एकान्त का रचनात्मक बसाव मिथलेशशरण चैबे
08-Jun-2019 12:00 AM 3449

व्यक्ति की चेतना के बारे में यह एक विचित्र चीज़ है कि जब वह समय के पैमाने में रूपायित होती है तो अनिवार्यतः उपन्यास की विधा में ही ढलकर आती है, किन्तु दूसरे छोर पर जब वह अपने को शब्दों के कालातीत तन्त्र में समेट लेती है तो हमेशा कविता बनकर बाहर निकलती है किन्तु उस चेतना का क्या होता है, जो समय की गति को रोकने की कोशिश तो करती है किन्तु शब्दों के स्वायत्त तन्त्र में डूबना नहीं चाहती ? ऐसे क्षण में एक ऐसी साहित्यिक विधा का जन्म होता है जो उपन्यास और कविता के बीच की जगह को समेटती है, जिसे अगर हम चाहें तो कहानी का नाम दे सकते हैं, जिसका एकमात्र प्रेरणा-स्रोत यही एक लालसा है कि वह किसी तरह कविता के जमे हुए समय को पिघलाकर उस कथ्यात्मक क्षेत्र में बहा सके जो असल में उपन्यास की ज़मीन है। कहानी अपनी छोटी-सी जीवन यात्रा में उस अजानी और खाली ज़मीन को पार करती है, जो भाषा और समय, कविता और इतिहास के बीच फैली है।
शताब्दी के ढलते वर्षों में- निर्मल वर्मा

हम तय विधाओं में ही अपने को व्यक्त करने विवश होते हैं। विधा के भीतर ही किंचित अपनी निजता प्रतिकृत कर हम मुग्ध होने और ‘अलग’ के अलंकरण से विभूषित होकर आश्वस्त होने के इस कदर अभ्यस्त हो जाते हैं कि ‘अभिव्यक्ति की ज़रूरतें’ हमें लगभग दिखायी नहीं देती। हमारा व्यक्त होना किसी विधा के अधीन होता है, ज़ाहिर है, उस विधा के प्रत्ययों से अतिक्रमित होना हमारी अभिव्यक्ति की नियति है। क्या हमें इस बात का ध्यान रहता है कि हम जो कहना चाहते हैं वह ठीक उसी तरह से कह सकेंगे, जैसा वह विधा हमसे कहलाएगी। हमारी अभिव्यक्ति विधाओं की चारदीवारी में कै़द होती है। दो तरह के उपक्रम इस कै़द से आज़ाद कर पाते हैं। पहला, किसी विधा को अपनी शर्तों-ज़रूरतों के मुताबिक़ ढालकर इस्तेमाल करना, तमाम बड़े लेखक यही करते हैं और जिसे हम उनका मुहावरा कहते हैं। दरअसल अपनी अभिव्यक्ति के लिए वे उस विधा का स्वरूप बहुत हद तक बदल देते हैं, भले ही हम उन्हें उस विधा में अनूठे प्रयोग के लिए उल्लेखनीय मानते रहें, उन्होंने अपने कहने के लिए उस विधा को तनिक भी घास नहीं डाली। थोड़ी-सी मात्रा में यह कोशिश अनेक लेखकों में दिखायी पड़ सकती है किन्तु व्यापक बदलाव कुछ ही लेखक कर पाते हैं। किंचित आलोचना इस एक शक्ति से ही लेखक होने न होने की पड़ताल करती है।
दूसरे ऐसे लेखक हुए हैं, जिनके यहाँ विधा के भीतर बड़ी हलचलें होती हैं और वे भले ही उस विधा को तोड़ते-मरोड़ते न हों लेकिन अपने कथ्य के उदात्त को विधा पर स्थापित कर जाते हैं। उनके प्रयुक्त प्रत्यय अब उस विधा के प्रत्यय का गौरव हासिल कर लेते हैं। ऐसे लेखकों के लेखन को हम विधाओं में वर्गीकृत कर नहीं पढ़ते बल्कि उनके लिखे की विशिष्टता के चलते वह विधा पढ़ी जाती है। यह उपक्रम भी हम अनेक महत्त्वपूर्ण लेखकों में पाते हैं।
