उसका बचपन - शिवानी
25-Aug-2020 12:00 AM 11702
यह एक ऐसा आत्मकथात्मक उपन्यास है, जो विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया। इसका प्रमुख पात्र बीरू नामक छोटा बच्चा है जिसके मानस से कथानक रचा गया है। उसकी स्मृतियाँ उपन्यास के आख्यान को रचती हैं। उसकी बचपन की स्मृतियों में दादी, मां, पिता, बहन, उसकी सहेली, बहन का प्रेमी और उसका परिवार व कुछ शहर हैं। इनके आपसी रिश्तों की बुनावट से दुनिया का हाल जाना जा सकता है। आख्यान की पृष्ठभूमि में देश के विभाजन के त्रासद परिणाम हैं जिन्हें आने वाली कई पीढ़ियों को प्रभावित किया। विभाजन के परिणामस्वरूप जो विस्थापन हुआ; उससे बेरोज़गारी और गरीबी बढ़ गई। इससे परिवार के रिश्तेदारों व बिरादरी में अविश्वास और कई तरह के व्यभिचार को बढ़वा मिला। स्वाधीनता और विभाजन के बाद आधुनिक भारत के निमार्ण के स्वप्न के समक्ष कई चुनौतियाँ थीं। जिसे इस उपन्यास में गरीबी से जूझते एक विस्थापित परिवार की कहानी के माध्यम से देखा जा सकता है। परिवार में किसी भी तरह का ‘पारीवारिक मूल्य’ या तथाकथित ‘मर्यादा व आदर्श’ नहीं है। निम्नवर्गीय गरीब परिवार में रिशतों की अजीब-सी उधेड़बुन और खींचातनी है जिसमें क्या वैध है क्या अवैध, इसे बीरू के बाल मन से दिखाया गया है। इसमें कई सवाल हैं जिन्हें वर्तमान में ज्यादा गंभीरता व गहराई के साथ समझा जा सकता है। उपन्यास का शिल्प आज भी नयेपन का आभास देता है, वैद जी शिल्प की प्रयोगधर्मिता के लिए भी जाने जाते रहें हैं। इसमें बीरू आपबीती सुना रहा है, जिसमें किसी औपचारिक क्रमबद्धता का पालन नहीं किया गया फिर भी पाठक को ऐसा नहीं लगता कि आख्यान का क्रम भंग हो रहा है। बीरू अपने बचपन के खुरदरे और ऊबड़-खाबड़ हिस्सों को व्यक्त कर रहा है। अप्रिय लगने वाले इस हिस्से की स्मृतियाँ बहुत लम्बी और घनी हैं जिन्हें जीवित होने और रहने के अहसास के बाद सुनाता है। उपन्यास बीरू के फ्लैशबैक में जाने के साथ शुरू होता है। उसमें गरीबी और उससे उपजे भयंकर तनावपूर्ण पारीवारिक महौल में जीवित रहने की अदम्य कोशिश है, वहीं कुछ पल खुशी के भी होते हैं। सुख का अनुभव बहुत क्षणिक और अस्थायी है। बचपन में ही उसे जीवन के बड़े-बड़े दुखों के नाम पता चलने लगे थे, ऐसा क्यों है? वे गरीब क्यों हैं, पिता जुआ क्यों खेलते हैं, माँ इतनी झगड़ालू क्यों हैं, दादी के साथ इतना कड़वा क्यों बोलती है, उसे क्यों मारती है और पिता माँ को क्यों पीटते हैं? उसकी बहन कहाँ जाती है जिससे मां इतना नाराज़ होती है और अपनी ही बेटी को गंदी-भद्दी ज़बान से फटकारी है, गालियाँ देती है। माँ का यह रूप उसके लिए सबसे अधिक असह्य था। सुख था तो कभी-कभी दादी की गोद में बैठने का, जब वे प्यार से सहलाती थी। घर की औरतों में आपस में किसी तरह का समभाव नहीं था, वे परस्पर एक दूसरे की विरोधी और झगड़ालू थीं। उनके बीच एक ऐसा संधर्ष चला करता जिससे अपजा तनाव देश की सामाजिक-राजनीतिक हालात का अप्रत्यक्ष बयान था। गरीबी में परिवार के सदस्यों में जिस तरह का संघर्ष चला करता वह राष्ट्र के स्वतंत्र, विकासशील, आधुनिक मूल्यों पर हास्य उत्पन्न करता नज़र आता है।  विभाजन के कारण उजड़े व देश में पुनर्वासित समुदाय की गरीबी आधुनिकता पर व्यग्यं करती प्रतीत होती है। जिस देश में स्वाधीनता और राष्ट्रीयता की पहचान देवी और आदर्श भारतीय स्त्री के मातृत्व के रूप में की गई उसका परिहासपूर्ण स्वरूप बीरू का गरीब परिवार था जिसके घर में उसकी मां, दादी और बहन स्त्री से जुड़े सारे राष्ट्रीय मिथकों को धराशाई करते हैं। स्वाधीनता के स्वप्न के साथ तथाकथित मातृत्व व स्त्रैणता को जिस तरह से गौरवान्वित किया गया उसे स्वाधीन-आधुनिक भारत में वर्गीय स्थितियाँ उसके उलट यथार्थ की गवाह हैं। परिवार में परम्परागत मूल्यों और नए विचारों के बीच खींचा-तनी चलती रहती है, वास्तव में वर्गीय स्थितियाँ मूल्यों को परिभाषित करती है। उनके परस्पर रिशतों व हर भाव को उनकी गरीबीप्रभावित कर रही है जिसे बीरू का बाल मन समझने में असमर्थ है इसलिए उसके मन में कई सवाल हैं।

