उपन्यासकार का सफ़रनामा शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी से उदयन वाजपेयी की बातचीत
06-Apr-2017 08:36 PM 12491

इस बार जब आया हूँ, दिल्ली बदली हुई है। मुझे लम्बे समय तक वह निर्मल वर्मा की कहानियों से पैदा हुई लगती रही थी जिनकी सड़कों पर गर्मियों के दिनों में धूल के बगूले उठते थे, तेज़ धूप से बचने लड़कियाँ दुपट्टों से अपना मुँह छिपाती थीं। सर्दियों के पास आते ही सूखे और पीले पत्ते चारों ओर उड़ते थे, तितीरी धूप में दिन चमकते थे और कोहरे के रेशे नागरिकों को घेरे रहते थे। पर इस बार यह दिल्ली पुरानी जान पड़ रही है, जहाँ हर घर में, हर हवेली में बात-बात पर फ़ारसी के अशार उद्धृत हो रहे हैं, जहाँ चारों ओर शुरूआती अँग्रेज़ी शासन के चर्चे चल रहे हैं और यह ख़बर ओस की तरह धीरे-धीरे हर कान पर गिर रही है कि हो सकता है नवाब शम्सुद्दीन को फ्ऱेज़र के कत्ल में फाँसी हो जाये। यह दूसरी दिल्ली ऊपर से दिख़ती नहीं पर वह है यहीं कहीं, दिल्ली की सिलवटों में छिपी हुई। यह शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की कहानियों और उपन्यास से पैदा हुई दिल्ली है, जो उन्हीं की जु़बान में पहले भी अफ़वाहों का मुख़्यालय थी, अब भी है। मैं उनसे ही मिलने दिल्ली आया हूँ। जाना इलाहाबाद था, वे रहते वहीं है। पिछले पूरे साल भर से वहीं जाकर उनसे मिलने के मंसूबे बाँधे था। पर इलाहाबाद जाना हर बार टल जाता था। जब हमने ‘समास’ का उपन्यास पर अंक निकालने का निश्चय किया, फ़ारूक़ी साहब से बातचीत को प्रकाशित करना ही हमें भारतीय उपन्यास पर कुछ गम्भीर करने जैसा मालूम हुआ। लगा कि अब इलाहाबाद हो ही आऊँगा। मैंने उनकी अपने पढ़ने के कमरे में बैठे हुए तस्वीर देखी थी। वे चारों ओर से कि़ताबों से घिरे बड़ी-सी कुर्सी पर बैठे लेपटाॅप पर कुछ लिख रहे थे। मैं इलाहाबाद जाने के रास्ते खोज ही रहा था कि फ़ारूक़ी साहब ने बताया कि वे सितम्बर के आखिरी हफ़्ते में अपने बेटी बाराँ के पास दिल्ली आ रहे हैं। उन्होंने मुझसे कहा कि हम दिल्ली में ही गुफ़्तगू कर सकते हैं। बाराँ फ़ारूक़ी जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में अँग्रेज़ी पढ़ाती हैं और जामिया के ही परिसर में अपने परिवार के साथ रहती हैं।
मैं दिल्ली पहुँचा और उसे बदला हुआ पाया।
जामिया जाना कठिन नहीं था पर उसकी गलियों से गुज़र कर उस परिसर तक पहुँचना जहाँ बाराँ जी रहती हैं, कठिन लग ज़रूर रहा था, पर था नहीं। मैं सीढि़याँ चढ़कर घर के दरवाजे़ पर पहुँचा। एक अधेड़ स्त्री ने दरवाज़ा खोल मुझे बाइज़्ज़्त कमरे में बैठाया। फ़ारूक़ी साहब शायद गुसल कर रहे थे। मैं उनका इन्तज़ार करने लगा। इसी बीच वही अधेड़ सौम्य स्त्री मेरे सामने पानी का गिलास रख गयीं। बाद में मैंने फ़ारूक़ी साहब को उन्हें ‘उस्तानी जी’ कहते सुना। कुछ देर बाद बाराँ जी की बेटी कमरे में आयीं और मैंने उनके हाथ में मिठाई का पैकेट रख दिया। मुझे वहाँ जाते समय बिलकुल समझ नहीं आ रहा था कि मैं फ़ारूक़ी साहब को क्या भेंट ले जाऊँ। मैं उन्हीं की कहानियों से प्रेरित हो मिठाई लेकर उनके पास पहुँचा था। वे भीतर चली गयीं।
जल्द ही फ़ारूक़ी साहब आ गये। वे सफ़ेद कुर्ता और पायजामा पहिने थे, उनके चेहरे पर मेरे लिए प्रसन्नता बिखरी हुई थी। वे गोरे और खूबसूरत व्यक्ति हैं। वे अब मेरे सामने थे और मैं यह सोचकर रोमांचित था कि यही वह उपन्यासकार है, जिसने वज़ीर ख़ानम जैसा अनोखा चरित्र जीवन्त किया है। वही नहीं, अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी की दिल्ली की संस्कृति में भी कुछ इस तरह प्राण फूँके हैं कि कम-से-कम अब मेरे लिए वह कोई और ही शहर हो गया है, जिसमें पालकी में बैठ कर कहीं जाती हुई वज़ीर ख़ानम दिख़ती हैं, कहीं नवाब शम्सुद्दीन की सवारी पूरी शान से गुज़र रही होती है, कहीं सड़क किनारे अपने दोस्त से गपियाते ग़ालिब की झलक दिखायी देती है। शायद फ़ारूक़ी साहब और आज की दिल्ली के बीच की पगडण्डी पर चल कर ही मैं उनसे मिलने पहुँचा हूँ।
फ़ारूक़ी साहब ने आगे बढ़कर मुझे गले लगाया और लगभग डाँटते हुए कहा, मिठाई लाने की ज़हमत क्यों की, तुम तो घर के व्यक्ति हो। वे कल देर शाम ही अलीगढ़ से लौटे हैं। सफ़र की और कुछ उम्र की हल्की-सी थकान उनके बैठने के ढ़ंग में महसूस हो रही थी पर उन्होंने जैसे ही बोलना शुरू किया, उनकी सारी ऊर्जा मानो किसी छुपे हुए स्रोत से बाहर आकर हमारे बीच बहने लगी।
उदयन- आपने कहीं लिखा है कि बहुत शुरूआत में आलोचना लिखने से पहले आपने अफ़साने लिखे थे....
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी- ये लड़कपन की बात है। उन दिनों उर्दू अदब में शायरों के अलावा जिन अदीबों का सितारा बुलन्द था, वे अफ़सानानिगार थे। कृश्न चन्दर साहब थे, राजिन्दर सिंह बेदी, इस्मत चुुकताई थीं। उस वक़्त तक कुर्तुलेन हैदर भी काफ़ी हद तक सामने आ चुकी थीं। और भी बहुत से लोग थे। ये सब हम लोगों के लिए घरेलू नाम थे। इनके अफ़साने पढ़ना, इनका जि़क्र करना आम फ़हम था। तब मुझे यही लगा कि अगर आदमी को कलम घिसना है तो उसे अफ़साने लिखने चाहिए। उस समय मेरी उम्र आठ-नौ बरस की थी और यह ख़याल तक नहीं था कि लेखन को पेशा बनाया जाये। कभी-कभार एकाध टूटी-फूटी पंक्ति शेर की लिख ली। जब मैं आठवी कक्षा में था, छोटी-सी पत्रिका निकाली। वो पत्रिका तो खैर क्या थी, पुरानी काॅपियों से पन्ने फाड़कर उन्हें जोड़ देते थे और अपने हाथ से उस पर लिख़ते थे। उसका का उनवान तय किया-‘गुलिस्तान’। उसमें अपने ही अफ़साने, अपने ही किये अनुवाद और हमारी बहन की लिखी कुछ चीज़ें लिख लिया करते थे। उसे हम ही लोग पढ़ लेते थे। जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ, मैंने बकायदा छपने के लिए अफ़साने लिखे।
उदयन- क्या यह सब कुछ प्रतापगढ़ में हुआ, जहाँ आप पैदा हुए थे?
फ़ारूक़ी साहब- प्रतापगढ़ में मैं बहुत छोटा था। ये चीज़ें कुछ आज़मगढ़ में और कुछ गोरखपुर में हुई। आज़मगढ़ में हमारे बाप 1939 में तबादला होकर आ गये थे। तब से 1948 तक हम आज़मगढ़ में रहे। वहीं गोया हमारे बचपन के गुज़रने के ज़माने रहे। उसके बाद हमारे बाप का तबादला गोरखपुर हो गया। हम वहाँ 1953 तक रहे। 1953 तक मैं उन्हीं के साथ गोरखपुर में रहा और बी.ए. करके आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद चला आया। ये सारी कहानियाँ जिनका मैं जि़क्र कर रहा था, दसवीं-ग्यारवीं और उसके बाद मैंने गोरखपुर में लिखीं। उसके पहले गुलिस्तान वाली कहानियों को छपाने का मैंने कभी नहीं सोचा था। बाद की कहानियों में से कुछ छप गयीं, कुछ नहीं भी। उन दिनों एक छोटा-सा उपन्यास भी लिखा था, जिसका नाम ही बड़ा भयानक थाः ‘दलदल से बाहर।’ वह 50-52 पेज का उपन्यास या लम्बी कहानी जैसा कुछ था। इत्तेफ़ाक से वो छप भी गया। उस वक़्त मैं ग्यारवाँ पास कर बारहवें में आया था। वह मेरठ से निकलने वाली एक पत्रिका ‘मयार’ में चार किश्तों में छपा था। फिर एक-दो कहानियाँ ऐसी लिखीं जो मेरे शिक्षकों ने बहुत पसन्द कीं और कहा कि ये तो किसी बड़े लेखक की कहानी की तरह मालूम देती हैं। मैं इतना बड़ा गधा था कि मैंने शुक्रिया तक अदा नहीं किया और कहा कि हाँ साहब, ये मेरी लिखी हुई हैं।
उस ज़माने में जवान लेखकों, अगर वे मुसलमान हुए, के सामने दो ही रास्ते थेः या तो आप लेफ़्िटस्ट हो जाइये या जमाएते इस्लामी की ओर चले जाईए। अगर आप हिन्दू हैं तो आप सोशलिस्ट भी हो सकते थे, कांग्रेस भी एक रास्ता था। हमारे खानदान में ज़्यादातर लोग कुर्तुलिन उलेमा के थे जो गोया कांग्रेस का ही एक रूप था। मुस्लिम लीग के ज़्यादातर लोग पाकिस्तान चले गये। अगर साहित्यिक गतिविधियों के लिए देखा जाए तो न कुर्तुलिन उलेमा काम की थी, न कांग्रेस और न मुस्लिम लीग। साहित्य के लिए या तो आप प्रगतिवाद वालों में जाओ या फिर उस ज़माने में मौदूदी के प्रभाव में जमाएते इस्लामी चल पड़ी थी। वे जवान लोगों से कहते थे कि जि़न्दगी और मज़हब को एक साथ व्यवस्थित करना चाहिए। उनमें और प्रगतिवादियों में कोई खास अन्तर नहीं था, इतना भर था कि प्रगतिशील लोग सामाजिक क्रान्ति की बात करते थे, वे कहते थे कि अदब की सामाजिक उपयोगिता होना चाहिए और उसे लोगों को इंकलाबी प्रोग्राम की जानिब ले जाना चाहिए। इन्क़लाबी प्रोग्राम से उनका मतलब कम्युनिस्ट इन्क़लाब था। जमाएते इस्लामी के लोग कहा करते थे कि चूँकि सारी हुकुमत अल्लाह की है इसलिए अदब भी अल्लाह के लिए ही होना चाहिए। 1950-51 में मैं इन दोनों के बीच डोल रहा था। मैं दोनों के जलसों में उठता-बैठता था।
उदयन- प्रगतिशीलों को उर्दू में तरक्की पसन्द कहा जाता था...
फ़ारूक़ी साहब- हाँ, और उसी के असर में जमाएते इस्लामी वाले खुद को, तामीर पसन्द कहा करते थे। मैं दोनों से भागने लगा। मेरे उपन्यास, या उसे जो भी कहिए, को जिस पत्रिका ने छापा था, उसका झुकाव जमाएते इस्लामी की ओर था। मेरा ख़याल है, दूसरे लोग उसे छापते भी नहीं, क्योंकि न उसमें सामाजिक क्रान्ति थी, न प्रगतिशील सुधारवाद की बात थी, न मज़दूर तबके का जि़क्र था। वो जवान लड़के की कहानी थी, जिसे देहात में थोड़ा-सा रोमांस हो जाता है, वो ख़ुद ही उससे भाग लेता है, उसे उसको पूरा करने की हिम्मत ही नहीं है। फिर वह बड़ा होकर पढ़ने जाता है और उसके दिल में कशमकश चलती रहती है। यहीं पर उसकी कहानी खत्म हो जाती है। वह ठीक-ठीक तरक्की पसन्दों के काम की तो थी नहीं क्योंकि उसमें कोई समाधान नहीं था। उन दूसरे लोगों के लिए वह इसलिए ठीक थी क्योंकि उसमें पाप, प्रलोभन और मुक्ति आदि थे। मेरी उस वक़्त बारह-चैदह साल की उम्र थी, मैं क्या पाप जानूँ और क्या मुक्ति। मेरी बनती कहीं भी नहीं थी, न इनसे, न उनसे। मैंने जब जमाएते इस्लामी के लोगों को छोड़ा, मैं एक कहानी पढ़ कर सुना रहा था जिसमें पाप और मुक्ति का चक्कर था। मैं जैसे ही पाप के दृश्य पर आया, मौलवियों ने कहा, ये आप क्या पढ़ रहे हैं। मैंने कहा कि कहानी पूरी सुन लीजिए फिर आपको मालूम होगा कि क्या हो रहा है। उन्होंने कहा कि नहीं साहब, यह वर्णन तो अश्लील है। मैं बैठ गया और उसके बाद से उनके यहाँ नहीं गया।
उदयन- उन दिनों आप कौन-सी पुस्तकें पढ़ा करते थें, कुछ लोगों के नाम तो आपने शुरू में लिए......
फ़ारूक़ी साहब- अब नाम मुझे याद नहीं आ रहे। लेकिन इन सब विख्यात लोगों का जो भी छपा था, मैंने पढ़ा था। तक़्सीम के पहले राजिन्दर सिंह बेदी साहब की एक-दो पुस्तकें ही छपी थीं। इनका पहला संग्रह ‘गर्हन’ मैंने पढ़ा था, कृश्न चन्दर की ‘फूल सूर्ख हैं’ और एक और कि़ताब मैंने पढ़ी थी। उसी ज़माने में देश का बँटवारा हो गया। मण्टो साहब की कहानियाँ पढ़ीं। इस्मत चुकताई का उपन्यास ‘टेढ़ी लकीर’ मैंने उसी समय पढ़ा था। ऐसा था कि जो हाथ आये, उसे पढ़ डालने का ज़ज्बा था। उन दिनों उर्दू के प्रसिद्ध और अँग्रेज़ी के भी बहुत-से जासूसी उपन्यास पढ़ डाले।
बँटवारे के बाद उर्दू अदब में, और मेरा ख़याल है हिन्दी में भी, बँटवारे का सब लोगों को बुखार-सा आ गया था।
उसमें सभी लोग मारो-काटो लिखा करते थे। इस बारे में बहुत बढि़या बात हसन असकरी ने कही है कि इस साहित्य में कोई दृष्टि नज़र नहीं आती, अगर वे लोग चार हिन्दू मारते हैं तो चार मुसलमान भी मार देते हैं। इनमें हिसाब-कि़ताब चलता है। अगर कोई दिखाना चाहता कि मानवीय त्रासदी हुई है तो उसके आयाम इस कि़स्म के अदब में नजर नहीं आते, अगर इन्सानियत पर कोई अत्याचार हो रहा है, उसके आयाम भी दिखायी नहीं पड़ते क्योंकि इस साहित्य में सन्तुलन दिखाया जा रहा था। वे अख़बारी रपटों जैसी थीं। किसी को ठेस न पहुँचे इसलिए दूसरी तरफ़ के लोगो को भी मार दिया जाता था। वे अफ़साने मैंने बहुत सारे पढ़े। जिस उपन्यास से मैं सबसे ज़्यादा उलझा और जिसे मैंने अधूरा छोड़ दिया, वो था रामानन्द सागर साहब का ‘और इंसान मर गया।’ यह सन् 1951 का उपन्यास था, खूब लम्बा चैड़ा था। उन दिनों कई लोगों ने इस तरह के उपन्यास और कहानियाँ लिखी थीं। कृश्न चन्दर ने बहुत लिखा लेकिन सागर साहब के उपन्यास में अत्याचार और खून-खराबे की हद थी कि आधा पढ़कर मैंने उसे छोड़ दिया।
उदयन- क्या ये रामानन्द सागर वही हैं, जो बाद के वर्षो में बहुत खराब और बाज़ारू फि़ल्में बनाते थे ?
फ़ारूक़ी साहब- हाँ। पर उन दिनों वे प्रगतिशील हुआ करते थे। बहरहाल उन दिनों मुझे यह लगा कि मैं क्या लिखूँ? अगर मुझे समाजवादी क्रान्ति लाना होती तो मैं चार इधर के लोग मारता, चार उधर के। ये मेरी समझ के बाहर था कि मैं नारा लगाऊँ या न लगाऊँ? उन्हीं दिनों कृश्न चन्दर साहब का एक छोटा-सा उपन्यास आया था, ‘रक्खेजागे’, जिसमें गोर्की के ‘माँ’ की तरह की चरित्र लम्बी यातना से गुज़रती है पर वह मजबूत व्यक्तित्व वाली है, वो क्रान्तिकारियों की ख़ुद को दाँव पर लगाकर मदद करती है। मैं उसे पढ़कर बहुत ऊबा। मैंने सोचा, ये क्या बात हुई, यहाँ तो हर चीज़ या तो काली है या सफ़ेद। उनका दूसरा उपन्यास ‘शिकस्त’ कश्मीर की पृष्ठभूमि पर था। वह मुझे बेहतर लगा था पर उसमें रोमांस कुछ ज़्यादा था, शायरी बहुत थी, मुझे उसमें समाजवादी क्रान्ति जैसा कुछ नज़र नहीं आया था। उस ज़माने में उपेन्द्रनाथ अश्क साहब का उपन्यास ‘सितारों के खेल’ बड़ा मशहूर हुआ था। वे पहले उर्दू में लिख़ते थे, जैसा कि तुम जानते होगे। मैं उसे पढ़कर प्रभावित हुआ। वह बड़ी ताकतवर कहानी थी। जि़न्दगी जो आदमी के साथ खेल खेलती है, जिसे लीला कहते हैं, वह भगवान की हो या जिस किसी की, वह उसमें थी। लेकिन वह उपन्यास कहीं पहुँच नहीं रहा था, यह उसकी खास बात थी। उसमें इंसानी ड्रामा था। उन दिनों मुझे कोई चीज़ पसन्द नहीं आ रही थी।
उदयन- बँटवारे का आपका अपना या आपके परिवार के किसी सदस्य का क्या कोई अनुभव था?
फ़ारूक़ी साहब- यह इत्तेफ़ाक ही है कि मेरे खानदान पर बँटवारे का असर कम पड़ा। हमारे लोगों ने सन् 71 में ज़्यादा दुःख उठाये क्योंकि कुछ लोग यहाँ से बंगाल चले गये थे, उनमें से कुछ मरे भी और कुछ लुट गये। सन् 47 में हम लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश में थे। हमारे क़रीबी लोग गाज़ीपुर, आज़मगढ़, बनारस, बलिया, गोरखपुर और बस्ती आदि जगहों पर थे। इनमें से कुछ लोग पाकिस्तान गये ज़रूर लेकिन मेरे घर का और बिल्कुल करीब का कोई नहीं गया। मेेरे नाना मुस्लिम लीग के बड़े नेताओं में थे, वे बनारस के विधायक थे लेकिन वे भी नहीं गये। हमारे बाप के जाने का सवाल ही नहीं था। हमारे चचेरे-ममेरे भाईयों में से कुछ गये। बाद के बरसों में मेरी बहनों की शादी वहाँ ज़रूर हुई। उन्हें यहाँ मुश्किल से आने को मिलता है। उनसे मुलाकातें कम हो गयीं। अब तो और भी बहुत कम हो गयी।
उदयन- वे आपसे छोटी थीं?
फ़ारूक़ी साहब- मुझसे बड़ी थीं। बेटों में मैं बड़ा था, बहनें मुझसे दो बड़ी थीं। बँटवारे की पीड़ा मुझे धीरे-धीरे पता चली। शायद इसलिए मैं बँटवारे के दिनों के उस साहित्य से उतना प्रभावित नहीं हो पाया था जिसकी कमज़ोरी असकरी ने पकड़ ली थी। उस समय मैं यह समझ ही नहीं पाया था कि वास्तविक खोना या विस्थापन किसे कहते है, जड़ से उखड़ जाने का दर्द क्या होता है, जैसे इन्तज़ार हुसैन ने महसूस किया। वे बँटवारे के समय तक एम. ए. पास कर चुके थे और बौद्धिक परिवेश में रह भी रहे थे। मुस्लिम लीग की उठान अलीगढ़ में बेइन्तिहाँ थी। मोहम्मद हसन असकरी पहले मुस्लिम लीग में मज़बूती से थे पर बाद में उसके पाकिस्तान बनाने के खिलाफ़ हो गये। पर ख़ुद चले भी गये और इन्तज़ार हुसैन को बुला भी लिया। ज़ाहिर है, वे मुझसे बहुत बड़े थे। मैं नवीं कक्षा में था और मुझे खोने की उतनी गहरी और विस्तृत समझ नहीं थी। मुझे उन दिनों का पागलपन भर याद हैः ‘सीने पर गोली खाएँगे, पाकिस्तान बनाएँगे’ और ‘मुसलमाँ की किश्ती जिन्ना की बदौलत, खुदा के सहारे चली जा रही है किनारे किनारे।’ ये सब जो हो रहा था उस बारे में किसी को पता नहीं था कि इसकी वास्तविकता क्या होगी। इसका अन्दाज़ किसी को नहीं था कि इस वास्तविकता में छुपी कितनी ही चीज़ें धीरे-धीरे खुलेंगी। यह एहसास जिन्ना को नहीं था और शायद नेहरू को भी। अगर होता, वे बँटवारे के लिए राज़ी नहीं होते। यह सब मुझे बहुत बाद में समझ आया। उस समय मेरे लिए इतना भर था कि मैं अपनी बहनों से जुदा हो गया। मैं उन दोनों के बहुत क़रीब था, उनमें से बड़ी मेरी पत्रिका में लिख़ती भी थीं। मैंने व्यक्तिगत स्तर पर उन्हें खोया लेकिन मुझ पर बड़े स्तर पर बिछोह, विस्थापन का असर नहीं हुआ।
उदयन- क्या यह असर उस इलाक़े में ही बहुत कम हुआ था?
फ़ारूक़ी साहब- ये बात ठीक है कि बँटवारे का असर उस इलाक़े में बहुत कम था। उन दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश के उन लोगों से मैं प्रभावित था, जिनके नाम स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौर में मेेरे कानों में पड़ते रहते थे। हमारा आज़मगढ़ जि़ला उसमें शामिल था, पास का बलिया भी जो आर्यसमाजी था। मुझे याद है कि 1942 के दिनों में हमारे बाप आज़मगढ़ में थे और उन्होंने हमें बनारस भेज दिया था, जब वे हमें वहाँ से लाने आज़मगढ़ से चले, उन्हें कोई भी साधन नहीं मिला, रेलगाडि़याँ बन्द थीं, बसें मिल नहीं रही थीं। उन्हें बनारस पहुँचने में कई दिन लग गये। इस बीच घर में रोना-धोना शुरू हो गया। इस सबसे मुझे यह तो लगा कि अँग्रेज़ों के खिलाफ़ कुछ हो रहा है पर इससे मुझे चोट नहीं पहुँची। अँग्रेज़ की मेरे दिमाग में यह छवि थी कि यह हमारा आदमी नहीं है। मुझे दो घटनाएँ और याद हैं। एक तो यही कि 42 के आन्दोलन के बाद जब सब शान्त हुआ, हमारे बाप के साथ काम करने वाले देहात के एक शिक्षक हमारे यहाँ आये, वे बताने लगे कि अँग्रेज़ों ने उनके गाँव के आसपास के गाँवों में कैसा अत्याचार किया है, कि उन्होंने वहाँ के सारे घरों में आग लगा दी, क्योंकि उनमें एक घर वसुधा सिंह का ऐसा था, जो 42 के आन्दोलन में शामिल था।
अँग्रेज़ों का सज़ा देने का ढ़ंग यह था कि सारी बस्ती में आग लगा दो। जैसा कि बाद के दिनों में रूसियों ने अफ़ग़ानिस्तान में किया। इसका मुझ पर बहुत गहरा असर हुआ कि ये साला पराया आदमी हमारी बस्तियाँ जला देता है। दूसरा वाकया भी उसी समय का है, 41-42 में दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था। आज़मगढ़ शहर के बाहर मेला लगता था (उन दिनों बहुत मेले लगते थे)। हम भी अपनी उम्र से बड़े चचेरे भाईयों के साथ वहाँ गये। मेला वैसा ही था, जैसा होता हैः चरखी चल रही है, मलाई बिक रही है, लोग पूरियाँ खरीद रहे हैं। कुछ वक़्त वहीं घूमते हुए बीत गया। किसी ने कहा, ‘चलें।’ इस पर किसी और ने कहा, ‘अभी रूक जाओ, एस. पी. आ रहा है, उसको देखकर चलेंगे।’ थोड़ी देर बाद घोड़े पर सवार दो सिपाहियों के साथ अँग्रेज़ पोशाक पहने वह एस.पी. तशरीफ़ लाया। ‘हटो, बचो’, ऐसी आवाजे़ं आने लगीं। हमारे साथ के किसी ने एक जुमला कहा, वो मुझे अभी भी याद है, ‘एस. पी. लौण्डा है।’ यह सुनकर मुझे बहुत मज़ा आया। मेरे दिमाग में दो-तीन बातें आयीं। हालाँकि तब मैं सात बरस का था। पहली ये कि यह बचाव की नीति है, यह उसके सामने अपनी कि़लेबन्दी करने जैसा था। और दूसरी यह कि हम भी ऐसा बन सकते हैं अगर बनना चाहें। और तीसरी यह कि उसका बड़ा भारी जलवा है कि हम उसे देखने रूके रहे। यह भी था कि वह घोड़े पर सवार बिल्कुल अजनबी लग रहा था और वह न दाएँ देख रहा था न बाएँ। इन बातों ने मिलकर मेरे दिल पर विदेशी मौजूदगी की जटिल छवि पैदा की। ये सब बातें 42-43 तक दिमाग में आने लगी थीं। लेकिन ज़्यादा बड़ी तस्वीर सामने नहीं थी। जब मैं लिखने बैठा, मैंने अपने तई पाप-मुक्ति, औरत-मर्द आदि के प्रश्न हल कर लिए थे, पर मुझे न तरक्की पसन्दों से, न जमाएते इस्लामी के लोगों से पाप से जूझने का रास्ता मिला। तरक्की पसन्दों का रास्ता अतिशयोक्तिपूर्ण था और मेरे लिए असहनीय। उनकी कि़ताबों में लोग सिफऱ् मर रहे होते थे। खून बह रहा है वगैरह। सन् 56 में खुशवन्त सिंह साहब का उपन्यास ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ आया। उसमें भी वही सब था। कृश्न चन्दर की भी ‘पेशावर एक्सपे्रस’ समेत ऐसी अनेक कहानियाँ थीं। इन सबको पढ़कर सिफऱ् जुगुप्सा होती थी। दिमाग में आता था कि ये क्या हो रहा है, बच्चों को जि़बह कर रहे हैं, गला काट रहे हैं, चिल्लाये जा रहे हैं, मानो कोई हत्यारी मशीन लगी हुई है। न तो लेखक को समझ में आ रहा है कि मैं इस सबको चित्रित कैसे करूँ और न पाठक को कि इन कि़ताबों से मैं क्या दृष्टि हासिल करूँ। मुझे रास्ता मिला शेक्सपीयर पढ़कर।
उदयन- तब तक आप बी. ए. में आ गये थे और अँग्रेज़ी साहित्य पढ़ रहे थे ?
फ़ारूक़ी साहब- मैं अँगे्रज़ी साहित्य पढ़ रहा था। मुझे पढ़ने का शौक तो था ही। बहुत सारा मैंने पढ़ रखा था। बहुत-सी शायरी और उपन्यास। टाॅमस हार्डी को मैंने बहुत पढ़ा था। हार्डी से मुझे कोई सीख तो नहीं मिली लेकिन ये मालूम हुआ कि दुनिया में बहुत दुःख है। उस दुःख को लिखना भी एक तरह का सत्कर्म है। उनके उपन्यास ‘तेस आॅफ डोबर विले’ में शुरूआती सूक्ति शेक्सपीयर के नाटक से थीः ‘एज़ फ्लाईज़ टू वाण्टन ब्यावज़, आर वी टू गाड्स, दे कि़ल अस फ़ाॅर देयर स्पोर्ट।’ उपन्यास का आखिरी जुमला भी मुझे अभी तक याद है, ‘द पे्रसीडेण्ट आॅफ़ द इम्मार्टल्स इन एस्केलियन फ्रेज़ हेड एण्डेड हिज़ स्पोर्ट विद तेस।’ इतनी अकल मुझे थी कि समझ सकँू कि ‘पे्रसीडेण्ट आॅफ़ ए माॅर्टल’ जीएस है, एस्केलिस के बारे में मुझे नहीं पता था लेकिन यह सोचा होगा कि ये भी कोई शायर-वायर रहा होगा। इस उपन्यास को पढ़े मुझे साठ बरस हो रहे हैं पर वह जुमला कि ‘ही एण्डेड इट्स स्पोर्ट विद तेस’ मेरे दिल पर अब तक लिखा हुआ है। हार्डी ने मुझे यह ज़रूर सिखाया कि इंसानी दुःख-दर्द को कैसे दर्शाया जाता है। उससे मुझे यह भी समझ आया कि ‘टेªन टू पाकिस्तान’, ‘पेशावर एक्सपे्रस’, ‘फूल सुर्ख हैं’, ‘जब खेत जागे’ ‘और इंसान मर गया’ में जो इंसानी पीड़ा चित्रित हुई है, वह यान्त्रिक है। उसको पढ़कर यह लग रहा है कि लेखक उसे ख़ुद नहीं सह रहा है। वह सिफऱ् तुम्हें बता रहा है कि देखो यह हो गया। वह उस दर्द से इतना दूर है कि वह न तो उसमें शरीक़ है न वह जानता है कि शरीक़ होने वालों पर क्या गुज़र रही है।
इण्टर में शेक्सपीयर का एक नाटक ‘जूलियस सीज़र’ पाठ्यक्रम में था। मुझे वह ज़ुबानी याद हो गया था। अब तक बहुत सारा याद है। मुझे वह बहुत बड़ा नाटक लगा। मुझे उसकी अक्लमन्दी, शायरी का जज़ूर आदि सब ऊँचे दजऱ्े के जान पड़े। मुझे उसमें कोई चीज़ ऐसी लगी ही नहीं कि मंै कह सकूँ कि यह आदमी यहाँ कमतर है। केशियस जब यह कहता है, ‘अवर फ़ाल्ट हीयर इज नाॅट इन अवर स्टाॅक, बट इन अवर सेल्वस देट वी आर अण्डर लिंक्स’। इससे मुझे हिन्दुस्तान की हालत समझ में आ गयी। हम जो ग़ुलाम हैं, अपनी वजह से हैं। यह अल्लाह मियाँ के यहाँ बैठा कोई तारा-वारा नहीं है। हमीं लिख़ते, हमीं बिगाड़ते हैं। मुझे उस नाटक के कई जुमले याद थे। हालाँकि तब मेरी उम्र ही क्या थी, चैदह बरस पर मेरी अँग्रेज़ी अच्छी थी। अल्लाह मेरे बाप को जन्नत में जगह दे, उन्होंने मार-मार कर अँग्रेज़ी खूब पढ़ाई। मुझे ज़ुबानों का शौक भी था। उर्दू का, फ़ारसी का, हिन्दी भी बहुत सारी पढ़ी थी। अँग्रेज़ी मेरा शौक था, वो भी इसलिए कि हम गु़लाम हिन्दुस्तान में पैदा हुए थे। अँग्रेज़ी साहबों की ज़ुबान थी। हमारे पूरे खानदान के लोग छोटे-बड़े सरकारी मुलाजिम थे। कुछ बड़े और ज़्यादातर छोटे। उनकी यही महत्वाकांक्षा थी कि मेरा बेटा भी आई. सी. एस. या आई. ए. एस. होगा, सिविल सर्विसेस के इम्तिहान में बैठेगा और उसके लिए अँग्रेज़ी ज़रूरी थी। इसलिए भी अँग्रेज़ी पर बड़ा ज़ोर था। वह हमारे लिए नक्षत्र थी कि उस ओर देख़ते रहो। इण्टर तक आते आते मेरी अँग्रेज़ी बड़ी अच्छी हो गयी थी। बी. ए. में मुझे एक साहब ने शेक्सपीयर की संकलित रचनाओं की पुरानी-सी कि़ताब दे दी थी। उसके शुरू और आखिर के पन्ने फटे हुए थे लेकिन अन्दर सब सही था। उसमें बहुत महीन लिखा हुआ था और मेरी आँखें कमज़ोर थीं। अब तो खैर मैं उसे पढ़ ही नहीं सकता। तब मैं उसे पढ़ पाया था। उस वक़्त हमारी अकल ही कितनी थी कि शेक्सपीयर साहब की अँग्रेज़ी समझते। तब तक मैंने कोर्स में शेक्सपीयर के एक या दो नाटक पढ़ रखे थे। बहरहाल मैंने अपनी सारी अक्ल शेक्सपीयर को पढ़ने मेें लगा दी। गर्मियों की छुट्टी में लालटेन की रोशनी में देहात में बैठकर मैंने उनके बीस-पच्चीस नाटक पढ़ डाले। इससे मेरी खोपड़ी खुल गयी। एक बात मेरी समझ में आ गयी कि इस तरह का लेखक न तरक्की पसन्दों में जाएगा न मुल्लों में। मैं इसी के साथ हूँ। ये मेरी जि़न्दगी की सबसे बड़ी खोज थी।
उदयन- आपके बचपन में कई ऐतिहासिक घटनाएँ घट रही थीं। जैसे सन् 1942 का भारत छोड़ों आन्दोलन। वह आपका शायद पहला बड़ा अनुभव रहा होगा।
फ़ारूक़ी साहब- मेरा पहला बड़ा अनुभव 1942 का आन्दोलन था, वह सब जो मैंने सुना और देखा और जो कुछ अँग्रेज़ों का मेरा अनुभव था, मेरे शहर में युद्ध और अँग्रेज़ी राज का अनुभव। पर वो सब उस ज़माने में लगातार होता था। जब मैं पाँच साल की उम्र में पढ़ने गया, लड़ाई शुरू हो गयी थी। उस उम्र में ही मुझे यह समझ आ गया कि हिटलर क्या होता है और स्तालिन क्या होता है।
उदयन- क्या उन जगहों पर भी इनकी ख़बरें आया करती थीं?
फ़ारूक़ी साहब- रेडियो पर, जो हमारे शहर में एकाध ही था पर ख़बरें अख़बारों में आती थीं।
उदयन- क्या उन दिनों आपके शहर में हिटलर या स्तालिन आदि के बारे में लोगों में बातचीत भी होती थी?
फ़ारूक़ी साहब- होती थी लेकिन अँग्रेज़ो की नज़र से होती थीं। मुझे यह याद है कि जब ट्युनिशिया की फतेह हुई,
अँगे्रज़ों के हुकुम से गाँव में मिठाई बाँटी गयी, जुलूस निकाला गया। उसमें हमारे घर के लोग भी शामिल थे। लोगों को सिफऱ् इतना मालूम था कि अँग्रेज़ जीत गये। किसी को ये क्या पता था कि ट्युनिशिया कहाँ है, गोरखपुर में है, या आज़मगढ़ में है या अफ्रीका में? होगा कहीं। लेकिन अँग्रेज़ बहादुर कोई बड़ी लड़ाई जीत गया है, इसलिए मिठाई बाँटी जा रही है। वह सब मेरा पहला बड़ा ऐसा अनुभव था जो लगातार घट रहा था, जीवन का, युद्ध का, ग़रीबी का, बयालीस के आन्दोलन का।
उदयन- आपकी दूसरी खोज क्या थी ?
फ़ारूक़ी साहब- मेरी दूसरी बड़ी खोज जिसने मेरे अन्तस को समृद्ध किया, हार्डी के उपन्यास थे। तब तक कृश्न चन्दर, बेदी और मण्टो मेरे माई-बाप थे, जिनके प्रभाव में मैंने कहानी लिखना शुरू किया था लेकिन ये लोग मेरे अन्दर गये नहीं क्योंकि मैं देख रहा था कि इनके यहाँ अच्छा आदमी अच्छा है, बुरा बुरा, दुनिया में खून बह रहा है और तीसरा पक्ष है ही नहीं। लेकिन टाॅमस हार्डी इससे अलग था। वह मेरा दूसरा बड़ा अनुभव था।
उदयन- उनका उपन्यास ‘तेस’?
फ़ारूक़ी साहब- ख़ासकर ‘तेस’ बल्कि उनके सारे उपन्यास। मैंने अपनी आत्मकथात्मक टिप्पणी में लिखा है कि हार्डी के चार सौ, साढ़े चार सौ पन्नों के उपन्यास देखकर मेरा दिल बैठ जाता था कि मैं इन्हें कैसे खत्म करूँगा और खत्म होते-होते यह अफ़सोस होता था कि यह और लम्बा क्यूँ न हुआ।
मेरे बचपन के घर के अनुभव बहुत पीड़ादायक थे, जिनका जि़क्र करने से अब कोई फ़ायदा नहीं है। लेकिन बाहर के अनुभव जैसे स्वतन्त्रता आन्दोलन के, 1942 के अँग्रेज़ी साम्राज्य की खिलाफ़त और बँटवारे वगैरह के अभी भी साथ हैं। उन्होंने मेरे साहित्यिक या बौद्धिक या आध्यात्मिक जीवन में कोई न कोई जगह ज़रूर बनायी होगी। उनकी जगह यादों में ज़रूर है। उनसे मेरी जि़न्दगी में कोई न कोई रंग भूरे, काले या नीले ज़रूर आये हैं। लेकिन चीज़ें की कैसे जाती हैं और जि़न्दगी को कैसे अंगेज़ करो, कैसे उसका सामना करो, यह मैंने हार्डी से सीखा। वह बताता है कि दुःख बहुत है लेकिन दुःख को बयान करने का भी एक तरीका हुआ करता है, ये वह तरीका नहीं है जो रामानन्द सागर या कृश्न चन्दर या मण्टो के यहाँ नज़र आता है। कुछ और तरीका भी हो सकता है। लेकिन मेरी सबसे बड़ी और तीसरी खोज जो मेरे साथ अब तक है, शेक्सपीयर है। उसने मुझे दिखाया कि दादा, दुनिया बहुत ही बड़ी है और उतनी बड़ी दुनिया को छोटे-छोटे खानों जैसे अच्छा-बुरा, सीधा-टेढ़ा, मुसलमान-हिन्दू, मजहब-धर्म, अल्लाह मियाँ-भगवान मियाँ और क्राईस्ट मियाँ में नहीं बाँट सकते। उसे पढ़ने और समझने से मेरी आन्तरिक जि़न्दगी में फ़र्क आया। उसमें बहुत सारी चीज़ें बढ़ीं जैसे दुःख बढ़ा, खोने की अनुभूति बढ़ी, सारे ब्रह्माण्ड की अर्थहीनता की अनुभूति बढ़ी। जि़न्दगी को समझने और बनाने के लिए शेक्सपीयर ने मुझे तैयार किया। मेरी अपनी बौद्धिक और साहित्यिक जि़न्दगी को बनाने में भी। मैं यह समझ गया कि मैं तरक्की पसन्दों के साथ चल सकता हूँ न जमाएते इस्लामी के संग, जो लेखक की कलम पकड़कर कहते हैं कि तू ऐसे लिख या वैसे लिख। मैं जो भी करूँगा, अपने दिल के कहने से करूँगा। कभी दिल में आएगा तो उनकी बात भी कह दूँगा लेकिन उनके कहने पर नहीं करूँगा, अगर कहूँगा अपने कहने पर ही कहूँगा।
उदयन- आप यह बात 1950 के आसपास की कर रहे हैं। तब तक क्या आप एम. ए. में दाखिला ले चुके थे?