इन दोनों के आलावा एक और सर्जनात्मक चेष्टा कुछ थोड़े-से लेखकों में मिलती है, यहाँ ‘लेखकों’ में कवि भी अनिवार्यतः शामिल हैं; विधाओं के बीच आवाजाही वह तीसरी सम्भावना है, जो न सिफऱ् अभिव्यक्ति के लिए रूपाकार का संघर्ष ज़ाहिर करती है बल्कि ठोस तरीके से विधाओं के पार्थक्य को खारिज कर लेखन के परिसर का विस्तार सम्भव बनाती है। यह तीसरा उपक्रम कम से कम हिन्दी में तो विरल ही है। ‘एकान्त का मानचित्र’ तीसरे विरल विकल्प का पाठकीय अनुभव कराती कृति है। कहानी और कविता का युग्म घोषित करती यह कृति निबन्ध, समीक्षा, वैचारिक लेख, औपन्यासिक प्रस्ताव, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज का भी अघोषित समुच्चय है और यही इस कृति का एक और विलक्षण पक्ष है।
कुछ कहानियों पर विचार से उक्त उपक्रम को जाना जा सकता हैः
‘छन्द’ कहानी के आख्याता को स्वप्न में मन में आयी हुई कविता का सिफऱ् छन्द याद रहा, कविता की भाषा नहीं। इस स्थिति में, जबकि छन्द पता है पर उसकी भाषा नहीं और जो भाषा याद है उसमें वह छन्द अटता नहीं, कविता को लिखने की कोशिश आख्याता को बेकार लगती हैः ‘जो छन्द मेरे भीतर था, वह उन शब्दों के अभाव में प्रकट ही नहीं हो पा रहा था, जिनमें वह था। मैंने पाया कि लिखकर मैंने उस छन्द को भी भुला दिया है और तब मुझे अहसास हुआ कि वे शब्द, वह भाषा, न सही मैं उस छन्द के साथ तो रह ही सकता था। मैंने यदि उसे अपनी जानी-पहचानी भाषा में अटाने की कोशिश न की होती, मैं उसके साथ जी सकता था।’
इस कहानी में कविता, भाषा, छन्द और उनके अन्तर्सम्बन्ध्ाों पर विचार चलता है लेकिन कहानी केवल यही उपक्रम नहीं कर रही है। इसकी बुनावट में, अनुभव से गुज़रते ‘मैं’ में, उसकी विचार प्रक्रिया में और अन्त में निराकरण स्वरूप ‘दुनियाभर की भाषाओं में उस छन्द को खोजने’ की आवश्यकता में जो घटित हो रहा है, वही कथा-स्वाद की ताज़गी है। भाषा के विचार में यहाँ कहानी का जन्म होता है।
कहानी लेखन पर विचार करती ‘कथाकार’, कहानी के कुछ अनुभवों को पोषती है। कथाएँ जन्म कैसे लेती हैं? इस जैसे सूक्ष्म और साक्षात्कार सीमित विषय पर यह कहानी कुछ अनुभवों को व्यक्त करती है। यह कहानी, कहानी की रचना प्रक्रिया का सैद्धान्तिक विश्लेषण नहीं करती, उस बोझ और ऊब से बचाते हुए यह अहसास कराती है कि हम जिसे कहानी कहते हैं, उससे विलग भी कहानी हो सकती है।
‘डायरी’ भी अत्यन्त पठनीय कहानी है। एक मृत्यु की अधूरी तफ़्तीश में संवादों के माध्यम से बुनी कहानी को मृत कावेरी की डायरी ने दिलचस्प बना दिया है। हालाँकि सुराख को तलाशते इन्स्पेक्टर सुखीराम को डायरी के अधिकांश पन्ने खाली मिलते हैं। कुछ पन्नों पर कुछ पंक्तियाँ भी मिलती हैं, जैसे-
‘तितली की उड़ान के रास्ते टेढ़े-मेढ़े’
‘षड्यन्त्र से लोगों का दिल जीता जा सकता है, लेकिन क्या प्रेम पाया जा सकता है, अनु!’
‘क्या शरीर महावीर के लिए अन्तिम अलंकार था, जिसे वे उतार फेंकना...’
