जीवन और जगत पर विचारों का सिलसिला सामदोंग रिनपोछे से उदयन वाजपेयी की बातचीत
27-Oct-2020 12:00 AM 5594

5 नवम्बर, 1939 को जोल, तिब्बत में जन्में सामदोंग रिनपोछे तिब्बती संस्कृति और बौद्ध ध्ार्म व दर्शन के गहरे विद्वान हैं। इन्हें बीस वर्ष की वय में ही तिब्बत से भारत विस्थापित होना पड़ा था। वे अध्ािकांशतः ध्ार्मशाला में रहते हैं और प्रवासी तिब्बत सरकार के प्रध्ाानमन्त्री रहे हैं। बाद के वर्षों में श्री रिनपोछे सारनाथ, वाराणसी के तिब्बती उच्च अध्ययन केन्द्र के प्राचार्य और निदेशक रहे हैं। महात्मा गाँध्ाी से प्रभावित सामदोंग रिनपोछे से मेरी पहली भेंट मसूरी में हुई थी जहाँ उन्होंने परम्परा के किन्हीं आयामों पर व्याख्यान दिया था। पूरे व्याख्यान की अवध्ाि में मेरा ध्यान इस तरह लग गया था कि जैसे ही व्याख्यान ख़त्म हुआ, मुझे लगा जैसे मैं किसी दूसरी दुनिया से मसूरी के उस हाॅल में फेंक दिया गया हूँ, जिसमें बिछी दरी पर मैं बैठा था। इस बातचीत के लिए रिनपोछे जी को बहुत मुश्किल से समय निकालना पड़ा। हमारी तीन बार भेंट हुई। पहले दो बार हम दिल्ली के एक अतिथि गृह में मिले। वे उस भवन की ऊपरी मंजि़ल पर ठहरे थे। उन्होंने मुझे कमरे तक पहुँचाने के लिए नीचे ही कह रखा था। वह बिल्कुल सादा कमरा था जिसमें बिस्तर के अलावा दो कुर्सियाँ और एक मेज़ रखी थी। मेज़ पर कुछ किताबें और एक डायरी थी। मेरे जाते ही हमने बातचीत शुरू कर दी और जैसे ही निधर््ाारित समय समाप्त हुआ, मैंने खुद बातचीत बन्द की और उनसे अगले दिन आने की अनुमति लेकर चला गया। अगले दिन भी बातचीत ठीक समय पर शुरू हुई और कुछ घण्टे चलने पर समाप्त हुई। रिनपोछे जी ध्ाीमें स्वर में और ध्ाीरे-ध्ाीरे बोलते हैं। उन्हें सुनने पूरा ध्यान देना पड़ता है। तीसरी बार हमारी भेंट दिल्ली में ही एक दूसरे स्थान पर हुई। इस बार हम सुबह क़रीब 11 बजे से लेकर शाम 4 बजे तक रुक-रुककर बातें करते रहे। मेरे हर सवाल को वे बहुत ध्यान से सुनते और फिर हल्का-सा रुककर मानो अपने ही भीतर डूबकर उसका जवाब देते। पहली दो मुलाकातें पिछले वर्ष फरवरी और अगली नवम्बर में हुई।

उदयन- हम बातचीत की शुरुआत तिब्बती भाषा को जानने से शुरू करते हैं। मैंने सुना है कि संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद करते हुए तिब्बती भाषा का रूपान्तरण हुआ। हम कुछ देर तिब्बती भाषा के इतिहास पर ठहरें और यह समझने की कोशिश करें कि आज उसका क्या विस्तार है?
सामदोंग रिनपोछे- आपने यह बहुत गम्भीर सवाल पूछा है। तिब्बत की भाषा के उदय का कोई प्रामाणिक इतिहास आज तक प्राप्त नहीं है। तिब्बत में मिले पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार वहाँ मानव समाज की स्थापना तीस-चालीस हज़ार साल पहले हुई लगती है क्योंकि तब के और तब से पहले के भी कुछ मानव अवशेष मिले हैं। अगर इतने पहले वहाँ मानव समाज रहा है, वह बिना भाषा के तो नहीं ही रहा होगा। लेकिन आज हम जिस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, जिसका व्याकरण है, साहित्य है, वह सातवीं शताब्दी की है। उसकी लिपि भी तभी की है। सातवीं शताब्दी में वहाँ एक राजा हुए थे, सुनसेंग कम्पो, उन्होंने इक्कीस विद्यार्थी भाषा का अनुशासन और लिपि सीखने के लिए भारत भेजे थे। वे सभी नालन्दा जा रहे थे। उनमें से बीस की मृत्यु हो गयी।
उदयन- क्या वे सभी नालन्दा पहुँच पाये थे या कुछ की मृत्यु रास्ते में ही हो गयी थी?
रिनपोछे जी- कुछ रास्ते में मर गये और कुछ लौट नहीं पाये। वे यहाँ की गर्मी सह नहीं पाये। अकेला विद्यार्थी जो बचकर लौट पाया, उसका नाम अणु था। वह संस्कृत का अणु था या तिब्बती का, इसकी जानकारी नहीं है। यहाँ रहते हुए उनका नाम सम्भोट रख दिया गया। भोट शब्द प्रतिपत्ति के लिए होता है और सम उसमें उपसर्ग है। उन्होंने यहाँ भारत में संस्कृत सीखी और यहाँ की लिपि का अध्ययन किया। उन्होंने संस्कृत की वर्णमाला से कुछ वर्णों को हटा दिया और कुछ को जोड़ दिया मसलन उन्होंने क ख ग घ ङ् में से ‘क’ को छोड़ दिया केवल ख ग घ ङ् रख लिया। च छ ज झ ञ में से ‘च’ को छोड़कर बाकी वर्ण ले लिये। प फ ब भ म में ‘ब’ को छोड़ दिया। त थ द ध्ा न को पूरा ले लिया और ट ठ ड ढ ण वर्ग के सभी वर्णों को हटा दिया। इसके साथ कुछ नये वर्ण ‘त्च’, ‘त्छ’, ‘त्ज’, ‘त्व’ ‘त्ष’ ‘त्स’ और ‘त्ह’ जोड़े। ये संस्कृत में नहीं थे। दस अक्षरों को हटाकर छह को जोड़ दिया। कुल तीस व्यंजन हो गये। संस्कृत के सोलह स्वरों में से केवल चार लिये गये ‘इ’, ‘उ’, ‘ए’ और ‘ओ’। इस तरह उन्होंने कुल चैंतीस अक्षर तय किये। फिर उसकी व्याकरण का आठ अध्यायों में शास्त्र लिखा। उनमें से केवल दो अध्याय अब उपलब्ध्ा हैं, बाकी बीच में लुप्त हो गये। ऐसा कहा जाता है। अभी जो दो अध्याय उपलब्ध्ा हैं, उनसे हमारी भाषा का सारा व्याकरण सम्बन्ध्ाी कार्य सम्पन्न हो जाता है। तिब्बती लिपि और वर्णमाला की यह संक्षिप्त कथा है। तिब्बती लिपि उस समय प्रचलित देवनागरी की मैथिली से बनी है। वे लोग जो नालन्दा, बिहार के इलाके में पायी जाने वाली पुरानी मैथिली पढ़ पाते हैं, वे तिब्बती लिपि पढ़ सकते हैं।
उदयन- यह इसलिए होगा क्योंकि नालन्दा में उन दिनों मैथिली का ही व्यवहार होता होगा। नालन्दा उसी इलाके में है भी...
रिनपोछे जी- इस रास्ते तिब्बती भाषा व्यवस्थित हुई। आजकल के इतिहासकारों में इसको लेकर विवाद है। कुछ का कहना है कि सम्भोट ने जो लिपि और व्याकरण बनाये, उससे पहले भी लिपि और व्याकरण थे, यह आमतौर पर बौद्ध ध्ार्म पूर्व बौन ध्ार्मावलम्बियों में से कुछ का कहना है। बौन ध्ार्म तिब्बत में बौद्ध ध्ार्म के पहुँचने के पहले से रहा है। कुछ लोगों का कहना है कि उनके पास लिपि नहीं थी, उनका सारा कर्म-काण्ड मौखिक होता था। गुरू अपने शिष्यों को मौखिक शिक्षा ही देते थे। उनकी लिपि के कोई गैर-राजनैतिक साक्ष्य अब तक मिले नहीं है। आजकल जो लिखा जाता है, उसकी प्राचीनता या अर्वाचीनता का कोई आध्ाार नहीं है। सम्भोट की बनायी लिपि को कई लोग, इतिहास की दृष्टि से, प्रथम लिपि मानते हैं और ऐसा मानने में कोई ग़लती नहीं है, मैं ऐसा सोचता हूँ।
भाषा का विकास होता रहा और आठवीं शताब्दी में वहाँ बौद्ध ध्ार्म के विस्तार के लिए आचार्य शान्तरचित को आमन्त्रित किया गया। वे नालन्दा के विद्वान थे और वृद्ध अवस्था में तिब्बत गये थे। वे तब सत्तर वर्ष के थे और उनका शेष जीवन तिब्बत में ही बीता। उनसे जब राजा ने यह आग्रह किया कि उन्हें तिब्बत में बौद्ध ध्ार्म का विस्तार करना है, उन्होंने जवाब दिया, इसके लिए दो कार्य करने होंगेः प्रथम, सारे बौद्ध वाङ्मय को तिब्बती भाषा में अनुदित करना होगा। दूसरा, अपने कुल पुत्रों से भिक्षु संघ की स्थापना करना होगी। नेपाल या हिन्दुस्तान से भिक्षुओं को बुलाकर काम नहीं चलेगा। अनुवाद करने के लिए तिब्बती भाषा को संस्कृत के समकक्ष लाना आवश्यक था जिससे अनुवाद में कोई त्रुटि न हो। इस तरह तिब्बत में सबसे बड़े बौद्ध मठ ‘सम्ये’ की स्थापना हुई। यह आजकल के तिब्बत के दक्षिण में है। अब उसके अवशेष बाकी हैं, हालाँकि जब हम 1959 में तिब्बत से यहाँ आये थे, वह साबुत था।
उदयन- क्या तब वह सक्रिय था?
रिनपोछे जी- जी हाँ। बाद में चीन के कल्चरल रेव्योल्यूशन (सांस्कृतिक क्रान्ति) में नष्ट हो गया था। अब फिर से वहाँ कुछ बना दिया गया है।
उदयन- उस मठ में क्या हुआ करता था? क्या वहाँ संस्कृत ग्रन्थों के अनुवाद का कार्य भी होता था ?
रिनपोछे जी- उसमें अनेक विभाग थे। एक था साध्ाना का विभाग या उसे संकाय कहिये। उसी में एक था अनुवाद का विभाग और एक था अध्ययन-अध्यापन का विभाग। उसमें भारत के चार-पाँच सौ विद्वान रहते थे और उनके साथ तिब्बत के चार-पाँच सौ विद्यार्थी भी रहते थे। उस मठ में संस्कृत का अध्ययन और अध्यापन होता था, साथ ही साध्ाना होती थी और अनुवाद भी।
उदयन- क्या उन विद्वानों में केवल बौद्ध दर्शन के विद्वान थे या उनके अलावा अन्य दर्शनों के भी विद्वान थे?
रिनपोछे जी- केवल बौद्ध दार्शनिक थे। भारतीयों में अध्ािकतर भिक्षु लोग थे। गृहस्थ कम थे। इक्का-दुक्का ही रहे होंगे। शान्तरचित तिब्बत जाने से पहले कई ग्रन्थ लिख चुके थे। उनका ‘तत्व संग्रह’ अत्यन्त महत्व का है। उसके साथ ही उन्होंने उसका स्वभाष्य भी लिखा था। उसके अलावा भी उन्होंने चार-पाँच ग्रन्थ और लिखे थे। उन सभी का तिब्बत में अनुवाद हुआ। उनके बाद उनके प्रध्ाान शिष्य कमलशील को भी तिब्बत आमन्त्रित किया गया।
उदयन- क्या वे भी नालन्दा से आये थे ?
रिनपोछे जी- हाँ। कमलशील भी अनेक ग्रन्थों के रचयिता और व्याख्याकार थे। उन्होंने भी कई ग्रन्थ तिब्बत में रहते हुए लिखे। नवीं शताब्दी के मध्य तक, लगभग सौ सालों तक, अनुवाद कार्य चलता रहा। इस अनुवाद के दौरान संस्कृत भाषा की लेखन और भाषा की शैलियों को तिब्बती भाषा में विकसित किया गया। जैसे संस्कृत में पर्यायवाची शब्द होते हैं वैसे ही पर्यायवाचियों को तिब्बती भाषा में विकसित किया गया। ‘अमरकोष’ का अनुवाद किया गया। अमरकोष में जो भी शब्दावली थी, उसका तिब्बती में अनुवाद किया गया। संस्कृत के सारे छन्दों का तिब्बती भाषा में समकक्ष ढूँढकर निधर््ाारित कर दिया गया। उदाहरण के लिए अगर संस्कृत की कोई रचना का अनुष्टुप छन्द से अनुवाद होगा तो तिब्बती में कौन-सा छन्द रहेगा, इसका निधर््ाारण हुआ। इसीलिए तिब्बती ग्रन्थों से संस्कृत में दोबारा अनुवाद की सहज सम्भावना है क्योंकि जब तक पद में छन्द वापस नहीं आता, वह पद बैठता नहीं है। संस्कृत के इक्कीस या बाईस उपसर्गों के समकक्ष उपसर्ग तिब्बती में आ गये। मसलन ‘शुद्ध’ के साथ ‘वि’ लगाने से ‘विशुद्ध’ और ‘परि’ लगाने से ‘परिशुद्ध’ आदि बनते हैं, तिब्बती में ‘वि’, ‘परि’ आदि सभी उपसर्गों के समकक्ष निधर््ाारित किये गये।
उदयन- उन उपसर्गों की नये सिरे से कल्पना की गयी...
रिनपोछे जी- उन्हें कल्पित किया गया। इसीलिए समूचे विश्व के अनुवाद के इतिहास में जैसा ठीक-ठीक अनुवाद संस्कृत से तिब्बती में हुआ है, वैसा कोई अनुवाद कहीं नहीं हुआ। बौद्ध वाङ्मय का चीनी भाषा में भी अनुवाद हुआ है पर तब तक चीनी भाषा विकसित हो चुकी थी। उसकी प्रकृति संस्कृत से मिलती नहीं थी। इसलिए चीनी भाषा में भावानुवाद हुआ। वह शब्दार्थ अनुवाद नहीं हो पाया। जबकि तिब्बत में आचार्य शान्तरचित के निर्देशन में भाषा को ऐसा बनाया गया कि संस्कृत से ठीक-ठीक शब्दानुवाद, छन्दानुवाद और भावानुवाद हो सके। अगर संस्कृत के ग्रन्थ में ‘दिनकर’ लिखा है तो उसका अनुवाद तिब्बती में ‘दिनकर’ के समकक्ष ही होता था। ‘सूर्य’ लिखा हो तो ‘सूर्य’ के समकक्ष। अंग्रेज़ी में दोनों के लिए ही ‘सन’ हो जाएगा।
उदयन- ‘दिनकर’ और ‘सूर्य’ के अर्थ भले ही एक-से हों पर उनके अर्थ की छटा अलग-अलग है।
रिनपोछे जी- भाषान्तरण के विश्व के इतिहास में संस्कृत और पालि बल्कि भारतीय भाषाओं से जो अनुवाद तिब्बती में हुआ है, उससे अध्ािक सही और अध्ािक अनुवाद कभी नहीं हुआ। बुद्ध वचन का अनुवाद तिब्बत में एक सौ आठ पोथियों में हुआ है। उनके तीन हज़ार से अध्ािक शीर्षक हैं। उनमें सूत्र और तन्त्र आदि हैं। इसके साथ ही भगवान् बुद्ध के वचनों की टीकाओं का भी अनुवाद हुआ है। ये टीकाएँ भारतीय विद्वानों ने की है और इनके पाँच हज़ार से अध्ािक शीर्षक हैं। ये सब दो सौ बीस पोथियों में है। इतना अनुवाद कहीं नहीं हुआ है। चीन में हुआ बौद्ध साहित्य का अनुवाद इसका एक तिहाई है।
उदयन- इतना सघन और व्यापक अनुवाद निश्चय ही न सिर्फ़ लम्बे समय तक चला होगा, इसके लिए राज्य या समाज से बड़ा समर्थन भी रहा होगा।
रिनपोछे जी- अनुवाद के लिए एक राज्यादेश निकाला गया या कहिये कानून बनाया गया। कोई तिब्बती अनुवादक संस्कृत में कितना भी प्रवीण क्यूँ न हो वह संस्कृत पण्डित के सहयोग के बिना अनुवाद नहीं कर सकेगा, साथ ही यह भी कहा गया कि भारतीय पण्डित तिब्बती भाषा में कितना भी निष्णात क्यूँ न हो वह बिना तिब्बती विद्वान के अनुवाद नहीं करेगा। इन दो राज्याज्ञाओं के अलावा तीसरी राज्याज्ञा यह थी कि जिस पाण्डुलिपि से अनुवाद किया गया है, वह संस्कृत की हो या अन्य भारतीय भाषा की और तिब्बती भाषा में अनुवाद की पाण्डुलिपि दोनों को अनुवाद परिषद के समक्ष रखना होगा।
उदयन- अनुवाद परिषद का संयोजन कैसे होता था? उसमें किस तरह के विद्वान होते थे?
रिनपोछे जी- अनुवाद परिषद में सौ विद्वान तिब्बती भाषा के और सौ संस्कृत भाषा के विद्वान बैठते थे। वे मूलग्रन्थ और उसके अनुवाद का मिलान करते थे। अनुवाद परिषद की स्वीकृति के बाद ही अनुदित ग्रन्थ सूचीबद्ध होता था।
उदयन- सूचीबद्ध होने को तिब्बती में क्या कहते हैं?
रिनपोछे जी- करछा। अनुवाद के नीचे संस्कृत पण्डित और अनुवादक का नाम देना अनिवार्य था। उसमें यह लिखा जाता था कि अमुक पण्डित के निर्देशन में अमुक अनुवादक ने अनुवाद किया है और उसका मूल ग्रन्थ कश्मीर से मिला या मध्यभारत से या असम से मिला आदि। यह इसलिए लिखा जाता था कि अगर बाद में दोबारा निरीक्षण करना हो तो कर सकें।
उदयन- इसका यह अर्थ है कि तिब्बती भाषा में संस्कृत, पालि और अन्य भारतीय भाषाओं से जो अनुवाद हुए हैं, वे सभी नालन्दा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से प्राप्त ग्रन्थों भर के नहीं हैं। अनुवाद के लिए हर क्षेत्र से ग्रन्थ जुटाये गये थे।
रिनपोछे जी- कश्मीर से आये ग्रन्थों के बहुत अनुवाद हुए। तब कश्मीर में बौद्ध ध्ार्म बहुत प्रचलित था। कुछ ग्रन्थ आसाम से भी आये। मध्यभारत में नालन्दा, विक्रमशिला और पश्चिमी भारत के तक्षशिला से भी कुछ ग्रन्थों के अनुवाद हुए। इस तरह इन अनुदित ग्रन्थों में दो-तीन सौ अनुवादकों और लगभग उतने ही पण्डितों का नाम मिलता है।
उदयन- क्या कई बार जिन जगहों पर अनुवादक जाते थे वहाँ संस्कृत के पण्डितों की खोज भी की जाती थी?
रिनपोछे जी- ऐसा नहीं था। अनुवादक जहाँ भी जाते थे, संस्कृत के पण्डित के साथ जाते थे। पर अध्ािकांश अनुवाद तिब्बत में बैठकर ही हुए। पाण्डुलिपियाँ जगह-जगह से लायी जाती थीं। अध्ािकांश पाण्डुलिपियों में यह लिखा हुआ है कि वे कहाँ से आयी हैं।
उदयन- इन पाण्डुलिपियाँ की भी प्रतियाँ तैयार की जाती होंगी?
रिनपोछे जी- इन्हें अनुवाद के साथ रखना होता था। बाद में राहुल सांकृत्यायन वहाँ से बहुत-सी पाण्डुलिपियाँ भारत ले आये। मूल और अनुदित ग्रन्थ राज पुस्तकालय में रखना होते थे। राज पुस्तकालय में सभी अनुदित ग्रन्थ पंजीकृत होकर रखे जाते थे जिससे उनकी प्रामाणिकता बनी रहे।
उदयन- राज पुस्तकालय में संग्रहीत पोथियों को पढ़ने का अध्ािकार केवल भिक्षुओं को था या सभी को?
रिनपोछे जी- साध्ाारण लोग भी वहाँ ग्रन्थ पढ़ सकते थे। जो भी पढ़ना चाहता पढ़ सकता था। विद्या ध्ाारण करने में भिक्षुओं और गृहस्थों के बीच का अन्तर नहीं माना जाता था। वहाँ जात-पाँत भी नहीं थी। यह कहा जा सकता है कि दुनिया में अगर कोई ऐसी भाषा है जिसे लेकर संस्कृत की तमाम अर्थच्छाटाओं का अनुवाद किया जा सकता है, वह केवल तिब्बती है। इतनी सक्षम कोई और भाषा नहीं है।
उदयन- बौद्ध ध्ार्म के तिब्बत पहुँचने की क्या पृष्ठभूमि रही है? मैं यह समझना चाह रहा हूँ कि बौद्ध ध्ार्म के पहले की ध्ार्म परम्परा जिसे आपने बौन ध्ार्म परम्परा कहा, ने ऐसा क्या परिवेश बनाया था कि बौद्ध ध्ार्म वहाँ इतना अध्ािक स्वीकृत हुआ? क्या तिब्बत से कुछ जिज्ञासु लोग भारत गये थे और उन्होंने वापस आकर बौद्ध ध्ार्म के विषय में अपने देशवासियों को बताया या कुछ बौद्ध भिक्षु भारत से तिब्बत गये? इसका विशेष महत्व इसलिए है क्योंकि बौद्ध ध्ाार्मिक परम्परा तिब्बत में अत्यन्त तेज़ी से फैली थी?
रिनपोछे जी- उसका इतिहास बहुत संक्षेप में बताता हूँ। क़रीब-क़रीब छठी शताब्दी में तिब्बत में एक राजा थे। उनके विषय में मिथक भी है और इतिहास भी। मिथक के अनुसार एक पोथी आकाश से राजमार्ग पर अवतरित हुई। उसकी इबारत कोई पढ़ नहीं पा रहा था। फिर आकाश-वाणी हुई कि तुमसे चार पीढि़यों बाद इसका अर्थ जाना जा सकेगा। इसलिए उस पोथी को एक पूजनीय स्थान पर रखा गया और उसे फूलों से घेर दिया गया और पूज्य माना गया। बाद में पता चला कि वह एक बुद्ध वचन था, संस्कृत में लिखा हुआ। इस मिथक के अनुसार इस तरह तिब्बत में बौद्ध वाङ्मय का पहला अवतरण हुआ। इतिहास लेखन वाले लोग आकाश से आयी पोथी की बात नहीं मानते। उनका कहना है कि तुर्कीस्तान से दो बौद्ध लोग तिब्बत गये थे और उन्होंने इस पोथी को राजा को भेंट किया था। दोनों यह स्वीकारते हैं कि पोथी किसी समय राजा के हाथों में आयी थी। सातवीं शताब्दी में तिब्बत के राजा सुनसेंग कम्पो ने नेपाल और चीन की राजकुमारियों से शादी की। दोनों ही राजकुमारियाँ अपने दहेज़ में बुद्ध की मूर्तियाँ ले गयी थीं।
उदयन- ये दोनों मूर्तियाँ क्या अभी भी तिब्बत में है?
रिनपोछे जी- जी हाँ, कई शतियों तक रहीं। इस तरह भगवान् बुद्ध की मूर्तियाँ तिब्बत पहुँच गयीं। इसके बाद दोनों मूर्तियों के ल्हासा में मन्दिर स्थापित हुए। चीन से आयी मूर्ति अब तक है, चीन की सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान नेपाल से आयी मूर्ति को तोड़ दिया गया लेकिन उसके टुकड़ों को जोड़कर उसे फिर से बनाया गया। इन मूर्तियों के आ जाने के बाद राजा के मन में यह जिज्ञासा हुई कि वह इन मूर्तियों से सम्बद्ध बौद्ध ध्ार्म को जाने। फिर यह विचार किया गया कि इस ध्ार्म को जानने वे कहाँ जाएँ? उनके मन्त्रियों ने सलाह दी कि चीन में इस ध्ार्म का बहुत प्रचलन है, वहाँ इस ध्ार्म के विद्वान भी बहुत हैं। हमें यह ध्ार्म वहाँ से लाना चाहिए। इस पर राजा ने उनसे पूछा कि बौद्ध ध्ार्म का उदय कहाँ हुआ है। भगवान् बुद्ध थे कहाँ के? इस पर जवाब मिला कि वे भारत के थे। इस पर राजा ने सोचा कि उन्हें बौद्ध ध्ार्म का द्वितीयक ज्ञान क्यों लेना चाहिए। उन लोगों को भारत जाकर ही बौद्ध ध्ार्म की शिक्षा लेनी चाहिए।
उदयन- क्या इसी कारण तिब्बत से वे इक्कीस विद्यार्थी नालन्दा भेजे गये थे?
रिनपोछे जी- राजा ने ही ये इक्कीस विद्यार्थी बौद्ध ध्ार्म के ज्ञान के लिए भारत भेजे। उन्होंने ही तिब्बती भाषा का विकास सम्भव किया। इन्हीं इक्कीस विद्यार्थियों के साथ सम्भोटी आये थे। सम्भोटी के लौटने के बाद जब भाषा समृद्ध हो गयी तब बौद्ध ध्ार्म की स्थापना के लिए राज-शासन की प्रेरणा से आचार्य शान्तरचित आमन्त्रित किये गये। उन्होंने ही भिक्षु संघ बनाये थे।
उदयन- क्या इन भिक्षु संघों में सारे तिब्बती लोग थे?
रिनपोछे जी- शुरू में साठ तिब्बती नागरिकों को भिक्षु बनाया गया था। जब यह प्रयोग सफल हुआ तब और लोग भी इसमें शामिल हो गये। इसीलिए तिब्बत में बौद्ध ध्ार्म की स्थापना शान्तरचित के निर्देशन में हुई। उसके बाद कमलशील का निर्देशन रहा। यह स्थापना ठीक-ठीक हुई और उसमें कोई मिश्रण नहीं हुआ।
उदयन- क्या बौद्ध ध्ार्म की स्थापना से तिब्बत के समाज की संरचना में कोई फ़र्क आया?
रिनपोछे जी- समाज की संरचना में कोई बड़ा फ़र्क आया हो, ऐसा इतिहास में मिलता नहीं है। लेकिन उससे राष्ट्र के रूप में बदलाव अवश्य आया। इसके पहले तक तिब्बत को योद्धाओं का देश माना जाता था। वहाँ योद्धा बहुत थे, जिनकी सैन्य शक्ति बहुत अध्ािक थी। तब चीन और मंगोलिया भी तिब्बत से डरते थे। तिब्बत का मंगोलिया और चीन से कई बार युद्ध हुआ था।
उदयन- क्या इसका सम्बन्ध्ा बौद्ध ध्ार्म के पहले के बौन ध्ार्म से था ?
रिनपोछे जी- सम्बन्ध्ा शायद नहीं था। वे प्राकृतिक रूप से ही अपने क्षेत्र को विस्तृत करने और अपनी शक्ति को संजोने के लिए युद्ध करते थे। बौद्ध ध्ार्म की स्थापना के बाद समूचा राष्ट्र अहिंसक हो गया इसलिए युद्ध होना कम हो गये।
उदयन- यह रूपान्तरण कितने वर्षों में हुआ। सौ-डेढ़ सौ वर्ष से कम में ऐसा रूपान्तरण सम्भव नहीं लगता?
रिनपोछे जी- यह रूपान्तरण सौ-डेढ़ सौ वर्षों में हुआ। नवीं शती में राज परिवार विभाजित हो गया। इसके बाद अन्तर्कलह हुई और तिब्बत छोटे-छोटे भागों में बँट गया। लंगध्ार्मा नाम के जो राजा हुए, उन्होंने बौद्ध ध्ार्म को पूरी तरह नष्ट करने का प्रयास किया। बहुत-से मन्दिरों को तोड़ दिया गया। बहुत-सा वाङ्मय जला दिया गया। पर उन राजा का शासन केवल छः माह तक ही रहा। अगर वह लम्बे समय तक रहा होता, वहाँ बौद्ध ध्ार्म खत्म हो गया होता। इतिहास के लोग इसकी दो तरह से व्याख्या करते हैं। बौन ध्ार्म से सम्बन्ध्ाित पुराहित और राज परिषद ने लंगध्ार्मा को बौद्ध ध्ार्म को नष्ट करने प्रेरित किया। लेकिन कुछ और लोग कहते हैं कि ऐसा नहीं था। वह राजा स्वयं बौद्ध ध्ार्म विरोध्ाी थे और योद्धा बनना चाहते थे। वे सोचते थे कि बौद्ध ध्ार्म के कारण सैन्य शक्ति का क्षय हुआ है और वे उस सैन्य शक्ति को दोबारा स्थापित करना चाहते थे। वे यह मानते थे कि बौद्ध संघ और अनुवाद के कार्य में बहुत सारा राजकीय ध्ान का व्यय हुआ है। वे उसे रोकना चाहते थे। कारण जो भी रहा हो, उन्होंने बौद्ध ध्ार्म को समाप्त करने की चेष्टा की। छः महीने के बाद एक बौद्ध भिक्षु ने ही उन्हें मार दिया। उनके मरने के बाद दोबारा जो ध्ार्म प्रचार दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में हुआ, उसमें बहुत कठिनायी हुई। कुछ भिक्षु संघ जो पहले चीन की सीमा पर थे, वहाँ से आ गये। ध्ार्मपाल जैसे कुछ भारतीय पण्डित कश्मीर से वहाँ आये। लेकिन इन सबसे बौद्ध ध्ार्म की व्यवस्था ठीक-ठीक नहीं हो पा रही थी इसलिए दीपांकर श्रीज्ञान को आमन्त्रित किया गया। वे बंगाल के राजकुमार थे और विक्रमशिला के विद्वान थे। वे ग्यारहवीं शती में तिब्बत गये। वे क़रीब सत्रह वर्षों तक तिब्बत में रहे। उनका शरीर तिब्बत में ही छूटा। दीपांकर श्रीज्ञान ने तिब्बत में रहकर ‘बौद्धपादप्रदीप’ नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की।
उदयन- इसका आशय हुआ ‘बुद्ध के मार्ग का आलोकन।’ क्या यह किसी तरह की टीका थी?
