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टूट-बटूट सूफ़ी तबस्सुम
SAMAS ADMIN
29-Dec-2019 12:00 AM
5148
लिप्यान्तरः सुश्री शाहबानो, संगीता गुन्देचा
सूफ़ी तबस्सुम या पूरा नाम लिखें तो सूफ़ी ग़ुलाम मुस्तफ़ा तबस्सुम को कौन नहीं जानता। फ़ारसी के माने हुए आलिम (विद्वान), उम्दा शायर और शायरों के उस्ताद (कहा जाता है कि जब तक मुमकिन हो सका फैज़ साहब अपना ताज़ा कलाम शाया होने के पहले सूफ़ी साहब को ज़रूर दिखा लेते थे) और फिर बच्चों के शायर, टूट-बटूट की नज़्मों का सिलसिला लिखकर सूफ़ी साहब ने बच्चों ही नहीं बूढ़ों के दिलों में भी घर बना लिया था। सूफ़ी साहब जब तक जि़न्दा रहे, अदबी (साहित्य की) महफि़लों की जान रहे। उनके मकान पर नये शायरों, अफ़सानानिगारों और सहाफि़यों (पत्रकारों) का जमघट रहता था और हर शख़्स को अपनी इस्तीतात (सामथ्र्य) के मुताबिक उनसे फ़ायदा मिलता था। उर्दू में बच्चों के लिए शायरी की तारीख ख़ासी पुरानी है। मीर, मुसहफ़ी और नज़ीर अक़बराबादी से लेकर ग़ालिब तक ने ऐसी नज़्में कही हैं जो चिडि़यों, बिल्लियों, कुत्तों वगैरह घरेलू जानवरों के बारे में हैं। ये तो नहीं कहा जा सकता कि ये सब नज़्में बच्चों के लिए रही होंगी लेकिन उनमें बयान इतना उम्दा है कि बच्चे भी इससे ज़रूर लुत्फ़ उठाते होंगे। ग़ालिब ने एक नया काम यह किया कि बच्चों के लिए एक-दो ग़ज़लें भी लिख दीं। हुआ यूँ कि उन्होंने किसी बच्चे के लिए फ़ारसी के अल्फाज़ की मंज़ूम फ़रहंग (’ाब्दको’ा) लिखी और ‘क़ादिरनामा’ उसका नाम रखा। कभी-कभी उसे ‘क़ादिरनामा-ए-ग़ालिब़’ भी कहा गया है। यह क़ादिर कौन साहबज़ादे थे, जिनके लिए ग़ालिब ने यह फ़रहंग लिखी, यह बात अब तक तय नहीं हो सकी। कुछ लोग कहते हैं कि यह मंज़ूम फ़रहंग ग़ालिब ने बाक़र हुसैन ख़ान और हुसैन अली ख़ान के लिए बनायी थी। ये दो बच्चे ग़ालिब की बेग़म के नवासे लगते थे और बच्चों के बाप-माँ की मौत के बाद उन्होंने उनको पाला-पोसा था। लेकिन फिर ‘क़ादिरनामा’ नाम क्यूँ रखा गया है, यह बात समझ में न आयी।
ख़ैर यह ‘क़ादिरनामा’ बच्चों की कि़ताब तो है ही, इसमें ग़ालिब ने दो ग़ज़लें भी डाल दी हैं, इन्हें हम उर्दू में बच्चों के लिए सबसे पहली ग़ज़लें कह सकते हैं। एक-दो शेर दोनों ग़ज़लों से आप भी सुनें-
वो चरावे बाग़ में मेवा जिसे फाँद जाना याद हो दीवार का
पुल ही पर से फेर लाये हमको लोग वरना था अपना इरादा पार का
क्या कहीं खायी है हाफि़ज़ जी की मार आज हँसते आप जो खिल-खिल नहीं
किस तरह पढ़ते हो रुक-रुक कर सबक ऐसे पढ़ने का तो मैं क़ाइल नहीं
इन ग़ज़लों की खास बात यह है कि इनमें बच्चों को कोई नसीहत नहीं की गयी है, कोई सबक नहीं दिया गया है, कोई तल्कीन (आदे’ा) नहीं की गयी है कि मसलन झूठ न बोलो, बाप-माँ का हुकुम बजा लाओ वग़ैरह। यहाँ बच्चों को सिर्फ़ बच्चा समझा गया है, स्कूल का शागिर्द नहीं। ये अशार सिर्फ़ लुत्फ़ और ख़ुशदिली के अशार हैं। ये बच्चों की आज़ाद हैसियत तस्लीम (स्वीकार) करते हैं।
