22-Mar-2023 12:00 AM
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शीत
जलरंग की छतरी हिलाती
मेमसाहब-सी समुद्रसैकत पर निकल आयी है शीत
अज्ञातवास के बाद क्यों कैसी हो पूछते-पूछते ही --
गुफा से निकल आयी स्मृतिविजड़ित शीत
सारी-जारी-बोलान 1 गाती-गाती
शान्तिनिकेतन के पौष मेले में उतर आयी है शीत
गरम स्वेटर पहने श्रोताओं की भीड़ में बैठी हुई है शीत --
जाड़े में आँखों को शीतल करते रंगारंग जुलूस में है आपामर शीत
पुलिस थाने के सामने ग़ुस्से से भरी खड़ी है प्रतिकारविहीन शीत
जाली मार्कशीट की तरह कुछ चतुराई करने को स्वेच्छाचारी शीत
यहाँ-वहाँ प्रशिक्षण ले रही है दुःसाहसी शीत
अहा! प्राइवेट ट्यूशन से ख़ाली पैर लौट रही है शीत
मेसबाड़ी 2 की कवि-संध्या में रवीन्द्र संगीत सुन रही है शीत।
1. सारी-जारी-बोलान : यह तीनों बँगला लोकगीतों के प्रकार हैं।
2. मेसबाड़ी : पुराने कोलकाता में मुख्य रूप से अविवाहित, बाहर से काम करने आए पुरुषों के लिए किराये पर मिलने वाले छोटे कमरे।
छिन्न-भिन्न मधुमास
कोई उस ओर मत जाना --
असहाय पिशाच-हवा है वहाँ
अनाथ आश्रम को घेरती आनन्द भैरवी
वहाँ हमेशा से है साँपिन बिजली
छिन्नभिन्न मधुमास, आधी नींद
आधे जागरण में है घर
फिर भी हौले-हौले उतरती है साँझ,
हर दिन दिगन्त तक ग़ोते लगाती है, क़दमों की आहट
गली-कूचों में फैल जाता है आतंक
पार्थिव हिंसा से शुरू करके
प्राणी और वनस्पति इस महाशून्य में
क्या सभी ठीक-ठाक हैं?
खेल-खेल में क्या कोई उस ओर गये है
उस ओर हैं अरण्य की शब्दावली और नदी
दक्ष राजमिस्त्री हर रात मारे जाते हैं,
कोई उस ओर मत जाना --
असहाय पिशाच-हवा है वहाँ
छिन्नभिन्न मधुमास, उस ओर मत जाना।
टूरिस्ट भवन में आकर
अपनी भूल की वजह से अन्त में
कहाँ रख दी है नदी मुझे याद नहीं
नदी की छोड़िए लेकिन मेरी तस्वीर में आँखें क्यों नहीं हैं
मज़बूत हाथों, और सीने के पंजर में
फिर-फिर खौल उठती है उबलती आग
तुम मेरी ओर जतन से
कभी नहीं देख सकीं
सिर्फ़ दूसरी ओर चेहरा रख कर
काँपती छाया की तरह छुए बिना काम नहीं चल सकेगा
इस तरह आवेश से भर दिया था एक दिन
उस दिन से महसूस होता है
अपरिचित हवा आकर लपक लेती है
इसलिए कि शायद खड्डों में तोप की आवाज़ है
फिर भी जाने कहीं झुलस रहा है मानपत्र
टूरिस्ट भवन में आकर मुझे झुलसने की गन्ध महसूस होती है।
जुगलबन्दी
भीतर अलिन्द में यह कैसा जुगलबन्दी का खेल है
एक चन्दन-चर्चित चाँद, सम्भवतः अँधेरे में
रक्त की बूँद की तरह झर जाता है
बीच-बीच में बहुत पास तक उठ आता है यमुना का नीला जल
और भी पास अन्तराल में मोहन बाँसुरी
कौन बजाता है नृत्य करते --
यहाँ क्या विमल कुंज है