क्या किसी की डायरी में व्यक्त बेतरतीब बातों से उसकी मृत्यु की तरतीबी का पता लगाया जा सकता है या फिर मृत्यु को हम रोज़मर्रा के टुच्चेपन से ढँककर आगे जा सकते हैं ? ये कुछ बातें इस कहानी को पढ़कर मन में आती हैं।
‘गुमशुदा’ एक ऐसे व्यक्ति के अचानक बगैर बताये चले जाने की कहानी है, जिसका कहानी में मौज़ूद अन्य चरित्रों से कोई नज़दीकी रिश्ता नहीं है। उनकी अपनी निजता के रहस्य ही उन्हें आकर्षक बनाते हैं। परन्तु उनसे सभी का रिश्ता एक दूरी पर ही टिका रहता है। क्या हम कुछ लोगों को सिफऱ् इसलिए चाहते हैं कि वे हमारे लिए किन्हीं स्थितियों में मुफ़ीद हैं। उनके न होने की पीड़ा क्या इसलिए कष्टदायी है कि उनका होना हमारे किसी परिजन के लिए सहूलियतें पैदा करता है। वे उपस्थितियाँ कितनी असहाय होती हैं जिनके पैर हमारी अनुकूलताओं की जं़जीरों से बन्धे होते हैं।
‘लकड़ी का बक्सा’ नौ बरस के एक लड़के की संवेदन भरी कहानी है, जिसे ‘हरेक चीज़ में जान महसूस होने लगती है और खासकर उन चीज़ों में जिन्हें बेकार समझकर हम कूड़ेघर में फेंक आते हैं।’ इसकी वजह भी वह स्पष्ट करता है, ‘माँ में मुझे हमेशा से ही दूसरों के प्रति सम्मान और करुणा दीखते थे। सिफऱ् भिखारियों, मनुष्यों, जानवरों के लिए नहीं, प्रकृति मात्र के प्रति। वह पेड़-पौधों का भी बहुत सम्मान करती थीं। जब कभी वह अपनी सखियों के साथ मन्दिर जाती और वे रास्ते में पड़नेवाली लताओं या वृक्षों से फूल तोड़ने लगतीं, माँ उनसे कहती, इन्हें तोडो मत, इनमें जान है।’
दीवाली की सफाई में माँ बहुत सारा कचरा कूड़ेघर में फेंकने के लिए एकत्र करती है, बेटे की कोशिश उसे बचाने की रहती है। वह सारे कचरे को लकड़ी के एक बक्से में माँ से छुपाकर रख लेता है। जब वह स्कूल में था, माँ उसे कूड़ेघर में फेंक देती है। लौटकर उसे छुपाया बक्सा अपनी जगह पर नहीं मिलता, वह उसे ढूँढते हुए कूड़ेघर जाता है और बक्से को वहाँ देखकर उससे लिपट जाता है।
बच्चे सजीव-निर्जीव में वैसा फ़र्क नहीं करते जैसा बड़े करते हैं। निर्जीवों में भी उन्हें जीवन स्पन्दित लगता है इसीलिये उनका लगाव उतने ही सघन आवेग से भरा होता है, जितना मनुष्यों या जानवरों के प्रति। बड़ी उम्र के लोग धीरे-धीरे उनके इस आवेग को नष्ट करते हैं और उन्हें अपनी ही तरह का उपयोगितावादी बना देते हैं।
‘लुणावत जी’ कहानी संस्मरण और किंचित रेखाचित्र का आभास कराती है। इसमें गल्प और सच्चाई नज़दीक बसे हैं, इस तरह कि आप एक पर दूसरा होने का आरोप चस्पाँ नहीं कर सकते।
सामान्यतः हिन्दी कहानियों से भिन्न संगीता गुन्देचा की कहानियों (और कविताओं में भी) अन्य कलाओं से सम्बन्ध का स्वरूप बहुत सघन है, ‘मल्हार’ कहानी इसका साक्ष्य है। इसमें संगीत की दुनिया के श्रद्धा, स्मरण, विनय भाव तो हैं ही गायन और वादन का परस्पर आकर्षण भी मौजूद है। गायिका चित्रा और सितारवादक जमशेद की स्मृति के सांगीतिक दृश्य अत्यन्त सुन्दर हैं। राग मियाँ मल्हार में बन्दिश के बोल और उसकी आवृत्ति केवल संगीत का नैरन्तर्य ही नहीं रह जाती बल्कि साथ ही कहानी के प्रवाह में जैसे प्रतिश्रुत हो रही है-