बाद में जब स्कूलों और मदरसों में उर्दू की तालीम आम हुई तो लोगों ने बच्चों की नज़्में लिखीं लेकिन इक्का-दुक्का के अलावा सभी नज़्में सबक कामोज़ी (’िाक्षा के लिए) की ग़रज़ से और बच्चों को बेहतर इन्सान बनाने के लिए लिखी गयीं। मोहम्मद हुसैन आज़ाद और मौलवी इस्माईल मेरठी ने इब्तदायी (’ाुरुआती) दरजो के बच्चों के लिए उर्दू की जो कि़ताबें लिखीं उनमें कुछ ख़राबियाँ ज़रूर हैं क्योंकि वे अँग्रेज़ो के तालीमी प्रोग्राम के ज़ेरे असर (प्रभाव में) बनायी गयी थीं लेकिन उनमें अलबत्ता बहुत कुछ ऐसा भी है, जो बच्चों के लिए तफ़री (मनोरंजन) का सामान ज़्यादा फ़राहम (उपलब्ध्ा) कराता है, एख़लाकि (नैतिक) सबक़ सिखाने पर इतना ज़ोर नहीं कि नज़्म बोझिल हो जाए। इस्माइल मेरठी ने अँग्रेज़ी की बाज़ मशहूर नज़्मों को उर्दू का जामा पहनाया कि उनमें फ़रहत और तफ़री (सुकुन और मनोरंजन) का सामान ज़्यादा था मसलन उन्होंने -
ज्ूपदासम जूपदासम सपजजसम ेजंतए ीवू प् ूवदकमत ूींज लवन ंतम
का तर्जुमा यूँ किया-
चमको-चमको छोटे तारों, मैं क्या जानूँ तुम क्या हो
माना कि तर्जुमा बहुत दुरुस्त नहीं है लेकिन नज़्म यूँ तो बड़ी हद तक इसमें आ गयी है। रफ़्ता-रफ़्ता बच्चों को तालीम देना, उन्हें बेहतर इन्सान बनाना इस कि़स्म के मक़ासिद बच्चों की नज़्मों पर हावी होते गये। इक़बाल ने भी बच्चों के लिए नज़्में लिखीं, ये औरों से तो हटकर थीं लेकिन इनमें भी मक़सदियत नुमाया थी अगरचे हावी नहीं थी। बहुत से ऐसे भी थे जिन्होंने पूरी जि़न्दगी बच्चों का अदब (साहित्य) लिखा; शफ़ीउद्दीन ‘नय्यर’, यकता अमरोहवी, सिराज अनवर और कई दूसरे, इन सबसे बिलकुल अलग हफ़ीज़ जालन्ध्ारी थे, जिन्होंने ‘हफ़ीज़ के गीत और नज़्में’ नाम से चार छोटी-छोटी जि़ल्दें शाया कीं। उस वक़्त तो हिन्दुस्तान में भी ये किताबें मिल जाती थीं लेकिन अब हिन्दुस्तान क्या पाकिस्तान में भी, जहाँ तक मुझे मालूम है, दस्तेयाब (उपलब्ध्ा) नहीं।
हफ़ीज़ से पहले मीरा जी ने भी एक ग़ज़ल लिखी जो या तो मज़ाहिया (हास्य) कही जाए या बच्चों की ग़ज़ल कही जाए लेकिन है वह बहुत कामयाब।
नयी शायरी का ज़माना आया तो मोहम्मद अल्वी, निदा फ़ाज़ली ने ऐसी नज़्में और ग़ज़लें कहीं जो थीं तो बड़ों के लिए लेकिन बच्चे भी उनसे लुत्फ़अन्दोज़ (आनन्दित) हो सकते थे। सिफऱ् इब्ने इंशा ने सोच-समझकर बच्चों की फ़रहते तबाह (सुकुन) के लिए और उन्हें खुश करने के लिए बहुत-सी नज़्में लिखीं। बहुत बाद में शहरयार ने भी कुछ नज़्में बच्चों के लिए कही लेकिन वे शाया नहीं हुईं।
