तान्त्रिक उपासना वागीश शुक्ल
20-Jun-2021 12:00 AM 1116

1 प्रारम्भिक
1.1 विवर्त-वाद और परिणाम-वाद
भगवत्पाद द्वारा प्रतिपादित अद्वैत-सिद्धान्त के अनुसार एकमात्र सत्ता ब्रह्म की है, जिसे हम ‘पारमार्थिक सत्ता’ कहते हैं; इस जगत् (फलतः हमारी, अर्थात् जीव) की, सत्ता मिथ्या है, जिसे हम ‘व्यावहारिक’ कहते हैं और जो इस पारमार्थिक सत्ता पर माया का आवरण पड़ने के कारण प्रतीत होती है। इस व्यावहारिक सत्ता के बारे में भगवत्पाद का सिद्धान्त ‘विवर्त-वाद’ कहलाता है, जिसका तात्पर्य यह है कि जगत् की सत्ता नदी में भँवर की तरह है, इससे कोई नया तत्त्व नहीं प्राप्त होता और जिस प्रकार भँवर के शान्त होने पर नदी से भँवर का अपार्थक्य पहचाना जा सकता है, वैसे ही माया का आवरण हटने के बाद पारमार्थिक सत्ता से अपनी सत्ता के अपार्थक्य को पहचाना जा सकता है। इस सिद्धान्त को हम अद्वैत की अन्य प्रस्तुतियों से अलग सूचित करने के लिए इसके तकनीकी नाम ‘केवलाद्वैत’ से बतायेंगे।
इस ‘विवर्तवाद’ के प्रतिपक्ष में ‘परिणामवाद’ है, जिसके अनुसार जगत् (और फलतः जीव) की सत्ता ब्रह्म की सत्ता का विवर्त नहीं, परिणाम है, जो उसी प्रकार ब्रह्म की सत्ता से भिन्न एक नवीन सत्ता है। जिस प्रकार दही की सत्ता दूध्ा की सत्ता से भिन्न है और इस नाते मिथ्या नहीं है, जिसे भ्रम की निवृत्ति के बाद हम ब्रह्म की सत्ता के रूप में पहचान सकें। इस परिणामवाद की कई प्रस्तुतियाँ हैं, जिनके पक्षध्ारों में विविध्ा प्रकार के सिद्धान्त हैं, जो अपने को अद्वैत-वादी से लेकर द्वैत-वादी तक बताते हैं।
‘विवर्तवाद’ और ‘परिणामवाद’ के नाम पहले भी भक्ति पर चल रही इस चर्चा में आ चुके हैं। आजकल स्कूलों में विज्ञान की कक्षाओं में ‘भौतिक परिवर्तन’ और ‘रासायनिक परिवर्तन’ समझाया जाता हैः भौतिक परिवर्तन वह है जिसमें परिवर्तन से कोई नया पदार्थ नहीं मिलता और परिवर्तन का कारण हटने पर वस्तु को पहले की तरह पा सकते हैं (जैसे मोम के पिघलने के बाद फिर ठण्डे होने पर मोम फिर पहले की तरह मिल जाता है) और रासायनिक परिवर्तन वह जिससे परिवर्तित वस्तु को पुनः प्राप्त करना सम्भव नहीं है (जैसे दही बन जाने के बाद फिर वापस उससे दूध्ा नहीं मिल सकता)। एक दृष्टान्त के रूप में हम विवर्तवाद को ‘भौतिक परिवर्तन’ और परिणामवाद को ‘रासायनिक परिवर्तन’ से समझने की चेष्टा कर सकते हैं किन्तु दृष्टान्त की सीमा होती है और उसे खींच कर सांग रूपक में नहीं बदलना चाहिए।
हम विभिन्न प्रकार के परिणामवादी सिद्धान्तों की चर्चा में नहीं उलझेंगे और अपने को सिर्फ़ अद्वैत की एक दूसरी प्रस्तुति तक सीमित रखेंगे जो ‘शिवाद्वैत’ या ‘शाक्ताद्वैत’ कहलाती है। इसके भी प्रवर्तक भगवत्पाद ही हैं और भारतीय चिन्तन में इसकी सर्वाध्ािक परिपूर्ण प्रस्तुति भास्कर राय द्वारा हुई है, जिनके अनुसार यह सिद्धान्त ‘तान्त्रिक परिणामवाद’ कहलाता है। इस आलेख में हम इस सिद्धान्त पर विचार नहीं कर पाएँगे और इसकी चर्चा कभी आगे करेंगे किन्तु इतना बताना आवश्यक है कि इस ‘तान्त्रिक परिणामवाद’ का केवलाद्वैत में पर्यवसान ब्रह्मसूत्र पर श्रीकण्ठाचार्य के भाष्य से होता है और ब्रह्मसूत्र के भगवत्पादीय भाष्य में इसके संगमन का मार्ग अप्पय दीक्षित ने सुझाया है। केवलाद्वैत की ही नींव पर अभिनवगुप्त का ‘कौल-मत’ इस ‘तान्त्रिक परिणामवाद’ के ठीक पड़ोस में खड़ा है। ‘तान्त्रिक उपासना’ से हमारा तात्पर्य इन्हीं आचार्यों द्वारा निर्देशित उपासना-व्यवहार से है, जिस पर कुछ परिचयात्मक विचार इस आलेख में करेंगे।
1.2 ब्रह्मात्मैक्य और उपासना
सनातन ध्ार्मावलम्बियों का सर्वाध्ािक प्रमुख लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति है, जिसका तात्पर्य है, संसार-चक्र से छूटकर निर्गुण ब्रह्म की सत्ता से अपनी सत्ता का अभेद, अर्थात् ‘ब्रह्मात्मैक्य’ को पहचानना। निर्गुण ब्रह्म की सत्ता पारमार्थिक है और जीव की व्यावहारिक, अतः जीव द्वारा अपनी ब्रह्मात्मक पारमार्थिक सत्ता की पहचान का प्रथम चरण है, अपने जैसी ही व्यावहारिक सत्ता वाले सगुण ब्रह्म की आराध्ाना द्वारा चित्तशुद्धि प्राप्त करना, जिससे पारमार्थिक सत्ता के इस अभेद-ज्ञान की पात्रता प्राप्त होती है। इस आराध्ाना के कई मार्ग आचार्यों द्वारा बताये गये हैं। यद्यपि यह नामकरण भ्रामक है क्योंकि सनातन ध्ार्म के तन्त्र-मार्ग भी अपने को वेदसमर्थित मानते हैं, इस नामकरण की लोक-स्वीकृति देखते हुए हम इसी का व्यवहार करेंगे।
‘तान्त्रिक’ आराध्ानाओं के कुछ ऐसे विध्ाान हैं, जो लोकव्यवहार के विरुद्ध हैं। यह वाक्य बौद्ध तान्त्रिक आराध्ानाओं के लिए भी समान रूप से सत्य है किन्तु हम केवल सनातन ध्ार्म के भीतर स्वीकृत तान्त्रिक आराध्ाना-पद्धतियों की बात करेंगे और उनके भीतर यद्यपि सौर, गाणपत्य, शैव आदि अनेक मार्ग मौजूद हैं, केवल शक्ति-साध्ाना तक सीमित रहेंगे- इस चर्चा को कुछ शब्द-परिवर्तन के साथ उन अन्य मार्गों पर भी लागू किया जा सकता है।
1.3 उपासना का व्यवहार
‘उपासना’ के व्यवहार को विद्यारण्य स्वामी1 की पंचदशी (चित्रदीप-प्रकरण) से कुछ उद्धरण सामने रखकर समझना समीचीन होगा (हिन्दी अनुवाद पीताम्बर दत्त वसिष्ठ जी की टीका2 के अनुसार है) ः
ईशसूत्रविराड्वेध्ाोविष्णुरुद्रेन्द्रवह्नयः
विघ्नभैरवमैरालमारिकायक्षराक्षसाः ।।206।।
विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा गवाश्वमृगपक्षिणः
अश्वत्थवटचूताद्या यवब्रीहितृणादयः ।।207।।
जलपाषाणमृत्काष्ठवास्याकुद्दालकादयः
ईश्वराः सर्व एवैते पूजिताः फलदायिनः ।।208।।
यथा यथौपासते तं फलमीयुस्तथा तथा
फलोत्कर्षापकर्षौ तु पूज्यपूजानुसारतः ।।209।।
मुक्तिस्तु ब्रह्मतत्त्वस्य ज्ञानादेव न चान्यथा
स्वप्रबोध्ां विना नैव स्वस्वप्नो हीयते यथा ।।210।।
(ईश (= अन्तर्यामी), सूत्र (= हिरण्यगर्भ), विराट्, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, अग्नि, विघ्न (= गणेश), भैरव, मैराल, मारिका (= एक देवी), 3यक्ष, राक्षस, विप्र, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, गाय, घोड़ा, मृग, पक्षी, पीपल-बरगद-आम आदि वृक्ष, जौ-ध्ाान-तिनके आदि, जल, पत्थर, मिट्टी, लकड़ी, बढ़ई के काम आने वाली बँसुली, कुदाल आदि सभी ईश्वर हैं और पूजा करने पर फल देते ही हैं।
उस परमेश्वर की जिस-जिस प्रकार से उपासना करते हैं, उसी-उसी प्रकार से फल मिलता है। (फिर फल की विषमता का क्या कारण है? कहते हैं कि सात्त्विक आदि भेदों के कारण) पूज्य (= अध्ािष्ठान देवता) और पूजा (= अर्चा) के अनुसार ही फल की न्यूनाध्ािकता होती है। मुक्ति तो केवल
1 ये शांकर अद्वैत के परमाचार्यों में से एक हैं और चैदहवीं शताब्दी में शृंगेरी पीठ के शंकराचार्य थे। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना में भी इनका योगदान बताया जाता है।
2 उन्नीसवीं शताब्दी में लिखा गया यह ग्रन्थ अब दुर्लभ है किन्तु इसका बीसवीं शताब्दी की हिन्दी में अनुकूलित एक संस्करण इण्टरनेट पर उपलब्ध्ा है।
3 यह महाकाली का एक रूप है जो चेचक और हैजा जैसे रोगों से रक्षा करने वाली मानी जाती है। तमिलनाडु में इसके कई मन्दिर हैं, उत्तर भारत में भी ‘मरी माता’ के कई स्थान हैं। ‘मैराल’ का अर्थ मुझे किसी शब्दकोष या पंचदशी की किसी टीका में नहीं मिला किन्तु भास्कर राय ने ललितासहस्रनाम की अपनी टीका में कपर्दिनी नाम की व्याख्या करते हुए बताया है कि ‘मैराल’ शिव का एक अवतार है जिसमें देवी का नाम ‘महालसा’ है और वे कौडि़यों की माला पहनती हैं।
ब्रह्म-तत्त्व के ज्ञान से ही होती है, अन्यथा नहीं; जैसे अपना सपना तभी टूटता है, जब आदमी जाग जाय।)
इस उद्धरण से यह तो स्पष्ट ही है कि सनातनध्ार्मी पेड़ और पहाड़ से लेकर शालिग्राम और गढ़ी हुई मूर्ति तक में ईश्वर-बुद्धि क्यों रखते हैं और ‘सीय-राम मय सब जग जानी; करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी’ का क्या आशय है। फिर आगे स्वामी जी कहते हैंः
अद्वितीयम्ब्रह्मतत्त्वमसंगन्तन्न जानते
जीवेशयोर्मायिकयोर्वृथैव कलहं ययुः ।।214।।
...
अद्वितीयम्ब्रह्मतत्त्वन्न जानन्ति यदा तदा
भ्रान्ता एवाखिलास्तेषांकव मुक्तिः क्वेह वा सुखम् ।।217।।
उत्तमाध्ामभावश्चेत्तेषां स्यादस्तु तेन किम्
स्वप्नस्थराज्यभिक्षाभ्यान्न बुध्ाः स्पृश्यते खलु ।।218।।
तस्मान्मुमुक्षुभिर्नैव मतिर्जीवेशवादयोः
कार्या किन्तु ब्रह्मतत्त्वं विचार्यम्बुध्यतांच तत् ।।219।।
...
