23-Mar-2022 12:00 AM
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वागीश शुक्ल हिन्दी के उन विरले लेखकों में हैं जो हिन्दी, संस्कृत, फ़ारसी, अंग्रेज़ी और इन भाषाओं के माध्यम से दूसरी भाषाओं के साहित्य को गहरायी से जानते हैं। वागीश जी वर्षों दिल्ली के आई.आई.टी. संस्थान में गणित पढ़ाते रहे और फिर सेवानिवृत्त होकर बस्ती चले गये हैं। उनका लिखा हुआ सरस और जटिल एक साथ होता है। उनके लिखने का ढंग निराला है। वे कोई भी अवध्ाारणा सीध्ो-सीध्ो व्यक्त करने के स्थान पर पाठक को वैचारिकता के उस स्थान तक ले जाते हैं जहाँ वह अवध्ाारणा रूप ले रही होती है। उन्होंने निराला की प्रसिद्ध कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ की बहुत ही सुन्दर टीका लिखी है जो ‘छन्द छन्द पर कुमकुम’ नाम से प्रकाशित हुई है। उन्होंने देवकीनन्दन खत्री की उपन्यास श्ाृंखला ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ पर भी किताब लिखी है। उन्होंने ‘समास’ के लिए ‘भक्ति’ पर कई निबन्ध्ाों की श्ाृंखला भी लिखी है। वागीश जी हिन्दी में ग़ालिब की शायरी के सबसे बड़े विशेषज्ञ हैं और उन्होंने उस पर भी टीका लिख रखी है जो प्रकाशित होना बाक़ी है। वे कई बरसों से एक सुदीर्घ उपन्यास पर भी काम कर रहे हैं। उनसे मेरी पहली मुलाक़ात चालीस बरस पहले हुई होगी, उससे भी पहले से मैं उनके निबन्ध्ा पढ़ता रहा था। उनका एक पाँव पश्चिम के अध्ाुनातन चिन्तन में होता है, दूसरा हमारी अपनी परम्परा की गहराई में। शायद इसीलिए उनके लेखन में ऐसी गन्ध्ा है जो बिल्कुल आज की होती हुई भी प्राचीन लगती है और पारम्परिक होने के रास्ते आध्ाुनिक है। उनसे यह बातचीत ई-मेल पर हुई है। वागीश जी ने अपनी तमाम मुश्किलों के बावजूद हमारे प्रश्नों के पर्याप्त विस्तृत जवाब कुछ महीनों तक देते रहे, यह उनका बड़प्पन ही है।
यह बातचीत कोरोना-जनित असमर्थताओं के चलते ई-मेल के माध्यम से 20 जुलाई 2021 को प्रारम्भ हुई जिस दिन हरिशयनी एकादशी थी और भगवान् चार महीनों के लिए निद्रामग्न हुए। इसलिए इसमें एक बेबाकी का आ जाना स्वाभाविक है। इसमें सवाल उदयन वाजपेयी ने किये हैं और जवाब वागीश शुक्ल ने दिये हैं।
उदयनः आपकी पढ़ाई किस तरह शुरू हुई? बचपन में आप किस स्कूल में पढ़ने जाते थे? क्या वहाँ की कोई यादें आपके साथ हैं? उन दिनों आपके घर का परिवेश कैसा था?
