोल कर तान्या ने सपने में डूबी आवाज़ में कहा, ‘पहली मुलाकात में अंकल इसी तरह मेरी गोद में सर रखकर लेटे थे।’
‘कौन-से अंकल ?’ दीपा ने सचमुच की जिज्ञासा के स्वर में पूछा था। वह भ्ूाल गयी थी, कि उसकी साथिन अपनी मुँदी आँखों में जिसे छिप छिप कर देख रही है, वह सामने बैठा बूढ़ा है, माने अंकल।
‘यही, जो सामने बैठे हैं।’ तान्या ने कहा, ‘उस दिन वे ओवर ड्रंक थे। उन्हें मितली आ रही थी।’
‘कहाँ ?’
‘दिल्ली में, एक रईस पार्टी में, बड़े से लाॅन में ?’ तान्या ने ध्ाीमे ध्ाीमे एक एक शब्द अलग अलग करते हुए कहा, जैसे उस व्यतीत में ही वह बह रही हो। पर वह बह नहीं रही थी। उसे याद आ रही थी वह रात, जब कतई अजनबी भीड़ वाली पियक्कड़ पारटी में उसे मजबूरी में शामिल होना पड़ा था, अपनी एक सहेली की जिद के चलते। वहाँ पहुँचते ही सहेली दिल्ली के अपने दोस्तों में खो गयी थी। यह अकेली टहलती टहलती बोर होने लगी थी। थक भी बहुत गयी थी। थोड़ा-सा कुछ खाने का और पानी की दो बोतलें लेकर, वह हरे हेज से सटकर एक छतनार नीम की छाँव की ओर चली गयी। पेड़ के नीचे की जगह चट्टानी थी। उस पथरीली जगह पर इत्मीनान से अध्ालेटी-सी बैठ गयी थी। तभी उसने एक बूढ़े को लड़खड़ाते हुए हरी चारदीवारी की ओर बढ़ते देखा था। वहीं बिलकुल गिरने-सा बैठकर वह उल्टी करने लगा था। तान्या ने वहाँ जाकर उसे सम्हालने की कोशिश की थी। सहारा देकर उसे पेड़ के नीचे की ओर लायी थी। फिर पैर फैलाकर कहा था, ‘कुछ देर आप मेरी गोद में सिर रखकर लेट जाइए।’
बूढ़े ने अबोध्ा बच्चे की तरह उसकी ओर ताका था। ‘लेट जाइए।’ उसने लगभग आदेश के स्वर में कहा था। वह चुपचाप लेट गया था। दस पन्द्रह मिनट में ही उसकी स्थिति सामान्य हो गयी थी। तेज़ी से पी गयी आध्ाी से ज़्यादा शराब बाहर निकल चुकी थी। अपने को थोड़ा स्वस्थ महसूस करते हुए बूढ़ा उठा था और एकदम से खड़े होने की कोशिश करते थोड़ा लड़खड़ाया था। तान्या ने फिर सहारा दिया था। और देखा था, कि वह देखने में इतना बूढ़ा नहीं लगता था, जितना उसने सोचा था। थोड़ी देर साथ साथ चलते हुए उसे अचानक अपने अंकल की याद आयी थी, ऐन उसी वक़्त, जब वह हाथ जोड़कर, उसे ध्ान्यवाद देता हुआ, बुदबुदाता-सा विदा माँग रहा था।
और अभी अचानक दीपा गोद से उठकर, फिर उसके बाजू में बैठते ही, उसने जब सामने की तरफ देखा था, तो ये नये अंकल नहीं, वे पुराने अंकल ही उसे समुद्र में मगन नहाते नज़र आ रहे थे, जो बरसों पहले ही उसका साथ छोड़ गये थे। तान्या ने भरपूर आँखों से समीर की ओर देखा।
वह समुद्र की ओर ताक रहा था। शायद सामने रेत पर घर घरौंदे बनाते मछुआरे बच्चों की ओर। कुछ नंगध्ाड़ंग बच्चे समुद्र की लहरों के साथ खेल रहे थे। उसके ऐन सामने, लहरों से काफ़ी दूर, एक नन्हीं लड़की घर बना रही थी। और अपने से छोटे लड़के को समझाने जैसा कुछ कह रही थी। उसे देखकर समीर को फिर एक बार बचपन की उस साथिन की याद आयी। उसने मुड़कर पीछे बैठी तान्या और उसकी सहेली की ओर देखने की कोशिश की, पर उन्हें, मिहीदाना बेचते छोकरे से बतियाते देख, उसने फिर अपना चेहरा घुमा लिया। अपने अनजाने ही वह सोचने लगा था, कि आखिर किस वजह से तान्या उसके प्रति बेरुखी दिखा रही है, क्योंकि ऐसा तो हो ही नहीं सकता, कि वह उसे भूल गयी हो। दिल्ली की पहली मुलाकात को तो शायद मुलाकात कहना उचित नहीं है, समीर ने तीन चार बरस पहले की उस घटना को याद करते हुए सोचा था। पिछली बार अपने मित्र हरमीत के साथ जब वह उनके घर एक अजनबी अतिथि की तरह गया था, तो उस दिन महफिल में उसके माता पिता और उनके परिचितों के साथ ही नहीं, खुद तान्या के साथ देर तक उसकी बातें होती रही थीं, खासकर तब जब उसके अब्बू की महफि़ल की बातचीत में सक्रिय हिस्सा न ले पाने के कारण, वह उस विशाल अहाते वाली जगह की चारदीवारी के चक्कर लगाने लगा था, और तब तान्या ने खुद उसके पास आकर, उसे पीछे के आदिवासियों के क्वार्टर में कोसना पीने के लिए आमन्त्रित किया था। इसलिए उसे न पहचान पाना, या भूल जाना तो नामुमकिन है, तो फिर,.... सोचते हुए अचानक उसकी सोच की दिशा बदल जाती थी और उसे अपने बचपन की उस साथिन की याद आ जाती थी, और अपशकुन की सोच कर वह थोड़ा डर भी जाता था, पर अभी उसकी मनःस्थिति ही बड़ी अजीब सी थी। एक तो ज़्यादा सोने की वजह से और भारी खाने की वजह से भी उसका सिर, तभी से भन्ना रहा था, जब सोकर उठने के बाद, वह कमरे से बाहर निकल कर समुद्र तट पर आया था। देर तक मछुआरों की बस्ती के सामने के सुनसान से तट पर, समुद्र के ऐन सामने बैठकर भी उससे परे, अपने आत्मालाप में डूबा, जब वह अचानक इस तरफ आया था, तो देवदत्त संयोग की तरह तान्या को वहाँ देखकर, उसके मन में सुख की सिहरन-सी खेलने लगी थी, क्योंकि दो ही इत्तफाक़ी मुलाकातों के बाद, इस लड़की से इस तरह मिलते हुए, उसके मन में जो लहर सी उमड़ी थी, उसे अतिकामुकता के अपने स्वाभाविक लालच की तरह, वह इसलिए भी नहीं देख पा रहा था, कि उसकी लगभग लहर-सी स्मृति में भी, मासूमियत जैसी कोई बात थी, जो उसे बार बार आकर्षित कर रही थी।
सोचकर उसने सिर घुमाया। पर उसके पहले उसने देखा, कि बाजू की विदेशिनी उसकी तरफ देख रही थी। इस बार लैंप पोस्ट के पास वाली उस ऊँची रेतीली जगह पर किसी को न पाकर, उसे ध्ाक्का-सा लगा। कहीं ऐसा तो नहीं, कि उसके बार बार पलट कर देखने की वजह से उन लोगों को बुरा लगा हो और उससे बचने के लिए वे दोनों वहाँ से उठ गयी हों। बहुत मुमकिन है कि ऐसा ही हुआ हो, क्योंकि पसन्दीदा लड़की या स्त्री को उसकी दृष्टि थोड़े इतने गौर से देखती है, कि किसी को भी लग सकता है, कि बुड्ढ़ा उन्हें खामखा घूर रहा है, हालाँकि ऐसा वह जानबूझ कर नहीं करता। हाँ जानबूझकर वह अपने देखने की इस तरह की नैसर्गिक हरकत पर बंदिश ज़रूर लगा देता है। अभी उसने वही किया।
यों अभी उसकी ज़रूरत नहीं थी। पीछे की वह जगह, जहाँ वे दोनों लिपटती, चिपटती बैठी समुद्र तट की गहराती सन्ध्या में अपनी कामनाओं के रंग देख रही थी, एकदम खाली थी। शायद उन दोनों की गन्ध्ा वहाँ बची रह गयी हो। शायद वही गन्ध्ा, उसके मुड़कर सीध्ो बैठ जाने के बाद, हवाओं पर सवार उसके सीने में बिखर गयी हो। शायद जगह का खालीपन, मन के खालीपन के कान तक आकर, फुसफुसाने-सा कुछ ऐसा कह रहा हो, जिससे उमगती सिहरन को, वह अभी एक सुखद बेमालूम-सी कामज लहर की तरह महसूस कर रहा है, और एक अनाम अकारण की आशंका की तरह भी, कि जिस तरह की अस्वाभाविक भावाविभोरता से वह इस लगभग अजनबी युवती को अन्दर ही अन्दर चाह रहा है, वह कहीं, उसके अंगरचे अकेलेपन को और बेचैन न बना दे।