 

घर-परिवार और देश को पहचानने व बचाने का जो स्वप्न रवींद्रनाथ के उपन्यास घरे-बाहिरे के समय उपजा था, जिसमें ‘घर’का अभिप्राय अपना देश और वे पारीवारिक मूल्य थे जिनसे बाह्य गुलामी के खिलाफ लड़ा जा सकता था। लेकिन गरीबी का यथार्थ एक उपनिवेश के भीतर कई उपनिवेश पैदा कर देता है।यह उपन्यास स्वाधीनता के बाद यथार्थ के उस वीभत्स रूप को सामने रखता है जिसका दूसरा हिस्सा विभाजन है। मां वह उपनिवेश है जो पिता से पिटती है, बीरू और उसकी बहन वे उपनिवेश हैं जो मां की गालियां खाते हैं व पिटते हैं। पिता की बेरोज़गारी व गरीबी से निवृत्ति के उपाय उन्हें गलत धंधों की ओर धकेल देते हैं। बहन देवी अपने धर्म से अलग लड़के से प्रेम करते हुए भी उससे विवाह नहीं कर पाती, जिसके पीछे धर्म से भी ज्यादा उनकी वर्गीय व पारीवारिक स्थितियाँ थीं।

 

कृष्ण बलदेव वैद अपने उपन्यासों में वीभत्स चित्रण करने के लिए विख्यात रहें हैं जिसके चलते कुछ आलोचकों ने उन्हें अपठनीय तक बता दिया। आलोचक और पाठक का मानस कुछ हद तक उपलब्ध साहित्यिक टूल्स की सीमाओं से प्रेरित व संचालित होता है, जिन्हें तोड़ने का काम बदलती सामाजिक परिस्थितियों के साथ नए उपलब्ध टूल्स के साथ किया जाता है। मंटो, अमृता प्रीतम और विभाजन के दौर के कई लेखकों की कलम में अपने समय की सीमाओं को तोड़ देने वाली ताकत को वर्तमान साहित्यिक टूल्स के माध्यम से पहचाना जा सकता है। यह उपन्यास अपने शिल्प के कारण ही कई नए सवाल सामने रखता है। यह एक ऐसा नैरेटिव फिक्शन है जिसमें बीरू का स्व और आत्मनिष्ठता सामने आती है क्योंकि यह नैरेटिव बीरू नामक एक बच्चे का वरज़न और नैरेशन है। जिसमें वह आपबीती सुनाते हुए यथार्थ के उन हिस्सों को सामने रख रहा है जिसमें साहित्यिक सौन्दर्य को अपने समय में चुनौती देने की कोशिश की गई। उसके विवरण में घरवालों का उज्जडपन सामने आता है। इस तरह का यथार्थ भीष्म साहनी की कहानियों (जैसे- चाचा मंगलसैन, चीफ की दावत, अमृतसर आ गया) में देखा जा सकता है पर वे वर्गीय स्थितियों को रेखांकित करने वाले स्पष्ट विचारधारात्मक आधार को लेकर लिखते हैं।

 

आत्मकथ्य को नैरेविट नहीं माना जाता क्योंकि उसमें फिक्शन नहीं होता। उसमें तथ्यात्मक विवरण और वास्तविकता होती है। जबकि नैरेटिव में काल्पनिक अभिव्यक्ति व रचना करने की क्रिया निहित होती है। जब यह उपन्यास लिखा गया तब शिल्प के रूप में नैरेटिव फिक्शन ही प्रचलित था। वैद विधा और शिल्प के स्तर पर इनमें प्रयोग करते हैं। अपने एक साक्षात्कार में वे स्वीकार करते हैं कि यह उपन्यास आत्मकथात्मक है, सिर्फ बीरू की आपबीती नहीं। इसमें नैरेशन का स्कोप कम है, संवाद करते हुए स्क्रिप्ट का रूप ज्यादा है। पाठक के लिए यह विभाजन के महाकाव्य का हिस्सा बन सकता है जिसके बारे में अब तक चर्चा नहीं हुई। बाद की पीढ़ियों ने विभाजन से जुड़ी स्मृतियों को किस तरह अनुभूत किया और उससे भी अधिक विभाजन के दूरगामी प्रभावों व परिणामों को किस तरह झेला, इसलिए यह एक टैक्स्ट भी बन जाता है। बीरू का स्व वह बाल-मन है जो सच के सिवा कुछ नहीं कहता, उसमें हालात को समझने का कच्चापन पाठकों के लिए सच्चे सवाल रखता है। उसके घर व परिवार के सदस्य वह खिड़की हैं जो देश दुनिया का हाल व बदलते नक्शे दिखाते हैं। वे सब अविभाजित पंजाब के अवशेष हैं।
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