‘वे ‘अकुलाये’ और ‘नहीं आये’ शब्दों पर बार-बार कोमल गन्धार और निशात का न्यास कर रहे हैं। उसे गुरूजी का यह कहना भी ध्यान हो आया कि स्वर की चाप से शब्द का ऐसा बाण फेंकना चाहिए जिससे सुननेवाला बिंध कर रह जाए। चित्रा को हर चीज़ में गुरूजी का न होना महसूस होने लगा। उसके स्वरों में रिक्तिता भरने लगी। बन्दिश में ‘कन्त’ का स्थान ‘गुरु भाव’ ने ले लिया था। ‘कन्त नहीं आए’ शब्दों पर उसने ‘म रे प गम रेसा, निध नि सा स्वरों से लगभग आधे घण्टे तक बोल अलाप किया।’
‘मित्तल साहब’ कहानी जितनी मित्तल साहब की है उतनी ही उनके दिवंगत युवा बेटे की, उतनी ही नाट्य मण्डली की। मित्तल साहब उदार और मददगार स्वभाव के हैं। उनकी दुकान में रोज़मर्रा की ज़रूरी चीज़ें मिला करती थीं, जिससे उनके स्वभाव के चलते कोई ख़ास मुनाफ़ा नहीं था। बेटे किशोर ने डाॅक्टरी की पढ़ाई पूरी कर गाँव में ही दवाखाना डाल लिया था। गाँव में आनेवाली नाटक मण्डली में गाँव के ही लोग अभिनय किया करते थे। किशोर भी उनमें शामिल था। हृदयाघात से किशोर की मृत्यु हो जाती है। मित्तल साहब विचार करते रह जाते हैं कि आखिर ऐसा क्या दबाव या बोझ या कसक किशोर में थी, जो मौत की वजह बनी, ‘वे किसी तरह उसकी मौत में खुद को शामिल करने का प्रयत्न करते। वे बोले, इन्दर थारे कंई लगे, पिछली बार म्हने वीसे ब्याव की बात करी थी, अनी बात को असर वीका हार्ट पे तो नी व्हईग्यो।’
गाँव की नाटक मण्डली के लोग भी किशोर की मृत्यु से आहत और अचम्भित हैं। समय बीतता है, इस बार फिर नाटक खेला जा रहा है। पिछली बार सारथि का अभिनय किशोर ने किया था। इस बार-
‘आज किशोर की जगह गोविन्द बाबा सारथि बने थे। उनकी ढीली बूढ़ी देह मंच पर कसी हुई और फुर्तीली लग रही थी। आज वे अर्जुन के सारथि का नहीं, किशोर का अभिनय कर रहे थे। वे किशोर की आवाज़ में बोल रहे थे। वे घोड़े की लगाम उसी तरह पकड़े हुए थे जैसे किशोर पकड़ता था। वे अर्जुन की तरफ़ उतनी ही गर्दन मोड़ रहे थे, जितनी किशोर मोड़ता था। वे युद्ध के मैदान में अर्जुन को नश्वरता का उपदेश दे रहे थे। बोलते-बोलते उन्होंने अपनी नज़र मित्तल साहब पर टिका दी।’
कृष्ण का नहीं, गोविन्द बाबा किशोर का अभिनय करते हैं और नश्वरता का उपदेश जैसे मित्तल साहब को ही दिया जा रहा हो।
‘पोस्ट मास्टर के नाम पत्र’ कहानी व्यर्थ की उलझनों में खुद को फँसा मान लेने और दूसरों से उसकी मुक्ति की याचना का अद्भुत दृश्य निर्मित करती है। आख्याता आमन्त्रणों से इस कदर घिरा हुआ है कि उसे लगता है कि समूचा समय ही आमन्त्रणों में खर्च हो जाता है। वह आमन्त्रणों से बचने के लिए उन्हें किसी अन्य पते पर भिजवाने के लिए पोस्टमास्टर से अभ्यर्थना करता है। इसी अभ्यर्थना में विस्तृत रूप से उसकी पीड़ा, उसके मानसिक द्वन्द्व का वर्णन चलता है, जिसमें अज्ञात आशंकाओं को भी प्रकट होने का अवसर मिलता है।
कुँवर नारायण और विनोद कुमार शुक्ल की कुछ कहानियों में भी ऐसी अन्तद्र्वन्द्व की उपस्थिति है जिसमें बेबात का लगने वाला विस्तार ही चरित्र का मूल स्वभाव है।