अभी उसके सामने दस ग्यारह की उम्र का एक लड़का और एक लड़की थी। दोनों रेत पर घर बनाने का खेल, खेल रहे थे। रेत को इकट्ठा करके, एक ईशत् ऊँचा-सा चबूतरा बनाने के बाद, लड़की चारों तरफ की ऊँचाई को यकसाँ करने में लगी थी। लड़का, जो उससे साल छै महीने छोटा ही होगा, ग़ौर से उस चबूतरे को देख रहा था। लड़की चबूतरे पर रेखाएँ खींचकर अपना घर और उसका घर बना रही थी। बीच बीच में उसे समझा भी रही थी, कि घर में दरवाजा भी रहेगा और खिड़की भी। लड़का उत्सुक आँखों से उसे देख रहा था। दो कदम की दूरी पर कुर्सी पर बैठा समीर भी देख रहा था, उनके खेल को। उसे फिर उसी बचपन की अपनी दोस्त की याद आ रही थी, जिसके साथ वह नदी में पहली बार नहाने गया था, हालाँकि इसके लिए उसे घर में काफ़ी रोना ध्ाोना पड़ा था, जबकि उसके सामने ही रहने वाली इस लड़की को उसके चाचा, पाँच बजे सुबह अपने साथ नदी ले जाते थे। उसे नदी भेजने के पहले समीर के पिता ने, लड़की के चाचा को घर पर बुलाया था, और उसे तरह तरह की हिदायतें दी थीं, और तब उसे नदी जाने की अनुमति मिली थी। उस पहाड़ी पथरीली नदी के तट की गीली रेत पर, तरह तरह की आकृतियाँ बनाती लड़की को, उसी दिन उसने रेत का घर बनाते भी देखा था। ईशत् गीली रेत अपने एक पैर पर जमाकर, उसे थपक कर मजबूत बनाने के बाद, आखिर में बहुत सावध्ाानी से उसने अपना पाँव बाहर निकाला था। और जोर से चिल्लायी थी।
‘बन गया।’
अकबकाए से घरघुसरे समीर ने पूछा था ‘क्या ?’
‘घर’ लड़की ने कहा था। फिर पाँव निकालने से पोली हो गयी रेत के घरौंदे की ओर इशारा करते हुए कहा था, ‘यह दरवाजा है और भीतर घर।’ कहती हुई वह नदी तक दौड़ गयी थी, और उसके चाचा थोड़ी दूर तैरते हुए चिल्लाए थे, ‘ज़्यादा आगे मत आना।’ उसकी देखादेखी, उसके होने को किसी भरोसेमन्द सहारे की तरह सोचते, नन्हा समीर भी नदी में नहाने लगा था।
अभी इस छोटे से लड़के को सींक से लकीर खींच कर घर बनाने की कला सिखाने वाली लड़की को देखते हुए, कुछ पलों के लिए वह सचमुच भूल गया था, कि वह कहाँ है और क्यों है। और बुढ़ापे की इस शुरुआत में, जैसे अपने बचपन की नदी के पास चला गया था और सोचने लगा था, कि समुद्र की गीली हो चुकी रेत पर पाँव में रेत में जमा करते हुए, बचपन का वह गुफा जैसे दरवाज़े वाला घर तो नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि क्या पता कब कौन-सी लहर आकर उस पर चढ़ जाए और उसका नामोनिशान मिटा दे। शायद इसी लिए यह लड़की इस ऊँची और सुरक्षित जगह पर चाय की दुकान पर बैठे समीर से दो कदम दूरी पर, अपने साथी के साथ अपना घर बना रही है, सोचकर उसने लड़की को गौर से देखा। वह थोड़ी चपटी नाक और गोल चेहरेवाली एक मछुआरिन लड़की ही थी, जो गहराती शाम तक निर्भीक खेल रही थी, अपने दोस्त के साथ। लेकिन तभी कद काठी उनसे थोड़ा बड़ा लगता, निकर पहने एक नंगध्ाड़ंग छोकरा, जोर से दौड़ता हुआ उस जगह तक आया, और उसने एक लात मारकर उसका चबूतरा तोड़कर बिखेर दिया। फिर उसी रफ़्तार से समुद्र की तरफ दौड़ा। शेरनी की तरह दहाड़ती लड़की, उसके पीछे-पीछे दौड़ी। लहर के आने के पहले ही वहाँ पहुँचकर, उसने उसे एक करारा झापड़ लगाया और उससे गुत्थमगुत्था हो गयी। तभी एक ऊँची लहर उनके सिर पर से गुजरी और लगा कि वे उसी में बिला गये हैं, पर दूसरे ही पल घुटनों से ऊपर तक जाते खारे जल के परिचित स्पर्श और मुँह में भर गये नमकीन स्वाद के साथ, एक-दूसरे से उसी तरफ लिपटे वे खिलखिला रहे थे। थोड़ी दूर प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठा समीर, उन्हें उसी तरह अकबकाया-सा ताक रहा था, जैसे तट पर खड़ा वह बच्चा, जो थोड़ी देर पहले लड़की के साथ घर बनाने के खेल में डूबा था। और तभी समीर ने जैसे किसी चमत्कार को साकार देखने-सा देखा, कि तान्या और उसकी सहेली भी, सिर से पैर तक भ़ीगी खड़ी थीं, और आने वाली लहर का इन्तज़ार कर रही थीं। लहर के क़रीब आते ही वे उसके सामने नहीं, उसे बाजू में करती हुई उछलीं और लगा जैसे वे लहर पर सवार होकर तैर रही हैं। फिर वे थोड़ा आगे बढ़ीं और तट पर खड़े समीर की तरफ, भरपूर मुस्कराती आँखों से देखकर तान्या ने हाथ के इशारे के साथ-साथ, आवाज़ देते हुए समीर को बुलाया। समीर के मन में कामना की किसी लहर की तरह आयी, पर उसे पता था, कि अब समुद्र के साथ खेलते हुए नहाने की उम्र से वह काफ़ी आगे आ गया है। अब तो सिर्फ़ कल्पना का समुद्र स्नान ही उसके बस में रह गया है। बेशक स्मृतियाँ आज भी यहाँ आने पर उसे उकसाती हैं, पर वे भी अब उसे उस तरह समुद्र में ध्ाकेल नहीं पातीं, कि वह सब कुछ भूलकर स्नान पर्व में डूब जाए। पर अभी तान्या के इस स्नेहिल आमन्त्रण से उसे लगा, कि अभी कुछ देर पहले तक की उसकी बेरुखी में, मूल भाव शायद संकोच का था, कि वे दोनों तो नहाने के इरादे से, उस तरह के कपड़ों में यहाँ तक आयी हैं। शायद उनका कपड़ा ही, उनके संकोच का मूल कारण हो, सोचता समीर अपने अनजाने ही ध्ाीमे ध्ाीमे समुद्र की गीली रेत के घेरे तक आ गया था और चाहता था, कि कोई एक लहर कम से कम उसके पाँव तो मिगो दे।
पर दूसरी शाम भी वह हाफ़पैंट और टी शर्ट में थी, और बिलकुल उसी जगह पर पैर पसार कर बैठी हुई थी, जहाँ कल बैठी थी। आज उसके साथ उसकी सहेली नहीं थी।
अभी घण्टे भर पहले ही पुरी स्टेशन तक जाकर उसने उसे छोड़ा था। ट्रेन छूटने के पहले, बल्कि छूटने के बाद, सरकती ट्रेन में दौ़कर चढ़ने के पहले, उसने उसे प्लेटफाॅर्म पर इतनी ज़ोर से अपनी छाती से चिपटाया था, कि तान्या को तकलीफ़-सी होने लगी थी। फिर दौड़ कर ट्रेन में चढ़ने के बाद कुछ ऐसी आँखों से उसकी ओर ताकती, विदा करा हाथ हिलाती रही थी, जैसे अभी दूसरे ही पल वह ट्रेन से कूद कर कुछ ही पलों में फिर उसके पास आ जाएगी। पर वह यह भी जानती थी, कि ऐसा होगा नहीं। दीपा से उसकी अन्तरंगता ऐसी नहीं थी, कि सांसारिक नियम कायदों को भूल कर, दोनों एक दूसरे के साथ मिलन पर्व मनाते रहें। तीनेक वर्षों में यह उनकी चैथी, पाँचवी मुलाकात थी। और इन मुलाकातों में एक दूसरे के नज़दीक वे ज़रूर आयी थीं, पर फिर भी दीशा को लगता था, कि उनका साथ उस तरह का नहीं है, जहाँ एक दूसरे की अनुपस्थिति भी, मौजूदगी की तरह लगे। शारीरिक निकटता से कहीं अध्ािक गहरा सामीप्य तो एक दूसरे के मन में रच बस जाने से ही सम्भ्व होता है। शायद इस तरह के साथ के लिए आन्तरिक संवाद और साथ की ज़रूरत पड़ती है। दीपा चैंकी। प्लेटफाॅर्म से निकलकर, बिना आटो किये, वह हाॅटल वापसी का रास्ता पकड़ चुकी थी और अनजाने ही दीपा के बारे में सोचते सोचते, उसकी आँखों के सामने अंकल का चेहरा उभर आया था।
