स्वामीनाथन प्रयाग शुक्ल
12-Dec-2017 05:53 PM 8324

स्वामी!
मित्र, प्रियजन, परिजन सब उन्हें प्रायः इसी संक्षिप्त नाम से बुलाते थे।
हाँ, ‘स्वामी’ सम्बोधन ही तो चित्रकार, कला-चिन्तक, कवि जगदीश स्वामीनाथन के लिए बहुतों का अत्यन्त प्रिय सम्बोधन था। जिन्होंने चित्रकार अम्बादास को ‘स्वामी’ कहकर, स्वामीनाथन को बुलाते हुए सुना है, वे उस स्वर की आत्मीयता-स्निग्धता को कभी भूल ही नहीं सकते! धीरे-धीरे स्वयं इस ‘स्वामी’ शब्द में इतना आदर, प्रेम, आत्मीयता, लगाव-जुड़ाव आदि शामिल होते चले गये थे कि इसका उच्चारण ही कुछ देर तक मानो हवा में गूँजता रह जाता था।
युवा पीढ़ियाँ उन्हें ‘स्वामी जी’ कहकर बुलाती थी। और बहुतेरे उन्हें जे. स्वामीनाथन के रूप में जानते थे। लिखने में भी यही नाम ज़्यादा प्रचलित रहा है। पूरा नाम बताने-लिखने-बुलाने की ज़रूरत बहुत कम पड़ती थी। वह पड़ती रही है, औपचारिक-वैधानिक रूपों में ही। मसलन जब भारत भवन, भोपाल के सामने की सड़क का नामकरण उनके नाम पर हुआ तो वह ‘जगदीश स्वामीनाथन मार्ग’ ही कहलाया।
उनके दोनों बेटे ‘कालिदास और हर्षवर्धन’ उन्हें ‘अप्पा’ कहकर बुलाते रहे हैं। और स्वामी की पत्नी भवानी जी को जब कभी उसका नाम लेना पड़ता था, दूसरों से, तो उनके मुँह से स्वामी ही सुनायी पड़ता था। घर के लोग, माता-पिता, परिजन उन्हें बुलाते थे ‘चाम’ कहकर! श्याम ही रूपान्तरित होकर चाम बना था। भूरी बाई उन्हें ‘बाबा’ कहा करती थी। आज भी जब स्वामी की चर्चा वह करती है तो उन्हें बाबा कहकर ही पुकारती हैं। ‘स्वामी’ और ‘बाबा’ दोनों ही सम्बोधन कितने मौजूँ हैं उनके लिए।
उनकी समूची धज एक अपनी ही तरह के ‘स्वामी’ और ‘बाबा’ की ही तो थी। दक्षिण भारतीय परिधान सफ़ेद लुंगी-कुरते में, अपनी दाढ़ी और लम्बे बालों के साथ ‘स्वामी’ सचमुच एक स्वामी की तरह ही लगते थे। हाँ, अकसर मुँह में फँसी हुई बीड़ी, और अन्तरंग गोष्ठियों में रम-पान उन्हें ज़रूर ही एक मित्र-रूप दे देते थे। वह दूर से पहचाने जाते थे, और जब पास आ जाते थे या कोई उनके पास चला जाता था तो वह उसे बहुत अपने लगने लगते थे। स्वामी का चुम्बकीय व्यक्तित्व था।
तमिल भाषी, हिन्दी प्रेमी, अँग्रेज़ी में अच्छा अधिकार रखने वाले स्वामी के जो भी निकट आया, वह उनके निकट होने की इच्छा रखने लगता था। एक बार किसी के निकट आ जाने पर वह स्वयं तो सामने वाले व्यक्ति को अपने निकट का, बिल्कुल अपना मानने ही लगते थे, दूसरे को भी यही लगता था कि वह उसके बहुत अपने बहुत सगे हैं। उनकी मित्र-मण्डली तभी तो बहुत बड़ी थी, वह फैली रही है देशों-प्रदेशों-विदेशों में।
उनका जीवन रोज़ के हिसाब से भी छोटी-बड़ी घटनाओं का अम्बार रहा है। मानो एक ही दिन में इतने प्रसंग घट जाते थे कि लगता था कि वह एक दिन मानो एक जीवन के बराबर हो। इनमें कई प्रसंग कुछ नाटकीय और अप्रत्याशित भी होते थे। यह अकारण नहीं है कि उनके मित्रों-परिजनों, युवा मित्रों, लेखकों कलाकारों (जिनमें आदिवासी कलाकार बड़ी संख्या में शामिल हैं) से लेकर, विभिन्न क्षेत्रों के अधिकारियों-कर्मचारियों के पास उनसे जुड़े हुए कई सच्चे क़िस्से हैं, जो उनके कोमल मन और साहसिक ‘बीहड़’ मन का पता एक साथ देते हैं। लेखकों-कलाकारों और कर्मचारियों-अधिकारियों के अलावा, रंगकर्मियों, फ़िल्मकारों, नृत्य-संगीत की दुनिया के लोगों सहित, न जाने कितने अन्य लोगों से स्वामी के सम्बन्ध रहे हैं। रवि जैन जैसे गैलरी संचालकों से लेकर, सांस्कृतिक संस्थाओं से सम्बद्ध कई व्यक्तियों से भी स्वामी गहरे में जुड़े रहे हैं।
स्वामी का स्वभाव ही ऐसा था। फिर जिन क्षेत्रों में उन्होंने काम किया, उनमें बहुतेरे लोगों से उनका मिलना मानो तय-सा था। वह चित्रकार थे। कवि थे। एक समय राजनीतिक कार्यकर्ता भी रहे थे। पत्रकार थे। फिर भारत भवन ‘रूपंकर’ के पहले निदेशक के रूप में अविभाजित मध्यप्रदेश के प्रायः सभी आदिवासी अँचलों की यात्रा उन्होंने की थी और इसके लिए युवा कला-छात्रों-कलाकारों की एक बड़ी टीम उन्होंने बनायी थी। इस टीम या मण्डली के पास भी उनकी अनन्त कथाएँ हैं। उनके मित्रों और ‘ग्रुप 1890 के उनके साथी कलाकारों- अम्बादास, जेराम पटेल, ज्योति भट्ट, राजेश मेहरा, हिम्मत शाह, गुलाम मोहम्मद शेख आदि से भी उनके कई संस्मरण सुनने को मिलते रहे हैं। अनेकों रोचक प्रसंग। रामकुमार, अकबर पदमसी, कृष्ण खन्ना से लेकर शान्ति दवे, परमजीत सिंह, अर्पिता सिंह, एरिक बोवेन के साथ ही मनजीत बावा, जोगेन चौधरी, अमिताभ दास, शमशाद, मृणालिनी मुखर्जी आदि तक न जाने कितने व्यक्ति और कलाकार (रहे) हैं जो स्वामी के जीवन की बहुतेरी बातों के साक्षी की तरह गिने जा सकते हैं। और यह वृहद घेरा तब, जब स्वामी स्वयं ‘दौड़’ कर लोगों से मिलने वालों में नहीं रहे हैं। प्रायः तो लोग ही उनके पास आये हैं, टकराये हैं। स्वामी का चिन्तनशील, संवेदनशील मन उन लोगों से कुछ ऐसा आत्मीय व्यवहार कर गया है, उनसे कुछ ऐसा ‘कह’ गया है कि वह उन्हें कभी भूला नहीं है। वे लोग उनके और निकट आने की चाह रखते रहे हैं।
स्वामी जिन शहरों की सड़कों, फुटपाथों पर ज़्यादा चले हैं, वे हैं, शिमला, दिल्ली, कलकत्ता (कुछ समय के लिए) और भोपाल-दिल्ली में उनका अड्डा जमता रहा है। शिल्पी चक्र, धूमिमल गैलरी, त्रिवेणी, कॉफ़ी हाउस, गढ़ी स्टूडियोज़ में और कई वर्षों तक भारत भवन (भोपाल) के प्रांगण का चबूतरा उनकी प्रिय जगहें रही हैं जहाँ बैठे-बैठे वे देश-विदेश से आने वाले कलाकारों, लेखकों, कवियों, रंगकर्मियों आदि से बतियाते रहे हैं- वे सब बातें कभी दर्ज भले न हुई हो पूरी तरह, पर, जानने वाले जानते हैं कि वह ‘चबूतरा’ भावनाओं, विचारों, बहसों आदि से इतना पगा रहा है कि वहाँ बैठे हुए स्वामी की छवि सहज ही सजीव हो उठती है।
कला को लेकर, कविता को लेकर, सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक जीवन को लेकर स्वामी हमेशा स्वयं को, और औरों को भी एक विचारोत्तेजन से भरते रहे हैं। यह विचारोत्तेजन थोड़ा-बहुत दर्ज हुआ है तो उनकी भेंटवार्ताओं में या उनसे सम्बन्धित संस्मरणों में। पर, अभी भी न जाने उनसे जुड़ी कितनी ही बातों को लिपिबद्ध होना बाकी है। इस जीवनी में मेरी एक कोशिश यह भी रही है कि उनसे जुड़ी हुई जो स्मृतियाँ हैं, बहुतों के मन में अब भी, उन्हें संचित किया जाए। स्वामी में अनौपचारिक बातचीत को भी तत्काल एक विमर्श में बुन देने की अद्भुत क्षमता थी। बहुतों के साथ बातचीत में भले वे विमर्श, सब के सब अब ‘पुनर्नवा’ नहीं किये जा सकते, पर इस सन्दर्भ में भी मित्रों-परिचितों को जो याद रह गया है या कहीं लिपिबद्ध हुआ है, उसे संकलित करने का यत्न भी मैंने किया है।
21 जून 1928 को जब स्वामीनाथन का जन्म हुआ, मूसलाधार बारिश हो रही थी। रात का समय था। स्थान था शिमला (जिस घर में जन्म हुआ उसका नाम था ‘प्लेजेण्ट हाउस’। यह संजौली में था। माँ को लगा मानो ‘कृष्ण’ आया है। कृष्ण के जन्म पर भी तो मूसलाधार वर्षा हुई थी। शायद यह भी एक कारण हो कि कृष्ण-श्याम की तरह स्वामी को घर में पुकारने का नाम ‘श्याम’ पड़ा जो तमिल उच्चारण में ‘चाम’ हो गया। और वह परिजनों के बीच आजीवन ‘चाम’ कहकर ही बुलाये जाते रहे- चाम काका, चाम मामा आदि। शिमला के साथ स्वामीनाथन का सम्बन्ध सिर्फ़ जन्मस्थान का ही नहीं रहा। यह सम्बन्ध कई रूपों में प्रतिफलित हुआ। बचपन का बड़ा हिस्सा शिमला में ही बीता। स्कूली पढ़ाई भी वहीं हुई। दिल्ली और शिमला में सर हारकोर्ट बटलर हाई स्कूल में। इसी स्कूल में चित्रकार रामकुमार और लेखक निर्मल वर्मा भी पढ़ते थे। यहीं से निर्मल से शुरू हुई मित्रता दोनों में जीवनपर्यत बनी रही। और रामकुमार के भी स्नेह भाजन स्वामी बने रहे, हमेशा। स्वामी का भी रामकुमार के प्रति आदर, लगाव कभी कम न हुआ। पर जब ये तीनों एक ही स्कूल में पढ़ रहे थे, आगे-पीछे तो तीनों को ही यह पता नहीं था कि आगे चलकर कौन-क्या बनने वाला है! शिमला की प्रकृति और परिवेश का भी कुछ प्रभाव तो पड़ा ही, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे।
स्वामी, अपनी माँ सरस्वती और पिता राव साहेब एन.बी. जगदीश अय्यर की बारह सन्तानों में से छठवीं सन्तान थे। इनमें से जीवित केवल आठ बचे थे। इस बड़े परिवार के परिजनों की संख्या भी विपुल ही कहलाएगी। पर अभी उस ब्यौरे में न जाकर हम 18 वर्ष के स्वामीनाथन के साथ कलकत्ता चलते हैं, जहाँ स्वामी कॉलेज स्ट्रीट के फुटपाथ पर जाँघिए और बनियान बेच रहे हैं और कोलकाता के ही ‘टाइगर सिनेमा’ के आसपास किसी फ़िल्म की टिकटें ब्लैक में बेच रहे हैं। स्वामी ने कभी यह ‘कथा’ बहुत संक्षेप में मुझे स्वयं सुनायी थी और उनके सुपुत्र एस. कालिदास ने 2012 में ‘ट्रांज़िट्स ऑफ़ अ होल टाइमर- जे.स्वामीनाथन’ : इयर्स 1950-63 नाम से स्वामी के इन वर्षों के जीवन पर जो प्रदर्शनी ‘गैलरी स्पास’ दिल्ली के लिए की थी, उसके कैटलॉग में वह इस प्रकार दर्ज है : 1942 में स्वामीनाथन के मैट्रीकुलेशन का वर्ष ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन की शुरुआत का वर्ष था। अगले वर्ष स्वामीनाथन ने दिल्ली के हिन्दू कॉलेज में प्रिमेडिकल की पढ़ाई छोड़ दी, अपनी सायकिल बेच दी, कुछ पैसे मिले और वह कोलकाता ‘भाग’ गये। यह घटना स्वामीनाथन के जीवन में एक नया बल्कि निर्णायक मोड़ ले आयी। स्वामीनाथन के घर और पढ़ाई छोड़कर जाने की कथा अब एक किवदन्ति बन चुकी है। कुछ के अनुसार यह पिता की ‘डाँट’ का प्रतिफल थी, कुछ के अनुसार जीवन में उनके अभिमानी रूप का एक उदाहरण, कुछ के अनुसार यह पढ़ाई से मोहभंग के कारण सम्भव हुई थी। बहरहाल कारण कुछ भी रहे हों, जिनमें से उस वक़्त छिड़े ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ की गूँज को भी एक बड़ा कारण मान सकते हैं क्योंकि उस वक़्त वास्तव में देश के बहुतेरे नौजवानों में ‘स्वाधीन’ होने की एक जबरदस्त इच्छा जागी थी- तथ्य यही है कि दो-तीन महीने स्वामी ने तब कोलकाता में बिताये थे। ‘स्वतन्त्र’ जीवन जिया था, जिनमें बनियान-जाँघिए बेचने से लेकर सिनेमा की टिकटें ब्लैक करने के अलावा कुछ अन्य छोटे-मोटे कामकाज भी उन्होंने किये थे। यह उनके जीवन का निर्णायक मोड़ सिद्ध हुआ तो इसीलिए कि यहीं कुछ ‘क्रान्तिकारियों’ ने उन्हें जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और अरुणा आसफ़ अली के नेतृत्व वाली काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल होने प्रेरित किया (था)। दिल्ली लौटने पर स्वामी का उस पार्टी से जुड़ाव जारी रहा और वह कुछ वर्षों तक इसके सक्रिय कार्यकर्ता बने रहे। दिल्ली में इसकी कार्यकारिणी के सदस्य रहने के साथ ही वह इसके हिन्दी मुखपत्र ‘मज़दूर आवाज़’ का सम्पादन भी करते रहे। आज़ादी के बाद 1947 में जब काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी टूटने लगी थी, वह जयप्रकाश नारायण के विचारों से असहमति के कारण पार्टी से अलग हो गये। 1948 में वह अरुणा आसफ़ अली, इडाटाटा नारायणन और कुछ अन्य लोगों के साथ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इण्डिया में होलटाइमर के रूप में शामिल हो गये।
इन्हीं वर्षों की बात है जब स्वामीनाथन ने अपने घर 6/17 वेस्टर्न एक्सटेंशन एरिया, करोल बाग, नयी दिल्ली में और करोलबाग में ही स्थित पार्टी कार्यालय में बहुतेरा विश्वसाहित्य पढ़ा, कला पर किताबें पढ़ीं और मार्क्स तथा मार्क्सवाद का अध्ययन किया। कुछ लोग बताते हैं कि घण्टों अपने को कमरे में बन्दकर यह काम स्वामी करते (रहे) थे। करोलबाग का घर किराये का था जो उनके पिता ने 1945 में अवकाश प्राप्ति के बाद लिया था और जहाँ 1956 से 1968 के बीच स्वामी पत्नी-बेटों समेत इस घर में रहे। बीच के कुछ वर्षों में, यानी 1946 से 1955 तक वह कहाँ रहे, इसकी बात हम आगे करेंगे।
पिता अवकाश प्राप्ति से पहले तक कनाट प्लेस, दिल्ली के एक बड़े से घर में महादेव रोड पर सपरिवार रहते थे। तब गर्मियों में, राजधानी शिमला चली जाती थी और गर्मियों के बाद फिर दिल्ली आ जाती थी, इससे यह मानकर चल सकते हैं कि स्वामी ने अपनी किशोरावस्था के वर्ष शिमला और दिल्ली के घरों में बिताये थे। यह अलग बात है कि इन वर्षों की स्वामी के जीवन से सम्बन्धित घटनाएँ हमें सुनने को ही अधिक मिली हैं, पढ़ने में, यानी छापे के रूप में कहीं दर्ज होकर देखने में कम ही आयी हैं। सुनाने और सुनने में भी वह उन वरिष्ठ परिजनों के पास ही ‘सुरक्षित’ रहीं जो स्वामी के किशोर दिनों के साक्षी रहे हैं। अब उनमें से अधिकतर परिजन भी उन दिनों को दर्ज किये बिना दुनिया से चले गये हैं। इसी घर में रहते हुए स्वामी ने कला पर लिखने की, चित्र बनाने की ‘गम्भीर’ शुरुआत की थी। इसी ‘घर’ में रहते हुए वे मैत्रियाँ भी फली-फूलीं जो उनके जीवन में, कला-रूचि के विस्तार में बहुत काम आयी। ‘ग्रुप 1890’ के प्रायः सभी साथी कलाकारों का इस घर में आना-जाना रहा है। जेराम पटेल, हिम्मत शाह, राजेश मेहरा, अम्बादास, गुलाम मोहम्मद शेख सभी तो इस घर में आते-जाते रहे और कुछ ने तो यहाँ कभी-कभार ठहरने का ज़िक्र भी किया है। यहीं एकाधिक बार उनसे मिलने के लिए ओक्ताविओ पाज़ भी आये हैं।
कुछ क़िस्से भी हैं जो उस वक़्त के उनके प्रयोगों का, उनकी उत्कट आकांक्षाओं का पता देते हैं और यह भी बताते हैं कि उस अवधि के लिए उनका कामकाज कितना बहुविध, कितना नया था।
जेराम भाई स्वामी के उस घर में ठहरते थे। हर्षवर्धन ने उस वक़्त का एक प्रसंग सुनाया। जब स्वामी सपरिवार करोल बाग से साउथ एक्सटेंशन, सी-55 के घर में शिफ़्ट हुए तो करोल बाग के घर में जेराम भाई के जो कुछ काम रखे हुए थे, ब्लोटॉर्च वाले, उन्हें ले जाने के लिए जेराम भाई ने टेम्पो बुलाया। जब किराये की बात हुई तो टेम्पो ने जेराम भाई के काठ को ब्लोटार्च से जलाकर किये हुए कामों की ओर संकेत करते हुए कहा, साहब, आपका तो पहले ही यह सामान जल गया है, आपका कितना नुकसान हो गया है सो आपसे किराये का मोलभाव क्या करुँ!
