02-Aug-2023 12:00 AM
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मराठी से अनुवाद : गोरख थोराट
‘टिमटिमाते दूर दिये गाँव केऽऽ’ यही एक पंक्ति हमेशा गूँजती रहती है दिमाग़ में, कानों में, मन में। क्या था वो गाना, जो तापी दीदी हमेशा गुनगुनाती थी। ऐसे कैसे भूल गया मैं? वह जब ‘दूऽऽर’ कहती थी, ऐसा लगता था, मानो कोई मिट्ठू भुर्र से उड़ गया है टहनी से। और ‘गाँव केऽऽ’ कहती थी, तो ऐसे लगता था, मानो वही मिट्ठू आहिस्ता से पाँखें बन्द करता हुआ आ बैठा है टहनी पर। लेकिन उसकी तर्ज़ कुछ भी याद नहीं आ रही बाबा। ऐसे कैसे याद नहीं आ रही? और पंक्तियाँ भी याद नहीं आ रहीं? पहले की भी नहीं और बाद की भी। बस ‘टिमटिमाते दूऽऽऽर दिये...’। ख़ैर, यही सही। यही गुनगुनाते रहेंगे मन ही मन। पारवा को अपने घर जाते समय जैसा महसूस होता था, वैसा ही महसूस होता है ये पंक्तियाँ गुनगुनाते समय। बार-बार। अँधेरा धीरे-धीरे बढ़ रहा है और लिम्बाजी उससे गपशप करता हुआ बढिया-सा बैलगाड़ी हाँक रहा है। मैं बेसब्र। बार-बार ‘पहुँच गये क्या रे हम पारवा?... पहुँच गये क्या रे हम पारवा?’ और उसकी अपनी वही बात, ‘बस पहुँच ही गये जी, बातों-बातों में अभी पहुँच जाएँगे। वो देखिए दिये दिखायी दे रहे हैं।’ हाँ, दिखायी दिये। टिमटिमाते दूर दिये गाँव के। थोड़ी देर के लिए मुझे अच्छा लगा। धीरज बँधा और सपना शुरू। गाड़ी जैसे ही रुकती है घर के सामने, दौड़ता हुआ आता है भिवा, चौड़ी-चौड़ी मुस्कान बिखेरता हुआ, मुझे गाड़ी से उतारने के लिए। ‘अरे अरे, अब नहीं। अब बड़ा हो गया हूँ न मैं।’ लेकिन यह कहने तक मेरे हाथ उसके गले में। दरवाज़े पर भाई-बहनें।’ आ गये महाराऽऽज।’ घर में आते ही भिवा सबसे पहले मेरे हाथ-पैर-मुँह धुलवाएगा, तब तक ओसारे में सारे जमा होंगे। भाई-बहन, बड़ी अम्मा, बूढ़ी बुआ, दादा। माई का पता नहीं। ‘पहले भगवान को प्रणाम करो।’ मैं प्रणाम करता हूँ और दोबारा घेरे में। बुआ कहती है, ‘कितना बड़ा हो गया है देखो, साल भर में। ये बनेगा लम्बा अपने बाप की तरह।’ बड़ी अम्मा कहती है, ‘कैसी हड्डियाँ निकल आईं रे। इतना-सा बच्चा। पाँचवें साल से ही भेज दिया है परदेश, बाप्पा!’ दादा कहते हैं, ‘अपने लोगों के बीच ही है न वहाँ? या किसी जंगल-पहाड़ में है? कितना करते हैं वो। कोई परदेस-फिरदेस मत भरो उसके दिमाग़ में। और छुट्टियों में नहीं आता है क्या अपने घर? तो? बेकार में!’ माई भीतर से बस झाँकती है। लगता है, उसकी कोई जगह ही नहीं है इन सबके बीच। लेकिन मेरी तरफ़ देखकर हौले से मुस्कुराती है और दोबारा घर में ग़ायब। मुझे सीने से लगाना वग़ैरह कुछ नहीं। लेकिन जब हँसती है मेरी तरफ़ देखकर, तब सचमुच मुझे लगता है, अब आ गया हूँ मैं अपने घर! भिवा बस दूर-दूर से देखता रहता है।
कब ख़त्म होगा बाबा ये सब इनका? ख़त्म ही नहीं होता। भिवा के पास जाने के लिए मैं बेसब्र। उसे क्या सुनाऊँ और कितना सुनाऊँ। वह हँसता हुआ सुन लेता है प्यार से। घर के बड़ों का मामला ऐसा कि कभी ज़ब्त न होकर हम कुछ कह दें तो तुरन्त बोलेंगे ‘अच्छा-अच्छा! बीच में बोलना नहीं चाहिए बड़ों के।’ या ‘बिना पूछे बोलना नहीं चाहिए छोटों को।’ बड़े भैया तो कहेंगे ‘हाँ, खोल दिया जबड़ा खण्डहर महाराज ने।’ मेरे ऊपर के दो दाँत गिर गये थे न। और बहनें ‘देखा, लगा भाँजी मारने।’ ऐसे में कैसे बात करें बाबा उनसे? मतलब घर जाऊँ तो घर में बस मेरे ही बात करने पर पाबन्दी। और माई के भी। क्योंकि वह हमेशा सोंवले में रहती थी। शायद ऐसा भी हो कि सोंवले में बात करने की इजाज़त नहीं होगी। सोंवले में वह हमेशा गिरगिरी की तरह घरभर घूमती हुई काम करती थी। लेकिन बुआ तो करती थी बात सोंवले में होने के बावजूद। फिर? लेकिन काम करते-करते जब भी मैं दिखायी देता, माई अचानक धीमे से मुस्कुरा उठती। दीवट की ज्योति अचानक बड़ी हो जाने जैसा लगता कुछ-कुछ।
मैं तो यादों से ही गद्गद् होने लगा। अभी और कितने बाकी दिन हैं, कब छुट्टी मिलेगी, कब लिम्बाजी गाड़ी लेकर आएगा, ‘पहुँच गये क्या रे हम पारवा, पहुँच गये?’ ‘बस पहुँचे ही समझो छोटे मालिक, पहुँच ही गये।’ फिर मैं बाहर अँधेरे में नज़रें घुमाता दिये देखने के लिए। ‘टिमटिमाते दूऽऽऽर दिये गाँव केऽऽऽ।’ हे भगवान, कैसे खो गयी वह तर्ज़ दिमाग़ से! लेकिन अच्छा लगता है मन ही मन यही एक पंक्ति गुनगुनाना। और बैलों की गले के घुँघरू। छुनछुन छुनछुन। ‘एक सुर में घुँघरूऽऽ बोलेऽऽ घुँघरूऽऽ बोले।’ वह सुलोचना कैसी सुन्दर गाती है गाड़ी में बैठकर। और ‘घुँघरू’ कहते समय बिल्कुल घुँघरू जैसी आवाज़ निकालती है। वैसी आवाज़ निकलनी चाहिए। मैंने अपने आप से कहा, पहले अगली पंक्ति गाओ ज़ोर से फिर पीछे आना, फिर निकल आएगी वैसी आवाज़। सुलोचना ने मीठी मुस्कान बिखेरी और बोली, ‘निकलेगी निकलेगी वैसी आवाज़। गाओ तो ज़रा।’ मैं झट् से उसकी बगल में जा बैठा और बैलों की रस्सियाँ हाथ में लेकर गाड़ी को सरपट दौड़ाता हुआ गाने लगा, ‘जोड़ी बैल की शान से चले, रे सजनाऽ चलेऽ, एक सुर में घुँघरूऽऽ...’
तभी ज़ोर से छड़ी बरस पडी बेंच पर और मैं उड़ गया। घुँघरू-बिंगरू कहीं के कहीं, तितर-बितर। मास्टरजी बोले, ‘खड़े हो जाओ बैल जोड़ी वाले। दूसरा बैल कहाँ गया?’ मैं खड़ा। उन्होंने मेरा कान टूटने तक उसे मरोड़ने के रिवाज़ का पालन किया। ‘कक्षा में इधर क्या चल रहा है और ये बैलों की जोड़ियाँ हाँक रहा है। बैल महाराज! खड़े हो जाओ घण्टा होने तक। नहीं-नहीं, घुँघरू बजने तक! हाहाहा। इस पर कक्षा के बच्चे, मतलब बच्चे ही न, वे भी जोश में आकर ‘हाहाहा।’ दोबारा बेंच पर फटाक् से छड़ी बरसी। लड़के चुप, लेकिन गालों में हँस रहे थे। क्या थे उनके नाम, क्या पता? मुझे कभी अपने साथ नहीं लेते थे वो। और यहाँ भी किसे पड़ी थी? नहीं तो नहीं! पारवा जाऊँगा। वहाँ हैं न सम्भा, बबनिया, गंगाधर, सुभानिया, छबू, सोमा, सुलु, वच्छी, मन्दाकिनी... ये सब मेरे कितने अज़ीज़ और अपने। सुलोचना जैसा मासूम चेहरा बनाकर मैं कहने वाला था, ‘जिवाऽचा सखा, मला जीवलगा, माझा जीवलगा।’ (जान से प्यारा, मेरा यारा, मेरा यारा) मुझे ‘मासूम’ शब्द बहुत भाता था। सब कुछ मासूम। एक दिन सब्ज़ी बहुत कम तीखी बनी थी इसलिए कहा ‘सब्ज़ी बहुत मासूम बनी है।’ चाची मुँह बनाती हुई बोली, ‘अच्छा जी! ऐसा? दही ले लो।’ हँसते-हँसते चचेरी बहन के अचानक ऐसी खाँसी आ गयी कि बस! भाई बोला, ‘लेखक बनेगा ये! बदनसीब!’ लेकिन अभी मैं कक्षा में हूँ, मास्टरजी ने ही मुझे याद दिलाया था। मैं मन ही मन सोचते हुए खड़ा हो गया। चलो, खड़ा तो खड़ा, हमें क्या।
वैसे भी कक्षा में मेरा ध्यान होता ही नहीं था कभी। कभी मतलब कभी नहीं। इसका मतलब यह भी नहीं कि मन में हमेशा ‘टिमटिमाते दूर दिये’ या ‘एक सुर में घुँघरू’ ही चल रहा होता। बड़ा होने पर मैं जानने वाला था न मैं ‘शून्य’ जैसा शब्द वैसा मैं शून्य था। सन्नाटे से भरी शून्यता मन में और मैं मोटे से बेंच से चिपका हुआ। आसपास क्या चल रहा है, कुछ पता नहीं। बेखबर। एक बार चाचाजी बोले थे, ये लड़का हमेशा रेवरी में होता है। मतलब... क्या पता। लेकिन कक्षा में खुलेआम सन्न और नज़रें शून्य में, जैसे कुछ भी दिखायी न देता हो। नज़रें मास्टरजी पर। क्योंकि उन्हें लगना चाहिए कि मैं ध्यान से सुन रहा हूँ। लेकिन हो सकता है, नहीं भी लगता होगा उन्हें ऐसा। वे हमेशा परेशान, झुँझलाए हुए होते थे। बदरंग-सा पुराना काला कोट और सिर पर तैलिया काली टोपी। कोई भी झुँझलाएगा। मुझ जैसे खम्भे से सवाल करने की एनर्जी (चाची का शब्दः ‘दूध पी ले। एनर्जी आनी चाहिए।) उनमें नहीं होगी न। नेचरल ही है यह। दो-एक बार हर लड़के की तरफ़ छड़ी तानकर ‘तू, तू, तू’ करते-करते मेरे पास भी आये थे वे। मैं खम्भे जैसा खड़ा। ‘अबे बोल न खम्भे! बोल।’ उहूँ। मैं खम्भा। इर्दगिर्द थे बुद्धिमान बच्चे, हमेशा जवाब देने को तैयार। बेसब्री से दाहिना हाथ ऊपर, बेंच पर आधा कूल्हा ऊपर उठाए, ‘सर मैं, सर मैं।’ मैं सोचता, जब इनको इतना सब कुछ आता है, तो इन्हीं से क्यों नहीं पूछते। पूछो न इनसे। मास्टरजी को भी एक बार सुझाने वाला भी था मैं कि जिन्हें आता है, उन्हीं से पूछिये। वे भी ख़ुश, आप भी ख़ुश और मैं भी। लेकिन नहीं! बौखलाने की तरह वे वहीं खड़े थे, मेरे सामने! ‘अरे पत्थर, बोल बाबा बोल। दया कर मुझ पर, मेरे बाप। खोल अपना जबड़ा।’ मैं क्या बोलता, जब पता ही नहीं था मुझे कि कक्षा में क्या चल रहा है? मैंने कहा, मुझे नहीं पता कि क्लास में क्या चल रहा था? उन्होंने अपना माथा पीटना शुरू किया। ‘हे भगवान, कहाँ-कहाँ से भेजते हो तुम ऐसे नमूने? सिर खपाओ इनके सामने और ये सोते रहते हैं।’ दोबारा माथा पीटना। वे ‘दहेज’ की ललिता पवार ही दिख रहे थे। मेरी इच्छा हुई कि झट से करण दीवान बनकर उनसे कहूँ, ‘माँ, क्यों इतना खामोख़ाम ख़ुद को परेशान करती हो? ऐसा न करो।’ लेकिन खामोख़ाम या खामखा या ठीक-ठीक उच्चारण क्या है, मुझे पता ही नहीं था इसलिए ठिठका। लेकिन तब तक वे दूसरे लड़के की तरफ़ मुड़ चुके थे, और कड़क इस्त्री वाली हाफ़ पैंट, हाफ़ शर्ट पहना वह लड़का भुन रहे चने की तरह तड़तड़ाता हुआ जवाब दे रहा था, विजयी मुद्रा में। कोई बात नहीं। नहीं चाहिए हमें ऐसी विजयी मुद्रा। मैं नीचे बैठ गया, मगर अचानक बिगड़ पड़े मास्टरजी। गर्र से पीछे मुड़ते हुए बोले, ‘‘बैठने के लिए कहा मैंने आपसे जॉर्ज़ पंचम? खड़े रहो भारत के आज़ाद होने तक। फिर बग्गी आएगी तुम्हें लेने के लिए।’ ठीक है बाबा, खड़ा तो खड़ा। हो गया खड़ा। और बग्गी फिग्गी काहे की? बैलगाड़ी। पारवा के लिए बैलगाड़ी ही। लेकिन मैंने इमेजिन (भाई का प्रिय शब्द। कुछ कहने के बाद उसका एक ही तकियाकलाम, जस्ट इमेजिन।) किया कि मैं बग्गी से जा रहा हूँ टापटाप टापटाप और मन्दाकिनी रोती-रोती दौड़ रही है बग्गी के पीछे। मैं गा रहा हूँ, ‘उड़न खटोले पे उड़ जाऊँऽऽऽ, तेरे हाथ न आऊँ, हाँऽऽ आँऽऽ आ...’। इस कल्पना से हँसी बिखर गयी होगी मेरे चेहरे पर। बड़े लोग इसे मुस्कान कहते हैं। मन्दी थोऽऽड़ी भैंगी है। लेकिन मैं उसे चिढ़ाऊँ तो भी वह कभी बुरा नहीं मानती। एक बार पूछा था मैंने उससे कि मैं याकू़ब की तरह इतनी बेरहमी से पेश आता हूँ तुम्हारे साथ, लेकिन तुम्हें गु़स्सा क्यों नहीं आता? वह बोली ‘यूँ ही’। शायद उसे प्रेम होगा मुझसे। शायद मुझे भी होगा उससे। लेकिन मैंने कभी कहा नहीं ज़ोर से, क्योंकि बड़े लोग कहते थे कि ‘प्रेम’ शब्द अश्लील होता है। इसलिए उसे अपने मन में ही रखना ठीक है।
इस तरह मैं बेफ़िक्र-सा मुस्कुरा रहा था, लेकिन शायद मास्टरजी ने देख लिया था। ‘बेशर्म, देखो कैसे हँसता है। अन्तिया, उठ तो ज़रा और लगा दे एक ज़ोरदार थप्पड़ इसके मुँह पर!’ अन्तिया तो तैयार ही था। विलेन जाति का जो ठहरा। उठा और झन्न से जड़ दिया थप्पड़ मेरे गालों पर। पूरी कक्षा खी-खी कर हँस पड़ी। मेरी आँखों में आँसू आ गये। रहमान जब उस करण दीवान के गाल पर थप्पड़ जड़ देता है और उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं न, ठीक वैसे। लेकिन अन्तिया रहमान जैसा बिल्कुल नहीं लग रहा था। बत्तीसी दिखा रही कक्षा को, ‘चुप हो जाओ बन्दरो, बत्तीसी मत दिखाओ!’ कहकर मास्टरजी ने ज़ोर से छड़ी टेबल पर पटकी और उनका हो गया शुरू। बोर्ड पर कुछ लिखना और साथ-साथ ठनठन ठनठन कुछ बोलना। मेरा दिमाग़ सन्न हो गया, कान सन्न हो गये और मैं खड़े-खड़े ही ऊँघने लगा, ‘आ गयी, नींद आ गयीऽऽ, सोना मत गिर जाएगा, कैसे आती है इतनी नींदऽऽ’
सहसा सड़क की तरफ़ खुलने वाली खिड़की से एक सनसनाती सुन्दर ख़ानदानी तान बाज की तरह आयी और सीधे घुस गयी मेरे दाहिने कान में। ‘ऐ हवाऽऽऽ ऐ हवा, जा जा जा जा पिया के घर जा।’ नूरजहाँ! नूरजहाँ नूरजहाँ नूरजहाँ! ऐसे लगा, बन्द फ़व्वारा अचानक से शुरू हो गया है मेरे मन में झर्रर्रर्रर्र नूरजहाँ नूरजहाँ नूरजहाँ। ‘जा जा जा जा पिया के घर जा, ऐ हवा...’ मैं झट से होश में आया और दौड़ पड़ा, मेरा मन कक्षा के बाहर और लटक गया उस सुनहरी तान से। मुझे देखकर नूरजहाँ बरबस हँस दी। गाते-गाते ही उसने मेरा गुलचा मारा और हो गया उसका शुरू, ‘ऐ हवाऽऽऽ, ऐ हवा...’ एक ख़त्म हुआ नहीं कि दूसरा। ‘ओऽऽऽ ओऽऽ ओऽ मैं बन पतंग उड़ जाऊँगी।’ उसके ओऽ ओऽ ओऽ के वक़्त मैं उसके इर्दगिर्द नाचता फिरता था। मधुरता के साथ ‘हवा के साथ उड़ जाऊँगी, उड़ जाऊँगी’ गाती हुई मेरी तरफ़ देखकर मधुर मुस्कायी। उसने आँखों ही आँखों में पूछा, (क्योंकि वह गाने में बिज़ी थी) ‘अच्छा लगा गाना!’ अगर वह गा नहीं रही होती तो यकीनन मुझे ‘लाडला’ कहकर पुकारती। लेकिन क्या यह सम्भव है? नूरजहाँ गाना रोकेगी? असम्भव। नामुमकिन, नामुमकिन, नामुमकिन! उसका गाना बदस्तूर जारी था, ‘चन्दा की नगरी में जाकर छुमछुम नाचूँ गाऊँगीऽऽ।’ बाग़ में गोलाकार नाचते-नाचते उसका शहद की धार उँड़ेलना जारी। फिर मैंने भी माँजा हाथ में लेकर पतंग-बितंग उड़ाने का अभिनय करते हुए कहना शुरू किया, ‘मैं बन पतंग उड़ जाऊँगा। पारवा की नगरी में जाकर छुमछुम नाचूँगा-गाऊँगाऽऽ।’ वह कुछ इस तरह हँस दी कि बस, शहद ही शहद!
पाठशाला कब की ख़त्म हो गयी और मैं घर आ गया। लेकिन अपनी ही धुन में खोया हुआ, ‘मैं बन पतंग उड़ जाऊँगी ओऽऽ ओऽऽ ओऽ।’ चचेरी बहन उपन्यास पढ़ रही थी, खिड़की के पास बैठकर। खाण्डेकर या ऐसा ही कोई लेखक। उसने देख लिया मेरा कारनामा। झट् से किताब नीचे रखकर कमर पर हाथ रखे खड़ी हो गयी और बोली, ‘क्या माज़रा है रे कालिया?’ मैंने नाचते-नाचते ही कहा, मैं नूरजहाँ के साथ गाता हुआ नाच रहा हूँ। वह खी-खी करती हुई हँस दी। ‘नूरजहाँ के साथ? वो मोटी? तुम्हें गोद में उठाकर नाचेगी वो मोटी। खी-खी-खी!’ मुझे उसकी यह बात पसन्द नहीं आयी। हमेशा मेरा मज़ाक, मखौल उड़ाना। लेकिन इससे चाहे जो कहिए, इसका हमेशा खी खी खी! धत्, बेकार में कह दिया। इसे अपने पास ही रखना चाहिए था। वैसे दिखती भी है ये कुलदीप कौर जैसी।
जब भी हम सोचते हैं कि किसी बात को राज़ यानी पक्का राज़ ही रखेंगे, यकीन मानिए, यकीनन बोल ही देते हैं हम दस जगहों पर। धत् तेरी! इसीलिए तो चला गया न मैं वहाँ से चचेरे भाई के पास, पागल की तरह। वह आईने में देख-देखकर अपने चेहरे पर उभरे दाने यानी मुँहासे चुटकी में पकड़कर फोड़ने में लगा था। पूरे चेहरे पर दाने ही दाने। ऊपर से खूब पाऊडर लगाता है। एक बार मैंने लगा ली तो खी-खी कर हँस दिया, ‘पोंछ डाल वो पहले। तुझे क्या करना है रे पाऊडर-बिऊडर लगाकर! कालूराम? पोंछ डाल।’ मैंने कपड़े से मुँह पोंछा, लेकिन वो और भी खी-खी करने लगा। ‘वाह वाह वाह! मुखड़ा डस्टर से बोर्ड साफ़ करने जैसा लग रहा है।’ मेरी तो रुलाई ही छूट गयी थी। इसीलिए मुझे सिनेमा में जाना था। सिनेमा में सभी कितने गोरे होते हैं। नूरजहाँ और सुरैया और करण दीवान और रहमान। मैं दीवार की तरफ़ चेहरा घुमाकर सिसक-सिसककर रोने लगा। तभी मुझे अपनी गोद में लेता हुआ मंगल चाचा बोला, ‘रोते नहीं छोटे सरकार। भगवान कृष्ण कन्हैया भी तो काले हैं।’ मैंने देखा, मंगल चाचा यानी भिवा ही था उस ड्रेस में। मैंने उसके गले में हाथ डालकर कहा, ‘भिवा रे!’ इस पर उसने धीरे से कहा ‘जी’। फिर ज़ोर से बोला, ‘रोते नहीं इस तरह छोटे मालिक। सारी दुनिया जो देख रही है।’ हम दोनों ने परदे से देखा थिएटर में, वहाँ बहन बैठी हँस रही थी और भाई उबासियाँ ले रहा था। हम दोनों सिनेमा में कब आये क्या पता। लेकिन भिवा भी गोराचिट्टा लग रहा था। तभी सुरैया उधर से आ गयी। बन-ठनकर, ओढ़नी वग़ैरह और गहने। मुझे देखकर हँसी और बोली, ‘ये कौन-सा शौक़ है गोरा बनने का? मैं भी तो काली हूँ। पाऊडर कभी न लगाना। देखा न, काला आदमी कैसा लगता है पाऊडर लगाने से।’ और उसने एकदम से शुरू किया, ‘सोचा था क्याऽऽ, क्या हो गयाऽऽ क्या हो गया।’ ठेठ गाना। बेहतरीन। बेहतरीन और दर्दभरा।
मुझसे रहा नहीं जा रहा था। मैं परदे से निकला और जाकर ठेठ खड़ा हो गया भाई के पास, वह कुछ बोलेगा इसकी प्रतीक्षा में। आईने से बिना नज़र हटाए वह बोला, ‘अब क्या है कालूराम?’ मैंने कहा, ‘मैंने नूरजहाँ के साथ ‘मैं बन पतंग’ गाया और सुरैया ने ‘सोचा था क्या’ कहा मुझसे।’ वह आईने से नज़र हटाकर मेरी तरफ़ देखता हुआ बोला, ‘नूरजहाँ? खोया है खोया।’ मुझे ये अच्छा नहीं लगा। बड़े लोग अश्लील-अश्लील वग़ैरह कहते हैं न, वैसा ही कुछ था। उसकी आवाज़, शब्द, आँखें। लेकिन मैं भी क्या करता? बड़ों में चलता होगा बाबा इस तरह अश्लील-वश्लील का मामला। हमें नहीं चाहिए। हमसे कितने प्यार से पेश आती हैं नूरजहाँ और सुरैया! और वह भी गाते-गाते। यह पाक रिश्ता मैं कभी नहीं तोड़ूँगा! मुझे तो पर्दे पर ही अच्छा लगता था उनके साथ। लेकिन यहाँ हमेशा की एक ही रट, ‘हो गयी पढ़ाई? पढ़ाई करो। पढ़ाई करो।’ सभी से पूछा मैंने कि गाना सुनाऊँ? और गाना शुरू करने के बाद परदे से थिएटर में देखा, लेकिन वहाँ अँधेरे में माई, दादा, चाचा, चाची, भाई-बहन, सम्भा, लिम्बाजी, मन्दा, भिवा सभी बैठे थे। स्तब्ध-से बस देख रहे थे मेरी तरफ़। सभी की आँखों में कौतुक, और भिवा तो बस आँखें पोंछ रहा था। मैंने पेड़ से टिककर एक आऽऽर्त तान भरी और अचानक खड्खड् करते शब्द सुनायी दिये, ‘देखो, सिनेमा के गाने, याद हैं इसे! पहाड़े हो गये याद? सुनाओ तो ज़रा नौ का पहाड़ा।’ नौ का पहाड़ा मुझे आता ही नहीं था। उसमें कोई तर्ज़ ही नहीं थी बढ़िया-सी। ‘जानवर चराएगा बड़ा होने के पर। रिक्शा खींचेगा, या फिर रेलवे स्टेशन पर कुली।’