वागीश जीः मेरी माता श्रीमती विद्यावती देवी यद्यपि चैदह वर्ष की अवस्था से ही मेरे पितृकुल में गुरुजनों की शुश्रुषा कर रही थीं, मेरे घर में बारह वर्ष बीत जाने पर भी उनके कोई सन्तान न हुई और उन्होंने किसी बड़ी-बूढ़ी की सलाह पर ऋषिपंचमी का व्रत प्रारम्भ किया। यह अरुन्ध्ाती देवी को शामिल करते हुए सप्तर्षियों की आराध्ाना का व्रत है और भाद्रपद शुक्ल पंचमी को किया जाता है। हमारी तरफ़ अखण्ड सौभाग्य की आशा में स्त्रियाँ हरतालिका का व्रत रखती हैं जो भाद्रपद शुक्ल तृतीया को रखा जाता है। उसमें चैबीस घण्टे निर्जल उपवास करना होता है (यद्यपि आजकल ‘निर्जल’ विशेषण युवतर पीढ़ी की कुछ महिलाओं ने हटा दिया है)। पंचांग की गणनाएँ प्रायः हरतालिका के दूसरे दिन ही ऋषिपंचमी घोषित कर देती हैं और इस कारण ऋषिपंचमी का दिनभर का निर्जल उपवास और कठिन हो जाता है।
इस तपस्या के आगे लाचार जगन्नियन्ता के आदेश पर चित्रगुप्त ने मेरा बही-खाता झाड़-पोंछ कर मिलाया और मैंने अपने पिछले कर्मों का फल भोगने तथा कुछ नये पाप-पुण्य अर्जित करने के लिए ज्येष्ठ शुक्ल दशमी विक्रम संवत् 2003 को इस ध्ारती पर अपने गाँव थरौली, तप्पा बड़गों पगार, परगना महुली पश्चिम, तहसील सदर, जिला बस्ती, उत्तर प्रदेश में जन्म लिया यद्यपि संयुक्त परिवार का वह टुकड़ा जिसमें मेरे पिता आते थे, जिला मुख्यालय बस्ती में ही प्रायः रहता था, जो थरौली से पन्द्रह किलोमीटर दूर है।
‘संयुक्त परिवार’ से मेरा क्या आशय है, इसे मैं स्पष्ट करता हूँ। मेरे पूर्वज पण्डित शूलपाणि शुक्ल बस्ती से थरौली के रास्ते में थरौली से तीन किलोमीटर पहले पड़ने वाले महसों में रहते थे जहाँ के राजा द्वारा किये गये किसी अपमान से क्षुब्ध्ा होकर वे अनशन पर बैठ गये और उनका प्राणान्त हो गया जिसके बाद उनके पुत्रों ने ब्रह्महत्यारे के राज्य में जल न ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करके महसों छोड़ दिया और किसी अन्य आश्रय की तलाश में निकल पड़े। उनमें से एक को थरौली के तत्कालीन निवासियों ने अपने गाँव में शरण दे दी और अन्य भाई आगे चले गये। थरौली महुली राज्य में पड़ता था। जब मैं यहाँ ‘राज्य’ कहता हूँ, तो इसका आशय उन इलाक़ों से है जिनके अध्ािपति मध्यकाल में स्वतन्त्र शासक थे और इस नाते वंशानुगत ‘राजा’ थे किन्तु कालान्तर में मुग़लों और फिर अवध्ा के नवाबों और उनके बाद अंगरेज़ों को मालगुज़ारी देने वाले ज़मींदार रह गये थे।
थरौली में बस गये पूर्वज के वंश में मेरे वृद्धप्रपितामह पण्डित शिवदीन शुक्ल के दो पुत्र हुए, पण्डित रामप्रसाद शुक्ल जो मेरे प्रपितामह थे, और पण्डित रामअवतार शुक्ल। इन दो भाइयों का परिवार एक ही रसोई में था किन्तु मेरे होश सँभालने तक चूल्हे अलग हो चुके थे हालाँकि सभी लोग एक ही मकान में अलग-अलग बरामदे बाँट कर रहते थे। यह मकान यों तो मेरे पितामह पण्डित जयनारायण शुक्ल ने बनवाया था किन्तु बँटवारे में ज़ाहिर है कि हम लोगों के हिस्से में दो ही बरामदे और उनसे जुड़ी कोठरियाँ आनी थी। लेकिन इसी से जुड़ा मेरे पितामह का ही बनवाया एक मकान बढ़त के तौर पर था और दोनों मकानों के बीच एक कोठरी रास्ते का काम देती थी जिसके नाते उस दूसरे मकान की संज्ञा ‘दूसरा खण्ड’ थी। इस ‘दूसरके खण्ड’ पर हमारा हक़ पूरा माना गया था और इस प्रकार पण्डित रामप्रसाद शुक्ल के दोनों पुत्रों- पण्डित शुभनारायण शुक्ल और उनके छोटे भाई पण्डित जयनारायण शुक्ल- के परिवार मिल कर वह परिवार बनाते थे जिसे मैं ‘संयुक्त परिवार’ कह रहा हूँ। यही संयुक्त परिवार इन डेढ़ मकानों और डेढ़ आँगनों में रहता था, और जब मैं इसके ‘दूसरे टुकड़े’ की बात करता हूँ तो मेरा आशय पण्डित शुभनारायण शुक्ल के वंशजों से है। मैं अपने माता-पिता की इकलौती सन्तान हूँ और पण्डित जयनारायण शुक्ल के वंशजों से बने संयुक्त परिवार के हमारे अपने टुकड़े में इस समय मेरी पीढ़ी में मैं तथा मेरे पितृव्य पण्डित जयदेव शुक्ल के पुत्र देवेन्द्र शुक्ल मौजूद हैं।
आध्ो आँगन की हिस्सेदारी वाले ‘पहला खण्ड’ की वह कोठरी जो मेरे पितामह की मानी गयी थी, उनके देहान्त के बाद उनके बड़े पुत्र- मेरे पितृव्य पण्डित जयदेव शुक्ल- की थी किन्तु चूँकि वह गाँव पर न रहकर बस्ती रहते थे, उसमें मेरी माता रहा करती थीं, और उसी में मेरा जन्म हुआ। उस समय अस्पताल और प्रशिक्षित दाइयों का चलन न के बराबर था किन्तु मेरी देर-आयद को दुरुस्त-आयद में बदलने के लिए एक नर्स को बस्ती से बुलवाया गया था जिसे पुत्र-जन्म के उत्साह में मेरे पितृव्यों ने पूरे पचास रुपये दिये थे जो 1946 के वर्ष और हमारी हैसियत, दोनों के हिसाब से अध्ािक थे किन्तु शायद इस शुक्र-अदायगी का कारण यह रहा हो कि उस वर्ष एक महामारी आयी थी जिससे होने वाली बड़ी जनहानि में मेरे परिवार के भी कई सदस्य दिवंगत हो गये थे।
बस्ती में हम लोग एक ठाकुर द्वारे में रहते थे जिसे बस्ती राज-परिवार की रानी दिगम्बर कुँवरि ने बनवाया था। ये 1857 के प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी बाबू कुँवर सिंह की बहिन थीं किन्तु ये स्वयं अंगरेज़ों के साथ थीं जिसके नाते बस्ती का राज्य विक्टोरिया शासनकाल में कुछ बढ़े आकार के साथ बचा रहा।
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में अयोध्या के बाद सरयू नदी के उत्तर तरफ़ बसे हुए ‘सरयूपारीण’ ब्राह्मण यह मानते हैं कि महाराज दशरथ ने (सरयू के उत्तर ओर) जो अश्वमेध्ा यज्ञ करवाया था और जिसके फलस्वरूप भगवान् राम का जन्म हुआ, उसे करवाने वाले सोलह ऋत्विजों के ही वे वंशज हैं। इन ब्राह्मणों के बीच एक ‘तीन-तेरह’ का उचावच क्रम भी है जिसका आध्ाार यह प्रतीत होता है कि अश्वमेध्ा के ऋत्विजों का यह समूह चार उपसमूहों में बँटा है जिनमें से अथर्ववेदीय चतुष्क केवल निरीक्षक होता है और कर्मकाण्ड यजुर्वेदीय ‘अध्वर्यु’ की अध्यक्षता में उसके अपने अध्ाीन तीन के अतिरिक्त सामवेदीय ‘उद्गाता’, और ‘होता’ से ‘तीन’ और अन्य से ‘तेरह’ का प्रवर्तन हुआ। इन सोलह ‘गोत्र-प्रवर्तक’ ऋषियों में से यजुर्वेदीय गर्ग ऋषि से चले गोत्र के लोग शुक्ल’ आस्पद का प्रयोग करते हैं जिसका आध्ाार यह प्रतीत होता है कि इस यज्ञ का कर्मकाण्डीय आध्ाार ‘शुक्ल-यजुर्वेद’ रहा होगा न कि ‘कृष्ण-यजुर्वेद’। इस प्रकार हम लोग इस यज्ञ के अध्वर्यु महर्षि गर्ग के वंशज हैं, ‘गर्ग-गोत्रीय’ कहलाते हैं, और हमारा शुमार ‘तीन’ में है।
