शजर में जितनी सूखी पत्‍तियां हैं तुम्‍हारे नाम --- मेरी चिट्ठियां हैं। : बावन चिट्ठियां ।
10-Jun-2020 12:00 AM 1556
शजर में जितनी सूखी पत्‍तियां हैं
तुम्‍हारे नाम --- मेरी चिट्ठियां हैं।
: बावन चिट्ठियां ।
एक ऐसी किताब जो रस छंद के सम्‍मोहक अमूर्तनों आवर्तनों से बनी हो, जहां कविता और गद्य ऐसे मिलते हों जैसे धरती और आसमान एक संधि रेखा पर जो यों तो दिखती जरूर है पर उस सीमांत तक पहुंच पाना संभव नहीं। कोई पुस्‍तक सिरहाने ही नहीं आपके सतत सम्‍मुख रखी हो और आसानी से घुल जाने वाले आख्‍यान में न होकर ऐसे वैचारिक विन्‍यास में उपनिबद्ध हो जहां मन की लंबी लंबी उड़ानें हों, चित्‍त सत्‍वर गति से दोलायमान हो, वहां उसका कोई प्रतिबिम्‍ब बनता भी है तो स्‍थिर नहीं रहता। इसे पढ़ते हुए क्षण प्रति क्षण बदलते विचारों के स्‍थापत्‍य से सामना होता है। कभी किसी ख्‍याल किसी बंदिश किसी शेर किसी रुबाई में डूबे और भीगे भीगे गद्य की तासीर पढ़ते समय हमें तमाम अतिरेकों में ले जाती है। एक पन्‍ने पर पढ़ता हूँ एक खयाल और मुझे किसी शायर का एक शेर याद हो आता है। यह भी शायद बावन चिट्ठियों में कोई चिट्ठी हो जहां कवयित्री ने टॉंक रखा है---

तुम्‍हारी फाइलों में जितने भी सूखे हुए गुलाब हैं न, मितवा ?
वो सारे बरसात की इस रुत के इतवार हैं मेरे ।

खटमिट्ठी रात पर
ढुरक कर चंद्रमा का नमक
चखेंगे आकाश रसीला
हम
बादलों के सिलेटी बाग़ में
उगल कर गुठली
जब-तब सफ़ेद दिन उगा देंगे
खिड़की फॉंद कर दाखिल होंगे
तुम्‍हारी नींदों में ताउम्र
और
तुम्‍हारी सपनीली पवित्रता में
जामुन का दाग़ लगा देंगे।

कभी अज्ञेय ने कविता के रसीले फार्मेट से ऊब कर कहा होगा। छंद में मेरी समाई नहीं है/ मैं सन्‍नाटे का छंद हूँ। कल तक मीठी कविताएं लिखने वाली कवयित्री बाबुषा कोहली अपने पहले संग्रह के साथ ही कविता की कोमल पाटी से अलग गद्य के ऐसे निर्भान्‍त अननुमेय संसार में विचरण करती रही हैं जहां दुनिया जहान की कलाएं आजमाई जा सकें। लिहाजा वे मन की मौज में हैं, यायावरी में हैं, संगीत सुनने के दौर से गुजर रही हैं, गालिब मीर जौक के अशआर दिमाग में हलचल मचा रहे हैं, बुखार की बड़बड़ाहट को शब्‍दों के क्रोसीन से शमित करने की चेष्‍टाओं में हैं, हर वक्‍त कोई न कोई ख्‍याल अपनी अपरिमिति में अर्थ की एक नई आमद के साथ उदघाटित हो रहा है। यह जैसे रंगों की बारिश हो, शब्‍दों की एक नई खुलती जादुई सी दुनिया हो, अंदाजेबयां में शायराना किन्‍तु व्‍यवहार में कातिलाना हरकत से ऐसे ऐसे अर्थ उपजाने की कोशिशें हों, बाबुषा कोहली की बावन चिट्टियां ---गद्य पद्य चंपू सबके रसायन से समन्‍वित एक ऐसे संसार की तरह है जिसे ईश्‍वर रोज नए तरीके से रचता और सिरजता है।

यह जीवन के तमाम अप्रत्‍याशित अजाने क्षणों को बांध लेने में कुशल बाबुषा की गद्यमयता का संसार है जो शायद कविता के आजमाए फार्मूलों से ऊब कर गद्य के इस बीहड़ और विन्‍ध्‍याटवी में उतर आया है जहां कोई खयाल लता गुल्‍मों की तरह हमारे चित्‍त को आहलादित करता है तो कहीं प्रियंवदा और बुद्ध के आख्‍यान को सुनाती हुई एक बुढ़िया उस मुक्‍ति की कहानी सुनाती है जहां अरसे से अपने हृदय में बुद्ध के प्रति प्रेम का मौन संजोये प्रियंवदा जलती हथेली पर बुद्ध की आंखों से गिरी बूँदें गिरते ही इस दुनिया से आंखें मूंद लेती है।

