बुखार में कविता मदन सोनी
22-Oct-2020 12:00 AM 2510

श्रीकान्त वर्मा की कविता पर मैं अपेक्षाकृत विस्तार से लिख चुका हूँ। किसी भी महान कविता की ही तरह श्रीकान्त की कविता में भी व्याख्या-बहुलता की भरपूर सम्भावनाएँ मौजूद हैं, लेकिन चूँकि श्रीकान्त की कविता की जिस समझ के आघार पर मैंने वह निबन्घ लिखा था, दुर्भाग्य से मेरी उस समझ में इस बीच ऐसा कोई इज़ाफ़ा या परिवर्तन नहीं हुआ है कि मैं व्याख्या की इनमें से किसी नयी सम्भावना को तलाश सकता, इसलिए जो कुछ भी मैं यहाँ कहने जा रहा हूँ, उसके किंचित भिé प्रस्थान, उसकी यथासम्भव भिé (यद्यपि जहाँ-तहाँ पूर्वप्रयुक्त) शब्दावली, और श्रीकान्त की कविता को लेकर मेरी कुछ नयी उत्प्रेक्षाओं के बावजूद, मेरा यह निबन्ध्ा मेरे पिछले किन्हीं पाठकों या उस निबन्घ के पाठकों को दोहराव प्रतीत हो तो इसके लिए मैं उनसे क्षमा माँगता हूँ।
हिन्दी के हमारे एक पूर्वज कवि केशवदास को लक्षण-काव्य के रचयिता के रूप में देखा जाता है (उनको ‘आचार्य’ कहा जाता था)। माना जाता है कि उनकी आकांक्षा मुख्यतः हिन्दी में काव्यशास्त्र रचने की थी जिसके लिए उनने कविता को माध्यम की तरह इस्तेमाल किया। यह बात शायद सही हो, हालाँकि उतनी ही सही यह बात भी है कि लक्षण का निरा निरूपण (रिप्रेजेण्टेशन) करने और इस तरह कविता को निरे छन्द के स्तर पर सिकोड़ देने की बजाय वे उस लक्षण को एक अनुभव में बदलते हुए उसका निष्पादन (पफऱ्ामेन्स) भी करते थे, जिस प्रक्रिया में उनका छन्द वस्तुतः कविता ही होता था। बहरहाल, यहाँ इस प्राचीन प्रसंग के स्मरण की प्रासंगिकता मेरी इस प्रतीति के सन्दर्भ में है कि कोई भी सच्चा कवि, संसार में अपनी कितनी ही गहरी और मज़बूत जड़ों के बावजूद, स्वयं उस चीज़ - यानी कविता - से बेख़बर नहीं हो सकता जो संसार के उसके अपने अनुभव के निष्पादन की प्रक्रिया में आकार लेती है। वह उससे न केवल बेख़बर नहीं होता, बल्कि कभी-कभी इतना बाख़बर भी होता है कि वह कविता के साथ-साथ, केशवदास की तरह न सही, अपनी तरह से ही सही, एक काव्यशास्त्र या काव्य-विमर्श भी रचता चलता है। सम्भवतः अन्य विमर्श-रूपों से कविता (बल्कि शायद साहित्य-मात्र) की भिéता का यह एक सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष है कि कविता कवि के लिए निरा माध्यम न होकर उसके अन्य अनुभवों से अविनाभाव जुड़ा एक ऐसा अनुभव है जिसकी चेतना उसके इन अन्य अनुभवों को निरन्तर प्रभावित करती है। यह इस चेतना का ही एक विक्षेप है कि अघिकांश कवियों की कविता में स्वयं ‘कविता’ या ‘कवि’ या ‘भाषा’ (या इनके अन्यान्य संकेत) एक आवर्ती अभिप्राय के रूप में प्रगट होते हैं। किन्हीं कवियों के यहाँ यह चेतना अत्यन्त प्रछé हो सकती है, या यह प्रक्रिया अवचेतन स्तर पर घटित हो सकती है। लेकिन कुछ कवियों के यहाँ वह ऐसे आक्रान्तकारी तनाव का रूप ले सकती है कि वे संसार, या उसके साथ अपने रिश्ते, और कविता को एक-दूसरे के बरक्स रखकर उनको अपनी काव्यात्मक मीमांसा का विषय बना सकते हैं; जहाँ कविता संसार का और उसके साथ कवि के बनते-बिगड़ते रिश्ते का रूपक बन जा सकती है।
