उनके जीवन का सत्य आद्यरंगाचार्य ‘श्रीरंगा’
02-Aug-2023 12:00 AM 2869

अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद : मंजू वेंकट

पात्र
सूत्रधार : सूत्र
दर्शक : दर्शक
रुक्मांगद : रुक्मन
सावित्री : सावी
नरेन्द्रप्पा : नरेन्द्र
प्रह्लाद : प्रह्लाद
टाइपिस्ट : टाइपिस्ट
(सावित्री और टाइपिस्ट का किरदार एक ही कलाकार निभा रही है।)
(मंच पर पीछे बायीं ओर सिर्फ़ एक मेज़ और कुर्सी है। परदा उठता है, सूत्रधार लिख रहा है। वह पूरी तन्मयता से अपने काम में डूबा हुआ लगता है। दर्शकों की जिज्ञासा बनी रहे, तब तक यह दृश्य कुछ समय तक बना रहता है। अन्ततः काम पूरा होने पर अंगड़ाई भरता है, उंगलियाँ चटखाता है और जम्हाई लेता है। अब सामने देखता है और अचानक दर्शकों को अपने सामने पाकर तेज़ी से आगे आता है।)
(नोट : मंच पर ‘दाएँ’ और ‘बाएँ’ ये दिशा-निर्देश दर्शक दीर्घा की ओर से दिये गये हैं।)
सूत्र : माफ़ कीजिए, मुझे ध्यान नहीं रहा कि आप सब आ चुके हैं। आपके आने से पहले ही इसे पूरा कर लेना चाहता था। तो आप इस नतीजे पर पहुँच चुके होंगे कि मैंने ये कार्यक्रम बिना किसी पूर्व तैयारी के आयोजित किया है। लेकिन ऐसा नहीं है, नाटक लिखना और नाटक को तैयार करना ये दो अलग-अलग बातें हैं। मेरा नाटक तो बहुत पहले ही तैयार था। बस इसे लिखना बाक़ी था ताकि मेरे ज़हन में अगले नाटक की जगह बन सके।
दर्शक : (दर्शक दीर्घा से खड़ा होता है) ज़रा सुनिये भाईसाहब (निमन्त्रण पत्र दिखाता है) ये एक निमन्त्रण-पत्र है, जिसमें लिखा है, ‘अपनी उपस्थिति से इस कार्यक्रम को सफल बनाने में कृपया अपना सहयोग दें। इसमें कहीं किसी ‘नाटक’ की बात नहीं लिखी है, सिर्फ़ ‘कार्यक्रम’ की बात है और हमसे सहयोग माँगा गया है। और आप यहाँ भाषण दे रहे हैं। क्या हमारे सहयोग से आपका मतलब ये था कि यहाँ बैठकर आपका भाषण सुना जाए।
सूत्र : (एक पल के लिए उसे घूरता है।)
ये पत्र आयोजकों के लिए था। अगर मैं ये लिखता कि, ‘आप नाटक देखने के लिए आमन्त्रित हैं’ तो मुझे डर था कि वो अपने साथ भीड़ ले आते। मुझे दर्शक चाहिए, भीड़ नहीं। हाँ भाई, आज का कार्यक्रम नाटक ही है।
दर्शक : और ‘सहयोग’ से आपका क्या मतलब है !
सूत्र : बताता हूँ, अगर तुम मदद करने के लिए तैयार हो तो।
दर्शक : (झल्लाते हुए) जो कहना है, साफ़-साफ़ कहिये ना।
सूत्र : (फिर से उसे घूरता हुआ) तुमने पतलून पहन रखी है?
दर्शक : (बीच में बात काटते हुए) कैसी बातें करते हैं आप। क्या मैं इतना बेशर्म हूँ कि बिना पतलून के ही चला आऊँगा।
सूत्र : (समझाते हुए) मुझे बात पूरी करने तो दो - मैं तो सिर्फ़ ये जानना चाह रहा था कि तुम पतलून पहने हो या धोती !
दर्शक : दोनों।
सूत्र : शाबाश... ये ठीक है। लेकिन (अचानक संकोचवश) धोती तुमने बाहर पहनी है या अन्दर?
दर्शक : (आगे आकर दर्शकों और मंच के बीच खड़ा हो जाता है।) लो तुम अपने आप देख लो। (वो धोती पहने है)
सूत्र : (मंच के किनारे से उसे देखता है) अच्छा है, पतलून अन्दर है। नहीं... रहने दो, मुझे पूरा यकीन है तुम पर। अब क्या आप इस मंच तक आने की मेहरबानी करेंगे?
दर्शक : क्यों ! क्या अब मेरी धोती उतरवा कर मुझे नचवाओगे।
सूत्र : इतनी देर से ये सारे लोग तुम्हारे चौखटे को देख रहे हैं। उन्हें पता है कि तुम नाच नहीं सकते। आओ-आओ और इत्मीनान रखो, तुम्हें नाचना नहीं होगा। ज़रा उस कुर्सी को यहाँ ले आओ।
(दर्शक आश्चर्य से देखता है और कुर्सी ले आता है।)
बस अब वहीं बैठ जाओ।
(दर्शक अचकचा कर देखता है)
जी, मैंने कहा तशरीफ़ रखिए...
(उसके बैठने के बाद)
अब मुझे तुम्हारी मदद चाहिए।
दर्शक : (समझ नहीं पाता है) कैसी मदद?
सूत्र : मैं एक नाटक दिखा रहा हूँ। अगर इसमें कुछ ऐसा हो जो समझ में न आये तो मुझे फ़ौरन बता देना। मैं ठीक करता जाऊँगा और फिर नाटक आगे बढ़ता जायेगा।
दर्शक : (समझ नहीं पाता) तुम ये क्या नाटक-नाटक जप रहे हो। कहाँ है नाटक और कौन-सा नाटक?
सूत्र : मंच पर जो भी होता है वो नाटक ही तो है भाई।
दर्शक : क्या तुम्हारा मतलब है, ये नाटक है ! इसमें कोई पात्र नहीं सिर्फ़ हम दोनों और हमारे ये संवाद !
सूत्र : (इशारे से रोकते हुए) बहुत जल्दबाजी करते हो। यहाँ आओ, (मंच के बीच में लाता है।) तुमने धोती के अन्दर पतलून पहनी है न ! ठीक, अब मैं तुम्हें अपने नाटक के पात्र दिखाता हूँ। (धोती खोलता है, एक सिरा पकड़कर दूसरा सिरा दर्शक को पकड़ा देता है) इस तरफ आओ।
(दोनों धोती को परदे की तरह पकड़े हुए पीछे की तरफ हटते हैं)
(मंच पर अंधेरा है, रोशनी होती है। एक पात्र मंच पर आता है और परदे के पीछे खड़ा हो जाता है, उसकी पीठ दर्शक की तरफ़ है, सिर्फ़ कन्धे के ऊपर का हिस्सा ही दिखायी देता है।)
ये !!
(उसी तरह अगला पात्र मंच पर प्रवेश करता है, वो एक महिला पात्र है।)
ये देखो !
(इसी तरह परदे के पीछे से दो और पुरुष पात्रों को दिखाये जाते हैं, जब रोशनी होती है तो दोनों धोती को तह कर रहे होते हैं)
ये मेरे नाटक के पात्र हैं। कुछ समझे।
दर्शक : क्या ख़ाक समझा, जब मुझे ही इनके चेहरे नज़र नहीं आये तो बाकी लोगों का क्या होगा?
सूत्र : (सोचते हुए) ऐसी बात है? पात्रों के चेहरे पहले से ही दिखाने में एक समस्या है।
दर्शक : क्या समस्या है भाई?
सूत्र : देखो ऐसा है, अगर मैं इनके चेहरे दिखाता हूँ तो दर्शकों में से काफ़ी लोग इन्हें पहचान लेंगे... कहेंगे- वो देखो वो रामू है।
- वो अपना भीमा है।
- और वो देखो सुब्बी... वग़ैरह, वग़ैरह।
और जब ऐसा होता है तो नाटक अपना प्रभाव खो देता है।
दर्शक : तो नाटक के लिए उन्हें अलग नाम दे दो।
सूत्र : वही तो बात है, कोई भी नाम दो, दर्शक उस नाम के अपने किसी परिचित के बारे में सोच लेगा। वही ढाक के तीन पात।
दर्शक : अच्छा तो तुम्हारे पात्र बेनाम हैं। वे अपने चेहरे नहीं दिखाते।
सूत्र : (अचानक एक विचार से उसका चेहरा चमकता है)
तो ठीक है, मैं ऐसा करता हूँ। तुम यहाँ बैठो। मैं तुम्हें अपने पात्र दिखाऊँगा, बिना उनका नाम या चेहरा दिखाये।
(सूत्रधार ताली बजाता है, मंच के बीच में रोशनी है। इस वक़्त वहाँ पर कोई नहीं है।)
सूत्र : आओ मेरे पात्र ! यहाँ आओ। तुम जिस पर समय की रेत अपना कोई प्रभाव नहीं छोड़ती। तुम जो एक निराले अंदाज से चलते हो। यहाँ आओ और मुझे अपना नाम बताओ।
पुरुष पात्र : (रोशनी के नीचे खड़े होकर)
मुझे आलोकित करने वाले, ओ परम जिज्ञासु सुनो ! मैं जिसके व्यवहार और गुणों में कोई खोट नहीं। मैं जो घर में तुलसी की माला और दफ़्तर में डोरी में बंधा अपना चश्मा पहनता हूँ। मैं जो पूरे महीने में चार छुट्टियाँ और वर्ष में तीस एकादशी मनाता हूँ। मैं जो घर में भगवान का और दफ़्तर में अपने साहब का ध्यान करता हूँ। मैं हूँ रुक्मांगद।
सूत्र : (फिर ताली बजाता है)
हे सुन्दरी ! जीवन के नाटक की महानायिका। तुम जो अपना कमल-सा सुन्दर मुखड़ा तो छुपाती हो मगर अपने बालों में सजे फूलों को हमसे नहीं छुपातीं। हे मृगनयनी तुम जो इस तरह से चलती हो जैसे कोई चंचल हिरणी किसी शिकारी से बचकर लौटी हो। मुझे अपना नाम बताओ, हे कोकिल कंठिनी।
स्त्री पात्र : तो सुनने को तैयार हो जा, हे चंचल मन के कुशल कलमकार ! मैं जिसने विवाह के पूर्व किसी पुरुष को नहीं देखा और विवाह के बाद सिर्फ़ अपने पति को देखा है। मैं जो मन की बात कभी कहती नहीं, जो चाहती हूँ कभी माँगती नहीं। मैं हूँ सावित्री, महान पतिव्रता।
(अंधेरे में विलीन हो जाती है।)
सूत्र : (फिर से ताली बजाता है)
आ... हा !! अब आ रहा है सारे संसार की सम्पूर्ण शक्ति का प्रतीक जिसकी ऊर्जा में अखण्ड कोटि ब्रह्माण्ड समाये हों, जिसकी दृष्टि स्वयं के आचरण और नैतिकता को नज़रअंदाज़ करती है और जिसे दूसरों की पीड़ा और उनके सुख भी दिखायी नहीं देते। अपनी ताक़त के नशे में चूर, हे वीर तुम कौन हो !
दूसरा पुरुष पात्र : अरे नासमझ अज्ञानी, जो कभी अख़बार नहीं पढ़ता, कभी कोई तस्वीर नहीं देखता। सुन, सारी दुनिया जानती है मैं कौन हूँ।
मैं हूँ नरेन्द्र।
सूत्र : (फिर ताली बजाता है)
विकृत मुख पर बिखरे बाल, जिसकी वाणी में कोलाहल है किन्तु जिसकी चाल में कोई आहट नहीं होती। तुम जो रुद्रावतार का प्रतिरूप लगते हो। तुम्हारा क्या नाम है बालक?
युवक पात्र : बालक ! ये कौन बुज़दिल है जो ऐसे कठोर शब्द बोल रहा है। मैं कौन हूँ?
इस कलियुग के हिरण्याकश्यपों का संहार कर सकने वाला मैं प्रह्लाद हूँ।
(मंच पर अब रोशनी है)
सूत्र : तो आपने इन्हें सुना !
दर्शक : मेरे कानों ने ज़रूर सुना, मगर दिमाग़ समझ नहीं पाया।
सूत्र : (हँसते हुए) देखा उनके बात करने का अंदाज़ ! मज़ा आ गया ना !!
दर्शक : मज़ा ! दर्शकों को बाहर भगाने के लिए काफ़ी है। तो क्या ये शब्दों की नौटंकी सारी रात चलती रहेगी।
सूत्र : यही तो भाषा की ख़ासियत है !!
दर्शक : क्या?
सूत्र : (हाथ पीछे बांधे धीरे-धीरे टहलता है)
सच कहने का अंदाज़ कुछ और होता है और झूठ कहने का कुछ और !!
दर्शक : मैं समझा नहीं !
सूत्र : (अनसुना करते हुए)
एक वह अंदाज़, जब आप लोगों को खुश करना चाहते हैं और दूसरा जब आप उन्हें चोट पहुँचाना चाहते हैं। जैसे अगर कोई मर जाए तो आप कह सकते हैं कि, ‘मर गया साला’ या फिर आप इस तरह भी कह सकते हैं कि ‘बेचारा, इस दुनिया से उठ गया।’
दर्शक : तो तुम्हारा मतलब है कि तुमने वो ‘हे सुन्दरी’ वाला अंदाज़ लोगों को खुश करने के लिए अपनाया है। माफ़ करना, सिवाय सिरदर्द के उन्हें कुछ नहीं मिलेगा।
सूत्र : (अचानक उस पर ध्यान देते हुए)
नहीं, नहीं देखो तुम मेरे नाटक की चिन्ता मत करो। ये नाटक उनके जीवन का सत्य उजागर करेगा। ये ऐसी अलंकृत शैली में बात नहीं करेंगे।
दर्शक : झूठ बोलने के लिए अलंकृत शैली? इसका मतलब ये सब लोग झूठ बोल रहे हैं? तुम्हारा मतलब है कि इनके नाम भी झूठे हैं।
सूत्र : (मेज़ के सामने अपनी कुर्सी पर बैठते हुए)
सत्य और असत्य, तुम्हें क्या लगता है, ये क्या है। (उसे घूरता है, जब कोई जवाब नहीं मिलता) जिसका अस्तित्व है वो सत्य है, जो अस्तित्वहीन है, वो असत्य है। हम यही कहते हैं ना ! लेकिन क्या हम उस हर चीज़ को जानते हैं, जिसका अस्तित्व है।
दर्शक : (हँसते हुए) क्या तुम ये कहना चाहते हो कि असली सच यह है कि सच और झूठ में कोई अन्तर नहीं है।
सूत्र : (उसे बहुत ग़ौर से देखता है) शाबाश ! मेरे जैसा लेखक भी इस बात को इतनी आसानी से नहीं कह सकता था, जैसा तुमने कहा। खैर, कोई बात नहीं। तुम्हें पता है, तुम्हारे जैसे लोग सोचते हैं कि सच बोलने का मतलब होता है, अपने मन की बात कहना और अगर आप वो कह रहे हैं जो आपके मन में नहीं है, तो आप झूठ बोल रहे हैं।
दर्शक : भाईसाहब इससे पहले कि ये सब लोग उठकर चले जाएँ, मुझे एक सिम्पल सी बात बताइये। आपने अपने नाटक में कौन-सा अंदाज़ इस्तेमाल किया है?
सूत्र : तो सुनो, अब से ये किरदार वही बोलेंगे जो इनके ज़हन में है।
दर्शक : वाह ! तो हम इन्हें समझ पायेंगे और हमारा सिर भी नहीं दुखेगा। वाह, बहुत अच्छे ! (उठता है)
सूत्र : अरे तुम क्यों उठ रहे हैं।
दर्शक : मुझसे अब और बर्दाश्त नहीं होता। मैं वहीं सामने से देखूँगा।
सूत्र : तुम सामने ही तो बैठे हो। (हँसता है) देखा, तुमने ‘सामने’ शब्द का मतलब ही बदल दिया। हा, हा, बैठ जाओ। तुम तो मदद करने आये थे, और नाटक शुरू होने से पहले ही जा रहे हो।
दर्शक : (बात समझ में नहीं आती) मुझे तुम्हारे नाटक के बारे में कुछ नहीं पता। लेकिन मैं इतना तो जानता हूँ कि नाटक के पात्र मंच पर होने चाहिए।
सूत्र : इसीलिए तो तुम्हें यहाँ बैठने को कह रहा हूँ। जो आदमी मंच पर होता है, वो पात्र बन जाता है। है ना?
दर्शक : बेहतर होगा कि आप अपना ड्रामा जल्द शुरू करवायें प्लीज़।
सूत्र : कहाँ से शुरू करवाऊँ।
दर्शक : (आश्चर्य से) कहाँ से? भई शुरू से शुरू करवाइये और कहाँ से।
सूत्र : (टोकते हुए) नहीं, नहीं ऐसा करना ठीक नहीं होगा। अगर मैंने ऐसा किया तो दर्षकों के साथ यह सरासर नाइंसाफ़ी होगी। मेरा नाटक स्क्रिप्ट के पहले पन्ने पर शुरू नहीं होता।
दर्शक : (नहीं समझ पाता)
पहले पन्ने से नहीं तो फिर कहाँ से शुरू होता है?
सूत्र : बात ऐसी है, दरअसल तुम कह सकते हो कि मेरा नाटक पहले पन्ने पर ही ख़त्म हो गया। ये क्या? जा रहे हो?
