विलक्षण आलोचनात्मक उपक्रम मिथिलेश शरण चैबे
08-Jun-2019 12:00 AM 4001

आलोचक या समीक्षक का कार्य वस्तुतः कलाकार या लेखक से भी अधिक तन्मयतापूर्ण और सर्जनशील होता है।
- मुक्तिबोध

कविता या कथा को पढ़ने से एकदम भिन्न अनुभव है, आलोचना पढ़ना। हालाँकि सभी विधाओं को पढ़ने के अनुभव अलग होते हैं परन्तु आलोचना के मामले में यह सर्वथा अनूठी भिन्नता है, यहाँ हम जो पढ़ रहे होते हैं, वह किसी और लिखे हुए के बारे में ही होता है, उसकी रचनात्मक प्रकृति पर भले ही कोई सन्देह न रहे लेकिन आलोचना लिखे हुए के बारे में है और हो सकता है कि उस लिखे हुए के बारे में वही अकेली न हो, कई बार नहीं भी होती है, कुछ मामलों में वह अनेक के बीच भी होती है। कविता और कथा के नैकट्य में जो संकोच नहीं होते वे आलोचना के साथ होते हैं- कविता और कथा को पढ़कर हम जितना समझ रहे होते हैं, उसमें हमारी ‘सीमित या व्यापक स्थिति’ ही जि़म्मेदार होती है लेकिन आलोचना को पढ़ते समय उस सीमित या व्यापक के अर्थों में किसी अन्य का बौद्धिक उपक्रम हमारी समझ को बना रहा होता है इसीलिए आलोचना एक तरह से खतरनाक विधा भी है, उसमें पाठक के और रचना दोनों के प्रति यदि सुचिन्तित और नैतिक दृष्टि का अभाव है, तो न तो ‘पाठकीय स्तर में उन्नयन’ की कल्पना की जा सकती है और न ही रचना के ‘रचना अनिवार्य पाठ’ की उम्मीद ही।
आलोचना और चाहे जितना भी करे, उसे कम-से-कम पाठक को एक विवेक देने की कोशिश ज़रूर ही करनी चाहिए, ताकि पाठक की तात्कालिक समझ और रचना की विश्लेषण सामथ्र्य में अनिवार्यतः सकारात्मक वृद्धि हो सके, पाठक का यह ‘तात्कालिक’ अगली रचना के पाठ के वक़्त वही न रह जाए जो किसी आलोचना को पढ़ने के पहले भी था- बहुत सारा अन्य, अतिरिक्त और सन्दर्भपूर्ण भी उसे बताना ज़रूरी है, लेकिन उसके पहले की कवायद यानि पात्र बनाना उससे भी ज़्यादा आवश्यक है, बहुधा आलोचना दो तरह की अतियों में ही संलग्न होकर रह जाती हैः या तो वह कविता के अभिधा अर्थ की तरह रचना के सिफऱ् एक सामान्य और तात्कालिक पाठ को प्रस्तुत करने में ही मुग्ध रहती है; दूसरा वह अन्य अर्थों, व्यापक सन्दर्भों की सम्बद्धता को खोजने में इतनी विस्तृत हो जाती है कि रचना के एक तात्कालिक और सीधे अर्थ को अतिक्रमित ही कर जाती है। उसमें, रचना की सच्ची रसानुभूति से पाठक को भटकाकर, किन्हीं अन्य जटिल अनुभूतियों से साक्षात कराने का उपक्रम ही घटित होकर रह जाता है। आलोचना को एक साथ न केवल इन दोनों का संधान करना होता है बल्कि एक तीसरा काम भी उसी के हिस्से आता है कि वह पाठक की अन्य अविज्ञता, आलस्य और निष्क्रियता को इनके विलोम से भूषित करे, हम आलोचना इसलिए नहीं पढ़ते कि वह हमें, जैसे हम हैं, पढ़ने के बाद वैसा ही अमौलिक और चेष्टारहित रहने देगी, वह हमें उस हालात में ला देती है कि हममें बगैर सजग हुए कुछ नया, भिन्न और ज़रूरी लगता हुआ विचार अब हर नयी कृति को पढ़ते हुए लगने लगता है, इसीलिये आलोचना स्थायी और दीर्घ प्रभावकारी होती है।
इस सबके बावजूद वह स्वयं एक रचना भी है, उसे एक रसानुभूति के साथ पढ़ा जाने योग्य भी होना चाहिए।
आलोचक मदन सोनी की पाँचवी आलोचना किताब ‘विक्षेप’ को पढ़ना, दरअसल आलोचना के एकांगी अर्थ से अलग उस बहुआयामी प्रक्रिया से साक्षात करना है, जिसकी दरकार बहुसंख्यक आलोचना पैदा ही नहीं करती। वह न तो किन्हीं आशंकित अतियों का शिकार बनती है और न ही पाठक और रचना पर स्थापित होने की आधिपत्यात्मक कार्यावाही ही करती है। ‘विक्षेप’ में संग्रहित सत्रह निबन्धों और एक बातचीत में हम एक गहन अध्यवसायी और विश्वसनीय आलोचना के उस स्वरूप से मुखातिब होते हैं, हिन्दी के पाठकों को जिसकी बहुत कम आदत होगी। इस किताब को पढ़ते हुए ही उस स्वरूप को विस्तार से जाना जा सकता है।
‘हिन्दी उपन्यास की अल्पता पर कुछ ऊहापोह’ निबन्ध हिन्दी में उपन्यास पर व्यापक रूप से अवधारणात्मक चिन्तन करने वाला अपवाद है। कथावस्तु, यथार्थ, चरित्रों, भाषा और कुछ भिन्न लेखकीय कौशलों पर ही बहुधा हिन्दी उपन्यास का पाठ एकाग्र रहता है। यहाँ विधा के रूप में ही हिन्दी भाषा में औपन्यासिक लेखन के औचित्य पर ही विचार किया गया है। दूसरी भाषा की विधा को हिन्दी भाषा ने किस स्तर पर आत्मसात किया तथा उपन्यास, क्या भारतीय मनुष्य को सम्भव समग्रता में व्यक्त करने वाली विधा बन सका, इन प्रश्नों की सघन पड़ताल इस निबन्ध में मिलती है। आलोचक का मानना है कि जिस अर्थ में, उपन्यास के रूप में पश्चिम में ‘ईश्वरीय सृष्टि कल्पना के साथ बराबरी की टक्कर लेती मानवीय कल्पना’ का सृजनात्मक विस्फोट हो सका, धार्मिक प्रज्ञा के बरअक्स ‘औपन्यासिक प्रज्ञा’ सम्भव हो सकी, वैसा भारतीय उपन्यास विधा में नहीं हो सका। मदन जी मानते हैं कि ‘स्पष्ट ही इस विफलता का कारण उपन्यास की विधा के साथ हमारे सम्बन्ध की प्रकृति में कहीं निहित है।’
