02-Aug-2023 12:00 AM
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मेरे मरने के दिन क़रीब हैं...
जब मुझे यह मालूम हुआ तो पहले कुछ देर तक मैं उसे एक ऐसा बुरा सपना समझता रहा जो टूट जाता है और जिसके बाद आदमी चौंक कर जाग उठता है और पाता है कि वो बिलकुल सुरक्षित है और जो कुछ उस पर अभी-अभी गुज़रा वो केवल एक वहम है और इसके बाद वो इत्मीनान से पानी पी कर दूसरी करवट लेट जाता है। लेकिन ये एक ऐसा दुःस्वप्न है जो मेरे लिए स्थायी है और जिस पर अब ज़िन्दगी का बाक़ी सफ़र यूँ ही तय करना है। पत्थर जैसे ठोस इस सपने को चारों ओर से छू कर यक़ीन कर लेने के बाद जब मैंने अपनी पिछली ज़िन्दगी का हिसाब करना शुरू किया तो मुझे लगा कि इसमें ये भी तो मुमकिन था। हालाँकि मैं चाहता था कि मौत इस तरह अचानक मेरे सामने न आ जाये। बल्कि अब से पहले तक मैं समझता था कि मौत की मुण्डेर अभी इतनी दूर है कि इस तक पहुँचने में मुझे ज़माने लगेंगे। लेकिन एक-बार जब अपने होशोहवास को जमा करने के बाद मैंने इस बात को मान लिया है कि ऐसा हो सकता है बल्कि अब ऐसा होना ही है तो गोया बिलकुल अचानक मेरे सामने ये सवाल आ खड़ा हुआ कि अब मैं क्या करूँ।
अचानक ज़िन्दगी की सारी ख़्वाहिशें, सारे सपने और सारे काम जिन्हें मैं एक भरपूर ज़िन्दगी में करने के बारे में सोचता था मेरे सामने आकर दुखी और हताश खड़े हो गये। और मैंने सबसे पहले उन कामों के बारे में सोचना शुरू किया जो मैं अब कर सकता था। लेकिन उलझन ये थी कि हर वह काम जो मैं करना चाहता था और अब भी चाहता हूँ उसके लिए वक़्त दरकार है और अब मेरे पास वक़्त कम रह गया है।
इस ख़्याल के साथ मैं एक तरह की जल्दबाज़ी में गिरफ़्तार हो गया। पहली बात तो यह कि मैं हर काम को जल्द से जल्द पूरा करके दूसरे काम और दूसरे को करके तीसरे को पूरा करने की जल्दबाज़ी में पड़ने लगा। नतीजे के तौर पर हर काम ख़राब होने लगा। हर बात बिगड़ने लगी।
लेकिन ये कुछ बाद की बात है जब मैंने जाना कि मेरे कामों का ख़राब हो जाना या बिगड़ जाना मेरी हड़बड़ाहटों का नतीजा था। पहले तो मैं ये समझ रहा था कि मैं मौत के डर में पड़ गया हूँ और यूँ मेरे हवास डगमगा रहे हैं या ये कि ये सब कुछ इसलिए हुआ है कि मेरे शरीर की कोशिकाएँ बहुत तेज़ी से टूट रही हैं और मौत मुझे अन्दर बाहर हर तरफ़ से कमज़ोर कर रही है। तो मैंने एक तरह से यूँ कहिए कि नये सिरे से सोचना शुरू किया कि मैं क्या करना चाहता हूँ। ये सवाल मैंने अपने आप से पहले भी किया है लेकिन इसका कोई मुनासिब जवाब ढ़ूँढ़ने से पहले ही मैं अपनी किसी न किसी ख्वाहिश और किसी न किसी ज़रूरत और किसी न किसी लालच का शिकार हो गया। चुनांचे मैं क्या करना चाहता हूँ कि दूरगामी बहस को ज़ेहन से झटक कर बहुत सामने की चीज़ों के बारे में पूरी चाहत और इच्छा के साथ सोचने लगा जो इतनी सामने की हैं कि अगर आँख बन्द कर लूँ तो टटोल कर भी उनकी असलीयत बता सकता हूँ।
मसलन ये कि जब मैं विद्यार्थी था तब मेरे सामने ये सवाल आया कि शिक्षा क्या है। हम क्यों पढ़ते हैं, ये हमारी शिक्षा जो अधिकतर पाठ्य पुस्तकों तक महदूद थी, हमारे स्वयं के लिए कौन से दरवाज़े खोलने के काम आयेगी। या ये कि ये जो मैं पढ़ लिख रहा हूँ तो क्या ये इसलिए है कि मुझ में यह जानने की उत्सुकता है कि क्यों ऐसा होता है कि दीवार पर छिपकली जिस पतिंगे पर दाँव लगाती है, वो घूम फिर कर छिपकली की पहुँच के अन्दर ही आ बैठता है। लेकिन ये जानने और समझने की मोहलत नहीं मिल सकी क्योंकि जिन माँ बाप के पैसे पर मैं शिक्षा पा रहा था, वो चाहते थे कि मैं पढ़ लिख कर और कुछ करूँ न करूँ अफ़सर ज़रूर बन जाऊँ। इस तरह मैं अपना आप न होकर उनके सपनों का पुतला हो गया जिसको आकार देने के लिए मुझे अपनी मिट्टी को अपने ही हाथों से दबाना, बार-बार दबाना पड़ा। फिर जैसा कि सब करते हैं और चूँकि मैं सही ग़लत के बारे में किसी निर्णायक मनस्थिति तक नहीं पहुँच पाया था... और शायद इस वक़्त भी नहीं जबकि... मैंने ज़िन्दगी का आज़माया हुआ ढर्रा अपना लिया। मैंने अपने सवालों को ताक़ पर रख दिया और जो कुछ किताबों में