दर्शक : (दर्शकों की तरफ इशारा करते हुए) लोग मुझ पर हंस रहे हैं ! देखो मैं न तो कोई कलाकार हूँ, और न ही नाटककार। फिर क्यों ख़्वाह मख़्व्वाह तमाशा बनूँ। मैं चला।
सूत्र : (दौड़कर उसका हाथ पकड़ता है) बस एक मिनट रुको, एक मिनट। मुझे अपनी बात तो पूरी करने दो। (लम्बी साँस भरकर) अच्छा बाबा लो अब मैं तुम्हारा नाटक शुरू करता हूँ, खुश।
दर्शक : तुम्हारा नाटक? तो क्या ये मैंने लिखा है?
सूत्र : बैठ जाओ, मैं तुम्हें समझाता हूँ। तुम ही तो चाहते थे कि मैं स्क्रिप्ट के पहले पन्ने से नाटक शुरू करूँ। दरअसल मेरा नाटक बहुत पहले ही शुरू हुआ था।
दर्शक : देखो मुझे तुम्हारे नाटक के इतिहास में कोई दिलचस्पी नहीं। भगवान के लिए अब शुरू करवा दो।
सूत्र : (उस पर कोई ध्यान नहीं देता)
बहुत पहले...
(अपनी कुर्सी की ओर चलता है)
(रोशनी मध्यम होती जा रही है)
(जब तक वह बात समाप्त करता है मंच पर अंधेरा छा जाता है।)
...मैं अपने आपको साथ लिये यूँ ही गलियों में भटक रहा था। बेकार, अपने भीतर के षोर से थककर आस-पास की चहल-पहल को देखता, लोगों की बातें सुनने लगा। एक आदमी ज़ोर-ज़ोर से हँस रहा था, और दूसरा उससे कह रहा था...
लेकिन ये सच है, जो लोग इस बात को जानते हैं, वे इसके सच होने का दावा करते हैं। मुझे जिज्ञासा हुई और मैं उनके पीछे चल दिया। आख़िर पहले आदमी की हँसी रुकी और वो बोला, ‘तुम पागल हो, भला कौन विष्वास करेगा कि ऐसा भी हो सकता है। एक आदमी जो भगवान में विष्वास रखता है, पूजा-पाठ करता है, एक पत्नी जो साक्षात पतिव्रता है।’ और दूसरे ने कहा- ‘सिर्फ़ इतना ही नहीं, तुम्हें पता है वो नरेन्द्र-वो उस आदमी के घर में बड़ा हुआ, उसके छोटे भाई के समान है, लेकिन इसके बावजूद यह आदमी नरेन्द्र से कोई मदद नहीं लेता। और अगर नरेन्द्र स्वयं कोई मदद करना चाहता है तो वो मना कर देता है।’
‘छोड़ो भी ये किसी फ़िल्म की कहानी लगती है।’ पहले आदमी ने कहा। ‘नहीं, नहीं’ दूसरा बोला- ‘ये सच है, उसका नाम रुक्मांगद है। सरकारी मुलाज़िम है, सचिवालय में काम करता है।’ मैंने ये सुना और चला गया। बाद में महीनों की तलाश के बाद मुझे रुक्मांगद मिला, मैं उसके घर गया और उससे बातें की। एक बार जब वो कहीं बाहर गया हुआ था, किसी बहाने उसके घर गया और उसकी पत्नी से मिला। मेरी इस छानबीन में कई महीने लग गये। मेरा नाटक उसी दिन शुरू हुआ था जिस दिन मेंने उन दो आदमियों को बातें करते सुना था, और मेरे कलम उठाते ही नाटक पूरा हो गया था।
(कुर्सी अपनी पुरानी जगह पर रख देता है)
(मंच पर तेज़ रोशनी है, कुर्सी पर कुछ कपड़े रखे हैं, और काग़ज़, किताबें व अख़बार वग़ैरह मेज़ पर बिखरे पड़े हैं)
जब रोशनी होती है, रुक्मांगद अपनी घड़ी देख रहा है और दफ़्तर जाने की तैयारी में है।
रुक्मांगद कमीज़ पहने है, लेकिन ऊपर का बटन खुला है। उसने अपनी धोती चढ़ाई हुई है, जिससे कि वो उसके ऊपर अपनी पैंट पहन सके। कुर्सी से पैर उठाता है; एक पाँव डालता है, और ऐसा करने में अपना सन्तुलन खोता है, मेज़ का सहारा लेकर सीधा खड़ा हो जाता है। थक कर एक लम्बी साँस लेता है, एक टाँग पर कूदते हुए कुर्सी के पास जाने की कोषिश करता है। मगर सम्भल नहीं पाता। फिर पहली स्थिति में ही खड़ा हो जाता है। पीछे मुड़कर दो बार खाँसता है। और जैसे जवाब में उसकी पत्नी पीछे से आती है। उसका चेहरा उसके पति से छुपा हुआ है, उसके सर पर पल्लू है। थोड़ी दूर खड़ी होकर अपनी चूड़ियाँ खनकाती है ! आवाज सुनकर वो एक बार खाँसता है, बिना उसे देखे। वो कपड़े कुर्सी से उठाकर मेज़ पर रख देती है। ये सब बिना उसे देखे या सर उठाये। और फिर अन्दर चली जाती है। वो राहत की साँस लेता है। अपनी पैंट पहनता है, और अपनी कमीज़ के ऊपर बटन से कुछ देर उलझता है। आख़िरकार सफल होता है, अपना कोट और टोपी पहन कर वो तैयार है।
सूत्र : (दर्शक से) तो बताओ तुम्हारा क्या ख़याल है?
दर्शक : ख़याल ! मेरा इनसे क्या लेना-देना है।
सूत्र : (हँसी रोक कर) मैंने पूछा कि तुम्हारा नाटक के बारे में क्या ख़याल है।
दर्शक : कैसा नाटक?
(मंच को आश्चर्य से देखता है)
सूत्र : (रुक्मांगद को इशारा करता है) जो यहाँ हो रहा है।
दर्शक : अच्छा ये ! तो तुम इसे नाटक कहते हो।
सूत्र : क्या मतलब?
दर्शक : (व्यंग्य से हँसता है) क्या तुम्हारे नाटक के पात्र कुछ बोलते नहीं हैं?
सूत्र : (ऊबे हुए स्वर में) फिर वही बात ! अगर वो बोलते हैं, तो तुम पूछोगे-क्या असल ज़िन्दगी में लोग ऐसे ही बोलते हैं। और अगर वो नहीं बोलते हैं तो तुम कहते हो- ये कैसा नाटक है बिना शब्दों का।
दर्शक : अरे वाह ! एक आदमी आता है और नाचते हुए पैंट पहनता है। आधा घूँघट किये एक औरत आती है, कुर्सी रखती है और चली जाती है !
सूत्र : (टोकते हुए) वो रुक्मांगद है, काम पर जा रहा है।
दर्शक : ठीक है तो वो कुछ बोलता क्यों नहीं?
सूत्र : किससे?
दर्शक : अरे हमसे और किससे, हमें पता तो चले कि वो ये सर्कस क्यों कर रहा है?
सूत्र : (प्रोत्साहित होकर हँसता है) तुम्हारा मतलब है कि नाटक के पात्र तुमसे बात करें।
दर्शक : (थके हुए अंदाज़ में) मैं ये नहीं कहता कि वो हमसे सीधे-सीधे बात करे, हमें ‘आदरणीय दर्शकगण’ कहकर सम्बोधित करे। लेकिन ये दूसरा पात्र भी तो है इसमें...? है ना?
सूत्र : वो उसकी पत्नी है, सावित्री।
दर्शक : अच्छा तो वो उससे क्यों नहीं कह सकता।
सूत्र : (आश्चर्य से) उससे? वो जानती है कि वो इस वक़्त काम पर जाता है। सालों से ऐसा ही हो रहा है।
दर्शक : भई वो जानती हे, लेकिन हम तो नहीं जानते ना?
सूत्र : ठीक है ! (काग़ज़ पर कुछ लिखा है, और फिर उसे देखते हुए) हो गया।
दर्शक : (आश्चर्य से) क्या हो गया?
सूत्र : मैंने हाशिये में लिख दिया है कि रुक्मांगद काम पर जा रहा है।
दर्शक : सुनो, हम लोग यहाँ नाटक देखने आये हैं न कि तुम्हारे हाशिये की इबारत पढ़ने। हूँ... अपने आपको नाटककार कहता है, बड़ा आया नाटककार।
सूत्र : और तुम अपने आपको दर्शक कहते हो?
दर्शक : (जैसे अपमानित महसूस करता है) तुम ऐसा क्यों कहते हो?
सूत्र : क्यों? हमारे देश में सब जानते हैं कि पढ़े-लिखे लोगों को इस वक़्त तैयार होकर काम पर जाने की आदत होती है। क्या तुम नहीं जानते और ये मत भूलो रुक्मांगद एक धार्मिक व्यक्ति है, और सावित्री एक पतिव्रता पत्नी है। उन्होंने खुद तुम्हें बताया है। नहीं रुको, रुको! तुम क्या चाहते हो एक भारतीय पति और उसकी पतिव्रता पत्नी एक-दूसरे से गुटरगूँ करते रहे, सबके सामने और वो भी दिन के समय।
दर्शक : (मुश्किल से अपने आपको रोकते हुए) अब तुम हमें नाटक दिखा रहे हो या भाषण ही देते रहोगे।
सूत्र : ये भाषण नहीं है जी ! देखो मैं एक नाटककार हूँ। मैं नाटक लिखने की योग्यता रखता हूँ। तुम्हें नहीं लगता कि इसी तरह तुम्हें भी दर्शक होने की योग्यता रखनी चाहिए।
दर्शक : (गु़स्से से उठते हुए) भाड़ में जाए तुम्हारा नाटक।
सूत्र : (उसकी तरफ दौड़ता है, उसे बिठाता है) तुम नाराज हो गये। लेकिन बिना नाटक देखे तुम कैसे जा सकते हो? वो भी टिकट खरीदने के बाद। भला एक दर्शक ऐसा कैसे कर सकता है। अब बैठ भी जाओ। (अपनी कुर्सी की तरफ चलता है) खैर, तो ये साफ़ है कि दर्शक नहीं समझ पाते कि क्या हो रहा है जब तक कि पात्र उन्हें न बताएँ। है ना? (बैठता है) तो फिर सुनो।
रुक्मन : (अब वो तैयार है) मैं...
(पीछे देखता है) मैं... मैं... मतलब (कहने की कोषिश करता है, मगर सफल नहीं होता।)
सूत्र : (दर्शक से) सुना तुमने? कुछ समझ में आया?
दर्शक : ठीक है, कुछ सुना मैंने। लेकिन उसमें समझने के लिए क्या था? उसने एक भी शब्द ऐसा नहीं बोला जिसका कुछ मतलब निकलता हो।
(सूत्रधार लम्बी साँस भरता है, कुछ सोचता है और किसी निर्णय पर पहुँचता है। दर्शक को देखता है। फिर सभागृह की ओर देखकर रुक्मांगद की तरफ इशारा करता है)
रुक्मन : (खड़ा होकर दर्शकों की तरफ देखता है)
मेरा नाम रुक्मांगद है, सरकारी नौकर हूँ। इस वक़्त मैं दफ़्तर जा रहा हूँ। हमारे साहब के बाद अगला सीनियर मैं ही हूँ। इसीलिए मेरे ऊपर बहुत-सी ज़िम्मेदारियाँ हैं। और इसलिए मेरा कर्त्तव्य बनता है कि मैं दफ़्तर अपने साहब से पहले पहुँचूं।
(अपने आपको देखता है) हमारे साहब एकदम साफ-सुथरा और सुव्यवस्थित माहौल पसन्द करते हैं।
(अपने आपको प्रसन्नता से देखता है) पीछे की तरफ देखकर, आज शायद देर हो जाए। (ऊँची आवाज में कहता है। अपनी कुर्सी दर्शकों के सामने रखता है और बैठ जाता है। ऊपर की तरफ देखते हुए, जैसे परदा गिरने का इन्तजार कर रहा हो)
(मंच पर एक क्षण के लिए निस्तब्धता है)
दर्शक अपनी हँसी नहीं रोक पाता। कुछ देर तक हँसता है ज़ोर से।
सूत्र : (आश्चर्य से) इसमें इतना हँसने वाली क्या बात है।
दर्शक : (हँसी रोकने की कोषिश करता है।)
हा, हा, हा, हो, हो। भाई वाह, क्या अंदाज है बात कहने का...। और ये कहकर कि वो दफ़्तर जा रहा है, अपनी कुर्सी पर बैठ गया। हा, हा, हा...।
सूत्र : (ग़ुस्से में) और वो बेचारा करता भी क्या। क्या तुम इतने से मंच पर एक दफ़्तर उठा कर ला सकते हो। तुम जानना चाहते थे न कि वो क्या-क्या कर रहा है। उसने बता दिया। उसके बाद परदा गिरना है, नहीं तो हम अगला दृष्य कैसे देखेंगे।
दर्शक : (अभी भी हँसते हुए) सुनो, श्रीमान नाटककार। क्या कोई आदमी इस तरह अपने घर में बोलता है? अगर ये ऐसे बोलेगा तो दर्शकों को बिल्कुल विष्वास नहीं होगा कि जो इसके दिमाग़ में है ये वही कह रहा है। उन्हें ये बिल्कुल बनावटी लगेगा। जैसे कि वो रटे-रटाये संवाद बोल रहा हो, और सब दर्शक सो जाएँगे।
सूत्र : तो ये किसने कहा कि वो अपनी बात कह रहा है?
दर्शक : तो फिर ये क्या कह रहा है? और क्यूँ कह रहा है?
सूत्र : वो ये सब इसलिए कह रहा है ताकि दर्शकों को कहानी का पता चल जाये। ‘तुम’ ये चाहते थे। अगर वो सचमुच अपनी बात कहता है...।
दर्शक : तब ये वास्तव में नाटक होगा।
सूत्र : लेकिन तब यहाँ एक भी दर्शक नहीं बचेगा।
दर्शक : क्यूँ?
सूत्र : तो लो अब इसे सुनो।
(रुक्मांगद को ध्यान से देखता है)
रुक्मन : (उठकर गु़स्से में चहलकदमी करता है)
एकदम गधा था मेरा बाप, जो मेरा नाम रुक्मांगद रखा। इस नाम का कोई प्रतापी राजा हुआ करता था। और मुझे देखो रोज़ सुबह उठता हूँ, और जो सामने होता है आँख मूंदकर हलक से उतारता हूँ। और किसी तरह से भाग-दौड़कर दफ़्तर पहुँचता हूँ। वहाँ सारा दिन गुलामी करता हूँ। और वो साला हरामी ! हमारा बॉस ! वो जब चाहे आ सकता है। लेकिन हमें वक़्त से पहुँचना है। अगर एक मिनट की भी दे हो गयी... हे भगवान, कितनी गंदी ज़बान है उस आदमी की। पता नहीं उसके माँ-बाप का पता-ठिकाना भी है या नहीं। इस तनख़्वाह से हमें पेट भरने के लाले हैं, और ये चाहता है कि हम बन-ठन कर दफ़्तर आयें। हम चाहे जियें या मरें, इस पाजी को क्या फ़र्क़ पड़ता है। ख़ुद तो दफ़्तर चार बजे आता है और आठ बजे जाता है।
और तब तक हमें वहाँ सड़ना पड़ता है। दुनिया ऐसे कमीनों से भरी पड़ी है। और हम भी उन्हीं को अपना मालिक बनाये रखते हैं। (अचानक) अरे ! क्या बस का समय हो गया।
(तेज़ी से भागता है, जैसे किसी दौड़ में हिस्सा ले रहा हो)
दर्शक : (सूत्रधार की दृष्टि अपने ऊपर महसूस करता है और ‘नहीं’ मुद्रा में सर हिलाता है)
बहुत घटिया संवाद हैं- ये ‘हरामी’ और ‘कमीना’ ऐसे शब्द बोलने नहीं चाहिए? और अपने घर वालों के बारे में अनाप-शनाप बकना क्या ज़रूरी है?
सूत्र : हाँ ज़रूरी है...।
दर्शक : (टोकते हुए) लेकिन क्यों? मत भूलो कि शब्दों का अर्थ होता है।
सूत्र : दर्शकों को भी नहीं भूलना चाहिए कि भावनाओं का शब्दों से ज़्यादा महत्व है, विषेशकर नाटक में।
दर्शक : (दर्शकों को सम्बोधित करता है)
देवियों और सज्जनों, ये आदमी हमें नाटक दिखाने की बजाय नाटक पर भाषण दे रहा है। क्या ये ठीक है?
सूत्र : (वो भी दर्शकों को सम्बोधित करते हुए कहता है)
देवियों और सज्जनों, क्या आप नहीं मानते कि नाटक की समीक्षा करने से पहले ये ज़रूरी है कि आप यह जान लें कि नाटक होता क्या है?
(दर्शक से) क्या तुम किसी बहरे को संगीत का समीक्षक बना सकते हो।
दर्शक : (उठते हुए) माफ़ करना, मैं मानता हूँ कि यहाँ आकर मैंने बड़ी ग़लती की। बहुत हो गया।
(नीचे जाने लगता है)
सूत्र : (उठता है) ठीक है, मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ।
दर्शक : (आश्चर्य से) पर कहाँ?
सूत्र : (हँसते हुए) सामने बैठने। जब सब लोग निकल जायेंगे तो मैं इकलौता दर्शक बना रहूँगा।
दर्शक : तो तुम मानते हो कि नाटक को दर्शक चाहिए।
सूत्र : (दीन भाव से) मैं क्या कर सकता हूँ। या तो ‘अपना’ नाटक लिखकर खुश हो जाऊँ, या फिर तुम्हारा नाटक लिखूँ और कुछ कमाई करूँ। (सोचता है...) बैठ जाओ। तुम्हें, तुम्हारा नाटक दिखाता हूँ। अब तक जो कुछ हुआ, उसे इसमें जोड़ा जा सकता है।
दर्शक : तुम्हारा मतलब है?