मुझे तो लगता था कि जानवर चराने ही चले जाएँ। क्योंकि हमारा शेषराव जाता था चरागाहों में। और बढ़िया मुरली बजाता था। वो मुरली बजाता और मैं गाना-वाना गाता। फिर हम परदे पर चले गये और शेषा मुरली बजाने लगा। और आ ही गयी उधर से छम छम सुरैया गाते-गाते। ‘मुरली वाले मुरली बजाऽऽ सुन-सुन मुरली को नाचे जियाऽऽ।’ मैं उसके हाथ में हाथ डालकर नाच रहा था और शेषा बढ़िया मुरली बजा रहा था। बहुत अच्छा है शेषा। बहुत हँसमुख। एक बार अनशी (अनसुया) को जाती हुई देखकर शेषा ने मुरली छोड़कर गाना शुरू कर दिया, ‘छल्ला दे जा निशानी, तेरी मेहरबानी’ और हँस दिया। मैंने सुना और वही गाना गाने लगा। लेकिन बाद में भिवा ने पूछा कि किसने सिखाया ये गाना? मैंने बताया, शेषा ने। भिवा बैठ गया उसकी प्रतीक्षा में, शाम। शेषा गायें और बछड़े लेकर आया। बाड़े में गायों को बाँध ही रहा था कि भिवा भीतर गया और झन्न् से लगा दी थप्पड़ उसकी कनपटी में। शेषा लड़खड़ाता हुआ नाँद में गिर गया। दो-तीन गाएँ लडखड़ाती हुई उठ खड़ी हुईं। गाल सहलाता हुआ शेषा खड़ा हो गया, तब भिवा बोला, ‘उल्टे-सीधे गाने सिखाता है मेरे बच्चे को! क्यों रे बिना बाप का हरामी?’ उस दिन त्योहार था इसलिए रात में दोनों पास-पास बैठे थे भोजन के लिए। भिवा ने अपनी पत्तल की पूरन-पोली उसकी पत्तल में रखी। यह देख शेषा अचानक ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। माई तड़पकर बोली, ‘क्या हुआ बेटा? देखो रे ज़रा बच्चे को! खा ले बेटा!’ सोलह-सत्रह का शेषा। गोरा-गोरा, भूरी आँखें और भूरे-पीले बालों की लटें।
मैंने रात में सोते समय बुआ से पूछा, ‘शेषा बिन बाप का है, मतलब क्या है री?’ लेकिन वह बिफर पड़ी मुझ पर, ‘तुझे क्या करना है रे ऐसी ऊलजलूल बातों से, लुतरा? देखो तो!’ मैंने करवट बदली और सो गया। केवल उसी बेचारे के पिता नहीं थे और उसकी माँ को कोई अपने घर पर आने नहीं देता था। बुआ ने ही किसी से एक बार कहा था, उसका चाल-चलन ठीक नहीं है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। वह भी तो दूसरों की तरह गर्दन झुकाए चलती थी। एक बार भाई ने कहा था, शेषा यानी बिल्कुल चन्द्रमोहन का तोड़। इसलिए मैंने सीधे शेषा का हाथ पकड़ा और धकेल दिया उसे पर्दे पर। उसने भी खूब शान बघारी। उधर से नसीम आई महल से। ठोड़ी ऊपर उठाकर और चन्द्रमोहन की अनदेखी कर शाही सरताज, गले में मोतियों की मालाएँ पहने शेषा से बोली, ‘इस कनीज़ का तोहफ़ा क़ुबूल कर लो मेरे सरताज।’ शेषा लोड से टिककर शान से बोला, ‘क़ुबूल क़ुबूल ऐ बुलबुले हुस्न।’ मैंने परदे से थिएटर में देखा। बुआ वहाँ माला जपती हुई कुढ़ रही थी, ‘क्या मैया ये सिनेमा! सोचा था कुछ भगवान का होगा और देखो तो येऽऽ! जप करना रह गया मेरा।’
न हो वह पाठशाला का झँझट, न पहाड़े का और न शहर का। एक बार ज़ल्दी-ज़ल्दी मैट्रिक कर डालो और फिर आज़ाद। पारवा में। लेकिन बाद में सोचा कि इसमें तो बहुत साल लग जाएँगे। फिर खिड़की में जाकर बैठ गया। क्योंकि मैं उदास हो गया था। मतलब इतना उदास कि मुझे एक भी उदासी का गाना याद नहीं आ रहा था। याद आया भी तो नूरजहाँ का।
मेरे लिए जहान में चैन न क़रार है
दिल में बेक़रारियाँ, आँखों में इन्तज़ार है।
मेरी आँखों से इन्तज़ार के साथ-साथ आँसू बहने लगे। तभी देखा, एक गोरा गोरा हाथ सामने आया और रेशमी दुपट्टे से मेरी आँखें पोंछने लगा। इत्र की ख़ुशबू। मैं समझ गया, नूरजहाँ ही है! पीछे मुड़कर देखा तो वही थी। लेकिन इस वक़्त वह नाच-गा नहीं रही थी। वह मेरे पास खिड़की में बैठने की कोशिश करने लगी, लेकिन उसमें समा ही नहीं रही थी। फिर खड़े-खड़े ही मेरे बालों में उँगलियाँ फिराती हुई बोली, ‘क्यों हैरान-सा नज़र आ रहा है मेरा लाडला भैया? क्या कोई ग़म सता रहा है?’ मेरी तो रुलाई छूटने वाली थी, कि तभी मेरी समझ में आया कि मैं रोऊँगा तो ये दुखी हो जाएगी! साथ ही, मुझे उसकी तरह ग़म कहना भी तो नहीं आता था। मतलब कण्ठ से ‘ग़’ निकालना। मैं नाराज़-सा हो गया इसलिए गाल फुलाकर मैंने कहा, ‘मेरे कू उर्दू नहीं आती है।’ उसने मेरा गुलचा मारा और इतनी मधुर मुस्कुरायी कि बस! लगा, इर्द-गिर्द का सबकुछ पिघल गया है, ‘कोई ज़रूरत नहीं उर्दू की। मैं सब जुबानें समझती हूँ।’ मुझे अच्छा लगा, लेकिन सोचा, वह ‘दिल की जुबाँ’ ऐसा कुछ कहेगी। लेकिन यह सोचकर चुप रहा कि शायद सिनेमा में ही ऐसा कहने का रिवाज होगा। फिर मैंने उससे पूछा कि क्या तुम इस बखत सिनेमा में नहीं हो? गालों पर गुल खिलाती हुई, आँखें फैलाती हुई वह बोली, ‘शायद तुम सिन्मा में हो इस वक़्त।’ और उसने झट् से उठकर यथासम्भव गोल-गोल चक्कर लगाया और एकदम शुरूः
ओऽऽ हम आँखमिचौली खेलेंगे
हम आँखमिचौली खेलेंगे
मैंने तुरन्त हारमोनियम बजाना शुरू किया। सिनेमा में ऐसा ही तो होता है।
शोख सितारों से हिल-मिलकर, ओऽऽ
खेलेंगे, हम आँखमिचौली खेलेंगे।
तू चाँद के घेरे में छुपना
मैं याद में उनकी खो जाऊँ
ओऽऽऽ
‘चाँद’ कहते समय हाथ एक बार अपने चेहरे के इर्दगिर्द तो एक बार मेरे। मैंने उसकी तरह ओऽऽ गाकर देखा, लेकिन वह लोच कहाँ मेरे कण्ठ में! मेरा भाई कहता था, ‘ये इंसान की आवाज़ है या गधे की!’ ऐसा कभी नहीं कहा नूरजहाँ ने मुझे। और आज तो, ‘आँख मिचौली खेलेंगे’ कहते समय वह अपने हाथों से मेरी आँखें बन्द कर रही थी, बीच में ही पेड़ के पीछे छिपकर तानें भर रही थी, बीच में ही फुलवारी से झाँककर चेहरा दिखा रही थी। मेरे लिए मानो सुधबुध खोकर गा रही थी। हम दोनों बिल्कुल बेक़ाबू हो गये। झड़ी लगा दी, झड़ी गानों की। ‘सावन झड़ बाहर, भीतर मैं भीग गया’ कविता बड़ा होने के बाद मुझे पढ़नी थी। लेकिन मैंने उससे नहीं कहा, क्योंकि वह मराठी नहीं जानती थी। हमने दोबारा ‘ऐ हवाऽऽ ऐ हवा’ शुरू किया। ‘ऐ हवा’ के बाद ‘जाऽजाऽऽ’ की तान फेंकी उसने हवा में। उस पर सवार होकर शुरू हुआ हमारा आकाश विहार ठेठ पारवा की दिशा में।
हम आकाश में गाने के साथ तैरते जा रहे थे और नीचे हरे-भरे खेत दिखायी दे रहे थे, मैदान, नदियाँ। अरे, यह वाघाड़ी नदी है, इंजाळा है, डोरली है या फिर पारवाऽ! बैलगाड़ी के बजाय गाने में चले जाए तो मिनट भर में पहुँचा जा सकता है।
हम भीतर गये। तापी दीदी हिंडोले पर बैठी थी, धीमी-धीमी झूलती हुई और प्राणहरण करने वाली आवाज़ में गाती हुई। उसके माँ-बाप उसके बचपन में ही चल बसे थे। वह हमारे बीच ही पली-बढ़ी थी और बाद में सगी से भी ज़्यादा सगी बन गयी थी। माई अन्य लोगों को उसका उदाहरण देती कि देखो कितनी सयानी और गुणवन्ती है ये लड़की। एक शब्द भी उसे कुछ कहना नहीं पड़ता। और आवाज़? क्या बताएँ! लेकिन वह भी अजीब थी। वह अकेली होती तभी गाती थी और बातें भी करती तो कम से कम और साफ़-साफ़। अब वह ‘तुम्हें सपने में देखा रेऽऽ गोपाल’ गा रही थी। मुझे भीतर ही भीतर गर्व महसूस हुआ कि देखो हमारी तापी दीदी भी क्या गाती है। लेकिन मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा। क्योंकि तापी दीदी तापी दीदी थी। ऐसी बातों से नूरजहाँ प्रभावित हो सकती थी, लेकिन तापी दीदी? असम्भव। वह किसी चीज़ से प्रभावित नहीं होती थी। अभी भी हमें देखकर उसने अँगूठे से हिंडोला रोका। उसकी आँखों में निर्विकार सवाल था, ‘क्या है?’ मैंने सोचा, शायद इसने मुझे पहचाना नहीं। मैंने कहा, ‘अरी ये क्या? ये नूरजहाँ-अँऽ-नूरजहाँ दीदी।’ इस पर तापी दीदी बोलीं, ‘तो?’ ‘अरे, हमारे घर नूरजहाँ दीदी, इतनी बड़ी हस्ती आयी है...!’ नूरजहाँ बरबस हँस पड़ी और बोली, ‘दीदी नहीं, आपा कहते हैं।’ आप्पा तो पुरुषों को कहते हैं। हैं न मेरे चचेरे भैया, गणित में बिल्कुल एक नम्बर के आप्पा। सोचा, छोड़ो। आप्पा तो आप्पा। मैंने तापी दीदी से कहा, ‘कमाल है! इसके न जाने कितने गाने गाती हो न तुम?’ इस पर वैसी ही ठण्डी आवाज़ में वह बोली, ‘दूसरों के भी गाती हूँ।’ और उसने फिर शुरू किया, ‘तुम्हें सपने में देखाऽऽ रेऽऽऽ गोपालऽऽऽ।’ वह रुकी। नूरजहाँ मधुर मुस्कान के साथ बोली, ‘कैसी मीठी आवाज़! लत्तो का गाना है न?’ अब यह लत्तो कौन है बाबा! तापी दीदी ने तुरन्त उसे दुरुस्त किया। ‘लता। लता मंगेश्कर।’ नूरजहाँ बोली, ‘हाँ! लता मंगेश्कर। उसके गले से तो ख़ुदा गाता है!’