मायाख्यायाः कामध्ोनोर्वत्सौ जीवेश्वरावुभौ
यथेच्छम्पिबतान्द्वैतन्तत्त्वन्त्वद्वैतमेव हि ।।236।।
(लोग उस अद्वितीय असंग ब्रह्मतत्व को नहीं पहचानते इसलिए उनमें इन मायिक जीव और ईश्वर के विषय में व्यर्थ ही कलह होता रहता है।
...
अद्वितीय ब्रह्मतत्व को जब वे नहीं जानते तब वे सभी भ्रान्त ही हैं। उनको मुक्ति कैसे मिल सकती है, और इस लोक में भी उन्हें कैसे सुख मिल सकता है? (वे जिस पक्ष को पकड़ लेते हैं उसके प्रतिपादन का हठ करते हैं अतः उनका चित्त स्थिर नहीं होता)।
यदि इनमें ऊँचनीचपना होता है, तो हो, इससे क्या होता है? स्वप्न में चाहे राजा बन जाय चाहे भिखारी, इससे बुद्धिमान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
इसलिए मुमुक्षु को चाहिए कि जीव और ईश्वर (को मायिक मानते हुए उन) के विवाद में मन न लगाये अपितु ब्रह्मतत्त्व पर (श्रुति के अनुसार) विचार करके उसी का ज्ञान प्राप्त करे।
...
जीव और ईश्वर, ये दोनों ही माया नाम की कामध्ोनु के बछड़े हैं। ये जितना चाहें (इस कामध्ोनु का दूध्ा, अर्थात्) द्वैत पियें, तत्त्व तो अद्वैत ही है।)
1.4 शक्ति - पूजा
शक्तिपूजकों का मानना है कि जब ब्रह्मतत्त्व को जानने का एकमात्र उपाय उपासना ही है तो माया द्वारा कार्य ईश्वर के किसी रूप की अपेक्षा स्वयं माया की ही उपासना करना ठीक रहेगा। इस माया को ही (ब्रह्म की) शक्ति कहते हैं। मोटे तौर पर इसका तात्पर्य यों समझना चाहिए ः
योगवासिष्ठ (निर्वाण-प्रकरण, पूर्वाद्र्ध, ‘परमेश्वरवर्णन’ नामक छत्तीसवाँ सर्ग) का कहना है कि सभी वाक्यों का तात्पर्य परब्रह्म ही है चाहे उन्हें हम अनर्थक कहते हों या निरर्थक। इस कथन की पुष्टि के लिए दिये गये एक ऊपर से ऊल-जलूल दीखते पद्य का तात्पर्यप्रकाश टीका के विद्वान् टीकाकार ने लोक-परक और ब्रह्म-परक अर्थ करके दिखा भी दिया है। हम यहाँ बहुत गहराई में जाने की कोशिश न करते हुए ‘वाक्य’ की जगह ‘शब्द’ रखेंगे और यह मान कर चलेंगे कि शब्द अर्थवान् होता है। इस अर्थवान् शब्द को हम पूर्वाचार्यों के अनुसार ‘प्रातिपदिक’ कहेंगे। इस ‘प्रातिपदिक’ को अविभाज्य मानते हुए भी, वैयाकरणों में शब्द-बोध्ा के लिए समान आदर वाली दो प्रक्रियाएँ स्वीकृत हैंः कुछ यह मानते हैं कि किसी शब्द की व्युत्पत्ति नहीं की जा सकती, ‘राम’ शब्द अपनी समग्रता में ही परब्रह्मस्वरूप दशरथ-पुत्र का अर्थ बताता है और उसे अवयवों में नहीं समझ सकते। दूसरा पक्ष यह है कि ‘रम्’ ध्ाातु से अध्ािकरण अर्थ में ‘घ´्’ प्रत्यय जोड़ कर इस शब्द की समझ बनेगीः ‘रमन्ते योगिनः अस्मिन् इति रामः (= इनमें योगियों का मन रमता है इसलिए यह राम हैं)’; यह ‘प्रकृति-प्रत्यय विभाग’ ही ‘व्युत्पत्ति’ कहलाता है। प्रथम पक्ष को भगवत्पाद द्वारा प्रतिपादित ‘केवलाद्वैत’ और द्वितीय पक्ष को अपनी रुचि के अनुसार ‘शिवाद्वैत’ या ‘शाक्ताद्वैत’ कह सकते हैं।
पाणिनि का सूत्र हैः स्वतन्त्रः कर्ता (1-4-54), यानी ‘राम ने रावण को बाण से मारा’ वाक्य में राम कर्ता है तो इसलिए कि वह ‘मारा’ क्रिया की सिद्धि में प्रध्ाान है तथा ‘रावण को’ और ‘बाण से’ जैसे (उप-) कारकों से स्वतन्त्र है। किन्तु ग़ौरतलब यह है कि कर्ता में कर्तृत्व की स्थापना क्रिया ही करती है। कर्ता और क्रिया में अविनाभाव सम्बन्ध्ा है, यदि वाक्य में कर्ता न हो तो क्रिया नहीं रह सकती और क्रिया न हो तो कर्ता नहीं रह सकता। इस प्रकार ‘कर्ता’ और ‘क्रिया’ में अभेद है किन्तु चूँकि ‘कर्तृ’ (जो कर्ता-कारक में ‘कर्ता’ का रूपग्रहण करता है) शब्द-व्यापार में (व्युत्पत्ति-परक पक्ष के अनुसार) तभी स्वीकृत हो पाता है जब उसे ‘करने’ की क्रिया बताने वाली ‘डुकृ´्’ ध्ाातु में कर्तृत्व-सूचक कृत्-प्रत्यय ‘तृच्’ जुड़ने से बना माना जाता है, इसलिए कर्ता-क्रिया की इस सामरस्यात्मक इकाई में, जिसे हम एक अर्थवान् शब्द ‘कर्तृ’ के रूप में पहचानते हैं, जब भेद-बुद्धि का आश्रय लेते हैं तो यह कहा जा सकता है कि क्रिया के बिना कर्तृत्व-सूचक शब्द एक शव की तरह है। भगवत्पाद ने अपनी सौन्दर्य-लहरी के प्रथम श्लोक में यही कहा हैः शिव तभी प्रभावी हैं, जब वे शक्ति से युक्त हैं; यदि ऐसा नहीं है तो शिव स्पन्द भी नहीं कर सकते। यही ‘शाक्ताद्वैत’ या ‘शिवाद्वैत’ जिसे हम कत्र्ता और क्रिया के अविनाभाव के दृष्टान्त से समझने की चेष्टा कर सकते हैं, तान्त्रिक उपासना का सैद्धान्तिक चैखटा है।
1.5 ‘श्री-कुल’ और ‘काली-कुल’
शक्ति-पूजा के इस सैद्धान्तिक चैखटे के भीतर जो उपासनाएँ प्रचलित रही हैं, उन्हें सुविध्ाा के लिए दो परिवारों- ‘श्री-कुल’ और ‘काली-कुल’- में बाँटा जाता है और मोटे तौर पर इसका तात्पर्य यह समझा जाता है कि एक ‘श्री-विद्या’ की उपासना और उसके निकटस्थ उपासनाओं का समूह है तथा दूसरा ‘काली-विद्या’ की उपासना और उसके निकटस्थ उपासनाओं का। ‘श्री-कुल’ की उपासनाओं को ‘सौम्य’ और ‘काली-कुल’ की उपासनाओं को ‘उग्र’ बताना भी प्रचलित है किन्तु वस्तुतः ऐसे नामकरण अध्ाूरी जानकारी ही देते हैं। उदाहरण के लिए ललितासहस्रनाम श्रीकुल का ग्रन्थ है फिर भी भास्कर राय ने ललितासहस्रनाम की अपनी टीका में महेश्वरमहाकल्पमहाताण्डवसाक्षिणी नाम की व्याख्या करते हुए योगवासिष्ठ से कालरात्रि की स्तुति का एक पद्य उद्धृत किया है, जो काली-कुल की उग्रतम देवियों में से हैं; यह पद्य प्रचलित ध्ाूमावती-स्तोत्र में भी पाया जाता है और ध्ाूमावती भी देवी की एक उग्र मूर्ति है। त्रिपुरोपनिषद् भी श्री-कुल का ग्रन्थ है और उसमें श्री-विद्या की उपासना के अन्तर्गत उन तमाम विध्ाियों का उल्लेख है, जिनके नाते तान्त्रिक उपासना लोक-व्यवहार के विपरीत मानी जाती है। हम इस तरह के विभाजनों के आध्ाार पर तान्त्रिक उपासना को वर्गीकृत नहीं कर सकते।
1.6 दक्षिण और वाम मार्ग
तान्त्रिक उपासना का एक प्रचलित वर्गीकरण ‘दक्षिण-मार्गी उपासना’ और ‘वाममार्गी उपासना’ के शीर्षकों में किया जाता है और यह माना जाता है कि दक्षिण-मार्गी उपासक अपनी आराध्ाना में मद्य और मांस जैसे पदार्थों का उपयोग नहीं करते जबकि वाम-मार्गी उपासक करते हैं। यह वर्गीकरण भी अध्ाूरी सूचना देता है। भास्कर राय ने ललितासहस्रनाम की अपनी टीका में सव्यापसव्यमार्गस्था नाम की व्याख्या के अन्तर्गत वाम-मार्ग और दक्षिण-मार्ग की उपासनाओं में कालिकापुराण के आध्ाार पर यह अन्तर बताया है ः
वाम-मार्गी उपासना में किसी भी वैदिक या स्मार्त कर्म के निर्वहन में उस कर्म से सम्बन्ध्ाित देवता की भावना न करके केवल अपनी आराध्य देवी (और देव) की भावना की जाती है। इस प्रकार त्रिपुरभैरवी का आराध्ाक वाममार्गी अपने सभी वैदिक और स्मार्त कर्मों में देव के नाम के आगे ‘भैरव’ और देवी के नाम के आगे ‘भैरवी’ जोड़ेगाः इदं विष्णुर्विचक्रमे के स्थान पर इदं विष्णुर्भैरवो विचक्रमे पढ़ेगा और पिता का तर्पण न कर के ‘पितृ-भैरव’ का करेगा, माता का तर्पण न कर के ‘भैरवी माता’ का करेगा। ऐसा करने के नाते वह प्रत्येक मनुष्य द्वारा चुकाये जाने वाले तीन ऋणों- देव-ऋण, ऋषि-ऋण और पितृ-ऋण को नहीं चुका पाता क्योंकि देवों के यज्ञभाग देवों तक नहीं पहुँच पाते और सीध्ो देवी ही उनका ग्रहण करती हैं। फलतः वाम-मार्गी को मोक्ष-प्राप्ति में विलम्ब होता है। तथापि चूँकि उसके सारे भोग इसी जन्म में समाप्त हो जाते हैं और उसे इहलौकिक ऐश्वर्य भी प्राप्त होता है, इसलिए वह मोक्ष-प्राप्ति में यह विलम्ब सह लेता है।
दूसरी तरफ, दक्षिणमार्गी आराध्ाक अपने वैदिक और स्मार्त कर्मों में यथानिर्दिष्ट देवता की भावना करता है और इस प्रकार अपने सारे ऋण चुका देता है। अतः उसे शीघ्र मोक्ष मिल जाता है।