बाबुषा कोहली के संग्रह प्रेम गिलहरी दिल अखरोट पर लिखते हुए अंत में मैंने अपनी प्रतीति जाहिर करते हुए कहा था इन कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि अभी अभी किसी शहनाईनवाज़ की महफिल से उठकर आया हूँ। इन चिट्ठियों के बहाने बाबुषा के कविता के उस नए संसार से परिचय मिलता है जिसे किसी यथार्थवादी प्रतिबिम्‍ब में डिकोड करना आसान नहीं है। इनमें दर्शन की अनेक प्रतीतियां हैं। हर क्षण को उसके नयेपन के साथ महसूस करना कवयित्री का लक्ष्‍य रहा है। इन कविताओं, अनुभूतियों के इन टुकड़ों का कोई निश्‍चित अर्थ करना आसान नहीं क्‍योंकि ये उस मन की चंचलताएं हैं जो एक भाव एक करवट ठहरती नहीं, क्षण भर में इंद्रधनुष सा पैदा कर तिरोहित हो उठती हैं। पर हां, केवल उल्‍लास ही नहीं, अवसाद के अनेक लम्‍हे यहां मौजूद हैं लेकिन किसी ऋजु रेखा पर न चलकर कविता के इस बीहड़ रास्‍ते पर चलती हुई भी बाबुषा अपने सरोकारों को किसी तिलिस्‍म या जादुई आभा में उलझाती नहीं बल्‍कि अपने तरीके से उसे सबल रूप से रेखांकित करती हैं । जब रुलाई फूटे का एक टुकड़ा देखें जहां कवयित्री कहती है :--

जब रूलाई फूटे किसी पेड़ से लिपट जाना।
..........
..........

रेलवे स्‍टेशन निकल जाना। भिखारियों का भूखा पेट देखना।
हिजड़ों को सूखा पेट दिखाना।
उनके दुआओं वाले हाथ जबरन सिर पर
रख लेना। सिक्‍के बराबर आंसू बन जाना।
ग़रीब की कटोरी में
छन्‍न से गिर जाना। (जब रुलाई फूटे)

इन चिट्टियों को पढ़ते हुए मेरी निगाह कवयित्री के इस कौल पर जाता है ---
जिसकी आत्‍मा अपने ही घात से लहूलुहान हो,
मैंने सीखा उस आदमी का माथा सहलाना।
मैं सीख रही हूँ अपना नाम लिखना, फिर मिटाना,
फिर लिखना, फिर मिटाना। ऐसे ही धीरे धीरे किसी दिन
अपने नाम की हिज्‍जे भूल जाना।

ये कविताएं, ये गद्यविन्‍यास, ये ख्‍याल, ये बंदिशें, ये सुर, ये संगीत, साधना के ये शब्‍द, यह वाग्‍मिता शिउली के उस फूल की तरह हैं जो झरते हैं तो सारे मोह-सम्‍मोह, आसक्‍तियां, भौतिकताएं जैसे उसके सौंदर्य में तिरोहित हो उठते हैं। पर ये पूजा के फूल नहीं हैं । इन्‍हें निहारने का सुख ही अलग है। गद्य की ये वीथियां ऐसी ही हैं कि कोई इनमें आकर जैसे बिलम जाए। अपनी पहचान खो बैठे।

मेरी आंखें पढ रही हैं कवयित्री का इंदराज ---
तुम्‍हारी फाइलों में जितने भी सूखे हुए गुलाब हैं न, मितवा ?
वो सारे बरसात की इस रुत के इतवार हैं मेरे ।

और मुझे याद हो आता है जनाब खुर्शीद तलब का यह शेर --

शजर में जितनी सूखी पत्‍तियां हैं
तुम्‍हारे नाम --- मेरी चिट्ठियां हैं ।

---ये बावन चिट्ठियां ऐसी संततियों की तरह हैं जिनकी शक्‍लें आपस में एक दूसरे से बिल्‍कुल नहीं मिलतीं किन्‍तु उनमें एक ब्‍लडग्रुप का गुणसूत्र अवश्‍य समाया हुआ है।

शुभकामनाएं कवयित्री बाबुषा को । और मनीष पुष्‍कले का तो कहना ही क्‍या! उनके रेखांकनों ने उन अर्थ और प्रत्‍ययों को साधने का सफल यत्‍न किया है जिन्‍हें कवयित्री ने इन तहरीरों में सहेजा है। साधुवाद उन्‍हें ।
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ओम निश्‍चल ।
पुस्तक का प्रकाशन रज़ा फाउंडेशन एवं राजकमल प्रकाशन ने संयुक्त रूप से किया है।
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