वे मैनेजर पाण्डेय की पुस्तक ‘उपन्यास और लोकतन्त्र’ का जि़क्र करते हुए बताते हैं कि हमारा ‘आत्मतुष्ट और आत्मस्फीति का शिकार’ होना ही इसका कारण है। उन्होंने अन्य अनेक उपन्यास आलोचकों के हवाले से यह स्पष्ट किया कि ‘उपन्यास के जातीय फाॅर्म के अन्वेषण का अभाव’ सभी की समस्या है, इस पर सुचिन्तित विचार नहीं किया गया। निर्मल वर्मा ही इस अर्थ में अपवाद हैं, जिन्होंने विधा के चयन पर महत्त्वपूर्ण विचार किया तथा जो मानते रहे कि दूसरे अनुभव क्षेत्र में पनपी विधा में अपने अनुकूल परिवर्तन करने की ज़रूरत होती है और यह काम हिन्दी में नहीं हुआ। मदन जी उपन्यास की विधा को ‘सांस्कृतिक स्तर’ और ‘सांस्कृतिक परम्परा के प्रति विद्रोह’ के स्तर पर हमारे लिए विजातीय मानते हैं। वे न केवल साहित्य बल्कि समूचे जीवन को लेकर भारतीय मनुष्य के वैचारिक आलस्य को ही प्रश्नांकित करते हैं। इस मामले में उन्होंने माक्र्वेज़, ओरहान पामुक, हारुकी मुराकामी तथा सलमान रुश्दी जैसे उपन्यासकारों के कुछ ग़ैरयोरोपीय उपन्यासों का जि़क्र किया हैं जिनमें विजातीयता और औपनिवेशिकता की ‘जटिलता और उलझाव के प्रति एक संश्लिष्ट प्रतिश्रुति अनूठी कला को जन्म दे सकी।’ उनका मानना है कि-
‘ये लेखक जब अपना उपन्यास लिखते हैं, तो उसको जितना स्वीकार करते हैं, उतना ही उसको प्रश्नांकित भी करते हैं; जितना उसको ‘लिखते’ हैं, उतना ही, उसकी योरोपीय रक्तशुद्धता के अर्थ में, उसको मिटाते भी हैं।’
हिन्दी में इस उपक्रम की विरल उपस्थिति ही है। परती परिकथा में प्रतीकात्मक ढंग से यह उपक्रम हुआ है, जिसका उल्लेख मदन जी ने इसी उपन्यास पर केन्द्रित पृथक निबन्ध्ा में किया है।
हिन्दी के विलक्षण लेखक कृष्ण बलदेव वैद पर लिखते हुए आलोचक ने हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति को तीक्ष्ण रूप से प्रश्नांकित किया है जिसने एक भिन्न ढँग के लेखक को नज़रन्दाज़ ही किया-
‘न सिफऱ् यह कि मान्यता के जो भी कोई ढंग इस संस्कृति में स्वीकृत हैं उनके मुताबिक़ उसे मान्य नहीं किया गया, बल्कि यह कि उसका संज्ञान ही नहीं लिया गया। इस दृष्टि से उसका अपवर्जन, अजनबीपन, अकेलापन अद्वितीय है; उसे अपने अपपाठ या कुपाठ का भी हाशिया उपलब्ध्ा नहीं है। वह अपाठ का शिकार बनाया गया लेखन है- इस संस्कृति द्वारा मुकर्रर की गयी ऐसी सज़ा जिसमें आप देश के भीतर होते हुए भी देश-निकाला भोगते हैं।’
इस अफ़सोस के उल्लेख से आगे जाकर वैद के लेखन की विलक्षणता के मूल को उद्घाटित कर प्रश्नांकन को और भी सघन रूप से चरितार्थ किया गया है। बाह्य के वर्णन से आक्रान्त साहित्य के बरअक्स वैद के लेखन की यह भिन्नता ही आलोचक ने उल्लेखनीय मानी है-
‘उसका परिप्रेक्ष्य सिफऱ् बाह्य जगत नहीं है, जिसके सन्दर्भ इस लेखन में आते हैं, बल्कि प्राथमिक तौर पर और प्रमुख रूप से उसका परिप्रेक्ष्य स्वयं लेखन हैः उसकी शैली, भाषा, विधा, कविसमय (परिपाटियाँ), लेखक-पात्र, पाठक का रिश्ता, लेखक समाज, समकालीन साहित्य-दृष्टियाँ, साहित्यिक सन्दर्भ आदि- एक किस्म का अधिलेखन या लेखन के बारे में लेखन (मेटाराइटिंग)।’
वैद के उपन्यास ‘विमल उफऱ् जाएँ तो जाएँ कहाँ’ की दिलचस्प शुरुआत को आलोचक ने इसी लेखकीय अतिचार से व्यंजित किया है। वैद अपने लेखन में खुद को बहिष्कृत करती साहित्यिक संस्कृति का संज्ञान लेते हुए, उसकी दृष्टि में अपराध करते हुए, अपने लेखन को आकार देते हैं। वे लेखन के जितने जोखिम उठाते हैं, वे सच में इस संस्कृति में दुर्लभ ही हैं, उनका ‘लेखन अपने होने को, उत्तरोत्तर, अपने न होने के सीमान्त पर चरितार्थ करता गया है।’
भाषा उनके यहाँ ‘लेखक के वश में रहने वाली आज्ञाकारी भाषा के रूप में’ मौजूद है। अनुपस्थिति और मृत्यु उनके लेखन का उल्लेखनीय भाव है लेकिन इस अर्थ में बहुधा इनकी आवृत्ति से सर्वथा अलग, ‘यह लेखन अनुपस्थिति को किसी उपस्थिति से विस्थापित नहीं करता, बल्कि उपस्थित को अनुपस्थित के सपन्दनों से, उसके अहसास से भर देता है।’ वैद के लेखन ने साहित्य को कुछ सर्वथा अप्रतीक्षित, अजानी, अकल्पनीय-सी लेखन युक्तियों से समृद्ध कर एक भिन्न मायालोक की सृष्टि की, ‘वह मायालोक जो हिन्दी का होते हुए भी हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति से, उसकी स्मृति से बाहर है।’
फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास ‘परती परिकथा’ पर उन्हीं के पहले उपन्यास ‘मैला आँचल’ से कम विचार किया गया है। निर्मल वर्मा ने इसे ही ज़्यादा उल्लेखनीय माना है। यहाँ इस निबन्ध्ा में इस उपन्यास के ‘आयुष्य’ के वास्तविक रहस्य को उद्घाटित किया गया है लेकिन इसके लिए जि़म्मेवार मान ली गयी आंचलिक तत्त्वों की मौजूदगी से आगे जाकर, उपन्यास विधा के प्रश्न और जीवन विधा के प्रश्नों के बीच समबन्ध को वास्तविक वजह की तरह स्थापित किया है,
‘इस कृति में न सिफऱ् एक ज़बरदस्त आत्मचेतना है बल्कि यह आत्मचेतना और इसमें कही गयी कथा कुछ इस तरह एक दूसरे के विक्षेप के रूप में चरितार्थ हुए प्रतीत होते हैं कि उपन्यास के समक्ष उपस्थित लेखन विधा के प्रश्न और उसके भीतर वर्णित समाज के समक्ष उपस्थित जीवन-विधा के प्रश्न के बीच परस्पर बिम्ब-प्रतिबिम्ब सम्बन्ध दिखायी देता है; मानो वे परस्पर रूपक में घटित होती दो कथाएँ हों-एक जो उसमें कही गयी है, और दूसरी जिसका चरितनायक वह स्वयं है।’
इस उपन्यास में सिफऱ् परानपुर की ‘धूसर, वीरान, अन्तहीन प्रान्तर, पतिता भूमि, परती ज़मीन, वन्ध्या धरती’ ही समस्या के रूप में नहीं है बल्कि रूपक की तरह ‘हिन्दी आख्यान की बंजर हो चुकी ज़मीन को तोड़कर उसके भीतर से एक ऐसी विधा की उपज को सम्भव बनाने की चुनौती जिसका बीज तो उपन्यास नामक आधुनिक पश्चिमी विधा का हो, लेकिन जो भारतीय लोकभूमि और जलवायु में पल्लवित-पुष्पित होने के नाते अपनी फलश्रुति में इस विधा का भारतीय अपभ्रंश हो।’ परती परिकथा में यह उपक्रम सफलतापूर्वक हो सका या नहीं, इस पर विचार आलोचक की विलक्षण आलोचनात्मक दृष्टि का असंदिग्ध साक्ष्य है- रूपक के घटित होने पर ही उल्लसित होने की पर्याप्त वजहों के बावजूद वास्तविक निष्पत्ति की तलाश यहाँ उल्लेखनीय है। ‘हिन्दी उपन्यास की अल्पता पर कुछ ऊहापोह’ निबन्ध्ा में वर्णित निर्मल वर्मा की दूसरे के बनाये मकान में रहने की विवशता से मुक्त होकर यहाँ रेणु द्वारा अपने अनुकूल की गयी तोड़फोड़ के प्रति आलोचक का आश्वस्ति भाव तो है, ‘रेणु उपन्यास की विधा का एक देसी रूपांतरण रचते हुए उसको तत्कालीन भारतीय वास्तविकता के सन्दर्भ में संगत बनाते हैं।’ लेकिन उपन्यास के सुखान्त समापन को उपन्यास के एक चरित्र भिम्मल मामा की उपन्यासों पर प्रतिक्रिया ‘आॅल बनस्पतिया’ के सत्य से जोड़कर उसकी विफलता की स्मृति को भी निर्ममता से प्रश्नांकित किया है-
‘क्योंकि यह सुखान्त, दरअसल उपन्यास का अपना हासिल नहीं है, बल्कि... एक आख्यान विशेष का सुखान्त है, जिसपर यह उपन्यास प्रतिहस्ताक्षर करता है,बजाए उसको प्रश्नांकित करने के या उसको आलोचना के दायरे में लाने के।’
ज्योत्स्ना मिलन के उपन्यास ‘केसर माँ’ पर केन्द्रित निबन्ध्ा में हिन्दी के स्त्री लेखन पर महत्त्वपूर्ण बुनियादी विचार हुआ है। आलोचक का मानना है कि स्त्री विमर्श उल्लेखनीय तो है लेकिन इसमें स्त्री को किन्हीं ‘सुस्पष्ट-से अभिप्रायों और आख्यानों’ में गढ़ने की कोशिशें ही हुई हैं; स्त्री की ‘आन्तरिक समृद्धि का, उसकी गहरायी और सूक्ष्मता का’ अभाव है। स्त्री विमर्श पर अनेक उपन्यास बाहरी संघर्ष और हड़बड़ी में एक प्रतिरोध को मूर्त करने की कोशिश में ही खप गये। प्रतिरोध की मुद्रा ने उनके वास्तविक दुखों की सूक्ष्मता और बाहर निकलने की अदम्य आकांक्षा को भी ख़ास तवज्जों नहीं दी बल्कि यह प्रतिरोध विरोधी के हनन की उत्कण्ठा से इतना आपूरित रहा कि किसी वैकल्पिक दुनिया की शक्ति को खोजने-पाने की लालसा भी अत्यल्प मिलती है। यह उपन्यास इस अर्थ में एक भिन्न विचार की प्रस्तावना है-
‘यह स्त्री को उसकी अत्यन्त पारम्परिक कर्मभूमि, उसके घरेलू संसार में, अवस्थित करता है और उसके सत्त्व या स्त्रीत्त्व को उन रोज़मर्रा चीज़ों के बीच पहचानता है, जिनको हम आमतौर से दुनियावी और तुच्छ समझते हैं और शायद इसीलिए उनकी तरफ़ ध्यान नहीं देते।’
‘आतंकवाद और खाली जगह’ शीर्षक से गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘खाली जगह’ पर मदन जी की दीपेन्द्र बघेल से हुई बातचीत है। इसमें हुआ अवधारणात्मक विचार इसे महत्त्वपूर्ण बनाता है। आलोचक ने आतंक और आतंकवादी जैसे शब्दों के सरलीकृत इस्तेमाल और दूसरों पर आरोपण की एकतरफा कार्यावाही को ही अलोकतान्त्रिक माना है। यहाँ उल्लेखनीय है कि ‘इस उपन्यास में, बावजूद इसके कि वह जिस घटना के इर्दगिर्द बुना गया है, एक भीषण बम विस्फोट की घटना है, कहीं भी ‘आतंकवाद’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। ‘किसी भी रूप और पक्ष से हुई हिंसा को अवांछनीय और निन्दनीय’ मानते हुए उनकी यह दृढ़ मान्यता है कि व्यवस्था से लाभान्वित होने की स्थिति में ‘व्यवस्था के कृत्यों में आपकी परोक्ष ही सही भागीदारी है।’