रिनपोछे जी- यह शास्त्र था। इसका तिब्बत में बहुत प्रचार हुआ। इस बीच बौद्ध ध्ार्म की जो दुव्र्याख्याएँ और ग़लतफ़हमियाँ पैदा हो गयी थीं, उनका इस ग्रन्थ ने निराकरण किया। इस तरह बौद्ध ध्ार्म का पुर्नस्थापन हुआ। उनके साथ अनुवादक रतनभद्र ने सारे पुराने अनुवादों का पुनरावलोकन कर उसका संकलन किया। रतनभद्र का तिब्बती नाम है रिनछिन संगपो। उनके द्वारा स्थापित कई विहार अभी भी किन्नोर, लद्दाख आदि में बाकी हैं। उन दिनों ये सब तिब्बत के अन्तर्गत ही आते थे। ये हिमालयायी क्षेत्र के स्थान हैं।
उदयन- क्या उसके बाद कोई बड़ी बाध्ाा तिब्बत में बौद्ध ध्ाार्मिक परम्परा पर अब तक आयी है?
रिनपोछे जी- ग्यारहवीं शताब्दी से 1959 में चीन का तिब्बत पर हमला होने से पहले तक कोई गड़बड़ नहीं थी। यह परम्परा क़रीब एक हज़ार वर्ष तक अक्षुण्ण चलती रही।
उदयन- आपने अपने एक व्याख्यान में कहा था कि बौद्ध ध्ार्म में ज्ञान परम्परा ऊँचे स्तर की है पर उसमें राज्य व्यवस्था की कल्पना बहुत विस्तृत नहीं है। क्या तिब्बत पर इसका असर पड़ा है? मसलन भारत में युद्ध में जाने वाले लोग हुआ करते थे, उनको बहुत मोटे रूप में क्षत्रिय कह सकते हैं पर केवल क्षत्रिय ही नहीं जाते थे याकि सारे क्षत्रिय भी नहीं जाते थे। क्या बौद्ध ध्ार्म की स्थापना के बाद तिब्बत में योद्धा बाकी ही नहीं बचे?
रिनपोछे जी- क्षत्रिय बिल्कुल ही नहीं बचे, यह कहना कठिन है। सारे राजाओं ने किसी हद तक सैनिक बल बनाया था। लेकिन पहले के जैसा सैन्य बल जहाँ सैनिक युद्ध करके अपने क्षेत्र का विस्तार करने में संलग्न रहते थे, वह लगभग बन्द हो गया। बौद्ध ध्ार्म के बाद योद्धा लोग आन्तरिक सुरक्षा और कानून व्यवस्था के लिए थे। उनका महत्व आनुष्ठानिक भी था। सोलहवीं शताब्दी से दलाई लामाओं का शासन शुरू होने के बाद सैनिक बल का समारोहों में परेड और सल्यूट आदि करने का कार्य शुरू हुआ।
उदयन- तिब्बत की अध्येता-राजा परम्परा क्या दलाई लामा के ही शासन से शुरू हुई है, या यह इसके पहले भी कभी थी?
रिनपोछे जी- यह दलाई लामा के शासन से पहले तेरहवीं शताब्दी के सचा वंश से शुरू हुई। उन्नीसवीं शती में तिब्बत तेरह हिस्सों में बँट गया था। हर हिस्से पर कोई प्रध्ाान शासन करता था। सन् 1213 में जिंगिश खान (चंगेज़ खान 1162-1227) की मंगोलियाई सेना ने तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया। उनके वंशजों ने कुछ समय तक तिब्बत पर शासन किया। लेकिन उनके शासन करने का तरीका चीन से अलग था। मंगोलियाई लोग तिब्बत में रहते नहीं थे, उन्होंने तिब्बत के हिस्सों के शासकों को ही शासन सौंप रखा था। हर साल एक निश्चित मात्रा में कर राशि मंगोलिया भेजी जाती थी। किस शासक के मरने के बाद उसका कौन उत्तराध्ािकारी होगा, यह मंगोलियाई शासक तय करते थे। इसके अलावा सारा स्थानीय शासन पहले जैसा ही रहा। जिंगिश खान के तीसरे वंशज कुबला खान (1259-1297) का शासन चीन पर था। कुबला खान ने डोंगिन छीते फापा को चीन में राजगुरू की पदवी दी। वे शाक्य बौद्ध परम्परा के बहुत बड़े विद्वान थे। तिब्बत में बौद्ध परम्परा में चार सम्प्रदाय हैं। उसमें नीमा सबसे पुराना है। उसके बाद शाक्य हैं। डोंगिन छीते फापा को कुबला खान ने राजगुरू नियुक्त कर उनसे तान्त्रिक अभिषेक प्राप्त किया। तब तक तिब्बत में मंगोलियाई शासन के पचास-पचपन वर्ष बीत चुके थे। गुरू दक्षिणा के रूप में कुबला खान ने गुरू फापा को तिब्बत दे दिया। तभी से तिब्बत में ध्ार्म गुरू शासक होना शुरू हुए।
उदयन- आप यह कह रहे हैं कि कुबला खान ने उन्हें तिब्बत गुरू दक्षिणा में देते हुए उनसे तिब्बत का शासन करने का आग्रह किया था।
रिनपोछे जी- कुबला खान ने फापा को तिब्बत का शासक नियुक्त कर उनके चारों ओर शासन का काम करने वाले मंगोलियाई कर्मचारी नियुक्त कर दिये। उन्होंने कहा कि आप गुरू हैं, आपको शासन करने में मुश्किल होगी, हमारे लोग शासन करना जानते हैं, वे आपके इर्द-गिर्द रहेंगे। उसके बाद से सारा तिब्बत एक राष्ट्र के रूप में स्थापित होकर शाक्य वंश के शासन में आ गया। उसके बाद दो-तीन राजवंशों ने तिब्बत का शासन किया।
पाँचवे दलाई लामा के समय तिब्बत में आन्तरिक कलह बढ़ गयी और इसलिए मंगोलियाई शासक गुशी खान (1582-1654) ने दो साल तक सेना लेकर तिब्बत को शाक्य वंश से ले लिया और पाँचवे दलाई लामा को कहा कि मैं यहाँ शासन करने नहीं आया हूँ। यह ध्ार्म का क्षेत्र है और मैं यहाँ शिक्षित होने आया हूँ और चूँकि यह क्षेत्र मर्यादित होना चाहिए, मैं इसका शासन आपको दे रहा हूँ।
उदयन- मेरा ख़याल है कि तिब्बत की एक ध्ाार्मिक क्षेत्र होने की मान्यता मंगोलियाई लोगों के बीच बहुत पुरानी है, शायद चंगेज़ खान के समय से। क्या चंगेज़ खान स्वयं तिब्बत आये थे?
रिनपोछे जी- जी हाँ। चंगेज़ खान तिब्बत के केवल कुछ क्षेत्रों में आये थे। वे तिब्बत के पूरे क्षेत्रों में नहीं गये थे लेकिन उनके सिपहसालार हर जगह काम देखते थे। उनका सैनिक बल इतना अध्ािक था कि किसी में उनका विरोध्ा करने का साहस नहीं था। कुबला खान के तिब्बत के शासन को तिब्बती ध्ार्मगुरू को सौंपने के बाद से ही मंगोलियाई और मंचुरियाई शासन में चीन और तिब्बत के सम्बन्ध्ा निकटता के थे। गुरु-शिष्य के सम्बन्ध्ा चलते रहेः तिब्बत का शासक चीन का राजगुरू होता था। पाश्चात्य विद्वानों ने इस सम्बन्ध्ा को ‘प्रीस्ट पेट्रन’ सम्बन्ध्ा कहा है। उसमें राजनैतिक अध्ाीनता बिल्कुल नहीं थी। पड़ोसी राज्यों के रिश्ते और गुरु-शिष्य सम्बन्ध्ा के चलते अगर तिब्बत को कभी चीन से कोई मदद की आवश्यकता होती, चीन कर देता था। जब चीनी यह प्रचार करते हैं कि तिब्बत तब से ही चीन का अंग है, वे ग़लत करते हैं। पर वह अलग बात है। मैं केवल यह कह रहा था कि 1264 से ध्ार्मगुरू के शासक बनने की प्रथा का तिब्बत में आरम्भ हुआ।
उदयन- आपने कहा कि कुबला खान को तन्त्र विद्या से अभिषिक्त या दीक्षित किया गया था और उसके बाद से ही ध्ार्म गुरूओं के तिब्बत का शासक होने की प्रथा आरम्भ हुई। क्या ये सारे ध्ार्मगुरू तन्त्र-विद्या में निष्णात थे और क्या ये गुरू गुरु-शिष्य परम्परा में दीक्षित होते थे?
रिनपोछे जी- ये गुरू तन्त्र-विद्या में निष्णात थे और इन्होंने गुरु-शिष्य परम्परा में रहकर ही तन्त्र आदि की शिक्षा पायी थी।
उदयन- क्या यह परम्परा आज भी अक्षुण्ण है?
रिनपोछे जी- आज भी अक्षुण्ण है। यह विद्या जो साम्प्रदायिक है, अगर यह टूट जाए, वह दोबारा नहीं बन सकती। वह अक्षुण्ण होकर ही जीवित रह सकती है।
उदयन- आपका जदु कृष्णमूर्ति से संवाद होता रहा है पर वे गुरु को नहीं मानते थे और आपके लिए गुरु परम्परा शिक्षा की रीढ़ है। आपका उनसे किस तरह संवाद बैठ पाता था?
रिनपोछे जी- मेरी उनके साथ व्यक्तिगत मित्रता थी। उनकी भाषा-शैली मुझे पसन्द आती है और हमें उसमें अध्ािक अन्तर्विरोध्ा नहीं दिखता। वे गुरु परम्परा को ‘गुरूडम’ कहते थे और यह मानते थे कि ऐसा कुछ नहीं है। अगर कृष्णमूर्ति के विचारों का ध्यान से अध्ययन किया जाए तो यह देखा जा सकेगा कि वे परम्परा से अलग नहीं है। हालाँकि उनका ढंग अलग है। उनकी भाषा अलग है। कृष्णमूर्ति का उदय गुरु परम्परा से ही हुआ है। मेडम ब्लडवस्की और कानन रेडकोड को तिब्बत के गुरुओं से यह आदेश मिला था कि अब एक नये विश्व परम की आवश्यकता है, तुम लोग उसके लिए माध्यम की खोज करो। उसी प्रक्रिया में एक अफ्रीकी बालक को लाया गया था पर वह स्थापित नहीं हो सका। इसके बाद कृष्णमूर्ति को चुना गया था। वह चुनाव सफल हो गया था। कृष्णमूर्ति की आरम्भिक रचना ‘एट द फ़ीट आॅफ मास्टर्स’ गुरू परम्परा की ही बात करती है। बाद में ‘वल्र्ड टीचर’ के होने से उन्होंने गुरू परम्परा को नकारा।
उदयन- उनका तिब्बत से इस तरह गहरा सम्बन्ध्ा है...
रिनपोछे जी- थियोसाॅफ़ीकल सोसायटी का प्रकाशन ‘लेटर्स फ्राम द मास्टर्स’ में मास्टर कुथुमे और मास्टर मौर्या के ही सारे उपदेश हैं। उसी में से माध्यम चुनने का विचार निकलता है। उनका कहना था कि सारे ध्ार्मों का सार नष्ट हो गया है और उनके केवल संगठन और कर्मकाण्ड बाकी बचे रह गये हैं जिससे मनुष्य को कोई लाभ नहीं होता।
कृष्णमूर्ति यह मानकर चले कि ध्ार्म ‘काज आॅफ़ कण्डीशिनिंग’ है, वह मन को संकुचित करता है, इसलिए उन्होंने सभी ध्ार्मों को नकार दिया। उनके निषेध्ा विशेष किस्म के हैं, इसलिए शून्यवाद और नागार्जुन की ओर जाने वाले लोग उनसे घबराते नहीं हैं। यही कारण था कि मेरा भी उनसे समन्वय हो जाता था।
उदयन- बौद्ध चिन्तन में यह मान्य है कि चित्त अपने में शुद्ध है, उसके ऊपर क्लेश आ जाते हैं। वे आवरण हैं। दरअसल चित्त अपने में ही करूणामय है, यह दृष्टि कृष्णमूर्ति के साथ बैठ जाती होगी।
रिनपोछे जी- जी हाँ उनके साथ बैठ जाती है। उनकी भाषा अलग है। श्रीलंका के एक विद्वान हुए हैं विपुल राहुल। अब उनका शरीर छूट गया है। वे पालि के विद्वान थे। उन्होंने एक प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा हैः ‘व्हाट तिब्बत हेज़ टाॅट।’ उनके साथ कृष्णमूर्ति का संवाद हुआ था। कृष्णमूर्ति उस संवाद में जब एक वाक्य बोलते हैं, विपुल राहुल तुरन्त हस्तक्षेप कर कहते हैं कि ठीक यही बात तथागत ने ढाई हज़ार साल पहले कही थी। इसके बाद वे पालि में उस बात को उद्धृत करते हैं। इस पर दोनों लोग हँसते हैं।
उदयन- आप तो उनकी तुलना में युवा रहे होंगे। आपकी उनसे किस तरह बात होती थी? बल्कि यह बताएँ कि आपकी उनसे भेंट किस तरह हुई?
रिनपोछे जी- इसकी एक कहानी है। मैं जब बनारस पहुँचा-सारनाथ, अच्युत पटवधर््ान उन दिनों राजघाट पर काम करते थे। अच्युत पटवधर््ान जी ‘बुद्धचर्यअवतार’ का अध्ययन कर रहे थे। यह नवीं शताब्दी का ग्रन्थ है जिसे नालन्दा में रहकर आचार्य शान्तिदेव ने लिखा था। पटवधर््ान जी का सहयोग जगन्नाथ उपाध्याय जी कर रहे थे। कहीं-कहीं उन्हें संशय होता था तो जगन्नाथ उपाध्याय जी से भी कई बार समाध्ाान नहीं हो पाता था। यह इसलिए था क्योंकि यहाँ मौखिक परम्परा लुप्त हो गयी पर तिब्बत में वह है। उपाध्याय जी ने अच्युत जी से कहा कि आप सारनाथ के तिब्बत संस्थान के विद्यार्थियों से बात कीजिए। इस तरह अच्युत जी मेरे पास आते थे, कुछ श्लोकों का अर्थ करने के लिए। वे मेरे मित्र हो गये और उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे कृष्ण (मूर्ति) जी से मिलना चाहिए।
उदयन- तब कृष्णमूर्ति बनारस में ही रहे होंगे?
रिनपोछे जी- वहीं थे। वे जब बनारस आये हुए थे, मैं उनसे मिल नहीं पाया। वे चेन्नई गये और वहीं मुझे थियोसौफ़ीकल सोसायटी ने बुलाया। मेरी भेंट उनसे उसी अवसर पर हुई।
उदयन- क्या यह 1970 के आसपास की बात होगी?
रिनपोछे जी- यह इकहत्तर की बात है। उसके बाद से वे जब भी बनारस आते थे, मुझे उनके राजघाट के निवास पर बुलाया जाता था और हम जाते थे और बातचीत होती थी। हमारी एक टोली थी जिसमें जगन्नाथ उपाध्याय थे और थे रामशंकर त्रिपाठी, अच्युत पटवधर््ान, राजा बोनर और देशपाण्डे जी जिनका देहान्त हो गया। हम नौ लोग थे। उन दिनों ‘डायलाॅग्स विद बुद्धिस्ट स्काॅलर्स’ चलती थी। हम लोग उसमें भाग लेते थे।
उदयन- क्या उसमें अन्य श्रोता भी होते थे?
रिनपोछे जी- ज़्यादा नहीं होते थे। उसे रिकाॅर्ड किया जाता था। यह कई वर्षों तक चला। कृष्ण जी जब भी बनारस आते थे, हम लोग निश्चय ही इकट्ठा होते थे। कई बार वहाँ से दिल्ली भी जाते थे, पुपुल (जयकर) जी के घर। उनके साथ चेन्नई भी जाते थे। ऐसा करते-करते उनसे बहुत निकटता हो गयी।
उदयन- अब हम वापस तिब्बत पर बात करते हैं। वहाँ की समाज व्यवस्था कैसी रही है, मसलन भारत में पंचायतों के जरिये शासन होता था और जैसा ध्ार्मपाल जी ने खोजा है कि राजस्व का अध्ािकांश गाँव के स्तर पर ही रख लिया जाता था और उसका कुछ अंश ही ऊपर यानि जनपदीय आदि स्तरों पर भेजा जाता था।
रिनपोछे जी- वहाँ पंचायत आदि की व्यवस्था नहीं थी। पुराने ज़माने में गाँव के स्तर पर एक ग्राम प्रध्ाान होता था। वह चुना नहीं जाता था, आनुवांशिक ढंग से आता था। ग्राम प्रध्ाान के घर जो पैदा होता था, वही आगे जाकर ग्राम प्रध्ाान हो जाता था।
उदयन- क्या वह विद्वान होता था?
रिनपोछे जी- नहीं। ग्राम प्रध्ाान ही राजा से सम्पर्क रखते थे। राजा उनसे ही बात करते थे। गाँव बहुत छोटे थे, इसलिए यह व्यवस्था चल जाती थी।
उदयन- क्या शताब्दियों से यही व्यवस्था चली?
रिनपोछे जी- हाँ यही चली।
उदयन- उस व्यवस्था में बौद्ध ध्ार्म के कारण हिंसा भी न होती होगी।
रिनपोछे जी- हिंसा भी नहीं हुई और अपराध्ा भी ज़्यादा नहीं थे। दस से पचास गाँव के ऊपर एक जिला जैसा होता था, जिसका एक शासक होता था। वह अनुवांशिक नहीं होता था। उसे केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता था। उसका तबादला हो सकता था।
उदयन- क्या ये चीन के मेण्डरीन जैसे अध्ािकारी थे?
रिनपोछे जी- ये थोड़े अलग थे। शुरू में जिलों में कैसी व्यवस्था रही होगी, पता नहीं पर पाँचवें दलाई लामा के शासन के बाद से जिला प्रमुख दो होते थे। एक गृहस्थ अध्ािकारी होता था और एक लामा। ये दोनों मिलकर जिलानुशासन करते थे। जिले के नीचे जितने भी गाँव हैं, उनमें आनुवांशिक प्रध्ाान होते थे, उनके माध्यम से ही जिला प्रमुखों के आदेशों का आना-जाना होता था। गाँव के प्रध्ाान गाँवों की स्थिति को जिला प्रध्ाानों तक पहुँचाते थे और केन्द्र से आये आदेश जिला प्रध्ाान ग्राम प्रध्ाानों के माध्यम से ग्रामीणों तक पहुँचाते थे।
उदयन- क्या बौद्ध विहार पर्याप्त संख्या में थे?
रिनपोछे जी- वे लगभग हर गाँव में होते थे। अगर किसी गाँव में विहार नहीं भी होते, वे पास के विहारों से जुड़े रहते। ऐसा कोई गाँव नहीं है, जिसका सीध्ाा सम्पर्क किसी विहार से न हो।
उदयन- विद्यालय इन विहारों से अलग होते थे या नहीं?
रिनपोछे जी- विद्यालय अध्ािकांशतः नहीं होते थे इसलिए अध्ािकतर लोग निरक्षर थे और जो थोड़ा बहुत अगर ज्ञान होता भी था, वह आनुवांशिक था। अगर पिता शिक्षित हुए, वे अक्षर ज्ञान अपनी सन्तानों को दे दिया करते थे साथ ही कुछ आसपास के लोगों को भी यह ज्ञान देते थे। यह सब अनौपचारिक था।
उदयन- जिसे बौद्ध ध्ार्म या दर्शन की शिक्षा लेनी होती थी, वह विहार जाता होगा?
रिनपोछे जी- वो विहार जाता था
उदयन- क्या विहार में दीक्षित होने के लिए कोई चुनाव होता था या माता-पिता की अनुमति ही पर्याप्त थी?
रिनपोछे जी- अध्ािकांश माता-पिता की इच्छा से जाते थे। अगर घर में दो या तीन पुत्र होते तो वे एक पुत्र को विहार भेज देते थे या दो को भेज देते और केवल एक घर पर रखते। इसलिए भिक्षुओं की संख्या काफ़ी अध्ािक रही है। कुल जनसंख्या का लगभग छः प्रतिशत भिक्षु होते थे।
उदयन- क्या ये भिक्षु विहार से निकलकर गाँव में भ्रमण करते थे और क्या साध्ाारण ग्रामीणों से बातचीत भी करते थे?
रिनपोछे जी- वे लोगों के पास पूजा-पाठ करने जाते थे जैसे कोई आदमी मर गया है तो उसका संस्कार करना या किसी का जन्म हुआ है तो उसका नामकरण या संस्कार करना। यह सब करने लोग भिक्षुओं को अपने-अपने गाँवों में बुलाते थे। वे जाते थे, पूजा-पाठ करवाते थे।
उदयन- इन अवसरों पर क्या उनकी ग्रामीणों से ज्ञान सम्बन्ध्ाी बातचीत भी होती थी?
रिनपोछे जी- इस तरह की बातें औपचारिक रूप से ही होती थी। इस तरह नहीं होती थीं, मानो उन्हें शिक्षित किया जा रहा हो। अध्ािकांश गाँववाले ध्ार्म नाम की चीज़ जानते नहीं थे, अन्ध्ाविश्वासी थे। ‘ये करना है’, ‘ये नहीं करना’ इतना ही जानते थे। यही एक कमज़ोरी तिब्बतियों में रही है, इसीलिए वर्तमान दलाई लामा ने यह सोचा कि ध्ार्म का ज्ञान सिर्फ़ भिक्षुओं को ही नहीं, गृहस्थ आदि सबको होना चाहिए। इस कारण वहाँ शिक्षितों की भी वृद्धि हुई है और ध्ार्म के ज्ञान की भी। गृहस्थों को भी पढ़ना-लिखना चाहिए, उन्हें भी ध्ार्म का ज्ञान होना चाहिए। वरना ध्ार्म पर अन्ध्ाविश्वास हो जाएगा।
उदयन- जब आप भारत आये, आप कितने वर्ष के थे?
रिनपोछे जी- बीस वर्ष के। तब तक मेरी शिक्षा-दीक्षा पूरी नहीं हुई थी। मैं पाँच वर्ष की आयु में अपने गाँव के मठ में आ गया था। वहाँ से बारह वर्ष की उम्र में उच्च अध्ययन के लिए बड़े विहार में गया।
उदयन- कौन-सा विहार था?
रिनपोछे जी- वह त्रिपोंग विहार था, ल्हासा के पास स्थित है। उसमें आठ हज़ार के क़रीब भिक्षु रहते थे। वहाँ मैं केवल आठ वर्ष रह पाया। कुल अध्ययन के लिए बीस वर्ष और बाकी थे इसलिए मेरी शिक्षा आध्ाी से भी कम हो सकी।
उदयन- जब चीन का तिब्बत पर आक्रमण हुआ, आप विहार में ही रहे होंगे?
रिनपोछे जी- तिब्बत में चीन का कब्जा 1951 में ही हो गया था। आध्ाा तिब्बत उन्होंने युद्ध करके जीत लिया था। बाकी पर 17 प्वाईण्ट एग्रीमेण्ट से कब्ज़ा कर लिया। जब मैं सेण्ट्रल तिब्बत में आया, चीन वहाँ पहले ही पहुँच चुका था। 1951 से 1959 तक चीन के आध्ािपत्य में रहकर ही मैंने कार्य किया लेकिन 1959 की दस मार्च को आक्रमण हुआ। उस दिन हम विहार में ही थे। दस मार्च से सत्रह मार्च तक बहुत हंगामा हुआ। दलाई लामा जी शासक नहीं रहे। विहार को चारों ओर से घेर लिया गया। दलाई लामा जी की सुरक्षा के लिए सुशी लांगो खाम्पा चीन से लड़ रहे थे। सत्रह मार्च को वहाँ से दलाई लामा जी का प्रस्थान हुआ। अठारह, उन्नीस, बीस मार्च तक कुछ नहीं हुआ पर बीस की रात और इक्कीस की सुबह बमबारी शुरू हुई। इक्कीस की दोपहर तक पोटाला पैलेस को ध्ाराशायी कर दिया गया। हमारे विहार के सामने भी उस दिन दो बड़े बम गिरे लेकिन विहार को कोई क्षति नहीं हुई। उस सारे दिन बमबारी होती रही।
लेकिन तब तक परमपूज्य दलाई लामा वहाँ से जा चुके थे। दक्षिण तिब्बत में रिवोल्यूशनरी आर्मी ने कब्ज़ा कर रखा था, उसमें चीन के सैनिक नहीं थे इसीलिए परमपूज्य उस रास्ते हिन्दुस्तान आ गये। उसकी अपनी एक कहानी है।
उदयन- जब आप तिब्बत में थे, आप सबके बीच ध्ार्म चर्चाएँ आदि हुआ करती होंगी क्योंकि वहाँ तब तक आध्ाुनिक सभ्यता पहुँची नहीं थी, भारत आकर आपका आध्ाुनिक मूल्यों से शायद पहली बार सामना हुआ होगा क्योंकि तब तक भारत अंग्रेज़ों के प्रभाव में आध्ाुनिकता का वरण काफ़ी दूर तक कर चुका था। यह सम्भवतः आप लोगों की आध्ाुनिकता से पहली मुठभेड़ थी?
रिनपोछे जी- व्यक्तिगत भावनाओं में कई उतार-चढ़ाव हुए। जब हम भारत आये, यहाँ आध्ाुनिकता का बहुत प्रभावशाली प्रकटन लक्षित हुआ। तब हम यह नहीं जानते थे कि हम तिब्बत नहीं लौट पाएँगे और चीन के शासन से हमें स्वतन्त्रता नहीं मिल पाएगी। चार-पाँच साल तक हमारी ऐसी ही मनःस्थिति थी। इसीलिए पहले हमें मीसानरी कैम्प में सरकार की ओर से रखा गया विशेष रूप से युवकों को हिन्दी सिखाने के लिए और अंग्रेज़ी भी।
उदयन- तब तक ज़ाहिर है अंग्रेज़ी से आपका कोई सम्पर्क नहीं हुआ होगा? ऐसा ही आपकी उम्र के तमाम भिक्षुओं और अध्येताओं के साथ भी रहा होगा?
रिनपोछे जी- नहीं था। लेकिन जब रिफ्यूजी कैम्प में हम लोगों को अंग्रेज़ी भाषा सिखाने की व्यवस्था की गयी, मैं और अन्य भिक्षु पूरी उत्सुकता से वहाँ गये और सीखने लगे। हम नहीं सीखे, हम यह कहते रहे कि हम यहाँ बसने नहीं आये हैं। हम यहाँ इसलिए आये हैं क्योंकि तात्कालिक रूप से तिब्बत में दमन हो रहा है। जब हमारी समस्या का समाध्ाान हो जाएगा, हम लौट जाएँगे, यहाँ की भाषा सीखकर हम क्या करेंगे? 1960 के मध्य में हम लोगों को ध्ार्मशाला बुलाया गया, आगे कुछ करने के लिए। हम तेरह-चैदह हमउम्र नवयुवक कैम्प में थे। हम गये। मेरे साथी भाषा सीखने लगे और काफ़ी सीख गये। लेकिन मैं सीखने से बचता रहा। हिन्दी भाषा मुझे बाज़ार आदि जगहों पर सुन-सुनकर आ गयी।
उदयन- एक तरह से आपकी अंग्रेज़ी न सीखने की हठ लौटने की उम्मीद को दृढ़ करने में लगी रही। अंग्रेज़ी सीखने का अर्थ नाउम्मीद स्वीकार कर लेना होता।
रिनपोछे जी- वैसा ही रहा होगा। इसके बाद 1961 से हमें स्कूलों में लगा दिया गया। तब हमें स्कूल का शासन भी करना पड़ा।
उदयन- तब तक आप क्या ध्ार्मशाला में ही थे?
रिनपोछे जी- शिमला आ गया था। वहाँ तिब्बती रिफ्यूजी स्कूल था। ऐसे स्कूल जगह-जगह खुले थे। शिमला के स्कूल में हमारे प्राचार्य बीमार पड़ गये तो हमें प्रभारी प्राचार्य बना दिया गया। हमारे स्कूल में हेड मास्टर थे अरुण हमीद। वे शुरू में मुसलमान थे, फिर ईसाई हो गये थे। उनके साथ विवाद होते रहते थे। दुभाषिये की मदद से उनसे बहस करने में दिक्कत होती थी। इसलिए मैं हिन्दी भाषा सीखने की कोशिश की।
उदयन- जिससे बहस ठीक से कर सकें।
रिनपोछे जी- फिर भी लिखने-पढ़ने योग्य अध्ययन नहीं हो पाया था। मैं यह कह रहा था कि हम लोगों के दिमाग में भारत का अलग चित्र था। आचार्य नागार्जुन असम के थे, इसी तरह दिङ्नाग और चन्द्रकीर्ति आदि महान विद्वानों का सम्बन्ध्ा भारत से था। इसके कारण भारत का एक बहुत बड़ा चित्र हमारे दिमाग में था।
उदयन- आप जो भारत तिब्बत से लेकर आये थे और जो भारत आपको यहाँ आकर मिला, उसमें ज़मीन-आसमान का फ़र्क था।
रिनपोछे जी- इसलिए शुरू में निराशा होने लगी कि हम जिस भारत को बहुत विशाल, पवित्र और सत् विज्ञान का स्रोत समझते थे, उस विज्ञान से सम्बन्ध्ा रखने वाला यहाँ कोई दिखायी नहीं दिया। यह निराशा काफ़ी दिनों तक रही। जब मैं बनारस में पहुँचा, वह 1971 का वर्ष था। मैं पैंतीस बरस का था। तब भी हमें नियुक्त होने में काफ़ी देर हो गयी।
कुलपति कहने लगे कि ये तो बालक हैं, संस्था को कैसे चला पाएँगे। परमपूज्य (दलाई लामा) ने मुझे तिब्बती संस्थान का प्राचार्य नियुक्त किया था। उसी अवसर पर कुलपति ने मुझे बालक कहा था खैर...। मैं प्राचार्य बन गया। जब वहाँ मैं जगन्नाथ उपाध्याय, रामशंकर त्रिपाठी, टी.आर.वी. मूर्ति जैसे विद्वानों से मिला, तब मुझे समझ में आया कि भारत की जो छवि मेरे मन में थी, वह भारत अभी भी है। यह मेरे लिए गहरा आश्वासन था।
उदयन- ...कि भारत में भारत बचा है...
