तीसरा रास्ता ध्रुव शुक्ल
22-Oct-2020 12:00 AM 3415

कविवर श्रीकान्त वर्मा की नज़र अपने काव्यारम्भ से ही इतिहास पर रही है। उनकी अधिकांश कविताओं में दिनारम्भ इतिहास की कोई न कोई स्मृति लेकर आता दीखता है और कविता की दिनचर्या इतिहास के आईने में अपना चेहरा देखते हुए बीतती लगती है। ये कविताएँ इतिहास के सामने रखे उस आइने की तरह भी हैं जिसमें हम अपने वर्तमान का चेहरा भी देख सकते हैं। इतिहास के नायकों ने मनुष्यों और पृथ्वी की हरितिमा को न जाने कितनी बार रौंदा है। श्रीकान्त वर्मा अन्याय से भरी सदियों के अन्तराल में बार-बार रौंदी जाती दूब के प्रति अपनी कविता में विकल हो उठते हैं और अनुभव करते हैं कि अब कवि स्वयं एक भटका मेघ है जो अल्का का पथ भूल गया है --
भटक गया हूँ
मैं असाढ़ का पहला बादल
किसी शाप से शप्त हुआ
दिग्भ्रमित हुआ हूँ
शताब्दियों के अन्तराल में घूम रहा हूँ, घुमड़ रहा हूँ
कालिदास मैं भटक गया हूँ
मोती के कमलों पर बैठी
अल्का का पथ भूल गया हूँ।
पहले हो गये कवि आगत के कवियों के लिए रास्ते बनाते रहे हैं, सेतु बाँधते रहे हैं। अब तक प्रत्येक कवि अपनी होनी को ही कहता आया है। हर बड़े कवि को सृष्टि के बिखराव में अपनी अल्पता का बोध बना ही रहता है। याद करें, कवि शमशेर बहादुर सिंह को, जो कहते हैं -- मैं समाज तो नहीं, न मैं कुल जीवन, मेरा कौन सहारा। देश कवि से आशा करता है पर उसे देता क्या है, कुछ भी तो नहीं। और अकेला कवि न जाने कितने रास्तों की खाक छानता फिरता है। श्रीकान्त वर्मा इन्हीं अकेले कवियों में एक हैं।
वे रामायण काल से ही इतिहास को खंगालते हैं, छानते हैं और पाते हैं कि -- कुछ भी तो याद नहीं, बस एक सदियों से उड़ती धूल है जो रामायण की पोथी पर पुरखों के अवसाद की तरह जमी हुई है। वे प्रश्न उठाते हैं कि -- जरा सोचो उस व्यक्ति के बारे में जो अकेला पड़ गया है, कभी भी लड़ा गया हो महाभारत क्या फर्क पड़ता है। वे द्रोणाचार्य को टोकते हैं कि -- मत सिखाओ धनुर्विद्या, सब सत्ता के लिए लड़ रहे हैं, सत्य के लिए तो कोई नहीं लड़ रहा, वे कहते हैं --
पीछे कुछ नहीं
केवल स्मृतियाँ हैं --
मूर्ति से मूर्ति, मनुष्य से मनुष्य, कविता से कविता
मोहनजोदड़ो से अब तक का सिलसिला है
युध्द की अटूट श्ाृंखला है।
जैसे तुलसीदास की चैपाइयाँ, कबीर की साखियाँ और मिजऱ्ा ग़ालिब के शेर आड़े वक्त में याद आकर स्मृति को जगाया करते हैं, श्रीकान्त वर्मा की कविताएँ बिलकुल ऐसी ही हैं। उनकी अनेक कविताओं की पंक्तियाँ मेरे मन में गूँजती रहती हैं। फिर मन ही मन उनका एक कोलाज-सा बनने लगता है। उन पंक्तियों को अपने मन के कैनवस पर चिपकाता हूँ और उनकी आवाज सुनता हूँ। वे मुझसे कह रहे हैं -- मेरे सामने समस्या है, किसको किस नाम से पुकारूँ, आईने