‘उपासना’ को हम ‘यज्ञ’ का एक दूसरा नाम समझ सकते हैं; इस पर विस्तार से आगे कभी बात करेंगे। फि़लहाल इतना प्रासंगिक है कि उपासना (= यज्ञ) में तीन अंग होते हैंः द्रव्य, देवता और त्याग। ‘द्रव्य’ से तात्पर्य है पूजन-सामग्री, ‘देवता’ वह इष्ट देव है जिसको यह द्रव्य समर्पित किया जाना है, और ‘त्याग’ इस द्रव्य को इस देवता के निमित्त विध्ाि-पूर्वक समर्पण को कहते हैं। सामान्यतया यह समझा जाता है कि दक्षिण-मार्गी उपासना के द्रव्य में मद्य और मांस जैसे लोक-निषिद्ध पदार्थ शामिल नहीं होते और वाम-मार्गी उपासना के द्रव्य में होते हैं, किन्तु भास्कर राय के विवेचन से यह स्पष्ट है कि ‘दक्षिण-मार्गी उपासना’ और ‘वाम-मार्गी उपासना’ के बीच का अन्तर उपासना के भीतर द्रव्य-देवता-त्याग की त्रयी में उपासक द्वारा ध्येय देवता का हैः जब विष्णु की दक्षिण-मार्गी उपासना होती है तो केवल विष्णु-पूजन में ही विष्णु का ध्यान होता है जबकि विष्णु की वाम-मार्गी उपासना में सारे अन्यदेव-परक कृत्य भी विष्णु के ही निमित्त होते हैं। इस प्रकार ‘तुलसी मस्तक तब नवै, ध्ानुष-बान ल्यौ हाथ’ की प्रसिद्ध पंक्ति में भगवान राम की ‘वाम-मार्गी उपासना’ ही है क्योंकि भगवान कृष्ण की वंशीध्ार मूर्ति में भी ध्ानुधर््ाारी राम का ही रूप गोस्वामी जी ने देखना चाहा। यही बात मीरा बाई के ‘मेरो तो गिरध्ार गोपाल, दूसरो न कोई’ और मध्ाुसुदर सरस्वती जी के ‘कृष्णात्परंकिमपि तत्त्वमहन्न जाने (= मैं वंशीध्ार पीताम्बर कृष्ण के अतिरिक्त किसी तत्त्व को नहीं जानता)’ आदि के बारे में भी सच है। इसके विपरीत, पंचदेवोपासना (= दैनन्दिन पूजा के अन्तर्गत विष्णु, शिव, गणेश, सूर्य और दुर्गा की पूजा) दक्षिण-मार्गी है।
इस सिलसिले में यह कहा जाता है कि जैसे कुमारी कन्या के लिए अनेक वर देखे जाते हैं वैसे ही अनेक उपासनाओं का विध्ाान है किन्तु जैसे विवाह हो जाने पर उस कन्या से एकनिष्ठता की अपेक्षा होती है वैसे ही एक बार उपासनार्थ इष्टदेव का चुनाव कर लेने के बाद विविध्ा देवों की उपासना में मन लगाने से मन की स्थिरता की हानि होती है। यह तर्क आकर्षक और युक्तियुक्त प्रतीत होता है किन्तु पतिव्रताओं के लिए भी सास-ससुर आदि गुरुजन बिना उनमें पतिबुद्धि रखे ही पूज्य होते ही हैं अतः इस एकनिष्ठा का अर्थ यह नहीं हो सकता कि दुर्गासप्तशती का पाठ करते समय वंशीध्ार कृष्ण का ध्यान करना चाहिए। ऐसा मानने पर देवकार्य और पितृकार्य का निर्वहन कठिन हो जायेगा।
वस्तुतः सर्वत्र ब्रह्म-बुद्धि रखना भी उपासना का लक्ष्य है किन्तु विध्ाान नहीं; जब श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने यह कहा है कि मुझसे अन्य किसी देवता की उपासना न करो, तो इसका अर्थ भगवान श्रीकृष्ण को ब्रह्म समझना है न कि सभी मन्दिरों से मूर्तियाँ हटा कर उनकी जगह अर्जुन के सारथि की मूर्ति स्थापित करना। भारतीय इतिहास में इस नासमझी की कुछ झलक शैव-वैष्णव विवादों में मिलती है यद्यपि सौभाग्य से वे देश और काल में नितान्त परिसीमित तथा अपनी उग्रता में अल्पप्रभावी रहे जबकि विश्व की दुर्दशा के प्रायः सभी कारण ऐसे ही हठाग्रहों से उपजे हैं।
1.7 पशु-भाव, वीर-भाव और दिव्य-भाव
तान्त्रिक उपासना का सटीक वर्गीकरण उपासक के अध्ािकार के अनुसार है। उपासना तीन प्रकार की मानी गयी है, पशु-भाव की, वीर-भाव की और दिव्य-भाव की। ‘पशु’ का अर्थ है ‘पाशों से बँध्ाा हुआ’। इस शब्द पर विशेष विचार इस आलेख में आगे करेंगे, फिलहाल यहाँ इतना पर्याप्त है कि इन पाशों की एक प्रचलित सूची इस प्रसिद्ध श्लोक में दी हुई है जो रुद्रयामल तन्त्र का बताया जाता है ः
घृणा शंका भयं लज्जा जुगुप्सा चेति पंचमी
कुलं शीलन्तथा जातिरष्टौ पाशा इमे स्मृताः ।।
(घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील और जाति ये आठ ‘पाश’ कहे गये हैं।)
इस प्रकार घृणा (= दया), सन्देह, भय, लज्जा, जुगुप्सा (= निन्दा), कुल (की चेतना), शील (के अनुरूप आचार की चिन्ता) और जाति (का स्वीकार), ये ही पाश4 हैं और जो भी इनसे बँध्ाा हुआ है अर्थात् जिसमें भी ये मौजूद हैं, वह पशु है। इस परिभाषा के अनुसार सभी सांसारिक जीव पशु ही हैं। इनके लिए लोक-निषिद्ध द्रव्यों (मद्य, मांस आदि) का पूजा-द्रव्यों के रूप में प्रयोग सर्वथा वर्जित है।
वे साध्ाक ‘वीर’5 कहलाते हैं जिन्होंने इन पाशों से मुक्ति पा ली है। इन्हीं को वीर-भाव से उपासना का अध्ािकार होता है और इसी भाव की उपासना में ‘पंच मकार’, अर्थात् मद्य-मांस-मीन-मुद्रा-मैथुन के पंचक का प्रयोग विहित है। ‘दिव्य’ साध्ाक वे होते हैं जो ‘देवोपम’ हैं अर्थात् जिन्होंने द्रव्य को द्रव्यात्मकता से मुक्त कर लिया है और केवल आन्तरिक भावना से पूजा करने में समर्थ हैं। इनकी उपासना ‘अन्तर्याग’ या ‘महायाग’ कहलाती है।
4 यहाँ ‘घृणा’ का अर्थ ‘दया’ करने से कुछ पाठक चैंक सकते हें। इन आठ पार्शों पर कुछ चर्चा आगे भी करनी होगी, फिलहाल यहाँ पाठक को इध्ार ध्यान देना चाहिए कि ‘दया’ करने में दया करने वाले और दया-पात्र में एक उच्चावच भाव निहित है, जिससे दूरी साध्ाक के लिए काम्य है।
5 यहाँ ‘वीर’ का अर्थ ‘बहादुर’ न समझकर ‘श्रेष्ठ’ समझना चाहिए। इस प्रकार ‘वीर-वध्ा’ एक प्रशंसनीय कृत्य भी हो सकता है (क्योंकि युद्ध में कायर को मार देना किसी की शूरता नहीं बताता जबकि किसी बहादुर लड़ाके का सिर काट लाना पुरस्करणीय माना जाता है) और एक अपराध्ा भी (क्योंकि किसी श्रेष्ठ पुरुष की हत्या घोर निन्दनीय है)। ‘वीर’ शब्द के इन दोनों अर्थों के सुन्दर काव्यात्मक उपयोग के लिए देखिए नैषध्ाीयचरित (17-197)।
2 तान्त्रिक उपासना और लोक-संग्रह
इस आलेख के प्रारम्भ से ही हम इस सुपरिचित तथ्य की चर्चा करते रहे हैं कि जनमानस में तान्त्रिक उपासना के प्रति कुछ वितृष्णा और भय का भाव रहता है। अन्य मार्गों के उपदेशानुसार भगवत्पूजन करने वाले कई महात्मा भी इस उपासना की निन्दा करते देखे जाते हैं। जिस हद तक ऐसी निन्दाओं से सामान्य जन को वीराचारी उपासना से विरत रखने का उद्देश्य सिद्ध होता है, उस हद तक यह स्थिति लोकहितकारी भी कही जा सकती है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि स्वयं यह साध्ाना ही अध्ाः-पतन की ओर ले जाने वाली है। इसलिए इसका शास्त्र-निर्दिष्ट स्वरूप क्या है, इसकी ओर ध्यान दिलाना उचित प्रतीत होता है।
किन्तु शास्त्र-वचनों का तात्पर्य समझने के लिए निष्ठा और आचार्योपदेशों के प्रति विनम्रता से जाना चाहिए। जब भगवान श्रीकृष्ण ने यह कहा है कि अवतार ध्ार्म-संस्थापन के लिए होते हैं तो हम महाभारत या श्रीमद्भागवत के पास इसलिए जाते हैं कि हम यह समझें कि यह ध्ार्म-संस्थापन उन्होंने कैसे किया, यह निर्णय देने नहीं कि वे यदुकुल के संहार में भाग लेने के नाते कुलघातक हैं या गोपियों के साथ क्रीड़ाओं के नाते परदारानुरक्ति के प्रचारक हैं।
2.1 उपासना में मकार-सेवन
तान्त्रिक उपासना में ‘मकार-पंचक’- अर्थात् मद्य, मांस, मीन, मुद्रा6 और मैथुन- के विध्ाान ने ही सर्वाध्ािक उद्वेजना जगायी है अतः सबसे पहले इसी को समझना ज़रूरी है।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, उपासकों की तीन कोटियाँ हैं, पशु, वीर और दिव्य। इनमें से प्रत्येक के लिए मकार-पंचक का अलग-अलग अर्थ है। उदाहरण के लिए पशु-भाव के उपासकों के लिए मद्य की जगह नारियल का पानी और दूध्ा जैसे कई पदार्थ अनुकल्प के रूप में गिनाये गये हैं और दिव्य-भाव के उपासकों के लिए मद्य का तात्पर्य कुण्डलिनी का मूलाध्ाार से उठकर षट्चक्रभेदन करते हुए सहस्रार चक्र में पहुँचने के बाद वहाँ से झरता हुआ आनन्दात्मक अमृत-रस है जिसका खेचरी मुद्रा में अ-भौतिक पान किया जाता है। इसी प्रकार सम्पूर्ण मकार-पंचक का अनुद्वेजक अभिप्राय पशु-भाव तथा दिव्य-भाव के उपासकों के लिए बताया गया है।7 किन्तु वीर-भाव के उपासकों के लिए
6 इस सूची में ‘मुद्रा’ का तात्पर्य मदिरा-पान के समय बीच-बीच में खाये जाने वाले तले-भुने पदार्थों से है जिसे मद्य-सेवन के भीतर ही मान सकते हैं और ‘मीन’ स्पष्ट ही ‘मांस’ के भीतर गिना जा सकता है। इस प्रकार वस्तुतः तीन ही म-कार कहे जाने चाहिए और जैसा कि हम आगे देखेंगे, अभिनवगुप्त ने यही किया है।
7 इन सब के प्रमाण विविध्ा ग्रन्थों में मौजूद हैं किन्तु पाठकों की सुविध्ाा के लिए एक सुलभ सन्दर्भ कर्पूरस्तवराज की सदाशिव दीक्षित द्वारा हिन्दी में लिखी हुई रुचिरा टीका है जिसमें मूल संस्कृत प्रमाणों सहित विस्तार से ये सूचनाएँ दी हुई हैं। यह टीका इस समय इण्टरनेट पर उपलब्ध्ा है।
