निर्मल वर्मा की कहानियों में दार्शनिक प्रश्न ख़ालिद जावेद
08-Jun-2019 12:00 AM 4450
मेरे पास एक मौन होना चाहिए। मौन, भारतीय संस्कृति में बड़ी बात है। निर्मल की कहानियों पर बात करते हुए मेरे पास मौन होना चाहिए। दूसरी बात यह है कि मेरी हिन्दी अच्छी नहीं है, उर्दू भी मुझे उतनी नहीं आती। मेरे पास एक ही चारा निकलता है कि मैं अपनी भाषा को निर्मल वर्मा की भाषा बना दूँ और उसके सहारे अपना काम चलाऊँ। निर्मल की जो कृति मैंने पहले पढ़ी थी, वह हिन्दी में नहीं थी। उपन्यास था वह, ‘वे दिन’। वह कृष्ण बलदेव वैद का अनुवाद था। मेरे पास वह अब भी है। यह बात बीस-पच्चीस साल पहले की है। मैंने इसके पहले भी दूसरी चीज़ों के अँग्रेज़ी तर्जुमें पढ़े थे। मुझे हमेशा महसूस हुआ था कि वे ठीक तो हैं लेकिन उनमें मूल जैसा आकर्षण नहीं था। ज़ाहिर है तर्जुमें की अपनी भाषा के मुहावरे में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन ‘वे दिन’ का अँग्रेज़ी तर्जुमा मेरे भीतर इस तरह तारी हुआ कि लगा जैसे मैं इसे उर्दू में पढ़ रहा हूँ, मैं इसे हिन्दी में पढ़ रहा हूँ। उसके बाद मैंने उस उपन्यास को उर्दू में पढ़ा, वह तर्जुमा अज़मल कमाल का किया हुआ था जो पाकिस्तान के ‘आज’ में शाया हुआ था। उसके बाद मैंने उसे हिन्दी में पढ़ा। मेरे लिए यह एक बहुत ही अजीबोग़रीब करिश्मा था कि आखि़र ये कौन-सी जुबान थी जो हर अनुवाद में वही बात उभरकर आ रही है। ये कौन-सी जुबान हुई जिसे कोई अनुवाद रोक नहीं पा रहा। जो उस उपन्यास का ज़बरदस्त पावर था, उसमें जो बारीक़ संवेदन थे, ऐसा लगता है वे किसी भी भाषा के अपने साँचों में नहीं है, वे उससे बाहर आ रहे हैं।
 
मुझे ऐसा लगता है कि निर्मल की कहानी वहाँ नहीं है जहाँ वो है, वह वहाँ है जहाँ लिखा हुआ शब्द संकेत कर रहा है। उनका शब्द वहाँ नहीं है जहाँ वह लिखा हुआ है बल्कि कोई और शब्द है जिसकी ओर ये शब्द संकेत कर रहे हैं। उसके उपन्यास को पढ़ने के बाद से उन्हें पढ़ने का सिलसिला खत्म नहीं हुआ। मैं तो यह भी कहूँगा कि एक ज़माने में मैं शायरी वगैरह करने लगा था, कविता लिखने लगा था। मैं कहानीकार शायद बन ही नहीं पाता अगर मैंने निर्मल वर्मा को नहीं पढ़ा होता। निर्मल वर्मा मेरे दुःख और सुख के साथी हैं। बहुत बुरे वक़्त में निर्मल वर्मा की कहानी ने मेरा साथ दिया है। जब भी बुरा वक़्त मेरे ऊपर पड़ा, निर्मल ने मेरा साथ दिया है। बहुत बाद में जाकर मेरा अपना कहानी संग्रह छपा, जब मैं बरेली में दर्शनशास्त्र पढ़ाया करता था। मैं और मेरे एक दोस्त त्रिनेत्र जोशी, वहाँ बैठकर निर्मल वर्मा के बारे में बहुत बातें किया करते थे। वे भी उनकी कहानियों के मुरीद हैं। हम बरेली से दिल्ली आये, निर्मल से मिले। हमारी यह मुलाकात 1999 में हुई। सन् 2000 में जब मेरा कहानी संकलन छपा, उसका फ्लैप निर्मल वर्मा ने लिखा। वह उर्दू में छपा। मैंने वह फ्लैप किसी उर्दू वाले से नहीं लिखाया। जब निर्मल जी मुझसे पहली बार मिले, वे इस तरह मिले कि मुझे यह महसूस हुआ कि उनसे मिलना सिर्फ़ एक लेखक से मिलना नहीं है। यह शख़्स लेखक से और भी बड़ी चीज़ है जिससे बार-बार मिलना होगा। वह सिलसिला आज भी कायम है। संसार के जितने भी लेखकों को मैंने पढ़ा है जिनमें मैं शायरों को भी शामिल करता हूँ, उनमें से किसी के भी गद्य ने मुझे इतना आन्दोलित नहीं किया जितना निर्मल वर्मा के गद्य ने। उनका गद्य हम एक तरफ रख दें और संसार के गद्य लेखक और अपने यहाँ के बड़े शायर एक तरफ रख दें तो फ़र्क दिखायी दे जाएगा।
 