साठ-सत्तर बल्कि अस्सी के दशक तक ‘ग्रुप 1890’ के ज़्यादातर कलाकारों के पास न क़ायदा के स्टूडियो थे, न ही उनका काम नियमित रूप से बिकता था, ‘कहीं काम करके, कहीं रख दिया’ वाली स्थिति थी। गैलरियाँ भी इतनी नहीं थी कि उनकी प्रदर्शनियाँ ही सुचारू रूप से हो सकें।
स्वयं स्वामी की स्थिति अपने अन्य साथी कलाकारों से भिन्न नहीं थी। हाँ, इतना ज़रूर हुआ कि सत्तर के शुरूआती वर्षों में धूमिमल गैलरी के साथ उनका एक अनुबन्ध हुआ कि वे जो भी काम करेंगे धूमिमल गैलरी को ही (प्रदर्शन के लिए देंगे) और इसके बदले उन्हें गैलरी हर माह एक राशि देगी। धूमिमल गैलरी के अपेक्षाकृत युवा संचालक रवि जैन से उनकी ‘मैत्री’ भी थी, सखा भाव था, पर अपने से अग्रज स्वामी के प्रति रवि जैन गहरा आदर, प्रेम और सम्मान भाव ही रखते थे। स्वामी कई वर्षों तक उनके औपचारिक-अनौपचारिक सलाहकार भी रहे और किस युवा कलाकार की प्रदर्शनी ‘धूमिमल गैलरी’ करे या न करे, इस सब में उनके साथ चर्चा करना रवि जैन ज़रूरी मानते थे। सत्तर के दशक में विकास भट्टाचार्य, जोगेन चौधरी की प्रदर्शनी, और मनजीत बाबा और अमिताभ दास की जो संयुक्त प्रदर्शनी धूमिमल गैलरी में हुई थी, वह स्वामी की सलाह, सहमति और समर्थन से ही हुई थी। प्रदर्शनियों का जो वार्षिक कैलेंडर तैयार होता था, उसके लिए बाकायदा बैठकें होती थीं, पर स्वामी प्रायः रोज़ ही शाम या दोपहर को धूमिमल गैलरी जाते थे। रवि जी उनकी और मित्रों की खूब ख़ातिर करते। चाय-नमकीन के दौर हों या रम-व्हिस्की के, वे चलते रहते थे। साथ ही चलती रहती थी, कला और जीवन-जगत की चर्चा। जो इन शामों के साक्षी, सहभागी रहे हैं, वे उन्हें कभी भूले नहीं। वहाँ कभी-न-कभी उपस्थित रहने वालों में कला-समीक्षक के.बी. गोयल, श्रीकान्त वर्मा, कमलेश, जोगेन चौधरी, मनजीत बाबा, अमिताभ दास, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना रहते थे और दिल्ली और बाहर से आये कलाकार, कवि-लेखक भी इस अड्डे में शामिल हो ही जाते थे। धूमिमल गैलरी और स्वामिनाथन के सम्बन्ध का एक समूचा ‘इतिहास’ है, जिसकी ओर आगे भी लौटेंगे। मैं स्वयं यहाँ स्वामी से मिलने, प्रदर्शनियाँ देखने आया करता था। एक बार यहीं बैठे-बैठे यह कार्यक्रम बना कि स्वामी के कोटखाई (शिमला) वाले घर में चला जाये। स्वामी ने उन्ही दिनों सोहन कादरी से एम्बेसेडर कार खरीदी थी। तय हुआ कि हम इसी कार से कोटखाई जाएँगे और कार सोहन कादरी ही चलाएँगे। तब तक स्वामी ने कोई ड्रायवर रखा नहीं था। उन्होंने मुझसे भी साथ चलने को कहा। मैं तब स्वामी का एक इण्टरव्यू कर रहा था जो अनन्तर ‘पूर्वग्रह’ में प्रकाशित हुआ और फिर अशोक वाजपेयी के सम्पादन में ‘कला विनोद’ नाम से जो पुस्तक प्रकाशित हुई, उसमें भी सम्मिलित हुआ। स्वामी बोले, साथ चलिये तो रास्ते में और कोटखाई में आप वह इण्टरव्यू भी पूरा कर लीजिएगा। यह तो मुँहमांगी मुराद पूरी होने जैसा था। कोटखाई की यात्रा का यह प्रसंग, स्वामी के स्वभाव और उनकी प्रकृति के बारे में बहुत कुछ बताता है, इसीलिए इसे इसी जगह दर्ज कर लेना अच्छा रहेगा। मैंने ‘दिनमान’ से कुछ दिनों की छुट्टी ली। धूमिमल गैलरी में इकट्ठा होने की बात हुई, शाम के कोई चार बजे। मैं समय पर पहुँचा। स्वामी और सोहन कादरी वहाँ पहले से ही थे। यह यात्रा स्वामी की खतरे से खेलने की प्रकृति की गवाही पग-पग पर देती रही। जब कार दिल्ली से बाहर आकर हरियाणा के श्रेत्र से प्रवेश कर गयी और हम कोई दो घण्टों का सफ़र तय कर चुके, स्वामी ने खेतों के पास हो रहे सूर्यास्त को देखकर कहा, थोड़ी देर यहीं रुकने का मन हो रहा है। गाड़ी की डिकी से सोहन कादरी ने कोई दरी-चादर निकाली। स्वामी का प्रिय पेय ‘रम’ भी साथ लिया। पानी की बोतलें गिलास आदि भी थे ही। हम एक खुली जगह की ओर बढ़े। खेत में नालियों से पानी जा रहा था। एक कुआँ भी पास ही था। एक-दो बैलगाड़ियाँ भी दिखायी पड़ी। निश्चय ही एक प्रशान्त और मनोरम वातावरण था। सूर्य डूबा। अँधेरा हुआ। हमारी बातें चलती रही। कितना समय बीत गया, पता ही नहीं चला। अचानक स्वामी बोले, ‘अरे, मेरे बहनोई (जो पुलिस में थे या कोई प्रशासनिक अधिकारी) ने तो आज शाम एक पार्टी रखी है। डिनर। कई लोगों को बुला रखा है।’ हम लोग तत्काल उठे। यह तो स्वामी ने बता रखा था कि रात हम चण्डीगढ़ रुक जाएँगे। पर स्वामी ने ‘डिनर’ वाली बात बतायी नहीं थी। वह बहुत ‘प्लानिंग’ करने में विश्वास नहीं रखते थे और भविष्य के एकाध कार्यक्रम को छोड़कर, शेष कोई घोषणा नहीं करते थे। बहरहाल यह उल्लेख करना ज़रूरी है कि वहाँ बैठे-बैठे हमारी जो बातें हुईं, वे जीवन जगत की बातों से लेकर, कला-कविता की थी। वे सारी बातें तो भूल गया हूँ, पर यह याद है कि पिकासो, ब्राक, मातीस से लेकर कई भारतीय कलाकारों के नाम आये-गये थे। महादेवी, बच्चन की कविताओं की याद हुई थी। स्वामी महादेवी जी की कविता ‘पुलकती आ बसन्त रजनी’ स्वयं ऐसी अन्तरंग गोष्ठियों में सुनाते थे। और जब वह दैनिक पैट्रियट-लिंक में काम करते थे तो ऐसा सुना है कि अपने कमरे में उन्होंने ‘बच्चन’ की ये पंक्तियाँ लिख-चिपका रखी थीं ‘समय मुझको नष्ट करता मैं समय बर्बाद करता।’
यह अलग बात है कि जो बहुतों की नज़र में स्वामी का सचमुच अपना समय ‘बर्बाद’ करते रहना था, वह उनके जीवन-रचना-सोच-अनुभव का एक ज़रूरी ‘काम’ ही था। कह सकते हैं कि स्वामी ‘सिर से पाँव तक’ एक सोचने वाले या सोचते रहने वाले व्यक्ति ही थे। पर उनका ‘सेरेब्रल’ होना कभी मानवीय भावों से रहित नहीं रहा।
उस रात जब हम चण्डीगढ़ पहुँचे, रात के लगभग ग्यारह बजे थे। बहुतेरे लोग स्वामी की प्रतीक्षा करते हुए खा-पीकर जा चुके थे। स्वामी रात का भोजन प्रायः यों भी नहीं करते थे, और दिन में भी, कोई परोस कर दे भी दे तो थाली ज्यों की त्यों प्रायः रखी रह जाती थी। वह थोड़ा ही खाते थे। उस रात स्वामी तो बस थोड़ा बहुत बतिया कर सोने चले गये, मैंने प्रेम से दक्षिण भारतीय व्यंजन खाये। उनकी बहन इससे प्रसन्न हुईं। स्वामी के स्वभाव से वे परिचित थीं सो कुछ दुःखी तो हुईं, पर हमारे देर से पहुँचने को उन्होंने स्वामी के स्वभाव की पुष्टि करने वाली एक घटना की तरह ही लिया।
चण्डीगढ़ से आगे की शिमला यात्रा और वहाँ से कोटखाई की यात्रा की ओर मैं बाद में आऊँगा, उससे पहले उनके जीवन की सचमुच की यह महत्वपूर्ण घटना याद कर लेना चाहता हूँ।
यह घटना है स्वामीनाथन का आक्तोविओ पाज़ से मिलना। पाज़ जब मेक्सिको के राजदूत बनकर भारत आये तो दिल्ली में ही स्वामीनाथन से उनकी भेंट हुई और ऐसा लगता है कि दोनों के बीच एक ऐसा सम्बन्ध तत्काल पल्लवित हुआ जैसे दोनों न जाने कब से एक-दूसरे को जानते हों। ये वे दिन थे जब ‘ग्रुप 1890’ की योजना बन रही थी, ‘काण्ट्रा’ का प्रकाशन भी कुछ वर्षों बाद शुरू होने वाला था। और स्वामीनाथन चित्र-रचना को ‘पूर्णकालिक’ रूप से अपनाने को ‘तैयार’ हो चुके थे। ज़ाहिर है आक्तोविओ पाज़, स्वामी के व्यक्तित्व, कामकाज, उनके विचारों आदि से प्रभावित हुए थे और स्वामी को भी पाज़ में एक ऐसा मित्र मिला था, जो उन्हें ‘प्रेरित’ करता रह सकता था और उनके साथ बौद्धिक खुराक का साझा कर सकता था। स्वामी, पाज़ को हमेशा आदर और प्रेम से याद करते रहे और पाज़ ने ‘ग्रुप 1890 के कैटलॉग का ‘टेक्स्ट’ तो लिखा ही था, स्वामी पर एक कविता भी लिखी। ‘काण्ट्रा’ में उनका हर सम्भव सहयोग रहा ही, और उसके जो चार अंक निकले उनमें पाज़ ने लिखा भी। पाज़ से जब स्वामी की मुलाकात हुई थी, पाज़ कवि, कला-चिन्तक और कला लेखक के रूप में विश्व के साहित्यिक हलकों में चर्चित हो चुके थे- स्पहानी भाषी लेखकों-कवियों के बीच विशेष रूप से और पेरिस के लेखकों-कवियों में भी वह एक प्रखर प्रतिभा के रूप में जाने जाते थे। 1950 के दशक में पेरिस रहते हुए उनकी भेंट सार्त्र और कामू से हुई थी। सरियलिस्ट आन्दोलन से भी वह सम्बद्ध रहे थे और आन्द्रे ब्रेताँ के साथ उनका निकट का संवाद था। नोबेल पुरस्कार उन्हें 1990 में मिला पर उनकी उपलब्धियाँ साठ के दशक में भी इतनी हो चुकी थी कि उनकी ‘उपस्थिति’ कहीं भी अपनी ओर ध्यान आकर्षित करती थी। स्वामी से पाज़ की भेंट 1962 में हुई थी और पाज़ की अत्यन्त चर्चित किताब ‘लेब्रिंथ ऑफ सालिच्यूड’ 1961 में अँग्रेज़ी अनुवाद में आ चुकी थी। स्वामी की तरह पाज़ भी कला और कविता को राजनीति या किसी अन्य सत्ता की, किसी भी रूप में, चेरी बनाने के पक्षधर नहीं थे। और दोनों ही यह मानते थे कि कला-कविता को अपने निजी और आदि-स्रोतों पर बल देना चाहिए। स्वामी के साथ पाज़ की मैत्री उन्हीं तक सीमित नहीं रही, वह अम्बादास, जेराम पटेल और हिम्मत शाह तक भी वे तरंगें ले आयी, जो पाज़ और स्वामी के बीच प्रवाहित हो रही थीं। यह मैत्री-प्रसंग इसलिए भी कुछ विस्तार से याद करने लायक है क्योंकि स्वामी के जीवन में- कलाकार और कला-लेखक चिन्तक के रूप में ‘ग्रुप 1890 और ‘काण्ट्रा’ अत्यन्त महत्वपूर्ण है और इन दोनों के इर्द-गिर्द स्वयं उनकी बहुत सी रचनात्मक और बौद्धिक ऊर्जा एकत्र होती प्रतीत होती है। इन्हीं दोनों घटनाओं की कड़ी में स्वामीनाथन का लोक-आदिवासी कला (और जीवन) के बीच जाना और भारत भवन ‘रूपंकर’ के पहले कला-निर्देशक के रूप में, एक ऐसी ‘सृष्टि’ करना है जो एक लम्बे समय तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद की जाती रहेगी। उस कामकाज पर हम कुछ बाद में लौटेंगे, अभी तो पाज़-स्वामी की मैत्री से कुछ चीज़ें और खंगालनी हैं।