सूत्र : एक पारम्परिक नाटक, एक सूत्रधार और एक पात्र से शुरू होता है। तो हम कह सकते हैं कि अब तक मैं एक सूत्रधार था और तुम एक पात्र। हमारा सीन अब समाप्त हो गया है। तो हम ये मान लेते हैं कि अब नाटक शुरू होता है।
(उठता है और बड़े नाटकीय अंदाज में बोलता है)
हे सूत्रधार के सखा, अपनी दृष्टि वहाँ डालो और देखो कि रुक्मांगद राव काम पर जाने की तैयारी कर रहा है। और इस समय अपनी पत्नी से विदा ले रहा है। आओ हम यहाँ से चलते हैं।
(यह कहते हुए, दर्शक को इशारा करता है, बाएँ से बाहर निकलते हुए दर्शक को दायीं ओर धकेल देता है।)
(रुक्मांगद का पात्र अब मंच पर जीवन्त हो उठता है, समय पर दफ़्तर पहुँचने की हड़बड़ी, दफ़्तर पहुँचने में देर हो जाने का भय और घबराहट उसके हाव-भाव से झलक रही है। वो तैयार होते-होते चारों तरफ बिखरे काग़ज़, फा़इलें, पेन, चष्मा, रूमाल उठाता है। इसके बाद बायें से बाहर निकलता है, बड़बड़ाते हुए जल्दी से वापस आता है। और अपनी पत्नी को अपनी उपस्थिति का आभास कराता है। अपने संवाद बोलते वक़्त रुक्मांगद मंच के नीचे की तरफ आता है, और वापस मंच के बीचोबीच जाकर अपने संवाद बोलता है। हर संवाद के साथ उसकी चाल तेज़ होती जाती है।)
रुक्मन : (दायें ओर अन्दर की तरफ झाँकता है) मैं जा रहा हूँ। पहले ही देर हो गयी है। मैंने कहा- मैं जा रहा हूँ। और सुनो दरवाज़ा ठीक से बन्द कर लेना। कोई भिखारी आये तो दरवाज़ा मत खोलना। और हाँ, एक और बात कोई पैसे माँगने आये तो कह देना कि घर का मालिक घर पर नहीं है। बाहर मत निकलना। अन्दर से ही बात करना। हाँ, याद आया, आज शाम को थोड़ी देर हो जायेगी। (जल्दबाजी में उसकी चप्पल निकल जाती है, झल्लाता है...) धत्त तेरे की।
(चप्पल उठाता है) क्या बजा होगा? पिछले दो दिनों से मेरी घड़ी भी काम नहीं कर रही। (चप्पल उठाता है, पहले उसे अपनी बगल में दबाता है, और फिर अपनी जेब में घुसाने की कोषिश करता है। आख़िरकार, नीचे फेंकता है और पहन लेता है !)
(मंच पर सन्नाटा है)
सावी : (दायें से भारी कदमों से भीतर आती है, चारों तरफ देखती है, किसी को न पाकर सामने की तरफ देखती है)
सूत्रधार !
सूत्र : (बाएँ से आता है)
देवी सावित्री !!
सावी : (अब से उसकी सूत्रधार से बातचीत खत्म होने तक सावित्री अभिनय करती है, अपने बालों को खोलने का, उन्हें सँवारने का, चोटी गूँथने का, मुँह धोने का, श्रृंगार करने का। उसके पास एक काल्पनिक दर्पण भी है, जिसे वो कभी मेज़ पर रखती है, और कभी अपने हाथों में उठाकर स्वयं को निहारती है।)
(सूत्रधार से...) वो चला गया?
सूत्र : कौन देवी?
सावी : (ज़ोर देकर) वो !!
सूत्र : देवी ‘वो’ एक सर्वनाम है, कोई भी ‘वो’ हो सकता है। तुम जिसके बारे में पूछ रही हो वो तुम्हारा ‘वो’ कौन है? कृपया मुझे बताओ।
सावी : (समझाते हुए) ‘वो’।
वो जो नाच-नाच कर पतलून पहनता है, अपने एक हाथ में चप्पल पकड़ता है और दूसरे में अपना पाँव। वो जो डरता है कि कहीं एक तेज़ कदम आगे बढ़ाया तो उसकी पतलून की सिलाई उधड़ जायेगी। और अगर पाँव उठाता है तो उसकी पतलून नीचे खिसक जायेगी। वो जो कभी आगे नहीं देखता, मगर बार-बार पीछे देखता रहता है। जैसे कुछ भूल गया हो। वो जो हनुमान की रफ़्तार से दफ़्तर जाता है। मैं पूछती हूँ कि क्या ऐसा ‘वो’ चला गया।
सूत्र : (मुस्कुराते हुए) देवी, जैसा तुमने वर्णन किया है, वैसे तो हज़ारों लोग इस वक़्त बाहर जाते हैं। इसीलिए पूछ रहा हूँ, देवी उनमें से तुम किसकी बात कर रही हो।
सावी : (अब दोनों हाथों से अपना मुँह धोने का अभिनय कर रही है। हर संवाद के बाद मुँह में पानी भरकर कुल्ला करने का उपक्रम करती है।)
अगर तुम इतने ही उतावले हो रहे हो तो सुनो सूत्रधार।
मेरे जीवन का आश्रय ...(कुल्ला)
मेरे स्त्रीत्व का स्वामी ...(कुल्ला)
मेरे पत्नी होने का आधार ...(कुल्ला)
मेरे सौभाग्य का सम्राट ...(कुल्ला)
मेरे सतीत्व का देवता ...(कुल्ला)
मेरे... मेरे...
सूत्र : (अब तक हर संवाद पर ‘हूँ’ कहकर अपनी स्वीकृति दे रहा था। उसे तुरन्त अगली पंक्तियाँ याद दिलाता है...) मेरे माथे का...
सावी : मेरे माथे का दमकता सुहाग !!
सूत्र : (टोकते हुए) समझ गया देवी, समझ गया। ऐसा आदमी तुम्हारा पति है।
(उसके संवाद अपनी उंगलियों पर दोहराते हुए) छः !!
(सावी अपने चेहरे को पोंछते हुए उसे घूरती है) मैंने पुराणों में एक पतिव्रता के बारे में पढ़ा था, जिसके पाँच पति थे।
(कुछ पीछे हटती है, एक काल्पनिक अलमारी खोलती है। एक-दो साड़ियाँ निकालती है, वापस रखती है। एक और साड़ी निकालती है और पीछे मुड़कर साड़ी बदलने का उपक्रम करती है।)
(दर्शक बायें से, दबे पाँव, अपनी आँखों पर हाथ रखे, मंच पर आता है। सूत्रधार को अनदेखा कर दर्शकों की तरफ बढ़ता है। तभी सूत्रधार उसे रोक लेता है।)
सूत्र : क्या बात है, कहाँ जा रहे हो?
दर्शक : (आँखे बन्द किये) ये क्या कर रही है?
सूत्र : साड़ी बदल रही है।
दर्शक : छिः, ये कैसी निर्लज्ज है।
सूत्र : कौन?
दर्शक : ये...।
सूत्र : (मुस्कुराते हुए) ये तो पतिव्रता है।
दर्शक : यहाँ इतने सारे लोगों के बीच उनके सामने... ये...।
सूत्र : (आगे बढ़कर दर्शकों को सम्बोधित करता है)
मैं आप सबको बता देना चाहता हूँ कि ये पतिव्रता है। (दर्शक के पास आकर) उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर ली हैं, अब तुम अपनी आँखें खोल सकते हो।
दर्शक : (आश्चर्य से) आँखें खोल लूँ? क्यों?
सूत्र : तुम्हें डर था कि ये लोग तुम्हें, इसे घूरते हुए देख लेंगे। क्यों? अब जब इनकी आँखें बन्द हैं, कोई चिन्ता की बात नहीं कि ये तुम्हें बेशर्म समझेंगे ! हाँ तुम अब अपनी आँखें खोल सकते हो।
(सावित्री की ओर देखते हुए...) देखो कैसी पवित्र आभा है उसके मुख पर।
दर्शक : (आँखें खोलते हुए व्यंग से) पवित्र आभा ! मुझे तो उसके पाऊडर की महक यहाँ तक आ रही है। ये कैसी पतिव्रता है, पति के जाते ही श्रृंगार करने लगती है।
सूत्र : तुम खुद ही उससे पूछ लो कि वो ऐसा क्यों कर रही है?
दर्शक : जी, शुक्रिया ! अभी शुरू हो जाएगी।
मेरे देवता... मेरे सम्राट...!!
कुछ समझ में तो आये।
सूत्र : (हँसते हुए) मुझे नहीं लगता कि इसकी समझ में भी कुछ आया है।
दर्शक : (आश्चर्य से) क्या? वो नहीं समझती कि वो क्या कर रही है?
सूत्र : (सर हिलाते हुए) कैसे समझेगी? वो तो सिर्फ़ दोहरा रही है, वो अल्फ़ाज़ जो मैंने उसके लिए लिखे हैं। क्या तुमने ध्यान नहीं दिया, मुझे उसको बीच में टोकना पड़ा था। (उसका हाथ पकड़ कर अपने साथ ले जाता है।) अब चलो भी, और देखो मैं कैसे उसे पतिव्रता धर्म सिखाता हूँ। (इससे पहले कि दर्शक कुछ कहे। वो उसे सावी के पास ले जाता है) सावित्री, देवी सावित्री...।
सावी : सूत्रधार !
सूत्र : देवी, ज़रा एक सन्देह का निवारण करो।
सावी : सन्देह?
सूत्र : ये सारे लोग जो अपना काम, आराम और अपनी नींद ख़राब कर यहाँ आये हैं। इन्हें एक सन्देह है।
सावी : भाई सूत्रधार, क्या मैं पूछ सकती हूँ कि ये लोग अपना इतना सब कुछ छोड़कर यहाँ क्यों आये हैं?
सूत्र : ज़रूर पूछ सकती हो देवी। मैं तुम्हें बताता हूँ। ये लोग मनुष्य जाति के हैं। अपने पड़ोस के घर में झाँकने के लिए कुछ भी छोड़ सकते हैं। इसीलिए ये यहाँ आये हैं।
सावी : सूत्रधार, तुम कह रहे थे कि इन्हें एक सन्देह है।
सूत्र : देवी ये सन्देह को एक मशाल की तरह इस्तेमाल करते हैं, वो सब देखने के लिए जो अंधेरे में होता है।
सावी : कहाँ है वो सन्देह?
सूत्र : (दर्शक को इंगित करते हुए) यहाँ तुम्हारे सामने है !
सावी : क्या तुम बता सकते हो कि क्या कहा जा रहा है?
सूत्र : कहा ये जा रहा है कि-
तुम एक भली औरत हो, तुम ये मानती हो कि औरत के लिए सबसे अच्छी जगह उसका घर है, और तुम अपने घर से बाहर नहीं निकलती। फिर भी, जैसे ही तुम्हारा पति घर से बाहर जाता है, तुम श्रृंगार करने लगती हो। ये कैसा पतिव्रता धर्म है।
सावी : सूत्रधार, हमारे देश में पाँच पतिव्रता नारियों का नाम लिया जाता है। अहिल्या, द्रौपदी, सीता, तारा और मंदोदरी।
सूत्र : हूँ...।
सावी : अहिल्या, जिस पर इन्द्र आसक्त हुए थे, उसका पति एक ऋषि था।
सूत्र : हूँ...।
सावी : द्रौपदी के पाँच पति थे और ये सभी पुराणों के पुरुष थे।
सूत्र : हूँ...।
सावी : सीता पर यह दोष लगा कि वो रावण की लंका में रही, सियापति राम एक अवतारी पुरुष थे।
सूत्र : हूँ...।
सावी : तारा, जिसकी कामना उसके पति का भाई करता था, उसका पति बालि एक वानर था।
सूत्र : हूँ...।
सावी : मंदोदरी का पति एक राक्षस था।
सूत्र : हूँ...।
सावी : तो मुझे बताओ कि क्या कोई भी पतिव्रता ऐसी है, जिसका पति एक साधारण मनुष्य हो। यहाँ उपस्थित आप सभी की षंकाओं का मेरा यही उत्तर है।
सूत्र : अच्छा, अब मैं समझा तुम पूरी मानव जाति की पहली पतिव्रता हो। इसलिए क्या इन मनुष्यों पर एक उपकार करोगी? इन्हें अपने इस पतिव्रता धर्म का सार बताओ और समझाओ कि पति की अनुपस्थिति में तुम्हारे श्रृंगार करने का क्या मतलब है?
सावी : तुम कितने भोले हो सूत्रधार। सम्पूर्ण पतिव्रता धर्म का सार एक ही तो है।
सूत्र : और, वो सार क्या है? यही तो मैं पूछ रहा हूँ।
सावी : अपने पति के पदचिह्नों पर चलना, वहीं जाना जहाँ वो जाता है। वही करना जो वह करता है। दूर हो गयी तुम्हारी षंका?
सूत्र : (दर्शक से) क्या तुम्हारे सन्देह दूर हो गये?
(मुड़ता है और देखता है कि सावी वहाँ नहीं है)
तुमने सुना उसे?
दर्शक : (कड़वाहट से) उसकी ये पंक्तियाँ भी तुम्हीं ने लिखी थीं?
सूत्र : और क्या? इसीलिए तो वो बोल पायी।
दर्शक : क्या वो अपनी बात कह ही नहीं सकती?
सूत्र : तुम उसे सुनना चाहते हो। ठीक है तो उसे सुनते हैं और फिर उसके पति के दफ़्तर जाएँगे। उसने कहा था न कि वो सिर्फ़ वही कर रही है जो वो वहाँ कर रहा है। ज़रा देखते हैं। षः, षः, षः वो वापस आ गयी है। मैंने उसे एंट्री नहीं दी है। ये उसके अपने शब्द होंगे। चलो सुनते हैं।
(उसे अपने साथ बायें से ले जाता है)
(सावी बाहर आती है, अस्त-व्यस्त सी लग रही है, बाल बिखरे हुए हैं, साड़ी ऊँची बंधी है, और पल्लू कमर में खोंसा हुआ है। हाथ में झाडू है। अन्दर आते ही दरवाजे़ की तरफ देखती है। गु़स्से में झाडू नीचे फेंकती है, दरवाजे़ की तरफ़ जाती है, दरवाज़ा बन्द करती है और चटखनी लगा देती है। झाडू हाथ में लेती है।)
सावी : शुक्र है भगवान का, कम-से-कम दिन भर के लिए तो उस ‘शनि’ से छुटकारा मिला। इतनी भी अक़्ल नहीं कि जाते-जाते दरवाज़ा ही बन्द कर दे। मेरे खोटे भाग जो ऐसे आदमी के साथ बंध गयी। दफ़्तर में उसका बॉस ज़रूर उस पर लात बजाता होगा। वापस आने पर उससे बैठा भी नहीं जाता। और रात को तो अपनी कमर भी खाट पर टेक नहीं पाता। (चारों तरफ देखती है) घर कैसा फैला पड़ा है, उजाड़-सा। अगर कोई बच्चा होता... तो फिर भी मैं... (आँखें पोंछती है) मैं सारा दिन गधे की तरह काम करती हूँ और रात को मुर्दे की तरह सो जाती हूँ। भला बच्चे क्या बाजार में मिलते हैं? कभी अंग्रेज़ी की पढ़ाई की थी मैंने। अब उसका यही फायदा है कि अपने आपको ‘ग्रास विडो’ कह सकती हूँ। ‘ग्रास विडो’ यानी सुहागन विधवा (झाडू लगाती है, और फिर सीधे खड़ी हो जाती है) कभी-कभी मुझे लगता है कि ऐसे आदमी को बुहार कर कूड़े के साथ कचरे के डिब्बे में फेंक देना चाहिए। (सामने आकर दीवान पर टंगे दर्पण की तरफ देख कर जूड़ा बांधती है और पास जाकर अपने आपको देखकर मुस्कराती है) नरेन्द्र सच कहता है। मैं अभी भी सुन्दर लगती हूँ।
(अपने को ऊपर से नीचे तक देखते हुए)
छिः, देखो तो मैं कैसी लग रही हूँ ! जल्दी से काम निबटा लूँ, फिर हाथ-मुँह धोकर साड़ी बदल लूँगी। अगर इस लंगूर की क़िस्मत में सुख नहीं है तो मैं क्या करूँ? खाना बनाना कोई काम थोड़े ही लगता है, अगर लोग उसके स्वाद का आनन्द लें तभी तो। जब इस आदमी को भूख ही नहीं है (दर्पण में स्वयं को निहार कर) तो मैं क्यूँ इतना अच्छा खाना बर्बाद करूँ?
(जैसे एक नयी ऊर्जा का संचार हो गया हो उसमें, सारे कमरे में झाडू लगाने का उपक्रम करती है, उठती है और मुस्कुराती है)
‘किसी के लिए दरवाज़ा नहीं खोलना’ (अपने पति की आवाज़ की नकल करती है) वो क्या समझता है, दरवाज़ा बन्द कर देने से क्या मन के द्वार बन्द हो जाते हैं? मुझे तो लगता है कि उन लोगों को दफ़्तर का दरवाज़ा बाहर से बन्द करके, उसे अन्दर ही छोड़ देना चाहिए। वो एक परमानेंट क्लर्क है और मैं एक टेम्परेरी विडो। (अन्दर चली जाती है) (कुछ देर सन्नाटा है। सूत्रधार बायें से आता है। धोती का एक सिरा हाथ में पकड़े हुए, दूसरा सिरा नीचे लटक रहा है। अन्दर देखते हुए किसी को उठाने के लिए कहता है (इशारा करता है), कोई जवाब न पाकर, स्वयं अन्दर चला जाता है। उसी वक़्त दर्शक बाहर आता है और नीचे सभागृह की ओर चलने लगता है। सूत्रधार दौड़कर उसे रोकता है।)
सूत्र : क्या बात है? तुम बीच में ही जा रहे हो?