श्रीकान्त वर्मा ऐसे ही एक कवि हैं जिनके अनुभव के लक्ष्य पर जितना संसार है उतना ही उस संसार से रिश्ता बनाने की प्रक्रिया में विकसित वह विघि या विघा भी है जिसे हम ‘कविता कहते हैं। यह अकारण नहीं है कि दिनारम्भ से लेकर जलसाघर तक, उनके तीनों महत्त्वपूर्ण संग्रहों में ‘कविता’ और ‘कवि’ के अभिप्राय भरे पड़े हैं। मैं जो बहुत-से उदाहरण यहाँ दे रहा हूँ वे दरअसल बहुत थोड़े-से हैंः ‘सारी पृथ्वी पर एक कविता@लिखी जा रही है सन्तोष की’, ‘कविताएँ कैसे घर की बहुएँ बन@प्रातः फूट रही हैं’, ‘बन्दी हम दोनों की कविता से@झाँक रहा@जीवन...’, ‘देशभक्त कवियों की@कविताएँ’, ‘मुझसे मेरे अपराघ@हू-ब-हू कविताओं-से@दर्ज़ हैं’, ‘मगर ख़बरदार! मुझे कवि मत कहो@मैं बकता नहीं हूँ कविताएँ’, ‘कई साल@हुए@मैंने लिखी थीं कुछ कविताएँ’, ‘मंच पर खड़े होकर@कुछ बेवकूफ़ चीख़ रहे हैं@कवि से आशा करता है@सारा देश’, मूर्खों! देश को खोकर ही@मैंने प्राप्त की थी@यह कविता’, ‘मैं एक पब्लिक लेवेटरी में@बैठा हुआ@सोच रहा हूँ@मेरी कविता में लय@क्यों नहीं है?’, ‘क्या मैं अपने गुज़रे हुए जीवन को@एक काग़ज़ पर लिखी हुई कविता की तरह@दूसरे काग़ज़ पर@उतारूँगा?’, ‘सारे संसार की@ सड़क पर@दो-टूक कवि@पेशाब करता@हुआ@चला@गया है’, ‘गँवार था@वह कवि@जो जूझा नहीं’, ‘एक कवि दूसरे कवि से समय@पूछ@रहा है’, ‘क्या कवि को@समय से@समय को@कवि से@लड़ा दूँ?’, ‘सब कुछ प्रतिकूल था, तब भी सम्भव किया मैंने@कविता को’, ‘लड़ना पड़ा मुझको जीवन भर टटपुँजिये कवियों के दर्प से’, ‘गूँगों के अभिनय को जिसने बदलने की कोशिश की कविता में’, ‘छपता है जिस ज़बान में इश्तिहार उसी में कविताएँ’, ‘कवि न था कवि न था वह जिसने मुझको हथियारबन्द करने के बाद@कहा फेंक दो इसे भी’, ‘घर, प्रेम, माँ-बाप, कविताएँ एक-एक कर छूटते हैं’, ‘मैंने जीती थी जो कविता@स्वयंवर में, छीनने आये हैं’ ‘मृत्यु से छिपाकर मुँह, जीते हुए, विस्मयविहीन संसार में@कविता के प्रश्नों के@ढूँढते हुए उत्तर@दैनिक अख़बार में’, ‘चारों तरफ़@कविता में@शाम हो रही है’, ‘पहले बचो@अपनी कविता के@मोड़ से’, ‘एक-एक@कविता में@पाँच लाख घाव हैं-’, ‘सम्भव नहीं है@कविता में वह सब कह पाना@जो घटा है@बीसवीं शताब्दी में मनुष्य के साथ’, ‘अमूर्त! कितनी अमूर्त है कविता!@कहाँ है@इन सारी कविताओं में वह चेहरा,@जो जितना मेरा है@उतना ही दूसरे का!’...।