रिनपोछे जी- स्कूल शिक्षकों से स्कूली शिक्षा के अलावा भारतीयता की कोई समझ नहीं मिल पाती थी। शिमला और डलहौजी में यह समस्या और अध्ािक थी। बनारस पहुँचकर मैं महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज जी से मिलने गया। वे उन दिनों कुछ अध्ािक सम्प्रेषित नहीं करते थे। लेकिन उनके सान्निध्य में यह अनुभव होता था कि ये विद्वान हैं। जगन्नाथ उपाध्याय आदि लोग दर्शन में गहरे पैठकर लिखते थे। भाषा में हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वानों से सम्पर्क हुआ। इन सबकी मुझ पर अनुकम्पा रही। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने मुझे अशुद्ध हिन्दी बोलने का अध्ािकार दिया, जिससे मैं जो मन में आता, बोल सकता था। हमारे संस्थान में एक आचार्य सिम्पा दोरजी थे। वे किन्नौर के रहने वाले थे। उनके साथ हमारी हजारी प्रसाद जी से बातचीत होती थी। हजारी प्रसाद जी जो कहते थे, हम समझ जाते थे और हमें जो कहना होता था वह सिम्पा दोरजी के माध्यम से तिब्बती में बोलकर हजारी प्रसाद जी तक पहुँचा देता था। एक दिन हजारी प्रसाद जी बोले ‘सिम्पा दोरजी आप हमारे बीच से हट जाईये, मुझे इनसे सीध्ो बात करने दीजिए।’ वे मुझसे बोले, ‘आप मुझसे जो बोलना चाहते हैं, बोलिये।’ मैंने कहा कि मुझे भाषा की ठीक से जानकारी नहीं है। मैं लिंगभेद, वचन आदि व्याकरण के नियमों का ठीक से व्यवहार नहीं कर पाता हूँ।’ वे बोले ‘इस सबकी चिन्ता मत कीजिए। जो मन में आये, बोलिये। हिन्दी में इस सबका महत्व नहीं होता।’ फिर उन्होंने एक उदाहरण दिया, ‘दही खट्टी है, यह कहना ठीक है और दही खट्टा है, यह भी ठीक है। सुनने वाला समझ जाएगा। आप व्याकरण की चिन्ता मत कीजिए, भाषा का अपना सम्प्रेषण होने दीजिए।’ उसके बाद उन्होंने मुझे हिन्दी में भाषण देने कई जगह आमन्त्रित किया और मैं हिन्दी बोलने लगा।
उदयन- वैसे आपकी हिन्दी सुनने में अच्छी लगती है, इसमें आपके तिब्बती लहज़े की गन्ध्ा भी है। हिन्दी में यह सामथ्र्य है कि वह विभिन्न उच्चारणों और विध्ाियों को अपने में शामिल कर ले, इसीलिए हमें मराठी हिन्दी भी मिलती है, पंजाबी हिन्दी भी। हिन्दी भाषा उसी तरह समावेशी रही है जैसा वह भारत जो अब टूटता हुआ प्रतीत हो रहा है। शुद्ध हिन्दी जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं है जैसे विशुद्ध भारतीयता जैसी कोई चीज़ नहीं है।
रिनपोछे जी- अगर हम व्याकरण की शुद्धता का ध्यान रखें तो हम बोल ही नहीं पायेंगे।
उदयन- इन सबके बीच क्या आपने व्यापक स्वाध्याय किया?
रिनपोछे जी- तिब्बत से हमारे साथ मेरे गुरू आये थे। उन गुरुओं ने हमारे अध्ययन के अवशेष को पूरा करने की चेष्टा की। वह पूरा नहीं हो पाया। पर मौखिक परम्परा से दिया जाने वाला अध्ययन तिब्बत से आने के दो-तीन वर्षों में पूरा हो गया।
उदयन- क्या तिब्बत में शिक्षा व्यवस्था का पाठ्यक्रम हुआ करता है जिसका हरेक पालन करता हो। वह पाठ्यक्रम क्या था?
रिनपोछे जी- जैसे यहाँ की शिक्षा में विषय सूची होती है वैसे ही वहाँ के मठों में भी होती है।
उदयन- आपने एक जगह कहा है कि शिक्षा के तीन प्रयोजन होते हैं ‘शील, समाध्ाि और प्रज्ञा।’ क्या इन तीनों प्रयोजनों की प्राप्ति के लिए सिलसिलेवार शिक्षा दी जाती थी?
रिनपोछे जी- जैसा मैंने कहा, हमारे मठों में बीस वर्ष की अवध्ाि तक शिक्षित किया जाता है। पहले दो वर्ष न्याय प्रमाण शास्त्र सिखाते थे, बौद्ध न्यायशास्त्र दो वर्ष में पूरा तो नहीं हो पाता, उसे बाद में भी पढ़ना होता था। पर मठ में शुरू में दो वर्ष तर्क-वितर्क, वाद-विवाद सिखाया जाता था।
उदयन- क्या जब न्याय शास्त्र की शिक्षा दी जाती थी, भिक्षुओं को आपस में भी तर्क-वितर्क करने का अभ्यास करना होता था?
रिनपोछे जी- शास्त्रार्थ रोज़ करना होता था। वह छात्रों के बीच हुआ करता था। गुरुजी भी शास्त्रार्थ के साथ ही सिखाते थे।
उदयन- मैं यह समझना चाह रहा हूँ कि यह होता कैसे था? मसलन यह प्रज्ञप्ति रखी जाये कि ‘सत्य स्वयं सिद्ध है’ तो क्या इसके पक्ष और विपक्ष में भिक्षु तर्क देंगे?
रिनपोछे जी- मान लीजिए ‘सत्य स्वयं सिद्ध है’ इसे पूर्व पक्ष मान लिया जाए तो हम उसका खण्डन करेंगे कि यह इस तरह कैसे नहीं है। हम कहेंगे कि वह तो अनुमान प्रमाण से जाना जा सकता है। उसके लक्षण देखने होंगे आदि। दूसरा छात्र इस बात का खण्डन करेगा। इसी तरह वहाँ शास्त्रार्थ चलता है।
उदयन- क्या जिन प्रज्ञप्तियों पर शास्त्रार्थ होते थे, वे निश्चित थीं?
रिनपोछे जी- हाँ, शास्त्र को तो कण्ठस्थ किया जाता है और उसके भाष्यों को भी देखा जाता ह। उसके बाद वाद-विवाद करते हैं।
उदयन- पहले दो वर्ष बौद्ध मठों में बौद्ध न्याय की शिक्षा होती है। क्या सारे दो हज़ार छात्र एकसाथ बैठकर पढ़ते हैं?
रिनपोछे जी- सौ-पचास छात्र होते हैं। अगले छः वर्षों तक अभिसमयअलंकार-मार्गफलव्यवस्था पढ़ा जाता है। इसमें बौद्ध मार्ग और फल व्यवस्था की चर्चा है। इसके बाद तीन वर्ष तक माध्यमिक शास्त्र पढ़ाया जाता है। माध्यमिक शास्त्र में माध्यमिक मूल कारिका, चतुश्शतक और माध्यमिक-अवतार ये तीन मूलग्रन्थ हैं। तब तक छात्र की उम्र 20 वर्ष की हो जाती है और वह उपसम्पदा भिक्षु हो जाता है। उसके तीन वर्ष बाद तक विनयपिटक का अध्ययन होता है जिसमें भिक्षुओं का अनुशासन क्या हों, बताया गया है, उनके लिए क्या करणीय है, क्या अकरणीय। हमारी परम्परा शान्तरचित से आयी है। उसे हम मूलसर्वास्वादी कहते हैं। जो थाईलैण्ड और बर्मा में है, उसे थेरवाद कहते हैं। हमारी परम्परा में भिक्षुओं के लिए दो सौ त्रिपंग (नियम) हैं। उसे सीखने में तीन वर्ष लगते हैं। फिर अगले बीस वर्षों तक अभिध्ाम्म कोष और अभिध्ाम्म समुच्चय का अध्ययन करना होता है। यह अन्त तक चलता रहता है। इसके बाद उसे दीक्षान्त समारोह में उपाध्ाि मिलती है। दीक्षान्त के पहले पाँचों ग्रन्थों की परीक्षा होती है, न्याय, अभिसमय अलंकार, माध्यमिक शास्त्र, विनय पिटक और अभिध्ाम्म की परीक्षा के बाद अध्ययन पूरा माना जाता है।
उदयन- क्या आपको मठ के सभी लोगों के सामने जवाब देने होते हैं?
रिनपोछे जी- जी। सारे जवाब मौखिक होते हैं, लिखित कुछ नहीं। इसके बाद भिक्षु को स्नातक माना जाता है, इसके बाद आप तान्त्रिक महाविद्यालय में जाकर तन्त्र की शिक्षा ले सकते हैं।
उदयन- क्या अब भी कुछ बौद्ध तन्त्र का व्यवहार करने वाले और उसकी शिक्षा देने वाले बचे हैं?
रिनपोछे जी- यहाँ कुछ हैं। तिब्बत में चीन की सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान सबकुछ नष्ट हो गया था। पर अब कुछ संक्षिप्त रूप में दोबारा शुरू हो रहा है। लेकिन यहाँ वह पूर्ण रूप से संचालित होता है। तीन विहार हैंः एक कर्नाटक में, एक ध्ार्मशाला में और एक विहार पश्चिम बंगाल में। इन तीन ही स्थानों में बाकायदा शिक्षा होती है। इनमें छात्रों का दाखिला होता है। कुछ छात्रों का दाखिला सीध्ाा हो जाता है, उनका अध्ययन का काम कम होता है लेकिन उन्हें कर्मकाण्ड के पक्ष को ज़्यादा सिखाते हैं। वे वहाँ तान्त्रिक साध्ानाएँ सिखाते हैं। साध्ानाओं में जप करने की विध्ाि, पाठ की विध्ाि और मण्डल निर्माण सिखाया जाता है।
उदयन- आपको पता ही होगा कि वैदिक पाठ की ही पद्धतियों से भारतीय शास्त्रीय संगीत उत्पत्ति हुई है। उसके स्रोत कई होंगे पर वैदिक पाठ उनमें प्रमुख है। यह भी कहा जाता है कि मन्त्र के सही उच्चारण का गहरा प्रभाव होता है। बौद्ध ध्ार्म में जाप की कितनी केन्द्रियता है? उसका सांस्कृतिक सन्दर्भ क्या है? मैं हाल में गैंगटोक के पास के बौद्ध विहार रोमटेक गया था। वहाँ लगभग सभी अध्ययनशील थे। वैसा मैंने कभी किसी विश्वविद्यालय में नहीं देखा। वहाँ जाप चल रहा था। इसके पहले छत्तीसगढ़ के मेनपाट में भी यह जाप सुना था। बौद्ध ध्ार्म परम्परा में जाप को लेकर क्या दृष्टि है? यहाँ मैं यह बता दूँ अत्यन्त गहन दृष्टि सम्पन्न दार्शनिक नवज्योति सिंह यह मानते थे कि भारत के आध्ाार ग्रन्थों में से कुछ में शब्द से कहीं अध्ािक स्वरलिपियाँ हैं। जाप में स्वर से भाव तक पहुँचा जाता है, उसमें अर्थ की मध्यस्थता नहीं होती। इसी तरह बौद्ध जाप के विषय में क्या चिन्तन हैं?
रिनपोछे जी- यह मैं स्पष्ट रूप से नहीं बता पाऊँगा। यह जटिल प्रश्न है। साध्ाारणतः कोई भी वचन जिसको गायन के रूप में अभिव्यक्त करते हैं, वह हृदयंगम होता है। अगर आप कुछ कहना चाहें और आप उसे स्वर के साथ कहें तो उसके स्पन्दन आपको झकझोर देते हैं। यह साध्ाारण व्याख्या है। कुछ बुद्धवचन गाथा रूप हैं, गेय हैं और उन्हें गाकर उनका अभिबोध्ा भावनाओं के आदान-प्रदान से होता है। इसीलिए गायन और गाथा की आवश्यकता है।
उदयन- जिस तरह भारत की परम्परा में मार्गी संगीत है, जिसे शास्त्रीय संगीत भी कहा जाता है, क्या उसी तरह की कोई संगीत परम्पराएँ तिब्बत में भी रही हैं?
रिनपोछे जी- हाँ रही हैं। हर तन्त्र के मठ की जाप पद्धति अलग होती है। हर तान्त्रिक मठ में उनकी अपनी जाप पद्धति चित्रित रूप में लिखी रहती है। उसमें यह लिखा होता है कि कहाँ जापकत्र्ता का स्वर ऊँचा होना चाहिए, कहाँ नीचा आदि।
उदयन- क्या यह वेदपाठ के उदात्त-अनुदात्त और स्वरित जैसा ही है?
रिनपोछे जी- वह लगभग वही है। जाप की पद्धति का ग्रन्थ आप पढ़ेंगे तो उसमें इस सबके लिए संकेत चिह्न हैं। मसलन कोई रेखा बनी होगी जिसके बीच में अक्षर बना होगा। वह इलेक्ट्रोकार्डियो ग्राम जैसा दिखता है। यह तो एक साध्ाारण बात है। तन्त्र विद्या में यह कहते हैं कि शरीर में मूल रूप से दस प्राण है। हर प्राण की एक स्वध्वनि होती है। जब मन्त्र के उच्चारण का उस ध्वनि के साथ ठीक से तारतम्य बैठ जाते हैं, वाक् और काया का समन्वय ठीक तरह हो जाता है।
और उसके साथ चित्त का भी समन्वय हो जाता है। इस तरह काया वाक् और चित्त को एक दिशा में चलने के लिए स्वर की आवश्यकता होती है। जब सही स्वर मिल जाता हे तो प्राण और मन्त्र के स्वर में अभेद हो जाता है। जब यह अभेद होता है, वह सहज हो जाता है और सहज होने से सिद्ध हो जाता है।
उदयन- क्या सिद्ध होने का अर्थ काया वाक् और चित्त का एक हो जाना होता है?
रिनपोछे जी- यही सिद्ध होना है।
उदयन- आप कह रहे हैं कि दस प्राणों की दस वायुएँ और उनके दस अलग-अलग कार्य हैं...
रिनपोछे जी- संस्कृत में पचास विभिन्न अक्षर कहे जाते हैं, उनका एक-एक वायु है, दरअसल उसका यान एक-एक वायु है।
उदयन- वायु इसलिए यान है कि वह एक-एक अक्षर का वहन करता है। क्या ऐसा ही है?
रिनपोछे जी- वायु के बिना शब्द उच्चरित नहीं होगा।
उदयन- क्या अलग-अलग तान्त्रिक स्कूलों में किन्हीं विशेष प्राणों पर ज़ोर दिया जाता है।
रिनपोछे जी- यह भी है और कुछ गुरूओं की मान्यताओं का भी चलन होता है जिसका उन्हें बोध्ा हुआ था। आगे जाकर जब अपने प्राणों की पहचान हो जाती है, हर भिक्षु का मार्ग अलग हो जाता है।
उदयन- आपने यह लिखा है कि एक स्थान पर बुद्ध कथन है कि मैं तुम्हें मार्ग दिखा सकता हूँ, निर्वाण दे नहीं सकता। वह भिक्षु को स्वयं करना होगा। यही कुछ भारतीय मार्गी संगीत के शिक्षण में भी है, इसीलिए यह मान्यता है कि ऐसी कोई आवाज़ नहीं जिसमें गायकी सम्भव न हो सके। हर आवाज़ में गायन की सम्भावना है। गुरू का काम यह है कि वह शिष्य को, आपके शब्दों में कहे तो, उसके प्राणों तक पहुँचा दे। फिर वह अपना संगीत खुद उत्पन्न करेगा। अगर वह ऐसा नहीं कर पाता, वह संगीतकार नहीं है। तब तक वह आपके प्रिय शब्द में ‘इमिटेटर’ (नकलची) है।
$ $ $
उदयन- आपने अपने इंदिरा गाँध्ाी राष्ट्रीय कला केन्द्र के ‘बौद्ध ध्ार्म और काल’ पर लिखे लेख में ‘चित्त सन्तति’ की बात की है। इसमें चित्त सन्तति के नैरन्तर्य की चर्चा है जबकि नवज्योति सिंह का कहना है कि चित्त सन्ततियों के बीच अक्षर होते हैं। ‘अक्षर’ प्रत्यय का प्रयोग गीता में हुआ है, उसका आशय एक ऐसे रूपाकार से है, जिसमें कथ्य नहीं है, वह ‘कण्टेण्टलेस फाॅर्म’ है। हर दो चित्त सन्ततियों के बीच अक्षर आ जाता है। अगर हम चित्त सन्ततियों की निरन्तरता को मान रहे हैं, तब आत्म तत्व का अस्तित्व स्वयं सिद्ध हो जाता है। इसमें फ़र्क किस तरह किया जाता है।
रिनपोछे जी- यह तो दार्शनिक प्रश्न है और बहुत पुराना प्रश्न है। भारत में आत्मवादी और निरात्मवादी दर्शन के बीच का विवाद प्रारम्भ से ही चल रहा है। आत्मवादियों का यही तर्क रहा है कि अविच्छिन्न सन्तति को आत्मा कहने में क्या हर्ज है। बौद्धों का मत यह नहीं है कि ‘स्व’ नहीं है। ‘स्व’ को बहुत जगह ‘अहं’ या ‘आत्मा’ शब्द से सम्बोध्ाित किया गया है। लेकिन आत्मवादी ‘आत्मा’ के साथ कई ‘गुण’ जोड़ते हैं। उनमें एक गुण ‘नित्यता’ है। अगर आत्मा नित्य नहीं है तो साध्ाारण अवस्था से आध्यात्मिक अवस्था तक जाने में निरन्तरता नहीं रहेगी। ‘नित्यता’ की अनिवार्य शर्त यह है कि वह ‘अपरिवर्तनीय’ भी हो। जैसा वह कल था, वैसा ही वह आज भी रहे। आज जैसा है, कल भी वैसा ही रहना चाहिए। बौद्धों का कहना यह है कि ‘चित्त सन्तति’ परिवर्तनशील है। सतत् रहते हुए भी वह प्रतिक्षण नष्ट होता है और उत्पन्न होता है। प्रथम क्षण नष्ट होगा तभी द्वितीय क्षण उत्पन्न होगा। जब द्वितीय क्षण नष्ट होगा तभी तृतीय क्षण उत्पन्न होगा। अत्यन्त लघु क्षण से लेकर स्थूल क्षण तक परिवर्तन होते हैं। बीता हुआ क्षण वर्तमान क्षण का हेतु है और वर्तमान क्षण आनेवाले क्षण का हेतु है। ‘क्षण’ हेतु और फल के रूप में एक-दूसरे को उत्पन्न करते रहते हैं। लेकिन यह निरन्तरता परिवर्तनशील है। आत्मावादी यह नहीं मानते कि वह हर क्षण में नष्ट होता है और हर क्षण में उत्पन्न होता है। आत्मावादियों से निरात्मावादियों का इतना ही अन्तर है कि आत्मा ‘नित्य’ है या ‘अनित्य’ है। अगर वह खण्डित होता है तो आत्मा होने की शर्तें भी खण्डित हो जाती हैं। आत्मावादियों में आपस में भी थोड़े-बहुत भेद हैं। लेकिन अध्ािकांशतः वे आत्मा को ‘नित्य’ और ‘परमात्मा का अंश’ मानते हैं, जो परमात्मा में विलीन हो सकता है। जीवात्मा के रूप में वह खण्डित होता है और जब वह परमात्मा में विलीन होगा, तब उसका व्यक्तित्व भी विलीन हो जाएगा। बौद्धों का कहना है कि व्यक्तित्व कभी समाप्त नहीं होता। ‘बुद्धत्व’ प्राप्त करने के बाद ‘बुद्ध क्षेत्र’ में भेद अवश्य नहीं होगा लेकिन बौद्धों की पुरानी सन्तति कायम रहेगी, जिसे वे देख सकते हें जैसा कि जातक-कथाओं में होता है। वहाँ भी व्यक्ति विशिष्ट की पहचान होती है। इस तरह वह अनित्य होने पर भी उसकी सन्तति समाप्त नहीं होती और वह कहीं विलीन नहीं होती। इस तरह बौद्धों के मत में आत्मा का अपरिवर्तनीय स्वरूप और सन्तति के विच्छिन्न होने में विरोध्ा है। अगर आत्मा नित्य होगी तो वह अपरिवर्तनशील होगी, अगर ऐसा है तो उसमें जो कुछ भी है, वह जैसा का तैसा रहेगा। बौद्धों के मत में इस समय यह निर्मल होने पर भी उसमें आगन्तुक के क्लेशों का आवरण है। उस आवरण को हटा सकते हैं लेकिन आवरण चित्त के स्वभाव में प्रविष्ट नहीं होता लेकिन वह चित्त के साथ रहता है। इसलिए आवरण और चित्त दोनों ही ‘अनित्य’ है।
उदयन- इस मत में जब हम काया और वाक् को जोड़कर देखते हैं तो कह सकेंगे कि काया और वाक् भी अनित्य है लेकिन चित्त का नैरन्तर्य सत्य है।
रिनपोछे जी- नहीं। निरन्तरता भी अनित्य है। केवल सन्तति है और वह नित्य के रूप में नहीं है। क्योंकि यदि सन्तति नित्य होती तो वह क्षण के बदलने के साथ अलग नहीं होती। अगर वह नित्य होती उसका क्षणों में विभाजन नहीं हो सकता। तब सन्तति का प्रश्न ही नहीं उठता। सन्तति तभी बनेगी जब एक से दूसरा, दूसरे से तीसरा परिवर्तन होगा।
उदयन- वाक्, काया और चित्त तीनों ही अनित्य हैं पर...
रिनपोछे जी- वाक् और काया की सन्तति निरन्तर नहीं है। वो हर जन्म में छूट जाती है। काया की सन्तति मृत्यु तक रहेगी पर जब मृत्यु होती है, चित्त और काया का सम्बन्ध्ा टूट जाता है। तब चित्त काया से अलग हो जाता है और काया अचेतन वस्तु बन जाती है। अभी हमारी काया सचेत है, थोड़ी-सी चोट लगेगी तो हमें दर्द होगा और चोट का पता लग जाएगा। जब तक चित्त का काया पर स्वामित्व रहता है, तब तक काया चैतन्य रहती है, जब चित्त काया को छोड़ देता है, काया महाभूतों में वापस विलीन हो जाती है, इसलिए उसकी सन्तति नहीं रहती।
उदयन- इस पूरे विचार में परलोक का क्या स्थान बनता है। ‘चित्रदर्शन’ में यह कल्पना है कि स्मृतिलोक ही परलोक है। हम परलोक को सिर पर उठाये घूम रहे होते हैं। हर मनुष्य द्विज हैः दो बार पैदा होता है। एक बार माँ के गर्भ से, दूसरी बार स्मृति में यह स्मृतिलोक ही परलोक है...
रिनपोछे जी- हमारे विचार में परलोक की शब्द रचना भिन्न है। जिसे हम ‘लोक’ कहते हैं, वह लौकिक जगत के लिए प्रयुक्त होता है, उसमें मनुष्य लोक, पशु लोक और देव लोक होते हैं। ‘लोक’ शब्द जन्म-जन्मान्तर के अर्थ में भी आता है- बीते हुए लोक, वर्तमान लोक और परलोक है आने वाले लोक। स्मृति चित्त का अंश है। चित्त में ही रहती है। लेकिन चित्त इन्द्रियों पर आश्रित होता है, इन्द्रियाँ शरीर पर। इसलिए जब शरीर और इस पर आश्रित इन्द्रियाँ छूट जाते हैं, स्मृति भी मिट जाती है। इसलिए पिछले जन्म की स्मृति बहुत कम लोगों को रहती है। कुछ लोगों को रहती है, वह ऐसे कि उन्होंने चित्तशोध्ान काफ़ी कर लिया होता है, ऐसा कि चित्त को इन्द्रियों के आश्रित नहीं होना पड़े जैसे जब मृत्यु चित्त उत्पन्न होता है, उन्हें यह बोध्ा होता है कि मैं मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूँ और मेरा शरीर छूट रहा है। यह अध्ािकांश को नहीं होता, उनके साथ यह अचेतन में हो जाता है। अच्छे लोगों में चित्त के इस तरह के अभ्यास के कारण पिछले जन्म की स्मृति रह जाती है। जैसे-जैसे चित्त शोध्ान होता रहता है पिछले दस जन्मों और फिर सौ जन्मों की स्मृति ध्ाीरे-ध्ाीरे होती रहती है।
उदयन- जातकों का आध्ाार भी यही है।
रिनपोछे जी- यही है। जब बुद्धत्व प्राप्त होता है, पिछले सभी जन्म याद रहते हैं। उन्हें कोई अज्ञान नहीं रहता। लेकिन बुद्धत्व प्राप्त होने तक पिछले जन्म किसी सीमा तक ही दिखायी देते हैं, उसके बाद दिखायी नहीं देते। साध्ाारण लोग पिछले जन्मों को भूल जाते हैं क्योंकि उनकी स्मृति इन्द्रिय-आध्ाारित चित्त के साथ रहती है और उसकी सन्तति नहीं रहती, वह समाप्त हो जाती है।
उदयन- उन लोगों के यहाँ शरीर के छूटने से स्मृति भी छूट जाती है। क्या किसी महापुरुष की इस तरह व्याख्या सम्भव है। जैसे महात्मा गाँध्ाी है, उनकी पिछले जन्मों की ‘स्मृति’ भले ही उनके चित्त के सतह पर न आयी हो, वह रही हो सकती है।
रिनपोछे जी- स्मृति छूट जाती है इसका अर्थ समझना होगा। स्मृति दो प्रकार की होती है, एक साक्षात् स्मृति और एक वह जो साक्षात् भले न हो पर उसका बीज या संस्कार रहता है। उसे बौद्ध पारिभाषिक शब्दावली में वासना कहते हैं। यह दूसरी परम्पराओं में भी है, पर वहाँ उसका वह अर्थ नहीं होता। बीज न होने से आप उसका दोबारा स्मरण नहीं कर सकते। इसका आशय यह है कि पिछले जन्मों का स्मरण केवल तभी होता है जब उनके बीज चित्त सन्तति में बने रहते हैं। हम जो कुशल कर्म करते हैं, वह समाप्त हो जाता है। किसी को यदि ध्ान देना है, वह ध्ान दे दिया तो कर्म समाप्त हो गया। लेकिन उसका पुण्य बीज रूप में चित्त सन्तति में आ जाता है। अगर अकुशल कर्म किया जाता है (जैसे किसी की हत्या करना) तो वह अकुशल कर्म भी चित्त में आ जाता है और उसका स्मरण हो न हो, वह चित्त में रहता है। बाद में उसका फूल उत्पन्न होता है, फिर फल। फल उत्पन्न होने के बाद उसका बीज समाप्त हो जाता है। या तो उसको शोध्ान करके समाप्त किया जा सकता है...
उदयन- साध्ाना से...
रिनपोछे जी- साध्ाना से या उसका फल भोगकर उसे समाप्त कर सकते हैं। तब तक वह रहता है, वासना या बीज की छाप रहती है जैसे किसी बर्तन में रखा घी समाप्त हो जाये तो भी उसकी गन्ध्ा उसमें बनी रहती है।
उदयन- इसी तरह से पूर्वजन्म की उपस्थिति रहती है।
रिनपोछे जी- उसे या तो फल प्राप्ति से खत्म किया जा सकता है या साध्ाना से। जैसे बीज या तो अंकुरित होकर समाप्त हो जाता है या तब समाप्त होता है जब उसे जला दिया जाये।
उदयन- इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि पश्चिम की यह ध्ाारणा कि जन्म के समय सभी एक जैसे होते हैं, ठीक नहीं है। हर व्यक्ति पैदा होते समय अलग होता है।
रिनपोछे जी- अलग-अलग ही होते हैं। एक-सा कोई नहीं होता है। सब चीज़ों की अपनी अद्वितीयता या व्यक्तित्व होता है, अगर ऐसा न होगा तो पहचान नहीं रहेगी।
उदयन- आप कैसी भी सामाजिक परिस्थिति पैदा कर दें, यह सम्भव नहीं होगा कि सभी एक ही नियति को प्राप्त हो जायें जैसा कि पश्चिम बल्कि आध्ाुनिक चिन्तन ध्ााराएँ मानती हैं।
रिनपोछे जी- हर जीवध्ाारी (सत्त्व) सुख चाहते हैं, दुःख नहीं, यह एक समता है। ऐसा नहीं होता कि कुछ सुख चाहें, कुछ दुःख चाहें। दूसरी समता यह है कि हर जीवध्ाारी को सुख प्राप्ति और दुःख के निवारण के प्रयास करने का अध्ािकार है। ऐसा नहीं है कि मनुष्य को तो ऐसा करने का अध्ािक अध्ािकार है, अन्य जीवध्ाारियों को नहीं है। इनमें इस तरह से भी समता है। इन दो चीज़ों के अतिरिक्त और कोई समता नहीं है। किसी में कुशल कर्म पैदा होगा, किसी में अकुशल। कर्म सबका एक जैसा नहीं होता लेकिन जब कर्म से मुक्ति प्राप्त हो जाती है तब वहाँ महासमता होती है। वहाँ कोई अलग से पहचाना नहीं जा सकता। जैसे भगवान बुद्ध है, भगवान मैत्रेयी है। ये सब बुद्धत्व प्राप्त के पहले अलग-अलग थे लेकिन बुद्धत्व प्राप्त के बाद बुद्धत्व के क्षेत्र में उनको अलग-अलग पहचानने का कोई लक्षण नहीं रहता। वहाँ पहचान का आध्ाार पूर्वजन्मों के लक्षण ही होते हैं। बुद्धत्व प्राप्त करने पर सभी के गुण समान होते हैं और दोष तो होते ही नहीं है। सभी की ज्ञान-शक्ति समान होती है।
उदयन- लेकिन यह सब अलग-अलग तरह से है...
रिनपोछे जी- हाँ, अलग-अलग तरह से है।
उदयन- क्या बुद्धत्व के क्षेत्र का अनुभव या आभास जीते-जी किसी साध्ाना पद्धति से सम्भव है? इसका एक सन्दर्भ है जो मैं आपको बताता हूँः शैव परम्परा में जो रस सिद्धान्त है, वहाँ रसास्वादन की अवस्था में, अनुभवगुप्त कहते हैं, हम अपरिमित प्रभातृत्व को प्राप्त हो जाते हैं। इसका आशय है कि हम उस क्षण में सर्वस्व का अनुभव कर लेते हैं बल्कि हम वह सर्वस्व हो ही जाते हैं। हम कह सकते हैं कि उस रसानन्द के क्षण में हमें मोक्ष का अनुभव हो जाता है। वह स्थायी नहीं होता, पर क्षणिक रूप से हो जाता है। फिर उसकी प्राप्ति की चेष्टाएँ आप अन्यत्र कर लेते हैं या कर सकते हैं। क्या बौद्ध परम्परा में भी उस बौद्ध क्षेत्र का क्षणिक आभास या अनुभव हो सकता है?