दर्शक : (अपने आपको ज़ोर से अलग करता है) बीच का क्या मतलब है। बस हो गया ख़त्म।
सूत्र : (आश्चर्य से) क्या ख़त्म हो गया?
दर्शक : (अपने गु़स्से पर क़ाबू नहीं रख पाता) इसमें बचा क्या है? ये औरत है या राक्षसी? अपने पति के बारे में किस तरह की बातें करती है? कैसे शब्दों का इस्तेमाल करती है।
सूत्र : (टोकते हुए) फिर शुरू हो गये। जब वो मेरे संवाद बोलती है तो तुम उसे बनावटी कहते हो, और जब वो अपने शब्द कहती है, तो तुम्हें वो राक्षसी लगती है।
दर्शक : (अभी भी गु़स्से में) तुमने आज तक कभी किसी औरत को ऐसे बोलते सुना है?
सूत्र : (सर हिलाते हुए) नहीं।
दर्शक : (विजयी भाव से) फिर।
सूत्र : (बात आगे बढ़ाते हुए) सिर्फ़ इसलिए कि तुमने किसी औरत को सबके सामने ऐसा बोलते नहीं सुना है। इसका ये मतलब तो नहीं कि वो अपने घर में ऐसा नहीं करती। (जैसे किसी निर्णय पर पहुँचते हुए...)
ठीक है, चलो !
दर्शक : (आश्चर्य से) कहाँ?
सूत्र : एक और दृश्य देखने, जो तुम सबके सामने नहीं देख पाओगे। (उसका हाथ पकड़ कर अपने साथ खींचते हुए) उसने नहीं कहा था कि वो पतिव्रता है, और वो अपने घर पर वही कर रही है, जो उसका पति दफ़्तर में करता है। (दर्शक से) अपनी धोती मत भूलना, हमें अपने साथ ले जानी है। चलो ! (बायें से बाहर की ओर निकल जाता है)
(थोड़ी देर सन्नाटा है)
(एक दफ़्तर का कमरा है। रुक्मन दाएँ से आता है। दायीं दीवार की तरफ जाता है, अपना मुँह धोने का उपक्रम करता है। जैसे वो वाश-बेसिन के सामने खड़ा हो। दर्शकों की तरफ घूम कर रूमाल टटोलता है। नहीं मिलता तो धोती उठाकर मुँह पोछना चाहता है। लेकिन अपनी टाँगें दिखायी देने के डर से सम्भल जाता है, चेहरा नीचे लाकर पोंछ लेता है। सूत्रधार और दर्शक धोती को परदे की तरह पकड़े हुए आते हैं, उनके पीछे टाइपिस्ट है। अब सूत्रधार और दर्शक परदे को साथ लिए चले जाते हैं। टाइपिस्ट कुर्सी पर बैठी हुई है और एक अदृश्य टाईपराइटर पर टाइप करने का उपक्रम करती है। रुक्मन पीछे दायीं तरफ दीवार की ओर खड़ा हो जाता है जैसे शीशा देख रहा हो। सूत्रधार एक विजयी मुस्कान के साथ दर्शक को देखता है जैसे कह रहा हो- मैं जो दिखा रहा हूँ उस दृश्य को देखो...)
दर्शक : (दुविधा में है) यह क्या है?
सूत्रधार : (अपने पास बुलाने का इशारा करता है, अपने साथ बायीं ओर थोड़ा दूर ले जाता है। धीरे से बोलता है) दफ़्तर ! ये लंच टाइम है। वो अपना मुँह धो रहा है, अपने को ठीक-ठाक करने में लगा है। और ये टाइप कर रही है।
दर्शक : (अविश्वास से)
ये तो कोई पागलख़ाना लगता है।
सूत्रधार : अरे नहीं भाई, मैंने कहा न ये एक दफ़्तर है।
दर्शक : (दोनों को देखते हुए)
ये जनाब तो खड़े होकर सामने खाली दीवार को ताक रहे हैं और ये मेज़ पर उंगलियाँ चला रही हैं, मतलब टाइप कर रही हैं।
सूत्रधार : (टोकते हुए)
ओह, तो इसलिए तुम इसे पागलखाना कह रहे हो। अब देखो, सालों से ये आदमी यूँ ही इस दीवार के सामने खड़ा होता है और ये टाइपिस्ट मेज़ के पीछे बैठी रहती है, पाँच घण्टे रोज़ाना। अब उसे शीशे की ज़रूरत नहीं पड़ती और इसे टाईपराइटर की। अब आधी रात को भी जब इस कुमारी की आँख खुलती है तो उसकी उंगलियाँ उसके पास सोये प्रेमी पर ऐसे ही नाचती हैं।
दर्शक : (आश्चर्य से) कुमारी?
सूत्रधार : हाँ, ये कुमारी है।
दर्शक : लेकिन तुमने कहा उसके पास कोई सोता है।
सूत्रधार : हाँ। जानना चाहोगे वो कौन है। उसका पति, और कौन।
दर्शक : तो फिर वो कुमारी कैसे हुई? वो तो श्रीमती हुई। तुम उसे कुमारी क्यों कहते हो?
सूत्र : वो तो बस सुविधा के लिए। अगर उसे श्रीमती कहेंगे तो उसका नाम बार-बार बदलना पड़ेगा। इसीलिए कुमारी ही ठीक है। शः शः अब ज़रा चुप हो जाओ। यहाँ से हट जाते हैं और देखते हैं। (बायीं तरफ मुड़ते हैं और अदृश्य हो जाते हैं)
(आगे की पंक्तियाँ रुक्मन और टाइपिस्ट की, दर्शकों को सम्बोधित नहीं हैं, वो अपने आप से बोलते हैं)
रुक्मन : (ध्यान से सुनते हुए) कोई टाइप कर रहा है ! ये तो लंच टाइम है। सभी जा चुके हैं। ये कौन है जो टाइप कर रहा है? (जान-बूझकर खँखारता है)
टाइपिस्ट : (आवाज़ सुनकर) आ गया, वो तिलचट्टा ! बिल्कुल सही वक़्त पर आया है। (और तेज़ी से टाइप करती है।)
रुक्मन : (आशा से) क्या वही है? (खाँसता है)
टाइपिस्ट : क्या आज वो हिम्मत दिखाएगा या फिर आज भी दूर से देखकर चला जायेगा। (खाँसती है)
रुक्मन : (विश्वस्त होकर) हाँ वही है। (एक निश्चय पर पहुँचते हुए, दृढ़ता से गला खँखारता है।)
टाइपिस्ट : (खाँसने के लिए मुँह खोलती है, फिर रुक जाती है) रहने दो, अगर मैंने दुबारा गला साफ़ दिया तो ये खटमल भाग जायेगा।
रुक्मन : (जैसे उसने एक्टिंग करने के लिए अपने आपको तैयार कर लिया है) और अगर आज उसने स्लीवलेस ब्लाउज़ पहना है तो...।
टाइपिस्ट : (अपने ही एक विचार पर मुस्कुराती है, धीरे से बुदबुदाती है) पता नहीं क्यों ये मर्द औरत के सामने आते ही इतने कायर हो जाते हैं।
रुक्मन : (नतीजे पर पहुँचते हुए) और अगर वो पहने है तो मैं आज किसी न किसी बहाने से उसकी बाँह ज़रूर छू लूँगा। (अन्दर आने लगता है।)
टाइपिस्ट : अब वो आये तो सही। मैं कब तक अपनी उंगलियाँ दुखाती रहूँगी? (एक काल्पनिक बैग खोलती है और मेकअप करने लगती है।)
रुक्मन : (आखिर हिम्मत करके अन्दर आता है, किसी को ढूँढने के बहाने से...) प्रह्लादजी, प्रह्लादजी (पुकारता है, जैसे अभी-अभी उसे देखा हो) मैं... वो... प्रह्लादजी ! आई एम सॉरी। तुम शायद कोई पर्सनल काम कर रही हो। (नरमी से बोलता है)।
टाइपिस्ट : (उसकी बातचीत और हाव-भाव थोड़े बनावटी हो चले हैं) पर्सनल, जी नहीं। मैं तो ये अर्जेन्ट पेपर्स तैयार कर रही थी।
रुक्मन : (कृत्रिम हँसी) हा, हा, इतना अर्जेन्ट कि तुम्हें लंच टाइम में करना पड़ रहा है। हा, हा।
टाइपिस्ट : (नीचे देखते हुए)। जी वैसे इतना अर्जेन्ट भी नहीं है। लेकिन मैं कल नहीं कर सकती न तो इसीलिए आज ही निपटा रही हूँ।
रुक्मन : कल नहीं कर सकती। (उसके पास जाता है) क्यों? क्या तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है?
टाइपिस्ट : (मुस्कुराती है) जी, मैं ठीक हूँ। (अपनी उंगलियों को सहलाते हुए, उठ जाती है)
रुक्मन : (और पास आकर) लेकिन तुम कितनी...। तुम्हारा चेहरा कैसा मुरझा गया है। इतने बुखार में तुम...।
टाइपिस्ट : (हँसती है) जी नहीं, नहीं मुझे कोई बुखार-वुखार नहीं है। (अपनी नब्ज़ देखने का अभिनय करती है। ऐसा करने में उसकी साड़ी का पल्लू कंधे से थोड़ा खिसक जाता है।)
रुक्मन : (अब उसके बहुत पास आ गया है) तुम्हें खुद पता नहीं चलेगा। (हा, हा) (उसकी नब्ज़ देखने के लिए हाथ बढ़ाता है। थोड़ा संकोच जाहिर करता है और चुपके से उसकी बाँह छू कर तुरन्त अपना हाथ वापस खींच लेता है।)
टाइपिस्ट : (शर्माते हुए) नहीं, नहीं कुछ भी तो नहीं है।
रुक्मन : (गम्भीर भाव-भंगिमा से) तुम्हारा हाथ तो बहुत गर्म है।
टाइपिस्ट : (अचानक उसका...हाथ पकड़ लेती है) आपका हाथ ठण्डा है। इसीलिए आपको मेरा हाथ गर्म लग रहा है। मुझे बुख़ार नहीं है।
रुक्मन : नहीं है? ज़रा देखूँ तो, उसके माथे पर हाथ रखता है। यहाँ? (हाथ के बाहरी हिस्से से उसका गाल छूता है। वह उसे नहीं रोकती और थोड़ा-सा पीछे हटती है)। सॉरी, तुम कुछ ग़लत मत समझना। मैं बस देखना चाहता था कि कहीं बुख़ार तेज़ तो नहीं है। उसका एक कारण है। बताऊँ तुम्हें। देखो मुझे ग़लत नहीं समझना। अरे ये क्या, तुम खड़ी क्यों हो? क्या मेरी वजह से बहुत काम करना पड़ता है तुम्हें।
टाइपिस्ट : जी, कोई बात नहीं। वो तो आप खड़े थे इसलिए मैं भी...।
रुक्मन : (चारों तरफ देखता है) अगर कोई बात नहीं है तो फिर ठीक है। (दायीं तरफ अन्दर जाता है) क्योंकि... (सिर्फ़ उसकी आवाज़ अन्दर से आती है, वो दर्शकों के सामने नहीं है) मैं कह रहा था कि मैंने ये सब इसलिए किया कि... (एक कुर्सी लेकर आता है और मेज़ के बायीं तरफ रख देता है) उसके पीछे एक कारण है। तुम बैठो तो। (कुर्सी पर बैठ जाता है, वो अपनी पहले की कुर्सी पर ही बैठती है और वो उसके दाएँ तरफ बैठा है) मैं तुम्हें बताता हूँ, लेकिन पहले वादा करो कि तुम मुझे ग़लत नहीं समझोगी। (वो हामी भरती है)। दरअसल तुम्हारे बारे में अपनी पत्नी से बहुत बातें करता हूँ। आज सुबह ही जब मैं दफ़्तर आ रहा था, तुम्हारी बात चल रही थी।
टाइपिस्ट : (आश्चर्य से) मेरी?
रुक्मन : (जल्दी से समझाते हुए) इसीलिए तो कह रहा हूँ, प्लीज़ मुझे ग़लत मत समझना। (अब मीठी बातों का जाल फैलाता है, झूठी कहानी गढ़ता है, जिसे वो भी जानती है कि झूठ है। लेकिन वो जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ाता है वह स्वयं ही अपने झूठ पर विश्वास करने लगता है। अन्ततः बात संभाल कर अपने माथे से पसीना पोंछता है।) वो क्या हुआ ना, मतलब वो मैं और मेरी पत्नी बातें कर रहे थे। वो कहने लगी, ‘तुम रोज़ सुबह जल्दी जाते हो और रात को देर से लौटते हो।’ क्या और कोई दफ़्तर में नहीं है?
टाइपिस्ट : (हमदर्दी से) बेचारी, कितनी बोर हो जाती होंगी सारा दिन अकेले घर पर।
रुक्मन : नहीं, नहीं। मेरी पत्नी कोई स्वार्थी महिला नहीं है। तो मैंने उससे कहा- हाँ और भी लोग है। लेकिन सिर्फ़ एक ही व्यक्ति है जो पूरी ईमानदारी से दिन भर अपना काम करता है।
टाइपिस्ट : ये तो आपका बड़प्पन है। लेकिन मैंने तो यहाँ किसी और को देखा नहीं जो उस तरह काम करता हो।
रुक्मन : (गर्व से) एक व्यक्ति है ऐसा। मैंने अपनी पत्नी को बताया कि वो कौन है।
टाइपिस्ट : (ज़रा बन कर) कौन है?
रुक्मन : (ज़रा अंदाज़ा लगाओ) (वो अभी भी वैसे ही बन रही है) थोड़ा सोचो। (वो गम्भीरता से सोचने का अभिनय करती है) और वो उसे ललचायी दृष्टि से देखता है। हा, हा (होठों पर जीभ फिराता है) कुछ समझी। (गहरी साँस लेकर और सिर हिलाती है, नहीं?) हा, हा, वो तुम हो। (अपना हाथ उसके कंधे पर रख देता है।)
टाइपिस्ट : (आश्चर्य से) मैं। (वो अपना हाथ हटाता है। टाइपिस्ट की साड़ी का पल्लू कंधे से ढलक जाता है और वो अपनी नज़रें उस पर गड़ा देता है। टाइपिस्ट सकपका कर पल्लू संभाल लेती है)
रुक्मन : (जैसे वो अपने होश में आता है) क्या कहा तुमने?
टाइपिस्ट : कुछ नहीं। आप कह रहे थे कि...।
रुक्मन : (अपने पहले शब्दों को याद करते हुए) हाँ, हाँ। मैं तुम्हें बता रहा था कि मेरी पत्नी ने तुम्हारे बारे में क्या कहा। बल्कि मैं तो तारीफ़ कर रहा था तुम्हारे...। मेरा मतलब तुम्हारी बहादुरी की, तुम्हारी सच्चाई से भी ज़्यादा तुम्हारे अन्दर ये जो साहस की भावना है...।
टाइपिस्ट : साहस की भावना... लेकिन... आपके कहने का मतलब। लेकिन आप कैसे...।
रुक्मन : (उसे टोकते हुए) ओह, हो। तुम सोचती हो कि मुझे कुछ पता ही नहीं है। मर्दों की बात अलग है। लेकिन मैं हमेशा औरतों की... मतलब उनके साहस की प्रशंसा करता हूँ। तुम क्या सोचती हो। क्या मैं नहीं जानता तुमने किस तरह से कड़ी मेहनत करके अपनी पढ़ाई पूरी की, बिना किसी की मदद लिए। तुम्हारी हिम्मत, लगन क्या मैं इन बातों को नहीं समझता? (अचानक विषय बदल देता है)। लेकिन मेरी पत्नी बड़ी विचित्र महिला है। तुम्हारी तारीफ करने की बजाय वो तुमसे हमदर्दी रखती है। हा, हा...।
टाइपिस्ट : (न समझते हुए) हमदर्दी !!!
रुक्मन : (सर हिलाते हुए) हाँ, ‘उसने कहा तारीफ़ करने से क्या फ़ायदा, पढ़ी-लिखी हो या अनपढ़, औरत को तो अनाज के दाने की तरह पिसना ही पड़ता है। यही उसका भाग्य है।’ और तुम्हें पता है मैंने क्या जवाब दिया?
टाइपिस्ट : (बड़े कृत्रिम भाव से) क्या कहा आपने?
रुक्मन : बताऊँगा, लेकिन पहले वादा करो कि मुझे माफ़ कर दोगी।
टाइपिस्ट : (हँसते हुए) माफ़ कर दूँ, क्यों?
रुक्मन : मतलब, मैं ये कहना तो नहीं चाहता था। लेकिन किसी तरह उसका मुँह बन्द करना था... तो...।
टाइपिस्ट : (उत्सुकता से) क्या कहा आपने?
रुक्मन : मैंने कहा, ‘तुम्हें उस पर दया क्यों आती है? वो ख़ुद कमाती है, आज़ाद है, क्या कमी है उसे?’ मुझे ऐसा कहना ही पड़ा। उसका मुँह जो बन्द करना था।
टाइपिस्ट : (हँसते हुए) तो फिर।
रुक्मन : एक औरत का मुँह बन्द करना...। माफ़ करना, मैं ये नहीं कहता कि सभी औरतें ऐसी होती हैं। लेकिन, मेरी पत्नी का मुँह तो ब्रह्मा भी बन्द नहीं कर सकते हैं। तुम्हें पता है, वो मेरी आलोचना करने लगी और बोली, ‘उसे कोई कमी नहीं है। तुमने कभी पूछा है उससे। कभी कोई मदद की है उसकी।’ अब उसे कौन समझाए कि दफ़्तर के काम किस तरह होते हैं। मैंने कहा उससे... दफ़्तर के माहौल में आप बहुत कुछ नहीं कह सकते। एक अफ़सर अपने नीचे काम करने वालों की मदद नहीं कर सकता। मगर वो कहाँ मानने वाली है। अपने पूरे रंग में थी, बोली, ‘तुम्हें उन लोगों की समस्याओं की कोई जानकारी नहीं है।’ ज़रा सोचो, वो मुझे उपदेश दे रही थी कि जैसे उसे बहुत अनुभव है?