‘पंक्ति-पावन’ ब्राह्मणों का उल्लेख अनेक स्मृतियों, पुराणों और महाभारत जैसे ग्रन्थों में है। सम्भवतः अश्वमेध्ा करवाने वाले सभी ऋषि पंक्ति-पावन ही रहे होंगे किन्तु शायद कुछ सौ वर्ष पूर्व यह विरुद उनके वंशजों के एक अन्तर्वैवाहिक (त्र मदकवहंउवने) उपवर्ग के पास ही बचा रह गया जो किसी पंक्तिपावनेतर का पकाया अन्न न खाते थे। इसके अतिरिक्त विद्वत्ता आदि में कोई सामाजिक पहचान न बची थी। वैसे भवभूति ने अपने को ‘पंक्तिपावन’ बताया है किन्तु इस उपवर्ग के पूर्वजों में उनकी गिनती थी या नहीं यह कोई नहीं बता सकता। इनमें से वत्स-गोत्रीय लोग भगवत्पाद से पराजित होकर उनका शिष्यत्व स्वीकार करने वाले मण्डन मिश्र को अपने पूर्वजों में गिनते हैं।
मेरा परिवार इन्हीं पंक्तिपावन ब्राह्मणों में से हैं। पंक्तिपावन ब्राह्मणों की बिरादरी आकार में बहुत छोटी है और इसका हर आदमी किसी सर्वथा अपरिचित व्यक्ति से उसके गाँव और एक दो पीढ़ी ऊपर के नाम पूछ कर यह बता सकता है कि यह व्यक्ति बिरादरी का है या नहीं। मेरे पितामह पण्डित जयनारायण शुक्ल कोई दस बरस की उम्र में मामूली खेती और गोचारण के भविष्य से बचने और कुछ पढ़ने-लिखने की आशा में गाँव से भाग कर बस्ती चले आये थे और यहाँ एक अन्य पंक्तिपावन पण्डित उदित नारायण मिश्र, जो ज़ाहिर है कि उनसे साक्षात्कार के अभाव में भी पूर्वपरिचित थे, के साथ राजदरबार आने-जाने लगे जिनका राजदरबार में आना-जाना इस नाते था कि उनके पिता पण्डित हरदयाल मिश्र रानी दिगम्बर कुँवरि के मुख्य सहायक थे। उन दिनों रानी दिगम्बर कुँवरि के पौत्र महाराज पाटेश्वरीप्रतापनारायण सिंह बस्ती के राजा थे जिन्होंने मेरे पितामह को पढ़ने के लिए काशी भेजा। संस्कृत व्याकरण की कुछ शिक्षा प्राप्त करके मेरे पितामह बस्ती लौट आये और महाराज का काम-काज देखने लगे। ठाकुरद्वारे में निवास इसी सिलसिले में प्रारम्भ हुआ।
मेरे पितामह की पीढ़ी मेरे जन्म के पहले दिवंगत हो चुकी थी लेकिन ठाकुरद्वारे में हमारा रहना बरक़रार रहा। उस समय की एक स्मृति यह है कि मैं रात को सोते-सोते अचानक जग गया और मुझे साँस लेने तथा बोलने में बहुत कठिनाई होने लगी। पास-पड़ोस में मुसलमान कुँजड़ों की बस्ती थी, वे ही दौड़े आये और एक बूढ़ी महिला ने मेरा मुँह खोल कर कुछ टटोलने के बाद एक उँगली मेरे हलक़ में डाली जिससे थोड़ा खून निकला और मेरी कठिनाइयाँ दूर हो गयीं। कुछ देर बाद मैं जि़ला अस्पताल भी ले जाया गया और मेरे एक पितृव्य अपनी आश्वस्ति के लिए रास्ते भर मुझसे बहुत सारे श्लोक दुहरवाते गये; अस्पताल से मैं ‘सब ठीक है’ का प्रमाणपत्र लेकर घर लौट आया। बीमारी का नाम मैं आज भी नहीं बता सकता किन्तु मेरे कान में उस समय शायद ‘डिप्थीरिया’ शब्द पड़ा था। जो भी हो, उस समय तो उस अशिक्षित बालरोग-विशेषज्ञा ने ही मेरी प्राण-रक्षा की।