‘अतिप्रश्न’ भी अत्यन्त पठनीय कहानी है।प्रश्न हमेशा उत्तरित नहीं होते। प्रश्नों के अलावा संवाद भी प्रश्नों को प्रश्नांकित कर देते हैं। अन्ततः हम उन्हीं चिर प्रश्नों और उनके निर्धारित उत्तरों की श्ाृंखला पर लौट आते हैं, जिनके हम अभ्यस्त हैं। आख्याता के एक प्रश्न पर समीरा द्वारा ‘वसन्तसेना के घर के तोरण को देखने के बाद मैत्रेय ने पहले कमरे में क्या देखा’ से लेकर सातवें कमरे तक के वृत्तान्त को क्रमशः व्यक्त करना, क्या इसका भी संकेत है कि एक छोटे से प्रश्न से विमुख होने की चेष्टा में हमें कितने अतिप्रश्नों से गुज़रना होता है।
‘ध्वनि कथा’ को पढ़ना एक विलक्षण अनुभव से गुज़रना है। अर्थहीन, अनभ्यस्त, अनजाने शब्दों को उच्चरित करना। उसे वाक्य रूप में पढ़ने की कवायद करना जिसकी वाक्य रचना अबूझ है। क्या हम ध्वनियों के अर्थहीन उच्चारण से कुछ जान सकते हैं। अर्थ की अप्राप्ति में ध्वनियों का नैरन्तर्य कितना सह्य हो सकता है। क्या ऐसी किसी रचना को हम कहानी कह सकते हैं जिसमें प्रयुक्त शब्दों के अर्थ हमें नहीं मालूम। क्या कहा गया है, इसको जानने के अभाव में क्या हम रचनात्मक शक्ति का अनुभव कर सकते हैं। एक सार्थक शब्द ‘वसन्तसेना’ के सहारे क्या निरर्थक शब्दों की अर्थहीनता का ठोस आभास हो पाता है ? कितना निरीह और लगभग अर्थच्युत होता है एक सार्थक शब्द, निरर्थक शब्दों के बीहड़ में। क्या यह कहानी बहुसंख्यक अनर्गल प्रलापों के कोलाहल में, एक अकेले सार्थक उद्घोष के अर्थहीन रह जाने के किसी अभिशाप को भी संकेतित करती है। भाषिक विचार से वर्णों के निरर्थक समूह को हम शब्द भी नहीं मानते। इस अर्थ में हम दुनिया की भाषाओं की ध्वनियों को अपनी भाषा के अर्थ में शब्द भी कैसे मानेंगे।
ये सभी कहानियाँ किसी स्थूल समस्या को केन्द्र नहीं बनाती। न तो इनमें पात्रों को गढ़ने का उपक्रम मिलता है, न ही घटित के बहुविध बिम्ब। शान्त ठहरे हुए पानी में एक छोटे-से कंकड़ से उठती लहरों के मद्धिम वृत्तों को देखने का-सा अनुभव इनमें मिलता है। वह जो सूक्ष्म है, विचार में चलता रहता है, छोटी-छोटी विरल उपस्थितियों से निर्मित है, जिसके होने का ही अर्थ है। वह जो स्मृति में विकट रूप से नहीं, बस बचे होने की तरह मौजूद है और जिसको बचा लेने की आकांक्षा है। वह जो कल्पना में कभी-कभार उभरता है, छोटी-सी जगह बनाता, संकोच में सहमा ठिठका। वह जो अनुल्लेखनीय रह जाता है, जिसे अलक्षित कर दिया जाता है; उसे ही भाषा में जगह देने की ठोस और मुकम्मल जि़द ये कहानियाँ हैं।
इनमें कहानी का एक भिन्न प्रस्ताव है, विचार-स्मृति-कल्पना का सिलसिला यहाँ अन्य कहानी तत्त्वों से अधिक है। स्वरूप संक्षिप्त होने के बावजूद अर्थ विस्तार की दृष्टि से ये कहानियाँ अत्यन्त समृद्ध हैं, पाठक को विचारशीलता के नये मार्गों पर ले जाने की इनकी सामथ्र्य असंदिग्ध है।