रिनपोछे जी- बुद्धत्व का अनुमान तो मार्ग समय में भी हो जाता है लेकिन बुद्धत्व का अनुभव, उसकी प्राप्ति के पहले नहीं होता। अनुभव तब होता है, जब वह वहाँ पहुँच चुका होता है। उसके पहले उसके अनुभव की सम्भावना नहीं है। लेकिन वह किस प्रकार का अनुभव होगा कि वह है, यह बोध्ा, उसका अनुमान मार्ग अवस्था में भी हो जाता है। सिद्धान्त यह है कि चित्त अपने स्वभाव से निर्मल है और उसके ऊपर जितना क्लेश आवरण है, उसे समाप्त किया जा सकता है। यह कहना कि वह समाप्त किया जा सकता है, कल्पना है पर हम नहीं जानते कि वह कैसे किया जा सकता है। जब आत्मा-ध्ार्म समाप्त हो निरात्मा या शून्यता का अनुमान होता है, अनुमान प्रमाण से शून्यता को देखते हैं, तब भी उस ज्ञान से अज्ञान के स्रोत अविद्या को निर्मूल किया जा सकता है, इसकी अनुभूति नहीं होती। जब वे अनुमान-प्रमाण से प्रत्यक्ष-प्रमाण में पहुँच जाते हैं, शून्यता को प्रत्यक्ष दृष्टि-गोचर करते हैं, तब वे देखते हैं कि अविद्या की ध्ाारणा निर्मूल है इसलिए उसे समाप्त किया जा सकता है। जब वह समाप्त होगा, बुद्धत्व प्राप्त होगा और उसमें कोई अज्ञान नहीं रहेगा, अबोध्ा नहीं रह जायेगा और हर चीज़ साफ़ हो जायेगी। इस तरह बुद्धत्व के गुणों का अनुमान किया जाता है। उसे अनुभूत नहीं करते पर अनुमान करते हैं कि ऐसा हो जायेगा। तब वो बुद्ध मार्ग में पूरे ज़ोर से लग जाते हैं।
उदयन- याने उस अनुभव का अनुमान है, वह प्रत्यक्ष नहीं।
रिनपोछे जी- अनुमान है, अनुबोध्ा नहीं है। अनुबोध्ा तब होगा जब बुद्धत्व प्राप्त हो जायेगा।
उदयन- इस अनुमान तक पहुँचने के लिए कुशल कर्म करना होगा।
रिनपोछे जी- मैं उदाहरण देता हूँ। अगर मैं आपको बताऊँ कि जलेबी बहुत स्वादिष्ट होती है, मीठी होती है तो आप पहले तो सोचेंगे कि कैसी होंगी। फिर आप कोई और मिठाई खा लेंगे और सोचेंगे कि शायद जलेबी का भी ऐसा ही स्वाद हो, इस तरह जलेबी के स्वाद का अनुमान हो जायेगा पर स्वाद का अनुभव तब तक नहीं होग, जब तक आप जलेबी को खा नहीं लेते। उसके पहले तक तो सब अनुमान है। वह स्वाद के परे है, जलेबी खाये बिना आप उसका स्वाद बता नहीं सकते। केवल अनुभूति कर सकते हैं।
बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद शब्दों के द्वारा लोगों को यह बताया नहीं जा सकता कि ‘यह ऐसा है।’ वह आपकी अनुभूति में रह जायेगा। वह शब्द के परे हो जाता है। शब्द हमेशा विचार के साथ चलता है, पर जो क्षेत्र विचार से बाहर हैं, वे शब्द की पकड़ से बाहर चले जाते हैं। उसके विषय में केवल ‘लगभग’ जैसा कुछ बताया जा सकता है।
उदयन- यही शायद बौद्ध वचनों का आध्ाार है।
रिनपोछे जी- यही है। बुद्ध ने कहा भी है कि मेरे बुद्धत्व प्राप्त करने से लेकर मेरे महानिर्वाण में प्रवेश करने तक के चालीस वर्षों में मैंने एक शब्द भी नहीं बोला है। ऐसा उनके वचनों में आता है। इस बीच इतना ध्ार्मचक्र प्रवर्तन हुआ, वह सब साक्षात् है। शाक्य मुनि बुद्ध को बोध्ा गया में बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद कर्म का उपदेश न देने का विचार आया था। इस पर ब्रह्मा और इन्द्र ने उनके पास जाकर उनसे कहा कि आपने इतने समय तपस्या की है, बुद्धचर्या की है और बुद्धत्व को प्राप्त हुए हो, अब आपका प्रथम कत्र्तव्य है कि आप ध्ार्मचक्र प्रवर्तन करें, लोगों को उपदेश करें। इन्द्र के उनसे संवाद नहीं मिलते, ब्रह्मा के मिलते हैं। बुद्ध ने जवाब दिया कि अतिगम्भीर, अतिशान्त और प्रपंच-रहित प्रपस्वर, असंस्कृत ऐसा ध्ार्म मैंने अनुबुद्ध किया है, इसे किस तरह बताऊँ, इसे कोई समझेगा नहीं, इसलिए मैं ध्ार्मचक्र प्रवर्तन नहीं करूँगा। ब्रह्मा ने कहा कि आप ठीक कह रहे हैं लेकिन उपाय है। आपको जो अनुभूति हुई है, उसे आप उपमा के माध्यम से कह सकते हैं। और उसके लक्षणों के माध्यम से भी उसको सम्प्रेषित कर सकते हैं और नेति-मेति के सहारे, अपोह के सहारे भी उसकी ओर इंगित कर सकते हैं। इस रास्ते ध्ार्मचक्र प्रवर्तन को लोग समझेंगे। बुद्ध ने इसे स्वीकार किया और बोध्ा-गया से सारनाथ आकर पाँच शिष्यों को ध्ार्मचक्र प्रवर्तन किया।
उदयन- शायद यही कारण हो कि काशी ने कुछ पण्डित ध्वनि सिद्धान्त आदि के व्याख्याता अभिनवगुप्त आदि अनेक शैव विचारकों को प्रछिन्न बौद्ध कहते हैं। आपने कुशल और अकुशल कार्यों का जि़क्र किया था, इनमें किस आध्ाार पर अन्तर किया जाता है? क्या निर्वाणोन्मुखी कार्य को कुशल और जहाँ ऐसा न हो उसे अकुशल कार्य कहा जाता है?
रिनपोछे जी- इसमें थोड़ा-सा संशोध्ान करना पड़ेगा। कुशल कार्य निर्वाणोन्मुख, अभ्युदयोन्मुख और बुद्धत्वोन्मुख में देखा जाता है। यह मनुष्य की चित्त और चैतसिक भूमिका से तय होता है। कुशल और अकुशल कार्य का अपना विभाजन यह हैः कोई कार्य जिससे किसी का साक्षात या परोक्ष रूप से अहित होता हो, उसे अकुशल कार्य कहते हैं। और कोई भी कार्य जिससे साक्षात रूप या परोक्ष (सन्तति) रूप से किसी के हित का सम्पादन होता हो, वह कुशल कार्य कहलाता है। जो कार्य हित-अहित किसी में भी परिणत नहीं होता, वह अभ्याकृत कार्य कहलाता है। उसे कुशल या अकुशल में व्याकृत नहीं किया जा सकता। कार्य के सम्पादन से हित पहुँचा रहे हैं या अहित, यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि कार्य के पीछे की आपकी चित्तवृत्ति हित चाहती है या अहित। अगर अहित चाहना से कोई अच्छी चीज भी हो जाये, वह कार्य अकुशल हो जायेगा। अगर आप किसी को बीमार करने की दृष्टि से किसी को खाना देते हो, और अगर वह उसे बीमार करने की जगह उसका शरीर पुष्ट कर दे तो चूँकि खाना देने के पीछे आपकी चित्तवृत्ति में खोट रही है, इसलिए वह कार्य अकुशल है और अगर आप हित की इच्छा से कोई चीज़ दे दें और ग़लती से उसे नुक़सान हो जाये, कोई दवाई दें और दवाई ठीक न लग पाये, इससे कार्य अकुशल नहीं होगा क्योंकि आपकी चित्तवृत्ति में खोट नहीं थी। अगर किसी कुशल कार्य के सम्पादन की प्रेरणा (प्रेरणा-चित्त) इस जीवन की किसी उपलब्ध्ाि के लिए है या अगला जन्म अच्छा प्राप्त करने या अभ्योदय के लिए तो वह निम्न श्रेणी का कुशल कार्य होगा। अगर आप कुशल कार्य जन्म मरण के चक्र से मुक्ति के लिए करते हैं तो वह निर्वाणोन्मुख कुशल कार्य हो जायेगा। अगर उसकी प्रेरणा बुद्धत्व प्राप्त करने की है, पूर्ण जगत के अभ्योदय के लिए कुशल कार्य किया गया हे तो वह बुद्धत्वोन्मुख कुशल कार्य होगा।
उदयन- वह श्रेष्ठ कुशल कार्य होगा।
रिनपोछे जी- जी हाँ, श्रेष्ठ कुशल कार्य...
उदयन- इस तरह कुशल कार्य अध्ाम मध्यम और श्रेष्ठ तीन तरह के हो गये। आपके इस विचार से यह निकल रहा है कि निर्वाण वैयक्तिक है जबकि बुद्धत्व ‘सर्वजन हिताय’ है।
रिनपोछे जी- निर्वाण प्राप्ति को अरहन्त कहते हैं, उसमें ‘सर्वाकाराहन्त’ और ‘प्रत्येक बुद्ध अरहन्त’ ये दो प्रकार होते हैं। इनमें कोई खास फ़र्क नहीं होता। इस रास्ते चलकर उसने क्लेश आवरण को तो समाप्त किया होता, ज्ञेय आवरण को समाप्त नहीं। क्लेश आवरण को समाप्त करना याने राग, द्वेष, मोह से जनित जितने भी अकुशल चित्त हैं, उनको समाप्त करना। उससे व्यक्तिगत निर्वाण प्राप्त हो जाता है, वह व्यक्ति जन्म-मृत्यु के चक्र से अलग हो जाता है। उसके बाद वह कर्म और क्लेश के कारण जन्म नहीं लेगा। बुद्धत्व वह प्राप्त करता है जिसने ज्ञेय आवरण को समाप्त कर लिया हो। उसे सर्वज्ञान प्राप्त होता है तब उसमें कोई अज्ञान बाकी नहीं रह जाता। इस तरह उसका कार्य स्वयंभू हो जाता है।
उदयन- ज्ञेय आवरण त्यागने का क्या आशय है?
रिनपोछे जी- ज्ञेय आवरण का अर्थ है ज्ञान के रुकावट का आवरण। क्लेश आवरण चित्त की अपवित्रता है, उसमें मूलरूप से राग, द्वेष और उनका कारण मोह याने अज्ञान या अविद्या है। इन तीनों से उत्पन्न जितनी चित्तवृत्तियाँ हैं, उनसे क्लेश होता है। उन क्लेशों से मुक्त हो जाता है तो उसकी जन्म से मुक्ति हो जाती है। तब उसे दुख नहीं भोगना पड़ता। लेकिन उन्हें बहुत-सी जानकारी नहीं होती और उनका कार्य निष्प्रयास नहीं हो पाता। बुद्धत्व प्राप्त होने पर ज्ञेय आवरण समाप्त हो जाता है और कोई भी जानने लायक चीज़ अज्ञान में नहीं रहती। जैसे अगर पर्दा हटा दिया जाये तो अनायास ही सब चीजे़ं दिखायी देने लगेंगी। जब कुछ भी अज्ञान नहीं रहता, समस्त अज्ञान समाप्त हो जाता है तो उसे बुद्धत्व कहते हैं।
उदयन- उस स्थिति में सब कुछ प्रत्यक्ष होता है।
रिनपोछे जी- जो भी अस्तित्वमान है, वह प्रत्यक्ष है। उसे त्रिकालदर्शी कहते हैं। सर्वज्ञान सम्पन्न। सांख्य योग और न्याय-वैशेषिक में सर्वज्ञान की सम्भावना का नकार है। इसीलिए वे बुद्धत्व को भी नकारते हैं।
$ $ $
उदयन- आपकी शिक्षा-दीक्षा जिस तरह हुई है, उसमें गाँध्ाी जी से परिचय की क्या सम्भावना थी? क्या तिब्बत में आपने महात्मा गाँध्ाी का नाम सुना था?
रिनपोछे जी- मैंने तिब्बत में महात्मा गाँध्ाी का नाम सुना था पर वे मिथकीय कथा जैसे थे। वहाँ यह कहानी चलती थी महात्मा गाँध्ाी को अंग्रेज़ों ने पकड़कर तोप में डाल कर उड़ा दिया था पर वे बिना मरे खड़े हो गये। उनकी इस तरह की दन्तकथा थी पर उन्हें बहुत जानते नहीं थे। यह कहानी हम बिहार में सुनते थे और गाँध्ाी जी को गाँध्ाी महाराज कहते थे। वहाँ प्रजातन्त्र या राजनीति की जानकारी नहीं थी। हम सोचते थे कि हर जगह एक राजा होता है तो गाँध्ाी भी हिन्दुस्तान के राजा रहे होंगे या उसके लिए प्रयास करते होंगे। इतना ही सोचते थे।
उदयन- आप यह सोचते थे कि ऐसा कोई राजा रहा होगा।
रिनपोछे जी- जी यही। उनके काल का बोध्ा नहीं था। उनके चित्र भी कहीं-कहीं ही थे। उन्हें भी मैंने एक-दो बार ही देखा था। जब हिन्दुस्तान आया तो सुना कि भारत वर्ष आज़ाद हुआ है, अंग्रेज़ों के चंगुल से और उसमें गाँध्ाी जी का बहुत योगदान रहा है। उन्हें समझने में भाषा की कठिनाई थी। जब मैं 1959-60 में सिक्किम में रहा था, उस समय सिक्किम में ‘विकास’ नाम की पत्रिका का प्रकाशन गैंगटोक से होता था। वह भारत सरकार का प्रकाशन था। यह पत्रिका तिब्बती भाषा में छपती थी। तिब्बती में उसका नाम था ‘येर्गे कोम्फिल’। वह मासिक पत्रिका थी। हार्लोंग मार्गो संख उसके अनुवादक और सम्पादक थे। बाद में वे आकाशवाणी में तिब्बती कार्यक्रम के निदेशक बन गये। उन्होंने ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ के कुछ अंशों का अनुवाद ‘येर्गे कोम्फिल’ (विकास) में ध्ाारावाहिक प्रकाशित किया था। उससे मुझे गाँध्ाी के चरित के बारे में पहले पहल जानकारी मिली। तब से ही हमको गाँध्ाी के प्रति रुचि बढ़ गयी। किन्नौर से एक साप्ताहिक ‘समाचार आदर्श’ (संजुम मिलोन) तिब्बती में निकलता था। इन दोनों ही तिब्बती पत्रों में गाँध्ाी जी पर जितनी भी सूचना मिल सकती थी, मैंने पढ़ ली। बाद में थोड़ी बहुत हिन्दी पढ़ने की क्षमता आ गयी तो उनकी जीवनी पढ़ी और बहुत बाद में ‘हिन्द स्वराज’ पढ़ी।
उदयन- गैंगटोक से प्रकाशित तिब्बती पत्रिका ‘विकास’ या ‘येर्गे कोम्फिल’ को बहुत लोग पढ़ते थे?
रिनपोछे जी- वह बहुत लोग तो नहीं पढ़ते होंगे। हम लोग तो गैंगटोक के पास ही थे इसलिए वह हम तक आती थी। मगर वह दूर तक नहीं जाती थी। जब मैं ध्ार्मशाला या अन्यत्र चला गया, मैंने उसकी प्रति नहीं देखी।
उदयन- तिब्बती में उस पत्रिका को पढ़ने वाले ऐसे लोग होते थे, जो विहार में रह चुके थे। आप बता भी रहे थे कि तिब्बत के भिक्षुओं के अलावा लोग पढ़े-लिखे नहीं होते थे। बौद्ध ध्ार्म के अध्ययन से प्राप्त अहिंसा के सिद्धान्त का समतुल्य आपको गाँध्ाी में मिल रहा होगा।
रिनपोछे जी- गाँध्ाी जी ने अहिंसा के सिद्धान्त को आत्मसात किया था। अहिंसा को सिद्धान्त में न रखकर जीवन में अपनी दिनचर्या में उतारने का काम गाँध्ाी जी ने किया था। इसने मुझे बहुत आकर्षित किया। दूसरा, जब तक हम गाँध्ाी को नहीं समझे, तब तक हम यह नहीं समझते थे कि अहिंसा की साध्ाना सिर्फ़ आध्यात्मिक क्षेत्र में ही नहीं, राजनीति, लोकव्यवहार या राष्ट्र-संचालन में भी की जा सकती है। हम सोचते थे कि जो लोग घर-गृहस्थी छोड़कर भिक्षु होकर साध्ाना में लगे हैं, वे तो अहिंसक हो सकते हैं पर अगर देश चलाना हो, या राज चलाना हो, अहिंसा से काम नहीं चलेगा। इस तरह की ध्ाारणा अध्ािकांश लोगों में थी। मेरे ख्याल से, गाँध्ाी जी का योगदान यह है कि उन्होंने दिखाया कि अहिंसा हर क्षेत्र में कारगर है।
उदयन- यह आपका, गाँध्ाी जी के चरित के आध्ाार से पहला अनुभव था और तब तक आपने ‘हिन्द स्वराज’ नहीं पढ़ी थी।
रिनपोछे जी- वह मैंने काफ़ी बाद में पढ़ी। उन दिनों ‘हिन्द स्वराज’ की चर्चा बहुत नहीं होती थी।
उदयन- आप ‘हिन्द स्वराज’ तक कैसे पहुँचे थे?
रिनपोछे जी- एक बार इस पर चर्चा हो रही कि गाँध्ाी जी ने मशीन का विरोध्ा किया है तो प्रश्न यह आया कि मशीन को एकमुश्त कैसे नकारा जा सकता है क्योंकि कुछ अच्छी मशीनें भी हैं। दो लोग थे आनन्द कुमार और अजय कुमार, वे मध्यप्रदेश में रहते थे। उनमें से आनन्द कुमार ने मुझसे पूछा कि क्या मैंने हिन्द-स्वराज पढ़ी है? मैंने जवाब दिया ‘नहीं’। इस पर उन्होंने कहा, आप पढि़ए तब आपको समझ में आयेगा कि गाँध्ाी ने मशीन का नकार क्यों किया है। मैंने तुरन्त ही ‘हिन्द स्वराज’ मंगवायी और पढ़ी।
उदयन- आपने हिन्दी अनुवाद पढ़ा होगा।
रिनपोछे जी- मैंने हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों अनुवाद मंगवाये थे पर पढ़ा हिन्दी में ही। वह नवजीवन प्रेस का पतला-सा संस्करण था।
उदयन- उस पर आपकी क्या पहली प्रतिक्रिया थी?
रिनपोछे जी- उसे पढ़कर गाँध्ाी के मूल सिद्धान्त समझ में आने लगे। वह केवल राष्ट्र या राजनीति की बात नहीं है, वे मूलभूत मानव चित्त के विकास या ह्रास के कारणों को पहचान कर हिंसा-अहिंसा के मूलस्रोत को जानने वाले हैं और गाँध्ाी जी ने सभ्यता की गवेषणा का कार्य किया है। यह जानने बाद हम बार-बार उसे पढ़ने लगे। पहली बार मुझे लगा कि आध्ाुनिक काल में मनुष्य जितनी भी चुनौतियाँ झेल रहा है, उन सब का मूल कारण मनुष्य का लोभ और हिंसा है।
उदयन- आपने स्वयं भी आध्ाुनिक सभ्यता पर तरह-तरह से प्रश्न उठाये हैं?
रिनपोछे जी- उस सब ज्ञान का स्रोत गाँध्ाी जी ही हैं। गाँध्ाी जी और बाद में ध्ार्मपाल जी की गाँध्ाी की समझ और उनसे हुई चर्चाएँ। आध्ाुनिक सभ्यता गाँध्ाी जी के समय में उतनी उग्र नहीं थी।
उदयन- मशीन को लेकर तिब्बत में क्या समझ थी? प्रत्यक्ष न भी रही हो, लोकव्यवहार में क्या थी?
रिनपोछे जी- तिब्बत में मशीन की अध्ािक चर्चा नहीं होती थी। हम लोग जब तिब्बत से भागे, उस समय तक इक्का दुक्का कारें ही चलती थीं। साईकिल चलती थीं। इनके अतिरिक्त अध्ािक मशीन की सामग्री नहीं थी। लाऊडस्पीकर भी 1959 के बाद, चीन के आक्रमण के उपरान्त ही आया था। उसके पहले नहीं था।
उदयन- चीन को ज़ोर-ज़ोर से बोलने की ज़रूरत भी रही होगी।
रिनपोछे जी- चीन के तिब्बत पर काबिज़ होते ही ल्यासा में घरों के ऊपर लाऊडस्पीकर लगाकर रेडियो कार्यक्रम स्थापित किया गया था। उसने बहुत ध्वनि-प्रदूषण पैदा किया। उसके बाद परमपूज्य के प्रवचनों में भी वह इस्तेमाल होने लगा, जो एक तरह से अच्छी बात ही है। यानि मशीन के विषय में हमारे तिब्बत में रहते ज्यादा विचार नहीं हुआ है।
उदयन- जब आप भारत आये और गाँध्ाी विचार से सम्पर्क हुआ होगा तब संस्कृति और मशीन के सम्बन्ध्ा को समझने की शुरुआत हुई होगी।
रिनपोछे जी- यह आप ठीक कह रहे हैं।
उदयन- भारत में अनेक तरह की कारीगरियाँ हैं। उनमें भी कुशलता बड़ा मूल्य है। स्वयं गाँध्ाी जी के लिए चरखा पर बेहतर खादी बनाना कुशलता का परिचायक था। आप इन कारीगरियों में कुशलता को अपने कुशल-अकुशल वाले मूल्य से कैसे समझा पाएँगे?
रिनपोछे जी- ‘कुशल’ शब्द का बौद्ध परिभाषा में जैसा अर्थ निकलता है और कार्य-कुशलता में फ़र्क है। कार्य-कुशलता में कुशल ‘इफि़शिएसी’ के अर्थ में होता है। या ‘स्किल’ के अर्थ में। पुण्य और पाप के अर्थ में कुशल-अकुशल केवल बौद्ध परिभाषा में आते हैं, बाकी परम्पराओं में ऐसा शायद नहीं है। यहाँ पाप के लिए अकुशल और पुण्य के लिए कुशल शब्द प्रयुक्त हुआ है।
उदयन- क्या बौद्ध परम्परा में यह सम्भव है कि बौद्ध दृष्टि से ही कोई कुशलता से कर्म करे और विहार न जाये?
रिनपोछे जी- वह तो है ही। बौद्ध अनुयायी अध्ािकांशतः तो गृहस्थ लोग ही थे। विहार में केवल भिक्षु लोग रहते थे। वे बहुत कम संख्या में थे। बुद्ध के समय से ही कम संख्या में रहे। निर्वाण प्राप्ति के कार्य में गृहस्थ और भिक्षु में कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही कर सकते हैं।
उदयन- इसका अर्थ यह है कि अगर कोई कारीगर ‘स्किल’ के अर्थ में कुशल कार्य करते हुए बौद्ध अर्थ में भी पुण्य करता जा रहा है, तो वह कार्य कुशल कर्म हुआ।
रिनपोछे जी- वह तो हुआ। बौद्ध अर्थ में पुण्य होने से कुशल कार्य हो जायेगा, और ‘स्किल’ भी अच्छा माना जायेगा।
उदयन- अगर कोई मशीन स्किल के अर्थ में कुशल है और उससे पुण्य भी हो रहा है तो क्या वह बौद्ध अर्थ में न्यायोचित ठहरायी जा सकेगी?
रिनपोछे जी- गाँध्ाी जी की दृष्टि से हो सकती है। मशीन को सामान्य रूप से न्यायोचित ठहराना और उसे पृथक-पृथक करके न्यायोचित ठहराना, यह दोनों अलग होंगे। जैसे सिंगर सिलाई मशीन को गाँध्ाी जी ने स्वीकार किया था। उनकी दृष्टि यह थी कि जो व्यक्ति हाथ से सिलाई करने में कठिनाई अनुभव कर रहा है, जिसकी आँख ठीक नहीं है, उसे सुई में ध्ाागा डालने में दिक्कत होती है और उसे रात को काम करने में तकलीफ़ है, उसके प्रति करुणा भाव से सिलाई मशीन का आविष्कार किया गया, उस अविष्कार की कारक चित्तवृत्ति पैसा कमाने की, शोषण करने की, हिंसा करने की नहीं, दूसरे आदमी के दुःख को कम करने की थी इसलिए उसे कुशल माना जा सकता है। यह बौद्धों के सोच से बहुत मिलता है। अगर प्रेरक चित्तवृत्ति सही होगी, तो हर काम सही हो सकता है। अगर उसमें खोट है तो कार्य भले ही देखने में अच्छा लगे, वह ठीक नहीं होगा।
उदयन- तिब्बत की बौद्ध परम्परा में कला का बहुत बड़ा स्थान है। थंका चित्र कला आदि अत्यन्त विकसित हैं। बौद्ध विहारों में, मैंने रूमटेक में खुद देखा है, बेहद सुन्दर भित्ति चित्र दिखायी देते हैं जिनमें अनेक चरित्र चित्रित हैं। मैं यह जानना चाहता था कि चित्त-शुद्धि और चित्रकला का क्या सम्बन्ध्ा है?
रिनपोछे जी- कला विद्या प्रस्थान है। बौद्ध परम्परा में पाँच विद्या प्रस्थान जाने गये हैं। जैसे वैदिक परम्परा में वेद, उपवेद, उपनिषद्, ध्ार्म-शास्त्र, पौराणिक शास्त्र आदि कहते हैं। वेद और छह वेदांग कहा जाता है। बौद्ध वांग्मय में पाँच महाविद्या प्रस्थान का नाम दिया गया है। उनमें सबसे पहला है, शब्द विद्या जिसमें भाषा शास्त्र, व्याकरण आदि आते हैं जिससे भाषा और भाषानुशासन सीखा जा सके। अलंकार, रस, आदि भी शब्द विद्या में आते हैं।
उदयन- इसमें ‘रस’ का अर्थ वही है जो भरत के नाट्यशास्त्र में है?
रिनपोछे जी- जी वही है। हम उसमें अध्ािकांश सात रस देखते हैं फिर आठवाँ और फिर नौवा भी जोड़ देते हैं। हम लोग शान्त रस को नहीं देखते।
उदयन- क्या आप शब्द विद्या में उच्चारण भी रखते हैं?
रिनपोछे जी- शब्द विद्या में उच्चारण भी है, गायन भी, गीत भी। वाक्य के माध्यम से जितना जो होता है, शब्द विद्या के अन्तर्गत ही आता है। दूसरी विद्या है ‘हितु-विद्या’। यह न्याय, तर्क जितना कुछ प्रमाण शास्त्र में आता है, वह हितु-विद्या में आता है।
उदयन- आप लोग तो केवल दो प्रमाण मानते हैंः प्रत्यक्ष और अनुमान?
रिनपोछे जी- प्रमाण दो मानते हैं, लेकिन हितु-विद्या में प्रमाण शास्त्र आता है।
उदयन- ‘हितु’ हेतु से बना लगता है।
रिनपोछे जी- लक्षण। तीसरी चिकित्सा।
उदयन- चिकित्सा भी महाविद्या है?
रिनपोछे जी- यह भी महाविद्या है। इसमें शरीर की संरचना, रोग, रोग के कारण, रोग के लक्षण, उनके निवारण के लिए औषध्ाि आदि सब चिकित्सा विद्या में आते हैं, उसमें ज्योतिष भी है। चैथी विद्या शिल्प विद्या है। इसमें सारी वास्तु कलाएँ, चित्र कलाएँ आदि आती हैं। यह बहुत व्यापक है। यह भी महाविद्या है। पाँचवी महाविद्या है आध्यात्मिक विद्या। इसमें कर्म, दर्शन आदि सब आ जाते हैं। इन पाँच महाविद्याओं के अनुशीलन के बिना बुद्धत्व प्राप्ति सम्भव नहीं है। इसलिए साध्ाना का भी कला अभिन्न अंग है। जैसे साध्ाना के मण्डल करना या मूर्तियाँ बनाना, थंका बनाना। उन सब को करने का शास्त्र है। भित्ति चित्र बनाना है या भगवान बुद्ध की प्रतिमा बनाना है या उनको चित्रित करना है तो उस सब के लिए नाप हैं। सबसे पहले यह तय करना होता है कि कितना ऊँचा चित्र बनाना है। अगर तीन अंगुल की बुद्धमूर्ति बनाना है तो उसका मुख कितना होगा, यह तय है फिर उस मुख का प्रमाण लेकर बाकी सारी अंगों के नाप या प्रमाण नियन्त्रित होते हैं। मुख को एक अंश मानकर यह तय हो जायेगा कि हाथ के लिए कितना अंश होगा, पाँव का कितना, कमर के लिए कितना अंश होगा। यह सब निधर््ाारित हो जाता है।
उदयन- मुख-मण्डल ही प्रमाण है।
रिनपोछे जी- जी हाँ। शायद इसलिए अमरीका के विद्वानों में तिब्बती चित्रकला को कला नहीं माना है। वे इसे क्राफ़्ट कहते हैं। इसलिए इसे चित्रकला सिद्ध करने कई विद्वानों को कई बार लम्बे-लम्बे निबन्ध्ा लिखना पड़े। अमरीकी विद्वानों का प्रश्न हे कि इस चित्रकला में कलाकार का क्या कौशल है? इसमें सब पहले से ही तय है, मापदण्ड, आदि, आपको तो सिर्फ़ रंग भरना है। यह बच्चे भी कर सकते हैं।
उदयन- कलाकार की छाप तो तब भी आकर रहेगी। जैसे संस्कृत के नाटकों में जो मुख्य कथा बहुत नयी नहीं होती। अनेक नाटकों के स्रोत महाभारत, रामायण और कथासरित सागर ही हैं। नाटककार थोड़ा बहुत परिवर्तन कर देते हैं पर वह मूलभूत नहीं होता। लेकिन इस थोड़े से परिवर्तन में यहाँ के पाठक, श्रोता, प्रेक्षक बहुत अध्ािक संवेदनात्मक और वैचारिक परिवर्तन लक्ष्य कर लेते हैं।
रिनपोछे जी- वही फ़र्क देना ही कलाकार का काम है। उस फ़र्क का दर्शन करने वाले ही रसास्वादन करते हैं। एक आदमी से सारा मापदण्ड लिखवाया जाये और उसे चार-पाँच कलाकारों को दिया जाये तो एकदम पता लग जायेगा कि कौन-सा कुशल कलाकार है और कौन-सा अकुशल।
उदयन- आनन्दकुमार स्वामी यह मानते थे कि कला पारलौकिक सत्य के संकेतन के बिना सार्थक नहीं रहती, क्या थंका कला में यही विचार है?