गोधूलि साँझ को खिलती है रुनझुन रक्तकरवी
भीतर अलिन्द में फफक उठा है दुःख का निर्यास
आवेग के सेतु पर ईंट और पत्थरों की छाया
क्रमशः पैदल चले जाते हैं, कोई झुका हुआ
कोई मामूली जीत का गौरव संग लिये दिगन्त तक चला जाता है
कोई थम जाता है, पीछे मुड़कर देखता है अतीत संसार।
रास्ता
सहसा हृदय को चीरकर एक रास्ता
आग की तरह जलते-जलते बहुत दूर चला गया है
बीच में जंगल था, पत्थर, जल भरी भूमि और मेरी माँ की तरह
पूरे वक़्त खड़ा था रास्ते पर
मेरी दीठ में थी एक चोरनी सियार
और एक लड़की जिसने मल रखा था इन्द्रधनुषी रक्त
रास्ते ने उसकी कैसे उपेक्षा की
इतनी देर में हृदय को चीरकर रास्ता गाँव गया है शेफाली बीनने
यह बात पृथ्वी की गुल्मलता के साथ-साथ सभी जानते हैं
सभी ने स्वीकार किया कि उसे कोई रोग नहीं
वह पराजय और दहन-जैसा कुछ नहीं जानता
असल में निर्मोही है रास्ता
वह केवल हृदय को चीरकर चला जाना चाहता है
उत्तराधिकार
मैं गहन रात में समझ जाता हूँ शब्दों की एलिजी
जब आकर सीधे-सीधे मेरे सीने में बिन्ध जाती हैं
मैं उनके समर्थन में क्यों जागा रहता हूँ
मैं जितना बिंधता हूँ
उतना ही स्नायुकोष खोलकर देखता हूँ अनबुझा विष
मेरी देह से खींच लाती है पैदल छाया
मैं बड़ा होता हूँ --
मेरी तरल छाया पृथ्वी पर चारों ओर टलमल करती है
मैं तुच्छता से क्रमशः मुक्त होता जाता हूँ
कितना अजीब लगता है प्रकल्पविहीन यह टालमटोल
मैं विष के पत्थर पर बैठा चाँद का तर्जुमा देखता हूँ
किस तरह वह बाज़ूबन्ध खोलकर नाच उठता है रूपंग वैली में
इस तरह एक निर्माण से दूसरे निर्माण में
जेटी से किसी उत्स की ओर --
पैदल चले जाते हैं हमारे उत्तराधिकार।
सम्बन्धहीन नहीं यह वृत्त
सम्बन्धहीन नहीं यह वृत्त
कितने ही शब्द सरहद पार आकर कहते हैं
आओ, हम फिर से वज्र-विद्युत बनते हैं
अब मैं दे रहा हूँ बारिश, तुम अस्त्र धो लो
पिछले दिन तुम्हें सोचते-सोचते
बर्फ़ के घर में एक फाँक करुण रंगीन चाँद
और फटे-फटे-से तुच्छ बादल
मेरे मैं को कहाँ ले गये
तुम्हें पता है? जरुल 3 बकुल किसी को पता है?
3. जरुल : भारत एवं दक्षिण एशिया में पाया जाने वाला एक प्रकार का फूल। Lagerstroemia speciosa.
सभी हैं भीषण उन्मुख और पत्थर-पतंग-से
जिन्होंने अभिन्न हृदय से विजय का परचम उठाया था
अपने वृत्त में देखता हूँ कोई भी सम्बन्धहीन नहीं है
टहनियों पर पत्तं के गुच्छे जिस तरह कानाफूसी करते हैं
दरारों में तृष्णा का जल जिस तरह आत्मसुख देता है
और आज जीवन समीक्षा के जिस पथ पर उतरा हूँ
देखता हूँ ठीक ही हूँ।
स्निग्धगन्ध का मोह : मेरे इक्कीस
एक साल बाद मेरे सम्मुख तुम्हारे आकर खड़े होते ही
मन कैसा दर्द से भर उठा?
