स्वरों में निष्कम्प ठिठकती मिथलेश शरण चैबे की कविताएँ
26-Oct-2020 12:00 AM 5356

अस्पृश्य

बहते हुए रक्त के आवेग की वजहें दो नहीं थीं
सिर झुकाए ढलान से उतरते हुए
एक ही कल्पना उतरती थी
लुढ़कता था एक ही विचार
निरुद्विग्नता के अलोप में एक ही दीवार की ओट थी
पीठ से टिके हुए स्मृतियों को खुरचते
लाल ध्ाारियों की छाप पड़ती
सुर्ख थी जीवन की एक आवृत्ति
एक बाढ़ आदिम के बादलों से अनादिम के जीवन तक
फैलती इस तरह कि
सब कुछ डूब गया जीवन और मृत्यु भी
पाना और बचना भी
लौटती उम्रें और सीलती दीवारें बुलाती हैं फिर
बगैर हाँफ़े चढ़ते कदम सिफऱ् भ्रम हैं
ध्ाड़क उठती बेध्ाड़क इच्छाएँ थम हैं
अस्पृश्य उपस्थित हूँ ये भी क्या कम है
रक्त एक ही आवेग से बहा था।

 

भभक

पाश्र्व से हवा और किरणें
आती एक साथ
लहराने चमकाने की भिन्न
क्रियाओं में लीन
ध्ाुन सामने से उठती बगैर स्वर के
स्वरों के निष्कम्प में ठिठकती
उपस्थिति के विस्तार में
पलती
शाश्वत होने की निराकांक्षा
जलते काग़ज़ों में ध्ाुँध्ााता समय
ध्ाीमी आगताहट में घिसटता समय
स्थिरोत्सुकता में प्रवाहित समय
होना भस्म होने-सा भभकता है।


सिफऱ्

हवा नहीं थी
कि सरसराहट-सी गुज़रती
कपकपाहट-सी दर्ज होती देह में
छटपटाहट-सी आत्मा में

पानी नहीं थी
कि तरलता से गला देती
हलक में उतरने को सुगम करती
राह बना ही लेती बाध्ााओं के बीच

समय ही नहीं थी
कि जकड़ लेती अपने से
भटकाती अपनी उर्वर उपस्थिति से
स्थगित करती अपने कुछ अंशों में

केवल स्मृति तो बिलकुल नहीं थी
कि एक बार ही सही
विस्मृति में चली जाए
अतीतमोह की तरह बखान में ही बच सके
चमके अफ़सोस के वीरान में

और अकेली कल्पना तो एकदम नहीं थी
कि उड़े फिरे संग साथ
भरे रंग अनन्त रागों के अनन्तिम स्वर
भर उठे रोम-रोम उदग्र औत्सुक्य में

थी वह वही
उतनी कि सत्य जितना ठहरता है
विचार जितना अडिग
प्रेम की निश्छलता जितनी
आँसुओं का बहाव अविरल
जितना जीना होता जीने में
जितना बचता मृत्यु में
मौन में टंगा एक शब्द उच्चरित
प्रार्थना में कातर पुकार

थी स्वयं मौजूद हस्बमामूल इतनी
कि है एक निरन्तर जि़न्दगी की तरह
गुज़रते हैं उसमें
हवा पानी समय स्मृति कल्पना ..।

जगहें

वस्तुओं मनुष्यों
जानवरों पक्षियों

बारिश की दुपहरों
सर्दियों की शामों

लहलहाती फसलों
छोटे सुन्दर फूलों
विशालकाय वृक्षों
झर-झर बहते झरनों
उतरती बाढ़ की नदियों

घटते-बढ़ते चाँद
तमतमाये सूरज
नक्षत्रों भरे आकाश
सूने अवकाश

पक्षियों और पतंगों की कतार से
भरे आकाश

कण्ठ और वाद्यों से निकलते स्वरों
चारों तरफ से आती
बहुविध्ा ध्वनियों
जीवन और मृत्यु की निरन्तर आवृत्तियों