और न ही यह भी अकारण है कि कविता की दुनिया में पहला क़दम रखते हुए (भटका मेघ) श्रीकान्त ‘मेघदूत’ के प्रतिरूप में कालिदास को सम्बोघित करते हुए अपने काव्य-संकल्प की उद्घोषणा करते हैं; और इस दुनिया से विदा लेने के लगभग अन्तिम क्षणों में ‘लिखने’ और ‘मिटाये जाने’ के अभिप्रायों का इस्तेमाल करते हैं (मेरा संकेत मगघ की अन्तिम कविता ‘दीवार पर नाम’ की ओर है)।
कविता की इस मुखर और प्रखर चेतना के सन्दर्भ में हम श्रीकान्त वर्मा की कविता के स्वभाव को, एक-दूसरे से बहुत क़रीब से जुड़े, दो मूलभूत तत्त्वों - भाषा और अस्तित्व के बीच के रिश्ते से उलझने की, उसको भेदने की, प्रक्रिया के रूप में देख सकते हैं। हिन्दी में बहुत-बहुत कम ऐसे कवि हैं, और दुर्भाग्य से उनकी संख्या उत्तरोत्तर कम होती जा रही है, जिनकी कविता की पहचान उनके भाषिक विन्यास से इस क़दर एकात्म हो कि हम उनकी कविता की दो-एक पंक्तियाँ पढ़ या सुनकर ही उनके कवि को पहचान सकें। यह एकात्म्य श्रीकान्त वर्मा के यहाँ चरम पर है (ठीक उसी तरह जिस तरह ऐसा ही एकात्म्य निर्मल वर्मा के गद्य में चरम पर है)।
इस विन्यास के कई स्तर हैंः चाक्षुष स्तर, जिसके तहत उसमें शब्दों, पदों और पंक्तियों को कुछ इस तरह संस्थापित किया गया होता है कि वे मिलकर एक वास्तु की रचना करते हैं। दूसरा है, आर्थी - सेमेण्टिक - स्तर, जो उसके चाक्षुष स्तर से इस तरह अविनाभाव जुडा़ हुआ है कि हम इस वास्तु के विन्यास का अनुसरण करके ही इसके अर्थ को समझ सकते हैं, या यूँ कहें कि इस वास्तु को ‘बिलाँग’ करने का अनुभव कर सकते हैं। और तीसरा है, उसका श्रुतिपरक स्तरः हम इस कविता को चुपचाप ‘पढ़ते’ हुए भी, शब्दों, पदों, वाक्यों आदि के परस्पर टकराव और संविलयन से उभरती उसकी उस एक विशिष्ट आवाज़ को सुनते हैं जो उसकी अर्थान्विति से, पुनः, उसी तरह अविनाभाव जुड़ी हुई है। प्राचीन काव्यशास्त्र की पदावली में शायद इस गुण को ‘पद-निवेश-निष्कम्पता’ कहा जा सके।
श्रीकान्त वर्मा ‘अरथ अमित अति आखर थोरे’ की इकाॅनाॅमी के कवि नहीं हैं। उनकी कविता में यह अनुपात भिé हैः वहाँ, एक ख़ास अर्थ में, भाषा की स्फीति से अर्थ की रचना होती है। भाषा कविता का सर्वाघिक पार्थिव पक्ष है, जो सम्भवतः हर महत्त्वपूर्ण कवि के लिए बुनियादी उद्विग्नता और तनाव का सबब होता है। एक ओर भाषा वह एकमात्र चीज़ है जो उसके कर्म - कवि-कर्म - को सम्भव बनाती है, और इसलिए वह अनिवार्य और शायद स्पृहणीय है, लेकिन दूसरी ओर, भाषा पर निर्भरता की इसी वजह से, हर महत्त्वपूर्ण कवि का भाषा के साथ एक विडम्बनापूर्ण विरोघ-भाव भी विकसित होता है। वह इस निर्भरता से अन्तिम रूप से मुक्ति पाने की असम्भव आकांक्षा के चलते उसका अघिकतम अपरिग्रह करना चाहता है। ‘अरथ अमित अति आखर थोरे’ की इकाॅनाॅमी इसी विरोघ-भाव का एक विक्षेप है।