लिखा था उन्हें शब्द दर शब्द याद करने लगा। और ये मेरे बहुत काम आया। मुझ से हर जगह हू-ब-हू वैसे ही सवाल पूछे गये और जैसा कि शास्त्रियों ने कहा है कि जो सवाल का नपा तुला जवाब दे सकता है वो कामयाब होता है। तो इस तरह मैं कामयाबी की राह पर चलने लगा... वो कामयाबी भी कितनी हक़ीर हुआ करती थी। कोई मामूली सी पहेली हल कर देना, क्रास-वर्ड दोस्तों में सबसे पहले बना लेना, फु़टबॉल खेलते हुए ऐसे जी जान से रक्षा करना कि प्रतिद्वन्दी खिलाड़ियों के छक्के छूट जाएँ, हर इम्तिहान में सबसे अच्छे नम्बर हासिल कर लेना, कोई उकड़ू शेखीबाज़ मिल जाये तो उसे फ़िक़रों की चपत लगा देना, ऐसी सुन्दर क़मीज या क़लम ख़रीद लाना कि सब तारीफ़ करें, मुहल्ले की सबसे ख़ूबसूरत और उतनी ही बिगड़ी-दिमाग़ लड़की से मुस्कुरा कर बेमानी बातें कर लेना, अमिताभ बच्चन की फ़िल्में पहले शो में देख लेना, ऊँचा पेच लड़ाना... कितनी मामूली कामयाबियाँ थीं वो। ये मैं अब सोचता हूँ अब... शायद मौत हर जीत, हर कामयाबी, हर आनन्द, हर उल्हास, हर ख़ुशी को बहुत हक़ीर बना देती है। लेकिन इस वक़्त उन छोटी-छोटी कामयाबियों को पा लेना और चींटी की ख़ुराक जितनी ख़ुशियों को पा लेना भी मेरे लिए पहाड़ तोड़ लाने जितना मुश्किल और बड़ा होता था। और हर कामयाबी के साथ मुझे अपने आप पर और ज़्यादा गर्व महसूस होने लगता। हर कामयाबी एक नयी कामयाबी का दरवाज़ा खोलती है जैसे हर नाकामी एक और नाकामी की आशंका बन जाती है। उन दिनों मेरे पैरों के नीचे, मेरी आँख के आगे, मेरी हथेली की लकीरों में यहाँ तक कि मेरी करवट में भी कामयाबी ही कामयाबी थी। इतनी सारी निरन्तर कामयाबियों का नतीजा ये कि कामयाबी मुझे अपनी बाँदी लगने लगी। और तब मैंने अपने सवालों को ताक़ पर से उतार कर देखने की कोशिश की। एक तो ये कि उन पर गर्द की तह बहुत जम गयी थी और मेरे लाख साफ़ करने पर भी वो पूरे के पूरे साफ़ नहीं पढ़े जा सके। दूसरा ये कि इन सवालों को उलट-पलट कर देखने की कोशिश में कुछ और सवाल मेरे अन्दर उमड़-घुमड़ कर आने लगे। उन दिनों मेरे घर में एक ऐसा विवाद उठ खड़ा हुआ जिसके बारे में मैंने कभी सोचा नहीं था। मेरी बहन को उसके ससुराल वाले, जो उसे बहुत ख़ुशी से ब्याह कर ले गये थे, बात बेबात तंग कर रहे थे। परेशानी की बात ये थी कि सास ननदों के साथ-साथ उसे पति के ज़ुल्म का भी सामना करना पड़ता था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इस समस्या को कैसे हल किया जाये कि एक रोज़ मैंने अपने बाप को रोता हुआ पाया। अम्मां उदास थका हुआ चेहरा लिये साथ ही बैठी थीं। अब्बा बार-बार गिड़गिड़ा कर कह रहे थे कि उन्होंने जो कुछ अपनी बीवी के साथ किया वो सब अब उन की बेटी के साथ हो रहा है। अपने पछतावे का इज़हार वो इस तरह कर रहे थे जैसे वो अपने घर में नहीं किसी ऐसी अदालत में हों जहाँ सच के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता। अब उनके ख़्याल में वक़्त आ गया था कि वो ख़ुदा से अपने गुनाहों की माफ़ी मांगें ताकि उनकी बेटी चैन से ज़िन्दगी गुज़ार सके। इंसान अपनी क़िस्मत ख़ुद नहीं लिखता। ऊपर से लिखवाकर नहीं लाता। इंसान की क़िस्मत इंसान ही बनाते हैं। जो पेड़ मेरा बाप बोयेगा मुझे वही फल खाने को मिलेगा। और जो मैं बोऊँगा, वही मेरा बेटा काटेगा। लेकिन इस बात ने मेरे दिमाग़ में एक और सवाल खड़ा कर दिया जो मेरे लिए और ज़्यादा परेशानी की बात बना। मेरे बाप के ज़ुल्म को मेरी माँ ने सहा। उनके गुनाह की सज़ा में मेरी बहन ज़ुल्म सह रही है और अगर यही ज़िन्दगी का उसूल है तो इसका मतलब ये कि कल को उसकी बेटी अपने बाप के गुनाह की सज़ा उठाएगी। तो फिर ये सिलसिला कहाँ तक जाएगा। आखि़र ये सज़ा दर सज़ा का सिलसिला क्या है। ख़ुद ज़िन्दगी का सिलसिला क्या है। इंसान ज़िन्दगी भर दुख उठाता रहता है और अपने दुखों का बोझ उठाने के लिए अपनी औलादें छोड़ जाता है। इंसान दुखों की गठरी पीठ पर उठाये हुजूम दर हुजूम चलता जा रहा है। मगर उस का अन्त क्या है। इनाम और सज़ा के बारे में मेरी आस्था इतनी कच्ची थी (है!) कि मैं ख़ुद से ये भेद नहीं समझ सकता था...