1960 के दशक के प्रारम्भिक वर्ष स्वामी के जीवन के अत्यन्त गहमागहमी से भरे हुए वर्ष थे। 1962 में ‘ग्रुप 1890’ के सदस्य एक अनौपचारिक वातावरण में भावनगर (गुजरात) में कलाकार ज्योति पंड्या और उनके पति के घर में एकत्र हुए थे। जब ‘ग्रुप’ का नाम रखने की बारी आयी, इन कलाकारों को यह सूझा कि ‘ग्रुप’ का नाम उस घर के नम्बर पर ही क्यों न रख दिया जाये जहाँ वे एकत्र हुए हैं। लगभग वर्ष भर बाद ग्रुप की जो प्रदर्शनी ललित कला की दीर्घाओं में दिल्ली में हुई, उसका उद्घाटन किया था तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू ने। चित्रकार अर्पिता सिंह याद करती हैं कि नेहरु की ‘उपस्थिति’ के कारण चित्रों के पास गुलाब का एक फूल भी रखा गया था। इस अवसर पर पाज़ की उपस्थिति भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी। उस प्रदर्शनी की जो छवियाँ उपलब्ध हैं उनमें स्वामी प्रायः सभी में मौजूद हैं। एक दिलचस्प तस्वीर वह है, जिसमें जवाहरलाल नेहरु, मूर्तिशिल्पी और ‘ग्रुप 1890’ के सदस्य राघव कनेरिया का मूर्तिशिल्प देख रहे हैं और स्वामी तथा कनेरिया भी मूर्तिशिल्प की ओर इस भान के साथ निहार रहे हैं कि वह नेहरु द्वारा देखा जा रहा है। मूर्तिशिल्प के एक ओर नेहरू हैं, दूसरी ओर है स्वामी का छोटा बेटा हर्षवर्धन जिसे प्यार से सब हर्षा पुकारते रहे हैं और अब भी वह आत्मीयों के बीच इसी नाम से जाना जाता है, वह मानो नेहरू और मूर्तिशिल्प को उत्सुक निगाह से एक साथ देख रहा है। साफ़ पैण्ट-शर्ट में, बाकायदा बेल्ट सहित, जूते-मोज़ों में, उसकी चुस्ती-फुर्ती भी तस्वीर में चली आयी है। इस तस्वीर प्रसंग से यह याद भी स्वाभाविक रूप से हो आती है कि अनन्तर या लगभग उन्हीं दिनों में पाज़ और स्वामी के रिश्ते पारिवारिक हो चुके थे। स्वामी जब चाहें पाज़ के यहाँ, राजनयिकों वाले ‘प्रोटोकॉल’ को पार करके, जा सकते थे। अपने एक ऑटो बायोनोट में स्वामी ने स्वयं पाज़ से अपनी मुलाकात और उनसे अपने सम्बन्ध को याद किया हैः ‘पाज़ के साथ मेरी भेंट मेरे जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण और बड़ी घटना थी। विवान सुन्दरम् ने हम लोगों को बताया कि उस वक़्त मेक्सिको के जो राजदूत भारत में थे, वह बड़े अच्छे कवि हैं, और अगर वे हम लोगों की प्रदर्शनी पर कुछ कहें-लिखे तो बहुत अच्छा होगा। हम उनसे मिलने गये और दोस्त बन गये। आक्तोविओ उन दुर्लभ प्रतिभाओं में हैं जो किसी के भीतर ढकी-छिपी संवेदना, बुद्धिमता और गुणों को ऊपर ले आने की क्षमता रखते हैं और बराबरी का व्यवहार करना जानते हैं। उनसे मिलना और बातचीत करना, मानो अपने को भी नये सिरे से पहचानना था- एक ऐसी प्रक्रिया में पड़ना था जहाँ से, आप अपनी एक आन्तरिक खोज शुरू करते हैं। मैं उनके कार्यालय, किसी भी समय चला जाता था और उस विषय पर बात करना शुरू कर देता था, जो उस वक़्त मेरे दिमाग़ में चल रहा होता था। कभी-कभी तो वहाँ जाना सिर्फ़ मुफ़्त की शराब पीने का एक बहाना होता था। इस तरह उनका कितना बेशकीमती वक़्त तब मैंने बर्बाद किया होगा, इसका भान तब हुआ जब मैंने उनकी ये रचनाएँ देखीं जो उन्होंने उन दिनों भारत में रहते हुए लिखी थीं।’ ज़ाहिर है इस कथन में स्वामी का पाज़ के प्रति प्रेम और आदर झलक रहा है, वरना यह मानने के सभी कारण हैं कि संवादों का जो आदान-प्रदान उन दोनों के बीच हुआ था, इससे दोनों को समान रूप से लाभ हुआ था : पाज़ ने ‘ग्रुप 1890’ के कैटलॉग के लिए टिप्पणी तो लिखी ही, अनन्तर स्वामी और उनके चित्रों पर एक कविता लिखी। और स्वामी के साथ अपने सम्बन्ध को प्रेमपूर्वक ‘इन द लाइट ऑफ इण्डिया’ में स्वयं याद भी किया है- उस समय के प्रति अपना आभार जताते हुए। स्वामी ने अपने इस ऑटो-बायो नोट में यह भी दर्ज किया है, ‘आक्तोविओ पाज़ की सलाह और मदद से मैंने कला-पत्रिका ‘काण्ट्रा 66’ शुरूआत की और हालाँकि यह थोड़े दिनो तक ही निकली और बड़ी विवादास्पद हुई।’ हम जानते है कि ‘काण्ट्रा 66’ ने कितनी महत्वपूर्ण भूमिका उस वक़्त के भारतीय कला-जगत में, विशेष रूप से दिल्ली के कला-जगत में निभायी थी और उससे शुरू हुई वैचारिकी के कितने दूरगामी परिणाम हुए हैं। सच तो यह है कि उसमें शुरू हुई बहसें आज भी बेहद प्रासंगिक बनी हुई हैं।
हम स्वामी और पाज़ के संवादों और सम्बन्ध की ओर फिर लौटेंगे, पर अभी हम चलते हैं, भवानी और स्वामीनाथन के विवाह प्रसंग की तरफ, जो फिर स्वामीनाथन के जीवन में एक ऐसा मोड़ ले आया जिसकी कल्पना भवानी और स्वामीनाथन ने भी नहीं की थी। स्वामी आजीवन भवानी से अपने विवाह को अपने जीवन की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना मानते रहे। यह विवाह जिस तरह सम्पन्न हुआ था वह अपने आप में नाटकीय तत्वों से भरा हुआ था ही, विवाह के बाद की घटनाएँ बेहद रोमांचक और सरस साबित हुईं। और आगे चलकर एक दिन वह भी आया जब कला और संस्कृति जगत में दोनों की उपस्थिति, एक-दूसरे से जोड़कर ही देखी जाने लगी। स्वामी, भवानी जी को पुकारते थे ‘तूती’ कहकर। स्वामी तो बहुतेरे युवा कलाकारों के ‘स्वामी जी’ बने ही, भवानी जी न जाने कितने युवा कलाकारों की ‘अम्मा जी’ बनीं।
हम इस प्रसंग को आगे बढ़ाने के लिए शुरू में स्वयं स्वामी के ही एक ऑटो-बायो नोट्स का सहारा लेंगे। इस नोट का शीर्षक अँग्रेज़ी में स्वामी ने ‘हनीमून फॉरेस्ट’ दिया है। यहाँ याद कर सकते हैं कि उनके ऐसे सभी ऑटो-बायो नोट्स अँग्रेज़ी में ही हैं। यहाँ उनका अनुवाद ही प्रस्तुत है। स्वामी ने इस नोट में लिखा है : ‘भवानी और मैं जून 1955 में लखनऊ में विवाह-बन्धन में बँध गये। दोनों ही परिवारों की सहमति इस विवाह को नहीं मिली थी सो हमारा कोई ठिकाना नहीं था जहाँ जा सकें। मदद के लिए मैं कामरेड डांगे के पास गया। पहले तो उन्होंने मुझे रनीगेड कहकर लताड़ा और फिर मेरे चेहरे की ओर देखकर हँसे और बोले, ‘विवाह के बाद तो हनीमून पर जाना होता है।’ उन्होंने हमें दो ट्रेन टिकट और दो सौ रुपये दिये। ट्रेन टिकट मध्यप्रदेश के बैतूल में जाने के लिए थे, जहाँ ए.आई.टी.यू.सी. (ऑल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस) का एक सेनीटोरियम था घने जंगलों के बीच, जहाँ थके-हारे-बीमार कामगर-मज़दूर आराम करने के लिए जाया करते थे। हम बैतूल पहुँचे जहाँ के स्टेशन मास्टर ने कृपापूर्वक हमें समूचा वेटिंग रूम सौंप दिया, वह छोटा-सा ही था। रात हमने वहीं गुज़ारी। सुबह देखा कि एक बैलगाड़ी हमारी प्रतीक्षा कर रही है, हमें सेनीटोरियम में ले जाने के लिए। जब हम सेनीटोरियम पहुँचे तो पाया कि कोई और नहीं स्वयं कामरेड डांगे गेट पर हमारे स्वागत के लिए खड़े हैं। उनके दोनों हाथ फूलों से भरे हुए थे।’ इसके बाद स्वामी बैतूल के अपने प्रवास को इन शब्दों में याद करते हैं।
‘बैतूल में मैंने फिर रेखाओं से कुछ न कुछ बनाना शुरू किया, कभी कोई चेहरा, कभी कोई पेड़ और कभी बस कोई चीज़ रेखाओं में आड़ी तिरछी बनी हुई-यानी ‘डूडलिंग’। एक दिन की बात है जब ट्रेड यूनियन के एक अनुभवी व्यक्ति भैय्या जी कुलकर्णी के साथ मैं जंगल में सैर कर रहा था, हम एक कोरकू आदिवासी गाँव में पहुँच गये। वहाँ जाकर देखा कि एक लड़के को साँप ने काट लिया है और एक ओझा उस पर लगातार पानी डालकर कुछ शब्दों का उच्चारण कर रहा है। हम मानो सम्मोहित से इस दृश्य को देखने लगे और हमने पाया कि शीध्र ही लड़का स्वस्थ होकर उठ-बैठा है और साँप जिसे एक मिट्टी के घड़े में कैद कर लिया गया था, उसे छोड़ दिया गया है। वह तेज़ी से बाँसों के एक घने झुरमुट में गुम हो गया। ‘इस घटना ने मुझ पर गहरा असर डाला और आदिवासी जीवन से इस परिचय के आरम्भिक प्रसंग ने आगे चलकर मेरी कला को भी प्रभावित किया।’
सम्भवतः मध्यप्रदेश से भी यह स्वामी का प्रथम परिचय था। दूसरी यात्रा हुई थी उन्हें जवाहरलाल नेहरू फेलोशिप मिलने के बाद, 1968 में। इस यात्रा में हिम्मत शाह भी उनके साथ थे। तीसरी बार 1976 में वह अशोक वाजपेयी के निमन्त्रण पर, अपनी रेखांकनों की प्रदर्शनी के साथ भोपाल गये थे। प्रदर्शनी मध्यप्रदेश कला परिषद् में हुई थी। इसका कैटलॉग हिन्दी में प्रयाग शुक्ल ने लिखा था। वह भी इस यात्रा में भवानी जी और स्वामी के साथ थे। हिम्मत शाह इस यात्रा में भी शामिल थे। फिर तो स्वामी आठवें दशक के अन्त में भोपाल आये, ‘रूपंकर’, भारत भवन के पहले निदेशक के रूप में। चौदह वर्ष तक भोपाल ही उनका ठिकाना बना रहा। भारत भवन बनने तक उनका कार्यालय मध्यप्रदेश कला परिषद् की इमारत, बाण-गंगा चौराहे पर था। फिर भारत भवन बनने के बाद भारत भवन में। इस दौरान स्वामी ने लोक आदिवासी कलाकृतियों एकत्र करने के लिए युवा कलाकारों की एक टीम बनायी, उन्हें दूर-दराज़ के इलाकों में भेजा, स्वयं तब के अविभाजित मध्यप्रदेश की यात्रा की, उसके चप्पे-चप्पे की, विशेष रूप से लोक-आदिवासी अंचलों की। इसी दैरान जनगढ़ सिंह श्याम की ‘खोज’ हुई, भूरी बाई आदि की भी। और लोक आदिवासी कला में एक नये अध्याय की शुरूआत तो उनके कारण हुई ही, स्वयं समकालीन-आधुनिक कला में एक नयी विचार-श्रृंखला का उदय हुआ। स्वामी ने आग्रहपूर्वक ‘रूपंकर’ में एक ओर समकालीन आधुनिक कला की कृतियाँ प्रदर्शित कीं, दूसरी ओर लोक-आदिवासी कला की, और जीवन के अन्त तक यह आग्रह बनाये रखा कि लोक आदिवासी कलाकार भी हमारे ‘समकालीन’ हैं, आधुनिक समकालीन कलाकारों की तरह वह भी कला-सर्जक हैं, और उनके साथ हमें हर हाल में, हर क्षेत्र में ‘बराबरी’ का ही व्यवहार करना चाहिए। इसी दौरान स्वामी ने ‘परसीविंग फिंगर्स’ नाम से अत्यन्त विचारपरक, कला के मथ देने वाले प्रश्नों पर, एक लम्बा निबन्ध लिखा, जो उनकी मेधा, उनकी सूक्ष्म दृष्टि और कला पर उनके मौलिक सोच-विचार का परिचायक है।
स्वामी के अपने विवाह प्रसंग पर लिखे गये एक नोट के सहारे हम बहते हुए यहाँ तक आ गये हैं, पर भवानी-स्वामीनाथन प्रसंग में अभी कहने को बहुत कुछ शेष है। भवानी को स्वामी ने पहली बार अपनी ही एक छोटी-सभा में प्रथम पंक्ति में बैठे हुए देखा था, जैसा कि वह कभी-कभी उस प्रथम-दर्शन के क्षण को याद करते थे-स्वामी ने भवानी जी के प्रति एक गहरा आकर्षण महसूस किया था।
जिस सभा में स्वामी ने पहली बार भवानी पाण्डे (सुपुत्री रेवाधर और दमयन्ती पाण्डे) को देखा था वह 1952-53 के आम चुनावों की एक सभा थी, जिसे स्वामी सम्बोधित कर रहे थे। उस वक़्त वह कामरेड विमला कपूर के कैंपेन मैनेजर थे, जो करोल बाग निर्वाचन क्षेत्र से उम्मीदवार थीं। स्वामी ने दर्ज किया है कि उन दिनों वह दिन में पोस्टर बनाते थे, रात में उन्हें दीवारों पर चिपकाते थे, सुबह किसी चौक-चौराहे पर शाम की जन-भाषणों की घोषणा करते थे, उनके बारे में लोगों को बताते थे और अगर कभी कोई नेता उपल्ब्ध नहीं होता था, स्वयं सभाओं को सम्बोधित करते थे।
वह लिखते हैं - ‘ऐसी ही एक सभा में भवानी को देखा था। लोगों के बीच, मंच के सामने, प्रथम पंक्ति में और वह चेहरा ऐसा था जो मेरे जीवन को बदल देने वाला था, जीवन की राहों में सम्बल बनने वाला था, और मेरी नियति को तय करने वाला था। वह चेहरा शान्त और निरभ्र था, वह एक यक्षिणी की तरह बैठी सुन रही थी और मैं प्रेम के पंखों पर सवार उड़ रहा था, मंच से परे, लोगों और पेड़ों के पार, चाँद और सितारों के परे। फिर शुरू हुआ, वह झंझावाती दौर जब मैं भवानी को पत्र लिखता था, पहुँचाती थीं उन्हें खुशी-खुशी पार्टी की स्त्री कार्यकर्ता! मुझ पर यह आरोप भी लगा कि मैं अपने निजी हितों के लिए पार्टी का इस्तेमाल कर रहा हूँ।’ स्वामी ने इसी दौर में या इसके कुछ बाद भवानी जी के कई रेखाचित्र बनाये। भाव भरे। उनके रूप और गुण को उभारने वाले। इनमें से चार ‘ट्रांजिट्स, ऑफ ए होल टाइमर’ प्रदर्शनी के कैटलॉग में प्रकाशित हैं।
विवाह और बैतूल के बाद, दिल्ली लौटने की बारी आयी, स्वामी और भवानी जी को आश्रय मिला स्वामी की बड़ी बहन जमुना के यहाँ। उनके पति पत्रकार थे- वी.बालासुब्रमनिअम् और वे लोग कनॉट प्लेस में पुरानी हिन्दुस्तान टाइम्स बिल्डिंग के एक फ़्लैट में रहते थे। स्वामी और भवानी जी यहाँ अपने पुत्र कालिदास के जन्म से कुछ पहले तक रहे। जब स्वामी के माता-पिता तक यह खबर पहुँची कि भवानी माँ बनने वाली हैं और इस नाते वे लोग दादी-दादा तो स्वामी की माँ आकर भवानी जी और स्वामी को घर ले गयीं। कालिदास के जन्म ने उस कटुता को ख़त्म कर दिया जो स्वामी के माता-पिता के मन में भवानी के साथ स्वामी के विवाह से उपजी थी। और यह जानना तो बहुत मर्म भरा है, अपने आप में मानवीय सम्बन्धों के उतार-चढ़ाव के बारे में भी बहुत कुछ बताता है कि स्वामी के पिता जो स्वामी-भवानी के विवाह के सख़्त खिलाफ थे, वही भवानी उनकी सबसे प्रिय पुत्र-वधू बनीं।