रिनपोछे जी- किसी की तस्वीर खींचने से वह वस्तु या व्यक्ति जस का तस उसमें आ जायेगा, पर वह तस्वीर कला की श्रेणी में नहीं आयेगी। यह सच है कि उसमें त्रुटि नहीं होगी, आप जैसे हैं वैसे ही उसमें आ जायेंगे। कला और संस्कृति में एक जैसी स्थिति है। नरेन्द्र देव जी ने बहुत सटीक कहा है कि ‘संस्कृति चित्त भूमि की कृषि है।’ इसी तरह कला भी ‘चित्त-भूमि की कृषि है।’ जितना आपका चित्त संशोध्ाित होगा, जितना निर्मल होगा उतना वह सब कला में परिलक्षित होगा। अगर आप क्रोध्ाित हैं, अगर आप राग-द्वेष से ग्रस्त हैं तो आपकी कला में वह सब परिलक्षित निश्चित रूप से होगा। जैसे-जैसे आपका चित्त-शोध्ान होता चला जायेगा, उसी प्रकार का परिष्कार आपकी कला में परिलक्षित होता चला जायेगा। इसलिए लेखक, चित्रकार या प्रदर्शनकारी कलाकार, अभिनेता उन सबके लिए अभ्यास एक उपाय है, उसके बिना नहीं होगा लेकिन अभ्यास मात्र से भी नहीं होगा। अभ्यास के पीछे मानसिक विकास आवश्यक है, चित्त का विकास।
उदयन- ऐसा कहा जाता है कि कई संगीतकार ऐसे हुआ करते थे जो बीच-बीच में साल दो साल के लिए संगीत छोड़कर साध्ाना में चले जाते थे। थंका चित्रकारों की शिक्षा-दीक्षा कैसी हुआ करती थी?
रिनपोछे जी- जब तक थंका और ऐसी ही अन्य कलाओं ने व्यवसायिक रूप नहीं लिया था तब तक वे साध्ाना का ही अंग थी। बुद्ध की मूर्ति या थंका बनाना हो, ये बिना प्रयोजन के नहीं बनाते थे। किसी साध्ाक को पुण्य-अर्जन की आवश्यकता के लिए या उनकी साध्ाना में सहयोग के लिए अमुख बुद्ध की प्रतिमा चाहिए, ऐसा उन्हें बोध्ा हो जाता था। वे कलाकार के पास जाते थे, और उनसे कहते थे कि मुझे ऐसा-ऐसा बना दो। कलाकार उसको बनाते थे। जिस साध्ाक को प्रतिमा की आवश्यकता है, उसकी साध्ाना को आगे बढ़ाने के निमित्त से कलाकार वह प्रतिमा बनाता है तो वह इसे साध्ाना के रूप में ही बनाता था। उसे पारिश्रमिक मिलता या नहीं, इसका महत्व नहीं था।
उदयन- कलाकार जब तक साध्ाक की अवस्था से एकमेक नहीं होता, वह चित्र नहीं बनाता होगा या नहीं बना सकता।
रिनपोछे जी- हाँ, नहीं बना सकता। गत सौ-दो सौ वर्षों से यह सब व्यवसाय हो गया। इसके बाद से कलाकार केवल प्रतिलिपियाँ बनाते हैं। वह कोई मूलभूत कला नहीं है। एक पुराना थंका लेकर उससे एक नया थंका बना दिया और विहारों में जाकर दीवारों पर चित्र बनाने होते हैं, तो उसके लिए आचार्य या उसके उपध्याय बता देंगे कि यहाँ चित्र बनाने हैं तो कलाकार पुरानी चीज़ों को देखकर वह बना देते हैं। साध्ाना से हटने के बाद इस कला का जीवन्त रूप, मेरे ख्याल से लुप्त हो गया है। सुन्दरता तो है लेकिन उसका वैसा प्रभाव नहीं है मानो जीवित बुद्ध को देख रहे हों या जीवित देवता को देख रहे हों।
उदयन- आप यह कह रहे हैं कि साध्ाक को साध्ाना के दौरान बुद्ध का कोई एक स्वरूप अनुभव हुआ...
रिनपोछे जी- ...और उन्होंने उसे चित्रांकित करवाना चाहा...
उदयन- ...और ऐसे अलग-अलग रूपों का अनुभव हो जाता है।
रिनपोछे जी- हाँ, बिल्कुल हो जाता है...
उदयन- ...इसीलिए बुद्ध की अलग-अलग प्रतिमाएँ बनायी गयी हैं- जैसे हँसते हुए बुद्ध- क्या वे साध्ाना-उत्तीर्ण हैं?
रिनपोछे जी- जी, ये साध्ाना उत्तीर्ण हैं।
उदयन- इन स्वरूपों के कितने भी हो सकने की सम्भावना है?
रिनपोछे जी- वे अनन्त हो सकते हैं और चित्रकला का सम्बन्ध्ा इन साध्ानाओं से था और अब टूट गया है।
$ $ $
उदयन- अवध्ा किशोर सरन देश के विशिष्ट चिन्तकों में माने जाते हैं। आपका उनकी पुस्तकों के प्रकाशन में विशेष सहयोग माना जाता है। आपकी सरन साहब से कैसे भेंट हुई थीं?
रिनपोछे जी- एक बार सारनाथ के तिब्बती संस्थान में बौद्ध समाज दर्शन पर एक संगोष्ठी हुई। वह अखिल भारतीय गोष्ठी थी। मेरे मित्र काशी विद्यापीठ के प्रोफेसर रमेशचन्द तिवारी ने मुझसे कहा कि मेरे गुरू जी सरन साहब जयपुर विश्वविद्यालय में हैं, उन्हें बुलाइए। मैंने कहा, ठीक है। मैंने उन्हें पत्र लिखा कि हम एक ऐसी-ऐसी गोष्ठी कर रहे हैं, आप पध्ाारें। उनका जवाब आया कि मैं आऊँगा, लेकिन मैं जयपुर से बनारस और बनारस से लखनऊ जाऊँगा। लखनऊ से वापस जयपुर जाऊँगा। मुझे लखनऊ में कुछ काम है। इसलिए आप मुझे जयपुर-वाराणसी और वाराणसी-लखनऊ का मार्ग व्यय दीजिए। लखनऊ से आगे का मार्ग व्यय लखनऊ वाले देंगे। उन्होंने ऐसा लिखा। मैंने कहा, ठीक है, ऐसा ही करेंगे। वे आये पर उन्होंने ज़्यादा भागीदारी नहीं की। अध्ािकतर चुप ही रहे। फिर वे वापस लखनऊ गये। हमारे आॅफिस से उन्हें जयपुर-वाराणसी, वाराणसी-लखनऊ का मार्ग व्यय दे दिया गया। जब वे वापस जयपुर पहुँचे तो उन्होंने हमको एक पत्र लिखा। उस पत्र के साथ एक चेक भी संलग्न था। उन्होंने लिखा था कि लखनऊ वालों ने मुझे वाराणसी-लखनऊ और लखनऊ-जयपुर का मार्ग व्यय दे दिया है इसलिए वाराणसी-लखनऊ का मार्ग व्यय वापस कर रहे हैं। इसके लिए क्षमा याचना भी की थी। मुझे उनका ऐसा करना अच्छा लगा क्योंकि मैं जानता हूँ कि कई कोलकाता या विश्वभारती विश्वविद्यालय के लोग वाराणसी आते हैं तो तीन-चार संस्थानों का काम करते हैं और उन सभी से तीन-चार बार मार्ग व्यय ले लेते हैं।
उदयन- यह किस वर्ष की बात है?
रिनपोछे जी- यह सत्तर के मध्य या अस्सी के शुरू की है। उनके इस व्यवहार से मेरे मन में यह बात आयी कि यह चरित्रवान व्यक्ति हैं और तब मुझे उनके प्रति श्रद्धा हुई। उन्होंने सिफऱ् पैसा भर नहीं लौटाया था, उन्होंने यह आत्मस्वीकार भी किया था कि उनसे कोई ग़लती हुई है और इसकी उन्होंने उसी पत्र में क्षमा मांगी थी। उसके बाद सारनाथ या कहीं और सरन साहब से भेंट हुई तो मैंने उनसे कहा कि आप तिब्बत संस्थान में आकर अपने प्रिय विषय पर एक-दो व्याख्यान दीजिए। उन्होंने कहा, मैं आ सकता हूँ पर कितना समय मिलेगा। इस पर मैंने कहा कि उतना ही जितना प्रचलित है, यानि चालीस मिनट-पैंतालीस मिनट, उसे बढ़कर एक घण्टा भी कर सकते हैं और उसके बाद कुछ संवाद भी हो जायेगा। वे कुछ देर सोचकर बोले, इतने में मैं कुछ कह नहीं पाऊँगा। मैंने उनसे पूछा, आपको कितना समय चाहिए। वे बोले कि अगर मुझे एक हफ़्ते का समय दिया जाये तो किसी विषय को ठीक से बता पाऊँगा। मैंने यह मान लिया और कहा आप आइए एक हफ़्ते का कार्यक्रम रखते हैं।
उदयन- तब तक आपने इन्हें पढ़ा नहीं था।
रिनपोछे जी- कुछ सुना होगा और कुछ निबन्ध्ा पढ़े होंगे। फिर उनका एक हफ़्ते का कार्यक्रम तय हुआ और वे पत्नी के साथ सारनाथ आये और दस दिन ठहरे। एक हफ़्ते तक उनका भाषण हुआ, रोज़ सुबह नौ बजे से एक बजे तक फिर दोपहर के खाने के बाद चार-पाँच बजे तक। उसमें श्रोता हम थोड़े से लोग ही थे, रमेश तिवारी, रामशंकर जी और बनारस विश्वविद्यालय के दो-तीन लोग और काशी विद्यापीठ से दो-तीन लोग आते थे। कुछ मिलाकर दस-ग्यारह लोग रहे होंगे। इकट्ठे खाना खाते थे, चाय पीते थे और उनका भाषण सुनते थे। और सब रिकार्ड भी करते थे। बाद में वह अभिलिखित भी हुआ पर उन्होंने उसे छपाने की अनुमति नहीं दी। वे ‘अवशेष’ पर बोले थे। मैं समाज विज्ञान का व्यक्ति नहीं हूँ तो मुझे बहुत समझ में नहीं आया पर तब मैंने यह समझ लिया उनका ज्ञान पढ़कर आने वाला नहीं है, वह गहरी अनुभूति का ज्ञान है। उस समय यह चर्चा हुई और सरन साहब बोले, मैंने बहुत लिखा है लेकिन कोई प्रकाशित नहीं करता। मैंने उनसे पूछा कि उनके पास अभी तैयार क्या है? उन्होंने कहा कि हमारे पास ‘ट्रेडिशलन थाॅट’ पूरा ग्रन्थ के रूप में तैयार है। उसी बीच परमपूज्य की षष्ठी पूर्ति का आयोजन दिल्ली में हुआ। उसमें सरन साहब को बुलाया गया। उसमें गोष्ठी भी थी और सरन साहब से आग्रह किया गया कि आप संक्षेप में बोलिए। उन्होंने कुछ भी नहीं बोला। तब तक उनकी किताब ‘ट्रेडिशनल इण्डियन थाॅट’ की पाण्डुलिपि तैयार थी।
उदयन- तिब्बत इंटिट्यूट से उनकी संकलित रचनाओं में जो पहला जि़ल्द प्रकाशित हुई है।
रिनपोछे जी- गोविन्द चन्द्र पाण्डे जी, दयाकृष्ण जी और भी कई लोग थे, उन्होंने इस किताब की अनुशंसा की और कहा कि यह बहुत अच्छी किताब है, इसे प्रकाशित कराइए।
उदयन- ज़ाहिर है, आप लोगों ने तिब्बत संस्थान से इन लोगों को पाण्डुलिपि पढ़ने दी होगी और उनकी अनुशंसा मांगी होगी। आपके संस्थान में ऐसी व्यवस्था रही होगी।
रिनपोछे जी- ऐसी व्यवस्था तो है। पर इस पुस्तक के बारे में गोविन्द चन्द्र जी और दयाकृष्ण की ही अनुशंसा ली गयी और इसे प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया। उसे टंकित करने इलेक्ट्रानिक टाईपराइटर मंगाया गया। फिर सरन साहब सारनाथ आकर दो-तीन महीने रहे और टंकित प्रति को ठीक किया। एक दिन टाईपिस्ट मुरारीलाल जी आकर बोले ‘मैं छह बार टंकित प्रति में सुध्ाार कर चुका हूँ, जब भी उनके पास जाता हूँ, कुछ न कुछ जुड़ ही जाता है। इस तरह कैसे होगा?’ मैंने उनसे कहा, ‘छह या सात या आठ बार की गिनती मत करिए, आप सुध्ाार करते रहिए। आपका यही काम है। आपको तनख्वाह मिलती रहेगी। आपको बाकी सारा हिसाब रखने की ज़रूरत नहीं है। वे जब तक स्वीकृति नहीं दे देते, आप सुध्ाार करते रहिए।’
वह काम बहुत लम्बा खिंचता गया। इस बीच उनकी पत्नी कैंसर से अस्वस्थ हो गयीं। यह नब्बे के दशक की बात है। उनकी पत्नी सुशीला जी ने सरन साहब से कहा कि मैं मरने से पहले आपका ग्रन्थ देखना चाहती हूँ। उसके बाद सरन साहब ने अपने ड्राफ्टों को स्वीकृत करना शुरू किया। हम लोगों ने उसे जल्दी-जल्दी छपाया। इस बीच सुशीला जी का इलाज भी चलता रहा। परमपावन दलाई लामा जी ने उसका प्राक्कथन लिखा। वह उनका पहला प्रकाशित ग्रन्थ है। उसके बाद उनकी एक अलमारीभर लिखित सामग्री तिब्बत संस्थान ने ले ली और एक मेमोरेण्डम आॅफ अण्डरस्टेडिंग का दस्तावेज़ बना दिया गया कि सरन साहब की सारी पाण्डुलिपियों को संस्थान प्रकाशित करेगा। वह कार्य लम्बा होने वाला था और मेरे कार्यकाल में वह सब छप नहीं सकता था। मेरे कार्यकाल में तीन ग्रन्थ छप गये थे, उसके बाद बाकी सब छपे।
उदयन- कुछ आठ जि़ल्दें प्रकाशित हो चुकी हैं, क्या कुछ और भी बाकी हैं?
रिनपोछे जी- अभी उतने ही और बाकी हैं। सब सारनाथ में ही हैं। सरन साहब के जापानी शिष्य मुराकामी और लखनऊ के अजय कुमार श्रीवास्तव ही उस सामग्री पर काम कर सकते हैं। कोई और उस पर काम नहीं कर सकता।
उदयन- उन दोनों शिष्यों की क्या उम्र होगी?
रिनपोछे जी- मुराकामी शायद पचास से अध्ािक होंगे पर जब तक उनके माँ-पिता हैं, वे उनकी सेवा में रहेंगे। वे अतिवृद्ध हैं। शायद उनमें से एक का देहान्त हो गया है। पिताजी अभी हैं।
उदयन- क्या मुराकामी वहाँ बौद्ध दर्शन पढ़ाते हैं?
रिनपोछे जी- वे पढ़ाते नहीं है। वे सरन साहब के निष्ठावान शिष्य हैं। अभी तक की छपाई में भी उनका सहयोग रहा है। अजय श्रीवास्तव को सेवा-निवृत्त होने में एक-दो साल और लगेंगे। इन लोगों के आने के बाद बाकी किताबें प्रकाशित होंगी। लेकिन उनके लेखन का महत्वपूर्ण अंश छप चुका है। यह कहानी है सरन साहब की।
उदयन- आपके उनके निकट के सम्बन्ध्ा रहे हैं। आपकी उनसे क्या बातें होती थीं?
रिनपोछे जी- उनकी बातें समझना कठिन था। वे दूसरी दृष्टि से बात करते थे। वे एक घण्टा-चालीस मिनट किस विषय को कह रहे हैं, समझ में नहीं आता था। लेकिन जब वे अपने विषय पर पहुँच जाते थे, उसका प्रतिपक्षी तर्क किसी से भी नहीं हो सकता था। वे बहुत ठोस रूप से बोलते थे। वे अद्भुत प्रतिभा के ध्ानी थे। हम लोगों का उन्हें ठीक से समझना काफ़ी कठिन था। उनको उनके सहयोगियों या विश्वविद्यालयों ने नहीं पहचाना।
उदयन- उनके लिए तो वे बोध्ागम्य हुए ही नहीं होंगे। जब वे आपको कठिन लगते थे, विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों को तो भूल जाना चाहिए। उन्हें तो महज समाजशास्त्र का आचार्य भर माना जाता होगा। पर वे उसके कहीं आगे जा चुके थे। उनके कोई साथी नहीं रहे, सम्भवतः..
रिनपोछे जी- शिष्य बहुत रहे। लेकिन उनका समकक्ष साथी कोई नहीं रहा। मेरे उनसे उम्र में बहुत कम होने के बाद भी हमारा और उनका लम्बा साथ रहा है। उनका बौद्ध दर्शन का अध्ययन बहुत नहीं था। लेकिन वे आचार्य नरेन्द्रदेव के लेखन से वाकिफ़ थे। इसलिए उनसे इस विषय में संवाद नहीं हो सकता हो, ऐसा भी नहीं था। वे सारा कुछ परम्परा में ही समेट लेते थे।
$ $ $
उदयन- तिब्बत के अनेक नागरिक भारत आ गये हैं। क्या बौद्ध ध्ार्म की परम्परा उनमें किसी रूप से चल रही है? मैं विशेष तौर पर उसके अध्ययन-अध्यापन की बात कर रहा हूँ।
रिनपोछे जी- जितने भी विहार तिब्बत में मूलरूप से थे, वे सब भारत में और दो-तीन नेपाल में बन गये हैं। उनमें अध्ययन भी ठीक ढंग से चल रहा है। इन विहारों में भारतीय छात्रों की परवरिश भी खूब हुई है। हिमालय क्षेत्र लद्दाख, लाहोल स्पीती, अरूणाचल प्रदेश आदि के छात्रों की। नेपाल के छात्रों की भी। पुराने ज़माने में ये लोग तिब्बत भी जाया करते थे। अब वे सारे लोग यहाँ पुनस्र्थापित विहारों में अध्ययन कर रहे हैं। आने वाली दो-तीन पीढि़यों में जो ज्ञान सम्पदा एक हज़ार वर्ष से अध्ािक तक तिब्बत में संरक्षित थे, उसे भारत को सौंपने की जो परमपूज्य को इच्छा है, वह पूरी हो जायेगी। ऐसा लगता है।
उदयन- अनुवाद कार्य भी बहुत हो रहा है...
रिनपोछे जी- जी। लेकिन वह उतनी तेज़ी से नहीं हो पा रहा जितनी तेज़ी से तिब्बती भाषा का अध्ययन हो रहा है। हिमालय क्षेत्र के अध्ािकांश भारतीय तिब्बती भाषी हैं। जैसे पूरा लद्दाख, पूरा सिक्किम, पूरा भूटान (हालाँकि वह भारत का अंग नहीं है!) अरूणाचल के मुक्बा क्षेत्र पूरा तिब्बती भाषी है। हमारे विहारों में तिब्बती नागरिकों की संख्या भारतीय नागरिकों की तुलना में कम है। गैर-तिब्बती भाषी भी मैदानी क्षेत्र से आकर उन विहारों में अध्ययन करते हैं।
उदयन- इन सभी बौद्ध विहारों में वे सारे बौद्ध ग्रन्थ उपलब्ध्ा हैं जिनका आपने पहले जि़क्र किया था।
रिनपोछे जी- वे सारे ग्रन्थ वहाँ है। उनका पुनप्र्रकाशन हो गया है। सारे ग्रन्थों कपड़ों में लपेटकर दो तख्तियों के बीच रखने की पुरानी भारतीय परिपाटी है। वह तिब्बत में भी रही है।
उदयन- अब तिब्बती बोलने वालों की संख्या की क्या स्थिति है?
रिनपोछे जी- जब तिब्बत आज़ाद था, तिब्बती भाषियों की संख्या साठ लाख कही जाती थी। तिब्बत से बाहर इस भाषा को बोलने इनसे दो गुना होंगे। मंगोलिया में सारा बौद्ध अध्ययन तिब्बती भाषा के माध्यम से होता था और अब दोबारा हो रहा है। हिमालय श्ाृंखला में पाकिस्तान के कुछ स्थानों से लेकर लद्दाख से होते हुए हिमालय प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, भूटान, मेघालय, अरूणाचल प्रदेश, फिर मंगोलिया और रूस में तीन छोटे गणराज्य काल्मिक, बुर्यात और थोबा में ध्ार्म का अध्ययन तिब्बती भाषा में होता है। उनके बहुत-से विद्यार्थी कर्नाटक में पढ़ रहे हैं।
उदयन- क्या ये सारे लोग उसी पद्धति से अध्ययन कर रहे हैं जिसका आपने आरम्भ में जि़क्र किया था।
रिनपोछे जी- बिल्कुल उसी पद्धति से। जब रूस कम्यूनिस्ट नहीं था, वहाँ के सारे ऐसे विद्यार्थी तिब्बत आकर बीस-पच्चीस वर्ष रहकर अध्ययन करके वापस जाते थे। कई वापस नहीं भी जाते थे। उसी तरह से लद्दाख आदि जगहों के छात्र अध्ययन के लिए तिब्बत जाते थे। अब उसकी जगह कर्नाटक जा रहे हैं।
उदयन- क्या स्वाध्ाीन तिब्बत में चीन से भी विद्यार्थी आते थे?
रिनपोछे जी- चीन से कम विद्यार्थी आते थे। रूस के कम्युनिस्ट होने के बाद छात्रों का आना बन्द हो गया। रूस से भी, मंगोलिया से भी। तिब्बत में रूस के वे वृद्ध विद्यार्थी जो साठ से ऊपर थे, पढ़ रहे थे। वे पढ़कर वापस नहीं जा सकते थे। चीन और जापान के छात्र हमेशा से ही इक्का-दुक्का ही होते थे। वे अपनी भाषा में ही बौद्ध ध्ार्म का अध्ययन करते थे।
उदयन- क्या मंगोलिया में बौद्ध ध्ार्म तिब्बत से गया है?
रिनपोछे जी- मंगोलिया में इसी तरह गया है। चंगेज खाँ ने तिब्बत पर कब्ज़ा किया, उसके बाद मंगोलियायी शासक तिब्बती लामाओं के शिष्य बने।
उदयन- कुबलाई खाँ के तो तिब्बती लामा गुरू बने पर क्या उसके पहले भी बौद्ध विचार मंगोलिया में जाने लगा था?
रिनपोछे जी- बौद्ध विचार चंगेज खाँ के समय से ही थोड़ा-थोड़ा जाने लगा था। जब तिब्बत मंगोलिया के अध्ाीन हुआ तब से ही मंगोलिया में ध्ार्म का प्रचार शुरू हो गया था। चंगेज खाँ किसी बौद्ध गुरू के शिष्य नहीं बने थे, पर बौद्ध ध्ार्म के अस्तित्व का ज्ञान उनको था और उसके प्रति सम्मान भी था। उनके समय में तिब्बती इतने कमज़ोर थे कि वे चंगेज़ खाँ को बहुत प्रतिरोध्ा नहीं दे सकते थे इसलिए उसको कब्ज़ा में लेने उसे बहुत मार-काट नहीं करना पड़ा। दूसरा बौद्ध ध्ार्म के प्रति वे अपेक्षाकृत अध्ािक सहिष्णु थे, इतना निश्चित था। उनके बाद के सभी शासकों ने बौद्ध ध्ार्म को अपनाया। उसके पोते कुबलाई खाँ ने चीन और मंगोलिया में बौद्ध ध्ार्म की स्थापना के लिए बहुत कार्य किया था। विहार स्थापित किये, मन्दिर बनवाया।
उदयन- मंगोलिया में बौद्ध विहार रहे हैं? और क्या अब बढ़ रहे हैं?
रिनपोछे जी- विहार रहे हैं और अब बढ़ रहे हैं। रूस के तीन गणराज्य और मंगोलिया बौद्ध ध्ार्म को पुनस्र्थापित करने बहुत कार्य कर रहे हैं।
उदयन- इन जगहों पर पढ़ाने के लिए क्या तिब्बती भाषी गुरू लोग भारत से जाते हैं?
रिनपोछे जी- यहाँ से जाते हैं। कई ऐसे गुरू वहाँ हैं। उनके विद्यार्थी यहाँ आते हैं। मेरे ख्याल है कि कर्नाटक में मंगोलिया और रूस के 400 से अध्ािक विद्यार्थी पढ़ रहे होंगे। मंगोलियायी और रूसी छात्र बराबर की संख्या में होंगे।
उदयन- क्या इनमें से कुछ शिल्पशास्त्र चित्रकला आदि भी सीखते हैं?
रिनपोछे जी- मैं एक-दो को जानता हूँ। उन्होंने यहाँ सीखकर मंगोलिया में थंका चित्रकला का स्कूल खोल रखा है। मैंने वह देखा है। उनका साध्ाना से सम्बन्ध्ा भले न हो, वे कला-परम्परा को जीवित रखे हुए हैं।
यहाँ आकर हमारी बात रुक गयी। उसके बाद रिनपोछे जी से बात दो महीनों बाद फिर शुरू हुई। इस बार वे व्याख्यान देने दिल्ली आये हुए थे, मैंने उनसे समय लिया और उनसे मिलने उनके दिये समय पर पहुँच गया। संयोग से वे वहीं ठहरे थे जहाँ मैं अमूमन ठहरता हूँ। हम देर दोपहर तक साथ रहे और इस बीच बात करते रहे। बीच-बीच में रिनपोछे जी के फ़ोन आ जाते, या हम खाने के लिए उठ गये और बातें की निरन्तरता टूट-सी गयी। पर इसके बावजूद विचारों का सिलसिला बना रहा।
उदयन- आपने इन्दिरा गाँध्ाी सेण्टर फाॅर आर्ट्स में कपिला वात्स्यायन के समय ‘काल’ पर आयोजित गोष्ठी में वक्तव्य दिया था। आप उसमें काल की बौद्ध ध्ाारणाएँ जैसे वैभाषिक, स्वातन्त्र्यिक, विज्ञानवादी और माध्यमिक चारों परम्पराओं का जि़क्र करने से पहले यह कहते हैं कि हम काल को वस्तु नहीं, आरोपण मानते हैं। क्या आप इस विचार का कुछ विस्तार करेंगे? पहला इस दृष्टि से कि इसका दार्शनिक पहलू क्या रहा और दूसरा सामान्य तिब्बती या बौद्ध भिक्षुओं के जीवन में इस ध्ाारणा के अन्तस में बैठ जाने के बाद उसका व्यवहार किस रूप में हुआ?
रिनपोछे जी- विभिन्न दार्शनिक सम्पदाओं में काल की अलग-अलग मान्यताएँ है। लेकिन शब्दों के माध्यम से बहुत कुछ स्पष्ट करना कठिन है। काल को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैंः वर्तमान, भूत और भविष्य। लेकिन ये तीनों ही संस्कृत ध्ार्म के रूप में परिलक्षित नहीं होते। संस्कृत ध्ार्म का अर्थ है उसका उत्पन्न होने, उसका रहना और उसका नष्ट होना। जो कुछ भी हितु से उत्पन्न होता है, उसे संस्कृत ध्ार्म बोलते हैं। बौद्ध ध्ार्म की पारिभाषिक शब्दावली में यही कहा जाता है। पर काल वस्तु नहीं है याने इन्द्रियग्राह्य नहीं है। अवध्ाि में घटित होने वाली चीज़ को उसकी उत्पत्ति और उसके समापन कर्म का प्रमाण रखने के लिए एक नाम दिया गया है जिसे काल कहते हैं। जैसे यह पृथ्वी है, इसमें दिन और रात का अन्तर है और उन दोनों के पूरे होने को एक दिवस माना जाता है। उस दिवस को हमने एक दिन का समय मान लिया। अगर यह पूछा जाये कि दिवस समय क्या है तो इसका जवाब यही होगा कि दिवस समय नहीं है। दिवस समय के अन्दर घटित होता है इसलिए सरन साहब का स्टीफन हाॅकिंन्स की किताब ‘ग्रेट हिस्ट्री आॅफ टाईम’ पर यह कहना था कि समय का क्या इतिहास हो सकता है, दरअसल इतिहास समय के अन्दर होता है और समय के अन्दर होने वाले इतिहास को समय का इतिहास मानना ग़लत है। इतिहास की घटना हो, न हो, समय अपने हिसाब से रहता है जो इन्द्रियग्राह्य न होने पर भी उसका परिकल्पित रूप बराबर रहता है। बौद्ध ध्ार्म की लगभग यही मान्यता है। शब्दों से जिसका नाम दिया जा सके, उसका प्रारूप होना चाहिए, पर समय का कोई प्रारूप हम परिलक्षित नहीं कर सकते। अवध्ाि के प्रमाण को स्थापित करने यह नाम ‘काल’ दिया गया है लेकिन वह क्या है, कहाँ है इसका कोई परिलक्षण होने वाला नहीं है।
उदयन- आप यह कह रहे हैं कि काल एक ऐसी वस्तु है जिसका नाम तो है लेकिन वह स्वयं नहीं है।
रिनपोछे जी- लाक्षणिक रूप से उसकी परिभाषा सम्भव नहीं है।
उदयन- याने काल अस्तिमूलक नहीं है।
रिनपोछे जी- जी, वह अस्तिमूलक नहीं है। वह परिकल्पित है।
उदयन- इसी से जुड़ा एक और प्रश्न हैः भारत में युगों की कल्पना है। यह कल्पना भी है कि हर युग पिछले युग से अध्ािक गिरा हुआ होता है। कलयुग सबसे खराब उससे थोड़ा-सा ठीक त्रेता आदि। इन सभी युगों के चक्र की कल्पना है। असल में तो सभी युग एकसाथ रहते हैं क्योंकि वे कर्म-फल सम्बन्ध्ा आश्रित हैं। अलग-अलग लोग एक ही साथ अलग-अलग युगों में हो सकते हैं। क्या युगों की ऐसी कोई ध्ाारणा बौद्ध परम्परा में है?