आँगन में फिर से बारिश में भीगे फूल कितने सुन्दर झूम रहे हैं
मेरे छूते ही तुमने बिखरा दिया
स्निग्धगन्ध का मोह समूची देह पर
इस बंगाल की माटी पर तुम्हारी उपलब्धि ने बहुत रक्त दिया है
इस माटी में झूम रहे हैं रक्तरंजित धान
और कल ग़ुस्से में मैंने जो पŸो तोड़ लिये थे
उनके ऊपर आज निश्चिन्त होकर जाग उठा है आसमान
आज मन-प्राण ढालकर लोगों का प्रवाह रास्तों पर उतर रहा है
कोई वर्ण नहीं, गोत्र नहीं, अतिरंजित अहंकार नहीं
जो जिस तरह कर सकता है बहुत स्वभाविक होते-होते
अपनी भाषा के प्रति रख रहा है हृदय
पृथ्वी के सभी लोग देख रहे हैं गर्म इस्पात
अपनी भाषा पा जाए तो किस तरह नक्षत्रमाला की तरह जल उठता है
जो भिखारी हर दिन फ़ुटपाथ पर सहाय-सम्बलहीन पड़ा रहता है
उसकी इन्द्रियाँ चरम विश्वास में किस तरह झनझना रही हैं
जो पक्षी दुःसमय में ऊँघता रहता है नितान्त निःसंग
उस पक्षी के मधुर स्वर संहति की देह में किस तरह बिठा रहे हैं सुर
अपने बिम्ब साथ लिये तुम फिर से लौट आए हो मेरे इक्कीस
हमारी अनुभूतियाँ फिर से तुममें दोबारा जन्म ले रही हैं
तुम्हें लम्बी उमर मिले ...
पहली मुलाक़ात
अब मैं देख रहा हूँ बादलों का वैभव
मेह बरस रहा है
इसी बीच एक लड़की
गुम होकर जाने कहाँ
दोस्त समझकर जाने किस के साथ तोड़ रही है फूल --
पहली मुलाक़ात है
पहली बार किसी के अदेखे वह पक्षी बनी
उड़ती फिरी इस वन से उस वन
और वह लड़का?
ईसापूर्व अतीत से अकेले आकर
यह मन अब हट नहीं रहा है
चित्र के भीतर हो रही है बारिश
आवरण पर झमाझम
जयन्ती की एलिजी
उत्तर के इस पहाड़ के समतल पर आओ तो समझ पाते हैं
जयन्ती अब पहले-जैसी नहीं है
एक दिन बस से उतरने पर
वह हवा मुझे जकड़ लेती थी
वह हवा अब मुझे लाँघकर पछाड़ खाकर गिरती है पत्थर पर
बहुत मोहमय थी यह जयन्ती
मानो एक मानस-कन्या पल रही थी अरण्य कुटीर में
इसलिए स्तब्धता को तोड़ कर भागती
लुप्त रेलवे-कैंटीन के पास एक दिन
चूल्हे में आग देखकर लगा था
अहा, शायद जयन्ती के भात हाण्डी में खदक रहे हैं
इच्छा हो तो अब हम पत्तल रखकर बैठ सकते हैं
कौड़ी खेलने आकर जो पहाड़ी नदी
हमें पुकार-पुकार कर व्याकुल हो रही है
वह नदी झुक-झुक कर वृद्धाश्रम में लिख रही है दरख़्वास्त
उसकी आँखों में है काली छाया, खारा पानी
जयन्ती अब पहले-जैसी नहीं रही
पैरों की रुपहली पायल कब टूट गयी उसे नहीं पता
पत्तं-जैसे बादल उसे छूने आते हैं या नहीं यह भी नहीं मालूम
सिर्फ़ अपनी सोच में वह कैसी सिमट-सी गयी है
फिर भी मैंने पूछ ही लिया, कैसी हो जयन्ती –