इस अर्थ में हम श्रीकान्त की कविता पर पार्थिवता (मेटीरियलिटी) का आरोप लगा सकते हैं। लेकिन मैं समझता हूँ कि यह एक ख़तरनाक कोशिश होगी। क्योंकि तब हम यह कह रहे होंगे कि उनमें उक्त बुनियादी उद्विग्नता और तनाव का अभाव है, जबकि सच्चाई यह है कि उनके यहाँ यह तथाकथित पार्थिवता, या भाषातिरेक, उस उद्विग्नता और तनाव की एक विशिष्ट और अभूतपूर्व पराकाष्ठा का नतीजा है।
इस कथित भाषातिरेक को हम इन तीन तथ्यों के मद्देनज़र समझ समझ सकते हैंः पहला यह कि संसार अपनी मूल बनावट में उस तरह व्यवस्थित, नियमित, नियन्त्रित नहीं है, जैसा वह हमारे सामने प्रगट होता है। इसके विपरीत वह एक अर्थहीन, असंगत, बेतरतीब, अन्तर्विरोघी, विरोघाभासी, और हेत्वाभासों से युक्त अ-व्यवस्था है। दूसरा यह कि भाषा निरन्तर मानवीय तर्कबुद्धि से अनुकूलित (और बदले में उतना ही निरन्तर मानवीय तर्कबुद्धि को कई गुना अनुकूलित करती) एक सुसंगत, कारण-कार्यमूलक, अनुशासित, अर्थघर्मी और हर चीज़ पर अर्थ का आरेापण करने वाली व्यवस्था है। और तीसरा यह कि संसार जिस तर्कसंगत और स्वस्थमनस्क रूप में हमारे सामने प्रगट होता है, जिसे हम ‘व्यवस्था’ या ‘सभ्यता’ या ‘संस्कृति’ कहते हैं, वह दरअसल भाषा की सुव्यवस्था और व्याकरण के हाथों संसार के निरन्तर अनुकूलन का नतीजा है। भाषा और अन्ततः मानवीय तर्कबुद्धि, और संसार के बीच के इस अनवरत परस्पर अनुकूलन को उस मनोवैज्ञानिक खेल से शायद असानी से समझा जा सकता है जिसके तहत दो व्यक्तियों से कहा जाता है कि वे क्रमशः एक-के-बाद-एक तत्काल किसी ऐसी चीज़ का नाम लें जो उसके साथी खिलाड़ी द्वारा लिये गये नाम से यथासम्भव असंगत हो। मसलन, अगर एक खिलाड़ी ‘नरेन्द्र मोदी’ नाम का उच्चारण करता है, तो दूसरा ‘रेलिंग’ या ‘फुटबाॅल’ जैसी किसी चीज़ का नाम ले। सामान्यतः इस खेल के नतीजे में यह पाया जाता है कि दोनों ही खिलाड़ी इसमें विफल होते हैंः वे अक्सर किसी ऐसी चीज़ का नाम लेते हैं जो पिछले खिलाड़ी द्वारा लिये गये नाम से जुड़ी वस्तु के साथ किसी-न-किसी स्तर पर क़रीबी रिश्ता रखती है। सम्भवतः रघुवीर सहाय की यह कविता संसार की अर्थहीनता और असंगति की इसी संघटना को व्यंजित करती हैः
बिल्ली रास्ता काट जाया करती है
प्यारी-प्यारी औरतें हरदम बकबक करती रहती हैं
चाँदनी रात को मैदान में खुले मवेशी
आकर चरते रहते हैं
और प्रभु यह तुम्हारी दया नहीं तो और क्या है
कि इनमें आपस में कोई सम्बन्घ नहीं।
दूसरे शब्दों में, संसार हमारे समक्ष आदि, मध्य और अन्त से युक्त, मसलन समरकन्द, मगघ, कपिलवस्तु, उज्जयिनी, तक्षशिला, कोसाम्बी आदि, जिन बोघगम्य आख्यानों के रूप में प्रगट होता है, वे संसार को साघने और क़ाबू करने की कोशिश में उसके साथ भाषा द्वारा की गयी कूटयुक्तियाँ, या भाषा के ‘मायादर्पण’ में उभरते संसार के प्रतिबिम्ब मात्र हैं। ऐसे प्रतिबिम्ब जो संसार और भाषा के बीच नीरन्घ्र, युति-रहित एकत्व के रूप में भासमान होते हैं।