को आईना कहूँ या इतिहास, किसकी तलाश है, कौन मिलता है। अपने किस परिचित नगर को आवाज़ दूँ। वे याद दिला रहे हैं -- जीती थी जो कविता स्वयंवर में, छीनने आये हैं उसे कुछ तुर्क, व्यर्थ है अपील, कोई संहिता नहीं, टूट चुका है सब कोणार्क के समेत। ले जाओ मेरा प्रमाण भी लूट में शुमार कर, रहा नहीं कुछ भी सोमनाथ में। वे मथुरा की टूटी हुई मूर्ति का विलाप सुनते हैं। दीख नहीं पड़ते अश्वारोही लेकिन सुन पड़ती है टाप, झेल रहा हूँ शाप। वे अनुभव करते हैं -- मैं एक बासी दुनिया की मिट्टी में दबा हुआ अपने को खोद रहा हूँ। पता नहीं, किसकी प्रतीक्षा करता है शहर, किसके लिए तोरण सजाता है। पाप संसार में, पाखण्डी गर्भ में। घबराकर दुबकी पड़ी हैं भुजाओं में शंकाएँ, औरों के दावों में प्रत्युत्तर सोये हैं। एक दुनिया से निकलकर दूसरी में जा रहे हैं। वे बीसवीं सदी को देखते हैं और कहते हैं -- मुबारक हो, गोएबल्स, मुबारक हो, खाकी वर्दी पहने तुम किसका पता पूछ रहे हो। मुबारक हो, हेनरी, मुबारक हो, लौटते हुए वियतनाम से तुम किसे ढूँढ रहे हो, अपने अतीत को, अपने भविष्य को, हिरोशिमा की अन्तरात्मा को, कोरिया की दबी हुई सिसकी को। श्रीकान्त वर्मा को युध्द के बाद शवों के सिरहाने बैठी शान्त नगर वधुएँ याद आती हैं और वे कटाक्ष करते हैं कि -- मरने वाले सभी शान्ति प्रेमी थे। वे कविता में समरकाल की प्रिया को समरकाल की याद की तरह ओढ़ लेते हैं।
उनके कविता-संग्रह ‘भटका मेघ’ फिर ‘मायादर्पण’ फिर ‘जलसाघर’ और फिर ‘मगध’ को पढ़ते हुए बार-बार यही गूँज सुनायी देती रहती है --
मैं हरेक रास्ते पर कुछ दूर चलकर पाता हूँ
यह रास्ता ग़लत था
मेरा विश्वास जो मेरी परछाईं की तरह मेरे संग था
मुझे छोड़ गया है।
कवियों का काम रास्ता बताना नहीं है। वे खुद उन रास्तों पर भटकते हैं जो आज तक कहीं नहीं गये। इतिहास के सम्मोहन में भटकती मगध की कविताएँ ऐसे ही रास्तों पर भटकती हैं। श्रीकान्त वर्मा काल की रुग्ण डाल पर लटकी जन्म-जन्मान्तरों की कथाएँ और नगरों नागरिकों की व्यथाएँ कहते हुए बार-बार दुहराते हैं --
मैं कल तक रास्ता दिखा रहा था
यह कहकर कि
यह रास्ता उज्जयिनी को जाता है
मैं आज भी रास्ता दिखा रहा हूँ
यह कहकर कि
यह रास्ता उज्जयिनी को नहीं जाता

उज्जयिनी लगातार रास्ता जोहती है
उज्जयिनी रास्तों से मुँह फेर चुकी है
क्योंकि हम उन रास्तों से नहीं आये
जो उज्जयिनी को जाते हैं
या उज्जयिनी नहीं जाते।