एक आॅटो वाले ने बिलकुल उससे टकराते हुए उसके बाजू से आॅटो निकाला, तो उसने त्यौरियाँ चढ़ा कर उसकी तरफ देखा। आॅटो वाले का क्षमायाचनापूर्ण चेहरा देखकर उसने उससे कुछ नहीं कहा। फिर उसे लगा कि अभी भी हाॅटल यहाँ से काफ़ी दूर था। लेकिन वह पैदल ही आगे बढ़ने लगी थी। आज की पूरी रात और कल पूरे दिन भर उसे अकेले ही गुज़ारना है। कई बार ऐसे कई काम अपने आप हो जाते हैं, जिनके बारे में सोच विचार करना फि़जूल है, सोचती हुई, वह सोचने लगी, कि हाॅटल जाकर थोड़ी देर आराम करेगी। फिर उसने घड़ी देखी। ऊपर आसमान की ओर देखा। फरवरी के निरभ्र आकाश में सूरज पश्चिम की ओर तेज़ी से बढ़ रहा था। इस महीने में आमतौर पर पुरी का मौसम सुखद ही होता है, पर अभी तान्या को ध्ाूप की तेज़ी और उमस दोनों महसूस हो रही थी। उसे लग रहा था, कि हाॅटल में अपने कमरे में पहुँचते तक तो वह किसी काम की नहीं रह जाएगी, लेकिन अपने ही भीतर की किसी अतार्किक जिद की गिरफ़्त में फँसी, वह आॅटो लेकर चलने के लिए अपने को तैयार नहीं कर पा रही थी और इस बात पर उसे अपने ऊपर हँसी आ रही थी और एक तरह की चिड़चिड़ाहट भी महसूस हो रही थी। शायद थोड़े चिपचिपे मौसम और तीखी ध्ाूप की वजह से ही, उसकी स्वाभाविक मस्ती गायब हो गयी थी। इस वजह से भी, कि दो दिनों तक दीपा के साथ ध्ाींगामुश्ती में वह मस्त मगन थी। अब उसे बिलकुल खाली खाली लग रहा था। बेशक उसे अकेले रहने की आदत बचपन से ही थी। हाय स्कूल के समय से ही वह अध्ािकांशतः घर से बाहर रह कर पढ़ी थी। और जब घर में रहती भी थी, तो उसके मम्मी, पापा अपनी अपनी नौकरियों में व्यस्त रहते थे। दोनों काॅलेज में पढ़ाते थे, और इसलिए काफ़ी मनमानी ढंग से नौकरी करने की परम्परा के ही नौकर थे। पर घर में भी, खासकर तान्या के एम.ए. करने के बाद, वे उसके साथ बहुत ज़्यादा समय नहीं गुज़ारते थे। हाँ जब तक अंकल थे तो कम से कम महीने में एक बार राउरकेला ज़रूर आते थे। तब तो चाहे घर में हो या बाहर, उसका पूरा समय अंकल के साथ ही गुज़रता था। लेकिन यह उसके हाई स्कूल के दिनों की बात थी। उन्हें गये तो अरसा बीत गया, सोचते हुए, चलते चलते ही तान्या रुआँसी हो गयी। फिर थोड़ी सख्ती से उसने अपनी भावुकता को सम्हाला और थकान के बावजूद, अपनी चाल तेज़ कर दी। क़रीब बीसेक मिनट बाद वह हाॅटल के अपने कमरे में पहुँची, तो पसीने से लथपथ थी। पंखा चलाकर बेड पर वैसी की वैसी चित्त पड़ गयी। लेकिन थकान के बावजूद कोशिश करने के बाद भी, उसे नींद नहीं आयी और जाने कितनी सारी इध्ार उध्ार की फिजूल सोच में भटकती वह सिर्फ़ करवटें बदलती रही। फिर उसने घड़ी देखी। चार बजे थे। उसका मन कह रहा था, कि चलकर समुद्र के किनारे बैठना ही ठीक होगा। सोचते ही तपाक से बेड पर से उठ गयी। उसने सलवार और कुर्ती की जगह कल जैसी हाफ पैंट और टी शर्ट पहन ली। झोले में खादी भण्डार का गमछा, एक टी शर्ट और बरमुड़ा रखती हुई वह सोच रही थी, कि अनजाने ही वह शाम को फिर से नहाने की तैयारी-सी करने लगी है, हालाँकि वह जानती थी, कि दुनिया भर की बातें सोचती हुई समुद्र की ओर देखती देखती, वह घण्टों गुज़ार सकती है, लेकिन अकेली नहाने की सोच भी नहीं सकती। उसे फिर से अपने किशोर दिनों की याद आयी। अंकल की भी। समुद्र की साक्षी में उसने अंकल की निकटता का पहला पाठ पढ़ा था। समुद्र से दोस्ती के तौर तरीके भी उन्होंने ही सिखाये थे। उन्होंने ही इन विशाल लहरों के झूले में बेखौफ झूलने के कायदे समझाये थे। तैरना भी तान्या ने उन्हीं से सीखा था। इसी लिए, उनके सशरीर नहीं रहने पर भी, समुद्र के पास जाते ही अंकल की स्मृतियाँ उसे घेर लेती थीं, खास कर जब वह इस तरह अकेली बैठ कर समुद्र की ओर खामोश ताक रही हो। अभी भी यही हो रहा था। पर बीच बीच में उसे यह भी महसूस हो रहा था कि इसी समुद्र के अतल मेें या आसमान के अछोर में खो गये अंकल को बार बार पाते, वह आज बिलकुल ही अनजाने समीर अंकल को भी स्मृतियों की लहरों में आते जाते देख रही है, और समझ नहीं पा रही है, कि इस तरह अचानक और अकारण ही उनकी याद उसे क्यों आने लगी है, क्योंकि समीर से तो अभी उसका ठीक ठाक परिचय भी नहीं हुआ था। और उस अंकल के साथ इनके कद काठी चेहरे मोहरे की भी कहीं कोई समानता नहीं। दुहरे कदकाठी के ऊँचे पूरे, पैंतालीस की उम्र में भी जवान लगते, अमन अंकल की आँखे भूरी थीं। कन्ध्ाों तक आते उनके बाल और उनकी दाढ़ी के बीच उनका चेहरा किसी मासूम बच्चे का-सा लगता था। और उनकी खासियत थी, उनकी बेहद मीठी और आत्मीय आवाज़। वे अपनी साध्ाारण बात भी, जैसे संगीत के सध्ो सुर में कहते थे, और अगर कोई गीत गा रहे हों, तो इतने मुक्त होकर भीतर से झूमते गाते थे, कि उन्हें सुध्ा बुध्ा तक नहीं रहती थी। इस तरह एक साथ एक आत्मीय और दूसरे अजनबी अंकल की बात सोचती हुई तान्या को थोड़ा खराब भी लग रहा था, कि कल शाम समीर को देखने के बाद, पता नहीं किस वजह से, उसने, उन्हें नहीं पहचानने की नौटंकी शुरू कर दी थी, जबकि वे बेचैन उत्सुकता के साथ बार बार उसकी तरफ देख रहे थे। सचमुच यह हद दरजे की अशिष्टता है, तान्या बुदबुदायी। फिर दायें मुड़कर जानने की कोशिश करने लगी, कि सूरज के डूबने में अभी कितनी देर थी, हालाँकि इतनी बार यहाँ आकर सूरज को उगते और डूबते देखने के बाद भी, तान्या को ठीक से पता नहीं था, कि वही सूर्यास्त की दिशा है, जिध्ार वह देख रही थी। वही दिशा थी। सूरज के डूबने में अभी बीस पचीस मिनट या आध्ो घण्टे की देर थी। उस तरफ से अपनी निगाह लौटाती हुई, जब वह दायें तरफ के तट में खेलते बच्चों की ओर देखने लगी, तो अचानक उसे लगा, कि एक छतरी के नीचे, कोई बिलकुल ही सफेद सिर दिखायी पड़ रहा था। उतनी दूर से पता नहीं चल रहा था, कि मर्द है या औरत, पर है वह सफ़ेदी, इंसानी जात के सर की ही, जो ढलती ध्ाूप में इतनी दूर से भी उसे चमकती-सी दिख रही थी।