फ़ारूक़ी साहब- यह सन् 1951-52 की बात है, जब मैंने शेक्सपियर को पढ़ा। मैं बी. ए. के पहले साल का इम्तिहान दे चुका था और दूसरे साल में जाने का इन्तज़ार कर रहा था। शेक्सपियर साहब से मेरी सही मायने में जान-पहचान इन दो बरसों में हुई। बल्कि इनसे जुड़ी गर्मियों की छुट्टियों में। उस बरस की छुट्टियों में बड़ी अच्छी तरह से पहचान हुई, अपने गाँव में। उस वक़्त तक मेरे बड़े बाप लोग जि़न्दा थे और वहीं रहा करते थे। अपने दादा के ज़माने में हम सभी लोग गर्मियों में गाँव जाया करते थे। सबकी छुट्टी हो जाती थी और हमारे बाप छुट्टी लेकर आ जाते थे। बाकी लोग शिक्षक थे, उनकी छुट्टी उन दिनों हो ही जाती थीं। लड़कपन में हमारी हर गर्मी वहाँ गुज़रती थी। 1952 में मेरी बड़ी बहन की शादी होनी थी, उस वजह से भी हमारी गर्मियों की छुट्टियों वहाँ बीतीं। उन दिनों सारे बड़े बाप लोग जमा थे। हमारे बाप सबसे छोटे थे। इस तरह एक पूरी गर्मी शादी की वजह से और वहाँ लोगों के जमा होने के कारण मिल गयी। गाँव में कोई और काम था भी नहीं। कि़ताब थी शेक्सपियर की, लालटेन थी और मैं था कमरे में बैठा हुआ।
उदयन- आपके जो चचेरे ममेरे भाई भी वहाँ आते होंगे, उनकी आपकी पढ़ाई के विषय में कोई राय ज़रूर होती होगी। वे शायद सोचते रहे होंगे कि आप वक़्त ज़ाया कर रहे हैं...
फ़ारूक़ी साहब- मेरे साथ नुक़सान और साथ ही फ़ायदा यह था कि मैं सबसे छोटा था। फ़ायदा यह कि लोग मुझसे कुछ कहते नहीं थे और नुक़सान यह कि छोटे होने के कारण मैं खेलकूद में शरीक़ नहीं हो पाता था। मेरे बाप अपने बड़े भाईयों से बहुत ही ज़्यादा छोटे थे, अगरचे मैं उनका सबसे बड़ा बेटा ही था, तब भी मेरे बड़े बापों के बच्चे मेरे बाप की उम्र के थे। गोया मेरे चचेरे भाई मेरे पिता के नज़दीक ज़्यादा थे। दौड़ने-भागने और कूदने में न तो मेरी रूचि थी न मेरे बदन में उतनी ताकत थी। मुझसे न गिल्ली-डण्डा खेला जाता था, न मैं पेड़ पर चढ़कर आम तोड़ ला सकता था, न दौड़ लगा सकता था। ये सब हमसे बनता ही नहीं था और न उन्होंने हमें इसके क़ाबिल समझा। वो लोग मुझसे कुछ पूछते-वूछते नहीं थे। लेकिन एक बात मैं आपको बता दूँ जिससे आपको हँसी आएगी कि आम तौर पर लोग मुझे फ़लसफ़ी कहते थे। ‘ये साला फ़लसफी, इसको दूर रखो, ये सब इसके बस का नहीं है।’ मैं अपने कमरे में बन्द रहता था। उस ज़माने में न कहीं बिजली थी, न पंखा था, लेकिन हमारे लिए वही बहुत था।
एम. ए. करने मैं इलाहाबाद चला गया। 1953 में वहाँ पहुँचा। बाप हमारे कहा करते थे कि अब बहुत पढ़ लिये हो, बी. ए. कर लिया है, मैंने फलाँ से बात कर ली है, वहाँ चले जाओ, काम मिल जाएगा। स्कूल में मास्टर बन जाना। मैंने कहा, मुझे पढ़ना है। वे बोले, इतने बहुत-से और भाई-बहन हैं, उन्हें भी पढ़ाना है, अब जाओ, कुछ काम करो, कुछ हम लोगों की मदद करो। मैं माना नहीं और इलाहाबाद चला आया। दुःख के दिन पहले भी थे, ये कुछ ज़्यादा दुःख के दिन निकले। अकेले रहना था और बाप की ओर से मदद कम थी। बीस-बाईस रूपया महीना कभी आया, कभी नहीं आया।
उदयन- क्या आप उन दिनों ट्यूशन वगैरह करते थे?
फ़ारूक़ी साहब- हमने ट्युशन पढ़ायी। दो-तीन जगह। दूर के रिश्तेदार के घर कमरा किराये पर लेकर दो साल रहा। कुछ दिन होटल में खाना खाया लेकिन वो चला नहीं। फिर पास में हमारे एक दोस्त रहते थे, जो अब मर गये हैं, उनके घर खाना खाता था। आमतौर पर वे मुश्किल दिन थे। मेरे पास साईकि़ल नहीं थी, मेरे कजि़न ने मुझे पुरानी साईकि़ल दे दी थी, जो बाद में चोरी हो गयी। विश्वविद्यालय दूर बहुत था। या तो रिक्शे में जाओ या पैदल। मुझे इतनी न इफ़राहत थी और न इतना शौक। पढ़ने का ही शौक था, कि़ताबें खरीदने का, जितनी खरीद सको।
उदयन- क्या उन दिनों इलाहाबाद में आपकी कोई मित्र मण्डली थी, जिनसे आप बात करते हो?
फ़ारूक़ी साहब- अँग्रेज़ी का एक अच्छा फ्रेज़ है, इण्डस्ट्रियल दोस्ती, वह बहुत थी। लेकिन किसी से दूर तक चला हो, ऐसा दोस्ताना नहीं था। इस वक़्त भी इलाहाबाद में ऐेसे कई लोग हैं, जो मेरे साथ एम. ए. में थे, वे कभी-कभी मिल जाएँ तो मिल जाएँ। उनमें से दो अँग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर हैं, उनसे साल में एकाध बार मुलाकात हो जाती है। मेरी देर तक टिकने वाली दोस्ती किसी से नहीं बनी। मेरे पास फ़ुर्सत भी नहीं थी।
उदयन- क्या वहाँ कोई साहित्यिक मण्डली थी?
फ़ारूक़ी साहब- मेरी नहीं थी। ज़ाहिर है इलाहाबाद में उस वक़्त बड़े लोग थे। हिन्दी के तो खैर पूछो ही क्या! उर्दू के लोग भी मौजूद थे। मेरे कमरे के आसपास के हमारी तरह के मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के लड़के जो कम या न पढ़ने वाले थे, उनमें से एकाध से दोस्ती हुई। उनमें एक मेरे साथ का था, मुझसे एक दजऱ्ा नीचे पढ़ने वाला, वाणिज्य पढ़ता था, वह पाकिस्तान चला गया। वह बड़ा आदमी बन गया है, आजकल अमरीका में हैं। उससे दोस्ती अब भी है। लेकिन ऐसी दोस्ती जो मेरे लिए कोई खास जगह रख़ती हो, नहीं बनी। ये सारे लड़के मुझे बौद्धिक रूप से अधिक सक्षम समझते थे। मैं पढ़ने में तेज़ था और मेरी अँग्रेज़ी अच्छी थी इसलिए उनसे मेरा छोटे-बड़े का रिश्ता था, बराबरी का नहीं। ऐसा रिश्ता नहीं था कि मुसीबत के वक़्त मैं उनकी ओर देख़ता या उनके कन्धे पर सिर रखकर रोता।
उदयन- उसके लिए आप अकेले थे?
फ़ारूक़ी साहब- एकाध लोग थे। जैसे तुफ़ैल, जिसका मैंने जि़क्र किया, वह अपने बाप के साथ पाकिस्तान चला गया। एक साहब और थे, जो इतिहास पढ़ाया करते थे, उनको उर्दू का बहुत शौक था, उनसे मिलना-जुलना था। उनसे भी मैं अपनी बातें साझा नहीं कर पाता था। अकेलेपन की जि़न्दगी मेरी शुरू से थी। उससे मुझे चोट नहीं पहुँची थी, पर अब ख़याल आता है कि एकाध दोस्ती रही होती तो अच्छा था। इण्टर के ज़माने के दोस्त अबरार साहब बी. ए. करके अलीगढ़ चले गये। वहाँ पढ़कर वे अपने गाँव चले गये और अभी हैं। उनसे ख़तो कि़ताबत रही। वही एक लम्बी दोस्ती थी। मेरा ही स्वभाव कुछ ऐसा है कि दूरियाँ बन जाती हैं। मैं इन बातों पर अब गौर करता हूँ। मैं इक्यासी बरस का हो गया। मुझे पिछले पचहत्तर बरस की अपनी बहुत-सी बातें याद हैं, बचपन की दोस्ती से लेकर अब तक की। मैंने यही देखा कि मैं किसी के बहुत क़रीब नहीं आ सका। यह मेरी ही कोई कमज़ोरी होगी कि मैं वैसा क़रीबी नहीं बन सका जैसा कहानियों या शायरी में देख़ता हूँ। यह भी देखा मैंने कि बहुत-से लोगों से दोस्ती हुई, फिर किसी वजह से अलगाव हो गया। या फिर गोया मुलाकात है पर ऐसी ही है, ‘आप कैसे हैं’ कि़स्म की। तीन दोस्त मेरे बने। एक अबरार खान साहब हैं, जो खुद भी शायर हैं, मुझसे उम्र में एकाध साल बड़े भी होंगे। वे मेरे मुक़ाबले में ज़्यादा ज़ईफ़ हैं लेकिन पढ़ते रहते हैं। जागरूक हैं और जमाएते इस्लामी का थोड़ा-सा असर अभी बाकी है, लेकिन वह नुक़सानदेह नहीं है। उससे मुझे क्या मतलब है, औरतों के बारे में तुम्हारी दृष्टि क्या है, वो होगी, मुझे मालूम ही है कि आपकी दृष्टि क्या है और मेरी दृष्टि क्या है। मेरी दृष्टि विकसित हो गयी, आपकी न हुई होगी। मुझे कौन तलवार लेकर आपसे लड़ना है! एक हैं नय्यर मसूद साहब, वे जिनके बारे में तुम्हारी पत्रिका में लिखा है कि वे उर्दू के सबसे बड़े अफ़साना निगार हैं। वे वाकई हैं भी। इनसे मेरी दोस्ती बाद में हुई पर हुई बहुत।
उदयन- क्या वे भी इलाहाबाद मे पढ़े हैं?
फ़ारूक़ी साहब- ये इलाहाबाद में पढ़े थे। ये लखनऊ के हैं और इन्होंने दो पीएच. डी. की हैं, एक इलाहाबाद से और एक लखनऊ से।
उदयन- वे आपसे उम्र में बड़े होंगे?
फ़ारूक़ी साहब- कम से कम सरकारी हिसाब से बराबर के हैं। उनकी भी पैदाईश मेरी तरह ही सन् छत्तीस लिखी हुई है। मेरी उम्र एक साल कम लिखी है, उनकी भी ऐसी ही होगी। उनसे इलाहाबाद में थोड़ी बहुत मुलाकात रहती थी। उनका परिवार बहुत मशहूर था। उनके बाप सैयद मसूद हसन रिज़वी ‘अदीब’ उर्दू के बहुत ही बड़े आदमी थे। उनकी कि़ताबें हमने बचपन से पढ़ी थीं। जब मेरा तबादला लखनऊ हुआ, नय्यर मसूद साहब से बहुत गहरा मिलना-जुलना हो गया, बिल्कुल घर की तरह। उनके लिए मैं कह सकता हूँ कि उनके साथ जितनी गुज़री है, हमारा एका रहा। उनके साथ कोई मतभेद नहीं था, अगर हुआ भी तो कोई झगड़ा-वगड़ा नहीं हुआ। वे शिया हैं, मैं सुन्नी हूँ लेकिन यह सवाल कभी नहीं उठा कि शिया अच्छे हैं या सुन्नी। या कि शिया क्या कहता है, सुन्नी क्या कहता है। अगर इन बातों की हमारे बीच चर्चा भी होती है, हल्के मन से होती है।
उदयन- उनकी कहानियों से जो लेखक उनके पसन्दीदा लगते हैं, वे आपके पसन्दीदा लेखकों से बहुत अलग हैं?
फ़ारूक़ी साहब- बहुत अलग हैं। उन्होंने बी. ए. तक अँग्रेज़ी पढ़ी है, बाद में घर पर रहकर पढ़ाई की। इसके अलावा वे फ़ारसी और उर्दू पढ़ते रहे। मैं बचपन से अँग्रेज़ी से चिपका रहा। उन्होेंने अँग्रेज़ी के सहारे वे चीजें़ ही पढ़ीं जो उनके काम की हैं जैसे उन्होंने काफ़्का को और ज्वायस को पढ़ा। हमारा ये था कि हर जगह मुँह मारो, जो मिल जाए पढ़ो। तीसरी दोस्ती हमारी जनरल चोपड़ा साहब से हुई, जो डाक विभाग में मेरे साथ थे। वो अभी भी है। वे डाक विभाग के फौजी प्रभाग में थे।
उदयन- क्या वे भी लिख़ते थे?
फ़ारूक़ी साहब- नहीं। वो दोस्ती दोस्ती थी, सरकारी होते हुए भी उसमें भीतरी ताकत थी। उनसे मिलना-जुलना कम होता है। वे गुड़गाँव में रहते हैं, मैं इलाहाबाद में, वे भी बूढे़ हैं, मैं भी। मिलना भले कम हो पर मुझे ज़रूरत पड़ेगी तो मैं उन्हें पुकार लूँगा, उनसे पूछ लूँगा, उन्हें बुला लूँगा या वे मुझे बुला लेंगे। मगर और कोई दोस्ती मैं नहीं देख पाता।
उदयन- हम अब वापस इलाहाबाद लौटते हैं, जहाँ अब तक आप एम. ए. कर चुके हैं।
फ़ारूक़ी साहब- मैंने अँग्रेज़ी में एम. ए. कर लिया पर अक्ल-वक्ल बहुत कम थी। मेरे प्रोफ़ेसर देव साहब का, ज़ाहिर है, बहुत नाम था। वे बहुत बड़े आदमी थे भी। उनका दिमाग भी बहुत बड़ा था और वे किसी को कुछ समझते भी नहीं थे। हम थोड़ा-बहुत उनसे आजादी से बात कर लिया करते थे। कपड़े मामूली पहनते थे। वही पजामा-कुर्ता। पतलून पहनना मुझे नसीब नहीं था, कहाँ से पहनते। चप्पल पहनकर विश्वविद्यालय जाया करते। एकाध दफ़ा कक्षा में उनसे बहस हो गयी, एकाध दफ़ा मैं बहुत दिन ग़ैरहाजि़र रहा।
उदयन- वे किन लेखकों से मुुतास्सिर थे? उनके कौन-से लेखक थे?
फ़ारूक़ी साहब- उनके सब लेखक थे यार, तुम क्या पूछते हो? तुम भवभूति के बारे में बात शुरू कर दो, वे एक घण्टा उसी पर बोल देंगे। तुम उन्हें काण्ट के ज्ञान सम्बन्धी विचारों के बारे में कुछ पूछोगे, वे दो घण्टा उसी पर बोल देंगे। शेक्सपियर के बारे में तो खैर कोई बात ही नहीं है और न फ्राँसीसी अदब के बारें में। तुमको रासीन के बारे में बहुत-सा बता देते। वह अजीब आदमी था, भई! वे देसी लहज़े में अँग्रेज़ी बोलते थे। बंगाली थे, उनमें कोई अँग्रेजि़यत नहीं थी लेकिन साफ़ अँग्रेज़ी बोलते थे। वैसी ही उर्दू और हिन्दी बोलते थे, बंगाली लहज़े से। फ़ारसी भी जानते थे। उनका ज्ञान अथाह था। लेकिन पता नहीं किस कारण से मुझे नापसन्द करते थे। जब मैंने एम. ए. का पहला साल पास किया, मेरा चैथा नम्बर आया। मैं ज़रा मायूस हुआ क्योंकि मेरे साथियों का ये ख़याल था कि यह अव्वल आएगा। अच्छा लिख़ता भी है, बोलता भी है, याद भी इसे खूब है। आमतौर पर अगर आपके लिखि़त परीक्षा में अच्छे अंक आते हैं तो मौखिक में प्रोफ़ेसर से सहारा मिलता है। वह उन्होंने नहीं दिया। लड़कपन तो लड़कपन ही होता है, फिर वह देहाती लड़कपन। एक ज़माने में मैंने छोटी-सी दाढ़ी रखी हुई थी, और उसके ऊपर काला चश्मा लगाकर आईडेण्टिटी कार्ड पर चिपकाने तस्वीर खिंचायी। इतनी तौफ़ीक नहीं थी कि मैं तस्वीर खिंचाने दाढ़ी मुड़वाकर जाता। इतनी फुर्सत कहाँ थी। मौखिक परीक्षा में उनका पहला जुमला यह था कि ‘वाय डिड यू हाईड यूअर फेस बिहाइण्ड ए बियर्ड एण्ड ग्लासेस व्हेन बोथ हेव गाॅन नाउ’ (आपने दाढ़ी और चश्में के पीछे अपना चेहरा क्यूँ छुपा रखा है जबकि अब वे दोनों ही जा चुके हैं) ये प्रोफेसर देव साहब पूछ रहे हैं। वे हमारे विभाग के मालिक थे, सर्वेसर्वा थे, उनके बगल में बैठे, बाहर से आये परीक्षक को मैं जानता भी नहीं था और वे ऐसा पूछ रहे थे। मैंने जवाब दिया, ‘सारी, बट इट्स एन ओल्ड फोटो’ (माफ़ करें, यह पुरानी तस्वीर है।) हमारे विश्वविद्यालय में 1952 में लम्बी हड़ताल हुई थी, जो सन् 53 में भी चली थी। मुझे याद नहीं आता कि वो किसलिए हुई थी, पर लाल पद्मधर नाम के लड़के के छूटने से उसका सम्बन्ध था। उस दौरान विश्वविद्यालय बन्द रहा। अगला सवाल मुझसे पूछा गया कि क्या तुम हड़ताल में शामिल थे। मैं उसमें नहीं गया था, इस पर उन्होंने पूछा, ‘क्यूँ नहीं।’ मैंने कहा, ‘मुझे कुछ लड़के जाने से रोकते।’ अगला सवाल आया, ‘अपनी दाढ़ी के बावजूद आप डर गये? ’ मैंने अटक-अटक कर इतना भर कहा, ‘दाढ़ी किसी आदमी को बहादुर नहीं बनाती।’
उदयन- आपने इतना कह दिया?
फ़ारूक़ी साहब- मुझे और भी कहना चाहिए था कि दाढ़ी आपको आकर्षक बना सकती है पर मैं वह नहीं कह सका। ज़ाहिर है उसके बाद नम्बर कहाँ आते।
उदयन- आखिरी बरस में क्या हुआ?
फ़ारूक़ी साहब- तब कुछ ऐसा इत्तेफ़ाक हुआ कि सारे परचे वे थे, जो मेरे मतलब के थे। उसमें शेक्सपियर था, आधुनिक कविता थी, साहित्य का इतिहास और मालूम नहीं क्या-क्या था।
उदयन- आधुनिक कविता यानि टी. एस. एलियर, एज़रा पाउण्ड, येट्स वगैरह...
फ़ारूक़ी साहब- ये सब थे बल्कि ये तीन लोग उसमें खास थे। साहित्य के सिद्धान्त, फिलालाजी, जिसे आजकल लिंग्विस्टिक्स (भाषा विज्ञान) कहते हैं। ये सब मेरे मतलब के परचे थे। मैंने सबमें एक से बढ़कर एक लिखा। मौखिक परीक्षा में बैठा तो फिर वही सब। वही प्रोफ़ेसर देव और बाकी सब। चश्मा लगाने के बावजूद आँख इतनी मज़बूत नहीं थी कि जान पाता कि बाकी वही लोग हैं या नहीं। मैं कैसे पहचानता कि कौन-कौन लोग बैठे हुए हैं। मैंने सोचा होंगे कोई। अपनी तो सिट्टी गुम थी। उन्होंने वैसा ही कुछ पूछा। बाद में पता चला कि मुझे कम ही नम्बर मिले। मैं रहा सेकेण्ड डिविज़न ही पर मुझसे आगेे कोई गया नहीं। पूरी फिज़ाँ मेरे दिल में बद्दिली की ही थी।
चूँकि मैं अव्वल आया था, मैंने सोचा कि मुझे विश्वविद्यालय में नौकरी मिलना चाहिए। तब तक हर अव्वल आने वाले को मिलती रही थी। चाहे वो अस्थायी रही हो। उन्हें फ़ौरन रख लिया जाता था क्योंकि उस ज़माने में विश्वविद्यालयों को बहुत आजादी मिली हुई थी। हम भी दफ़्तर के चक्कर काटने लगे। जो साहबज़ादे नम्बर दो थे, वे सिविल सर्विसेस का इम्तिहान दे रहे थे, वे नज़र नहीं आते थे। नम्बर तीन की लड़की अपने घर चली गयी थी। उसके बारे में बाद में सुनने में नहीं आया। उसकी शादी वगैरह हो गयी होगी। नम्बर चार को विभाग में नौकरी मिल गयी।
उदयन- अच्छा!
फ़ारूक़ी साहब- हाँ भाई। फिर भी हम लगे रहे उम्मीद में। फिर नम्बर पाँच को नौकरी मिल गयी। छः को भी विभाग में ही नौकरी मिल गयी। तीनों अभी भी मौजूद हैं। उनमें से ख़ासकर प्रकाश मालवीय बड़ी ही व्यापक रूचि का व्यक्ति था। उसे वास्तव में प्रोफेसर बनना चाहिए था। एक दिन ख़बर लगी कि जो नम्बर सात थे और जो सचिवालय में काम करते थे, उन्हें भी बुलाया गया। उन्हें भी विभाग मेें नौकरी दे दी गयी। वे भी आ गये। मैं चक्कर काटता रहा।
उदयन- पर आप इलाहाबाद में बने रहे?
फ़ारूक़ी साहब- हमारा वहीं शादी करने का भी इरादा था, क्यूँकि हमारी होने वाली बीवी ज़मीला वहीं थीं, इसलिए इलाहाबाद में रहना हमारे लिए अच्छा था। वे साथ में पढ़ती भी थीं।
उदयन- आपकी उनसे मित्रता पहले से थी?
फ़ारूक़ी साहब- हाँ थी। एकाध बार हम देव साहब के घर गये भी पर वे कोई भी खास जवाब न दें। वहाँ बहुत-से डिग्री काॅलेज थे। वे अब भी होंगे, शायद और बढ़ गये होंगे। उनमें सबसे मशहूर था, सी. एम. पी. काॅलेज यानि चैधरी माधव प्रसाद डिग्री काॅलेज। उस ज़माने में बी. ए. के डिग्री काॅलेज के लेक्चरर का ग्रेड दो सौ रूपये था। सी. एम. पी. का ग्रेड दो सौ पचास था। वह आकर्षक था। विश्वविद्यालय के गे्रड तीन सौ से थोड़ा ही कम। हम वहाँ इण्टरव्यू देने चले गये। हमने सादे कागज़ पर अपने आवेदन में यह लिख दिया कि हमने फ्राँसीसी, जर्मन और यूनानी साहित्य को अनुवाद के जरिये खासतौर पर पढ़ा है। मेरे आवेदन से ये जुमला कि मैंने अँग्रेज़ी अनुवाद के सहारे यह सब पढ़ा है, किसी ने काट दिया या शायद मैं लिखना भूल गया पर मैं इतना गधा नहीं था कि ये लिखना भूल जाता। इण्टरव्यू में देव साहब मौजूद थे।
उदयन- ओह!
फ़ारूक़ी साहब- इण्टरव्यू में एक साहब ने पूछा कि आपने यह दावा किया कि आप जर्मन, फ्राँसीसी और यूनानी पढ़ लेते हैं। मैंने कहा, ‘मैंने यह दावा नहीं किया है कि मैं इन भाषाओं को पढ़ लेता हूँ, मैंने लिखा है कि मैंने इनके साहित्य को अँगे्रज़ी अनुवाद के माध्यम से पढ़ा है।‘ वे बोले, ‘आपके आवेदन की संक्षेपिका में यह नहीं लिखा हुआ है।’ मैंने कहा, ‘न लिखा होगा लेकिन मैं यह अजऱ् कर रहा हूँ।’ देव साहब ने मदद करने के अन्दाज़ में कहा, ‘श्री फ़ारूक़ी आपको इनमें से कोई एक भाषा आती होगी।’ मैंने कहा, ‘नहीं साहब, थोड़ी-बहुत फ्राँसीसी सीखना शुरू की थी, अब वो भी भूल-भाल गया। हाँ, ये ज़रूर है कि अनुवाद के रास्ते मैंने इन भाषाओं का साहित्य खूब पढ़ा है।’ फिर आएँ-बाएँ-शाएँ सवाल होते रहे। चुनाव तो होना ही नहीं था। इसके बाद मैं हिम्मत करके देव साहब के पास गया कि साहब अब क्या किया जाए। वे बोले, ‘आपने मेरी नाक कटवा दी। आपने लिख दिया कि आपको जर्मन, फ्राँसीसी और यूनानी आती है। लोगों ने कहा कि देव साहब आपके शागिर्द ऐसे हैं।’ मैंने कहा कि मैंने यह लिखा था कि इन भाषाओं के साहित्य का मैंने अनुवाद के जरिये अध्ययन किया है। वे बोले, ‘आपने यह नहीं लिखा था। आपने बहुत बुरा किया।’ मैं अपना-सा मुँह लेकर चला आया। मैं सी. एम. पी. काॅलेज के क्लर्क के पास कम से कम सौ बार गया कि भाई मेरा आवेदन मुझे दिखा दो। वो बहाने मारता रहा। 18-20 साल के लड़के के हिसाब से मैंने बहुत पढ़ रखा था। मैं जल्दी पढ़ गया था और कम कद का था। स्कूल में भी लड़के मेरी ओर इशारा करके कहते थे कि देख़ते हो ये पाँचवी पढ़ता है। एम. ए. में भी मैं 20 से कम उम्र का था और 20 से कम में ही मैं एम. ए. पास कर गया था इसलिए मैंने पढ़ा बहुत था पर अक्ल उतनी ही थी जितनी बीस से कम उम्र के लड़के की होनी चाहिए।
उदयन- आपने कौन-से जर्मन और यूनानी लेखकों को पढ़ा था?
फ़ारूक़ी साहब- मुझे नाटकों का शौक था। मैंने चारों बड़े यूनानी नाटककारों, सोफ़ोकेलीस, यूरिपिडीस, एस्केलस, एरिस्टोफ़ेनीस को पढ़ा था। मुझे वे बहुत याद भी थे। उसी बहाने सेफ़ो को भी देख लिया, पिण्डार साहब में भी मुँह मार लिया, थोड़ा-सा इलियाठ भी देखा। जर्मन में भी गेटे, शिलर को पढ़ा था। अलिफ़-बे न सही कुछ तो पढ़ा था। उपन्यास का शौक था इसलिए फ्राँसीसी साहित्य खूब पढ़ा था। उस ज़माने के प्रचलित लेखक ज़ोला और उसके पहले के फ़्लाबे हमारे दादा होते थे।
उदयन- इनमें से किन्हीं लेखकों के उर्दू अनुवाद हुए थे?
फ़ारूक़ी साहब- कुछ के हुए थे, कुछ के बाद में हुए। ‘मदाम बावेरी’ का उस ज़माने में हसन असकरी ने बड़ा अच्छा अनुवाद किया था। स्टेण्डाल के उपन्यास ‘द रेड एण्ड दी ब्लैक’ का भी असकरी ने फ्राँसीसी से ही उर्दू में अनुवाद किया था। उनकी फ्राँसीसी बहुत अच्छी थी। वे बड़े लायक आदमी थे। ज़ोला के ‘जर्मिनाल’ का भी उर्दू में अनुवाद था। उर्दू में 1910 से लेकर 1940 तक को अनुवाद का ‘स्वर्णयुग’ कहा जाता हैं। उन दिनों बहुत लोगों ने अच्छे-बुरे अनुवाद किये, ढूँढ-ढूँढकर, सस्ते उपन्यासों से लेकर गम्भीर साहित्य तक। शेक्सपियर के उर्दू अनुुवादों की गिनती ही नहीं है।
उदयन- एक बार इन्तज़ार हुसैन हमें बता रहे थे कि वे कालिदास को उर्दू का ही लेखक समझते थे क्योंकि उनके इतने अच्छे तर्जुमे उर्दू में मौजूद थे।
फ़ारूक़ी साहब- यह कोई ग़लत थोड़े है। ‘गीता’ के ढे़रों अनुवाद उर्दू में हुए थे। हमारा सबसे प्रिय ख़्वाजा दिल मोहम्मद साहब का अनुवाद था जिसका नाम था, ‘दिल की गीता।’ हम मौलवी खानदान में थे पर हमारे यहाँ ऐसा नहीं था कि ये हिन्दुओं की कि़ताब है वगैरह....। सब मिल-जुलकर रहते थे। हिन्दू-मुसलमीन में तौर-तरीके बहुत सारे एक से भी थे। हालाँकि हमारे बाप का खानदान थोड़ा सख्त था। पर फिर भी ऐसा नहीं था कि हिन्दुओं से मेल-जोल, उठना-बैठना नहीं हो सकता था, उनका साहित्य नहीं पढ़ा जा सकता हो। हम ये सब पढ़े हुए थे। यार हम बच्चे ही तो थे। आज के ज़माने के बच्चे तो अलिफ़-बे भी नहीं जानते।
उदयन- देव साहब के पास से लौटकर आगे का रास्ता आपने खुद खोजा होगा।
फ़ारूक़ी साहब- मैं थक-हारकर बलिया में लेक्चरर हो गया।
उदयन- इस बीच आप क्या लिख रहे थे?
फ़ारूक़ी साहब- अफ़साने कम आलोचना ही ज़्यादा लिख रहा था। पर थोड़ा-बहुत। मेरा लिखा लड़कपन का वह अफ़साना जिसकी उस्तादों ने बहुत तारीफ़ की थी, मैंने अँग्रेज़ी में करके विश्वविद्यालय की पत्रिका में दे दिया था। वह अब मेरे पास न उर्दू में है न अँग्रेज़ी में। मैं अपने लेखन को सम्भालने के बारे में हमेशा से ही लापरवाह रहाः कुछ ऐसा था कि यार ये हो गया, अब इसे छोड़ो। उस ज़माने में मैंने एक उपन्यास शुरू किया था पर ज़मीला ने हतोत्साहित किया कि ये कुछ नहीं है, इसे छोड़ो। मैंने कहा कि अच्छा भाई, जाने दो। उस दौरान मैंने लेख लिखे।
उदयन- वे किस तरह के लेख थे?
फ़ारूक़ी साहब- उस ज़माने में मेरे ऊपर आई. ए. रिर्चड्र्स और टी. एस. एलियट का बहुत असर था। मैं सोचता था कि ये लोग दूध का दूध और पानी का पानी कर देते हैं। अच्छी शायरी कौन-सी होती है, कैसी होती है, शेक्सपीयर मार्लो से क्यूँ और कैसे अलग हैं। रिचड्र्स का मनोवैज्ञानिक ढ़ंग और एलियट की साफ़गोई का मैं मुरीद था। मैंने उसी असर में दो-चार लेख साहित्यिक सिद्धान्त पर लिखे। पर उनमें एक था, ‘अदब में क़द्र का मसला’ (साहित्य में मूल्य का प्रश्न)। यह लेख पाँच-सात पेज का था, ऐसे ही कुछ और लेख भी थे।
उदयन- ये साहित्यिक सिद्धान्त पर लेख थे, समीक्षाएँ नहीं?
फ़ारूक़ी साहब- मेरी अक्ल में तब तक ये आ गया था या यह धुन आ गयी थी कि उर्दू साहित्य में जो कुछ भी है, बड़ा अच्छा है लेकिन यहाँ आलोचना नाम का जानवर नहीं है। यहाँ असकरी भर हैं लेकिन वे जैसे ही कलम उठाते हैं, उनका पहला जुमला बोदलेयर पर होता है। वे यूरोपीयन साहित्य में डूबे हुए थे। वे भी देव साहब के शागिर्द थे। उन्हें भी देव साहब ने अव्वल नहीं आने दिया, दूसरा दजऱ्ा ही दिया। असकरी ने अपने अफ़सानों का पहला संग्रह ‘जज़ीरे’ देव साहब को समर्पित किया और अपने लेखन में वे जगह-जगह देव साहब का नाम लेते हैं। वे फ्राँसीसी ऐसे पढ़ते थे जैसे हम उर्दू। उनका जुमला है कि जब लोगों को देख़ता हूँ कि दुनिया की शिकायत करते हैं तो मुझे अफ़सोस होता है कि वे बोदलेयर क्यूँ नहीं पढ़ते। उनका लेख यहाँ से शुरू होता था। वे कहते थे कि ‘यूलिसिस’ से ज़्यादा दिलचस्प कोई उपन्यास नहीं और मुझसे वह पाँच पेज से ज़्यादा पढ़ा नहीं गया। वे साहित्यिक मूल्यों की बात अवश्य करते थे और इससे भी बढ़कर साहित्यिक संस्कृति की। मैं अभी वहाँ पहँुचा नहीं था। मुझे यह नहीं मालूम था कि जब यह कहा जाता है कि गालिब ग़ालिब हैं और मीर मीर तो इसके क्या मायने हैं। जब आप यह कहते हैं कि ग़ालिब और मोमिन दोनों के यहाँ नाज़ुक ख़याली है लेकिन ग़ालिब अलग हैं और मोमिन अलग तो ये कैसे है। मेरी धुन ये थी कि पहले मैं साहित्यिक मूल्य स्थापित करूँ कि अच्छाई-बुराई, शायरी-गैर शायरी ये क्या हैं। मैं शायरियों में फ़र्क करना बताऊँ। इसी तरह के थोड़े-बहुत लेख लिखे थे। एक लेख टाॅमस हार्डी पर लिखा था, आधा अँग्रेज़ी में आधा उर्दू में। हार्डी से तब तक मेरा इश्क बाक़ी था।
उदयन- और अपने दूसरे और कहीं ज़्यादा गहरे इश्क, शेक्सपियर पर आपने कभी नहीं लिखा।
फ़ारूक़ी साहब- वो हमारे बाप के बस का नहीं था। हमने मीर पर इतना लिखा है और यह लिख दिया है कि मीर को मैं शेक्सपियर की जगह रख़ता हूँ। जहाँ शेक्सपियर बैठा, वहीं मीर बैठे हुए हैं। यह सही भी है। ये दोनों आदमी इतने बड़े लेखक हैं कि इनसे बड़ा लेखक मैंने नहीं देखा। दोनों अजीब तरह के बदमाश हैं। मैं यही सब झक मार रहा था और बलिया चला गया था। एक साल वहाँ रहा।
उदयन- वहाँ भी क्या आप लिख़ते रहे?
फ़ारूक़ी साहब- एकाध लेख लिखा होगा। वह पढ़ाने का पहला अनुभव था। वह बड़ा सन्तोषप्रद होता है। बी. ए. की कक्षा पढ़ा रहे हैं और मालूम हुआ कि फ़ारूक़ी साहब एक घण्टा शेक्सपियर पर ही बोले जा रहे हैं। दूसरी कक्षा में मुहावरों पर बात हो रही है तो वे बच्चों को मुहावरे समझाये जा रहे हैं, मुहावरेदार अँग्रेज़ी के बारे में। उस वक़्त लिखना कम होता था। मैं जिस कमरे में रहता था, उसमें गुसलखाना तो था नहीं, पर मुझे ये याद नहीं कि मैं नहाने कहाँ जाता था और फ़ारिग होने कहाँ। उन दिनों इन चीज़ों का इतना महत्व नहीं था। अब जहाँ भी जाओ, पहले पूछो गुसलखाना कहाँ है और वो भी अँग्रेज़ी स्टाईल का...
उदयन- हम बैठ भी पायेंगे कि नहीं...
फ़ारूक़ी साहब- हाँ भई। वल्लाह आज मैं याद करता हूँ कि हम लोग बारह-तेरह भाई बहन और बाप-माँ साथ रहते थे पर हमारा घर और हम सब बेहद सफ़ाई से रहते थे। इससे ज़्यादा साफ़ मैंने किसी को नहीं देखा। और जो भी अच्छाई या बुराई उनमें होगी पर श्रद्धालु मुसलमानों से ज़्यादा मैंने साफ़ किसी को नहीं देखा। इतने साफ़ हमारे बाप रहा करते थे, इतना अच्छा कपड़ा पहना करते थे, कब वे अपने को साफ़ रख़ते होंगे, कब नहाते होंगे, कहाँ जाते होंगे। एक घर था, उसमें हम बारह-तेरह बच्चे बैठे हुए हैं, एक ठौ बाथरूम था, गुसलखाना था ही नहीं, लेकिन साहब कभी मैंने उस आदमी के कपड़े में पसीने की महक नहीं सूँघी। मैंने कभी उन्हें मैला कपड़ा पहने नहीं देखा। खैर... कहने का मतलब यह है कि उस समय एक तरह की बेसरोसामानी थी और इश्क फ़रमा रहे थे।
उदयन- जब आप बलिया चले गये थे, क्या तब आप वहाँ से इलाहाबाद आते थे क्योंकि ज़मीला जी वहीं थीं?
फ़ारूक़ी साहब- आते भी थे, कभी टेलीग्राम भेज दिया, कभी ख़त लिख दिया। टेलीफ़ोन तो खैर बहुत बड़ी चीज़ थी।
उदयन- ‘कई चाँद थे सरे आसमाँ’ में शम्सुद्दीन और वज़ीर ख़ानम के बीच जो ख़तो-कि़ताबत चल रही है, क्या उसमें आपके इन ख़तों की याद है?
फ़ारूक़ी साहब- नहीं यार। उस वक़्त इतनी अक्ल कहाँ थी। ये सब तो 75-76 की उम्र में आया है। यह उपन्यास मैंने 2004 में लिखना शुरू किया जब मैं क़रीब 70 बरस का हो गया था। दुनिया भी बहुत सारी देख ली थी, बहुत सारा भुगत लिया था। और तब तक सही मायनों में अपने अतीत, अपनी संस्कृति और हिन्दू-मुसलमान अस्मिता से वाकिफ़ हो लिया था। लेकिन बलिया में इन सब चीज़ों के बारे में क्या पता था कि मुस्लिम अस्मिता किसे कहते हैं या मैं कितना हिन्दू हूँ। एक बार इन्तज़ार हुसैन ने लाहौर में मेरे सामने जलसे में खुलकर कहा कि मैं थोड़ा-बहुुत हिन्दू भी हूँ। यह उसकी नैतिक शक्ति थी कि वह पाकिस्तान में बैठकर लाहौर में इस तरह कह सका। मैं जानता था कि मैं भी थोड़ा हिन्दू हूँ पर उसका विस्तार कितना है, और कहाँ तक मैं हिन्दू नहीं हूँ और क्यों नहीं हूँ और उदयन अगर मुसलमान है तो कहाँ तक मुसलमान है, यह सब अक्ल आयी ज़रूर लेकिन बाद में। लेकिन ये अक्ल, माफ़ कीजिए, बड़े-बड़े तरक्कीपसन्दों-प्रगतिशीलों के यहाँ नहीं मिलती। उनके यहाँ वर्ग वगैरह मिल जाता है कि ग़रीब आदमी है तो अच्छा होगा और बड़ा आदमी है तो साला बदमाश होगा। उनके यहाँ इतना ही होगा, इससे ज़्यादा नहीं। वह जो मानवीय वास्तविकता है, जो हिन्दू-मुसलमान के परे चली जाती है, जिसमें ये दोनों एक-दूसरे में शामिल हो जाते हैं, और फ़र्क नहीं मालूम होता, बात उसकी है। मुझे भारतीय होना और भारत में रहना, हालाँकि इस पर जिसकी हुकुमत है सो है, कहीं ज़्यादा पसन्द है बनिस्पत इसके कि मैं दुनिया के किसी ओर देश में जाकर रहूँ। मुझसे किसी ने पिछले साल पूछा कि आप इलाहाबाद जैसे छोटे-से शहर में कैसे रह पाते हैं, दिल्ली क्यूँ नहीं आ जाते? मैंने कहा कि अगर मुझे यह शहर छोड़ना ही होगा तो मैं न्यूयार्क जाऊँगा या लन्दन, दिल्ली क्यूँ जाऊँगा। छोड़ना उसे कहेंगे। इन संस्कृतियों का अन्तर्गुम्फन सदियों का है और इस देश की संस्कृति उसका परिणाम है। मुझसे लोग अक्सर पूछते है कि आपने उपन्यास लिखने के पहले कितना अनुसन्धान किया था, जिसका जवाब है शून्य। शून्य भी है और मेरी पूरी जि़न्दगी भी है। पाँच बरस की उम्र से मैंने घर में लोगों का उठना-बैठना उनके रस्मों-रिवाज़ देखे हैं। ननिहाल बरेली वालों का था। वे मुहर्रम मनाते थे। काला कपड़ा पहन लिया करते थे। मुहर्रम के वक़्त लोगों को पानी पिलाते थे, खाना पकाते थे, बहुत-से लोगों के साथ मातम मनाने भी निकल जाया करते थे। दादा के तरफ़ के लोग देवबन्दी थे, उनकी श्रृद्धा का रूप ही अलग था।
उदयन- लेकिन इससे शादियों में फ़र्क आता था या नहीं?