मकार-पंचक का लोकप्रसिद्ध अर्थ ही स्वीकृत है और उसी पर हमें यहाँ विचार करना है। भारतीय साहित्य के बहुलांश की तरह ही तन्त्र-साहित्य का भी अध्ािकांश समय के साथ विलुप्त है किन्तु जो बचा है उसका भी वैपुल्य और वैविध्य आश्चर्य-कारी है। हम ढेर सारी सामग्री बटोरने की चेष्टा नहीं करेंगे और महामाहेश्वर अभिनवगुप्त के तन्त्रालोक के आध्ाार पर कुछ कहने का प्रयास करेंगे।
2.2 लोक-संग्रह का प्रश्न
अभिनवगुप्त की शब्दावली बहुत सारे अन्य तन्त्र-ग्रन्थों से थोड़ी भिन्न है, किन्तु आध्ाारभूत तत्त्व-विश्लेषण और आचार-चर्चा में कोई भिन्नता नहीं है। उन्होंने तन्त्रालोक के उनतीसवें आह्निक में ‘कुल-याग’ के अन्तर्गत म-कारों का विवरण दिया है, जहाँ उन्होंने पाँच म-कारों की जगह केवल तीन म-कार - मद्य, मांस और मैथुन- का उल्लेख किया है। इस प्रकार उन्होंने ‘मीन’ को ‘मांस’ के अन्तर्गत और ‘मुद्रा’ को ‘मद्य’ के अन्तर्गत रख लिया है जो स्पष्टतः अध्ािक तार्किक है।
किन्तु पहले इस म-कार-सेवन के ‘औचित्य’ की ओर ध्यान देना चाहिए, जिसे समझने के लिए हम अभिनवगुप्त के चतुर्थ आह्निक की ओर मुड़ सकते हैं, जिसमें ‘शाक्तोपाय’ का विवरण है और ‘द्वादश काली’ का उल्लेख है। इसमें अभिनवगुप्त ने ‘शुद्धि’ और ‘अ-शुद्धि’ के बीच अन्तर समझाते हुए यह कहा है कि ये अन्तर ‘व्यतिरेकिणी (= भेद करने वाली)’ बुद्धि से उपजते हैं (श्लोक 118) और जो कुछ भी मन को प्रसन्न करने वाला किसी भी इन्द्रिय में स्थित है, वह ब्रह्मार्पण के लिए पूजा-द्रव्य ही है (श्लोक 120-121)। यहीं यह कह देना उचित है कि ये बातें केवलाद्वैत-सिद्धान्त में भी इसी प्रकार मानी जाती हैं।
इसके आगे उन्होंने यह कहा है कि ऐसे भेद आचार-संहिताओं पर निर्भर हैं, जो न केवल मनुष्यों के अलग समुदायों के लिए अलग हैं अपितु जिनकी यह विशेषता भी है कि एक ही आचार-संहिता का कोई विध्ाि-विध्ाान उसी आचार-संहिता के निषेध्ा-विध्ाान से काटा जा सकता है। इसके उदाहरण भी उन्होंने और उनके विद्वान टीकाकार जयरथ ने वैदिक आचार-संहिता से दिये हैं (श्लोक 237-247)। ये सारे तर्क और उदाहरण मीमांसा-शास्त्र और केवलाद्वैत के अध्येताओं के लिए अपरिचित नहीं हैं यद्यपि एक बड़ा अन्तर यह है कि केवलाद्वैत शास्त्र का पारमार्थिक मिथ्यात्व स्वीकार करता है और अभिनवगुप्त (तन्त्रालोक, 4-234) ऐसा नहीं मानते ः
अनवच्छिन्नविज्ञानवैश्वरूप्यसुनिर्भरः
शास्त्रात्मना स्थितो देवः मिथ्यात्वकंवापि नार्हति ।।
(विना किसी अवच्छेद (= निश्चयन-हेतु सीमांकन) के निरन्तर विज्ञान के कारण विश्वरूपता के पूर्णत्व को प्राप्त शास्त्र-शरीर में स्थित देव कभी भी मिथ्या नहीं हो सकता।)
इन सबके आध्ाार पर अभिनवगुप्त का मत है कि शैवी आचार-संहिता के द्वारा निर्दिष्ट विध्ाियों को वैदिक आचार-संहिता के द्वारा निर्दिष्ट निषेध्ाों द्वारा निरस्त नहीं किया जा सकता। वस्तुतः अभिनव-गुप्त वेद को ब्रह्मा-प्रणीत मानते हैं और इस प्रकार शैवागमों की अपेक्षा उनकी निम्नकक्षता का प्रतिपादन करते हैं। उन्होंने एक उच्चावच घोषित किया है (तन्त्रालोक, 4-248, 249, 250) जिसके अनुसार शैव निर्देशों को वैष्णव निर्देश नहीं बाध्ाित कर सकते और वैष्णव निर्देशों को वैदिक निर्देश नहीं बाध्ाित कर सकते ः
सर्वज्ञानोत्तरादौ च भाषते स्म महेश्वरः
नरर्षिदेवद्रुहिणविष्णुरुद्राद्युदीरितम् ।।
उत्तरोत्तरवैशिष्टयात् पूर्वपूर्वप्रबाध्ाकम्
न शैवं वैष्णवैर्वाक्यैर्बाध्ानीयंकदाचन ।।
वैष्णवम्ब्रह्मसम्भूतैर्नेत्यादि परिचर्चयेत्
बाध्ाते यो वैपरीत्यात् स मूढः पापभाग्भवेत् ।।
(महेश्वर) (= शिव) ने सभी प्रकार के ज्ञान के ऊपर अपनी बात कही है। मनुष्य, ऋषि, देव, ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र के कथनों में उत्तरोत्तर प्रामाण्य है और प्रत्येक अपने पहले के वाक्य को काट सकता है। इस प्रकार शिव के निर्देशों को विष्णु के निर्देश नहीं काट सकते, विष्णु के निर्देशों को ब्रह्मा के निर्देश (= वेद-वाक्य) नहीं काट सकते, ब्रह्मा के निर्देशों को देवताओं के निर्देश नहीं काट सकते, देवताओं के निर्देशों को ऋषियों के निर्देश नहीं काट सकते और ऋषियों के निर्देशों को मनुष्यों के निर्देश नहीं काट सकते। जो भी इसके विपरीत जाकर किसी निर्देश को काटता है, वह मूर्ख पाप का भागी होता है।)
इस क्रम-निधर््ाारण के पीछे उनकी यह मान्यता है कि वेद ब्रह्मा की रचना है और इस प्रकार उपासनार्थ ब्रह्मा-विष्णु-महेश में उत्तरोत्तर उत्कर्ष-परक तारतम्य का स्वीकार उनका मुख्य तर्क प्रतीत होता है। जैसा कि पहले कह आये हैं, केवलाद्वैती वेद को ‘ब्रह्मा-प्रणीत’ नहीं अपितु अपौरुषेय मानते हैं और इस प्रकार चाहे वे शैव हों चाहे वैष्णव, वेद को ही सर्वोपरि मानते हैं। वस्तुतः केवलाद्वैतियों के लिए यह सारा तारतम्य और चर्या-विध्ाान मिथ्या है।
इसके आगे अभिनवगुप्त ने कहा है कि (तान्त्रिक उपासक को) ‘मुख्यतया’ लोक-ध्ार्मों का पालन नहीं करना चाहिए और अन्य शास्त्रों (जैसे वैष्णव या वैदिक) के निर्देशों का अनुपालन न कर के अपने शास्त्र के निर्देशों का अनुपालन करना चाहिए (श्लोक 251)। इस ‘मुख्यतया’ की व्याख्या करते हुए जयरथ ने समझाया है कि तान्त्रिक उपासक की इन लोकध्ार्मों में निष्ठा नहीं रहती अतः उसके द्वारा लोक-संरक्षण के लिए इन लोक-ध्ार्मों का अनुपालन गौण रूप में करना अनुचित नहीं है। इसके समर्थन में उन्होंने यह प्रसिद्ध प्रमाण-वाक्य उद्धृत किया है ः
अन्तःकौलो बहिःशैवो लोकाचारे तु वैदिकः
सारमादाय तिष्ठेत नारिकेलफलं यथा ।।
(उपासक को चाहिए कि वह) भीतर से कौल हो, बाहर से शैव हो और लोकाचरण में वैदिक बना रहे; इस प्रकार नारियल के फल की तरह अपने सार-तत्त्व को भीतर छिपा कर रहे।)
कुल मिलाकर अभिनवगुप्त ने वैदिक यज्ञों में पशु-हिंसा आदि के विध्ाान, वैष्णव सम्प्रदायों द्वारा इन विध्ाानों का अतिक्रमण करते हुए आटे से पशु बना कर यज्ञ आदि करने के विध्ाान, तान्त्रिक सम्प्रदायों में इन सब का अतिक्रमण करते हुए अपनी साम्प्रदायिक उपासनाओं में मद्य-मांस-मैथुन, चक्र-पूजा, श्मशान-साध्ाना आदि के विध्ाान और इन सभी के द्वारा अपने उपासना-व्यवहारों को अध्ािकारी उपासकों तक सीमित रखते हुए सार्वजनिक जीवन में श्रुति-स्मृति-समर्थित मर्यादा के अनुरूप लोक-व्यवहार, इन सभी को एक साथ साध्ाने का उपक्रम किया है।
2.2.1 टिप्पनः ‘तान्त्रिक’ और ‘वैदिक’
अभिनवगुप्त (और उनके टीकाकार जयरथ) द्वारा तान्त्रिक उपासना में लोकाचार-विरुद्ध कृत्यों के विध्ाान के पक्ष में यह तर्क उपस्थित किया गया है कि वैदिक यज्ञों में भी लोकाचार-विरुद्ध कृत्यों का विध्ाान है। यह जानकारी आध्ाुनिक विद्वान् भी कभी-कभार यह प्रमाणित करने के विचार से देते रहते हैं कि ‘प्राचीन भारत’ में सनातनध्ार्मियों का औसत रहन-सहन उन्हीं आदर्शों और व्यवहारों से संचालित था जो एक स्वच्छन्दचारी उपभोक्ता समाज के आदर्श और व्यवहार होते हैं और ज्ञात इतिहास के सनातनध्ार्मी द्वारा गोमांस-भक्षण-निषेध्ा जैसी वर्जनाओं के अध्ाीन जीवन बिताना उसके अज्ञानी तथा दुराग्रही होने का प्रमाण है। ऐसी किसी बहस में न उलझते हुए भी, यहाँ पाठक को यह जिज्ञासा हो सकती है कि ‘वैदिक’ लोकाचार में निबद्ध सनातनध्ार्मी उन लोकाचार-विरुद्ध कृत्यों के विध्ाान को कितना और कैसे जानते होंगे जिनकी चर्चा अभिनवगुप्त ने तान्त्रिक उपासना में लोकाचार-विरुद्ध कृत्यों के विध्ाान को तार्किक बताने के लिए की है।
इस जिज्ञासा के समाध्ाान-हेतु मैं भारत के एक मूधर््ान्य महापण्डित और केवलाद्वैतियों के शिरोभूषण महाकवि श्रीहर्ष के महाकाव्य नैषध्ाीय-चरित के सत्रहवें सर्ग की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ। प्रसंग यह है कि महाराज नल के राज्य में कलि (युग) प्रवेश करना चाहता है और नागरिकों का कोई पाप-कर्म खोज रहा है ताकि उस छिद्र से वह नल के राज्य में घुस सके। वह इसमें असफल होता है जब वह देखता है कि ः
1. (श्लोक 177) एक जगह गो-वध्ा की तैयारी हो रही है किन्तु वह ‘गो-मेध्ा’ नामक यज्ञ के लिए है।
2. (श्लोक 182) एक जगह ब्राह्मण मदिरा-पान कर रहा है किन्तु वह ‘सौत्रामणी’ यज्ञ के सम्पादन में कर रहा है।
3. (श्लोक 186) एक जगह ब्रह्महत्या हो रही है किन्तु वह ‘सर्वमेध्ा’ यज्ञ में हो रही है।