.... तो मैंने सोच विचार छोड़ दिया। मेरे सामने एक साफ़ सुथरा सीधा रास्ता था ज़िन्दगी का। दरमियान में कहीं-कहीं ये रास्ता टूट जाता था। कोई नदी राह में पड़ जाती थी। मगर लगातार कामयाबियों ने मुझमें इतना आत्मविश्वास पैदा कर दिया था कि मैं बेझिझक नदी में उतर जाता। मुझे अपने रास्ते में ऐसी नदियाँ मिलीं जिनमें बस घुटनों भर और कभी-कभी उससे भी नीचे पानी होता। ऐसे पानियों में भला किस मगर(मच्छ) का डर। छोटे-मोटे जोंक अगर पाँवों से लिपट भी जाते, कुछ ख़ून चूस भी लेते तो मैं उन पर नमक डाल कर उन्हें तड़पा-तड़पा कर मारता। ये मेरे दफ़्तर के वो साथी होते जो मुझसे जलते, मेरे अधीन स्टाफ़ को मेरे खि़लाफ़ भड़काते और बॉस के कान भरते। मगर मैं जानता था ये कम्पनी को मेरे जितना फ़ायदा नहीं पहुँचा सकते। मैं इन सबके सामने, उनके सीनों पर से गुज़रता हुआ स्टेज पर पहुँचता और कम्पनी के सबसे बड़े बॉस के हाथों से मुस्कुराकर बेहतरीन बिज़नस की ट्रॉफ़ी लेता।
ये सब कुछ आसान नहीं होता था। ऐसे तमाम मौक़ों पर मैं दिन रात एक कर दिया करता था। लेकिन सच कहूँ और अब जबकि मैं मर रहा हूँ, मुझे बिलकुल सच ही कहना चाहिए कि मैं अपना टार्गेट पूरा करने के लिए बड़ी चतुराई, बड़ी मक्कारी से काम लेता। ऐसी-ऐसी पार्टियों से ऐसी-ऐसी ख़ुशामदी बातें करता कि मुझसे कीना रखने वाला कोई उस वक़्त मुझे देख ले तो यही कहे कि ये तो बस अब खोल कर औंधा पड़ जायेगा। लेकिन इन कामों के लिए जो दूसरों की नज़र में सरासर ग़लत है, और अब निश्चय ही मेरी नज़र में भी... मेरे पास औचित्य था। मुक़ाबला में शामिल खिलाड़ी को सही और ग़लत के बारे में सोचने और फ़ैसला करने से ज़्यादा जीत हासिल करने पर अपना ज़ोर लगाना पड़ता है। आखि़र को हर ज़िन्दगी के अपने मूल्य होते हैं। उस ज़िन्दगी में और उस ज़िन्दगी के ज़रीये हासिल की जाने वाली चीज़ों की ख़ातिर मैं जो कुछ भी कर रहा था, यक़ीन जानिए वो उस ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी था। वो सभी जो मेरे साथ इस या उस, किसी तरह के मुक़ाबले में, कहीं और कैसे भी शरीक रहे हैं उन्होंने भी वही सारे हरबे अपनाये जो मैंने। फ़र्क़ शायद इस बात से पड़ा कि मैंने उन हरबों को बेझिझक और ज़्यादा सफ़ाई से इस्तेमाल किया। कुदरत ने मेरी झोली में अपनी मेहरबानी डाल दी थी लेकिन यही उसकी बेरहमी भी साबित हुई।
मेरी इस उदासी में शरीक होकर अपनी तबियत को उदास करने वाले लोगो! मैं आपको बताना चाहता हूँ कि इस लम्हे से पहले तक उदासी नाम की किसी चीज़ को मैंने अपने क़रीब फटकने भी नहीं दिया था। मेरी पतलून की क्रीज़, टाई के रंग, मेरे बदन से निकलने वाली पर्फ़्यूम की ख़ुशबू और मेरे सधे हुए धारदार जुमलों जिनमें कभी-कभी विट भी शक्कर की तरह लिपटी होती, किसी भी ख़ूबसूरत और फ़्लर्ट को पसन्द करने वाली लड़की को मेरा दीवाना बना देती। फिर मैं उससे खेलता। सिर के बालों से लेकर पाँव के नाख़ुन तक, कोई अंग मेरे पाले से बाहर न होता। फिर कोई और फ़्लर्ट। मगर यह भी कब तक। मुझे लगने लगा कि बदन थक गया है। आखि़र बदन को ज़वाल है। क्या वाक़ई? क्या ये किसी गोदाम में रखा हुआ अनाज का ढेर है जिसे ख़त्म हो जाना है। नहीं शायद ऐसा नहीं। बदन तो मिट्टी है। इसकी उर्वरता देर तक रहने वाली है। इसमें बीज बोये जाते रहें, फ़सलें लहलहाती रहेंगी। मेरे बदन की मिट्टी को मुहब्बत के बीज दरकार थे। वो मुझे मयस्सर नहीं थे। उस चमक दमक में मुहब्बत के बीज का ज़िन्दा रहना शायद मुमकिन ही नहीं था जहाँ शब्द ज़बान और तालू के दरमयान पैदा होते हैं।
मेरा सीधा साफ़ रास्ता टूटकर एक नदी में गिरा। मैं बेझिझक पानी में उतर गया। बस यहीं मुझे धोखा हो गया। ये नदी बड़ी गहरी निकली। इसका पानी बड़ा मीठा और निश्चल था। इतना कंचन कि अपनी छबि साफ़ दिखायी देती। लेकिन इसकी तह और नदियों की तरह उथली नहीं थी। हर कदम दिल में लर्ज़ा पैदा कर देने वाली गहराई में पड़ रहा था लेकिन ठण्डा मीठा पानी मुझे आगे को खींचता गया...