फ़ारूक़ी साहब- अब आने लगा है। अब तो उसके पीछे नमाज़ नहीं पढते। असकरी को भी इस चीज़ ने मारा। उन्होंने लिखा है कि लाहौर में बात करते-करते नमाज़ का वक़्त हो गया, कहने लगे नमाज़ पढ लूँ। किसी साहब ने कहा कि मस्जि़द तो पास में ही है, पढ़ लीजिए। इस पर जवाब मिला, पता नहीं मस्जि़द देवबन्दियों की है या बरेलवियों की।
उदयन- असकरी साहब खुद क्या देवबन्दी थे?
फ़ारूक़ी साहब- जी। अब तो हिन्दुस्तान और पाकिस्तान सड़ गये हैं। एक दफ़ा एक बरेवली मौलवी साहब ने मुरादाबाद में किसी के जनाज़े की नमाज़ पढ़वायी। वे बरेलवी थे और जनाज़ा देवबन्दियों का था। उस पर ऐसा हल्ला हुआ कि सबकी नमाज़ तो हुई ही नहीं और मुल्ला लोगों ने फ़तवा दिया कि वे सब मुसलमान नहीं रह गये। उनके फिर से क़लमा पढ़े गये, निकाह पढ़े गये। हमारे ज़माने में यह सब नहीं था। शिया-सुन्नियों में शादी हुआ करती थी। हमारे खानदान के बहुत-से लोग शिया हैं। ननिहाल में बहुत से लोग शिया हैं। अब बहुत बुरा हाल है। हमारे बाप देवबन्दी थे और पाँच वक़्त नमाज़ पढ़ते थे। वे ऐसे लोगों में नहीं थे जो कुरान के तरीकों का उल्लंघन करते हों। बरेलवियों के यहाँ श्रृद्धा थी और रस्मों-रिवाज़ था। रस्म बनाना ज़रूरी है। बुजुर्गों के पास जाना ज़रूरी है। फ़ातिहा पढ़ना ज़रूरी है। ग्यारहवीं की फ़ातिहा अलग होती है, उसमें मिठाई बाँटी जाएगी। बीवी फ़ातिमा का कुण्डा अलग होता है, उसे वे लड़कियाँ ही पका सकती हैं जो कुँआरी हैं और उसे वही लड़के-लड़कियाँ खा सकते हैं, जिनकी शादी न हुई हो। ये सब चीज़ें, ज़ाहिर है, मज़हब में नहीं लिखी हैं पर मुझे बहुत पसन्द हैं। मैंने यह सब उन्हीं से सीखा है। ठीक है कि यह नहीं लिखा कि ये पाँच वक़्त की नमाज़ के बराबर हैं। मोहिउद्दीन इब्ने अरबी (शेख़-ए-अक़बर) ने लिख दिया है कि जब क़यामत में जाओगे, अल्लाह मियाँ ये थोड़े पूछें्रगे कि तूने मेरी कि़ताब पढ़ी या नहीं। मज़हब की ज़रूरी रस्में होती हैं लेकिन उसके बाहर भी बहुत सारा है, जो तुम लोगों से लिया गया है, हमारे पास यह सब कहाँ था! यह कन्या का मसला कि वे ऐसे खाना पकाएँगी कि पहले वह पकाने की जगह को लीपकर साफ़ करेगी, वहाँ बत्ती लगाएगी फिर खाना पकाएगी और उसे सिफऱ् कन्याएँ ही खा सकती हैं और भी बहुत सारा तुम्हारे यहाँ से आया है।
उदयन- वैसे कन्या बड़ा दिलचस्प विचार है, ‘पंच-कन्याओं’ का जि़क्र होता है, इनमें लगभग पाँचों के एक से ज़्यादा विवाह हुए हैं फिर भी वे कन्याएँ हैं। उनमें है अहिल्या है, तारा है, मन्दोदरी, द्रौपदी और कुन्ती हैं।
फ़ारूक़ी साहब- अच्छा! तुम लोगों की खूबसूरती ये है कि तुम ‘ही’ भी हो, ‘शी’ भी। मैं दोनों तरफ़ के लोगों से प्रभावित हुआ। बाप के यहाँ जो नमाज़ की श्रद्धा थी, उससे भी। कितनी भी सर्दी पड़ रही हो लेकिन वे सवेरे उठ जाएँगे। दिल के मरीज़ भी हैं, हाथों में तकलीफ़ भी हो रही है तब भी सुबह चार बजे उठ जाएँगे, ठण्डे पानी से वज़ू करेंगे, मस्जि़द जाएँगे नमाज़ पढ़ने, आकर जितना तय है, कुरान शरीफ़ पढ़ेंगे। उनके लिए सब चीज़ों में गोया खुदा की इबादत सबसे आगे है। उसी के नतीजे में जो किसी भी मुल्ला परम्परा में तंगियाँ होती हैं, वे भी हैं, लेकिन ये भी है कि बीवी का सम्मान करना है, एक औरत के रहते दूसरी शादी नहीं करना हालाँकि कर सकते हैं, मरने के बाद भले कर ली पर वैसे नहीं करेंगे। जो बात बीवी कहती है चलो भई मान लेते हैं, जो खिलाती है खा लेते हैं, शादी-ब्याह के मामले में उससे पूछते हैं, खुद फ़ैसला नहीं करते। मेरे भाई की शादी मेरी अम्मा ने अपनी बहन की बेटी से की। मेरे बाप बिल्कुल राज़ी नहीं थे। लड़की मामूली शक्ल सूरत की, कम पढ़ी-लिखी थी, पर अम्मा अड़ी रहीं। हमारे बाप मान गये। हम बदमाश थे, घर के बाहर निकल गये, वो अलग बात है, वरना शादी हमारी भी घर में ही लगी हुई थी।
उदयन- आप कितने साल बलिया में पढ़ाते रहे?
फ़ारूक़ी साहब- एक साल हमने पढ़ाया बलिया में फिर दो साल आज़मगढ़ में। तब तक भी मेरी आकांक्षा विश्वविद्यालय में पढ़ाने की ही थी। अब मैं जब मुड़कर देख़ता हूँ और अक्सर देख़ता हूँ, अभी अलीगढ़ देखकर आ रहा हूँ, कुछ दिन पहले हैदराबाद में देखा, यहाँ दिल्ली में देख़ता ही रहता हूँ क्योंकि यहाँ मेरी लड़की पढ़ाती है, तो यह सोचता हूँ कि यह बहुत अच्छा हुआ कि मैं विश्वविद्यालय में पढ़ाने के लिए नहीं गया। एक तो पढ़ाने में सन्तुष्टी हो जाती है, अच्छे पढ़ाने वाले को दो-चार प्रशंसक लड़के-लड़कियाँ मिल जाते हैं फिर उसकी अना मोटी होने लगती है, वो सोचता है अब काम की क्या ज़रूरत है, सब कुछ मिल ही गया है। एक अच्छी कक्षा पढ़ा ली तो शेक्सपीयर पर दो लेखों के बराबर हो गयी। अगर हम अँग्रेज़ी पढ़ाते तो ज़्यादातर अँग्रेज़ी में ही लिख़ते। हमारे यहाँ उर्दू में जो बड़े लेखक हुए, हमारे ज़माने में, इत्तिफाक़ से सब अँग्रेज़ी से उर्दू में आये थे। कलीमुद्दीन साहब, असकरी साहब, वगैरह भी अँग्रेज़ी में एम. ए. थे पर इन लोगों की बात कुछ और थी। हम ये ख़याल करते थे कि हम अँग्रेज़ी ही जानते हैं, उसी में लिखेंगे, वही बोलेगें, वही पढ़ेंगे। उर्दू में लिखने का शौक ग़ालिबन विश्वविद्यालय में जाने पर कम हो रहा था। मैं वहाँ पढ़ाने नहीं गया सो अच्छा हुआ पर मेरी वो आकांक्षा बाकी थी।
यह बात विश्वास के काबिल नहीं है लेकिन हुई घटना हैः आज़मगढ़ में अलीगढ़ के कुछ लोग मेरे साथ पढ़ाते थे। उनमें से एक साहब मेरे दोस्त बन गये थे, वे एक दिन बोले कि मेरे चेयरमेन बोस साहब (उनके यहाँ विभाग के अध्यक्ष को चेयरमेन कहते थे) तुमको पूछ रहे थे। मैंने कहा कि मुझे काहे पूछ रहे थे? वे मुझे क्या जानें? वे कहने लगे कि उन्होंने तुम्हारा एम. ए. कविता का पर्चा देखा था, उससे बहुत प्रभावित हुए थे, वे पूछ रहे थे कि ये कौन साहब हैं क्योंकि काॅपी में सिफऱ् रोल नम्बर था। उन्होंने बोस साहब से कहा कि एक साहब हमारे यहाँ आज़मगढ़ में आये हैं पढ़ाने, वे बड़े तेज़ हैं, वे ही रहे होंगे ग़ालिबन, फ़ारूक़ी उनका नाम है। ये सुनकर मुझे हिम्मत हुई और मैंने बोस साहब को ख़त लिखा। एक और कि़स्सा सुनाता हूँ।
उदयन- आपकी यह ख़ास बात है कि आप एक कि़स्सा सुना रहे होते हैं और अचानक उसे बीच में छोड़कर दूसरा सुनाने लगते हैं, फिर कुछ देर बाद उस पर वापस आ जाते हैं। आप लिख़ते भी कुछ ऐसे ही हैं। पर उसपर बाद में आएँगे। आप क्या कह रहे थे ?
फ़ारूक़ी साहब- जब मैंने एम. ए. कर लिया और लेक्चरर होने की आकांक्षा में विभाग के और देव साहब के घर के चक्कर काट ही रहे थे, यह ख़याल आया कि क्यूँ न पीएच. डी. कर ली जाए। उस ज़माने में पीएच. डी. कम लोग करते थे। हरिवंश राय बच्चन उन्हीं दिनों केम्ब्रिज से पीएच. डी. लेकर लौटे थे और हम लोगों को आधुनिक कविता पढ़ाया करते थे। उनसे मैंने चार-छः महीने ही पढ़ा क्योंकि वे मेरे एम. ए. फायनल में आये थे। मुझे आधुनिक कविता का, फ्राँसीसी प्रतीकवादी कवियों वगैरह का बहुत शौक था जैसा कि मैंने आपसे अर्ज किया कि अपने ख़याल में मैं पढ़ा हुआ बहुत था। हमने बोदलेयर, रिम्बो आदि को पढ़ रखा था। अठारहवीं शताब्दी के बारे में देव साहब कहा करते थे कि तब के अँग्रेज़ी कवियों ने परोक्ष ढ़ंग से फ्राँसीसी प्रतीकवादियों पर प्रभाव डाला ख़ासकर कोलिन्स और जाॅन क्लेयर ने। मैं बच्चन साहब के पास गया कि मुझे पीएच. डी. करना है, आप करा दें तो मैं हाजि़र हूँ। वे बोले, क्या विषय रखोगे? मैंने कहा कि फ्रेंच सिम्बालिस्ट पोएट्स एण्ड मार्डन इंग्लिश पोएट्री (फ्राँसीसी प्रतीकवादी कवि और आधुनिक अँग्रेज़ी कविता)। मैंने ऐसा ही कुछ कहा था। वे बोले कि अच्छा ठीक है, कल ग्यारह बजे आओ, बात करेंगे। अगले दिन बारिश होने लगी। सायकि़ल से जाता कैसे और रिक्शा बड़ी बात थी। मैं नहीं गया या गया तो देर से गया। वे बोले, ‘आप क्या पीएच. डी. करेंगे, आपको कल ग्यारह बजे का समय दिया था, आप आज आ रहे हैं।’ मेरा दिमाग अलग ही थी। ग़रीब सही हम मियाँ भाई तो थे ही। पहले एक पाद टिप्पणी बता दूँ कि हमारे गाँव के फ़ारूक़ी लोगों के चार-पाँच सामान्य लक्षण हैं। एक तो ये कि वे सारे के सारे अच्छे दिख़ते हैं। दूसरा ये कि वे बहुत ईमानदार होते हैं और तीसरा ये कि अपने बराबर किसी को समझते नहीं। हम थे तो मियाँ भाई, अकड़नें तो थीं ही, फिर भले ही ग़रीब हों, मास्टर हों, फटेहाल हों, पायजामा-कमीज़ पहनते हों, तो अपनी अकड़ में हम बच्चन साहब के पास फिर नहीं गये। हमने कहा, ‘अब हम नहीं जाते।’
उदयन- यानि आप मुसलमानों में ‘वाजपेयी’ हैं...
फ़ारूक़ी साहब- ये तुमने खूब कहा। बहरहाल, दो साल बाद हमारे दोस्त अली हम्माद अब्बासी साहब ने वो चिंगारी दोबारा रोशन की। वे बोस साहब के शार्गिद थे और उन्होंने ही मुझसे कहा था कि बोस साहब मेरे बारे में पूछ रहे थे। मैंने बोस साहब को चिट्ठी लिख डाली कि साहब मैं फलाँ फलाँ हूँ, इलाहाबाद से पढ़ा हूँ, नौकरी करने को मजबूर हूँ पर मेरा दिल चाहता है कि आपके यहाँ पढ़ने को आऊँ और पीएच. डी. करूँ। मेरा विषय ‘फ्राँसीसी प्रतीकवादी कवि और आधुनिक अँग्रेज़ी कविता’ हो। उस ज़माने के लोग ही कुछ और थे। तुरन्त जवाब आयाः मैंने तुम्हारी काॅपी देखी थी, मैं तुमसे कुछ-कुछ प्रभावित हुआ और मैंने तुम्हारे बारे में पूछताछ की थी। तुम्हारा यहाँ स्वागत है लेकिन शोध का तुम्हारा विषय तुम्हारे लिए कुछ कठिन होगा, लेकिन तुम कोशिश कर सकते हो, इस बीच तुम ये कुछ कि़ताबें पढ़ लो (उन्होंने कुछ कि़ताबों के नाम लिखे) अगर यहाँ कोई जगह खाली हुई, मैं तुम्हे बताऊँगा, तब तुम यहाँ आकर पढ़ाना और बाकी सब देखा जाएगा। खैर....वहाँ जगह निकली पर हम इण्टरव्यू देने नहीं जा सके क्योंकि सिविल सर्विसेस की परीक्षा का चक्कर पड़ गया।
उदयन- तब तक आपकी शादी नहीं हुई थी?
फ़ारूक़ी साहब- शादी हम कर चुके थे। मौलवी लोग शादी करने में देर नहीं करते। हम बलिया में पढ़ा रहे थे। मैं बलिया सितम्बर में पहुँचा हूँगा, दो-तीन महीने झक मारने के बाद कुछ नज़र नहीं आया। मीर का शेर है-
        जब रात सर पटकने ने तासीर कुछ न की
        लाचार मीर मुटकरी-सी मारकर सो गया
हम भी बलिया में मुटकरी-सी मारकर सो गये। मैंने वहीं शादी कर ली थी।
उदयन- आप बलिया से शादी करके आज़मगढ़ आ गये थे, आप अपनी अगली नौकरी का कि़स्सा सुना रहे थे।
फ़ारूक़ी साहब- हमारे एक साथी आज़मगढ़ के पढे़ थे, बाद में वे एन.डी.ए. खड़कबासला में भूगोल शास्त्र के प्रोफ़ेसर हो गये थे। वे लखनऊ के थे, नाम था मुहम्मद अब्दुल हाफि़ज सिद्दीक़ी। उनके साथियों में एक लड़का था साद, जो पहला मुसलमान विदेश सेवा में गया था, हम लोगों से एक-दो साल पहले। वह जवानी में ही मर गया। साद ने अब्दुल हाफ़ीज से कहा कि तुम सिविल सर्विसेस की परीक्षा में बैठते क्यूँ नहीं, ये क्या तुम आज़मगढ़ में पढ़ाये जा रहे हो। उसने उन्हें एक फाॅर्म भेज दिया, उन्हें उत्साहित करने। चूँकि ये उत्साहित हो ही चुके थे, एक फाॅर्म इन्होंने खुद भी बुला लिया। इस तरह दो फाॅर्म हो गये। हाफि़ज साहब मुझसे बोले, एक फाॅर्म तुम भर दो। हमने कहा कि हम भरकर क्या करेंगे। हमें ये नौकरी नहीं करना। वे बोले, ‘अरे भर दीजिए साहब, क्या रक्खा है न भरने में।’ शम्सुर्रहमान साहब ने फाॅर्म भर दिया। यह सन् 1956 की बात है, मैंने 1957 के लिए फाॅर्म भर दिया। जब अलीगढ़ से पढ़ाने की नौकरी के लिए इण्टरव्यू देने का मौका आया, मेरा अँग्रेज़ी का पेपर था, सिविल सर्विसेस का। मैं अलीगढ़ नहीं गया। हालाँकि जाना-न-जाना बराबर होता क्योंकि मेरे इण्टरव्यू में इतने खराब नम्बर थे कि लिखि़त परीक्षा में अव्वल आने के बाद भी मैं आई. एफ. एस. में नहीं चुना जा सका इसलिए मेरा सिविल सर्विसेस के इण्टरव्यू में बैठना न-बैठना बराबर था। हम आज़मगढ़ में पढ़ा रहे थे, बस में बैठे, अगले दिन इलाहाबाद आये, इम्तिहान दिया, रात को लौट आये। इस तरह सिविल सर्विसेस का इम्तिहान दिया। अँग्रेज़ी अच्छी थी और कुछ बहुत नहीं जानते थे। फ़ारसी जानते थे, सो फ़ारसी ले ली थी, ब्रिटिश इतिहास वगैरह तो घर का नौकर था, एक पेपर वो हो गया था, ब्रिटेन के संवैधानिक इतिहास पर भी एक पेपर था, उसके लिए हमारी बीवी मरहूमा दुकान से एक कि़ताब ले आयी थीं। मैंने उसे रातभर में पढ़ लिया था। उसी को जाकर उड़ेल दिया। यह सब अँग्रेज़ी का चमत्कार था, जो मैं अच्छी लिख़ता था। सब विषयों में अच्छे नम्बर थे, अलावा समान्य ज्ञान के। मुझे बहुत बाद में मालूम पड़ा कि मैं लिखि़त परीक्षा में देश में अव्वल था। उस ज़माने में नौकरी में रहते हुए परीक्षा में दोबारा बैठने की अनुमति नहीं थी। आपको जो नौकरी मिल गयी, ले लीजिए, अगर दोबारा बैठना है तो नौकरी छोड़ दीजिए। यह मालूम था कि मुझे इन्कम टैक्स करना नहीं है, उसके लिए मारवाड़ी ज़ुबान सीखना पड़ती, मुल्ला आदमी को अपनी जेब के ही पैसे पता नहीं होते। पोस्ट आॅफिस मुझे अच्छा लगता था, वहाँ शान्ति रहती थी। अच्छी सेवा-खातिर हो रही है। चिट्ठियाँ आ-जा रही हैं। मुझे पोस्ट आॅफिस मिल गया। कुछ लोगों ने कहा कि इस नौकरी को छोड़कर दोबारा बैठकर आई. ए.एस. या आई.एफ.एस. करो, मैं कर भी सकता था पर अब्बा के डर से मैंने नौकरी नहीं छोड़ी। वे बहुत सख्त थे।
उदयन- तब तक वे सेवा निवृत्त हो चुके थे?
फ़ारूक़ी साहब- नहीं भाई। नौकरी में थे। उनकी नौकरी के आखिरी बरस थे और वे इलाहाबाद में ही थे। उनसे सब डरते थे, हम भी डरते थे। वो अलग कहानी है, उसको छोड़ते हैं। इस तरह मैं डाकखाने का नौकर बन गया।
उदयन- सिविल सर्विसेस के इण्टरव्यू में आपको शून्य क्यों मिला था?
फ़ारूक़ी साहब- वो भी सुन लो, उसके बग़ैर कहानी पूरी कहाँ हुई। वह चैबीस जनवरी का दिन था। दिल्ली में छब्बीस जनवरी का जश्न तब भी होता था। इण्टरव्यू लेने कई लोग बैठे थे। उसमें पुलिस के कुछ लोग थे, कुछ और थे। पहले उन्होंने छोटा-मोटा सवाल पूछा। आप लखनऊ पढ़ने क्यूँ नहीं गये? इलाहाबाद क्यूँ गये? मैंने कहा कुछ तो इसलिए कि मेरे बाप और मामा वहाँ पढ़े हैं, कुछ इसलिए कि लखनऊ में पढ़ाई अच्छी नहीं होती। मैं कह गया कि वहाँ लड़के फैशन ज़्यादा करते हैं। मुझे क्या ख़बर कि वहाँ ऐसा कौन बैठा था, जो लखनऊ में पढ़ा था। मैंने बाद में सोचा, तुझे ये सब कहने की ज़रूरत क्या थी बे, तू अपने काम से काम रख़ता। इस तरह पहला कदम ही ग़लत पड़ा। अगला सवाल, क्या आप दिल्ली पहली बार आये हैं? मैंने कहा, जी हाँ। वे बोले, परसों छब्बीस जनवरी के लिए क्या आप ठहरेंगे? मैंने कहा, जी नहीं। यह सन् 57 है और एक मुसलमान लौण्डा, जो 22 बरस का है, जिसकी कोई अक्ल नहीं है, वो यह कह रहा है। उन्होंने पूछा, क्यों?  मैंने कहा, मुझे ये तमाशे पसन्द नहीं।
उदयन- दूसरा ग़लत कदम। उनमें से हो सकता है कोई उन तमाशों का प्रभारी रहा हो?  
फ़ारूक़ी साहब- इण्टरव्यू बोर्ड में वर्दी पहने एक पुलिस अफ़सर थे, वे बोले, आपने एक विकल्प पुलिस (आई. पी. एस.) का भी लिखा है, आप वो नौकरी कैसे करेंगे?  मैंने कहा, कर लेंगे, आदमी सब सीख जाता है। तीसरी बेवकूफ़ी। शून्य मिलना ही था। हम उसे लेकर चले आये। अगर हम अलीगढ़ चले भी गये होते, शून्य तब भी मिलता। कुछ दिन हम डावाँडोल रहे कि डाकघर जाएँ न जाएँ पर उस ज़माने में मुसलमान आदमी को इतनी बड़ी नौकरी मिलती कहाँ थी। तब नौकरियाँ भी कहाँ थी। न टी. व्ही. स्टेशन था, न कम्पनियाँ थीं, इक्का-दुक्का पढ़े-लिखे लोगों को रेडियों में नौकरी मिलती थी।
उदयन- आप तब तक रेडियो स्टेशन शायद न गये हों?
फ़ारूक़ी साहब- ये सब हमारी महत्वाकांक्षा के बाहर की चीज़ें थीं। ये सोचा था लेखक बनूँगा पर वैसा ही जैसे बहुत से होते हैं। ज़्यादा ज़रूरत ये थी कि नौकरी करो, घर को सहारा दो, कुछ अपने को सहारा दो।
उदयन- आपने कहीं कहा है कि जो पत्रिका आपने प्रकाशित करना शुरू की और जो उर्दू की मशहूर पत्रिका रही है, उसे निकालने में ज़मीला जी ने बहुत योगदान दिया था।
फ़ारूक़ी साहब- मैं पहले प्रशिक्षण के लिए नागपुर गया। थोड़ी-बहुत शायरी भी करता था। कभी कुछ लिख भी लिया पर दिल में ये था कि अभी और पढ़ना चाहिए, इसके बाद शायरी करना चाहिए। हमारे दो-तीन दोस्त थे, जिनमें से एक कबीर एहमद जायसी, एक थे अबरार हुसैन खान ‘आज़मी’ साहब। इन लोगों से ख़तों-कि़ताबत थी, जिनमें कभी वो अपने शेर लिख भेजें, कभी मैं। प्रशिक्षण का समय निकल गया। कुछ दिन जबलपुर में था, दिल्ली में भी। फिर मेरी नियुक्ति गुवहाटी में हो गयी। उस वक़्त मैंने ग़ालिब पर चार-पाँच लेख लिखे। उन्हें लिखकर मैं अपने ख़याल में, बड़े तीर मार रहा था। उन दिनों हमारे दोस्त और एक तरह के अनौपचारिक शार्गिद कबीर एहमद जायसी जामिया मिलिया से प्रकाशित होने वाले पर्चे ‘अरीब’ के सम्पादक थे। वे आज़मगढ़ में मेरे पास आया-जाया करते थे। मेरे साथ उठते-बैठते थे, हमारा मिजाज़ एक-सा था। उन्होंने गुवहाटी से मुझसे कुछ लेख भेजने को कहा। मैंने ये लेख उन्हें भेज दिये। ग़ालिब पर लिखे मेरे वो लेख ‘अरीब’ में छप गये। पर ‘अरीब’ का वितरण जामिया में ही होता था। इसलिए वे लेख बाहर ज़्यादा न निकले। एकाध बार कहीं किसी ने पाकिस्तान में ये जि़क्र कर दिया कि ग़ालिब पर नया मजमून आया है और फ़ारूक़ी साहब ने लिखा है। गालिब पर उस श्रृंखला का आखिरी लेख मैंने गुवहाटी में लिखकर उसे ‘आजकल’ में भेजा। ‘आजकल’ उन दिनों की प्रतिष्ठित पत्रिका थी। उसका वितरण भी खूब था। एक ज़माने में उसे जोश साहब निकालते थे, उनके बाद जगन्नाथ आजाद उसके सम्पादक बने थे। वे जाने-माने और पढ़े-लिखे लोग थे। ‘आजकल’ ने उस लेख को प्रकाशन के लिए स्वीकार कर लिया। अब वो आज छपता है या कल, ऐसा करते-करते साल निकल गया। मैं गुवाहटी से दिल्ली आ गया। वहाँ से ख़त आ गया कि हमें इस मजमून के लिए जगह नहीं मिल रही इसलिए इसे वापस किया जा रहा है। उन दिनों अलीगढ़ से एक ऊँचे दर्जे की पत्रिका निकलती थी फि़क्र-ओ-नज़र, आज भी निकलती है, पर वो अधिकतर फ़ारसी के बारे में होती है। प्रो. नज़ीम एहमद साहब इसके सम्पादक थे। मैंने वो लेख उन्हें भेज दिया। लेख का नाम कुछ इस तरह थाः ‘उर्दू शायरी में ग़ालिब और इक़बाल और आसमान का विचार’ या ऐसा ही कुछ। वह लेख वहाँ छप गया। यह बात 1961 की है। वह पूरा साल मैंने दिल्ली में ही गुज़ारा। एक-दो लेख मैंने और लिखे। वे भी धीरे-धीरे वहाँ छप गये। 1963 में मैं इलाहाबाद आ गया तब वहाँ सैयद एजाज़ हुसैन साहब के चारों तरफ़ नये-पुराने लोगों की मण्डली हुआ करती थी। एजाज़ साहब के घर हर गुरूवार को बैठक होती थी, जिसे ‘थर्सडे क्लब’ कहा जाता था। उस क्लब में ज़्यादातर लोग अपने लेख पढ़कर सुनाते थे, कभी-कभार कोई शायरी पढ़ता था, फिर उस पर बातचीत होती थी। एक बार कहानी पर बातचीत के दौरान मैंने अपनी असहमति व्यक्त की। एजाज़ साहब बोले कि इस विषय पर आप लिखिए। मैंने उनकी बात मानी। वह मेरा पहला मुकम्मल लेख था, जो मैंने कहानी के सिद्धान्त पर पच्चीस-तीस पेजों में लिखा था। मैंने उसे वहाँ पढ़ा। कुछ खुद पढ़ा, कुछ अपने दोस्त से पढ़वाया क्योंकि मैं थक जाता था। उस पर सभी लोगों ने अच्छी प्रतिक्रिया दी अगरचे वो प्रगतिशील विचारों से बिल्कुल अलग था। सारी मुहब्बत तो मुझे रूप (फाॅर्म) से थी। मेरी दिलचस्पी इसमें नहीं थी कि उसमें सन्देश क्या है, या उसकी सामाजिक प्रासंगिकता क्या होनी चाहिए या लेखक की सामाजिक प्रतिबद्धता क्या होनी चाहिए। पे्रमचन्द वगैरह को पढ़कर दिल भर चुका था। उस पर कितनी बात की जाए। मैंने आख्यान के सिद्धान्त पर, उसमें समय के विचार पर और इसी तरह की दूसरी चीज़ों पर लिखा था। उन दिनों फोटो-वोटो काॅपी होती नहीं थी। टाईप करना हम जानते नहीं थे और दबा-दबाकर कार्बन पर कौन लिखे। उस लेख की प्रति मैंने रखी नहीं। ‘थर्स डे क्लब’ में सुनाने के बाद मैंने उसे अलीगढ़ भेज दिया। वैसे वो लोग क्लासिकल शायरी और फ़ारसी पर लिखे मजमून छापते थे। पर मेरा लेख उन्हें अच्छा लगा और वे मेरे कुछ लेख छाप चुके थे। इसलिए उन्होंने कहा कि हाँ इसे छापेंगे।
उदयन- उस लेख के स्रोत क्या थे और किन चीज़ों को ध्यान में रखकर वह लिखा गया था?
फ़ारूक़ी साहब- उसमें आख्यान का सिद्धान्त था, चरित्रों की अन्तःक्रिया और यह कि समय को कैसे चित्रित किया जाता है, मसलन दस साल में हुई किसी घटना का आख्याता आधे घण्टे में बयान कर देता है, कई बार एक दिन की घटना पूरे उपन्यास में फैल जाती है जैसा कि ‘यूलिसिस’ में है। आख्याता समय को कैसे तोड़ता-मरोड़ता है। कैसे यह होता है कि कोई चरित्र लेखक की गिरफ़्त से बाहर निकल जाता है जैसा कि दोस्तोएवस्की ने लिखा था कि आजकल मैं फलाँ चीज़ लिख रहा हूँ और मेरा यह बदमाश चरित्र मेरे हाथ में ही नहीं आता। मैं चाहता कुछ और हूँ, यह बन कुछ और रहा है। मैंने उन चीज़ों को लिया, जिन पर उर्दू में कभी बात हुई ही नहीं थी। ज़्यादातर लोग सामाजिक जि़म्मेदारी और सुधार के बारे में बात करते थे। कहते थे देहातों का हाल बयान करो। राजनैतिक प्रतिबद्धता दिखाओ। लोग यही सब कर रहे थे।
उदयन- साहित्य के रूप को लेकर कोई सजगता नहीं थी। हिन्दी के अधिकांश लेखकों में आज भी नहीं है। अब यह नासमझी और घनी हो गयी है। इसका कारण इनकी साहित्य और राजनीति की ग़लत समझ है। साहित्य का राजनीति से बहुत पैचीदा सम्बन्ध होता है जिसकी हिन्दी साहित्य में सजगता नहीं है।
फ़ारूक़ी साहब- उर्दू में भी नहीं थी। बहरहाल हुआ ये कि उन्होंने भी छापा नहीं। पता नहीं किस कारण। पर मुझसे ये कहा कि वह खो गया है। उन्होंने कहा कि हमारे क्लर्क बदल गये हैं, इस कारण वह खो गया है, अगर उसकी काॅपी रखी हो तो भिजवा दें। काॅपी कौन रख़ता है भाई।
इन सब चीज़ों से मुझे कुछ ज़्यादा ही दुःख पहुँचा। बी. ए. के ज़माने में लिखे अफ़सानों से मैं अब आगे आ चुका था। मैंने सोचा था कि अब जो मैं लिखूँगा, अलग लिखूँगा। अब मैं शायरी या अफ़सानों से ज़्यादा आलोचना लिखकर उर्दू के लोगो को यह बताऊँगा कि हमारे यहाँ साहित्यिक समझ का कोई पुख़्ता आधार नहीं हंैं। लोगों को यह समझाऊँगा कि कहानी क्या होती है, शायरी का आधार क्या होता है। ये सारी बुनियादी बातें कहने की ज़रूरत थी।
हैदराबाद से एक पत्रिका ‘सबा’ निकलती थी, उसके सम्पादक हालाँकि प्रगतिशील थे लेकिन अच्छे शायर और अपेक्षाकृत उदार थे, उनका नाम सुलेमान अरीब था। वे युवा लेखकों को प्रोत्साहित करते थे। मैंने उन्हें एक निबन्ध लिखकर भेजा, जिसका शीर्षक था, ‘साहित्य के दर्शन पर कुछ बातें’ (फ़लसफा ए अदब पर कुछ मुब्तदियाना बातें)। ज़ाहिर है हमारी औक़ात ही कितनी थी फ़लसफा छाँटने की पर अपने ख़याल में हम नयी ज़मीन तोड़ रहे थे। मैंने उसमें यह नहीं बताया था कि साहब सामाजिक कार्यक्रम क्या होना चाहिए, सामाजिक बदलाव साहित्य कैसे लाता है या क्रान्तिकारी शक्तियों का साथ देना है वगैरह, जो कुछ भी तब हमारे यहाँ चल रहा था, उसका कोई जि़क्र नहीं किया। मैंने उसमें लिखा था कि रूप और कथ्य में क्या सम्बन्ध होता है, साहित्य में जगत का प्रतिनिधित्व कैसे होता है, यह दावा करना ग़लत है कि कोई लेखक सच्चा यथार्थवादी है क्योंकि ऐसा कुछ होता ही नहीं है। लेखक जि़न्दगी के छोटे-से हिस्से को लेकर अपनी तौर पर लिख़ता है, वही वह कर सकता है। यह लेख छप-वप गया। उन्होंने पसन्द किया। उनकी पत्रिका का वितरण बहुत दूर तक नहीं था अगरचे उनके यहाँ लिखने वाले बेहतर थे। उनके यहाँ मैं कभी-कभी लिख़ता था। उसी ज़माने में टी. एस. एलियट मरे। उन्होंने कहा उन पर कुछ लिख दो। मैंने उन पर पाँच-सात पेज लिखकर भेजे। मैंने कहा कि यह पहला हिस्सा है, मैं दूसरा हिस्सा बाद में लिखकर भेजूँगा। उन्होंने कहा दूसरा भी भेज दीजिए, हम साथ में छापेंगे। वह मेरे प्रकाशित निबन्धों में अपेक्षाकृत लम्बा निबन्ध था। वह संग्रहीत भी हुआ। मैं उसे अब भी अस्वीकार नहीं करता। बहरहाल मुझे यह ख़याल आया कि सुलेमान अरीब साहब छोटा-सा एक परचा निकालते हैं जिसको कोई वित्तीय सहयोग नहीं मिलता, छोटा-मोटा विज्ञापन आ गया तो आ गया। लेकिन ये अपने पर्चे ‘सबा’ में हैदरबाद और उसके आसपास के इलाक़े, जो पुराने हैदराबाद में थे और अब महाराष्ट्र में हैं, वहाँ के लोगों को जगह बहुत मिलती है। मैंने सोचा कि काश हमारे पास भी ऐसा कोई पर्चा होता जिसमें हम इलाहाबाद और उसके आसपास के लेखकों ख़ासकर युवाओं को प्रकाशित कर पाते ताकि वे आजादी से जो भी शायरी या कहानियाँ लिख रहे हैं, छपवा सकते। हैदराबाद दूर है, वहाँ के पर्चे को यहाँ लोग जानते भी नहीं हैं, न उनके पास ऐसा कोई सहयोग है, जिनके सहारे उनका दूर की पत्रिकाओं से सम्बन्ध बन सके। बशीर बद्र फि़राक साहब के यहाँ उठते-बैठते थे, अपनी बाद की जि़न्दगी में फि़राक साहब अपने हाथ से बहुत कम लिख़ते थे, वे बोल देते थे। कुछ तो इसलिए कि लिखने में मुश्किल होती थी, कुछ इसलिए भी कि अपने आखि़री वक़्त में वे हिज्जों के बारे में अनिश्चित हो गये थे। उन दिनों वे ग़ज़ल लिखवा देते थे। बशीर बद्र वे ग़ज़लें छपने को भेजते थे, साथ में अपनी एकाध ग़ज़ल भी डाल देते थे और लिख़ते थे कि ये बशीर बद्र साहब हैं, इलाहाबाद के होनहार शायर, इनका कलाम भी देख लीजिए। इस तरह जब पाकिस्तान की बड़ी पत्रिकाओं जैसे ‘फ़ुनून’ या ‘सवेरा’ में जहाँ फि़राक साब छप रहे हैं, वे भी छापे जा रहे हैं। मैंने ख़याल किया कि हमारे यहाँ ऐसा कोई आदमी है नहीं जो ये करे, लिहाज़ा हमें कुछ अपना करना चाहिए। हमने जमिला से कहा कि रिसाला निकला जाए, लोग कहते हैं कि वो वित्तीय दृष्टि से सम्भल जाएगा। जैसे इलाहाबाद में अर्ध-साहित्यिक पत्रिका ‘नक्ख़त’ निकलती थी। उसमें लिखने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश के बहुत लोग थे। उन्होंने भी हमसे कहा कि एक रिसाला चल सकता है। ‘नक्ख़त’ वालों के बाप व्हीलर वालों के सामान्य प्रबन्धक थे। उन्होंने कहा कि मैं अपने बाप से कहकर आपका रिसाला व्हीलर पर रखवा दूँगा, उससे कुछ बिक्री हो जाया करेगी और उसका विज्ञापन भी हो जाएगा। ऐसा हुआ भी। एक तो वह नये ढं़ग से छपी हुई पत्रिका थी, अगरचे नाम कुछ प्रोगे्रसिव था, ‘शबख़ून’ पर उसमें सामग्री बेहतर थी, और उसमें अनुवादों के कारण अन्तर्राष्ट्रीय महक भी थी। वह बिकी भी। व्हीलर की दुकानों पर उसकी बिक्री अच्छी होती थी। बीवी ने कहा कि चलो निकालते हैं।
उदयन- तब आप दिल्ली में थे या कहीं और तबादला होकर चले गये थे?