जहाँ तक स्वयं भवानी-स्वामी के सम्बन्धों का सवाल है तो उस सम्बन्ध में कई गिले-शिकवों के बावजूद, एक अटूट धारा ऐसी रही है, जहाँ दोनों ने एक-दूसरे की चिन्ता करना कभी नहीं छोड़ा और भवानी जी को तो इस सिलसिले में स्वामी-भवानी के आत्मीय जन, हमेशा ही विशेष आदर के साथ याद करते रहे हैं। वह एक जीवट वाली, लोगों का सत्कार करने वाली और स्वामी की मनमौजी ‘लहरों’ और प्रवृत्तियों को अन्ततः झेलनेवाली रही हैं। जिन लोगों को उनकी मुक्त-मन हँसी की याद है, जिनमें से एक प्रयाग शुक्ल, उनकी पत्नी तथा बेटियाँ भी हैं- वे इसे भूल ही नहीं सकते कि कितने खुले मन से वह जीवन को, उसके उतार-चढ़ावों को, स्वीकार करने वाली रही हैं, और अपने व्यक्तित्व की गरिमा और शालीनता को जिन्होंने कभी मानो कोई आँच नहीं आने दी, परिस्थितियाँ कैसी भी रही हों। उनकी यही गरिमामयी उपस्थिति, किसी प्रदर्शनी के उद्घाटन अवसर पर, किसी राजनयिक रात्रिभोज में, किसी कला-साहित्य के आयोजन में, सराहने योग्य रही है। और ऐसे किसी अवसर पर आप उपस्थितों में बहुतों के मुँह से यह सुन सकते थे, ‘स्वामी और भवानी जी’ आ गये। वे दोनों बरसों-बरस ‘संयुक्ताक्षर’ की तरह साथ रहे हैं। वे स्वामी के केवल ‘पीकर’ पेट भर लेने से दुःखी होती थीं, उनके भोजन न करने पर उलाहना देती थी, पर अगर आत्मीय मित्र घर पर आये हों और सहसा पता चले कि अब ड्रिंक करने के लिए और कुछ नहीं बचा है तो वही थोड़ी-बहुत कहीं बची हुई रम ढूँढ़कर देने वालों में रही हैं।
सभी के दाम्पत्य जीवन में कुछ कम-ज़्यादा खट्टे-मीटे क़िस्से होते हैं, स्वामी-भवानी के जीवन में उनकी कमी कभी नहीं रही है। ऐसे क़िस्से चित्रकार शान्ति दवे और उनकी पत्नी सुशीला जी के पास ढेरों हैं, जो उनके अत्यन्त निकट रहे हैं। वैसे क़िस्से हिम्मत शाह के पास भी हैं। ‘अम्बादास-हेगे’ के पास भी रहे हैं। स्वामी की मित्र-मण्डली बहुत बड़ी थी, उनके शुभचिन्तकों-प्रशंसकों की संख्या भी बहुत बड़ी थी और जब-तब वे प्रीति और आदरपूर्वक ही कुछ क़िस्सों का साझा भी करते रहे हैं, बोलकर ही नहीं, लिखकर भी और इस सिलसिले में हिन्दी के अत्यन्त समर्थ लेखक कृष्ण बलदेव वैद का स्मरण सहज ही हो आता है जिनका स्वामी पर लिखा हुआ संस्मरण तो अपूर्व ही है। यह स्वामी पर प्रकाशित ललित कला अकादमी के कैटलॉग में प्रकाशित हुआ था। निर्मल वर्मा भी ‘स्वामी भवानी’ के जीवन के निकट साक्षी रहे हैं, और एक ज़माने के वे युवा-अखिलेश, अर्चना, यूसुफ, जया-विवेक, पाटीदार, हरचरन सिंह भट्टी, डैविड, अनवर, आदि जिन्हें स्वामी ने भारत-भवन बनने के दौरान अपनी खोजी टीम का सदस्य बनाया था, और वे और भवानी जी जिनके ‘अभिभावक’ की भूमिका में आजीवन रहे-वे भी तो न जाने कितने संस्मरण सहेजे हुए हैं। एक से बढ़कर एक मधुर, कुछ मज़ेदार। दिलचस्प भी। जिनसे दोनों के-यानी भवानी जी और स्वामी के एक-दूसरे के प्रति समर्पित भाव की बानगी सहज ही मिल जाती है। इनमें से कुछ को हम यथास्थान दर्ज करेंगे।
(स्वामी उन दुर्लभ व्यक्तियों में से थे, जो एक साथ ‘सेरेब्रल’, रोमांटिक, भावना भरे, प्रेमपूर्ण, यहाँ तक कि भावुक ‘रूपों’ के धनी थे। इनमें से कब कौन-सा रूप सहसा ऊपर आ जायेगा, कहना कठिन था। किसी बहस-विवाद-संवाद में उनका बुद्धि वैभव देखते ही बनता था, और अगले ही क्षण वह कब किसी चीज़ पर भाव-भरे ढ़ंग से प्रतिक्रिया करके, तदनुरूप आचरण करने लगेंगे, कोई नहीं जानता था। यह भी होता ही था कि किसी अत्यन्त रोचक, उत्तेजनापूर्ण बहस के बीच अगर उन्हें यह याद आ जाती थी कि अरे अमुक ड्राइवर तो उनकी प्रतीक्षा में बिना खाये-पिये गाड़ी में बैठा होगा तो वह बेचैन हो जाते थे। इसी तरह किसी अन्तरंग गोष्ठी में अगर सहसा वे किसी मित्र के छोटे-से लड़के-लड़की को ऊबते देख लेते थे तो बस उसी से मुखातिब हो जाते थे। शेष बातें धरी रह जाती थी। एक बार मैं और मेरी बड़ी बेटी अंकिता स्वामी के यहाँ सुबह कोई दस-ग्यारह बजे पहुँचे थे। हुआ यह था कि मैंने नया-नया दुपहिया स्कूटर खरीदा था, उसमें तब आठ-नौ बरस की अंकिता को बैठाकर, घूमना-घुमाना बहुत अच्छा लगता था। रविवार का दिन था, सोचा स्वामी के यहाँ चलते हैं। तब वे साउथ एक्सटेंशन में रहते थे। वहाँ पहुँचे तो पाया कि किसी सिलसिले में शंखो चौधरी उनसे मिलने आये हुए हैं। कुछ और लोग भी थे। भवानी जी सबके चाय-नाश्ते का प्रबन्ध कर रही थीं। हमें देखकर स्वामी-भवानी जी प्रसन्न हुए। हम भी उस अन्तरंग गोष्ठी का हिस्सा बन गये। पर, कुछ ही देर बाद स्वामी ने पाया कि अंकिता चुपचाप बैठी है, बीच-बीच में इधर-उधर देख लेती है। उसे कुछ फुसलाते- बहलाते हुए वे उठकर भीतर गये, कैनवास का एक टुकड़ा और रंग-ब्रश लेकर आये, और बोले ‘कुछ बनाओ’। जैसा कि बच्चों के साथ होता है, उसे स्वामी से मिला ममत्व और महत्व कुछ इतना रास आया कि वह तल्लीनता के साथ चित्र बनाने में जुट गयी। हम सब कुछ बातें करते रहे पर स्वामी का सारा ध्यान मानो अंकिता की चित्र-विधि में ही लगा हुआ था। बीच-बीच में वह इसे बिना ज़्यादा डिस्टर्ब किये हुए ‘वाह’ या ‘सुन्दर’ जैसा कुछ कह देते थे। जब चित्र पूरा हो गया तो स्वामी ने उसकी तारीफ़ की और कहा मैं भी इसकी नक़ल करूँगा। अंकिता का मन खिल गया था। यह उसकी पहली कैनवास-कृति थी। इसमें उसने कॉटेजनुमा एक घर बनाया था। हम इस घटना को भूल भी जाते, उस चित्र को भी, अगर कुछ ही दिनों बाद हम सबको चौंका देने वाली एक घटना और न घटी होती।
दरअसल, इस घटना के बाद स्वामी की जो प्रदर्शनी धूमिमल गैलरी में हुई, उसे देखने हम सब हमेशा की तरह पहुँचे थे। मेरी पत्नी ज्योति, मेरी दोनों बेटियाँ। गैलरी में हमारे प्रवेश के साथ ही स्वामी सबसे प्रेम से मिले, फिर एकदम से पलटे, भीतर की ओर गये, और वही छोटी-सी पेंटिंग जो अंकिता ने उनके यहाँ बनायी थी, उसे ले आये। एक सुन्दर, सुनहरे फ्रेम में उसे उन्होंने मढ़वा दिया था। अंकिता बहुत खुश हुई। हम सब भी। यह पेंटिंग हमारे घर में वर्षों टँगी रही। अंकिता के विवाह के बाद, हमने यह पेंटिंग उसे दे दी। अब वह पेंटिग कोई चालीस वर्ष पुरानी हो गयी है।
यह घटना यह बताने के लिए भी दर्ज की है कि स्वामी के प्रेरक व्यक्तित्व का एक सुन्दर आत्मीय आभास मिले। ऐसी ही न जाने कितनी और घटनाएँ घटी होंगी, कुछ तो ऐसी भी कि किसी व्यक्ति का जीवन ही बदल जाये। जनगढ़ सिंह श्याम और भूरी बाई को जो रंग और कागज़ स्वामी ने थमाये, वे तो मानो एक कला-युग की निर्मिति का आधार बने। लोक-आदिवासी कलाकारों और कला को एक प्रतिष्ठा ही स्वामी के कारण नहीं मिली, स्वयं उनके लेखन-चिन्तन से जिन विचारों का प्रकटन हुआ, वे अब भारतीय कला की अमूल्य निधि बन गये हैं। उनके विचारों और काम का प्रभाव प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कई रूपों में लक्ष्य किया जा सकता है। अगर इसे अतिरंजना या अतिशयोक्ति न समझा जाये तो कहने का मन होता है कि तैयब मेहता जब शान्ति निकेतन पहुँचे और वहाँ के सन्थालों की दुनिया से उनका परिचय हुआ और उनके काम में नयी विधियाँ और एक नयी ऊर्जा प्रकट हुई तो कहीं न कहीं, स्वामी जो काम भारत भवन में कर चुके थे, उसकी प्रेरणा भी उसके पीछे काम कर रही थी। दरअसल स्वामी, ‘काण्ट्रा’ और ‘ग्रुप 1890’ के सदस्य कलाकारों ने अपने काम और विचारों से भारतीय आधुनिक-समकालीन कला को कुछ नये सन्दर्भ, संवाद और बिन्दू सर्जना के लिए सौंपे, जिनके दूरगामी परिणाम हुए हैं।
स्वामी के व्यक्तित्व में ज़िद्द और हठ की प्रवृत्तियाँ शामिल रही हैं। कुछ चीज़ों के प्रति पैशन भी उनमें मानो कूट-कूट कर भरा था। उन्हीं में से एक था कविता के प्रति पैशन। स्वयं तो वह कवि थे ही। स्वामी आग्रहपूर्वक कविताएँ सुनते थे, कवियों से और स्वयं कविताएँ सुनाने में भी उन्हें रस आता था। उर्दू कवियों में से कुछ की कविता के प्रेमी थे और जिगर मुरादाबादी के तो वह मुरीद ही थे- ‘एक आग का दरिया है और डूब के जाना है...’ जैसी पंक्तियाँ उनकी प्रिय पंक्तियों में थीं। जब वह पचास-साठ के दशक में ‘लिंक’, ‘पैट्रियट’ में काम करते थे तो अपने कमरे में उन्होंने ‘बच्चन’ की ये पंक्तियाँ टाँक रखी थी- ‘समय मुझको नष्ट करता, मैं समय बर्बाद करता।’ महादेवी वर्मा की पंक्तियाँ भी वह गुनगुनाते-सुनाते थे। उनके मुँह से शाम की गोष्ठियों में महादेवी जी की ये पंक्तियाँ अकस्मात ही सुनने को मिलती थी- धीरे-धीरे उतर क्षितिज से आ वसन्त रजनी/तारोंमय नव वेणी बन्धन शीश फूलकर शशि का नूतन, मुक्ताहल अभिराम बिछा दे, चितवन से अपनी/पुलकती आ वसन्त रजनी।’ इसे सुनाते हुए स्वामी सचमुच पुलकित हो उठते थे। उनके जीवन में एक क्षण वह भी आया कि महादेवी जी से उनकी भेंट हुई, भारत भवन में। वह जब भारत भवन आयीं तो उन्होंने स्वामी द्वारा परिकल्पित-चित्रित व हिन्दी कविता के एक पोर्टफोलियों का लोकार्पण किया, और उस पोर्टफोलियो की प्रशंसा में भी कुछ शब्द उन्होंने कहे, यह भी जोड़ा, ‘इस लड़के ने इसे बनाने में बड़ी मेहनत की है।’ स्वामी, अपने लिए ‘लड़के’ सम्बोधन से बड़े प्रसन्न हुए, मानो उन्हें ‘युवा’ और ‘किशोर’ होने की प्रौढ़ावस्था में कोई उपाधि मिल गयी हो।
एक बार, जब मैं, स्वामी के साथ मध्यप्रदेश के कई इलाकों में घूमा था- उस समय जब वह ‘रूपंकर’ के लिए लोक-आदिवासी कला और कलाकारों की खोज में थे, तो एक दुपहर हम एक जगह रुके थे, यों ही कुछ विश्राम के लिए। हम एक जीप में यह यात्रा कर रहे थे, जिसे उनका चालक राम प्रकाश चला रहा था। राम प्रकाश अब भी भारत भवन में काम करता है और स्वामी से जुड़ी उसकी यादें भी हम आगे दर्ज करेंगे, पर अभी तो मैं उस दुपहर की बात करूँगा, जब हम एक ओर सड़क किनारे दरी-चादर बिछा कर बैठ गये थे। इस सबका भी पूरा इन्तज़ाम रहता था, कुछ खाने-पीने का भी। और बड़ी मुस्तैदी से राम प्रकाश हर चीज़ का ध्यान रखता था। सड़क किनारे की उस सुनसान-सी जगह में हम बैठे तो अपने झोले से कुछ चीज़ें निकालकर मैं दरी में रखने लगा-यह देखने के लिए उसमें क्या-क्या मैंने रख लिया था। झोले से निराला का संग्रह ‘अपरा’ भी निकल आया था, जो मैंने उस यात्रा में इस इच्छा से साथ रखा था कि उसे फिर से पढ़ूगाँ। उस पर स्वामी की नज़र पड़ी, बोले कुछ सुनाइये, ‘मैंने एक कविता पढ़नी शुरू की, जिसमें यह पंक्ति आती हैः ‘तिमिर रात के तिरकर ज्यों न तिरे, चन्द्र रह गया ढका’ ... स्वामी बोले, ‘रूकिये, रुकिये’ ..अंधेरे को, तिमिर को ‘निराला’ ने बहुबचन में रखा है और कैसी इमेज बन रही है...हम दोनों थोड़ी देर तक चुप रहे। दुपहर के प्रकाश में स्वामी मानो तिमिर को नहीं तिमिरों को तिरता हुआ देखने लगे थे, उन्हीं के साथ मैं भी...