अस्तु, भटका मेघ और दिनारम्भ की कुछ कविताओं को छोड़ दें, तो श्रीकान्त वर्मा की लगभग पूरी परवर्ती कविता इस विराट ‘मायादर्पण’ का विध्वंस करती है। वह व्यवस्था, सभ्यता, इतिहास, संस्कृति नामक निर्मितियों के इन कविताओं में प्रयुक्त विभिé रूपों को, जिनमें स्वयं ‘कविता’ भी एक रूप है, ‘डिकाॅन्स्ट्रक्ट’ करती है - इस शब्द के अनेक सम्भव अर्थों में।
इस तरह, जिसे हम इन कविताओं के सन्दर्भ में भाषा का अतिरेक कह रहे हैं, वह दरअसल इस विध्वंस या ‘डिकाॅन्स्ट्रक्शन’ के नतीजे में पैदा हुआ मलबा है। भग्नावशेष। कोयला, राख और घूल। नाम। शव और श्मसान और डोम। आख्यान-च्युत और संज्ञा-मात्र में सिकुड़कर रह गयी संघटनाएँ। भाषा के इस मलबे में कोई क्रम, संहति, संगति, तालमेल, अनुपात, लय, संस्थिति, संयम, नियम और ध्येय नहीं है। सब कुछ गड्डमड्ड है। कुछ भी तय नहीं है कि ‘विजेता है@कौन@और किसकी पराजय है’, ‘मै सुखी@हो रहा हूँ@मैं दुखी@हो रहा हूँ@मैं सुखी-दुखी होकर@दुखी-सुखी हो रहा हूँ’ ‘स्त्रियाँ@पता नहीं जीवन में आतीं@या जीवन से@जाती हैं!’ ‘किसी के विरोघ में न होकर भी सबके विरोघ में’, ‘खैबर से आओ या खैबर से जाओ@फ़र्क मामूली है’, ‘बाबर समरकन्द के रास्ते पर है@समरकन्द बाबर के रास्ते पर है’@ ‘कोसाम्बी के पहले@केवल@कोसाम्बी थी@कोसाम्बी के बाद@केवल@कोसाम्बी है@कोसाम्बी के बदले@केवल@कोसाम्बी@मिल सकती है’, ‘यह रास्ता उज्जयनी को नहीं जाता@और यह कि यही रास्ता उज्जयनी को जाता है’ या ‘सच तो यह है कि@हर रास्ता उज्जयनी को जाता है@और यह@कि कोई रास्ता उज्जयनी को नहीं जाता’।
एक बिम्ब दूसरे को प्रति-बिम्बित करता है, एक वाक्य दूसरे को ‘ओवरटेक’ करता है, जैसे-तैसे पैदा हुए एक अर्थ को दूसरा अर्थ निहत्था कर देता है। वि-घ-ट-न का एक ऐसा नीरन्घ्र निर्मित होता है, जिसमें सम्भवन के बोघ की किसी अनुगूँज की कोई गुंजाइश नहीं है। राजसत्ता, महानगरीय सभ्यता, अभिजात संस्कृति, वैयक्तिक अहं, तथा नृतत्त्व और पुरुषत्व की आघुनिक वेशभूषा और रूपसज्जा में यह वस्तुतः सत्ता (बीइंग) का आदिम, नैसर्गिक, संवेगपूर्ण, वहशी, विक्षिप्त, बहुलता-वैविध्य-युक्त, अतिचारी, लिबिडिनल रूप है, जिसने अपनी उद्दाम ताल और बीहड़ लय पर भाषा को कुछ इस तरह नचाया है कि भाषा की देह उसके विक्षेपों से अपनी आन्तरिक युति खोकर टुकड़ा-टुकड़ा होकर बिखर गयी है।