‘एकान्त का मानचित्र’ पुस्तक की कविताएँ भी कोलाहल से दूर एक आत्मीय नीरवता को सहेजती हैं। अपने मानचित्र के भराव और रिक्तियों को ज़ाहिर करती काव्य प्रक्रिया में भाषा और पुरखे, जीजिविषा और मृत्युबोध, अनुभव और जीवन का सच सघन आस्था की टेक से मुखरित हुए हैं। यहाँ आस्थाभाव अध्यात्मिक लय में प्रतिकृत होता है। यह कविता लय अत्यन्त विरल है इसीलिए ध्यानाकृष्ट करती है। शब्दों को उनके प्रचलित अर्थों को ढोते काव्य संसार से ऊबे हुए काव्य रसिकों के लिए रिक्ति का अवकाश रचना और नए कल्पित आशयों को जन्म देना इन कविताओं में सघन रूप से घटित हुआ है।
ये कविताएँ एकान्त का रचनात्मक बसाव हैं। अन्य बहुधा नदारद है या फिर अन्य की उपस्थिति भी अकेलेपन के वैभव में कोई कारगर खलल पैदा नहीं कर पाती। एकान्त के अतिक्रमण की आशंका उत्पन्न करते अलंकरणों से बचने का उपक्रम भी रक्षात्मक रूप से उल्लेखनीय है-
मैं अपनी पीड़ा के अलंकरणों को
एक-एक कर उतार फेंकती हूँ
इस तरह और भी अकेली होती जाती हूँ
एकान्त को सहेजने का यत्न दरअसल उसी से मिल सके व्यर्थताबोध की वजह से भी निरन्तर और सघन है। बहुत-सा अर्थहीन इसी एकान्त के अनुभव से ज्ञात होता है- ‘पता लगाना @ उतना ही निरर्थक है @ जितना पता लग जाने के बाद होता’। अभिव्यक्ति की अपूर्णता का एहसास और उसके उपक्रम भी इसीलिये यहाँ एकान्त को रचते हैं-
कहे हुए के जाल से
हर बार झर जाता है
न कहा जा सकना
यह विकट सच ही एक पूरी लय की तरह इन कविताओं में व्याप्त है। आत्मालाप की धुनों के बीच से उभरते अनुभव संसार में कोई निरीहता नहीं है बल्कि अपने सच को उसकी समूची उज्ज्वलता के साथ प्रकट करने के उद्यम का नैतिक दायित्त्व भी है, ‘जो तुम्हें प्रमाद लगता है वह सौन्दर्य की आकांक्षा है’। साथ ही जीवन-सच के स्वीकार भाव की विनम्रता भी है-
नदियाँ, पहाड़, पक्षी, लोग
ईष्र्या, भय, प्रेम और वात्सल्य
के अश्वों पर सवार
क्या तुम सचमुच ताज़ा बनी रह सकती हो
दो अनुभवों की इन कविताओं में अत्यन्त सघन उपस्थिति हैः मृत्युबोध और अध्यात्मिकता की। मृत्यु की प्रतीक्षा, आहट और बाद के जीवन की नीरवता के कुछ सर्वथा भिन्न अनुभव यहाँ मौजूद हैं, जिनमें दुःख का बखान नहीं है, उसके होने की गरिमा का सहज स्वीकार है, साथ ही मृत्यु के प्रति-आलोक रूप में नीरव जीवन की मद्धिम रौशनी पर ज़्यादा इसरार है। हालाँकि दोनों के होने का सातत्य कितना बिंधा और अपरिहार्य रूप से परस्पर निर्भर है-
जो चीज़ हमें मारती है
वही जि़न्दा रखती है
जो चीज़ हमें जि़न्दा रखती है
वही मारती है
‘जी कविताएँ’ इस बोध की मार्मिक अभिव्यक्ति हैं। मृत्यु के नज़दीक ‘जी’ के जीवन और निर्विकार भाव से मृत्यु की प्रतीक्षा जीवन के वैभव का ही स्वीकार है। इनमें दुःख जितना प्रकट है उससे कहीं ज़्यादा अन्तिम समय की शान्ति। एक देह अकेली मृत्यु को सिरहाने नहीं जाती उसके साथ बहुत सारा मृत होने की तैयारी-सा घटित होने लगता है। जी का इच्छामुक्त अन्तिम समय, ईश्वर में गहरी आस्था और मृत्यु की आहट का आभास इन कविताओं में उत्तरोत्तर ध्वनित है। यह निरुद्विग्नता से भरा समय जीवन के अलोप को ही प्रकट करता है-
बस एक बुखार को बदन और बच्चो !