थोड़ी देर ग़ौर से उसी दिशा में देखती रहने के बाद, अचानक वह उठ गयी। उसी तरफ बढ़ने लगी। होटल शुभम के पिछले दरवाजे से जुड़े तट के पास पहुँचने में उसे पाँच सात मिनट लगे। क़रीब आते ही उसे लगा, कि सिर को छोड़कर पूरे शरीर और चेहरे से, वह गाढ़े काले रंग की एक बुढि़या थी। उत्सुकतावश तान्या छतरी के ऐन नीचे तक चली आयी। बुढि़या प्लास्टिक की एक हत्थेवाली कुर्सी पर, चुपचाप बैठी सामने की ओर देख रही थी। उसके पास पहुँच कर तान्या ने देखा, कि उसके चेहरे पर झुर्रियाँ ही झुर्रियाँ थी, पर इतने पास से भी ऐसी लगती थी, जैसे किसी जीवित व्यक्ति की नहीं, बल्कि काली पेंसिल से किसी बुढि़या के चित्र में गाढ़े उकेरी गयी झुर्रियाँ हों। चेहरे का शायद ही कोई हिस्सा ऐसा होगा, जहाँ गहरी कटानों जैसी झुर्रियों का कब्ज़ा न हो। उसका निचला ओठ थोड़ा बंकिम-सा था। पर उसे देखते हुए लगता था, जैसे वह मुस्करा रही है। उसने तान्या के आने और अपने सामने खड़ी हो जाने का नोटिस तक नहीं लिया। तान्या ने उससे पूछा भी। तिस पर भी वह अपनी सदाबहार मुस्कान और अपने झुर्राए चेहरे के साथ, सीध्ो समुद्र की ओर देखती रही। उसे उस तरह निर्विकार असीम नीले की ओर ताकती देख कर, तान्या के मन तरह तरह के खयाल मचलने लगे थे। लेकिन उसे न तो तान्या के खयाल से मतलब था, न उसके सवाल से। तब तान्या ने मोबाइल से ध्ाड़ाध्ाड़ तस्वीरें लेनी शुरू कर दीं। तभी शुभम के पिछले दरवाज़े से एक सुदर्शना तन्वंगी बाहर आयी और उसने थोड़े आदेश के स्वर में कहा, ‘दादी, अब चलो’ फिर वह उसे सहारा देकर हाॅटल के पिछले गेट की ओर बढ़ने लगी। उसे जाते देखकर तान्या फिर उसी दिशा की ओर मुड़ी, जिध्ार से आयी थी। उसी जगह पर पहुँचकर बैठ गयी, जहाँ बैठी थी। कल वाली लड़की की चाय दुकान खुल गयी थी। उसने चाय के लिए कहा। लड़की चाय लेकर आयी। उसने प्याला मुँह से लगाया ही था, कि पीछे की ओर से आकर उसके बाजू में बैठते हुए समीर ने कहा, ‘मैं भी चाय पियूँगा।’
वह चैंक गयी। उसने अपनी बड़ी बड़ी आँखों को और बड़ी करके दो पल उसकी ओर देखा। फिर सिहरा देने वाली पलकों की झपकन के साथ थोड़ी लहर भरे स्वर में बोली, ‘मैं आप ही के बारे में सोच रही थी।’
शायद यह अपने आप ही औपचारिकतावश मुँह से निकल गया एक झूठ था। शायद नहीं था। शायद आध्ाा झूठ था। शायद उसी पल, जब उसके मुँह से निकला, वह सचमुच उसके बारे में सोच रही थी। यहाँ आते ही अपने समुद्र स्नान की स्मृति में भीगते हुए, जब उसने अपने कब के जा चुके अंकल को, लहरों के बीच अपने सीने से चिपटे हुए देखा था, तभी एक तेज़ लहर की तरह से बीते कल की याद आयी थी, और उसने समीर के बारे में सोचा था।
‘और मैं चाय के बारे में’, समीर ने कहा। पीछे से उसके छितरे केशों को देखते ही वह उसे पहचान गया था। पहले उसके मन में उसी तरह का नाटक करने का खयाल आया था, जैसे तान्या कल कर रही थी, लेकिन आज वह अकेली थी और रेत पर पैर फैलाये बैठी थी। जैसे कल। और चाय पी रही थी। उसे देखने के पहले, भुवनेश्वर से पुरी तक की यात्रा उसने एक खटारा बस में की थी और यहाँ आॅटो में सीटी रोड पहुँचने के बाद, उसे थकान-सी महसूस हो रही थी और चुपचाप समुद्र को ताकते चाय पीने का खयाल उसके मन मे मँडराया था। अपने कमरे में जान कीे बजाय, वह एक लम्बी गली के रस्ते तट की रेत पर उतरकर थोड़ा सपाटे से बढ़ने लगा था। दूर से ही उसने चायवाली उस लड़की की दुकान देख ली थी, जो उसकी परिचिता थी। पर पास आते हुए उसे तान्या नज़र आयी थी और वह थोड़े चुपके से उसके बाजू में आकर बैठ गया था।
‘चाय के बारे में ?’ तान्या ने अपनी चाय की आखिरी घूँट लेते हुए सहज भाव से पूछा। वह समझ गयी थी, कि समीर चाय के बारे में सोच नहीं रहा था, जबकि समीर की बात में सचाई थी।
इसलिए तान्या ने जब दुबारा सवाल करने-सा पूछा, तो उसने स्पष्टीकरण देने-सा कहा, ‘ठीक चाय के बारे में नहीं, बल्कि उस दुकान के सामने रखी खाली कुर्सियों के बारे में, और अगर वहाँ बैठना हो तो थोड़ी बहुत चाय पीनी ही पड़ेगी।’
‘ओह, तो चलिए वहीं चलते हैं,’ तान्या ने उसकी असुविध्ाा समझते हुए कहा। उसके अब्बू को भी यहाँ आने पर, समुद्र की रेत पर बैठने में तकलीफ होती है। देर तक पीछे हाथ टिकाये बैठना सम्भव नहीं होता और बिना हाथ टेके बैठना भी कुछ ही देर में कष्टकारी लगता है। अभी अठाइस की उम्र में खुद उसे इस तरह देर तक बैठने में उसे परेशानी होने लगी है। सोचती हुई वह उठ गयी और उसने समीर को उठाने के लिए अपनी हथेली बढ़ा दी। उसकी हथेली को छूते ही उसे लगा, जैसे यह किसी लड़की की नर्म नाजुक हथेली है। आकार में भी वह काफ़ी छोटी थी। उसे सहारा देकर उठने में मदद करते हुए उसने कहा भी, ‘आप थोड़े नाजुक किस्म के मर्द लगते हैं।’
समीर तत्काल समझ गया कि जीवन भर शारीरिक श्रम से कोसों दूर बने रहने के कारण उसकी हथेलियों में किसी तरह का रूखड़पन नहीं है, और तान्या का संकेत उसी तरफ है। उसने कुछ कहा नहीं। पर उसे इतने क़रीब से देखते हुए तान्या को अब वह नाजुक लग नहीं रहा था। था तो वह इकहरे बदन का, लेकिन अभी साठ की उम्र में भी पूरी कद काठी से और ईशत् गौरववर्णी मुख से, तरोताजा ही लग रहा था। शायद सिर्फ़ हथेलियाँ ही थोड़ा कोमल हों, उसने सोचा और कहा, ‘वैसे दिखते तो आप काफ़ी स्मार्ट हैं, पर लगता है कि बुढ़ापा का स्पर्श होने लगा है। उठने की तकलीफ़, शायद उसी की शुरुआत है।’
‘शुरुआत से ज़्यादा एहतियात,’ समीर मुस्करा कर बोला, ‘अभी साल भर पहले स्लिप डिस्क के चलते मुझे दो महीने तक खाट पर पड़े रहना पड़ा था।’
दुकान पर पहुँचने के बाद चाय पीते हुए दोनों देर तक खामोश हो कर, समुद्र की लहरों के उभरने और बिखरने को इस तरह देखते रहे, जैसे अलग अलग उसी से बातें करने में लगे हों। यों भी समुद्र के ऐन सामने, खासकर पुरी के इस गरजते समुद्र के सामने, दो व्यक्तियों के बीच देर तक बातचीत में रमे रहने की गुंजाइश नहीं बनती। फिर भी लगता रहता है, कि बिना कुछ बोले भी अपने आप से या अपने साथी से कितनी सारी बातें होती ही रहती हंै। समीर को ऐसा ही लग रहा था, और तभी तान्या ने मुखर होकर सवाल किया था, ‘किस सोच में गुम हो गये आप ?’