इस वक़्त जबकि पुलवामा में हुई विस्फोटक घटना के पश्चात् दोनों पड़ौसी मुल्कों में तनाव के साथ ही दूसरे देश को आक्रामक रूप से जवाब देने की आतुरता व्याप्त है और जिसे बहुसंख्यक मीडिया द्वारा युद्धोन्माद की तरह प्रचारित किया जा रहा है, इस बातचीत में मदन सोनी की स्थापनाएँ और उक्तियाँ अत्यन्त विचारणीय और अनिवार्यतः पढ़े जाने योग्य हैं-
‘शान्ति या अहिंसा भयमूलक नहीं हो सकती; वह भयमुक्ति से ही सम्भव हैं, जबकि हथियार भय पैदा करते हैं।’
‘अक्सर इस तरह की हिंसक गतिविधियों कि शुरुआत दरअसल वहाँ होती है, जहाँ संवाद की गुंजाइश ख़त्म हो जाती है।’
‘गाँधी जी जब हथियारों को समुद्र में फेंकने की बात कर रहे थे, तो वे सम्पूर्ण भय को समुद्र में फेंकने की बात कर रहे थे।’
‘संसार के बारे में एक तानाशाह का बोध ‘काॅमनसेंसिकल’ ही होता है; वह संसार की विशिष्टता को नहीं समझता।’
संवाद के अभाव और दूसरे के मत, आस्था, विचार के प्रति लचीला नहीं होने पर ‘उनसे उम्मीद करना कि वे विमर्श का रास्ता चुनें, कैसे सम्भव है? वे कार्रवायी के रास्ते ही आप तक पहुँचेंगे और कार्रवायी के रास्ते ही आप उनका सामना करेंगे, जोकि आप कर ही रहे हैं।’ नक्सलियों के प्रकरण में भी यही घटित होता है।
इस किताब में कविता पर केन्द्रित निबन्ध्ाों में न सिफऱ् सर्वथा अलग ढंग से कविता और कवि पर विचार किया गया है बल्कि काव्य विश्लेषण की कविता- आवश्यक युक्तियों को ही आधार बनाया गया है। ज़ाहिर है कि प्रायः ये युक्तियाँ भिन्न ही होती हैं।
अज्ञेय की कविता ‘नाच’ के बहुप्रचलित पाठ से विलग उसे एक रूपक की तरह पढ़ा गया है जिसके लिए आलोचक को गुंजाइश अज्ञेय के ही अन्य लेखन से मिलती है। किसी एक विधा की रचना के पाठ के प्रत्यय हो सकता है उस लेखक के अन्य लेखन से हासिल हों। कविता को विश्लेषित करते हुए मदन जी लिखते हैं-
‘नैरेटर के वे दो खम्भे और उनके बीच का तनाव अपेक्षाकृत अधिक सुपरिभाषित और अर्थगर्भी है। मम और ममेतर, वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक, भोक्ता और दृष्टा, शब्द और सत्य, तथ्य और सत्य, रूप और अरूप, आत्मकथा और जीवनी आदि कितने विविध रूपों में हम इस द्वैध और कशमकश के प्रत्यय को अज्ञेय के लेखन में आसानी से लक्ष्य कर सकते हैं।’
अज्ञेय के समूचे रचना संसार में आलोचक द्वारा लक्षित किया गया यह द्वैध अपनी समग्रता के साथ ‘नाच’ कविता में चरितार्थ हुआ है। हो सकता है कि अज्ञेय ने स्वयं इस कविता को लिखते हुए अपने समूचे लेखन का प्रातिनिधिक स्वर इसे महसूस न किया हो। एक अध्यवसायी आलोचक हमेशा रचना को एकांगीपन से मुक्त करता है और उसकी सूक्ष्म ध्वनियों की धुन लेखक के अन्य लेखन के सन्दर्भ में तलाशता हुआ लेखक के मूल प्रस्थान को जानने का यत्न करता है। इस कविता को यदि रूपक की तरह पढ़ा जा सका तो इसके लिए सिफऱ् कविता की संरचना ही सहूलियत नहीं देती बल्कि अन्य लेखन ज़्यादा गुंजाइश पैदा करता है। मदन जी इसे कविता के द्वारा कवि रूप में अज्ञेय के आत्मसंघर्ष का तरह पढ़ते हैं-
‘जिसको आप कविता की तरह पढ़ रहे हैं, दरअसल कविता नहीं है, बल्कि अपने कवि का वह आत्मसंघर्ष है, जो संघर्ष वह अपने जीवन के उन तमाम अज्ञानरूप द्वैतों को अनहुआ करने की कोशिश में कर रहा है, जिनने उसके जीवन को तनावों से भर रखा है। कविता के इस बयान में, एक अर्थ में, नैरेटर के बयान का सत्यापन भी विवक्षित है।’
‘आधुनिकता की समाधि पर श्रीकान्त वर्मा की इबारतें’ निबन्ध में आलोचक ने किसी विस्तृत फलक के लेखन को ‘एक छोटे निबन्ध में समेटने की कोशिश’ को हिंसा ही माना है। हमारी आलोचना में इस तरह की हिंसा अक्सर घटित होती है। वे मानते हैं कि श्रीकान्त वर्मा का लेखन ‘एक असमाप्य गवेषणा की माँग करता है।’ आलोचक को ‘श्रीकान्त वर्मा का लिखने का ढंग आधुनिक हिन्दी में सबसे ज़्यादा ध्यान आकर्षित करता है।’ इसकी वजह कवि की ‘बेहद बेचैन भाषा’ है, जिसकी युक्तियाँ पारम्परिक काव्यशास्त्र के बरक्स कुछ इस तरह हैं-
‘अक्सर शब्दों, पदों, वाक्यखण्डों आदि के विक्षिप्त संयोजन से गढ़ा गया उनकी कविता का चाक्षुष ढाँचा, कलात्मक तथा युद्धपरक दोनों ही अर्थों में, एक किस्म का गत्यात्मक ‘इंस्टालेशन’ है, जिसमें वास्तुशिल्पीय बिम्बधर्मिता भी है, इबारतों की प्रक्षेपासन्न तैनाती का प्रभाव भी है और पाठ-देह के आंगिक प्रक्षेपों में आकार लेती वहशी कि़स्म की नृत्य-भंगिमाएँ भी हैं।’
यह ढंग ‘निरा रूपवादी कौतुक नहीं है’; इसमें संसार और भाषा की पारस्परिक अन्तःक्रिया में घटित संघर्ष ही कविता रूप है। दोनों अपने-अपने स्वभाव में एक-दूसरे को अधिग्रहीत कर लेना चाहते हैं, निगल लेना चाहते हैं। संसार भाषा को उसके अर्थ से और भाषा संसार को उसकी अर्थहीनता से निहत्था कर देना चाहती है।’ दोनों की इसी पारस्परिकता को और भी उल्लेखनीय ढंग से आलोचक ने श्रीकान्त वर्मा की कविता के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित किया है-