टाइपिस्ट : आपको कैसे पता कि वो अनुभव से नहीं बोल रही थी।
रुक्मन : (धीरे से उठता है) हा, हा, हा, ख़ैर मुझे गु़स्सा आ गया। पता है मैंने क्या कहा? (उससे कुछ क़दम दूर हटता है)।
टाइपिस्ट : (हँसते हुए) मैंने कभी आपको गु़स्से में नहीं देखा, मैं क्या कह सकती हूँ।
रुक्मन : (थोड़ा और पीछे हटता है) चलो छोड़ो, मैं तो वैसे ही गु़स्से में बोल गया था। मुझे ग़लत मत समझना।
टाइपिस्ट : आप क्या समझते हैं? मैं कोई हर बात को ग़लत समझने वाली मशीन हूँ।
रुक्मन : नहीं, नहीं। मेरा वो मतलब नहीं था। मुझे तुमसे ये सब नहीं कहना चाहिए था। लेकिन तुमने कहा कि तुम कल नहीं आ रही हो तो मुझे कहना ही पड़ा। मतलब मुझे लगा कि तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है, इसीलिए मुझे कहना पड़ा। (झूठी हँसी हँसता है) सच बात तो ये है कि मुझे घर जाकर तुम्हारी रिपोर्ट देनी है। हा, हा, हा...।
टाइपिस्ट : (न समझते हुए) जी, मेरी रिपोर्ट?
रुक्मन : मतलब, जैसे कि तुम दफ़्तर के बाद कहाँ गयी? क्या किया? हा, हा, तुम सोचोगी कि तुम्हारे पीछे जासूस लगा दिये। (अपने ही मज़ाक़ पर हँसता है) मैं गु़स्से में बोल पड़ा, और बस अपने ही जाल में फँसता चला गया।
(टाइपिस्ट खड़ी हो जाती है और उसे आश्चर्य से देखती है)
रुक्मन : (अपनी ग़लती स्वीकार करते हुए) देखो हुआ ये कि जब उसने तुम्हें बेचारी कहा और मुझे भाषण देने लगी तो मुझे ताव आ गया। मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने कह दिया, ‘अगर तुम्हें उस पर इतनी ही दया आ रही है और तुम चाहती हो कि मैं उसकी मदद करूँ तो मैं आज शाम को उसे सिनेमा दिखाने ले जाऊँगा।’ तुम कौन होती हो मुझे सलाह देने वाली। (सर उठाते हुए) उस वक़्त जो मेरे मुँह में आया मैंने बक दिया। (उसे आश्चर्य से देखता है, जब वो ज़ोर से हँसती है।)
टाइपिस्ट : (अपनी हँसी रोकते हुए) बस इतनी सी बात। इसे इतना घुमा-फिरा कर कहने की क्या ज़रूरत थी? इसीलिए बार-बार माफ़ी मांग रहे थे।
रुक्मन : (टोकते हुए) तो तुम नाराज नहीं हो। (वो सर हिलाती है) तुम्हारा मतलब है कि अगर मैं सचमुच तुम्हें सिनेमा ले चलूँ तो तुम आओगी? (वो हामी भरती है, वह अपने आप में बड़बड़ाता है।) तुम सचमुच आओगी। (पसीना पोंछता है।)
टाइपिस्ट : (सरल भाव से) अब आप मुझे ग़लत समझ रहे हैं।
रुक्मन : (समझ नहीं पाता) मतलब, अगर तुम नहीं आना चाहती हो तो... (रुक जाता है, जब वो सर हिलाती है)
टाइपिस्ट : (नीचे देखते हुए) आप सोचेंगे, जैसे ही मैंने पूछा वह तुरन्त तैयार हो गयी।
रुक्मन : (टोकता है) नहीं, नहीं। मुझे ख़ुशी है कि तुम तैयार हो गयी।
टाइपिस्ट : (बात आगे बढ़ाते हुए) आप सोचेंगे, मैंने गु़स्से में अपनी पत्नी से कुछ कह दिया और ये इसे सच मान रही है।
रुक्मन : (टोकता है) नहीं, ऐसा नहीं है। मैं अपनी पत्नी से नाराज़ था। और तुम... मैं खुश हूँ कि तुम मेरे साथ आ रही हो।
टाइपिस्ट : (बात जारी रखते हुए) मुझे भी मिस्टर प्रह्लाद पर बहुत गु़स्सा आया था। मैंने भी कह दिया था, ‘तुम्हें नहीं आना है तो मत आओ। मैं अपने आप चली जाऊँगी और आज ही जाऊँगी।’
रुक्मन : (ज़रा रौब से बोलता है) तुम्हारा मतलब इस प्रह्लाद के पास सिनेमा पर ख़र्च कर सकने को पैसे हैं?
टाइपिस्ट : वो तो बस ऐसे ही फेंक रहा था। (उसकी तरफ देखती है) वह बोला, ‘मैं तुम्हें कल सिनेमा ले जाऊँगा।’ मैं भी उसका इम्तहान लेना चाहती थी सो कह दिया अच्छा। आज वो आकर बोलता है कि सरकार को या तो डी.ए. बढ़ाना होगा या फिर इंटरटेनमेंट टैक्स कम करना होगा। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक मैं कोई फ़िल्म नहीं देखूँगा।
रुक्मन : तो क्या वो कोई मिनिस्टर बनने वाला है?
टाइपिस्ट : नहीं, वो कहता है कि वो लोग कल से हड़ताल पर जायेंगे। इसीलिए मैंने कहा था कि मैं कल नहीं आ रही हूँ। लेकिन आज मैं सिनेमा ज़रूर देखूँगी चाहे जैसे भी हो।
रुक्मन : (नाटकीय अंदाज में)
तब तो हम ज़रूर जायेंगे। ठीक? तो ऐसा करते हैं...।
(उसके पास आता है और अपना प्लान उसके कान में कहता है। उनके चेहरों से सिर्फ़ हाव-भाव झलकते हैं कि क्या कहा जा रहा है)
(तभी एक आवाज़ बाहर से आती है..., ‘तो हम आठ बजे मिलते हैं, भूलना मत।’ यह सुनकर रुक्मन अपनी बात पूरी करता है और बाहर जाता है। दरवाज़े पर प्रह्लाद से मिलता है। प्रह्लाद उसे बड़ी उपेक्षा से देखता है। उसकी जल्दबाज़ी पर आश्चर्यचकित होता है। उसे गु़स्से से देखकर बुरा-सा मुँह बनाता है और टाइपिस्ट को गु़स्से से देखता है। इसी बीच रुक्मन बाहर चला जाता है।)
टाइपिस्ट : (प्रह्लाद से) किससे बातें कर रहे थे?
प्रह्लाद : (अभी भी दरवाज़े की तरफ देखता है) वो यहाँ क्यों आया था?
टाइपिस्ट : ये आज आठ बजे शाम को या कल सुबह?
प्रह्लाद : (दूसरी कुर्सी की तरफ देखता है) क्या वो तुम्हारे पास बैठा था।
टाइपिस्ट : तुम किससे मिलने जा रहे हो?
प्रह्लाद : (सुगन्ध याद करके) उसने तुम्हें छुआ क्या?
टाइपिस्ट : (गु़स्से से) मैं तुमसे कुछ और पूछ रही हूँ और तुम कुछ और ही गा रहे हो।
प्रह्लाद : मैंने पूछा, क्या उसने तुम्हें हाथ लगाया?
टाइपिस्ट : (मानो अपमानित महसूस करती है) तुम क्या समझते हो? मैं कोई दफ़्तर की मेज़-कुर्सी हूँ जो हर कोई आते-जाते हाथ लगाएगा।
प्रह्लाद : मैंने उसे जाते-जाते सूँघा था।
टाइपिस्ट : (बैठते हुए) मुझे क्या पता कि वो आज नहा कर आया था या नहीं।
प्रह्लाद : (गु़स्से से) मैं उसके बदन की बदबू की बात नहीं कर रहा। उसके बदन से तुम्हारे पाउडर की खुशबू आ रही थी।
टाइपिस्ट : (लापरवाही से) अरे वो, वो तो मैं रोज़ ही लगाती हूँ। तुम्हें आज उसकी खु़शबू का पता चला।
प्रह्लाद : मैं तुम्हारे बदन की नहीं, उसकी बात कर रहा था। उसके बदन से तुम्हारे पाउडर की खुशबू आ रही थी।
टाइपिस्ट : (हँसती है) मैं अकेली नहीं हूँ, जो उस पाउडर को इस्तेमाल करती हूँ। कोई भी उसे लगा सकता है।
प्रह्लाद : (कुर्सी उसके पास तक खींचता है, उसे सामने बैठकर उस पर गहरी नज़र डालता है) अच्छा ! तो अब तुम्हारा सम्बन्ध इतना आगे बढ़ गया है क्यों? (जब वो हँसती है तो गु़स्से में बोलता है) हँसो मत, तुम्हें शर्म नहीं आती।
टाइपिस्ट : (उंगलियों पर गिनते हुए) पहला सवाल, ‘तुम क्यों हँसती हो?’ तो जवाब है- क्यों न हँसूँ? बजाय यह पूछने के कि, ‘क्या तुम्हारा रिश्ता इतना क़रीबी है?’ तुम पूछते हो, ‘क्या वो इतना आगे बढ़ गया है?’ दूसरा सवाल- ‘तुम्हें शर्म नहीं आती?’ तो शर्म किसे आनी चाहिए, उसे जिसने बड़ी शान से कहा, ‘चलो फ़िल्म देखने चलते हैं।’ लेकिन फिर यह कहकर कि आज नहीं... क्योंकि उसके पास पैसे नहीं हैं या...।
प्रह्लाद : (रोकते हुए) छोड़ो उसे। अब मैं ये पूछ रहा हूँ क्या तुम्हारा रिश्ता इतना क़रीबी है? पहले मेरे इस सवाल का जवाब दो।
टाइपिस्ट : ये तो और क़रीब होने वाला है, आज रात को।
प्रह्लाद : (गु़स्से से) चुप रहो ! कुछ तो शर्म करो।
टाइपिस्ट : (बनावटी गु़स्से से) ज़रा धीरज रखो और पूरी बात सुनो। जैसे ही मैंने ये कहा कि, ‘आज रात को’ तो तुम्हारे मन में सिर्फ़ एक वही बात आयी, क्यों? इसका मतलब खोट तुम्हारे मन में है। (विजयी भाव से) वो तो आज रात को मुझे फ़िल्म दिखाने ले जा रहा है।
प्रह्लाद : (आश्चर्य से) कौन? वो बुड्ढा? वो अंधविश्वासी, खूसट? वो तुम्हारे साथ पिक्चर देखगा? (हँसता है)
टाइपिस्ट : हँसो मत, पहले पूरी बात सुनो कि किस अंदाज़ से उसने सारी प्लानिंग की है। पहले वो जायेगा और मैं बाद में पीछे से पहुँचूँगी। वो दो टिकट खरीदेगा और एक ख़ास जगह पर इन्तज़ार करेगा। मुझे वहाँ से कुछ दूर खड़े रहना है। जैसे मैं उसे नहीं जानती। तब वो उस चौकीदार को बुलाएगा, जो वहाँ काम करता है और मेरी तरफ इशारा करेगा सिर्फ़ अपनी आँख से बिना उंगली उठाए। मै। अपना बैग खोलूँगी। ये देखकर वो चौकीदार मुझे टिकट पकड़ा देगा। तब वो अकेला अन्दर जाएगा और मैं ठीक दो मिनट के बाद उसके पीछे चलूँगी और उसके बराबर की सीट पर जाकर बैठ जाऊँगी, जब तक कि फ़िल्म शुरू नहीं होती है।
प्रह्लाद : (टोकते हुए) जब तक कि अँधेरा नहीं हो जाता।
टाइपिस्ट : (सर हिलाते हुए) तब तक हम अजनबी बने रहेंगे।
प्रह्लाद : (कड़वाहट से) और अँधेरे में वो क्या करेगा?
टाइपिस्ट : (अचानक उठती है, उसके पास जाती है। रुक्मन की नक़ल उतारते हुए उसके कान में कहती है) तब तुम मुझे एक अलग आदमी पाओगी। हा, हा, अँधेरे में दफ़्तर के नियम लागू नहीं होते।
प्रह्लाद : (और भी नफ़रत से) वो घिसा हुआ पुराना माडल, जो सिर्फ़ अँधेरे में ही एक औरत के सामने आने की हिम्मत कर सकता है।
टाइपिस्ट : (उसकी नक़ल उतारते हुए) और ये नये ज़माने का मूर्ख...।
(अपनी जीभ दिखाती है और बाहर जाने लगती है)
प्रह्लाद : (उसे रोकते हुए) अरे सुनो तो ! कहाँ जा रही हो?
टाइपिस्ट : (मुड़ते हुए) इसीलिए तुम्हें नये ज़माने का मूर्ख कहती हूँ। तुम वो सवाल पूछते हो जिनकी कोई ज़रूरत नहीं होती।
(इतना कह कर निकल जाती है)
प्रह्लाद : (जैसे उसे जवाब दे रहा हो) वो जान जायेगी। हाँ, उसे जल्दी ही पता चल जायेगा, कल जब मैं वो आन्दोलन शुरू करूँगा तब उसे पता चलेगा कि मैं क्या हूँ? (उसके पीछे जाता है)
(कुछ क्षण के लिए मंच खाली है, प्रह्लाद लौटता है, कुछ परेशान सा लग रहा है। सामने देखते हुए बेचैनी से पुकारता है।)
प्रह्लाद : (पुकारते हुए) अजी सुनिये, आप, जी आप ही। (कोई जवाब नहीं) देखो क्या नाम है तुम्हारा? सूत्रधार, नाटककार तुम जो भी हो, अब जल्दी आओ, यहाँ।
सूत्र : (बाएँ से आता है) क्यों? क्या हुआ?
प्रह्लाद : (गु़स्से में) क्या हुआ? अरे क्या नहीं हुआ?
सूत्र : (दूसरी कुर्सी के पीछे जाकर खड़ा हो जाता है।) क्या कुछ गड़बड़ हो गयी?
प्रह्लाद : (बिना उसकी ओर देखे हुए) मैं अपने मन की बात कहना चाहता था। लेकिन नहीं कह सका और उसे खो बैठा।
सूत्र : (मुस्कुराते हुए) इसमें मैं क्या कर सकता हूँ?
प्रह्लाद : ये तुम्हारा काम है, हम दोनों को एक साथ लाना। अब मेरी मदद करो।
सूत्र : (हँसते हुए) मैं बस नायक और नायिका की ही मदद कर सकता हूँ।
प्रह्लाद : (आशा से, उसे देखता है) तो अगर मैं नायक बन जाऊँ, वो मेरी हो जाएगी?
सूत्र : इतना आसान नहीं है। नायक और नायिका बनने के अलावा भी बहुत कुछ करना पड़ेगा। तुम्हें वो शब्द बोलने होंगे, जो मैं तुम्हें दूँगा। तब शायद कोई बात बन सकती है।
प्रह्लाद : (अविश्वास से) लेकिन तुम नहीं जानते कि मेरे मन में क्या है?
सूत्र : तो बताओ मुझे, मैं उन्हें तुम्हारे लिए ‘संवाद’ में बदल दूँगा।
प्रह्लाद : (शर्माते हुए) नहीं मैं ऐसी बातें किसी और से नहीं कह सकता।
सूत्र : (टोकते हुए) तो ठहरो ज़रा... (बायें से दर्शक को बुलाता है) यहाँ आओ दोस्त, मेरे एक पात्र और मेरे बीच में थोड़ी दरार पैदा हो गयी है।
दर्शक : तो इसमें भला मैं क्या कर सकता हूँ?
सूत्र : फैसला तुम्हें ही करना है। यहाँ बैठो और अपना फैसला हमें बताओ।
(उसे दूसरी कुर्सी पर बिठाता है)
अब ठीक है। देखो ये लड़का अपने मन की बात उस लड़की से कहना चाहता है। मैंने इससे कहा कि, ‘तुम मुझे बताओ, मैं अच्छे शब्दों में पिरोकर तुम्हें दे दूँगा।’ लेकिन ये कहता है कि अपने मन की बात बताने में उसे शर्म आती है। अब तुम ही बताओ, अगर मेरे अपने पात्र मुझसे शरमायेंगे तो मैं लिखूँगा कैसे? और तुम देखोगे क्या? इसीलिए तुम्हारे पास आया हूँ।
दर्शक : (प्रह्लाद को देखते हुए) भगवान का शुक्र है कि कम से कम तुममें कुछ शर्म बाक़ी है।
प्रह्लाद : (सूत्रधार से) ये कौन है?
सूत्र : ये नाटक का दर्शक है।
प्रह्लाद : तो ये यहाँ क्या कर रहा है? इससे कहो कि ये अपनी जगह पर जाकर बैठे।
दर्शक : (उठते हुए) मुझे कहीं नहीं बैठना। मैं सीधे पुलिस के पास जा रहा हूँ।
प्रह्लाद : (अचानक उठते हुए) पुलिस के पास?
सूत्र : (समझ नहीं पाता) क्यों?
दर्शक : (धीरे-धीरे उसकी आवाज़ ऊँची होती जाती है) क्यों से तुम्हारा क्या मतलब है? जिस लड़की से आप इश्क़ फ़रमा रहे हैं (सूत्र की ओर देखता है) वो रुक्मांगद की पत्नी है।
(जैसे जवाब की प्रतीक्षा करता है) क्यूँ है ना?