4. (श्लोक 1189) एक जगह जुआ खेला जा रहा है किन्तु ‘राजसूय’ यज्ञ में।
5. (श्लोक 194) एक जगह एक व्यक्ति अपने पास आयी किसी भी कामुकी के साथ (गम्या-अगम्या का विचार किये बिना) रति-प्रवृत्त हो जाता है किन्तु ऐसा वह ‘वामदेव्य उपासना’ के अन्तर्गत कर रहा है।
6. (श्लोक 198) एक जगह कई ब्राह्मण भोजन करते समय एक दूसरे को छू रहे हैं (जो सनातन आचार के विरुद्ध है क्योंकि इस प्रकार वे एक दूसरे का जूठा खा रहे हैं) किन्तु वे ऐसा सोम-पान के समय कर रहे हैं (जिसे करते हुए उच्छिट-भोजन का निषेध्ा अप्रभावी होता है)।
7. (श्लोक 199) एक जगह एक व्यक्ति ध्ाूल में लिपटा हुआ दिखायी पड़ता है किन्तु इसका कारण यह है कि उसने ‘पावन स्नान’ किया है।8
8. (श्लोक 200) एक जगह बैल काटा जा रहा है किन्तु पता लगता है कि वह अतिथियों के निमित्त है।
9. (श्लोक 201) एक जगह एक ब्राह्मण ने अपने नित्य-नैमित्तिक कर्म (सन्ध्या-वन्दन-तर्पण आदि) छोड़ रखे हैं किन्तु इसका कारण यह है कि उसने यज्ञ की दीक्षा ले रखी है (जिसके बाद यज्ञ की परिसमाप्ति तक ये कृत्य नहीं किये जाते)।
10. (श्लोक 202) एक जगह एक व्यक्ति आत्म-हत्या कर रहा है किन्तु इसका कारण यह है कि वह ‘सर्वस्वार यज्ञ’9 कर रहा था।
11. (श्लोक 203) एक जगह एक ब्रह्मचारी और एक कुलटा परस्पर मैथुन-रत थे किन्तु पता लगा कि यहाँ तो ‘महाव्रत’ नामक यज्ञ हो रहा है (जिसमें इसका विध्ाान है)।
12. एक जगह कलि ने यजमान की पत्नी को घोड़े के शिश्न का अपने उपस्थ में निध्ाान करते हुए देखा (किन्तु उसे मालूम नहीं था कि यहाँ अश्वमेध्ा हो रहा है जिसमें इसका विध्ाान है)।
श्रीहर्ष की सूची लम्बी है और इसमें से कुछ का उल्लेख अभिनवगुप्त (तथा जयरथ) ने किया है। तर्क दोनों का एक ही हैः चूँकि इन श्रौत कर्मों में इनका विध्ाान है इसलिए ये कृत्य सम्पादित हो रहे थे। अभिनवगुप्त का कहना है कि ठीक इसी प्रकार, चूँकि तान्त्रिक उपासना में कुछ लोकाचार-विरुद्ध कृत्यों का विध्ाान है इसलिए ये किये जाते हैं।
8 सामान्य प्रचलित जल-स्नान को ‘वारुण’ कहते हैं। इसके अतिरिक्त शुद्धि के निमित्त कुछ अन्य स्नान भी विहित हैंः गाय के खुरों से उठती ध्ाूल से स्नान ‘वायव्य स्नान’ कहलाता है और भस्म से स्नान ‘आग्नेय’।
9 यह यज्ञ मरणासन्न व्यक्ति के द्वारा किया जाता है और इसे जैनियों के ‘सन्थारा व्रत’ और वर्तमान समय में बहुचर्चित मनजींदेंपं के इर्दगिर्द समझना चाहिए।
फिर जयरथ ने तान्त्रिकों को सार्वजनिक जीवन में ‘वैदिक’ बने रहने की सलाह क्यों दी है? इसलिए कि स्मृति-कारों ने कलियुग में सनातनध्ार्मियों के लिए सभी श्रौत कर्म वर्जित कर दिये हैं। ‘कलियुग’ पिछले छह हज़ार वर्षों को अपने में समेटता है, जो मानवीय इतिहास की ज्ञात सभ्यताओं के उदयास्त की पूरी कहानी है, अर्थात् वस्तुतः किसी भी श्रौत कर्म के विध्ािवत् सम्पादन का कोई प्रमाण ध्ार्मशास्त्रीय निर्देशों के बाहर नहीं है। इसलिए अश्वमेध्ा यज्ञों के पुष्यमित्र शुंग से लेकर जयपुर-नरेश सवाई जयसिंह जैसे इतिहास-वर्णित सम्पादक अभिनेता-मात्र माने जाने चाहिए और यही बात उन तमाम पण्डितों के बारे में भी सच है कि जिनके नाम के आगे ‘सोमयाजी’ जैसी उपाध्ाियाँ लगी मिलती हैं। इसलिए ‘वैदिक’ लोकाचार में इन वैदिक कर्मों के सम्पादन का अवकाश नहीं है और कलियुग में हरि-कथा तथा हरिनाम-स्मरण जैसे कृत्य ही ध्ार्म-पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए स्वीकृत हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि महाराज नल की उपस्थिति कृतयुग में मानी जाती है, जो चतुर्युगी का प्रथम युग है और इसलिए जिसमें वैदिक कृत्यों का सम्पादन होता हुआ श्रीहर्ष दिखा सके हैं यद्यपि वे स्वयं बारहवीं सदी के कान्यकुब्ज-नरेश जयचन्द्र के सभापण्डित थे और इस नाते ये सभी वैदिक अनुष्ठान उनके लिए निषिद्ध थे।
किन्तु तान्त्रिक उपासना के उपदेष्टाओं ने युगानुकूल सामाजिक सामथ्र्य के अनुरूप निर्देशों की अवतारणा नहीं की और इस प्रकार साध्ाक के निजी उत्कर्ष को महत्व देते हुए अपने शास्त्रों की सत्ता को पारमार्थिक मान कर उनकी अपरिवर्तनीयता को व्यावहारिक अर्थ में भी अक्षुण्ण रखा। मेरी समझ में जगत् को मिथ्या न मानने का यह एक अवांछित किन्तु अपरिहार्य परिणाम है। फिर भी, जयरथ ने (तन्त्रालोक, 4-244 के पूर्वाद्र्ध की व्याख्या करते हुए) एक बात कही है जिसपर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने कहा है कि ऋषियों ने अपने द्वारा निभाये गये वैदिक विध्ाानों को इसलिए सार्वजनिक रूप से निन्दनीय बताया है कि लोकयात्रा उच्छिन्न न हो। इसलिए जो उन्होंने किया है, वह नहीं करना चाहिए, वह करना चाहिए जो उन्होंने कहा है (= यत्ते कुर्युर्न तत्कुर्याद्यद्रूयुस्तत्समाचरेत्)। यह प्रकारान्तर से ‘कलिवज्र्य’ ही है।
2.2.2 टिप्पनः अ-पौरुषेयता और प्रामाण्य
‘वैदिक’ से अभिनवगुप्त का अभिप्राय वही है, जो साध्ाारणतया सनातनध्ार्मी समझते हैं- वैदिक = श्रुति-स्मृति-समर्थित। इस समीकरण में ‘श्रुति’ का अर्थ है ‘वेद’, जिसके अर्थ का उपबृहण ही स्मृति-पुराण-इतिहास आदि में माना जाता है। ‘स्मृति’ के भीतर ध्ार्मशास्त्रीय स्मृति-ग्रन्थों के अतिरिक्त व्याकरण जैसे शास्त्र, रामायण-महाभारत-पुराण जैसे ऋषि-प्रणीत ग्रन्थ, भगवद्गीता जैसे भगवद्वचन आते हैं; कालिदास आदि महाकवियों के काव्य भी ‘स्मृति’ के रूप में स्वीकार किये गये हैं। संक्षेप में किसी भी ‘आप्त पुरुष’ का वचन ‘स्मृति’ है और प्रमाण माना जाता है। किन्तु यह प्रमाण पुरुष-आध्ाारित होने के नाते ‘पौरुषेय’ कहलाता है और इसका प्रामाण्य तभी तक है, जब तक यह श्रुति-वचन के विरोध्ा में नहीं जाता; विरोध्ा की स्थिति में श्रुति-वचन ही प्रमाण होता है। इसलिए वेद-वाक्य ‘स्वतः-प्रमाण’ माने जाते हैं और जब स्मृतियाँ ने किसी वैदिक कृत्य को कलियुग में वर्जित बताया है तो उन्होंने उसको अ-प्रमाणित नहीं कहा है, केवल उसके सम्पादन को देशकाल-निबद्ध किया है और इस प्रकार उसके तात्पर्य का ही उपबृहण किया है। वेदों के इस स्वतःप्रामाण्य की स्वीकृति के पीछे यह मान्यता है कि वे ‘अ-पौरुषेय’ हैं; अर्थात् उन्हें किसी पुरुष ने रचा नहीं है और इस नाते पौरुष रचना के सम्भावित दोष उनमें नहीं हैं।
किन्तु वेदों के प्रामाण्य के बारे में अभिनवगुप्त का मत भिन्न है। तन्त्रालोक (4-243) में अभिनवगुप्त कहते हैंः
अबुद्धिपूर्वं हि तथा संस्थिते सततम्भवेत्।
व्योमादिरूपे निगमे शंका मिथ्यार्थताम्प्रति।।
(यदि निगम (= वेद) अ-बुद्धिपूर्वक रचे माने जाएँ तो वे शून्य-रूप होंगे और उनकी मिथ्यार्थता के प्रति लगातार शंका बनी रहेगी।)
इसकी टीका का समापन करते हुए जयरथ ने इस प्रमाण-वाक्य का आश्रय लेते हुए अभिनवगुप्त का आशय स्पष्ट किया है ः
आप्तन्तमेव भगवन्तमनादिमीशमाश्रित्य विश्वसिति वेदवचस्सु लोकः।
तेषामकर्तृकतया तु न कश्चिदेव विस्रम्भमेति मतिमानिति वर्णितम्प्राक्।।
(लोग वेदवाक्यों में विश्वास केवल उस आप्त अनादि ईश्वर पर भरोसे के नाते (यह मान कर कि वेदों को ईश्वर ने बनाया है) करते हैं; पहले ही कहा गया है कि कोई बुद्धिमान् व्यक्ति वेद-वाक्यों में भरोसा करता है तो इसलिए नहीं कि उन्हें किसी ने रचा ही नहीं है।)
वेदों की रचना को ‘अ-बुद्धिपूर्व’ कहने के पीछे अभिनवगुप्त का इशारा क्या हो सकता है? जयरथ का कहना है कि इसका तात्पर्य यह है कि कुछ अन्य मतानुयायी वेद-वाणी को बादलों की गरज की तरह अ-बुद्धिपूर्वक की गयी ध्वनि मानते हैं- परमते घनगर्जितवदबुद्धिपूर्वम् - और यदि इस प्रकार वेदों का ‘अ-बुद्धिमत्कर्तृकत्व’ स्वीकार किया जाएगा तो वेदवचन शून्यप्राय ही होंगे जिनमें मिथ्यार्थता की शंका बनी रहेगी।
यहाँ इतना तो स्पष्ट है कि जयरथ के मत में ‘अ-कत्र्तृकत्व’ और ‘अ-बुद्धिमत्कत्र्तृकत्व’ एक ही हैं तथा इशारा वेदों को अ-पौरुषेय मानने वालों की ओर हैः ‘पुरुष’ ही ‘बुद्धि-मान्’ होता है और यदि वेद किसी पुरुष की कृति नहीं है तो उनका अ-बुद्धिमत्कत्र्तृकत्व ही स्वीकार करना पड़ेगा। किन्तु ‘अ-बुद्धिपूर्व’ शब्द बहुत प्रचलित नहीं है और देखने की बात यह है कि वे कौन हैं जिनके मत में यह ‘अ-बुद्धिमत्कर्तृकत्व’ स्वीकार किया गया है?