ऐतिहासिक प्राचीन भारत के प्रमाण गौतम बुध्द के जमाने से मिलते हैं। उस समय की बुध्द कथाओं में नगरों-नायकों और नागरिकों का वर्णन मिलता है। महाभारत काल में इन्द्रप्रस्थ की प्रभुता क्षीण होने के बाद फिर बहुत वर्षों तक कोई सम्राट नहीं हुआ और दीर्घकाल तक अनेक जातियाँ विभिन्न देश-कालों में राज्य करती रहीं। प्राचीन बौध्द संघों के अभिलेख में सोलह राष्ट्रों का विवरण मिलता है जिनमें -- अंग, मगध, काशी, कोशल, वृजि, मल्ल, चेदि, वत्स, कुरु, पांचाल, मत्स्य, शूरसेन, अश्वक, अवन्ती, गांधार और काम्बोज हैं। इन राष्ट्रों का परिचय भौगोलिक क्रम के अनुसार नहीं, जातीयता के अनुसार है। इनकी कुलीनता और आचार भी प्रसिध्द रहे हैं। इनमें अनेकों ने गणतन्त्र प्रणाली ही अपनायी। इनकी एकता राजनीति के कारण उतनी नहीं जितनी धर्म और जनता की स्वाभाविक और स्वशासित संस्थाओं की स्वायत्तता की रक्षा पर अवलम्बित थी। इन राज्यों के अलावा कलिंग का पता भी चलता है जिसकी राजधानी दन्तपुर थी और विदेह राज्य भी जिसकी राजधानी मिथिला थी। प्राचीन भारत के ये तथ्य रेखांकित करने में जयशंकर प्रसाद के ऐतिहासिक नाटक मदद करते हैं।
यह समय क़रीब ढाई हज़ार साल पहले का है। श्रीकान्त वर्मा यूरोप के ढाई हज़ार साल के इतिहास पर भी नज़र डालने से नहीं चूकते। वे भलीभाँति जानते हैं कि जिसमें -- नीरो से लेकर हिटलर तक मनुष्य की खिल्ली उड़ाने वाले, पृथ्वी को रौंदने और नेस्तनाबूत करने वाले बर्बरों का एक लम्बा सिलसिला है। जलसाघर कविता संग्रह में प्रकाशित उनकी कविताएँ इस काल में पूरब और पश्चिम को परखती हैं और हमसे कहती हैं -- नागरिको सावधान, रास्ते के दोनों ओर वधिक हैं। तब क्या फिर तीसरा रास्ता महात्मा बुध्द के मज्झिम-निकाय में हैं या तीर्थंकर महावीर की अहिंसा में या महात्मा गांधी के सत्याग्रह में है।
भारत में वैदिक यज्ञों में हिंसा और पुरोहिताई के दबदबे से ऊब के फलस्वरूप अहिंसा के पक्षधर जैन धर्म की प्रतिष्ठा हुई। फिर उसी के समानान्तर बौध्द धर्म का प्रादुर्भाव होने लगा जिसमें हिंसा और अहिंसा की अतियों से बचकर मध्यमार्ग की प्रतिष्ठा हुई जो सम्यक् आष्टांगिक मार्ग भी कहलाया। इतिहासकारों का मत है कि बुध्द की इस सम्यक् धार्मिक क्रान्ति ने विभिन्न राष्ट्रों को परस्पर सन्धि-विग्रह के लिए बाध्य किया। बुध्द शाक्य वंश में कपिलवस्तु के पास लुम्बिनी के वन में जन्मे थे। अपनी अस्सी वर्ष की आयु में बुध्द ने अपने शिष्य आनन्द से कहा था कि - मैं वृध्द हूँ, दुर्बल और श्रान्त हूँ, मैं यात्रा के अन्त और जीवन की सीमा पर पहुँच चुका हूँ और अब तथागत का परिनिर्वाण होगा। बुध्द अपने किसी दुख को साथ नहीं ले गये होंगे, जब दुख साथ जाता है तब उसे लेकर फिर लौटना पड़ता है। निर्मल वर्मा अपने उपन्यास - एक चिथड़ा सुख - में सवाल पूछते हैं कि - मरे हुए आदमी का दुख कहाँ जाता है और श्रीकान्त वर्मा मगध की कविताएँ निर्मल जी को समर्पित करते हुए कहते हैं -
चलना ही है तो कपिलवस्तु चलिए
जो जाता है कपिलवस्तु
लौटकर नहीं आता
जो नहीं जाता कपिलवस्तु
जीवन गुज़ारता है
