तिस्तापार का वृत्तान्त देवेश राय बांग्ला से रूपान्तरः रामशंकर द्विवेदी
29-Dec-2019 12:00 AM 3912

क्या है तिस्तापार वृत्तान्तः
1970 के दशक में ही किसी समय उत्तरबंग के जलपाईगुड़ी जि़ले के डुअर्स के तिस्ता से सटे हुए अंचल में सेटलमेंट का काम चल रहा था। डुअर्स की ज़मीन बड़ी-बड़ी जोतों, फ़ोरेस्ट डिपार्टमेंट के अध्ाीन फ़ोरेस्टों, चाय-बागानों में हज़ार तरह की जटिल गाँठों से युक्त थी। गयानाथ जोतदार ऐसी ही एक ज़मीन का मालिक, ‘गिरी’ था। वह डुअर्स में यह सब ज़मीन अपने दखल रखे हुए है और आगे भी रखना चाहता है। नदी के नीचे की मिट्टी और बाढ़ में उखड़ गये शाल के वृक्षों को भी। प्रायः इसी के समान लोभी और गैर कानूनी दखलंदार चाय-बागान भी हैं।
इस विस्तृत अंचल में बसावट मुख्यरूप से राजवंशी जनसमुदाय के लोगों और संताल-कोल-मुण्डाओं की है जो मदेशिया नाम से जाने जाते हैं। तिस्ता के चर पर पूर्वबंग के किसानों ने बस्ती बनाकर यहाँ के कृषि कार्य में एकबार ही आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया है।
नाना तरह के स्वार्थों को लेकर अनेक तरह के जनसमुदाय का विरोध्ा, उनकी राजनीति और संस्कृति में दिखायी देता है। राज्य सरकार तिस्ता पर बैराज तैयार कर विकास की प्रचलित ध्ाारा में इस अंचल को ले आना चाहती है।
इस विचित्र, विपुल, विस्तृत जनजीवन के इन सब बदलावों के भीतर से होकर तैयार हो उठता है बाघारू नाम का एक मनुष्य। जो यहाँ के आदिम लोगों में से एक है। उसका बाप कौन है, वह नहीं जानता है। उसकी माँ ने उसे सघन वन में जन्म दिया था। उसे अपने को बचाने के लिए बाघ के साथ हाथापाई करनी पड़ी थी। इस समय उसका परिचय उस गयानाथ जोतदार के आदमी के रूप में है।
अन्त में यह परिचयहीन बाघारू, अपने जन्म के भी पहले का परिचय लेकर इस विकास, समाज, चाय-बागान, जोत-ज़मीन छोड़कर चला जाता है- मदारी नामक बालक को साथ लेकर।
- अनुवादक
आदि पर्व
गयानाथ की जुताऊ ज़मीन
एक
हाट के मार्ग पर
एक हाट में एकसाथ दो साइन बोर्ड जा रहे हैं - एक बड़ा है, एक दिखायी नहीं दे रहा है।
एक बहुत लम्बा-चैड़ा, बड़ा और नया@हल्दिया रंग पर काला रंग - जैसे सरकारी साइनबोर्ड होते हैं, सील-मोहर लगे हुए ‘कृत्रिम गाय-प्रजनन केन्द्र’। और भी बहुत कुछ। उसे ले जाने में व्यक्ति को बड़ा कष्ट हो रहा है, एकबार उसे लटका लेता है - किन्तु इससे वह रास्ते से टकराने लगता है। दो-एक बार उसने उसे बगल में भी लिया, इससे भी उसका घेरा पकड़ में नहीं आता है। अन्त में उसे सिर पर रख लिया। वही सबसे अध्ािक सुविध्ााजनक रहा। एक हाथ से सिर के ऊपर साइनबोर्ड को पकड़े रहना, और एक हाथ में नाइलाॅन के जूतों को लटकाना - पीछे के झरने को पार करने के लिए जूते खोलने पड़े थे, सामने है पैदल और फेरी नाव से पार करने वाली और एक नदी, तीन-चार बार। नाइलाॅन का पेंट भी घुटनों तक मुड़ा हुआ है, अच्छी तरह उसकी पर्तें सिकोड़कर, मानो नदियों की गहरायी का एक अन्दाज़ उसे पहले से है।
और एक साइनबोर्ड छोटा है। काले रंग पर सफेद रंग - पर यह बहुत पुराना लगता है। सील-मोहर लगी हुई है। बहुत बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ है, हलका कैम्प, थैली के साथ बाँध्ाकर पीठ से लटकाकर बीड़ी पीते-पीते ही जाया जा रहा है। बीड़ी अगर न पिये तो एक हाथ से करेगा क्या? ध्ाोती घुटने से भी है - नदी-नाला-कीचड़-बालू जिससे पारकर जाया जा सके। पैरों में नयी नीली पट्टी की हवाई सेंडिल की तली तो है सिफऱ् अँगुलियों से थोड़ी अटकी रहने के लिए। इस तली को इतना घिस जाने दिया गया है कि कई बार उसमें नयी पट्टी बाँध्ानी पड़ी है। पैरों के साथ वह इतनी मिल गयी है कि अगर उसे खोलकर हाथों में लटकाया जाए तो वह ढीली होते ही टुकड़-टुकड़े होकर गिर जायेगी। पैरों से अगर उसे थोड़ा खिसकाया जाए तो पैरों का पंजा भी थोड़ा खिसक पड़ेगा। इसे अगर खोल दिया जाए तो चलने का शब्द भी थम जाएगा। तो फिर आगे चला ही नहीं जा सकेगा।
‘कृत्रिम गाय-प्रजनन केन्द्र’ इस समय अपने दोनों जूतों को साइनबोर्ड के ऊपर फेंक, दोनों हाथों से साइनबोर्ड को दो तरफ़ से पकड़, काफ-दुलकी चाल से वह जल्दी-जल्दी दौड़ने लगा है, इतनी देर बाद जैसे वह अपनी चाल में एक तेज़ी ला सका है। इतनी बड़ी टीन के साइनबोर्ड से ध्ाड़ाम-ध्ाड़ाम की आवाज़ निकल रही है। उसके ऊपर रखे हुए दोनों जूते भी उछल रहे हैं। उसके चलने का छन्द टीन की फड़-फड़ आवाज़ से चारों ओर फैल रहा है। चारों ओर इतना निर्जन है कि आवाज़ बड़ी होने पर किसी तरह से उस निर्जनता में फैलकर अच्छी तरह विलीन हो जाती है।
चारों ओर निर्जन है, सिर्फ़ इसी रास्ते से कतार बाँध्ाकर लोग चले जा रहे हैं। आज क्रान्ति की हाट है। हाईवे पर बस से उतरकर कोई-कोई रिक्शा भी पकड़ लेते हैं। उसके बाद रिक्शावाले के साथ छोटे-छोटे नाले ठेल ठाल कर रिक्शा से पार ही जाते हैं। जिनके पास भारी सामान होता है, उनको तो रिक्शा लगता ही है। कटा कपड़ा, गंजी, लुंगी, शर्ट-पेंट के दुकानदार साइकिल के सामने टाँगकर और पीछे बाँध्ाकर अपना काम चला लेते हैं। किन्तु आलू अथवा एल्युमीनियम के बड़े दुकानदारों का अगर रिक्शा न हो तो उनका खर्चा बहुत हो जाता है। एक रिक्शा का माल कई लोगों को अपने सिर पर ढोना पड़ता है।
किन्तु, अध्ािकतर लोग पैदल ही चलते हैं, सिर पर अथवा बँहगी पर वज़न लादकर। बस से हाईवे पर उतरकर, बस के ऊपर से सामान उतारकर, रिक्शों पर कई मील दूर हाट तक जाने की सुविध्ाा है। किन्तु, जो लोग दक्षिण में चैकमौलानी से अथवा उत्तर में उसी हायहाय पाथार से टाड़ी-बाड़ी जंगल के भीतर से होकर, नदी-नाला पार करते-करते, बँहगी अथवा सिर पर बोझ लिये, अथवा गाय-बकरी हाँकते-हाँकते अपना रास्ता और छोटा करते-करते आते हैं, उन्हें फिर इस पक्की सड़क पर रिक्शे की ज़रूरत क्या है। पगडण्डी पर मानो नदी का तेज़ बहाव आ जाता है, थोड़ा नीचे की तरफ़ पहाड़ी नदी का तेज़ प्रवाह, सहसा घण्टाभर के लिए बाढ़ जैसा तेज़ प्रवाह बह जाता है। रिक्शा भी खूब तेज़ी-से दौड़ने लगते हैं, हाॅर्नटोर्न भी देते रहते हैं। पैरों तले पक्की सड़क मिलने से सिर पर बोझा अथवा कन्ध्ो पर बँहगी रखे मनुष्यों के पैरों में भी तेज़ी आ जाती है। कोई किसी की तरफ़ताकता भी नहीं है, बात भी नहीं करता है। जल्दी-जल्दी चलने अथवा माल ढोने के कारण लोगों की जल्दी-जल्दी साँस लेने की आवाज़ सुनी जा सकती है। चारों ओर इतनी निर्जनता है कि मनुष्यों के श्वास लेने और छोड़ने जैसी प्रायः निःशब्द आवाज़ भी वातावरण में विलीन नहीं हो पाती है, वह अलग बनी रहती है।
किन्तु, हाट में पहुँचने की इस समय अन्तिम बेला हो अथवा पक्की सड़क होने की वजह से हो, भीड़ जल्दी-जल्दी दौड़ने पर भी कैसी घनी है। इतने लोग एक साथ एक ही दिशा में जा रहे हैं- इसीसे तो उनमें एक तरह की समानता आ गयी है। इसके ऊपर, एक व्यक्ति के सिर पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ साइनबोर्ड और एक व्यक्ति की पीठ पर बहुत पुराना एक छोटा-सा साइनबोर्ड मानो इस भीड़ को और अध्ािक एक कर देना चाहते हैं, जैसे पताका और बन्दनवार एक जुलूस का निर्माण कर देते हैं।
इस समय, इस सड़क की जिस भीड़ को इन लोगों के दो साइनबोर्ड बाँध्ो हुए हैं, उसके भीतर से हाॅर्न और घण्टी बजाते-बजाते रिक्शे और साइकिलें टेढ़ी-मेढ़ी होती हुई निकल ज़रूर जाती हैं पर उसके बाद ही भीड़ फिर से घनी हो जाती है। एक व्यक्ति एकमात्र छोटे बकरे को नयी रस्सी से बाँध्ाकर खींचते-खींचते ले जा रहा है। ऐसा लगता है, बकरे को इतनी भीड़ का पहले से ही कुछ अनुभव था या वह डर रहा था इसलिए एक भी डग नहीं बढ़ा रहा था। वह व्यक्ति भी बड़े निश्चित मन से उसे खींच रहा है। मानो वह जानता है, इसी तरह वह यथा समय हाट में पहुँच ही जाएगा। बकरा बीच-बीच में रास्ते में ही बैठा जा रहा है। फिर वह व्यक्ति खड़ा हो जाता है। बकरे को खींच भी नहीं रहा है और उसे मना भी नहीं पा रहा है। बकरे के पीछे ही इस तरफ़ के छोटे-बड़े सभी हाट के ही लोग हैं, उन्हीं में वह चायवाला लड़का, अपने काठ के बक्से को सिर पर रखे हुए है। उसी के भीतर चूल्हा, कोयला और चाय बनाने का सारा सामान है। बकरे के बैठ जाने पर वह बकरे के ठीक पीछे छोटे हाथों से लाठी मार रहा था और बकरा फिर कुछ कदम दौड़ पड़ता है। लड़के ने कब हाथ बढ़ाकर बाँस की एक लकड़ी खींच ली है। अब और लाठी मारनी नहीं पड़ रही है, बाँस की लम्बी लकड़ी को चुभाते ही बकरा थोड़ा दौड़ने लगता है। तीन छोटी-छोटी मुर्गियों को उल्टा लटकाये लंुगी पहने हुए एक व्यक्ति लिये जा रहा है। बीच में एक बच्चे के सिर पर बड़े साइज़ का एक कुम्हड़ा रखा है। खूब छोटा, टाइट हाफ़ पेंट, पतली नेट की गंजी, मोज़ा-केडस पहने एक व्यक्ति खाली हाथ चला जा रहा है। जितनी बार नदी-नाला पार कर रहा है, उतनी बार ही जूता-मोज़ा खोलकर फिर पहन लेता है। इस तरफ़ के नेवड़ा नदी के पूरब के बागान के मज़दूर कान्तिहाट में बहुत अध्ािक नहीं जाते हैं। कान्तिहाट के पश्चिम में केवल चाय के बागान हैं। हाट में उनकी खूब भीड़ होती है। यह लोग शायद कहीं गये थे, अब लौट रहे हैं। अथवा हाट में किसी से भेंट करने की बात है। तेल से चिकने काले घुँघराले बाल। पतली नाइलाॅन की गंजी के भीतर से उसके शरीर का रंग चमक रहा है। उसका अत्यध्ािक किसी कैप्टन जैसा मिजाज़ है, उसके चलने की मुद्रा से ऐसा आभास हो रहा है। एक झुण्ड हंस एक पिंजड़े में हैं। एक बँहगी के एक तरफ़ एक लौकी और दूसरी तरफ़ एक बड़ा बोरा छोटे रूप में बँध्ाा हुआ है। एक व्यक्ति के सिर पर दस सेर के लगभग पटसन है। छींट की हाफ़ शर्ट, चेक की लंुगी, रबर के पम्प शू, कन्धे पर गमछा, कन्धे, गर्दन, पीठ, कमर में अच्छी तरह सुडौल, तराशा हुआ माँस है। जोतदार तो है ही, खरीद-बेच करने वाला व्यापारी भी हो सकता है। सम्भवतः लोगों से बैलगाड़ी में माल भरवाकर बेचने के लिए पहले ही इसने भेज दिया है। नहीं तो, कुछ बेचने को नहीं है, खरीदने को जा रहा है। अथवा हो सकता है हाट की वजह से जा रहा हो, चीज़ों की दर-मान जानने, वैसे कोई खास काम नहीं है। पहनावे से बाबू जैसे एक लड़के के सिर पर केले की खोल से बने पात्र में मछलियाँ, पूरे दिन पोखर पर मछलियाँ पकड़ने के बाद अब बेचने जा रहा है। मध्यम आकार के बछड़े काफ़ी देर से पकड़े हुए आ रहा है, उसके गले में नयी रस्सी है। इसका अर्थ है हाट। लेकिन पशुओं की हाट तो सबेरे से ही लग जाती है। जो बेचते हैं और जो खरीदते हैं, वे प्रायः पूरे दिन घूम-फिर कर देखते हैं और दाम तय कर इस बात पर नज़र रखते हैं कि उनकी पसन्द की हुई वस्तु कोई और न खरीद ले। हाट के अन्त में आते हैं चोरी किये हुए पशु। उनकी कीमत भी कम होती है। कई बार तो उन्हें हाट तक जाना ही नहीं पड़ता है। रास्ते में ही खरीद-बेच हो जाती है। क्रान्ति की हाट अवश्य उस दृष्टि से चुराए गये पशुओं को बेचने की एक बहुत अच्छी जगह हो सकती थी। पूरब में हाईवे से दस मील भीतर, बीच में एक खेया (नदी पार करने के लिए) और चार नाले। पश्चिम में विशाल आपलचाँद फ़ोरेस्ट और चाय बागान और पहाड़ी चढ़ाई, वही बागराकोट कोयले की खान और शेबोक ब्रिज पर्यन्त - किसी बाॅर्डर को पार कर मयनागुडी से लाकर इसी सड़क से पशुओं को घुसा देने पर काम हो जाता। किन्तु उसके बाद? ये चार नाले, एक खेया पार कैसे होंगे? ‘गरू बेचते राखाल फक्का’ अर्थात् पशु बेचने में ग्वाला नाकाम। इसलिए बाॅर्डर का चुराया हुआ माल इस हाट में बेचने नहीं आता है। इध्ार-उध्ार से एक-दो चुराए हुए पशु फ़ोरेस्ट के भीतर बाँध्ा-बूँध्ाकर समय-सुयोग होने पर हाट के रास्ते से लाकर बेच दिये जाते हैं। इस समय इस रास्ते भर में वही शेष हाट के यात्री चले जा रहे हैं-
पयला हाटात दोकानिया बेचे
माझा हाटात देउनिया बेचे
हाटात घरुआ शेषो बेचे।