फ़ारूक़ी साहब- मैं इलाहाबाद आ गया था। यह 1965 की बात है। उसी ज़माने की जब एलियट के मरने पर मैंने मजमून लिखा था। जब रिसाले की योजना बनी, एजाज़ साहब और एहतेशाम साहब ने, अगरचे वे प्रगतिशील थे, पूरे दिल से साथ दिया। वे जानते थे कि मैं प्रगतिशील नहीं हूँ बल्कि मेरे दिमाग में उसके खिलाफ़ ख़यालात भी हैं। एजाज़ साहब ने यह भी कहा कि मैं इसका सम्पादक बन जाऊँगा ताकि तुम लोगों को इस बात से सहयोग मिल सके कि उर्दू का सबसे वरिष्ठ लेखक तुम्हारी पत्रिका का सम्पादक है। वे मशहूर लेखक थे भी। बिस्मिल्लाह, मैंने वो रिसाला निकाला। वह बहुत चल गया। उसमें आधुनिक लेखन के बहुत-से विवाद भी प्रकाशित हुए। अन्ततः सालभर बाद एजाज़ साहब धीरे-धीरे करके बाहर हो गये। न मैंने कहा अलग होईये, न उन्होंने कहा अलग होऊँगा, लेकिन हम लोगों ने उनका नाम हटा दिया। वे कुछ बोले नहीं। उस वक़्त तक लकीरें साफ़ हो गयी थीं। अगरचे यह अच्छी पत्रिका है, आमतौर पर निष्पक्ष नज़र आती है लेकिन यह प्रगतिशील विचारधारा के विरोध की पक्षधर है। हमने कुछ प्रगतिशील लोगों को आमन्त्रित भी किया था जैसे उपेन्द्रनाथ अश्क, एहतेराम हुसैन, कृश्न चन्दर, मुहम्मद हसन, इस्मत चुकताई आदि। हिन्दी के इलाचन्द जोशी से भी कुछ-कुछ ले लिया करते थे। बेदी साहब के अलावा सरदार जाफ़री से भी हमने आग्रह किया। कुछ दिन बाद उनकी नज़्म भी हमें मिल गयी। आमतौर पर पत्रिका गैरप्रगतिशील बल्कि प्रगतिशील विरोधी ही जानी जाती थी। कुछ लोगों ने कहा कि इसे अमेरिका से सहयोग मिल रहा है, इसे ज़रूर सी. आई. ए. से पैसा मिलता होगा क्योंकि कोई उर्दू की पत्रिका इतने अच्छे काग़ज़ पर, इतनी नियमित, हर बार नये आवरण के साथ और अच्छी सामग्री से भरी हुई हो तो यह किसी बेचारे हिन्दुस्तानी के बस के बाहर की चीज़ है। यह साफ़-साफ़ प्रगतिशील विरोधी भले न हो पर इसमें उन लोगों को जगह मिल रही है, जो प्रगतिशील नहीं है। या जो प्रगतिशीलता से हट गये हैं जैसे अलीगढ़ के खलीलुल्रहमान आज़मी या अमीक हनफ़ी, मज़हर मेहन्दी जो लखनऊ के थे, अपने को जि़न्दगी भर वामपन्थी कहते रहे लेकिन प्रगतिशीलों से उनकी कभी बनी नहीं, वे भी हम लोगों के यहाँ लिखने लगे। ऐसा था कि गोया ये लोग चाहे खुले रूप में प्रगतिशील विरोधी नहीं भी थे, लेकिन उनके पक्ष में भी नहीं थे और प्रगतिशीलों के पक्ष में न होने के कारण इन लोगों में प्रगतिशीलों का-सा शोरो गुल नहीं था। इस सबके कारण हमें गाली पड़ना शुरू हो गयी कि ये लोग अर्थ का तिरस्कार करते हैं, साहित्य के सामाजिक कत्र्तव्य को नकारते हैं, ये चाहते हैं कि साहित्य दुनिया के किसी कोने का न होकर हवा में लटका हो। यह सब हुआ तब भी सारे युवा लोग हमारी पत्रिका की ओर खिंचे चले आये। हमने उसमें जिन बातों पर ज़ोर दिया था, उनमें पहली यह थी कि साहित्य में प्रयोगधर्मिता का स्वागत होना चाहिए। भले वह बहुत अच्छी न निकले। दूसरा कि कहानी या गल्प में प्रेमचन्द के आदर्श को सेंध लगाने में हम हर तरह से तैयार हैं। आप उस आदर्श को प्रश्नांकित करें, हम आपकी कथा को प्रकाशित करेंगे। सुरेन्द्र प्रकाश, बलराज मेनरा आदि लेखक हमने प्रकाशित किये। दिल्ली के कई युवा लेखक भी आगे आये। हमने ये भी कहा कि हम किसी के कहे में नहीं हैं, किसी के कहने से नहीं लिख़ते, हो सकता है हम वही बात कहें जो आप कह रहे हैं तब भी हम आपके कहने से वो नहीं लिखेंगे जैसा कि कामू ने कहा था कि अगर कभी सही और ग़लत, सत्य और असत्य का झगड़ा आन पड़े, मैं हमेशा सत्य की तरफ़ ही खड़ा रहूँगा लेकिन मैं ऐसा किसी के कहने से नहीं करूँगा। मैं मज़ाक भी करता था कि स्तालीन मर भी नहीं पाये थे, सिफऱ् मृत्युशय्या कि थे पर यारों ने नज़्में लिख-लिखकर तैयार रखी थी कि कब वह मरेगा और कब वे उसे छपवाएँगे। हमने कहा, ये क्या ज़रूरी है कि अगर महाराष्ट्र में बाढ़ आ गयी, हम उस पर नज़्म ज़रूर लिखें, हमारा दिल चाहेगा लिखेंगे न चाहेगा न लिखेंगे। इस सबके कारण जब 1967 में आधुनिकता पर सम्मेलन हुआ तो ये कहा गया कि यह एक आन्दोलन है। इस पर हमने कहा कि अगर ऐसा है तो इस आन्दोलन के अध्यक्ष कौन साहब हैं, सचिव कौन हैं, इसका आॅफि़स कहाँ है। हमारा कहना था कि यह साहित्य के नये लेखन की एक प्रवृत्ति है। तुमने जो अभी आॅडेन को उद्धृत किया था, हम भी उसे उद्धृत कर कहते थे कि कोई पीढ़ी तब तक विश्वसनीय नहीं हो सकती, जब तक वह अपने पहले की पीढ़ी को पूरी तरह चुनौती न दे। बल्कि एक हद तक उसे खारिज न कर दे। वरिष्ठ लेखकों में उदार विचारों के प्रसिद्ध आलोचक आले एहमद सुरूर साहब हमारे समर्थक रहे, वे हमेशा से ही खुले दिमाग के थे। वे शायर और आलोचक थे, आलोचक बहुत बड़े थे और उनका प्रभाव बहुत था। वे अगरचे प्रगतिशील लेखकों के साथ उठते-बैठते थे, खुद प्रगतिशील नहीं थे। जब वे लखनऊ में थे, उनके घर पर हर महीने प्रगतिशीलों की बैठक हुआ करती थी, लेकिन उनका नाम प्रगतिशीलों से जुड़ा नहीं था। उनकी दोस्ती सभी से थी। उन्होंने हमारे समर्थन में कहा कि आदमी को अपनी बात कहने का मौका मिलना चाहिए। इसका उसे हक़ है। हम यही कह रहे थे, कि साहित्य के लिए व्यक्ति, समुदाय से अधिक महत्व का है। यह जो समुदाय आधारित लेखन है यानि जो पार्टी कहे वही मैं लिखूँ तो जो मेरे अन्दर है, उसे मैं कब बाहर लाऊँगा। लेखक का यह इसरार हुआ करता है कि मैं किसी राजनैतिक दल के कहने में नहीं हूँ। मेरी मुक्ति इसी में है कि मैं अपनी बात कहूँ। पक्षधरता पर मैंने एक निबन्ध लिखा था, उसमें मैंने यह तर्क दिया था कि मैं किसकी पक्षधरता करूँ? सत्य की? स्टीफ़न जाॅर्ज ने नाज़्त्सी आन्दोलन को समर्थन दिया था, तो क्या यह माने कि उसने अच्छा किया? क्या मैं किसी राष्ट्रीयतावादी पार्टी के सत्य की पक्षधरता करूँ ? हम यह ज़रूर कहें कि स्टीफ़न जाॅर्ज महान लेखक था पर नाज़्ित्सयों को उसका समर्थन देना ग़लत था। मैंने इस पर लम्बा-चैड़ा निबन्ध लिखकर विश्व साहित्य से ढे़रों मिसालें दीं। बहरहाल हमने कहा, हम इसके लिए बाध्य नहीं है कि आप हमारी बात समझें। मैं आपके स्तर पर नहीं उतरूँगा। अगर आप मुझे पढ़ना चाहते हैं, आपको मेरे स्तर पर आना पड़ेगा। आ सकते हों तो आईये, न आ सकते हों तो अल्लाह अल्लाह कीजिए। वे कहने लगे, आप छपवाते क्यूँ है ? इसका जवाब ये है कि चार आदमी तो हमें पढ़ने वाले हैं। मैंने अपनी शायरी की पहली कि़ताब के आखिर में बहुत-सी बातें लिखी थीं, उनमें से एक के बारे में बताता हूँ। दिल्ली के एक शायर थे बद्रे चाच। चाच एक जगह का नाम है। फ़ारसी में यह बहुत चलता है कि शायर के नाम के साथ जगह का नाम जोड़ देें। बद्रे चाच यानि चाच का बद्र। बद्र उनका तरव़ल्लुस था। वे तुग़लक के ज़माने के थे और बड़ी मुश्किल शायरी करते थे। किसी ने उनसे कहाँ कि चाच तुम्हारी शायरी सिफऱ् दो लोंग समझ सकते हैं, चाच ने जवाब दिया, ‘मैं उन्हीं दोनों के लिए लिख़ता हूँ।’
उदयन- आपकी पत्रिका की तीखी प्रतिक्रिया हुई होगी। उर्दू साहित्य जगत में उसके जवाब में भी कुछ हुआ होगा।
फ़ारूक़ी साहब- हमारी पत्रिका के जवाब में कई पत्रिकाएँ निकलीं। इलाहाबाद से तो उसके खिलाफ़ एक पत्रिका बचे हुए प्रगतिशीलों ने निकाली थी, ‘शबरंग।’ हमारी पत्रिका का नाम था, ‘शबख़ून’ यानि ‘दुश्मन पर रात में अचानक हमला’। पहले लोगों ने कहा कि मालूम देता है कि जासूसी पत्रिका है, हमने कहा कि आप यही समझ लीजिए। इलाहाबाद से ही एक और ‘शबरंग’ कि़स्म की पत्रिका निकली। वह भी ‘शबरंग’ की तरह ही कुछ महीनों चलकर बन्द हो गयी। कुछ पत्रिकाएँ हमारी पत्रिका के प्रभाव में निकलीं। भोपाल से ‘मिजाज़’ निकली। उसमें फज़ल ताबिश वगैरह शामिल थे। शमीम एहमद भी उसमें थे, जो बाद में दिल्ली आ गये थे। वह बड़ा अच्छा पर्चा था। पटना से भी ऐसा ही एक पर्चा निकला। नासिक से भी ‘जवाज़’ निकला। हमने यह भी तय किया था कि तीन अंको की सामग्री हाथ में रखकर ही हम पर्चा छापेंगे कि वह नियमित हो। पैसे की कोई परवाह नहीं, हमारे घर में मौजूद है। हमारी बीवी खुले दिल से ‘शबख़ून’ को पैसा दिया करती थीं। मैं अपनी सारी तनख़्वाह उन्हीं को दे दिया करता था कि वे जानें जो करना हैं करें और वे बेरोकटोक हमारी पत्रिका की जब भी जैसी आर्थिक ज़रूरत हो, पूरी कर देतीं थीं।
उदयन- पत्रिका के प्रूफ़ आदि आप ही देख़ते थे?
फ़ारूक़ी साहब- ज़्यादातर। हमारे साथ एकाध लोग थे पर ज़्यादातर हमीं देख़ते थे क्योंकि उसमें सम्पादन बहुत करना पड़ता था। ग़लत उर्दू को दुरस्त करना पड़ता था। हालाँकि तब बहुत लोग ग़लत उर्दू नहीं लिख़ते थे पर फिर भी उसकी शुरूआत हो चुकी थी। उर्दू ठीक करना, वाक्य अगर उखड़ा-उखड़ा हो, उसे दुरुस्त करना, पैरेग्राफ बनाना, यह सब हम करते थे। शुरू-शुरू में पत्रिका पर पता लिखकर भेजने का काम भी हमीं किया करते थे। एक-दो साथी थे, हामिद जो मर गये, जाफ़र रज़ा थे, बाद में वे प्रोफ़ेसर हो गये। अब बहुत बूढ़े हैं। कुछ दिन मंैने अपने भाईयों से मदद ली जैसे महबूब की, जो दास्तानगोई वाले महमूद फ़ारूक़ी का बाप था, वो बाद में ‘आजकल’ का सम्पादक हो गया था, वह अभी हाल ही में मरा है। उसने हमारे साथ बहुत दिन काम किया। एक और कजि़न याकूब ने भी हमारे साथ काम किया। एक हमारे दोस्त इर्शाद हैदर जो शायर थे, उन्हें भी मैंने लगाया, वे मेरे साथ बहुत दिन चले। मैं तबादला लेकर लखनऊ चला गया फिर कानपुर फिर दिल्ली लेकिन ये लोग मिलकर काम करते रहे।
उदयन- ‘शबखून’ निकलती इलाहाबाद से ही रही?
फ़ारूक़ी साहब- हाँ, लेकिन बाद में थोड़ी अनियमित हो गयी। ख़ासकर तब जब इस पर पार्टी पोलिटिक्स का दबाब बढ़ने लगा। लोगों ने दबाब डालना शुरू कर दिया कि इसको छापो, इसको मत छापो। मैं मानता नहीं था और मैं ढ़ीला पड़ गया। बहरहाल बीवी हमारी पैसा देती रहीं। उस समय तक हमारी कुछ कि़ताबें छप गयी थीं, उसका पैसा भी आ जाता था। जब मैं 1994 में इलाहाबाद लौटकर आया, मैंने उसे नियमित करना शुरू किया। उस समय तक मेरी कि़ताबों से इतना पैसा आने लगा था, जिससे मैं पत्रिका को आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र कर सकता था। उस समय तक उर्दू के चाहने वाले बहुत सारे अप्रवासी भारतीय भी हो गये थे। वे भी हमारा सहयोग करने लगे। वो इस तरह कि हमारी सीधी-सादी नीति थी कि अगर देश में हम पत्रिका पाँच रूपये में बेच रहे हैं तो उसे विदेश में पचास में बेचेंगे। हम उन्हें हवाई डाक से भेजते थे। बहुत-से लोग पत्रिका के लिए अग्रिम पैसा दे देते थे। 1994 से हम आत्मनिर्भर हो गये। उसके पहले तक जब भी कोई ज़रूरत पड़ी, हमारी बीवी ने बिना मुझे बताये या शिकायत किये पैसे दे दिये। उनके बग़ैर यह पत्रिका न चलती बल्कि न निकलती। वह पत्रिका न होती तो फ़ारूक़ी साहब भी न होते। उससे फ़ारूक़ी साहब को खुला मैदान मिल गया था। अब उन्हें यह इन्तज़ार नहीं करना था कि उनका लेख छपेगा या नहीं, ग़ज़ल छपेगी या नहीं, वह कहीं पत्रिकाओं के दफ़्तर में खो तो नहीं जाएगी। अब यह मुमकिन था कि मैं जो चाहता सो लिख़ता। तो हमने निबन्ध, समीक्षाएँ, कविताएँ, अनुवाद आदि अपने नाम से और दूसरों के नाम से जैसे भाई के नाम से, बीवी के नाम से, फर्जी नाम से लिखे। पत्रिका का पेट भरने जो भी ज़रूरी था, सब किया।
उदयन- यह तो आपने कमाल किया था। अच्छी पत्रिकाएँ ऐसे ही निकल सकती हैं। आपने किन लेखको की कृतियों का सबसे पहले अनुवाद किया था?
फ़ारूक़ी साहब- हमने ‘शबख़ून’ के पहले अंक में फ्राँसीसी कवि वर्लेन की दो कविताओं का सीधे मूल से अनुवाद किया था। उतनी फ्राँसीसी मैंने तब तक सीख ली थी। हम उसे सीधे पढ़ लेते थे, मुश्किल हुई तो अँग्रेज़ी से मिलाकर देख लेते थे। एक हमारे दोस्त थे, अब वो बहुत बीमार हो गये हैं, उन्हें दूसरे अंक के लिए मैंने बोखऱ्ेज की दो कहानियाँ दीं थी कि वे उसका अनुवाद करें।
उदयन- 1967 में! मैं चकित इसलिए हो रहा हूँ क्योंकि तब तक हिन्दी में निर्मल वर्मा के अलावा बहुत कम लोग उन्हें जानते थे।
फ़ारूक़ी साहब- ये तभी की बात है। वे अनुवाद करके लाये, मैंने उन्हें काट-कूटकर ठीक करके छाप दिया। कुछ लोग देखा-देखी क़रीब आ गये जैसे इलाहाबाद में एक चित्रकार थी अमीना अक्स, वे नूरूद्दीन एहमद की लड़की थीं, जो आई. एफ. एस. आहूजा को ब्याही गयी थीं। वे रूसी खूब जानती थीं। वे रूसी से सीधे अनुवाद करके भेजने लगीं। मुझे कई लोग ऐसे मिल गये, जो मूल भाषाओं से सीधे अनुवाद कर रहे थे, अरबी से, रूसी से या फ्राँसीसी से और हम लोग जो अँग्रेज़ी के माध्यम से कर रहे थे, वे तो थे ही। हिन्दी के लिए जफ़र रज़ा थे। हम उनसे अनुवाद कराया करते थे। उस ज़माने में जितने लेखक आसपास थे, जैसे शमशेर बहादुर सिंह, जगदीश गुप्त उन सबसे चीज़ें लेकर उनका अनुवाद कराकर हम छापते थे। हिन्दी के अलावा मराठी, बंगाली, गुजराती, वगैरह भाषाओं से हम अनुवाद कराते थे। हमने जीवनानन्द दास आदि अनेक भारतीय भाषाओं के लेखकों के अनुवाद छापे। गुजराती में हमारी मदद लाभशंकर ठकार करते थे, मराठी में बिन्दा करन्दीकर। हमारी पत्रिका की इस तरह सार्वलौकिक छवि बनी। मैंने शुरू के पाँच-दस अंकों में लोगो की रूचि बढ़ाने रिचर्ड वाॅन क्राफ्ट एबिंग की कि़ताब ‘सायकोपेथिया सेक्सुएलिस’ का अनुवाद कर उसे छापा। डरावनी कहानियाँ या जासूसी कहानियाँ जो भी मुझे अच्छी लगती थीं, उन्हें भी अनुवाद कर छापता था। मैं शहराज़ाद के नाम से अनुवाद करता था। मतलब हमने उसे भरपूर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मैंने अपने छोटे भाई को भी प्रोत्साहित किया क्योंकि वो भी लिख़ता था, उसने कुछ अनुवाद किये, कुछ खुद से लिखा। इस तरह मेरी स्वपे्ररणा, मेहनत, खुला दिमागीपन और युवा लोगों को ज़ोर-ज़ोर से प्रोत्साहित करने और स्वीकार करने की प्रवृत्ति के अच्छे नतीजे आये। कई बरसों बाद एक साहब ने झुँझलाकर पूछा कि आप किन लोगों को छापते हैं। मैंने मुस्कुराकर जवाब दिया, मैं उन लोगों को छापता हूँ, जिन्हें कोई नहीं छापता। आज जब मैं मरने के क़रीब हो गया हूँ, तब जो हज़ार चीज़ें आप मुझमें देख रहे हैं, वे सामने न आयी होतीं, अगर यह पत्रिका न होती और अगर इसे मेरी बीवी ने सहारा न दिया होता तो फ़ारूक़ी साहब भी कई औरों की तरह स्थानीय मुशायरों में जाकर, अख़बारों में छपी उनकी ख़बरों को काटकर डायरी में चिपकाकर रख रहे होते। कुछ वक़्त का भी तकाज़ा था क्योंकि लोग प्रगतिवाद की टांय-टांय से तंग आ गये थे। बड़े लोग सब थककर बाज़ार में उतर गये थे। कृश्न चन्दर, राजेन्दर सिंह बेदी या इस्मत चुकताई, ये चिल्लाने में कितने ही क्रान्तिकारी क्यूँ न रहे हों पर वास्तविक जि़न्दगी में ये सब बाज़ार के लेखक थे। जहाँ पैसा मिलता था, वहाँ लिख़ते थे। बेदी साहब का आॅफि़स खुला हुआ था। आज उन्होंने उर्दूू में कहानी लिखी, तुरन्त ही कोई हिन्दी में, कोई मराठी में, कोई बंगाली में उसका अनुवाद कर रहा होता और दस दिन में ही वह कहीं ‘धर्मयुग’ और तमाम जगहों पर कई भाषाओं में छप जाती थी। उसका पैसा उनके हाथ आ जाता था। कोई यह ज़रूर करे पर उसे साहित्य कहना मुश्किल हैं। मैंने बेदी साहब के एक उपन्यास की समीक्षा की, उसमें लिखा कि यह वो लेखन नहीं है, जिसके लिए हम बेदी साहब को जानते हैं। पर ये लोग उदार थे। कृश्न चन्दर ने हमे ‘वेटिंग फाॅर गोदो’ का अनुवाद करके दिया था। इतना बढि़या अनुवाद उन्होंने किया था कि वह दोबारा भी छपा पाकिस्तान में। इस नाटक के चरित्र पोजो के अनर्गल भाषण का ऐसा खूबसूरत अनुवाद था कि आप अश-अश कीजिए।
उदयन- ‘शबख़ून’ के लगातार प्रकाशन से उर्दू साहित्य पर व्यापक रूप से क्या प्रभाव आपकी निगाह में पड़ा?
फ़ारूक़ी साहब- हमने एक मनगढ़न्त तारीख 1960 की रखी थी, जहाँ हमने कहा कि इसके पहले 15 बरस तक प्रगतिवाद का बहुत चलन था, 60 तक आते-आते यह कम होने लगा था और तब कुछ युवा लेखक सामने आये। इस तरह हमारी पीढ़ी 1960 की है। उसी की देखादेखी कुछ लोग यह कहने लगे बल्कि अब भी कहते हैं कि हमारी 80 की पीढ़ी है और वो आप लोगों से यानि हम लोगों से अलग है। हमने कहा, दिखाओ कहाँ अलग है। हमारे भाई गोपीचन्द नारंग साहब ने सोचा कि यह बड़ी गड़बड़ हो रही है, मेरी कुर्सी हाथ से चली जा रही है तो उन्होंने कहा, पोस्ट-माॅर्डनिज़्म, पोस्ट-स्ट्रक्चरलिज़्म भी एक चीज़ है, देरिदा है, थ्येरी है, वे यह सब हाँकते चले गये। इस पर पत्रिकाओं पर पत्रिकाएँ, कि़ताबों पर कि़ताबें छपती गयीं, सेमिनार पर सेमिनार हुए। मैंने इस पर लिखा कि हमारे पाँच-छः दिशा-निर्देशक सिद्धान्त ये हैं कि लेखक को हमेशा अपने दिल की बात कहने की आजादी मिलना चाहिए, उसे किसी राजनैतिक कार्यक्रम का मातहत नहीं होना चाहिए, प्रयोगधर्मिता को स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए, लेखक पर गैरलेखकीय जि़म्मेदारी नहीं ठोकी जाना चाहिए। 1967 में अलीगढ़ में हुए सेमीनार में मोहम्मद हसन आये और कहने लगे कि साहब असम में बाढ़ आयी हुई है और आप यहाँ ये सब बहसें कर रहे हैं। हमने इस पर कहा कि बाल्टी लेकर पानी उलीचना हमारा काम थोड़ी न है। मैंने जोज़ेफ ब्राॅड्स्की को उद्धृत किया और कहा कि लेखक की सबसे बड़ी सामाजिक जि़म्मेदारी ये है कि वह अच्छा लिखे। हमने कहा, हमारा काम नारा लगाना, झण्डा या बाल्टी लेकर जाना नहीं है। आज वहाँ बाढ़ आयी तो वहाँ चले गये, परसों कहीं महामारी फैल गयी तो वहाँ चले गये तो आखिर हम लिखेंगे कब, भाई। ये मैंने तब कहा था। फिर मैंने कहा कि क्या आप 1994 में या 2004 में या 2014 में इनमें से किसी एक बात से इंकार करते हैं। मैंने उनसे कहा कि आप यह कहते हैं कि हम लोगों ने ‘कहानी’ का हरण कर लिया, उसे गुम कर दिया, उसमें से प्लाट गायब कर दिया। पर ऐसा कहाँ हुआ। हमने सिफऱ् यह कहा कि पे्रमचन्द अकेले ‘माॅडल’ नहीं हैं। और माॅडल भी हैं जिनमें समय के सिलसिले को तोड़ा जाता है। आप लोग ज़्यादातर चरित्रों पर जाते थे, हम घटनाओं पर जाते हैं। हमारा कहना है कि परम्परा में घटना अधिक महत्व की होती थी और इसलिए हम ऐसा भी कर सकते हैं कि हमारे चरित्रों के नाम केवल क, ख, या ग हो जाएँ। या हम नंगे सरवाला या लंगड़ा आदमी उसका नाम रखें। हमारे लिए चरित्र का महत्व नहीं है। हमें दिलचस्पी उसके सूरते हाल में है। हम उसमें उसे डाल रहे हैं। हम यह नहीं कह रहे हैं कि पे्रमचन्द का ढ़ंग उनके ज़माने में वैध नहीं था। मैंने एक लम्बा निबन्ध अलीगढ़ में पढ़ा था, ‘पश्चिम की परम्परा और आधुनिकता’, उसमें लिखा था कि पुराने को नया नकारता नहीं है, नया पुराने के ऊपर टिप्पणी होता है। पश्चिम में उपन्यास कहाँ से कहाँ पहुँच गया। राॅब्बग्रियें साहब तो यह कह रहे हैं कि मेरे उपन्यास की खूबी ये है कि वह उपन्यास ही नहीं है। जेम्स ज्वाईस ने कहा था कि मैं ऐसी भाषा लिखूँगा, जो न ज़मीन पर होगी न आसमान पर, और उसने ‘फिनिगन्स वेक’ लिख मारा। उसके एक-एक कामा और फुलस्टाॅप पर आज तक बहस चल रही है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि चाल्र्स डिकन्स खारिज हो गये। वे भी हैं। नया पुराने का विस्तार करता है। मैंने परसों यह बात अलीगढ़ में कही कि आप लोग यह समझते हैं कि आप लोगों ने कोई बड़ा भारी आन्दोलन कर डाला है। हम लोगों पर यह आरोप लगता था कि हम लोग परम्परा के खिलाफ़ हैं पर हम नहीं आप लोग खिलाफ़ थे। आप लोगों ने ग़ज़ल के खिलाफ़ लिखा, पुरानी शायरी को रद्द किया क्योंकि उसमें आपके हिसाब से सामाजिक क्रान्ति नहीं थी, उससे बदलाव नहीं आ रहा है वगैरह। हमने तो खुद को पुरानी शायरी से जोड़ा है। जब जोड़ा तो गोपीचन्द नारंग के चापलूसों ने कहा कि फ़ारूक़ी साहब अतीत के खण्डहरों में पनाह ले रहे हैं। जो पीढ़ी अपने अतीत को खण्डहर कहे, उस पर लानत है। वो डूब मरने के काबिल हैं जो ग़ालिब, मीर, सौदा, वली औरंगाबादी (वली दक्कनी), नुसरती बीजापुरी को खण्डहर बतावें। हमने ये लिखा था कि पुरानी और नयी शायरी में कोई फ़र्क नहीं, दोनों शायरियाँ है। ये बातें मैंने 1967 में कही थीं, आज इनमें से आप लोग किसे ग़लत कहेंगे। मैं तो उम्मीद लगाये हूँ कि वो दिन आये जब यह कहा जा सके कि फ़ारूक़ी साहब ग़लत हैं, वे अलग बैठ जाएँ अब तो हम हैं, और हम ये कह रहे हैं। मैंने कहा, आप मुझे ये दिखाइये। हम पर ये इल्ज़ाम ग़लत है कि हम नये लोगों पर ध्यान नहीं देते। हम भी एक ज़माने में ये कहा करते थे कि ये लम्बे-चैड़े प्रगतिशील, जो मठाधीश बनकर बैठे हुए हैं, ये हम लोगों को न पढ़ना चाहते हैं और न समझते हैं। मैं उनकी तरह नहीं हूँ। मैं समझने की कोशिश भी करता रहा हँू और पत्रिका के लिए आयी ढे़र-सी सामग्री को पढ़ता भी रहा हूँ कि पता चले कि युवा लोग क्या लिख रहे हैं। मुझे डर रहता है कि मुझ पर बुढ़ापे की मुहर न लगा दी जाए। मेरा दिमाग बन्द नहीं है पर मुझे नयापन लिये आदमी नहीं मिल रहे हैं तो मैं क्या करूँ। पाकिस्तान में कुछ लोगों ने कहा कि आपने मीर पर चार-चार जि़ल्दें लिख दीं, ग़ालिब पर लिख दिया, आप हम पर क्यूँ नहीं लिख़ते। मैंने कहा, उसे आप अपने बीच से ढूँढि़ये, जो आप पर लिखे। अपना आलोचक खुद लाओ, हमसे क्यूँ कहते हो? मैंने बहुत-से नये लोगों पर लिखा भी है, बानी साहब पर दो लेख लिखे, हमारे यहाँ के बड़े शायर थे। पाकिस्तान के भी कुछ लेखकों पर लिखा, सब पर नहीं लिखा, जिस पर मन आया लिखा। मैं किसी पर लिखने बाध्य नहीं हूँ। अगर आप नया लिखेंगे, नया आलोचक पैदा हो जाएगा। इसमें कोई शक नहीं कि आज भी लोग प्रयोग कर रहे हैं। तरह-तरह की गद्य कविताएँ लिख रहे हैं, कई पुराने रूप जिन्हें किसी ने उर्दू में बरता भी नहीं था, उनमें लिख रहे हैं, जैसे ‘माहिया’ पर पूरी-पूरी कि़ताबें लिखी गयी हैं, ‘कहमुकरनी’ एक रूप है, जिसे खुसरो साहब के साथ किसी ने मंसूब कर दिया है, बहुत से लोग उसमें लिख रहे हैं। मेरा कहना यह है कि दस-दस या बारह-बारह ढ़ंग से लिखने से कुछ हासिल नहीं होता। पहली बात ये कि आप यह दिखाइये कि इसकी ज़रूरत क्या है। 1930 के दशक में उर्दू के बड़े-बड़े शायरों ने सानेट लिखे, पर वे नहीं चले क्योंकि उनकी कोई ज़रूरत नहीं थी। आपके पास कहने को कुछ नया होना चाहिए। एक साहब ने ख़त लिखा था कि आप कहते हैं कि लेखकों को पढ़ना चाहिए जबकि मेरा मानना है कि पढ़ने की ज़रूरत क्या है।
उदयन- ‘शबख़ून’ के प्रकाशन के दौरान आप सिफऱ् आलोचनात्मक लेखन ही कर रहे थे या कुछ अफ़साने लिखना शुरू किया था?
फ़ारूक़ी साहब- थोड़ी बहुत शायरी लिख रहा था और बहुत सारी आलोचना। मैं समीक्षाएँ बहुत लिख़ता था, उस ज़माने में वे बहुत चलीं और कि़ताबों में जमा भी हुईं। ‘शहराज़ाद’ नाम मैंने रखा हुआ था, जिससे मैं कहानियों के अनुवाद करता था और जावेद ज़मील नाम से उस ज़माने में एक कहानी लिखी। वो पाँच-सात पन्नों की कहानी थी, जिसमें आधे राब्बग्रियें थे और आधे जाॅन लेकारे। मेरा ख़्याल है, वह बड़े मज़े की कहानी थी, उसके बारे में बताऊँ?
उदयन- बिल्कुल ...
फ़ारूक़ी साहब- उसमें एक आदमी की हत्या होती है, वह स्टेशन पर उतरता है और शाम हो रही होती है। अनजान आदमी है और जगह भी अनजान है। उसे कहीं जाना हैं। वह फँस जाता है और उसे ग़लती से मार दिया जाता है। कहानी के पहले भाग में हत्यारे की निगाह से बयान हुआ है और दूसरे भाग में जिसकी हत्या हुई है, उसकी निगाह से कहानी बयान की गयी है।
उदयन- यह बहुत बढि़या ढ़ंग जान पड़ रहा है...
फ़ारूक़ी साहब- मैंने उसे वहीं खत्म किया था जहाँ से शुरू किया थाः मैं जब स्टेशन पर उतरा शाम हो रही थी। कोई जानता नहीं था कि जावेद ज़मील कौन है, वे सोचते होंगे कि वो ही होगा जो ‘शबख़ून’ में लिख़ता रहता है इसलिए उस कहानी पर लोगों का बहुत ध्यान नहीं गया। उस ज़माने में उस कि़स्म की कहानियाँ चल रही थीं जिनमें थोड़ा बहुत रहस्य, थोड़ा अमूर्तन और थोड़ा कुछ प्रतीकवाद कह लीजिए होता था। इसलिए कुछ ध्यान इस कहानी पर गया था। मेरे मन में ग़ज़ल लिखने की बचपन से जो हूक थी, उसको ‘शबख़ून’ में आलोचना, सिद्धान्त लेखन और आधुनिक लोगों को आगे बढ़ाने की चेष्टा ने मार कर रख दिया। मैं नये लोगों पर लिख रहा था। मैंने मुहम्मद अल्वी पर लिखा, बानी साहब की शायरी पर एक नोट लिखा, फिर एक-एक करके दो निबन्ध लिखे। मैंने शहरयार साहब पर तीन लेख लिखे। वे फरमाईशी थे पर सच्चे थे, दिल से लिखे हुए।
उदयन- शहरयार को शुरूआत में अपने ही प्रकाशित किया था?
फ़ारूक़ी साहब- हमनें उन्हें बहुत छापा। वैसे खलील साहब की वजह से वे पाकिस्तान में छपने लगे थे। यह वही कहानी थी जो मैं आपको बता चुका हूँ। खलील रहमान जाने-माने लेखक थे और पाकिस्तान में बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं में छपते थे। कई बार वे शहरयार की चीज़ें भी भेज देते थे, यह कहकर कि यह हमारा दोस्त है, अच्छा शायर है। धीरे-धीरे शहरयार साहब खुद से कायम हो गये। शुरू में वे बहुत अच्छे शायर थे, ग़ज़लों में भी और नज़्मों में भी। बाद में वे थोड़े ढीले पड़ गये। वे पुरस्कारों और विदेश की यात्राओं के चक्कर में पड़ कर कमज़ोर हो गये। यह सब उन्हें गोपीचन्द नारंग के यहाँ से मिलता था।
उदयन- क्या उनसे आपके ज़ाती ताल्लुक़ात भी थे?
फ़ारूक़ी साहब- हमारे बीच बहुत आना-जाना था। जब हम इलाहाबाद में थे, अलीगढ़ बिल्कुल पास था। हम पोस्ट आॅफि़स में थे। हमारा इलाक़ा इलाहाबाद से दिल्ली तक का था। उस ज़माने में यह भी नहीं था कि रेलगाड़ी में जगह मिलेगी भी या नहीं। स्टेशन गये और फस्र्ट क्लास में जाकर बैठ गये। हम जाते-आते भी बहुत थे। जब मैं दिल्ली आ गया, शहरयार वहाँ मेरे साथ ही ठहरते थे, बाद में वे कहीं और ठहरने लगे खैर...। नये लोगों पर लिख़ते हुए मैंने जि़न्दगी गुज़ार दी। इस सबने मेरे अन्दर के अफ़सानानिगार का गला घोंट दिया।
उदयन- गला नहीं घोंट दिया, सुला दिया। इसीलिए बाद में आपके भीतर सोया वह जाग गया और अब तक जाग रहा हैै।
फ़ारूक़ी साहब- उसकी भी एक कहानी है, बाद में बताता हूँ। कविताएँ लिखीं पर वे भी कम लिखीं। मैंने कितने पन्ने आलोचना आदि के लिखे हैं, मुझे ख़ुद याद नहीं, बल्कि मैंने भुला दिया है पर मेरा ख़्याल है वे एक लाख से कम न होंगे और कविताएँ बमुश्किल ढ़ाई सौ पन्नों की होंगी, वो भी तब जब उन्हें फैला-फैलाकर छापिए। कविताओं का मेरा आखिरी संग्रह 1994 में आया था। फिर कभी तौफ़ीक ही नहीं हुई। अब कोशिश कर रहा हूँ। कुछ लोगों को जमा कर रहा हूँ कि बैठो, तुम लोग ढूँढ कर निकालो जो कुछ भी है। मुझमें इतनी ताक़त अब बाकी नहीं। हमारे आत्मीय इरशाद ने ढूँढकर मेरी लिखी सारी समीक्षाएँ निकालीं। वे चार-पाँच सौ पन्नों की थीं। उसकी मृत्यु हो गयी और वे प्रकाशित नहीं हो सकीं। मेरे बारे में कहा ये जाता था कि फ़ारूक़ी साहब आलोचक ठीक हैं, अच्छे ही हैं, बिगाड़ा उन्होंने बहुत लोगों को है, गुमराह बहुत लोगों को किया पर खैर फिर भी हैं। उनकी शायरी-वायरी कुछ नहीं है, आलोचक शायर हो ही नहीं सकता। क़लीमुद्दीन अहमद साहब की मिसाल सामने थी। वे बड़े भारी आलोचक थे। उनकी धौंस भी बहुत थी पर उनकी शायरी फुसफुसी थी। सुरूर साहब भी बड़े ताक़तवर आलोचक थे पर वे थे सच्चे, पढ़े-लिखे बहुत थे। फ़ारसी और अँग्रेज़ी खूब पढे़ थे। अँग्रेज़ी के एम. ए. और विज्ञान के स्नातक थे। उसके कारण उनका दिमाग विश्लेषण वाला था। शायरी उनकी भी कमज़ोर थी। इसीलिए यह बात आम थी कि आलोचक भला कहीं शायर हो सकता है। पर जो आलोचक शायर हुए हैं, उनका कोई नाम ही नहीं रहा जैसे मौलाना हाली, बड़े शायर थे, सलीम अहमद बहुत प्रतिभावान लेखक थेः शायर भी, आलोचक भी। उन्होंने खुद ही लिखा है कि लोग कहते हैं कि शायरी मेरा कमज़ोर बच्चा है लेकिन वह हाथी का बच्चा है। अभी के हमारे एक दोस्त, जो बम्बई में रहते हैं और जो दिमाग़ के थोड़ा टेढे़ हैं, उन्होंने मेरे लेखन पर लिखा भी है, उनसे किसी ने इण्टरव्यू में पूछा कि साहब सलीम अहमद ने अपनी शायरी के बारे में ये कहा है कि शायरी मेरा कमज़ोर बच्चा है पर है हाथी का, फ़ारूक़ी साहब की शायरी के बारे में क्या आप यह कह सकते हैं? वे बोले, मुझे नहीं मालूम, वो हाथी का बच्चा है या रीछ का। हमारी शायरी को लेकर इस कि़स्म की बात होती रही है। पर यह स्वीकार भी रहा कि हाँ, मैंने काम बहुत किया है। और माज़ी के खण्डहरों में जाकर पनाह भी ले ली है। मैंने उर्दू के इतिहास पर एक कि़ताब लिखी है, जिसे बुनियादी कि़स्म की कि़ताब माना जाता है। उससे उर्दू के कई लोग सहमत नहीं हैं पर वे उसके महत्व को नकारते नहीं हैं। मैंने इसमें कहा कि ‘उर्दू’ नाम बहुत अभी का है, पहले इसका नाम हिन्दवी था, हिन्दी था, गूजरी था, देहलवी था, दक्कनी था। इस ज़ुबान का कोई सम्बन्ध लश्कर से नहीं है। दिल्ली को उर्दू-ए-मुअल्ला कहते थे, पहले फ़ारसी थी, जब शाह आलम दिल्ली पहुँचे तब देहलवी को ज़ुबान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला कहने लगे। वही छोटी होते-होते उर्दू रह गयी। उर्दू के मायने हैं दिल्ली शहर और ज़ुबाने उर्दू यानि दिल्ली की जुबान। मैंने लिखा कि मीर अम्मान देहलवी ने 1804 में ये लिखा है कि मैंने इस कि़स्से को उर्दू की ज़ुबान में लिखा है, जिसे वहाँ जवान-बूढे़-बच्चे-हिन्दू-मुसलमान सब बोलते हैं। इसे किसी ने चुनौती नहीं दी कि उर्दू की ज़ुबान से उनकी क्या मुराद थी। वे कह रहे थे कि उन्होंने दिल्ली की ज़ुबान में लिखा है। खैर, मंैने उस कि़ताब में बहुत-सी बातें उठायीं जो किसी ने समूचे सांस्कृतिक इतिहास में उठायी ही नहीं थीं। बहरहाल शायरी तक तो हमारी पूछ है नहीं। 1997 में जब ग़ालिब का दो सौवाँ जन्मदिन मनाया जा रहा था, कईयों ने कुछ न कुछ लिखा। ख़ैर, तब उतना जोश नहीं था जब उनकी सौवीं पुण्यतिथि मनायी गयी थी, उस वक़्त दुनिया का हर आदमी ग़ालिब के बारे में लिख रहा था, बोल रहा था। रूस से लेकर मध्य एशिया तक और यहाँ से लेकर दक्षिण पूर्व एशिया तक। यह बता दूँ कि ‘शबख़ून’ की चालीस बरस की जि़न्दगी में हमने कभी कोई विशेषांक नहीं निकाला।
उदयन- यह बढि़या बात है। ‘समास’ में भी हम यही कोशिश करते हैं।
फ़ारूक़ी साहब- यह ज़रूर हुआ कि मान लीजिए कोई अंक पूरी तरह आधुनिक कथा पर केन्द्रित किया तो उस अंक में केवल आधुनिक कहानियाँ ही प्रकाशित की गयीं। लेकिन किसी लेखक पर हमने न अस्सी पेज का न आठ सौ पेज का अंक निकाला। हमने सोचा ग़ालिब पर भी पत्रिका का एक हिस्सा केन्द्रित करते हैं। ग़ालिब पर लिखने वाले कई लोगों से हमने आग्रह किया पर जो लेख हमें मिले, वे बहुत ही फुसफुसे थे। मरहूम वारिस किरमानी साहब अलीगढ़ में फ़ारसी के प्रोफ़ेसर थे, वे अँग्रेज़ी में एम. ए. भी थे, उनका बहुत नाम था पर उन्होंने भी कामचलाऊ लेख लिखा। एक और किसी का था, वह भी ऐसा ही निकल गया। एक हमारे बच्चे, दोस्त कृष्ण मोहन साहब बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं, उन्होंने हिन्दी में एक लेख लिखा था। वे उर्दू जानते नहीं हैं पर पढ़ते सही हैं। ये भी बहुत कम लोगों में देखा गया है। जैसे तुम सही पढ़ लेते हो, वो भी पढ़ लेता है, शीन काफ़ भी निकाल लेता है। ग़ालिब के ख़त हिन्दी अकादमी ने छापे हैं, उसने पढ़े हैं और ग़ालिब की शायरी देवनागरी में हर जगह मिल जाती है। उसने अपने लेख में यह निकाला कि ग़ालिब के यहाँ ऐन्द्रिकता बहुत है, हमने उनसे कहा कि इसके जो अँग्रेज़ी में मायने होते हैं, वह तो ग़ालिब के यहाँ नहीं है, पर ठीक है, यह आपका कहना दिलचस्प है। उस लेख में बड़ी गाढ़ी हिन्दी थी, मैंने एक साहब को दिया कि भाई इसे उर्दू कर दो। उन्होंने जो उर्दू करके दिया, मुझे पसन्द नहीं आया। फिर एक और साहब को दिया, उनका किया थोड़ा ठीक लगा। अब तक 1994 शुरू हो चुुका था और अंक बन ही नहीं पाया था। उसमें निकला ये कि सबसे बेहतर लेख हिन्दी के शोध छात्र लिखा हुआ है। फ़ारसी के प्रोफ़ेसर और उर्दू के लेखक ने जो लिखा था, कमज़ोर था। मेरा सम्पादकीय नियम था कि अच्छी चीज़ को आगे जगह दूँ। इसको हम इस हद तक नहीं ले जाते थे कि अच्छी होने पर भी उदयन की कविता को अख़्तर-उल-ईमान से पहले छाप दें। मैं लेखों, कविताओं, कहानियों को इस तरह रख़ता था कि पत्रिका में एक तरह की जैविक एकता अनुभव होती थी। हम करते यह थे मानिए हम आपका लेख छाप रहे हैं तो उसके बाद एक ऐसी कविता छापेंगे जिसकी कोई न कोई प्रतिध्वनि आपके लेख में हो। इसलिए हर अंक एक कि़ताब-सा बन जाता था। हमने सोचा कि अगर हम कृष्ण मोहन साहब के लेख को आगे रख़ते हैं तो बड़ी नाक कटेगी, लोग बुरा-भला भी कहेंगे कि आपको उर्दू में क्या कोई मिला नहीं जो ग़ालिब पर लिख़ता। हिन्दी के और वो भी छात्र का लेख आप अव्वल नम्बर पर छाप रहे हैं। हमने सोचा कि हम एक कहानी लिख देते हैं। ग़ालिब के बारे में दो आख्यान मिलते हैं। मलिकराम साहब का आख्यान मैंने लड़कपन में पढ़ा था। वो मुझे इतना विश्वसनीय लगा था कि मैं सोचता था कि मलिकराम ग़ालिब के समकालीन रहे होंगे, वे ग़ालिब से मिले होंगे, उनसे बातें की होंगी। बाद में मालूम पड़ा कि मलिकराम तो हमारे ज़माने के हैं, हमसे बुजुर्ग। मीर फरहातुल्लाह बेग का ‘दिल्ली की आखिरी शमा’ दूसरा ऐसा आख्यान था, जो मेरे मन में था। उसमें ग़ालिब के मुशायरों का विवरण है। लोग उसे सच मानते हैं पर वह काल्पनिक है। उसमें ग़ालिब और उनके साथ के लोगोें की जो तस्वीर उभरती है, विश्वसनीय लगती है। अँग्रेज़ी में तो खैर बहुत लोगों ने लेखकों के जीवन पर काल्पनिक लेखन किया है। हमारे लड़कपन में हमने ठेकरे का उपन्यास ‘हेनरीज़ मण्ड’ पढ़ा था, उसमें वह साहित्यिक लोगों को सीधे-सीधे नहीं लाया है, पर लाया है, जहाँ एक जगह स्विफ़्ट काॅफ़ी हाॅउस में बैठे काॅफ़ी पी रहे हैं और वह उनसे मिलता है। उसमें लेखक बहुत जीवन्त रूप में सामने आते हैं। आधुनिक लेखकों के बारे में ऐसी ही एकाध और चीज़ मैंने पढ़ी थी। मैंने सोचा उस तरह का कुछ लिखो। लेकिन सवाल ये था कि उसे बनाओ कैसे? भई, देखो हम है आज़मगढ़ के और हमारे यहाँ राजपूतों और ब्राह्मणों की पूजा होती है। हमने यह कल्पना की कि आज़मगढ़ से सात-आठ मील दूर एक कस्बा है, इस कहानी के चरित्र बेनी माधव ‘रुसवा’ का परिवार वहाँ के राजपूतों का हैं। यह प्रथम पुरूष एक-वचन में कहा गया कि़स्सा है। उनके परिवार में उर्दू संस्कृति है। वह अपने परिवार का कुछ इतिहास बताता है, हम लोग यहाँ कैसे आये, कैसे रहे...