लेकिन, ज़ाहिर है कि यह सिफऱ् शब्दों, वाक्य-खण्डों या वाक्यों का मलबा नहीं है; यह अर्थों और पदार्थों का मलबा भी है। या यूँ कहें कि यह पदार्थ के परमाणुविक ऊर्जावशेषों से आविष्ट भाषा का कचरा है। जिस मायादर्पण के ध्वंस से यह मलबा पैदा हुआ है उसमें, एक ओर, उस संसार की अराजकता, असंगति आदि के अवशेष मौजूद हैं जो अपने प्रदीर्घ मायादर्पण-काल में भाषा से अनुकूलित रहा है, और, दूसरी ओर, उसमें भाषा की उस अर्थहीनता की व्याघि के अवशेष भी मौजूद हैं जिस व्याघि को उसने इसी मायादर्पण-काल में संसार के निरन्तर संसर्ग में रहने से अर्जित किया है। इस मलबे में अर्थ का (या आप चाहें तो कहलें, निरर्थकता-बोघ का) जो आवेश है वह संसार और भाषा दोनों में अपने-अपने मूलभूत स्वभाव की क्षति के अहसास का और परस्पर प्रतिशोघ की आकांक्षा से उत्पé चिरस्थायी तनाव का नतीजा है। मानो संसार भाषा को उसके अर्थ से और भाषा संसार को उसकी अर्थहीनता से निहत्था कर देना चाहती है। इस अर्थ में श्रीकान्त की कविता संहार की आकांक्षा से आकार लेती सृष्टि, या विघटन में आकार लेता सम्भवन (बिकमिंग) है। बेतुकी तुकों से युक्त इस विलक्षण सृष्टि या सम्भवन का एक महत्त्वपूर्ण संकेत इस तथ्य में लक्ष्य किया जा सकता है कि यह मलबा चाक्षुष स्तर पर मलबे या भग्नावशेषों की शक्ल में प्रगट नहीं होता। स्थिति, दरअसल इसके एकदम विपरीत है। वह प्रगट होता है एक ऐसे सुघड़, आकर्षक स्थापत्य की शक्ल में जिसे न सिफऱ् अलक्षित नहीं किया जा सकता, बल्कि जिसे लक्ष्य करते हुए ही हम इस असामान्य सृष्टि और उसके अन्तर्निहित नियम को समझ सकते हैं। एक ऐसा स्थापत्य जो अपने सीढ़ीनुमा शिल्प में आरोहण-अवरोहण का तीक्ष्ण गत्यात्मक प्रभाव समेटे हुए है।
स्फीत परिमाण के साथ-साथ ज़बरदस्त गत्यात्मक बल श्रीकान्त की कविता का एक और अद्वितीय पक्ष है। पारम्परिक छन्दों में न लिखने वाले कवियों में श्रीकान्त वर्मा सम्भवतः अकेले ऐसे कवि हैं जिनके यहाँ गतिशीलता इतनी प्रबल है कि उसका अनुसरण न करना न केवल असम्भव है, बल्कि उसका अनुसरण करके ही आप उनके काव्यानुभव से तादात्म्य स्थापित कर सकते हैं। यह गत्यात्मक बल इस काव्यानुभव का अनिवार्य कारक है। हम उसे तीव्र आवेग, आवेश या प्रखर संवेग जैसा कुछ भी कह सकते हैं। वह अपने इस गत्यात्मक, या कहें गुरुत्वाकर्षक, बल से हमें अपने भीतर खींचकर, अभिभूत कर, अपने विक्षेपों से निरन्तर झकझोरती हुई, कुछ इस तरह आविष्ट कर देती है कि हम कविता पढ़ चुकने के बाद भी बहुत देर तक उसके गतिशील प्रभाव-क्षेत्र में बने रहते हैं। वह अपने विन्यास से एक रणक्षेत्र जैसा वातावरण रचती, शब्दों, मुहावरों, उक्तियों, लहज़ों को अस्त्रों, शस्त्रों, प्रक्षेपास्त्रों की तरह बरतती हुई, कटूक्तियों, वक्रोक्तियों, आक्षेपों, अभियोगों, आत्माभियोगों, तीख़े सवालों से भरी, निरन्तर प्रलाप करती, बेहद बेचैन कविता है।