सवाल सुनकर समीर थोड़ी देर के लिए एकदम भौचक्का-सा हो गया। सवाल के ऐन पहले, वह समुद्र की उठती गिरती लहरों के बीच, दूर तक चले जाने और अचानक ही कहीं अपने अन्त में विलीन हो जाने की जिस विचित्र कल्पना में वह खो गया था, वह कभी कभार आने वाली कोई अचानक कल्पना नहीं थी। पिछले दो तीन वर्षों से अन्त की कल्पना के तरह तरह के चित्र देखने की उसे आदत-सी हो गयी है। वह आसन्न मृत्यु की कल्पना से आबसेस्ड-सा हो गया है। लगभग उतनी ही तीव्रता के साथ वह मृत्यु के बारे में सोचता रहता है, जितनी शिद्दत के साथ वह स्त्री के सान्निध्य की कल्पना में खोया रहता है। स्त्री और मृत्यु को लेकर निरन्तर जारी अपनी इस तरह की सोच के बावजूद, कैसे अपने सामाजिक, व्यावहारिक जीवन में वह सामान्य आदमी की तरह सब कुछ करता रहता है, इस बात पर उसे खुद पर हैरत होती है। लेकिन उसकी सोच का सच यही है। और फिर यह किसी खास सन्दर्भ से जुड़ी, महज कुछ देर के लिए ही उसे परेशान या बेचैन करने वाली सोच नहीं है। अचानक कहीं भी, कभी भी, कितने सारे विचित्र रूपों में देखने लगता है, वह अपने अन्त से गले मिलते अपने आपको। लेकिन बाहर की दुनिया में रहने, जीने की अपनी विवशता भी है, एक तरह से देहध्ारे की दण्ड की तरह। पर अभी बाजू में बैठकर, अपने अदृश्य खयालों में खोयी तान्या का अचानक सवाल सुनकर, अनसोचे ही उसके मुँह से निकला, ‘अच्छा, उस दिन अगर तुम्हारी गोद पर सिर रखे रखे ही मैं मर गया होता, तो तुम क्या करतीं ?’
तान्या ने थोड़े गुस्से में उसकी ओर देखा। फिर समुद्र की आती लहर की ओर और फिर बहुत दूर पानी को चीरती लहर की उजली रेखा को। अपलक।
‘कुछ कहा नहीं तुमने ?’ समीर ने फिर उसकी तरफ चेहरा घुमा कर पूछा। यह याद करते हुए कि शायद अनजाने या शायद कहीं गहरे में जानबूझकर, वह तुम के सम्बोध्ान की अन्तरंगता की शुरुआत कर चुका है। इस पर तान्या ने जो कहा, वह भले उसके सवाल का जवाब नहीं था, पर जिस खुनक भरी आवाज़ में उसे खारिज करते हुए उसने दो टूक शब्दों में कहा था, उसमें भी शायद प्राथमिक परिचय की औपचारिकता को तोड़ने की कोशिश थी, जैसे खुद समीर की फिजूल और निरर्थक जिज्ञासा में थी।
‘तुम्हारा सवाल ही बेतुका है।’ तान्या ने कहा था।
‘क्यों ? आदमी कभी भी, कहीं भी मर सकता है, क्या तुम इस सच से इन्कार कर सकती हो ?’ समीर ने उसे छेड़ते हुए कहा और अपनी बात कहते हुए समुद्र को अपनी आँखों में उतारती, उसके कमनीय मुख की ओर ऐसे देखता रहा, जैसे अपने भीतर उमगती चाहत का बिम्ब देख रहा हो।
तान्या ने बगैर उसकी तरफ देखे, फिर कहा, ‘अगर ऐसा हुआ होता, तो क्या हुआ होता, जैसे सवाल मुझे बेतुके लगते हैं, अगर ऐसा हो जाएगा, तो हम क्या करेंगे, जैसे सवाल से भी ज़्यादा बेतुका।’
‘फिर भी, तुम कल्पना तो कर ही सकती हो।’
‘क्यों करूँ कल्पना,’ तान्या ने सपाटे से कहा।
फिर उसकी तरफ थोड़ी नर्म नज़र से देखती हुई बोली, ‘तुम्हारी कल्पना तुम्हीं को मुबारक।’
समीर को उसकी आवाज़ में रची बसी, सहज अनौपचारिकता के बावजूद लगा, कि शायद वह आम लोगों की तरह मृत्यु की चर्चा मात्र को अपशकुन की तरह सोचती है, पर जिस सपाटे की तार्किकता से उसने उसकी उसकी वाकई बेतुकी जिज्ञासा पर पलटवार किया था, उससे तो यही लगता था, कि ना, यह खाओ पियो और मौज करो वाले औसत मध्यवर्गीय दिमाग की लड़की नहीं है। तभी फिर उसकी सोच को तोड़ती हुई तान्या ने उससे पूछा, ‘कल के मेरे व्यवहार पर तुम्हें गुस्सा तो नहीं आया था न, दरअसल कल तुम्हें उस तरह अकेले गुम्म बैठे देखकर, मुझे अचानक ही नौटंकी का मूड आ गया था, जबकि दीपा बार बार कह रही थी, कि मैं तुम्हें भी वहीं बुला लूँ।’
‘बुरा तो लग रहा था मुझे, कि मैं इतना अपरिचित तो नहीं था, कि नज़र मिलते ही तुम नज़र फेर लो’, समीर ने कहा, कल की बात याद करते हुए कहा। अभी उसे कल की यह बात किसी घटना की तरह याद नहीं थी। चाय पीते पीते, उसके पास बैठे बैठे, वह उसके अजीबोगरीब विदेशी से लगते नाम के बारे में सोच रहा था और उस रस्ते उनके घर के लोगों के बारे में भी। पर अभी उसकी बात सुनती तान्या बड़े गौर से उसके चेहरे की ओर देख रही थी, पर सोच कुछ और रही थी। उसने सहज-सा एक अचानक सवाल किया, ‘अच्छा। इंसान के मन में कभी कभी ऐसी बात क्यों आ जाती है, जो उसने कभी सोचा भी नहीं होता है?’