हाट के शुरू में ही व्यापारियों की बड़ी-बड़ी खरीद-बेच समाप्त हो जाती है। उसी समय पूरे दिन के भाव ठीक हो जाते हैं, रेशम और तमाखू किस भाव में जाएँगे। आजकल ध्ाान और चावलों की तो बड़ी खरीद-बिक्री नहीं होती है, फिर उनके दाम भी इन सब हाटों में ऊपर नीचे अध्ािक नहीं होते हैं। बैलगाड़ी में बड़ी-बड़ी खरीद-बेच हो जाने के बाद आजकल तो वैसे समय ट्रक भी आ जाते हैं, पूरे दिन माल लादकर जाते रहते हैं।
हाट की माझवेला में आते हैं जोतदार-देउनिया लोग। घर-गृहस्थी का सामान और खेती-किसानी का सामान भी खरीदते हैं। फिर बेचते भी हैं घर-गृहस्थी की कई चीज़ें और खेती-किसानी के बहुत से सामान। और हाट के एकदम अन्त में आते हैं घर-गृहस्थी वाले लोग सामान बेचने - एक कुम्हड़ा, एक बतख, चार अण्डे, एक बकरा - यही सब चीज़ें।
इस समय इस सड़क से होकर वही अन्तिम हाट वाले लोग जा रहे हैं। चलते-चलते ही कतार बन जाती है। और कतारबद्ध हो जाने के कारण ही आकाश की ओर घुमाया हुआ ‘कृत्रिम गो प्रजनन केन्द्र’ और पीठ पर लटका हुआ ‘हलका कैम्प’ मानो इस पूरी कतार का परिचय हो उठना चाहता है। मानो यह पूरी कतार ही प्रवेश कर जाएगी गो-प्रजनन की कृत्रिम व्यवस्था अथवा सेटलमेंट के हलके इलाके के कैम्प में।
दो
नेउड़ा नदी का खेया
वृक्ष वनस्पति झुरमुट, वन बीहड़ के भीतर से होता हुआ यह पक्का रास्ता खत्म हो जाता है नदी की पाड़ पर। नेउड़ा नदी। खेया नाव छोड़ चुकी है। खेया नाव पर अगर चढ़ना हो तो बीच में घुटनों पर पानी को पार करना पड़ता है। सभी लोग साइनबोर्ड टाँगने वाली कतार को तोड़कर ध्ाड़-ध्ाड़ करते हुए ढलान से नीचे उतरकर ‘होई हेई’ करते-करते खेया नाव की तरफ़ दौड़ने लगे। बकरे को क्षण भर में ही उस व्यक्ति ने अपने कन्धे पर उठा लिया और कन्धे पर उठाते ही उस बकरे ने पूँछ हिलाते-हिलाते लीद करनी शुरू कर दी, जैसे वह इसकी प्रतीक्षा ही कर रहा हो। वह व्यक्ति भी इसे जानता था। कन्धे पर बकरे के चारों पैर उसने इस तरह समेट रखे थे जिससे सारी लीद बाहर गिरे, उसके शरीर पर न गिरे। व्यक्ति के शरीर पर लीद न फेंक पाने के कारण बकरा तार स्वर में चीखने लगा और अपनी देह इस तरह फड़फड़ाने लगा जिससे वह कन्धे से उतरकर नीचे आ जाए। किन्तु वह व्यक्ति कन्धे के ऊपर दोनों हाथों से बकरे के चारों पैर इस तरह जकड़े रहा कि वह उछल कर खेया नाव पर चढ़ सके। साइनबोर्ड दोनों लेकर ये दोनों व्यक्ति भी, इस तरह दौड़ने कि उस क्षण ऐसा लगा जैसे ये दोनों साइनबोर्ड बेचने जा रहे हैं। हाट में जैसे साइनबोर्ड बेचने का यही ‘सीज़न’ है। लेकिन बड़े साइनबोर्ड को नाव पर खड़ा करने और छोटे साइनबोर्ड को पीठ पर लटकाने के कारण ऐसा लगने लगा जैसे पूरी नाव ही सचमुच में ‘कृत्रिम प्रजनन केन्द्र’ और ‘हलका कैम्प’ है।
माझी ने नाव को घाट से पहले ही छोड़ दिया था। इन लोगों की चिल्लाहट से नाव लग्घी से फिर उसने और ठेली नहीं। ये लोग किनारे के कीचड़-पानी को किसी तरह पारकर नाव पर चढ़ जाते हैं। नाव के पट्टे पहले से ही भीगे हुए थे। इन लोगों ने उन्हें और भी गीला कर दिया। सभी लोग चढ़ भी नहीं सके। किन्तु लोगों की भीड़ अध्ािक देखकर माझी ने लग्घी से नाव ठेलकर आगे बढ़ा ली है। लग्घी के दो-एक और ठेलों से नाव उस पार पहुँच जाएगी - यह इतनी छोटी नदी है। शायद कहीं-कहीं पैदल भी पार की जा सकती है। किन्तु सब जगह एक-सा पानी तो सदा रहता नहीं है। फिर ऊपर से छोटी-मोटी बाढ़ भी आती रहती है। इसी वजह से नाव से पार होना पड़ता है।
नाव पर सभी लोग खड़े हुए हैं। उन्हीं लोगों में इस तरफ़ का सबसे बड़ा जोतदार नाउछार आलम है। वाकोफ जागीर का मालिक। हज़ार-हज़ार बीघे का राजस्व चुकाने वाला। डूयर्स में जब पहला बन्दोबस्त हुआ तभी से नाउछार आलम यहाँ की सारी ज़मीन का मालिक है। खास ज़मीन का जब से कानून पास हुआ तब से पिछले पच्चीस-तीस वर्ष से नाउछार आलम का सरकार के साथ मामला चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट तक कई मामले गये, उनमें से कई मामलों में आलम की जीत हुई है, सरकार हट गयी है। इसके अलावा अनगिनत ज़मीनों पर निषेध्ााज्ञा लागू हुई, दस बार पन्द्रह-बीस वर्ष के लिए। निषेध्ााज्ञा का निपटारा न होने तक उन सब ज़मीनों की फसल आलम की बखार में ही भरी जाती रही है। सरकार आलम की ज़मीन की घास भी नहीं छील सकी - सभी की ऐसी ही ध्ाारणा है। आलम की ज़मीन के किसी-किसी भाग पर कब्ज़ा करने वालों से बीच-बीच में कोई अंशदान तो किया नहीं, किन्तु सरकार से उस ज़मीन का पट्टा चाहा। कभी-कभी मिल भी गया। किन्तु सामान्य रूप से वैसी घटनाएँ अध्ािक नहीं हुई हैं। नाउछार आलम नाटे कद का आदमी है। सफ़ेद हाफ़ शर्ट और छोटे नाप का एक पाजामा, यही उसकी पोशाक है। हाथ में छाता लिये हुए है। सभी लोग उसे सलाम कर रहे हैं। नाउछार भी उन्हें जवाब में सलाम कर रहा है। नाम ले-ले कर सभी के हाल-चाल पूछ रहा है। इध्ार की बड़ी-बड़ी सभी हाटों में जाकर नाउछार थोड़ी देर के लिए ज़रूर बैठता है। सभी के साथ मिलना-जुलना और उनका हाल-चाल का पता चल जाता है।
नाउछार के पास ही पर थोड़ी दूरी बनाकर खड़ा हुआ है योगानन्द मन्त्री। प्रफुल्ल घोष जब तीन मास के लिए मुख्यमन्त्री बने थे, पहले संयुक्त मोर्चे के बाद - तब योगानन्द भी मन्त्री थे, सम्भवतः दो मास के लिए। उसके बाद से उनका नाम ही हो गया है योगानन्द मन्त्री। ध्ाोती और खद्दर का कुर्ता पहने योगानन्द भी छाता हाथ में लिए खड़े हुए हैं। नाउछार आलम ने योगानन्द को बुलाकर उनसे पूछा, ‘मन्त्री महोदय, इस बड़े साइनबोर्ड में क्या लिखा हुआ है ?’ योगानन्द ने साइनबोर्ड पहले ही देख लिया था। ‘यह हरियाणा के साँडों के....’
‘ओ अच्छा’, नाउछार इतने में ही समझ जाता है। इस इलाके में उसी ने पहली बार ‘कृत्रिम गो-प्रजनन’ केन्द्र शुरू किया था। वह भी कई बरस पहले। इस समय तो उसके बागान में हरियाणा की गाय के अलावा और कोई गाय है ही नहीं, ऐसा कहा जा सकता है। बस से जाते-जाते भी फ़ोरेस्ट के पास की ज़मीन में भैंस की साइज़ की गायें चरते देखकर बहुत-से लोग कहने लगते हैं, ‘नाउछार की गायें’। नाउछार पुनः पूछता है, ‘और ई में क्या लिखा है मन्त्री मोशाई, ए जे मनई की पीठ पर है?’
योगानन्द बताने लगता है, ‘काल से एई जगह हलका कैम्प लगेगा...’
‘ओ’... नाउछार समझ जाता है। थोड़ी देर चुप बना रहता है। उसके बाद जैसे मन-ही-मन कहने लगता है, ‘हलका कैम्प में ज़मीन देगा और पशु अस्पताल बैल देगा, तभी तो मेरे यहाँ सोने का संसार ज़रूर होगा।’ यह बात किसी-किसी ने सुन ली, कोई-कोई थोड़ा हँसने भी लगा। नाउछार के दिमाग में इन दोनों साइनबोर्डों का मामला खुलने लगता है इसलिए उसने यह बात कही है। उसकी बात में कोई प्रखरता नहीं थी। दूर से एक व्यक्ति थोड़ा प्रयास करते ही नाउछार की नज़र में पड़ जाता है, फिर दूर से ही उसे सलाम करता है। नाउछार आलम पूछता है, ‘क्यों, क्या तुम्हारी बीवी अस्पताल से लौट आयी हैं?’ वह व्यक्ति हँसकर ‘हाँ’ में सिर हिला देता है। ‘बहुत अच्छा, बहुत अच्छा’, कहते हुए नाउछार उसके पास के व्यक्ति से कुछ कहने के लिए सिर घुमा लेता है।
नाव पाड़ पर लग गयी है। नाउछार के पास पाड़ की तरफ़ जो लोग खड़े हुए थे, वे आहिस्ता-से उतर जाते हैं। नौका डगमगाने लगे इसलिए कूद कर नहीं उतरते हैं। उसके पीछे जो खड़े थे वे हड़बड़ी कर नहीं उतरते हैं। नाउछार आलम आहिस्ते-आहिस्ते नाव से ध्ारती पर उतर जाता है। उतरकर नाव की ओर देखकर हँसते हुए मानो उसे ध्ान्यवाद देता है। ‘यूउढ़ा मनई लप्पझप्प नहीं कर पाते हैं, आते हैं, उतरते हैं और चले जाते हैं सब।’ तब तक जिसकी जो गठरी थी, वह उसे उठा लेता है। सभी एक-एक कर उतरना शुरू करते हैं।
योगानन्द पीछे की तरफ़ था। वह ध्ाीरे-ध्ाीरे उतरता है। बाज़ार में उसका कोई खरीद-बेच का काम नहीं है। बीच-बीच में हाट में आने से सभी के साथ मेल-मिलाप हो जाता है, बातचीत हो जाती है, देश-गाँव के भाव-ताव का पता चल जाता है। तो वह बातचीत खेया नाव पर भी हो सकती है, उतरने के बाद भी हो सकती है।
इसके अलावा भी योगानन्द को ज़रूर एक भय भी था। अगर नाउछार आलम उसके साथ चलना शुरू कर दे तो वह और कुछ कर ही नहीं पाएगा। किन्तु हाटभर के लोग यह देखेंगे कि इस समय योगानन्द नाउछार आलम के साथ बाज़ार आता है। यह वह नहीं चाहता है। वह नाउछार आलम को आगे निकल जाने का समय देता है।
किन्तु पाड़ पर चढ़ते ही उसने देखा कि पक्की सड़क पर रिक्शे पर बैठा नाउछार इसी ओर देख रहा है। नज़र घुमाने का भी कोई उपाय नहीं था। पास पहुँचते ही नाउछार कहने लगा, ‘क्यों, मन्त्री मोशाई, और तो रिक्शा नहीं है यहाँ पर, आप क्या मेरे पास आएँगे, अथवा इध्ार और कोई काम-काज है आपको...?’
नाउछार आलम भी क्या उसके साथ जाना नहीं चाहता है? ‘नहीं, आप जाइए, मुझे थोड़ी देर हो जाएगी। नाले पहाड़ पर एक व्यक्ति के आने की बात है।’
‘अच्छा, अच्छा’, नाउछार के ऐसा जवाब देते ही रिक्शा वाला रिक्शा चलाना शुरू कर देता है। नाउछार आलम मानो सदा कानून मानकर चलता हो।
अगर और एक रिक्शा होता तो वह योगानन्द के लिए खड़ा नहीं होता। किन्तु, इसी वजह से योगानन्द को वह ज़ोर-ज़बरदस्ती पकड़कर अपने रिक्शे पर बैठाएगा नहीं। उसके साथ रिक्शे पर जाने में मन्त्री को जो असुविध्ाा है, उसे भी नाउछार समझता है। पर अगर वह बुलाये तो योगानन्द न नहीं कर पाएगा। इसीलिए वह अपनी बात में थोड़ी फाँक भी रख देता है - यदि इच्छा करे तो भी योगानन्द नहीं आ सकता है। किन्तु मात्र एक रिक्शा है, यह देखकर भी नाउछार आलम जा नहीं पाता है, उसे खड़ा रहना पड़ता है, कितने समय पहले के तीसरे महीने की एक सरकार के मास-दो-एक के मन्त्री के लिए। इस घाट से बाज़ार थोड़े-से पैदल रास्ते पर है। किन्तु इस पार के लोगों की चलाने वाली भीड़ जमघट पैदा नहीं करती है। इस तरफ़ के टाडी गाँव के अनेक लोग हाट की तरफ़ जा रहे हैं। माठ घाट से होकर अनेक लोगों को चलते हुए देखा जा सकता है। नाना रास्तों, अनेक माठघाट होकर, सभी दिशाओं से सभी को जैसे इस समय जल्दी-जल्दी पहुँचने की घबराहट है, जो जैसा है अपनी तरह से जल्दी पहुँचना चाहता है। गो-प्रजनन और ‘हलका कैम्प’ साइनबोर्ड लिये लोग भी किसी समय उसी सड़क की भीड़ के भीतर से होकर हाट की तरफ़ ही भागे जा रहे थे।
तीन
‘सत्यमेव जयते’
पीठ पर हलका कैम्प का साइनबोर्ड लटकाये प्रियनाथ ने थोड़ा आगे बढ़कर देखा कि उनकी जीप आ गयी है या नहीं। जीप अभी आयी नहीं है। शाम से पहले आने की उम्मीद भी नहीं है। सुतराम साइनबोर्ड के साथ अपने झोले को पास में रखकर चाय-मिष्ठान्न की दुकान की सड़क के पास की बेंच पर बैठ गया। उसके पीछे चीता-साइज़ के दो बड़े चूल्हों में, मनुष्य भी भूना जा सके, ऐसे दो बड़े कढ़ाहों में नमकीन भूनकर पास की झल्ली में डाली जा रही है। वह डलिया इतनी बड़ी है कि यदि उसे उल्टा कर रख दिया जाए तो उसके भीतर एक व्यक्ति अपने हाथ-पैर सिकोड़कर बड़े आराम-से बैठ सकता है। वह डलिया एक बड़े साइज़ के ढब पर रखी हुई है, जिसमें नमकीन का तेल निचुड़कर गिरता रहता है। भुनी हुई नमकीन की महक उसकी नाक में आकर लग रही है। उसके पीछे एक चूल्हे के सामने लम्बी टेबिल पर एक चैदह वर्ष का लड़का नंगे बदन चाय बनाता जा रहा है। प्रियनाथ उसकी तरफ़ इशारा कर कहता है, ‘दादा, दो नमकीन, एक चाय।’
अगले दिन से प्रियनाथ अपने पैसे से चाय-नमकीन नहीं खाएगा। आगामी कल से क्यों, आज ही थोड़ी देर बाद बाज़ार में ढोल पीटकर मुनादी करने के बाद उसे अपने पैसे से चाय, नमकीन, सिगरेट नहीं पीनी पड़ेगी। शायद यह दुकानदार ही उसे बुला-बुलाकर खिलाएगा। आजकल तो घोष लोग ही अध्ािक ज़मीन खरीदते हैं। इस समय जाकर अगर यह साइनबोर्ड दिखाऊँ तो यह नमकीन और चाय बिना पैसे की हो सकती है। किन्तु वह ऐसा करने जाएगा क्यों? वह तो सरकारी कर्मचारी है। सेटलमेंट विभाग का चपरासी है। उसे दो-तीन दुकानदार पटाएँगे, दो-तीन लोग उसके पीछे-पीछे घूमेंगे, तब वह किसी एक व्यक्ति से चाय अगर पीना चाहे तो पी सकता है।
कल से यहाँ हलका कैम्प लग जाएगा। यह खबर यहाँ के सभी लोग जानते हैं।
फ़ाॅर्म ‘ए’ यहाँ पहले ही बाँटा जा चुका है। ध्ाारा पूछ का नोटिस भी जारी किया जा चुका है। अपनी-अपनी मालगुजारी की रसीद अगर हो तो उसे लेकर उल्लिखित मौजे में आकर उपस्थित हों। खानापूर्ति करने के लिए नोटिस भी दिया जा चुका है। आज के बाज़ार में थोड़ी डिमडिमी पीटनी होगी। इसी वजह से प्रियनाथ थोड़ा पहले चला आया है। साहब ने उससे कहा था, ‘हमारे साथ जीप में ही चलिए, हम लोग थोड़ा पहले निकलेंगे।’ किन्तु, साहब के साथ प्रियनाथ यदि जीप पर आता तो उसे बस से आने का यात्रा-भत्ता नहीं मिलता। साइनबोर्ड लाया है इसलिए उसे एक रुपया रिक्शा भाड़ा मिलना चाहिए। वह भी उसे नहीं मिलता। और बाज़ार में डिमडिमी पीटने के कारण तीन रुपया - कुल मिलाकर पाँच रुपये का उसको नुकसान हो जाता। सुतराम इस सड़क पर बस से उतरकर पैदल आया, साहब लोग उसी सड़क से सीध्ो जाकर बाँये घूमकर माल गोदाम होकर जाने के रास्ते पर बाँये घूमकर कुल मिलाकर बीस मील के चक्कर से यहाँ आएँगे।
नमकीन के तेल से उसका हाथ और अँगुलियाँ भीग गयीं। प्रियनाथ ने अपने सिर में उन्हें पौंछ लिया। उसके बाद उसने दोनों हाथ रगड़ लिये। वह एकदम रास्ते के पास ही बैठा हुआ है, वही लोग इस जगह बैठते हैं या खड़े रहते हैं। जो चाय पीकर ही चले जाते हैं, बहुत हुआ तो नमकीन खाते हैं, इससे हटकर बीच वाली पंक्ति में जो बैठते हैं, वे चाय पीते हैं, नमकीन खाते हैं, जलेबी भी खाते हैं। उन्हीं के सामने खुली चैकी पर जलेबी का पहाड़ लगा रहता है और पास ही बड़े-बड़े टीन के बर्तन में चना चुरमुरा। और जो लोग बड़ी-बड़ी मिठाई खा रहे हैं, दूसरों को खिला रहे हैं - वे सब लोग बैठे हुए हैं, दुकान के एकदम भीतर, पाँत-दर-पाँत टेबिल कुर्सी पर जो जितना भीतर घुस सकता है, उतने भीतर। भारत की इन्हीं सब जगहों पर हाट में बड़ी-बड़ी खरीद-बेच सम्पन्न हो जाती है। सिर्फ़ बाज़ार की चीज़ों की खरीद-बेच नहीं, अगले वर्ष कौन ज़मीन, कौन बेचेगा, कौन खरीदेगा, वह सब बातचीत यहीं से शुरू हो जाती है। कल से तो कैम्प है। कल से ही तो लोग प्रियनाथ को लेकर जितना सम्भव है दुकान के भीतर ले जाना चाहेंगे। लाँघकर अगर हो सका तो उस तरफ़ की दीवाल लाँघकर और भी भीतर ले जाना चाहेंगे। कल से? अपना नेग और साइनबोर्ड हाथ में उठाकर और एक बार दुकान की ओर देखकर वह सोचता है, यह डिमडिमी हो जाने के बाद ही तो शुरू हो जायेगा, ‘दादा’ ‘दादा’। ना, आज नहीं। आज, घोषणा हो जाने के बाद यहाँ पर आकर, यहीं बैठकर सभी के सामने वह फिर दोठों नमकीन, एक कप चाय पीकर उठ जाएगा। हाट के लोग देख लें, सेटेलमेंट का पियोन अपने पैसे से चाय-नमकीन खाता है, खा सकता है।
इस बार प्रियनाथ झोला कन्धे पर और साइनबोर्ड हाथ में लटका लेता है। उसके बाद रास्ते के ओने-कोने पार करता हुआ हाट में घुसते समय रास्ते से एक छोटी लकड़ी उठा लेता है।
इध्ार छावनी के सामान वालों की दुकानें हैं। कोई-कोई छावनी मामिनी की है, एक छावनी टीन की चादर की है और अध्ािकांश प्लास्टिक की चादरों की हैं। इसी तरफ़ से अपना माल पत्र बाँध्ो हुए ले आ रहे हैं। इसी को सिर पर भी टाँगे हुए हैं। इनकी अध्ािकांश दुकानों में कुर्ता-कपड़ा और बनयाइनें, प्लास्टिक के दोनें भरे हुए हैं, फिर कागज़ के डिब्बे भी हैं। ठीक इसके पीछे खुला हुआ बाज़ार है। उसी खुले हुए बाज़ार के प्रारम्भ में खड़े होकर प्रियनाथ डण्डी से टीन के साइनबोर्ड को सामने कर पीटने लगता है। कैसी तो एक ढप-ढप की आवाज़ होती है। इसीलिए प्रियनाथ उसे पुनः पीटने लगता है। इस बार सामने और बगल के दुकानदार आँख उठाकर उसकी ओर देखते हैं। आगामी कल से क्रान्तिहाट की हाट खुलते ही सेटेलमेंट का हलका कैम्प शुरू होगा। अपने दस्तावेज़ वगैरह लेकर सभी लोग मौजे के अनुसार यथासमय हाजि़र होंगे। ‘होंगे’ इस शब्द को काफ़ी देर खींचकर, वह अपना कथन समाप्त करता है। फिर से चलने लगता है। दो कदम चलने के बाद उसे याद आता है ‘आॅपरेशन वर्गा’ की बात तो बतायी ही नहीं गयी है। अर्थात् भूमि के नये बन्दोबस्त की बात अगले स्थान पर वह इसे बताएगा। किन्तु किसी भी तरह वह बात उसके मन में रहना नहीं चाहती है। हलका का मतलब है जोतदारों का मामला। कौन अपनी ज़मीन में बँटवारा कर अपनी लिस्टी (सूची में दर्ज) सेटेलमेंट का काश्तकार बनेगा। प्रियनाथ ने जलपाईगुडि़ शहर से सात मील दक्षिण में पाँचेक बीघा ज़मीन खरीद कर एक वर्ष के लिए उसे अध्ाबटाई पर दे देता है। घर में छह महीने के लिए ध्ाान आ जाता है वहाँ से। इसकी अध्ाबटाई पर खेती लेने वाला भी क्या अपना नाम रिकाॅर्ड कराएगा?
कपड़ों की कई दुकानों की पाँत के बीच से होकर प्रियनाथ सीध्ाा पश्चिम की तरफ़ जा रहा था। बीच में चैपाटी के बाद दाहिने-बाँये एक मशाले की दुकान है, उध्ार से एक नाटा व्यक्ति घोड़े पर चढ़ा आ रहा था। घोड़े पर बैठने के बाद भी उस व्यक्ति का सिर बाज़ार की दुकानों के छप्पर तक नहीं पहुँच पा रहा था। शायद फ़ाॅरेस्ट के भीतर अथवा चर के खूब भीतर कहीं रहता है। घोड़े के अलावा वहाँ से आने-जाने का और कोई उपाय नहीं है। प्रियनाथ ने थोड़ा हटकर घोड़े के जाने वाले रास्ते को छोड़ दिया। पर हटकर खड़े हो जाने के बाद ही पास से घोड़े का चेहरा देखकर प्रियनाथ के आत्मसम्मान को ध्ाक्का लगा। उसे लगा कि घोड़े को चाहिए था कि उसके लिए रास्ता छोड़ दे, नहीं तो इसके बाद तो उसे हर जानवर के लिए रास्ता छोड़कर खड़े होना पड़ेगा। सुतराम घोड़ा उसे पूरी तरह छोड़कर चला जाए इसके पहले ही प्रियनाथ अपने ‘हलका कैम्प’ साइनबोर्ड से घोड़े को पीछे से एक ध्ाक्का मारकर रास्ते पर उतर आता है। उस ध्ाक्के से घोड़े की मकर से लेकर पिछाड़ी तक हिल जाती है और पीछे का दाहिना पैर जो प्रियनाथ की तरफ़ था, घुटने से मुड़कर टेढ़ा हो जाता है, मानो वैशाख मास की आँध्ाी में बाज़ार का कोई छप्पर गिर गया हो। प्रियनाथ एक ही उछाल में रास्ते के किनारे हट जाता है। पीछे से घोड़ा लुढ़कता-पुड़कता टेढ़ा-मेढ़ा होकर उसी पर गिर पड़ता है। और तब घोड़ा उसे छोड़कर बायें तरफ़ की दुकान के सामने खड़ा हो जाता है। छतेरे की कहते-कहते प्रियनाथ रास्ते पर आते-आते देखता है, घुड़सवार एक लाठी के छोर पर बँध्ो झोले को आगे बढ़ा देता है। ‘घोड़े से बिना उतर ही बाज़ार करना’ इसी को कहते हैं।
मसाले की दुकानों के अन्त में दाँये-बायें बाज़ार फैला हुआ है। वहाँ पर खड़े होकर प्रियनाथ पुनः लकड़ी से अपने साइनबोर्ड को पीटता है। आवाज़ इतनी ढप-ढप हो रही थी कि प्रियनाथ को एक बार साइनबोर्ड को ऊपर उठाकर टीन की चद्दर की परीक्षा करनी पड़ती है। मानो अपनी कीर्ति की ओर ताककर देखता है। हाट में डिमडिमी पीटने का काम हलका के साइनबोर्ड को पीट-पीट सम्पन्न करने के दौरान वह टीन को एक तरह से फाड़ ही डालता है। कहीं टीन और भी फट न जाए, इस भय से डण्डिया उसमें ज़ोर-से नहीं मारता है। एकबार दायें-बायें देखकर, टीन पर हल्के-से लकड़ी मारता है, मुँह की तरफ़ हाथ उठाकर ज़ोर-से चिल्लाता है, कल से क्रान्ति बाज़ार में सेटेलमेंट का हलका कैम्प लगेगा, आप लोग सामूहिक रूप से दल-के-दल आकर उसमें योगदान करें।
प्रियनाथ की एकाएक ऊँची आवाज़ सुनकर पान और सुखी तमाखू के दुकानदार मुँह उठाकर उसकी ओर देखते हैं। बाज़ार में तो प्रायः अनेक तरह के व्यक्ति आते ही हैं। पुरानी हाट है इसलिए इसमें भिखारियों, पागलों को भी पहचान लिया जाता है। दुकानदार कहीं उसे नया भिखारी या पागल न समझ लें, इस भय से प्रियनाथ अपने साइनबोर्ड के लिखे हुए हिस्से को घूमाकर दिखा देता है। उसके कन्धे पर झोला और सामने साइनबोर्ड है। लोगों को इससे और सन्देह होने की सम्भावना है। इसलिए प्रियनाथ को निश्चिन्त होने के लिए साइनबोर्ड को पुनः देखना पड़ता है। नहीं, उस पर सरकारी निशान बना हुआ है, सत्यमेव जयते, पुछ जाने पर भी उसे देखा जा सकता है। ‘सत्यमेव जयते’ लेकर तो कोई पागलपन करता नहीं है।
चार
ढोल के बदले माइक
प्रियनाथ ने तो अब यह डिमडिमी पीटना बन्द किया है, वापस जाकर उसे आॅफि़स का घर-द्वार ठीक है या नहीं, यह देखकर इस साइनबोर्ड को टाँगा भी जा सकता है। अपने इस नये अफसर को वह अभी तक ठीक-ठीक समझ नहीं पाया है। एकदम नया अफसर आया है। विशेष रूप से ‘आॅपरेशन वर्गा’ (खेतों का बन्दोबस्त कराने के लिए) के लिए सरकार ने नया अफसर भेजा है। सी.पी.एम. नहीं नक्सल। पहले चूँकि नक्सली था, अब अफसर हो गया है। जोतदार को देखते ही नाराज़ हो पड़ता है। जोतदार अपनी खेती को रिकाॅर्ड कराना चाहता है। यह देखकर वह सबसे पहले उसका हाथ देखता है। हाथ में कितनी ठेकें पड़ी हैं, यह गिनता है। यहाँ के कैम्प में वह स्वयं ही उपस्थित रहेगा। कई लोगों ने उससे अपने घर में रुकने के लिए कहा है, चाय-बागान के मालिकों ने अपने बंगलों में रुकने के लिए कहा है। यहाँ की प्रथा भी यही है। किन्तु, साहब ने किसी की भी बात नहीं सुनी। यहाँ पर आते ही अगर उसे पता चले कि डुग-डुगी पीटी ही नहीं गयी हैं, तो वह पकड़ा जाएगा। किसी भी हाट में प्रियनाथ ने और किसी को डुग-डुगी पीटने के लिए नहीं बुलाया है। कोई-न-कोई व्यवस्था करना ज़रूरी है।
और अब देरी करने का कोई काम नहीं है। प्रियनाथ एक बार अन्दाज़ से प्रयास कर सोचता है कि पसरट अथवा लाख आदि की दुकानों की तरफ़ कहीं हो सकता है। मीठे की दुकान के पास की बड़ी दुकान के बाहर टीन का बण्टल जैसे उसने देखा था। वहाँ से अगर एक टीन माँगकर लायी जाए तो वह जल्दी-जल्दी पूरे बाज़ार में एकबार डिमडिमी पीटकर आ सकता है। प्रियनाथ उसी दुकान पर जाने के लिए पीछे मुड़ गया। पर हाट से निकलने के प्रवेशद्वार पर ही देखता है कि बाँयी ओर बड़े ऊँचे स्थान पर मदोन्मत्त लोगों के दल में से एक व्यक्ति ढोल बजा रहा है, और स्त्रियों का एक दल एक-दूसरे की कमर हाथ से घरकर नाच रहा है। वहाँ पर खड़े-खड़े प्रियनाथ थोड़ा सोचने लगता है कि इस साइनबोर्ड को दिखाकर उनकी ढोलक माँगी जा सकती है या नहीं। अगर हाँ, तो फिर ढोलक बजाने वाले लड़के से ही डिमडिमी पीटने के लिए कहना पड़ेगा। उसका अर्थ होगा कि पैसा मेरे हाथ से निकल जाएगा और अगर उनसे यह कहा जाए कि मैं सेटेलमेंट का चपरासी हूँ, अपनी ढोलक दे दो, ढिंढोरा पीटने के बाद लौटा दूँगा? वे लोग निश्चय ही चाय-बागान में काम करते हैं। सुतराम सेटलमेंट के चपरासी की अध्ािक परवाह भी नहीं करेंगे। किन्तु इससे भी बड़ी बात यह है कि उन्हें यह समझाना होगा, ‘तुम अपनी ढोलक दे दो, डिमडिमी मैं पीटूँगा। ढोलवाला नहीं, उसका ढोल चाहिए। किन्तु इस तरह की एक मुश्किल बात समझाने के लिए उसे काफी हिन्दी बोलनी पड़ेगी। और इतने में मदेशी या स्त्रियाँ एक साथ ही हँस पड़ीं। प्रियनाथ पसरट की दुकान की खोज में निकल पड़ा।
इस समय जैसे इस सड़क पर भी बाज़ार फैल चुका है। एक बार झाँककर उसने देख लिया कि उसकी जीप आयी या नहीं आयी। उसके बाद वह उसी मारवाड़ी की दुकान की ओर चल दिया। उसने देखा, उसका अन्दाज़ सही नहीं है बाहर की तरफ़ कैरोसिन तेल की बेरेल हैं। दुकानदार कैरोसिन का थोक डीलर है, शर्मा की दुकान है।
‘अच्छा, यहाँ पर पसरट की दुकान किस तरफ़ है?’
‘इसी रास्ते से आगे मुड़ जाना, दाहिनी तरफ।’
प्रियनाथ उसी रास्ते पर दाहिनी ओर मुड़ गया। पसरट की दुकान। अनेक टीन हैं। चैन की साँस लेकर प्रियनाथ जैसे बच गया हो।
‘दादा, एक टीन देंगे?’
‘किसका? डालडा का या बिस्कुट का?’
‘एक से ही काम चल जाएगा।’
‘फुल साइज़ सात रुपया, हाफ साइज़ चार रुपया।’
‘ऐं? नहीं, अर्थात् मैं वापस कर जाऊँगा।’
‘वापस दे जाएँगे? पर करेंगे क्या?’
‘कल से तो यहाँ बन्दोबस्त का कैम्प लगेगा...’
‘कैसा कैम्प?’
‘सेटलमेंट का...’