‘ये वे कविताएँ हैं जिनमें दुनिया और भाषा के बीच न सिफऱ् किसी तरह का कोई टकराव या दरार नहीं है बल्कि दोनों के बीच इस हद तक परस्पर अनुकूलता है कि दोनों एक दूसरे से तदात्म प्रतीत होते हैं। दोनों एक-दूसरे में लय हैं। दुनिया सर्वथा भाष्य है और भाषा दुनिया में इस तरह अनुदित है कि संसार से उसके इतर होने का अहसास उसमें नहीं है।’
भटका मेघ, दिनारम्भ, जलसाघर, मगध में शामिल कविताओं की भिन्न काव्य मुद्राओं में, कविता में आते उत्तरोत्तर बदलावों और विस्तृत फलक का विश्लेषण इस निबन्ध में सम्भव हुआ है, जिसे आरम्भ में आलोचक ने ‘छोटे से निबन्ध्ा’ की हिंसा कहा है।
रघुवीर सहाय की कविता में गद्यलय का सघन नैरन्तर्य अभिधाभास कराता है जबकि उनका अर्थाग्रह अत्यन्त सजग और आत्मकेन्द्रित-सा है। उनपर आलोचक का तो मन्तव्य ही यही है कि वे जितना अर्थ देना चाहते हैं कविता उतना ही देती है। ‘लोकतन्त्र को उनकी कविता का प्रमुख एवं आवर्ती प्रत्यय’ मानते हुए आलोचक ने राजनीति के प्रति रवैये को जिसे खुद रघुवीर सहाय संकटकालीन रवैया कहते हैं; उसे नैतिक दृष्टि का पर्याय या विकल्प माना है। सत्ता का विरोध इस संलग्नता से है कि वह सत्ता का प्रतिरूप ही बन जाता है। कविता के बारे में भी उनकी कविता में आहटें उल्लेखनीय हैं।
रघुवीर सहाय को आमतौर पर राजनैतिक चेतना और साधारण जनभाषा के स्थूल प्रतीक रूप में व्याख्यायित किया जाता है। इसके बरअक्स मदन सोनी उनकी कविता की अन्तध्र्वनियों के अन्तर्पाठ तक जाकर उनकी कविता के वास्तविक चरित्र और संरचनात्मक बुनावट की पड़ताल करते हैं। जैसे कि राजनीति की उपस्थिति पर उनका विचार है ः
‘राजनैतिक दृष्टि उनके यहाँ ‘नैतिक दृष्टि’ मात्र का पर्याय या विकल्प बन गयी है।’
‘वह दरअसल सत्ता से आविष्ट कविता है। सत्ता उसका उत्प्रेरक और नियामक प्रत्यय है। संवेदना, विचार, अनुभूति आदि के उसके सारे वाले सत्ता की केन्द्रीयता में ही बनते हैं, और उसी में उनका पर्यवसान होता है। सत्ता का विरोध करते हुए वह सत्ता का प्रतिरूप बन जाती है। आशीष नन्दी की अवधारणा के सहारे कहें तो सत्ता उसका ‘इंटीमेट एनिमी’ है।’
निबन्ध्ा का शीर्षक ‘रघुवीर सहायः कविता और हिस्सेदारी’ से कवि की हिस्सेदारी वाली दुनिया का अर्थ भी ध्वनित होता है। हालाँकि ‘अन्य को वे अपनी स्वाधीनता में एक बाधा की तरह ही अनुभव करते हैं’ और उनके लिए अन्य की ओर मुखातिब होना ‘एक विवश यात्रा होती है’। भले ही अनिच्छा और नफ़रत की तरह ही वे इस अन्य की दुनिया में प्रविष्ट होते हों लेकिन उससे उनका एक अलग-सा रिश्ता प्रकट होता है जिसमें वर्णन से ज़्यादा वर्णनकार के बारे में पता चलता है। ‘यह एक निस्संग व्यक्ति की हिस्सेदारी है।’
अशोक वाजपेयी की कविताओं पर केन्द्रित निबन्ध ‘अनुपस्थिति के प्रतिलोम रूपक’ में हिन्दी कविता में लगभग निषिद्ध बना दी गयी आध्यात्मिकता की उपस्थिति को आश्वस्त और उर्वर उम्मीद की तरह चिन्हित किया गया है। कविता में ‘देश की धार्मिक परम्पराओं की किसी स्मृति को न देखना’ एक अन्तर्विरोध ही है जबकि जीवन में उसकी सघन, आस्थापरक और सकारात्मक ढंग से व्याप्ति है। ‘आध्यात्मिक भूख’ की दिशा भले ही ‘अपरिष्कृत, विकृत या दिशाहीन ही क्यों न हो’ लेकिन उसे अलक्षित करना ‘समाज के भावनात्मक यथार्थ के एक व्यापक अंश के प्रति’ उदासीन होना है। हिन्दी कविता की इस उदासीनता पर मदन जी अफ़सोस प्रकट करते हैं-
‘उसमें आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का उत्तरोत्तर अभाव दिखायी देता है। वह आश्चर्यजनक ढंग से ईश्वर-द्वेष का शिकार होती गयी लगती है।ईश्वर के अनस्तित्व को वह इस कदर मानकर चलती प्रतीत होती है कि वह उसके अस्तित्व से, नास्तिकों की तरह,इनकार करना तक ज़रूरी नहीं समझती।’
भक्तिकाल की कविता की ओर संकेत करते हुए, वे वर्तमान में हमारी संस्कृति के बहुदेवत्व स्वरूप के भीतर, कविता में इस अनुपस्थिति को ‘यथार्थ के रहस्यात्मक, अधिभौतिक या आध्यात्मिक आयाम के समग्र लोप के रूप में’ घटित मानते हैं। इस अर्थ में अशोक वाजपेयी की कविता में ‘प्रतिलोम रूपक’ की आश्वस्ति मिलती है-
‘समकालीन हिन्दी कविता में दिव्यता की जितनी व्यापक, जितनी गहरी विस्मृति है, अशोक वाजपेयी की कविता उतनी ही व्यापकता और गहरायी के साथ उसको अवकाश देती है- खुद को ‘सिरफिरा’ मान लिए जाने की कीमत पर भीः सभी सोचते हैं कि देवता थे @ देवता हैं ऐसा भला हम जैसे सिरफिरे कवियों को छोड़कर @ और कौन मानता है !’