मैं उनके शब्दों के बारे में सोचता था कि ये शब्द कहाँ से आते हैं? जब मैंने बाद में सत्यजीत राय की फि़ल्म ‘पथेर पांचाली’ का वह दृश्य देखा जिसमें दो बच्चे नदी के किनारे झाडि़यों के पीछे छिपे हुए हैं। तभी एक ट्रेन वहाँ से गुज़रती है। इस ट्रेन के निकलने से जो स्पन्दन होता है, उसके कम्पन को आप महसूस करते हैं। मुझे लगा कि निर्मल की एक अलग भाषा है और उनके शब्द मुझे कँपकँपा देते हैं। ये शब्द आपके कानों में नहीं, आपकी आत्मा में कँपकँपाते हैं। यह एक अजीबोग़रीब तजुर्बा है जो मुझे निर्मल वर्मा को पढ़ने से होता है। आज उनकी बात करते हुए भी वही कुछ हो रहा है।
 
उनकी कहानियों के सन्दर्भ में मुझे यह लगता है कि उनकी बाद की कहानियों पर, जो ‘सूखा और अन्य कहानियाँ’ में संग्रहीत हैं, उतनी बात नहीं हुई है जितनी उनकी इब्तेदाई कहानियों पर होती रही है। यह होता भी है कि जब किसी लेखक के बारे में बहुत ज़्यादा बात शुरू में ही हो जाती है तो बाद में लोग सोचते हैं कि ‘चलो भाई ठीक है, इन पर बहुत बात हो चुकी है। अब नहीं करते।’ पर मुझे लगता है कि उनकी बाद की कहानियों में जैसे ‘टर्मिनल’ है, उस पर बात नहीं होती। जैसे उनकी ‘परिन्दे’, ‘लन्दन की एक रात’, ‘अँध्ोरे में’ पर बहुत बात हुई है। लेकिन उतनी बात बाद की मसलन ‘बुखार’ पर नहीं हुई, ‘टर्मिनल’ पर ‘आदमी और लड़की’ पर भी। इन कहानियों का जि़क्र नहीं होता जबकि ये सारी कहानियाँ भारतीय बौद्धिक परम्परा से सीध्ो-सीध्ो जुड़ी हुई हैं।
 