म्हारे तो यांज शान्तिनाथ को सायरो है
माला री थारो जपनो कठिन है
सुमिरन रे थारे करनो कठिन है
मृत्यु के बाद का स्मरण, मृतकों-पुरखों-देवों का आह्वान और इस अर्थ में जीवनास्था का प्रबल आग्रह ही अध्यात्म का प्रस्थान बिन्दु बनता है। यहाँ जी कविताओं के अलावा भी इसकी लय मिलती है जिसमें उपयोगिता के सरलीकृत पक्ष से ईश्वर आसक्ति पर अफ़सोस है, ‘देवताओं को सोख लिया है @ लोगों की भटकती आकांक्षाओं ने’ साथ ही आत्म के सम्बोधन में ही इसे वास्तविक अर्थों में अनुभव करने की शक्ति का आग्रह भी है-
प्रार्थनाएँ
मौन को समर्पित हैं
अध्यात्म की उपस्थिति यहाँ जीवन के शाश्वत प्रश्नों के साथ एकान्तिक संवाद में भी घटित होती है। प्रश्नाकुलता से भरी सम्मोसरण कविता नियतिबोध के दारुण सत्य से निपट साक्षात्कार कराती है-
हे मुनिवर बताओ मुझे
किनारे लगती है नाव
या लगता है समुद्र
हे मुनिवर झरता है काल
या झर जाते हैं हम
हे मुनिवर हे मुनिवर
हे मुनिवर क्या तुम्हारा मौन
हमारे उन सारे सवालों का जवाब है
जो पूछे नहीं जा सकते
कभी भी
साहित्य हमें इस प्रश्नाकांक्षा का विवेक देता है जिनके उत्तरों के लिए हम अभिशप्त रूप से किसी देव या धर्म के पास नहीं जा सकते।एकान्त में ही जिनसे झुलसकर उसी की आँच से कुछ तृप्त-अतृप्त अनुभव किया जा सकता है।
इन कविताओं में लयात्मकता का दुर्लभ गुण उल्लेखनीय रूप से मिलता है, कुछ गद्य कविताएँ भी हैं जिनमें लय नैरन्तर्य विद्यमान है। संग्रह में ग्यारह हाईकूनुमा कविताएँ हैं, जिनमें प्रकृति के दृश्य, बिम्ब-उपमा-रूपक की तरह आते हैं, जिनसे रिक्ति, ऊब, उदासी, प्रतीक्षा, इच्छाओं का एक मानचित्र तैयार होता है।
प्रकाशित साहित्य को लेकर हमारी धारणा में एक किताब में एक ही विधा का विचार स्थिर है। रघुवीर सहाय और श्रीकान्त वर्मा के एकाधिक संग्रह ही अपवाद स्वरूप हमारी स्मृति में हैं। यहाँ कहानी और कविता के संग्रह में दोनों की भिन्न और रचनात्मक उपस्थति के साथ ही अन्य विधाओं का साहचर्य रचनात्मक आकांक्षा का सार्थक उपक्रम सम्भव करता है। ऐसी विरल कृतियाँ इस अर्थ में भी ज़रूरी होती हैं कि वे हमारी रचनात्मक मेधा को संकीर्णता की चारदीवारी से बाहर निकालने का लेखकीय जोखिम उठाती हैं, जिसके अभाव में हम अभिव्यक्ति की वास्तविक शक्ति को नहीं जान पाते।
प्रारम्भ में निर्मल वर्मा के जिस उद्धरण का उल्लेख किया गया है, उसकी मूल मंशा का निर्वाह यह संग्रह करता है।
लेखिका संगीता गुन्देचा की यह कृति ‘एकान्त का मानचित्र’ हिन्दी लेखन में रचनात्मकता को विधागत नियति के ऊपर स्थापित करने के लेखकीय उत्तरदायित्त्व के रूप में अनिवार्यतः पढ़ी जानी चाहिए।

किताब - एकान्त का मानचित्र (कविताएँ, कहानियाँ)
लेखक - संगीता गुन्देचा
प्रकाशक - सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर

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