मेरी समझ में यह इशारा योगवासिष्ठ-कार की ओर है जिन्होंने सृष्टि को अनेकत्र ‘अ-बुद्धिपूर्व’ रचना बताया है। फिलहाल हम योगवासिष्ठ के निर्वाण-प्रकरण (उत्तराधर््ा) के ‘शालभंजिकोपदेश’ नामक एक सौ अट्ठावनवें सर्ग के प्रथम श्लोक पर ध्यान दे सकते हैंः
अबुद्धिपूर्वमेवागो यथा शाखाविचित्रताम्
करोत्येवमजश्चित्राः सर्गाभासः ख एव खम्।।
(जैसे वृक्ष बिना बुद्धि के ही अपनी शाखाओं को विचित्र रूप में फैलाता है उसी प्रकार यह अजन्मा परमात्मा अपने शून्याकार में ही शून्याकार सर्गाभासों की रचना करता है।)
योगवासिष्ठ केवलाद्वैत का शीर्षस्थ ग्रन्थ है किन्तु इसे पढ़ते हुए बहुत से केवलाद्वैतियों को भी कुछ असुविध्ाा होती है। प्रस्तुत पद्य में भी टीकाकार आनन्दबोध्ोन्द्र सरस्वती ने यह प्रश्न उठाया है कि जब तमाम श्रुति-वाक्य यह बताते हैं कि परमात्मा ने ‘ईक्षण (= विचार) पूर्वक’ सृष्टि की तो कैसे कहा जा सकता है कि यह सृष्टि ‘अ-बुद्धिपूर्वक’ हुई। उनका समाध्ाान यह है कि श्रुति का तात्पर्य निष्प्रपंच ब्रह्म के प्रतिपादन में है न कि प्रपंचात्मक सृष्टि के प्रतिपादन में, क्योंकि ब्रह्म में सृष्टि की समझ वैसे ही मिथ्या है जैसे रस्सी में साँप की या सीपी में चाँदी की समझ, और ऐसी कोई भी समझ ‘बुद्धिपूर्वक’ नहीं होती। इसलिए जब यहाँ वसिष्ठ जी ने भगवान् राम से यह कहा कि सृष्टि ‘अ-बुद्धिपूर्वक’ होती है तो उनका आशय यह है कि किसी को भी यह शंका न हो कि यह सृष्टि एक मिथ्या आरोप नहीं है अपितु सत्य है। सृष्टि-रचना के पूर्व भगवान् द्वारा तन्निमित्त ईक्षण, कामना, संकल्प आदि का जो उल्लेख श्रुतियों में आता है, वह केवल उन ईक्षणादि की मायामात्रकता के सन्दर्भ में है और बुद्धि तत्व की रचना के पहले के ईक्षणादि को बताता है।
ठीक यही बात भास्कर राय ने ललितासहस्रनाम की अपनी टीका में व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी नाम की व्याख्या करते हुए कुछ विस्तारपूर्वक कही है। उन्होंने कहा है कि परशिव (= ब्रह्म) की सिसृक्षा (= सृष्टि करने की इच्छा) को बताने के लिए उपनिषदों में आये ‘ईक्षण’, ‘काम’, और ‘तप’ जैसे शब्द जिस मायात्मिका वृत्ति को बताते हैं, उसने जो प्रथम सृष्टि की वह ‘अ-बुद्धिपूर्वक’ ही थी। इस अवस्था में माया का त्रैगुण्य अविभाजित रहता है और इस अव्यक्तता को ही ‘तमस्’ कहते हैं। तत्पश्चात इस त्रैगुण्य की ‘ईषद्वाक्त’ अवस्था वाला ‘महत्’ सर्ग होता है और फिर ‘अहंकार’ की सृष्टि होती है जिसमें सत्व, रजस्, तथा तमस्, ये तीनों गुण स्फुट हो जाते हैं। इसके आगे भी इस प्रक्रिया का उन्होंने बड़ा विस्तार दिया है, जिसे यहाँ देना आवश्यक नहीं। इस प्रकार हम यह मान सकते हैं कि योगवासिष्ठ, या यों कहें कि केवलाद्वैत, के अनुसार सृष्टि-रचना किसी ‘पुरुष’ द्वारा नहीं की गयी। तब जिस वेद से सृष्टि-रचना निर्दिष्ट होती है, उसके ‘पौरुषेय’ होने की सम्भावना स्वतः समाप्त हो जाती है- वे यों भी ब्रह्म के ‘निःश्वसित’ कहे जाते हैं और श्वास-निःश्वास की क्रिया ‘अ-बुद्धिपूर्वक’ ही होती है। आगे योगवासिष्ठ के इस सर्ग में ईश्वरादिक को ‘शून्यात्मक (= अविद्यमान)’ बताया गया है और सम्भव है, अभिनवगुप्त को यह शून्यात्मकता स्वीकार्य न हो। इसे ठीक से समझने के प्रयास के लिए जितने ऊहापोह की आवश्यकता है, उसके लिए यहाँ अवकाश नहीं है।
2.3 कुलाचार
यद्यपि अभिनवगुप्त ‘वीर (= श्रेष्ठ)’ शब्द का भी प्रयोग करते हैं, उच्चिष्ठ साध्ाकों के लिए उनका प्रिय शब्द ‘कौल’ है, जो सम्पूर्ण तान्त्रिक साध्ाना में सर्वाेच्च कोटि के उपासक के लिए प्रयुक्त होता है। यह शब्द ऊपर आ चुका हे और हम फि़लहाल ‘वीर’ के समानार्थी के रूप में इस शब्द का उपयोग करेंगे। यह ‘कुल’ से बना है जिस पर कुछ विचार आगे आवश्यक होगा।
जैसा पहले कह आये हैं, कौल (= वीर) उपासक वे हैं, जिन्होंने पार्शों पर विजय प्राप्त कर ली है और फलतः जो उन बन्ध्ानों को तोड़ चुके हैं, जो मनुष्य को संसार-चर्या में बाँध्ाते हैं। ये सारे पाश मनुष्यों को कर्म से बाँध्ाते हैं- उदाहरण के लिए जिसे अपने ब्राह्मणत्व का बोध्ा है, वही ब्राह्मण के लिए विहित यजन-याजन आदि करने के लिए बाध्य होगा- और चूँकि कर्म का उद्भव काम से ही है, इसलिए वीर साध्ाक की वीरता का तात्पर्य यही है कि उसने काम पर विजय प्राप्त कर ली है, अर्थात् उसे कर्म और कर्म-फल-भोग के उस चक्र में कोई रुचि नहीं रह गयी, जो उसे स्वर्ग-नरक-पुनर्जन्म के निरन्तर घूमते पहिये में सीमित करता है। वह ‘जीवन्मुक्त’ है, वह जो भी कर्म करता है, उसमें उसका कर्तृत्व-भाव नहीं रहता। इस अवस्था में पहुँचे हुए साध्ाक के लिए ‘जीवन्मुक्त’ एक बहु-प्रचलित शब्द है, जिसे समझाने के लिए शंकरानन्द स्वामी ने श्रीमद्भगवद्गीता पर अपनी टीका में य इदम्परमंगुह्यम् ... (18-68) की व्याख्या के अन्तर्गत एक बहुत सुन्दर उदाहरण दिया है ः
पुंखानुपुंखविषयेषु च तत्परोऽपि ब्रह्मावलोकननिरूढमना हि योगी।
संगीततालपरिनृत्यवशंगतापि मौलिस्थकुम्भपरिरक्षणध्ाीर्नटीव ।।
(जिस प्रकार संगीत, ताल और अपने चारों ओर चल रहे (नर्तक-मण्डल द्वारा किये जा रहे) नृत्य के अनुसार पूरी तरह रहते हुए भी नाट्य करती हुई नर्तकी अपना ध्यान इस पर केन्द्रित रखती है कि उसके सिर पर रखा हुआ घड़ा ज़रा-सा भी न खिसके, उसी प्रकार योगी (= ज्ञानी) विषयों में पूरी तरह तत्पर होते हुए भी ब्रह्म-साक्षात्कार में ही अपना मन लगाये रहता है।
(नृत्य में अंग-संचालन-कौशल की पराकाष्ठा उस नृत्य में मानी जाती थी जिसमें नर्तकी अपने सिर पर जल से भरा हुआ घड़ा रख कर नाचती है और एक बूँद भी पानी के घड़े से बाहर नहीं छलकता। उसी का सन्दर्भ यहाँ दिया गया है।)
इस प्रकार ‘जीवन्मुक्त’ वह है, जिसके बन्ध्ान उसके जीवन-काल में ही कट चुके हैं अर्थात् जिसे जीते-जी ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान प्राप्त हो चुका है और फलतः जिसकी निष्ठा इस संसार-चक्र को चलाने वाले कर्म में नहीं रही; अतः वह कर्म को निस्सार मानते हुए ही कर्म-सम्पादन करता है। ‘जीवन्मुक्त’ मुख्यतः केवलाद्वैत-शब्दसम्पदा का शब्द है किन्तु तन्त्रालोक में भी यह आया है। इस तान्त्रिक सन्दर्भ में ‘जीवन्मुक्त’ को ‘कौल’ और ‘वीर’ का पर्यायवाची मानकर चलना चाहिए।
अभिनवगुप्त ने मद्य-मांस-मैथुन-मयी उपासना को ‘कुल-याग’, ‘आद्य-याग’, ‘रहस्य-याग’ जैसे कई नामों से पुकारा है और तन्त्रालोक के उनतीसवें आह्निक में इसका वर्णन प्रारम्भ करते हुए घोषणा की है ः
अत्र यागे च यद्रव्यन्निषिद्धं शास्त्रसन्ततौ।
तदेव योजयेद्धीमान्वामामृतपरिप्लुतम् ।।29-10।।
(जो द्रव्य शास्त्र के द्वारा निषिद्ध है, ज्ञानी को इस याग में उन्हीं द्रव्यों का उपयोग उन्हें मदिरा से सराबोर करके करना चाहिए।)
यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि अभिनवगुप्त का निर्देश निषिद्ध द्रव्यों को उनकी निषिद्धता जानते-बूझते उपयोग में लाने का है। इस प्रकार शबरी द्वारा भगवान् राम को अपने जूठे बेर खिलाना यहाँ उदाहरण नहीं बनेगा क्योंकि वह प्रेमावेग में उच्छिष्ट की निषिद्धता भूल गयी थी। इस घोषणा को उन्होंने अनेकत्र समर्थित किया है। उदाहरण के लिए आगे (29-98) में वे कहते हैंः ओष्ठयान्तत्रितयासेवी ब्रह्मचारी स उच्यते (= ओष्ठय, अर्थात् प-वर्ग, के अन्तिम, अर्थात् ‘म’, से प्रारम्भ होने वाले तीन पदार्थ, अर्थात् मद्य, मांस और मैथुन का सेवन करने वाले को ‘ब्रह्मचारी’ कहते हैं)। इसी प्रकार तन्त्रालोक (4-243) की व्याख्या में जयरथ ने एक प्रमाण-वाक्य उद्धृत किया हैः
यद्रव्यं लोकविद्विष्टं यच्च शास्त्रबहिष्कृतम्
यज्जुगुप्स्यंच निन्द्यंच वीरैराहार्यमेव तत्।।
(जो भी पदार्थ लोकाचार में निषिद्ध हैं, जो शास्त्र द्वारा बहिष्कृत हैं, जिनसे घिन आती है, जो निन्दनीय हैं, वे ही पदार्थ वीराचारियों द्वारा तान्त्रिक उपासना में इस्तेमाल किये जाने चाहिए।)
अभिनवगुप्त ने सचेष्ट भाव से तान्त्रिक उपासना को ‘याग (= यज्ञ)’ कहा है और यह स्पष्ट है कि वे इस उपासना को वैदिक यज्ञ का सजातीय समकक्ष मानते हैं। इस सजायतीयता के समर्थन में उनके कुछ तर्क और उदाहरण ऊपर आ चुके हैं। चूँकि ‘शास्त्र के द्वारा निषिद्ध’ इन द्रव्यों का उपयोग कुछ वैदिक यज्ञों में विहित है इसलिए अभिनवगुप्त ने इनके विध्ाान को सार्वकालिक औचित्य से मण्डित करते हुए इनका उपयोग तान्त्रिक उपासना में निर्दिष्ट किया है। उनका ‘कुल-याग’ प्रध्ाानतः ‘मैथुन’ पर आध्ाारित है, जिसके अंग के रूप में ही मद्य और मांस के सेवन का विध्ाान है (तन्त्रालोक, 29-98)। इसमें साध्ाक स्वयं को शिव और सहयोगिनी स्त्री को शक्ति मान कर शिव-शक्ति-सामरस्य की भौतिक अवतारणा के रूप में मैथुन-रत होता है। ‘शक्ति’ के लिए ‘दूती’ शब्द का भी प्रयोग तन्त्रालोक समेत अनेक तन्त्र-ग्रन्थों में हुआ है।
‘दूती’ कौन और कैसी होनी चाहिए इस विषय में जयरथ ने तन्त्रालोक (29-100, 101, 102) का आशय स्पष्ट करते हुए बड़े विस्तार से चर्चा की है। संक्षेप में, दूती में वे सभी विशेषताएँ होनी चाहिए जो काम-शास्त्र और साहित्य-शास्त्र में वर्णित नायिकाओं के लिए काम्य हैं, साथ ही उसमें इस साध्ाना के प्रति पूरी प्रतिबद्धता भी होनी चाहिए। इन सभी गुणों से सम्पन्न दूती का मिलना बहुत कठिन है इसलिए कुछ कम गुणों वाली दूती का भी सहयोग लिया जा सकता है किन्तु बिना दूती के याग नहीं करना चाहिए।
एक प्रश्न इस उपासना को रिरंसा (= रति की इच्छा) से मुक्त रखने का है जिसके लिए बताया गया है कि दूती इन छह में से होनी चाहिए- माता, पितामही, पुत्री, पुत्री की पुत्री, बहिन और बहिन की बेटी। उपासक की पत्नी को शक्ति के रूप में नहीं स्वीकार किया गया है क्योंकि उसमें रिरंसा की सम्भावना है। स्पष्ट ही अन्य सभी वर्जनाओं के अतिक्रमण के साथ-साथ इस अगम्या-गमन के विध्ाान द्वारा उपासक की अनासक्ति और इस उपासना में उसकी निष्ठा की चरम परीक्षा इष्ट है।