यह गत्यात्मक, गुरुत्वाकर्षक बल, यह प्रबल आवेश और संवेग किस चीज़ का नतीजा है? इसका जवाब हम एक पद का प्रयोग करते हुए दे सकते हैें, जो यद्यपि बहुत रूढ़ हो चुका हैः मोहभंग। इस मोहभंग में इस क़दर प्रबलता है, कि वह हिन्दी की अब तक की कविता के सन्दर्भ में अभूतपूर्व है - मुक्तिबोघ के बावजूद, जिनके यहाँ भी प्रबल मोहभंग है, लेकिन जिसे उतनी ही प्रबल उम्मीद का एक भाव निरन्तर सन्तुलित करता रहता है। दरअसल यह उम्मीद ही है जो मुक्तिबोघ की कविता के समूचे ऊबड़-खाबड़पन के बावजूद उसको अन्ततः निर्मितिमूलक और निर्मिति-उन्मुख बनाती है, जिसका साक्ष्य उनकी अत्यन्त गोचर फन्तासियों में देखा जा सकता है। श्रीकान्त के यहाँ ऐसी कोई उम्मीद उनके दिनारम्भ के समय से ही नहीं है। इसीलिए यह मोहभंग सर्वथा निहत्था, निष्कवच, किन्तु उतना ही प्रतिशोघात्मक, आक्रामक और प्रबल है।
यह मोहभंग एकसाथ दुनिया से भी है और उस प्रिज़्म - यानी कविता - से भी है, जिसके सहारे श्रीकान्त इस दुनिया को देखते, अनुभव करते, समझते और स्वयं रचते रहे। इसीलिए यह मोहभंग एकसाथ इस दुनिया और कविता दोनों के संहार की आकांक्षा में, और इस आकांक्षा को रूपायित करते उस विन्यास में फलित होता है, जिसे हम श्रीकान्त वर्मा की, किसी बेहतर शब्द के अभाव में, और लगभग वदतोव्याघात का जोखि़म उठाते हुए, ‘कविता’ कहते हैं।
लेकिन मोहभंग उसी को होता है, जिसे कभी मोह रहा होता है। और मोहभंग की प्रबलता भी अक्सर उस मोह की प्रबलता के विषमानुपात में होती है। इस मोह और उसकी प्रबलता को हम भटका मेघ (और दिनारम्भ की बहुत-सी कविताओं में भी) सहज ही लक्ष्य कर सकते हैंः
जिस पृथ्वी से जन्मा
उसे भुला दूँ
यह कैसे सम्भव है?
पानी की जड़ है पृथ्वी में
बादल तो केवल पल्लव है।
घ् घ् घ्
अलका भूल चुकी मैं अब तो
इस घरती की प्यास हरूँगा
सूखे पेड़ों, पौघों, अँकुओं की अब मौन पुकार सुनूँगा
सुखी रहे तेरी अलका मैं
यहीं झरूँगा।
अगर मृत्यु भी मिली
मुझे तो
यहीं मरूँगा।
भटका मेघ की इन कविताओं की जड़ें अपनी ज़मीन, अपने जल, अपने समय में, आवास और ममत्व के बोघ में, पहचान, प्रतीक्षा, उत्साह, जिजीविषा, आह्नान, विनय, स्वाभिमान, आस्था, निष्ठा, समर्पण और उत्सर्ग में बहुत गहरे घँसी हुई हैं। इनमें इस अर्थ में एक ज़बरदस्त आत्मविस्मृति है कि इस संग्रह में लगभग एक भी ऐसी कविता नहीं है जिसमें ‘कविता’ स्वयं एक अभिप्राय के रूप में प्रगट हो। ये पूरी तरह हतप्रमाद (ेंदम) कविताएँ हैं, जिनमें संसार और भाषा के बीच न केवल कोई तकरार नहीं है, बल्कि लगभग एक नीरन्घ्र समरसता है।
अस्तु, यही वह प्रबल मोह है जो श्रीकान्त की परवर्ती और सबसे महत्त्वपूर्ण कविताओं में भंग होता है - एक ऐसी प्रबलता के साथ कि इन कविताओं को सचमुच ‘बुखार में कविता’ की संज्ञा दी जा सकती है।