कवियों से स्वामी की सहज ही दोस्ती हो जाती थी, बशर्ते उनकी कविताएँ उन्हें पसन्द आएँ। हिन्दी कवियों में श्रीकान्त वर्मा, कमलेश, अशोक वाजपेयी उनके अत्यन्त निकट रहे हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को वह मित्रवत मानते थे, और एक बार तो उन्हें अपनी प्रदर्शनी का उद्घाटन करने के लिए ही आमन्त्रित किया था। स्वामी ने कुछेक बार, या कहें जब-जब सम्भव हुआ, अपनी प्रदर्शनी के उद्घाटन अवसर पर कविता-पाठ का कार्यक्रम रखा।
जिनसे उनके मित्रवत सम्बन्ध हो जाते थे उनको भी उनकी रुचियों का स्वाद भरपूर ही मिला करता था। मसलन वे उनको कविता के घेरे में तो ले ही आते थे, अपने उन प्रियजनों के बारे में भी बताते थे, जिन्हें हो सकता है कि उनका कोई मित्र ठीक से जानता भी न रहा हो। उनके सभी मित्रों और आत्मीयों को इसी तर्क से हुसैन, रामकुमार से लेकर अम्बादास आदि के ढेरों संस्मरण सुनने को मिल सकते थे और उनके गुणों के बारे में स्वामी के कथन भी। इसी क्रम में मॉरिस ग्रेव्स, मात्ता, आक्तोविओ पाज़ जैसे कई कलाकारों, कवियों, चिन्तकों के बारे में भी कुछ न कुछ बताते रहते थे। स्वामी अपने पास, या कहें संग्रह के तौर पर, किताबें रखना पसन्द नहीं करते थे। किताब पढ़कर, किसी को भेंट कर देना ही उन्हें अच्छा लगता था। यह भी होता ही था कि यह मालूम होने पर कि अमुक किताब स्वामी ने पढ़ ली है, उनका कोई मित्र या आत्मीय उसे उनसे माँग लेता था, और वह उसी की हो जाती थी। उनकी नज़र केवल नामी-गिरामी चीज़ों पर नहीं रहती थी। यही कारण है कि आप उनसे कला-जगत के या किसी अन्य क्षेत्र के किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में भी सुन सकते थे, उसके गुण-दोष के बारे में, जो लुभावना हो, महत्व का हो और जिससे किसी मानवीय मर्म का उद्घाटन होता हो। जब स्वामी ने शिमला से आगे कोटखाई में सेबों का बगीचा और एक घर लिया, ठीक गिरिगंगा नदी के सामने तो आस पास के गाँवों और कोटखाई के कई ऐसे व्यक्ति उन्हें इतने दिलचस्प लगे कि उनसे जुड़े बहुत-से क़िस्सों और बतकहियों का उनके पास एक अच्छा संग्रह ही इकट्ठा हो गया। इस संग्रह का साझा करना उन्हें अच्छा लगता था। कोटखाई के लम्बरदार और मास्टरजी नाम के चरित्र, ऐसे ही व्यक्तियों में रहे हैं। लम्बरदार पर तो उनकी कविता भी है। दरअसल कोटखाई में लिखी गयीं या कोटखाई को लेकर वहाँ के पेड़ों-पक्षियों-गिरिगंगा आदि को लेकर लिखी गयी कविताएँ बिल्कुल अलग रंग की है।
स्वामी ने कविताएँ कब लिखनी शुरू की, इसका तो ठीक-ठीक पता नहीं है, पर अपने चित्रकार बनने के बीज ज़रूर उन्हें बचपन की एक घटना में दिखायी पड़े हैं : अपने ऑटो-बायो नोट में वह लिखते हैं : ‘मेरी मासी, पार्वती 1934 में लीड्स में अपनी पढ़ाई पूरी करके भारत लौटी थी। तब मैं छह साल का था। तब मेरी इन्हीं मासी ने रीव्स ऑयल कलर्स का एक डिब्बा मुझे भेंट में दिया था। ऑयल कलर्स की यह गन्ध तभी से मुझमें बरसों-बरस बसी रही है। दशकों बाद जब मेरे जन्म-स्थान शिमला में मेरी एकल प्रदर्शनी हुई तब मेरी ये मासी सबसे बस यही कहती रहीं कि जब मैं छोटा था तब मेरा काम अधिक अच्छा था। बचपन के उन दिनों में मैं महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस के पेंसिल स्केच बनाया करता था-उन दिनों अख़बारों में छपने वाली इनकी सिंगल कालम तस्वीरों के आधार पर। कुछ लैण्डस्केप्स भी बनाया करता था, जिनमें पेड़ों से छनने वाले प्रकाश की, धूप-छाँही छवियों की उपस्थिति भी रहती थी। जब मैं कोई चीज़ ठीक से नहीं बना पाता था तो उसका गुस्सा छोटी बहन पर उतारा करता था।’ इसी प्रसंग में, कुछ सोचकर ही, स्वामी ने अपने उन दिनों की दिलचस्पियों और शरारतों को भी याद किया है : बन्दरों की तरह पेड़ों पर चढ़ जाने को, ढलानों में लुढ़कने को, बीहड़ों में विचरने को, और हैलेन्स लॉज की अँग्रेज़ औरत के यहाँ से खुमानियों के चुराने को। याद की है डॉ. साहिब सिंह की जो घोड़े पर चढ़कर आते थे, उनकी हारी-बीमारी पर। बिशप कॉटन स्कूल के बच्चों से पंगा लेने की, हाथापाई करने की। कक्षा में डेस्क में छिपाकर उपन्यास पढ़ने की। अपनी चित्रकारी की प्रशंसा करने वाले ड्राइंग टीचर की। लगता है यह सब लिखते हुए स्वामी ऑयल पेण्ट की महक के साथ उन सब चीज़ों की याद भी कर रहे थे, जो उन्हें चीज़ों को स्पर्श करने की, अनुभव करने की अन्तरंगता की ओर ले गयीं, एक चित्रकार के नाते। शायद वह यहाँ प्रकृति के साथ अपने ‘मुक्त मन’ और मनमौजी सम्बन्ध को भी याद कर रहे थे- उस ‘स्वच्छन्दता’ को जो अन्त तक उनके स्वभाव में बनी रही। यह अलग बात है कि इस ‘स्वच्छन्दता’ में भी वह हमेशा एक लय की और चीज़ों को लिखने-बनाने की विधियों की खोज में भी रहे, और उन पर अधिकार पाने की खोज में भी। यह सोचकर उनके आन्तरिक अनुशासन की प्रशंसा भला कौन न करना चाहेगा कि मनमौजी, स्वच्छन्द और लगभग निरंकुश जीवन जीने वाले चित्रकार-कवि-चिन्तक स्वामीनाथन बेहद आर्टिकुलेट, सावधान, सजग और कई मामलों में बेहद सटीक व्यवहार करने वाले व्यक्ति और रचनाकार थे।
उन्हें अनेकों बार सीधे ही बात की तह तक पहुँचते हुए देखा है और किसी कविता या चित्रकृति की अर्थगर्भी व्याख्या करते हुए, जो वही कर सकते थे। वह भेदती हुई आँखों वाले स्वामीनाथन थे। उनकी कला और कविता में, तथा कला लेखन में एक संक्षिप्ति, एक चुस्ती हमेशा बनी रही। ‘कुछ भी अतिरिक्त’ के मानो वह खिलाफ़ थे। यह भी लगता है कि जब तक वह किसी चीज़ को पकाकर, स्वयं अपने भीतर नहीं ‘खोज’ लेते थे, तब तक उसे बाहर नहीं लाते थे। जीवन को खुली आँखों से देखते थे पर तीक्ष्ण बुद्धि जो ‘चयन’ कर सकती थी, उस पर भरोसा करते थे।
एक बार मैंने स्वामी से यह सवाल किया था कि वह मनुष्य और कला के सम्बन्ध के बारे में क्या सोचते हैं? थोड़ी देर ठहरकर उन्होंने जो उत्तर दिया था, वह पहली नज़र में एक सहज-सरल-सा उत्तर लगा था, पर, अगले ही क्षण मानो उसके गहरे निहितार्थ प्रकट हो गये थे। उन्होंने कहा था : ‘कला में मनुष्य, मनुष्य को ही सम्बोधित होता है, किसी पशु-पक्षी या वनस्पति-जगत को नहीं। उसके सोचने-करने में भले ही सृष्टि के अनेकों तत्व समा जाएँ पर वह जो कुछ भी सोचता-करता-बनाता है, वह मनुष्य को ही तो ध्यान में रखकर, उसे ही प्रेषित करता है।’
समझने में देर न लगी थी कि इस प्रकार वह मनुष्य द्वारा मनुष्य के सम्बोधन के प्रसंग में, यह भी सुझा रहे हैं कि अगर सम्बोधन खरा होगा, बुद्धि-वैभव से, रचनात्मकता से सम्पन्न, वह मानो अपने आप में गौर करने लायक होगा और अर्थवान बन जायेगा।
और अगर वह सम्बोधन खरा नहीं होगा, कैजुअल होगा और बिना सामने वाले की ज़्यादा चिन्ता किये होगा तो वह ज़ाहिर है सारवान नहीं होगा, काम का नहीं होगा। कह सकते हैं कि स्वामी ने अपने जीवन में ‘खरे सम्बोधन’ को ही चरितार्थ किया था। इसका एक बड़ा प्रमाण तो यही है कि जिनसे उनका सम्बन्ध बना या जुड़ा, वह प्रगाढ़ ही रहा। बच्चे हों, बड़े हों, मित्र हों, परिचित हों या ऐसे भी लोग हों जो उनसे कभी थोड़ी देर के लिए भी मिले हों, उन्हें कभी भुला नहीं सके। सम्बन्धों में वह प्रेम के, एक-दूसरे के प्रति लगाव और आदर के आग्रही थे और सम्बन्धों को निभाना बखूबी जानते थे।
अम्बादास की नार्वेजियाई पत्नी हेगे ने स्वामी के लिए काले-सफ़ेद की विशेष डिज़ाइन में एक स्वेटर बुना था जो स्वामी हर सर्दियों में पहनते थे। वह उन्हें खूब फबता भी था। कभी-कभी तो वह उसे तब भी पहनते हुए दिखायी पड़ते थे जब ठण्ड कम हो जाती थी। एक बार वह स्वेटर उनसे खो गया। अत्यन्त दुखी हुए। हेगे ने वैसा ही स्वेटर उनके लिए दुबारा बुना। उनका खरा सम्बोधन दूसरे को भी एक ऐसे सघन और आत्मीय घेरे में ले आता था, जहाँ जो कुछ घटित होता था, खरे ढंग से ही घटित होता था।
अम्बादास उन्हें अत्यन्त प्रिय थे और अम्बादास भी उन्हें ओस्लो (नार्वे) से प्रायः ख़त लिखा करते थे। स्वामी जवाब देने के मामले में कुछ आलसी थे और उत्तर देना टालते जाते थे पर अम्बादास की चिठ्ठियों को अपने से विलग नहीं करते थे- अपने उस चमड़े के छोटे काले बैग में हमेशा संभाले रखते थे। और उन चिठ्ठियों के बारे में मित्रों-आत्मीयों को बताया भी करते थे, कभी-कभी उनमें लिखी कुछ बातों का उल्लासपूर्वक साझा भी करते थे। ऐसा करते-करते एक दिन अम्बादास जी के आने का समय हो जाया करता था-सर्दियों में, तब स्वामी कहते ‘अब चिट्ठी का क्या जवाब देना, अम्बादास आ ही रहे हैं।’ स्वामी के मन में अपने अधूरे कामों या ऐसे कामों को लेकर जिन्हें शुरू किया जाना हो, कुछ न कुछ चला ही करता था।
जब मेरा 2009 में ओस्लो जाना हुआ तो अम्बादास-हेगे के साथ मैंने और मेरी छोटी बेटी ने दो तीन दिन बिताये-उनके घर पर तथा संग्रहालयों और शहर के कई स्थलों को देखते हुए। हमारी बातचीत में स्वामी की याद हमेशा की तरह शामिल थी। और 2011 में जब फिर मेरा ओस्लो जाना हुआ, अम्बादास जी के निधन के बाद तो हेगे स्वामी से जुड़ी यादों का साझा करती रहीं-यही कि जब स्वामी ओस्लो आये थे तो अम्बादास-हेगे के साथ उस छोटे-से द्वीप पर गये थे, जो हेगे की पैत्रृक सम्पत्ति का हिस्सा था। इस प्रसंग में यह भी याद कर सकते हैं कि अपनी कई विदेश यात्राओं में, जिनमें साओ पाओलो, नार्वे, जापान, अमेरिका आदि की यात्राएँ शामिल हैं, स्वामी कभी ज़्यादा दिन उन जगहों में नहीं रहे। पोलैण्ड में ज़रूर वह कुछ लम्बा अरसा रहे थे, पर वहाँ से भी अधबीच ही लौट आये थे क्योंकि ‘पत्नी और बच्चों के बिना उनका मन नहीं लगता था।’ पोलैण्ड वह गये थे ‘एकेडेमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स, वारसा’ में अध्ययन के लिए ‘क्योंकि पोलैण्ड अपने ‘ग्राफिक आर्ट्स’ के लिए प्रसिद्ध था और आवेदन करने पर उन्हें वहाँ प्रवेश तो मिल ही गया था, स्कॉलरशिप भी मिल गयी थी।’ बहरहाल उनकी हर विदेश-यात्रा में कोई-न-कोई घटना ऐसी घटती रही, जिसने उन पर अपनी ‘छाप’ दर्ज की और उन पर तो की ही, जिनसे ‘वह’ घटना जुड़ी हुई थी।