अभिव्यक्तियों निर्मितियों
वंचनाओं जिज्ञासाओं कामनाओं
किस्सों-कविताओं
रहस्यों-रोमांचों
भावों-अभावों
उत्तरों-अनुत्तरों
राग-विरागों में

डूबे खोये बने अध्ाबने
लड़खड़ाते सम्भलते
बढ़ते रुकते

जान नहीं पाते अकसर
घर - अपना घर

दूर कहीं इन सबके
टूट-टूट जाता जब मन
दिख पाता है दर

जगहें बाहर फैली दिखती
हम जगहों के अन्दर

जगहों से बनते-बनते
जगहों से बाहर जाते
बाहर-बाहर रह जाते

अब सपनों में ही पाते।


आहट

बहुत कम लगती
एक चैड़ी-सी दरार से
हड़बड़ी में आता चूहा
सध्ो विनम्र कदमों और विश्वस्त चालाकी से
खिड़की से उतरती बिल्ली
अनजाने ही अन्दर की यात्रा से अनभिज्ञ
रोशनदान से आ गयी चिडि़या

कुछ नहीं कर पाने की तरह आती निष्क्रियता
करने न करने के बीच ठिठकी अन्यमनस्कता
हारकर अवसाद को छुपाने का अभिनय करती उदासी

सत्ता की विरुदावली में मग्न अखबार के कोने में
सिमटती जल सत्याग्रह करते निर्वासितों के
गलते पैरों की खबर
कमज़ोर बता दिये गए निरीह मनुष्यों की
अलक्षित रह जाती आहें
बचपन की मैत्री के विरुद्ध
अभिजात्य के दारुण पलों को सहती मित्राकांक्षा

अयोग्य सन्देहास्पद और त्याज्य बना देने पर
उतारू स्वार्थी चपलताएँ
गिड़गिड़ाने के विरुद्ध
अपने को जाहिर करने को उद्यत विश्वास
बहुत-सा खोने के बावजूद
और भी खोते हुए
निरभिमानी बना रहता मन

संसार अनसुना करता है जिन्हें
उपस्थिति के व्याकरण से अपदस्थ
होने की ज्यामिति से खारिज
सम्भावना की पतंग को
काटने की हिंस्र चेष्टा-सा

सब एक बार
और निश्चित ही
बार-बार से विलग एक बार
अपनी आहट दर्ज कराते हैं
नहीं सुने जाने की आशंका के विरुद्ध।


निरुपाय

बाघ की चारदीवारी में अचानक गिरा मनुष्य
आयु के जोखिम की हिदायतों से घिरा किशोर
फरेबों की फेहरिश्त में बंध्ा जाती सुन्दर युवती

लोकतन्त्र की नियति में ध्ाँसती अवाम
बुद्धिजीवी कहे गये लोगों में भटकता एक नैतिक विचार
निष्क्रियताओं के गल्प में सक्रिय उम्मीद

ढेर सारे संकटों के किनारे खड़ा एक उदासीन निराकरण
भीड़ भरे रास्ते से गुज़रती अनजानी शवयात्रा
जलती दुपहरी की जीभ पर निर्मल पानी का स्वाद

देह से सघन झरता आत्मा का विलाप
आत्मा के शोक को सहेजती देह
आत्मा और देह की लहूलुहान उत्कण्ठाओं के बीच
अपने होने को खोजता सुख

ध्ाारणाओं के विरुद्ध
आगे जाने के उपक्रम में लगी नवता
चलन से बाहर हुए सिक्कों को सहेजता बचपन
साइकल के चक्कों को
गली-मोहल्ले में घुमाती फिरती
क्रीड़ा के कौतुक को देखती विपन्नता

पा लेने हासिल करने काबिज होने की
अनुदार क्रियाओं को जज्ब करते सारे उपाय
हमारे होने की निरुपायता के निष्कम्प बिम्ब हैं।