कविताओं में दिव्यताबोधक अनेक ‘संज्ञाओं की गझिन उपस्थिति’, ‘हर तीसरी-चैथी कविता में किसी न किसी रूप में देवता की मौजूदगी’ और ‘ज़्यादातर तत्सम शब्दावली’ इस उपस्थिति को सघनता से चरितार्थ करते हैं। कदाचित इसीलिये अज्ञेय जी की काव्यपंक्ति ‘देवता कर गये हैं कूच’ को आलोचक ने उनकी समूची कविता का रूपक माना है। हालाँकि वे इस आध्यात्मिक उपस्थिति को किसी अन्य में किसी विकल्प की खोज से अलग कविता पर ही अगाध भरोसे की तरह ही पाते हैं-
‘अशोक वाजपेयी की ईश्वरोत्तर आधुनिकता हिन्दी कविता की ईश्वरोत्तर आधुनिकता से इस मानी में भिन्न हैः वह लुप्त दिव्यता का विकल्प किसी नयी दिव्यता, किसी मसीहा, किसी विचारधारा में नहीं खोजती; उसकी खोज वह भावना या कर्म की उस दुनिया में नहीं करती जिसके बारे में कविता लिखी जाती है; उसकी खोज वह स्वयं कविता में करती है- उस कविता में जो अपने अध्यात्म का स्रोत दिव्यता की अनुपस्थिति और उपस्थिति के उपर्युक्त द्वैध या विरोधाभास में तलाशती है।’
इस किताब में मुक्तिबोध की डायरी ‘तीसरा क्षण’ तथा अज्ञेय-मुक्तिबोध-शमशेर पर अशोक वाजपेयी की किताब ‘कविता के तीन दरवाज़े’ पर समीक्षा के साथ ही हिन्दी के विलक्षण आलोचक वागीश शुक्ल की आलोचना पर सुचिन्तित दीर्घ विचार ‘मृत्यु के निष्पादन रूप में आलोचना’ भी शामिल है। आख्यान और विमर्श दोनों की समान्तर प्रक्रिया से निर्मित कृति ‘तीसरा क्षण’ में वर्णित रचना-प्रक्रिया के तीनों क्षणों को विश्लेषित करते हुए मदन जी ने इसे ‘गल्पात्मक विमर्श और विमर्शात्मक गल्प’ कहा है, ‘एक ऐसी रचना जिसके विमर्श की प्रामाणिकता उसके गल्प में और गल्प की प्रामाणिकता उसके विमर्श में है; और अन्ततः एक ऐसी रचना जिसका सन्दर्भ स्वयं उसके भीतर है।’
‘कविता के तीन दरवाज़े’ हिन्दी के उन तीन श्रेष्ठ कवियों पर केन्द्रित है, जिनसे अशोक वाजपेयी का वर्षों तक साहचर्य का नाता रहा। मदन जी इस साहचर्य को महत्त्वपूर्ण तथा इस किताब की विशिष्ट आलोचना विधि मानते हैं तथा इसका ही सुपरिणाम ‘इन तीनों लेखकों के बारे में अनेक सूक्ष्म, ऐन्द्रिय और अन्तर्दृष्टिपूर्ण पर्यवेक्षणों’ तक पहुँचना है। हिन्दी की बहुधा आलोचना ने अज्ञेय, मुक्तिबोध और शमशेर को एक दूसरे के विलोम में ही पढ़ने का तरीका अपनाया है; ‘एक के रास्ते दूसरे को इतिहास बाहर करने का प्रयत्न करते हुए, या बेहतर क्षणों में, एक के सन्दर्भ में दूसरे के प्रति उदासीन रहकर पढ़ा (?) जाता रहा है।’ एक निरन्तर अपनायी जाती रही औचित्यहीन आलोचना प्रक्रिया के बरक्स-
‘अशोक वाजपेयी इन तीनों के बीच स्वयं को मानो एक सामासिक चिन्ह की तरह आविष्कृत करते हुए इनकी निकटता को रेखांकित करते प्रतीत होते हैंः इनके बीच सामंजस्य या समरसता का यूटोपिया गढ़कर नहीं, बल्कि कथ्य, शिल्प, भाषा, विचार, दृष्टियों आदि विभिन्न स्तरों पर इनकी विषमता के, और इनके प्रतिच्छेद-बिन्दुओं तथा परस्पर व्याप्ति के स्थलों को अन्वेषित करते हुए। और यह अन्वेषण अन्ततः हिन्दी की उस आधुनिकता का, उसकी नैतिक दृष्टि, सौन्दर्य दृष्टि और आलोचना-दृष्टि का, एक शब्द में कहें, तो हिन्दी के आधुनिक कविसमय का, भी अन्वेषण है जिसको गढ़ने में इन तीनों कवि-चिन्तकों ने अनजाने ही अद्वितीय भागीदारी की है।’
तीनों कवियों के लेखन की सूक्ष्म विशिष्टताओं पर अशोक जी की जिन उक्तियों का उल्लेख मदन जी ने किया है, वे तीनों के लेखन पर हिन्दी की श्रेष्ठ आलोचना उक्तियाँ हैं। एक साथ तीनों से साहचर्य की वजह से कुछ उक्तियाँ तुलनात्मक भी हैं-
‘अज्ञेय आत्मबोध और आत्मान्वेषण के कवि हैं तो मुक्तिबोध आत्मालोचन और आत्माभियोग के। शमशेर आत्मविलोपन के कवि हैं।’
मदन जी के इस निबन्ध्ा की एक ख़ासियत यह है कि वे ‘अज्ञेय बनाम मुक्तिबोध’ दौर में, जब अज्ञेय को लांछित किया जा रहा था, उस वक़्त की ख़ामोशी को प्रश्नांकित भी करते हैं। आलोचक से इस नैतिक दृष्टि की उम्मीद तो करना ही चाहिए।
‘मृत्यु के निष्पादन रूप में आलोचना’ हिन्दी के विकट आलोचक वागीश शुक्ल की आलोचना के अन्तर्लोक, बुनियादी प्रस्थान और प्रक्रिया पर तो सुदीर्घ विचार करती ही है, साथ ही हिन्दी आलोचना संस्कृति से उसकी अनिवार्य दूरी और अजनबीयत को भी उसकी निर्मिति के कारणों की तफ़्तीश कर, प्रकट करने का उत्तरदायित्त्व भी पूरा करती है-