सूफ़ी तबस्सुम की नज़्में भी नयी शायरी के आगाज़ के ज़माने की हैं यानि उन्होंने ये सिलसिला 1960 के आसपास शुरू किया। टूट-बटूट साहब फ़ौरन मक़बूल (स्वीकृत) बल्कि मशहूर हो गये। कि़ताबी शक्ल में ये नज़्में 1970 में शाया हुईं। अफ़सोस कि सूफ़ी साहब ने फिर ऐसी नज़्में न लिखीं और 1978 में वे अल्लाह को प्यारे हुए। सूफ़ी तबस्सुम की नज़्में भी सिर्फ़ बच्चों की नज़्में हैं, उनमें उस्तादाना या मुरब्बियाना (उपदे’ाात्मक) रवैया नहीं इख़्ितयार किया गया है बल्कि बच्चों की इन्फ़रादी हैसियत (व्यक्तिगत स्वतन्त्रता) को बरक़रार रखा गया है। उनमें एख़लाकी दर्स (’िाक्षा) तो क्या इस बात पर भी कुछ ज़ोर नहीं कि ये नज़्में बामानी हों। ये नज़्में सिर्फ़ नज़्में हैं, दिल को बहलाने के लिए, जु़बान का लुत्फ़ लेने के लिए, बच्चों को खुश करने के लिए। इब्ने इंशा की बहुत सारी बच्चों की नज़्में हिन्दी में तब्दिलिए-रस्मुलख़त (लिप्यान्तरण) के साथ शाया हो चुकी हैं। अफ़सोस कि सूफ़ी साहब की ये नज़्में अब हिन्दुस्तान में भी बहुत कमयाब (कम उपलब्ध्ा) हैं इसलिए हिन्दी रस्मुलख़त (लिपि) में भला ये कहाँ मिलतीं। हमें संगीता गुन्देचा का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि उनकी कोशिश और तवज्जो से सूफ़ी साहब का टूट-बटूट अब हिन्दी की वसीतर (विस्तृत) दुनिया में जलवा अफ़रोज़ हो रहा है। उर्दू से हिन्दी में बदलने में अक्सर यह मुश्किल पेश आती है कि उर्दू को ग़लत पढ़ लेने की वजह से या सिर्फ़ ज़रा-सी बेपरवाही की बिना पर उर्दू के अल्फ़ाज़ पूरी तरह सही रूप में नागरी में मुन्तकि़ल नहीं होने पाते। नागरी पढ़ने वाला इसी ग़लत इबारत को दुरुस्त समझ लेता है। संगीता गुन्देचा और उनकी हमकार (सहयोगी) शाहबानो ने पूरी एहतियात और तवज्जो से उर्दू को देवनागरी में मुन्तकिल (परिवर्तित) किया है। जहाँ तक मैं देख सका हूँ, उन्होंने कोई ग़लती नहीं की है।
इन नज़्मों की अव्वलीन इ’ााअत (पहला संस्करण) के ज़माने में उर्दू में नज़्म को सफ़े पर लाते वक़्त बाज़ बातों का ख़याल रखते थे। मसलन ये कि जहाँ अच्छा मालूम हो, वहाँ सतरों या मिसरों को कुछ जगह छोड़कर लिखें। या दो या चार मिसरों के बाद कुछ मिसरे अगली सतर में कुछ जगह छोड़कर लिखे जाएँ। 1960 के ज़माने में इस बात का ख़ास एहतमाम रखते थे कि कागज़ पर नज़्म का रूप कैसा नज़र आता है। अब ये रिवाज़ बहुत कम नज़र आता है। ज़ेरे नज़र कि़ताब में भी इस रिवायत को निभाया गया है।
अस्ल कि़ताब में कई बहुत उम्दा तस्वीरें थीं, संगीता गुन्देचा ने भी ये एहतमाम (प्रबन्ध्ा) किया है कि नयी तस्वीरें बनवाकर हस्बे मौक़ा लगवायी हैं। मजमूई तौर पर (कुल मिलाकर) ये कोशिश बहुत क़ामयाब और क़ाबिले क़द्र है। सूफ़ी तबस्सुम का यह क़लाम ऐसा है कि इसे दूर-दूर तक जाना जाए। मैं दोबारा मुबारक़बाद देता हूँ।
शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी
टूट बटूट की मोटर कार
इस मोटर की शान निराली
दो सीटों दो पहियों वाली
तीन इंजन और हारन चार
टूट बटूट की मोटर कार
साथ हवा के उड़ती जाए
दाएँ-बाएँ मुड़ती जाए
बड़ी ही सियानी बड़ी हुशियार
टूट बटूट की मोटर कार
इस मोटर का अल्ला बेली
कोई न हो तो फिरे अकेली