मेरे पितृव्य पण्डित जयदेव शुक्ल अंगरेज़ी ढंग पर और मेरे पिता पण्डित भूपदेव शुक्ल संस्कृत की पारम्परिक शिक्षा प्राप्त करने काशी भेजे गये थे और संयुक्त परिवार में से मेरे पितामह के बड़े भाई पण्डित शुभनारायण शुक्ल के पुत्र पण्डित सहदेव शुक्ल तथा पण्डित हरदेव शुक्ल ने भी काशी में क्रमशः ज्योतिष और वैद्यक की शिक्षा प्राप्त की। इन दोनों के सगे भतीजे पण्डित ऋषिदेव शुक्ल भी काशी से वेद की शिक्षा प्राप्त करके लौटे। पारिवारिक पुस्तक-संग्रह में इन सब लोगों की कई पुस्तकें अब भी मेरे पास हैं।
जहाँ तक मेरी अपनी स्कूली पढ़ाई की बात है, मेरी पहली स्मृति पढ़ने की नहीं, परीक्षा देने की है। अक्षरज्ञान मुझे कब कराया गया, मुझे स्मरण नहीं है किन्तु घर में कल्याण आदि पत्रिकाएँ तथा कुछ उपन्यास आदि पड़े रहते थे जिनको मैं पढ़ता रहता था। कुछ गिनती-पहाड़ा भी सिखाया ही गया होगा। बहरहाल छह बरस से सात बरस की उम्र के बीच में मैंने बस्ती में ठाकुरद्वारे के पास के प्राइमरी स्कूल में कक्षा चार की परीक्षा दी और पास होकर पूरे एक साल कक्षा पाँच में पढ़ा। उन दिनों ऐसे नियम नहीं थे जो कक्षा एक में प्रवेश की न्यूनतम उम्र निधर््ाारित करते हैं।
नाम लिखवाते समय नाम का चुनाव एक पारिवारिक विमर्श के तहत हुआ। नामकरण संस्कार के समय यह बताने के लिए कि मेरा जन्म तुला राशि में हुआ है, मेरा नाम ‘राकेश’ रखा गया था किन्तु लोकव्यवहार में ये राशिनाम इस्तेमाल में नहीं आते। घर में सब लोग ‘कुलकुल’ कह कर बुलाते थे जिसका कारण यह रहा होगा कि मैं दूध्ा पीते समय कुछ ऐसी आवाज़ निकालता रहा होऊँगा यद्यपि बाद में मुझे यह जान कर बहुत मज़ा आया कि सुराही से शराब ढालते समय जो आवाज़ होती है उसे फ़ारसी में ‘क़ुलक़ुल’ कहते हैं। यह ‘कुलकुल’ ही मेरा नाम था और तबतक बना रहा जबतक वे लोग जीवित रहे जो मुझे इस नाम से जानते थे। किन्तु स्कूल के लिए यह नाम ठीक नहीं माना गया और पिता तथा पितृव्यों ने मिल कर ‘वागीश’ नाम चुना जिसमें मेरी भी सहमति ली गयी। यह नाम दस्तावेज़ों में सिमटा रहा और अब तो सारी पहचानें ही दस्तावेज़ों में सिमटी हैं।
प्राइमरी स्कूल में कक्षा पाँच को पढ़ाने वाले हमारे स्कूल के प्रध्ाानाध्यापक मौलवी हबीबुल्लाह थे। बड़े मनोयोग से पढ़ाते थे जिसमें छड़ी का प्रचुर प्रयोग होता था यद्यपि मुझ तक वह कभी नहीं पहुँची। नाराज़ होने पर कुछ ऐसी बातें भी कहते थे जो आज कदाचरण में शुमार की जायेंगी। उदाहरण के लिए मेरे एक सहपाठी से उन्होंने पूछा कि फ़ीरोज़ाबाद क्यों प्रसिद्ध है। सही जवाब शायद था ‘चूडि़यों के कारोबार के लिए’ जो वह नहीं दे पाया। मौलवी साहब बोले, ‘हाँ, इसलिए कि तुम्हारी अम्मा वहाँ चैराहे पर नाचती हैं’। लेकिन पढ़ाते भी थे। इस वाक्य को समकालीन परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण वाक्य मानना चाहिए। माध्यमिक शिक्षा तक जो मेरे शिक्षक रहे वे विश्रुत विद्वान् नहीं थे किन्तु जिस कार्य के लिए वे नियुक्त थे उसके लिए सक्षम थे और ईमानदारी से उसे पूरा करते थे। आज के शिक्षा-जगत् में ये दोनों गुण दुर्लभ हैं।