रिनपोछे जी- चार युग की बात हर जगह है। भारतीय परम्परा में हर जगह है। जिस युग में जिस तरह की घटनाएँ घटित होती हैं, उसी से युग का नाम भी पड़ता है। समय अपने से यह तय नहीं करता कि युग द्वापर होगा या त्रेता। मानव जीवन में जो घटनाएँ घटती हैं, उसी हिसाब से युग का नाम दिया जाता है। जैसे कि सत्युग में पाप नहीं होता था। बौद्धों की दृष्टि में द्वापर युग के नाम का कारण है, मानव समाज में चोरी और प्राणाध्ाात (कत्ल) जैसे दो पाप उत्पन्न हुए। पाप की संख्या से युग द्वापर हो गया। त्रेता में इनके अलावा यौनाचार शुरू हुआ। जब सब पाप आ गये और लोगों में एक-दूसरे से झगड़ने की शुरूआत हुई, वह कलियुग कहलाया। ऐसा कहा गया है। समाज में जिस प्रकार का व्यवहार होता है और मुख्य-मुख्य पापों का उदय होता है, उसी हिसाब से युगों का नामकरण होता है।
उदयन- क्या बौद्ध ध्ार्म के पहले के तिब्बत में युगों का विचार था?
रिनपोछे जी- यह कहना ठीक होगा कि मैंने नहीं देखा, बल्कि मुझे नहीं मालूम। बौद्ध ध्ार्म से पहले की बौन परम्परा की जानकारी मुझे नहीं है। लेकिन आज बौन साहित्य ज़्यादातर बौद्धों से प्रभावित होकर ही लिखा गया है।
उदयन- इसी से सम्बन्ध्ाित मृत्यु का विचार है। मृत्यु का विचार ध्ाार्मिक या दार्शनिक परम्पराओं को एक-दूसरे से अलगाते हैं। कमोबेश जितनी भी सामी परम्पराएँ हैं, उनमें मृत्यु के बाद दफ़नाया जाता है और मृतक फैसले के दिन का इन्तज़ार करता है। फिर एक दिन उसके पाप और पुण्यों का हिसाब होता है वगैरह। हिन्दुओं के अनेक सम्प्रदायों में दफ़नाने का विचार नहीं है। वहाँ शरीर को जलाकर उसे पंचतत्वों में मिलाने की बात है। फ़ारस में यह समझ है कि मृत्यु का क्षण ईश्वर से भेंट का क्षण है। तिब्बत में बौद्ध परम्परा में आचार्य पदमसम्भव ने मृत्यु के बाद के अन्तराल पर पूरी किताब ‘अन्तरभाव’ लिखी है। आप मृत्यु पर बौद्ध परम्परा के विचारों पर कुछ कहें। परमपूज्य के भी इस विषय पर तीन-चार व्याख्यान हैं।
रिनपोछे जी- अतिसूक्ष्म चित्त (जिसे आत्मवादी आत्मा कहते हैं) की सन्तति कभी समाप्त नहीं होती। उसी कारण पूर्वजन्म, अपरजन्म आदि होते हैं। चारवाक को छोड़कर बाकी सब परम्पराओं में पुनर्जन्म स्वीकृत है। आत्मवादी भी मानते हैं निरात्मवादी भी। चारवाक को छोड़कर सभी दार्शनिक परम्पराओं में यह मान्यता है कि चित्त सन्तति न शुरू होती है, न समाप्त। इसलिए जन्म-जन्मान्तर की बात करना होती है। बौद्ध दृष्टि से हमारी चित्त सन्तति एक शरीर को छोड़कर दूसरे में संक्रमित करती है, एक शरीर को छोड़ने के क्षण को मृत्यु कहा जाता है। जिस क्षण चित्त सन्तति एक शरीर के स्वामित्व को छोड़कर अलग होती है, वह क्षणिक होता है, उसे ही हम मृत्यु मानते हैं। उस क्षण के तुरन्त बाद वह अन्तराल के शरीर को प्राप्त करती है। अन्तराल का शरीर स्थूल शरीर नहीं होता। वह केवल मानसमय शरीर होता है। इस तरह चित्त सन्तति सूक्ष्म शरीर को प्राप्त करती है। उसे छोड़ वह चित्त-सन्तति स्थूल शरीर में प्रवेश करती है। वहाँ भी अन्तराल शरीर की मृत्यु होती है। वह अन्तराल शरीर से अलग होकर एक नये शरीर को ग्रहण कर लेती है, इस तरह अपरजन्म होता है।
उस मृत्यु को हम ऐसा मानते हैं कि साध्ाारण व्यक्ति की जो सबसे पवित्र चित्त अवस्था सम्भव है, वह मृत्यु-चित्त है। उस समय, जितने भी स्थूल चित्त के प्रपंच, उनके कार्य है, वे समाप्त हो जाते हैं। मन सूक्ष्म चित्त में विलीन हो जाता है। सूक्ष्म चित्त मूल स्वरूप में क्लेश आवरण से अछूता है। वह उसके स्वभाव में नहीं है। सारे क्लेश उसके लिए आगन्तुक हैं, उसको ढाँक देते हैं लेकिन वे उसके स्वभाव में प्रवेश नहीं करते। जब जीवित अवस्था में साध्ाना के सहारे ऊँचे स्थान पर पहुँच जाते हैं, सूक्ष्म चित्त जाग्रत होकर क्रियाशील हो सकता है। साध्ाारण मनुष्य जो साध्ाक नहीं है, जिसे मार्ग प्राप्त नहीं है, उसके साथ ऐसा नहीं होता। पाप-पुण्य सूक्ष्म चित्त पर बीज के रूप में हैं, लेकिन वे उसके स्वभाव में जाते नहीं है। वे स्वभाव को कलुषित नहीं करते। सूक्ष्म चित्त राग-द्वेष-क्रोध्ा के रूप नहीं होता। वह स्थिर बोध्ा मात्र होता है। जब वह एक शरीर से निकलकर दूसरे में प्रवेश करता है, चाहे वह अन्तराल का सूक्ष्म शरीर हो चाहे अपरजन्म का स्थूल शरीर, उसका विषय के साथ सम्पर्क टूट जाता है क्योंकि जागृति में स्थूल चित्त में राग द्वेष बहुत होता है, ग़लतफहमी भी होती है, बोध्ा भी होता है। ऐसा ही वह जीवनपर्यन्त चलता है क्योंकि वह शरीर के जागरण में है और वह अपवित्र जैसा है, वह कर्म से विपाक के रूप में मिलता है। कर्म क्लेश के माध्यम से होता है इसलिए जब तक विपाक शरीर है, वह सूक्ष्म चित्त को कार्य नहीं करने देता। स्थूल चित्त परिकल्पनाओं पर आध्ाारित होता है। उससे कर्म उत्पन्न होता है, क्लेशों की उत्पत्ति होती है, जिसे भाव चक्र कहते हैं, वे बनते रहते हैं।
मृत्यु में सूक्ष्म चित्त एक से दूसरे शरीर में संक्रान्त होता है और उतने ही क्षण दो क्षण के लिए स्वाध्ाीन हो जाता है और दूसरे चित्तों से आभारित नहीं होता। लेकिन यह इतने कम समय के लिए होता है कि वह कुछ अध्ािक कर नहीं पाता।
उदयन- सूक्ष्म चित्त की इस स्वाध्ाीनता का समय बहुत कम होता है।
रिनपोछे जी- क्योंकि वह जैसे ही शरीर में प्रवेश करता है, इन्द्रियाँ आदि सक्रिय हो जाती है और वह प्रतिक्रियात्मक हो जाता है। और वह अध्ािकांश ग़लत ध्ाारणाओं पर चलने लगता है।
उदयन- यानि जिस क्षण उसे स्थूल चित्त प्राप्त होता है तभी शरीर भी प्राप्त होता है।
रिनपोछे जी- वे साथ ही प्राप्त होते हैं क्योंकि सारे स्थूल चित्त शरीरजनित होते हैं। जैसे चक्षु से चक्षु-विज्ञान उत्पन्न होता है, फिर वह विज्ञान स्मरण में चला जायेगा, उससे एक कल्पना उत्पन्न होती है। उसी तरह जब शब्द सुनेंगे, उसका ज्ञान होगा, फिर उससे कल्पना उत्पन्न होगी। अगर यह पूछा जाये कि बौद्ध दर्शन की दृष्टि से मृत्यु क्या है? उसका उत्तर यही हो सकता हैः सूक्ष्म चित्त के स्थूल शरीर से संक्रान्त होने और स्वतन्त्र होने का क्षण! वह जैसे ही संक्रान्त होता है, यह शरीर शव हो जाता है। तब उसमें चेतन का अंश नहीं रह जाता। तब वह चेतन के स्वामित्व में नहीं रह जाता। जैसे महाभूतों से बना था, वहीं वापस चला जाता है। वह शरीर फिर काम नहीं आयेगा। इसलिए भारत के कई स्थानों पर तो उसे जला दिया जाता है, तिब्बत में जहाँ लकड़ी की कमी होती है, वहाँ वह गिद्धों को सौंप दिया जाता है, उससे वह इतना साफ़ हो जाता है, छोटे-से-छोटा टुकड़ा भी नहीं बचता। जहाँ लकड़ी होती है, वहाँ वह जला दिया जाता है। लेकिन तिब्बत में कहीं-कहीं यह स्थानीय प्रथा है कि बरसात के दिनों में शव को जलाते नहीं हैं, उसकी मनाही है इसलिए इन दिनों में मृत्यु के बाद शव को लकड़ी के डिब्बे में रखकर ज़मीन के नीचे तीन-चार महीनों के लिए दफ़ना देते हैं और बरसात ऋतु के समाप्त होने पर उसे निकाल कर जला लिया जाता है।
उदयन- आपने मृत्यु के बाद सूक्ष्म चित्त को सूक्ष्म शरीर प्राप्त होने के पहले अन्तराल की बात कही। क्या यह अन्तराल बेहद संक्षिप्त होता है और फिर सूक्ष्म चित्त को तुरन्त ही स्थूल शरीर प्राप्त हो जाता है। कई परम्पराओं में यहाँ प्रतीक्षा की बात भी कही जाती है।
रिनपोछे जी- यहाँ दोनों ही होते हैं। जगत की तीन ध्ाातु मानी गयी हैं, काम, रूप और अरूप। जब काम से रूप में जन्म होता है, तब अन्तराल की ज़रूरत होती है। काम ध्ाातु से काम रूप में जन्म लेने में अन्तराल की ज़रूरत होती है लेकिन जब काम ध्ाातु से या रूप ध्ाातु से अरूप में जन्म लेता है, उसमें अन्तराल की ज़रूरत नहीं होती। जैसे ही उसकी मृत्यु होती है, उसे तत्काल अरूप का जन्म प्राप्त हो जाता है क्योंकि उसमें रूप नहीं है। उसका सारा जीवन समाध्ाि स्थिति में ही जाता है, उसे कोई बोध्ा नहीं होता। साध्ाारणतया यह कहते हैं कि अन्तराल भाव का जीवन सात दिन से अध्ािक नहीं होता। सात दिन में ही उसे दोबारा मृत्यु को प्राप्त होना होता है।
उदयन- यानि वह सूक्ष्म शरीर को सात दिन बाद त्याग देता है...
रिनपोछे जी- सूक्ष्म शरीर में रहते हुए भी यदि चित्त सन्तति को अपर जन्म नहीं मिलता, तब एक मृत्यु होती है और वह फिर अन्तरभाव में आ जाता है। यह सात सप्ताह तक चल सकता है। इस बीच वह सात-सात दिनों तक सूक्ष्म शरीर में रहेगा और मृत्यु को प्राप्त होकर अन्तरभाव में आ जाएगा। इसके बाद ऐसा नहीं होता। सात सप्ताह इसकी अन्तिम सीमा है। इसके बाद उसे स्थूल शरीर में अवश्य जन्म लेना होगा। इसीलिए मृत्यु के बाद उसके परिजन सात सप्ताह तक पूजा-पाठ करते रहते हैं। सात सप्ताह बाद बड़ी पूजा होकर यह समाप्त हो जाता है।
उदयन- तब तक उसका अपर जन्म हो ही गया होता है...
रिनपोछे जी- इस परिकल्पना में दार्शनिकों के कुछ मतभेद हैं। ये सात दिन मनुष्य के सात दिन हैं या जहाँ उसका जन्म होगा उसके सात दिन हैं। लेकिन पूजा-पाठ वाले मनुष्य के दिन के प्रमाण को स्वीकार करते हैं। अन्तराल इसलिए लम्बा होता है क्योंकि अगर पशु योनि में जन्म होने वाला हो तो वह हर समय नहीं हो सकता क्योंकि कुछ पशुओं में समय से ही माता-पिता का संयोग होता है, वह हमेशा नहीं होता। अगर किसी पशु विशेष में जन्म होना है, तो माता-पिता के संयोग की प्रतीक्षा करनी होती है। अगर किसी ऐसी योनि में जन्म लेना हो, जो इनसे अलग हैं तो समय विशेष की प्रतीक्षा नहीं करनी होती। अगर समय विशेष की प्रतीक्षा करनी भी हो और सात सप्ताह तक अपर जन्म सम्भव नहीं होता तो जन्म बदल जाता है।
उदयन- अगर किसी दूसरी योनि में जन्म होना है तो वह किस पर निर्भर है? क्या वह कर्मों के आध्ाार पर तय होता है या किसी और तरह से?
रिनपोछे जी- आप किस योनि में जन्म लेंगे, यह कर्म पर निर्भर होता है। हर योनि में जन्म लेने को आपके पास अथाह कर्म हैं, बहुत-से कर्म संचित रहते है। इसलिए मृत्यु के समय जिस कर्म को एक हितु मिलेगा, उसी कर्म से अगला जन्म होगा। जो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होते हैं उन्हें इसीलिए मृत्यु के समय दुःख नहीं देना चाहिए, क्रोध्ाित नहीं होने देना चाहिए, निराश नहीं होने देना चाहिए क्योंकि अगर वह मृत्यु के समय शान्त चित्त हुआ तो उसके कर्मों में से अच्छे कर्मों को हितु मिल जायेगा, तो वह अच्छा जन्म ले लेगा। अगर उस समय उसका चित्त अशान्त है या कलुषित है तो अकुशल को सन्ध्ाि मिल जायेगी, या उन्हें हितु मिल जायेगा तो फिर उसका जन्म निम्न योनियों में होगा।
उदयन- मृत्यु के समय चित्त को शान्त करने की कुछ साध्ानाएँ भी हैं?
रिनपोछे जी- उसके लिए साध्ाना पद्धतियाँ तो बहुत हैं पर वे गम्भीर साध्ाकों के लिए हैं, साध्ाारण साध्ाकों के लिए नहीं। प्रारम्भ इस तरह किया जाता हैः मृत्यु की प्रक्रिया को समझने की कोशिश करते हैं। उसके बाद उसे अभ्यास में लाते हैं। यह अभ्यास करते हैं कि मृत्यु की अवध्ाि में अचेत होने से पहले क्या, कैसे हो रहा है, यह पता चलता रहे। जब हम जाग्रत अवस्था से नींद में जाते हैं, वहाँ भी कर्म होता है, पर हम उसे देख नहीं सकते क्योंकि उसका अभ्यास नहीं होता। अगर उसका अभ्यास करें कि अब नींद आने वाली हैं, अब मैं नींद को प्राप्त कर रहा हूँ, नींद में जाने पर मैं अचेत हो जाऊँगा, मैं उसके निकट आ रहा हँू, वहाँ तक देखने का भी प्रयास किया जाता है।
सपने का उपयोग अन्तराल भाव के रूप में किया जाता है। लेकिन सपने को सपने के रूप में जानने के लिए बहुत अभ्यास की आवश्यकता होती है। आमतौर पर सपना सपना नहीं लगता। अभ्यास करने से सपने को सपने की तरह देखने की क्षमता आ जाती है। तब उसे अन्तराल भाव के रूप में ग्रहण किया जा सकता है और सपने से जागने को अपरजन्म की तरह। अगर कोई ऐसी मृत्यु हो जिसे अप्राकृतिक कहते हैं तो उसमें कोई कुछ नहीं कर सकता लेकिन यदि बीमार होकर या शरीर की वृद्धावस्था के कारण मृत्यु होती है, उसके पहले आपको कई आभास होने लगते हैं। सबसे पहले शरीर का पृथ्वी भाग छिन्न-भिन्न होने लगता है। तब हाथ-पैर हिलने-डुलने में दिक्कत होने लगती है। उस समय ऐसा आभास होता है मानो हर जगह ध्ाुँआ-ध्ाुँआ जैसा है। यह संकेत है कि आपके शरीर का पृथ्वी भाग अपने से मुक्त हो रहा है। उसके तत्काल बाद शरीर के जल भाग का क्षय होगा। तब ऐसा आभास होगा मानो आपके कमरे में पानी भर गया है या वहाँ झिलमिल-सा कुछ हो रहा है। उसके बाद मुँह सूख जायेगा और रक्त के प्रावाह का क्षय होने लगेगा। इस समय तक आकर मर रहा व्यक्ति बातचीत नहीं कर सकेगा। लेकिन चेतना तब भी रहती है। उसके पास वायु खत्म हो जाती है। उस समय मर रहे व्यक्ति को महसूस होगा कि उसे आग के कण (चिंगारियाँ) दिखायी दे रही हैं। जैसे किसी ने भूसे को आग लगाकर फैला दिया हो। यहाँ आकर साँस बन्द हो जाती है। इसके बाद भी चित्त शरीर में ही रहता है। इस सूक्ष्म चित्त को ऐसा अनुभव होगा मानो वह सफ़ेद चन्द्रमा की-सी रोशनी में देख रहा है। उसे तेज़ प्रकाश की अनुभूति होगी, उसके बाद उसे लाल रंग का तेज़ प्रकाश दिखायी देगा। लाल रंग के तेज़ प्रकाश के समाप्त होते ही व्यक्ति अचेत हो जाता है। तब उसमें कोई चेतना नहीं रहती। वह चेतना तब वापस आयेगी जब सूक्ष्म चित्त शरीर से बाहर आ चुका होगा।
उदयन- जब सूक्ष्म चित्त शरीर से बाहर निकल आया, तब चेतना आ जायेगी?
रिनपोछे जी- उस समय मृत्यु हो चुकी होती है। सूक्ष्म चित्त के स्थूल शरीर से बाहर आते ही उसे अन्तराल शरीर मिल जाता है। उसका कोई ठोस रूप नहीं है। वह केवल चितमय शरीर है, मन का बनाया शरीर। वह कहीं भी जा सकता है। अगर उसके रास्ते में दीवार आयेगी, वह उसके पार निकल जायेगा। उसे कहीं भी जाने में बाध्ाा नहीं है। उसका किसी भी स्थूल रूप से टकराव नहीं होता क्योंकि उसका कोई स्थूल रूप नहीं है। अगर उसे मनुष्य जन्म में आना है तो उसे माता-पिता के संयोग की प्रतीक्षा करना पड़ेगी। अगर कहीं और जन्म लेना होगा तो भी वह उसी तरह करेगा।
उदयन- इस सारी प्रक्रिया में साध्ाक किस तरह व्यवहार करता है?
रिनपोछे जी- वह मृत्यु की प्रक्रिया शुरू होते ही बुद्ध या अपने गुरुजनों का स्मरण करने लगता है। वह अचेत होने से पहले प्रयास करता है कि उसके अच्छे (कुशल) कर्मों का फल उसे अपरजन्म में मिले। अगर वह अचेत होने से पहले अच्छा सोच रहा है तो इससे उसकी अपने कुशल (अच्छे) कर्मों से सन्ध्ाि हो जाती है और इसके कारण अपरजन्म अच्छा मिलता है। अगर वह क्रोध्ाित होगा या ऐसी ही किसी भावना को अचेत होने से पहले, मन में लायेगा तो उसके जो बहुत से बुरे कर्म होंगे, चित्त की उनसे सन्ध्ाि हो जायेगी, तब वह नर्क में या पशु योनि में जा सकता है।
उदयन- आपसे मैं यह पूछना चाहता हूँ कि जब हम बौद्ध परम्परा में शून्यता कहते हैं तब हम क्या कह रहे होते हैं?
रिनपोछे जी- इसे सरल शब्दों में अभिव्यक्त करना थोड़ा कठिन है। वस्तुओं पर कोई चीज़ आरोपित की गयी है, उसका निषेध्ा करना ही शून्यता है। मान लीजिए यहाँ घट रखा हुआ है तो यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि यहाँ घट नहीं रखा है। यह घट हमारी चित्तवृत्ति में स्वतन्त्र रूप से, अपने स्वभाव से अस्तित्वमान है, ऐसा हम इस पर आक्षेप करते हैं। जब हम इस पर सोचते हैं कि हम किस तरह से आक्षेप करते हैं, यह आक्षेप है या नहीं, उसका निषेध्ा हो जाता है कि ऐसा नहीं है क्योंकि यह हमारे चित्त में ध्ाारणा की तरह नहीं है तब उस घट के हमारी चित्त की ध्ाारणा की तरह होने का निषेध्ा हो जाता है। इस निषेध्ा से शून्य हो जाता है। यह पहली तरह का निषेध्ा हैः पुदगल निरात्मा। इसके बाद ध्ार्म निरात्मा, और इस तरह के बढ़ते हुए शून्यता को जानने का प्रयास करते हैं। तब स्व पर आत्मा के आरोपण का निषेध्ा करते हैं। उसके लिए स्व की ध्ाारणा को जानना पड़ता है। वह सबसे भिन्न है। आत्मा कोई बनावट नहीं है, प्रतीत सम्पन्न नहीं है। वह स्वभावतः अपने से है। जैसे कोई हमें गाली देता है तो हम क्रोध्ाित होते हैं, ‘उसने मुझे गाली दी।’ यह ‘मैं’ बहुत स्वतन्त्र रूप से मन में आता है, उसकी ध्ाारणा होती है। यह ‘मैं’ न तो शरीर पर होता है, न चित्त पर। उसका कोई भी आध्ाार नहीं होता। बिना आध्ाार के ही ‘मैं’ की ध्ाारणा है, उस ध्ाारणा को हम किस तरह ध्ाारण कर रहे हैं, यह पहचानना कठिन है। इसलिए शून्यता की भावना करने वाले लोग पहले उसे पकड़ने की कोशिश करते हैं। जब आप बहुत उल्लसित हैं, कोई काम सफलतापूर्वक पूरा करते हैं तब ‘मैंने यह काम किया’ सोच कर हर्षित होते हैं या जब आप दुःखी होते हैं, आपको क्रोध्ा आता है। तब यह प्रश्न पूछना होता है कि ‘मैं’ कहाँ है? मेरा सिर, मेरी छाती, मेरे अंग, यह शरीर आदि सब तो ‘मेरे’ है, पर यह ‘मैं’ नहीं। इसी तरह ‘मेरा’ सोच, ‘मेरा’ मन आदि को ढूँढ़ते हुए जायेंगे तो ‘मैं’ कहीं मिलता नहीं है। जब वह ढूँढ़ने से मिलता नहीं है तो वह नहीं है, उसके इस ‘नहीं होने’ को देखना ही शून्यता है। वह पुदगल निरात्मा या पुदगल शून्यता है। उसी तरह आप घट-पट को देखेंगे, तो वहाँ भी स्वाध्ाीनता नहीं है। फिर है कैसा? है ऐसा कि शरीर, मन और भावनाएँ मिलकर एक समूह जुटाते हैं और उस पर एक नाम ‘देवदत्त’ या ‘सोमदत्त’ रखा जाता है और पर इनका ‘मैं’ खोजने पर मिलता नहीं है। खोजने पर वह मिलता नहीं लेकिन वह जो काम कर रहा है, वह क्या है? वह प्रतीत्य समुत्पन्न है। आपका मन, नाम, शरीर आदि एक-दूसरे से जुड़े हैं, एक-दूसरे पर आध्ाारित हैं और इन सबको हटाकर जिस स्थूल स्व को हम ढूँढ़ रहे थे, वह नहीं मिलता। वह नहीं मिलता और उसका निषेध्ा होना ही शून्य है। जो ठोस, स्वाध्ाीन, स्वलक्षण चीज़ ढूँढ़ी जा रही थी, उसका निषेध्ा हो जाता है, वह मिलती नहीं। वही शून्य है। अगर कोई चीज़ खोज में नहीं मिलती तो क्या वह नहीं है? ऐसा नहीं कह सकते। वह है। पर वह कैसी है? परस्पर आश्रित होकर एक ढाँचा बनता है, उसी से वह प्रतीत्य समुत्पन्न होता है। वह होता नहीं है, उसकी प्रतीति होती है। वह प्रतीति ही सारे काम करती है। वही जन्म लेती है, मरती है। कर्म संचय करती है, कर्म फल माँगती है। वह सब उसी प्रतीति में ही है।
उदयन- और वह संयोग से है?
रिनपोछे जी- संयोग से है।
उदयन- यह जान लेना कि...
रिनपोछे जी- यह घट-पट और ‘मैं’ किसी की अपेक्षा न करते हुए, निरपेक्ष रूप से, अपने आप में नहीं है, ये ही शून्यता है और ‘निरपेक्ष स्व’ की ध्ाारणा ही ‘स्व’ और ‘पर’ का भेद बनाती है। उसी भेद से राग-द्वेष और इसी तरह के अन्य क्लेश उत्पन्न होते हैं। यह समझ में आने पर कि ‘स्व’ और ‘पर’ परस्पर आश्रित है- क्लेशों का उत्पन्न होना कम हो जाता है और इसी के अभ्यास से सारे क्लेश समाप्त हो जाते हैं। वही शून्यता की भावना है, निरात्मा की भावना भी वही है।
उदयन- इससे यह निकलता लग रहा है कि विभिन्न अवयव साथ आकर ही कर्म करते हैं।
रिनपोछे जी- वह जो भी कर्म करेगा, उसका फल भी होगा, उससे कोई बच नहीं सकता। कर्म संचय का फल तो भोगना होगा।
उदयन- पिछले जन्म के कर्मों के फल का भी?
रिनपोछे जी- पिछले जन्म के फल का भी, इस जन्म का भी या उस कर्म संचय को समाप्त करने दूसरे कर्म करने होंगे जिन्हें साध्ानाएँ कहते हैं। जैसे आपने जीव हत्या की तो पाप संचय हुआ, उसकी छाप या बीज आपके मन में पड़ गया है। आप या तो उसका फल दुःख या वेदना के रूप में भोगकर समाप्त करेंगे या कोई अच्छा कर्म-संचय करके उस बुरे कर्म को समाप्त करेंगे। यह सोचना ग़लत है कि कर्म-फल-बीज इन दो रास्तों के बिना चला जायेगा। अगर बीज है तो या तो उसे जला दीजिए या उसे सालोंसाल रखे रहिए पर जब भी बोएँगे, उसका फल निकल आयेगा।
उदयन- इस चक्र से बाहर जाने का मार्ग बुद्धत्व की प्राप्ति में ही है?
रिनपोछे जी- वही है। सारे राग-द्वेष आदि सारे नकारात्मक भाव या सारे क्लेश आत्म-ध्ाारणा से उत्पन्न होते हैं। जब स्वाध्ाीन, स्वलाक्षणिक, स्वतन्त्र ‘मैं हूँ’ की ध्ाारणा की समाप्ति हो जाती है क्योंकि वह निरात्मा को देख लेता है और तब ‘स्व’ और ‘पर’ का भेद समाप्त हो जाता है। जब ऐसा हो जाता है, न आप मेरे लिए ‘पर’ बचते हैं, न मैं आपके लिए ‘पर’। न मैं ‘मैं’ बचता हूँ और न आप ‘आप’ बचते हैं। आप मेरे सन्दर्भ में उसी तरह हैं जैसे पूर्व और पश्चिम होता हैः अपने स्वरूप में न पूर्व होता है, न पश्चिम। जहाँ आप बैठे हैं, अगर वहाँ सूर्य उगता है तो आप कहते हैं कि वह पूर्व है। अगर आप जगह बदल लेंगे, आपके पीछे की जगह सामने हो जायेगी, ‘पूर्व’। और आपके साथ पश्चिम हो जायेगा। इसलिए जब तक स्वलाक्षणिक, स्वाध्ाीन स्वरूप में किसी चीज़ के स्थित होने की ध्ाारणा है और जब तक वह होगी, उसके परिपेक्ष्य में बाकी चीज़ें ‘पर’ हो जायेंगी। इसलिए ऐसी स्थिति में क्लेश, स्पधर््ाा आदि बने रहेंगे। जब यह आत्मध्ाारणा टूट जाती है, समता आ जाती है। समता आने पर राग-द्वेष के कारण कम हो जाते हैं। और होते-होते वे समाप्त हो जाते हैं। इसी तरह करुणा और शून्यता की भावना करते-करते क्लेशों को नष्ट करके बुद्धत्व की प्राप्ति होती है।
उदयन- जब बुद्धत्व को प्राप्त व्यक्ति मृत्यु के क्षण में आता है...
रिनपोछे जी- जब बुद्धत्व प्राप्त होता है, वहाँ मृत्यु नहीं होती। चूँकि वहाँ मृत्यु के सारे कारण समाप्त हो गये होते हैं। वहाँ शरीर कर्म-क्लेश से विपाक रूप में नहीं है। बुद्ध का शरीर, चित्त और अन्य सब कुछ एक ही हैं। वह परभास्वर हैं, भासमान है। बुद्ध का हाथ भी ज्ञान है। वह हाथ मात्र नहीं है। वह एक-एक चीज़ को जानता है, मनस्वरूप है। उनका शरीर मन और वचन तीनों अभेद हैं। वहाँ मृत्यु और जन्म नहीं होते। अगर वो कहीं जन्म भी लेते हैं, उसे निर्मल काया कहते हैं। वे कर्म क्लेश के माध्यम से जन्म नहीं लेते, वे किसी कार्य-विशेष के लिए, किसी उद्देश्य के लिए मनुष्य या किसी और रूप में जन्म लेते हैं। वे स्वेच्छा से जन्म लेते हैं।
उदयन- ‘बुद्धत्व को प्राप्त’ के लिए पुदगल शब्द नहीं है?
रिनपोछे जी- ‘पुदगल’ का शब्द बुद्ध पर लागू नहीं होगा। वे व्यक्ति तो हैं पर पुदगल का अर्थ कुछ और है। पुदगल पूर्ण होता है, फिर क्षय होता है। ‘पुद’ याने ‘पूर्ण’ होना, ‘गल’ याने गल जाना। हम लोग जन्म लेते हैं तो पहले सारा शरीर पूर्ण होता है, फिर बड़े होते हैं, फिर वृद्ध होते हैं और फिर शरीर गल जाता है, इसलिए इसे पुदगल कहते हैं। यह बुद्ध पर लागू नहीं होगा। बुद्ध हमेशा रहते हैं। वे कभी गलते नहीं है।
उदयन- आपने ही मुझसे कहा था कि जब शाक्य मुनि (गौतम) को बोध्ा प्राप्त हुआ, उन्होंने कहा कि यह अनुभव कैसे बताया जाये, तो ब्रह्मा ने कहा कि आप इसे उपमान से बताएँ। फिर उन्होंने बताने के तीन ढंग बताये थे। क्या बुद्ध का अपने बोध्ा को न बता पाया भी शून्य का ही लक्षण है?