उदयन- वह कहता है, हमारे दादा बन्दूक बनाया करते थे...
फ़ारूक़ी साहब- हाँ। फिर उन्होंने उसे पढ़ने भेजा वगैरह। उसी दौरान सन् 1857 का विद्रोह हो जाता है। तब उसके बाप उसको शाहजहाँपुर भेज देते हैं। मैंने जान-बूझकर उसका नाम शाहजहाँपुर रखा क्योंकि उसी के पास पवायाँ है, जिसके राजा ने मौलवी एहमदुल्लाह को धोखा दिया था। बेनी माधव लुटा-पिटा कानपुर जाता है, उसी ज़माने में वहाँ हथियार बनाने की फ़ैक्ट्री खुली थी। उससे इतना भर पूछा जाता है कि कहीं उसने विद्रोह में हिस्सा तो नहीं लिया था, वह यह छिपा लेता है कि उसके पिता शामिल थे, बात ख़त्म हो जाती है, और उसे नौकरी मिल जाती है क्योंकि वो अँग्रेज़ी भी पढ़ा हुआ है। 1862 में वहीं ग़ालिब का दीवान छपता है, वो इससे खुश होता है और सोचता है कि ग़ालिब से जाकर मिलें।
उदयन- 1862 में कानपुर में ग़ालिब के दीवान के छपने की बात काल्पनिक है या ऐसा हुआ था?
फ़ारूक़ी साहब- यह सही है, वह आदमी जिसने हमारी कहानी में दीवान छापा था, वह भी वास्तविक है, वह मुहल्ला जहाँ वह छपा था, वह भी। बाकी सब कल्पना है। दरअसल मैं ग़ालिब में इतना रचा-बसा हुआ था, उस ज़माने के लोगों में, अवध के इतिहास में, आज़मगढ़ के नागरिकों में कि मैंने वे सब नाम डाल दिये जो मुझे मालूम थे। जैसे हमारे नाना आज़मगढ़ के पास मोमिनाबाद में मुंशिफ़ थे, उनका नाम मैंने कहानी में डाल दिया। खाने अल्लामा तबज़्जुल हुसैन खाँ जिनकी बदौलत गोया 1797 में सआदत अली खाँ को नवाबी मिली थी, बद्रअली खाँ को निकाला गया था, वे बड़े लायक आदमी थे, उनको कहानी में डाला, इस तरह मैंने बहुत-सा स्थानीय रंग जो वास्तविक था, कहानी में बिखेर दिया। इस कहानी ‘ग़ालिब अफ़साना’ में ग़ालिब के जितने भी संवाद है, उनमें से अस्सी प्रतिशत उनके ख़तों से लिये गये हैं और इसीलिए वे वहाँ वास्तविक मालूम देते हैं। कहानी की भाषा पुरानी उर्दू है ही क्योंकि बेनी माधव ‘रुसवा’ 1840 की पैदाईश है।
उदयन- ग़ालिब बेनी माधव ‘रुसवा’ के लाये अपने दीवान में दस्तख़त के साथ जो लिख़ते हैंः बरखुरदार बेनी माधव रुसवा@ऐकि तुमसे मिलकर मेरा दिल खुश हुआ, इसे भी आपने ही, ज़ाहिर है, लिखा होगा।
फ़ारूक़ी साहब- मैंने लिखा है पर वो फ़ारसी की मशहूर पंक्ति है जिसके मायने हैं, ‘ऐ कि तेरा आना मेरे दिल को खुश करने का कारण बना’, यह एक तरह की कहावत है, वैसे है वो कविता पर कहावत समझ लीजिए। बाकी सब वास्तविक हैं जैसे ग़ालिब के शेर। पर बेनी माधव ‘रुसवा’ के सारे शेर मेरे लिखे हुए हैं। उनका जो सुधार उसके उस्ताद करते हैं, वे भी मेरे हैं, बहरहाल वो कहानी बहुत चल गयी। कुछ लोगों ने पूछा भी कि ये ‘रुसवा’ साहब कहाँ के हैं, इनका परिवार कहाँ का हैं। यह कहानी जब छपी मैंने उस पर लेखक के तौर पर बेनी माधव ‘रुसवा’ का नाम ही दिया था। कई लोगों ने कहा कि साहब इतना ज़बरदस्त आख्यान है, क्या वास्तव में ऐसा कोई आदमी था। वे बोले, जब आपने यह लिखा कि वो 1918 में बैठकर लिख रहा है तो उसके कुछ बच्चे या पोते होंगे, जिनसे आपको ये कागज़ात मिले होंगे, यह सुनकर हम भी गोलमोल कर गये, ‘हाँ यार, ऐसे ही चलता रहता है, हमारा काम ही यही है, ग़ालिब पर पढ़ने-लिखने का, जाने दीजिए इस बात को।’
उदयन- आपने बात कभी साफ़ नहीं की?
फ़ारूक़ी साहब- नहीं। वह आख्यान बहुत चल गया और कहानी की तरह चला लेकिन उसमें जो साहित्यिक प्रश्न मैंने उठाये हैं, उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, ख़ासकर ग़ालिब के फ़ारसी शायरों के बारे में ख़यालात जिनका ‘रुसवा’ विरोध करता है और ग़ालिब नाराज़ होते हैं, वे सब मेरे विचार हैं लेकिन बेनी माधव ‘रुसवा’ के बारे में यह कहा गया कि बड़ा बढि़या लड़का है, क्या कहने वाह, वाह।
उदयन- कहानी में आपने यह जो लिखा है कि ग़ालिब रुसवा से कहते हैं कि तुम भी मीरी हो सौदाई नहीं। इसका क्या सन्दर्भ है? क्या यह भी ग़ालिब का ही वाक्य है?
फ़ारूक़ी साहब- यह भी वास्तविक है। सौदाई यानि पागल। इस बात का प्रमाण मिलता है कि इब्राहिम ज़ौक सौदा को मीर से ऊपर रख़ते थे। जब ग़ालिब कहते हैं कि आप मीरी होंगे, सौदाई नहीं तब सौदाई का दूसरा अर्थ पागलपन भी काम करता है। कहानी में जितने भी चुटकुले हैं, वे सब ग़ालिब के कहे हुए हैं। उनकी बोली-भाषा मैंने ज़्यादातर ख़तों से लेकर कहानी में डाली है। कहानी में वे ख़ाक़ानी की कविता की जो व्याख्या करते हैं, वह भी उनके ख़तों में है।
उदयन- बेनी माधव ‘रुसवा’ को आपने खूब चला दिया। उनको अपनी कल्पना से शायरी की ज़मीन पर वास्तविक शायर की तरह उतार दिया...
फ़ारूक़ी साहब- हर तरफ़ लोग उन्हें पूछ रहे थे। उसके बाद मैंने सोचा कि इसका मतलब ये है कि फ़ारूक़ी साहब के भीतर अफ़साने लिखने की जो चिंगारी थी, वो बुझी नहीं है, तो उसी रास्ते पर बढ़ा जाए। हमें यह झक थी कि आजकल की लिखी चीज़ों से कुछ अलग करना है क्योंकि वह इतने बुरे अर्थ में समकालीन था कि क्या कहा जाए। एक तो ताक़तवर समकालीन लेखन होता है पर जो लिखा जा रहा था, वह खराब ढंग का समकालीन था। आप अख़बार और टेलीविज़न को लेकर बैठ जाईये, कहानी बन जाएगी। बारह-तेरह थीम हैं, उन्हीं का हेर-फेर कर उर्दू वाला कहानी लिख रहा था। ऐसा लिखने के पीछे सिफऱ् इतना आराम हुआ करता है कि मैं भी समकालीनता के साथ हूँ। चूँकि उस लेखन में कल्पना का अभाव है, वह समकालीनता के पीछे के अर्थ को उद्घाटित नहीं कर पाता। अगर किसी मुसलमान कोे आतंकवादी कहा जाता है या किसी का शुद्ध तिरस्कार हो रहा है तो क्या इसके पीछे सिफऱ् किसी तरह की परिपाटी भर है या कुछ और है। मैंने सोचा मैं ‘ग़ालिब अफ़साना’ के रास्ते पर ही आगे चलूँ और जैसा कि मैंने आपको मिसाल दी थी कि मुझे चैटरटन पर पीटर एक्राॅइड का उपन्यास बहुत पसन्द आया था। चैटरटन ने अपनी कविताएँ लिखीं और बताया कि ये पुराने ज़माने की कविताएँ है और यह सब करके अठारह बरस की उम्र में आत्महत्या कर ली। इस उपन्यास में लन्दन महत्वपूर्ण चरित्र है, उसकी गलियाँ, उसके घर, उसके लोगों का रहन-सहन। मैंने सोचा कि ऐसी कोई कहानी बनाओ जिसमें दिल्ली मुख्य चरित्र हो। उसमें और सब लोग वास्तविक हो न हो पर उसमें दिल्ली शहर की हवा आना चाहिए। मैंने ‘सवार’ लिखी। ‘सवार’ में आख्याता काल्पनिक है, मौलवी बकौल हमारी प्रकाशक सुप्रिया के ‘हाॅण्टेड (भावावेशित) मौलवी’ है। उसमें इस्मत जहाँ का चरित्र वास्तविक है। इस्मत जहाँ नाम की एक प्रसिद्ध तवायफ़ हुआ करती थीं। मैंने उसे मुसहफ़ी पर लिखी अपनी कहानी ‘आफ़ताबे ज़मीं’ में भी लिया है। यह मिलता है कि मुसहफ़ी इस्मत जहाँ नाम की एक लड़की पर आशिक़ थे, उन्होंने उस पर कविता भी लिखी है। कहानी के दूसरे चरित्र बुद्धसिंह कलन्दर, मिजऱ्ा मज़हर जान-ए-जाना साहब और दूसरे कई चरित्र ऐतिहासिक हैं। उसमें जो वसन्त का वर्णन है, वह दिल्ली में तब था। अब तो खैर दिल्ली की दुनिया ही बदल गयी। वसन्त के सन्दर्भ में मैंने जो ग़ज़ल उद्धृत की है, वह मुबारक आरज़ू साहब की है। जिस मालीबाड़े का वर्णन मैंने किया है, वहाँ अब ज़ेवरात बनते हैं। वहाँ की आवाज़ें कुछ वास्तविक हैं, कुछ मैंने बना दीं। लैला की उँगलियाँ हैं, मजनूँ की पसलियाँ हैं, यही कहकर लोग ककडि़या बेचते थे, कुछ पुकारें हमने बना भी दीं। कुछ फ़ारसी डाल दी। मौलवी का बहनोई वास्तविक नहीं है पर उसके पिता वास्तविक हैं, वे बहुत बडे़ वास्तुकार थे। इन्हीं के खानदान के लोगों ने लाल कि़ला और दिल्ली का जन्तर-मन्तर बनाया है। बुद्धसिंह कलन्दर वैसा ही मस्तमौला कलन्दर था जैसा कहानी में आता था। वह बड़े आदमी का बेटा था। कहानी में उसकी कविता उसी की लिखी हुई है। इस कहानी को लिखकर मैंने सोचा कि इसमें लेखक का नाम क्या रखूँ? बेनी माधव ‘रुसवा’ इसमें चलेगा नहीं क्योंकि वे बहुत बाद के हैं। अगर अपना नाम रखूँगा तो दो प्रतिक्रियाएँ होंगी। एक तो लोग कहेंगे कि ये ख़राब है, फ़ारूक़ी साहब माज़ी के खण्डहरों में पनाह ले रहे हैं। या कुछ लोग ये जानकर कि ये फ़ारूक़ी की कहानी है, उसकी तारीफ़ करेंगे। मैंने कई नाम सोचे और जब कोई नाम तय नहीं पाया, मैंने उनकी पर्चियाँ बनाकर एक प्याली में रखीं। हमारी बीवी की एक भांजी हैं, मैंने उनसे कहा कि एक पर्ची निकालो, उसमें जो नाम निकला-उमर शेख़ मिजऱ्ा वही डाल दिया। इस नाम के तीन हिस्से हैं, उमर प्यारे पुरखे थे, हम कहते भी हैं उमर ए फ़ारूखी, हमारी ज़ात शेख़ की है सो शेख़, मुसैयत के बाद शेख़ आता है और हम लोग शेख़ हैं और मिजऱ्ा इसलिए कि मिजऱ्ा ग़ालिब में ये हैं। इसलिए भी मुझे यह नाम बड़ा मौज़ू लगा। वो कहानी भी बहुत चली। उसके बाद मैंने कुछ और कहानियाँ लिखीं।
उदयन- मीर को लेकर लिखी आपकी कहानी ‘इन सोहबतों में आखि़र’ में आप बेलग्रेड (बेओगारद) और ग्रेनेडा (ग़रनाता) आदि इतने दूर के देशों तक कैसे चले गये? कहानी की एक महत्वपूर्ण पात्र लबीबा ख़ानम अर्मिनिया के शहर नख़्जवान से हिन्दुस्तान आती हैं।
फ़ारूक़ी साहब- यह अच्छा सवाल है। मैं बताता हूँ। अपने बुढ़ापे में मीर ने एक ग़ज़ल लिखी है। उस ज़माने में दिल्ली में अर्मिनियायी बहुत थे। उनका चर्च था, कब्रिस्तान भी था, वह अभी भी है। हालाँकि अब लुटा-पिटा है। एक ज़माने में दिल्ली, बम्बई और कलकत्ते में ये लोग बहुत थे। बम्बई और कलकत्ता तो नये शहर हैं पर दिल्ली पुराना शहर बहुत है। अपने आखिरी ज़माने में बुढऊ ने एक शेर लिखा हैः
        कैसी सुखऱ्ो सफ़ेद निकली थी
        मय भी दुख़्तर अर्मनी की है
ये शराब इतनी सुखऱ् और सफ़ेद है जैसे कोई अर्मिनियायी लड़की हो। यहाँ कोई चक्कर मालूम होता है कि बड़े मियाँ ने किसी अर्मिनियायी लड़की से दिल लगाया हो या न लगाया होगा पर दूर से देखकर आशिक़ हुए होंगे वर्ना बुढ़ापे में ये शेर कहने का मतलब क्या है क्योंकि लखनऊ में कोई अर्मिनियायी है नहीं। हाँ हब्शी बहुत-से हैं, ईरानी बहुत-से हैं क्योंकि वहाँ शियाओं को मान्यता मिल गयी थी। हब्शी बाॅडीगार्ड का काम करते थे। लेकिन वहाँ अर्मिनियायी कौन होगा और 80-82 की उम्र में मीर साहब यह शेर कह रहे हैं। यह कह देना कि दिल्ली में अर्मिनियायी लड़कियाँ थीं, इससे कुछ बनता नहीं हैं, इससे वह गहरायी भी नहीं आती, जो मैं चाहता था। इस गहरायी के लिए मुझे एक पृष्ठभूमि की ज़रूरत थी जो सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दोनों ही हो, जिसमें विस्थापन भी हो और विध्वंस भी, वह जो दिल्ली में हो रहा था। बहुत कुछ हो रहा था, बहुत कुछ होने वाला था। दूसरे उसकी वंशावली लम्बी हो, जिसमें कई खूनों की मिलावट हो। उसमें यहूदी खून हो, अर्मिनीयायी हो। यह सब मैं कहाँ से लाता इसलिए मैंने सोचा कि चलो भई, अर्मिनिया चलते हैं और मैं वहाँ चला गया। उस ज़माने में उस्मानिया साम्राज्य आदि सब थे, इसलिए पहले मैं बेलग्रेड गया, वहाँ से उन्हें अर्मिनिया लाया फिर अज़रबेजान और वहाँ से यहाँ। इन सबकी मैंने कल्पना की। यह ऐतिहासिक सत्य है कि अर्मिनियायी लोग बहुत हसीन होते हैं। इसका कारण यह है कि उनमें खूनों की मिलावट बहुत है। उनमें ईरानियों, अरबों, पूर्वी यूरोप के स्लाविक आदि खूनों की मिलावट यकीकन हुई। इनकी भाषा ईरानी से मिलती है। ईरान से वैसे भी इनका सम्बन्ध बहुत है। इनके ऊपर तुर्क था, इसलिए इनके परिवार पर तुर्कियों का भी प्रभाव पड़ा होगा। इनके यहाँ जो परिष्कार और रखरखाव है, वह कल के दिन पैदा नहीं हो सकता। यह लम्बी वंशावली के बग़ैर नहीं हो सकता। इसी तरह मैंने ‘कई चाँद थे सरे आसमाँ’ में वज़ीर ख़ानम के लिए पूरा व्यक्तिगत इतिहास आविष्कृत किया था। वज़ीर ख़ानम जैसी पात्र लाकर पैदा कर देना और यह कहना कि वह एक रण्डी के यहाँ पैदा हुई है, इससे कुछ बात बनती नहीं है। वज़ीर ख़ानम जैसे चरित्र के सन्दर्भ में इसका कोई अर्थ नहीं बनता। लबीबा ख़ानम और नुरुस सआदत को मैं अर्मिनिया से इसलिए भी लाया था कि उनके ख़ून में विस्थापन है। वे कहानी के अन्त में हिन्दुस्तान से भी विस्थापित होती हैं। दरअसल इस कहानी का एक विषय विस्थापन ही है।
उदयन- कहानी का पहला-दूसरा वाक्य ही इस बारे में हैः घर से निकले आज लबीबा ख़ानम को पाँचवा हफ़्ता था। उसके घराने के लिए घरबदर होने का यह पहला अवसर न था।
फ़ारूक़ी साहब- ठीक बात है। जब मैं उसे ईरान ला रहा था, ईरान की संस्कृति भी लाया, उसमें फ़ारसी लाया, फिर यह बात भी है कि यहाँ के लोग भी फ़ारसी के रंग में रंगे हुए हैं। जिस आदमी का मैंने जि़क्र किया हैः किशनचन्द इख़लास वह वास्तविक है। उसका बाप भी वास्तविक है। ये पैसे वाले लोग थे। ज़ौहरी थे और जैसा कि कहानी में है, उनकी कई हवेलियाँ थीं। इनका बाप शोहरत बेदिल का शार्गिद था, यह बात इतिहास में मिलती है। इख़लास ने खुद एक कि़ताब फ़ारसी शायरों के बारे में लिखी है, ‘हमेशा बहार’ उसमें दिल्ली और उसके आसपास के कवियों की सूची दी हुई है। वह सुरूचि सम्पन्न और सुसंस्कृत व्यक्ति था। इसलिए भी उसका वहाँ जाना समझ में आता है कि हिन्दुस्तान के बादशाह के वज़ीर ने उसे भेजा होगा कि जा भाई तू लबीबा ख़ानम को घेर-घार कर ले आ। उसका बड़ी ख़ानम यानि लबीबा ख़ानम पर आशिक़ होना भी समझ में आता है। मीर की जो ग़ज़ल मैंने ढूँढ़ी, उसमें मीर ने अपने को एक तरह से उघाड़ दिया कि मैं क्या हूँ। उस ग़ज़ल में उसके दुःख, उसकी पीड़ाएँ भी हैं, उसमें अपने कुछ होने का गुमान भी है। कहानी में इख़लास और उनके बाप भी वास्तविक लोग हैं, मीर और नुरुस सआदत के परस्पर व्यवहार को मैंने मीर की कविताओं से लिया।
उदयन- आपने कहानी में इस तरह की मीर की कई ग़ज़लों को उद्धृत भी किया है...
फ़ारूक़ी साहब- उसकी ग़ज़लों में इस तरह की कई चीज़ें मिलती हैं। मैंने कहानी में जो तिसंग का सफ़र दिखाया है, वह भी मीर की ‘तिसंगनामा’ कविता से लिया है। वहाँ बाढ़ आयी हुई है और मीर और दूसरे चरित्र उसे मुश्किल से पार करते हैं, यह भी उसी कविता में है।
उदयन- लेकिन ये सारे विवरण मीर की कविताओं के आधार पर आपने अपनी कल्पना से गढ़े हैं। वे ऐतिहासिक तथ्य के रूप में उपलब्ध न रहे होंगे...
फ़ारूक़ी साहब- एक चीज़ तो मैंने पूरी तरह गढ़ दी। 1739 में दरगाह कुली खाँ नाम का एक राजपुरूष हैदरबाद से दिल्ली आया। उसने दिल्ली आकर एक कि़ताब लिखीः मुरक्क-ए-देहली यानि दिल्ली का एलबम। मुसलमानों में सांस्कृतिक और पुरातात्विक रूचियाँ जुड़ी हुई थीं। उस कि़ताब के कई भाग हैं, नर्तकियों के बारे में, लड़कों के बारे में, शायरों के, सूफि़यों के बारे में। उसमें नूर बाई नाम की एक औरत भी है, वह भी नर्तकी है, मैंने इसके बारे में उद्धृत भी किया है कि वो हाथी पर सवारी करती है, जो ज़ाहिर है उस ज़माने में या तो बादशाह कर सकते थे या कोई कुलीन व्यक्ति। वह लोगों को समय नहीं देती, मुश्किल से मिलती है, पैसा बहुत लेती है, वह नर्तकी भी वास्तविक चरित्र है। अगली कहानी में भी हमने इसी कि़ताब से इस्मत जहाँ का चरित्र लिया है, जिनके बारे में मैंने कहानी में लिखा भी है कि एक चरित्र कहता है कि वे अपने शरीर के निचले हिस्से को रंग लेती थीं और लगता था जैसे वे कपड़ा पहने हों पर वे नंगी रहती थीं। मीर वाली कहानी में चूँकि मैंने लबीबा ख़ानम की बेटी का नाम नुरुस रख दिया था, इसलिए मैंने मुरक्क-ए-देहली से नूरबाई का नाम नुरुस सआदत के लिए ले लिया। इसलिए एक तरह से नुरुस का चरित्र काल्पनिक है और एक तरह से वास्तविक। कहानी में जितने भी शायरों का जि़क्र है, वे सब थे। शेख़ अली हसीन, मुफ़लिस ये सारे। उनकी कविताएँ भी वास्तविक हैं।
उदयन- आपने मुसहफ़ी पर जो कहानी लिखी हैः आफ़ताब-ए-ज़मी, उस कहानी में शहर बदल गया है, दिल्ली से लखनऊ हो गया है। क्या आप लखनऊ में लम्बे समय तक रहे हैं क्योंकि इस कहानी में भी लखनऊ शहर का विस्तार से वर्णन है।
फ़ारूक़ी साहब- लखनऊ में मैं बहुत दिन रहा हूँ। मेरी वहाँ पहली पोस्टिंग 1970 या इसी के आसपास हुई थी। 1971 में मैं कानपुर आ गया था। वहाँ डेढ़ साल रहकर वापस लखनऊ आ गया। 1977 में मैं वहाँ से दिल्ली चला गया। वहाँ मेरा जाना-आना भी बहुत था। पहले भी, बाद में भी। लोगों ने दिल्ली और लखनऊ को फि़जूल में ही एक-दूसरे का प्रतिपक्षी बना रखा है, यह मिथक इतना गहरा गया है कि लगता है यह पाँच-छः सौ बरस पुराना होगा। मैंने इसकी बहुत छानबीन की और पाया कि इस मिथक का जन्म 1926 का है। एक मौलाना थे, बड़े काबिल थे, शिबली के शागिर्द थे। उनका नाम था अब्दुस्सलाम नक़वी। उन्होंने आज़मगढ़ में शिबली अकादेमी बनायी और वहीं जि़न्दगी गुज़ार दी। शेर-अल-अज़म में शिबली ने अपनी समझ से उस सारी फ़ारसी शायरी का जि़क्र किया है, जिसे वे कहने या बताने के क़ाबिल समझते थे। उसमें उन्होंने फ़ारसी कविता का इतिहास, साहित्य-सिद्धान्त और उसके सांस्कृतिक पक्षों के बारे में लिखा है।
उदयन- उसमें शायद ग़ालिब का जि़क्र नहीं है?
फ़ारूक़ी साहब- ग़ालिब कहाँ होंगे, वे उन्हें घास नहीं डालते। ग़ालिब तो ग़ालिब, बेदिल भी नहीं हैं। उसमें एक जुमला है कि लोगों की रूचि इतनी बिगड़ गयी है कि लोग बेदिल, नासिर अली सरहिन्दी और साईब जैसे शायरों पर सिर धुनने लगे हैं। वे हाफि़ज़ की परम्परा के थे, खुसरो को मानते थे। खैर... चूँकि अब्दुस्सलाम नक़वी शिबली के शागिर्द थे, तो उन्हीं की कि़ताब के नाम से इन्होंने भी शेर-अल-हिन्द लिखा, दो जि़ल्दों में। वह कि़ताब थी केवल उर्दू के बारे मेें गोया उसका आशय यह था कि अगर हिन्द में कोई साहित्य है तो केवल उर्दू का। उसी कि़ताब के दूसरे भाग में उन्होंने एक अध्याय लिखाः उर्दू शायरी के दो स्कूल दिल्ली और लखनऊ। दिल्ली और लखनऊ की बात ले-देकर यहीं से शुरू हुई है। उन्होंने ही कहा कि दिल्ली की शायरी के सूफि़यानापन होता है, जुबान फ़ारसी से मिली होती है, लखनऊ की शायरी में सूफि़यानापन कम है या नहीं है। दिल्ली की शायरी में लड़कों के लिए इश्क बहुत है, लखनऊ में लड़कियों के लिए। दिल्ली की शायरी में ढका हुआ अन्दाज़ है, लखनऊ में खुला हुआ। लखनऊ में अंगिया-कुर्ती, पिस्तान, कुल्हा और कमर के बारे में लिख देते हैं, यहाँ लड़कों का इश्क बिल्कुल नहीं है। ये सब बातें ग़लत हैं। लेकिन जो चल गया सो चल गया। अगर इनके बीच कोई प्रतिद्वन्द्विता थी तो वह यह कि दिल्ली वाले श्रेष्ठ हैं और लखनऊ वाले कमतर। इंशा ने 1807 में मेरे ख़याल में भाषा विज्ञान की दुनिया की पहली कि़ताब लिखी थी, यह कि़ताब उन्होंने सआदत अली खाँ के ज़माने में लिखी थी और वे दिल्ली से आये थे इसलिए इंशा ने बहुत बचाकर कि़ताब लिखी है। उन्होंने कहा कि ऐसा कोई घराना जो पचास से कम बरसों पहले दिल्ली से आया हो, उसकी भाषा हम नहीं मानेंगे। मुर्शिदाबाद वाले अपने को दिल्ली वाला कहते हैं, ये कहाँ से दिल्ली वाले हो गये जबकि इंशा खुद मुर्शिदाबाद से आये थे। इससे लखनऊ वालों को कुछ अच्छा लगा होगा, कुछ बुरा लगा होगा। इसके बाद रजब अली बेग ‘सुुरूर’ ने अँग्रेज़ों को उर्दू पढ़ाने के लिए लिखा गया मीर अम्मन के ‘बागो बहार’ पर एक चुटकी ले ली कि दिल्ली वाले कहते हैं, ‘मैंने वह काम करकर छोड़ दिया, लेकिन ये ‘करकर’ क्या होता है, ‘करके’ लिखना चाहिए। इस कि़स्म के छोटे-मोटे चुटकुले चला करते थे। हाली ने अपनी 1894 की कि़ताब में संकेत किया है कि लखनऊ वालों के मुहावरे कुछ अलग हैं। लेकिन ऐसा नहीं था मानो शायरी की ये दो अलग धाराएँ हैं। मौलवी साहब लिखकर चले गये और फिर वो फ़ौरन जम गया।
उदयन- फिर उसे अतीत पर भी चस्पाँ कर दिया गया...
फ़ारूक़ी साहब- बिल्कुल साहब। मौलवी साहब ने कहीं पढ़ लिया होगा कि अँग्रेज़ों के यहाँ कविता का ‘लेक स्कूल’ होता था और कोई ‘नाईट एण्ड ग्रेवयार्ड स्कूल’ हुआ करता था। उन्होंने सोचा होगा कि अच्छा अँग्रेज़ों के यहाँ स्कूल हुआ करते हैं, हमारे यहाँ भी होना चाहिए। स्कूल कहाँ से आते तो वहीं से दिल्ली और लखनऊ स्कूल बन गये। वे कहते हैं ‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी’, ये कहते हैं ‘बात करना मुझे मुश्किल कभी ऐसा न था।’ हो गया स्कूल। मुसहफ़ी वाली कहानी में मैंने उनका एक शेर लिखा है, जिसके मायने हैं कि तुम्हारे कूल्हों की कूची से तस्वीर खींचना ऐसा ही है जैसे पहाड़ों को धागे से खींचना। मुसहफ़ी जो अपने को दिल्ली वाला कहता था, वो कूल्हों के बारे में इतने खुले तरीके से बात कर रहा है इसलिए यह कहना कि लखनऊ वाले ही यह काम करते हैं, ग़लत है। दिल्लीवालों ने भी ऐसा बहुत लिखा है। मीर के पहले के लोगों में बड़ी खुली-खुली बाते हैं, लौण्ड़ों के नाम लिखे गये थेः मैं अमृतलाल पर आशिक़ हूँ या मोहन पर, ये दिल्ली में लिखा गया हैै। मीर के यहाँ भी बहुत कुछ मिल जाता है।
उदयन- ये सब आपके दिमाग में कहानी लिखने से पहले रहा होगा।
फ़ारूक़ी साहब- हाँ था पर मैंने दिल्ली और लखनऊ की शायरी के विभाजन को कभी नहीं माना। मैंने इस बारे में लिखा भी है। आप दस हज़ार शेर ले लीजिए, दिल्ली और लखनऊ के, फिर देखिए इनमें क्या-क्या सामान्य है। ऐसी कौन-सी चीज़ हैं, जो दिल्ली में हो और लखनऊ में न हो या इसका उल्टा। आप पाएँगे सभी चीजें़ दोनों में मौजूद हैं। बहरहाल... लखनऊ मुझे पसन्द बहुत है, वहाँ से लगाव है, नैयर मसूद से दोस्ती बहुत थी, आज भी है, अब वे बीमार बहुत हैं, बोलते नहीं हैं, उन्हें सुनायी भी नहीं देता। मुसहफ़ी के कि़स्से में यह है कि वे दिल्ली भी बहुत दिनों तक रहे थे, वहाँ सक्रिय थे। जब वे लखनऊ आये, उन पर विवाद हुए, इंशा से उनके झगड़े भी हुए, जिसके बारे में मोहसिन आजाद ने ‘आबे हयात’ में बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बयान किया है। इंशा ने यह लिख दिया कि मुसहफ़ी के यहाँ अमरोहापन बहुत पाया जाता है। वे दिल्ली वालों की तरह लिखने की कोशिश ज़रूर करते हैं पर उनका ‘अमरोहापन’ नहीं जाता। पर बात तो ये है कि दिल्ली में दिल्लीवाला कौन था? ग़ालिब आगरे से आये थे, मीर भी। ले-देकर ज़ौक को आप दिल्लीवाला मानना चाहें तो मान लीजिए। लेकिन उनके बारे में भी यह कहा जाता है कि उनके बाप नाई थे। मोमिन के बाप कश्मीर से आये थे, सो वे भी दिल्लीवाले नहीं थे।
उदयन- मुसहफ़ी पर ही आपने कहानी लिखना क्यूँ तय किया?
फ़ारूक़ी साहब- वो बड़ा रंगीन आदमी है। उसने लड़कियों और लड़कों दोनों से ही इश्क किया। दोनों तरह की शायरी उसके यहाँ हैं। मैंने सोचा इसके बारे में लिखो। यहाँ भी मैंने वही किया कि आख्याता के पिता को इतिहास से उठा लिया, वह मारवाड़ी व्यक्ति, लाला कांजीमल वास्तविक है, वह फ़ारसी का शायर भी था, उसके बेटे की मैंने कल्पना कर ली। मुसहफ़ी चूँकि बहुत रंगीन आदमी था, उसने बहुत लड़कियाँ कीं, वह आशिक़ बहुत हुआ। यह जो लड़की कहानी में है, उसके बारे में मुसहफ़ी की पाण्डुलिपि में सिफऱ् एक जुमला मिलता है कि एक औरत आजकल मेरे साथ रहती है, जिसके साथ मैंने मुताह कर लिया है।
उदयन- मुताह क्या होता है? क्या इसकी कोई रिवायत भी मिलती है या नहीं!
फ़ारूक़ी साहब- यह शिया लोगों के यहाँ चलता है, सुन्नियों में भी। पर हम लोग नहीं करते हैं। हमारे पुरखे उमर साहब ने उसे बन्द करा दिया। कुरान में हालाँकि इसका जि़क्र टेढ़े रास्ते से मिल जाता है। यह अस्थायी शादी है। आप कहीं बाहर गये हुए हैं और ज़ाहिर बात है कि औरत साथ में नहीं है और ये भी मुश्किल है कि अपनी इच्छाओं को काबू में रख सकें तो किसी से अस्थायी शादी कर ली, चार दिन की या पाँच दिन की, एक महीने की या दस साल की लेकिन वह ख़ालिस अनुबन्ध होगा। अनुबन्ध जैसे ही पूरा होगा, दोनों एक दूसरे को छोड़ देंगे।
उदयन- यह अनुबन्ध है, यह दोनों को पता रहता है?
फ़ारूक़ी साहब- हाँ। शिया लोगों में यह आम है, भारत में कम है। ईरान में आज भी बहुत है। ईरान के कुम में शियाओं का बड़ा स्कूल बना। कुम में ईरान के कई मशहूर शायर हुए हैं। कुम के स्कूल में शियाओं को धर्मशास्त्र और फ़लसका पढ़ाया जाता है। अब वह बहुत बड़ा स्कूल हो गया है। वहाँ ऐसी औरतों का समुदाय है, जो वहाँ दूर-दूूर से (चाहे वे ईरान के हों या और कहीं के) पढ़ने आये विद्यार्थियों से मिलती हैं और उनसे कहती हैं कि हमसे मुताह करोगे? अगर वे राज़ी हो गये तो उससे मुताह कर लेते हैं। जब तक वहाँ रहते हैं, वो उनकी बीवी रहती है, जब पढ़ना ख़त्म हुआ, लड़का सलाम वालेकुम कहकर अपने घर और लड़की अपने घर। ईरान में यह बिल्कुल आम है, ईराक में भी। मुसहफ़ी में इस बारे में सिफऱ् एक पंक्ति मिलती है, उसी के आधार पर मैंने पूरा गढ़ लिया कि उन्होंने किससे मुताह किया होगा, वह कौन रही होगी, उसका इनके मरने के बाद क्या हुआ होगा वगैरह? मुसहफ़ी खासी उम्र में मरे थे तो ये सवाल उठता है कि उस लड़की का क्या हुआ होगा। उस ज़माने में जो हुआ करता था, वही हुआ होगाः या तो वो आवारा हो गयी होगी या किसी और ने अपने घर में डाल लिया होगा या मर गयी होगी इसलिए मैंने उसके चारों ओर एक कहानी बना ली। चूँकि मुसहफ़ी को मानने वाले बहुत थे, उसके शार्गिद ही बहुत थे बड़े-बड़े, जैसे नासिख़ और आतश। मुसहफ़ी बहुत उदार व्यक्ति था। नासिख़ और आतश की जवानी में नये ढ़ंग का लिखना शुरू हुआ, लखनऊ में, ये लोग ख़यालबन्दी करते थे वैसे तो यह शाह नसीर करते थे। वे दिल्ली में रहते थे, लखनऊ आये थे पर फिर हैदराबाद चले गये। वैसे ख़यालबन्दी के सबसे बड़े उस्ताद ग़ालिब हैं। इसमें होता यह है कि आप कोई अमूर्त या कैसा भी मजमून लाईये और लिखिए। आप चाहो तो बिल्ली पर लिखो। मैंने कहीं लिखा भी है कि शाह नसीर ने कनखजूरे पर ग़ज़ल लिखी है, पहले तुम उसके दो शेर सुन लो ः
        टाँकों से जख़्म-ए-पहलू लगता है कनखजूरा
        मत छेड़ मेरे दिल को बैठा है कनखजूरा
उदयन- क्या बात हैं।
फ़ारूक़ी साहब- कई औरतें ख़ासकर हरियाणे की, गाल पर अपनी ज़ुल्फ़ को टेढ़ा कर लेती हैं, पहले यह बहुत आम था, जहाँगीर के व्यक्ति-चित्र में भी ऐसा ही दिखेगा। ज़ुल्फ़ का यह टेढ़ापन बिच्छू जैसा होता है। ऐसी ज़ुल्फ़ें लड़के भी बनाते थे, जिनके बड़े-बड़े बाल होते थे और जिनकी दाढ़ी भी निकल रही होती, जिसे ख़त कहते हैं। अब शेर सुनो ः
        ख़त-ए-सियाह दर पै है ज़ुल्फ़ के नसीर अब
        बिच्छू के छीनने घर निकला है कनखजूरा
इससे जुड़ा एक किस्सा मैं तुम्हें बताऊँ। मेरे दिल का जब आॅपरेशन हुआ तब बाराँ की बड़ी बेटी छोटी थी, (अब तो बड़ी हो गयी है और उसकी भी एक बेटी है) मेरा आॅपरेशन हुए भी बहुत बरस हो गये, यह बात सन् 1992 की है। तुम्हे यह पता ही है कि शल्य चिकित्सक अलग-अलग तरह के टाँके लगाते हैं। डाॅ. त्रेहान रेशम के टाँके लगाते थे। मेरे सीने पर बड़े-बड़े काले टाँकों के धागे बाहर निकले हुए थे। इस बच्ची ने उन्हें देख लिया और कहा, ‘ये क्या है? ’ मैंने कहा, ‘ये टाँके हैं, निकल जाएँगे, कुछ दिनों में।’ जब कभी वो मेरे पास आये, मुझसे कहे मुझे वो दिखाओ। वह उन्हें देखकर डर जाती, अरे बाप रे बाप। तब मुझे लगा कि बुढ़ऊ ने कितना पक्का शेर कहा हैः
    टाँकों से ज़ख्म-ए-पहलू लगता है कनखजूरा
आतश मुसहफ़ी के शार्गिद थे (नासिख़ उनके दोस्त थे, वे किसी के शार्गिद नहीं थे) पर तब भी जब मुसहफ़ी ने आखिरी दो दीवान लिखे, उन्होंने स्वीकार किया कि मैं नयी तरह की शायरी कर रहा हूँ और हमारा शार्गिद आतश इस तरह की शायरी का बड़ा उस्ताद है। मैं उसकी तरह से लिख रहा हूँ।
उदयन- यह एक अद्भुत बात है।
फ़ारूक़ी साहब- हमारी संस्कृति को यानि हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति को नीचा दिखाने यह भी कहा गया कि उस्ताद लोग शार्गिदों की खासियत को, वैयक्तिकता को मार दिया करते थे। यहाँ उल्टा हो रहा है। मुसहफ़ी ने लिखा है कि आतश अभी जवान है, 28-29 बरस का होगा, लेकिन उस्ताद बनेगा, मुझे भी उसकी शायरी पसन्द है, मैं उसी के रंग में लिख रहा हूँ। यह सच भी है, उनका आखिरी सातवाँ और आठवाँ दीवान आतश के रंग में ही है। उनकी शायरी अमूर्त है, आपको मज़ा आये या न आये, उन्हें पसन्द करने के लिए आपके भीतर वैसी रूचि विकसित होनी चाहिए। मैंने एक जगह यह लिख दिया था कि मैं नासिख़ को शायर नहीं मानता क्योंकि उनमें गद्यात्मकता बहुत है, कविता कम। इस पर मैंने सार्वजनिक तौर पर कान पकड़कर माफ़ी माँगी। अब मैं यह कहता हूँ कि जो आदमी नासिख़ की कविता का आनन्द नहीं ले सकता, वह उर्दू के क्लासिकल साहित्य की संस्कृति को समझ सकता है न उसका आनन्द ले सकता है।
उदयन- आप कह रहे थे कि नासिख़ हैदराबाद चले गये थे।
फ़ारूक़ी साहब- इनके अगुआ नसीर शाह नसीर जो ज़ौक के उस्ताद थे, वे कुछ दिन के लिए लखनऊ आये थे फिर हैदराबाद चले गये। उनकी वहाँ बहुत क़द्र हुई। दीवान चन्दूलाल, निज़ाम हैदराबाद के मुख्यमन्त्री, इनके बहुत मनाने वाले थे, उन्होंने इनको बुलवा लिया था।
उदयन- नासिख़ पूरे वक्त कहाँ रहे?