(ज़ोर से) क्या ये सच नहीं है?
(मंच पर कुछ पल के लिए ख़ामोशी छा जाती है, जो प्रह्लाद के ठहाके से टूटती है, सूत्रधार मुस्कुराते हुए दर्शक की ओर देखता है।)
दर्शक : (चिढ़ते हुए प्रह्लाद से) तुम हँस रहे हो? क्या ये सच नहीं है? तुम इसे प्रगतिशील होना कहते हो? क्या ये...।
प्रह्लाद : (उसकी हँसी लगातार बनी रहती है)
हमारी टाइपिस्ट, रुक्मांगद की पत्नी ! हा, हा, हा उसकी पत्नी... हो हो हो... जब मैं उसे बताऊँगा वो अपने आप दौड़ कर मेरे पास आ जायेगी। (हँसते-हँसते बायें से निकल जाता है)
सूत्र : (दर्शक से) एक दर्शक ने मेरे पात्र को हँसा दिया। ये वास्तव में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।
दर्शक : (अभी भी गु़स्से में है) तुम ये सब पुलिस से कहना। एक अश्लील नाटक लिखते हो। (उसका हाथ पकड़ कर खींचता है।) चलो !
सूत्र : मुझे जेल भिजवाने से पहले तुम खुद पागलख़ाने पहुँच जाओगे। मैं कहता हूँ रुको। वो रुक्मांगद की पत्नी नहीं है...।
दर्शक : क्यों? थोड़ी देर पहले तुम्हीं ने तो दिखाया था। उसका नाम सावित्री है?
सूत्र : (रोकता है) बिल्कुल ठीक। वो सावित्री अभी भी वहीं है। मैं तुम्हें वहीं तो ले जा रहा था।
दर्शक : अगर हिम्मत है तो ले चलो। वो सावित्री है। और ये टाइपिस्ट है? जैसे मैं सच मान लूँगा। हा...हा...।
सूत्र : हाँ वो एक गृहिणी है और ये एक टाइपिस्ट है।
दर्शक : तुम्हारे ये दो नाम देने से क्या होता है? हैं तो वो एक ही औरत ना।
सूत्र : हाँ !
दर्शक : (विजयी भाव से) तो तुम मान गये।
सूत्र : किस बात को? हाँ ये दोनों एक ही हैं, ये दोनों ही औरत हैं।
दर्शक : वही तो मैं भी कह रहा हूँ कि ये दोनों एक ही औरत है। बस यहाँ उसने पोशाक अलग पहनी है और क्या?
सूत्र : (समझाते हुए) तुम नहीं समझे। अभी भी नहीं समझे ! रुक्मांगद की पत्नी, उसकी टाइपिस्ट से अलग है। सिर्फ़ उनकी पोशाकें अलग नहीं है। तुम्हें वो दोनों एक लगती हैं, क्योंकि वो दोनों ही औरतें हैं।
दर्शक : (तिरस्कारपूर्वक देखता है) तो इसका मतलब ये हुआ कि तुम और मैं, भले ही हमने अलग-अलग कपड़े पहने हैं। एक जैसे ही लगेंगे, क्योंकि हम दोनों मर्द हैं क्या बकवास करते हो तुम। अगर तुम्हारी खोपड़ी में इतना ही भूसा भरा है तो चलो दिखाओ सावित्री को, जैसा तुम कह रहे थे।
सूत्र : चलो, मैं खुद भी तुम्हें दिखाने वाला था। मत भूलो कि वो इस टाइपिस्ट की तरह नहीं है। सावित्री पतिव्रता है। मैंने कहा नहीं था कि वो अपने पति के पद-चिह्नों पर ही चलती है? तुमने देख लिया कि उसका पति कैसा आचरण करता है। अब चलते हैं।
(उसका हाथ पकड़ता है और पूरे मंच पर गोलाई में चलता है। चलते-चलते बोलता जाता है)
पता नहीं क्यूँ, लेकिन एक मर्द एक औरत को अपनी ही नज़र से देखता है। उसे कभी इससे मतलब नहीं रहता कि वो क्या है, उसका मतलब सिर्फ़ इस बात से होता है कि वो एक औरत है।
(पीछे देखते हुए दर्शक से) मैं तुमसे नहीं कह रहा, बस अपने से बात कर रहा हूँ। ये, ज़रा पकड़ो इसे।
(अपने कंधे से धोती उतारता है, उसका एक सिरा दर्शक को पकड़ाता है और दूसरा अपने आप पकड़ता है, दोनों नपे हुए क़दमों से मेज़ तक आते हैं और सामने खड़े हो जाते हैं, परदे को पकड़े हुए जिससे कुर्सियाँ नहीं दिखती। सूत्रधार दर्शक को ‘श श श’ कहकर इशारे से बताता है कि परदे के पीछे कोई है और उन्हें वहाँ से चुपचाप चले जाना चाहिए। वे बायें से बाहर चले जाते हैं।)
(अब नरेन्द्र और सावी कुर्सियों पर बैठे हैं, सावी मेज़ के पीछे की कुर्सी पर बैठी है। नरेन्द्र दर्शकों से बायीं तरफ की कुर्सी पर बैठा है। सावी ने वही पहले वाली साड़ी पहनी है। मेज़ पर एक बड़ी सी एलबम (काल्पनिक) रखी है। सावी उसके पन्ने पलट रही है। उसके चेहरे पर मुस्कान है। नरेन्द्र भी मुस्कुरा रहा है और उसकी आँखें सावी पर गड़ी हैं। वो एक तस्वीर देखकर हँसती है। नरेन्द्र बेहद उत्सुकता से पूछता है, ‘कौन सी है?’ और उठकर उसकी कुर्सी के पीछे खड़ा हो जाता है। अपना हाथ उसके कंधे पर रखता है, और अपना चेहरा उसके पास झुकाकर तस्वीर देखता है।)
नरेन्द्र : तुम्हें हँसी आती है न उसकी पुरानी तस्वीर देखकर?
सावी : (आँखें ऊपर उठाती है) उसकी पुरानी तस्वीरों पर नहीं बल्कि, वो अब, जैसा लगता है, उसे देखकर हँसी आती है।
नरेन्द्र : (उपहास से) पुराना या नया, तुम्हारा रुक्मांगद एक ही लगता है।
सावी : (फिर से तस्वीर देखती है) नहीं ऐसा नहीं है। जब मैं इसे देखती हूँ तो वो दिन याद आ जाते हैं।
नरेन्द्र : (पीछे हटते हुए) क्या याद आ जाता है?
(कुछ कदम सावी के दायें को चलकर घूमता है) सावित्री, सावित्री (वो एलबम बन्द करती है और उसे देखती है) तुमसे एक सवाल पूछना चाहता हूँ। सच-सच जवाब दोगी?
सावी : कौन सा सवाल?
नरेन्द्र : तभी पूछूँगा, अगर वादा करो कि सच-सच जवाब दोगी।
सावी : और क्या मेरे जवाब से तुम सन्तुष्ट हो जाओगे?
नरेन्द्र : तुम क्या कहती हो, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मुझे सच बताओ और मैं सन्तुष्ट हो जाऊँगा। पूछूँ?
सावी : अगर खुद मेरे पास उसका जवाब हुआ तभी तो...।
नरेन्द्र : तुमने कहा न ये तस्वीरें देखकर तुम्हें पुराने दिन याद आ गये। इसीलिए मुझे लगता है कि जवाब तुम्हारे पास है। अब पूछूँ?
(सावी सर हिलाती है)
(नरेन्द्र अपनी कुर्सी उसके पास तक खींचता है और बैठ जाता है। उसका बायाँ हाथ, उसके पैर पर रखा है और दायाँ हाथ मेज़ पर है। उसके चेहरे को पल भर देखता है।)
तुम शादी से पहले मुझे उससे ज़्यादा पसन्द करती थी ना?
सावी : (खोखली हँसी हँसती है) अब कुछ कहने से क्या फायदा?
नरेन्द्र : अब बात मत टालो, तुमने सच बताने का वादा किया है।
सावी : (उसे देखती है) तुम अब ये सवाल क्यों कर रहे हो?
नरेन्द्र : (ज़ोर देकर) बताओ, मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए।
सावी : (मुस्कुराते हुए) और अगर मेरा जवाब ‘न’ हो तो?
नरेन्द्र : (अपना हाथ पीछे खींचता है) मैं नहीं मान सकता। नहीं ये सच नहीं है।
सावी : मेरी भावनाओं को तुम कैसे समझ सकते हो।
नरेन्द्र : (चहलकदमी करते हुए, जैसे वो अपने आप से भी बात कर रहा हो)
मैं जानता हूँ। क्या हम बचपन में एक साथ नहीं खेले? हम हमेशा साथ रहते थे।
सावी : (टोकते हुए) तुम दोनों हमेशा साथ रहते थे।
नरेन्द्र : (उसके सामने खड़े होकर) लेकिन हम जहाँ भी जाते तुम साथ हो लेती थीं। याद है- उस दिन, वो रास्ते में जामुन का पेड़ पड़ता था...
सावी : (पुरानी स्मृति ताजा हो जाती है...) हूँ ! (होंठों को चूसने की भंगिमा देते हुए) आज भी याद करके मुँह में पानी आ जाता है। (उसके चेहरे पर मासूम भाव है)
नरेन्द्र : (खुश होकर उसे देखता है) उस दिन भी ऐसे ही तुम अपने होंठ चाट रही थी। और तुम कितनी प्यारी लग रही थी।
सावी : (शर्माती है) धत्त...! हम लोग तो उस समय बच्चे ही थे।
नरेन्द्र : लेकिन मैं नहीं भूला। आज भी तुम्हारा वो चेहरा याद है। उस दिन मैं जान गया था कि तुम रुक्मांगद से ज्यादा मुझे पसन्द करती हो।
सावी : (जैसे अचानक कोई बात समझ में आयी हो, ज़ोर से हँसती है।)
अच्छा, तुम उस दिन की बात कर रहे हो ! वो तो मैं ही शैतानी कर रही थी।
नरेन्द्र : शैतानी?
सावी : (बोलती जाती है...) मुझे जामुन खाने थे। लेकिन पता था कि अगर उससे कहा तो वो कुछ नहीं करेगा।
नरेन्द्र : कौन रुक्मांगद? (व्यंग से) वो? मैं जानता हूँ वो क्या करता। वो तुम्हें लम्बा-चौड़ा भाषण देता कि किस तरह सड़क पर से उठाया हुआ फल नहीं खाना चाहिए। वो कहता, ‘जाओ पेड़ के मालिक से जाकर पूछो...।’
सावी : (टोकते हुए) वो आज भी वैसा ही है। उसे वो कोई चीज़ नहीं चाहिए, जो दूसरों की हो। वो कभी हाथ बढ़ाकर कुछ नहीं मांग सकता।
नरेन्द्र : तुम जानती हो क्यों?
सावी : क्योंकि वो बेहद मासूम है।
नरेन्द्र : भाड़ में जाए ऐसी मासूमियत ! लेकिन ये बात नहीं है। मैं उसे बचपन से जानता हूँ। सच ये नहीं है कि वो ये समझता था कि किसी और के पेड़ से फल तोड़ना बुरी बात है। सच तो ये है कि उसमें पेड़ पर चढ़ने की हिम्मत ही नहीं थी। वो आज भी ऐसा ही बुज़दिल है। तुम ये जानती थी। है ना ! क्या इसीलिए इसे अपनी शैतानी बता रही थी?
सावी : नहीं ! (अपनी गोद से काल्पनिक ऊन और सलाई उठाती है, और बुनने लगती है) बचपन से ही उसका व्यवहार एकदम खरा था।
नरेन्द्र : (टोकते हुए) वो पुरानी बात है।
सावी : (कहती जाती है) और इसीलिए मुझे उस पर गु़स्सा भी आता था। उसका ऐसा व्यवहार कई बार अच्छा नहीं लगता था।
नरेन्द्र : (ख़ुश होकर) क्या कहा तुमने? (आगे आता है)
सावी : (अपना दायाँ हाथ बढ़ाकर उसे रुकने का इशारा करती है) मैं ये कहना चाह रही थी कि जब मैं छोटी थी तो मुझे उसका वो आचरण अच्छा नहीं लगता था।
नरेन्द्र : तुम्हारा मतलब है कि अब जबकि तुम बड़ी हो गयी हो, तुम्हें अच्छा आचरण पसन्द नहीं है।
सावी : (हँसती है) ये सच है कि मैं बड़ी हो गयी हूँ। लेकिन मैंने ये कब कहा कि मुझे अच्छा आचरण पसन्द नहीं है।
नरेन्द्र : तो तुम्हें पसन्द है। (वो हामी भरती है, वो उसके पास आता है) मेरी तरफ देखो। (वो सर उठाती है और उसकी तरफ देखती है दोनों ख़ामोश हैं, वो उसके हाथों से ऊन और सलाई लेकर उसे मेज़ पर फेंकने का उपक्रम करता है। उसे कंधों से पकड़ता है, मेज़ के आगे लाकर दर्शकों के सामने खड़ा कर देता है। और खुद मेज़ पर उसके दायीं ओर बैठ जाता है। वो अभी भी एक-दूसरे की ओर देख रहे हैं। वो अचानक हँसता है।) वाह, अच्छा हुआ तुमने मुझे अच्छे होने का सर्टीफ़िकेट (प्रमाणपत्र) दे दिया।
सावी : कैसा सर्टीफ़िकेट?
नरेन्द्र : अच्छे चरित्र का सर्टीफ़िकेट ! तुम्हीं ने तो कहा कि मेरा चरित्र अच्छा है। (वो ‘नहीं’ में सर हिलाती है) तुमने अभी-अभी कहा कि तुम्हें अच्छा चरित्र पसन्द है, और तुम्हें मैं पसन्द हूँ। तो इस तरह... (रुक जाता है, जब वो नहीं की मुद्रा में सर हिलाती है) क्या?
सावी : (वैसे ही बैठी है) तुम मेरी बात नहीं समझे !
नरेन्द्र : (घबराते हुए) तुम्हारा मतलब है कि तुम्हें अब रुक्मांगद पसन्द है, क्योंकि उसका चरित्र अच्छा है। (वो सर हिलाती है, नरेन्द्र क्रोधित हो जाता है) जब तुम बात करती हो तब भी मैं तुम्हें समझ नहीं पाता। तुम्हीं ये कहती हो। तो फिर मैं तुम्हें कैसे समझूँगा जब तुम इशारों से बात करोगी? अच्छा एक बात बताओ? वो हमारे बचपन की बातें रहने दो ! क्या अब तुम मुझे पसन्द करती हो?
(मेज़ से उठकर उसके सामने खड़ा हो जाता है।)
सावी : (उसे नज़रअंदाज़ करते हुए, दर्शकों को देखते हुए)
कुछ यादें अंधेरी सुरंग में जुगनुओं सी चमकती हैं। एक अरसा हो गया इस बात को। मैंने वो नीले रंग का लहंगा पहना था। उस दिन हम सबने आम खाये थे। आमों का रस निकालने के बाद गुठलियाँ फेंकने का काम मुझे सौंपा गया था। मेरा ध्यान कहीं और ही था। मैं उन्हें फेंकने की बजाए कागज़ में लपेटकर बाहर चबूतरे पर बैठ गयी थी। तभी तुम दोनों को आते देखा। शायद तुम लोग लाइब्रेरी से आ रहे थे। उसके हाथ में किताब थी, जिसे वो पढ़ते-पढ़ते आ रहा था। तुम उसके साथ थे, इधर-उधर देखते हुए, बड़े बेमन से चल रहे थे। पता नहीं मुझे क्या सूझी, मैंने एक गुठली उठायी और तुम पर दे मारी (वो हाथ उठाकर फेंकने का उपक्रम करती है, वो जल्दी से पीछे हट जाता है) लेकिन वो तुम्हारे आस-पास भी नहीं पहुँची। फिर मैंने दूसरी फेंकी (दोनों फिर वही उपक्रम दोहराते हैं) वो तुम्हारे सामने जाकर गिरी। वो चलता रहा, वैसे ही पढ़ते हुए। लेकिन तुम बिल्कुल चौंक गये थे। और चारों तरफ देखने लगे। तब मैंने तीसरी गुठली फेंकी। (फिर वही मुद्रा, वो और पीछे हटता है और मंच के आखिर तक दर्शकों के बायीं ओर चला जाता है।) इस बार (धीरे से हँसती है) बिल्कुल ठीक निशाना लगा।
(वो उसे देख रही है, और बायीं ओर एक और दृश्य सामने आ रहा है- रुक्मांगद धीरे-धीरे चल रहा है। उसके हाथों में किताब है (काल्पनिक) नरेन्द्र उसकी बायीं ओर है। वो चलते-चलते अचानक चौंक जाता है, जैसे उस पर कुछ गिरा हो, कपड़ों को झाड़ता है और गु़स्से में चारों तरफ देखता है। रुक्मांगद कमीज़ और पजामा पहने है, उसकी मूँछे नहीं हैं।)
नरेन्द्र : ये गन्दी गुठली किसने फेंकी? (अगली गुठली रुक्मांगद पर आकर गिरती है।) देखो फिर से- (आस-पास देखता है, सावित्री ताली बजाकर ज़ोर से हँस रही है) शैतान की बच्ची ! (उसकी तरफ दौड़ता है, वो उससे बचकर भागती है और मेज़ के चारों तरफ दोनों दौड़ते हैं। तीसरे चक्कर में वो उसे पकड़ लेता है।) पकड़ लिया। हम पर गंदी गुठलियाँ फेंक रही थी। (अचानक रुक जाता है) अरे ! (उसके पाँव डगमगाते है, और वो उसकी बाँहों में झूल जाती है।) क्या हुआ तुम्हें? (वो गिर जाती है, नरेन्द्र बुरी तरह से डर गया है)
रुक्मांगद... (वो अपने आस-पास के माहौल से बेखबर चलता जा रहा है। उसके पास आता है) अरे रुक्कू, जल्दी आ यार, देख इसे क्या हो गया। (वो अपनी किताब बन्द कर नरेन्द्र की ओर देखता है, नरेन्द्र सावी की ओर इशारा करता है!) मुझे नहीं इसे देख। मैंने कुछ नहीं किया, क़सम से। वो भागी मैंने इसका पीछा किया और पकड़ लिया, फिर... (अब रुक्मांगद उसे देखता है। अपना हाथ बढ़ाकर उसकी साँस की जाँच करता है और हँसने लगता है।)
रुक्मन : उसे कुछ नहीं हुआ है। भाग रही थी। बस ज़रा-सा चक्कर आ गया है। ज़रा इसे हवा कर दो, अभी उठ जायेगी। (वापस जाने लगता है।)
नरेन्द्र : तुम आकर ज़रा इसे पकड़ो तो जिससे मेरा हाथ ख़ाली हो उसे हवा करने के लिए। (उसे रुक्मांगद को थमा देता है) मैं इसे हवा करूँ? तुम्हारे पास रूमाल है?