रिनपोछे जी- न बता पाना, बुद्ध के स्वभाव में नहीं है। पर जगत के कल्याण के लिए ऐसा प्रतीत होता है कि बिना किसी प्रार्थना के बुद्ध अपने ज्ञान को लोगों पर थोपना नहीं चाहते। उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा है कि बिना किसी के आग्रह के आप ध्ार्मोपदेश नहीं करिए। बौद्ध ध्ार्म मिशनरी ध्ार्म नहीं है। अगर कोई आदमी अपनी इच्छा से जानना चाहे तभी बताया जाता है। अगर उसकी इच्छा नहीं है तो हम नहीं बता सकते। इसलिए बुद्धत्व प्राप्त होने के बाद भी, जब तक ब्रह्मा और इन्द्र आकर उनसे प्रार्थना नहीं की, उन्होंने ध्ार्मोपदेश नहीं किया। यह नहीं कि बुद्ध नहीं जानते कि उपदेश कैसे देने चाहिए। ब्रह्मा के साथ अपने वार्तालाप में वे इसे जगतिक व्यवहार कहते हैं। ऐसा नहीं है कि बुद्ध नहीं जानते थे और ब्रह्मा ने जानकारी दी। इस प्रसंग का सत्य जगतिक व्यवहार में देखना चाहिए। यहाँ वैभाषिक और स्वातन्त्रिक मतों की मान्यताएँ अलग हैं। वैभाषिक मानते हैं कि सिद्धार्थ बुद्ध नहीं थे। सिद्धार्थ एक बोध्ािसत्त्व थे और सिद्धार्थ का शरीर कर्म-क्लेश के विपाक रूप में है। इसलिए बुद्ध का शरीर भी पुराने कर्मों का अवशेष है, इसलिए उनके शरीर का क्षरण हुआ और वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसके बाद बुद्ध अवशेष निर्वाण में चले गये इसलिए उनका कोई रूप नहीं है, रेखा नहीं है, उनमें कोई परिवर्तन नहीं होता। विज्ञानवादी और माध्यमिक कहते हैं कि सिद्धार्थ बुद्ध थे और बोध्ािसत्त्व होने की उन्होंने लीला की। लोगों को यह दर्शाने कि वे पैदा हुए, बढ़े, तपस्या की, बुद्धत्व प्राप्त किया आदि द्वादश बुद्ध कार्य किये। इसका अर्थ यह है कि बुद्ध का शरीर भी विपाक नहीं था। लेकिन महापरिनिर्वाण होना भी लीला थी। जगत व्यवहार भी लीला ही थी क्योंकि बुद्ध को मृत्यु प्राप्त नहीं होती। ये दो भेद है। लेकिन साध्ाारण इतिहास की दृष्टि से वैभाषिक और स्वातान्त्रिकों की बात ज़्यादा ठीक लगती है।
उदयन- विज्ञानवादियों और माध्यमिक मतों पर देश की अन्य परम्पराओं की छाया बहुत है। वहाँ लीला के विचार के कारण बुद्ध कृष्ण के समानान्तर नज़र आने लगते हैं। शून्य पर विमर्श में उपमान हो सकता है, लक्षणा हो सकती है, निषेध्ा हो सकता है। क्या इनके अलावा शून्य को इंगित का कोई रास्ता दिखायी देता है?
रिनपोछे जी- और नहीं दिखायी देता। वो आपको केवल यह बताएँगे कि आप अपने को खोजिए। वे आपको खोजने की तार्किक व्यवस्था बता देंगे लेकिन खोजना स्वयं ही पड़ेगा। बुद्ध खोजकर आपको नहीं दिखा सकते।
उदयन- यहाँ आप जिसे ध्ार्म कह रहे हैं- विशेषकर ध्ार्मचक्र कहते हुए, वह क्या है? ध्ार्म के दो मायने हो सकते हैं, एक तो मज़हब या रिलीजन की तरह का और दूसरा, जैसा कि वासुदेव शरण अग्रवाल ने किया है, ‘ऋत’ है जो ब्रह्माण्ड का नियम है और उससे मनुष्य के सूक्ष्म चित्त से उत्पन्न स्वभाव का सम्बन्ध्ा है।
रिनपोछे जी- ध्ार्म बुद्ध का गढ़ा हुआ नया शब्द नहीं है। ध्ार्म शब्द बुद्ध के पहले से ही संस्कृत में प्रचलित था। बौद्धों के दर्शन ग्रन्थों में ध्ार्म का आशय वसुबन्ध्ा की व्याख्यान युक्ति (बौद्ध वचनों की व्याख्या-मर्यादा का शास्त्र) में पर्यायवाची शब्दों और शब्दों के अनेक अर्थों के व्याकरण के सहारे बताया गया है, उसमें ध्ार्म शब्द के दस अलग अर्थ बताये गये हैं। उनमें घट-पट आदि समस्त वस्तुओं के स्वभाव ध्ाारण को भी ध्ार्म कहा गया है। रिलीजन या मज़हब के अर्थ में जब आप बौद्ध ध्ार्म कहेंगे, उसमें दो ही अर्थ माने गये हैंः अध्ािगम और आगम।
अध्ािगम उसे कहते हैं जहाँ आपने कुछ साक्षात् कर लिया है, ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उससे क्लेशों का प्रहनन किया है, जैसे शून्यता का साक्षात् किया तो आत्मध्ाारणा की समाप्ति हुई, इन दोनों के अंशों को, यानि ज्ञान के और निषेध्ा के अंशों को अध्ािगम ध्ार्म कहते हैं। इन दोनों को प्राप्त करने के लिए मार्ग हैं, साध्ानाएँ हैं। जैसे अनुमान ज्ञान के रास्ते पहले शून्यता को जानते हैं फिर उसका साक्षात् होता है। इन सब मार्गों को मार्गध्ार्म कहते हैं। मार्ग बुद्धत्व या अरिहन्तत्व को प्राप्त करने की प्रक्रिया को कहते हैं और फल इस मार्ग से प्रहननीय तत्व का प्रहनन करने और प्राप्य तत्व का साक्षात् करने को कहते हैं। ये दोनों अध्ािगम ध्ार्म के कहलाते हैं। इस विषय को बताने वाले वांग्मय को आगम या बुद्ध वचन कहते हैं।
उदयन- मार्ग को कुछ और स्पष्ट करें? क्या यह मनुष्य के अपने स्वभाव से निधर््ाारित होते हैं?
रिनपोछे जी- किसी ध्ार्म में प्रविष्ट होकर, जैसे यहाँ बौद्ध ध्ार्म में प्रविष्ट होकर, जब आप कोई फल प्राप्ति के लिए प्रयासरत होते हैं, उसे मार्ग प्रवेश कहा जाता है। उसमें पाँच सोपान हैः संभार मार्ग, प्रयोग मार्ग, दर्शन मार्ग, भावना मार्ग और अन्त में अशैक्षा मार्ग जिसमें पुदगल का अन्त हो जाता है। ये सब साध्ाना के अंश हैं। साध्ाना के मार्ग और उसका फल अध्ािगम ध्ार्म के रूप में हुए और उसे दर्शाने वाले वांग्मय आगम हुए। इन दो के अतिरिक्त बौद्ध ध्ार्म में और कुछ नहीं है। ध्ार्मचक्र प्रवर्तन का अर्थ यह है कि बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया, और उस प्राप्त ज्ञान को शब्दों के माध्यम से अपने शिष्यों को सुनाया, इससे शिष्यों के मन में श्रुतिमय ज्ञान उत्पन्न हुआ। भगवान् बुद्ध ने जब ‘यह दुःख है’ कहा तो ‘यह दुःख है’ इस शब्द का श्रवण हुआ और उसके माध्यम से बोध्ा हुआ। आगम का चक्र इध्ार से उध्ार हुआ। इसे ही प्रवर्तन् कहते हैं। कौंडेन के मन में दर्शन मार्ग उत्पन्न हुआ जिसने क्लेशों को शान्त किया और उसे मन में फल प्राप्त हुआ। इस तरह अध्ािगम ध्ार्म का चक्र हुआ। जिस तरह एक दीप से दूसरा दीप जलाया जाता है तो दीपमाला का प्रवर्तन होता है, वैसे ही बुद्ध से कौंडेन के पास गया, उनसे उनके शिष्य के पास, उनसे उनके शिष्य के पास गया। इस श्रृंखला को ही ध्ार्म चक्र प्रवर्तन कहते हैं।
उदयन- मैंने ध्ार्म का प्रश्न एक खास उद्देश्य से उठाया है। सामी परम्पराएँ, जो आध्ाुनिक समय में भी बहुत सारे लोगों के भीतर उपस्थित हैं, में ध्ार्म का स्वरूप यह है कि वह दूसरे के प्रति आपके दायित्व बोध्ा से उत्पन्न होता है जिसके कारण व्यक्ति विशेष के स्वभाव की लगभग अवहेलना हो जाती है। वहाँ की श्रेष्ठ चिन्तक सिमोन वेल भी यही कहती हैं कि जन्म के क्षण से ही हमारा दूसरे के प्रति दायित्व हो जाता है। लेकिन आप जो कह रहे हैं उसमें दूसरे के प्रति हमारा दायित्व बोध्ा आत्मध्ाारणा के प्रहनन से स्वयं ही उत्पन्न हो जाएगा। इन दोनों दृष्टियों में यह मूल अन्तर दिखायी देता है।
रिनपोछे जी- बौद्ध ध्ार्म का भी अन्तिम लक्ष्य परहित है, दूसरों की सेवा करना है। बुद्धत्व प्राप्त करने की इच्छा मात्र ‘बुद्ध चित्त’ नहीं कहलाती। परहित करने की इच्छा से बुद्धत्व को साध्ान के रूप में प्राप्त करना ‘बुद्ध चित्त’ कहा गया है। इसलिए अन्तिम लक्ष्य है, ‘स्व’ को विघटित कर काया, वाक् और चित्त के सारे कार्य परहित में ही समर्पित करना। यह तभी सम्भव है जब ‘बुद्धत्व’ प्राप्त हो। जब तक वह प्राप्त नहीं होगा, समस्त जगत के हित करने की क्षमता नहीं होगी। अन्य लोगों की चित्तवृत्तियों को जाने बगैर उनके हित-अहित को जाना नहीं जा सकता। परहित-अहित ज्ञान पूर्व रूपेण न होने पर परहित का काम नहीं किया जा सकता। स्व-ज्ञान प्राप्त करना, अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी बनाने के लिए नहीं है, उसका उद्देश्य लोगों की सेवा करना, परहित है। बुद्धत्व प्राप्त होने के बाद परहित कार्य के लिए प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती। वह अपने आप संचालित होता है। जैसे आकाश में उगे चन्द्रमा में यह इच्छा नहीं होती कि जहाँ-जहाँ पानी का कुण्ड हो, वहाँ-वहाँ उसकी छाया पड़े। बुद्धत्व प्राप्त होने के बाद जहाँ-जहाँ परहित की पात्रता होती है, वहाँ-वहाँ बुद्ध के कार्य सम्पन्न हो जाते हैं।
उदयन- आपके कहने से यह लग रहा है कि दोनों ही परम्पराओं में परहित का स्थान केन्द्रीय है लेकिन उसके स्रोत अलग-अलग हैं?
रिनपोछे जी- बौद्ध ध्ार्म में परहित के लिए स्वयं को पुनर्गठित नहीं करना है, स्वयं को समाप्त करना है। जब स्व की ध्ाारणा समाप्त हो जाएगी, ज्ञान उत्पन्न होगा। ज्ञान से परहित अपने आप होगा।
उदयन- उस ज्ञान में ही परहित के सारे स्रोत हैं।
रिनपोछे जी- उसके बाद प्रयासरत होने की आवश्यकता नहीं है। परहित अनायास होता है। उसको प्राप्त करने का प्रयत्न ध्ार्म हैं, उसको प्राप्त करने का मार्ग भी ध्ार्म है। इस दृष्टि से मार्ग भी परहित है और उसका फल भी वही है। मार्ग और फल स्वार्थ के लिए नहीं हैं।
उदयन- इस तरह सोचने पर अपने शरीर का विनाश करना जैसा कि आत्महत्या में होता है, अपने आप ही निषिद्ध हो जाता है।
रिनपोछे जी- जी हाँ। वह स्वहिंसा जैसा है। पर-अहित सीध्ो-सीध्ो या अपरोध्ा रूप से पर-अहित ही होता है और वह पाप की श्रेणी में गिना जाता है। हिंसा की श्रेणी में गिना जाता है। परहित तभी सम्भव होगा, जब पर-अहित या हिंसा का स्रोत समाप्त हो जाता है।
उदयन- ...और वह आत्मध्ाारणा है...
रिनपोछे जी- अंग्रेज़ी में जिसको ईगो कहते हैं, वही अहम् है। अहं का उद्घोष अहंकार है।
उदयन- जब हम ध्ार्म को या नैतिकता को इस तरह देखते हैं तो हमें तमाम क्रान्तियों की विफलता का स्रोत समझ आ सकता है। फ्राँसीसी क्रान्ति से लगाकर आज तक जो तरह-तरह की क्रान्तियाँ हुईं, उनमें स्व या आत्म का, कम से कम उनके नेताओं में, त्याग नहीं हुआ। उससे हुआ यह कि उन नेताओं को पूरे समय यह लगता रहा कि वे देश या समाज के लिए बलिदान कर रहे हैं। आप बौद्ध ध्ार्म की जिस तरह व्याख्या कर रहे हैं, उसमें बलिदान की भावना का कोई स्थान नहीं है। इस सन्दर्भ में आप आध्ाुनिक क्रान्तियों को कहाँ रखेंगे? विशेषकर पिछले दो-तीन सौ बरस की क्रान्तियों को?
रिनपोछे जी- ये बहुत लम्बे विषय हैं। दलाईलामा जी ने फ्राँसीसी युवाओं से साक्षात् होते हुए कहा था कि अभी तक जितनी क्रान्तियाँ हुई हैं, वे सब या तो क्रोध्ा या असहमति या द्वेष की प्रेरणा से हुई हैं। अब एक नयी क्रान्ति की आवश्यकता है जो करुणा और मैत्री की भावना से हो।
यह बहुत महत्वपूर्ण वक्तव्य है कि क्रान्ति भी हो पर उसमें द्वेष और प्रतिक्रिया की भावना न हो। यह कठिन कार्य है। अगर क्रान्तियों के अब तक के इतिहास को देखें, तो अध्ािकांश स्वार्थ की प्रेरणा से हुई मालूम पड़ती हैं। साईन्स और प्रौद्योगिकी के विकास के साथ हुए आध्ाुनिकीकरण या प्रौद्योगिकीकरण में अपने स्वार्थ के लिए अपनी पूँजी के माध्यम से अत्याध्ािक लाभ उठाने की सोच उत्पन्न हुई जिससे कार्यकत्ताओं और किसानों का भी शोषण होता रहा। इसकी प्रतिक्रिया में क्रोध्ाित होकर साम्यवाद की क्रान्ति हुई। वह प्रतिक्रिया मात्र थी। लेकिन क्रान्ति सम्पन्न होने पर केवल मालिकाना हक भर एक के पास से दूसरे के पास गया पर उसका पहले का व्यापक उद्देश्य नहीं रहा। हम यह नहीं कह रहे कि वे सब क्रान्तियाँ व्यर्थ थीं या उनके फलस्वरूप कोई काम नहीं हुआ, वह बहुत हुआ लेकिन उसकी प्रेरणा मैत्री और करुणा नहीं थी इसलिए अन्ततोगत्त्वा वे वहीं पहुँच गयीं जहाँ लोग पहले जा रहे थे। वे इसलिए विफल रहीं।
$ $ $
उदयन- आपने हमारी बातचीत की शुरुआत में पाँच विद्याओं का जि़क्र किया था। ललित विस्तर में इससे कहीं अध्ािक विद्याएँ हैं। क्या ललित विस्तर में उल्लिखित विद्याओं के अध्ययन के कोई संस्थान तिब्बत में विकसित हुए थे?
रिनपोछे जी- यह कहना होगा कि विद्याएँ हितु विद्या (जिसे न्याय शास्त्र भी कहते हैं, तर्क भी कहते हैं) और आध्यात्म विद्या होती हैं। जहाँ हितु विद्या का अध्ययन होता है, वहाँ आध्यात्म विद्या का भी अध्ययन हो, ऐसा ज़रूरी नहीं है। लेकिन जहाँ-जहाँ आध्यात्मिक विद्या का अध्ययन होता है, वहाँ-वहाँ अध्ािकांशतः हितु विद्या का अध्ययन अनिवार्य रूप से होता है। इसका तर्क यह है कि जब तक आप हितु विद्या ठीक से नहीं जानेंगे, आपका मन विश्लेषण करने में सक्षम नहीं होगा, विवेक करने में सक्षम नहीं होगा और आप आध्यात्मिक विषय को ठीक से समझ नहीं पायेंगे। इसलिए हितु विद्या का आध्यात्मिक विद्या के सहायक के रूप में अध्ययन करना चाहिए। इस कारण ये दोनों विद्याएँ अध्ािकांशतः विहारों में हैं। जहाँ भी अध्ययन की परम्परा होती है, वहाँ ये विद्याएँ पढ़ायी जाती हैं। शिल्प विद्या उतनी लोकप्रिय नहीं है। शिल्प विद्या में केवल भगवान बुद्ध, अरहन्तों और देवताओं के शिल्पों और चित्रों को चित्र लक्षण शास्त्र या बौद्ध ग्रन्थों के आध्ाारों पर बनाने का अध्ययन किया जाता है। वहाँ लोककलाएँ बहुत विकसित नहीं हुईं। वे वहाँ नहीं हैं, ऐसा नहीं कह सकते, लेकिन वे विद्याओं की तरह नहीं पढ़ायी जातीं। जैसे कोई कुम्हार है तो वह अपना घड़ा बनाता रहेगा या कोई बुनकर है तो वह अपनी कलाओं को बनाता रहेगा। पर ये सारी कलाएँ पारिवारिक स्तर पर चलती रहती हैं। विशेषकर कालीन बुनने वाले बहुत प्रवीण लोग हैं। लेकिन उन्हें शास्त्र के आध्ाार पर विद्या की तरह नहीं पढ़ाया जाता।
उदयन- चित्र और शिल्पों में बुद्ध, अरहन्तों आदि के सिवाय किसे बनाया जाता है?
रिनपोछे जी- देवताओं और तान्त्रिक देवों को बनाते हैं। थंका कला में सारा बुद्ध-चरित बनाया जाता है। उनके द्वादश कार्य या जातक कथाओं को भी अंकित किया जाता है। ये भित्ति चित्र भी होते हैं, पट चित्र भी।
चिकित्सा विद्या हर विहार में नहीं होती। उसके अलग विद्यालय होते हैं। इनमें ज़्यादातर गृहस्थ लोग सीखते हैं। चिकित्सा और ज्योतिष विद्या साथ सिखाये जाते हैं। इस पाँचों विद्याओं के विशेष रूप से बनाये विद्यालय तो नहीं है लेकिन यह जानना चाहिए कि चिकित्सा विद्या और ज्योतिष विद्या साथ-साथ सिखायी जाती हैं, न्याय और आध्यात्म विद्या और चित्रकला ज़्यादातर चित्र लक्षण बताने के लिए पढ़ायी जाती है पर इसके अलावा ज़्यादातर लोग इस कला को घरेलू परम्परा से ही सीखते हैं। अब यहाँ आकर विद्यालय बने हैं। लेकिन पुराने ज़माने में ऐसा था नहीं।
अमरीकी कला आलोचक थंका चित्रों को कला नहीं मानते। वे कहते हैं कि यह क्राफ़्ट है। ये कहने के पीछे उनका तर्क यह है कि थंका चित्रों में उसे बनाने वाले कलाकार का कोई योगदान नहीं है। वे पहले से उपलब्ध्ा परिमाण को खींच लेते हैं, उन्हें सिर्फ़ रंग भरना भर होता है।
उदयन- आपने यह पहले भी कहा है और तब यह कहा था कि कुछ विद्वानों ने इस तर्क का प्रत्याख्यान भी किया है। उन्होंने क्या तर्क दिये थे?
रिनपोछे जी- उन्होंने कहा कि शास्त्रीय परिमाण के उपयोग से भगवान् बुद्ध को बत्तीस महापुरुष लक्षण और अस्सी महापुरुष व्यंजन के ठीक उपयोग से चित्रित करना है लेकिन इससे चित्र में कितनी सुन्दरता आयेगी, कितनी जीवन्तता आयेगी कलाकार के हाथों में है। परिमाण कलाकार को निरंकुश होने से रोकने के लिए हैं। यह कहना ठीक भी है। सभी कलाकार विशेष परिमाण से ही बुद्ध का चित्र बनाते हैं, कोई बहुत अध्ािक सुन्दर होते हैं, कोई सुन्दर नहीं होते, कोई कुरूप हो जाता है। यहाँ सब तो कलाकार के हाथ में है।
उदयन- थंका की यह परम्परा किस हाल में है, तिब्बत में भी और भारत में भी?
रिनपोछे जी- तिब्बत में सांस्कृतिक क्रान्ति के ज़माने में सब समाप्त कर दिया गया था। लेकिन सत्तर के दशक से कुछ छूट मिली है। इस कारण बड़े-बड़े विहारों और संस्थाओं का कुछ पुनरुद्धार हुआ है। इसलिए तिब्बत में भी अभी यह कला थोड़ी बहुत चल रही है। भारत में हर परम्परा का कोई न कोई स्रोत पुनः स्थापित हुआ है। इसलिए बहुत अध्ािक न होने पर भी यह परम्परा लुप्त नहीं हो पायेगी, ऐसा लगता है।
उदयन- चीन के सांस्कृतिक आन्दोलन में तिब्बत में ठीक-ठीक हुआ क्या था? हमें यह पता है कि उसमें बहुत विनाश हुआ था।
रिनपोछे जी- उसमें सारी सांस्कृतिक मूल्य की इमारतों, चित्रों, कलाकृतियों को नष्ट किया गया। बौद्ध विहारों को जला दिया गया। बहुत-सी मूर्तियों को तोड़ डाला गया। साहित्य को नष्ट किया गया। इसके तहत पुस्तकालयों को जलाया गया। इसके अतिरिक्त ग्रन्थों की छपायी के लिये प्रयुक्त हज़ारों लकड़ी के पटों को जला दिया गया। संस्कृति की जानकारी से सम्पन्न लोगों को या तो जेल भिजवा दिया गया या मार दिया गया। स्थानों का नाम बदल दिया गया। पुरानी बौद्ध संस्कृति के नामों को बदल कर नये चीनी नाम रखे गये।
उदयन- यानि तिब्बत की सामूहिक स्मृति को नष्ट करने का प्रयास किया गया।
रिनपोछे जी- हाँ, उन्होंने स्मृति को नष्ट करने की चेष्टा की पर कर नहीं पाये। उस दौरान जिस सामग्री की हानि हुई, उसका कुछ नहीं किया जा सकता, जैसे लकड़ी पटों से छापने वाला छापाखाना जला दिया गया, उसे दोबारा बनाना मुश्किल है। लेकिन आजकल कम्प्यूटर से छपायी हो रही है, पर वह दूसरी बात है। जो साहित्य पूरी तरह नष्ट हो गया है, उसकी भी पूर्ति नहीं हो सकती। इस सब छोड़कर बाकी सब जैसे गिरा हुआ भवन, फिर बन जायेगा। अध्ययन केन्द्र भले ही पुराने जैसे न बनें, पर उससे कमतर केन्द्र लोग बना रहे हैं। इसलिए काफ़ी पुनरुद्धार हो गया है।
उदयन- भारत में सभ्यता का ऐक्य या आपसी जुड़ाव सबसे ज़्यादा जिन चीज़ों से व्यक्त होता है, वह यहाँ की लोककलाएँ हैं। यह चीन से भारत का मूलभूत अन्तर है। हमारे मित्र और समाजविज्ञानी सुरेश शर्मा का कहना था कि चीन में लोककलाएँ नहीं के बराबर हैं। जैसे लोक नृत्य या लोककथाएँ चीन में थोड़ी बहुत ही थीं, जो थीं वे अब समाप्त हो चुकी हैं। यूरोप में भी लोककलाओं का लगभग लोप हो चुका है। वे लोग लोककलाएँ खत्म करते जाते हैं और साथ-साथ संग्रहालय निर्मित करते जाते हैं। भारत इस मामले में विलक्षण देश है कि यहाँ देश में सम्बद्धता का जाल, लोककलाओं का बनाया हुआ है। लोककलाएँ भले ही अलग-अलग स्थानों पर रही आयी हों, पर उनके सहारे जिसे हम सभ्यता बोध्ा कहते हैं, प्रकट होता है। वह हर लोककला में उपस्थित होता है। इसी तरह तिब्बत की परम्पराओं और सभ्यता का ऐक्य किन चीज़ों में व्यक्त होता था? भारत में यह लोककलाओं के अलावा यह ऐक्य दार्शनिक परम्पराओं, मार्गी कलाओं, साहित्य, भाषाओं की निरन्तरता आदि में व्यक्त होता था। ये सब भारतीय सभ्यता के ऐक्य को व्यक्त करती हैं। सभ्यता का यह ऐक्य भारत की सरहदों से बाहर भी जाता है। मसलन अगर पाकिस्तानी लेखक सेंसरशिप और माक्र्सवाद से बच जाता है तो यह सभ्यता बोध्ा उसमें दिख सकता है। वैसा ही सभ्यता बल्कि संस्कृति के ऐक्य का तिब्बत में प्रकटन कैसे होता रहा है?
रिनपोछे जी- तिब्बती सभ्यता भारत से अलग नहीं है। आपने जैसा भारत के लिए बताया, वह तिब्बत में भी है। वहाँ चीन की सांस्कृतिक क्रान्ति के समय जो कुछ नष्ट किया गया है, उसको देखेंगे तो पायेंगे कि उसमें एक भी ऐसी लोककला या उसकी सम्प्रेषण विध्ाि नहीं है जिसका स्रोत भारत में न खोजा जा सकता हो। चाहे वे ध्ाार्मिक कार्यकलाप हों या लोककला हों। लेकिन उनमें काल और स्थानान्तर से कुछ परिवर्तन अवश्य हुए। गायन, वादन और नृत्य की जो परम्परा आठवीं से सत्रहवीं शती तक भारत से तिब्बत गयी थी, वे आज तक अक्षुण्ण जैसी थीं और उसी को चीन ने नष्ट करने का प्रयास किया। सांस्कृतिक क्रान्ति में नष्ट हुई परम्पराओं के पुनरुद्धार के कार्य में रुकावट का कारण पश्चिम के प्रभाव का आना है। वह तिब्बत में और उसके बाहर भी हुआ है। उसके कारण उनमें कोई न कोई नयी चीज़ जुड़ जाती है और इसलिए इन परम्पराओं का मूल प्राचीन तत्व ध्ाीरे-ध्ाीरे लुप्त होने लगता है। जैसे भारत में अंग्रेज़ी के शब्दों के उपयोग के बिना यहाँ की स्थानीय भाषाएँ भी नहीं बोली जा पाती, उसी तरह तिब्बत में भी बहुत-से चीनी भाषा के शब्दों के बिना शुद्ध तिब्बती भाषा बोलने वाला अब लगभग कोई बाकी नहीं है। वे सामान, उपकरण या मशीन जो पहले तिब्बत नहीं थे, बाद में आये हैं, उन सब के नाम तिब्बती में नहीं हैं। वे केवल चीनी भाषा में ही हैं और इसलिए तिब्बत में उन नामों का प्रयोग हो रहा है। नाच-गाने में आध्ाी तिब्बती आध्ाी चीनी का प्रयोग रहा है, उसी तरह उनमें यहाँ आध्ाा तिब्बती आध्ाी पाश्चात्य भाषा या भारतीय भाषाओं का मिश्रण हो रहा है। ऐसा करने वालों का विश्वास है कि वे इस सबका विकास कर रहे हैं, परिष्कार कर रहे हैं इन्हें बेहतर कर रहे हैं। परम्परा वाले की दृष्टि में इस मिश्रण से परम्परा ध्ाीरे-ध्ाीरे नष्ट होती जा रही है।
उदयन- चीनी कब्जे से पहले सामान्य तिब्बती नागरिक के स्वयं को तिब्बती संस्कृति का भाग अनुभव करने के कौन से व्यावहारिक उपस्कर थे? एक तो लोककलाएँ हो गयीं? दूसरा क्या ध्ार्म था?
रिनपोछे जी- इसमें ध्ार्म और कर्मकाण्ड हैं। स्थानीय कलात्मक वस्तुएँ भी हैं। स्थानीय गायन, नृत्य, वादन से भी यह भावना आती है। पर इनमें सबसे पहले तो ध्ाार्मिक अनुष्ठान ही आते हैं। विहारों में रोज़ प्रार्थना सभाएँ और कर्मकाण्ड होते हैं और फिर घर-घर में भिक्षुओं को बुलाकर बड़े घरवाले हर महीने दो-तीन दिन पूजा करवाते हैं। इसमें आठ-दस भिक्षुओं को बुलाया जाता है। कभी सूत्र पाठ होता, कभी प्रार्थना, कभी हवन होते।
उदयन- क्या इन कर्मकाण्डों आदि में आसपास के लोग भी शामिल होते हैं?
रिनपोछे जी- हाँ, हो जाते हैं और उनमें उस घर के रिश्तेदार भी आते हैं। लगभग हर महीने कोई न कोई तिथि पर त्यौहार होते हैं और उन्हें भी मनाया जाता है। जैसे श्रावण पूर्णिमा। इनमें सबसे बड़ा अवसर नववर्ष का होता है जो पाँच-दस दिनों तक मनाया जाता है। इस अवसर पर तिब्बती लोग एक-दूसरे की जगहों पर जाकर गाते हैं, नाचते हैं, बातचीत करते हैं। किसी बुजुर्ग की मृत्यु पर सात सप्ताह तक पूजा-पाठ चलता रहता है जिसमें किसी एक दिन गाँव या कुटुम्ब के सारे लोगों को बुलाकर खिलाता-पिलाया जाता है, साथ बैठकर प्रार्थना की जाती है। हर गाँव का एक सामुहिक मन्दिर होता है। उसमें साल में एक या दो बार बड़ी पूजा होती है। उसमें गाँव के सारे लोग इकट्ठा होते हैं। भिक्षुओं को पूजा के लिए आमन्त्रित किया जाता है। शाम के समय गृहस्थ लोग अपने कामों से निवृत्त होकर इन अवसरों पर मन्दिर आते हैं और मिल-जुलकर नाचते-गाते हैं। कभी-कभी यह सब आध्ाी रात तक चलता है।
उदयन- क्या ऐसे अवसरों में वहाँ जाकर भिक्षु प्रवचन भी करते हैं या कर सकते हैं?