‘जलती झाड़ी’ के बाद की कहानियों की कोई चर्चा नहीं होती। लेकिन वह कहानी अपने ज़माने में बिल्कुल अमूर्त कहानी थी, उसका माॅडल शायद कोई यूरोपियन रहा हो पर मेरा ख़्याल है कि उससे ज़्यादा भारतीय कहानी कोई है ही नहीं। अगर आप ध्यान से देखें, आप पाएँगे कि इसमें अस्मिता का संकट है कि मैं क्या हूँ, पूरा का पूरा। और यह जो मेरा ‘मैं’ हैं, मेरी अस्मिता है, वह कितने भागों में बँटी हुई है। यह पढ़ते हुए बोर्खेज़ की याद आती है। इस कहानी में प्रश्न यह है कि झाड़ी के अन्दर वो कौन है जो मैं हूँ। हमारा उपनिषद् और उसका समूचा दर्शन ‘जलती झाड़ी’ में मौजूद है। उसको यूरोप के माॅडल की कहानी कहना बहुत बाद की बात है, उसका कोई ताल्लुक मार्केज़ आदि से भी नहीं है।
 
मैं जब भी ‘टर्मिनल’ पढ़ता हूँ, कँपकँपा जाता हूँ। वो कौन-सा प्यार है जिसके ऊपर अपशकुन का साया है, जिस पर एक अजीब बद्दुआ है। उसमें जो लड़की है उसे पहले से ही वहम होते रहते हैं। कुछ उसके अन्ध्ाविश्वास हैं, उनको लेकर वह तान्त्रिक जैसी महिला के पास जाती है। वह महिला उसे बताती है कि तुम्हारा और इस लड़के का साथ नहीं हो पाएगा। उस शहर में एक पुल है, जिस पर वे रोज़ मिला करते थे। उस पुल पर से जब वे दोनों निकले हैं, उनकी दुनिया बदल गयी है। शाम का वक़्त है। सूरज डूब रहा है। बारिश हो चुकी है। वहाँ लड़की को यह याद आता है कि तीन सौ साल पहले कोई रानी थी जिसने राजा से कहा था कि यह पुल अच्छा है पर पुलों के ऊपर घर नहीं बनाये जा सकते। हम पुल पर चल सकते हैं, टहल सकते हैं, लेकिन उन पर घर नहीं बना सकते। यह कहकर वह रानी पुल से कूदकर आत्महत्या कर लेती है। उसी पुल पर ये दोनों प्रेमी एक-दूसरे से अलग होते हैं, हमेशा के लिए। लड़की का हाथ भीगा हुआ है। उसको बुखार है, बुखार के पसीने से उसका हाथ भीगा हुआ है और उसमें एक टिकट है, अगली शाम के आॅपेरा का जिसे वे नहीं देख सकेंगे। ‘अब देखिये, कहानी का नाम भी ‘टर्मिनल’ है। नाम अँग्रेज़ी का है, लेकिन पूरी कहानी उस अहंकार से पैदा होती है जिसका जि़क्र हमारी भारतीय बौद्धिक परम्परा में है, जिसने सबसे पहले यह समझा कि अहंकार क्या है? मुझे यहाँ सांख्य दर्शन भी याद आता है, पुरुष और प्रकृति क्या है? अहंकार से मनुष्य को आज़ाद होना है।
 
एक और चीज़ है वह यह कि जो बड़ा लेखक होता है वह हर पाठक का अपना लेखक होता है। आप सबके अपने निर्मल वर्मा हो सकते हैं और मेरे भी अपने निर्मल वर्मा हैं। हो सकता है वे आपके निर्मल वर्मा से बिल्कुल अलग हों।
 