वो साँवले रंगत की एक क़बूल सूरत लड़की थी। शायद इतनी मामूली कि उसे मेरे क़रीब देख कर कोई कह सकता था कि मैं ठगा गया। लेकिन उसके पास मेरे बदन की मिट्टी के लिए ऐसे बीज थे जिनसे बड़े सुन्दर फूल उगते हैं, बड़ी ख़ुशबू उड़ती है और आदमी ऐसे दीवाना फिरता है कि उसे किसी बात का होश ही नहीं रहता। मुझे भी नहीं रहा। मैं तो उसके पहलू में मदहोश था। अब होश में हूँ। लेकिन इससे पहले एक बड़ा हादसा हुआ और मैं बेहोश हो गया।
उस दिन वो मुझसे अपनी बार-बार की दोहराई हुई बात, आखि़री बार कहने आयी थी। हमारी आत्माओं में कैसा गहरा मेल था। लेकिन रूहों की यकजाई से पहले, हम दो नादानों ने ये नहीं देखा कि हमारे धर्म एक नहीं हैं। लेकिन शायद इसे इस तरह कहना ठीक नहीं होगा। दरअसल हमसे सम्बद्ध धर्म एक नहीं थे।
मैं जब उसके घर वालों के सामने अपना प्रस्ताव लेकर पहुँचा तो उसके प्रोफ़ेसर बाप ने मेरे सामने एक शर्त रख दी। तुम अपना मज़हब बदल लो। हमारा मज़हब इख़तियार कर लो।
मैं उसे लेकर माँ के पास पहुँचा। उसने बहुत प्यार से उसके बालों पर हाथ फेरा और बहुत प्यार से उसके गाल सहलाते हुए कहा। इस घर के सब तौर-तरीक़े अपना लो। यहाँ के कुल में मिल जाओ।
हम दोनों सर्कस के रिंग में तमाशा बने दो शेरों की तरह थे। हमारे इर्द-गिर्द मज़हब का चाबुक लहरा रहा था। हमें बताया गया, समझाया गया और फिर मनवाया गया कि इंसानों की ज़िन्दगी सीमित है। विचार और सिद्धान्त और धर्म तब भी थे जब हम नहीं थे और तब भी रहेंगे जब हम नहीं रहेंगे। ये उसके बावजूद रहेंगे। ये कितनी अजीब बात है कि हमारी ज़िन्दगी पर उन आस्थाओं उन मूल्यों को लागू कर दिया जाये जो हमारे होने या न होने के बावजूद रहेंगे। लेकिन हमारा अस्तित्व जिन के होने से बँधा रहेगा।
मेरी छोटी-सी गाड़ी जो हाईवे पर बे-पनाह रफ़्तार से जा रही थी। एक बेहद लम्बी और बहुत ठोस और बड़ी ही भद्दी मालगाड़ी से टकरा गयी थी, जिसका इंजन कहीं नज़र नहीं आ रहा था। दूर कहीं दूर बस इंजन का धुआँ उड़ता दिखायी दे रहा था।
उसके छूटने का ग़म एक विषाक्त नशे की तरह मुझ पर चढ़ा। मैं उसे छोड़ कर डगमगाता हुआ चला जा रहा था कि किसी की बाँहों ने मुझे सहारा दिया। वो मुझे रास्ते के किनारे एक लगभग सुनसान सड़क पर मिली।
ये शायद मेरी बे-होशी की हालत थी। मगर absolute नहीं। मैं शायद उसे बता रहा था कि हादसा कब और कैसे पेश आया। मुझे कहाँ-कहाँ चोटें आयीं, शायद उसे ये भी बताया था। फिर उसने अपना आईना सामने रखकर मुझे दिखाया। मेरा मुँह टेढ़ा हो गया था। उसने मेरे जबड़े को झटका देकर सीधा किया मगर ये पूरी तरह सीधा नहीं हो सका। अफ़सोस कि अब ये इस टेढ़ी हालत में अपने अंजाम को पहुँचेगा।
वो चकाचौंध अदाएँ बिखेरने वाली औरत थी। और उसकी महफ़िल जमी हुई थी। मैंने उसके सामने शर्त रखी कि मेरी मौजूदगी में उसके पास कोई न आये। उसने मान ली।
वो वेश्या थी और उसके सिवा उसकी कोई पहचान नहीं थी। उसके बहुत सारे नाम थे। जो किसी एक पहचान या अस्तित्व का मखौल उड़ाते थे। उसके घर की दीवारों पर कोई तस्वीर कोई फ्रे़म ऐसा नहीं था जो उसे किसी धर्म या आस्था से जोड़ सके। उसका कोई मज़हब नहीं था। शायद होगा। उसके दिल की किसी भीतरी तह में जिस तक बस उसके अपने पूज्य की ही पहुँच होगी।
वो और हम बस दो इंसान थे। एक-दूसरे की पूर्ति करते हुए और एक-दूसरे के साथ एक दलदल में धँसते हुए।
जब मुझे हल्का-हल्का बुख़ार रहने लगा और बहुत मामूली-मामूली सा रोग भी लम्बे समय के बाद ही क़ाबू में आने लगा तब मुझे अपने ख़ून की जाँच करवानी ही पड़ी।
... अब मेरे आगे मौत है। फ़क़त मौत। एक विशेष रफ़्तार से, न धीमी न तेज़, मेरी तरफ़ आती हुई और मुझे बहुत सारे काम निपटाने हैं जो एक के बाद एक मेरी जल्द-बाज़ी के कारण ख़राब हो रहे हैं। और हर ख़राब हो जाने वाला काम, हर नाकामी मेरे आत्मविश्वास को तोड़ रही है।