प्राथमिक शिक्षा के बाद मैं छठी कक्षा में पढ़ने के लिए श्रीकृष्ण पाण्डेय माध्यमिक विद्यालय में भर्ती हुआ। इसमें अब बारहवीं तक की पढ़ाई होने लगी है किन्तु तब यह केवल दसवीं तक था। इसमें मेरे पिता संस्कृत के अध्यापक थे और उस हैसियत से मैं उनका छात्र भी रहा हूँ। निजी तौर पर उन्होंने मुझे स्थानीय संस्कृत पाठशाला में भी भेजा था जहाँ एक दिन सरस्वती-पूजन के बाद मैं लघुसिद्धान्तकौमुदी के कुछ सूत्र और उनकी वृत्ति रट कर आ गया। इस एकदिवसीय विद्यालय-गमन का कारण मेरी संस्कृत से विरक्ति नहीं थी अपितु एक संस्कृत विद्वान् के रूप में मेरे पिता के कटु अनुभव थे। वे अपने छात्र-जीवन में काशी के होनहार विद्यार्थी गिने जाते थे और मैं अपनी बनारस यात्राओं में जब भी उनके सहपाठियों से मिला, वे उनका बहुत सम्मान के साथ उल्लेख करते थे। इन सहपाठियों में पण्डित बदरीनाथ शुक्ल जैसों के नाम शामिल हैं जिन्होंने अपने जीवन भर मुझे मेरे पिता के नाते ही पितृवत् स्नेह दिया। किन्तु ससम्मान प्रथम श्रेणी में आचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण करके मेरे पिता जब घर लौटे तो जीविका का कोई ठिकाना न था। अन्ततः इसी विद्यालय ने, जो एक स्थानीय ज़मींदार श्रीकृष्ण पाण्डेय ने बस्ती में नया-नया खोला था, उन्हें संस्कृत अध्यापक के तौर पर नौकरी दी। विद्यालय एक व्यक्ति के वित्त-पोषण से चलता था अतः उसकी आर्थिक स्थिति कमज़ोर थी और मेरे पिता ने, जो पढ़ते समय पाँच रुपये मासिक की छात्र-वृत्ति पाते थे, प्रथम मासिक वेतन के रूप में चार रुपये पाये। बाद में मेरा भी कुछ ऐसा ही अनुभव रहा क्योंकि मैं बम्बई के टाटा इन्स्टीच्यूट आॅफ़ फ़ण्डामेण्टल रिसर्च में सीनियर विजि़टिंग मेम्बर के तौर पर छह सौ पचास रुपये मासिक पाता था और आई आई टी दिल्ली में अध्यापक के रूप में मेरा पहला वेतन एक वेतन-वृद्धि के एहसान के साथ पाँच सौ रुपये मासिक था।
बहरहाल, बात पढ़ाई की चल रही थी। सातवीं कक्षा में पहुँचने तक ठाकुरद्वारे का निवास छूट चुका था और हम लोग बीच बाज़ार में स्थित अपनी दुकान में रहने आ गये थे। इस निवास-परिवर्तन का कारण कोई वैमनस्य नहीं था अपितु यह था कि ठाकुरद्वारा मरम्मत के अभाव में रहने लायक नहीं रह गया था।
‘दुकान’ का कि़स्सा यह है कि मेरे पितृव्य पण्डित जयदेव शुक्ल कुछ अपनी अंगरेज़ी पढ़ाई के भरोसे और कुछ तत्कालीन महाराज ज्वालेश्वरीप्रतापनारायण सिंह से अपनी निकटता के नाते द्वितीय महायुद्ध के समय अंगरेज़ी सरकार द्वारा एक नागरिक पद पर नियुक्त हुए जिसका काम जनता को यह सिखाना था कि हवाई हमला होने पर बचाव कैसे करना चाहिए। मेरे बचपन में इस विषय पर भी शासन द्वारा वितरित की जाने वाली कुछ किताबें पड़ी हुई थीं जिन्हें मैंने पूरे मनोयोग से पढ़ा था। महायुद्ध समाप्त होने के बाद पुरस्कार-स्वरूप उन्हें एक मकान अलाट हुआ जिसमें कपड़े की एक दुकान खोली गयी जो यों तो उनके नाम थी किन्तु जिसका संचालन संयुक्त परिवार के दूसरे टुकड़े के हाथों में था।