कपिलवस्तु, कपिलवस्तु चिल्लाता है।
तीर्थंकर महावीर लिच्छवियों के वंश में पैदा हुए। उस समय लिच्छवि एक अग्रणी गणतन्त्र था और जिसकी राजधानी वैशाली थी। महावीर ने चम्पा, वैशाली, मिथिला, श्रावस्ती और नालन्दा में अपने धर्म का प्रचार किया। बुध्द ने भी लिच्छवियों के गुणों को पहचानकर कहा कि वे आलस्य, प्रमाद और विलासिता से दूर हैं। वे आन्तरिक मेल-मिलाप और सुरुचि से सम्पन्न हैं। उनमें नीति और सम्मति की एकता है। तभी तो श्रीकान्त वर्मा अपनी कविता में कहते हैं --
लिच्छवि कभी-कभी होते हैं
इसीलिए लिच्छवि होते हैं
इन्द्रप्रस्थ और अयोध्या के बाद पाटलिपुत्र बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण दीर्घकाल तक भारत की राजधानी बना रहा। उस समय की बौध्द कथाओं में कोशल, मगध, अवन्ति और वत्स राष्ट्रों का ही वर्णन प्रमुखता से मिलता है। बाकी राष्ट्र कुछ पीछे छूट जाते हैं। कोसल में प्रसेनजित, मगध में बिम्बसार, अवन्ति में प्रद्योत और वत्स राष्ट्र में उदयन राज्य करते थे। उदयन की राजधानी कोसाम्बी थी। कथा-सरितसागर में उदयन की दो रानियों उज्जयिनी की राजकुमारी वासवदत्ता और मगध की राजकुमारी पद्मावती की कहानियाँ कही गयी हैं। अजातशत्रु वैशाली की राजकुमारी से उत्पन्न हुआ जो बिम्बसार को ब्याही गयी एक रानी थी, दो और भी थीं। मगध की कविताओं में इन्हीं नगर राज्यों और उनके नायक-नायिकाओं की स्मृतियाँ बसी हुई हैं। इन राज्यों पर जैन और बौध्द, दोनों ही धर्मों का प्रभाव पड़ा। बौध्द कहते हैं कि अजातशत्रु ने अपने पिता बिम्बसार की हत्या की और फिर बुध्द की शरण में आकर परिताप प्रकट किया। जैन किंवदन्ती के अनुसार बिम्बसार ने उस बन्दीगृह में आत्महत्या कर ली जिसमें अजातशत्रु ने अपने पिता को कैद कर लिया था। कविता प्रश्न उठाती है -
क्या यह वही पाटलिपुत्र है
जिसके लिए लड़ रहे हैं
अजातशत्रु, बिम्बसार, चन्द्रगुप्त
हम और आप
जो अब एक किंवदंती है
मूर्ख, एक किंवदंती के लिए लड़ रहे हैं
श्रीकान्त वर्मा कहते हैं कि -- अवन्ती, मालवा, कलिंग, आम्रपाली, वासवदत्ता, चन्द्रगुप्त, अशोक -- पात्रों, चरित-नायकों का एक ऐसा रेला है, जो चला आ रहा है। एक भीड़ है जो उमड़ी पड़ रही है। यही हैं मेरी कविताएँ। इनका मुख्य सरोकार -- मृत्यु, संहार और नैतिक क्षय। मैं जानता हूँ मगध क्या है -- वह कालातीत काल है।
महावीर और बुध्द के समकालीन मगध राज्य पर बाद में समय पाकर नंदों ने शासन किया। जिनमें पहला नंद ही अपने भाइयों के साथ डकैती किया करता था और इसी ने मगध के वंशज को राज्य से बाहर कर दिया। श्रीकान्त वर्मा की कविता मगध को ढूँढती है --
लो, वह दिखायी पड़ा मगध,
लो, वह अदृश्य --
कल ही तो मगध मैंने छोड़ा था
कल ही तो कहा था मगधवासियों ने
मगध मत छोड़ो
.....