वो सवाल जो मेरे साथ पले बढ़े थे और जिन्हें मैंने अपने तेज़ दिनों में राह में छोड़ दिया था, वो अब फिर मुझसे आ मिले हैं। लेकिन इस तरह कि अब वो बहुत बड़े और भारी भरकम हो गये हैं और मैं अपनी बहुत थोड़ी सी बची खुची ज़िन्दगी के साथ उनके सामने बहुत हक़ीर, नंगी आँख से दिखायी न देने वाले किसी कीड़े की तरह।
... मैंने गुनाह किये हैं। बड़े भारी गुनाह। गुनाह और अज़ाब की हर मान्यता, हर कल्पना बहसतलब हो सकती है। लेकिन वो काम निश्चय ही गुनाह है जिससे दूसरे को आघात पहुँचता है। मैं उस लड़की से माफ़ी माँगना चाहता हूँ जिसकी नाभि पर एड़ी रगड़ कर मैं चला आया था। वो बच्चा मेरे सपने में हुमकता हुआ आता है और मेरी बाँहों में आकर बस ख़ून भरा लोथड़ा रह जाता है। मुझे अब रात-दिन उसकी सिसकियाँ सुनायी देती हैं। वो मुझसे अपने हाथ, अपने पाँव, अपनी आँखें और अपना चेहरा मांगता रहता है। मैं उससे माफ़ी माँगना चाहता हूँ, लेकिन बिलकुल उसके सामने जाकर। मैं चाहता हूँ वो किसी देवता की तरह मेरे सामने आकर खड़ा हो जाए, और मैं उसके पाँव के पंजे के सामने लिल्ली घोड़े की तरह रेंगता हुआ पहुँचूँ।
मैं हर उस आदमी से माफ़ी माँगना चाहता हूँ जिसको मैंने तकलीफ़ पहुँचायी है। वो रिक्शा वाला जिसे मैंने सिर्फ़ इसलिए गाली दी थी कि हॉर्न देने के बावजूद उसने मेरी गाड़ी के लिए रास्ता नहीं छोड़ा था, वो पड़ोस का लड़का जिसे मैंने सिर्फ़ इस बात पर कि वो हमारी सांझी दीवार पर कीलें ठोंकने से बाज़ नहीं आ रहा था, दो उल्टे तमांचे मारे थे। वो मुझसे कमज़ोर था। हर आदमी जो मेरी दुनिया में शामिल था और कमज़ोर था, मैं उसे किसी न किसी तरह अपने रोब में रखकर तसकीन पाता था। यहाँ तक कि अपनी फुज़ूलखर्ची के रोब से भी। कोई ऐसा जिसे मैं दबा सकता था, मेरे सामने से सलाम किये बिना गुज़र जाता तो ये मेरे लिए अकल्पनीय हो जाता और मैं किसी न किसी बहाने पहले से ज़्यादा भय में उसे डाल देता।
अब तक मुझे पता ही नहीं था। आज हिसाब करने बैठा हूँ तो मालूम हुआ कि कितने लोगों पर मैंने कितने ज़ुल्म किये हैं। एक जब्र, एक आतंक, एक नफ़रत मेरे अन्दर से ऑक्टोपस के पैरों की तरह निकल-निकल कर मेरी कमीन पहुँच में आने वाले हर आदमी को अपने शिकंजे में कसते रहे। आह ये कैसा दुख भरा समय है ज़िन्दगी का, जबकि हम उन तमाम लोगों से माफ़ी भी नहीं मांग सकते जो हमारे जब्र और हिंसा का शिकार हुए और अब न जाने कहाँ ज़िन्दगी के किस मोड़ पर, उदास या ख़ुश, ख़ामोश या बोलते हुए, चलते हुए या ठहरे हुए, मौत की सुरंग में दाखि़ल होते हुए या सम्भोग करते हुए या मेरी ही तरह किसी को अपनी नफ़रत का निशाना बनाते हुए, किसी न लिखी जाने वाली कहानी का अंजाम निर्धारित कर रहे होंगे। हर कहानी अपने अंजाम को पहुँचती है। एक नयी शुरुआत के लिए जिसके सिरे उससे बहुत दूर किसी और, किसी अनजाने शख़्स के विवेक में लहराते हैं। जैसे नफ़रत के सिरे से नफ़रत का अँखवा ही फूटता है। मेरी नफ़रतें कम नहीं। मगर आह! मैं ख़ुद कैसी-कैसी नज़रों, कैसी-कैसी नफ़रतों का शिकार हुआ, जिनके अस्बाब में मेरा कोई हिस्सा नहीं था। शायद।
मैं एक साईकिल पर सवार चला जा रहा था। वो एक टूटी-फूटी सड़क थी जिस पर साईकिलें, रिक्शा, टैंपो चला करते थे। मैं जाने किस ख़्याल में था। मेरी साईकिल डगमगा गयी। मुझे कुछ पता नहीं चला। जब तक मैं सँभलता, मेरी साईकिल एक और साईकिल से टकरा गयी थी जिस पर मेरी ही उमर का एक और नौजवान सवार था, जिसकी नाक मेरी तरह खड़ी नहीं, चिपटी थी। मैं हिन्दुस्तानी बोलता था, वो असमी। वो शिबसागर नाम का एक छोटा-सा क़स्बा था, जहाँ से असम आन्दोलन शुरू हुआ था। हर आन्दोलन एक ड्रैगन की तरह बढ़ता है फिर अपनी ही जगह पड़ा-पड़ा एक दिन फ़ासिल (Fossil) बन जाता है। लेकिन उसके मुँह से