मुझे कहीं यह भी लगता है कि उनमें एक किस्म की बेघरी का एहसास बहुत है। उनकी कृतियों में घर नहीं बनता, घर बनता भी है तो ऐसा लगता है कि टूटने के इन्तज़ार में है। यहाँ बनने और टूटने की प्रक्रिया साथ-साथ चलती है। इस बेघरी का एहसास उनकी लगभग हर कहानी में है, यही एहसास ‘टर्मिनल’ में भी है। यह बेघरी का एहसास उस वैराग्य से पैदा होता है, जो भारतीय दर्शन में रहस्य बना हुआ है। वहाँ वैराग्य कितना है, आप यह देखियेः उनकी एक छोटी सी कहानी है ‘खाली जगह’, उसमें उनके घर सूफ़ी बाबा आते हैं या ‘कव्वे और काला पानी’ को ही ले लीजिए, वहाँ भी इस वैराग्य का अनुभव है, ‘सुलगती टहनी’ में भी कुम्भ मेले के जि़क्र में ऐसे चरित्र का जि़क्र भी है जो अपना घर छोड़कर आये हैं। यह पता नहीं चलता कि लोग घर क्यूँ छोड़ देते हैं।
 
मुझे यह भी लगता है कि उनकी कहानियों में चरित्रों के बीच सम्प्रेषण नहीं हो रहा। जब निर्मल संवाद लिखते हैं, ऐसा लगता है कि जिन चरित्रों के बीच के संवाद लिखे जा रहे हैं, उनमें कोई सम्प्रेषण नहीं हो रहा। अगर कुछ होता भी है, बहुत कुछ छूट जाता है। मालूम यह होता है कि कुछ सम्प्रेषण हुआ है पर होता नहीं है। यह समस्या चरित्रों के अहंकार से पैदा होती है। ‘बुख़ार’ निर्मल जी की अद्भुत कहानी है। मैंने उसे जितनी बार पढ़ा है, मुझे खुद अपने आप में बुख़ार महसूस हुआ है। उसमें एक लड़का है। उसके माँ-बाप उससे बार-बार शादी करने को कहते हैं, अख़बारों में विज्ञापन देते रहते हैं। मगर वह जहाँ भी जाता है, बात कहीं नहीं बनती। एक जगह कुछ बात बनती-सी लगती है, मगर वो भी अहंकार के चक्कर में कुछ और न कह पाने के कारण ख़त्म हो जाती है। जहाँ बात लगभग बन रही होती है, वह लड़की उससे मिलने ट्रेन पर आती है, ट्रेन में इसको ध्ाक्का लगता है और ये एक तरह के बुख़ार से ग्रस्त हो जाता है और बात टूट जाती है। यह क्या बुख़ार है? यह तब तक बना रहता है जब तक एक आदमी और दूसरे के बीच की ध्ाुन्ध्ा मिट नहीं जाती। यह तब तक नहीं मिट सकती जब तक उनके बीच सत्य नहीं आता और किसी के पास भी वह है नहीं। सारा सत्य सापेक्ष्य है।
 
उनकी बाद की एक कहानी है जिसमें बच्चा बार-बार कहता है कि पहाड़ कब आएगा, ये पहाड़ है क्या? मुझे लगता है कि भारतीय बौद्धिक परम्परा में, उपनिषदों में जितना अस्तित्ववाद है, रहस्य है, वह भरा हुआ है। उसकी शुरुआत ही यहाँ से होती है कि आप उस रहस्य को जान ही नहीं सकते। रहस्य जानने के लिए खुद रहस्य होना होता है। पर चूँकि इनमें थोड़ी-सी दूरी हमेशा बनी रहेगी जो रहस्य को पूरी तरह जानने नहीं देगी, इसीलिए बच्चा कहता है, ‘पहाड़ कब आएगा’। यह मृत्यु का कैसा रहस्य है कि इसमें से जीवन बार-बार बाहर निकल आता है, यह कैसा रहस्य है ब्रह्म या ईश्वर के बारे में? यह रहस्य ही इस कहानी के अन्दर आप देख सकेंगेः अगर ईश्वर है तो भी वह एक ऐसा रहस्य है जो हमसे कुछ छिपा लेगा, कुछ ज़ाहिर कर देगा। पहाड़ में भी रहस्य है। अपने आप में वह पूरा का पूरा काले रंग का दिख जाएगा। पर पूरे पहाड़ को आप नहीं देख सकते, पहाड़ एक तरह का अनन्त है और हम सान्त हैं। सान्त मनुष्य अनन्त को देख ही नहीं सकता।
 