बात पूरी हो इसके पहले ही उस व्यक्ति ने कहा दिया, ‘उन सब चीज़ों की मुझे कोई ज़रूरत नहीं है। आगे भी नहीं होगी।’
प्रियनाथ इस पर थोड़ा हक्का-बक्का रह जाता है। वहाँ से हटकर खड़ा रहता है। यह व्यक्ति इतनी बड़ी दुकान चला रहा है बाज़ार में किन्तु इसने यहाँ ज़मीन-जायदाद नहीं खरीदी है? अथवा यह व्यक्ति मालिक नहीं है, कर्मचारी है? प्रियनाथ के मन में एक बार विचार आया कि पूछ ले, आपका मालिक कौन है? फिर वह पीछे मुड़कर ताकने लगता है। किन्तु साहस नहीं कर पाता है, फिर थोड़ी देर खड़े रहकर विवश होकर उसे यह निर्णय करना पड़ा कि साहब से कह देगा कि डिमडिमी पीटी जा चुकी है। उसके बाद अगर साहब को सन्देह होता है तो देखा जाएगा। इस समय तो साइनबोर्ड टाँगकर कमरे को ठीक-ठाक कर लेना ज़रूरी है। इस हाट कमेटी के हाथ में चूँकि किसी को-आॅपरेटिव के तीन कमरे थे, उसी के भीतर दो कमरे कैम्प के लिए मिल गये हैं। प्रियनाथ अब उसी घर को ढूँढ़ने निकल पड़ा। चलते-चलते उसे लगा कि वह अब तक व्यर्थ में ही डर रहा था। साहब को क्या और कोई काम नहीं है जो वे आते ही लोगों से पूछने लगेंगे कि क्या डिमडिमी पिटी है या नहीं? वह तो उस पर भी दो जगह खड़े होकर साइनबोर्ड पीटकर आवाज़ लगा चुका है। मिष्ठान्न की दुकान पर पूछना अच्छा रहेगा कि हाट कमेटी का घर कहाँ है, यही सोचकर वह दुकान के भीतर घुस जाता है। और तभी वह माइक पर ध्ाीर-गम्भीर शान्त सुर में सुनने लगता है, ‘भाग्य का पहिया तो सदा घूमता ही रहता है। आज जो राजा है, कल वह फकीर बन जाता है। हम लोग भाग्य के हाथ की कठपुतली हैं। पर भाग्य तो सदा खराब ही नहीं बना रहता अच्छा भी होता है। पुरुष का भाग्य देवता भी नहीं जानते स्त्रियों का भाग्य भी देवता नहीं जानते किन्तु बिना कुछ किये आपको भाग्य का फल नहीं मिलेगा। कर्म तो आपको करना ही होगा। पाँच रुपया नहीं, दस रुपया नहीं, मात्र एक रुपया में लाॅटरी का टिकिट खरीद लीजिए। हर सप्ताह लाॅटरी का खेल एक बार ज़रूर खेलिए। क्या पता, इस बार आपके टिकिट पर ही एक लाख रुपये का फ़स्र्ट प्राइज़ निकल आये। एक रुपये से एक लाख रुपया। लेकिन एक रुपया देकर एक टिकिट तो आपको लेना ही होगा। आप किसी दूसरे के टिकिट पर तो पुरस्कार पा नहीं सकते हैं। आइए। एक रुपया देकर एक टिकिट कटाइए।’
दुकानदार ने उसे बता दिया था, बाज़ार के एकदम पीछे की तरफ़ हाट कमेटी का शेड है। उस तरफ़ जाने के पहले प्रियनाथ लाॅटरी टिकिट के रिक्शा की तरफ़ चला जाता है।
‘आइए दादा, कितने टिकिट?’
‘नहीं, दादा सुनिये, टिकिट नहीं लेना है, एक दूसरा काम है।’
‘क्या काम है दादा, बताइए। बात भी बताइए और टिकिट भी खरीद लीजिए। सिर्फ़ एक रुपये में...’
वह लड़का अपनी सारी बातें माइक से ही कहता जा रहा था। किन्तु, प्रियनाथ की आवाज़ माइक पर नहीं सुनी जा रही थी। फलस्वरूप, प्रियनाथ को किस तरह से अप्रस्तुत होना पड़ रहा था। उसने जल्दी-जल्दी कहा- ‘मतलब यह है कि कल तो यहाँ हलका कैम्प लगेगा?’
‘कैसा कैम्प?’
‘हलका कैम्प (भूमि बन्दोबस्त का कैम्प)। सेटेलमेंट का कैम्प। यही ज़मीन आदि की नापतौल होगी। कौन ज़मीन किसकी है, यही सब। इसके अलावा किस ज़मीन पर कौन खेती कर रहा है, यही सब रिकाॅर्ड देखा जाएगा। यही बात अगर माइक से कह दी जाए तो सब इसे सुन लेंगे। सभी को इसका पता चल जाएगा।’
‘अर्थात् क्या कोई कल्चरल फंक्शन होगा?’
‘क्या फंक्शन?’
‘हाँ, यानि कोई आर्टिस्ट आ रहा है?’
‘अरे, नहीं, नहीं। यह तो सरकारी काम है, कानूनी मामला है, कोई फंक्शन नहीं है।
‘तो फिर सभी को यह बात बताने के लिए क्यों कह रहे हैं?’
‘हाँ, बताया तो, ज़मीन की नापतौल होगी, रिकाॅर्ड होगी, ज़मीन के बन्दोबस्त का अभियान, आॅपरेशन वर्गा।’
‘यह तो पार्टी का मामला है सर, हम लोग किसी पार्टी-फार्टी में नहीं हैं दादा। एक टिकिट की कीमत मात्र एक रुपया है। इसके बदले में आप एक लाख रुपया पा सकते हैं। वह लड़का एक-सी आवाज़ में यह घोषणा करता जा रहा है। उसके बाद एकाएक रुककर प्रियनाथ की ओर ताक कर कहने लगा- फंक्शन चाहे न हो, किन्तु लोग तो उसमें आएँगे?’
‘हाँ, वे तो उसमें आएँगे ही। सभी लोगों को पता चल जाए इसीलिए तो थोड़ा अलाउंस करने को कह रहा हूँ।’
‘वह मैं किये दे रहा हूँ। पर कल मुझे थोड़ा चांस देना होगा। मैं टिकिटों को बेचूँगा।’
‘ज़रूर, ज़रूर, वह तो आप लोग कल बड़े सवेरे ही आ सकते हैं।’
‘तो फिर बताइए, कैसा कैम्प है?’
‘हलका का, अर्थात् इलाका का!’
‘हलका? यह क्या दादा कोई नाम है। इसका एक अँग्रेज़ी नाम बता सकते हैं?’
‘किसका?’
‘इस फंक्शन का।’
‘उसे हम लोग कैसे बता सकते हैं? यह तो गवर्नमेंट का नाम है। इसे तो लोग हरदम हलका कैम्प ही कहते हैं।’
‘ओह, अच्छा, मैं सोच रहा था यह कोई नयी चीज़ है। गवर्नमेंट की भी तो देखो कितनी नयी चीज़ें हैं तो फिर बताइए मुझे क्या बोलना होगा? ‘भाइयो और बहनो, तगदीर एक चीज़ है और तगदीर का खेल और एक चीज़ है।...’ लड़के ने हिन्दी में टिकिट बेचने शुरू कर दिये। प्रियनाथ थोड़ी प्रतीक्षा में बना रहता है। उसके रुकने पर कहता है, ‘तुम्हें यह कहना होगा, कल से यहाँ पर क्रान्ति हाट में सेटलमेंट का हलका कैम्प लगेगा। आध्ािकारिक रूप से कौन ज़मीन किसकी है, इसे दर्ज भी किया जाएगा। सभी अपने-अपने दस्तावेज़ वगैरह लेकर उपस्थित रहें। ‘धत् दादा, यह सब तो पुलिस जैसा सुनाई देगा। सभी सोचेंगे हम लोग सरकारी आदमी हैं। फिर कोई टिकिट खरीदने आएगा ही नहीं।’
‘नहीं, नहीं। यही कहना होगा, ऐसा नहीं है। उसे थोड़ा घुमा-फिराकर कहने से भी काम चल जाएगा। यह जो है, इसे थोड़ा देख लीजिए।’ हाथ में कोई एक नोटिस अथवा इश्तहार था। उसी को आगे बढ़ा देता है। लड़का दो-चार लाइन पढ़ते ही उसे उलटकर उसकी खाली पीठ देखता है। उसके बाद फिर छपे हुए अंश को देखता है। फिर उसे उलट लेता है। ‘यह क्या दादा, मैं क्या, इसे तो मेरे मामा भी नहीं समझ पाएँगे।’ प्रियनाथ जल्दी-जल्दी उससे कहता है, ‘यही सब मिला-मिलूकर थोड़ा कह दीजिए, दादा, मेरा बड़ा भला होगा।’ वह लड़का थोड़ा रुककर ज़रा सोचने लगता है। उसके बाद कहता है, ‘अच्छा सुनिए, मैं कह रहा हूँ, देखिए, इससे आपका काम चल जाएगा या नहीं।’ उसके बाद उसी लहज़े में कहता चला जाता है- ‘जीवन में सदा कितना कुछ घटता रहता है। सब ही तो नया रहता है। अभी-अभी हमारे एक नये दादा ने हमें एक नयी चीज़ सिखायी है, हलका, हलका (इलाके का कैम्प) कैम्प। कल सवेरे से ही चूँकि इसी क्रान्ति हाट में यह हलका कैम्प लगेगा। आप सब लोग निश्चय ही उस हलका कैम्प में आएँगे। उसमें घूमेंगे। इसके पहले हम लोगों ने कभी हलका कैम्प का नाम नहीं सुना है। वैसे ही कल खेल के अन्त में जब आपके दरवाजे़ टेलीग्राफ का चपरासी आकर कहेगा, आपने पश्चिम बंग लाॅटरी का पहला पुरस्कार पाया है, तब आप भी कहेंगे कि लाॅटरी की प्राइज़ किसी को भी मिल सकता है, यह मैंने पहली बार जाना। इसीलिए तो कहा था कि जीवन में सदा ही तो कुछ-न-कुछ नया घटित होता रहता है। कल लगने वाला हलका कैम्प नया है। उसी तरह आपके लिए फस्र्ट प्राइज़ नया है। किन्तु एकठौ, एक टिकिट तो आपको खरीदना ही होगा। क्यों दादा, ऐसा प्रचार चल जाएगा?’
‘हाँ, हाँ, यह तुमने बहुत अच्छा कहा है। किन्तु हलका कैम्प नया मामला नहीं है। यह तो...’
‘अच्छा, अच्छा, इसे मैं सम्हाल लूँगा। ठीक कर दूँगा।’
‘और इसे नहीं कहेंगे?’
‘चूँकि। माने? क्यों नहीं कहेगा?’ अब ऐसा लगने लगा माइक पर कोई नाटक हो रहा है। अथवा कोई झगड़ा भी हो सकता है। दो-एक लोग सिर घुमाकर ताकने लगते हैं। एक व्यक्ति तो आगे चला भी आता है। ‘आइए दादा, मात्र एक रुपया के विनिमय में एक लाख रुपया।’ किन्तु, वह व्यक्ति टिकिट न खरीदकर मुँह बाये खड़ा रहता है। प्रियनाथ ने देखा कि वह लड़का अब प्रियनाथ की ओर देख भी नहीं रहा है। ‘आइए, आइए पश्चिम बंग लाॅटरी’- बीच में ही प्रियनाथ कह बैठता है, और यह नहीं कहा कि हलका कैम्प लगेगा, वहाँ यह कहना है कि हलका कैम्प तो लगेगा ही? किन्तु, उस लड़के ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। प्रियनाथ को डर लगा कि कहीं यह लड़का यह न कह बैठे कि अब मैं माइक से कुछ भी नहीं कहूँगा। इसलिए प्रियनाथ जल्दी-जल्दी, ‘ठीक है, ठीक है’ यह कहते हुए वहाँ से आगे बढ़ गया। पीछे से लड़का भी कहने लगता है, ‘मैं तो घोषणा किये दे रहा हूँ। किन्तु, हमारा रिक्शा जब कल आपके कैम्प में आएगा तब पुलिस तो कोई झमेला नहीं करेगी?’
‘अरे न, न, आप तो मेरे पास चले आएँगे। मैं तो वहाँ रहूँगा ही। प्रियनाथ बाज़ार कमेटी के आॅफिस की ओर चलना शुरू कर देता है। पीछे से वह माइक पर सुनने लगता है, ‘जीव का अर्थ तो है कमल पत्र पर जल बिन्दु, किन्तु जो होने वाला है, वह तो होगा ही...’
कैम्प के माने कल यहाँ कुछ भी नहीं, के.वी. (खानापूर्ति करने के लिए, खेतों का मसौदा, फील्ड सर्वे) का काम तो खेतों में होता है, रहने दो, आने दो।
थोड़ा आगे जाकर प्रियनाथ रुक जाता है, लड़का सचमुच में घोषणा करता है या नहीं। अगर नहीं कहता है तब करने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं है। और अगर कहता है तब भी उसके पास करने के लिए कुछ भी नहीं है। कैम्प में लोगों के जमा होने पर लाॅटरी का रिक्शा क्यों नहीं आएगा। वह तो अपने आप ही आएगा। उसके बारे में प्रियनाथ को कुछ नहीं करना है। लाॅटरी वाला लड़का एक बार भी घोषणा करता है या नहीं, यह जानने के बाद ही वह आॅफिस का कमरा ढूँढ़ने जाएगा।
‘कितने दादा?’
‘तू बता न कितने टिकिट?’
‘तू बता’। माइक पर मदेशिया स्त्री का कोमल मध्ाुर स्वर था।
‘ले ले सुन। तू आँख बन्द कर। उसके बाद टिकिट पर हाथ रख दे। जो हाथ में आ जाए उसी को मैं खरीद लूँगा। लो, आँख बन्द कर।’ खिलखिल हँसी भी माइक पर बजती रहती है। चाय बागान के शराब में मस्त किसी मजदूर और मज़दूरिनी का यह काण्ड है। ‘यह देखो, लाॅटरी के टिकिट खरीदने में भी लाॅटरी हो रही है। आँख बन्द कर जितने टिकिट हाथ में आ जाएँगे, उतने ही ये लोग खरीद लेंगे?’ यह कहकर लाॅटरी वाला लड़का रुक जाता है। ‘अरे, आप लोग आइए, आँख बन्द कीजिए’- फिर माइक पर खिलखिलाहट की आवाज़।
पाँच
प्रियनाथ के साहब और हाट कमेटी
हाट कमेटी के घर के सामने जीप गाड़ी खड़ी हुई है, प्रियनाथ ने दूर से देखा। साहब आदि लोग आ गये हैं। उसने अपने चलने की गति बढ़ा दी। जल्दी-जल्दी चलने में सबसे बड़ी बाध्ाा उसके सेंडिल थे। इस हवाई सेंडिल की खोल में उसके पैर इस तरह से फँसे हुए हैं कि वह जिस तरह चलता है, उसके पंजे के बाहर सेंडिल का मुख वाला अंश उसके पैरों के पंजों के साथ फड़-फड़ करता हुआ लग सकता है, अगर उससे अध्ािक ज़ोर-से वह चलने लगे तो सेंडिल उसके पैरों में अटक जाता है। तब अँगुलियों के नीचे सोल का जो अंश होता है वह भी बाहर निकलना चाहता है, मानो सेंडिल उलट कर अँगुलियों के सामने चला जाएगा, अथवा बद्दी से उसकी तल्ली खुल जाएगी। बद्दी जिससे हल्ले से खुलकर बाहर न आ जाए, इससे उसे सेफ़्टीपिन से अटकाया ज़रूर गया है, किन्तु, सोल का वह अंश अगर टूट जाए तो सेफ़्टीपिन भी खुल सकता है। इसलिए अध्ािक जल्दी होने से सेंडिल खोलकर हाथ में लेना अच्छा है। किन्तु यह दूरी इतनी अध्ािक नहीं है कि सेंडिल खोलकर हाथ में लेने की ज़रूरत हो। उसने तो सबकुछ नियमानुसार किया है, इसलिए इतनी दौड़-भाग की ज़रूरत क्या है? किन्तु अपने सेंडिलों की वजह से प्रियनाथ ज़ोर-से नहीं चल पाता है। हालाँकि उसके कदमों में तेज़ी-से चलने की गति आ जाती है। दो तरफ़ के खिंचाव से प्रियनाथ के इस तरह से चलते समय उसकी कमर तो आगे आ जाती है और पैर पीछे रह जाते हैं। सेंडिल के साथ पैरों के दुतरफा़ खिंचाव से घुटनों में बराबर एक मोच-सी आती रहती है, मानो हर बार पैर बढ़ाते समय दोनों घुटने एक बार मरोड़ ज़रूर खाते हैं।
प्रियनाथ के साहब मैदान में एक कुर्सी पर बैठे हुए थे। उनके सामने कुछ दूरी पर एक जीप खड़ी हुई थी। प्रियनाथ पीछे से ही कह उठता है, ‘सर, आ गये हैं।’ साहब ने गर्दन घुमाकर प्रियनाथ को देखकर कहा, ‘अरे प्रियनाथ बाबू, आपने एकदम माइक-टाइक की कहाँ से जुगाड़ कर डाली?’