घूमे गली-गली बाज़ार
टूट बटूट की मोटर कार
कोई कहे ये बायसिकल है
कोई कहे ये ट्रायसिकल है
कोई कहे ये मोटरकार
टूट बटूट की मोटर कार
जैसे चाहो इसे चला लो
जो भी चाहो इसे बना लो
बम्बूकाट का बम्बूकाट है
टूट बटूट की मोटर कार
रंगत इसकी काली काली
सूरत इसकी भोली भाली
क़ीमत इसकी साठ हज़ार
टूट बटूट की मोटर कार
टूट बटूट ने बीन बजायी
चूहे शोर मचाते आये
मेढक भी टर्राते आये
बिल्ली गाना गाती आयी
टूट बटूट ने बीन बजायी
कव्वा कोयल मैना मोर
तीतर तिलयर चील चकोर
सबने मिलकर ध्ाूम मचायी
टूट बटूट ने बीन बजायी
अपने और पड़ोसी नाचे
कुंजडे़ माली घोसी नाचे
नाचे दजऱ्ी ध्ाोबी नाई
टूट बटूट ने बीन बजायी
टूट बटूट ने खीर पकायी
ख़ाला उसकी लकड़ी लायी
फूफी लायी दिया सलाई
अम्मी जान ने आग जलायी
टूट बटूट ने खीर पकायी
देगची चमचा नौकर लाये
भाई चावल शक्कर लाये
बहनें लायीं दूध्ामलाई
टूट बटूट ने खीर पकायी
अब्बा ने दी एक इकन्नी
ख़ालू ने दी डेढ़ दुअन्नी
टूट बटूट ने आध्ाी पाई
टूट बटूट ने खीर पकायी
जूँ ही दस्तर ख़्वान लगाया
गाँव का गाँव दौड़ा आया
सारी ख़लकत दौड़ी आयी
टूट बटूट ने खीर पकायी
मेढक भी टर्राते आये
चूहे शोर मचाते आये
बुलबुलें चोंच हिलाती आयीं
टूट बटूट ने खीर पकायी
कव्वे आये कें कें करते
तोते आये टें टें करते
बुलबुल चोंच हिलाते आयी
टूट बटूट ने खीर पकायी
ध्ाोबी कुँजड़ा नाई आया
पन्सारी हलवाई आया
सबने आकर ध्ाूम मचायी
टूट बटूट ने खीर पकायी
गाँव भर में हुई लड़ाई
खीर किसी के हाथ न आयी
मेरे अल्लाह तेरी दुहाई
टूट बटूट ने खीर पकायी
टूट बटूट गया बाज़ार
टूट बटूट गया बाज़ार
लेकर आया मुर्गे़ चार
हर मुर्गे़ की इक इक मुगऱ्ी
हर मुगऱ्ी के अण्डे चार
हर अण्डे में दो दो चूजे़
हर चूजे़ की चोंचें आठ
हर इक चोंच में छः छः लड्डू
हर लड्डू के दाने साठ
कितने दाने बन गये यार
जल्दी जल्दी करो शुमार
टूट बटूट का बंगला
इस घर के बाहर जंगला है
ये टूट बटूट का बंगला है
ये अण्डे हैं
ये अण्डे घर में रक्खे हैं
इस घर के बाहर जंगला है
ये टूट बटूट का बंगला है
ये चूहा है
चूहे ने अण्डे चक्खे थे
ये अण्डे घर में रक्खे थे
इस घर के बाहर जंगला है
ये टूट बटूट का बंगला है
ये बिल्ली है
बिल्ली ने चूहा मारा था
चूहे ने अण्डे चक्खे थे
ये अण्डे घर में रक्खे थे
इस घर के बाहर जंगला है
ये टूट बटूट का बंगला है
ये लड़की है
लड़की ने बिल्ली पाली है
बिल्ली ने चूहा मारा था
चूहे ने अण्डे चक्खे थे
ये अण्डे घर में रक्खे थे
इस घर के बाहर जंगला है
ये टूट बटूट का बंगला है
ये बुढि़या है
बुढि़या की लड़की काली थी
लड़की ने बिल्ली पाली थी
बिल्ली ने चूहा मारा था
चूहे ने अण्डे चक्खे थे
ये अण्डे घर में रक्खे थे
इस घर के बाहर जंगला है
ये टूट बटूट का बंगला है
ये कुटिया है
कुटिया में बुढि़या सोती थी
बुढि़या की लड़की काली थी
लड़की ने बिल्ली पाली थी
बिल्ली ने चूहा मारा था
चूहे ने अण्डे चक्खे थे
ये अण्डे घर में रक्खे थे