निकले हुए शोले चारों दिशाओं में उड़ते हैं और सीधे-सादे इंसानी रिश्तों को जला डालते हैं। उन दिनों असम आन्दोलन चरम सीमा पर था। हिन्दुस्तानी और बंगला बोलने वाले और खड़ी नाक वाले असमियों को अपने दुश्मन लगते थे। एक सामूहिक ग़ुस्सा था जिसकी फुन्कार बीहू की मधुर तान वाली धरती में हर जगह थी। पूरी हवा में थी। उस रोज़ एक क़स्बे की एक टूटी-फूटी सड़क पर दो साईकिलें नहीं टकरायी थीं। वो आमने सामने दो नौजवान नहीं थे। एक सामूहिक आक्रान्त के सामने एक मासूम इंसान खड़ा था जिसको अपनी ग़लती का एहसास था और जिसने अपनी भूल के लिए माफ़ी माँगने की हिम्मत जुटा ही ली थी कि एक नफ़रत भरा जुमला हवा में लहराया था और एक थप्पड़ ज़ोर से आकर उसके गाल पर रुका था।
उन्माद और घृणा की ज़िल्लत में लिथड़ा अपना अस्तित्व असम की धरती से उठाये मैं वहाँ चला आया था जहाँ मेरी खड़ी नाक दूर से पहचानी नहीं जा सकती थी। तब से अनगिनत बार किसी असमी को अपने सामने पाकर मेरे दिल में ख्वाहिश उठी है कि मैं उसे एक बल्कि दो ज़न्नाटेदार थप्पड़ मार कर अपने दिल में चुभा हुआ वो काँटा निकाल लूँ। मुहब्बत मुहब्बत पैदा करती है। नफ़रत नफ़रत को जन्म देती है। हर बार अपनी इस अमानवीय इच्छा के लिए मुझे अपने आपसे लड़ना पड़ा है। क्या किसी और का, जो उस रोज़ शिबसागर की उस सड़क पर हुई दो साईकिलों की मामूली-सी टक्कर के वक़्त मौजूद नहीं था, जो इन दोनों नौजवानों में से किसी का तरफ़दार नहीं था, किसी भी तरह इस हिंसा में कोई हाथ हो सकता है।
ये एक टेढ़ा सवाल है जिसका जवाब मुश्किल है। वो सिर्फ़ एक इत्तिफ़ाक़ नहीं था। गुज़रे वक़्त को फ़्रीज़ करके आज किसी आदमी को वहाँ ले जाकर उसकी राय पूछी जाये तो शायद सही-सही पता चल पाएगा कि वो किसका तरफ़दार है। है भी कि नहीं। लेकिन अफ़सोस कि इंसान दिखायी देने वाली ऐसी तमाम रस्मी ख़ानाबन्दियों से परे, अपनी त्वचा की परतों के बीच अपना पक्षपात छिपाये दिन और रात के सारे काम मामूल के मुताबिक़ करता रहता है। हर पूर्वाग्रह, नफ़रत का तमांचा बनकर किसी गाल पर पड़ने के लिए किसी मामूली-सी टक्कर का मौक़ा ताकता रहता है। मैंने आज तक किसी असमी को इसके लिए थप्पड़ नहीं मारा, लेकिन उस नौजवान को अपनी स्मृति में संभाल कर रखा है और जब-जब उस ज़िल्लत भरे लम्हे ने मेरी रूह में नाख़ून मारे हैं, मैंने उसके मुँह पर थूका है। उसकी ज़बान काटी है। उसके बाल अपनी मुट्ठियों में भींच कर अपने पैर के तलवे चटवाये हैं।
मगर आज....जबकि मैं मर रहा हूँ, मुझे एक रौशन लकीर नज़र आ रही है कि इंसान के साथ उसकी स्मृति भी मर जाती है। स्मृति में छिपी उसकी नफ़रत भी। तो आज मरने से पहले मैं अपनी उस नफ़रत को हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म करता हूँ। मैं उसे माफ़ करता हूँ और अगर वो कहीं है और उस तक मेरे इन शब्दों की पहुँच है तो मैं कहना चाहता हूँ कि मेरे भाई! हम और तुम एक जैसी साईकिल पर एक ही-सी रफ़्तार के साथ एक सड़क पर चलते हैं। दिशाएँ अलग-अलग होती हैं। इसी में कहीं हम एक-दूसरे के सामने आ जाते हैं। फिर हम दोनों एक-दूसरे से बच कर अनजाने से गुज़र जाते हैं या... एक-दूसरे से टकरा जाते हैं। इसके बाद नफ़रत में बुझा हुआ जुमला और उठा हुआ हाथ होता है... या फिर ऐसा भी हो सकता है कि हम दोनों उठ कर अपने-अपने कपड़े झाड़ते हैं, माफ़ी मांगते हैं, कहीं चोट तो नहीं लगी कहकर एक-दूसरे की ख़ैरियत पूछते हैं और फिर मुस्कुराते हुए सम्भल कर चलने की ताकीद करते हुए घण्टी बजा कर अपने-अपने रास्ते चल पड़ते हैं... और एक-दूसरे के स्मृति से बाहर हो जाते हैं।
