शोर एवं अन्य कविताएँ मनोज मोहन
02-Aug-2023 12:00 AM 2919

शोर

मैं जहाँ जा रहा हूँ
वहाँ मेरा घर नहीं है
जहाँ मेरा घर होता था
वहाँ स्मृतियाँ अस्थियों में बदलती चली गयी हैं
और...
इन्द्रप्रस्थ में शोर बढ़ता जा रहा है


पार्श्व में चित्र

वसन्तसेना आयी
चित्र के सामने बणीठणी की शतशः मुद्रा में खड़ी रही
रोशनी मुग्धभाव से उस पर अपनी छटा बिखेरने लगी

रंगकार वहाँ से टहल गया, वह
संकोच की मुद्रा में बाहर जा खड़ा हुआ
उसे राममोहिनी बीड़ी की तलब हो आयी थी
पार्श्व में टँगे चित्र के नयन सजल हुए
रंगकार की तन्द्रा भंग हुई

वह रात्रि के मध्यकाल में अपने चित्रों को
नर्मदा जल में सिराता चला जा रहा था

तन्द्रा टूटने के बाद
वसन्तसेना के पृष्ठ भाग को
विलीन होता देखता रहा...

और, वह
निर्वात में नीचे आते पंख-सा हल्का हो आया...


सौ साल बाद

खूबसूरत कवि-कवयित्रियों के चेहरे नहीं होंगे
खो जाएगी आत्मरतियुक्त उन सबका चेहरा
खो रहेगा उन लेखक-लेखिकाओं का चेहरा भी
जो हर जगह उपस्थित रहते थे
अपनी कहानियों-उपन्यासों का वज़न सँभाले

वह समुद्र की तरह सँभाल नहीं पाएगा अपनी अंकशायिनी को
आसमान रहेगा नीला शफ़्फ़ाफ़ ही
जाल की मछलियाँ
अतृप्त कामनाओं के साल बिछल जाएँगी

कामना हीन चेहरों के बीच
शब्द नहीं होंगे
न होगी स्मृति
ढल चुके होंगे वे सब चेहरे
पत्थर मानिंद रोबोट में

हम सब विराट शून्य में विचरण को होंगे अभिशप्त


तुम : एक स्मृति क्षण

मैंने कभी भी तुम्हें आलिंगन में नहीं बाँधा
कोई इसरार भी न था
आज हमारे-तुम्हारे बीच
लम्हों का बीस साला अन्तराल है

मन के सुशुप्त कोने में
तुम स्पर्शहीन नहीं हो
मैं स्वप्न से विलग नहीं हूँ

कहीं कोई धारा
चली आ रही है
तुमसे टकराती है
जुड़ती है
मगर टूटतीं नहीं

बीस साल के बाद

तुम हो जब सामने
मैं स्पर्श से सराबोर हूँ
तुम अपनी ही स्मृति में
डूबती जा रही हो...


कहाँ हो तुम

मौसमों के बीच वसन्त हो तुम
फूलों के बीच अब भी खप जाती हो तुम
नदी की तरह अब भी बह रहती हो तुम
स्वप्न में अब भी चली आती हो तुम

कहाँ होती हो तुम
कहाँ रहती हो तुम


प्रतीक्षा और तुम

सम्भावनायें जहाँ थीं
वहाँ तुम थी

वसन्त जहाँ गतिशील था
वहाँ भी तुम थी

निचाट एकान्त में
वहाँ भी तुम तो थी ही

तुम जहाँ भी हो
वहाँ भी सिर्फ़ तुम हो

बिना शोर के
हवा के बग़ैर
आते हुए देख रहा हूँ
वह तुम हो
मेरी ज्ञानेन्द्रियाँ शिथिल पड़ती जा रही हैं
आ जो रही हो तुम
... ... .. .


7.

एक सादा पन्ना
तुम्हारे हिस्से का बचा है
कलम में रोशनाई अब भी है
निब को इंतज़ार है जुम्बिश की

उस पन्ने पर लिख नहीं पा रहा हूँ
तुम हो
तुम नहीं हो

धीरे-धीरे
निःशब्दता बढ़ती जा रही है

पन्ना सादा रह गया है

और मैं बीत गया हूँ


8.

अजन्मे बच्चे के प्रति

सुनो
मेरे अजन्मे बच्चे
मैं
तुम्हारी माँ को खोजता हूँ
जो तुम्हें
दे सके जन्म

सुनो
मेरे अजन्मे बच्चे
तुम भी यही चाहोगे न
परिपक्व विचारोंवाली
हो तुम्हारी माँ
जो दे सके, तुम्हें
एक नया विचार

सुनो
मेरे अजन्मे बच्चे
मेरी खोज अलग है
मैं तुम्हारी माँ में
अपना घर भी तलाशता हूँ


9 .

खोज

कहाँ
पर
था
उसका
घर...


10.

तुम : विदा


विदा हो गयीं
सब, तुम भी


तू फूल थी
अपनी खुशबू साथ लिये चल दी


तू रोशनी थी
अपने साथ मेरे हिस्से की भी उजाला लिये विदा माँग ली


तू नदी की तरह आयी

फिर हुआ क्या

मैं रेत रेत रहा
और तू
बरसाती नदी की तरह बिला गयी


आज
खुशबू
रोशनी
पानी से महरूम


कहा हूँ मैं ?? ?

 


प्रेम

उसकी
आँखों में आँसू थे
मैं लौट गया
आँसू के स्वाद की
तासीर जानने

 

ग्लोब

बड़ी सुई साठ क़दम चलती है
छोटी सुई एक क़दम बढ़ाती है
उसे देखती सबसे छोटी
एक क़दम आगे और रखती है
तो घण्टा अतीत में दर्ज हो रहता है

हम क़दम-दर-क़दम चलते हैं
व्यतीत होते हैं
अतीत के ख़ाते में दर्ज हो रहते हैं

यही समय है
इसमें जीवन है
इसमें हम हैं


यह लौटना नहीं है

उम्र का बड़ा हिस्सा बीत गया है
थोड़े जो बचे हिस्से हैं
शायद कुछ किताबें पढ़ लूँ
कुछ देर संगीत का आनन्द लूँ
और डूब जाऊँ अपने अन्तरतम में

जहाँ जन्म था मेरा
वह आज किसी और के हिस्से जा पड़ा है
और, मैं वहाँ से सहस्रों किलोमीटर दूर
अपनी साँसों को बचाये रखने को संघर्षरत हूँ

और शायद
बचे हिस्से के रीत जाने से पहले
एक और अधलिखी या कुछ पंक्तियाँ रह जाती हुई
एक मुकम्मल-सी कविता हो

और तब
वह वक़्फ़ा आ ही जाय, जहाँ
न बोलना ही सम्भव हो
न लिखना

बस मौन पसर जाय


कुछ पंक्तियाँ

सादा पन्ना
तुम्हारे हिस्से का बचा है
कलम में रोशनाई अब भी है
निब को इन्तज़ार है जुम्बिश की

उस पन्ने पर लिख नहीं पा रहा हूँ
तुम हो
तुम नहीं हो

धीरे-धीरे
निःशब्दता बढ़ती जा रही है

पन्ना सादा रह गया है

और मैं बीत गया हूँ

 

यात्रा

यात्रा चलती रहती है
वह असमाप्त है
अनवरत है
उसकी कोई पूर्णता नहीं
वह अपूर्ण है

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