इस घर के बाहर जंगला है
ये टूट बटूट का बंगला है
ये जंगल है
जंगल में कुटिया होती थी
कुटिया में बुढि़या सोती थी
बुढि़या की लड़की काली थी
लड़की ने बिल्ली पाली थी
बिल्ली ने चूहा मारा था
चूहे ने अण्डे चक्खे थे
ये अण्डे घर में रक्खे थे
इस घर के बाहर जंगला है
ये टूट बटूट का बंगला है
ये गाँव है
गाँव के बाहर जंगल है
जंगल में कुटिया होती थी
कुटिया में बुढि़या सोती थी
बुढि़या की लड़की काली थी
लड़की ने बिल्ली पाली थी
बिल्ली ने चूहा मारा था
चूहे ने अण्डे चक्खे थे
ये अण्डे घर में रक्खे थे
इस घर के बाहर जंगला है
ये टूट बटूट का बंगला है
ये मुन्ना है
मुन्ने का गाँव नंगल है
गाँव के बाहर जंगल है
जंगल में कुटिया होती थी
कुटिया में बुढि़या सोती थी
बुढि़या की लड़की काली थी
लड़की ने बिल्ली पाली थी
बिल्ली ने चूहा मारा था
चूहे ने अण्डे चक्खे थे
ये अण्डे घर में रक्खे थे
इस घर के बाहर जंगला है
ये टूट बटूट का बंगला है
टूट बटूट का तोता
टूट बटूट का इक तोता है
उम्र है उसकी हफ़्ते आठ
मियाँ मिट्ठू नाम है उसका
सब कहते हैं मियाँ माठ
वाह मियाँ मिट्ठू तेरे ठाठ
जो कुछ उसके सामने आये
मुँह में डाले और चबाये
चोंच तो उसकी एक है लेकिन
दाँत हैं उसके पूरे साठ
वाह मियाँ मिट्ठू तेरे ठाठ
बायसिकल बस मोटर लारी
हरेक शै की करे सवारी
यक्का रेहड़ा बम्बू काठ
वाह मियाँ मिट्ठू तेरे ठाठ
रात को खाये मीठी चूरी
दिन को खाये हलवा पूरी
सुबह को खाये अस्सी लड्डू
शाम को खाये अण्डे साठ
वाह मियाँ मिट्ठू तेरे ठाठ
पेट है उसका इतना मोटा
जैसे देवों का हो लोटा
टाँगें उसकी इतनी लम्बी
जैसे कुतुब साहब की लाठ
वाह मियाँ मिट्ठू तेरे ठाठ
टूट बटूट के भाई
इक बड़ा है इक छोटा है
इक दुबला है इक मोटा है
दो कहते हैं उसको भय्या
दो कहते हैं उसको भाई
टूट बटूट की शामत आयी
टूट बटूट के चार हैं भाई
दो हँसते हैं दो रोते हैं
दो जागे हैं दो सोते हैं
टूट बटूट करे क्या भाई
टूट बटूट की शामत आयी
टूट बटूट के चार हैं भाई
लम्बे-लम्बे बाल हैं उनके
गोरे-गोरे गाल हैं उनके
आँखें उनकी काली-काली
सूरत उनकी भोली-भाली
कोई कहे ये दो बहने हैं
कोई कहे ये दो हैं भाई
टूट बटूट की शामत आयी
टूट बटूट के चार हैं भाई
टूट बटूट की नानी बोली
ख़ाला और मुमानी बोली
बोली अम्मी फूफी ताई
टूट बटूट की शामत आयी
टूट बटूट के चार हैं भाई
इक भाई लंगोटी पहने
दूसरा निक्कर छोटी पहने
तीसरा पहने लम्बा कुर्ता
चैथा पहने सूट और टाई
टूट बटूट की शामत आयी
टूट बटूट के चार हैं भाई
इक खाता है हलवा पूरी
इक खाता है घी की चूरी
इक खाता है गर्म पकौड़े
इक खाता है बर्फ़ मलाई
टूट बटूट की शामत आयी
टूट बटूट के चार हैं भाई
बैठे हों तो शोर मचाएँ
उठ बैठें तो नाचें-गाएँ
भूखे हों तो चीखें मारें
पेट भरे तो करें लड़ाई
टूट बटूट की शामत आयी
टूट बटूट के चार हैं भाई
टूट बटूट के चूहे
हम चूहे टूट बटूट के हैं
हम चूहे टूट बटूट के हैं
यह जितने चूहे देखते हो