तभी माई ने झाँककर देखा और चौंकी। उसने दादा को पुकारा, देखिए तो, यहाँ कोई पंजाबी पोशाक पहनी लड़की बैठी है तापी के साथ। दादा आये, चश्मा उतारकर उन्होंने गोल-गोल आँखों से नूरजहाँ की ओर देखा और बोले, ‘आप कौन?’ इस पर माँग की बिन्दी और झूमर पर दुपट्टा ओढ़ती हुई वह उठी और आदाब कर अदब से बोली, ‘इस नाचीज़ को नूरजहाँ कहते हैं।’ दादा बोले, ‘सिनेमा वाली?’ उसने कहा ‘जी।’ दादा बोले, ‘तो फिर यहाँ आपका क्या काम? जाओ सिनेमा में।’ और भीतर जाते-जाते सभी को सुनायी देने वाली आवाज़ में बोले, ‘ये लड़का भी नऽऽ! आज एक मुसलमाननी को लेकर घर में आया है। सिनेमा वाली।’ इतनी मराठी तो ठीक-ठीक समझती थी नूरजहाँ। आँसू आ गये उसकी आँखों में। माई को भी दादा का यह बर्ताव अच्छा नहीं लगा। वह धीमी आवाज़ में बोली, ‘कितने प्यार से आयी है उसके साथ। काहे की हिन्दू और काहे की मुसलमान! बैठो बेटी ज़रा देर।’ उसने नूरजहाँ को नारियल की टिकिया दी। उसे खाते-खाते नूरजहाँ शर्माती हुई बोली, ‘मैं मीठा नहीं खाती। वजन बढ़ता है न!’ हम सब चुप। फिर शायद माई को अच्छा लगे इसलिए नूरजहाँ ने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर कहा, ‘ये मेरा छोटा-सा द्येवता है।’ ‘देवता’ तापी दीदी निर्विकार चेहरे से बोली। इससे नूरजहाँ बेचैन हुई और मेरा हाथ और ज़्यादा कसकर पकड़ती हुई बोली, ‘सिन्मा के बाहर चले गये क्या? यों न करना भाईजान।’ मैं भी सनक में उठा। मैं बड़े प्यार से इसे घर लाया और इनका ये रवैया! ‘चल री’ मैंने कहा उससे। वह उठी तो माई बोली, ‘अरी रुक ज़रा। कुंकुम तो लगाने दे।’ लेकिन हम कहाँ रुकने वाले थे! सूँऽऽ ठेठ सिनेमा में। और जो प्रपात शुरू हुआ हमारा गानों का! थिएटर लोगों से खचाखच। नीमअँधेरे में उनकी चमकती आँखें दिखती थीं हमें। अब हम कैसे रुकते? शुरू हुआ, ‘तू कौन-सी बदली में मेरे चाँद है आ जा।’ फिर ‘बदनाम मोहब्बत कौन करेऽऽ, बदन्नाम।’ उसके बाद ‘उमंगेंऽऽ दिल की मचलीं मुस्कुराई ज़िन्दगी अपनी।’... ‘जवां है मोहब्बत।’ तरबतर हो गये सभी। बेहोश। ‘कोई प्रेम का देके सन्देसाऽऽ, हाय लूट गया हाय लूट गया, आऽऽ’। मेरी आँखों से आँसू बहने लगे थे, फिर भी मैंने थिएटर में देखा, घर से कोई आकर बैठा तो नहीं? क्योंकि गाने में ‘महब्बत’ ‘प्रेम’ जैसे अश्लील शब्द थे। अगर वे देख या सुन लेते, तो हो जाती हमारी रवानगी स्टेशन पर, बतौर कुली! फिर हमने इण्टरवल किया। नूरजहाँ मुझसे बोली, ‘देखा न! देखा न बाहर की दुनिया कितनी बेरहम है। कभी न जाना वहाँ। सिन्मा में ही रहना। तुम्हारे सारे नाले शिकवे-गिले मेरे पास लाना मेरे छोटे से द्येव-द्येव-द्येवता।’ और उसकी आँखों से एक मोटी-सी बूँद टपकी। मेरी इच्छा हुई कि उससे लिपट जाएँ। नाले शिकवे-गिले क्या हैं, अर्थ पता नहीं था फिर भी। लेकिन मैं नहीं लिपटा। अपने आप को रोका। और वैसे भी, वह मेरी बाहों में समाती भी नहीं। आँखों से आँसू की एक बूँद टपकाने की मैंने भी कोशिश की। लेकिन वह भी सम्भव नहीं हुआ। जाने दो। न तो हमें उसके जैसा गाना आता है और न ही आँसू की बूँद!
तभी अचानक घर में सुनायी देने लगा, विभाजन, देश के विभाजन। चाचा तिलमिलाकर रुक-रुककर अंग्रेजी में कुछ बोल रहे थे। मैं एक बार ज़रा हँसा, लेकिन चाची बोलीं, ‘हँसता क्या है रे? वक़्त क्या है और ये हँस रहा है! देश का विभाजन...।’ चचेरा भाई संघ की काली टोपी पहने जब देखो तब गुरुजी की तस्वीर के सामने आँखें मूँदे, हाथ जोड़े खड़ा और आँखों से आँसू। मुझे लगा, चले जाएँ हमेशा के लिए सिनेमा में! मैंने नूरजहाँ को याद कर गाना शुरू किया, ‘आ इन्तज़ार है तेरा, दिल बेक़रार है मेरा।’ उसी पल मेरा भाई तीर की तरह आया अपने कमरे से, और मुझे ज़ोर से झिंझोड़ता हुआ चिल्लाने लगा, ‘बन्द कर। एकदम बन्द कर। बन्द कर उस कटवा औरत का गाना। देशद्रोही, फ़रेबी, बेईमान, नीऽऽच!’ वह रुक ही नहीं रहा था। असल में, घर के सभी लोग देख रहे थे, लेकिन उनके चेहरे पर सन्तोष नज़र आ रहा था। फिर वह रुक गया काफ़ी देर बाद। पूरी ख़ामोशी छा गयी थी घर में और मैं अपनी प्रिय खिड़की में। बहन पास आकर धीरे से बोली, ‘उसके गाने मत गाना दुबारा। भाग गयी वो पाकिस्तान। मुसलमान है न आखिरकार...!’
चली गयी? पाकिस्तान? हमेशा के लिए? मुझे छोड़कर? मुझे लगा, अब मैं पस्त हो जाऊँगा। लेकिन मुझे पता ही नहीं था कि पस्त कैसे होते हैं। इसलिए मैंने सिनेमा में जाकर गाना शुरू किया, ‘ओ दूऽऽर जाने वाले एऽऽ’ और झट से रुककर बाहर आ गया परदे से। सुरैया का गाना! मतलब फिर से मुसलमान। धत् तेरी! इससे अच्छा, क्यों न हम सभी बन जाएँ मुसलमान! लेकिन इसे मैंने मन में ही रखा। क्योंकि मैं भाँप रहा था कि अगर मैं ज़ोर से कहता हूँ तो सभी मुझे देशद्रोही क़रार देते। असल में, बड़ों की समझ में नहीं आता कि हम छोटे भी बहुत कुछ समझते हैं। लेकिन यह मुझे क़ुबुल करना ही होगा कि अपने साथ धोखा होने जैसा लगा मुझे। नूरजहाँ ‘पाकिस्तान भाग’ गयी? शत्रु देश में? राष्ट्र-देशप्रेम वग़ैरह कुछ नहीं उसमें? उसका यह बर्ताव मुझे बिल्कुल भी पसन्द नहीं आया। यहाँ हम सबके होने के बावजूद? अब गाऊँ, ‘दिल तोड़के जानेवाले, दिया जला कर...’ मुझे गु़स्सा आया। मतलब बड़े लोगों को आता है, वैसा सात्विक सन्ताप। उल्टा-सीधा बोल गया। वह दीवार से सिर टिकाये, मुँह में दुपट्टे का गोला ठूँसे निशब्द या निःशब्द, ऐसी ही कुछ रो रही थी और मेरी फायरिंग जारी थी, ‘ये तुमने ठीक नहीं किया। ये धोखा है, फ़रेब है, ग़द्दारी है।’ मैंने कनखियों से थिएटर में देखा। आप्पा, ताई, चाचा, चाची, दादा, माई सब मेरी तरफ़ देख रहे थे कि देखो ये कितना खुद्दार है! कुछ दूसरे लोगों ने तालियाँ भी पीटीं। क्या मैं यूँ ही छोड़ देता उसे? जोश में आकर शुरू हो गया, तुम बेमुरव्वत, बेदर्द, बेहया हो। ऐसा तिय्या लेकर मैं उसे डाँटता ही रहा। हिन्दी सिनेमा वाले लेते हैं वैसा तिय्या। ऐसा ही रिवाज है। और सिनेमा में रह-रहकर उर्दू शब्द खूब चढ़ते चले गये थे मेरी जु़बान पर। लेकिन हर बार तीन ही शब्द। सोहराब चाचा ने ही मुझे सिखाया था। मतलब तिय्या के बारे में। यह ‘भाग’ गयी? तुम कायर, बुज़दिल, डरपोक हो। बेरहम, बेरुख... और ठिठक गया। तीसरा शब्द याद ही नहीं आ रहा था एकदम से। हाँ, याद आया, बेवफ़ा। बेवफ़ा हो। लेकिन शायद यह माई से देखा नहीं जा रहा था। वह दर्शकों में से उठकर परदे पर आयी और मुझसे बोली, ‘कितना डाँटते हो बाबा तुम! तुम्हारी उम्र कितनी, उसकी उम्र कितनी! बहुत ख़ुशी हुई होगी क्या उसे देश छोड़ते समय? हम मामूली पारवा छोड़कर शिरपुर गये तो अँतड़ियों में कैसी खलबली मच गयी थी। उस बेचारी को तो सब कुछ पीछे छोड़कर जाना पड़ा! पाप बेचारी।’ यह सुनकर नूरजहाँ माई के कदमों पर ही ढह गयी। मेरे पेट में गड्ढा पड़ गया कि कहीं वह माई को ‘द्येवता’ न कह दे। क्योंकि तापी दीदी देख ही रही थी हमारी तरफ़, निर्विकार किन्तु खुली आँखों से। ‘जाओ बेटा अब,’ माँ ने कहा और नूरजहाँ अचानक ग़ायब। शॉट ख़त्म। कैसी झन्नाटेदार एडिटिंग। लेकिन मेरा मन व्याकुल सो व्याकुल ही रहा। ‘व्याकुल है मन मेरा आ जाऽऽ’ गाकर भी वह नहीं आयी। मैं समझ गया कि अब मन को यहाँ से निकाल लेना चाहिए। बड़ा होने पर तो मन को जोड़ो और फिर निकाल लो, ये तो करना ही पड़ेगा हमें। समझो, उसकी रिहर्सल हो गया।
और माई ने जो कहा, वह भी सच है। अब पारवा छोड़ दिया और वहाँ अब कभी जाना नहीं होगा; यह समझ आया तब भीतर कैसा दर्द हुआ था। उसका हाल भी वैसा ही हुआ होगा। सम्भा, लिम्बाजी, मन्दी, भिवा आदि अब दुबारा हमसे कभी नहीं मिलेंगे और फिर हमें भूल जाएँगे। हमारा घर, रामजी का मन्दिर, देशमुख का बाड़ा, छोटा बगीचा, कभी दिखायी नहीं देगा। उसका हाल भी ऐसा ही हुआ होगा। कहाँ रहती होगी? लहौर (लाहोऽऽर नहीं!) या फिर कराची?