1968 में स्वामी को ‘जवाहर लाल नेहरू फेलोशिप’ मिली थी। इस बात का उन्हें कुछ गर्व-सा भी था कि यह अध्ययन वृत्ति पाने वाले वह पहले चित्रकार थे या इसे यूँ कहें कि पहली बार यह अध्ययन वृत्ति्ा किसी चित्रकार को मिली थी। उसी वर्ष उनका मेक्सिको जाना हुआ, पर पाज़ तब ऑस्टिन यूनिवर्सिटी, टेक्सास, अमेरिका में पढ़ा रहे थे। स्वामी की इच्छा हुई कि वापसी में ऑस्टिन जाकर ही पाज़ से क्यों न मिला जाये! पर सेण्ट अनतानिओ एयरपोर्ट पर उनके साथ एक विचित्र घटना घटी। उनकी दाढ़ी, लम्बे केश, उनकी अजब सजधज उन्हें किसी हिप्पी की छवि प्रदान कर रही थी। सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें अपने घेरे में ले लिया और दो पुलिसमैन उन्हें एक ‘एनक्लोज़र’ में ले जाकर उनकी तलाशी लेने लगे। एक-एक करके उनके सारे कपड़े उतरवा लिये गये। मिला कुछ नहीं-जबकि कस्टम अधिकारियों को यह आशंका थी कि उनके पास कोई न कोई नशीली चीज़ ज़रूर होगी। स्वामी इस तलाशी से इतना भड़के, इतना गर्म हुए कि निरपराध साबित हो जाने पर भी ज़िद करते रहे कि उन्हें वापस भेज दिया जाये, वह ऑस्टिन नहीं जाएँगे। पर कस्टम वालों को अपनी भूल का एहसास हुआ, और उन्होंने कहा, ‘वापस भेजने से पहले वह उन्हें कूलर में रखना चाहेंगे।’ स्वामी कुछ शान्त हुए और पाज़ से मिलने ऑस्टिन पहुँचे। यह दोस्ती आजीवन बनी रही। स्वामी इस दुनिया से पहले गये 1994 में और पाज़ ने अन्तिम विदाई ली 1998 में।
स्वामी उन विलक्षण लोगों में से थे जो अपने समय में दुनिया को, सृष्टि को, सभ्यताओं-संस्कृतियों को, राजनीति को, मनुष्य को, प्रकृति को, जीवन शैलियों को खुली आँखों से देखते रहे और उन्हें समझने-समझाने की चेष्टा करते रहे। वे रचनात्मक चीज़ों के ही पक्षधर थे और ‘पूर्व-पश्चिम’ के द्वन्द्व में कभी ज़्यादा नहीं पड़े- जहाँ उन्हें रचना में खरापन, कला में एक नवोन्मेषी उभार दिखायी पड़ा या किसी पुरानी चीज़ में कुछ ऐसे तत्व, जिनमें समकालीन प्रासंगिकता देखी जा सके, वे उसके साथ हो लिये। यही कारण है कि पाज़ से भी उनकी दोस्ती हुई, मॉरिस ग्रेव्स और मात्ता जैसे कलाकारों के भी वे आत्मीय बने, साथ ही लोक-आदिवासी कलाकारों से उनकी अन्तरंगता स्थापित हुई, उन्होंने भीली ‘कला’ पर भी लिखा, वे कांगड़ा मिनियेचर चित्रों की ओर भी खिंचे और भारतीय वाङ्मय की गहराईयाँ भी उन्हें अपने भीतर गूँजती हुई सुनायी पड़ती रहीं। स्वामी के विचारशील रूप की ओर, उनके चिन्तक-रूप की ओर हम कई बार लौटेंगे पर अभी तो ऊपर उल्लिखित उनके रुझानों में यह जोड़ते हुए आगे बढ़ना चाहेंगे कि ‘ग्रुप 1890’ की प्रदर्शनी जॉर्ज ब्राक को समर्पित की गयी थी और उनकी स्मृति में प्रदर्शनी के उद्घाटन अवसर पर दो मिनट का मौन भी रखा गया था। प्रदर्शनी का उद्घाटन हुआ था 20 अक्टूबर 1963 को और ब्राक की मृत्यु हुई थी 31 अगस्त 1963 को यानी ब्राक को दुनिया से गये हुए डेढ़ माह से अधिक का समय बीत चुका था, फिर भी स्वामी और उनके साथी सदस्यों को ग्रुप की पहली (और अन्तिम भी) प्रदर्शनी के अवसर पर ब्राक-स्मरण ज़रूरी लगा था।
ये प्रवृत्तियाँ यह भी बताती हैं कि स्वामी के कलाजगत में पदार्पण और उनकी सक्रियता के साथ, भारतीय ‘आधुनिक’ कला की दुनिया में कई ऐसी चीज़ें घटित होना शुरू हुई थीं, जो ठीक इन्हीं रूपों में पहले नहीं घटित हुई थीं। ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स’ ग्रुप का बनना भी समकालीन-आधुनिकता को परिभाषित करने की ओर उठाया हुआ एक कदम निश्चय ही था और उसने भी विश्वकला के साथ अपना एक सम्बन्ध जोड़ना चाहा था, पर उसमें नये के प्रति, ‘नामी गिरामी’ कलाकारों-प्रवृत्तियों की ओर एक उल्लसित उत्साह ज़्यादा दिखायी पड़ता है, ‘समझ कर’ कदम बढ़ाने की वैसी संलग्नता नहीं जो स्वामी में और उनके साथी कलाकारों में दिखायी पड़ती है। स्वामी और उनके समकालीन सहयोगी (कलाकार, लेखक, कवि, कला-समीक्षक) विश्वकला से, ‘आधुनिक विचारों’ से, जो सम्बन्ध बना रहे थे उसमें परख, चयन और तीखी टीकाएँ शामिल थे। इसके प्रमाण स्वामी के लेखन में, उनकी चर्चाओं में, चिन्तन में ‘काण्ट्रा’ के सम्पादन, ललित कला अकादेमी के उनके दिनों, अनन्तर ‘भारत भवन’ में उनके कामकाज में पर्याप्त रूप से मिलते हैं।
स्वयं ब्राक से स्वामी के विचारों का कहीं न कहीं मेल था। ब्राक ने कहा था कि ‘यथार्थ अपने को तभी उद्भासित करता है जब उस पर कविता की किरणें पड़ती हैं।’ ब्राक के रचना-रूपों, उनमें निहित सौन्दर्य-तत्वों का पूरा आभास भी स्वामी को था।
पचास के दशक के अन्तिम वर्षों से शुरू करके स्वामी ने ‘लिंक’ में, फिर ‘काण्ट्रा’ में जो कला समीक्षाएँ या कला पर टिप्पणियाँ लिखीं उनसे भी यह स्पष्ट है कि वह कला में ‘गहरायी’ के ही हिमायती थे और स्वयं भेदती नज़रों से कलाकृतियों और कला प्रवृत्तियों की ‘परख’ कर पाने में उनकी अपनी दृष्टि के साथ, देश-विदेश के कला परिदृश्य पर स्वामी की सम्यक जानकारी और समझ भी उनका साथ देती थी। उनका ज़माना ‘गूगल’ का ज़माना न था, न ही तब विश्वकला पर इतनी पत्रिकाएँ-पुस्तकें उपलब्ध थीं। स्वयं भारतीय कलाकारों और कला प्रवृत्तियों पर तब इतनी तरह से विचार-विमर्श का सिलसिला न शुरू हुआ था, और हुसैन को छोड़कर किसी अन्य कलाकार पर पुस्तकें भी नहीं आयी थीं। पर स्वामी का जो अपना मित्र-मण्डल था, उसमें जो लिखने-पढ़ने वाले लोग थे, उनके साथ संवाद से, स्वामी मानो अपने विचारों की धार पैनी करते रहते थे-कभी सहमति से, कभी विरोधी या प्रतिरोधी स्वर से। निर्मल वर्मा, के.बी. गोयल, कृष्ण खन्ना, गुलाम मोहम्मद शेख, श्रीकान्त वर्मा, गीता कपूर और अनन्तर कृष्ण बलदेव वैद जैसे लेखकों के साथ उनकी अनन्त बातें और बहसें इस सिलसिले में याद की जा सकती हैं। स्वामी का स्वभाव प्रतिरोधी भी था, जिसे अँग्रेज़ी में कॉम्बैटिव कहा गया है। गीता कपूर ने स्वामी के लिए एकाधिक बार इस शब्द का इस्तेमाल किया है। हाँ, प्रतिरोधी प्रवृत्ति उनमें थी जो एक प्रकार के जुझारुपन की ओर भी ले जाती थी। स्वामी से पहले यह स्वभाव, यह प्रवृत्ति सूज़ा में ही देखने को मिलती है। अचरज नहीं कि कई अवसरों पर इन दोनों ही जुझारु लोगों में विवाद भी हुआ। पर कला-जगत की और आम तौर पर कलाकारों की एक खूबी को याद कर लेना भी यहाँ अच्छा होगा। कई बहसों, लड़ाईयों और मुठभेड़ों के बावजूद स्वामी और सूज़ा के बीच वह पुल भी बना रहा, जिस पर चलकर दोनों एक-दूसरे से मिलते रहे और एक-दूसरे के लिए समुचित सम्मान भी रखते रहे। प्रमाण है, स्वामी के घर पर ही स्वामी और भवानी जी का वह चित्र, दोनों के पोर्ट्रेट्स का सम्मिलित चित्र जो सूज़ा का बनाया हुआ है और कई जगह प्रकाशित भी हो चुका है। स्वामी के जुझारू स्वभाव को रेखांकित करना इसलिए भी ज़रूरी है कि उस स्वभाव ने समकालीन भारतीय कला को, उसकी आधुनिक-धारा को, कई तरह से झकझोरा, चौंकाया है, और इस ओर तीव्र संकेत किया है, कई विचार-बाण छोड़कर कि हम पश्चिम प्रेरित आधुनिकता के बरक्स अपनी ‘आधुनिकता’ की सृष्टि कर सकते हैं। सच तो यह है कि एक-एक कर विभिन्न चरणों में वे अपनी चित्र-रचना से, अपने चिन्तन और लेखन से आजीवन भारतीय ‘आधुनिक-बोध’ के लिए सक्रिय रहे हैं, और आदिमता से उसे जोड़ते भी रहे हैं।
स्वामी की गहरी दिलचस्पी नृत्तत्वशास्त्र में भी रही है। इस विषय पर सोचना-पढ़ना-लिखना भी उनका होता ही था। एक समय देश के जाने-माने अर्थशास्त्री सुरेन नवलखा से उनकी चर्चा भी होती रही है। सुरेन नवलखा की भारतीय समाजशास्त्र और नृतत्वशास्त्र में भी गहरी दिलचस्पी थी। यही रुचियाँ उन्हें स्वामी के निकट ले आयी थी। पश्चिमी विचारकों से भी वह अपने ढंग से मुठभेड़, साक्षात्कार करते ही रहे हैं। साउथ एक्सटेंशन के स्वामी के घर में, सत्तर के दशक में, नवलखा से प्रायः भेंट हो जाती थी। शालीन व्यक्तित्व के धनी, कम बोलने वाले नवलखा और उनकी पत्नी बीना की उपस्थिति, उन दिनों स्वामी के घर आने-जाने वालों को अब भी याद है। मेरा ऐसा अनुमान है कि कम बोलने वाले नवलखा की स्वामी के साथ बातचीत, उस वक्त निश्चय ही अधिक हुआ करती होगी जब वे दोनों एकान्त का हिस्सा रहते होंगे। हम स्वामी के मुँह से नवलखा की कही हुई कोई बात या उनका कोई विचार भी सुनते ही थे, जब नवलखा वहाँ मौजूद नहीं होते थे।
स्वामी के विरोधाभासी व्यक्तित्व की चर्चा भी लोग करते रहे हैं। पर स्वामी का कुल व्यक्तित्व और सोच, अन्तरतम की गहराइयों में ‘एक’ था, यह मानने के सभी कारण हैं। स्वामी अपनी जीवन शैली में, लोगों से मिलने-जुलने के मामले में किसी भेद-विभेद के पक्षधर नहीं थे। कलाकार या व्यक्ति चाहे सामान्य कोटि का हो, या बुद्धि-वैभव और रचना में विलक्षण, उसके साथ ‘व्यवहार’ एक-सा हो, यही वह चाहते थे। ऐसा ‘सामाजिक व्यवहार’ स्वयं भी करते थे। पर रचना आग्रही या ‘क्रिएटिव एक्ट’ के ही आग्रही स्वामी की बारी जब किसी के बारे में लिखने-बोलने की आती थी, तो वह उसके गुणों को अलग से चिह्नित करते थे। पर स्वामी का जीवन यही बताता है कि ऐसा करते हुए, वे कई अन्य लोगों की तरह ‘ऊँच-नीच’ की कोटियाँ बनाते हुए मालूम नहीं पड़ते थे। लोगों को ‘दर्ज़ाें’ में नहीं बाँटते थे। पहले, दूसरे, तीसरे दर्ज़े की बात नहीं करते थे। बस करते थे तो यही कि किसी के रचनात्मक गुणों का एक ‘उल्लसित उत्सव’ मनाते थे, बोलने में और लिखने में इस उत्सव भाव को ‘संयमित’ कर, चीज़ों को बाकायदा ‘परखते’ हुए, परख के साक्ष्य देते हुए अपनी बात कहते थे। पर, इसे विरोधी भाषी होना तो नहीं मानेंगे। बातचीत में, चर्चा में, स्वामी एक व्यक्ति के रूप में अत्यन्त भावुक भी हो उठते थे, पर लिखने में स्वामी का अपना बुद्धिवैभव तीव्र, सूक्ष्म, गहरा हो उठता था। उनके यहाँ ‘सेरेब्रल’ और ‘इमोशनल’ की अदला-बदली सहज ही होती रहती थी। पर, यह भी लगता है कि उनका ‘सेरेब्रल’ होना कभी विराम नहीं लेता था न ही ‘इमोशनल’ होना, दोनों इतना अगल-बगल रहते थे। स्वामी इन दोनों रूपों में स्वामी ही रहते थे, कुछ इस तरह मानो उन दोनों में- ‘सेरेब्रल’ और ‘इमोशनल’ में कोई द्वैत न हो। वह ‘द्वैत’ जो बहुतेरों के यहाँ तुरन्त झलक उठता था।