उसके सवाल में ही नहीं, उसके आँखों से और उसके स्वर से भी उसकी मासूमियत झाँक रही थी। सुनकर उसे याद आया, कि कल मछुआरों की बस्ती में, अपनी सोच में डूबा, वह भी इसी तरह मन में अनायास आ जाने वाले ऊटपटाँग खयालों के बारे में सोच रहा था। वह एक सहज प्रश्न था, लेकिन समीर के दिमाग में, दिमाग की कारस्तानी और उसकी हरकतों से जुड़े ऐसे कई सवाल, एक अजीब-सी बेचैनी की शक्ल में घुमड़ते रहते थे, कुछ इस तरह, कि उसका दिमाग तनाव में आ जाता था। और उसे लगता था, कि सारा जीवन ही जैसे एक बेचैन सोच का लम्बा सिलसिला है। अभी जब तान्या ने उसे इस तरह गौर से देखते हुए पूछा, तो उसे पल भर को लगा, जैसे यह लड़की, या कि यह स्त्री, उसे पढ़ने की कोशिश में ही यह सवाल पूछ रही थी। उसे अच्छा लगा। लड़की की निकटता की अपनी स्वाभाविक चाहत की तरह नहीं, एक बिलकुल दूसरी तरह का अच्छा लगना था यह, जैसे बातचीत के रस्ते वह कहीं किसी मंजिल की ओर नहीं जाना चाहती, बल्कि उसे जानना चाहती है। पर थोड़ी शरारत के भाव से और शायद फिजूल की गम्भीरता को टालने के इरादे से समीर ने कहा, ‘अब तुम बेतुका सवाल पूछ रही हो।’
‘हाँ, है तो बेतुका सवाल ही, पर अचानक मुझे लगा, कि कल आखिर मैंने वैसा क्यों किया?’ उसने थोड़े अपराध्ाबोध्ा, थोेड़ी जिज्ञासा के स्वर में कहा, तो समीर ने बड़े हल्के अन्दाज में कहा, ‘छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी।’
‘अरे तुम्हें तो पुराने फिल्मी गाने भी याद हैं,’ उसने उसकी तरफ मुस्कराहट भरी आँखों से ताकते हुए कहा, ‘तुम गाते भी हो।’
‘ना, भयानक बेसुरा हूँ,’ समीर ने सपाटे से कहा। उसे अपना बेसुरापन अच्छा नहीं लगता था, क्योंकि अध्ािकांशतः उसने देखा था, कि लोग चाहे सुरीले नहीं होेें, पर उसकी तरह भयानक बेसुरे नहीं होते। और यह बात उसे अपनी बड़ी कमी की तरह खलती थी।
‘अब्बू तो बहुत अच्छा गाते हैं, और बचपन में तो बाँसुरी भी बजाते थे, और अंकल तो....’ उसका गला रुँध्ा-सा गया, जैसे स्मृति ने उसे रुला दिया हो,’ वह उसी तरह के रुँआसे स्वर में बोली, ‘अंकल तो इतना अच्छा और इतना खुल कर गाते थे, कि ...’ वह एकदम ही सपाटे से चुप हो गयी। गर्दन मोड़कर उसकी तरफ अपलक निहारते समीर ने देखा सिर्फ़ गला ही नहीं, आँखें भी भर आयी हैं उसकी। समीर के लिए उसकी डबडबाती आँखों को देखना अजीब-सा अनुभव था। वह इस तरह की आँख भर लाने वाली भावुकता से एकदम ही विचलित हो जाता था। वह बिलकुल अजीब आँखों से समुद्र में उठती गिरती लहरों की ओर ताकने लगा। थोड़ी देर की खामोशी के बाद उसे लगा, कि बात करने से शायद वह इस भावुक प्रसंग से थोड़ा अलग हो सकती है।
‘शाम घिरने लगी है, देखो, पानी अब काले रंग का हो गया है। अगर लहरें न होतीं, तो यह पानी का नहीं, अँध्ोरे का समुद्र लगता।’
‘लेकिन रात तो चाँदनी की है, देखो,’ कहते हुए, उसने चाँद की ओर इशारा किया, जो अभी ठीक से आकार भी नहीं ले पाया था। अबकी बार तान्या का स्वाभाविक स्वर सुनते हुए संवाद के क्षण को पकड़ने के लिए ही उसने पूछा, ‘तुम, अपने पिताजी को अब्बू कहकर बुलाती हो ?’
‘हाँ,’ उसने कहा, ‘और माँ को अम्मी कह कर।’
‘क्यों ? आम तौर पर तो लोग मम्मी पापा, या मम्मी डैडी ही कहते हैं।’
‘अब हमें क्या पता, बचपन से ही अम्मी अब्बू कहते आ रहे हैं, तो वही चल रहा है,’ तान्या ने सहज होकर कहा, ‘तुम्हारी माँ तो है न अभी भी ?’
‘हाँ, हम उन्हें माँ ही कहते हैं।’ समीर ने कहा। उसकी सनातन समस्या उसे सताने लगी थी। वह समझ नहीं पा रहा था, कि अब इसके साथ यहाँ बैठे बैठे वह कौन सी बातें करें। उसने घड़ी देखी। आठ बजने को थे। याने उसे यहाँ तान्या के साथ बैठे एक घण्टे से भी ज़्यादा हो चुका था। कुछ ही देर में यह जगह एकदम निर्जन हो जाएगी और समुद्र का शोर उसका अपना अंध्ोरा और उसे चीरती लहरों के सामने की यह निर्जनता कहीं से भी अच्छी नहीं लगेगी। सोचते सोचते वह ताकने लगा समुद्र तट की भीड़ को। इस छोर से उस छोर तक। यहाँ से स्वर्गद्वार याने पुरी के श्मशान तक, आज कल की अपेक्षा बहुत कम भीड़ दिख रही थी। शायद शाम के अध्ािक घिर जाने की वजह से सैलानी अपने अपने ठिकानों पर लौट चुके थे। और अखीर में, रात के वक़्त ऐसी निर्जनता में, वहाँ उन दोनों के बैठे रहने के जोखिम का खयाल भी उसे आया। यही सोचकर उसने तान्या की ओर देखा। और तब उसके नाम के अजीब से होने का खयाल अचानक फिर आया और उसने पूछ लिया, ‘तुम्हारा नाम भी विदेशी लगता है ?’
‘भी का मतलब ? क्या और कुछ भी विदेशी लगता है ? रंग तो मेरा काला है ही, आफकोर्स दीपा जितना नहीं है, पर वही गाढ़ा काला रंग ज़्यादा अच्छा लगता है मुझे। खासकर मर्दों का वह रंग तो मुझे बहोत अच्छा लगता है।’
समीर का रंग गोरा था। तान्या की बात सुनकर उसे महसूस हुआ, जैसे उसे चिढ़ाने के लिए ही उसने मर्दों के शरीर के रंग का जिक्र छेड़ा हो। यह एक नर्म छेड़ थी। एक अमूत्र्त अनुभव की तरह उसके भीतर अँग्रेजी का एक जुमला लहराया। जैसे अब आत्मस्थ हो चुकी तान्या उसे एक नखरीले संकेत में कुछ कहना चाह रही थी। उसे यह भी लग रहा था, कि यह नखरा, काफ़ी निरामिष किस्म का है।
‘ना, तान्या मुझे रशियन नाम की याद दिलाता है, और मैं सोच रहा था, कि तुम्हें यह नाम किस कारण से दिया गया था।’
‘कारण है।’ तान्या ने गम्भीर पण्डिताऊ स्वर से अभिनय करते हुए कहा, तो अनायास ही उसे तान्या के लम्बे चैड़े प्लाट के बीचोंबीच बने पुराने किस्म के चैकोर मकान की पार्टी की याद आ गयी, जहाँ उस राउरकेला की हिन्दी रंग मण्डली के कई नौटंकीबाज एक साथ मौजूद थे। शायद उस घर के सभी लोग हर पल कोई न कोई नाटक ही कर रहे होते हैं। पर अभी तान्या की एकान्त की निकटता की सुगबुगी महसूस करते समीर को यह नौटंकी अच्छी ही लग रही थी। अपनी तरफ से भी स्वर को लहराते हुए समीर बोला, ‘बताइये हुजूर।’
‘जब अब्बू और अम्मी की शादी नहीं हुई थी, और अब्बू भुवनेश्वर में काम कर रहे थे, तो वहाँ अब्बू की एक बऊदी थी। बऊदी समझते हैं न ?’ तान्या ने बीच में पाॅज लेते हुए पूछा।
‘बांग्ला में भाभी को कहते हैं,’ वह एक बिलकुल सामान्य श्रोता की तरह, उसकी उसकी ओर गर्दन मोड़कर ताकते हुए उसकी बात सुन रहा था। उसे चिढ़ और शारीरिक तकलीफ दोनों हो रही थी, क्योंकि तान्या एक एक शब्द पर थोड़ा पाॅज लेते हुए, कुछ इस तरह बोल रही थी, जैसे किसी अभूतपूर्व रहस्य के बारे में बता रही हो।
‘उस बऊदी के साथ, अब्बू की गाढ़ी दोस्ती थी। और गाढ़ी दोस्ती का माध्यम था सिगरेट।’
‘मतलब ?’ समीर ने थोड़ी अध्ाीरता से पूछा, क्योंकि अब उसे लगभग यह पता चल ही गया था, कि तान्या शायद उसी स्त्री के नाम रहा होगा, इसके अब्बू उन दिनों जिसके चक्कर में थे।
‘मतलब यही, कि हर रात दोनों बऊदी के घर में उन्हीं के कमरे में बैठकर सिगरेट फूँकते थे। और उनके पति महोदय उन्हें देखते कुढ़ते रहते थे।’
‘क्यों ?’