(रुक्मांगद सिर हिलाता है) तो मैं कैसे इसे हवा करूँ? (इधर-उधर देखता है) यहाँ कोई भी नहीं है। मैं इसके लहंगे से ही... (और उसके कहते-कहते ही रुक्मांगद सावी के चेहरे पर कुछ देर फूँकता है)
रुक्मन : लो मैंने इसे हवा दे दी है। अब ये उठ जायेगी। (वो उसे उठने देता है, वो अपनी आँखें खोलती है। उसके चेहरे पर भय से पसीना आ गया है।) चलो हम चलते हैं। वो अपना पसीना पोछ लेगी। (अपनी किताब उठाता है और दायें से निकल जाता है।)
(ये ‘यादों का दृश्य’ खत्म होता है, वो दोनों पास खड़े हैं)
सावी : तुम्हें याद है? (अपने माथे से पसीना पोंछती है)
नरेन्द्र : (ठण्डी साँस भरता है) अच्छी तरह से याद है, उस दिन मुझे लगा कि तुम नहीं बचोगी। मेरे तो प्राण ही सूख गये थे। मुझे लगा कि मेरी वजह से ये सब हुआ। (बात बदलता है) ख़ैर, उस दिन तुम ढोंग कर रही थी ना? वो जब तुमने काँप कर आँखें बन्द कर ली थीं और गिर पड़ी थी, वह ढोंग ही था ना।
सावी : नहीं?
नरेन्द्र : फिर तुम काँप क्यों रही थी?
सावी : (मुस्कुराती है) जब तुमने मुझे पकड़ा। मेरा सारा शरीर बिल्कुल ठण्डा हो गया था और मेरी आँखें अपने आप बन्द हो गयी थीं।
नरेन्द्र : (अविश्वास से) बकवास मत करो, उस वक़्त तुम बच्ची थी।
सावी : मैं पूरे बारह साल की थी।
नरेन्द्र : (उसे गौर से देखता है, जैसे सारी बात समझ में आ जाती है। खुश होकर मुस्कुराता है।) तो तभी से तुम...।
सावी : (इशारे से उसे आगे बढ़ने से रोकती है, खुद पीछे हटती है।) नहीं, नहीं, उस वक़्त मैं ऐसी बातें नहीं समझती थी।
नरेन्द्र : (विजयी भाव से...) ये मुझे बता रही हो। बदमाश !!
(उसका हाथ पकड़ता है, उसे अपनी तरफ खींचने ही वाला है कि... दर्शक हाथ में परदा लिए दौड़कर आता है और परदा उनके सामने कर देता है। वो तीनों दर्शकों से छिप जाते हैं। ‘दर्शक’ हक्का-बक्का, परेशान-सा सिर्फ़ ‘श् ! श् ! श ! शः’ कह रहा है। और सर हिलाकर सूत्रधार को बुलाने का इशारा करता है)
सावी : (परदे के पीछे से) नहीं, छोड़ो मुझे, सुनो, मुझे पूरी बात तो कहने दो।
(परदे के नीचे से सावी और नरेन्द्र के पाँव दिख रहे हैं, और दर्शक के भी जो नपे हुए कदमों से उनके साथ चल रहा है, परदा थामे ! दर्शकों से परदे के पीछे का दृश्य छिपा है। जब नरेन्द्र और सावी चले जाते हैं, दर्शक मंच के बीच में दर्शकों के सामने आता है और परदा ज़ोर से झाड़ता है। सूत्रधार सामने आता है (वो हँस रहा है)
सूत्र : तुम बहुत जल्दी उतावले हो जाते हो। उस भली औरत को अपनी बात भी पूरी नहीं करने दी।
दर्शक : (गु़स्से में)... वो... क्या कहा तुमने?
सूत्र : वो भली औरत, वो पतिव्रता...।
दर्शक : (और भी गु़स्से में) तुम कहते हो कि तुम एक नाटककार हो, क्या तुम शब्दों के अर्थ भी नहीं समझते? पतिव्रता ! ये उसे पतिव्रता कहता है।
सूत्र : हाँ, मैं उसे पतिव्रता कहता हूँ। इसमें ग़लत क्या है?
दर्शक : (आवाज़ ऊँची करता है) क्या तुम पतिव्रता का मतलब समझते हो?
सूत्र : (बहुत आसानी से जवाब देता है) पतिव्रता वो होती है जो अपने पति के पद-चिह्नों पर चलती है।
दर्शक : वो उसका शाब्दिक अर्थ है। लेकिन... ये इसका ! इसका क्या मतलब है? (गु़स्से से झुँझलाया हुआ है, क्योंकि वो अपनी बात ठीक से नहीं कह पा रहा है।) मेरा मतलब है कि क्या तुम ‘उस’ मतलब का मतलब समझते हो?
सूत्र : (पूरी तरह से असमंजस में पड़ जाता है) ‘उस’ मतलब का मतलब।
दर्शक : (समझाते हुए) किसी के पद-चिह्नों पर चलने का अर्थ क्या होता है?
सूत्र : अभी खुद देखा न तुमने। वो घर पर बिल्कुल वही कर रही थी, जो उसका पति दफ़्तर में कर रहा था। पद-चिह्नों पर चलने का और क्या मतलब होता है?
दर्शक : दूसरे मर्द के साथ ऐश करना।
सूत्र : (आश्चर्य से) ऐश !!
दर्शक : (धीरज खो बैठता है) देखो, तुम्हें अपने नाटक में इसे दिखाने में कोई शर्म नहीं आती होगी। लेकिन मैं तो ये बात अपनी ज़ुबान पर भी नहीं ला सकता। एक शादीशुदा औरत को पवित्र होना चाहिए।
सूत्र : तो क्या यह पवित्र नहीं। ज़रा अपने दिमाग़ पर ज़ोर डालो, वो शादी के पहले के दिनों की बातें कर रहे थे। इतना तो समझ में आया ना? तुम कैसे दर्शक हो, पूरी बात सुने बिना ही आलोचना करने लगते हो।
दर्शक : (तिरस्कार भरी आवाज़ से...)
मुझे कुछ नहीं सुनना। और देखना तो बिल्कुल ही नहीं है। तुम नाटककार कुछ और लिख ही नहीं सकते। वही घिसी-पिटी कहानी, एक आदमी और एक औरत ! पहले लोग लिखते थे कि वो कैसे पास आते हैं। और आज, वो पास आने के बाद क्या करते हैं, इस पर कलम चलाते हैं।
सूत्र : औत तुम सब इसका खूब मज़ा लूटते हो ! हा, हा, हा।
दर्शक : (चिढ़ते हुए) मज़ा !! मुझे तो उबकाई आ रही है। कितना घिनौनापन है... जानवरों की तरह।
सूत्र : (उसे शान्त करने के लहजे में) अब सुनो भी। अच्छा छोड़ो, मैं तुम्हें जीवन का एक मूल सिद्धान्त बताता हूँ।
दर्शक : कौन सा सिद्धान्त?
सूत्र : वो सिद्धान्त जो सारे विवादों का अन्त है। उबकाई, घिनौनापन, जानवर... ऐसे शब्दों में ही घिरे रहोगे तो कभी बाहर नहीं निकल पाओगे। यहाँ आओ। (उसका हाथ पकड़ कर मंच के आगे तक आता है, और अपने हाथ से शून्य में अर्धवृत्त बनाकर मानो सभागार ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड दिखा रहा हो।) ये सम्पूर्ण सृष्टि, जिसमें मानव का जन्म हुआ है, जिसकी उत्पत्ति और विकास जिस पर निर्भर है, ये उसी से सम्भव है जिसे तुम पाशविक वृत्ति कहते हो। सच तो ये है कि यह पाशविक वृत्ति इस सृष्टि का एक नियम है जिसका एकमात्र उद्देश्य सृष्टि के अस्तित्व को बनाकर रखना और इसे चलाना है। सारे जानवर सिवाय मनुष्य के सिर्फ़ इसी नियम का पालन करते हैं। लेकिन हम मनुष्यों ने इसे एक तमाशा बनाकर रख दिया है। ये मर्द के लिए एक आदत बन गयी है, और औरत के लिए एक व्यवसाय। इसलिए आइन्दा, कभी किसी जानवर को अपने नैसर्गिक गुणधर्म का निर्वाह करते देखो तो ख़ामोशी से सर झुकाकर आगे बढ़ लेना। और अपनी मनुष्यता का प्रदर्शन मत करना !! उपदेश देने मत लग जाना। अब देखो ये नाटक कैसे आगे बढ़ता है। (दर्शक ख़ामोशी से उसके पीछे चलता है, दोनों मंच पर गोलाई में एक चक्कर पूरा करे हैं।) मैं तुम्हें दिखाता हूँ कि ये दो पाँव का जानवर क्या कर रहा है? अपने कमरे में बैठकर कोई योजना बना रहा है। अब ख़ामोशी से ज़रा उसके ख़यालों को सुनो, जो उसके ज़हन से बाहर फूट रहे हैं।
(जब वो मंच के किनारे आते हैं, मेज़ के सामने धोती परदे की तरह पकड़ते हैं और जब हटाते हैं, प्रह्लाद मेज़ के पीछे की कुर्सी पर बैठा है। सूत्रधार दर्शक को ख़ामोश रहने का इशारा करता है और उसे बायें से साथ लेकर निकल जाता है।)
(प्रह्लाद बेहद आवेश में बोल रहा है, लेकिन एक भी शब्द सुनायी नहीं दे रहा है। पर उसकी भाव-भंगिमा, मुद्रा बिल्कुल ऐसी है जैसे कोई आदमी बहुत गु़स्से में ज़ोर-ज़ोर से बोल रहा हो।)
(कुछ पलों के बाद दर्शक दबे पाँव, कान लगाकर सुनने की मुद्रा बनाकर आगे आता है और मंच के बीच तक पहुँच जाता है। सूत्रधार दौड़कर उसे रोकता है)
सूत्र : (धीरे से) शः, शः!! बिल्कुल चुप, उसे अपनी बात कहने दो। सुनो।
दर्शक : (झल्लाकर उसे रोकता है) क्या ख़ाक सुनूँ। उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं फूट रहा है।
सूत्र : (आश्चर्य से) लेकिन ये तो बहुत देर से बोल रहा है।
दर्शक : (उसी तरह) लेकिन मैंने कुछ नहीं सुना।
सूत्र : (जैसे अचानक बात समझ में आती है) अच्छा ! तो ये बात है। रुको (लिखता है) मैं भूल गया था कि मुझे पहले लिखना होगा ताकि तुम पात्र के शब्दों को सुन सको। चलो अब चलते हैं।
(उसे खींचता है, पहले की तरह... बाहर चले जाते हैं।) अब तुम सब कुछ सुन सकोगे ! (दोनों बाहर निकल जाते हैं)
प्रह्लाद : (उसके हाव-भाव उसके संवाद की तरह बहुत ही अतिरंजित हैं)
मैं, मैं उसे दोनों टाँगों से पकड़कर अपने सिर के ऊपर से घुमाऊँगा और उसे बीच में से चीर दूँगा। वो सोचता है, वो मुझसे ज़्यादा होशियार है। मैं उसका सिर पकड़कर चट्टान पर दे मारूँगा, और उसका भेजा निकालकर उसके ऊपर ट्रैक्टर चला दूँगा। हाँ, ट्रैक्टर।
वह उसे मुझसे छीनना चाहता है ना? देखता हूँ कैसे छीनता है? मैं उस पर लात जमाऊँगा, साला फु़टबॉल की तरह पिटेगा ! (उठता है) और वो (उसकी नकल उतारता है) मुझे ‘नये ज़माने का मूर्ख’ कहती है। लेकिन ये कहती हुई वो कितनी प्यारी लगी थी। उस वक़्त ऐसा मन हुआ था कि उन शब्दों को उसके गले में ही पकड़ लूँ और उसे भींच कर उसकी हड्डियों का चूरमा बना दूँ। हाँ जाने दो उसे आज उस बुड्ढे के साथ फ़िल्म देखने। उस सड़े हुए खूसट के साथ बैठकर फ़िल्म का मज़ा लेने दो। लेकिन कल वो जान जायेगी कि मैं किस मिट्टी का बना हूँ। कल हर हाल में हड़ताल होकर रहेगी। हम मोर्चा निकालेंगे। वो देखने आयेगी ना। तब उसे पता चलेगा कि असली नायक कौन है, मैं या वो घिसा हुआ टायर। हज़ारों लोग मेरे पीछे होंगे। सामने से पुलिस आ जायेगी। हाँ, हाथों में लाठियाँ लेकर। वो सोचेगी कि मैं डर जाऊँगा। लेकिन मैं आगे बढ़ता रहूँगा। पुलिस लाठियाँ चलायेगी और मेरे हाथ में जो भी हथियार आयेगा उसे लेकर पुलिस पर टूट पडूँगा। वो अपनी आँखों से यह दृश्य देखेगी। (अपने दोनों हाथों से कुर्सी उठाता है, मंच के बिल्कुल आगे आ जाता है। उसे अब हथियार की तरह लहरा रहा है।) सैकड़ों, हाँ सैकड़ों पुलिस वाले मेरे हाथों जख़्मी होंगे और मै। चिल्लाऊँगा आगे बढ़ो ! पुलिस से मत डरो। और वो मुझे देख रही होगी। तब वो क्या सोचेगी। हा...हा...हा। जब वो मेरी बहादुरी को देखकर खुश हो रही होगी तभी मेरे सिर पर पीछे से वार होगा। हाँ, मुझ पर वार होगा। हे प्रभु ! (अपना चेहरा ऊपर की तरफ उठाता है) कृपा करना। मुझ पर वार होना ही चाहिए। मेरे हाथ से हथियार छूट जायेगा। (कुर्सी नीचे रखता है।) और मैं खून से लथपथ ख़ाली हाथ ही अपने दुश्मन पर टूट पडूँगा। (दूसरी कुर्सी की तरफ जाता है।) मेरे पाँव बुरी तरह लड़खड़ा रहे हैं। मेरे सर से खून बह रहा है। मगर मैं जीभ से उसे चाट लेता हूँ और तब मेरे भीतर एक नयी ऊर्जा का संचार होता है। मैं पूरे साहस के साथ लड़ता हूँ। मेरा सर चकरा रहा है। और मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है। लेकिन मैं फिर आगे बढ़ता हूँ। (दूसरी कुर्सी पर बैठ जाता है, आँखें बन्द कर लेता है) तब वो दौड़कर मेरे पास आएगी और मेरे रूमाल से मेरे सिर पर पट्टी बांधेगी। और वो रूमाल खून से भर जाएगा। (अपनी जेब से रूमाल निकाल कर बांध लेता है। रूमाल पर खून के धब्बे हैं।) वो जैसे ही मेरा सिर थामेगी, मैं गिर जाऊँगा। (वो मूर्च्छित होने का अभिनय करता है। उसके चेहरे पर मुस्कान है।)
(सूत्रधार दर्शक को साथ लिए जल्दी से मंच पर सामने आ जाता है, अपने हाथ में धोती का एक सिरा पकड़े। दूसरा सिरा दर्शक को पकड़ाता है, दर्शक यन्त्रवत उसका साथ देता है। मेज़ के पास पहुँच कर सूत्रधार परदा खींच लेता है और दर्शक को साथ लेकर चला जाता है। सावित्री और नरेन्द्र सामने मेज़ पर दर्शकों की ओर से दायीं ओर बायीं तरफ बैठे हैं, दोनों को एक-दूसरे की उपस्थिति से अनभिज्ञ जान पड़ते हैं। इसके आगे सभी पात्र कोई संवाद या आपसी बातचीत नहीं करते बल्कि सिर्फ़ अपने विचारों में खोए हुए अपने आप से ही बातें कर रहे हैं।)
सावी : इस नरेन्द्र से मैं कैसे कहूँ?
नरेन्द्र : वो कहती है कि जब वो छोटी थी तो उसे रुक्मांगद पसन्द नहीं था क्योंकि वो अच्छा लड़का था।
सावी : जब मैंने कहा कि वो ‘मासूम है’, उसे मेरी बात का मतलब समझ नहीं आया। मैंने कहा था कि मुझे बचपन में उसका व्यवहार अच्छा नहीं लगता था और वो समझा...।
नरेन्द्र : मैं अच्छा लड़का नहीं था। इसका यही तो मतलब है कि वो मुझे अधिक पसन्द करती थी।
सावी : नरेन्द्र ने ये समझा कि इसका मतलब है कि मैं उसे पसन्द नहीं करती थी। उसे समझ में ही नहीं आया कि मैं क्या कह रही थी?
