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तट पर धुन अरुण देव की कविताएँ
SAMAS ADMIN
29-Dec-2019 12:00 AM
5308
मैं बीमार हूँ
रस्ते में एक मासूम-से लड़के को कुछ लोग रस्सियों से बाँधा मारे जा रहे थे
वह बार-बार कह रहा था मेरा कसूर तो बताया जाये
मेरा बीपी नार्मल है
एक बच्ची भागी भागी आयी लिपट गयी मेरे पैरों से
रिस रहा था उससे खून
गहरी लकीरें थीं उसके चेहरे पर
उसका पीछा करने वाले दिख नहीं रहे थे
वह किसी अदृश्य से डर रही थी
और काँप रही थी
उसका चाचा उसे घसीटते हुए ले गया
मेरे खून में हिमोग्लोबीन का स्तर सन्तोषजनक है
बिखर-से गये घर के दरवाज़े पर झिलगी खटिया पर जर्जर वृद्ध ने
तरल-सी सब्ज़ी में रोटी तोड़ते हुए कहा
बेटा खा लो
फिर वह कहीं डूब गया अपने में
जो कुछ खाता हूँ पच जाता है
नुक्कड़ पर एक बड़े-से चमकदार झूठ के आसपास
तमाम सच्चाईयों के कन्धे झुके हुए मुझे मिले
बँधे थे उनके हाथ खुद से
शुगर ठीक है मेरा इसे कंट्रोल में रखना है
भागा जा रहा था एक युवा
उसके पीठ पर कोड़े की मार के उभार दिख रहे थे
छिल गयी थी पूरी पीठ रक्त बह कर वहीं जम गया था
उसे कोई नौकरी चाहिये होगी
मैंने देख लिये उसके गुम चोट
मेरी आँखों का लेंस उम्र के हिसाब से ठीक है
पर दूर दृष्टि खराब हो चली है
यह कोई बड़ी बात नहीं क्या कीजियेगा दूर तक देखकर
डाॅक्टर ने कहा
पैथोलाॅजी में काॅलेस्ट्राल के टेस्ट की रिपोर्ट देख रहा था
एक फीकी-सी युवा स्त्री
पूछ रही थी कि उसके पति के हर्ट अटैक की आशंका चेकअप में क्यों नहीं दिखी थी
जब बचना असम्भव था
क्यों आईसीयू में उन्हें इतने दिनों तक रखा गया
कहाँ से भरेगी वह यह कर्ज
एचडीएल सही निकला एलडीएल कम हो रहा है
सगीर ने कहा भाईजान अब घूमने टहलने की हिम्मत न रही
क्या रखा है मेल मुलकात में
मैंने अपने घुटने देखे, ठीक हैं दोनों
पर इधर रीढ़ झुकती जा रही है
और तनकर कर खड़े होने की हिम्मत छूटती जा रही है
अब तो किसी पर तमतमाता भी नहीं हूँ
ठीक हूँ मैं
वैसे
तो।
फेसबुक की लत
जन्म दिन की बधाई भेजता हूँ
कि कहीं खटकता है ये तो पिछले वर्ष ही दिवंगत हो गये थे
होने न होने के बीच इतना कम फ़ासला कभी नहीं था
रहते हुए रहना जैसे निरर्थक हो
चले जाने पर भी दुनिया वैसी ही चलती रहती है
फेसबुक की दुनिया
बरसों बरस मिलती रहती हैं सालगिरह की बधाईयाँ
कोई पुरानी पोस्ट फिर से जीवित कर देती है
लोग देते हैं अनश्वर मानकर अपनी प्रतिक्रियाएँ
आत्माएँ प्रतिक्रियाओं को लाइक करने के लिए बहुत ललकती होंगी
आदतन।
तट पर धुन
ये शब्द तुम्हारे लिए हैं
इनके अर्थ भी तुमसे ही खिलेंगे
अभी ये निरी ध्वनियाँ हैं
प्रतिध्वनि में खुलेंगे
खोलेंगे भेद अक्षरों में दबे अनकहे का
अभी ये इच्छाएँ हैं निराकार
तुम्हारे पास बैठकर रूप धरेंगे
तितलियों की तरह तुम्हारे फूलों पर
झुकेंगे
तुम्हारे शहद पर बैठ जायेंगे