‘इसलिए कि वे औरत की आज़ादी के पक्षध्ार थे, पर औरतों का सिगरेट पीना उनको अच्छा नहीं लगता था और रात को सिगरेट बिना पिये अब्बू की बऊदी सो नहीं पाती थी।’
‘पर इससे तुम्हारे नाम का क्या रिश्ता ?’
‘उस बऊदी का नाम तान्या था, और अब्बू ने उसी की याद में मेरा नाम तान्या रख दिया?’ तान्या सपाटे से समापन करती हुई बोली, ‘चलो अब चलते हैं।’
‘कहाँ ?’ उसने पूछा।
‘तुम्हारे कमरे में। मैं आज वहीं रहूँगी।’
समीर की आँखें फट गयी। उन्हीं विस्मय विस्फारित आँखों से उसने तान्या की ओर देखा।
‘क्यों ? क्या तुम्हारे साथ कोई और है ?’
‘ना,’ समीर ने छोटा-सा जवाब दिया। वे उठकर थोड़ा दायें, पीछे की ओर बने, पिंक हाउस की ओर बढ़ने लगे।
यह होटल समुद्र तट की मुख्य सड़क पर नहीं, बल्कि तट की रेत पर ही बना था। सीटी रोड की एक गली, जो इस रेत तक चली आती थी, उसी गली के आखिरी छोर का यह होटल, थोड़े कम पैसे वाले विदेशी यात्रियों के आकर्षण का केन्द्र था। उन्हीं के चलते कई देसी ग्राहक भी इसके प्रति आकर्शित होते थे। समीर इसके मालिक को इसलिए अच्छे से जानता था, कि यहीं पुरी में रहने वाले उसके भतीजे का वह अन्तरंग मित्र था। यहाँ ठहरने का एक दूसरा कारण यह भी था, कि यहाँ की रसोई में वह अपनी मन मरजी से खाना बनवा लेता था। होटल में पहुँचते ही उसे लगा, कि कमरे में जाने के पहले खाना खा लेना बेहतर होगा। उसे भूख भी लग रही थी। सुबह के नाश्ते के बाद उसने कुछ भी खाने जैसा नहीं खाया था। लौटते हुए एक टपरे हाॅटल में दो इडली भर उसने लिये थे, और सीध्ो समुद्र तट की ओर आ गया था। पर मजेदार संयोग यह भी था, कि कमरे की तरफ जाने के पहले, पेड़ के मोटे तने और फूस की छानी के मुख्य आध्ाार पर टिके, पिंक होटल के छोटे रेस्तराँ में घुसते ही तान्या ने खुद कहा, ‘पहले खाना खा लेते हैं।’
सुनकर समीर को राहत सी मिली। पर खुद अपनी राहत के चलते उसने दुहराया, ‘मुझे बड़ी जोर की भूख लगी है, और भूख में मैं बिलकुल रोने रोने को जाती हूँ।’ तान्या ने जेनुइन क्षुध्ाा की अनुभूति में सामने की टेबल से सटी कुर्सी पर बैठते हुए कहा।
‘पराठा और आलू भजा खाओगी ?’ समीर ने पूछा, ‘आलू भजा समझती हो न ?’
‘हाँ, ओडि़या आलू फ्राई, वो तो हमारे घर का हर तीसरे दिन का नाश्ता है, मुझे बहुत अच्छा लगता है।’’
‘पर उसमें थोड़ी देर लगेगी, कम से कम आध्ाा घण्टा, वो रेगुलर मेनू के बाहर की चीज़ है।’
‘ओरे बाबा,’ तान्या ने पूरे बंगाली स्वर में कहा, ‘मुझे तो बहुत भूख लग रही है। जो जल्दी आ जाए वही बुलवा लो।’
‘सबसे जल्दी तो सादा मील ही मिल सकती है, पर उसमें सिर्फ़ भात होता है और वो भी उसना चावल का।’
‘मँगवा लो, अभी तो जो भी आएगा, वो अमृत जैसा स्वाद देगा।’ तान्या ने मुस्कराते हुए कहा। दरअस्ल इस बीच बाजू की टेबल पर बैठी युवती को देख कर उसकी भूख और बढ़ गयी थी। वह बड़े इत्मीनान से आलू का पराठा खा रही थी। उसके खाने की प्रक्रिया में सक्रिय छुरी काँटे की आवाज़, और उसके चेहरे पर छाये स्वाद के स्वरूप को देखकर तान्या का मुँह पनियाने लगा था। और भूख के विकल अनुभव और भोजन के सुस्वादु दृश्य ने, उसे अंकल की याद दिला दी। उसने उसी स्मृति को शेयर करने के इरादे से सामने बैठे समीर की ओर देखा।
समीर भी ध्यान से उसी लड़की की ओर देख रहा था। वो पिंक होटल की इनमेट नहीं लग रही थी। गोरी थी। सुतवाँ नाक, थोड़े मोटे ओठ, लम्बोतरे चेहरे पर शार्प ठुड्डी में वह सहज भाव से कमनीय और दर्शनीय लग रही थी। उसकी ओर देखते हुए समीर थोड़ी देर के लिए भूख को भूलकर सोचने लगा था, कि अगर तान्या साथ नहीं होती, तो वह ज़रूर उसके साथ ठँसने की कोशिश करता, क्योंकि सिर्फ़ नाकनक्श से नहीं, बल्कि अपने इत्मीनान से भी वह यही जता रही थी, कि वह मुक्तमना आध्ाुनिका है। यों यह समीर की हाल में ही विकसित आदत थी, कि ऐसे अवसर पर अपनी बुजुर्गियत का फ़ायदा उठाते हुए, वह अपने स्वभाव के विपरीत, थोड़ी अतिवाचालता के साथ, ऐसे लोगों के निकट आसानी से चला जाता है। बेशक इस तरह का साथ क्षणभंगुर ही होता है, पर कौन-सा साथ नहीं है, सोचते हुए उसने तान्या की ओर देखा, ‘सुन्दर लड़की है।’
‘हाँ, पर उसे खाते देखकर मेरी भूख और बढ़ गयी है और मुझे अंकल की याद आ रही है।’
सुनते ही समीर को झटका-सा लगा। उसे अच्छे से याद था, कि आज की इस मुलाकात के शुरुआती पलों में भी, उसे अंकल की याद आयी थी और वह रुआँसी हो गयी थी। उसने उसे थाहने के लिए गौर से देखा। इस बार तान्या के मुख पर छायी स्मृति में कहीं कोई दुख नहीं था, बल्कि एक रोचक संस्मरण की सी खुशी थी और उसी में डूबी वह बोल रही थी, ‘एक बार, जब मैं चैदह पन्द्रह की थी, तो अंकल के साथ पुरी आ रही थी। शायद पहली बार। थ्री टायर वाले स्लीपर में हम, अगले बड़े स्टेशन जमशेदपुर का इन्तज़ार कर रहे थे, कि वहाँ प्लेटफार्म पर जो मिलेगा खा लेंगे। तभी राजस्थान के किसी नवविवाहित जोड़े ने अपनी टिफिन खोली। और प्लास्टिक के प्लेट में वे अपना नैश भोजन, शाम सात बजे से ही सजाने लगे। भिंडी की सूखी सब्जी। भरवाँ बैगन और खट्टे मीठे अचार। और स्वीट डिश के लिए राजस्थानी घेवर। अंकल के मुँह में पानी आ रहा था। उनका चेहरा देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे वे उस सुस्वादु भोजन को, अपने लपलपाते लोभ के साथ देख रहे थे। हम साइड वाली सीट पर थे। वे दोनों सामने की लोअर और मिडिल बर्थ पर। युवती ने शायद अंकल की नज़रों से ज़ाहिर होती, भूख और लालच की भाषा को पढ़ लिया, हालाँकि स्थिति यह थी, कि अगर वह नहीं भी पढ़ पाती, तो अंकल अपनी दयनीयता के मुकम्मिल अभिनय के साथ, उससे सीध्ो सीध्ो माँग ही लेते खाना। दूसरी रात पुरी से भुवनेश्वर आने के बाद उन्होंने यह किया भी था। खैर लड़की ने बड़ी शालीनता से कहा, ‘आइये आप भी जीम लीजिए।’ एक पल की देरी किए बगैर अंकल सपाटे से उठे और जाकर सामने की खाली बर्थ पर बैठ गये। और फिर हम लोगों ने उस रात छक कर सुस्वादु राजस्थानी भोजन किया, और घी में डूबे घेवर खाये। अभी मुझे उन्हीं की याद आ रही है।’ कहते हुए तान्या ने फिर एक काँटे से पराठे का टुकड़ा मुँह में डालती सुदर्शना की ओर देखा।