स्वामी जिस दिल्ली में बड़े हुए थे और जिस दिल्ली में उन्होंने कला पर लिखना और चित्र बनाना शुरू किया था या युवावस्था की ऐन देहरी पर वह राजनीति की दुनिया में भी उतरे थे-एक सक्रिय ‘कार्ड होल्डर’ कम्युनिस्ट कार्यकर्त्ता के रूप में, वह दिल्ली, आज की दिल्ली से बहुत भिन्न थी। तब दक्षिणी दिल्ली कहीं थी नहीं, करोल बाग ही मध्यवर्गीयों और अपेक्षाकृत सम्पन्न लोगों का इलाका माना जाता था। पुरानी दिल्ली थी कलाकारों की जो दुनिया अनन्तर निजामुद्दीन-जंगपुरा होते हुए डिफेंस कॉलोनी, महारानी बाग में पहुँची, उसकी भी भनक तब ‘स्वामी की दिल्ली’ में नहीं थी। पैदल चलना आसान था। बसें कम थीं। तांगे भी हुआ करते थे। साठ के दशक तक तो चार पहियों वाले फटफटिया भी चला करते थे। आबादी भी कम ही थी। प्रदूषण था नहीं। आज की तरह जगह-जगह सिक्यूरिटी का इन्तज़ाम न हुआ करता था। अब के हर रिहायशी परिसर में तैनात सिक्यूरिटी गार्ड्स की ऐसी ‘फौज’ भी नहीं थी। मोबाईल तो थे नहीं। फ़ोन भी कुछ ही घरों-दुकानों में हुआ करते थे, और फ़ोन वाले घरों को एक स्टैटस तो सिर्फ़ इसलिए मिल जाता था कि ‘अमुक के घर में तो फ़ोन’ है। रेडियो का ही ज़माना था। दूरदर्शन जब आ भी गया था साठ के दशक के मध्य में तो वह भी तो बस कुछ ही घरों में हुआ करता था। हाँ, अखबार, पत्रिकाओं के दफ़्तर थे : हिन्दुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इण्डिया, द स्टेट्स मैन-सभी तो थे। फिर निकल आये थे पैट्रिऑट और ‘लिंक’ भी। ‘थॉट’ साप्ताहिक भी था। इनमें कला पर टिप्पणियों और समीक्षाओं की अच्छी शुरुआत हो चुकी थी-दिल्ली के कला-परिदृश्य में चार्ल्स फ़ाबरी, के.के.नायर (कृष्ण चैतन्य), केशव मलिक, रिचर्ड बार्थोलोमिओ, जया अप्पासामी, के.के. गोयल, और एस.ए.कृष्णन, शान्तो दत्ता आदि मौजूद थे, या क्रमशः जुड़ते जा रहे थे। तब कला-चर्चा की जैसी गहमागहमी, कला-समुदाय में हुआ करती थी, वह आज ईर्ष्या की चीज़ लग सकती है। जो भी प्रदर्शनियाँ, धूमिमल गैलरी, कुमार गैलरी में, या किसी होटल की लॉबी में, किसी हॉल मे, आइफैक्स, ललित कला अकादेमी (रवीन्द्र भवन) में, ‘त्रिवेणी’ आदि में हुआ करती थी, उनकी समीक्षा अखबारों में अगले दिन प्रकाशित हो जाती थी।
प्रदर्शनी देखकर, कला-समीक्षक अपनी लिखी हुई समीक्षा लेकर अख़बार के दफ़्तर में जाते थे या वहीं बैठकर समीक्षा लिखा करते थे। और अगली सुबह आने वाली उनकी समीक्षा का इन्तज़ार उस शाम से ही शुरू हो जाता था जिस शाम किसी प्रदर्शनी का उद्घाटन होता था। अगले दिन दिल्ली के कला-जगत में उन पर चर्चा होती थी और कभी-कभी तो दिनों-महीनों भी कोई समीक्षा याद की जाती थी : अपनी ‘परख’ के लिए, कोई-कोई इसलिए भी कि उससे ‘कला की राजनीति’ का कोई आभास होता था, कोई समीक्षा इसलिए भी चर्चित होती थी कि उसमें किसी क्षमतावान कला-समीक्षक और क्षमतावान कलाकार के बीच की कोई ‘मुठभेड़’ दिखायी पड़ती थी। उस ज़माने की बहुत-सी कला-समीक्षाएँ अभी भी असंकलित पड़ी हैं, और स्वयं स्वामी की वे समीक्षाएँ जो उन्होंने ‘लिंक’ या ‘पैट्रिऑट’ में कभी लिखी थीं, जल्दी से ढूँढ़े नहीं मिलतीं। गनीमत इतनी हुई कि इस बीच रिचर्ड बार्थोलोमिओ जैसे समर्थ कला-समीक्षक की लिखी हुई महत्वपूर्ण कला-समीक्षाएँ ‘रिचर्ड बार्थोलोमिओ : द आर्ट क्रिटिक’ 2012 पुस्तक में संकलित होकर सामने आ गयी हैं, जिनमें स्वयं स्वामी और रिचर्ड के बीच ‘मुठभेड़’ वाली समीक्षाएँ भी हैं। रिचर्ड की यह पुस्तक दिल्ली के (और भारतीय कला जगत) के उन दिनों पर कई कोणों से रोशनी डालने वाली पुस्तक है। इसके लिए गीता कपूर ने एक सुचिन्तित भूमिका लिखी है। इसमें कई कलाकारों, प्रदर्शनियों की तस्वीरें भी हैं, और कलाकृतियों की चित्रकृतियाँ भी। इसी तरह ‘ग्रुप 1890’ शीर्षक से इस बीच (2016) में एक और महत्वपूर्ण पुस्तक आयी है जिसमें ‘ग्रुप 1890’ के बनने की कथा है, उसके सभी सदस्यों का परिचय है और जेराम पटेल, स्वामीनाथन, हिम्मत शाह, गुलाम मोहम्मद शेख आदि पर विस्तृत लेख हैं। यह ‘दिल्ली आर्ट गैलरी’ ने प्रकाशित की है। स्वामी के बेटे एस. कालिदास ने पचास-साठ के दशक की अवधि की बहुतेरी ज़रूरी जानकारी ‘ट्रांजिस्ट्स ऑफ ए होल्टाइमर’ में एकत्र कर दी है। अँग्रेज़ी में पिछले दो दशकों में रामकुमार, सूज़ा, तैयब मेहता आदि पर जो पुस्तकें आयी हैं, उनमें भी उस ज़माने के बहुतेरे कला-जगत के प्रसंग हैं जिनका सम्बन्ध स्वामी से भी (रहा) है। धीरे-धीरे और भी सामग्री आ रही है। मसलन धूमिमल गैलरी ने अपने ‘इतिहास’ की जो पुस्तक प्रकाशित की है, उसमें भी स्वामी से जुड़ी हुई, और पचास-साठ के दशक से लेकर दिल्ली के कला-जगत पर बाद के दशकों पर भी सामग्री है। इस सबकी विस्तृत चर्चा यहाँ सम्भव नहीं है, पर, इनका कुछ और उल्लेख हम आगे भी करेंगे। यह सारी सामग्री कुल मिलाकर मानो ज़ोरदार ढंग से यह बताती ही है कि समकालीन-आधुनिक कला के ‘आकार’ लेने में स्वामी का योगदान कितना विलक्षण रहा है।
उस ज़माने की दिल्ली में अखबारों-पत्रिकाओं में कला पर जो कुछ प्रकाशित होता था, उस पर चर्चा तो होती ही थी, ‘शिल्पी चक्र’, त्रिवेणी और कॉफ़ी हाउसों-रेस्तराओं में भी कलाकारों के कुछ अड्डे सुनिश्चित थे। चौक चौराहों पर भी खड़े होकर सचमुच घण्टों बतियाने वाले दिन थे। स्वामी ने स्वयं अपने ऑटोबायो नोट में लिखा है कि हम अजमलखाँ रोड, करोल बाग के चौराहे पर खड़े-खड़े ही बहुत देर तक बतियाया करते थे।
तब कलाकारों के काम कम ही बिकते थे- कभी-कभी किसी दूतावास से कोई राजनयिक या कोई कला-प्रेमी कोई काम खरीद लेता था तो कुछ दिनों तक उस काम के बिक जाने की भी कला-जगत में चर्चा हुआ करती थी। ऐसे कई क़िस्से कला-जगत में अब भी कभी-कभार सुनने को मिलते हैं, जब किसी कलाकार का काम बिकने पर मित्र कहते थे, ‘पार्टी दो’ और उस कलाकार के ‘पार्टी देने’ में उस राशि से ज़्यादा राशि खर्च हो जाती थी, जितने में कि उसकी कलाकृति खरीदी गयी होती थी। ऐसा ही एक क़िस्सा निजी बैठकों में, और दो-एक बार सार्वजनिक रूप से भी चित्रकार रामकुमार सुना चुके हैं। एक बार उनकी एक पेंटिंग बारह सौ रुपये में बिकी। कृष्ण खन्ना और उनके अन्य मित्रों ने कहा, ‘पार्टी होनी चाहिए।’ जो पार्टी कनॉट प्लेस के एक रेस्तराँ में हुई, उसमें हुआ यह कि जितने में रामकुमार की पेंटिंग बिकी थी, उससे अधिक पैसे उनके उस पार्टी में खर्च हो गये थे।
(पर उस वक़्त कला की दुनिया में ही बने रहने की, कुछ कर गुज़रने की और कला में अपना रचनात्मक संसार ढूँढ़ने की ऐसी लगन थी कि सब कुछ मंजूर था, पर कला की दुनिया के भीतर रहकर ही। स्वयं स्वामी इस बात का ज्वलन्त उदाहरण हैं। कैसी भी, कोई विपरीत परिस्थिति, और आर्थिक तंगी उन्हें कला की दुनिया से डिगा नहीं सकी जिसमें बने रहने का उनका संकल्प सोचा-विचारा हुआ था, आत्म-संकल्पित तो था ही।
एक बड़ी राहत थी तो यही कि जो भी कलाकार मित्र थे, वे एक दूसरे की चिन्ताओं और समस्याओं को मन ही मन मानो नोट करते रहते थे। और अवसर आने पर उनका कुछ न कुछ समाधान भी करते थे। रामकुमार और स्वामी दोनों ही एक समय करोल बाग में रहते थे। अक्सर भेंट हो ही जाती थी। एक प्रसंग यह कि रामकुमार कुछ दिनों तक स्वामी की फटी हुई चप्पलों को देखते रहे थे। एक दिन जब स्वामी अकस्मात उन्हें मिल गये तो कुछ देर तक स्वामी के साथ बतियाने के बाद रामकुमार बोले, ‘मुझे चप्पलें खरीदनी हैं अपने लिए...’ और यह कहते हुए स्वामी के साथ ही उन्होंने जूतों-चप्पलों की एक दुकान में प्रवेश किया। कुछ चप्पलें जाँची परखी गयीं। फिर रामकुमार ने स्वामी से कहा, ‘ज़रा यह पहनकर देखो, कैसी लगती है।’ स्वामी के पैरों में उनके पहुँच जाने पर बोले, ‘अच्छी लग रही हैं। अब चलते हैं।’ स्वामी कुछ कह पाते इससे पहले ही रामकुमार ने स्वामी की पुरानी चप्पलें पैक करवायी, नयी चप्पलों का भुगतान किया और दोनों बाहर आ गये। रामकुमार कहते हैं कि, ऐसा इसलिए करना पड़ा था कि अगर स्वामी से कहता, चलो अपने लिए नयी चप्पलें ले लो, स्वामी कभी न मानते। ऐसी ही कई अन्य घटनाएँ भी सुनी हैं, उन दिनों की। जेराम पटेल और अम्बादास भी कुछ समय करोल बाग में रहे थे। और साठ के दशक के उन आरम्भिक वर्षों में ‘ग्रुप 1890’ को स्थापित करने की बहुतेरी चर्चा भी तभी हुई थी। एक दूसरे के यहाँ आना-जाना रहता ही था, एक दूसरे की किसी विपरीत परिस्थिति में साथ खड़े होने का भरोसा भी रहता था। राजेश मेहरा भी स्वामी के उन्हीं दिनों से मित्र रहे हैं। वे भी स्वामी के जीवन के कई तरह के उतार-चड़ावों के साक्षी रहे हैं।
स्वामी के पत्रकार जीवन के शुरुआती दिनों के साथी अरविन्द कुमार, जो ‘सरिता’ से होते हुए टाइम्स ऑफ इंडिया की फ़िल्म पत्रिका ‘माधुरी’ के सम्पादक बने, और अब जिनकी ख्याति एक कोशकार के रूप में हैं, उनके पास भी स्वामी के कई संस्करण हैं जिन्हें हम आगे दर्ज करेंगे। पुराने दिनों के प्रसंग किसी भी लेखक-कवि-कलाकार के ‘व्यक्तित्व’ और उसके स्वभाव-स्वरूप के बारे में कुछ न कुछ बताते ज़रूर हैं, इसीलिए संस्मरणों का अपना एक महत्व सर्वस्वीकार्य है पर सच्चाई यह भी है कि किसी भी व्यक्ति या कलाकार की मूलभूत बनावट और उसकी आन्तरिक बेचैनियाँ और आनन्द, कभी पूरी तरह व्यक्त नहीं किये जा सकते। समीक्षक- आलोचक-संस्मरणकार-जीवनीकार जब किसी व्यक्ति-कलाकार को ‘घेरना’ चाहते हैं, वह बार-बार उनके हाथ से फिसलता हुआ लगता है। फिसलने का एक कारण यह भी होता ही है कि किसी के भी व्यक्तित्व की बनावट का एक मूल-स्व-रूप (कोर) भले होता हो, पर किसी का भी जीवन कोई ठहरी हुई धारा होता नहीं है, उसकी तुलना सतत प्रवाहित धारा से ही की जा सकती है। और स्वामी जैसे व्यक्ति और कलाकार का अत्यन्त सक्रिय, क्रियाशील दिमाग़ और दिल तो अपने को मानो लगातार एक प्रवाह में रखता था और कुछ न कुछ बुनता भी रहता था। अपने को कई तरह से पुनर्नवा करता रहता था। उसके विचारों में परिवर्तन भी होता था जो किसी ‘विचलन’ की जगह प्रज्ञा और जीवनी शक्ति का एक नवोन्मेष हुआ करता था। इस सिलसिले में ‘काव्य तत्व’ शीर्षक की बांग्ला के अप्रतिम कवि शंख घोष की एक कविता याद आती है :
कही थी कल क्या यह बात?