किसी की स्मृति में काँटा बनकर चुभते रहने से बेहतर है कि ग़ुम हो जाया जाये, बेनिशान हो जाया जाये। मौत... नहीं मौत के ख़्याल ने मेरा जीना हराम कर रखा है। अचानक आ जाने वाली मौत यक़ीनन उस मौत से अच्छी है जो सूर्य ग्रहण की तरह धीरे-धीरे छाती है। लेकिन इसे इस तरह कह देना भी यक़ीनन बड़ी सहलपसन्दी है। बन्दूक़ की गोली वक़्त के एक बहुत छोटे से लम्हे में आपका भेजा उड़ा देती है और ज़िन्दगी स्विच से बुझने वाले बल्ब की तरह किसी अफ़सोस किसी हसरत की एक हल्की-सी याद के बिना ही तुरन्त ख़त्म हो जाती है। लेकिन बन्दूक़ की नाल की ज़द में ज़िन्दा रहना बड़े जिगरे का काम है। ख़ासतौर से तब जबकि आपको मालूम हो जाए कि आपका सिर बन्दूक़ के अचूक निशाने से बाहर नहीं है। और अब अपने इस बेहंगम और बेरहम सच्चाईयों को उजागर करने वाले लम्हे में देख रहा हूँ कि ये सड़कों पर तेज़ी से चल कर अपनी मंज़िल तक पहुँच जाने वाला समूह, मोज़े बुनती हुई ये औरत, बूट कांधे पर लटकाए मैदान जाता हुआ ये खिलाड़ी, सॉफ़्टी खाती हुई ये लड़की, यहाँ तक कि अपनी मेज़ पर झुका ज़िन्दगी के सौन्दर्य को ढूँढता शायर कोई भी बन्दूक़ की पहुँच से बाहर नहीं है।
मैं नहीं कह सकता कि ये सब ज़ाहिर में ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम ज़िन्दगी को पूरी तरह जी लेने के इच्छुक लोग इस बात से बाख़बर हैं कि नहीं। शायद हाँ। ये बन्दूक़ की नाल तो सभ्यता के पहले पड़ाव से उनके सिर का निशाना साधे है और इस बाख़बरी ने उन्हें उसके ख़तरे से निश्चिन्त कर दिया है। उनके हवास तब चौंक पड़ते हैं जब गोली चल जाती है, और बन्दूक़ के मुहाने पर केवल अपना धुआँ छोड़ जाती है, और सड़कों और दीवारों पर पड़े ख़ून के छींटे अपनी भयभीत कर देने वाली महक फैला देते हैं। मगर ये मैं अपने ख़तरे का ज़िक्र नहीं कर रहा। मेरी बात और है। मैं इस वक़्त ज़िन्दगी की किताब को दूसरी तरफ़ से पलट कर पढ़ सकता हूँ। मैं अब बन्दूक़ से भयभीत नहीं, बल्कि सच पूछो तो इस वक़्त तो कुछ ऐसा है कि मैं एक आँख पर दूरबीन और एक पर ख़ुर्दबीन लगाकर इस मौत उगलने वाली बन्दूक़ की नाली के अन्दर तक देख रहा हूँ जिसका भीतरी भाग बहुत ही चिकना, चमकीला और... नरम है और ये नर्मी एक ऐसी हमवारी का नतीजा है जिसने अँधेरी ज़मीन से निकाले गये लोहे को भी सुन्दर और मोहक बना दिया है। कैसी ख़ूबसूरत राहगुज़र से चल कर आती है मौत। मगर ख़ुद मौत कितनी भद्दी है। वो आती है और आदमी के सारे हुस्न को बेहंगम हाड़ माँस के लोथड़े में बदल जाती है। मौत ने मम्मी को कैसे मिट्टी से ढक दिया।
मम्मी मर सकती हैं मगर ऐसे कैसे। वो मरने की उम्र में थीं नहीं। वो तो ज़िन्दगी की उमंगों से भरी थीं। दिल दुआओं से भरा था मगर जिस्म कैंसर की घातक कोशिकाओं से। बायोप्सी ने बताया कि मौत की कोशिकाएँ ख़ून से ज़्यादा रफ़्तार से उनके जिस्म में उधम मचा रही हैं और रूह को अपनी भयंकर हंसी से डरा रही हैं। डॉक्टर ने कहा, चार दिन। सिर्फ़ चार दिन और पाँचवें दिन हारी हुई आत्मा शरीर से बाहर निकल गयी। अब इस बे-जान बदन पर उन्ही कोशिकाओं का राज था। एक घमसान की लड़ाई से थका उनका चेहरा मेरे सामने था और मैं रो भी नहीं सकता था। उनके चेहरे पर किसी जीत की रौशनी भी झलक रही थी। अपनी ज़िन्दगी देकर उन्होंने इन बेशुमार ज़िन्दा कोशिकाओं को भी हमेशा के लिए बेकार, बे-जान, बर्बाद कर दिया था।
ये एक शहीद की मौत थी जो अपनी जान देकर दुश्मन के पूरे ठिकाने को तबाह कर देता है मगर ऐन वैसा शायद होता नहीं। दुश्मन के ठिकाने फिर निकल आते हैं, जैसे कैंसर के कोशिकाएँ।
एक ज़िन्दगी को चाटने से पहले अपने वारिस कई और जिस्मों में छोड़ जाते हैं। शहादतें होती रहती हैं। दुश्मन के ठिकाने बनते रहते हैं। कुछ इसी तरह का एक दुश्मन ठिकाना अब मेरे जिस्म में बन गया है, और मैं देख रहा हूँ कि मेरी मौत कोई शहादत नहीं है। ये बस एक ऐसी ही मौत होगी जैसी ज़िन्दा इंसानों को आती है। मौत आती है, ...फिर आती है। ज़िन्दगी को बर्बाद करने का मन्सूबा लेकर। लेकिन क्षमता भर अपना रसद लेकर चली जाती है और हम उसका छोड़ा हुआ नासूर अपने सीने में पालते रहते हैं।