जब पाठशाला जाता था, मुझे दिखायी देते थे बहुत सारे नये-नये आये लोग। यवतमाल में भीड़ ही मचाई थी उन्होंने। भाई बोला, वे शरणार्थी हैं। हमेशा काम में मगन चाची रुककर बोली उससे, ‘शरणार्थी क्या कहता है रे? बेसहारा कहो चाहे तो। वो लोग स्वाभिमानी हैं। उनमें से कभी कोई दिखायी दिया भीख माँगते हुए? फिर? सड़क के किनारे टाट बिछाकर गोलियाँ, पप्पड़ बेचेंगे लेकिन किसी के सामने हाथ नहीं फैलाएँगे। और वे भी हमारे अपने ही हैं।’ फिर भाई क्या कहता।
ये लोग बड़े मज़ेदार थे। नील में डुबोए कपड़े पहनते थे, खटिया पर बैठकर नहाते थे और वही पानी खटिया के नीचे इकट्ठा कर उसमें कपड़े धोते थे। उनकी कुछ औरतें होंठों तक झूलने वाला लाल मोती नथुनों में पहनती थीं। सभी की छोटी-छोटी दुकानें सजती थीं। शायद कुछ बहुत ग़रीब थे। सचमुच, जैसा कि चाची बोली थी, सड़क किनारे बैठकर तले हुए पापड़ बेचते थे। उधर भी वैसा ही होगा पाकिस्तान में। लाहौर के सड़क किनारे बैठकर पापड़ बेच रही होगी नूरजहाँ।
मन दिन-ब-दिन और ज़्यादा मायूस होता गया बाबा। बिल्कुल उदासी छा गयी। क्या अब मैं हमेशा के लिए सिनेमा के बाहर रह जाऊँगा? मतलब ये शोरगुल, ग़रीबी, शरणार्थियों के जत्थे, गाँव में आगज़नी, गणित की परीक्षा में फेल होना, घर में और पाठशाला में डाँट तो कभी ठुकायी। ये भी कोई ज़िन्दगी है? ऐसे जिऊँगा मैं? बड़ा होने तक? और अगर इन लोगों ने हमें बड़ा होने ही नहीं दिया तो? नहीं? नहीं, यह कभी नहीं होने दूँगा। लेकिन हमारा कोई नहीं है अब। दादा बोले, अब लौटकर नहीं आना। नूरजहाँ ने तो जाते-जाते अलविदा भी नहीं कहा।
इस तरह मैं हताश, उदास (मराठी में दो बार ही द्वित्व में प्रयुक्त होता है समानतावाचक शब्द। तीन बार नहीं।) खिड़की में बैठा आँखें अँधेरे में डुबोए हुए था कि तभी अचानक मेरे कानों पर शब्द आये, ‘मैं हूँ न!’ नशीली थी वह आवाज़। नशीली यानी रजनीगंधा की ख़ुशबू जैसी नशीली। उस आवाज़ से ही रोमांचित हो गया मैं। मगर कोई दिख नहीं रहा था। कितना ढूँढ़ा, लेकिन नहीं। मैं तो क़ायल हो गया उसकी आवाज़ का। बिल्कुल दीवाना बन गया। ‘कहाँ हो, कहाँ मेरे जीवन सहारेऽऽ’ गाता हुआ मारा-मारा ढूँढ़ता फिरता रहा। अभी मेरे दाढ़ी आनी थी इसलिए बढ़ा न सका। लेकिन मैंने शर्ट फाड़ डाली और कक्षा में नागा कर भरी दोपहरी में श्याम टॉकिज़ के पास गया और वहाँ की जाली से चेहरा चिपकाकर भीतर सिनेमा के पोस्टर देखने लगा। दोबारा वही आवाज़। निम्मी। तस्वीर में वह अपनी नशीली आँखों से करण दीवान की तरफ़ देख रही थी। वहाँ से नज़रें हटाकर उसने अपनी आँखें ठेठ मुझ पर तान दीं। नशीऽऽली, दर्दभरी आँखें। बिना पलक झपके मुझ पर तन गयीं बड़ी-बड़ी आँखें। मेरी देह रोमांचित हो गयी और सीना ऐसे धड़कने लगा, जैसे परीक्षा के बाद गणित के अंक सुनने से पहले धड़कता है। अचानक ध्यान में आया, ‘धड़कन’ ‘धड़कन’ जिसे कहते हैं, वही तो है यह। और अचानक कानों से इस तरह गर्म भाप निकलने लगी कि तुरन्त समझ गया कि मुझे बुखार हो रहा है। लेकिन न तो वह नज़रें हटा रही थी और न ही मैं। हो जाए तो हो जाए बुखार, क्योंकि उसकी आँखों से नज़रें हटाना बिल्कुल असम्भव था। घर आने पर मेरा चेहरा देख चाची घबराकर बोलीं, ‘हाय री दैया, बुखार हो गया क्या?’ फिर गालों को छूकर देखती हुई बोलीं, ‘बुखार ही है। जाओ और जाकर सो जाओ।’ फिर मैं सीधे ओढ़ावन के नीचे कल की प्रतीक्षा में सो गया। कल फिर श्याम टॉकीज़।
अचानक याद आया कि मैं नूरजहाँ को भूल गया हूँ। कितने दिनों से मैं नूरजहाँ नूरजहाँ कर रहा था। नूरजहाँ दीदी, नूरजहाँ आपा और न जाने क्या-क्या? अब कहो इसे निम्मी दीदी। लेकिन इसमें मुझे कुछ नापाक लगा। लेकिन रोज़ रात में जब नींद खुल जाती थी, आ ही जाती थी निम्मी। फिर दूसरे दिन पाठशाला में नाग़ा कर दोबारा हम श्याम टॉकीज पर, निम्मी से मिलने। वह भी प्रतीक्षारत रहती थी। मुझे देखकर कहती, ‘सारी रात तारे गिनती रही मैं।’ पगली! ऐसे कितने गिन पायी होगी? मैंने उससे कहा, ‘चल झूठी!’ इस पर झूठमूठ रूठने का अभिनय करती हुई नशीऽऽली अदा से मेरे गाल पर हौऽले से चपत लगाती हुई बोली, ‘नटखट कहीं के!’ और इधर मेरे कानों में गर्म हवाएँ शुरू। फिर उसका अचानक ही, ‘झनझन झनझन पायल बाऽजे, कैसे जाऊँ पीके मिलन को...’ शुरू हुआ। मेरी ऊपरी साँस ऊपर और नीचे की नीचे। मुँह, गला सूख गया। कैसे हो सकती हैं किसी की आँखें इतनी नशीऽऽली? और ओंठ? ऐसे ओंठ तो होंगे ही नहीं दुनिया में किसी और के। कैसी (नशीऽऽली) आँखें और कैसे ओंठ ओंठ ओंठ ओंठ। हे भगवान! मैं मदहोशी में जा बैठा उसकी बगल में और थिएटर के लोगों की तरफ़ ज़रा गु़स्से से देखने लगा। क्योंकि भीतर से यही चाहता था कि मैं उसके पास बैठा हूँ और कोई न देखे। अच्छे नहीं थे थिएटर के लोग। उनकी आँखें हवस से चमक रही थीं। एक आदमी तो अपनी जगह पर बैठे-बैठे ज़ोर-ज़ोर से अपनी जंघा हिलाकर गन्दी-सी हँसी हँस रहा था। मैंने अचानक चिढ़कर निम्मी से कहा, ‘बन्द करो, बन्द करो ये नाचना गाना। ये कोई कोठा नहीं है नाचने-गाने वालों का, तवायफ़ का...।’ लेकिन तीसरा शब्द याद आने से पहले ही उसकी आँखों से मोती जैसी आँसू की एक बूँद। इन्हे कैसे आता होगा भाई ये? मैं गु़स्से से परदे से बाहर निकलने लगा, लेकिन उसने पैर ही पकड़ लिये मेरे, बिल्कुल कसकर, ‘नहीं जय, नहीं नहीं। इन्हीं कदमों में रहने दो मुझे!’ मैंने झट् से अपने पैरों की तरफ़ देखा और अचानक उन्हें पीछे खींच लिया। गन्दे, नाखून बढ़ाये हुए। चाची हमेशा चिल्लाती रहती है कि कैसा रे ये तुम्हारा नहाना? कौए के जैसा! पैर तो देखो ज़रा, रगड़-रगड़कर घिसता क्यों नहीं वज्री से? फिर भी अपना गु़स्सा बरक़रार रखते हुए मैंने कहा, ‘जाने दो मुझे। मैं बहुत ग़मगीन हूँ!’ निम्मी बोली, ‘ग़म किस बात का जय! दुनिया की सारी खुशियाँ तुम्हारे क़दम चूमें!’ यह वाक्य मुझे बड़ा अच्छा लगा। किसी दुखी, ग़मगीन को देखते ही चिपका दूँगा यह वाक्य। फिर भी मैंने उसकी तरफ़ पीठ फेरकर तेज़ी से चलना शुरू किया, जंगल-पहाड़ों से। मैं चल पड़ा अकेला। फिर भी ‘ले जा मेरी दुआएँ परदेस जाने वालेऽऽ’ उसके स्वर मेरा पीछा करते ही रहे। एक बार मोह भी हुआ कि पीछे मुड़कर देखें, लेकिन मैंने अपने आप पर ज़ब्त कर लिया। लेकिन मैं जानता था कि उसकी दर्दभरी आँखें नशीऽऽली ही दिख रही होंगी। निम्मी क्या है! उसकी हँसी नशीली, रूठना नशीला, रोना नशीला। ऐसे दुःख को ठुकराकर दिलीप कुमार जा रहा था। बेरहम। वह युसूफ मियाँ ही ठहरा। दिलीप कुमार! निम्मी का दुःख जिसे समझ नहीं आता, वह दिलीप कुमार हो या फिलिप कुमार - वो तो ठहरा यूसुफ़ ही! लेकिन वह मुसलमान है इसलिए नहीं। मेरा वैसा कुछ नहीं है। लेकिन वह बिल्कुल संगदिल, पत्थरदिल, बेमुरव्वत था इसलिए। वैसे मेरा भी था एक दोस्त शिरपुर में, नया-नया बना हुआ। अल्लाबख़्श। लेकिन हमारी दोस्ती इतनी ख़ुफ़िया थी कि मैंने घर में किसी को पता चलने नहीं दिया था। हम छुट्टियों की प्रतीक्षा करते रहते थे। केवल गर्मियों की छुट्टियों में ही शिरपुर जाना सम्भव होता था। जब भी जाता, ये अड्डे पर खड़ा। मुझे देखकर गालों पर गुल खिलाकर हँसता और दौड़ता हुआ चला जाता सीधे अपने घर मुसलमानपुरा में। लेकिन उसकी आँखें थीं हूबहू निम्मी जैसी। ये सब याद कर मुझे इतना गु़स्सा आया कि मैंने यूसुफ़ को धकेल ही दिया रास्ते पर से। फिर माथे पर लटें (उसी की तरह) लाने की कोशिश की। लेकिन आती ही नहीं थीं माथे पर। सिर पर इतना सारा तेल पोतने के बाद कैसे आतीं लटें? एक-दो बार रखे थे मैंने बाल सूखे, लेकिन कुलदीप कौर यानी बहनजी चिल्लाई मुझ पर कि मुए, तेल लगा ले बालों में, वरना साल दो साल में गंजा हो जाएगा। लगा लिया बाबा। सभी कहते हैं, उसकी ज़बान काली है। इसीलिए लटों की धुन को छोड़कर मैं बिल्कुल विषण्ण बना चलता रहा। (आजकल बहन कई बार इस शब्द का इस्तेमाल करती थी। यानी विषण्ण। खांडेकर का उपन्यास पढ़कर कैसा लगा? विषण्ण। सहेली से मुलाकात नहीं हुई - विषण्ण। तिमाही परीक्षा में अंग्रेजी में फेल हुई - विषण्ण। छौंक जल गयी - विषण्ण।) ऐसे ही विषण्ण मन से मैं थककर सड़क किनारे एक पेड़ से पीठ टिकाये बैठा और नज़रें आसमान में गड़ाये मन लगाकर ‘कोई नहीं मेरा इस दुनिया में, आशियाँ बर्बाद है’ गाने लगा। इतना दर्द था आवाज़ में कि मुझे सभी की याद आयी और मेरा गला रुँधने लगा। लेकिन चाहे जो हो, आँखों से आँसू नहीं आने चाहिए। थिएटर के हज़ारों लोग जो देख रहे थे मेरी ओर? मैंने आँसू कंट्रोल किये और थिएटर में चोरी-चोरी नज़र दौड़ाई। लोग हिल गये थे और मुझ पर से नज़रें हटा नहीं रहे थे। यह देखकर दुखी होने के बावजूद मुझे थोड़ा-सा अच्छा लगा। ठण्डक, ठण्डक। मेरे कलेजे में ठण्डक पहुँच गयी थी। कुल मिलाकर मुझे अच्छा ही लगा था। लेकिन फिर भी मैंने गौर से देखा कि माई वग़ैरह तो नहीं आयी है? वो क्या सोचेगी मुझे इस तरह दुखी देखकर। आखिरकार माँ का दिल जो ठहरा! कंट्रोल कर ख़ुद को, कंट्रोल, कंट्रोल। यही कह रहा था मैं ख़ुद से, तभी पता है अचानक कौन दिखायी दिया मुझे थिएटर में? अल्लाबख़्श! उसकी आँखों से गंगा-जमुना बह रही थीं। बीच में ही वह नाक साफ़ कर रहा था, आस्तीन से पोंछ रहा था और दोबारा पर्दे की तरफ़ देखकर गंगा-जमुना शुरू। मैं गाना रोकता भी तो कैसे? लोग अचानक चिल्लाने लगते, रील टूट गयी समझकर। ‘लाइट लाइट। साला रील तोड़ दिया गाने के बीच में।’