‘आदमी और लड़की’ को लोगों ने बिल्कुल भूला दिया है पर यह ग्लानि की भयानक कहानी है, कि़ताबे जुल्म की कहानी। अपराध्ा-बोध्ा का ऐसा भयानक असर पैदा करने वाली कहानियाँ संसार में लिखी ज़रूर गयी होंगी, मैंने नहीं पढ़ी। पुस्तकालय के अन्दर एक शख़्स जाता है। वह अच्छा-खासा अध्ोड़ शख़्स है, क़रीब चालीस-पचास के क़रीब का। वहाँ एक लड़की है। वह उसको ले जाकर पुरानी कि़ताबें बेचता है और अपना ख़र्च चलाता है। ध्ाीरे-ध्ाीरे दोनों के बीच प्यार का रिश्ता कायम हो जाता है। उसकी भारतीय पत्नी भी मौजूद है। वह बार-बार लड़की से कहता है कि वह जा रहा है, वह जवाब देती है कि जाओ पर इस संवाद से कुछ भी सम्प्रेषित नहीं होता। ग्लानि बढ़ती जाती है। आदमी कुछ अनुवाद का काम करता है और वह कहता है कि मेरा थोड़ा-सा काम बाकी है, लड़की कहती है कि लाओ मैं उसे टाइप कर देती हूँ। कहानी में आदमी का कोई नाम नहीं है। हर जगह उसे और लड़की को आदमी और लड़की ही कहा गया हैः आदमी ने ये कहा, लड़की ने ये कहा। इस कारण हम आदिम समाज में पहुँच जाते हैं। वह बोल रहा है, वह टाईप करती जा रही है। बीच-बीच में वह अपनी मादरी जु़बान में कहता है, ‘मैं मरना चाहता हूँ’, पर लड़की यह जु़बान नहीं समझती। अब आप खुद बताइये कि इस कहानी की बारीकियों, नज़ाकतों को कहाँ रखा जाएगा।
 
उनकी कहानियों की एक और विशेषता मैंने यह देखी कि वहाँ जो भी स्त्री चरित्र आती हैं उन्हें ‘आयी’ आदि से सम्बोध्ाित नहीं किया जाता। वहाँ सम्बोध्ान का ढँग बदल गया है, वे ‘आयीं’ होता है। सम्मान-सूचक सम्बोध्ान। मसलन निर्मल ‘वो आयी थी’ नहीं लिखते, ‘वे आयीं थीं’, लिखते हैं। ऐसा सम्बोध्ान उनकी कई कहानियों में है, मसलन सूखा में, बुख़ार में, जाले आदि में।
 
कहानी में कोई सच नहीं होता या कि जो सच की कहानी होती है, उसमें भ्रम होता है। एक जगह उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में रामकृष्ण परमहंस का जि़क्र करते हुए लिखा है कि उन्होंने सपना देखा कि ईश्वर कैसा है, तो उन्होंने देखा कि एक झील है जिसके ऊपर हरी काई फैली है, जब हवा चली तो वह काई फट गयी और उसके नीचे का साफ़ नीला पानी दिखायी देने लगा, उन्होंने समझ लिया कि यही ईश्वर होगा। लेकिन थोड़ी देर में फिर हवा चलती है और वो काई उस साफ़ नीले पानी को ढँक लेती है। इसी तरह कई भारतीय दार्शनिक परम्पराओं में साँप और रस्सी का उदाहरण दिया जाता है। ये सारी चीजे़ं उनकी कहानियों में हैं जहाँ वे भ्रम और सच दोनों को लेकर चलते हैं। उनकी कहानी एक ख़्वाब की तरह है, कहीं ख़्वाब में हक़ीकत है कहीं हक़ीकत में ख़्वाब।
© 2025 - All Rights Reserved - The Raza Foundation | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^