मछली प्रेम

मछली बहुत प्रिय है
वनस्पतिशास्त्र के अध्यापक को
अन्य मनुष्यों को जि़न्दगी में
कई अन्य चीजें प्रिय होती हैं
उस तरह नहीं

मछली बनाकर खिलाने वाले तो
बहुत ही पसन्द हैं उन्हें
जैसे बढ़ई को लकड़ी कुम्हार को माटी
किसान को पानी लड़की को स्वप्न
और गध्ो को घास पसन्द है
उस तरह नहीं

मछली बनाकर खिलाने वालों को
अपनी कविताएँ सुनाना तो
इतना ज़्यादा पसन्द है उन्हें कि
बाज़ार को चाइना के उत्पाद
प्रौढ़ स्त्री को अब भी माँ का साथ
अकेलेपन में विपन्न अतीत में उतरना चाहता मन
ध्ार्म के नाम पर हाहाकार मचाते निपुण ध्ाुरन्ध्ार
उनके सामने कुछ भी नहीं

मछली बनाकर खिलाने वालों के
गढ़े हुए किस्सों पर तो
बेइंतहा मुग्ध्ा हैं
वनस्पतिशास्त्र के अध्यापक
उस तरह नहीं जैसे
कश्मीर पर पाकिस्तान संसार पर अमेरिका
संस्कृति पर बाज़ार प्रध्ाानमन्त्री पर भक्तगण
क्रिकेट पर अभिनेत्री नौकरी पर युवा
अनैतिक पर राजनीति
आपदा राहत इन्तजामों पर नेता और अफ़सर
बचे हुए अनाज़ थोड़ी सी प्याज और
एक दूसरे की आँखों में शेष बची जि़न्दगी पर किसान

मछली बनाकर खिलाने वालों से अपनी तारीफ़ सुनना
खुद उनकी प्रशंसा करना
सर्वश्रेष्ठ अपरिहार्य कर्म है
वनस्पतिशास्त्र के अध्यापक की निगाह में इन दिनों
वैसे नहीं जैसे
बैंकों से पैसा हड़पना उड़ान व शराब कारोबारी की निगाह में
आरोपी अभिनेता को सच्चा मनुष्य बताना
फिल्म समीक्षक की निगाह में
बलात्कार और नृशंस हत्या के अपराध्ाी की आत्महत्या पर
उसे निडर व साहसी बताना वकील की निगाह में
दुष्कर्मों के अभियुक्त पाखण्डी ध्ार्माचार्य को निरपराध्ाी
कहकर उसकी पूजा करना अनुयायी की निगाह में
भर्ती व प्रवेश के महाघोटाले और उससे सम्बद्ध चालीस
अस्वाभाविक मौत को मामूली कहना तत्कालीन मुख्यमन्त्री की निगाह में
भयावह सूखे से कर्जदार पाँच हज़ार किसानों की
आत्महत्याओं सहित तमाम विकराल जन समस्याओं
और सरकारी विफलताओं को टुच्ची खबरों से ढँकना
मीडिया की निगाह में

मछली पसन्द नहीं जिन्हें
मछली बनाना और खिलाना नहीं आता
उनसे चिढ़ है वनस्पतिशास्त्र के अध्यापक को
जैसे उन्हें बेमौसम बारिश तेज़ ध्ाूप
कपकपाती ठण्ड से चिढ़ है
जैसे नमीं की आत्मा हवा के दुखों
और शाम की उदासी से चिढ़ है
जैसे खुशामद नहीं करते मनुष्यों
नहीं छापते सम्पादकों पत्र-पत्रिकाओं
और कथा नहीं कहते कवियों से चिढ़ है