यह बुखार मगघ में सéिपात के स्तर को छू लेता है। सांघातक अवसाद से भरी, मानो, सृष्टि की अन्तिम गोघूली जैसे वातावरण में रूपायित इस सéिपात में सारी पार्थिवता और काल की एकरैखिक निर्मितियाँ विदीर्ण (डिकम्पोज़) और अस्थि-शेष हैं। श्मशान, डोम, नगर के बीच से गुज़रते मुर्दे, शव, दाह-संस्कार कर लौटते लोग, अस्थियाँ, विघवाएँ, विलाप, टूटे हुए दुर्ग और फटे हुए झण्डे, सéाटा, मदिरा, प्रमाद और आलस्य में डूबे हुए शासक, जुआ खेलते, कि़स्से गढ़ते, ऊँघते नागरिक आदि सब इसी अवसाद और अन्तिम गोघूली के, देश-काल की इसी विदीर्णता और अस्थि-शेष के अनुभाव हैं। जिन आघुनिक, औद्योगिक, राजनैतिक, नगरीय, महानगरीय अनुभवों के, जिन कूटयुक्तियों, युद्धों और युयुत्साओं के संकेत मगघ से पहले की कविताओं में भरे पड़े हैं, मगघ में उनको उनके भग्नावशेषों में प्रतिबिम्बित करती एक देशकालातीत कि़स्म की भूलभुलैइयानुमा मिथकीयता विकसित होती है, जिसके भीतर से हर आवाज़ किंचित विकृत ढंग से प्रतिध्वनित होती हुई अपनी मूल आवाज़ के साéिध्य में आकर बैठ जाती है। अपनी पूर्ववर्ती कविताओं के वाक्यों से भिé मगघ के वाक्य अपने में सर्वथा स्वस्थमनस्क हैं, लेकिन इन वाक्यों का परस्पर साéिध्य अर्थ के स्तर पर एक विक्षिप्तता पैदा करता है।
इस सéिघि या संश्लेष से ही मगघ के सारे मिथक अस्ति के सत्य में बदलते हैंः ‘बालू पर@टिकता नहीं@किसी का निशान’, या ‘जब कोई नहीं करता@तब नगर के बीच से गुज़रता हुआ@मुर्दा@यह प्रश्न कर हस्तक्षेप करता है-@मनुष्य क्यों मरता है,’ या ‘रास्ते में@ मनुष्य का बूढ़ा हो जाना स्वाभाविक है-@रास्ता सुगम हो या दुर्गम’, या ‘मित्रो!@यह कहना कोई अर्थ नहीं रखता,@कि मैं घर आ पहुँचा।@सवाल यह है@इसके बाद कहाँ जाओगे?’ आदि। प्रसंगवश, अगर हम इस आखि़री बोघ को दिनारम्भ की इस प्रबल आकांक्षा से कि ‘मैं अब घर जाना चाहता हूँ’ से और फिर मायादर्पण की इस उद्विग्नता से कि ‘कहाँ है तुम्हारा घर’ के प्रदत्त क्रम में देखें, तो ये तीनों मिलकर श्रीकान्त की कविता के ही नहीं मनुष्य-मात्र के अस्ति-बोघ और अवस्थिति-बोघ का अनूठा सारांश प्रस्तुत करते हैं, यह मानवीय आकांक्षा के अनुरूप दुनिया को गढ़ने की विकलता और इस आकांक्षा के अन्ततः अपरिहार्य रूप से विफल होने की पीड़ा, या इस प्रक्रिया में दुनिया का एक विकृत रच देने के अहसास से जन्मा निरर्थकता-बोघ है, जिसे मायादर्पण के शब्दों में, शायद इस तरह कहा जा सकता है कि ‘मैं जानता हूँ एक दिन यह@पाने की विकलता@और न पाने का दुख@दोनों अर्थहीन हो जाते हैं।’ हालाँकि हमें यह यह याद रखना चाहिए कि जितनी उत्कटता अर्थहीनता के इस अहसास में है, उतनी ही प्रबलता और अर्थ श्रीकान्त के यहाँ ‘पाने की विकलता’ और ‘न पाने के दुख’ मेें भी है। इसीलिए निरर्थकता के इस अहसास में अर्थ, ऐन्द्रियता और विश्वसनीयता पैदा होते हैं।

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