पापा ने इस नासूर को अपने सीने के केन्द्र में पाला। दिल के ठीक बीच में। जहाँ बस थोड़े से खून की जगह थी वहाँ उन्होंने मम्मी की हँसी और पैंतीस साल की सांझी ज़िन्दगी को एक साथ रख देने की कोशिश की। डॉक्टर ने कहा, ये ठीक नहीं होगा। लेकिन उन्हें अपनी इस पूँजी को रखने के लिए जैसे और कोई जगह मिल ही नहीं रही थी। छटांक भर ख़ून ने बेदख़ल होते हुए इतना कड़ा विरोध किया कि सारी मशीनों की सूईयाँ शून्य पर आकर जम गयीं और ऑक्सीजन का सिलिंडर मुर्दा हो गया। मगर मेरे लिए ज़िन्दगी मौत से सदा लड़ने वाले और कभी न हारने वाले सिपाही की तरह थी। सिपाही के पैरों में जब बूट होते हैं और कांधे पर हथियार तब उसके लिए हर काम सही होता है
तब मेरे नज़दीक इस बात में कोई ख़तरा नहीं छिपा था कि अनगिनत बिस्तरों को धांग करके आयी हुई ये औरत मेरे बदन की मिट्टी को ख़राब भी कर सकती है। क्या नहीं जानता था मैं? मैं जानता था कि दुनिया कैसी-कैसी ख़तरनाक बीमारियों से भरी पड़ी है, ख़ुदी की बुलन्दी की बात करने वाले इंसान को दिखायी न देने वाले कीटाणूओं की फ़ौज किस तरह ध्वस्त कर देती है।
मगर इस बात को इतनी सादगी से कह देना भी कुछ ठीक नहीं होगा। अब जबकि मैं मर रहा हूँ और साफ़ सीधी बात है कि उसके कारण... लेकिन उसके सिर पर अपनी मौत का इल्ज़ाम रखने से पहले एक बात साफ़ कर देना ज़रूरी है कि दरअसल इसमें उसका भी कोई क़सूर नहीं था। मेरा भी नहीं। मैंने उसकी क़ुरबत के ख़तरे उठाये, अपनी ज़िन्दगी को बचाने के लिए। जिस वक़्त वो मेरे पास धोखे की गगरी लेकर आयी... नहीं... मैं ज़रा इसको और ईमानदारी के साथ सोच लूँ... वो मेरे पास मोहब्बत की गगरी लेकर आयी थी और ये वक़्त वो था जब मुझे उस मुहब्बत की गगरी और उससे लिपटे हुए साँपों को अपनाना था या किसी हाईवे पर अपनी तेज़ रफ़्तार गाड़ी को किसी भारी गाड़ी या किसी मज़बूत दरख़्त से टकरा देना था।
जिस लड़की ने मेरे बदन की मिट्टी में सुन्दर फूल खिलाये थे, जीवन का विरोधाभास देखिए कि उसी ने मुझे ज़िन्दगी में दुख भी बे-हिसाब दिये। उसने मुझे आवारा एक ऐसे पुल पर छोड़ दिया जहाँ सब गाड़ियाँ ज़न-ज़न शीशा बन्द किये गुज़र जाती हैं। ऐसे वक़्त में ये मुझसे मिली। मेरी ज़िन्दगी को एक झटके से ख़त्म हो जाने से बचाने के लिए... और उसे आहिस्ता-आहिस्ता फ़ना की तरफ़ पहुँचाने के लिए। ये उसका... एहसान है कि मैं मौत को धीरे-धीरे उगते हुए सूरज की तरह देख रहा हूँ।
अपनी ज़िन्दगी के पन्नों को निरन्तर क़रीब आती हुई रौशनी में देख रहा हूँ जो दूसरी सूरत में शायद हमेशा अँधेरे में ही रहते। ज़िन्दगी का सफ़र अँधेरे का है। मौत रौशनी की एक गुफा है, ये मैं कहाँ जानता था। इस बात पर मुझे अब यक़ीन हुआ है। लेकिन ये बात मैं आपसे कैसे मनवा सकता हूँ। आप जो गहरे अँधेरे में देख तो रहे हैं, मगर सिर्फ़ हाथ भर आगे तक। सो, मेरे मुख़ातिबो! मुझे इस वक़्त आपसे भी माफ़ी माँगना है। लेकिन इससे पहले दरअसल मुझे उस औरत से माफ़ी माँगना है, जिसके कारण ज़ाहिर में मेरी कहानी दूषित हो रही है... कि ऐ औरत तेरा जिस्म और मम्मी का जिस्म, दोनों मुहब्बत के मिश्रण से बने थे और मुहब्बत के बदन में कीड़े जल्द लग जाते हैं। सो तो इस बात के लिए मुझे माफ़ करना कि मैंने इस कहानी में तेरा परिचय एक रण्डी के तौर पर कराया था।
मेरे आखि़री क्षणों के गवाह मेरे प्यारे मुख़ातिबो! आपसे मुझे इस बात के लिए माफ़ी माँगना है कि मैं आपकी अँधेरी आँखों को भेद डाल कर आपके सामने एक ऐसा सूरज उगाने की कोशिश कर रहा हूँ जिसकी रौशनी आँख के आगे सब कुछ साफ़ कर देती है, लेकिन हासिल जिसकी कुछ भी नहीं है।
इस कहानी का उर्दू से अनुवाद स्वयं लेखक ने किया है।