फिर गाते-गाते मैंने ही उसे पर्दे पर खींच लिया। गाना ख़त्म होने के बाद कहा, ‘क्या हुआ रे अली?’ उसके गले में हरी दस्ती थी। (रुमाल को दस्ती कहता था वह।) उसने दस्ती उतारी और नाक को साफ़ किया। उस दस्ती में हरसिंगार के इत्र की तेज़ महक थी। इसलिए मैं थोड़ा अलग हुआ। लेकिन वह बोला, ‘गाओ गाओ। गाओ न ‘कोई नहीं मेरा।’ हम हैं ही कौन तुम्हारे?’ और दोबारा दस्ती नाक के पास। मुझे तनिक झेंप हुई। ऐसे कैसे भूल गये हम इसको? फिर भी उसे समझाते हुए मैंने कहा, ‘अरे, तुम वहाँ शिरपुर में, मैं यहाँ। मुलाकात ही कहाँ होती है हमारी? तुम नहीं समझोगे, क्यों गाता हूँ मैं!’ उसने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर अपने गले पर रखा और रुँधे (या क्रुद्ध, क्या पता) कण्ठ से बोला, ‘ख़ुदाक़सम। तेरी भौतच याद आती है। परसों कव्वाल आये थे भोपाल से। मैं गया मजारे शरीफ़ पर चादर चढ़ाने और बैठा सुननेकु। मेरेकु लग्याच कि अकेला सुनुच कैसा मैं? कैसा क्या कैसाच लग्या। थोड़ा क्या, भौत रोना आया।’ फिर हम दोनों ने अपनी-अपनी आँखों से एक-एक बूँद आँसू बहाने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं आयी। क्योंकि इसके लिए प्रैक्टिस चाहिए और असल बात, मन में चिंता भी थी कि अचानक यहाँ निम्मी आ गयी तो? सोचा, यूँ ही ले आया इसे सिनेमा में। लेकिन यह मैंने उसे पता नहीं चलने दिया।
और वह आ ही गयी। ‘जिया बेक़रार है’ कहती नाचती हुई आयी। मुझे और अली को देखा और अचानक गाना तोड़कर रुक गयी। दोनों हाथ कमर पर रखे खड़ी रही और मुझे गु़स्से से (नशीऽऽली) निहारती हुई बोली, ‘तो यहाँ हैं आप? और ये जनाब कौन हैं? इनकी तारीफ़?’ मैं पसोपेश में कि कैसे इसका परिचय कराऊँ। लेकिन तभी अचानक अली उठ खड़ा हुआ। मैं परेशान कि इसे संभालूँ या उसे? दोनों एक दूसरे की तरफ़ शत्रुवत् कहते हैं न, वैसे ही देख रहे थे। कट्टर दुश्मनी। वह जैसे ही चल पड़ा, मैंने कहा, अरे रुको, रुको न ज़रा। ये निम्मी भी तो है! अली ने उसकी तरफ़ देखा भी नहीं। और ‘मुझे नफ़रत है ऐसी बेहूदा लड़कियों से!’ कहता हुआ पर्दे से बाहर। मैं कहता रहा, ‘रुको तो, रुको तो’ लेकिन वह गु़स्से से बोला, ‘तेरेकु कामधंदा नहीं है। अमीर हो न। मुझे आम की टोकरी लेकर जाना है गुजरी में। अब्बू डाँटेंगे।’ और चला गया। मुझे बुरा लगा, लेकिन छुटकारे का एहसास भी हुआ। मेरी और निम्मी की दोस्ती हुई है, उसे पता नहीं चलने देना था।
उसके अब्बा बाग़वानी करते थे और वह रोज़ बाज़ार में आम वग़ैरह बेचने के लिए जाता था। पाठशाला वग़ैरह कुछ नहीं। छुट्टियों में गाँव जाने के बाद मैं भी जाकर बैठता था कभी-कभी उसके पास। लेकिन घर वालों को यह अच्छा नहीं लगता था। ‘दोस्ती बराबर वालों से होनी चाहिए,’ पिताजी कहते थे लेकिन फिर भी हम मिलते थे। दुनिया की कोई दीवार हमारे बीच नहीं आ सकती थी। एक बार मैंने अली से कहा, हम बिल्कुल ओटो और ज्याँ क्रिस्टोफर जैसे हैं। वो बोला, ये शख़्स कौन है? मैंने कहा, अरे मैं बड़ा होने के बाद ज्याँ क्रिस्टोफर पढ़ने वाला हूँ, उसमें है ये। उसकी कुछ भी समझ में नहीं आया।
मैं ज़िद करके बाहर के ओसारे में सोता था। सभी ने कहा, ‘अजीब है, वहाँ कहाँ सोएगा सर्दी में?’ लेकिन लक्ष्मण होता था साथ में, इसलिए अनुमति मिल गयी। रात में जैसे ही ओसारे का फाटक बन्द हो जाता और सभी सो जाते, मैं उठता और छोटे दरवाज़े से आहिस्ता से बाहर। ऊपर से लक्षिया को चेतावनी, ‘खबरदार जो घर में बताया!’ अली प्रतीक्षारत बाहर खड़ा मिलता। मैं जैसे ही बाहर आता, दौड़ पड़ते दोनों अपनी-अपनी चड्डियाँ ऊपर खींचते हुए, दरग़ाह पर। बाहर गैसबत्तियों की जगमगाहट और हार, चद्दर और इत्र की दुकानें। लोग कबाब खाते हुए खड़े रहते। हम भीतर जाते और लम्बी सफ़ेद दाढ़ी वाला फ़कीर हमारे सिर पर मोरपंख का झाड़ू फेरता और हम महफिल में हाज़िर। सबसे आगे। लोबान का धुआँ और महक। चौकड़ी की डिज़ाइन वाले कपड़े की तहमतें पहने, मेहँदी से बाल रंगाए, आँखों में सुरमा डाले क़व्वाल मदहोश होकर गा रहे थे। चाबुक की फटकार की तरह उनकी तानें फूटतीं। उनके साथियों की तालियाँ भी वैसी ही कड़कतीं और हारमोनियम तो ऐसी बजती थी कि ख़ुदाक़सम!
भर दे झोली भर दे झोली अली या मुहम्मद
लौटकर न जाऊँगा खाली
‘मुहम्मद’ पर बिजली कड़ककर गिरने जैसी तान। झूमझूम झूमने वाली महफिल। मदहोश कव्वाल। कोई-कोई तो गाते-गाते एकदम घुटनों के बल खड़ा हो जाता।
तुम जमाने मुख़्तार हो नबी
बेक़सूर के मददगार हो नबी।
दूसरा क़व्वाल अपनी गूँजती हुई आवाज़ में ‘आमीऽऽन’ कहता। उसकी आँखें भी खोई-खोई और मदहोश लगतीं, मानो उन्हें आसपास कुछ भी दिखायी नहीं देता। मानो वे इस दुनिया में हैं ही नहीं। खुली दरग़ाह, चाँदनी से लबालब आसमाँ और इनकी अन्तड़ियों से निकलती तानों की वहाँ पहुँचने की जिद्दोजहद।
हम हैं रंजो मुसीबत के मारे हुए
सख़्त मुश्किल में हैं ग़म से मारे हुए
या नबी ख़ुदारा हमें भीख दो
दर पे आये हैं झोली पसारे हुए।
‘झोली पसारे हुए’ कहते समय कव्वाल मदहोश! उसके पंजे आकाश की तरफ़ ऊपर, पुतलियाँ गोल-गोल घूमती हुईं बिल्कुल माथे में और अचानक वह आर्त स्वर में कह उठता, ‘अल्लाह!’ दूसरा क़व्वाल सिर धुनता हुआ अपने आप से कहता, ‘आमीऽऽन।’
यह देखकर मैं तो थरथर काँपता था। जब मेरी आँखें फैल जातीं और देह धड़धड़ाने लगती, अली धीरे से मेरी देह को अपने बाजुओं में लेकर मुझे अपने सीने से लगा लेता। तुरन्त मुझे हरसिंगार की तेज़ हरी महक और क़व्वालों की गड़गड़ाहट के बीच अली के दिल की धकधक सुनायी देती। लगता, अब मुझे कोई कुछ नहीं कर सकता।
रात में दोबारा चुपके से लौटना और बिस्तर में घुस जाना। लक्ष्मण जाग ही रहा होता। घिघियाता हुआ कहता, ‘मत जाओ न बाप्पा रात-बेरात अजीब जगह पर! पता चला तो हमारी ठाँस देंगे नऽऽ!’ लेकिन मैं कहाँ मानने वाला था! तानें, हरसिंगार की महक और अली के दिल की धड़कन। सब निम्मी से कहना चाहता हूँ, लेकिन कैसे? वो तो रूठी हुई है। कैसे मनाएँ उसे? गाना भी नहीं सूझ रहा था। इसलिए मैंने उससे पूछा, ‘हम क़व्वाली सुनने जाएँ?’ वह हामी भरती तो चले जाते हम दरग़ाह पर, और वह काँप जाती तो उसे भी आहिस्ता से मैं सीने से लगा लेता। लेकिन सिनेमा में एक दूसरे के मन की बात बिना बोले ही पता चलती है। आँखों में होती है बात। लेकिन उसके ध्यान में आ ही गया। क्योंकि अपनी (नशीऽऽली) आँखें तरेरकर, खुले होठों पर (ओंठ ओंठ ओंठ) उँगली रखती हुई वह बोली, ‘बेहया! कैसी बेहूदा बात। कुछ ज़माने की भी तो सोचो।’ और उसने थिएटर के लोगों की ओर इशारा किया। मैंने उधर देखा, लेकिन मुझे लोगों की नज़रें अच्छी नहीं लगीं। अँधेरे में अजीब ढंग से चमक रही थीं और उनमें हवस दिख रही थी। अब ऐसे लोगों से इसकी हिफ़ाज़त करनी होगी। कमाल है इन लोगों का। इनको कुछ पढ़ाई-वढ़ाई करनी होती भी है या नहीं? जब देखो तब देखते रहते हैं हमारी तरफ़। निम्मी बेहद दुखी सुर में बोली, ‘घर जाओ जय। छोड़ दो मुझे इस वीराने में। लोगबाग इतने मुस्तैद। कैसी-कैसी बातें करते हैं।’ मैं खिऽऽन्न होकर चल पड़ा, और अचानक वह गाने लगी, ‘हमारे दिल से न जाऽना, धोखा न खाऽना, दुनिया बड़ी बेईमान, हो रे पिया, दुनिया बड़ी बेईमान।’ इस पर लोगों ने थिएटर की कुर्सियों पर ताल पकड़ा और एक ने तो ‘हाय मेरी जाऽऽन’ कहकर परदे की तरफ़ रेजगारी फेंकी, जो खनखनाती हुई फर्श पर गिर गयी।
मैंने सोचा, ये कुछ ठीक नहीं है और यह सोचते हुए घर आया कि घर में किसी से कहें या नहीं। मैंने सोचा, मैं बहुत दुखी होने के साथ-साथ नशीला भी दिख रहा हूँ, इसलिए मैं आईने में देखने लगा। लेकिन मुझ पर हमेशा आँखें तरेरती हुई नज़र रखनेवाली और बाद में सविस्तार चुग़्ली करने वाली कुलदीप कौर दीदिया टोह लगाती हुई वहाँ आ ही गयी। क्या हुआ रे नटवे तुम्हारी आँखों को? मैंने उसे समझाया, निम्मी की आँखें ऐसी तो दिखती हैं। तुम देखना। लेकिन वह ‘वो चपटी?’ कहती हुई अपनी नाटी-सी नाक सिकोड़ने की कोशिश करती हुई वहाँ से चली गयी। साथ में खी-खी-खी था ही उसका! ये भी ग़ज़ब है बाबा। किसी को कभी अच्छा नहीं कहेगी। बिल्कुल भी नहीं। निम्मी का नाम लूँ तो ‘वो चपटी?’, नलिनी जयवन्त कहूँ तो ‘वो नाटीऽ’, मधुबाला कहूँ तो ‘वो पठाऽऽन?’ अच्छा हुआ आँखों के बारे में ही बात की, ओठों के बारे में नहीं। लड़कियों से ऐसी बातें करने से शर्म आती है बाबा मुझे। लेकिन मेरे पेट में कुछ रहता भी नहीं इसलिए तो बता दिया न अभी। फिर भावड़िया से बात करते-करते बोल गया कि कितने सुन्दर ओंठ है न निम्मी केऽऽ! लेकिन उसने नज़रें गड़ा-गड़ाकर देखा मेरी तरफ़ और फिर अजीब बोल गया। बोला, ‘लंगोट कसना शुरू करो।’ कम से कम मुझे तो यह बात ज़रा अश्लील लगी। ज़रा क्यों, बहुत ज्यादा!