हिन्दी लेखन के केन्द्रीय प्रश्नों से वागीश जी की भिन्नता को स्पष्ट करते हुए मदन जी ने उनके लेखन में ‘मृत्यु का निष्पादन’ प्रमुख रूप से लक्षित किया है और इसी प्रमुख प्रत्यय के आलोक में उनके आलोचना कर्म का पाठ किया है-
‘हिन्दी साहित्य उत्तरोत्तर मुख्यतः उपस्थिति का साहित्य होता गया है; उसके भाव ही नहीं अभाव भी किन्हीं कृति-बाह्य उपस्थितियों, भावों या अभावों की प्रतिकृतियाँ होने में गौरव का अनुभव करते हैं, और इस प्रतिकृतित्त्व की खोज, या फिर आविष्कार, आलोचना की सफलता मानी जाती है। उसमें इस आत्मबोध की सम्भावना लगभग समाप्तप्राय है कि वह (साहित्य) ऐसा रूपंकरण है जिसमें अस्तित्त्व अनस्तित्त्व की एक शैली के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।’
साहित्य के पास बहुत सारी उम्मीद को लेकर जाने वालों के लिए वागीश शुक्ल की आलोचना प्रक्रिया से एकदम हताशा हो सकती है। जीवन की सघनता से आक्रान्त साहित्य में उनकी आलोचना विलोम रूप में घटित होती है, ‘जिसमें साहित्य से आप कुछ भी उपलब्ध नहीं करते- सिवा अपनी उन उपलब्धियों की अर्थहीनता के बोध के जिनके आधार पर आप खुद को एक जीवित व्यक्ति के रूप में परिभाषित करते हैं, या सिवा अस्तित्त्व के एक ऐसे आश्वासन के जो अनस्तित्त्व (मृत्यु) की प्रतिभूति पर टिका हुआ है।’
वागीश जी के एक उद्धरण, ‘साहित्य क्या है ? इस प्रश्न का प्रथम उत्तर मेरे पास हैः साहित्य मृत्यु से सामना करने कि विधि है।’ के ज़रिये मदन जी स्पष्ट करते हैं कि हिन्दी साहित्य में मृत्यु की ‘ऐसी व्यापक उपस्थिति अन्यत्र नहीं है।’ भारतीय आख्यान परम्परा की व्याख्या में वागीश जी ने मृत्यु और दुःख की उपस्थित पर विचार किया है।
चूँकि हिन्दी की जीवन केन्द्रित पाठ की आग्रही बहुधा आलोचना, मृत्यु के इस सूक्ष्म और सघन लेकिन आत्यन्तिक रूप से मनुष्य की वास्तविक मुक्ति के प्रस्थान रूप में बोधप्रद, विलोम प्रत्यय को ठीक ढंग से समझने और महसूस करने का कोई बौद्धिक और रचनात्मक उपक्रम नहीं करती है, इसलिए वागीश शुक्ल ‘एक सर्वथा अजनबी आगन्तुक’ ही बने रहे हैं।
वागीश शुक्ल की आलोचना उनके बहुपठित, उद्धरण ढंग के लेखन, बहुभाषी लेखकों की रचना-विचार पर सुविचारित एक ऐसा अप्रतिम मौलिक लेखन है जिसमें न केवल पाठ के बुनियादी स्वभाव के प्रति नैतिक बोध है बल्कि पाठक को उसके औचित्य तक ले जाने की धीर गम्भीर कार्यावाही भी शामिल है। मदन सोनी ने इस भिन्न व विकट आलोचक को समझने के सरल सूत्रों से लेकर उनकी गहन चिन्ताओं और शाश्वत प्रश्नों से मुठभेड़ की उनकी अध्यवसायी मुद्रा का विस्तृत विश्लेषण किया है जिसमें वागीश जी की आलोचना को जानने के साथ ही हम साहित्य से अपने रिश्ते या तथाकथित उम्मीद को टूटते हुए महसूस कर सकते हैं।
इस किताब में शामिल पाँच निबन्धों में विविध विषयों पर मदन सोनी का वैचारिक चिन्तन मिलता है। ‘साहित्य का स्वराज और अज्ञेय’ निबन्ध्ा में ‘राजनैतिक विमर्श के बाहर के स्वराज’ की आकांक्षा पर विचार करते हुए मदन जी स्पष्ट करते हैं कि इस आकांक्षा का अर्थ यही है कि हम स्वराज को अपर्याप्त मानते हुए साहित्य की ज़रूरत का आग्रह कर रहे है।
अज्ञेय ने इस विषय पर महत्त्वपूर्ण विचार किया है, उन्होंने स्वाधीन होने को ‘अपनी चरम सम्भावनाओं’ का विकसित होना तो माना ही है, इसके लिए ‘चेतन विवेक’ की आवश्यकता पर प्रबल आग्रह किया है साथ ही साहित्यकार की स्वाधीनता के लिए समाज का स्वाधीन होना ज़रूरी माना है। अज्ञेय के इन्हीं वैचारिक आग्रहों की उत्कट मौजूदगी के कारण मदन जी मानते हैं- ‘स्वाधीनता के प्रश्न को इस कदर अर्थव्याप्ति के साथ लेखन के केन्द्र में प्रतिष्ठित करने वाले अज्ञेय हिन्दी के अकेले आधुनिक लेखक हैं।’
‘साहित्य को एक स्वायत्त संहिता की गरिमा के साथ प्रतिष्ठित करने की आकांक्षा’ अज्ञेय की रही है। मदन जी विस्तृत पड़ताल और निरपेक्ष भाव से इस आकांक्षा की फलश्रुति पर विचार करते हैं। उन्होंने अन्य की कमतर स्थिति और अतिशय आत्मरक्षात्मक होने को, इस आकांक्षा में व्यवधान माना है- ‘उसमें न तो ‘स्व’ के अतिक्रमण के अवसर हैं, और न ही उसके द्वारा स्थापित ‘राज’ के अतिक्रमण के। परिणामतः वह एक ऐसी आत्मतुष्ट व्यवस्था में बदलता गया है जिसमें त्रासदी का अभाव है। यही शायद उसकी त्रासदी है।’