फ़ारूक़ी साहब- लखनऊ में। ये लोग कश्मीरी थे, इनके पिता ने इनको गोद लिया था, उस पर लोगों ने बहुत फ़ब्तियाँ कसी थीं। ये समलैंगिक थे, जिसकी उस ज़माने में बहुत चर्चा थी। एक तस्कीरा है, खुश मार्के ज़ेवा, जिनके लिखने वालों ने इस कि़स्म की वास्तविक और काल्पनिक सभी घटनाओं को लिखा है। नासिख़ कानपुर बहुत जाया करते थे। जब भी लखनऊ के नवाब या उनके वज़ीर उनसे नाराज़ हो जाएँ, नासिख़ या तो इलाहाबाद या कानपुुर चले जाते थे। कानपुर पर भी उन्होंने शेर कहा है, तुम वो भी सुन लो ः
        ये नौचे खाते हैं जि़न्दों को कानपुर के लोग
        जैसे मुर्दो को खाते है ज़ाग गंगा में
कानपुर के हिन्दू शायर थे, उनका नाम याद नहीं आ रहा, वे भी बालक-पसन्द थे। उनका माशूक किसी काम से लखनऊ जा रहा था, उन्होंने उसके साथ कविता रख दी, अफ़सोस मुझे अभी याद नहीं है पर उसकी एक पंक्ति यह हैः नासिख़ से बच के रहना, बड़ा लौंडेबाज़ है। नासिख़ के खास माशूक मिजऱ्ाई खान थे। टकसाल को दारूल ज़र्ब कहते है। ज़र्ब के माने हैं, ठप्पा लगाना। अरबी में उसका अर्थ मारना होता है। दारूल ज़र्ब यानि मारने की जगह। मिजऱ्ाई खान ने नासिख़ से कुछ पैसा मँगवाया। उन्होंने पैसा ज़रूर भेजा होगा पर एक शेर भी लिख भेजा फ़ारसी मेंः
चि हाज़त अज़ ज़रो दीनारदारी कि दारूज्ज़र्ब दर शलवारदारी
(तुझे रूपये या दीनार की ज़रूरत क्या है कि तेरी शलवार में टकसाल है।)
यह सब और लोग नहीं कर सकते थे, यह ख़यालबन्दो का काम था। इसीलिए मैंने इस कहानी ‘आफ़ताब-ए-ज़मीं’ में संकेत किया है कि बेचारे नासिख़ को औरतों से क्या मतलब था, वे किसी और रंग के आदमी थे। आतश ने कभी शादी ही नहीं की। मुझे यह कहानी इसलिए भी अच्छी लगती है कि मुसहफ़ी जितना बड़ा आदमी था, उतनी जगह उसे नहीं मिली। उसके आठ दीवान पिछले 20-25 सालों में ही छप पाये हैं। रामपुर में उनके शागिर्द के शागिर्द दो आदमी थे, उन्होंने वहाँ के पुस्तकालय से चार दीवान निकाले और उन्हें मिलाकर छाप दिया और उसे ‘दीवाने मुसहफ़ी’ कह दिया और ज़ु़ल्म ये किया कि उसमें जगह-जगह पुरानी ज़ुबान काटकर नयी ज़ुबान बना दी। गोया ये उनके उस्ताद की शान के खिलाफ़ था कि वे रह तो रहे हैं 1785 में और पढ़े जाएँगे 1985 में। इसलिए उन्होंने काट-काटकर जु़बान को नया कर दिया। पाँचवे से आठवाँ दीवान बाद में छपा, नवाँ अब जाकर छपा। फिर भी उनका लिखा बहुत कुछ छूट गया है। लोगों ने उनकी क़द्र ज़्यादा नहीं की और इस कि़स्म के लतीफ़े मशहूर हो गये कि इंशा से उनका झगड़ा हुआ और इनकी पुतलियाँ बना दीं और इन्हें लड़ते हुए दिखाया और यह भी कि उनके पीछे हाहाकार करते हुए लौंडे लगे हुए हैं और यह शेर पढ़ा जाने लगाः
        स्वांग नया लाया है चरखे कुहन
        लड़ते हुए आये हैं मुसहफ़ी ओ मुसहफ़न
ये हुआ होगा। उस ज़माने में यह सब चलता था लेकिन इन सब चीज़ों को आगे लाना ग़लत था। बादशाह के बेटे सुलेमान शिकोह लखनऊ आकर रहे थे। उनसे इनकी पहले बनती थी फिर नहीं बनी तो यह कह दिया गया कि यह इंशा की वजह से हुआ है। पहले इनकी तनख़्वाह पच्चीस रूपये महीना थी फिर घटाकर पाँच रूपये कर दी गयी। इस पर उन्होंने कविता भी लिखी थी। उन्होंने नवाब को नसीहत दी थी कि आप ग़लत लोगों की बात सुनते हैं। उनकी क़द्र नहीं हुई, मैंने उन्हें दोबारा स्थापित करने की कोशिश की। मुझे पता नहीं, मैं कामयाब हो सका या नहीं। उस कहानी में दिल्ली, लखनऊ, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश की संस्कृति की झलकें आ गयी हैं, उस ज़माने में हिन्दू-मुसलमानों में जो पूरी तरह एका था, वह भी आ गया है, ग़रीब लोगों के बच्चे बेचने की मजबूरी भी उसमें आ गयी है। न्याय-अन्याय, अच्छाई-बुराई, क्रूरता-विनय जो उस ज़माने में थी, वह भी आ गयी हैं।
उदयन- कहानी में इशरत जहाँ, भूरा बेगम की संवेदनाएँ भी बेहद परिष्कृत और बारीक हैं...
फ़ारूक़ी साहब- सच है। उसमें एक छोटे-से पेरेग्राफ़ में मैंने उसका ‘सरापा’ लिखा है। वह इतना सूक्ष्म है कि उसे पढ़कर हमारी बीवी कहने लगी, ‘ऐसा आपने कभी हमारे बारे में नहीं लिखा।’ हम हाथ जोड़कर चुप हो गये। वह काल्पनिक है, आप तो वास्तविक हैं। हमने उनके मरने के बाद उन पर कविताएँ बहुत लिखीं। मैं उन पर बहुत रोया। हमारा पे्रम विवाह था और बाप-माँ के खिलाफ़ था। हम लोगों में बनी खूब। उन्होंने मेरे लिए बहुत बलिदान भी दिये। वे घर में ही स्कूल और बच्चों में लगी रहीं और मैं मारा-मारा फिरता रहा। 1994 के बाद हम साथ रहे। उसके पहले तक हमारी नौकरी की जगहों पर वे आती-जाती रहती थीं पर हम साथ नहीं रहे। वे अपने बाप की मजऱ्ी के खिलाफ़ मेरे साथ गुवहाटी आकर भी रहीं।
उदयन- आपके उपन्यास की शुरूआत भी उन्हीं पर लिखी आपकी कविता से होती है।
आज फ़ारूक़ी साहब से बातचीत का तीसरा और आखिरी दिन है। वे चाहते थे कि बातचीत दो दिनों में ही ख़त्म हो जाती पर ऐसा हुआ नहीं, इससे मुझे तो खुशी थी ही, वे भी थकान के बावजूद दुःखी नहीं थे। उन्होंने पिछले दिन इतना भर कहा कि मैं आज थोड़ा-सा देर से आऊँ। मैं आज भी दिल्ली की धूल-धक्कड़ से गुज़रता हुआ फ़ारूक़ी साहब से मिलने की खुशी दिल में लिए बाराँ जी के घर की चैखट पर पहुँच गया। मैं सोच कर आया था कि अब तक की बातचीत में उनके उपन्यास लेखन की बेहतर भूमिका बन चुकी है इसलिए आज दोपहर हम ज़्यादातर उपन्यास पर ही बात करेंगे। मुझे पता था कि फ़ारूक़ी साहब अपनी कहानियों की तरह ही अपने उपन्यास पर भी खुलकर बात करेंगे। वे उन लेखकों में नहीं हैं जो अपने लेखन के बारे में रहस्य बनाये रख़ते हैं। फ़ारूक़ी साहब के लेखन का रहस्य उनके लिखने के ढ़ंग में इस क़दर गुँथा हुआ होता है कि उस पर वे कितनी ही बात क्यों न करें, वह बना रहता है।
फ़ारूक़ी साहब- आज कहाँ से शुरू करने वाले हो।
उदयन- कहानियों से होते हुए अब हम आपके उपन्यास पर आ गये हैं। आज उसी के आस-पास रहेंगे। ‘कई चाँद थे सरे आसमाँ’ की शुरूआत में नेत्र विशेषज्ञ और लन्दन, जहाँ वे जा रहे हैं, उनके कई वर्णन आते हैं, जैसे वे लन्दन में वसीम जाफ़र से मिलते हैं और वे दोनों ब्रिटिश संग्रहालय में जाते हैं और उससे जुड़े संग्रहालय के विवरण भी। क्या वसीम जाफ़र जैसे चरित्रों के पीछे कोई ऐतिहासिक चरित्र है?
फ़ारूक़ी साहब- 1930 के दशक में उर्दू के एक लेखक हुए हैं, सलीम जाफ़र, उन्होंने ग़ालिब पर काम किया है, भाषा विज्ञान पर भी, इंशा के क़लाम की कि़ताब भी सम्पादित की है। यह नाम इतना सामान्य मुसलमान नाम है कि मुझे यह ख़याल तक नहीं आया कि इनके बाप-दादा कोई अँग्रेज़ रहे होंगे या इनका ताल्लुक वज़ीर ख़ानम से रहा होगा। हुआ यह कि मुसहफ़ी वाली कहानी ‘आफ़ताब-ए-ज़मीं’ के प्रकाशन के बाद मुझसे कई लोगों ने कहा कि अब आप दाग़ पर ऐसा ही कुछ लिखिए। दाग़ भी बड़े दिलचस्प, रंगीन और गोया आधुनिकता पूर्व के आखिरी बड़े शायर हैं। वे ही उस समय के प्रतिनिधि शायर हैं। हम दाग़ के बारे में जानते ही थे और यह भी कि वज़ीर ख़ानम उनकी अम्मा थी। यह भी इतिहासकार और अन्य लोग कहते रहते थे कि वे तवायफ़ थीं। पर यह बात कि सलीम जाफ़र उनके रिश्तेदार थे, मुझे नहीं मालूम थी।
उदयन- क्या तब तक सलीम जाफ़र की कि़ताबें आप देख चुके थे?
फ़ारूक़ी साहब- देख चुका था, मेरे पास अभी भी हैं, वे अपने समय के जाने-माने लेखक थे। फिर यह नाम सलीम जाफ़र इतना अधिक मुख्यधारा का नाम है कि आप कहीं से यह कल्पना कैसे करेंगे कि इसके पुरखों में कोई अँग्रेज़ भी रहा होगा। जब मैंने इस बारे में थोड़ा पढ़ा-लिखा, मालूम ये हुआ कि ये मास्र्टन ब्लेक की औलाद की सीधी-सीधी औलाद हैं। मैंने उपन्यास में जैसा लिखा है कि वह पाकिस्तान चला गया और वहाँ उसे फालिज मार गया और वहीं उसकी अनजान आदमी की तरह मौत हो गयी, यह सचमुच हुआ था। उर्दू साहित्य को उसका असली योगदान कि उसने उर्दू को अपनी मातृभाषा और उसके साहित्य को अपने साहित्य की तरह स्वीकार किया और ग़ालिब और अन्य विषयों पर अच्छे निबन्ध लिखे थे, भुला दिया गया। मुझे लगा उसे याद करना ज़रूरी है। वज़ीर ख़ानम के बारे में लिख़ते हुए यह अच्छा ही था कि आप उसके इस गौरवशाली वंशज के बारे में भी लिखें यानि आप उसे फिर से स्थापित करें। यह कैसे किया जाता? यहाँ तो वे थे नहीं, पाकिस्तान में थे। अब उनका चित्र कहाँ होगा, यह पता नहीं था इसलिए मैंने उसके बारे में बड़ा-सा कि़स्सा गढ़ा कि लार्ड राॅबर्ट्स, जो सामान लाया था, वे ब्रिटिश संग्रहालय में यूँ ही पड़े थे, उसमें वह तस्वीर मिली थी। यही सबसे अच्छा ढ़ंग सलीम जाफ़र को दोबारा जीवित करने का था। यही एक ढ़ंग भी था जिससे वज़ीर ख़ानम को भी श्रद्धांजलि दी जा सकती थी कि उनका एक वंशज इतना प्रतिभावान निकला। अब सवाल यह था, उन्हें उपन्यास में कैसे लाया जाए? यहाँ तो उनका कोई सम्बन्धी है नहीं। यहाँ मास्र्टन ब्लेक की औलादों की औलादों में, जिनका जि़क्र आखिरी वंशज की तरह हुआ, जयपुर के ‘दर्द’ थे पर उनके बारे में मैंने कहीं पढ़ा था कि वे वज़ीर ख़ानम या मास्र्टन ब्लेक से अपना रिश्ता जोड़ना अच्छा नहीं समझते थे क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनकी तथाकथित शराफ़त पर धब्बा लग जाएगा कि साहब ये मिलावटी शादी और वह भी चरित्रहीन स्त्री के विवाहेतर सम्बन्ध से पैदा हुुुुुुुए बच्चों के वंशज हैं। यह ख़बर भी 1940 की थी। उसके बाद मुझे कुछ नहीं मालूम। इसीलिए मैंने यह सारा खटराग पैदा किया जिसमें एक चरित्र नेत्ररोग विशेषज्ञ है और उसे वंशावलीयों में रूचि है, इसलिए वह ब्रिटिश संग्रहालय जाता है। मुसलमानों में ख़ासकर अरबों में वंशावलीशास्त्र बहुत बड़ा विज्ञान था, ‘इल्म-उल-अंसाब’ उसे कहते हैं। खुद हमारे पुरखे उमर के बारे में यह कहा जाता है कि वे बहुत बड़े वंशावलीकार थे। किस कबीले की किस लड़की की शादी किस कबीले के लड़के से हुई, उनसे पैदा हुए बच्चे कहाँ-कहाँ हैं, यह वंशावलीशास्त्र था और यह भी कि किसी वंश की तमाम शाखाओं को अपनी याददाश्त में महफ़ूज कर लेना। अरबी में दो लफ़्ज़ हैं, हसब और नसब। हसब यानि कहाँ का है, मालूम हुआ मुम्बई का है या भोपाल या इलाहाबाद का है। नसब यानि इसका बाप कौन है, बेटा कौन है।
उदयन- यानि हसब ‘स्पेस’ के बारे में है और नसब ‘समय’ के बारे में।
फ़ारूक़ी साहब- बिल्कुल। अरब में हसब का उतना महत्व नहीं है क्योंकि वहाँ ज़्यादातर कबीले थे और वे जगह-जगह जाते रहते थे। ऐसी जगहें मुकर्रर थीं जहाँ वे पानी के लिए जाया करेंगे, हर कुछ महीनों के बाद। लेकिन किसी के लिए भी स्थायी सहारा नहीं था अलावा शहरी लोगों के। आधुनिक-पूर्व अरब में दो तरह के लोग होते थे। एक थे एहलुल वब्र, जो निर्जन जगहों पर रहते थे। दूसरे होते थे एहलुल मद्र, ये वो लोग थे जो ईंटों के मकानों में रहते थे। उमर मक्के के रहने वाले थे इसलिए एहलुल मद्र थे। लेकिन किसी भी एहलुल मद्र की शान में यह बट्टा माना जाता था कि वह एहलुल वब्र के लोगों को जानता न होः वे कौन-से कबीले के हैं, कहाँ मिलते हैं, इनकी पानी की जगहें कहाँ हैं, इनकी शादियाँ कहाँ हुई हैं, इनका पिछला झगड़ा किससे और कब हुआ था, उसमें कितने लोग मरे थे। उमर बहुत बड़े लस्साब थे। यहाँ भी आधुनिकता के पहले ‘इल्म-उल-अंसाब’ मदरसों में पढ़ाया जाता था, अब बिल्कुल भी नहीं। इसलिए हमने उपन्यास में यह डाल दिया कि हमारे आँख के डाॅक्टर को वंशावली बनाने का बड़ा शौक है। उसको यह जिज्ञासा रहती है कि गोरखपुर में कौन लोग हैं, वे कहाँ से आये हैं वगैरह... यह मेरे लिए खड़ा करना कठिन नहीं था। फिर यह कि सलीम जाफ़र के पोते वसीम जाफ़र को कि़ताब मिलती है आदि की मैंने कल्पना की पर तुम अच्छी तरह जानते हो कि यह भी उपन्यासकार की एक युक्ति है। इससे लेखक अपने को कहानी से दूर रखकर कहानी की विश्वसनीयता को बनाए रख़ता है। मैं चाहता था कि वह कि़ताब अतीत का प्रतीक हो जाए, जो घटनाएँ उस समय हुई और जिन्हें स्मृति में संरक्षित किया जाना था, वे किन्हीं ऐतिहासिक कारणों से नहीं हो सकीं। वो सब मैंने उसके स्वप्न में होता हुआ दिखा दिया। अपने ख़याल में मैंने काल के परे एक काल का चैखटा खड़ा कर दिया जिसमें उस संस्कृति, उसके अतीत, वज़ीर ख़ानम और उसके घरवालों को रख सकूँ।
उदयन- और उन्हें इस तरह वस्तुनिष्ठ ढ़ंग से देख सकूँ...
फ़ारूक़ी साहब- हाँ। इससे यह भी हुआ कि मुझे यह कहने की ज़रूरत नहीं रही कि ऐतिहासिक रूप से यह घटना 1805 में हुुई या 1807 में या 1812 में। इस तरह उस उपन्यास में ठीक-ठीक तारीखों से ज़्यादा घटनाएँ महत्व की हो गयीं। मैंने यह कहा कि ये घटनाएँ इस तरह हुईं और इन्हें कोई व्यक्ति इस तरह याद कर रहा है। उपन्यास के सारे आख्यान का आधार इसीलिए वसीम जाफ़र से मिली पाण्डुलिपि हो गयी। उसके लिखने में मैंने यह किया, चूँकि आख्याता को यह मालूम नहीं होता कि यह कौन है तो शुरू का आख्याता आधुनिक उर्दू लिख़ता है लेकिन जैसे ही 18-19 वीं शताब्दी के चरित्र आते हैं, वे अपने ज़माने की उर्दू बोलते हैं। मैंने यह ध्यान रखा कि उपन्यास के उस भाग में ऐसा एक लफ़्ज़ भी न लिखूँ, जो उस ज़माने में प्रचलित न रहा हो। इसलिए आपको उस हिस्से में ऐसा एक भी लफ़्ज़ नहीं मिलेगा जो 19 वीं सदी के अन्तिम बरसों में या 20 वीं सदी में उर्दू में आया होगा। यही मैंने उसमें आयी अँग्रेज़ी के साथ भी किया। इस पर उर्दू वालों ने भी बहुत एतराज़ किया कि ये कौन-कौन से शब्द आपने लिख दिये हैं कि समझ में ही नहीं आते। ये कौन-कौन से मुहावरे आ गये! अँग्रेज़ी में इस उपन्यास के अनुवाद को डी. एस. सी. पुरस्कार इसलिए नहीं मिला क्योंकि इसमें प्रचीन शब्दों की भरमार है।
उदयन- उपन्यास के हिन्दी अनुवाद में उर्दूओं का यह फ़र्क, जिसका आप जि़क्र कर रहे हैं, मालूम नहीं देता...
फ़ारूक़ी साहब- वो फ़र्र्क हिन्दी में कैसे आयेगा? हिन्दी हो या अँग्रेज़ी। अँग्रेज़ी में मैंने इसकी भरपाई इस तरह कर दी कि जहाँ पुरानी उर्दू के लफ़्ज़ थे, वहाँ मैंने पुरानी अँग्रेज़ी के लफ़्ज़ रख दिये। कई चीज़ें ऐसी हैं, जो उर्दू से दूसरी ज़ुबानों में आ ही नहीं सकतीं, फिर वह भले फ़ारसी ही क्यूँ न हो। मिसाल के तौर पर जो ख़ास कि़स्म की दरबारी ज़ुबान है, जो बहुत विस्तृत और आलंकारिक होती है, उसे 16 वीं सदी की अँगे्रज़ी में भले ही किसी हद तक लाया जा सके वर्ना ऐसी दरबारी भाषा आज फ़ारसी में नहीं है और अँग्रेज़ी में तो बिल्कुल नहीं है।
उदयन- अब यूरोप में लोकतन्त्र का बोलबाला है, वह जैसा भी हो, इसलिए ऐसी विस्तृत दरबारी ज़ुबान अँग्रेज़ी में कैसे होगी? हिन्दी में भी...
फ़ारूक़ी साहब- हमारे बाप के समय तक यह आम था कि अगर आपको बड़ा अफ़सर भी ख़त लिख रहा है, वह यूँ लिखेगाः आय हेव दी आॅनर टू बी योर मोस्ट ओबिडियेण्ट सरवेण्ट और उसके बाद अपना दस्तख़त करेगा। 20 वीं सदी की शुरूआत तक इस कि़स्म की भाषा आम थी लेकिन अब वह अँग्रेज़ी बिल्कुल नहीं है फिर भी हमने उसी को लेना चाहा जितना ले सके। पर जितनी विस्तृत उर्दू उस ज़माने में थी, उसका जवाब न अँग्रेज़ी में हो सकता है, न हिन्दी में। इसलिए अनुवाद के दौरान बहुत कुछ छोड़ना पड़ा। ज़ाहिर है अनुवाद में छोड़ना ही पड़ता है। उर्दू का पुराना रूप, उसका उच्चकोटि का साहित्यिक, अलंकारिक, फ़ारसीकृत, अरबीकृत रूप, उसकी प्रेम की भाषा या दरबार की या औरतों की, यह सब छोड़ना पड़ा। उस ज़माने में उर्दू मुहावरों से लदी हुआ करती थी। अब बद्कि़स्मती से कम होती चली जा रही है। लोगों ने मुझसे शिकायत की कि इस उपन्यास में लिखे मुहावरों के मायने उन्हें समझ नहीं आते। 19वीं सदी तक यह भाषा एक तरह से लोगों के क़रीब थी इसीलिए उसमें कहावतों, मुहावरों और ऐसे शब्द भी बहुत थे, जो रूपक बन गये थे।
उदयन- ऐसा इसलिए भी हुआ होगा क्योंकि तब सामुदायिक जीवन ही अधिक प्रभावी रहा होगा, लोगों में जुड़ाव अधिक रहा होगा।
फ़ारूक़ी साहब- यह तुमने बहुत अच्छी बात कही कि सामुदायिक जीवन उन दिनों अधिक जुड़ा हुआ था, साहित्यिक जि़न्दगी से भी और तथाकथित ऊँची कोटि की जि़न्दगी से भी। लोग आसानी से इन तमाम जगहों में आ जा सकते थे। वह अब नहीं कर सकते। खास कर अँग्रेज़ों के ज़माने के बाद से बिल्कुल नहीं कर सकते। अँग्रेज़ों की जि़न्दगी में कोई भारतीय सहज रूप से आ-जा नहीं सकता था। अगरचे उसने अँग्रेज़ औरत से शादी भी क्यों न कर ली हो। यह इसलिए हुआ क्योंकि शासक और शासित के बीच स्पष्ट रेखा खींच दी गयी थी। 1857 के पहले की संस्कृति में कम-अज़-कम ऐसा फ़र्क नहीं था। इसको अक़बर इलाहाबादी ने बहुत अच्छे से कहा है। 1857 के बाद जब अँग्रेज़ों ने इलाहाबाद को दोबारा व्यवस्थित किया, उन्होंने पहला काम यह किया कि पुराने केण्टोनमेण्ट (जो गंगा जी के पास आज भी है) के अलावा सिविल लाईन्स के ठीक बीच में एक और केण्टोनमेण्ट बना दिया। वो भी अभी है, उसे न्यू केण्टोनमेण्ट कहते हैं। आजकल वहाँ रेलवे लाईन है, वो एक ऐसी रेखा की तरह खीचीं गयी जिससे पुराना शहर और सिविल लाईन्स अलग हो गये। अक़बर इलाहाबादी ने कहा यह है कि पहले बड़े को छोटे की ख़बर थी, छोटे को बड़े की। हवेली आपकी है तो उसके नीचे हमारी झोपड़ी भी है। अब ये है कि आपकी हवेली तो सिविल लाईन्स में है और मेरी झोपड़ी रानी मण्डी में। हमको क्या पता आप क्या बोल रहे हैं, क्या खा रहे हैं, और आपको क्या पता कि हम क्या कर रहे हैं, भूखे मर रहे हैं कि जि़न्दा हैं। मीरवाली कहानी में मैंने दिखाया है कि बड़े-बड़े लोगों की हवेलियाँ हैं और उसी के पास छोटी-सी मस्जि़द और छोटा-सा बाज़ार है, साथ ही 10-20 ग़रीब लोगों के घर भी हंै। सब आपस में मिले हुए हैं। यह सब लगभग 1857 तक चलता रहा। तब तक भी बड़े-बड़े हाकिमों की, नवाबों की, राजाओं की हवेलियों के पास यह सब होता था। अभी भी तुम चले जाओ, दिल्ली के कटरा नील में छुन्नामल चाँदीवाले की बहुत बड़ी हवेली है और पास में गलियाँ हैं, जुड़े हुए छोटे-छोटे मकान हैं। यह बहुत आम था। गली-ए-क़ासिम जहाँ ग़ालिब का मकान था, वहाँ भी क़ासिम की हवेली बहुत बड़ी है, उसमें आजकल सत्रह-अठारह घर बने हैं, जहाँ हमारे-आपके जैसे लोग रहते हैं। कहने को यह ठीक है कि इस उपन्यास में मैंने वज़ीर ख़ानम या सलीम जाफ़र और दाग़ को बड़े पैमाने पर गोया दोबारा स्थापित किया है लेकिन उससे बड़ा काम जो मैंने उसमें करना चाहा था, वह जितना भी हो सका हो, यह था कि मैंने उस संस्कृति का पुनर्कथन किया है। लोग तब कैसे बोलते थे, कैसे प्रतिक्रिया करते थे, किन परिस्थितियों में उनका क्या व्यवहार होता था, बाप-माँ, बाप-बेटी, भाई-बहन के किस कि़स्म के रिश्ते होते थे, शादी-ब्याह के अलावा भी लोग आपस में कैसे मिलते थे, हिन्दू-मुसलमानों के कैसे रिश्ते थे। मालिक और नौकर के रिश्ते की एक मिसाल तब आती है, जब नवाब शमसुद्दीन के यहाँ शिकारी भरमारू पहुँचता है तो नवाब कहते हैं, बैठो खाना खाओ। आज यह मुमकिन नहीं है। आप कितने ही उदार क्यूँ न हों, आप अपने शिकार मास्टर को पास बिठाकर यह नहीं कहेंगे, आ भाई खाना खा। ऐसे कई रास्तों से मैंने यह दिखाने की कोशिश की कि उस ज़माने में जि़न्दगी कैसे जी जाती थी बल्कि यह कि लोग जि़न्दगी को किस तरह लेते थे। साथ ही बदलते हुए मंज़र के बारे में वे लोग किस हद तक सजग थे और किस हद तक अनजान। मैं यह दिखाने की कोशिश कर रहा था कि लोग बदलते मंज़र के लिए दरअसल अनजान थे। वे सोचते थे कि लालकि़ले में बैठै बादशाह का यह जो इक़बाल बुलन्द है, वह हमेशा बना रहेगा, यह ज़रूर है कि अभी सूरज गहरा गया है पर वह कुछ वक्त बाद फिर निकल आएगा। जो उस समय हो रहा था, वह मामूली-सी घटना है, जो आयी-गयी हो जाएगी। यह विचार मज़बूत था। शाह आलम की टकसालें लाहौर, ग्वालियर और दो एक जगह और थीं, उनके टाँके हुए ही सिक्के हर जगह मुक्त रूप से चलते थे, वही उस ज़माने का सिक्का था। अशरफ़ी भी थी। अँग्रेज़ों ने इसकी काट के लिए 1835 में अपना सिक्का शुरू कियाः कम्पनी सिक्का। लेकिन जो क़ीमत ‘चेहरे शाही’ की थी, इन लोगों की नहीं थी। 1857 के बाद तक वे सिक्के चला करते थे। वे लोग सोचते थे कि ये विदेशी लोग आये हैं, जल्द ही निकल जाएँगे। लाल कि़ले से जो राज कर रहा है, राज उसी का रहा आएगा। हम उसी की प्रजा हैं। 1857 ने सब बदल दिया। बादशाह का हटाया जाना सिफऱ् राजनैतिक घटना नहीं थी, सारे देश की मानसिकता में भी बदलाव का आना था। वे यह सोचने पर मजबूर हो गये थे कि अब लालकि़ले की गद्दी खाली है। अँग्रेज़ों ने मिजऱ्ा फ़करू से उत्तराधिकार सम्बन्धी जो बातचीत शुरू की थी, उसमें यह राज़ीनामा शामिल था कि अँग्रेज़ उन्हें वली अहद तो मान लेंगे पर उन्हें लालकि़ला खाली करना होगा। 1857 ने लोगों के विश्वास के केन्द्र लालकि़ले को मानसिक स्तर पर मिस्मार कर दिया था। जामा मस्जि़द में घोड़े बाँध दिये गये और उसे जानवरों और आदमियों का अस्पताल बना दिया गया। लालकि़ले में शस्त्रागार बना दिया गया।
उदयन- आप कह रहे हैं कि उस ज़माने के ज़्यादातर लोगों को अँग्रेज़ीराज की गहरी समझ नहीं है और अगर है तो वे यह सोचते रहे कि यह राज हमारी जीवन शैली को बहुत प्रभावित नहीं कर पाएगा। हमारी जि़न्दगी पहले जैसे चलती रहेगी और अँग्रेज़ीराज कुछ टैक्स वगैरह वसूल करता रहेगा। इनके बड़े से बड़े लोगों में, फिर वे ग़ालिब ही क्यूँ न हों, अँग्रेज़ीराज की गहरी समझ नहीं थी।
फ़ारूक़ी साहब- इस मामले में ग़ालिब औरों से कुछ आगे थे लेकिन फिर भी उन्हें अँग्रेज़ी राज के स्थायित्व की समझ नहीं थी। उन्हें इस तरह की समझ थी कि पश्चिम से जिस तरह की टेक्नोलाॅजी आ रही है, उससे जि़न्दगी का रूप बदलेगा। यह उन्होंने किसी से भी पहले समझ लिया था। लेकिन इससे उन्होंने कोई काम नहीं लिया। वे यही समझते रहे कि दरबार और दरबारी का रिश्ता बदलेगा नहीं। वे बार-बार मलिका विक्टोरिया के यहाँ लिख रहे हैं कि उन्हें पोएट लाॅरिएट बना दिया जाए क्योंकि वे बहादुर शाह ज़फर के भी पोएट लाॅरिएट रहे हैं, उन्होंने तमाम तीसरे दजऱ्े के अँग्रेज़ों की तारीफ़ में लिखा और उनसे उम्मीद करते रहे कि वे उनका मामला मलिका के दरबार में पेश करेंगे, उसके लिए लड़ेंगे। उनकी समझ यह थी कि शक्ति तन्त्र का एक कत्र्तव्य यह भी था कि वह सांस्कृतिक रूप से आपको बचाएगा और प्रोत्साहित करेगा। शक्ति प्रदर्शन का यह भी साधन था। मान लीजिए मैं आपको नौकरी पर रखकर आपसे कहूँ कि इस कपड़े पर एक ताजमहल की अनुकृति बना दीजिए, जिसके सारे हिस्सों के अनुपात ठीकठाक हों, मैं आपको एक लाख रूपये दूूँगा। ऐसा करके मैं आपको सिफऱ् संरक्षित और प्रोत्साहित ही नहीं कर रहा हूँ बल्कि मैं संस्कृति पर भी अपने अधिकार का प्रदर्शन कर रहा हूँ यानि मैं यह दर्शा रहा हूँ कि मैं यह काम भी करवा सकता हूँ। शासक पर ऐसा यक़ीन नहीं बदला था इसीलिए ग़ालिब यह सब करते रहे। सर सैयद एहमद ख़ान जब ‘आईने अक़बरी’ का सम्पादन कर रहे थे, उन्होंने ग़ालिब से कहा कि इसकी भूमिका लिख दें। ग़ालिब ने इस पर फ़ारसी की एक लम्बी-चैड़ी कविता ठोंक दी। वे बोले, ‘यह क्या कर रहे हो, ये किस काम की चीज़ है। अँग्रेज़ों को देखो वे लोहे के जहाज़ पानी पर चलवा रहे हैं, पल-पल की ख़बरें समुद्र पार से उनके पास तार से पहुँच जाती है। ये पुराने लोगों को पढ़कर क्या फ़ायदा होगा।’ सर सैयद अपने ख़याल में बड़ा मूल्यवान काम कर रहे थे कि वे ‘आईने अक़बरी’ का पुनरूद्धार कर रहे हैं, उसकी काट छाँट कर रहे हैं, उसके पाठ को आधुनिक कर छाप रहे हैं ताकि लोग देखें कि साहब यह कितनी बड़ी कि़ताब है, कानून, नृतत्वशास्त्र और इतिहास की, राजनीति और प्रशासन के सिद्धान्त की। उस कि़ताब में अबू फज़ल साहब ने खींचतान के एक हज़ार साल पहले के किसी आध्यात्मिक नेता, सूफ़ी को अक़बर का पुरखा बता दिया, तैमूर के अलावा, इससे वह अक़बर की अलौकिकता साबित कर रहा है। इसके अलावा उसने यह भी लिखा कि हिन्दुस्तान में फ़सलें कितनी हैं। कितने तरह के अनाज होते हैं। कै तरह के लोग पाये जाते हैं। यहाँ क़ौमें कितनी हैं, उनके रस्मोरिवाज़ क्या-क्या हैं। ये लोग पहनते क्या हैं। ‘आईने अक़बरी’ की पहली कि़ताब तो नृतत्वशास्त्र की है, उसमें यह भी है कि प्रशासन कैसे होता है। राजा और प्रजा में रिश्ता क्या है। राजा किस तरह और लोगों के कहे को सुनता है और समझने की कोशिश करता है, इसलिए नहीं कि वह उनका धर्मान्तरण करना चाहता है बल्कि इसलिए कि वह उन्हें समझना चाहता है। यह बात ये बताने का जरिया भी है कि राजा प्रजा के हर हिस्से को महत्व देता है। इतनी बड़ी कि़ताब के लिए सर सैय्यद ने कहा कि इसे क्या पढ़ना, अपने आगे अँग्रेज़ों को देखो, अक़बर के ये सब ढं़ग रहे होंगे एक ज़माने में, पर हर ज़माने में रीतियाँ बदल जाती हैं। वे यह सब कह रहे हैं लेकिन यह नहीं समझ रहे हैं कि टेलीग्राम से सिफऱ् ख़बरें नहीं आतीं, अगर वो नहीं होता तो सन् 1857 की लड़ाई का नतीजा कुछ और ही होता। ग़ालिब इसको नहीं समझ पाये। सैय्यद एहमद खाँ इसको समझते थे। हमारे उपन्यास में इसी वजह से ग़ालिब, ज़ौक आदि ऐसे व्यवहार करते हैं मानो कुछ बदला न हो। वहाँ बादशाह था, फिर वह भले ही निष्प्रभावी रहा हो। इसीलिए लोगों ने यह नारा बनाया था कि ‘मुल्क खुदा का, हुकूमत बादशाह की और राज कम्पनी बहादुर का।’ मैंने उन दिनों के जीवन को इस उपन्यास को लिख़ते समय अपने दिमाग में जि़या है। न मैं कोई इतिहासकार हूँ, न मैंने कोई विशेष अनुसन्धान ही किया है लेकिन इतना ज़रूर है कि उस ज़माने की कविता, उस ज़माने का गद्य या लोगों की बातचीत को जानकर मैंने यह समझने की कोशिश की कि उस ज़माने और उस जगह में ऐसी क्या चीजे़ं थीं जिनके कारण उन लोगों को यह महसूस होता था कि वे इंसान हैं।
उदयन- आपके उपन्यास से ग़ालिब की जो छवि निकल कर आती है, वह उस छवि से बहुत अलग है, जो उनकी शायरी से निकलती है।
फ़ारूक़ी साहब- मैंने ग़ालिब के बारे में इस उपन्यास में सिफऱ् प्रशंसा नहीं लिखी है और यह ठीक भी है भई, जिस आदमी ने अँग्रेज़ बहादुर फ्रेज़र के मरने पर वह शेर1. कहा, जो मैंने उपन्यास में उद्धृत भी किया है, जब वह उस कहानी में आएगा जिसमें फ्रेज़र का मरना एक महत्वपूर्ण घटना है, मैं यह कैसे कह देता कि ग़ालिब पक्षपाती नहीं थे।
1.    ग़ालिब सितम निगर कि चूं विलियम फ्ऱेज़रे
    ज़ीं सां ज़ चीरादस्ती-ए-आदा शवद हलाक
(ऐ ग़ालिब, ये अत्याचार तो देखो कि विलियम फ्रेज़र जैसा शख़्स दुश्मनों की बर्बरियत के हाथों मारा जाए)
उदयन- और यह कि वे नवाब शम्सुद्दीन की तरफ़ खड़े थे...