अर्थ के पार
तुम्हारे साथ धुन की तरह बजेंगे
सपनों की स्याही से लिखे गये हैं।
हिन्दू
राम राम कहूँगा
हज़ार वर्षो से कहते आ रहें हैं पुरखे
नहीं करूँगा हम साये से नफरत
धरती एक कुटुम्ब है ऐसा कहा था पूर्वजों ने
सत्य पर नहीं है मेरा ही हक़
तमाम रास्तें हैं जो चाहे जैसा चुन ले
काम की संसारिकता और मोक्ष की आध्यात्मिकता
विलोम नहीं है मेरे लिए
दूँगा अघ्र्य सूर्य को
चन्द्रमा के नीचे मीठी खीर रिझेगी
पूजा करूँगा नदियों की
पर्वतों पर चढने से पहले करूँगा प्रणाम
वृक्षों के गिर्द प्रदक्षिणा का अनन्त वृत्त हूँ
बुद्ध की तरह अतियों से बचना सीख लिया है
मैं वह हिन्दू नहीं
जो समुद्र नहीं पार करता था
कैद अपने वर्ण में
चुप रह जाता था एकलव्य की ऊँगली कटने पर
मुझे गढ़ा है गाँधी आम्बेडकर लोहिया ने।
मज़दूर
हमें यह याद रहता है कि वे बहुत नागा मारते हैं
हालाँकि यह बहुत
कुछ दिनों का ही होता है
उनका कभी देर से आना
किसी दिन जल्दी चले जाना
बहुत खलता है
ऐन काम के बीच वे सुलगा लेते हैं बीड़ी
हिया खुद का जलता है
उनकी थोड़ी-सी लापरवाही
चुभती है
पसीने से भीगी घिसी शर्ट और एक पैबन्द लगे थैले में उनका बदरंग टिफिन
उसमें कुछ रोटियाँ अचार
माँगते हैं बार बार ठण्डा पानी
दो बार चाय खूब मीठी
दोपहर में थोड़ा उठंग लेते हैं
पूरा करके अपना काम
वे फिर चले जाते हैं हमेशा के लिए
उनका काम नहीं दीखता
उनकी कोई छोटी-सी झूठ याद रह जाती है।
वक़्त
न कहीं से आ रहा हूँ न जा रहा हूँ
ठहरा हुआ हूँ
अदृश्य छुरा टंगा है शिल्प की तरह
खाल खिंची भेड़ें कटने को तैयार हैं
न दिशाएँ हैं
न दिशासूचक
कहीं से भी चलो कहीं को
न दृश्य बदलते हैं न मौसम न तापक्रम न हवा का दबाव
प्यास और स्वाद
एक जैसे रैपर में बन्द हैं
पृथ्वी पर एक ही भाषा विचर रही है
सभी रंग मिलकर एक हो गये हैं
आमन्त्रण की भंगिमाएँ एक सी हैं
प्रेम और क्रियाओं में फर्क नहीं
की-बोर्ड से वक़्त की दीवार पर आप जो चाहे लिख सकते हैं
वक़्त पर आ सकते हैं जा सकते हैं
पर वक़्त पर चोट का वक़्त अब बीत चुका है
खोजो उस आदिम हथौड़े को
किसी काल में अटका होगा यहीं कहीं।
वर्षा रति
मेघ बरस रहा है
कोई भी जगह न छोड़ी उसने
न कंचुकी उतारी
न खोली नीवी बन्ध
वह हर उस जगह पर है
जहाँ पहुँच सकते हैं अधर।
रिझाना
कविताएँ लिख लिख कर रिझा रहे हो
कविता भी ठीक से नही कर पा रहे हो
गढ़ते हो शिल्प बेशुमार
चाहत की नदियाँ सूख जाती हैं
परिन्दे लौट जाते हैं अपनी बसाहट में
मैं देखती हूँ तुम्हारी आँखें
मैं मिलूँगी तुम्हें
तुम्हारा मन रखने को मेरा मन करता है।
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टूट-बटूट सूफ़ी तबस्सुम
कविताएँ
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कविताएँ मनोज कुमार झा
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