वैदिक कर्मकाण्ड में इस ‘दूती-याग’ के पूर्वज के रूप में ‘वामदेव्य उपासना’ का उल्लेख ऊपर आ चुका है अतः उस पर एक नज़र डाल लेना ठीक रहेगा ताकि ‘वैदिक’ और ‘तान्त्रिक’ के बीच का प्रत्ययात्मक अन्तर कुछ स्पष्ट हो सके। इस उपासना का उल्लेख छान्दोग्योपनिषद् (2-13) में है जिसे मैं शांकर भाष्य के आध्ाार पर किये गये अनुवाद के साथ उद्धृत कर रहा हूँ ः
उपमन्त्रयते स हिंकारो ज्ञपयते स प्रस्तावः स्त्रिया सह शेते स उद्गीथः
प्रति स्त्रीं सह शेते स प्रतिहारः कालंगच्छति तन्निध्ानम्पारंगच्छति
तन्निध्ानमेतद्वामदेव्यम्मिथुने प्रोक्तम् ।।1।।
स य एतद्वामदेव्यम्मिथुने प्रोतं वेद स मिथुनीभवति मिथुनान्मिथुनात्प्रजायते
सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति महान्प्रजया पशुभिर्भवति महान्कीत्र्या न कांचन परिहरेत्तद्व्रतम् ।।2।।
(= पुरुष (मैथुनार्थ स्त्री को) जो संकेत देता है, वह ‘हिंकार’ है, जो (उस स्त्री को मैथुनार्थ प्रवृत्त करने के लिए मीठी बातें करके) प्रसन्न करता है वह ‘प्रस्ताव’ है, स्त्री के साथ जो सहशयन करता है वह ‘उद्गीथ’ है, स्त्री की ओर जो मैथुनार्थ अभिमुख होता है, वह ‘प्रतिहार’ है, मैथुन में जो समय बिताता है, वह ‘निध्ान’ है और जो मैथुन-कर्म की परिसमाप्ति तक पहुँचता है, वह भी ‘निध्ान’ ही है। यह ‘वामदेव्य सामोपासना’ मैथुन-रत स्त्री-पुरुष-युगल में ओत-प्रोत है क्योंकि वायु और जल से इसका सम्बन्ध्ा है।10
10 ‘साम’ को आध्ाुनिक भाषा में चलताऊ तौर पर ‘ऋग्वेद के मन्त्रों की सांगीतिक प्रस्तुति’ समझ सकते हैं। वामदेव्य साम कयानश्चित्र... (ऋग्वेद, 3-6-24) मन्त्र पर है। प्रत्येक साम-गायन पाँच खण्डों में विभक्त होता है जो क्रमशः ‘हिंकार’, ‘प्रस्ताव’, ‘उद्गीथ’, ‘प्रतिहार’ और ‘निध्ान’ कहलाते हैं।
जो मैथुन-रत स्त्री-पुरुष-युगल में ओत-प्रोत इस वामदेव्य उपासना को जानता है, वह विध्ाुर नहीं होता, वह प्रत्येक रेतःपात से सन्तति प्राप्त करता है, वह पूरी आयु जीता है, उसका जीवन उज्ज्वल रहता है, वह सन्तान से, पशुओं से तथा कीर्ति से महान् होता है। इस वामदेव्य उपासना के उपासक का यह नियम है कि उपासक किसी भी ऐसी स्त्री को न ठुकराये जो समागम की इच्छा से उसके पलंग तक पहुँच गयी है (परस्त्री-गमन का निषेध्ा करने वाले ध्ार्मशास्त्रीय आदेश तब प्रभावी होते हैं, जब मैथुन वामदेव्य उपासना का अंग न हो)।)
उद्धरण-ग्राही जिन विद्वानों को इसके आध्ाार पर ऐसा लग सकता है कि छान्दोग्योपनिषद् में उच्छृंखल यौनिकता का ‘उपदेश’ है, उनके हितार्थ गीताप्रेस के संस्करण में दिये अनुवाद के अन्तर्गत ‘अपनी अनेक पत्नियों में से एक’ जैसे अंश जोड़ दिये गये हैं ताकि वे ‘उपनिषद् में व्यभिचार’ की जगह ‘उपनिषद् में बहुपत्नी-प्रथा’ पर अपना ज्ञान-वितरण केन्द्रित कर सकें, किन्तु अच्छा यह है कि इस ओर ध्यान दिया जाय कि यहाँ कई उपासनाएँ दी हुई हैं और प्रत्येक में एक नियम है; उदाहरण के लिए रथन्तर साम की उपासना उसे अग्नि में अनुस्यूत मान कर होती है और नियम यह है कि उपासक अग्नि की ओर मुँह करके न थूके।
उपासना को अग्नि में या वायु-जल (के मेलन को प्रतीकीकृत करते हुए स्त्री-पुरुष-युग्म) में अनुस्यूत मानना ‘संवादी अध्यास’11 कहलाता है जैसे (छान्दोग्योपनिषद्, 5-8 के अनुसार) स्त्री में अग्नि-बुद्धि की जाती है ः
योषा वाव गौतमाग्निस्तस्या उपस्थ एव समिद्यदुपमन्त्रयते स ध्ाूमो
योनिरर्चिर्यदन्तःकरोति तेंऽगारा अभिनन्दा विस्फुलिंगाः ।।1।।
तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्नति तस्या आहुतेर्गर्भः सम्भवति ।।2।।
(हे गौतम! स्त्री ही अग्नि है। उसका उपस्थ ही समिध्ाा है, पुरुष जो (उसका मैथुनार्थ) उपमन्त्रण करता है, वह ध्ाूम है, योनि ज्वाला है तथा जो भीतर की ओर करता है, वह अंगारे हैं और उससे जो सुख होता है, वह विस्फुलिंग हैं।
उस इस अग्नि में देव वीर्य का हवन करते हैं, उस आहुति से गर्भ उत्पन्न होता है।)
इन सभी ‘संवादी अध्यासों’ के द्वारा की जाने वाली उपासनाएँ चन्द्रलोक-प्राप्ति जैसे क्षयिष्णु फल देती हैं तथापि इनको करने से ही वह चित्तशुद्धि प्राप्त होती है, जो कैवल्य-भाव के लिए अनिवार्य है। किन्तु तान्त्रिक अवध्ाारणा में ब्रह्म और जगत् को समसत्ताक मानने के नाते उपासना का मार्ग सीध्ो परमशिव तक पहुँचाता है।
11 ‘संवादी अध्यास’ ऐसी मान्यता को कहते हैं, जो परमार्थतः मिथ्या है किन्तु परमार्थ-प्राप्ति का साध्ान है, जैसे ईश्वर मिथ्या है किन्तु उसमें निष्ठा रखना ही ब्रह्मज्ञान का मार्ग है। शालग्राम में विष्णु-बुद्धि संवादी अध्यास का प्रसिद्ध उदाहरण है।
2.4 ‘पशु’ और ‘कुल’
‘पशु’ और ‘कुल’, ये दोनों शब्द ऊपर आ चुके हैं। इनका तन्त्र-साहित्य में बड़ा अर्थ-विस्तार है, जिसकी एक झलक यहाँ प्रस्तुत की जा रही है ताकि तान्त्रिक चिन्तन की पहुँच का कुछ अनुमान लगाया जा सके।
2.4.1 ‘पशु’ कौन है?
‘पशु-भाव’ को मैंने इस आलेख में ‘कर्म-लिप्तता’ से समीकृत किया था। ऐसा मानने के पीछे मेरे मन में बृहदारण्यकोपनिषद् (1-4-10) का यह कथन है ः
...अथ योऽन्यान्देवतामुपास्तेऽन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न स वेद यथा पशुरेवं स देवानाम्।
यथा ह वै बहवः पशवो मनुष्यम्भुंज्युरेवमेकैकः पुरुषो देवान्भुनक्त्येकस्मिन्नेव
पशावादीयमानेऽप्रियम्भवति किमु बहुषु तस्मादेषान्न तत्प्रियं यदेतन्मनुष्या विद्युः ।।
(अब जो उपासक अपने उपास्य को अपने से भिन्न मानकर उपासना करता है, वह इस (अद्वैत-तत्व) को नहीं जानता; वह तो देवताओं का पशु ही है। जैसे पशु मनुष्य (की जीविका चलाने में सहयोग देकर उस) का पालन करते हैं, वैसे ही मनुष्य भी (यज्ञ आदि कर्मों के द्वारा देवताओं तक उनका प्राप्य आहुतियों के द्वारा पहुँचाते हुए) देवों का पालन करते हैं। (लोक में हम देखते हैं कि) किसी का एक भी पशु इध्ार-उध्ार हो जाय तो कष्ट होता है फिर बहुत से पशुओं के खो जाने पर होने वाला कष्ट तो बहुत ही होगा। इसलिए देवता नहीं चाहते कि मनुष्यों को ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान हो (क्योंकि तब मनुष्य कर्मकाण्ड की निस्सारता को समझ कर कर्म का परित्याग कर देंगे)।
(‘कर्म का परित्याग करना’ का तात्पर्य है कत्र्ता द्वारा उसमें से अपनी ‘ईप्सा’ अर्थात् चाहत, हटा लेना। इसके समर्थन में कुछ विचारकों द्वारा यह तर्क दिया गया है कि महर्षि पाणिनि ने कर्म की परिभाषा दी हैः कर्तुरीप्सिततमंकर्म (1-4-49), अर्थात् कर्म वह है, जो कर्ता का ईप्सिततम- सबसे अध्ािक चाहा हुआ- होता है। यह तर्क सटीक प्रतीत होता है और आकर्षक भी है किन्तु इसे यथावत् स्वीकार करने में कुछ व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं। यह परिभाषा ‘साध्ानात्मक कर्म’, अर्थात् ‘कर्म कारक’ की है जिससे ध्ाातु की प्रत्यासत्ति, अर्थात् निकटता, परम्परया होती है जबकि कर्म का लौकिक अर्थ ‘क्रिया’ होता है। स्वयं पाणिनि ने ‘कर्तरि कर्मव्यतिहारे’ (1-3-14)12 में कर्म शब्द का प्रयोग ‘क्रिया’ के अर्थ में किया है, अपने पारिभाषिक अर्थ में नहीं। विशेष चर्चा के लिए इस कर्तरि कर्मव्यतिहारे सूत्र पर काशिका-न्यास तथा अन्य व्याख्याएँ देखनी चाहिए। जहाँ तक बात समझ में आती है, अद्वैत-सिद्धान्त में ‘कर्म’ का तात्पर्य ‘क्रिया’ ही है, साध्ानात्मक कर्म नहीं। बराबर ‘कर्म-फल’ की बात होने से भी यह स्पष्ट ही है क्योंकि फल क्रिया का होता है, व्याकरण-परिभाषित साध्ानात्मक कर्म-कारक का नहीं।)।
12 इस सूत्र की ओर ध्यान दिलाने के लिए मैं डाॅ. बलराम शुक्ल का आभारी हूँ।
ललितासहस्रनाम की टीका में भास्कर राय ने पशुपाशविमोचिनी नाम की व्याख्या करते हुए ‘पशु’ और ‘पाश’ शब्दों पर विस्तृत विचार किया है। सर्वप्रथम उन्होंने ‘अभेद-ज्ञान से रहित’ लोगों को ‘पशु’ की संज्ञा दी है, जिसके समर्थन में उन्होंने इसी उद्धरण (बृहदारण्यकोपनिषद्, 1-4-10) को दिया है किन्तु इतना विशेष है कि उन्होंने इस उद्धरण में से ‘योऽन्यान्देवतामुपास्तेऽन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न स वेद’ लिया है और फिर उसके अन्तर्गत ‘योऽन्याम्’ को ‘यः अन्याम् (= जो दूसरी...)’ के रूप में न पढ़ कर प्रचलित समझ के विपरीत ‘योन्याम् (= योनि में)’ पढ़ा है, जिसके नाते यह पूरा उद्धरण एक तान्त्रिक सन्दर्भ ग्रहण कर लेता है और योनि-पूजक उपासकों की ओर उन्मुख हो जाता है। ‘पाश’ को एक व्याकरणिक युक्ति से भास्कर राय ने (‘पा’ से बतायी गयी) पिपासा अर्थात् प्यास, और (‘अश्’ से बतायी गयी) अशना, अर्थात् भूख के युग्म में समझा है तथा एक श्रुति-वाक्य भी दिया है जिसके अनुसार ये ही दो पाश हैं। वैसे छान्दोग्योपनिषद् (6-8-3) में इन दोनों का उल्लेख ‘शरीरांकुर’ के सन्दर्भ में हुआ है।
इसके आगे विविध्ा शैवागमों के आध्ाार पर भास्कर राय ने पाशों की संख्या तीन से लेकर बासठ तक गिनायी है; इनके भीतर ही पहले बताये गये घृणा, लज्जा आदि पाशों का अष्टक भी है। सर्वत्र ‘पशु’ का अर्थ ‘पाशों से बँध्ाा हुआ’ ही किया गया है किन्तु उन्होंने एक प्रमाण के आध्ाार पर ‘पशु’ का अर्थ ‘सम्यक्’ भी किया है और ‘पशुपाशविमोचिनी’ का अर्थ ‘शिव के साथ द्यूतक्रीड़ा में ठीक से पाँसे फेंकने वाली’ भी बताया है।
अभिनवगुप्त ने कहा है कि जो लोग आदियाग में भाग नहीं लेते या उसकी पात्रता न रखते हुए उसमें वैषयिक सुख की लालसा से भाग लेते हैं, वे सभी पशु हैं। (तन्त्रालोक, 29-99)
2.4.2 ‘कुल’ क्या है?