तुम भी तो मगध को ढूँढ रहे हो
बन्धुओ, यह वह मगध नहीं
तुमने जिसे पढ़ा है किताबों में,
यह वह मगध है
जिसे तुम मेरी तरह गँवा चुके हो
कथासरितसागर के आदि आचार्य वररुचि हैं जो मगध में अंतिम नन्द के मन्त्री थे और जो तक्षशिला विश्वविद्यालय में आचार्य थे। बौध्द लोग इन्हें मगधदेशीय ब्रह्मबंधु कहते थे। शकटार वररुचि का मित्र और नन्द का ही एक मन्त्री था। नन्द की मृत्यु के उपरांत वररुचि और शकटार ने मिलकर मगध पर राज्य किया। किसी समय नन्द से अपमानित चाणक्य ने नन्द वंश के विनाश की कसम भी खा रखी थी और समय आने पर उसे चन्द्रगुप्त मिला और चाणक्य ने उसकी होनहार को पहचानकर उसे राज्य के लिए गढ़ा था। शकटार ही था जिसने चाणक्य की मदद से किसी एक और नन्द की हत्या करके चन्द्रगुप्त को मगध का राज्य दिलाया। साम्राज्य संहार के बिना नहीं गढ़े जा सकते। श्रीकान्त वर्मा शकटार को याद करते हैं --
शकटार तभी आता है
जब चन्द्रगुप्त आता है
हत्या करता है शकटार
चन्द्रगुप्त गले से लगाता है
कभी-कभी हत्या करता है चन्द्रगुप्त
शकटार गर्दन झुकाता है
चन्द्रगुप्त का जीता हुआ विशाल साम्राज्य विरासत में उसके पुत्र बिम्बसार और फिर पौत्र अशोक को मिला। पर कलिंग की विजय में हुए नरसंहार को देखकर अशोक राज्य पाकर भी अकेला रह गया। उसके अकेलेपन और पश्चाताप को श्रीकान्त वर्मा अपनी कविता में रचते हैं -- केवल अशोक ने शस्त्र रख दिए हैं, केवल अशोक लड़ रहा है। और मगध के लोग क्या कर रहे हैं --
मगध में लोग
मृतकों की हडिड्याँ चुन रहे हैं
कौन-सी अशोक की हैं
और चन्द्रगुप्त की
नहीं, नहीं ये बिम्बसार की नहीं हो सकतीं
ये अजातशत्रु की हैं --
कहते हैं मगध के लोग और आँसू बहाते हैं।
नगरों के स्मृतिशेष होने पर लोगों को रोने की आदत पड़ गयी है -- श्रीकान्त वर्मा की कविता कहती है और यह भी पूछती है -- कोसल में नागरिक क्या कर रहे हैं और फिर जवाब देती है -- किस्से गढ़ते हैं, जुआ खेलते हैं, खीझते हैं और कोसल के अतीत पर पुलकित होते हैं। जो किस्से नहीं गढ़ते, जुआ नहीं खेलते, खीजते भी नहीं और अतीत पर पुलकित नहीं होते, वे सिर्फ़ ऊँघते हैं। कोसल में विचारों की कमी है।
तो चलो, छोड़ो कोसल को, उसकी तो कोई शैली ही नहीं बनी। तो अब कहाँ जायें, अवन्ती में अनाम की तरह घूमें। -- श्रीकान्त वर्मा प्रश्न पूछते हैं और उत्तर भी देते हैं --
क्या इससे कुछ फर्क पड़ेगा
अगर मैं कहूँ
मैं मगध का नहीं
अवन्ती का हूँ
.....