प्रियनाथ थोड़ा हँस पड़ा- ‘तो फिर सर आप लोगों को आए अध्ािक देर नहीं हुई है। तो सर कमरे वगैरह सब-’ कहते हुए वह बरामदे की ओर देखता है। बरामदे में उनके आॅफि़स के लोग तथा और भी दो-एक व्यक्ति हैं। बरामदे में चढ़ते-चढ़ते प्रियनाथ ने देखा कि कमरे-आँगन आदि सभी व्यवस्थित हैं। साफ़-सुथरे और ध्ाुले हुए हैं। जो भी सामान वगैरह था, एक कमरे के फर्श पर पड़ा हुआ है।
‘अरे ओ प्रियनाथदा आपको तो बहुत पहले इसलिए भेजा गया था कि आप यहाँ पर सारा इन्तज़ाम कर रखेंगे, पर यहाँ आकर देखते हैं प्रियनाथदा कि आपका कोई पता ही नहीं है। अन्त में हम लोगों को स्वयं ही सब इन्तज़ाम कर लेना पड़ा।’ अनाथ ने कहा।
‘पाँच मिनिट पहले भी देखकर गया था सर, आप लोग आए ही नहीं थे। इसी बीच में आप लोग खटाक-से आ गये।’ अनाथ की किसी बात का उत्तर न देकर प्रियनाथ ने साहब से कहा। तीनों कमरे एक-के-बाद एक प्रियनाथ देखकर लौट आता है, ‘यह तो सारा पक्का बन्दोबस्त किया जा चुका है।’
‘वह क्या? यह सब तुमने नहीं किया है? हम लोग सोच रहे थे, तुम्हीं ने यह सब व्यवस्था कर रखी है’- विनोद बाबू ने कहा।
‘तो फिर मुझे तो कल ही वहाँ से चल देना चाहिए था, बाबू। आज रवाना हुआ आप लोगों से पहले बस से, और पहुँचा मात्र एक घण्टा पहले।’
‘और फिर आपके ये सेंडिल’, इस बार पीछे से ज्योत्स्ना ने आकर कहा, ‘हम लोग तो सोच रहे थे, आपके न आने पर भी आपके सेंडिल ठीक से आ जाते।’
‘रुको, पहले इस साइनबोर्ड को ठीक से लगा लें।’ यह कहते हुए प्रियनाथ फिर से बरामदे से मैदान में उतर जाता है। ‘अच्छा अभी अपने साइनबोर्ड को रहने दो। इसे तो बाद में लगाया तो भी चल जाएगा। इस समय देखो तो रात का भोजन वगैरह तो बनाना होगा। कल के लिए जो कुछ खरीदना हो उसके लिए बाज़ार भी कर डालो। वहाँ से लौटकर और सब इन्तज़ाम कर लिया जाएगा।’ विनोद बाबू ने कहा।
‘जी हाँ, चलिए। मैं और प्रियनाथ बाबू बाज़ार का चक्कर लगा आएँ।’ यह कहते हुए साहब कुर्सी छोड़कर उठ खड़े हुए। जो भद्र तीन व्यक्ति अब तक पीछे खड़े हुए थे, उन्होंने आगे आकर कहा, ‘मेरे अनुरोध्ा को क्या आप थोड़ा स्वीकार नहीं करेंगे? यह तो सर हमारे यहाँ का रिवाज़ है। इसे तो बराबर हम लोग ही करते आए हैं।’
‘नहीं, नहीं, आप लोगों ने जितना किया है हमारे लिए उतना ही काफ़ी है। हम सब इतने लोग हैं, सारा इन्तज़ाम ठीक कर लेंगे। अगर कोई असुविध्ाा हुई तो आप लोगों को बता देंगे। आज तो बाज़ार का दिन है, आप लोगों को काम भी होगा।’
‘नहीं। वह सब तो हो गया है। किन्तु बात यह है हमारी इस क्रान्ति हाट में किसी बाहर की पार्टी ने, वह सरकारी भी हो सकती है, और मान लीजिए कोई प्राइवेट पाटी भी हो सकती है, किसी भी दिन ऐसा नहीं हुआ कि उसे स्वयं ही रसोई बनानी पड़ी हो। फिर यह तो हमारी प्रतिष्ठा या बदनामी का भी सवाल है।’
भद्रपुरुष प्रौढ़ राजवंशी हैं। वह जब बात कर रहा था, सुहास बड़े मन से उसे सुन रहा था। मानो सुहास उसे देख भी रहा था। यह एक अनुज्ज्वल दाल, बिस्कुट के रंग का कुर्ता, सुहास ने इन लोगों में बहुतों को ऐसा ही कुर्ता पहने हुए देखा है। ये कुर्ते क्या इस तरफ़ तैयार होते हैं या ये बहुत सस्ते हैं? सुहास उस भद्रलोक को अन्त तक सारी बात कह लेने देता है, उसका कारण क्या वह इसके बात कहने के लहज़े को देख रहा था। अपने यहाँ की, इस आँचलिक भाषा को वह किस तरह से भद्र लोगों की भाषा के साथ मिला रहा है। एक बार तो सुहास के मन में विचार आया कि आज रात के लिए इन्हीं लोगों का आतिथ्य मान लिया जाए और कल से अपना बन्दोबस्त करना ठीक रहेगा या नहीं। उससे अकारण तनाव भी नहीं होता। ये लोग भी खुश होंगे और आॅफि़स के लोग भी खुश होंगे। पैसा भी बच जाएगा। और यह शायद उसके लिए थोड़ा सीमा का अतिक्रमण करना भी होगा। सुहास कोई नीति-वागीश होने की वजह से इनके आमन्त्रण-निमन्त्रण का प्रत्याख्यान नहीं कर रहा है। उसे तो सरकार पैसा खाने-पीने के लिए भी देती है। वह रुपया खर्च कर लोगों के यहाँ खाया जाए। इतनी झँझट वह क्यों करेगा?
असल में, वह डर रहा है कि उनकी आतिथेयता स्वीकार कर ली जाए, इससे आगे चलकर कोई दबाव पैदा न हो जाए। वह अपने लिए इन्तज़ाम कर अन्य लोगों के भोजन के इन्तज़ाम के लिए इनसे कह सकता है। किन्तु इससे भी तो ये लोग जिस-जिस के घर में या जिसकी सहायता से खायेंगे, वे अपने लिए सुहास से कुछ सुविध्ाा ले सकते हैं।
अन्ततोगत्वा उसे यह कहना पड़ता है, देखिए, हम लोगों की भी तो एक प्रतिष्ठा और बदनामी होती है। हमारा काम-काज चलता रहे। हम लोग तो काफ़ी दिनों के लिए यहाँ हैं। सब काम अच्छी तरह निपटाने के बाद हम लोगों को एक दिन आप लोग अच्छी तरह खिला-पिला देना। फिर भी यह बात हमारे ऊपर निर्भर है। मैं कैम्प में ही खाऊँगा। आप इन लोगों से बात कर लीजिए। ये लोग जैसा कहते हैं, इनकी व्यवस्था उसी के अनुसर होगी। चलिए, प्रियनाथ बाबू, आइए ‘हाट घूम आए।’ सुहास पीछे मुड़कर बाज़ार की ओर रवाना हो गया।
पीछे से विनोद बाबू कहते हैं, ‘सर अनाथ भी आपके साथ न चला जाए, अकेला प्रियनाथ...’ इस बात का कोई उत्तर दिये बिना सुहास आगे बढ़ जाता है।
छह
प्रियनाथ के साहब और हाट का नाच
यह तो बहुत बड़ा बाज़ार है, है न?’ सुहास प्रियनाथ से पूछता है।
‘हाँ सर, इस तरफ़ की यह सबसे बड़ी हाट है।’
‘यहाँ किस-किस चीज़ की बिक्री होती है, माने फेरीवालों की फुटकर बिक्री या थोक माल की भी बिक्री होती है?’
‘मैं ठीक-ठीक तो नहीं बता सकूँगा सर, फिर भी जिस तरह से पहाड़ जैसी सूखी मिर्च और जूट का ढेर यहाँ आता है, इतना माल थोक विक्रेता के अलावा और कौन खरीदेगा?’ ‘सूखी मिर्च? सूखी मिर्च यहाँ कहाँ तैयार होती है, अर्थात् यहाँ सूखी मिर्च इतनी पैदा होती है,- अब तक सुना तो नहीं था?’
प्रियनाथ ने हाट का एक अन्दाज़ लगा लिया था। वह दुकान पट्टी का सदर रास्ता और इस हाट कमेटी के घर की लाइन, ये दोनों शायद पूरब-पश्चिम में हैं। अब वे लोग उत्तरी मैदान से होते हुए सड़क पर पहुँच जाएँगे, वहाँ से बाज़ार में घुसेंगे। मैदान से होकर थोड़ा आगे बढ़ने पर वे लोग समझ जाते हें कि मैदान में घास तो दिखाई नहीं दे रही है, और अँध्ोरा होता जा रहा है, फिर थोड़ा आगे बढ़ते ही दिखायी देता है कि मैदान में दो-एक कुप्पियाँ जलने लगी हैं। यहाँ पर हण्डियों की बिक्री हो रही है। सुतराम साहब को लेकर प्रियनाथ थोड़ा और उत्तर की ओर बढ़ जाता है। उन लोगों के घूमते ही ढोलक की आवाज़ सुनायी देती है। क्या यहाँ नाच हो रहा है? ये लोग कितनी देर नाचेंगे?
‘नाच रहे हैं, सर।’
‘ये कौन लोग हैं?’
‘यही चाय बागान के मज़दूर लोग हैं, बाज़ार के दिन इन्होंने भरपेट हडि़या की शराब पी है, अब ढोल बजाकर नाच रहे हैं।’
‘हाँ, यहाँ तो चाय-बागान तो बहुत हैं, आदिवासी भी बहुत हैं (आदिवासियों की संख्या)। सुहास बात का अन्त तो नहीं करता है, रुक जाता है। साहब और भी कुछ कह रहे हैं या नहीं, इसकी प्रतीक्षा करते हुए प्रियनाथ कहने लगता है, ‘हाँ सर।’
‘रुको, ज़रा देखते हैं।’ अब उनके सामने नाच था। वे लोग नाच के पीछे खड़े हैं। उनका मुँह हाट की तरफ़ है। नाच का मुँह भी हाट की तरफ़ है। जिस तरह से फि़ल्मों में, तस्वीरों में, सिनेमा में, बिलकुल हूबहू वैसा ही नाच, एक-दूसरे की कमर में हाथ डालकर एक-दूसरे को पकड़कर, आलिंगनबद्ध की तरह एक ही ताल पर दोनों पैर आगे बढ़ते हैं और एक पैर पीछे करते हैं और इसी आगे-पीछे के बीच में पूरा दल घूमता जा रहा है। इसी तरह से नाचते हुए वे लोग पूरी तरह घूमते हुए घूमते रहेंगे। और जो ढोलक बजा रहा है, वह इस आवेष्टन के दो सिरों के मध्य जो खाली जगह है, जैसा कि फ़ोटो में और सिनेमा में होता है, उसमें वैसे ही ढोलक बजाता जा रहा है। लोगों के सामने कुछ दूर पर बाज़ार की दुकानों की लाइन है, छप्पर वाले कमरे हैं। उनमें रोशनी हो रही है। छप्पर की छाया मानो वातावरण में पड़ रही है। अथवा वहाँ पर थोड़े-थोड़े कुछ वृक्ष भी तो हैं। यहाँ पर सिर पर खुला आकाश है। उसी अध्ाूरे वृत्त के आगे-पीछे होने के समय कभी-कभी आकाश का शेष आलोक आकर पड़ता है, कभी सामने के हाट की छाया से वह वृत्त प्रायः विलीन हो जाता है, नाच का आवर्तन दिखायी दे रहा है, किसी प्राकृतिक घटना की तरह। इतने पास से वे लोग देख रहे हैं, फिर भी ढोलक की आवाज़ ऐसी लग रहा है जैसे वह पहाड़, टीला और गहन जंगल के भीतर से आ रही है। ‘सर चलिए न, सामने से नाच देखेंगे, मैं कुर्सी लाये दे रहा हूँ।’ सुहास लगभग सिहरते हुए कहता है, ‘न, न, नहीं चाहिए, हम लोग हाट चलें...’
सुहास फिर से चलने लगता है। प्रियनाथ उसके पीछे है।

सात
प्रियनाथ के साहब और हाट का माइक
उस मीठे की दुकान में तीन-चार हंडे जल रहे थे। प्रियनाथ ने देखा लाॅटरी के रिक्शे पर भी मोमबत्ती का उजाला है, आइए एक रुपये के बदले एक लाख।’ सुहास थोड़ा आगे बढ़ गया है, यह देखकर प्रियनाथ दौड़कर लाॅटरी वाले के सामने जाकर कहता है, ‘इस समय थोड़ा डिमडिमी पीटकर कह दीजिए न दादा, हमारे साहब आ गये हैं।’ कहकर फिर वह वहाँ रुकता नहीं है। दौड़कर फिर सुहास के पीछे पहुँच जाता है। ‘आप लोगों की इस हाट में कितना ही कुछ घटता रहता है रोज़। जी हाँ, कितना कुछ? दो टिकिट चाहिए, ये लीजिए दादा। यही तो कल यहाँ हलका कैम्प लगेगा...’
प्रियनाथ सुहास को बुलाता है, ‘सर’।
‘कहिए क्या बात है?’
‘हमारे कैम्प का एलाउंस कर रहा है।’
‘उसी कैम्प में तो आप सब आएँगे। आप लोगों की ज़मीन पर विचार किया जाएगा। किन्तु, इस हाकिम की अपेक्षा और एक बड़ा हाकिम है। वहाँ पर विचार होता है हमारी तकदीर का, भाग्य का। क्या पता, आपके लिए क्या विचार किया गया है।
‘मात्र एक रुपया के विनिमय में आप लोग उस निर्णय को जान सकेंगे। क्या पता, आपको ही शायद एक लाख का प्राइज़ मिल जाए। किन्तु, अगर आप टिकिट नहीं खरीदते हैं तो आपको वह प्राइज़ नहीं मिलेगा।’
सुहास वहाँ खड़े-खड़े यह सब सुन रहा है। उसके बाद वह हँसने लगा। ‘यह आपने कैसे जुगाड़ कर ली?’