‘कुल’ का कोष-गत अर्थ ‘सजातियों का समूह’ होता है। तान्त्रिक साहित्य में इसकी अर्थच्छटा बहुत दूर तक जाती है। ललितासहस्रनाम की टीका में भास्कर राय ने कुलामृतैकरसिका नाम की व्याख्या में सर्वप्रथम तो ‘कुल’ के इस ‘सजातीयों का समूह’ का तात्पर्य ‘ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का त्रिक’ किया है और बताया है कि इस नाते ही देवी को ‘त्रिपुटी’ कहते हैं। इस व्याख्या के आध्ाार के रूप में उन्होंने भगवत्पाद का और कालिदास की चिद्गगनचन्द्रिका से प्रमाण दिये हैं। तदुपरि उन्होंने बताया है कि स्वच्छन्दसंग्रह आदि ग्रन्थों में बत्तीस देहस्थ कमल (= ‘चक्र’) बताये गये हैं, जिनमें सबसे नीचे का कमल इस त्रिपुटी से सम्बद्ध न होने के नाते ‘अ-कुल’ कहलाता है और शेष कमल कुल-सम्बन्ध्ाी होते हें। विकल्पतः, अध्ािक प्रचलित षट्चक्र-व्यवस्था के अन्तर्गत ‘कुल’ का अर्थ मूलाध्ाार-चक्र है और उसी के नाते सुषुम्ना-नाडी भी ‘कुल’ कहलाती है, जिसके कारण सप्तम सहस्रार-चक्र से झरता हुआ रस ‘कुलामृत’ कहलाता है। फिर ‘कुल’ का अर्थ ‘योनि’ भी है और इस नाते ‘कुलामृत’ का अर्थ ‘रजः-स्राव’ भी है, जिसकी कुछ तान्त्रिक उपासना-विध्ाानों में भूमिका के नाते भी देवी का नाम ‘कुलामृतैकरसिका’ है।
अगले नाम कुलसंकेतपालिनी की व्याख्या में भास्कर राय बताते हैं कि ‘कुल’ का अर्थ ‘शास्त्र’ और ‘आचार’ भी है और इस प्रकार शास्त्र तथा आचार को ‘पशुओं’ पर न प्रकट करने के नाते देवी ‘कुलसंकेतपालिनी’ कहलाती हैं। फिर ‘संकेत’ का अर्थ ‘घर’ ग्रहण करते हुए वे कहते हैं कि ‘चक्र (= यन्त्र)- संकेत, मन्त्र-संकेत और पूजा-संकेत, ये तीन देवी के संकेत हैं; इस प्रकार यहाँ ‘कुल’ का अर्थ ‘देवी’ होता है।
अगले नाम कुलांगना का सहारा लेते हुए, जिसके बारे में उनका कहना है कि ‘कुलवध्ाू’ की तरह पर्दे में रहने के नाते देवी का यह नाम है, इस ‘कुलांगना’ द्वारा इन संकेतों में पहुँच कर ‘श्रेष्ठ पुरुष’, अर्थात् शिव के साथ विहार करने को लेकर भास्कर राय ने अपने भाष्य में इस जगह किसी चिन्तामणि-स्तव से एक काव्यात्मक उक्ति उद्धृत की हैः
कुलांगनैषाप्यथ राजवीथीः प्रविश्य संकेतगृहान्तरेषु
विश्रम्य विश्रम्य वरेण पुंसां संगम्य संगम्य रसम्प्रसूते।।
(कुलांगना होते हुए भी यह राज-मार्ग पर निकल कर विभिन्न संकेतों (= चक्र-संकेत, मन्त्र-संकेत और पूजा-संकेत) में ठहर-ठहर कर पुरुषों में श्रेष्ठ (= शिव) के साथ विहार करती हुई आनन्द-रस का स्राव करती है।
(‘संकेत’ का अर्थ परकीया नायिका और नायक के मिलने का गुप्त स्थान भी होता है।))
कुलांगना से अगले नाम कुलान्तःस्था में भास्कर राय ‘कुल’ के पहले गिनाये जा चुके अर्थों का स्मरण करते हुए देवी को शास्त्र में, या फिर ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय के बीच स्थित ‘ज्ञान’ के रूप में बताते हैं। इसके अगले नाम कौलिनी की व्याख्या में वे ‘कुल = शक्ति’ और ‘अ-कुल = शिव’ के समीकरण प्रस्तुत करते हुए यह सुप्रसिद्ध पद्य उद्धृत करते हैंः
कुलं शक्तिरिति प्रोक्तमकुलं शिव उच्यते
कुलेऽकुलस्य सम्बन्ध्ाः कौलमित्यभिध्ाीयते।।
(‘कुल’ का अर्थ ‘शक्ति’ है और ‘अ-कुल’ का अर्थ है ‘शिव’; इन दोनों का परस्पर सम्बन्ध्ा ‘कौल’ कहलाता है।)
‘कौल उपासना’ वस्तुतः इसी शिव-शक्ति-सामरस्य में नर-नारी-मैथुन के संवादी अध्यास द्वारा प्रतीकोपासना है। इससे योग (= सम्बन्ध्ा) होने के नाते उन्होंने अगले नाम कुलयोगिनी तथा ‘अ-कुल (= सहस्रार-चक्र) में निवास के नाते अ-कुला नाम की व्याख्या की है।
अभिनवगुप्त ने ‘कुल’ के अर्थ को अनेक तरह से बताया है। ‘कुल’ का अर्थ ‘शिव-शक्ति-नर’ का त्रिक और इस पर आध्ाारित शास्त्र है। वह शरीर है, वह आनन्द है। विशेष विस्तार से जानने के लिए डाॅ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय की अंगरेज़ी में लिखी पुस्तक ।इीपदंअंहनचजं देखी जा सकती है, जो चैखम्बा प्रकाशन से छपी है।
3 उपसंहार
तान्त्रिक उपासना के इस संक्षिप्त विवरण से इतना स्पष्ट हो जाना चाहिए कि इस उपासना ने देह में देवत्व की परिकल्पना के आत्यन्तिक विस्तार का आश्रय लेते हुए अपनी आध्यात्मिकता का मार्ग चुना है। जैसा कि भास्कर राय ने ललितासहस्रनाम की टीका में पंचमी नाम की व्याख्या में इस प्रमाण-वाक्य के माध्यम से बताया है ः
आनन्दम्ब्रह्मणो रूपन्तंच देहे व्यवस्थितम्
तस्याभिव्यंजका पंच मकारास्तैरथार्चनम्।।13
(ब्रह्म का रूप आनन्द है; वह देह में व्यवस्थित है और पंच म-कार उसके अभिव्यंजक हैं, (अतः) उन्हीं से अर्चना की जाती है।)
इस मार्ग की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं। संसार की सभी स्त्रियों में शक्ति और संसार के सभी पुरुषों में शिव देखने के नाते इस उपासना ने जीव-मात्र के सांसारिक व्यवहारों में ही परब्रह्म को अनुस्यूत माना है और उनकी प्रीतिकर-ता तथा अप्रीतिकर-ता को अतिक्रान्त करने वाले अनुभवों की सामथ्र्य में मनुष्य की सार्थकता स्वीकार की है। इस आग्रह का उद्देश्य निश्चय ही उच्चकोटिक ‘वीर’ साध्ाकों के अतिरिक्त अन्य सामान्य सामथ्र्यवान् ‘पशु’ साध्ाकों को इस साध्ाना से दूर रखने का है। जैसा कि ऊपर बताया गया है, भास्कर राय ने उन सभी को ‘पशु’ कहा है जिनको ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान नहीं है। उन्होंने ललितासहस्रनाम की अपनी टीका में वीराराध्या नाम की व्याख्या करते हुए ‘वीर’ की भी परिभाषा दी है ः
अहमि प्रलयंकुर्वन्निदमः प्रतियोगिनः।
पराक्रमम्परो भुंक्ते स्वात्मानमशिवापहम्।।
(अपने ‘मैं’ में उससे भिन्न ‘यह’ का लोप करने का पराक्रम अपने में से अ-शिवत्त्व को दूर करने वाला (और इस प्रकार शिवत्त्व की प्राप्ति कराने वाला) है, इस पराक्रम को करने वाला ‘वीर’ कहलाता है।)
जो स्पष्टतः इसी अभेद-ज्ञान को प्राप्त महापुरुषों की परिभाषा है।
13 इस श्लोक का संकेत आनन्दो ब्रह्मणो रूपम्... से देते हुए जयरथ ने भी इसे तन्त्रालोक की अपनी टीका में अनेकत्र उद्धृत किया है।
इन सारी कसौटियों के बावजूद, ऐसे साध्ाकों के लिए पतन की गुंजाइश है ही और (बारहवीं सदी के काश्मीरी कवि) क्षेमेन्द्र ने अपने ग्रन्थों में ऐसे पातकी दम्भियों की खूब ख़बर ली है। किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि उपासना के नाम पर दुराचार की सम्भावनाएँ अन्य साध्ाना-मार्गों में नहीं है और हम ऐसे दम्भाचरण के उदाहरणों से अपरिचित नहीं है। अतः इस उपासना को अन्य कठिन उपासनाओं की तरह ही साध्ाारण सामथ्र्यवान् के लिए अव्यावहारिक मानते हुए पुष्पदन्त के शिवमहिम्नःस्तव की ये पंक्तियाँ स्मरण रखनी चाहिएः
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
(हे शिव, अपनी-अपनी रुचि के अनुसार सीध्ो और टेढ़े रास्तों पर चलते हुए सभी मनुष्यों का गन्तव्य आप ही हैं, जैसे सभी नदियों का गन्तव्य समुद्र ही होता है।)

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