नरेन्द्र : उस उम्र में वो क्या जानती थी कि अच्छे चरित्र का क्या अर्थ होता है?
सावी : वो हमेशा पढ़ता रहता था, अपनी सारी परीक्षाओं में अव्वल आता था। हर साल कितने ईनाम उसे मिलते थे।
नरेन्द्र : रुक्मांगद किताबी कीड़ा था और मैं फ़ेल होने में अव्वल था ! क्या वो सिर्फ़ इन्हीं बातों को चरित्र मानती है।
सावी : जब उसके हाथों में किताब होती थी तो वो मेरी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखता था।
नरेन्द्र : ये नामुमकिन है कि उसे वो पसन्द होगा ! क्यों? जब वो उस पर गिरी थी तो वो कैसे उससे दूर भाग खड़ा हुआ।
सावी : उसकी इन्हीं हरकतों पर मैंने ठान लिया था, कि वो मुझे देखे !
नरेन्द्र : (मुस्कुरा रहा है) उस दिन वो मेरी बाँहों में किस तरह सूखे पत्ते-सी काँप रही थी।
सावी : (मुस्कुरा रही है) उस दिन जब मैंने वो सब किया, ये गधा नरेन्द्र कितना डर गया था। और कैसे रुक्कू-रुक्कू पुकारते हुए रोने लगा था।
नरेन्द्र : वो बेहोश हो गयी थी। और उसके मुँह से बस इतना ही निकला, ‘ज़रा इसे हवा दे दो !’ और हाथ झाड़कर चलता बना।
सावी : उसे कोई बात विचलित नहीं करती थी। कितने आराम से उसने कहा था, ‘इसे कुछ नहीं हुआ है।’ बस ज़रा इसे हवा कर दो।
नरेन्द्र : कितना बेदर्द है वो ! सिर्फ़ मेरी वजह से ही सावी की जान बच गयी थी।
सावी : वो किस अन्दाज़ से अपनी बात कहता है। और ये नरेन्द्र हमेशा उसका हुकुम बजाता था।
नरेन्द्र : आज भी उसे दुनियादारी की कोई समझ नहीं है।
सावी : नरेन्द्र का अपना कोई दिमाग़ नहीं है। (सोचती है) उसे मैं कैसे बताऊँ?
नरेन्द्र : (विचार कौंधता है...) मुझे पता है, मुझसे खुलकर कहने में शर्माती है।
सावी : मैंने कहा उसके स्पर्श से मेरा बदन सर्द हो गया था। वो सोचता है कि इसका मतलब है, मैं उससे प्यार करती हूँ। और अब जब मैं अकेली होती हूँ और उसे आने को कहती हूँ, वो समझता है कि मैं उससे प्यार करती हूँ।
नरेन्द्र : क्या कुछ और कहने की ज़रूरत है। जब उसने कहा कि मेरे स्पर्श से उसका बदन सर्द हो गया था। मैं जान गया कि वो मुझसे प्यार करती है।
सावी : वो नहीं समझता कि मैं उसे यहाँ क्यों बुलाती हूँ, जब मेरा पति घर पर नहीं होता। (मुस्कुराती है)
नरेन्द्र : (विजयी भाव से) और अब? ‘तुम किसी भी वक़्त आ सकते हो, जब वो घर पर नहीं हों। लेकिन उनके लौटने से पहले तुम्हें जाना होगा।’ किस अन्दाज़ से वो मुझे बुलाती है। लेकिन अगर पूछता हूँ ते ‘न’ कहती है, शर्माती है। (मुस्कुराता है)
सावी : आज मुझे सारी बात साफ़ कर लेनी है। (गहरे विचार में डूब जाती है)
नरेन्द्र : आज हम सारी बातें साफ़ कर लेंगे। (गहरी सोच में)
(सूत्रधार रुक्मांगद को पहले की तरह जल्दी से लाता है, पीछे की तरफ कुर्सी के पास ले जाता है। और मुड़ता है तो दर्शक को बाएँ से निकलते हुए देखता है। उसे वापस मंच पर लाता है। और इशारे से चुप रहने को कहता है।)
रुक्मन : (अपने आप से बातें करता हुआ) मैंने कहा, मुझे सिनेमा जाना है। क्यों? क्योंकि मुझमें घर जाने की हिम्मत नहीं है। मैं वहाँ कैसे जाऊँ, मुझे पता है कि मेरे पीछे नरेन्द्र वहाँ आता है। लेकिन वो क्यों न आये, मेरे बचपन का दोस्त है। लेकिन फिर भी, जब सावित्री घर पर अकेली होती है...? मैं जानता हूँ। वो मुझसे प्यार करती है। मुझे इसमें कोई शक नहीं ! (दुःखी स्वर में कहता है) मगर फिर भी रोज़ उसके सामने आने में कितनी शर्मिन्दगी महसूस करता हूँ। उसने मुझसे शादी की क्योंकि मैं मेधावी था। वो समझती थी कि मैं बहुत आगे जाऊँगा ! मगर अब देखो, सड़ रहा हूँ यहाँ। (सर हिलाता है) और मैंने उससे कहा कि उसके साथ सिनेमा जाऊँगा। बेवक़ूफ़ ! मुझे अपनी सावित्री का साथ चाहिए इस लिपीपुती गुड़िया का नहीं। मैं कैसा मर्द हूँ? अड़तालीस साल की उम्र में ही बूढ़ा हो गया हूँ। अपनी मर्दानगी खोकर किस मुँह से सावित्री का सामना करूँ? इसीलिए... (सोचता है) मुझे ये गुड़िया नहीं चाहिए।
प्रह्लाद : (आँखें बन्द कर, अपने आप से बात कर रहा है) अगर वो कल जुलूस देखने नहीं आयी तो ! और अगर मुझे चोट नहीं आयी तो? मैं उसे क्या मुँह दिखाऊँगा?
सावी : (अपने आप से) मुझे पता है उसकी हालत क्या है? इसीलिए तो उससे प्यार करती हूँ। ये बात नरेन्द्र को कैसे समझाऊँ?
नरेन्द्र : (अपने आप से) उससे कैसे कहूँ...। बस वो एक बार कह दे कि मुझसे प्यार करती है ! मुझे कुछ और नहीं चाहिए।
रुक्मन : (अपने आप से) किसी तरह उससे कहना ही पड़ेगा। ‘तुम चाहे कुछ भी कहो, मगर ऐसा कुछ भी मत कहना जिससे मेरी मर्दानगी को चोट पहुँचे।’
सावी : (अपने आप से) जब वो दोनों साथ होते हैं, ये आदमी अब भी वैसा ही पिद्दी सा लगता है !! बचपन वाला !!
नरेन्द्र : (अपने आप से) उसे क्या सुख मिला है रुक्मन से ! सालों पहले उसे गोल्ड मेडल मिला था। उसका क्या फायदा? भले ही मैं परीक्षा में पास नहीं हुआ हूँ। मगर आज इतने सारे लोग मेरे आगे झुकते हैं। (अचानक) क्या इसीलिए वो मुझ पर इतनी मेहरबान है।
प्रह्लाद : (अपने आप से) वो नहीं जानती कि उस बेवकूफ़ बूढ़े के दिन पूरे हो चुके हैं, अब उसे और कुछ नहीं मिल सकता। जबकि आने वाला भविष्य मेरा है। लेकिन ! लेकिन अगर कल हड़ताल नहीं हुई तो?
(दर्शक अपने हाव-भाव से, सूत्रधार से पूछता है- ये सब क्या चल रहा है, ये क्या हो रहा है?
सूत्रधार, सब ठीक हो रहा है। ऐसा संकेत करता रहता है।)
सावी : (अपने आप से) एक मर्द को सफलता का प्रतीक होना चाहिए। सफलता का प्रतीक ! नरेन्द्र नहीं समझता कि यही कारण है कि मैं उसे पसन्द करती हूँ।
रुक्मन : (अपने आप से) कभी-कभी, जी चाहता है कि अपने आपको ख़त्म कर लूँ।
प्रह्लाद : (अपने आप से) अगर मैं पुलिस से लड़ते-लड़ते मर जाऊँ तो? (विजयी भाव से) मेरे मरने के बाद ही सही वो मुझे मान तो जायेगी।
नरेन्द्र : (अपने आप से) अगर वो और ज़्यादा नख़रे करेगी तो मैं उसे दिखा दूँगा, मैं कौन हूँ? ये बला, अपने आपको समझती क्या है। मैं उसके लिए मर रहा हूँ?
सावी : (अपने आप से) ये कौन समझेगा कि मुझे क्या चाहिए?
प्रह्लाद : (अपने आप से) ये बेवक़ूफ़ औरत मेरा अपमान करती है। क्योंकि वह ये सोचती है कि मैं इसके लिए पागल हूँ ! मैं उसे दिखा दूँगा !!
(सोच में डूब जाता है)
नरेन्द्र : (अपने आप से) जब मेरे जैसा आदमी किसी को पुकारता है तो उसे दौड़कर आना चाहिए। ये नहीं जानती कि वह कितनी ख़ुशक़िस्मत है।
रुक्मन : (अपने आप से, बड़ी तकलीफ से) मैं किससे कहूँ। कैसे कहूँ?
सूत्र : (अपनी जगह से बिना हिले) मुझसे कहो। मैं सुनूँगा।
रुक्मन : (अवाक है) तुम... तुम कौन हो?
सूत्र : मैं वो हूँ जिसने तुम सबको जन्म दिया है। मुझसे कहो।
(बाकी तीनों उसे देखते हैं, जैसे अभी-अभी नींद से जागे हैं)
रुक्मन : (आशा से) मैं कहूँगा, कम-से-कम एक बार ज़रूर तुम्हें सब कुछ बताऊँगा। (सावित्री की ओर देखकर, थकी हुई मुद्रा में हाथ जोड़ता है) मेरी बात सुनो। तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ, मुझे औरत नहीं चाहिए। मुझे पत्नी चाहिए।
(बैठ जाता है, जैसे किसी मुश्किल काम को अंजाम दे दिया हो। अपनी जगह पर निढाल हो जाता है। सावी उसकी बात सुनकर काँप उठती, जैसे उस पर कोई आघात हुआ हो। वह मेज़ से उठकर कुछ दूर खड़ी हो जाती है।)
प्रह्लाद : मुझे भी कहने दो। अब मेरी बात सुनो ! (जब सूत्रधार उसकी तरफ पलटता है, सावी की तरफ इशारा करके) मैं मर्दानगी से भरा एक नौजवान हूँ। मुझे औरत चाहिए, पत्नी नहीं !!
(सावी मंच पर पीछे की तरफ तेज़ी से हटती है ! भयभीत सी, जैसे कुछ सुझाई नहीं दे रहा है। जब नरेन्द्र उसके ऊपर हँसता है, सूत्रधार उसे घूरता है।)
नरेन्द्र : जो मैं चाहता हूँ क्या तुम मुझे दे सकते हो। मुझे दोनों चाहिए, मुझे एक औरत चाहिए और एक पत्नी भी। लेकिन किसी दूसरे आदमी की पत्नी और किसी दूसरे आदमी की औरत को जीतना चाहता हूँ मैं।
सूत्र : (दर्शक को रोकता है, जो आगे आकर नरेन्द्र को गु़स्से में जवाब देना चाहता है। सावी की तरफ़ इशारा करते हुए।) उसे अपनी बात कहने दो। तुम तब तक नहीं बोल सकते, जब तक उसकी बात ख़त्म न हो जाए।
दर्शक : (तिलमिला जाता है) क्यों? क्या तुम क़सम खाकर आये हो कि मुझे औरत के मुँह से भी वाहियात बातें सुनवाओगे।
सूत्र : जो बातें कही नहीं जा सकती, वो वाहियात ही हैं ! (मुस्कुराते हुए) लेकिन ये जो कह सकती है वो बातें वाहियात नहीं रह जातीं। तुम खुद उसके पास जाकर उससे पूछ सकते हो। अगर वो नहीं कह पायेगी तो तुम्हारे कान में धीरे से कह देगी ! ठीक है ! जाओ, जाओ, घबराओ मत। हा...हा...हा...।
(दर्शक अपने आपको अपमानित महसूस करता है और सूत्रधार की चुनौती स्वीकार करते हुए सधे हुए तेज़ कदमों से सावी के पास जाता है। जैसे ही वो उसके पास पहुँचता है, वो तेज़ी से पलटती है और दोनों आमरे-सामने हैं। दर्शक कुछ पीछे हटता है। लेकिन सावी पूरे आत्मविश्वास से आगे बढ़ती है। और उसका हाथ अपने हाथ में ले लेती है।)
सावी : मुझे एक मर्द चाहिए ! (जब वो अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश करता है, वो और मज़बूती से पकड़ती है और उसे रुक्मांगद के सामने खड़ा कर देती है।)
मुझे मर्द की बौद्धिकता पसन्द है इसीलिए इस आदमी को चाहती हूँ। (रुक्मांगद की तरफ इशारा करती है, फिर तेज़ी से उसे पलटाकर प्रह्लाद के सामने ले जाती है ये कहते हुए...।) मुझे मर्द की मर्दानगी की ख़्वाहिश होती है, (प्रह्लाद की ओर इशारा करते हुए) इसीलिए मैं इस आदमी को चाहती हूँ ! (दर्शक को फिर नरेन्द्र के पास ले जाती है।) मैंने कहा ना कि मुझे एक मर्द चाहिए, नहीं कहा? (दर्शक को नरेन्द्र के सामने लाकर...) ऐसा तब जब मर्द इस संसार में सफलता का प्रतीक हो, तभी वो इच्छा मुझमें जगती है। (नरेन्द्र की ओर इशारा करते हुए) इसीलिए मैं इस आदमी को चाहती हूँ !
(दर्शक को सूत्रधार की ओर धकेलती है...)
हाँ...!! मैं चाहती हूँ, मैं चाहती हूँ मैं चाहती हूँ !! (मंच के बीच खड़ी होकर सिसक उठती है)
(कुछ क्षण सन्नाटा है)
सूत्र : (दर्शक को जो पूरी तरह से हैरान और विचलित दिख रहा है, देख कर हँसता है...) क्या तुम इसे वाहियात कहते हो !
दर्शक : (अविश्वास के साथ...) एक औरत और तीन मर्द...।
सूत्र : (टोकते हुए) इतनी जल्दी नहीं। क्या उसने सिर्फ़ तीन कहा? मुझे नहीं उसे देखो... (दर्शक की बात खत्म होती है। सावी अपना सर हिलाने लगती है...) पूछो उससे, क्या उसने ये कहा कि उसके लिए तीन काफ़ी हैं।
सावी : (सर उठाकर सामने देखती है...) मुझे एक मर्द चाहिए, ऐसा मर्द जिसकी आँखों में ऋतु वसन्त का सौन्दर्य हो। जैसे तुम !!
सूत्र : कौन? मैं?
सावी : नहीं, वो मैं उसे चाहती हूँ।
(सूत्रधार अपनी उंगलियों पर चार गिनता है...)
सावी : तुम मेरी इच्छाओं को नहीं समझ सकते ! उसके लिए तुम्हें मेरी भावनाओं में उतरना होगा। मुझे ऐसा मर्द चाहिए, जिसके हृदय में मेरा स्पन्दन हो ! इसीलिए तुम !
सूत्र : मैं, मैं क्यों?
सावी : हाँ तुम, जिसने मुझे जन्म दिया !!! तुम, सिर्फ़ तुम ही मेरी इच्छाओं को समझ सकते हो।
सूत्रधार : (दर्शक से) तुम इसे ब्रह्मा और सरस्वती की कहानी कहोगे या द्रौपदी और पाण्डवों की?
दर्शक : (गु़स्से से चीखता है) ये तो दुराचार की हद है।
सूत्र : (चीख़ता है) बस करो !
(दर्शक डर जाता है। सूत्रधार की तरफ देखता है)
ये, ये लो !!
(काग़ज़ों को फाड़ने का अभिनय करता है और सारे टुकड़े हवा में उड़ा देता है...) दर्शक बड़े ग़ौर से ये दृश्य देख रहा है। बाकी किरदार मंच पर ढेर हो जाते हैं और उठकर मंच से बाहर चले जाते हैं।
दर्शक : (अचम्भित है) ये क्या कर रहे हो?
सच तो यह है कि ये लोग और इनकी ये वाहियात बातें... (मुड़कर देखता है, कोई नहीं है...) अच्छा तो तुमने इन्हें शर्मिन्दगी से बचाने के लिए ये सब किया।
सूत्र : (नाराजगी से) नहीं ! तुम यहाँ से बाइज़्ज़त निकल सको इसीलिए ऐसा किया।
दर्शक : अपना नाटक फाड़ दिया।
सूत्र : और मैं क्या करता? तुम मेरे पात्रों को चुनौती दे रहे थे। अगर मैं उन्हें न रोकता तो वो तुम्हें शर्म से पानी-पानी कर देते ! तुम्हें बचाने के लिए मुझे अपना नाटक फाड़ना ही पड़ा। सारे पात्र नष्ट हो चुके हैं। इस महान काम को अंजाम देने पर मैं तुम्हें ईनाम देता हूँ। (धोती उसके ऊपर फेंकता है) इसे पहन लो और चले जाओ।
दर्शक : (भारी आवाज़ से) तो नाटक ख़त्म हो गया !
सूत्र : तुमने इसे ख़त्म कर दिया ! (धोती की तरफ इशारा करता है) तुम अब इस परदे को गिरा सकते हो ! (दर्शक बाहर जाता है...) और अगर, यहाँ कोई दर्शक बचा हो तो उसे जगा दो और अपने साथ ले जाओ...।
(दोनों अलग-अलग बाहर निकल जाते हैं।)

कन्नड़ से अंग्रेज़ी अनुवाद : शशि देशपाण्डे

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