‘सर, देखा कि यहाँ कोई ढोल वाला नहीं है। यहाँ तक कि कोई टीन बजाने वाला भी नहीं मिला। इसीलिए बाध्य हो गया सर, वह राज़ी हो गया, पर उसने रेट थोड़ा हाई लिया।’
‘वह तो लेगा ही। माइक पर घोषणा करता है।’
‘वह दस रुपया माँग रहा था, मैंने कह-सुनकर उसे सात रुपया पर राज़ी कर लिया।’
‘वैसे भी यह कोई अध्ािक नहीं है।’
‘सर, मेरे पास तो इतना रुपया था नहीं। कहा था, आप लोग आएँगे तब दे देंगे।’
‘विनोद बाबू के पास से ले आए हो? तो फिर आइए।’
‘यही तो भूल गया था सर।’
सुहास ने अपना मनीबेग खोलकर दस रुपया का एक नोट निकाला और कहा- ‘इसी समय दे आइए। बाद में विनोदबाबू से लेकर मुझे दे देना।’
‘तो फिर आप थोड़ा रुकें सर, मैं अभी दे आता हूँ।’ सुहास खड़ा रहा। उसी के सामने प्रियनाथ रिक्शा वाले के उस तरफ़ जाकर खड़ा हो गया। ‘दादा, हमारे साहब बड़े खुश हुए हैं। ये दो रुपया रखिए, चाय और समोसा खा लेना।’
लाॅटरी वाला लड़का माइक के सामने ही नाराज़ हो पड़ा, ‘ध्ात्त, मोशाई, चाय-समोसा अगर खिलाना हो तो आप लाकर खिलाइए न। हमारे हाथ में रुपया क्यों रख रहे हैं?’ माइक पर इतनी ज़ोर-से बात होने से प्रियनाथ चैंक उठा। उसने गर्दन घुमाकर देखा, सुहास इसी ओर ताक रहा है।
‘अच्छा दादा, अच्छा, कुछ मन में नहीं रखेंगे, इस नोट को तोड़ दें।’
सामने की चाय की दुकान पर जाकर, दो रुपया देकर उसने कहा, ‘इस लाॅटरी के रिक्शा पर तीन चाय और समोसा भिजवा दीजिए। रुपया देकर, बीस पैसा वापस लेकर इस सबके भीतर प्रियनाथ ने सात रुपया अपनी पाॅकेट में रख लिये। ‘दादा जल्दी भिजवा देना’, यह कहकर सुहास के पास दौड़ लगाकर जाते समय उसके सेंडिल का मुँह मुड़ जाने से उसे थोड़ा चमेटा लग गया। अपने को सम्हाल कर, ध्ाीरे-ध्ाीरे चलकर कहने लगा- ‘सर, उसे चाय और समोसा खिलाने पड़े।’ एक रुपया बीस पैसा उसने सुहास को वापस कर दिये। सुहास बोला, ‘इन रुपयों का बिल मत बनवाना। मुझे सात रुपया लेकर वापस कर देना।’
‘आप, थोड़ा कह देंगे सर, वह मेरी बात पर विश्वास नहीं करेगा।’
‘न, न, करेगा। हम सभी ने तो बाज़ार में घुसते-घुसते माइक पर सुना था।’
‘सर, इस तरफ़’ प्रियनाथ सुहास को बाज़ार में घुसने का रास्ता दिखाता है।

आठ
हाट कितने तरह के
हाट का लगने, फिर जम जाने और भंग हो जाने की मानो एक बँध्ाी हुई गति अर्थात् एक नियम होता है। किन्तु, सभी हाट एक तरह के नहीं होते हैं। इस तरफ़ चेंगमारी की हाट अथवा बड़दीध्ाी की हाट सप्ताह में एक बार लगती है। मोटेरूप में घर-गृहस्थी की चीज़ें खरीदने-बेचने के लिए। गाँव के लोगों में से ही कोई-कोई दुकान लेकर आते हैं। बड़दीध्ाी की हाट में चा-बागान के मजूर लोग ही सबसे बड़े ग्राहक होते हैं। उनके खरीदने लायक चीज़ें आदि उस हाट में आती हैं। किन्तु वे सब हाटें लगती हैं शाम के समय। उसके बाद शाम के थोड़ी देर बाद ही उठना शुरू हो जाती है। उदलाबाड़ी-लाटागुड़ी हाट इस समय बहुत बड़ी हाट हैं। बस के सड़क के किनारे लगने के कारण जल्दी-जल्दी लगती हैं और देर में भंग होती हैं। नदी पर बाँध्ा बनने के कामकाज के कारण दोनों तरफ़ ही प्रायः पूरे वर्ष मिट्टी-खोदना, पत्थर काटना, इन सब कामों में लोग लगे रहते हैं। इसके अलावा फोरेस्ट के लोगों की भी संख्या कोई कम नहीं है। 68 ईस्वी की बाढ़ में जो सब फ़ोरेस्ट के वृक्ष और पौध्ो आदि टूट गये या पानी में बह गये हैं- उन सब फ़ोरेस्टों को इस समय सरकार पूरी तरह खाली किये दे रही है। हो सकता है वहाँ पर अब नयी तरह से वन तैयार किया जाएगा। अथवा इस समय उसे छोड़ रखेंगे। फलस्वरूप पूरे वर्ष ही प्रायः फ़ोरेस्ट के वृक्षों की कटान जारी रहती है। गत कई वर्षों से गाँव में बिजली के लिए शाल के खम्भों की भी बिक्री होती रहती है। उसके लिए भी तो पूरे वर्ष फ़ोरेस्ट का काम लगा रहता है। इसीलिए उदलावाड़ी और लाटागुड़ी की हाट काफ़ी बड़ी है। किन्तु वह भी असल में खरीदने-बेचने की हाट है। व्यापारियों की हाट नहीं है। दोपहर के समय लगती है, उसके बाद चलती रहती है। गत वर्ष लाटागुड़ी की हाट में टीन की छत डालकर साइकिल की दुकान लगायी है इच्छोडि़या ने, बाज़ार लगने के दिन बुध्ावार और शनिवार को खोलता है। उदलाबाड़ी में तो साइकिल-रेडियो की दुकान पहले से ही चली आयी है। किन्तु चाहे जितनी बड़ी क्यों न हो ये सब हाटें, ग्राहकों की बदौलत चलती हैं। ग्राहकों के हाथ में अगर रुपया है तो समझो हाट जम गयी। ग्राहकों के हाथ में अगर रुपया नहीं है तो समझ लो बाज़ार खाली। ये सब हाट-बाज़ार दुकान की तरह हैं। किन्तु, हाट कहने से तो यह क्रान्ति की हाट है, ध्ाूपगुड़ी की हाट चालसा की हाट समझनी चाहिए। इन सब हाटों में मानो ग्राहक नहीं हैं, दुकानदार भी नहीं हैं, सिर्फ़ हाट ही है। हाट हाट की तरह ही जमेगी और ग्राहक तथा दुकानदार लोग हाट के साथ अपनी सिर्फ़ संगति बिठा लेंगे। अपने को हाट के अनुसार ढाल लेंगे। हाट का भूगोल जिसे पता है, वह गलीकूचे से होकर उसमें घुस सकता है और उससे बाहर भी आ सकता है किन्तु जो उसके भूगोल को नहीं जानता है, वह किसी एक दिशा से घुस सकने के बाद भी, उससे निकलने के समय रास्ता नहीं खोज पाएगा। मानो रास्ता उसे निगलकर बाद में उगल देगा।
ये हाटें कब लगती हैं, इसकी किसी को भनक नहीं लगती है। हाट के वहाँ पर पक्का बाज़ार तो एक रहता ही है। वहाँ पर रोज़ का बाज़ार चलता रहता है। इसके अलावा भी पक्के कमरे, पक्की दुकानें, पक्की गोदामों में राशन, मिठाई की दुकानें, दवाइयों की दुकानें, सूखे मशालों की दुकानें-गोदाम, एफ़-सी-आई की गोदामें और दुकानें, को-आॅपरेटिव की भी तीन-चार और दो-एक किशोर और युवा संघ - ये सब भी तो रोज़ के ही हैं।
ध्ाूपगुड़ी हाट के थोड़ा दक्षिण में पंजाबी ड्राइवरों के लिए एक ढाबा भी खुल गया है। ओवरसिंह राय के घर के पश्चिम में पहले के तिंदवारी वाले घर की जगह अब लम्बा, खुला कमरा है। सामने कतारबद्ध खाटें बिछी हुई हैं। बहुत बड़े आकार का एक चूल्हा है। इस शेड के एक कोने में एक बकरा तथा मुर्गा बँध्ाा हुआ है। ध्ाूपगुड़ी होकर दाहिने मुड़कर आसाम चले जाते हैं, दूरपाल्ला के ट्रक। ओवारसिंह राय ने वह जगह भाड़े पर देकर सीध्ो बाँसों का बेड़ा लगाकर अपना घर अलग कर लिया है। उसके बाद घर के उत्तर में बरामदा बनवाकर घर का मुँह ही घुमा दिया है। क्रान्ति, चालसा, मेटेली में ढाबा ज़रूर नहीं है, फिर भी ढाबे के आकार की मीठे की दुकान है और ट्रक हैं। ये सब हाटें, हाटवार के दिन के अलावा भी खूब ध्ाूमध्ााम से लगती हैं।
इसीलिए हाट के दिन यह समझ में ही नहीं आता है कि कब हाट लगती है। आगे के दिन दोपहर से ही बाँसों की गाडि़याँ आना शुरू हो जाती हैं। ट्रक ज़रूर हरदम बाज़ार का दिन हो, इस पर विचार कर नहीं आते हैं। किन्तु बाज़ार के दिन के पहले गोदामों को तो भरना ही होगा। परिणाम यह होता है कि बाज़ार के दिन के एक दिन पहले के दिन किसी समय से शुरू कर बैलगाडि़यों के आने की किचिर-मिचिर की आवाज़ (चहकने की आवाज़) होती रहती है। प्रायः चैबीस घण्टे उठने वाली यह आवाज़ से ही ऐसा लगता है जैसे अगले दिन लगने वाली हाट पास आ गयी हो। और तभी से मनुष्यों की आवाज़ से ध्ाीरे-ध्ाीरे वातावरण भारी होने लगता है। वन में पानी बरस जाने के कारण भारी हवा जैसे हमारे गाल का स्पर्श करने लगती है, ये हाटें लगने के पहले से ही उसी तरह मनुष्य के कण्ठस्वरों से भारी हवा कानों से टकराती रहती है। यह आवाज़ ही हवाई जहाज की आवाज़ की तरह बढ़ती रहती है। शुरू में गुंजन, फिर ध्ाीरे-ध्ाीरे वही आवाज़ बढ़ते-बढ़ते विलीन हो जाती है और अन्त में फिर वही गूँज। किन्तु हवाई जहाज की तरह यह केवल कुछ मिनिट के लिए तो होती नहीं है, यह तो लगातार चैबीस घण्टे होती रहती है। फलस्वरूप, गुंजन जैसे ही शुरू होती है समझ में आने लगती है, अथवा समझने लायक गूँज हो उठती है। उसके बाद तो वह गूँज अविराम होती रहती है। और बढ़ती जाती है। कब वह उठना शुरू हो जाती है, इसका कोई चिह्न नहीं बताया जा सकता है, किन्तु किसी एक समय ऐसा लगने लगता है मानो पूरी दुनिया में हाट की यही आवाज़ उठ रही है, सिर के ऊपर जहाज की आवाज़ की तरह, अथवा वन के भीतर होने वाली मिल्ली झंकार की तरह। उसके ऊपर वह गूँज किसी एक समय कम होना शुरू होकर जाती है किन्तु, कम होने के उस समय को पकड़ा नहीं जा सकता है। ध्ाीरे-ध्ाीरे काफी समय में वह कम होती रहती है। सहसा जब खयाल आता है, तब देखने को यह मिलता है कि उसके पहले ही पूरा वातावरण शून्य हो गया है। जैसे रोज़ का चेहरा पुनः लौट आया हो। यह समझ में ही नहीं आता है इतनी बड़ी हाट कब इतनी सूनी हो गयी है।
प्रायः इन सब हाटों का प्लान एक जैसा ही होता है। सदर रास्ते के दोनों तरफ़ पंक्ति-दर-पंक्ति कतारबद्ध घर और दुकानें। हाट सदा उन्हीं सब घरों के पीछे हो जाता है। दो दुकानों के बीच में जो फाँक होती हैं, उन्हीं के भीतर से होकर हाट में घुसा जा सकता है जहाँ से एकसाथ दो व्यक्ति सटकर घुस नहीं सकते हैं। इन फाँकों से होकर हज़ार-हज़ार मनुष्य भीतर घुसकर बैठे रहते हैं। बैल गाडि़यों के भीतर जाने का एक और रास्ता होता है। उससे होकर वे हाट के पीछे जाकर खड़ी हो जाती हैं। हाट के कारण ही जो दुकानें हाट के आगे आकर सदर रास्ते के सामने लगी रहती हैं, वही दुकानें मानो हाट को दबाकर मुख्य दुकानों के रूप में रहना चाहती हैं। मिष्ठान्न की दुकानों के बाहर तखत के ऊपर सफ़ेद चद्दर बिछाकर जलेबियों का पहाड़ लगा रहता है। कपड़े और गमछा की दुकानों और बरामदों में कपड़े और गमछे लटकते रहते हैं। यहाँ तक कि साइकिल की दुकान में रखी साइकिलें भी दुकान से उठकर रास्ते में आ जाती हैं। और इन सबसे घनी आड़ से मनुष्य का साँझा स्वर प्रबल हो उठता है। उन कण्ठों की किसी आवाज़ का कोई अर्थ नहीं किया जा सकता है, किसी एक ध्वनि को अलग भी नहीं किया जा सकता है, सारी आवाज़ें एक ध्वनि का प्रवाह हो उठती हैं, लगभग नदी के प्रवाह की तरह। नदी प्रवाह की तरह नेपथ्य में विद्यमान वह प्रबल ध्वनि समूह अपने उच्चतम कोलाहल के बल पर एक अस्तित्व प्राप्त कर लेता है और आघात-पर-आघात से हाट के बाहर स्थित इन दुकानों की पाँत को भी हाट के अन्तर्गत कर डालता है। दुकानें भी हाट के भीतर प्रवेश कर जाती हैं।
नौ
कैसी है यह हाट
सन्ध्या के बाद हाट को एक चेहरा मिल जाता है। पूरे दिन हाट जितना हो सकता है, खुलता रहता है, शाम होने के बाद वह जितना हो सकता है छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित होता रहता है। और ये टुकड़े तैयार होते हैं, उज्ज्वल आलोक केन्द्रों को घेरकर।
इस समय इस हाट की थोक बिक्री वाले बाज़ार की दिशा मानो खाली है। पशुओं को बेचने की हाट की दिशा तो इस समय लगभग अँध्ोरे में हैं। मिट्टी की हडि़या, कलसा बिक्री का विराट इलाका हाट की पश्चिमी सीमा में फैला हुआ है। उसमें सिर्फ़ ग्राहक नहीं है, केवल यही बात नहीं है, दुकानदारों में भी कुछ उठने लगे हैं। साग-सब्ज़ी के बाज़ार में भीड़ है, अन्तिम छोर पर घरेलू हाट के लोगों की भीड़ है, सस्ते में अनेक प्रकार की चीज़ें इस समय मिल जाती हैं। वस्त्रों की दुकानों पर भी भीड़ लगी हुई है, विशेषकर नाइलोन की गंजी की दुकानों पर।
उजाला कहीं अध्ािक है और कहीं कम, इसी दृष्टि से हाट को कई भागों में बाँटा जा सकता है। एकदम उत्तर में, एक कोने में, एक छप्पर वाले कुमरे में चाय की दुकान का मुँह हाट की तरफ़ है। वहाँ पर हण्डा जल रहा है। छप्पर वाला घर, मानो हाट की यहीं से शुरुआत है। किन्तु, उसका बाहरी भाग जितना साफ़-सुथरा दिखायी देता है, भीतर उतना साफ़-सुथरा नहीं दिखता है। सामने खड़े होते हुए भी मनुष्य को ऐसा लगता है जैसे भीतर के अँध्ोरे से कोई बाहर के आलोक की दिशा में ताक रहा है। चेहरे और कुर्ते का एक-एक अंश थोड़ा उज्ज्वल और बाकी का भाग अँध्ोरे में विलीन हो जाता है। सामने कितनी ही बेंच पड़ी हुई हैं। उन पर भी कई लोग बैठते हैं। उनकी भी छाया उस छप्पर छाये घर के भीतर पड़ने से भीतर और भी अँध्ोरा हो जाता है।
उसके सामने अँध्ोरे का कुछ इस तरह का विस्तार है, ऐसा लगता है मानो पानी पर ही यह चालाघर बना हुआ है। उस कुछ अँध्ोरे को पार कर लो तो लम्बी कतार वाली रोशनी की गलियाँ हैं। दो गलियाँ हैं या तीन, समझ में नहीं आता है। किन्तु हर दुकान में हण्डा होने के कारण ऐसा लग रहा है जैसे वहाँ बड़ी खरीद-बेच हो रही है। कपड़ों की दुकान है। सभी दुकानों में रोशनी सिर्फ़ हण्डों की ही नहीं है, कहीं-कहीं बीच-बीच में गैस की लालटेन का भी उजाला हो रहा है। हण्डों का लाल आलोक पुंज के बीच में गैस की नीली शिखाओं और उन शिखाओं से विकीर्ण होने वाले आलोक का वृत्त किस तरह से एक डिज़ाइन-सी तैयार किये दे रहा है।
उस आलोक के अनेक रंगों के मिश्रण के ऊपर फिर कुप्पी का जलना अन्ध्ाकार के चक्र के बाद इस कपड़ों के बाज़ार के समकोण पर मिट्टी के बर्तनों का बाज़ार है। पंक्ति-दर-पंक्ति उल्टी हण्डियों के ऊपर कुप्पी रखी हुई हैं। लाइन में - जैसे पानी के भीतर रेत के निशान रहते हैं, एक-के-बाद एक। कुप्पी के उजाले के घेरे के बीच-पकी मिट्टी का लाल रंग है। वैसे ही पक्की हुई मिट्टी का लाल छोंहा वृत्त है। एक-के-बाद-एक, एक-के-बाद-एक काफ़ी दूर तक। लम्बी पाँत की निर्जनता में कुप्पी की शिखा काँप रही है मिट्टी की हडि़या पर लालछोंहा वृत्त डोलता है, गोल-गोल नपी-तुली छायाएँ हाण्डी के वर्तुल पर छलकी-छलकी पड़ रही हैं - मानो अन्ध्ाकार जल की तरह तरल है। फलस्वरूप ऐसा लगता है मानो यह दृश्य सजाया गया है। अथवा यह मानो हाट के भीतर का दृश्य नहीं है।