‘आखिर ये तुम्हारे कौन से अंकल हैं, जिनकी याद तुम आज शाम से ही कर रही हो ?’ समीर ने थोड़ी अध्ाीर, थोड़ी अशिष्ट उत्सुकता के साथ पूछा, लेकिन तभी होटल के बेयरे ने टेबल पर थालियाँ रख दी और दोनों के दोनों एकदम से ही खाने पर टूट पड़ने जैसा खाने लगे।
खाने के बाद कमरे में पहुँचते ही, तान्या ने सामने की टेबल पर अपना पिट्ठू रखा और उसी हाफपैंट और टी शर्ट में, कम ऊँचाई और कम चैड़ाई वाले उस डबल बेड पर पसरती हुई बोली, ‘मुझे तो बड़ी ज़ोर की नींद आ रही है।’
समीर अकबकाया-सा उसे देखता रहा और सचमुच कुछ ही मिनटों में वह गहरी नींद में सो गयी थी। अब समीर के सामने समस्या थी, कि इस पूरी खाली सुनसान रात को, बाजू में ही नींद में ही गाफि़ल एक सुन्दर स्त्री के साथ वह किस तरह गुज़ारे।
समीर अविवाहित था। जीवन की अध्ािकांश रातें उसने अकेले बिस्तर पर ही गुज़ारी थीं। यों उसे एकाध्ािक स्त्रियों के साथ भी रात गुज़ारने का अनुभव था। पर ये ऐसी रातें होती थीं, जिन्हें सोकर नहीं, बल्कि जागकर गुज़ारते थे दोनों, और अगर सोते भी थे, तो तब, जब नींद पलकों पर बोझ की तरह लगने लगती थी। तान्या अव्वल तो उस तरह की स्त्री नहीं थी, बल्कि उसकी बात से तो कई बार यह शुबहा भी होता था, कि मनसा वह अपनी किशोर उम्र को छोड़ नहीं पायी है। या क्या पता यह भी उसकी नौटंकी का ही हिस्सा हो, समीर को अचानक लगा। वह खाट के सिरहाने टिककर पाँव फैलाये बैठा था और उससे हाथ भर की दूरी पर, उसी की ओर करवट किये तान्या लगभग बेहोश सी सोयी थी। हाफ़ पैंट में उसकी जाँघों के निचले हिस्से से लेकर, उसके पाँव तक बाहर से आती रौशनी पड़ रही थी, हालाँकि कमरे की बत्ती समीर ने बुझा दी थी। बेड लाइट की ध्ाीमा लाल उजाला और खिड़की से आती बाहर की रौशनी के कारण, कमरा अँध्ोरा नहीं लग रहा था। समीर ने सोचा कि खिड़की बन्द कर देने से कम से कम बाहर का यह उजाला कम हो जाएगा। उसने खिड़की बन्द कर दी। तान्या के समानान्तर लेट गया। उसकी ओर पीठ करके। कुछ ही पलों के बाद उसे लगा, कि नींद का कहीं अता पता तक नहीं है। उसने करवट बदली। बाजू में सोयी तान्या भी इस बीच करवट ले चुकी थी, पर ऐसा करती हुई वह लगभग तिरछी हो गयी थी। समीर उसकी पीठ को निहारता, बीच बीच में उसके पाँवों की आकस्मिक छुअन से सिहरता, बहुत अजीब सी परेशानी के साथ, कितना कुछ सोच रहा था। इसी बीच लगभग दसेक मिनट तक आँखें मूँदे रहने के बाद भी, जब उसे लगा कि उसे नींद नहीं आने वाली, तो कमरे का दरवाजा खोलकर, वह बाहर बनी छोटी-सी बालकनी में आ गया। फिर कुर्सी पर बैठकर झाऊ के पेड़ों के फेंस के उस पार, रात के समुद्र की ओर ताकने लगा। एक बार तो मन हुआ कि पिछवाड़े वाला गेट खोलकर सीध्ो समुद्र की लहरों तक चला जाए, लेकिन तुरन्त ही उसने खुद के खयाल को काट दिया। समुद्र को देखते देखते, तान्या को सोचते हुए उसे फिर लगा, कि आखिर उस कमरे में उसके साथ वह आयी ही क्यों थी ? अगर खाट पर पहुँचते ही नींद में ध्ाुत्त हो जाने जैसी स्थिति थी, तो उसके कमरे तक आने का, या उसके साथ एक ही बिस्तर पर सोने का आखिर मकसद या मतलब क्या था ? समीर जानता था, कि बिस्तर पर साथ-साथ सोने का हमेशा वही मतलब नहीं होता, कि दो जने एक दूसरे से गुत्थमगुत्था होते रहें और अपना अपना सुख खोजते रहें, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं, कि किसी बिलकुल अजनबी के कमरे में आप सिर्फ़ नींद में बेहोश होने के लिए जाएँ। समीर के अन्दर कहीं कामना भी सुगबुगा रही थी, और उसे यह भी लग रहा था, कि सम्भ्व है, कि उसके पहल नहीं करने की वजह से ही, सारा मामला नींद की बेहोशी के बिस्तर तक आ पहुँचा हो। पर तब उसे यह भी लगता था, कि अभी तक जिस लड़की से ठीकठाक परिचय भी नहीं हुआ है, उससे इस तरह के किसी व्यवहार की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसी उध्ोड़बुन में घुलते और घुटते उसने घड़ी देखी। रात के दो बज रहे थे। पूरी रात आँखों में गुज़ार देने की कल्पना से ही आतंकित, वह फिर कमरे में वापस आ गया। ध्ाीमी रौशनी में उसने देखा, कि इस बार तान्या पलंग के एकदम किनारे दीवार की तरफ करवट किये सोयी है। वह आराम से उसकी तरफ पीठ करके लेट गया। पर नींद आने के बाद भी उसे चैन नहीं आ रहा था। वह सपना देख रहा था। एक बहुमंजिली इमारत की छत पर, वह एक सुदर्शना युवती के साथ खड़ा है। दोनो तारों की तरफ एकटक ताक रहे हैं। अचानक छत के सामने का हिस्सा समुद्र बन जाता है। वह तट पर अकेला खड़ा है। तान्या पीछे से आकर उसकी आँखें अपनी हथेलियों से ढाँप देती है। वह छत की मुंडेर के सहारे टिक कर खड़ा है। नीचे से कोई उसे पुकार रहा है। अचानक पीछे से कोई उसे ध्ाक्का दे देता है। समुद्र की लहरें फिर एकदम से उस इमारत की ओर बढ़ने लगती है। वह रात की सुनसान सड़क पर लहुलूहान पड़ा है। वह अपनी माँ को आवाज़ देना चाहता है। उसके गले से कोई आवाज़ नहीं निकलती। वह हाथों पैरों के सहारे घिसटना चाहता है। कोई एक आता है, उस पर एक बड़ा-सा पत्थर पटक देता है। वह ज़ोर से चीखता है और उसकी आँख खुल जाती है।
जागते ही उसने देखा, कि वह अपने बिस्तर पर अकेला पड़ा है। दरवाजा खुला है। वह सपाटे से बाहर निकला। रिसेप्शन में वह कुछ पूछे, उसके पहले ही क्लर्क ने उसे एक कागज का टुकड़ा थमा दिया। मैं अपने ब्वाय फ्रेंड को रिसीव करने भुवनेश्वर जा रही हूँ। वह साढ़े नौ की फ्लाइट से आ रहा है। वहीं से मैं राउरकेला चली जाऊँगी। बाय। सी यू। तान्या। फिर नीचे हिन्दी में लिखा था, रात के साथ के लिए शुक्रिया।
समीर मुस्कुराता हुआ अपने कमरे में लौट आया।

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