22-Mar-2023 12:00 AM
1981
वर्षा
वर्षा तुम्हारी सरसराहट की आवाज़ में
फिर लौटती शाम या भोर की पदचाप
कितनी दृढ़ होती है
ऐसे कि तुममें
वह अपने पुरातन घर लौट रही हो
आश्वस्त होते हैं
अभी-अभी उनींदी आँख खोलते बीज
जब तुम्हारा सौम्य स्पर्श उन्हें पृथ्वी में टटोलता है
हर बार तुम्हें ऐसे पुकारता हूँ
जैसे घर को पुकार रहा होऊँ
हर बार तुम्हें थमते देखता हूँ
जैसे थम जाता है घर का होना।
तरु को
सर्द धुंधलके के दृश्य भरते खालीपन
फेंफड़ों में भरता कोहरे में सिमटा आकाश
दूर अपनी छत से
मुझे दिखता है तुम्हारा वह वृक्ष
पृथ्वी बस एक स्पर्श से
भसभसा कर एक फूल की सूखती पंखुड़ी में सिमट सकती है
विस्मृति के बराबर एक समकालीन हिचकिचाहट भर निःशब्दता के मौन में
कैसे उतरता है पास साँस लेता पहाड़
चुम्बनों में भरी हैं विषाक्त हवा की सिहरनें
अपनी आत्मा की झंखाड़ हुई आकृति
किसी अन्य की पीठ लादते
यह किस राग से झुकता, लिपटता, सिमटता है सबकुछ
जल नहीं, अतीत सींचता है सबसे पुष्ट वृक्षों को
कि अनन्त कटते हुए वृक्षों की कथाओं से भरी इस वसुन्धरा में
कौन कुल्हाड़ी काट सकती है इसे
घूम कर यहीं अन्धकार में
लौटती हैं खोई वस्तुएँ अब तक
न जाने कितने समुद्रों के पार से
जैसे लौटती है तुम्हारी दृष्टि यहाँ
तुम्हारी बहन है वह जो आ रही है
कपड़ों की धूल झाड़ते
हँसते
तुम्हारा भाई
जाग गया है अपनी क़ब्र से
तुम्हारा वृक्ष सिसक रहा है अंधेरे में।
(सन्दर्भ में तोरू दत्त की कविता 'Our Casuarina Tree)
बीज
बीज के हृदय में
पहले पृथ्वी की सबसे आन्तरिक इच्छाएँ खिलती हैं
पहले आकाश अपने स्वप्न भरता है
पहले इन्द्रधनुष अपने रंग पिरोते हैं
नदियाँ भरती हैं गीत
मिट्टी भरती है अपनी सदियों की सजोई स्मृतियाँ
फिर वह होता है हरा
भूखे और दुखी
हम लौटते हैं बीज के पास
कि वह यह सब रहस्य बुदबुदा दे हमारे कान में धीमे से
कि वह हमें लौटाए
पृथ्वी की इच्छाएँ
आकाश के स्वप्न
इन्द्रधनुष के रंग
नदियों के गीत
मिट्टी की स्मृतियाँ
और हमारा नैसर्गिक हरा।