कोई फर्क नहीं पड़ेगा
मगध के माने नहीं जाओगे
अवन्ती में पहचाने नहीं जाओगे।
तीसरे रास्ते की खोज में ऐतिहासिक अवसाद से भरी श्रीकान्त वर्मा की कविताएँ कोसल से कन्नौज तक यात्रा करती हैं। इस मार्ग में उस धर्मनिष्ठ चम्पा नगरी की भी स्मृति बसी हुई है जहाँ के राज्यकर्ता पाणिनी के व्याकरण, षटदर्शन और बौध्द दर्शन के व्याख्याकार रहे हैं। संस्कृत भाषी और कलानिपुण नागरिकता रचने वाली चम्पा की तरफ एक कविता कुछ इस तरह इशारा करती है --
यह रास्ता सिर्फ़ चम्पा तक जाता है
जिन्हें और कहीं जाना है
और किन्हीं रास्तों से जायें
हम चम्पा जाने वालों को
यह कहकर न भटकायें --
क्या यह रास्ता चम्पा तक जाता है
हमें सिर्फ़ चम्पा जाना है।
श्रीकान्त वर्मा कई-कई बार अपनी कविताओं में यह दोहराते ही रहते हैं कि -- मित्रो, प्रायः यही होता है कि बताये गये रास्ते वहाँ नहीं जाते जहाँ हम पहुँचना चाहते हैं जैसे नालन्दा जैसे तक्षशिला। इन कविताओं के रास्ते में अमरावती भी पड़ती है पर यह देवताओं की पुरी अब नहीं रही। यह तो विदर्भ में बसी कोई और अमरावती है जो किसी की नहीं रही, उसके लिए कोई लड़ने को तैयार नहीं।
बीते ढाई-तीन हज़ार वर्षों में भटककर श्रीकान्त वर्मा की कविताएँ सातवीं सदी में श्रीहर्ष की धर्म सभाओं में कुछ ढूँढती-सी लगती हैं, शायद कोई जीवन-सत्य मिल जाये। सब जा रहे हैं तो वे भी कन्नौज और काशी जाती हैं, काशी में शवों का हिसाब होता देखती हैं और वहाँ जाकर पाती हैं --
सभा बर्खास्त हो चुकी है, सभासद चलें
फैसला हमने नहीं लिया --
सिर हिलाने का मतलब फैसला लेना नहीं होता
हमने तो सोच-विचार तक नहीं किया
बहसियों ने बहस की, हमने क्या किया
हमारा क्या दोष, न हम सभा बुलाते हैं, न फैसला सुनाते हैं
वर्ष में एक बार काशी आते हैं --
सिर्फ़ यह कहने के लिए
कि सभा बुलाने की भी आवश्यकता नहीं
हर व्यक्ति का फैसला जन्म के पहले हो चुका है
श्रीकान्त वर्मा इतिहास को परखकर ही तो कहते हैं -- मित्रो, दो ही रास्ते हैं -- दुर्नीति पर चलें, नीति पर बहस बनाये रखें। दुराचरण करें, सदाचार की चर्चा चलाये रखें। असत्य कहें, असत्य करें, असत्य जियें -- सत्य के लिए मर मिटने की आन नहीं छोड़ें। अन्त में प्राण तो सभी छोड़ते हैं, व्यर्थ के लिए हम प्राण नहीं छोड़ें। मित्रो, तीसरा रास्ता भी है -- मगर वह मगध, अवन्ती, कौशल या विदर्भ होकर नहीं जाता। प्रश्न उठता है कि फिर वह कहाँ होकर जाता है। इस प्रश्न का सामना करती श्रीकान्त वर्मा की कविताएँ दैहिक, दैविक, भौतिक और आध्यात्मिक -- चारों तापों की आग को तापती रही हैं। वे इतिहास के अलग-अलग समयों में मानव देह का तापमान नापती हुई, खुद किसी तेज़ बुखार में तप रही हैं और कह रही हैं --
मित्रो, यह कहना कोई अर्थ नहीं रखता
कि मैं घर आ पहुँचा
सवाल यह है
इसके बाद कहाँ जाओगे
श्रीकान्त वर्मा ने ही बीसवीं सदी के सातवें दशक में मनुष्य के जीवन को उसके धर्म, राजनीति और इतिहास के मायादर्पण में भलीभांति पहचानकर घर-धाम का प्रस्ताव किया था जहाँ वन-पर्वतों, महुए के वनों में अपने हिस्से का कपास धुनता, फावड़ा उठाता, ज़मीन गोड़ता, गारे पर ईंट बिठाता, गोद भरता जीवन नदी के ढोंके पर कुछ देर बैठकर सुस्ता लेता है, दिलरी गा लेता है। श्रीकान्त वर्मा कहते हैं --