मछली खिलाते वक़्त कविता सुनना
अपनी किस्सागोई सुनाना जिन्हें नहीं आता
उनकी नज़र में नितान्त बेहूदे और अयोग्य हैं वे
जैसे कि बहुध्ाा युवा हैं इन दिनों
मछली खाने के बाद की तृप्ति और प्रशंसा से
आत्ममुग्ध्ा हुए जाते
वनस्पतिशास्त्र के अध्यापक को
ऐसा नहीं कर सकने वाले कमतर लगते हैं
और करने वाले ज़ाहिर है श्रेष्ठ

अलिखित

दृश्य में ठिठककर
वर्णन के स्थगित में
अप्रकट की अभीप्सा के साथ
अदृश्य के कगार पर
रोक लिया था जिसे

रूप ने गढ़ना शुरू किया
विचार ने आना
कल्पना की उमंग ने जिजीविषा दी
होने की निराकांक्षा ने जिद

समय ने फैलने के पंख
असमय ने रुकने की ध्ाीरता
पास न होने के जटिल सच ने
विलोम सच की अभीप्सा

यदि नहीं लिखा गया
तो भी उत्कट सच है
अनलिखा।


काया

अनगिनत चलती-फिरती कायाओं को देखती
आँखों को सम्भाले
एक मनुष्य के होने की
अद्वितीयता की तरह
निपट साध्ाारण सी दिखती
एक खूबसूरत काया होने के
असंख्य दुखों से बनता टूटता सिमटता
मौजूद हूँ
कहते हैं जिसेः आत्मा का घर
होने न होने की शाश्वत पहचान
सुख-दुःख के बेमानी अनुभवों का
बहीखाता
निरुपाय दुनिया से विमुख होती
नश्वरता
अनश्वर के छल को तिरोहित करता विलाप

जिसे गलना है खपना है
एक अदद काया-स्वप्न के साथ।


टमाटर

उभरते हुए चटक लाल के पीछे
छुपी हुई गन्ध्ा में गहरी आश्वस्ति है स्वाद की
हालाँकि ज़्यादातर हत्या ही है भूख की
यह हत्या कितनी तृप्तिदायक है
हिंसा का यह दृश्य कितना अहिंसक है

मनुष्य के विलीन होते चटक आत्मा रंगों
होने की लुप्त खुश्बुओं के वक़्त
तुम औचक अगहन का उदात्त हो

मुग्ध्ा हो देखना, कसकर छूना, खाकर तृप्त होना
हमारी इच्छा में तुम्हारा नष्ट होना बदा है

अबूझ है कि इतने पानीदार के मातृत्त्व को
मार देता है ज़्यादा पानी

कुछ पानीदार होने का रौब हम भी चाहते हैं।


भटा

बहुरूपिये का अचरज
सच में कितना एक रूप है
सुन्दर हर बार उतना ही
वर्षों पहले आकांक्षा थी हमारी ज्यों

कई तरहों से बनते
इतना कौन बनता है !
नर्म त्वचा के अन्दर का मांसल रस
तृप्तियों की ललक में डुबोता
कि अँगुलियों में चिपक गये को
छोड़ने का मन नहीं करता

मन छोड़ता कहाँ है मनमाफि़क को

बेपरवाही के परिणाम भी सुखद हो सकते हैं
जैसे उगे हुए
बहुस्वादवैभवपूर्ण

रूप वैचित्र्य और
स्वादों की भिन्नता
हमारे होने से भी प्रकट होते !

लौकी

किसी को सिफऱ् उसके
होने से ही चाहा जाता है
जैसे चाहना होने का भराव है

छरहरी से स्थूल तक
स्वाद से तृप्ति तक
संघर्ष से जीवन तक
सम्बोध्ानों में सीमित करते
होने को

प्रेम और मजबूरी
दोनों की पृथक चाहना से
सम्बोध्ाित तुम
मुलामियत का ऐसा तेवर कि
बिना साजो सामान भी रसभरी

अतिरिक्तों से अलंकृत दुनिया में
निरलंकृत अर्थपूर्ण होने के लिए
तुम्हारी ओर टकटकी लगाकर
देखता हूँ।

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