तभी पड़ोस की पुष्पी आयी दनदनाती हुई। वह हमेशा इसी तरह दनदनाती हुई आती है। शायद उसे अपने लम्बे बालों पर बहुत घमण्ड है। क्योंकि वह हमेशा अपनी चोटियों से खेलती रहती है। आज भी वैसी ही खेलती हुई आयी और बोली, ‘क्या करता है रे? हो गयी पढ़ाई?’ असल में, उसकी पढ़ाई कभी नहीं होती। उसका सारा वक़्त उस कराहने वाले हिंडोले पर बैठकर कर्कश नकनकाती आवाज़ में मराठी भावगीत गाने में और समय बचे तो माँ की डाँट और कभी-कभी ठुकाई में बितता है। ऐसी बिज़ी होने के बाद काहे की पढ़ाई और काहे की लिखायी! लेकिन शान ऐसी बघारेगी कि मानो बड़ी बुद्धिमान है। अब क्या बताएँ इसे? मुझे भी पता नहीं था अपना होमवर्क। मास्टरजी ने क्या कहा था क्लास में क्या पता। इसलिए मैंने कहा, ‘होमवर्क की बात छोड़। आज तूने गाना नहीं गाया?’ लेकिन वह नाक की फुनगी लाल करती हुई बोली, ‘माँ ने आज बहुत डाँटा!’ उसे अच्छा लगे इसलिए मैंने कहा, ‘अरी छोड़ न, बड़ों का ढंग ही होता है ऐसा। लेकिन तुम नऽऽ कभी-कभी बिल्कुल निम्मी जैसी दिखती हो!’ इस पर अचानक बिगड़ पड़ी वह। ‘क्याऽऽ?’ और आँखें तरेरकर पैर पटकती हुई चिल्लाई, ‘चाची से शिकायत करती हूँ मैं तुम्हारी। वाहियात। फ़ेल हो जाएगा तूऽऽ!’ शाप देकर दनदनाती हुई वह दरवाज़े के पास गयी। रुकी और सीने की चोटी को झटके से पीछे फेंककर मेरी तरफ़ मुड़कर देखती हुई बोली, ‘मधुबालाऽऽ!’ और चली गयी। पुष्पी की चोटी पर हमेशा सूखा गजरा जैसे-तैसे लटकता रहता था। फिर भी गमकता रहता था। एक बार निम्मी से कहूँगा कि ऐसा ही गजरा पहनो। लेकिन ताज़ा और न लटकने वाला। क्यों न मैं ही दे दूँ उसे चमेली का महकता हुआ गजरा? कितनी ख़ुश होगी वह! फिर एकदम शानदार गोल चक्करदार नाच और नशीऽऽली हँसी। फिर आ गया गाना। मैं मुदित हो गया इस कल्पना से। इतना कि गाने ही लगा, ‘आज मेरे मन में सखी बाँसुरी बजाए कोई, प्यार भरे गीत सखी बार बार गाये कोई। अहाऽऽहाऽऽ।’ लेकिन अचानक न जाने क्यों मेरा गला भर आने लगा। खनकती आवाज़ में ‘ख़ुशी में आजकल कुछ ग़म भी शामिल होता जाता है’ नरगिस कहती है न, वैसा ही कुछ लग रहा था। क्योंकि चाहे जितना ख़ुश रहूँ, मगर मन में हमेशा पारवा की यादें। टकटक टकटक। क्या वह ख़त्म हो गया, दुबारा मिलेगा या नहीं, क्या करूँ, ऐसा ही कुछ होगा मन में। ऐसे समय निम्मी ही परदे से बाहर आकर मुझे सिनेमा में ले जाती थी। एक बार कहा मैंने उससे कि बहुत याद आती है री माई-दादा की और मन्दी, बबन, भिवा की। उन्हें भी ले आऊँ क्या सिनेमा में। लेकिन वह निःश्वास (नशीऽऽली) छोड़ती हुई बोली, ‘उनकी दुनिया अलग, हमारी अलग। वहाँ के लोग नहीं आएँगे यहाँ पर।’ मैंने पूछा, क्यों? क्यों? वह बोली, ‘वहाँ के दस्तूर निराले, अंदाज़ निराले, रिवाज निराले।’ तिय्या। दुख में भी नहीं भूलेगी तिय्या। ‘वहाँ कभी किसी से दिल न लगाना।’ वह पेड़ के सहारे बैठी और गाना शुरू। ‘प्रीत ये कैसी बोल रे दुनिया, प्रीत ये कैसी बोल।’ दुनिया से पूछने लगी। थिएटर की दुनिया सोडा-लेमन पी रही थी, बीड़ियाँ फूँक रही थी, बीच-बीच में सीटियाँ बजा रही थी। बेरहम, गँवार दुनिया। उसे इस दुनिया से बचाना होगा। उसे हल्के से बाहों में भरकर मैंने उसे सीने से लगा लिया। लेकिन मेरे सीने पर सिर रखकर वह कहने लगी, ‘डूब गया दिन जब शाम हो गयी, जैसे उम्र तमाम हो गयीऽऽ, जैसे उम्र तमाम हो गयी।’ मैं गद्गद् हुआ। तमाम यानी मृत्यु। सचमुच तमाम हो जाएँ हम। मैं तमाम हो जाऊँगा और निम्मी इसी तरह बगल में बैठकर गाती रहेगी। उम्र तमाम होते-होते गाना चलते रहना, कितना बढ़िया। तमाम होने के बाद भी वह जारी रहना चाहिए। फिर पता चलेगा दुनिया को।
इधर थिएटर के लोग इस क़दर बीड़ियाँ सुलगाकर धुआँ उगल रहे थे, मानो उन्हें कोई लेना-देना ही न हो। कचर-पचर आपस में बातें कर रहे थे। और एक आदमी तो कुर्सी से नीचे सरककर टाँगें फैलाए खर्राटे भर रहा था। आप उधर तमाम होइए या जहन्नुम में जाइए, हमें क्या? उसका ये रवैया देखकर मैं भाँप गया कि सचमुच हम अकेले हैं और हमारा कोई भी नहीं है। मैं समझ गया कि बड़ा होने पर मुझे यह सुनना पड़ेगा कि एक अकेले मनुष्य का दुख मामूली होता है, बस लोगों की भीड़ का दुख ही आदरणीय होता है। सोचा, ये भी पूर्वाभ्यास हो गया मेरा।
फिर हम एक जगह पर नाले में पानी में पैर छोड़े बैठ गये। मैंने कहा, ‘ए निम्मी निम्मी, कितनी सुन्दर आवाज़ है तुम्हारी! मालूम होता है, मेरे मन का सबकुछ जान जाने की तरह तुम गाती हो।’ लेकिन निम्मी ने आँखें फैलाकर कहा, ‘मतलब, तुम्हें नहीं पता?’ मैंने कहा, क्या? बोली, ‘अरे गाने की वो आवाज़ मेरी नहीं है। मैं तो केवल ओंठ हिलाती हूँ। गाने वाली कोई और ही है।’ मैंने कहा, ‘झूठ। कोई और है तो वो दिखायी क्यों नहीं देती?’ निम्मी बोली, ‘अरे जब मुझे ही दिखायी नहीं देती, तो तुम्हें कैसे दिखेगी? वह अदृश्य देवता है बाबा।’ अच्छा हुआ, निम्मी ने ‘द्येवता’ नहीं कहा। मैंने पूछा, क्या वह लड़की किसी को, मतलब किसी को भी दिखायी नहीं देती? निम्मी बोली, ‘पता नहीं बाबा, लेकिन मुझे कभी दिखायी नहीं दी। एको है वह।’ मैंने पूछा, उसका नाम एको है क्या? बोली, ‘नहीं रे बाबा। लता नाम है उसका। लेकिन वह एको जैसी ही है।’ और उसने मुझे एको की कहानी सुनायी। नार्सिसस नाम का एक सुन्दर लड़का था, जो हमेशा तालाब में अपना अक्स देखता रहता था। एको नामक एक सुन्दर लड़की प्यार करती थी उससे। लेकिन उसे भुलाकर वह पानी में अपना अक्स देखता रहता था। भूख-प्यास, खाना-पीना सबकुछ भूलकर। फिर मर गया वो उसी फेर में। इससे एको इतनी दुखी और पागल हो गयी कि नार्सिसस, नार्सिसस पुकारती हुई जंगल-जंगल भटकती रही। पैरों में कंकड़-काँटे, कपड़े चिन्दी हुए और भूखी। छीज-छीजकर उसका शरीर भी नष्ट हो गया। लेकिन उसकी दर्दभरी आवाज़ वैसी ही गूँजती रही सभी तरफ़। निम्मी बोली, ‘लताजी की आवाज़ सुनके ऐसा लगता है कि वो वही एको है। कितना दर्द है! लगता है, सारी दुनिया के ग़म पी लिये हैं उन्होंने और पुकार रही है अल्लाह को। अल्लाह उन्हें सलामत रखे।’ दोबारा आँखों से एक मोटा-सा आँसू।
लेकिन अब उसकी तरफ़ मेरा ध्यान नहीं था। वह आवाज़ निम्मी की नहीं है, यह पता चलने पर ऐसा लगा कि उसमें से कुछ, असल में बहुत कुछ नष्ट हो गया है। मैं सोचने लगा, कौन होगी ये? कहाँ होगी? क्या मुझे दिखायी देगी? तापी दीदी की आवाज़ प्राणहरण करने वाली तो इसकी प्राणरक्षा करने वाली। नींद में भी कभी-कभी हमें निम्मी के बजाय इसी की आवाज़ सुनायी देती है। एक दो बार जब मैं नींद में था, यही आवाज़ सुनकर जाग गया। मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे। मैं व्याकुल हुआ। लेकिन यह छिपाते हुए कि इसमें मेरा इंटरेस्ट कम हो गया है, ज़ब्त न होकर मैंने निम्मी से कहा, चलो हम ढूँढ़ेंगे उसे। जंगल में तो जंगल में, भूखे-प्यासे तो भूखे-प्यासे। चलो ढूँढ़ेंगे। सोचा, मैं गाऊँगा तो एको भी गाएगी।
फिर ‘कहाँ हो कहाँ मेरे जीवन सहारे, तुम्हें दिल पुकारे’ गाता हुआ मैं अकेला जंगल-जंगल घूमता रहा। किसी बात की परवाह नहीं थी। और अचानक एक पेड़ से टिकी छोटी-सी लड़की मुझे नज़र आयी। साँवली, लम्बी-लम्बी दो चोटियाँ, सफ़ेद साड़ी। मेरे पैरों की आहट सुनकर उसने आँखें उठाकर बस देखा मेरी तरफ़। बाप रे! मेरी तो नज़रें ही नीचे झुक गयीं। ऐसी तेजस्विता! उसके पास जाकर कुछ बोलना सम्भव भी था? बिल्कुल नहीं। क्योंकि चाहे दिखायी न दे, लेकिन उसके इर्द-गिर्द एक प्रभामण्डल था, जिसे लाँघना हमारे लिए लगभग असम्भव था। यानी लक्ष्मण रेखा लाँघते समय रावण का जो हाल हुआ होगा, वही हाल होगा हमारा। मैं कील से ठुका-सा खड़ा रहा अपनी जगह पर। न आगे न पीछे। काफ़ी देर बाद वह लड़की बोली, ‘कौन हो तुम?’ खो गये हो क्या जंगल में?’ मैंने कहा, जी, ऐसा ही लगता है। वह बोली, ‘अच्छा, डरो मत। मैं हूँ न तुम्हारे साथ।’ मेरी अचानक रुलाई छूटने लगी। मैंने कहा, सभी छोड़कर जाते हैं। कोई नहीं होता हमारा साथी। वह हँसकर बोली, ‘अरे पगले, मैं नहीं छोड़ती साथ-संगत। लेकिन मुझे दीदी कहेगा न!’ मैंने कहा, ‘अच्छा दीदी।’ दीदी हँस दी और अचानक महसूस हुआ कि देह पर चाँदनी की वर्षा हो रही है और दीदी अचानक गाने लगी, धीमी-धीमी मुस्काती हुई। आसपास के वृक्ष अचानक स्तब्ध हुए, हवा रुक गयी, लताओं का सरसराना थम गया और उनकी कलियाँ छोटे बच्चों के मुस्कुराने की तरह खिल उठीं। गाते-गाते दीदी ने आँखें मूँद लीं। जब वे खुली थीं, उनमें दो सूर्य थे। मतलब बड़ा होने के बाद मैं पढ़नेवाला था न ज्ञानेश्वरी, जिसमें कहा गया था - मार्तंड ही तापहीन। ऐसी तापहीन किन्तु जगमगाती तेजस्वी आँखें जब उसने मूँद लीं, तभी देखा, धीरे-धीरे उसके इर्द-गिर्द शुभ्र उजाला फैलने लगा। इतना तेजस्वी और फिर भी इतना शीतल था वह उजाला कि मैं सब कुछ भूल गया। अब वह दिखायी भी नहीं दे रही थी। केवल शुभ्र प्रकाश। और उसमें एक के पीछे एक तानें। मन, कलेजा, आसमान को भर देने वाली। ऐसी कि उन्हें सुनकर वरुण भी रथ रोक दे सूर्य का। और ब्रह्मा कहे, ‘शायद हो गया सृष्टि की सृजन! रुकता हूँ। ज़रा सुनूँ तो सही।’ पूरी दुनिया ही उत्फुल्ल ब्रह्मकमल बन जाने की तरह।