सम्भव है, लेकिन नहीं मानता उसे आज।
कल जो था मैं, वही हूँ मैं आज भी
इसका प्रमाण दो।
मनुष्य नहीं है शालिग्राम
कि रहेगा एक जैसा जीवन भर।
बीच बीच में आना होगा पास।
बीच बीच में मन भरेगा उड़ान।
कहा था कल पर्वत शिखर ही है मेरी पसन्द
सम्भव है मुझे आज चाहिए समुद्र ही।
दोनों में कोई विरोध है नहीं
मुट्ठी में भरता हूँ पूरा भुवन ही।
क्या होगा कल और आज का योग
करूँगा भी तो करूँगा वह बहुत बाद में।
अभी तो रहा हूँ मैं सोच यही-
फुर्ती यह आयी कैसे विषम ज्वर में।
सो, स्वामी बहुतों के हाथ से फिसलते भी रहते थे, कभी ‘पकड़’ में भी आते थे और इन्हीं क्षणों में वे कुछ ऐसा कह-कर देते थे कि दूसरा ‘लाभान्वित’ महसूस करता था। विविध विधाओं में, विविध माध्यमों में, विविध प्रकारों से स्वामी ने इतनी तरह के काम किये हैं कि उनकी गिनती अचरज में डाल सकती है। राजनीतिक कार्यकर्ता से लेकर चित्रकार, सम्पादक, कवि-कला लेखक-पत्रकार, और जासूसी उपन्यासों के उपन्यासकार तक स्वामी ने जो यात्रा अपने जीवन में तय की, वह बेहद रोमांचक रही है। फिर, उनका एक रूप ऐसे व्यक्ति का भी रहा है जो कम से कम तीन भाषाओं में अपने को व्यक्त करता था- तमिल, हिन्दी, अँग्रेज़ी में। थोड़ी बहुत बांग्ला भी वे जानते ही थे। जब मैंने ललित कला अकादेमी के लिए 1979 में ‘कला समय समाज’ नाम से एक पुस्तक सम्पादित की, इच्छा हुई कि स्वामी उसकी भूमिका लिख दें। जब इस सिलसिले में मैं उनसे मिला और आग्रह किया कि वह भूमिका लिख दें, मैं स्वयं अँग्रेज़ी से उसका हिन्दी अनुवाद करके, उन्हें दिखा भी दूँगा, स्वामी मुस्कराये, फिर सहास्य, ‘बोले, क्यों आपको मेरी हिन्दी पर भरोसा नहीं है?’ मैं कुछ हतप्रभ-सा हुआ, पर तत्काल अपने को यह कहते सुना, ‘आप हिन्दी में ही लिखें तो इससे अच्छा और क्या होगा!’ जो भूमिका स्वामी ने लिखी उससे एक अंश यहाँ प्रस्तुत है जो उनके सुविचारित, सुगठित हिन्दी गद्य के बारे में भी बहुत कुछ कहता है, और इस बात का एक प्रमाण तो है ही कि हिन्दी, कला-चिन्तन और कला-विचार को इतनी अच्छी तरह कह और बता सकती है। स्वामी ने ‘प्राक्कथन’ की शुरुआत इस प्रकार की है, ‘मेरी ऐसी मान्यता है कि जहाँ सृजनशक्ति मनुष्य के माध्यम से अभिव्यक्ति प्राप्त करती हुई भी मनुष्यजनित व मनुष्यआश्रित नहीं, वहाँ कला मानव को ही सम्बोधित है। जहाँ सृजन-प्रक्रिया चर-अचर, सभी लोकों से संवाद स्थापित करती हुई, विकसित होती है, वहाँ कला के माध्यम से ही मनुष्य अपने और सृष्टि के बीच की अलंघ्य चुप्पी की खाई को पार पाता है। कला का मूल प्रयोजन एक ऐसे समानान्तर संसार का सृजन है, जिसमें स्वचेतन मनुष्य अहं-भाव से मुक्त होकर अपने को अनन्त रूपों में देख सकता है, अनगिनत रूपों में अपने को।’
हिन्दी में भी कामकाज करने का उनका अनुभव ‘मज़दूर आवाज’ के सम्पादन से शुरू हुआ था जो ‘सरिता’, ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ आदि में कुछ समय काम करने के साथ ‘हिन्दी पैट्रीआट’ तक चला आया था। और बाद में भी किन्हीं न किन्हीं रूपों में बना रहा था। हिन्दी के लेखकों कवियों से उनकी मैत्री, और कम से कम हिन्दी के काव्य जगत से उनके प्रेम की बात हम पहले ही कर आये हैं। ऐसी स्थिति में अगर स्वामी से मैंने यह कहा था कि ‘आप भूमिका अँग्रेज़ी में लिख दें, मैं स्वयं उसका अनुवाद हिन्दी में कर लूँगा’ तो इसके पीछे कारण यही था कि कला-जगत में अँग्रेज़ी का ही प्रयोग तब निरन्तर बढ़ रहा था जो अब बहुतेरे कारणों से अपने चरम पर है। और हम कई बार यह भूल जाते थे कि हम हिन्दी के लिए ‘ही’ या हिन्दी के लिए ‘भी’ आग्रही क्यों न हों! बहरहाल हिन्दी के प्रसंग में स्वामी से जुड़ी हुई एक बात और ध्यान में आती है। जब ‘मज़दूर आवाज़’ का पहला अंक प्रकाशित हुआ, उसकी एक प्रति लेकर वह महात्मा गाँधी को भी दिखाने के लिए पहुँचे। गाँधी ने उसे देखा, और पहली बात यही कही कि पत्रिका अगर मजदूरों के लिए है तो इसका टाइप (फ़ाँट साइज़) बड़ा होना चाहिए। स्वयं स्वामी इस प्रसंग को अकसर याद करते थे, और इस घटना की बात गाँधी-प्रसंग छिड़ने पर तो अवश्य बताते थे।
स्वामीनाथन का मन ही मन कुछ बुनना-गुनना उनके चेहरे के भावों-मुद्राओं से प्रकट होता रहता था। जानने वाले जानते हैं कि स्वामी देर तक चुप भी रह सकते थे, और मानो इस चुप्पी से सामने वाले को कुछ उकसा सकते थे कि वही कुछ कहे। और इस तरह वे दूसरों की बात सुनते ही थे, पर जब वह बोलना शुरू करते, आत्मीय गोष्ठियों में, तो कई बार वह मानो स्वयं को रोक नहीं पाते थे। कभी-कभी तो उत्तेजित स्वर में देर तक बोलते रह सकते थे। एक बात मैंने उनके साथ बिताये समय में यह भी नोट की ही है कि स्वामी की चुप्पी कई बार अलंघ्य हुआ करती थी, पर, निकट आत्मीयों के साथ वह यह रिश्ता भी बना ही लेते थे-या कहें वह अपने आप बन ही जाता था, कि उस ‘चुप्पी’ के वक़्त वह साथ बैठे व्यक्ति से ‘दूर’ नहीं चले जाते थे, और वह दूसरा भी उनके साथ की आश्वस्ति को महसूस करता था। इस ‘अलंघ्य’ चुप्पी के बाद स्वामी कभी साथ बैठे व्यक्ति की ओर पलटते थे और कभी दूर से चले आ रहे व्यक्ति, या पास से गुज़र रहे किसी व्यक्ति से कुछ कहते या पूछते हुए सुनायी पड़ते थे। तब उस ‘अलंघ्य’ चुप्पी के दौरान वह कहाँ थे, क्या सोच रहे थे, यह मानो सामने वाले के, साथ वाले के लिए, किसी भी रूप में दर्ज नहीं हो पाता था। पर, अगर वह उस अलंघ्य चुप्पी से बाहर आकर साथ बैठे व्यक्ति से कुछ कहते थे तो वह यह महसूस किये बिना नहीं रह सकता था कि कुछ गहरा, कुछ आनन्ददायी, कुछ प्रीतिकर उसने पा लिया है। आनन्ददायी या प्रीतिकर इसलिए भी कि स्वामी में खरी-खरी कहने की जो प्रवृत्ति थी, और एक शरारती भाव भी जो उनमें प्रायः बना ही रहता था, वह अचानक उनसे कुछ ऐसा कहलवा बैठता था कि आप किसी स्थिति या प्रसंग में निहित विडम्बना और व्यंग्य को पहचान कर खिलखिला भी पड़ सकते थे। खिलखिलाना इसलिए भी होता था क्योंकि स्वामी की हँसी में ‘किसी पर हँसना’ शामिल नहीं होता था- जिसके प्रसंग से कुछ कहा जा रहा होता था वह व्यक्ति मानो वहाँ गौण हो उठता था, ‘स्थिति’ की विडम्बना ही एक गहरा, पर प्रसन्न भरा, विनोदी भाव आप में उपजा देती थी। आप हँसते थे। खिलखिलाते थे। और मन ही मन उस स्थिति का ‘आनन्द,’ देर तक उठाते रह सकते थे।
भारत भवन में, अस्सी के दशक में, स्वामी और मैं एक दिन झील किनारे टहलते हुए कुछ बात कर रहे थे कि स्वामी सामने की ओर देखते हुए अचानक बोल पड़े, ‘भाई, कलाकार हो तो ऐसा, मैंने तो ऐसा कलाकार कभी नहीं देखा।‘ एक क्षण लगा यह समझने में कि इस इंगिति का पात्र मुम्बई से आयी हुई वह कलाकार हैं जो प्रदर्शनप्रिय ढंग से, हाथ में पकड़ी हुई स्केच बुक को फड़फड़ाती हुई-सी कभी कहीं बैठ जाती हैं, कभी कहीं, और कभी खड़ी होकर कुछ बनाती हैं, फिर चलने लगती हैं। उनकी ऐसी मुद्राएँ कुछ देर से मैं भी देख रहा था और उन मुद्राओं से यह तो प्रकट ही था कि वह अपने कलाकार होने को ‘जताना’ चाह रही हैं, और आसपास के लोगों का ध्यान अपनी ओर बँटाना चाह रही हैं, पर ऐसा होता न देखकर वह कभी यहाँ जा रही हैं, कभी वहाँ, यह भूलकर कि ‘स्केचिंग’ करने का यह ढंग, कोई ‘विशेष’ ढंग न लगकर एक दिखावा ही अधिक लग रहा है। स्वामी तो अपनी बात कहकर चुप हो गये, पर मेरी हँसी तो थोड़ी प्रकट, और थोड़ी मन ही मन फूटनी ही थी।
स्वामी के अनोखे अंदाज का एक प्रसंग अशोक वाजपेयी भी कई मौकों पर याद करते हैं। एक बार भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह भारत भवन आये। उनके साथ मध्यप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल भी थे। अन्य अधिकारीगण भी थे ही। भारत भवन के रूपंकर के निदेशक के रूप में स्वामीनाथन साथ चल रहे थे। भारत भवन के न्यासी सचिव अशोक वाजपेयी भी उपस्थित थे। ज्ञानी जैलसिंह चित्रों को देखते हुए बीच-बीच में कुछ टिप्पणियाँ करते जा रहे थे। अम्बादास की चित्रकृति के सामने होते ही उन्होंने कहा, ‘चित्र मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है।’ राज्यपाल ने भी सहमति में सिर हिलाया। जब ज्ञानी जी, स्वामी के ‘पेड़, पहाड़, चिड़िया’ श्रृंखला वाले चित्र के सामने हुए, तो कुछ प्रसन्न होकर बोले, ‘हाँ, यह मेरी समझ में आ रहा है।’ फिर उन्होंने पूछा, किसका है? स्वामी बोले, ‘बनाया तो मैंने ही है। पर यह मेरी समझ में नहीं आता!’ हाँ, ऐसी ही होती थी किसी ‘स्थिति विडम्बना’ पर स्वामी की कोई उक्ति!
भारत भवन के ‘स्वामी-चबूतरे’ के पास पहुँचकर बहुतों को आज भी, ऐसा ही बहुत कुछ याद आ जाता है। चित्रकार अखिलेश, जो ‘रूपंकर’ में स्वामी के सहयोगी रहे और एक युवा चित्रकार के रूप में उनके निकट भी, वह अकसर याद करते हैं कि भारत भवन में उन दिनों जब कारन्त जी (ब.व. कारन्त) कोई नाटक करते थे तो स्वामी जिन परिचित लोगों के हाथों में टिकट-पास देखकर उन्हें अन्दर जाते हुए देखते थे, उन्हें अकसर पास में बुलाकर बैठा लिया करते थे। बातें चल पड़तीं और पास में बैठा लिये गये लोगों का नाटक देखना ‘मिस’ हो जाता था। वह स्वामी का ऐसा साथ पाकर प्रसन्न होते। कभी-कभी तो ‘नाटक देखने आये थे’ यह तक भूल जाते। इस सब में स्वामी के स्वभाव का ‘शरारती किशोर’ तो शामिल रहता ही था, नाटक मात्र के प्रति उनमें जो एक वि-रत भाव था, वह भी कहीं न कहीं रहता ही था-ऐसा मानना है अखिलेश का। पर नाटक के प्रदर्शनों को लेकर, उनमें चाहे जो भी रत-विरत भाव रहा हो, समझ उनकी इस माध्यम की भी गहरी थी।
एक अन्तर्भेदी दृष्टि मानो स्वामी के पास हमेशा मौजूद रहती थी। नाक-कान भी चौकन्ने ही रहते थे। जब मैं उनके साथ कोटखाई गया था और हम कभी दिन-दोपहर या रात को उनके घर की बाल्कनी में बैठकर गिरिगंगा की ओर देखते थे तो स्वामी सहसा कुछ ऐसा देख-दिखा देते थे जिसकी ओर साधारणतः ध्यान जाता नहीं था। इसी तरह एक दिन जब एक चिड़िया को बहुत देर तक गिरिगंगा पर, और उसके किनारे पर, ऊपर मण्डराते हुए देखा तो पाया कि स्वामी का ध्यान, चिड़िया की उड़ान से अधिक उसकी परछाईं पर है, जो धूप में, स्वयं तिरती हुई मालूम पड़ती है। पहाड़ों से स्वामी का सम्बन्ध ज़ाहिर है बहुत पुराना रहा है, बचपन से ही, और उसी सम्बन्ध ने उन्हें कोटखाई में घर और सेबों का बाग खरीदने के लिए उकसाया था। घर खरीदने की, और फिर उससे मुक्त हो जाने की कहानी उलझी हुई है, विस्तार माँगती है, और आगे उसके कुछ तथ्य सामने आएँगे, पर अभी तो स्वामी के प्रकृति प्रेम पर, और स्वामी की कला से उस प्रेम के सम्बन्ध को यहाँ याद कर लेना अच्छा होगा। वन उपवन उन्हें लुभाते थे। यहीं यह भी दर्ज कर लूँ कि भारत-भवन के ‘रूपंकर’ संग्रहालय के लिए लोक-आदिवासी कलाकृतियाँ एकत्र करने के लिए जब 1980-81 में अविभाजित मध्य प्रदेश के कई आदिवासी अंचलों की यात्रा की थी स्वामी के साथ तो कोंडागाँव (बस्तर) से आगे जाकर वनों के भीतर पहुँचते ही मैंने पाया था कि स्वामी कुछ उत्फुल्ल से हो गये हैं, और उनमें जैसे एक और ‘घर’ में पहुँचने जैसा भाव जाग गया है। इसमें आदिवासी कलाकारों और उनके परिवारों से मिलने की प्रसन्नता तो थी ही, अरण्य से मिलने वाला चाक्षुष-स्वाद भी मानो सक्रिय था। जहाँ तक मेरा अनुभव रहा है, स्वामी उन प्रकृति प्रेमियों में से नहीं थे, जो किसी दृश्य-विशेष पर मुग्ध होकर उसे देर तक देखते हैं, और उनके साथ वाला व्यक्ति भी यह जान जाता है कि निगाह अमुक दृश्य पर ही टिकी हुई है, या देर तक टिकी रहने वाली है। वह कुछ देखने के लिए चुनते ज़रूर थे, कुछ पलों के लिए (जैसे कि चिड़िया की परछाईं देखने के प्रसंग का उल्लेख मैंने ऊपर किया है) पर ध्यान मानो वन-वनस्पतियों-पेड़ों-पहाड़ों-नदी-झरनों के पास होने पर उनके ‘सम्पूर्ण’ रूप पर रहता था। स्वामी की दृष्टि पर्यटकीय (टूरिस्ट) दृष्टि नहीं थी, वह तो माटी, वनस्पतियों, जल-भण्डारों, पर्वतों को बड़ी गहरी और सूक्ष्मता से अपने भीतर उतार लेती थी। इस मामले में उनकी तुलना उस भारतीय किसान से ही हो सकती है, जो एक जगह बैठे या खड़े रहकर और किसी एक ही दिशा में देखते रहने पर भी, यह जान और ‘देख’ लेता है कि पीछे और अगल-बगल (भी) क्या है। उनके देखने में ध्वनि-स्पर्श और गन्ध का भी एक योग हुआ करता था। स्वामी उन लोगों में भी नहीं थे जो कहीं जाने पर कोई पत्थर, फल-फूल, या विचित्र आकार का काठ ले आते हैं, उसे सजाते हैं, और लोगों को दिखाते हैं। वह कहीं से भी प्रायः कुछ भी नहीं लाते थे- न खरीदकर, न कहीं पड़ी हुई किसी चीज़ को अकस्मात पाकर। वह आदिवासी अंचलों से कलाकृतियाँ ज़रूर लाये, और आदिवासी कलाकारों को उन्हें चित्र बनाने के लिए प्रेरित भी किया। पर, स्वयं के लिए जो लाये, वह उनका देखना और सोचना ही था जो बढेरा गैलरी में आयोजित उनकी आखिरी प्रदर्शनी में सबने देखा, कि किस तरह आदिवासी जीवन-कला-और वन-अरण्य ने उनके काम को बिल्कुल बदल डाला था।

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