‘प्रतिरोध और साहित्य’ निबन्ध में प्रतिरोध और साहित्य की भिन्न भूमि को लेकर आलोचक ने मूल्यवान स्थापनाएँ दी हैं। हिन्दी में, साहित्य में प्रतिरोध के स्वरों का प्रबल आग्रह नारेबाजी के स्तर तक फैला हुआ है। साहित्य के कुछ खेमे तो इन स्वरों की सघनता-विरलता से ही रचना की महानता निर्धारित करते हैं। ऐसी चिन्तनीय स्थिति में यह निबन्ध हमें साहित्य और प्रतिरोध के मूल और परस्पर विलोम स्वभाव के प्रति समझ देने का काम करता है। मदन जी स्पष्ट करते हैं कि ‘प्रतिरोध एक निषेध कर्म है और साहित्य स्वीकृतिपरक और समावेशपरक कर्म है।’
अक्सर व्याप्त अन्याय के विरुद्ध सामाजिक-राजनैतिक लोगों की तरह साहित्यकार से भी प्रतिरोध की अपेक्षा की जाती है। साहित्यकार इस अपेक्षा के वशीभूत होकर साहित्य के माध्यम से प्रतिरोध को चरितार्थ करते हैं। इस प्रक्रिया में यानि लेखन प्रक्रिया में अब बहुत सारा पूर्वयोजना की तरह रचा जाने को विवश है। यह प्रक्रिया ही साहित्य के विरुद्ध है। मदन जी ने प्रतिरोध के उत्साही अर्थ को प्रश्नान्कित किया है- ‘तब क्या हमारा अन्त तुलसी को कबीर से, प्रसाद को निराला से, अज्ञेय को मुक्तिबोध से, छायावाद को प्रगतिवाद से, और अन्ततः, मसलन ‘जुही की कली’ को ‘कुकुरमुत्ता’ से कम मूल्यवान मानने की दयनीय साहित्यिक समझ में नहीं होता ?’
इस विस्तृत प्रश्न के प्रतिउत्तर में वे अपनी इस मान्यता पर दृढ़ है, ‘साहित्य मनुष्य का सबसे अदम्य प्रतिरोध है।’
इन वैचारिक निबन्धों के क्रम में ‘अनुवाद से पहले’, ‘शब्दः सत्ता और स्वाधीनता’ तथा ‘संस्कृति और स्वराज’ में व्यक्त विचार हमारे वैचारिक परिसर को समृद्ध करने के साथ ही हमें इनके शीर्षकों में वर्णित पदों के बारे में हमें एक मौलिक और सुचिन्तित दृष्टि से साक्षात कराते हैं।
सम्यक आत्मकल्पना, लीलामय मीमांसा, अविनाभाव सम्बन्ध, निरावरण आत्मसाक्षातकार, सार्वजनिक पापस्वीकार, अनुरोधपरक वाक्चातुर्य, खण्डितमनस्कता, प्रत्यावर्तनशील, वैरानुबन्ध, अज्ञातकर्तत्त्व आदि अनेक गढ़े हुए पद और शब्दों के प्रयोग इस आलोचना को सृजनात्मक बनाते हैं।
एक आलोचक के परिसर में हमें अधिकतम क्या हासिल हो सकता है, इस दृष्टि से मदन सोनी की इस किताब ‘विक्षेप’ पर विचार करें तो हम यह पा सकते हैं कि चिन्तन और आलोचना कर्म किन्हीं सीमित और अपेक्षित के स्थूल उद्घाटन के बरअक्स; एकदम भिन्न, असीमित और अप्रत्याशित के सूक्ष्म संधान की वह नैतिक चेष्टा है जिसमें प्रविष्ट होकर हमें क्या जानना है और कैसे जानना है, जैसी गर्वोक्तियों से विलग जानने की औचित्यपूर्ण दृष्टि और जानने की आवश्यकता का तर्क अनिवार्य रूप से मिलता है।
विचार की तय पद्धतियों, विश्लेषण के पूर्व निर्धारित प्रत्ययों और प्रशंसा एवं निन्दा के छिछले निष्कर्षों की जल्दबाजी से विलग, पाठ की-विचार की किसी ऐसी प्रक्रिया से गुज़रना जिसमें साहित्य के होने की अर्थवत्ता का बोध और विचार के प्रस्थान की नैतिक आभा दोनों ही आकांक्षा के केन्द्र में रूपायित हो सकें, इस अहसास का सघन संस्पर्श यहाँ इस किताब को पढ़ते हुए मिलता है।
प्रशंसा और निन्दा की अधीरता पर एकाग्र बहुधा आलोचना, सीमित व पूर्व निर्धारित कुछ पक्षों के उद्घाटन के उथले काम को सम्पन्न करने में ही मुग्ध रहती है। इस अभिधापरक आलोचना के बरक्स युवा आलोचकों के लिए मदन सोनी एक आदर्श हो सकते हैं।
आलोचना कुछ देने के पहले, अपनी प्रक्रिया के संवेग से, अपने होने की अर्थवत्ता से ही हमें कुछ नहीं दे पाने की निरुपायता से रूबरू कराती है, जिसमें हमारे जानने की अनिवार्य प्रक्रिया का विचार शामिल होता है। मदन जी की आलोचना ऐसे ही विचार का प्रस्ताव है। एक पाठक बनने की आकांक्षा के क्रम में भी यह किताब ज़रूर पढ़ना चाहिए।

किताब - विक्षेप (आलोचनात्मक निबन्ध)
लेखक - मदन सोनी
प्रकाशक - सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर

 

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