बर्तनों के हाट के बाद ही पशुओं का हाट है। पूरी तरह अँध्ोरे में, एकाध टाॅर्च की रोशनी बीच-बीच में चमक जाती है। एक तरह के रँभाने की आवाज़ अँध्ोरे से उठकर अन्ध्ाकार में ही विलीन हो जाती है। पुकार का अन्तिम अंश एक गूँज में बदल जाने से विलीन हो जाता है। पशु बाज़ार का कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा है। किन्तु सहसा इस ‘हम्बा’ पुकार से कैसे तो लगता है, पशु बाज़ार में व्याप्त अँध्ोरे में कीचड़-पानी में पैर डूब जाने से नीरवता में पशु-पक्षी, मोर, मुर्गे, बत्तख, कबूतर तथा बकरे और अन्ध्ो हो जाते हैं। वे लोग ऐसे घने अँध्ोरे में ध्ाीरे-ध्ाीरे अन्ध्ो और मूक होते रहेंगे।
पशु-बाज़ार को दाहिने ओर रखकर बायीं ओर मुड़ जाने पर, फिर एक समकोण पर थोड़ी ऊँची जगह पर ध्ाीरे-ध्ाीरे दक्षिण से और दक्षिण की तरफ़ फैला हुआ है इस हाट का सबसे बड़ा बाज़ारः थोक बिक्री का बाज़ार। इस समय यह विस्तार समझ में आता है, सम्भवतः यह जगह निर्जन, ऊँची होने की वजह से, क्रमशः उत्तर से दक्षिण की ओर और निर्जन, ऊँची होते जाने की वजह से विस्तृत लगती है। इस समय वह स्थान समझ में आ रहा है, सम्भवतः वह स्थान एकदम सूना और खाली होने की वजह से क्रमशः अध्ािक सूना, फिर जितना दक्षिण की ओर देखा जाए, उतना अध्ािक सूना और खाली। इस जगह के बीच में या अन्त में कहीं भी और अध्ािक उजालेवाली दुकानें या बाज़ार नहीं है। फिर इसी जगह पर फैली हुई कुप्पियाँ, मोमबत्तियाँ और लालटेनों का प्रकाश ऐसा लगता है मानो नदी के भीतर फैली रोशनी जलती हुई नावों की नदी हो। वह एक ही तरह की उज्ज्वलता का आलोक इतनी व्यापक, खाली, सूनी जगह भर में फैला हुआ है। झाड़ की रोशनी बार-बार पड़ने से मिट्टी उज्ज्वल होकर चमक रही है। फिर भी वर्षा होने के कारण काली है। और उस पर छोटे-छोटे ढेर, अध्ािकतर सूखी मिर्चों के, बहुत-से तो आलू के ढेर हैं, ऐसा लग सकता है सूखी मिर्चा और आलू ही जैसे इस तरफ़ की मुख्य चीज़ें हैं। थोक बाज़ार में आलू और सूखी मिर्च, बीच-बीच में खाली जगह में प्याज़ के ढेर फैले हुए हैं। एक-एक ढेर के लिए काफ़ी जगह छोड़ दी गयी है। खरीद-बेच के लिए काफ़ी जगह की ज़रूरत पड़ती है। बीच-बीच में चार मोटे बाँसों पर बड़ी-बड़ी तराजुएँ लटकती रहती हैं। विराट साइज़ की उन तराजुओं के एक पल्ले पर बाँटों का भार रखा रहता है। और एक तरफ़ का पल्ला हवा में झूलता रहता है। मोमबत्ती और कुप्पी की शिखा के आलोक से ये काठ के विराट पल्ले और नाइलाॅन की लम्बी रस्सी की अत्यन्त विशाल छाया घूमती रहती है। थोक बाज़ार की पूर्वी सीमा तक, बाज़ार की ओर मुँह किये लगी रहती है जूट की हाट। एक पाँत इसी तरफ़ को मुँह किये हुए। उसके पीछे का भाग मैदान में ही फैला हुआ है। वहाँ पर जूट लादें हुए बैलगाडि़यों की लाइन। गाड़ी से ही बिक्री। इस समय भी गाड़ी हैं और बैलगाडि़यों के बीच से तथा आगे-पीछे से लोगों का आना-जाना है। बैल गाडि़यों के पहियों की फाँक से भी देखा जाता है, उस तरफ़ के कुछ मानुसजनों का बैठे रहना अथवा चला-फिरी करना। जूट बाज़ार की बैलगाडि़यों पर बहुत-सी लालटेनें हैं। फिर सड़क से होकर जाना पड़ता है, बीच-बीच में सिर्फ़ टोर्चों का उजेला हो उठता है।
थोक बाज़ार की दिशा में मुँह किये हुए लगी, जूट हाट की पहली लाइन के अन्त में दक्षिणी सीमा पर ज़मीन के ऊपर ही पड़े हुए हैं हल और हल में लगने वाले हल के फार। हल ही अध्ािक हैं, फ़ोरेस्ट की बिना पैसे की लकड़ी से बने - काफ़ी बड़े, मज़बूत हल। छोटी गली के ऊपर पड़ी हुई हैं चाय बागान की चैराई और कलमी लता को काटने की छुरियाँ, हसिया, कुदाल और फावड़ा। उसके पास ही लुहार के द्वारा तैयार हँसिया, कुदाल और हथौड़े - बड़े साइज़ के। किन्तु गिनती में अध्ािक नहीं हैं। आजकल टाटा कम्पनी के कुदाल और कुल्हाड़ी लोहे की दुकान पर मिलने लगे हैं। उनका वजन भी अध्ािक होता है और उनकी ध्ाार भी अध्ािक होती है, दाम भी अध्ािक होते हैं। उसके भी पास में प्रायः अंध्ोरे में कुछ चेयर, टेबिल, जालीदार कुछ छोटी अलमारियाँ, यहाँ तक कि शीला लगी हुई ड्रेसिंग टेबिल भी अत्यन्त चमकदार, पाॅलिश की मोम का आलोक भी फिसल जाए, रखी हुई है। आपाततः ऐसा लगता है कि शायद हाट यहीं समाप्त हो गया है। किन्तु उसके भी बाद, अँध्ोरे मैदान से दुर्गन्ध्ा आ रही है। थोड़ी नज़र डालते ही लोगों का आना-जाना भी समझ में आ रहा है। खाद की एफ.सी.आई. की यूरिया और मिलावटी खाद का चोर बाज़ार है। शाम के बाद ही लगता है। थोड़े समय में ही पूरी खाद बिक जाती है।
खाद की हाट के पास पहुँचा नहीं जा सकता है। गन्ध्ा से ही उसका आभास मिल जाता है। ऐसा लगता है जैसे अन्ध्ाकार की तरफ, उसी गन्ध्ा को सूँघते हुए ताकते रहने पर ऐसा लगता है, ऐसा लगता रहता है - दूर-दूर अँध्ोरे में, मैदान-मैदान में, और दूर-दूर हाट फैलती चली जा रही है। अन्ध्ाकार से वेष्टित उसी मैदान के भीतर से आवाज़ उठती आ रही है, दबी हुई प्रतिध्वनि की तरह किन्तु ध्ाारावाहिक रूप से। जैसे बाँस के ढेर पर गाडि़यों भर बाँस फेंकने की आवाज़ हो। उस दबी हुई आवाज़ को अगर एक बार सुन लिया जाए तो फिर वह आवाज़ कान में आती ही रहती है। रुकती नहीं है। हो सकता है ट्रकों पर बाँस लोड हो रहे हों- टिटागढ़ कागज़ के कारखाने के लिए। हो सकता है फ़ोरेस्ट को सप्लाई करने का काम मिला हो किन्तु अध्ािकांश भाग तो कंट्रेक्टर का है। वह फ़ोरेस्ट से भी खरीदता है और किसानों से भी खरीदता है। नहीं तो गाँव के बन्दरगाह की हाट में बाँस की हाट कभी न लगता। फिर ऐसा भी हो सकता है, यह बाँस की आवाज़ ही न हो। इस तरह की लगातार होने वाली आवाज़ अन्ध्ाकार में अनेक कारणों से उठ सकती है। हो सकता है, दिन में भी उठती रहती हो। और अँध्ोरे में ही अध्ािक सुनने को मिलती है। तिस्ता नदी किस तरफ़ है? कितनी दूर है? तिस्ता की बाढ़ में जंगल के कोई शाल-सागौन टूटकर गिर पड़े हैं। इस समय रात में उन्हीं को टुकड़ों में काटकर निकलते आ रहे हैं। हो सकता है, वह कुल्हाड़ी से काटने का शब्द हो। अथवा इस समय, शाम को, दूर के उस हाईवे से होकर ट्रक-बस जाने की आवाज़ ज़मीन को कँपाती हुई आ रही है। अथवा, पहाड़ के ऊपर की कोई बाढ़ नेवड़ा नदी से होती हुई इस समय बहती जा रही है - दोनों किनारों को ध्ाक्का देती हुई और भी वेग से और भी तेज़ी-से। कहीं लुड़कते हुए पत्थर गिरे हों। अथवा चाय बागान के जेनरेटर की आवाज़ वन, नदी में प्रतिध्वनित होती हुई चक्कर काट रही है? कुप्पी और मोमबत्ती, गैस और झाड़ के प्रकाश में बाज़ार में भरे मनुष्यों के आकार काफ़ी बड़े हो गये हैं। यहाँ पर अँध्ोरा ही मुख्य है। बीच-बीच में प्रकाश की छुअन, फिर किसी-किसी फाँक अथवा खाली स्थान से होकर दो-एक बार दिगन्त या किसी अन्यमनस्कता में आकाश अगर नज़र में आ जाए तो वहाँ फैला हुआ अन्ध्ाकार ही दिखायी देता है। रोशनी के अनेक वृत्तों में भी उजास नहीं है। किसी मवेशिया रमणी की पीठ से कपड़े द्वारा बँध्ो बच्चे का सिर हिल जाता है, ऊपर ही जागा रहता है लाल और कुछ अस्पष्ट रंग का जंगली फूलों का झाड़, काले केशों में। काला मुख अँध्ोरे के साथ किसी अनिश्चित परिप्रेक्ष्य में जाकर मिल जाता है। नाइलाॅन की उज्ज्वलता फिसल जाती है किसी रागड़े आदिवासी की छाती से। ध्ानुष का एक सिरा दिखायी देता है। राजवंशी रमणी की फतुई के ऊपर उठ आता है नग्न हाथ, गला और कन्ध्ाा। अन्ध्ाकार में चमक जाती है उज्जवल काले रंग की आदिवासी रमणी की झकाझक्क दन्त-पंक्ति। कहीं भी क्रूरता घट सकती है। वटवृक्ष की पिण्डी की तरह असारदर्शी मुगलों जैसा मुख खाल की असंख्य झुर्रियों के साथ नदी के रेत की तरह जागा रहता है। कहीं-कहीं ज़मीन जोती जा चुकी है। भेदहीन नुकीली पहाड़ी की चबुक पर पाश्र्वमुख की ध्ाार। टीले की चैअी से समतल मैदान देखा जा सकता है। इस हाट की खरीद-बेच शेष हो जाने पर अब सिर्फ़ मानो भीड़ का ही चेहरा बहुशत वर्ष के आदिवासी घराने के मुखौटे से अलंकृत उस चेहरे पर सिर्फ़ विस्मय या विस्मय का अवसान। रूपरेखा, रंग और अंग संस्थान में कोई नवीनता नहीं है, एक मुखौटे से दूसरे मुखौटे को अलगाया नहीं जा सकता है। यद्यपि अनिवार्य रूप से हर मुखौटा अलग हो जाता है। लम्बी-लम्बी इस छायापात से उस मुखौटे की क्षणिकता यद्यपि उसकी अत्यध्ािक निश्चितता से विद्युतचमकित अरण्य का आभास मानो खेल-खेल जाता है। या कभी-कभी विद्युत चमकने के लिए अरण्य के अन्ध्ाकार की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। उस प्रतीक्षा से ही नाच, गान में पहाड़ की प्रतिध्वनि की क्षीणता आ जाती है। एकाकी ढोल में बोल उठने लगते हैं। कोई विस्मृत निर्झर बहकर चला जाता है। और यह भीड़ और सौदा, और खरीदना, बेचना, और भीड़ और सौदा के भीतर विलीन हो जाने पर भी, विलीन नहीं हो पाती है, भीड़ होकर भी भीड़ रह नहीं पाती है, और एकबार मेले में आकार भी मानो खो जाना और लौट जाने की तरह विषादग्रस्त, आत्मविस्मृत, विच्छिन्न चेहरे, चेहरे और चेहरों की कतारें।
दस
हाट की आड़ में हाट
हाट की पूर्व दिशा से उत्तर दिशा को घेरती हुई जो सड़क मुड़ गयी है, उसी समकोण पर ही तो यह हाट लगी हुई है। हाट के पास कतार-दर-कतार दुकानों ने हाट को सड़क से आड़ में कर दिया है। अध्ािकांश दुकानों के मुँह सड़क की तरफ़ हैं। दो-एक दुकानों के बाद ही एक फाँक है - हाट से बाहर निकलने के लिए। इस तरह फाँकें और खाली जगहें बहुत हैं।
वैसे ही एक फाँक के पास में दुकानों की दो कतारों के बीच में जूट हाट के भी उत्तर में एक लम्बी ज़मीन पर हाट की आड़ में हाट है। खूब पास में कतार में कुप्पियाँ जल रही हैं। एक तरफ़ उस कुप्पी का आलोक बाहर नहीं निकल पा रहा है। झुके हुए मनुष्यों के चेहरों और आँखों को ही आलोकित कर पाता है। और एक ओर की शिखाओं में कोई आड़ ही नहीं है। मानो तेज़ हवा के झोंकों से कभी भी बुझ सकती हैं। सट्टा, जुआ, डुगडुगी खेलना चलता रहता है। जगह काफ़ी लम्बी है। जुए की टेबिल ज़मीन पर अथवा स्टूल के ऊपर रखे हुए हैं लाइन लगाकर, मानो बैठने के भीतर एक योजना है। किसी तरह की बातचीत या आवाज़ सुनायी नहीं देती है। कोई-कोई खड़े होकर इस टेबिल से उस टेबिल पर ताक-झाँक कर लेते हैं। अध्ािकांश लोग नीचा सिर कर खेल रहे हैं। जगह मानो अन्ध्ाों की तरह है। कोई कुछ देख नहीं रहा है। शाम होने के साथ-ही-साथ यह गैर कानूनी हाट लग गया है। असली हाट उठ जाएगा और यह हाट जब तक इच्छा हो, चलता रहेगा। किन्तु गैर कानूनी होने के कारण ही इसमें एक तरह की जल्दबाजी का भाव आ जाता है। सभी लोग एक जल्दबाज़ी के साथ अपना खेल समाप्त कर लेना चाहते हैं। और एक तरफ़ अल्मोनियम की देगची और ग्लास लिये कतार-की-कतार महिलाएँ बैठी हुई हैं। देगचियों के ऊपर गमछे के ढक्कन हैं। हर देगची को घेरकर भीड़ लगी हुई है। हडि़या अथवा बनायी हुई शराब। किसी भी शराब में ध्ाुत्त व्यक्ति की लड़खड़ाते हुए चीख पुकार नहीं हो रही है। खूब दबे स्वर में। लगभग फुसफुसाते हुए, आवाज़ में लटपटाहत, ठीक से समझ में नहीं आती है। किन्तु आवाज़ एक अतृप्त आकांक्षा की तरह सुनायी देती है।
ज़मीन से कोई उठने की कोशिश कर रहा है, अब तक वह ज़मीन पर लोट रहा था। घुटनों के बल उठकर उकड़ूँ बैठ जाता है, दोनों घुटनों पर दोनों हाथ लगाकर बलपूर्वक उठना चाहता है, किन्तु फिर बैठ जाता है। फिर सीध्ाा होकर उठने की कोशिश करता रहता है, उसका सिर थोड़ा चक्कर खाता रहता है, थोड़ा हिलता है, फिर खड़े होकर अँध्ोरे की ओर ताकता हुआ कहता है, ‘देखो, देख लो, दे...खो, देखो, भाइयों, बहनों, देखो, हम, उठकर खड़ा हो जाऊँ। खा...आ...आ...ड़ा।’ इस तरह खड़े होने और खड़े होने का विचार बरकरार रखने में, उसे थोड़ी मेहनत करनी पड़ती है जिससे उसके पैर न लड़खड़ाएँ, उसका सिर चक्कर न खाए, न ऊकाँ डोल हो, उसे सम्हालने के लिए सिर्फ़ अपनी थोड़ी कमर हिलानी पड़ती है, कमर से लेकर गले तक उसकी देह का पूरा भाग चक्कर खाने लगता है। परिणाम यह होता है कि उस अँध्ोरे में उसका वह एकाकी अनन्य प्रयास चलता रहता है। वह सख्त और सीध्ो पैर फैलाकर खड़ा हुआ है, सिर सख्त, सीध्ाा, बीच का पेट, छाती कभी-कभी मानो टूटकर अलग हो जाना चाहती है, किन्तु, कमर हिलाकर उन्हें सम्हालना पड़ता है। इसी सम्हालने के वक़्त कोई पैर सम्भवतः घुटना मुड़ जाना चाहता है, किन्तु उस समय पेट के झूलने को उरूस्थल में लाकर उरूस्थल को भी थोड़ा हिलाकर उस टूटने को रोक लेता है और इसी के साथ उस स्थिर सिर के लटपटाते उच्चारण से वह चुनौती देता हैः ‘कौन कहता है मैं नशे से मतवाला व्यक्ति हूँ। कभी नहीं। हमने कभी मतवाला होना नहीं सीखा। यह देखो। अच्छी तरह देखो। हम इन दोनों पैरों पर खड़ा हूँ। यह देखो। पक्की तौर पर देखो। हमारा यह सिर भी सीध्ाा है। तब भी मैं मतवाला हूँ? कभी नहीं? यह देखो, हम परेड करेगा। रेडी, वन, टू, थ्री, लेफ़्ट-राइट’ - वह व्यक्ति अपने दोनों पैर अध्ािक उठा नहीं पाता है। इतने से ही उसका पूरा शरीर उलट पड़ता है और वह ज़मीन पर गिर जाता है। वहीं लेटा रहता है।
फिर कुछ क्षण बाद वह व्यक्ति घुटनों के बल उठता है किन्तु बैठ नहीं पाता है। घुटनों और हाथों के बल चलता हुआ हडि़या की इस पाँत की ओर ही आगे बढ़ता जाता है। उसके बाद एक जगह जाकर रुक जाता है। घुटनों और पैरों के बल उखडूँ होकर बैठ जाता है। फिर खड़े होने के लिए दोनों घुटनों पर दोनों हाथों को रखकर ताकत लगाता है पर उठ नहीं पाता है अथवा उठने का प्रयास भी नहीं करता है। वहीं से अँध्ोरे की ओर ताकते-ताकते कहता है, ‘देखो, हमने परेड भी कर ली, अभी हमको एक गिलास और दो, मैं मतवाला नहीं हूँ, हे डायना एक गिलास और दे, हे डायना हमको एक गिलास ज़रूर देना...’