धीरे-धीरे धीमा होता गया वह प्रकाश और नष्ट हो गया। देखा, लेकिन वह लड़की वहाँ नहीं थी। दुबारा उसका गाना सुनने को नहीं मिला तो? मैं परेशान। लेकिन फिर उसी आवाज़ ने साहस बँधाया मेरा, यानी यह धीरज कि कोई हर्ज नहीं, चलते रहो। मिलेगी राह इस जंगल से। वही तो, ऐसी आवाज़ ज़िन्दगी में एक बार भी सुनने को मिले तो हमेशा के लिए जंगल में खो जाने के लिए तैयार हूँ मैं। इतनी-सी लड़की, लेकिन कितनी ताक़त दे गयी! और अब तो उसने मेरे लिए, मेरे अकेले के लिए गाया, और क्या चाहिए ज़िन्दगी में? ‘क्यों रे मुए, तुम्हें क्या कमी है? जब देखो तब उदास बैठा रहता है!’ दिदिया हमेशा कहती है। ये-ये कम था अब तक।
फिर रात में मैंने ख़ुद को बिस्तर पर झोंक दिया और शुरू किया हमेशा की तरह सपना देखना। पारवा, भिवा, शेषा, मन्दी, माई, दादा। आँखें झरने लगीं। तभी लगा, कोई पास आकर बैठा है। कौन होगा? वही लड़की। दीदी। मैं अचानक उठ बैठा और बोला, अरी तुम यहाँ कैसे? वह धीमे-से मुस्काई और बोली, ‘मैं जान गयी कि तुम रो रहे हो। मैं सभी तरफ़ होती हूँ रे। भगवान ने ही सौंपा है न मुझे यह काम! और अच्छा लगता है मुझे भी। चलो अब सो जाओ।’
मैंने आँखें मूँदकर तकिए पर सिर टिकाया। दीदी गाने लगी, ‘धीरे से आजाऽऽ री अँखियन में...’ मेरी पलकें भारी होने लगीं। मुझे भिवा द्वारा लाकर दिये मोरपंखों की याद आयी। माई की आँखों की धीमी हँसी याद आयी, ‘मुझे चिढ़ाता है, फिर भी नहीं आता मुझे तुम पर गु़स्सा’ कहने वाली मन्दाकिनी याद आयी। मुरली फेंककर ऊसर में अकेला घुटनों में सिर छिपाए सिसक-सिसककर रो रहा शेषा याद आया। ‘तुम्हें कभ्भी नहीं भूलूँगा’ कहने वाला, छोटा-सा अली याद आया, सामने के दो दाँत गिरे हुए। गर्दन झुकाए गाँव भर में पानी भरने वाला जगू याद आया, जिसे अधपगला समझकर सभी दुत्कारते रहते थे। हिंडोले पर बैठकर चुस्त चेहरे से गाने वाली तापी दीदी याद आयी, जो मेरे गिर पड़ते ही तुरन्त ‘चोट लगी क्या रे शोना?’ कहकर मुझसे पहले ख़ुद ही रोने लगती थी। आगे नाथ न पीछे पगहा वाली रुक्मिणी चाची याद आयी, जो चार घरों में खाना बनाकर फूस की झोपड़ी में पड़ी रहती थी, और मुझे बुलाकर हमेशा नारियल का टुकड़ा देती थी। गु़स्सा क्या होता है, यह न जानने वाली मेरी एक चाची याद आयी, जो जब बहुत ज़्यादा गु़स्सा होने पर हँसते-हँसते बच्चों को मुआ शूर्पणखा और लड़कियों को ‘दुष्ट दुर्योधन’ कहती थी। मोट की आवाज़ें याद आयीं। पानी से गीली हुई मिट्टी की ख़ुशबू याद आयी...
सुबह-सुबह नींद खुली तब इतनी ताज़गी महसूस हो रही थी कि फ्रेश! मुझे प्रसन्न बैठा देख बहनजी चोटी बनाती हुई पधारीं उधर से। ‘क्यों महाराज? इतनी सुबह सूर्य उदित हुआ आज?’ वह खाण्डेकर पढ़ती थी। उसे अच्छा लगे इसलिए मैंने कहा, ‘मेरे जीवन के क्षितिज पर सूर्य उदित हुआ है।’ वह झट् से कन्घी नीचे फेंककर बोली, ‘चोरी-चोरी मेरे उपन्यास पढ़ता है न? रुक ज़रा, चाची से कहती हूँ।’ मैंने जल्दबाज़ी में कहा, ‘अरी, नही-नहीं। मैंने दीदी के बारे में कहा ये। दीदी यानी लता। लता मंगेशकर।’ लेकिन आज पहली बार वह कुछ भी वाहियात नहीं बोली। वहीं एक सन्दूक पर बैठ सपनीली आँखें बनाती हुई बोली, ‘कैसी आवाज़ है रे उसकी! घनःश्याम सुन्दरा? और आएगा आने वाला?’ और उसने आँखें मून्द लीं। मैं डर गया कि कहीं ये गाना गाना न शुरू कर दे। कानों में उँगलियाँ डालकर झट से उठकर मैं वहाँ से भागा।
फिर मारा-मारा घूमता रहा दिन भर। लेकिन यह मारा-मारा घूमना भी कैसा? ख़ुशनुमा। सभी तरफ़ वही दीदी की आवाज़। मैं रखूँ माथा जिस जगह, वहाँ सद्गुरु तुम्हारे दोनों चरण।
नयी बेचैनी शुरू हो गयी बाबा जीवन में। यानी ज़िन्दगी में। ‘जीवन’ और ‘ज़िन्दगी’ में से करेक्ट शब्द कौन सा है, मेरी कभी समझ में नहीं आने वाला था। और अभी काफ़ी जीवन गुज़ारना था। अभी तो न जाने कितने लोग खो गये, दूर हुए हमसे। इसलिए आदतन मैंने कोशिश की, दुखी होने की। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं आज मुझसे। इसलिए मैं तनिक अचरज में पड़ गया। पेड़ से टिककर दर्दभरे गाने गाने की ज़रूरत ही नहीं है। हम अकेले नहीं हैं। हमारा भी कोई है। वह दिखायी न दे, फिर भी है।
जिस तरह नूरजहाँ की आवाज़ को पकड़े मैं पारवा जाता था, क्या इस आवाज़ को पकड़े जा सकूँगा? यह आवाज़ तो वहीं से आने जैसी लगती है। पारवा से।
जाने दो। इस आवाज़ के सामने बाकी सबकुछ अकंचन है।
‘अकिंचन! अकंचन नहीं।’
मैं झट से बिस्तर पर उठ बैठा। यहाँ कहाँ है तापी दीदी? वो तो अपने ससुराल में है। देखा तो दीदी। काम करते-करते ही चाची कहती थी, ‘कैसा सुन्दर उच्चारण हैं रे इस लड़की का।’ मुझे याद आया। फिर दीदी बोली, ‘लेकिन लगता है आज जाग रहे हो।’ मैंने कहा, मैं ज़रा सोच रहा था। दीदी खूब हँसी और बोली, ‘बाप रे! सोचना और तुम! तुम तो बड़े हो गये हो।’ मैंने उससे पूछा, कैसे पता चलता है कि हम बड़े हो गये हैं? वह ज़रा गम्भीर होती हुई बोली, ‘चल जाता है पता सही सही! मैं भी तो बड़ी हो गयी थी एक मिनट में, जब बाबा चले गये थे।’ फिर रुककर बोली, ‘बाबा होते तो सिनेमा में क्यों गाती रे मैं? मैं तो अपने मनचाहे गानों में खो जाती। ख़ैर, छोड़ो। इतना गाने को मिलता है न? फिर?’ इतना मतलब? मतलब और क्या होगा? मेरे मन की बात पहचानकर वह बोली, ‘चल। दिखाती हूँ।’
हम खुले में आये। मैंने देखा, क्षितिज पर केवल प्रकाश उबल रहा था। मैं साँसें रोके चकित। ये क्या? मैंने पूछा। दीदी हँसी। (माई की तरह धीमी) ‘अरे, वो रहा तुम्हारा पारवा!’ अच्छा? पारवा? वहाँ अब दिये टिमटिमाते नहीं हैं। वहाँ प्रकाश ही प्रकाश है।
मैंने बिल्कुल जल्दबाज़ी में और आत्मविश्वास से कदम आगे बढ़ाए। दीदी एकदम से बोली, ‘सम्भलकर। ऐसी जल्दबाज़ी मत करना। अच्छे से लुत्फ़ उठाते हुए चले जाना, आसपास देखते हुए। रास्ते में तुम्हें बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ नामक पर्वत दिखायी देगा, उसे देखना। अमीर ख़ाँ साहब नामक समुद्र मिलेगा, उसकी लहरों में नहा लेना। केशरबाई नामक एक गु़स्सैल देवी का मन्दिर आएगा, वहाँ टिक जाना। मोगूबाई नामक एक तपस्विनी दिखायी देगी, उसे प्रणाम करना, उसका आशीर्वाद लेना। कुमार गन्धर्व हैं, वे तो तुम्हें बिजलियों के हार ही पहनाएँगे। उसे पहनकर घूमना। भीमसेन नामक एक विशालकाय प्रपात दिखायी देगा। उसके तुषारों में तन-मन को भिगो लेना। मस्ती में चले जाना। अरे तुम्हें लगेगा, यह सफ़र कभी ख़त्म ही न हो।’ मैंने असहज होते हुए पूछा, ‘लेकिन तुम? तुम्हारा गाना?’ वह बोली, ‘वो कहाँ जाएगा! गाने वाले के पीछे तानपुरा झंकारता रहता है या नहीं? वैसी ही मेरी आवाज़ झंकारती रहेगी तुम्हारे साथ... हमेशा। तुम चलो। मैं तो हूँ ही तुम्हारे साथ।’
मैंने क्षितिज के प्रकाश की तरफ़ देखा। फिर दोबारा पीछे मुड़कर देखा, दीदी नहीं थी। लेकिन मैंने देखा, इस पार क्षितिज के पास बहुत सारे लोग जमा हुए थे। दादा, माई, भिवा, शेषा, अली, चाचा, चाची, मन्दा, निम्मी, नूरजहाँ। जान से प्यारे और भी न जाने कितने। उन्हें छोड़कर मुझे अकेले जाना था पारवा, यह पता चला बिल्कुल उसी पल।
‘हम चले अपने धाम। हमरा ले लो राम राम’ यह गाना गाना चाहिए मुझे।
पता चला, ख़त्म हो गया मेरा बचपन।