कुछ गाँव के हैं कुछ जंगल के
कुछ रहने वाले झेलम के
कुछ वासी कत्थू नंगल के
कुछ लुड्डन कुछ ममदोट के हैं
हम चूहे टूट बटूट के हैं
हम शाही नस्ल के चूहे हैं
यह तख़्त और ताज हमारा है
हर गाँव में अपनी शाही है
हर शहर में राज हमारा है
हम राजे शाही कोट के हैं
हम चूहे टूट बटूट के हैं
हम बड़े ही काम के चूहे हैं
यह शेर मियाँ किस काम का है
हम असली शेर बहादुर हैं
यह शेर बहादुर नाम का है
हम फौजी शाही कोट के हैं
हम चूहे टूट बटूट के हैं
तुम जानते हो यह बी मानू
क्यों म्याऊँ म्याऊँ करती है
यह बिल्ली हमसे दबती है
यह बिल्ली हमसे डरती है
हम बिल्ले बागड़ बोट के हैं
हम चूहे टूट बटूट के हैं
यूँ ज़ाहिर में कमजोर हैं हम
पर जब भी मौज में आते हैं
यह कुत्ते गीदड़ चीज़ हैं क्या
हम शेर को भी खा जाते हैं
हम चूहे टूट बटूट के हैं
हम चूहे टूट बटूट के हैं
सूफ़ी तबस्सुम का शुमार उर्दू के बेहतरीन अदीबों (लेखकों) में होता है। बच्चों के लिए उन्होंने जो नज़्में लिखी हैं, वे किसी कारनामे से कम नहीं हैं। ख़ासतौर पर टूट बटूट की श्ाृंखला की नज़्में। टूट बटूट का किरदार बच्चों की दुनिया का नाक़ाबिले फ़रामोश (न भुलाया जा सकने वाला) किरदार है। मगर इस किरदार से न सिफऱ् बच्चों को बल्कि हम सबको अपने ज़माने को समझने और खुद अपने आप को समझने में मदद मिल सकती है। हम सबके अन्दर एक ‘टूट बटूट’ छुपा हुआ है; बदलते हुए ज़माने के रंग में ढलता हुआ और वक़्त के साथ बहता हुआ। इन नज़्मों में ‘टूट बटूट’ के हवाले से सारी फि़तरत (प्रकृति) और मज़ाहिरे कायनात (दुनिया के चमत्कार) को समेट लिया गया है। यहाँ चरिंद-परिंद और फूल-पौधे सब चलते-फिरते किरदार नज़र आते हैं, अपनी ख़्वाहिशों, आरज़ुओं और लतों के साथ। हमारे सांस्कृतिक मूल्यों की वापसी और नैतिक मूल्यों के हवाले से भी ये नज़्में बच्चों के लिए लिखी गयी दूसरे अदीबों की नज़्मों से बिल्कुल मुखतलिफ़ (अलग) और विलक्षण हैं।
इन नज़्मों का पैग़ाम बच्चों के साथ हमारे लिए यह है कि हमें अपने अन्दर बैठे हुए टूट बटूट पर नज़र रखनी चाहिए कि क्या पता वो कब एक क्लर्क से बड़े अफ़सर में बदल जाए। यूँ देखा जाए तो टूट बटूट हमारी अन्तर-आत्मा का पर्याय बन जाता है।
संगीता गुन्देचा हिन्दी की मारूफ़ और मुनफ़रिद शायरा और कहानीकार हैं। सूफ़ी तबस्सुम की इन नज़्मों का चयन उनकी उच्च स्तर की समझ और सौन्दर्यबोध का जीता जागता सुबूत है। उन्होंने टूट बटूट की इन नज़्मों का लिप्यान्तरण उर्दू और फ़ारसी की अध्येता मरहूमा शाहबानो की मदद से कुछ बरस पहले किया था। यह बहुत उम्दा लिप्यान्तरण है, क्योंकि इसमें उर्दू के बुनयादी मुहावरे की बड़ी खूबी से हिफ़ाज़त की गयी है। मैं मरहूमा शाहबानो को खि़राजे-अक़ीदत (श्रृद्धांजलि) और संगीता गुन्देचा को इस उम्दा लिप्यान्तरण और सम्पादन के लिए मुबारक़बाद पेश करता हूँ। -
ख़ालिद जावेद
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