जो महिला गिलास भर-भर कर हडि़या दे रही थी, उसके पास जाकर वह व्यक्ति खड़ा हो जाता है। जो लोग पी रहे थे, उनमें से कोई भी उसकी तरफ़ देख भी नहीं रहा था। महिला के पास जाकर बैठने का प्रयास करता है किन्तु दोनों पैर मोड़ते ही ढुलक पड़ता है। उसके बाद एक बार लड़खड़ाहट न सम्हाल पाने के कारण ध्ाम्म से गिर पड़ता है। ज़मीन पर सीध्ाा बैठकर फिर वह उसी महिला की ओर हाथ बढ़ाकर कहता हैः हे डायना, हम ज़रूर पियेगा, पैसा ले, दारू दे।’ वह महिला उसकी ओर मुँह किये बगैर दाहिने हाथ का एक ध्ाक्का देती है जिससे वह व्यक्ति एकदम लुढ़क पड़ता है। फिर वह उठ नहीं पाता है। हवा की तरह फिर वह बुदबुदाते हुए एक ही रट लगाये रहता है, ‘जापानी टेरीलिन, साठ रुपये’ का पेंट पीस, सीको घड़ी, बायें हथेली पर खोलकर रखी हुई घड़ी के रेडियम की विदेशी चमक से अँध्ोरे में आदिवासी चिबुक का सुगढ़ आकार। वह व्यक्ति मुट्ठी बन्दकर डालता है। रेडियम की आभा बुझ जाती है। चिबुक का आकार अँध्ोरे में विलीन हो जाता है। हवा में गूँजता रहता है, ‘जापानी, होंगकोंग, मेडइन यू.एस-ए.।’ सट्टा और जुए भी भीड़ बड़े खेल रही है। और चक्र थम जाने पर, अथवा डुगडुगी उठा लेने पर अथवा लूडो की गोटों की तरह गोटें फेंकने पर एक बार समवेत स्वर में हिस् की ध्वनि उठती है और फिर दबी हुई हिंसात्मक नीरवता।
जुए के बोर्ड पर कुछ दिखायी नहीं देता है। कुप्पी की शिखा लोगों के चेहरों पर दमक रही थी, लकलक कर रही थी, फिसली जा रही थी। हाट के दूरदृश्य की तरह नहीं, अत्यन्त निकटवर्ती दृश्य की तरह। इतने निकट कि हाथ-पैर नहीं देखे जा सकते हैं, सिर्फ़ मुख अथवा भ्रू-रेखाएँ अथवा माथे का सपाट अंश अथवा काली, चमकती नाक का एक पक्ष। सट्टा बोर्ड की कुप्पी के आलोक में पहचाना नहीं जा सकता है। सट्टाबोर्ड के मालिक का चेहरा नेपाली, राजवंशी, मेच, कोच, गभी में से कोई कुछ भी हो सकता है, पीछे से अगर देखा जाए तो खोपड़ी सन्थाल के लम्बे ढाँचे की भी दिखायी दे सकती है।

ग्यारह
हाट की सामाजिकता
मुख्य सड़के के दोनों तरफ़ हण्डों की रोशनी, दाहिने हाथ पर थोड़ी दूर एक इंटर प्रोविंशियल ट्रक खड़ा हुआ है। बायें चाय की दुकानों पर लोगों की ठसा-ठस भीड़ है। दायें-बायें ताक कर सुहास मानो हाट के नक्शे का एक बार फिर से अन्दाज़ लगा लेता है। सुहास मीठे और चाय की दुकानों की तरफ़ बढ़ जाता है।
बाहर की बेंचों पर उसकी बैठने की इच्छा थी। किन्तु वहाँ पर इस समय बड़ी घनी भीड़ है। अखबार के टुकड़ों पर जलेबी और नमकीन रखी हुई है। अध्ािकतर लोग चाय बागान के मजूर और मजूरदारिन हैं। यहाँ की भाषा में इन्हें ‘मदेशिया’ कहते हैं। कई मजूरिनें स्वयं भी खा रही हैं और तोड़-तोड़कर गोदी के बच्चे को भी खिला रही हैं।
सुहास को भीतर जाकर ही बैठना पड़ता है और भीतर ही जब बैठना है तब अन्त में जाकर बैठना ही अच्छा है। सनमाइका की हाईबैंचें। सामने भी बैंचें हैं, कहीं-कहीं मोड़ने वाली कुर्सियाँ भी हैं। सुहास एक मुड़ने वाली कुर्सी पर अलग होकर बैठ जाता है। उसके सामने की और बगल की सारी बैंचों पर लोग बैठे हैं। सुहास की चाय पीने की इच्छा है। यद्यपि वह यह समझ सकता है कि यहाँ की चाय एकदम न पीने योग्य होगी। किन्तु इतने भीतर बैठकर चाय पीनी चाहिए या नहीं, यह वह नहीं समझ पा रहा है। लड़के के आने पर उसने कहा, ‘एक कप चाय ही दीजिए, बाद में कुछ लेना होगा, तो बता दूँगा।’
किन्तु लड़का प्रायः कहने के साथ-ही-साथ लौट आता है। चाय की एक तश्तरी में ढेर सारी मिठाई लेकर। सुहास यह समझ ही नहीं पाता है कि यह मिठाई उसी के लिए है, यदि वह लड़का आकर उसी के सामने खड़ा न रहता। और सुहास कुछ कह पाये, इसके पहले ही ध्ाोती-कुर्ता पहने एक व्यक्ति उसके सामने आकर खड़ा हो जाता है। सुहास समझ जाता है, वह दुकान का मालिक है। इतनी देर बैठे रहने के कारण ध्ाोती की गाँठ ढीली होकर पेट के काफ़ी नीचे चली आयी है और बनयाइन पेट के ऊपर से उसे इतना ढँक नहीं पा रही है। खूब महीन ध्ाोती और महीन बनयाइन के बीच में रोयों की एक मोटी लाइन है।
लड़के के हाथ से तश्तरी लेकर उससे कहता है, ‘जा पानी लेकर आ।’ फिर दोनों हाथों से सुहास के सामने तश्तरी रखकर कहता है, ‘सर, लीजिए सर।’ मेरी दुकान की मिठाई कलकत्ता तक जाती है। चाय-बागान के साहब लोग बागडोगरा में प्लेन पकड़ने जाते समय यहाँ से मिठाई का पैकेट लेकर जाते हैं सर। विकानी की स्वीट्स सर।’
सुहास के अगर वश में होता, अगर वह कर सकता तो उठकर भाग जाता। किन्तु उस व्यक्ति की बातों और अपनी दुकान और अपनी मिठाई की तारीफ़ से उसे थोड़ा चैन मिलता है, उसका इतना ही अन्ततोगत्वा, यही उसका अपना बचाव था। किन्तु उसके सामने वह व्यक्ति अपने दोनों हाथों में इसी तश्तरी में इतनी ढेर सारी मिठाई लिये हुए है कि उसे देखकर ही उसका पूरा शरीर सिहर उठता है। वह जल्दी-जल्दी इध्ार-उध्ार देखने लगता है। वह समझ जाता है कि उसके सामने ऊपर की बैंच पर बैठे-खाते लोग इसे देख रहे हैं। किन्तु दुकान में भीड़ लगाये बैठे हुए मदेशिया और राजवंशी मज़दूर तथा किसान इध्ार ताक भी नहीं रहे थे।
सुहास ने जल्दी-जल्दी इस मामले को समाप्त करने की इच्छा से कहा- ‘असल में मैं मिठाई खा नहीं पाता हूँ। आप स्वयं लाये हैं इसलिए मिठाई का एक टुकड़ा दीजिए।’
‘अच्छा सर, मैं जि़द नहीं करूँगा। किन्तु आपको स्वाद तो लेना ही होगा। रोज़ एक मिठाई का स्वाद लेने पर मेरी सभी मिठाइयों का टेस्ट किया जा सकेगा। यह मिठाई लीजिए।’ व्यक्ति की आवाज़ में एक तरह का आरोह-अवरोह खेल गया जो सुहास को अच्छा लगा।
तश्तरी का अर्थ था अन्ततः दो-एक मिठाइयाँ। सुहास ने जल्दी-जल्दी अपना हाथ पसारकर उस व्यक्ति को मुश्किल में डालते हुए कहा- ‘एक मिठाई मेरे हाथ में दीजिए।’
‘यह भी कोई बात हुई सर, आपको हाथ में दूँगा?’
‘मुझे तो हाथ से खाना ही अच्छा लगेगा’- सुहास मन-ही-मन खफ़ा हो जाता है। सहसा उसे लगता है दुकान छोड़कर निकल जाये।
लगता है दुकानदार उसका चेहरा देखकर भाँप जाता है। वह सबसे नीचे से लम्बी, गोल साइज़ की सबसे बड़ी मिठाई निकालता है। सुहास कहता है, ‘यह मिठाई दीजिए’ ऊपर रखे हुए सन्देश की ओर इशारा करता हुआ, उसे दिखाता है। ‘यह क्या हुआ सर, इतने से क्या होगा सर, यह तो मुँह में देते ही एकदम घुल जाएगी।’
‘ठीक है, इसे ही दो।’
इसी बीच में वह लड़का तश्तरी लेकर आ जाता है, और उसे बैंच के ऊपर रख देता है। उसमें से सन्देश को उठाकर और एक मिठाई में चम्मच लगाते ही सुहास तश्तरी को एक ओर सरकाकर कहता है, ‘नहीं, अब नहीं।’
दुकानदार हे-हे करता हुआ हँस पड़ता है। ‘सर, चाय भिजवा रहा हूँ।’ यह कहकर चला जाता है।
सामने की बैंच पर बैठे हुए जो लोग खा रहे थे, उनमें से एक व्यक्ति उठकर सुहास को नमस्कार कर चला जाता है। सुहास को प्रतिनमस्कार करने का समय नहीं मिल पाता है। और उसके बाद ही हाट कमेटी का वह प्रौढ़ भद्रपुरुष आकर उसके सामने की बैंच पर बैठ जाता है। सुहास से पूछता है, हाट आपको कैसा लगा? ‘अब तो शाम हो रही है। शायद दोपहर के बाद खूब जमता होगा।’
‘न, वह तो अभी ही खूब जमा हुआ है। इसे आप ड्थर्स की मानकर बड़ा हाट क्यों समझ रहे हैं? ध्ाूपगुड़ी का हाट तो बहुत छोटा है। ध्ाूपगुड़ी का हाट तो थोक बिक्री का हाट होता है।’
सुहास को याद आ जाता है, वह पूछता है, ‘अच्छा, यहाँ क्या सूखी मिर्चा तैयार होती है या नहीं? हाट में तो सूखी मिर्च का पहाड़ लगा हुआ है, मैंने देखा है।’
इतने में दुकान पर काम करने वाला लड़का आकर चाय आदि रख जाता है।
‘नहीं, नहीं, यहाँ पर सूखी मिर्चा नहीं होती है काटे में? यहाँ तो सूखी मिर्चा नहीं होती है। उदाहरण के लिए इस क्रान्ति हाट में भी एक वर्ष पहले भी सूखी मिर्च थी ही नहीं। उस समय नारायण प्रसाद की गोदाम सिलीगुड़ी में थी।’
‘नारायण प्रसाद कौन हैं?’
‘मान लीजिए इस तमाम इलाके का सामान वही खरीदता है। वह आसाम की सूखी मिर्चा का डीलर है। उमरा की सूखी मिर्चा की मालगाड़ी तो इस समय माल स्टेशन पर आती है।
‘वह यहाँ क्या करती है?’
‘नारायण प्रसाद ने यहाँ तीन वर्ष पहले चाय बागान खरीद लिया था। छह मास के बाद वह बागान बन्द हो गया। नारायण प्रसाद ने अपनी इस बागान के गोदाम को सूखी मिर्चा का गोदाम बना लिया है। बस तभी से आसाम और तमाम जगहों पर खरीद-बेच के सभी थोक काम इसी क्रान्ति हाट में होते हैं। सेल में तो क्रान्ति हाट की इतनी ख्याति है।’
‘और उस चाय बागान का क्या हुआ?’
‘वह तो वर्ष भर पहले खुल गया है। फ़ेक्टरी तो और चल नहीं रही है। ग्रीन टी ज़रूर बिक जाती है। गोडाउन तो सूखी मिर्चा का ही है।’ सुहास का चाय पीना हो चुका था। उसने आगे कहा, ‘और आलू?’ ‘वह तो इसी वर्ष चालू हुए कोल्डस्टोरेज में रखा हुआ है। ओदलावाड़ी में।’
‘ओदलावाड़ी में तो फिर यहाँ क्या है?’
‘वह तो मैं ठीक-ठीक नहीं बता सकूँगा। यहाँ पर भी एक गोदाम हो सकता है।’
सुहास पहले ही उठकर खड़ा हो गया था। इस समय उसने आहिस्ता-आहिस्ता निकलना शुरू किया। तब उस भद्रपुरुष ने पीछे-पीछे चलकर कहा- ‘मेरी बातों पर थोड़ी विवेचना करके देखेंगे। इसमें तो कोई दोष नहीं है। हमारे घर-परिवार में भी तो सभी सगे-सम्बन्ध्ाी हैं।’ उस भद्रपुरुष के कण्ठस्वर में इतनी आन्तरिकता थी कि सुहास को गर्दन घूमाकर उसकी तरफ़ देखना पड़ा। किन्तु दुकान में बड़ी भीड़ थी। इस तरफ़ की बैंच का एक बड़ा झुण्ड खाने-पीने के बाद दाम चुकाने जा रहा था। प्रायः लाइन लगाकर। यह समझ में आ रहा था कि वह झुण्ड था तो एक ही, उसी तरफ़ से निकल जाएगा। परिणाम यह हुआ कि सुहास को जल्दी-जल्दी निकलकर दुकान के सामने खड़ा होना पड़ा।
वह भद्रपुरुष भी पीछे-पीछे आकर खड़ा हो गया। सुहास तब उससे कुछ कहने की स्थिति में था। वह उससे कुछ कह सकता था। ‘आपके इस तरह कहने पर मुझे ही लज्जा लगती है। होगा, हम तो यहाँ अभी रहेंगे ही।’
उस भद्रपुरुष ने दोनों हाथ सामने कर विनीत भाव से सिर हिला दिया।
प्रियनाथ थोड़ी दूरी पर खड़ा था। जब सुहास के साथ और भी दो-चार लोग बात कर रहे थे तब प्रियनाथ आगे आकर इनके पीछे से कहता है, ‘सर, मैं कैम्प में इन चीज़ों को रख आता हूँ।’
सभी लोग गर्दन घुमाकर एकबार प्रियनाथ को देख लेते हैं। और वे उसे देख सकें, इसकी सुविध्ाा कर देने के लिए वह अपना चेहरा खुले प्रकाश में कर देता है। इसके बाद तो सभी को उसी से बात करनी होगी। ‘आप जाएँ, मैं आ रहा हूँ।’ सुहास प्रियनाथ से बोला। उसके बाद एकाएक भीड़ हट गयी। सुहास ने सोचा, अब वह यहाँ से जा सकता है। किन्तु खाली जगह से निकलने के लिए पैर बढ़ाते ही खूब छोटी कद-काठी का एक व्यक्ति सामने आकर नमस्कार करता हुआ खड़ा हो गया, खूब मृदु स्वर में बोला- ‘मेरा नाम नाउछार आलम है।’
‘ऐ’ यह कहते हुए चैंककर सुहास उसे प्रतिनमस्कार करना भूल गया। नाउछार आलम, यह नाम तो प्रायः गजेटियर में निकलता रहा है। सरकार अध्ािकतर केस हारती रही है- सुप्रीम कोर्ट तक। बाकी ज़मीन पर निषेघाज्ञा लागू है। नाउछार आलम- यह नाम सुनकर जिसको उसमें डकैत जैसा सोचा था, पराक्रमी, वह क्या इस तरह की छोटी-कद-काठी का भद्रलोक है? किन्तु, तत्काल अन्य सभी की ओर घूम-घूमकर नमस्कार करते हुए, बड़े स्वाभाविक अन्दाज़ में ‘अच्छा तो चलता हूँं’ यह कहते हुए वह भद्रपुरुष भीड़ से निकलकर बाहर चला गया।

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