फ़ारूक़ी साहब- यह मैं नहीं कह सकता था। शम्सुद्दीन को उन्होंने एक फ़ारसी ख़त में बड़ा बुरा-भला लिखा था, जो हम सबको मालूम है। इसीलिए मैंने जान-बूझकर ग़ालिब और शम्सुद्दीन का आमना-सामना उपन्यास में बहुत पहले फ्रेज़र के घर की एक महफि़ल में करा दिया था। उसकी ज़रूरत नहीं थी पर वह मैंने जान-बूझकर इसलिए किया क्योंकि ग़ालिब का दिल साफ़ नहीं है और वे अजऱ्ी दे रहे हैं, शम्सुद्दीन के खिलाफ़, कि उन्हें पूरा हिस्सा नहीं मिला। जब फ्रेज़र की हत्या होगी तब यह बात और भी फैलेगी। लेकिन इन दोनों के सामाजिक और सांस्कृतिक सम्बन्धों में कोई कडुवाहट नहीं है। हमने सिफऱ् इतना किया कि उस वक़्त की अफ़वाहें लिखीं कि फ़लाँ अँगे्रज़ से ग़ालिब की बहुत जान-पहचान है, और यह कहा जाता है कि ग़ालिब ने वहाँ जाकर यह इशारा किया था कि फ्रेज़र को मारने वाला शम्सुद्दीन का आदमी था। दिल्ली उस ज़माने में अफ़वाहों का मुख़्यालय थी, आज भी है। मैंने इस सब सूचना को दर किनार नहीं किया, बस इतना ही मुझसे हुआ है। लेकिन मिजऱ्ा खाँ ‘दाग़’ को वे जिस तरह से आगे लाते हैं, उससे यह भी मालूम होता है कि वे यह अक्ल रख़ते थे कि अगर कोई प्रतिभावान आदमी है तो उसे आगे लाने की कोशिश की जानी चाहिए कि वह मुख्यधारा में आ सके। दाग़ को वे अपने पास बुलाकर उनके साथ हँसते-बोलते थे, यह जानते हुए कि दाग़ उन्ही ख़्वाजा हाजी के पोते हैं, जिसने उनका हक़ छीन लिया था। मैंने यह लिखा भी है कि वो मिजऱ्ा ग़ालिब ही क्या जो मौक़े मौक़े से अपना व्यवहार बेहद शिष्ट और दोस्ताना न कर लें। यह मेरी नज़र में ग़ालिब की वास्तविक तस्वीर है। अब अगर लोग यह समझते हों कि ग़ालिब उस ज़माने में अज्ञात व्यक्ति थे याकि ज़ौक के सामने उनकी बिल्कुल चलती नहीं थी या कि उनकी शायरी को कोई जानता नहीं था तो यह ग़लत है। इस विषय में बहुत लिखने की ज़रूरत इसलिए नहीं थी क्योंकि यह उपन्यास ग़ालिब के बारे में नहीं है। मुझे उनके बारे में जो कुछ कहना था, उन पर लिखी अपनी कहानी में मैंने कह ही दिया था।
हुआ यह है कि बाद के लोगों ने अँग्रेज़ी की रोमांटिक कविता पढ़कर और यह जानकर कि शैली ने कीट्स के मरने पर एडोनिस कविता लिखी थी, जिसमें उसने यह कहा था कि कीट्स को बेक़द्री ने मार डाला, यह निष्कर्ष निकाल लिया कि बड़े शायरों को उनके समय में कोई पूछता नहीं हैं। यह सब झूठे रोमांटिक मिथक हैं। ये मिथक ब्रिटेन की साहित्यिक संस्कृति की बचकानी समझ से पैदा हुए थे इसीलिए यह कहा जाने लगा, अब भी कहा जाता है कि ग़ालिब की क़द्र उनके ज़माने में नहीं हुई। गुलज़ार साहब ने इस पर पूरी कि़ताब ही लिख मारी है। उसको प्रकाशित किया उर्दू काउंसिल वालों ने।
मैंने उनसे कहा कि इस कि़ताब ने तो ग़ालिब को फालतू आदमी बता दिया है। ग़ालिब के लिए यह कहा जाने लगा कि उनकी पर्याप्त चर्चा नहीं हुई मानो हम बड़े समझदार हैं, जिन्होंने उन्हें पहचान लिया। अगर वे अपने ज़माने में जाने-माने न रहे होते, आपको पता कैसे चलता कि वे क्या थे। 1969 में यह झगड़ा चला था कि ग़ालिब कौन हैं? यह विवाद इसलिए चल सका क्योंकि वे अपने ज़माने की जानी-मानी हस्ती थे। दरअसल वे अपने ज़माने की केन्द्रीय सांस्कृतिक उपस्थिति थे और बाद में भी रहे। यह उनकी अन्र्तदृष्टि, मानस के विस्तार और उनकी आलोचनात्मक सम्वेदना का परिणाम था कि यह जानते हुए भी कि दाग़ किसका बेटा है, उन्होंने उसे बुलाया, अपने पास उठाया-बिठाया उससे शेर कहलवाये, उससे शेर सुने, इसके अलावा उनसे और क्या चाहिए।
उदयन- लेकिन दाग़ उन्हें अपना उस्ताद क़ुबूल नहीं करते, आपने उपन्यास में यह लिखा भी है।
फ़ारूक़ी साहब- भई, उस समय तक दाग़ की जि़न्दगी में कि़ले की शुरूआत हो गयी थी। कि़ले का उस्ताद कौन था? इब्राहिम ज़ौक साहब। दाग़ के सौतले बाप के उस्ताद भी वही थे। यह मुमकिन नहीं था कि वे ज़ौक के मुक़ाबले खुलकर ग़ालिब को अपना उस्ताद कहते। जब कि़ले में सभी ज़ौक को उस्ताद मान रहे हैं, दाग़ भी उन्हीं के पास उठते-बैठते रह सकते थे। मैंने यह दिखाया है कि ज़ौक के खास शार्गिद जैसे घनश्याम आरसी का भी दाग़ पर प्रभाव था। भीतर ही भीतर उन्होंने भी यह कोशिश की होगी कि यह लौण्डा हमारे उस्ताद के पास ही जाये तो अच्छा है, कहीं उस तरफ़ न चला जाए। दाग़ के इस फैसले में उनके अपने चुनाव से अधिक उनकी परिस्थितियों का योगदान रहा होगा। दाग़ इतने स्वतन्त्रचेता व्यक्ति थे कि उन्होंने शुरूआत में ग़ालिब की ज़मीन में जो कुछ ग़ज़लें लिखीं, उनमें उसने अपना अन्दाज़ रखा। उन्होंने ग़ालिब की नकल नहीं की और न ही ज़ौक की तरह लिखा। दरअसल दाग़ महान कवि हैं क्योंकि उसके पास लिखने के कई तरीके थे। उसके पास विषय बहुत हैं। वो गम्भीर बातें कहता है, चुहले और मज़ाक भी करता है, हल्का-सा श्रृंगार डाल देता है, उसके जी में जो आता है, वह कर सकता है। वह यह भी कह सकता है, ‘रोज़ कहते हो कि आदाब आदाब@आके दाबूँगा तो मुश्किल होगी।’ यह भी कह सकता है कि ‘जलवे मिरी निगाह में कौनों मकां के हैं@मुझसे छिपेंगे वो भला ऐसे कहाँ के हैं।’ इस विषय पर फ़ारसी, उर्र्दू और भक्ति कवियों ने हज़ारों बार लिखा है। लेकिन यह लड़का जो टेढ़ापन लाया है, वह देखने लायक है। यह शेर भी देखो इसकी ज़मीन ग़ालिब की हैः ‘आँखें दिख़लाते हो सीना तो दिखाओ साहब@वो अलग बाँध के रक्खा है जो माल अच्छा है।’ ग़ालिब की उसी मशहूर ग़ज़ल की ज़मीन पर है जिसमें ‘हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन@दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है’ यह शेर है। दाग़ में हर तरह का शेर कहने की क़ाबिलियत थी। मैं आपको उनका एक शेर सुनाता हूँ, जिसको सुनकर आपकी आँख खुल जाएगी कि शेर ऐसे भी कहा जाता हैः
        ऐ दाग़ उसी शोख़ के मजमून भरे हैं
        जिसने मेरे अशार को देखा, उसे देखा
इसी शेर की पेरेडी कहो या मट्टी-पलीत हमारे फ़ैज़ साहब ने की है, जिनकी लोग बड़ी पूजा करते हैं ः
        वो तो वो हैं तुम्हे हो जाएगी उल्फ़त मुझसे
        एक नज़र तुम मेरा मंजूरे हुनर तो देखो
यहाँ फ़ैज़ साहब दलाली ही कर रहे हैं, वहीं दाग़ कह रहे हैं, जिसने मेरे अशार को देखा, उसने उसे देखा, तुम यह समझ लो कि देखने का अर्थ पढ़ना भी होता है, जिसने पढ़ा मेरे शेर को उसने देखा मेरे माशूक को। वे न ज़ौक पर बन्द थे, न ग़ालिब पर। इतना ज़रूर है कि शायद वे ग़ालिब की तरफ़ जाते क्योंकि ग़ालिब की छवि आजाद ख़याल, अपने रंग का कहने वाले की थी, जो नये-नये मजमून निकालते थे। ग़ालिब ज़ौक से ज़्यादा आकर्षक शायर मालूम देते थे। एक बात यह भी थी कि उनकी अँग्रेज़ों से बहुत दोस्ती थी पर ज़ौक साहब की किसी से भी नहीं थी। ग़ालिब के शार्गिद बहुत-से अँग्रेज़ थे। ग़ालिब ने लिखा भी है कि सन् 57 के हंगामे में जो लोग मरे उनमें कोई मेरा दोस्त, कोई मेरा माशूक, कोई मेरा ममदूद भी था।
उदयन- इस उपन्यास में कई जगहों के विवरण आये हैं जैसे नवाब शम्सुद्दीन की रियासत फि़रोज़पुर झिरका आदि हैं। इन सबका आपने बहुत विस्तार और बारीकी से वर्णन किया है। क्या इनमें से ज़्यादातर को आपने देखा है या उनकी कल्पना की है।
फ़ारूक़ी साहब- कुछ जगहों पर गया हूँ पर ज़्यादातर की कल्पना की है। मिजऱ्ा तुराग ने सोनपुर के मेले से लेकर रामपुर तक का जो रास्ता तय किया था, उसमें उसे ठग मार देते हैं, वह मेरा देखा हुआ है। मैंने उस रास्ते पर सफ़र किया है। इस तरह कुछ चीज़ें मैं जानता था, जो नहीं जानता था, उनके बारे में कि़ताबों में देखा और कुछ कल्पना की। जैसे मैंने यह जो लिखा है कि नवाब शम्सुद्दीन के बाप अहमद बख़्श ख़ान ने अपने ज़माने में फि़रोज़पुर का कि़ला दुरस्त कराया, यह साधारण-सी बात है, ज़रूर कराया होगा। यह बात कि फि़रोज़पुर में गुरूद्वारा हो गया है, दो-चार मन्दिर बन गये हैं, यह भी बिल्कुल सीधी बात है। शहर में जब व्यापार बढ़ेगा, व्यापारी आएँगे-जाएँगे, वे कहाँ पूजा करेंगे, कहाँ नमाज़ पढ़ेंगे, सो हमने लिख दिया। ज़ाहिर है यह सब रहा ही होगा। मेरे लिए यह ज़रूरी नहीं था कि मैं गिनूँ कि मस्जि़द कितनी थी, कितने मन्दिर।
उदयन- आपने अपने सी. एस. डी. एस. वाले व्याख्यान में कहा था कि हम लोग गल्प को वास्तविकता बना लेते हैं। यह सिर्फ़ लिखने के ढ़ंग में ही नहीं, पढ़ने के ढ़ंग के कारण भी होता होगा। इसलिए यह कहा जा सकता है कि आपके उपन्यास से उस पूरे इलाक़े का भूगोल नया हो गया है।
फ़ारूक़ी साहब- वह इसलिए हुआ है कि उस सब को इन आँखों से देखा नहीं है। आज बीसवीं या इक्कीसवीं सदी में कितने लोगों ने यह कल्पना की होगी कि फि़रोज़पुर से दिल्ली तक कै दिन में आना-जाना होता था, ऐसी कौन-सी जगहें होती होंगी जहाँ लोग ठहरते होंगे। कुछ मुझे पता था, मसलन मुझे रामपुर से ग़ालिब का सफ़र मालूम था, मीर का भी। दिल्ली से लखनऊ या भरतपुर के रास्ते कैसे-कैसे रहे होंगे या कि कैसे-कैसे थे। मुझे यह किसी हद तक मालूम था कि उस ज़माने में लोग कैसे यात्रा करते थे। मैंने इस उपन्यास में यात्रा को नयी आँख से देखा है। मसलन जब शम्सुद्दीन अहमद निकलता है, दुनिया जानती थी कि उसे अँग्रेज़ों ने बुलाया है और वे उसे मरवा देंगे। वे इसीलिए बाहर निकलकर उसका स्वागत करते हैं, अपने पास ठहराते हैं। मैं यह जानता था कि यह रास्ता है और ऐसे ही लोग उसे मिले होंगे। या जब वह पालम तक पहुँचता है, वह रास्ता वही था जिस पर हम भी पहले गये थे। जब हाईवे नहीं थी, मैं दिल्ली से जयपुर उसी रास्ते से कई बार गया हूँ। उन दिनों पालम का कि़ला मेरे सामने पड़ता था। यह सोचना भी कठिन नहीं था कि जब कोई नवाब जैसा रईस वहाँ से गुज़र रहा है, उसके दस-बीस आदमी पहले ही आकर पालम का कि़ला ठीक करा दें।
उदयन- यह आज भी होता है ख़ासकर तब जब कोई अफ़सर जाता है।
फ़ारूक़ी साहब- राज़ीव गाँधी ने अपने अधिकारियों को सकुर्लर जारी किया था कि जहाँ प्रधानमन्त्री पहुँचते हैं, वहाँ आप लोग विदेशी क्रीम और विदेशी आफ़्टर शेव रख़ते हैं, मत रखा कीजिए, इतना पैसा आप लोग क्यों खर्च करते हैं। वह मेरे पास भी आया था। उस ज़माने में बड़े आदमियों के यहाँ यह सामान्य व्यवहार था। हमारे बाप भी कैम्प के लिए दो सामान रख़ते थे। एक को अपने कर्मचारियों के साथ आगे भेज दिया कि वहाँ रूकना है तो वहाँ जाकर खेमा खड़ा करो। पीछे पीछे वे खुद चलते थे एक और कैंम्पिग का सामान लेकर। अगर मौसम ठीक रहा और वे वहाँ पहुँच जाते, वे अपना सामान नहीं खोलते थे, खुले हुए खेमे में ही रुक जाते। लेकिन अगर रास्ते में मौसम खराब हो गया, या डाकुओं से वास्ता पड़ गया या कोई घटना घट गयी तो साथ लाये खेमे के सामान से खेमा लगा लेते। जब मेरी चार बरस की उमर थी, वे आज़मगढ़ आये। उनका दौरे लगाने का काम था। वे स्कूल जाया करते थे। उनके पास ऊँट था। उनका पूरा खेमा उस पर लदता था। एक आदमी या दो आदमियों का खेमा जिसमें राशन होता, पकाने के लिए लकडि़याँ होतीं। वे इतने ईमानदार भी थे कि बाहर जाकर किसी के घर खाते-वाते नहीं थे इसलिए भी वे यह सब अपने साथ ले जाया करते थे।
उदयन- आपके उपन्यास के अन्त में वज़ीर ख़ानम लालकि़ला छोड़कर दाग़ आदि अपने बच्चों के साथ चली जाती हैं। आपने जब उपन्यास लिखना शुरू किया था, उपन्यास का क्या ऐसा ही अन्त आपके दिमाग़ में था या लिख़ते-लिख़ते ही यह अन्त उपन्यास में आ गया।
फ़ारूक़ी साहब- उपन्यास लिखने से पहले मेेरे ज़हन में यह बात साफ़ थी कि यह उपन्यास न तो दाग़ के बारे में होने वाला है और न उनके वालिद के बारे में। मैंने वज़ीर ख़ानम के बारे में जो भी पढ़ा था, वह दूसरे दर्जे़ का साहित्य था, जिसमें बार-बार यह कहा गया था कि उस औरत का तो हर बच्चा शायर निकला मानो वह औरत न हुई गाय हो गयी, जिसका हर बच्चा सांड हो गया। कहने की बात यह थी कि वह इतनी प्रतिभावन औरत थी कि जिस आदमी से भी उसके बच्चे हुए, शायर हुए। लेकिन मालिकराम साहब जैसे लोगों ने वही कुछ लिखा। ये सब पुराने ख़याल के लोग थे, और इन्होंने वज़ीर ख़ानम की यह छवि बनायी कि वह हरजाई और बदमाश कि़स्म की औरत थी। ऐसे भी कोई भारतीय लड़की अपने लिए किसी का चुनाव करना चाहे या कर ले, वही बहुत बड़ी बात थी पर मुझे उसके चरित्र में अलग ही चमक दिखायी दे गयी थी।
उदयन- आपकी पढ़ाई इतनी व्यापक रही कि वज़ीर ख़ानम जैसा चरित्र आपको ही मिल सकता था पर तब भी मुझे यह जानने की उत्सुकता है कि आपको वज़ीर ख़ानम के विषय में पहले-पहल किस तरह जानकारी हुई थी?
फ़ारूक़ी साहब- मुझे यह पता था कि दाग़ साहब नवाब शम्मुद्दीन के बेटे थे और इनकी माँ वज़ीर ख़ानम थीं और वे बड़ी खूबसरूत औरत थीं और वे उसके पहले एक अँग्रेज़ बहादुर के साथ रह चुकी थीं और अन्ततः वे मिजऱ्ा फ़करू की बीवी बनकर लालकि़ले गयी थीं। ऐसा मोटा-मोटी विचार मुझे था।
उदयन- लेकिन तब तक उनकी चमक आपके दिमाग़ में नहीं आयी होगी। आपने इसके बाद ऐसा कुछ पढ़ा होगा जिससे यह विचार आपके मन में बना होगा?
फ़ारूक़ी साहब- उस समय मेरे दिमाग में कुछ भी नहीं था। सिफऱ् दो बाते थीं। पहली यह कि ऐसी औरत साधारण नहीं हो सकती, वह निश्चय ही सबसे अलग रही होगी, हर दृष्टि से, चरित्र में भी, सूरत-शक्ल में भी, बौद्धिक सामथ्र्य में भी और उपलब्धियों में भी। मुझे यह पता था कि दाग़ पक्के काले थे और अगर उनकी अम्मा गोरी थी (या नहीं थी) तो यह काला रंग आया कहाँ से। इसके लिए मुझे थोड़ा-सा खटराग निकालना पड़ा। अगरचे शम्मुद्दीन गोरे थे, क्योंकि वे तुर्की थे पर वे खुद काली औरत के बेटे थे। उसकी अम्मा मेवात के निचले तबके के मुसलमान परिवार की लड़की थी, मुद्दी। वह काली ही रही होगी। सवाल यह था कि मैं उस काले-गोरे को कैसे दिखाऊँ। ऐसी औरत कैसे बने, जो काली हो और खूबसूरत हो। इस वजह से मैंने राजस्थान के चित्रकार का कश्मीर से सम्बन्ध जोड़ा। इससे दो फ़ायदे हुएः एक यह कि जिस तरह की औरत मैं बनाना चाहता था, उसका प्रभामण्डल हो और उसमें शक्ति तत्व भी होना चाहिए। वह तभी होगा जब मैं उसके पीछे एक समृद्ध वंशावली दिखाऊँ जिसमें कला व्यवहार भी शामिल हो। उसका शुरूआती पुरखा चित्रकार है फिर उसका परदादा चित्रकला को भले न समझे, खुद गलीचे का डिज़ाईनर है, उसके बेटे कवि और संगीतकार हैं। मैंने यह वंशावली इसलिए बनायी क्योंकि ऐसी वंशावली, जिसमें ज़मीनें फर्क हों, ज़रूरी थी। उसमें एक ओर राजस्थान है, जहाँ के लोग भूरे या गहरे रंग के होते हैं और रेगिस्तान में रहते है दूसरी ओर कश्मीर है जहाँ पानी बहता ही रहता है, हरियाली हर तरफ़ रहती है, बफऱ् क्यूँ न गिरी हो और वहाँ के लोगों का गोरा रंग। इन दोनों को मिलाना ज़रूरी था, उसके बग़ैर वह विशेष प्रभामण्डल नहीं बनता, जिसमें शक्ति और सौन्दर्य दोनों हो इसलिए उस सबकी मैंने कल्पना कर ली। जो चित्रकार... थे, उनका अपने गाँव से पलायन मैंने सोच लिया। मैं यह जानता हूँ कि आधुनिकता से पहले के समय में राजकुमारियों की जो तस्वीरें बनायीं जाती थीं, वे सभी काल्पनिक होती थीं। चित्रकार ने कभी भी उन्हें देखा नहीं होता था।
उदयन- वे तस्वीरें ज़्यादातर प्रतिमाशास्त्र के अनुकूल बनायी जाती थीं।
फ़ारूक़ी साहब- हाँ, वे उसी तरह बनायी जाती थीं। वे कभी चित्रकार के लिए सामने बैठती नहीं थीं। इस तरह तस्वीर बनाने में यह बिल्कुल मुमकिन है कि कोई काल्पनिक चित्र बनाये और उसमें किसी जि़न्दा लड़की की शक्ल आ जाये। ख़ासकर तब जब हमारी कलाओं में बनाने के ढ़ंग और रूप का बहुत महत्व है। हाथ में कमल की कली का भी प्रतीकात्मक अर्थ है, बड़ी-बड़ी आँखों का भी, जैसी पारदर्शी ओढ़नी वह ओढे़ है उसका भी। ऐसी प्रतीकात्मक शैली और रूपवाद को मानते हुए अगर आप तस्वीर बनाएँगे तो वह कभी न कभी किसी लड़की की शक्ल से लड़ जाएगी। उपन्यास में भी यही होता है। चित्रकार ने जिस लड़की की तस्वीर बनायी है, उसे उसने कभी देखा नहीं था, लेकिन यह तथ्य कि तस्वीर वास्तविक जि़न्दगी बन गयी और वास्तविक जि़न्दगी तस्वीर बन गयी, यही चमत्कार प्रवास और मौत का कारण बनता है। उपन्यास में मैंने इस थीम का प्रवेश कराया कि कला और जि़न्दगी परस्पर विनिमेय है, कला जीवन बन सकती है, जीवन कला। जब ऐसा होता है, चमत्कार हो जाता है। इसी से एक दूसरी थीम निकलती हैं जिसकी ओर मेरी बेटी ने इशारा किया था कि इसमें सौन्दर्य का अन्वेषण नज़र आता है, जो कभी हाथ नहीं आता। खुद राधा जी बनी-ठनी हैं, उनकी तस्वीरें बनायी जाती हैं क्योंकि आप उन्हें पाना चाहते हैं, लेकिन वह हो नहीं सकता। इसी तरह वज़ीर ख़ानम को भी कोई कब्जे में नहीं कर पाता क्योंकि या तो वह मर जाता है, या जैसा कि उपन्यास के अन्त में होता है, वह कि़ला छोड़ कर चली जाती है।
उदयन- एक अँग्रेज़ी के यहूदी आलोचक हैं, गेब्रियल जोजि़पोविची, उन्होंने नाबाकोव के उपन्यास ‘लोलिता’ पर एक कमाल का लेख लिखा है। वे यह कह रहे हैं कि ‘लोलिता’ एक अनोखा उपन्यास है क्योंकि उपन्यास का नायक हम्बर्ट हम्बर्ट उस सौन्दर्य को काबू में लेना चाहता है, जिसे लिया ही नहीं जा सकता इसलिए वह एक के बाद दूसरी के बाद तीसरी लड़की की ओर भाग रहा है लेकिन वो एक ऐसी चीज़ को हासिल करना चाहता है, जिसे हासिल किया ही नहीं जा सकता। अगर इस रास्ते हम आपके उपन्यास में आएँ तो यह कह रहे हैं कि सौन्दर्य को उसके स्वभाव के ही कारण हासिल नहीं किया जा सकता।
फ़ारूक़ी साहब- मेरी बिटिया ने वो बताया था। मैंने उससे कहा कि मैं तो यही सोचता था कि उपन्यास में कला और जीवन की अनोखी परस्पर विनिमेयता ही बतायी गयी है और कला मनुष्य को इसीलिए आकर्षित करती है कि उसमें जीवन का भ्रम होता है। इस पर वो बोली, वज़ीर ख़ानम को कोई भी पा नहीं सका, सब मरते चले गये या उन्हें कुछ और हो गया या उसके दूसरे चाहने वाले जैसे जि़याउद्दीन खाँ, उसे खुद वज़ीर ख़ानम बाहर निकाल देती है।
उदयन- फ्रेज़र को भी।
फ़ारूक़ी साहब- हाँ, वह फ्रेज़र को भी धता बता देती है। यानि या तो वो उसे अलग कर देगी या जि़न्दगी उसे बाहर कर देगी। सौन्दर्य की अभीप्सा जि़न्दगी का मक़सद ज़रूर है पर वह अप्राप्य है।
जब मैंने मखसूसुल्लाह का प्रसंग खत्म किया, जहाँ वह बर्फ़ में जाकर अपनी जान दे देता है, मैं भी थोड़ी देर के लिए रूका था यह सोचने कि मैं क्या कर रहा हूँ पर मुझे ख़याल आया कि इसमें मैंने जो दुनियाभर के खटराग पैदा किये हैं मसलन बनी-ठनी का, सौन्दर्य की अप्राप्यता का, जीवन और कला के तालमेल का, इसका कोई मतलब ज़रूर हैं। मुझे ख़याल आया कि जिस लड़की की यह पुरखा है, वह भी कुछ ऐसी ही बनेगी। उसमें जीवन भी होगा, कला भी होगी और वह अप्राप्य भी होगी। इसी के आसपास मैंने कुछ सोचा। मेरे दिमाग ने अन्जाने में ही बनी-ठनी का जो चित्र बनाया है और फिर उस चित्र को चित्रकार के पोते द्वारा पहचानना आदि करवाया था वह इसलिए था क्योंकि मैं शायद सौन्दर्य की अप्राप्यता का मिथक गढ़ रहा था और साथ ही कला और जि़न्दगी की परस्पर विनिमेयता को इस तरह दिखा रहा हूँ कि इसके नतीजे इनमें से किसी एक के लिए भयानक भी हो सकते हैं। मुझे अपने एक दोस्त के ख़त में लिखे इस सवाल के कि तुम इतनी अच्छी दिल्ली बना रहे हो और यह तुम्हारे पाठक को कहाँ ले जाने वाली हैं, मैंने सोचा कि मैं एक समानान्तर दिल्ली बना रहा था। वह दिल्ली जो इतिहास में हैं और वह जो इस उपन्यास में है, उनमें कई समानताएँ है जैसे खूबसूरती, पढ़ा-लिखापन, चेतना की सूफ़ी और भक्ति समझ, अक्ल की ऊँचाई आदि लेकिन तब इतिहास की भी दिल्ली मर रही थी। उसी तरह उपन्यास में भी वज़ीर ख़ानम के पास सब कुछ है, नवाब शमसुद्दीन के पास सब कुुछ है पर फिर भी उनका पतन हो रहा है। मुझे ख़त का जवाब देते समय यह बात समझ में आ गयी कि मैं यह लिख रहा हूँ कि ऐतिहासिक दिल्ली और मेरे उपन्यास की दिल्ली अपने बावजूद जि़न्दा नहीं रह पा रही है। यह जवाब देते हुए यह बात मेरे मन में खुल गयी कि मैं सिफऱ् एक औरत के बारे में नहीं लिख रहा, जो बहुत रंगीन मिजाज़, सक्रिय और दिलचस्प है बल्कि मैं दो दिल्लियाँ बना रहा हूँ, एक ऐतिहासिक जिसमें ये सब लोग हैं, जहाँ उनके सब काम होते हैं पर फिर भी कुछ नहीं होता और एक काल्पनिक दिल्ली जिसमें वज़ीर ख़ानम, शमसुद्दीन अहमद एवं और लोग हैं, जिनके साथ भी यह हो रहा है कि इनकी सारी चीज़ें हो जाती हैं पर तब भी कुछ नहीं होता।
उदयन- इससे यही निकलता है कि उपन्यास का अन्त आपने सोचा नहीं था?
फ़ारूक़ी साहब- अरबी में यह कहा जाता है कि पैगम्बर साहब की खूबसूरतियाँ, उनके गुणों को बयान करते करते कलम सूख गयाः ज़फ़्फल कलम, मोमिन ने इसका बड़ा अच्छा इस्तेमाल किया है, उन्होंने एक ग़ज़ल में लिखा है कि मैं तेरी बहुत तारीफ़ करता लेकिन मंै क्या करूँ, ‘ज़फ़्फल कलम’ हो ही चुका है। मेरा भी इसी तरह उपन्यास के आखिर में ‘ज़फ़्फल कलम’ हो गया। जैसे ही मैंने वज़ीर ख़ानम को कि़ले के बाहर निकाला, उसके दोनों लड़के अबू बक़र मिजऱ्ा और खुर्शीद मिजऱ्ा दोनों तरफ़ पैसे फेंक रहे हैं और वज़ीर ख़ानम को कुछ नज़र नहीं आ रहा। मैंने सोचाः बेटा बस, इसके आगे मत लिखो।
उदयन- आपने उपन्यास के अध्यायों का बहुत दिलचस्प विभाजन किया है। आपके उपन्यास में होता यह है कि जब आप कहानी में एक जगह पहुँचते हैं और किसी चरित्र का जि़क्र आता है, मानिये युसूफ़ खान का जि़क्र आया, आप कहानी को वहाँ रोक देते हैं और युसूफ़ खान पर एक स्वतन्त्र बढ़त करते हैं, जैसे संगीत मे विशेष स्वरों की, की जाती है और फिर उसे कहानी से जोड़ देते हैं, इसे संस्कृत में क्षेपक कहते हैं।
फ़ारूक़ी साहब- यह हम नहीं जानते थे।
उदयन- क्षेपक का मोटा-माटी आशय उस आख्यान से है जो मुख्य आख्यान से अलग होता है, जैसे महाभारत में नल-दम्यन्ती के आख्यान का महाभारत के मुख्य आख्यान से बहुत लेना-देना नहीं है, उसमें सिफऱ् इतना होता है कि युधिष्ठिर अपने निर्वासन का दुःख मना रहे होते हैं तो उनसे एक ऋषि कहते हैं कि तुम्हारी जि़न्दगी का दुःख कुछ नहीं है, यह जानने तुम नल-दमयन्ती की कथा सुनो। इसी तरह आपके उपन्यास में मुझे यह लगा कि इस तरह के क्षेपकों का दख़ल शायद आपने ‘दास्तान गोई’ से लिया होगा?
फ़ारूक़ी साहब- मैं यह नहीं कह सकता कि इसे मैंने पूरी तरह कहाँ से लिया है। मैंने वहाँ से जो लिया है, वह यह हैः भाषा का विस्तार, पे्रम और रोज़मर्रा के जीवन में दरबारी जुबान का इस्तेमाल, आख्यान में ज़्यादा से ज़्यादा शायरी का इस्तेमाल। दास्तान में बहुत-सी शायरी गैर ज़रूरी है, उसे गाने-वाने के लिए डाल दिया गया है पर बहुत सारी शायरी प्रासंगिक भी है, जो कहानी को आगे बढ़ाती है या उसे अलंकृत करती है, मैंने यही किया है मसलन कई बार अपनी बात को समझाने बड़ा-सा व्याख्यान देेने की बजाय वज़ीर ख़ानम दो-चार मिसरे पढ़ देती है, जि़याउद्दीन खाँ के सामने। यह मैंने दास्तान से सीखा। लेकिन जो तुम कह रहे हो, मुझे पता नहीं था कि मैं ऐसा कुछ कर रहा हूँ पर मैं यह जानता था कि मैं जो कर रहा हूँ, वह यह है कि फ़ारसी और उर्दू कविता की कुछ ऐसी लाईनें, जो अपने भीतर होने का समूचा ब्रह्माण्ड रख़ती हैं, वे किसी भी चरित्र की आने वाली जि़न्दगी का निचोड़ रख सकती थीं, उन्हें उपन्यास में लिख दिया मसलन जब नवाब शम्मुद्दीन अहमद फ्ऱेजर से मिलने आता है, मैंने फ़ारसी के 16वीं सदी के शायर की एक पँक्ति लिखी हैः मारा गरी बादिया बाराँ गिरफ़्ता अस्त। (हम खुले में फँस गये और बारिश ने हमें पकड़ लिया) गोया इस तरह मैंने शम्सुद्दीन की आने वाली स्थिति का निचोड़ वहाँ रख दिया। जैसे एक जगह शम्सुद्दीन वज़ीर ख़ानम को खाना खिलाता है, वह एक शेर कहता है कि तुझको तो आँखों से आदमी खा सकता है, इसके आगे और कहने की ज़रूरत ही क्या है। उनके रिश्तों की सारी बात इसमें आ गयी है।
उदयन- इस पंक्ति के रास्ते श्रृंगार का भाव भी लक्षित हो जाता है। इस तरह खाना सिफऱ् खाना नहीं बचा कुछ और भी हो गया। यह आप अक्सर करते है कि जिस चीज़ का आप उपन्यास में वर्णन कर रहे हैं, उसमें कहीं कोई शेर लाकर वर्णन के इशारे को गहरा भी देते है और बदल भी देते हैं।
फ़ारूक़ी साहब- दास्तानगोई में इशारों का इस तरह का बारीक इस्तेमाल नहीं मिलता। यह सच है कि दास्तानगोई वाले लोग भी बेहद पढ़े लिखे थे लेकिन वे पाँच-सात सौ या उससे भी अधिक श्रोताओं के सामने सुनाया करते थे इसलिए शायरी का ऐसा बारीक इस्तेमाल न उनके लिए सम्भव था, न ज़रूरी। मसलन शुरू में वे पन्द्रह-बीस पंक्तियाँ साक़ीनामा की तरह लिखेंगे, लाओ साक़ी शराब पीयें, मौसम अच्छा हो रहा है, अब मैं फलाँ कहानी सुनाने जा रहा हूँ फिर उस कहानी के ऐतबार से कुछ पंक्तियाँ पढ़ेंगे जिनमें युद्ध की कुछ छवियाँ होंगी, इस तरह दास्तान की भूमिका बन जाती थी। इस सबका मूल कहानी से सिफऱ् इतना ताल्लुक होता है कि वह उसके लिए एक तरह का परिवेश बना देती है और अन्दर भी शायरी इसी तरह आती है, लेकिन मेरे उपन्यास में शायरी का जिस सृजनात्मक ढ़ंग से इस्तेमाल हुआ है, किन्ही परिस्थितियों पर टिप्पणी करने के लिए और ऐसी स्थितियों को साफ़ करने के लिए जिन्हें मुझे सीधे-सीधे नहीं कहना है, दास्तान में नहीं हुआ है। जैसे मैंने शमसुद्दीन और वज़ीर ख़ानम के मिलने के आखिर में एक शेर लगाया है जिसके मानी है, दिल को तू काँटो से पाक कर दे, तेरा माशूक आ रहा है, उसके पैर नंगे हैं। यह कविता उस सबको ध्वनित करती है, जो उन्होंने रातभर किया होगा, जिसका जि़क्र मैंने नहीं किया है, सिफऱ् एकाध जगह ज़रा-सा इशारा भर कर देता हूँ, उसके शरीर का वर्णन ज़रूर करता हूँ, जब वो गुसलखाने में है, इतना ध्वनित करके छोड़ देता हूँ, इसके आगे कुछ कहना नहीं है। यह सब मैंने जान-बूझकर किया। मैं समझता हूँ कि कविता का और ख़ासकर फ़ारसी कविता का, सृजनात्मक और कारगर इस्तेमाल जितना मैंने किया है, शायद किसी और ने नहीं किया है।
उदयन- आपने जिस तरह पोशाकों का वर्णन किया है, वैसा वर्णन मैंने किसी और उपन्यास में नहीं पढ़ा, अलबत्ता जेम्स ज्वायस ने अपनी कहानी ‘द डेड’ में जिस तरह खाने से भरी मेज़ का वर्णन किया है, उसकी मुझे याद हो आयी!
फ़ारूक़ी साहब- उसकी एक तो बिल्कुल सीधी वजह यह है कि लोग अब यह नहीं जानते है कि कौन पोशाकें किन अवसरों के लिए तैयार की जाती थीं इसलिए मुझे लगा कि मैं उनकी दोबारा चर्चा करूँ। मैंने इन्हें कविताओं से, दास्तानों से जाना। रेख़्ती में कपड़ों और रहन-सहन का बहुत जि़क्र मिलता है। रेख़्ती लड़कियों की ज़ुबान में लिखी कविताएँ हुआ करती थीं। लड़कियों के लिए मुख्य आकर्षण की चीजे़ं ये हुआ करती थीं। उनके यहाँ कपड़ो के नाम, उनके गुण आदि बहुत कुछ मिल जाता है। मसनवी में इस तरह का बहुत सारा वर्णन मिल जाता है, पर सब कुछ बिखरा हुआ है, इस उपन्यास में मैंने उसे जमा कर दिया। यहाँ भी मुझे लगा कि इस सबका वर्णन करना चाहिए, मैंने ज़रूर किया। जैसे जब वज़ीर ख़ानम शम्सुद्दीन से पहली बार मिलने जाती है, मैंने उसकी पोशाक का जो वर्णन किया है, वह एक चित्र पर आधारित है, जो तुर्की का है, जो शायद किसी वास्तविक स्त्री का होगा। मैंने उसे बड़ी हद तक ले लिया। कपड़ों की मैंने कल्पना कर ली, कि ये कपड़े रहे होंगे, कि वे पारदर्शी हैं, उन पर फूल बने हैं आदि। ज़ाहिर है चित्र में यह पता नहीं चल रहा कि कपड़ा कौन-सा है तो मैंने कपड़े का नाम लगा दिया कि ये कपड़ा है। कुछ यह भी था कि दिल्ली का बहुत-सा ज्ञान मेरे दिमाग में कि़ताबें पढ़ने के कारण यूँ ही पड़ा हुआ था। इन वर्णनों को करने के पीछे मुख्य उद्देश्य यह था कि उन्हें मरे हुए पन्नों से, जिन्हें कोई नहीं पढ़ता, वापस लाया जाये।
दूसरा मुझे ए. एस. बायट की यह बात बहुत अच्छी लगी कि उपन्यास वर्णनों में ही होता है। जब तक यह बताया नहीं जाये कि चरित्र कैसे बैठा हुआ है, बैठे हुए उसका बदन कैसा लग रहा है, पैर उसके जानू के नीचे मुड़ा हुआ है या नहीं, वह कितना झलक रहा है, जब तक ये सारे ऐन्द्रिक वर्णन न किये जाएँ, आप उस दृश्य को देख नहीं सकते। इस तरह मैंने इन वर्णनों के सहारे उपन्यास को देखने के लायक बनाया।
उदयन- आपकी बनायी दिल्ली में लोगों के मनोरंजन का साधन केवल शायरी नज़र आता है, लोग शायरी सुनते-सुनाते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि वहाँ मनोरंजन का कोई और साधन नहीं है, कम अज़ कम वह आपके उपन्यास में नज़र नहीं आता।
फ़ारूक़ी साहब- मनोरंजन के दूसरे साधन भी थे पर मैंने उन्हें ज़्यादा जगह नहीं दी है क्योंकि मैं भटकना नहीं चाहता था। मैं ख़ासकर दिल्ली की साहित्यिक संस्कृति को सामने ला रहा था। पर कुछ जगह मैंने ऐेसे जि़क्र किये हैं मसलन जब वह वज़ीर ख़ानम से शादी का प्रयास कर रहा है, उस वक़्त उपन्यास में बीनकार और उसके साथी आते हैं। वे सारे ऐतिहासिक रूप से वास्तविक लोग हैं, उनके नाम इतिहास में मौजूद हैं। सैय्यद एहमद खाँ ने वे नाम अपनी कि़ताब में दिये हैं। जिन चित्रकारों के नाम मैंने लिखे हैं, वे भी वास्तविक हैं यानि जब ज़रूरत हुई, मैंने उनका इस्तेमाल किया लेकिन ज़्यादा नहीं क्योंकि मैं इन पर ज़्यादा ज़ोर नहीं देना चाहता था। मैं उन्हें वहाँ रखना चाहता था, जहाँ उन्हें होना चाहिए था क्योंकि मेरा ख़ास ध्यान लोगों की साहित्यिक और प्रेम की संस्कृति पर था। एक बात यह भी है कि जिन चीज़ों के बारे में मैं कम जानता हूँ जैसे कथक नृत्य, उसमें मैं क्यूँ हाथ डालता। संगीत के थोड़े-बहुत सिद्धान्त मैं जानता हूँ। मेरे कान तेज़ नही है पर मैंने थोड़ा-बहुत संगीत सुना है, मुझे उसे सुनने में मज़ा आता है। लड़कपन में ग़ज़ल-वज़ल सुना करता था। जब बड़ा हुआ और ग्रामोफ़ोन की घर में घुसने की हिम्मत होने लगी, तब उस ज़माने का फि़ल्मी संगीत सुनने लगा, ‘शामे ग़म की कसम’ जैसी चीज़ें। पच्चीस साल की उम्र में मुझे लगा कि यह सब मुझसे सुना नहीं जा रहा है और जो लोग रेडियो पर आएँ-बाएँ-शाएँ सुनाया करते हैं, बढि़या लग रहा है। मुझे यह नहीं पता चलता कि राग कौन-सा है, यमन है या श्याम कल्याण, भैरवी है या कुछ और लेकिन मुझे ये बहुत अच्छे लगने लगे और लग रहे हैं। ग़ज़ल गाने वाले जैसे तलत मेहमूद साहब या मेंहदी हसन एक स्तर के बाद मेरे लिए असहनीय हो गये। बेग़म अख़्तर को सुनने में मज़ा आता है। लेकिन जो लोग ग़ज़ल के नाम पर फि़ल्मी गाना या कव्वाली गाते हैं, उन्हें मैं नहीं सह सकता। मेरे मानसिक धरातल में कहीं कोई विकास हुआ तो मैं शास्त्रीय संगीत सुनने लगा और मैंने ध्यान देना शुरू कर दिया कि यह क्या है, उससे जुड़ी कुछ कि़ताबें भी देखी। मैंने कुछ 78 आर. पी. एम. और उसके बाद के रिकाड्र्स भी इकट्ठा किये, उन्हें सुनते हुए यह समझने की कोशिश की कि राग देश भैरवी से कैसे अलग लग रहा है।
उदयन- उस समय की दिल्ली में नाटक नहीं था?