रिनपोछे जी- ऐसा कम होता है। कर तो सकते हैं, कुछ करते भी हैं। पर अध्ािकतर पाठ, प्रार्थनाएँ और अनुष्ठान ही करते हैं।
उदयन- फिर मठों में उपस्थित ज्ञान साध्ाारण लोगों तक कैसे जाता है?
रिनपोछे जी- वह कठिन है। प्रारम्भ में जब बौद्ध ध्ार्म तिब्बत पहुँचा था, उस समय भिक्षु और गृहस्थ एक जैसे ही ध्ार्मोपदेश का श्रवण करते हैं लेकिन बाद में गृहस्थों की ध्ार्म का गहन अध्ययन की प्रवृत्ति छूट गयी। इसके एक दो अपवाद होते हैं। इसलिए जन-साध्ाारण में आस्था विकसित हुई पर ध्ार्म का ज्ञान कम विकसित हो पाया।
उदयन- सांस्कृतिक क्रान्ति में जो भी हुआ विकास के नाम से ही हुआ था। आपकी विकास की क्या समझ है?
रिनपोछे जी- हम लोग की विकास की जो समझ है, उसे विकास मानने को कोई तैयार नहीं है। बौद्ध वांगमय के अनुसार विकास सबसे पहले ज्ञान का होना चाहिए। जब तक ज्ञान या प्रज्ञान का विकास नहीं होता, आप कोई भी काम ठीक से नहीं कर पायेंगे। अगर ऐसा होता है तो ऐसे विकास से साक्षात् रूप से किसी की वृद्धि भले होती हो पर साथ में वहीं किसी चीज़ का नाश भी होता है। ऐसा विकास विकास नहीं है। जल को विभिन्न प्रकार से रोककर, संचय करके उससे बड़ा उत्पादन कर जल को दूषित करने से तो उसमें अगर उत्पादन का होता है और दूसरी ओर विनाश भी होता है। संसाध्ानों का विनाश करके जब किसी चीज़ की वृद्धि की जाती है तो वह विकास नहीं है। संसाध्ानों का सदुपयोग करके नयी चीज़ उत्पन्न होने के साथ-साथ संसाध्ानों की वृद्धि की प्रक्रिया भी न रूके। जैसे हम जब अनाज ज़मीन में बोते हैं तो उससे कई गुना फल उगता है तो वह विकास हो रहा है। उसी में से एक अंश दूसरे साल फिर बो दिया जाता है। उससे और उत्पादन होता है। इसकी जगह अगर हम सारा उत्पाद का भोग कर लें और हमारे पास अगले साल बोने को कुछ न बचे, तब क्या होगा? या आजकल जैसे टर्मिनेटर बीज़ आ गये हैं। यह सब विकास कम विनाश अध्ािक है। आज आप किसी चीज़ का दुरुपयोग करके कोई उत्पादन करने में मूल सामग्री के स्रोत को ही समाप्त करते जा रहे हैं। वह विनाश ही है। उसके साथ आपका अज्ञान भी बढ़ता है, अहंकार भी। इससे स्वार्थ भी अध्ािक पुष्ट होता है। इस तरह कार्य, कार्य का कत्र्ता और उसके परिणाम तीनों का ह्रास होता है।
उदयन- आप इससे बाहर निकलने का क्या रास्ता देखते हैं? क्या इसके लिए कोई संस्थाएँ खोली जायें या लोगों को तैयार किया जाये?
रिनपोछे जी- मैं कई बार लोगों से कहता हूँ कि मैं निराशावादी हूँ। इस दौर में अज्ञान को ज्ञान का मुकुट पहनाया जा रहा है और इसलिए अज्ञान को अज्ञान की तरह पहचाना नहीं जा रहा है। इसे साईन्स कहते हैं, प्रौद्योगिकी कहते हैं। इसके लिए लोग आई.आई.टी. से पढ़कर आते हैं। अगर आप उस सबको अज्ञान कहेंगे तो आप तुरन्त अल्पमत में आ जाएँगे और आपकेा मूर्ख समझा जायेगा। मूर्ख समझने तक तो ठीक है पर आपको पागल समझा जायेगा। इस परिस्थिति में हम अपने को सुध्ाार सकते हैं, बाकी बहुत लोगों को सुध्ाार पायेंगे, ऐसी तात्कालिक रूप से हमें उम्मीद नहीं है। कृष्णमूर्ति जी कहते थे कि अगर आप ध्ाारा के विरोध्ा में न तैर सकें तो बाहर ही आ जाओ। यह हम इक्का-दुक्का लोग कर सकेंगे। लेकिन इसमें भी सरलता नहीं है।
अब ऐसा लगता है कि जब काफ़ी हद तक विनाश हो जायेगा तब मनुष्य को चेतना आयेगी। अभी साईन्स वाले कह रहे हैं कि अगर कुछ न किया गया तो पर्यावरण का ह्रास, पृथ्वी की गर्मी की वृद्धि से जलवायु परिवर्तन आदि चीज़ों से सभी जीव-जन्तु समाप्त होने की कगार पर हैं। प्रत्येक वर्ष न जाने कितने जीव-जन्तु समाप्त हो रहे हैं। इस विनाश को अब बहुत-से लोग स्पष्ट रूप से देख रहे हैं। बीस-पच्चीस वर्ष पहले पाश्चात्य चिन्तक कहते थे कि कुछ चुनौतियाँ, कुछ खतरे हैं लेकिन साईन्स और प्रौद्योगिकी इसका समाध्ाान खोज लेगी। यह भी कहते थे कि जीव-जन्तुओं में परिस्थिति के साथ समन्वय की सामथ्र्य (एडोप्टेबिलिटी) बहुत है। इसलिए अगर पृथ्वी पर गर्मी बढ़ भी जायेगी तो हम उसमें रह लेंगे। इस समय ये दोनों ही प्रतिज्ञा नहीं है। अब साईन्स वाले समन्वय सामथ्र्य की बात नहीं कर रहे और न यह कि हम समाध्ाान खोज लेंगे। ये सारी प्रतिज्ञाएँ खण्डित हो चुकीं। पर जीवित रहने की अभिलाषा सबके हृदय में है। ऐसा सोचने वाला कोई नहीं है कि हम नष्ट हो गये तो हो जायें। कुछ उम्रदराज लोग सोचते हैं कि मेरा जीवन तो बीत जायेगा। मेरी उम्र के एक-दो आदमी अन्द्रेता में हैं। उनसे बात करते हैं तो वे कहते हैं, अरे यह छोडि़ए, हमारे जीते जी कोई गड़बड़ होने वाली नहीं है। नयी पीढ़ी को जो भी होगा, वे देख लेंगे। इससे अध्ािक स्वार्थ और क्या हो सकता है।
विनाश के ख़तरे की जो घण्टी बज रही है, इससे हम चेत जाएँ तो चेत जाएँ। इसके अलावा भी हर वर्ष इतना अध्ािक प्राकृतिक विनाश हो रहा है, जहाँ पहले कुछ भी नहीं होता था। विभिन्न किस्म की बारिश, बाढ़, जंगलों में आग, भूचाल, सूखा। इतनी तरह के प्रकृति के संकेत आ रहे हैं, इससे नये लोग चेत जाएँ और कुछ करें। जैसा कि दो वर्ष पहले पेरिस अध्ािवेशन में सत्रह उद्देश्यों को तय किया था, कुछ लोग उसे करने तैयार हैं और कुछ युवक उसे बहुत गम्भीरता से आगे ले जाने के प्रयास में है। अगर ये लोग कुछ कर लें तो कर लें। यूरोप और अमरीका में प्राकृतिक आपदाओं से जो एक जगह से दूसरी जाने वाले शरणार्थियों की संख्या बढ़ रही है। वह भी बड़े खतरे की घण्टी है। उससे भी कुछ लोगों को चेतना आ रही है। हमारे पास अब तीन-चार बरस का समय है, उसमें लोग कुछ कर लें, वह भी यूरोप और अमरीका में होगा तो यहाँ भी हो जायेगा। वहाँ नहीं होगा तो यहाँ भी नहीं होगा। यहाँ अपने से जाग्रत होकर वह हो सकता है, ऐसा नहीं लगता। हम व्यक्तिगत रूप से यह कर सकते हैं कि हम यह बात लोगों तक पहुँचाते रहे। और हम अपने को इससे तटस्थ कर लें। ‘ध्ाारा से बाहर निकलें।’ ध्ाारा से बाहर निकलने पर ही हम कुछ कहने के अध्ािकारी होंगे। हम अपनी जीवन शैली को थोड़ा उससे अलग रखें और फिर लोगों को समझाएँ। उसका कोई परिणाम होगा, नहीं होगा, गीता की दृष्टि से, उसकी चिन्ता छोड़ देना चाहिए।
उदयन- तिब्बत में 1950, बल्कि उसके कुछ बाद तक, खान-पान की परम्पराएँ क्या रही हैं? मैं कल्पना कर सकता हूँ कि वह अध्ािकांशतः प्रकृति-सम्मत रही होगी।
रिनपोछे जी- तिब्बत में सभी स्थानों पर खान-पान की परम्पराएँ एक नहीं, कई थीं। तिब्बत के हर क्षेत्र में वे अलग थीं। उनके भेद का आध्ाार, ज़्यादातर उस स्थान में उगाया जाने वाला अनाज था। मेरा गाँव ज़रा नीचे स्थित था और वहाँ हम साल में तीन फ़सलें लेते थे। एक फसल में गेहूँ और जौ, दूसरी में मक्का और तीसरी में उड़द और इस तरह के कई अनाज उगाते थे। इसके अलावा मूली, गाजर, और एक मूली की जाति का पौध्ाा जिसकी जड़ गोल और चपटी होती है। हम कोई फल का पेड़ उगाते नहीं थे, वे प्राकृतिक रूप से उगते थे। उनमें अखरोट, खुमानी, या सेब जो जंगली रूप में होता था। कई किस्म की सब्जियाँ भी उगाते थे; कई जाति के कादू आदि। हम यह सब खाते थे। इनमें सबसे अध्ािक जौ का प्रयोग होता था जिससे सत्तू बनाया जाता था और गेहूँ जिससे आटा बनाया जाता था। गेहूँ के आटे से मोटी रोटी या कई प्रकार के नूडल जिसे हम थूब्बा कहते हैं। दिन में एक बार जौ का सत्तू ज़रूर खाते थे। वे मुख्य खाद्य सामग्री थीं। चाहे अमीर हो चाहे ग़रीब सभी सत्तू घोलकर खाते थे। सत्तू के साथ मिर्च या लसुन खा लिया करते थे। वह खाना बनाना बहुत सरल होता था। और दिन में एक बार रोटी या आटा की बनी कोई चीज़ खाते थे। हम चावल कम उगाते थे। बाद के वर्षों में चावल उगाना बढ़ गया है। कुछ स्थानों पर तब भी चावल उगाया और खाया जाता था वरना हम चावल खाते ही नहीं थे। सम्पूर्ण तिब्बत में आप कहीं भी जायें, सभी सत्तू खाते हैं। मैं कृषक लोगों की बात कर रहा हूँ। लेकिन वहाँ की बहुत बड़ी आबादी पशुपालन करती है। वे लोग जो ऊँचे स्थानों पर रहते हैं, उनके भागों में खेती नहीं होती। वे लोग मक्खन, दूध्ा, दही अनेक प्रकार की चीज़ खाते थे। वे भी कहीं और से सत्तू मँगाकर रखते थे और थोड़ा-थोड़ा वह भी खाते थे। उन इलाकों में सब्जी तो लगभग होती ही नहीं थी। वे निचले इलाकों से मूली और उसकी अन्य किस्में ले जाते थे और उन्हें सुखा कर रखते थे। कृषक लोग भी पशु पालते थे। हर घर में चार-पाँच गायें तो होती ही थी। लेकिन उन इलाकों में अनाज ज़्यादा खाते थे। माँस अध्ािकांश लोग खाते थे। तिब्बत में शाकाहारी लोग पूरी जनसंख्या के दो-तीन प्रतिशत ही होंगे। ये लोग ध्ाार्मिक दृष्टि से माँस छोड़ देते थे वरना प्राकृतिक रूप से अध्ािकांश माँस खाने वाले लोग थे। मछली खाने वाले बहुत कम थे।
उदयन- उस ऊँचाई पर मछलियाँ बहुत होती ही न होगीं...
रिनपोछे जी- नदियों में मछलियाँ होती तो थीं पर उन्हें अपवित्र जैसा समझा जाता था। इसलिए मछली खाने वाले बहुत कम हैं। माँस खाने वाले सभी लोग मछली नहीं खाते।
उदयन- किन पशुओं का माँस खाया जाता था? क्या वहाँ माँस के लिए शिकार भी किया जाता था?
रिनपोछे जी- बकरी का पर उससे ज़्यादा भेड़ का माँस खाते थे। याक के बच्चों में मादा को रख लिया जाता था और नर याक कोई काम का नहीं होता है- इसलिए दो-तीन महीनों में उसे मार दिया जाता है। उसका माँस भी खाया जाता था। बकरी का माँस स्वादिष्ट नहीं माना जाता था, भेड़ का माँस अध्ािक खाया जाता था, उसे स्वादिष्ट माना जाता था। मादा याक का दूध्ा पीते हैं और उसे मारते नहीं हैं। मादा याक और भैंसे के संयोग से एक संकर पशु उत्पन्न होता है (जिसका नाम हिन्दी में मुझे पता नहीं है), वह भी किसी काम का नहीं होता, उसका माँस भी खाया जाता है।
उदयन- वहाँ खाना कितने बार खाना खाया जाता है?
रिनपोछे जी- विहारों में अध्ािकांशतः भिक्षु लोग सुबह और दोपहर दो वक़्त खाना खाते हैं। गृहस्थ लोग तीन और चार बार खाने वाले हैं। तीन बार खाने वाले सुबह, दोपहर और शाम को खाते हैं। चार बार खाने वाले लोग सुबह जल्दी खा लेते थे, दोपहर को भी कुछ जल्दी खाते थे, फिर शाम तीन-चार बजे को नाश्ता कर लेते थे और फिर देर शाम छह-सात बजे खाना खाते थे। पशुपालक ज़्यादातर तीन बार खाते हैं क्योंकि उनके पास अनाज की कमी है। कृषक लोगों में चार बार खाने वाले अध्ािक हैं।
उदयन- आज के समय में दो बातें महत्वपूर्ण हो रही हैं। पहली यह कि अध्ािकतर सम्बन्ध्ा विनिमयात्मक हो चले हैं, वे लेन-देन मात्र पर टिक गये हैं। उनका आध्ाार करुणा नहीं बचा है। मानवीय सम्बन्ध्ाों का स्वरूप मुद्रा विनिमय जैसा होता जा रहा है। दूसरी बात है सर्वेलेन्स। आप आज किसी के भी बारे में, उसके चाल-चलन के विषय में पता कर सकते हैं। साथ ही चिकित्सा व्यवस्था विकराल होती जा रही है जिसमें बहुत-सी शोध्ा करने ही नहीं दिये जाते। मनुष्यों का रहन-सहन तक बाहर से संचालित होता है। इस सारी स्थिति को आप कैसे देखते हैं? यह क्या हो गया है? मेरा आशय यह है कि आप इस स्थिति का बौद्ध दृष्टि से कैसे विश्लेषण करेंगे?
रिनपोछे जी- इस स्थिति का चित्रांकन करना सरल नहीं है। वह विकृति जो सहज रूप से आती है, वह हानिकारक नहीं होती। पर जब जानबूझकर प्रकृति को सहज ढंग से संस्कृति में जाने न देकर ज़बरदस्ती विकृति में ले जाया जाता है, तब उसे कहने का ठीक शब्द ढूँढ़ना पड़ेगा या गढ़ना पड़ेगा। ऐसे शब्दों का प्रचलित भाषा के शब्द-कोश में मिलना कठिन है। अगर आप कोई विष खा लें तो उसका प्रभाव तत्काल होगा, या तो आप उल्टी करेंगे, या दस्त होंगे या कुछ और होगा। पर आध्ाुनिकता का विष इतना सूक्ष्म और अदृश्य है कि आप को सालों साल स्वस्थ रखे रहेगा, स्वस्थ होने का आभास देगा लेकिन जब वह आपके पूरे शरीर में फैल जायेगा तो उससे मुक्त होने का कोई उपाय बचेगा नहीं। फिर आपकी मृत्यु होकर रहेगी।
हितु प्रत्यय से आयी चीज़ों की सहज गति होती है, वह शुरू में प्राकृतिक रूप में रहती हैं, उससे जब कोई चीज़ विकसित होती है वह संस्कृति में प्रवेश कर जाता है। फिर सांस्कृतिक वस्तु में ध्ाीरे-ध्ाीरे शरीर के जैसे ही बुढ़ापा आता है। इसमें कोई दोष नहीं है क्योंकि इस समाप्ति से नया सृजन का प्रारम्भ होता है। मृत्यु अपरजन्म की पहली सीढ़ी है। मृत्यु से यह आशा बँध्ाती है कि इसके बाद नया जन्म होगा और फिर विकास सम्भव होगा। इस तरह से संस्कृतियाँ चलती थीं। लेकिन आज तो हर चीज़ पर ‘टर्मिनेटर’ लगा दिया गया है। इससे मनुष्य के विवेक और उसकी विश्लेषण सामथ्र्य को ही मानो समाप्त कर दिया है। आज जो ‘एजूकेशन’ (जिसे शिक्षा तो नहीं कहेंगे) के नाम से चल रहा है, वह ‘एजूकेशन’ न होकर ‘इन्डोक्ट्रिनेशन’ (मतारोपण) हो गया है। आपके अपने सोचने के लिए बहुत थोड़ी-सी जगह छोड़ी गयी है, आपको उसमें से ही देखने होता है, आप इध्ार-उध्ार नहीं देख सकते। उसका परिणाम यह हुआ हैः हम जीवनपर्यन्त बड़े-बड़े कार्पोरेशन के बाज़ार बन गये हैं। आज बाज़ार और व्यापार के अतिरिक्त कोई सार नहीं बचा है। इसलिए आप सारा जीवन कड़ा परिश्रम कर पैसा कमाईए और कमाये हुए पैसे को बाज़ार में खपा दीजिए जिससे कार्पोरेशनों के बाज़ार का ह्रास न हो। पुराने ज़माने में हिंसा, युद्ध, संघर्ष आदि राज पाने के लिए, शक्ति पाने के लिए, किसी को हटाने के उद्देश्य से प्रतिशोध्ा लेने होते थे। आज वे सारे उद्देश्य समाप्त हो गये हैं। हमारे द्वारा उत्पादित हथियारों के बाज़ार में मन्दी नहीं आना चाहिए। उस बाज़ार को बनाये रखने के लिए हथियारों का उपभोग करते रहना पड़ेगा। इसलिए उस बाज़ार को बनाना विवशता हो गयी है।
बहुत-से राजनेता कहते हैं कि वे आतंकवाद को समाप्त कर देंगे। हम ‘ज़ीरो-टाॅलरेंस’ रहेंगे। यह रोज़ कहा जाता है। लेकिन उसे समाप्त करने की इच्छा-शक्ति किसी में नहीं है।
उदयन- उसे समाप्त करने की कोई प्रक्रिया भी नहीं चल रही।
रिनपोछे जी- वह इसलिए क्योंकि आतंकवाद हथियार-उत्पादक-इंडस्ट्री का बहुत अच्छा बाज़ार है। उसे बनाये रखने में शासन मदद करते हैं। लोग मरते हैं मरते रहें, उससे क्या फ़र्क पड़ता है। अगर एक बन्दूक बिककर पचास आदमियों को मार देती है तो इनसे बाज़ार की वृद्धि ही होती है। आप याद होगा, हमारे ही जीवन में, वियतनाम की लड़ाई अठारह बरस तक चली थी। अगर वे उसे जीतना चाहते, उसे चैबीस घण्टों में जीत सकते थे। अगर उसे वापस लेना चाहते तो भी ऐसा चैबीस घण्टों में हो सकता था। लेकिन वह तब समाप्त हुआ जब अमरीका के युवकों ने उसे अस्वीकृत कर दिया। वरना अगर उनका वश चलता तो वह युद्ध आगे भी चलता रहता। हारना-जीतना युद्ध का उद्देश्य नहीं बचा। युद्ध बाज़ारवाद का ही अंग है। आज जो भी चीज़ हमारे हाथों में आती है, हम उसके गुलाम हो जाते हैं। चीज़ों के माॅडल में बदलाव होता है तो उन्हें फिर से दो-तीन साल बल्कि कई बार दो-तीन महीनों में ही दोबारा खरीदना पड़ता है। हमारा दिमाग इस तरह बना दिया है कि हम उन चीज़ों के बिना जी ही नहीं सकते। अब कोई आदमी यह कल्पना नहीं कर सकेगा कि वह स्मार्ट फ़ोन के बिना दस दिन भी रह सकेगा। अगर उसे बिना उसके दस दिन रहना पड़े, शायद वह पागल हो जाये। इस स्थिति को क्या कहा जायेगा? अब आप बिके हुए गुलाम से ज़्यादा गुलाम हैं। बिके हुए गु़लाम को बीमार होने पर कुछ फुरसत मिल सकती है लेकिन अगर आप आज गहन चिकित्सा ईकाई (आई.सी.यू.) में भी चले जायें, स्मार्ट फोन आपके साथ जायेगा। आप उसकी गुलामी छोड़ नहीं पायेंगे। इसलिए सरन का यह कथन कि नवीनता, स्वाध्ाारकता (सेल्फ ग्राऊडिंग) और हिंसा ही आध्ाुनिकता है, सच है।
उदयन- इस बीच दो बड़ी घटनाएँ हो रही हैं, पश्चिम और भारत के लोग तिब्बती बौद्ध दर्शन की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इस का कारण शायद उस दृश्य से बाहर निकलने की है जो आपने अभी खींचा है। दूसरी तरफ इस आकर्षण की आलोचना भी हो रही है। इससे दो प्रश्न निकलते हैं कि आपको इस आकर्षक का क्या कारण लगता है। क्या यह अचानक हुआ है?
रिनपोछे जी- यह अचानक ही हुआ है। तिब्बत के ध्ाार्मिक शरणार्थियों के भारत आगमन के अभाव में बुद्ध ध्ार्म का पाश्चात्य देशों में आज का सा आकर्षण नहीं होता। इस आकस्मिक घटना से यह आकस्मिक चीज़ हुई है। उसके मैं दो-तीन कारण देखता हूँः पहला तिब्बतियों का विस्थापन और यूरोप-अमरीका में पारम्परिक ध्ार्म या सामाजिक नीति से ऊब का होना। जब हम लोग भारत आये थे, हिप्पी संस्कृति चरम पर थी। वे सब व्यवस्था से अव्यवस्था में जाने की प्रक्रिया में थे। वहाँ जाने का उन्हें कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। इसलिए अपने-अपने ध्ार्मों में संशोध्ान कर ‘न्यू एज’ संस्कृति का उदय हो रहा था। यह एक संयोग था। दूसरा कारण यह कि बौद्ध ध्ार्म तार्किक ध्ार्म है, इसमें विश्वास करने की आवश्यकता नहीं है। भगवान् बुद्ध ने कहा है, ‘मैंने ऐसा कहा है, इसलिए इसे मत मानो, तुम इसे अपने विवेक से जाँचों।’ पाश्चात्य लोगों की दृष्टि से यह ‘रेशनल’ है। उन लोगों को ‘रेशनल’ के प्रति आकर्षण था। वे ध्ार्म को छोड़ने चाहते थे पर उनमें ध्ार्म को छोड़ने की हिम्मत नहीं थी। उनमें यह भी एक आन्तरिक तनाव था कि हम ध्ार्मविहीन कैसे हो जायें।
उदयन- वह उन्हें अनाथ होने जैसा लगा होगा।
रिनपोछे जी- अपने ध्ार्म से भी वे आकर्षिक नहीं हो रहे थे। इसलिए वे रेशनल ध्ार्म के साथ आये। यहाँ वे आलोचना भी कर सकते थे।
उदयन- यहाँ खुलाव अध्ािक लगा होगा।
रिनपोछे जी- यह भी है कि आज साईन्स का ज़माना है और साईन्स के साथ चलने वाले बौद्ध ध्ार्म के अतिरिक्त कम ही ध्ार्म हैं। कुछ और भारतीय परम्पराएँ भी चल सकती हैं पर जितना साईन्स से आदान-प्रदान बौद्ध ध्ार्म कर सकता है, उतना अन्यत्र कम है। आईन्टाईन ने भी कहा कि शायद बौद्ध ध्ार्म साईन्स के साथ ठीक से चल पाता है। तीसरा दलाईलामा जी का वैज्ञानिकों के साथ संवाद पिछले चालीस वर्षों से हो रहा है। उसमें पाश्चात्य देशों के बड़े-बड़े भौतिक वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, तन्त्रिका-वैज्ञानिक आदि शामिल हुए, उनका आकर्षण हुआ। बौद्ध भिक्षुओं ने भी साईन्स को सीखने का प्रयास किया। साईन्स वालों ने सोचा, बौद्ध ध्ार्म से साईन्स में क्या आ सकता है, इस तरह के आदान-प्रदान होने की सम्भावना देखी जाने लगी।
उदयन- मेरे एक जैववैज्ञानिक मित्र हैं पियेर सोनिगो। उनका कहना है शरीर का जो रूप विज्ञान ने परिकल्पित कर रखा है, वह रोबोट का है। उसके कारण शरीर की समझ में कई मुश्किलें आ रही हैं। इसलिए अब वे शरीर को ‘वन’ की तरह देख रहे हैं। इस वन में अलग-अलग कोशिकाएँ मानो अलग-अलग वृक्ष हों। ये सारे वृक्ष संयोग से एकत्र हो गये हैं। जैसा कि आप कह रहे थे कि शरीर मन आदि संयोग से एकत्र हो गये हैं और ‘स्व’ का स्थान इनमें बनता नहीं है। इसलिए साईन्स का बौद्ध दर्शन से सम्बन्ध्ा बनता अवश्य लग रहा है।
रिनपोछे जी- यह संयोग से हुआ है। पिछले साठ बरसों में बौद्ध ध्ार्म और दर्शन का प्रसार सम्पूर्ण विश्व में हुआ है, अफ्रीका हो या उत्तरी अमरीका, दक्षिण अमरीका आदि कहीं पर जायें तो ऐसा शायद ही कहीं हो कि आपको बौद्ध ध्ार्म के समूह न मिलें। इस काम को योजना बनाकर, पैसा खर्च कर मनुष्य के माध्यम से नहीं किया जा सकता। ये अपने आप कैसे हुआ, इसकी व्याख्या करना मुश्किल है। दलाईलामा भी यह भी कहते हैं कि जहाँ बौद्ध ध्ार्म नहीं हैं, उन देशों में बौद्ध ध्ार्म का प्रसार नहीं करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि बौद्ध वांगमय तीनों चीजे़ं हैंः ध्ार्म, दर्शन और साईन्स। ध्ार्म बौद्धों के लिए है। दर्शन और साईन्स सबके लिए है। कोई व्यक्ति बौद्ध ध्ार्म को माने बिना भी बौद्ध दर्शन और साईन्स को अकादमिक विषय की तरह सीख सकता है। यह भी एक खुलापन है। इस प्रसार का परिणाम सौ-दो सौ साल बाद ही पता चलेगा।
एक बात मैं बार-बार कहता हूँ कि लोग कहते हैं- तिब्बती बौद्ध ध्ार्म। यह सही नहीं है। तिब्बती भाषा में संरचित बौद्ध ध्ार्म कह सकते हैं लेकिन तिब्बतियों ने बौद्ध ध्ार्म में लेश मात्र भी अपनी ओर से जोड़ा नहीं है। जो कुछ भी भारतीय परम्परा में था वही वहाँ गया, यहाँ के ही मूल शास्त्रों का तिब्बत में अनुवाद किया गया। बौद्ध ध्ार्म के साथ क्षेत्र का नाम जो जोड़ते हैं- जैसे जापानी बौद्ध ध्ार्म, चीनी बौद्ध ध्ार्म आदि वह ग़लत करते हैं। उसे किसने शुरू किया मालूम नहीं। यह पुराना नहीं है, सौ-दो सौ साल से ही पाश्चात्य लोगों के लिखने से प्रचलित हुआ है। लेकिन ईसाई ध्ार्म के साथ ऐसा इस्तेमाल नहीं होता जैसे अमरीकी ईसाईयत या इतालवी ईसाईयत आदि। इस्लाम में भी यह नहीं है। हिन्दू ध्ार्म में भी यह नहीं है, इण्डोनेशियायी हिन्दू ध्ार्म या भारतीय हिन्दु आदि। यह केवल बौद्धों के साथ जोड़ा गया है जिसे किसी पाश्चात्य विद्वान ने जोड़ा होगा। ध्ार्म को अगर किसी देश से जोड़ना है तो भारतीय बौद्ध ध्ार्म कह सकते हैं क्योंकि यहाँ उसका उदय हुआ। बाकी सारे स्थान-कारक शब्द जैसे चीनी बौद्ध ध्ार्म, जापानी या तिब्बती बौद्ध ध्ार्म आदि का उपयोग अनुचित है। ध्ार्म को सार्वकालीन और सार्वदेशीय होना होगा, तभी वह ध्ार्म होगा। उसे भाषा से जोड़ सकते हैं क्योंकि वांगमय भाषा में रहता है। जैसे पाली भाषा संग्रहीत बौद्ध ध्ार्म, तिब्बती भाषा में अनुदित बौद्ध ध्ार्म यह कह सकते हैं।
उदयन- क्या साध्ाना पद्धतियाँ भी क्या हर देश में एक-सी ही है?
रिनपोछे जी- साध्ाना पद्धतियों में तो यह और भी ज़्यादा है। तिब्बती साध्ाना पद्धति के हर कदम का स्रोत भारत में हैंः किस भारतीय सिद्ध ने साध्ाना करके साक्षात् किया है, कौन-से बौद्ध वचन से वह आयी है, किस विद्वान ने उसकी व्याख्या की है, ये सब उन्हीं नामों से जानी जाती हैं।
उदयन- इसलिए बौद्ध ध्ार्म की साध्ाना पद्धतियाँ ऐसी भी नहीं हैं जो तिब्बत में जुड़ी हों।
रिनपोछे जी- ऐसी एक भी साध्ाना पद्धति नहीं है। अगर तिब्बत में कोई नयी साध्ाना पद्धति जोड़ भी दे तो उसका सब खण्डन करेंगे और उसे नहीं मानेंगे। ऐसा किसी ने जानबूझकर नहीं किया लेकिन यदि किसी प्रभाव के कारण जुड़ गया तो भी उसे विद्वानों ने तत्काल हटा दिया।

© 2025 - All Rights Reserved - The Raza Foundation | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^