मैं अपने आसपास
अपना एक लोक रचना चाहता हूँ
मैं महुए के वन में
एक कण्डे-सा सुलगना, गुँगवाना, धुँधवाना चाहता हूँ
मैं अब घर जाना चाहता हूँ।
दिन गिनती सभ्यताओं और इतिहास के बुखार में तपती श्रीकान्त वर्मा की कविताएँ अक्सर पूछती रही हैं -- कहाँ है तुम्हारा घर --
अपना देश खोकर कई देश लाँघ
पहाड़ से उतरती हुई चिडि़यों का झुण्ड
यह पूछता हुआ ऊपर-ऊपर
गुजर जाता है -- कहाँ है तुम्हारा घर
वह घर-धाम, जहाँ से अपने ही पाँवों से खिंचती जाती पगडण्डी निकलती है और अनुभव होता है कि कोई रास्ता कहीं नहीं जाता, उसे तो बस चलते-चलते और खुद अपना सामना करते हुए बनाना पड़ता है। फिर कोई किसी को रास्ता नहीं दिखाता -- आखिर सबको मणिकर्णिका तक ही तो जाना है।
प्रत्येक समय के कवियों की कविता हमारे मन को सम्बोधित हुआ करती है और उस मन को आत्म तक ऊँचा उठाने की अभिलाषा हमसे करती है। कविता में बोलता कवि का मन दरअसल हमारा ही मन है, जो आत्म-सम्भवा अभिव्यक्ति के लिए व्याकुल है। अगर गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता के सहारे कहें कि -- अगर वह मन आदर्शवादी और सिध्दान्तवादी है, तो यह खतरा जीवन भर बना ही रहेगा कि वह उदरम्भरि बन अनात्म की ओर ही जायेगा। मुक्तिबोध की कविताओं में हमारे मन का यह अहसास इतना गहरा है कि संकोचवश वे हमारी अधूरी और सतही जि़न्दगी की कविता बनाने में लजाते हैं। पर श्रीकान्त वर्मा नहीं लजाते। वे कविता रचकर हमें, हमारी करतूतों का रोज़नामचा दिखाते हैं। वे हमारे अपराधों को अपना मानकर अपनी कविताओं में हू-ब-हू दर्ज करते हैं और हम कवि को पापी ठहराकर साफ़ बच निकलते हैं। हम ही क्या, साहित्य के आलोचक भी अपनी करतूतों पर परदा डाल लेते हैं। जबकि श्रीकान्त वर्मा हमारी करतूतों के दरोगा कवि कहे जा सकते हैं।
हम ऐसे समय में रह रहे हैं जिसमें पुण्यात्माओं की प्रामाणिकता संदिग्ध है। विनोबा भावे कहते थे कि कोई कवि कितना ही बड़ा पापी क्यों न हो। अगर वह प्रामाणिक पापी है तो उसकी कविता मुझे हर हाल में मुक्त करेगी। कहना चाहिए कि कविता कोई रास्ता नहीं बताती, वह तो अब तक बनते आये रास्तों पर प्रश्न उठाती है और वह उस घर का पता ज़रूर बताती है, जहाँ पहुँचने के लिए सबको अपनी-अपनी अतियों से मुक्त रहकर सम्यक् रास्ते बनाना पड़ते हैं। हमारी प्रकृति अष्टधा है, इसीलिए मार्ग अराजक एकांगी नहीं, सम्यक् आष्टांगिक है और जो हमारी देह के भीतर से गुजरता है। बाहर तो बस एक ही रास्ता है जो मणिकर्णिका तक ही जाता है। श्रीकान्त वर्मा मसीही इतिहास के ही नहीं, भागवत इतिहास के भी कवि हैं जो जानते हैं कि भवसागर पार करने में बालू पर टिका कोई साम्राज्य अब तक किसी के काम नहीं आया है। उनकी कविता हमें पहले हो गये कवियों की तरह फिर याद दिलाती है -- बालू पर टिकता नहीं किसी का निशान।

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