फ़ारूक़ी साहब- नाटक नहीं था पर नाच बहुत था, मसलन कथक बहुत था। लेकिन मुझे उसके बारे में मालूम कुछ नहीं था और जिनको मैंने पढ़ा था, उन्होंने उसका कोई ख़ास जि़क्र नहीं किया। मसलन किसी ने लिखा मिया हींगा नाचते बहुत अच्छा हैं पर मिया हींगा क्या नाचते हैं, यह नहीं लिखा। इसलिए भी मुझे नाच का बहुत मालूम नहीं चल सका इसलिए उस ओर मैंने दण्डवत किया। इन्तज़ार हुसैन साहब ने शिकायत की थी कि इस उपन्यास में खाने का जि़क्र बहुत कम है। वे बोले, तुम इतना लिख़ते हो पर खाने का जि़क्र नहीं करते। वहाँ यह है कि दास्तान में खानों का जि़क्र भरा पड़ा है, तुम जेम्स ज्वायस का जि़क्र कर रहे थे, मेरा ख़्याल है उसने भी ऐसा ही कोई आख्यान सुना होगा। आख्यान गोई का एक बड़ा आयाम सूचियाँ बनाना होता है। खाने की सूची बनेगी तो वह खाना भले ही खाया न जाए पर कहा यह जाएगा कि दस्तरख़्वान पर सत्ताईस तरह की रोटियाँ हैं, बारह तरह की दालें हैं, पन्द्रह तरह के चावल हैं वगैरह। दास्तानों में हथियारों और खानों की सूचियाँ बहुत महत्व की होती हैं। अलिफ़-बे दास्तान नहीं है पर पिछले सौ बरसों से उसी नाम से कक्षाओं में पढ़ायी जा रही है। अगर किसी ने इसे थोड़ा-बहुत भी पढ़ा होगा, उसे मालूम ही होगा कि खाने कितनी तरह के होते हैं। लालकि़ले की जि़न्दगी के बारे में ऐसी बहुत-सी कि़ताबें भी आ गयी हैं जिनमें यह जि़क्र मिलता है कि मसलन बहादुर शाह ज़फर के दस्तरख़्वान पर क्या था, जो चीज़ें आमतौर पर जानी-मानी हैं, उन्हें लिखना ज़रूरी नहीं लगा। मैं या तो सूची बनाता, क्योंकि मैंने वो सब खाने देखे तो हैं नहीं। पुराने ज़माने की एकाध कि़ताब है, ख़ासकर शाहजहाँ के वक़्त की, वह फ़ारसी में है, जिसे मद्रास विश्वविद्यालय ने छापा था। उसमें खाना बनाने के जो अवयव दिये हैं, मैं उनका नाम ही नहीं जानता, मैं उन्हें कैसे लिख़ता। वे सारे देसी मसाले हैं पर उनके नाम फ़ारसी में लिखे हैं, जिन्हें मेरा तो सवाल नहीं मेरी बीबी भी नहीं जानती थी। जिन खानों के बारे में मेरी ऊपरी जानकारी है, जिन्हें मैंने खाया नहीं, उनके बारे में कैसे लिख देता।
उदयन- उनका कोई विशेष प्रयोजन आपके आख्यान में भी नहीं दिख़ता।
फ़ारूक़ी साहब- हाँ, वहाँ नहीं है। उनकी सिफऱ् सूचियाँ बना सकता था। मैं दास्तानगोई पर जो कि़ताबें लिख रहा हूँ, वो पूरी तो शायद नहीं हो पायेंगी, उनमें मैं यह बता रहा हूँ कि मौखिक आख्यान में कौन-कौन सी कलाओं की चर्चा होती है। बल्कि मैंने यह भी चर्चा की है कि जाॅन ग्रेशम या इसी तरह के किसी आदमी के उपन्यास में मुख्य चरित्र एक नीग्रो स्त्री के यहाँ मिलने के लिए जाता है, उसे खाने का बहुत शौक है तो उपन्यास में लम्बी सूची व्यंजनों की दी गयी है। मैंने कहा कि सूची बनाने की यह प्रथा अब कई जगह कहानियों-उपन्यासों में फैल गयी है। लेकिन मैंने यह सब इसलिए नहीं लिखा क्योंकि उसकी मेरे उपन्यास में ज़रूरत नहीं थी। मैंने उपन्यास में बहादुर शाह ज़फर के खाने का जि़क्र किया है। वे कैसे खाते हैं, उनका दस्तरख़्वान कैसे बिछता है, उनके मुँह में निवाला कोई और डालता है, रूमाल से मुँह कोई और पोंछता है। जब वे खा लेते हैं तो कमरे के बाहर कोई और उनकी खि़दमत करता है। ये चीज़ें उपन्यास के लिए ज़रूरी थीं, इनका सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व है लेकिन वह खाना था क्या, उसमें कितनी तरह की रोटियाँ थीं, यह कई जगह लिखा मिल जाएगा, उसे उपन्यास में लिखने की क्या ज़रूरत। मैं यह केवल तब करता जब मैं अपने उपन्यास को ज्ञान प्रदर्शन का माध्यम बनाता। कपड़े के बारे में लिखना ज्ञान प्रदर्शन नहीं हैं क्योंकि वह बदन से चिपका होता है। मीर ने क्या बढि़या शेर कहा हैः
        उसके सोने से बदन से किस क़दर चस्पाँ है हाय
        जामा किबरीती किसु का दिल जलाता है बहुत
किबरीत का अर्थ होता है गन्धक। वह पीला भी होता है और जलता भी है। सोने का रंग भी पीला होता है इसलिए कपड़े पर सोने के काम को किबरीती कहा जाता है। और हमारे यहाँ चमड़ी के रंग को गोरा कहने की जगह सुनहला कहने का रिवाज़ है। इन लोगों को यह पता था कि इन सब चीजों का क्या श्रृंगारिक या सौन्दर्य मूल्य है। हम क्या जाने और हमारे लोग क्या जाने। इसलिए मेरा तरह-तरह के कपड़ों के बारे में बताना ज़रूरी था और यह भी कि वे क्या-क्या भाव उदीप्त करते हैं। मीर एक जगह कहता हैः
        वै कपड़े तो बदले हुए मीर उसे कई दिन
        तन पर है शिकन तंगीए पोशाक से अब तक
उदयन- क्या आपने संस्कृत या दूसरी भारतीय भाषाओं के पुराने साहित्य को भी पढ़ा है?
फ़ारूक़ी साहब- पढ़ा है, थोड़ा-बहुत।
उदयन- संस्कृत के साहित्यिक सिद्धान्तों पर तो आपकी पकड़ अच्छी है।
फ़ारूक़ी साहब- अच्छी तो नहीं है, थोड़ी ज़रूर है। मैं जानता था कि उसको जाने बग़ैर मुझे उर्दू के साहित्यिक सिद्धान्त पल्ले नहीं पड़ेंगे। मुझे यह पता होना चाहिए था कि हमारे दोनों तरफ़ के पुरखों ने क्या कहा है। माँ वाले पुरखे ने भी और बाप वाले पुरखे ने भी। संस्कृत की व्याकरण मैंने बहुत पढ़ी है। नाटक और कविताएँ भी। संस्कृत की कविताएँ मैंने बहुत पढ़ी हैं।
उदयन- इस उपन्यास को पढ़कर यह तो समझ आता है कि साहित्यिक संस्कृति का कितना पतन हुआ है!
फ़ारूक़ी साहब- मैं यह कहता हूँ कि बीच में टूटन हो गयी। पतन कितना ही हो पर तब भी उसमें कुछ न कुछ नज़र तो आता ही है। जैसे कहावत है कि हाथी लाख लटेगा पर फिर भी सवा लाख का होगा। हमने गोरखपुर, बनारस, लखनऊ के हिन्दुओं और मुसलमानों के पुराने घरों में अपने लड़कपन में उस बीत गयी जि़न्दगी की कुछ झलकियाँ देखी हैं। जैसे स्त्रियों का क्या स्थान है, मर्द कैसे व्यवहार करते हैं, किस तरह के कपड़े पहनते हैं, आपस में किस तरह बात करते हैं, दोस्ती और दुश्मनियाँ। यह सत्तर साल पहले होता था लेकिन अब वो भी नज़र नहीं आता हालाँकि तब भी जो था, उसमें भी पुरानी तरह की जि़न्दगी बहुत कम थी। अँग्रेज़ी पढ़ने की वजह से जहाँ हजारों फ़ायदे हम लोगों को हुए, वहाँ यह नुक़सान बहुत बड़ा हुआ कि अँग्रेज़ी की समझ इन पुरानी चीज़ों को नहीं पकड़ सकी। मैक्समूलर या विलियम जोन्स कितने ही संवेदनशील क्यूँ न हो जाएँ, उनकी समझ हमसे बहुत अलग है, वे यह सब नहीं पकड़ सकते थे। हम भी अँग्रेज़ी जि़न्दगी को नहीं पकड़ सकते। जो कुछ भी बचा-खुचा विश्वविद्यालयों में पढ़ाया भी गया होगा, उससे कुछ निकला नहीं। सबसे बड़ा नुक़सान अकादेमिक पाठ्यक्रमों से हुआ। लोगों ने उसे ही जान दे-देकर पढ़ा, आगे-पीछे कुछ नहीं देखा।
उदयन- पाठ्यक्रम बनाने वाले ने भारत के अतीत को जाने बग़ैर उसके भविष्य का नक़्शा बनाने की कोशिश की। उसकी कमी पुस्तकालय पूरी कर सकते थे पर हम लोगों ने सार्वजनिक पुस्तकालय बनाये नहीं?
फ़ारूक़ी साहब- अगर थोड़े-बहुत बनाये भी गये तो जिसको इम्तिहान पास करना है, वह वहाँ क्यूँ जाएगा, किसको इतना शौक है। उस्तादों के साथ यह था कि वे भले ही कम पढ़े-लिखे हों, उन्हें ज़रूरी चीज़े सब मालूम होती थीं, कविता के बारे में, फ़लसके के बारे में, जि़न्दगी के बारे मेें। चाहे वह उतना गहरा न भी हो जितना कि़ताब में मिलता। मामूली-सा उदाहरण है कि दाग़ अपने शार्गिदों के साथ ऐसा करते थे कि उन्हें एक मिसरा दिया और कहाः दूसरा लिखकर लाओ। वे ऐसा बीस-बीस बार भी करवा देते थे और पूछते थे कि बताओं इनमें क्या खराबी है। फिर वे हरेक को बताते थे कि इसमें ये कमी है, इसमें वो कमी है। कि़ताब में वह भले न लिखा हो पर वे समझा देंगे कि एक शेर दूसरे से बेहतर क्यूँ है। शार्गिद खुद-ब-खुद समझ जाते थे कि कौन-सी चीज़ ज़ोरदार है।
उदयन- इससे एक कि़स्म का विवेक पैदा हो जाता होगा!
फ़ारूक़ी साहब- अमीर मीनाई ने कुछ दिनों मुसहफ़ी की शागिर्दी की थी। उन्होंने मुसहफ़ी को एक ग़ज़ल सुनायी। उस्ताद ने एक काफि़ये की बड़ी तारीफ़ कीः यह तुमने बड़ा अच्छा काफि़या बाँधा है। काफि़या ही शेर का आधार होता है, उसके बग़ैर वह बनता नहीं हैं। अमीर मीनाई लड़कपन में थे, जोश में कह गये, और कोई बाँध के दिखा दे। मुसहफ़ी ने कहा, अच्छा। उन्होंने बैठे-बैठे कुछ देर बाद मिनाई को कहा, ‘बारह मिसरे ये लो।’ ये नहीं कि हर मिसरा शेक्सपीयर या हाफि़ज़ के बराबर है लेकिन बात यह थी कि एक विचार को किसी सीमा के भीतर प्रकट करने जितनी मानसिक तैयारी और कल्पना में लोच पैदा हो जाती थी और तर्क को उस सीमा में अटाँने की तैयारी हो जाती थी, वह और किसी तरह से मुमकिन नहीं थी। हमारे समय में उर्दू इस तरह पढ़ाई जाती है कि उसमें वह बताते हैं कि उस्तादी वाली व्यवस्था बड़ी खराब थी, इसमें शार्गिद की मौलिकता मारी जाती है। बाद में हमने कहा कि भाई, हमारे यहाँ मौलिकता का विचार तो था ही नहीं। न संस्कृत में था, न अरबी फ़ारसी में। बड़ी बात यह थी कि कविता हमारी जि़न्दगी का अटूट हिस्सा थी। इसलिए ये सब चीज़ें मुमकिन थीं। उठते-बैठते शायरी हो रही है। अमीर मिनाई के एक उस्ताद असीर थ। उनसे आकर एक नाई कहने लगा, ‘उस्ताद, आप सबको लिख-लिख कर शेर दिया करते हैं, हमें दे दीजिए तो हम भी दीवान बना लेंगे अपना।’ वे कहने लगे, ‘भाई वक़्त नहीं है, देखो हर वक़्त लोग घेरे रहते हैं।’ नाई बोला, ‘उस्ताद आपके लिए क्या है, आप जब चाहें लिख दें।’ उस्ताद अमेठी के थे, वे बोले, ‘अच्छा जब-जब मैं अमेठी जाऊँ, तुम मेरे साथ-साथ पालकी पर हो लिया करना।’ नाई बोला, ‘बहुत अच्छा सरकार।’ नाई यह ख़बर रख़ता ही था कि उस्ताद कब जा रहे हैं। उस्ताद पालकी में बैठे और ये साथ-साथ चल दिये। उस्ताद बोले, ‘लिख भाई लिख।’ एक मंजि़ल पर एक ग़ज़ल। दूसरी पर दूसरी। चार-पाँच यात्राओं में दीवान मुक़म्मिल हो गया।
उदयन- नाई की अपनी कि़ताब तैयार हो गयी?
फ़ारूक़ी साहब- उस ज़माने में ये आम था। अब भी तुम देखो खुसरो के नाम से कितने शेर मंसूब हैं, उनमें एकोई खुसरो का नहीं है। न कव्वाली, न कुछ और। उस ज़माने तक ये चलन था कि शेर अच्छा तो मैंने कहा पर मुझे कोई जानता नहीं। लोग उदयन को जानते हैं तो मैं कहूँगा कि सुनिये साहब उदयन वाजपेयी साहब ने यह शेर कहा है तो शेर मशहूर हो जाएगा। पहले वह शेर फ़ैजाबाद गया वहाँ से सुल्तानपुर फिर इलाहाबाद-बनारस, तमाम जगह पहुँच गया। मेरा नाम न सही, मेरा शेर तो चल रहा है। इसी का उल्टा तरीका यह था कि उस्ताद से शेर कहलवा लिया और कह दिया मेरा है। फिर कोई पूछेगा कि तुम किसके शार्गिद हो। उन्हीं उस्ताद का नाम बता दो।
उदयन- आपके शायर होने को आपकी तारीफ़ माना जाता होगा?
फ़ारूक़ी साहब- आप किसके शार्गिद हैं, यह भी तारीफ़ मानी जाती थी। अगर आप असीर के या अमीर मीनाई के शार्गिद हैं तो यह माना जाता था कि आप किसी मसरफ़ के हैं। आप कूड़ा-करकट नहीं है। मैंने अपनी बेटियों को खूब सिखाया कि कोई मौके पर कहे कि ग़ालिब की ग़ज़ल पढ़ो तो वे सुना सकती हैं। मैंने उन्हें नज़ीर अक़बराबादी की जाने कितनी ग़ज़लें याद करायीं। इससे भाषा पर अधिकार आ जाता है। लय आ जाती है। यह समझ आ जाती है कि भाषा कैसे बोली या बनायी जाती है और फिर यह कि कविता तो आप पढ़ ही रहे हैं।
उदयन- उसमें जि़न्दगी अपने सुन्दर रूप में बैठी हुई है।
फ़ारूक़ी साहब- हमारे लड़कपन में यह आम बात थी। हमारे बाप ने अपने आत्मकथ्य में यह लिखा भी है। वैसे वे हमारे प्रति बहुत आलोचनात्मक थे क्योंकि मैं नमाज़ नहीं पढ़ता था। उनकी नज़र में मैं गुमराह किसम का आदमी था। उन्होंने मेरे लिए यह लिखा कि वे खिलन्दडे थे, नमाज़ नहीं पढ़ते थे लेकिन दिमाग तेज़ था, वे शेर बहुत याद कर लेते हैं। मैं सातवीं में रहा होऊँगा तब नींद के बारे में एक नज़्म थी। उसमें चवालीस शेर थे। हमारे मौलवी साहब ने कहा कि सब लोग हर दिन दो-दो शेर याद करके आना। इस तरह बाईस दिन थे सबको पूरी नज़्म याद हो जाएगी। अगले दिन हमारा नम्बर आया, हम चुप बैठे रहे, शेर याद नहीं किये थे। दूसरे दिन भी यही हुआ। इस तरह पूरे बीस दिन निकल गये डाँट भी पड़ती रही। इक्कीसवें दिन मैंने बयालिस शेर सुना दिये। बाकी के दो शेर मैंने कभी याद नहीं किये। ये हमारे बाप ने लिखा है।
उदयन- ये क्या कोई रिवायत है कि लोग अपनी छोटी-छोटी आत्मकथाएँ लिखे?
फ़ारूक़ी साहब- हिन्दुओं में भी ज़रूर होगी। मुझे बहुत नहीं पता पर कुछ पुरानी डायरियाँ मेरे पास हैं, 1860-70 की, जिनमें उर्दू और फ़ारसी की बहुत सारी शायरी लिखी है, जिसे हम लोग कबित्त कहते थे। उसमें अवध की कविताएँ होती थीं। अवध की यह रिवायत थी कि अपने बच्चों के लिए ऐसा कुछ छोड़ जाओ, यह बताने कि मैंने जि़न्दगी में क्या खोया क्या पाया। हमारे बाप जल्दी ही मर गये, बासठ साल की उम्र में। उन्होंने अपने बच्चों को आगे बढ़ते हुए नहीं देखा। सिफऱ् मैं नौकरी में आया था। मेरे दो भाई पी. सी. एस. हो गये थे। उनके मरने के दो-तीन साल बाद तक मैंने बड़ी नमाज़ पढ़ी और यह अजीब बात है क्योंकि मुझे नहीं लगता था कि मैं उनसे इतना स्नेह करता हूँ क्योंकि वे बहुत सख्त थे। वे उस रिवायत के थे, जहाँ बच्चों को गोद में उठाना या उनसे हँसकर बोलना था ही नहीं। पर जब वे मरे मुझे लगा, यह बहुत बड़ा हादसा हो गया। मैं बहुत रोया। अब भी 40-42 बरस बाद भी उन्हें बहुत याद करता हूँ। उसमें बहुत सी तल्ख यादें भी है। सज़ा देने की यादें भी जो वो मुझे दिया करते थे। इसके बाद भी मुझे यह लगता है कि कोई चीज़ होती है बाप, जो अब नहीं है। उन्होंने मेरे बारे में यह जो लिखा कि खुदा इसको तौफ़ीक दे कि यह नमाज़ नहीं पढ़ता, इसका मुझ पर कुछ ऐसा असर हुआ कि उनके जाने के ढ़ाई-तीन साल तक मैंने बहुत नमाज़ पढ़ी। चाहे मैं दफ़्तर में रहा होऊँ या बैठक में या कहीं और। कई बार मैं बैठक से बाहर आकर या गाड़ी रोककर सड़क किनारे नमाज़ पढ़ता था। वह आहिस्ता-आहिस्ता छूट गयी। उसके बाद अपनी बदमाशी बढ़ती गयी। क्या करें भाई!
उदयन- आप जो नया उपन्यास लिख रहे हैं, क्या वह भी आपकी कहानियों की तरह ही किसी शायर के इर्द-गिर्द बुना जा रहा है?
फ़ारूक़ी साहब- उसका एक अध्याय लिखा है, जिसमें गोमती नदी है, थोड़ा बहुत हाल बयान करती है कि मैं कहाँ से निकली हूँ, राह में जो नैमिषारण्य पड़ता है, वह क्या है, वहाँ लोग क्यूँ जाते हैं। लखनऊ क्यूँ आते हैं। कौन-कौन से शायर यहाँ आये। आसिफ़ुद्दौला ने यहाँ क्या बनवाया। यह सब वह नदी उमर शेख़ मिजऱ्ा को सुना रही है। वह उससे कहती है कि यहाँ क्या घूमते फिर रहे हो, कुछ मालूम भी है कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो। वह इसका जवाब देता है, तो वह उस पर यह जताती है कि वह और कहाँ-कहाँ गयी है मसलन जौनपुर। फिर वह जौनपुर के शायरों और सूफि़यों का जि़क्र करती है।
उदयन- क्या इस उपन्यास का समय भी 18वीं शताब्दी ही है?
फ़ारूक़ी साहब- 18वीं ज़्यादा पर 19वीं भी। यह पहला अध्याय हो गया है, अब मुझे कहानी का बीज रखना है। वह है छोटा-सा पर रौंगटे खड़े कर देने वाला है। दो जवान शायर हैं, जो शेख जुर’अत के शार्गिद हैं। जुर’अत दिल्ली से लखनऊ गये बडे शायर थे। घटना 1770 और 1780 के आसपास की है। दोनों जवान शायरों का ज़ुबान के किसी मसले पर झगड़ा हो जाता है। एक कहता है ये मामला ऐसा है, दूसरा कहता है ऐसा नहीं ऐसा है। जब झगड़ा बढ़ता है, वे कहते हैं कि बाहर चलकर देख लेते हैं। वे गोमती के किनारे जाते हैं और तलवार निकाल लेते हैं। एक तलवार वो है जो ‘शतरंज’ के खिलाड़ी’ में प्रेमचन्द ने निकलवायी है, हमारी संस्कृति को बदनाम करने। जो वाकया प्रेमचन्द ने कहा वह ज़ाहिर है, नामुमकिन और झूठा है।
उदयन- उस कहानी में एक त्रुटि और है कि जो आदमी प्रेम या विरह की कविताएँ लिख रहा है, वह ग़लती पर किस तरह है, इसमें हजऱ् क्या है? प्रेमचन्द जी की कला के प्रयोजन की समझ अत्यन्त संकीर्ण थी, वही मोटे रूप में आज भी चली आ रही है।
फ़ारूक़ी साहब- सारा झूठ बोल रहे हैं कि बादशाह को फौज ले गयी जबकि न फौज आयी न वौज। बादशाह ने खुद ही कहा कि हम जाते हैं, हम लड़ाई नहीं करेंगे वर्ना हमारे आदमी मरेंगे। इस तरह उन्होंने यह कहानी लिखकर पूरे लखनऊ को लांछित किया। बहरहाल वो तो कि़स्सा है, पर जिन तलवारों का मैं जि़क्र कर रहा हूँ, वह वास्तविक जि़न्दगी है। दोनों शायर एक-दूसरे को मारने पर आमदा हैं। एक को दूसरे ने इतना ज़ख्मी कर दिया कि वह बड़ी मुश्किल से किसी चीज़ पर लदकर घर आया। लोग उससे हज़ार मर्तबा पूछते रहे कि उसे किसने मारा, क्यूँ मारा, वह चुप रहा और मर गया। जब यह बात मारने वाले को पता लगी, उसने इस डर से शहर छोड़ दिया कि लोग मुझे पकड़ लेंगे। वह दिल्ली चला जाता है। दिल्ली में ‘दर्द‘ का आखिरी ज़माना चल रहा है। दर्द की मौत 1785 में हुई थी। यह भागा हुआ शायर दर्द की महफि़लों में उठने-बैठने लगता है। वहाँ अपनी शायरी सुनाता है, कुछ सीख़ता भी है। 3-4 साल बाद यह सोचकर कि लोग अब भूल-भाल गये होंगे, वह लौटता है। जैसे ही वह शहर में दाखिल होता है, लोगों को मालूम हो जाता है कि यह आ गया है। उसने जिसकी हत्या की थी, उसके घरवाले इसको मार देते हैं। इसको उपन्यास में लाना है कि लोग शतरंज के खिलाडि़यों की तरह नहीं शब्दों की खातिर एक-दूसरे को मार देते हैं। और लोगों में एका भी है कि मरने वाला यह बताता नहीं है कि उसे किसने ज़ख्मी किया है। उसके घरवालों को भी अपने आदमी से इतना लगाव है कि वे चार-पाँच साल बाद भी उसके कातिल को ढूँढकर उसे मार देते हैं।
उदयन- इस कि़स्से में उनके उस्ताद का कोई हस्तक्षेप नहीं है ?
फ़ारूक़ी साहब- बिल्कुल नहीं। तब तक वे अन्धे हो चुके थे। उस्ताद बड़े बागो-बहार आदमी थे, लोगों से मिलते, बैठते-उठते, हँसते-बोलते थे। वे जवान शायर उस्ताद के यहाँ सिर्फ़ बैठते-उठते थे, शेर सुनाने जाते थे, लोग सुनते थे, उस्ताद इस्लाह देते थे। झगड़े पर किसी ने विस्तार से नहीं लिखा, इतना भर मिलता है कि किसी लफ़्ज़ पर झगड़ा हुआ था।
उदयन- उन सब स्थितियों की आप कल्पना कर लेंगे...
फ़ारूक़ी साहब- वो तो ज़ाहिर बात है। मैं उसकी विस्तार से कल्पना कर लूँगा।
उदयन- ऐसे कई लेखक हैं जिन्होंने पुराने चरित्रों को दोबारा स्थापित किया, उनका पुनर्कथन किया, उन पर नयी रोशनी डाली। मसलन इतालवी लेखक अम्बर्टो इको थे। वे भी आपकी ही तरह जीवन भर साहित्यिक सिद्धान्तों पर काम करते रहे और क़रीब साठ साल की उम्र में उन्होंने भी आपकी तरह ही एक ऐसा उपन्यास लिखा जिसमें पुरानी घटनाओं का पुनर्वास था।
फ़ारूक़ी साहब- हमारा और उनका कोई मुक़ाबला नहीं भाई। वे बहुत बड़े आदमी थे। लेकिन यहाँ एक तरह का सतही साम्य है।
उदयन- गल्प और इतिहास या अध्येतावृत्ति के संयोग से इन दिनों दुनिया भर में कई उपन्यास लिखे जा रहे हैं।
फ़ारूक़ी साहब- कोई लहर होगी ज़रूर, ऐसा हो सकता है। मैंने भी उसे पकड़ा होगा अनजाने ही। मैंने कहीं लिखा भी है कि किसी युग की आत्मा ऐसी ही कुछ होती होगी। हमारे एक दोस्त थे आदिल मंसूरी। वे गुजराती के अच्छे शायर थे, उर्दू के भी। वे अँग्रेज़ी बहुत कम जानते थे। मामूली आदमी थे, हाईस्कूल भी नहीं पढ़े थे। उन्होंने ऐसी कई नज़्में लिखीं, जो अतियथार्थवादी (सुर्रियलिस्टिक) जान पड़ती है। उन्होंने इस सबका नाम भी नहीं सुना। आन्द्रे ब्रेताँ किस जानवर का नाम है, वे न जानते होंगे। उस वक़्त मैंने कहा था कि आदिल मंसूरी की मिसाल सामने है, वे अँग्रेज़ी एक लफ़्ज़ नहीं पड़े हैं, उर्दू उनकी दूसरी जु़बान है लेकिन उर्दू में सही असर पैदा कर रहे हैं। ऐसी कविताएँ लिख रहे हैं जो अतियथार्थवादी मालूम देती हैं। यह कैसे हुआ होगा। ऐसी कोई न कोई चीज़ होगी, जो पचास या साठ के दशक में, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इंसान के आध्यात्मिक जीवन में अभाव और पतन और रास्ता खोने, राजनीति और विज्ञान से धोखा खाने के कारण दुनियाभर में फैली होगी। अगर इसके कारण हम लोगों में अतियथार्थवाद नज़र आता है तो क्या ग़लत है। यह शायर तो पढ़ा-लिखा नहीं है, तब भी वैसी ही नज़्में लिख रहा है। ऐसा होता है। इस ज़माने में भी ऐसा कुछ होगा पर मैंने जैसा तुम्हें बताया है, खाना-पूरी करनी थी, उर्दू के दो उदाहरण सामने थे, कुछ अँग्रेज़ी के भी। मेरा ऐतिहासिक उपन्यास नहीं है। उसमें, जैसा कि तुम कह रहे हो, इतिहास के साथ कल्पना खासतौर पर है। पर ऐसी कोई हवा अभी भी होगी।
उदयन- हो सकता है कि यह समय मनुष्य का अपनी सांस्कृतिक विस्मृति के प्रति सजग होने का हो। शायद इसलिए जिन उपन्यासों में अतीत की पुनर्कल्पना होती है, उनके प्रति लगाव बढ़ता लग रहा है। यह संयोग है कि आपने ऐसा ही कुछ लिखा। आपको भी वह ज़रूरत महसूस हुई होगी।
फ़ारूक़ी साहब- पश्चिम के लेखक अपने यहाँ कुछ न कुछ निरन्तरता देख ही लेते हैं। उनके यहाँ तोड़-फोड़ की परम्परा पुरानी है। हमारे यहाँ तोड़-फोड़ की परम्परा कोई नहीं है और अब निरन्तरता भी नहीं रह गयी है। मेरा एक तरह से मिशन था। लोग कहते थे कि उर्दू में साहित्यिक सिद्धान्त है ही नहीं पर यह कैसे मुमकिन था कि बिना सिद्धान्त के शायरी होती। या यह संस्कृति पतनशील ही थी, भोग-विलास की संस्कृति। यह सिफऱ् लौण्डेबाजी, पतंगबाजी, बटेरबाजी याकि तमाम बाजि़यों की संस्कृति थी। मानो कोई परिष्कार न रहा हो। संस्कृति ही न रही हो। हमारे यहाँ उस समय की दो छवियाँ है कि या तो कुछ था ही नहीं या सबकुछ गिरा हुआ था। दाग़ के बारे में कहा जाता है कि वे कि़ले में पले-बढ़े जोकि ग़लत है। कि़ले का परिवेश ही ऐसा था, जिसमें बटेरबाजी, पतंगबाज़ी, कनकव्वेबाजी, लड़कियों-वड़कियों से छेड़छाड़, रण्डियों से मेल-जोल, दाग़ साहब क्या करते इसलिए यही उनकी शायरी में आया।। ये बातें ग़लत हैं, शायरी आपने पढ़ी नहीं है, उनकी जीवन-कथा आप जानते नहीं, आपको पता नहीं है कि वे चैदह बरस की उम्र में कि़ले में गये थे। उस उम्र तक आदमी बड़ा हो जाता है। उस ज़माने की संस्कृति में तब तक वह विवाह योग्य हो जाता था। बल्कि तब तक विवाह कर भी लेता था जबकि उनके लिए कहा जाता रहा कि वे बचपन से कि़ले में पले-बढ़े थे। इस तरह की समझ बना दी गयी थी कि उस ज़माने या तो संस्कृति थी ही नहीं या गिरी हुई थी। इस धारणा को किसी को तो तोड़ना था। मैं इसको गहरायी से महसूस करता हूँ और यह भी रहा होगा कि 18वीं सदी की शायरी और संस्कृति को जितना मैं पढ़ पाया, शायद ही किसी और ने पढ़ा हो। मैं वह पढ़ने लगा और पढ़ता गया। फिर दास्तान पर आ गया। मेरे जितनी ‘दास्तान’ दुनिया में शायद ही किसी ने पढ़ी होगी। ‘दास्ताने हम्ज़ा’ की छियालीस जि़ल्दें मैंने पूरी पढ़ी हैं। कई जि़ल्दें कई-कई बार पढ़ी। लोगों को उन जि़ल्दों के नाम तो खैर दूर की बात है, यही नहीं पता है कि वे हैं कितनी। फ्रांसिस हमारी शागिर्द थीं, वे हम्ज़ा की एक जि़ल्द का अनुवाद करना चाहती थीं, वे हमसे कहने लगीं, हमारी मदद कीजिए। वे पूछने लगीं, ‘क्या आपने दास्तान पढ़ी हैं।’ मैंने उसने कहा दास्तान कौन पढ़ता है, हम तो उपन्यास के आदमी है। उन्होंने उसका एक जि़ल्द लाकर दे दिया। मैं उसको पढ़कर पढ़ता ही चला गया। मैंने सोचा इसका आख्यान तो ऐसा है कि इसके आगे तोल्सतोय भी पानी भरें।
उदयन- क्या दास्तान की उत्पत्ति फ़ारस में हुई है ?
फ़ारूक़ी साहब- एक मर्तबा काॅकेशिया से एक मोहतरमा आयी थीं। वे दास्तान पर काम कर रही थीं। यह बहुत पुरानी बात है। मेरे मुँह से यह निकल गया कि दास्तान तो ईरान में पैदा हुई है। यह सुनकर वे बिगड़ गयीं। वे बोलीं, ‘यह हमारी है, आप कैसी बात करते हैं, ये तो यूक्रेन में पैदा हुई है। मैंने कहा, यही समझ लो। कुछ लोग इसे दक्षिण-पूर्व एशिया से भी जोड़ते हैं। यह पक्का है कि इसकी पैदाईश अरेबिया की नहीं है। अगरचे बाद के लोगों ने उसे उससे जोड़ा ज़रूर है। बल्कि पैगम्बर से भी जोड़ा है। ये कहा जाने लगा कि जब मुहम्मद साहब दुःखी होते थे, अपने चचा अब्बास से कहते थे कि अब्बास मुझे कोई कहानी सुनाओ, ख़ासकर मेरे शहीद हो चुके चचाजान हम्ज़ा के बारे में।
ज़ाहिर है कि ये सब फजऱ्ी है। महमूद गज़नवी के बारे में भी ऐसे ही कि़स्से हैं कि उन्होंने किसी को अपना दिल बहलाने नौकरी पर रखा कि वह उन्हें कहानी सुना सके। कहने का अर्थ यह है कि इसकी पैदाईश की जगह किसी को साफ़ तौर पर मालूम नहीं। इसकी आखिरी पैदाईश ईरान की ही है। एक और सिद्धान्त मुमकिन है कि अब्बासियों ने चूँकि सैयदों के साथ बहुत दुव्र्यवहार किया और जहाँ तक हो सका सैयदों की स्मृति को मिटाना चाहा इसलिए दास्तान अब्बासियों द्वारा सैयदों की अनजाने ही चमक वापस लौटाने की कोशिश थी। उनके शौर्य का उत्सव मनाने का प्रयास। हम्ज़ा मोहम्मद साहब के बाप के सगे भाई थे। उनकी बहादुरी मशहूर थी। वे लड़ाई में मारे भी गये थे। जिस औरत ने उन्हें मारने के लिए एक आदमी को तैनात किया था क्योंकि उसके पति को हम्ज़ा ने ही मारा था, उस औरत ने यह कहा था कि लड़ाई के दौरान जब भी इसे अकेला पाओ, इसे मार देना, मैं इसका कलेजा खाऊँगी। उस ज़माने में रिवाज़ था कि औरतें बदला लेने के लिए अपने दुश्मन का सीना चीरकर उसका कलेजा खाती थी। इस दास्तान का अन्त ऐसा ही नाटकीय और वीभत्स है। इसीलिए यह कहा जाता है कि पैगम्बर ने हम्ज़ा को सय्यदुश्शुहदा, शहीदों का सरताज कहा। ये कि़स्सा भी बनाया गया कि हम्ज़ा की मौत के बाद जब पैगम्बर उनके घर के सामने से गुज़रे, दो औरतें बहुत रो रही थीं, पैगम्बर ने उन्हें रोने से रोका और कहा, मेरे चचा तो ज़न्नत में हैं, वे बहुत बड़े आदमी हैं और उनके कि़स्से हमेशा लोग सुनाया करेंगे। भारत में जब यह दास्तान आयी और हम लोगों ने उसमें जो बढ़त की वह बेमिसाल है। जब 1590 के आसपास दक्षिण भारत में फ़ारस के एक दास्तानगो ने आकर दास्तान सुनायी गोलकुण्डा के बादशाह को, उसने इनसे दास्तान लिखवा ली। उन्होंने कहा कि यह लम्बी है, इसे छोटे में लिखो। ख़ुदाबख़्श पुस्तकालय में उसकी एक ही अधूरी प्रति है। मैंने वो पढ़ी है; हैदराबाद से वह दिल्ली पहुँची। मुग़ल जब दक्खन गये, वे वहाँ से दास्तान ले आये।
दास्तान अक़बर के यहाँ पहुँची और उन्होंने इसे बहुत पसन्द किया। इस पर उन्होंने बहुत-से चित्र बनवाये। दास्तान में नब्बे प्रतिशत जादुई तत्त्व, जादूगर बादशाह या दैव राजा दास्तान को भारत का योगदान है। यह और कहीं दास्तान में नहीं मिलता। हमारे यहाँ जो यह कहा जाता है कि ईश्वर सभी कारणों का कारण है और वह बिना किसी कारण कुछ भी बना सकता है, इसके बरक्स पैगम्बर के पास जो चमत्कार है, वह बिना कारण के नहीं होता। मसलन ईसा मसीह का यह कि़स्सा कि एक अवसर पर थोड़ी-सी शराब थी और उन्होंने कहा इसे बाँटों पर कम होने पर भी वह खत्म नहीं हुई। हमारे यहाँ भी ऐसे कई कि़स्से हैं कि पानी कम था और पैगम्बर ने कहा कि लो ये गिलास ले जाओ, सबको पिला दो। सौ आदमियों ने पी लिया। या जब खाना नहीं मिल रहा था और भूखा पड़ा था, किसी ने कहा, हुजू़र एक बक़री है, मैं काटे दे रहा हूँ पर इसमें कितने लोग खा पाएँगे। पैगम्बर ने कहा, कोई बात नहीं पकाओ। उसने खाना पकाया, उन्होंने उसमें फूँक दिया और बहुत से लोगों ने खा लिया। इन सबमें कारण मौजूद था, गोश्त पहले से मौजूद था। लेकिन ईश्वर कारणों का कारण है। उसको कारण की ज़रूरत नहीं पड़ती। इसीलिए हमारे यहाँ दास्तान में जो जादूगर है, वह यही दावा करता है कि मैं बिना कारण कोई भी चीज़ कर सकता हूँ। यह फ़ारस में कहीं नहीं था। अमीर हम्ज़ा का जो करीबी साथी है, लन्दौर वह भी यहीं का योगदान है। लन्दौर बड़ा दिलचस्प नाम है, लन्द यानि शिश्न और बेटा। होर या हौर या खौर संस्कृत और पुरानी फ़ारसी में सूर्य, दोनो को जोड़कर बनेगा, सूरज का बेटा। उनके बाप का नाम है सादान, जो अरबी है। ऐयारी दास्तान में पहले से थी पर उसे हम लोगों ने विस्तार दिया है। ऐयारों के ख़ानदान और स्त्री ऐयार ये सब हम लोगों का दास्तान को योगदान है।
फ़ारूक़ी साहब से दास्तानगोई पर अगर बात चलती, वह कितनी और लम्बी चलती, इसका अन्दाज़ लगाना भी मुश्किल है। वे कह ही चुके थे कि शायद सारी दास्तान पढ़ने वाले वे अकेले ही होंगे। हमने बातचीत यहीं बन्द की। फ़ारूक़ी साहब थक गये थे। मैंने उन पर सरासर जु़ल्म किया था, मैं जानता था। पर उन्होंने उस आखिरी दिन मुझसे कहा कि वे इस बातचीत से थक ज़रूर जाते थे पर देर तक खुश रहते थे शायद इसलिए कि वे भी एक बार फिर अपने अतीत में झाँक रहे होते थे

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