जब हम लोग इस दुकान में रहने के लिए गये तब यह दुकान बन्द होने के कगार पर थी, यद्यपि उस समय तक कुछ कपड़ों का स्टाक वहाँ था और भूले-भटके कोई ग्राहक भी आ जाता था। हम लोग नीचे की मंजि़ल को दुकान के लिए छोड़ कर ऊपर की मंजि़ल में रहने लगे। शीघ्र ही यह दुकान टूट गयी और इसी के आसपास एक दूसरी दुकान भी जो होज़री की थी और जिसे कुछ अध्ािक कमाई की उम्मीद में खोला गया था। इसी के साथ हमारे परिवार की व्यापारिक महत्त्वाकांक्षाएँ समाप्त हो गयीं यद्यपि मेरे जो बड़े भाई इसे देखते थे वे न केवल इसके बल पर जीवन भर ‘दुकनिया के बाबू’ कहलाते रहे, अपितु इस अनुभव के भरोसे दो दुकानें उन्होंने बाद में भी खोलीं जो इसी तरह टूटीं। अस्तु, अब संयुक्त परिवार का दूसरा टुकड़ा गाँव पर रहने की घोषणा करके बस्ती छोड़ गया।
इस घोषणा का अर्थ यह था कि अब से बस्ती रहने का ख़र्च मेरे पिता के अल्प वेतन से ही निकलना था। मेरे पितृव्य पण्डित जयदेव शुक्ल वीतराग थे और ठाकुरद्वारे की एक बची हुई कोठरी में रहते चले आये किन्तु वहाँ भोजन की सुविध्ाा न बची थी। गाँव पर रहने वाले लोगों में से भी कुछ लोग घूमफिर कर राजदरबार में हाजि़री के बहाने यहीं रहते थे यद्यपि ज़मींदारी टूटने के बाद वहाँ ऐसा कुछ काम न बचा था जिसे वे सँभालते। परिवार के बच्चों की पढ़ाई भी बस्ती में ही होती थी। गाँव की खेती से एक दाना भी आ न पाता था क्योंकि उपज बहुत कम थी और वहीं पूरा न पड़ता था। इन सब कारणों से आर्थिक कठिनाई का वातावरण सर्वदा वर्तमान रहता था और यद्यपि हम लोग दरिद्र नहीं थे, उस मध्य वर्ग में भी नहीं थे जो उदारीकरण के बाद भारत में उभरा है। कुछ ‘अतिनिम्न मध्यवर्ग’ जैसा वर्गनाम शायद समाजशास्त्री दे सकें। हम सब लोग ऊपरी मंजि़ल में रहते थे और यद्यपि नीचे की मंजि़ल में बिजली का पंखा ग्राहकों की सुविध्ाा के लिए पहले से लगा हुआ था, उसका उपयोग निषिद्ध था ताकि बिजली का बिल अध्ािक न देना पड़े।
दुकान में रिहाइश के दौरान मेरी पढ़ाई में दो चीज़ें और जुड़ीं। पहली में कुछ पत्रिकाओं का नाम शामिल है जो शायद मेरे एक बड़े भाई जतन से छिपा कर रखते थे और जिनके नाते मेरा ‘अण्डरग्राउण्ड लिटरेचर’ से प्रथम परिचय हुआ। दूसरी में ढेर सारा उत्कृष्ट हिन्दी साहित्य शामिल है जिसकी घर में आवक का कारण यह था कि मेरे पिता भले ही व्यवहारतः नवीं-दसवीं के छात्रों को भी संस्कृत पढ़ा रहे थे, उनकी जाज्ज्वल्यमान आचार्य की डिगरी उत्तर प्रदेश शासन के एक आदेश के अनुसार उन्हें इसके लिए योग्य न बनाती थी और उनके पास एम.ए. की डिगरी होनी चाहिए थी। अतः अगले वेतनमान, एल.टी. ग्रेड, में पहुँचने की अर्हता पाने के लिए उन्होंने व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में सरकारी चाहत वाली यह डिगरी हासिल करनी चाही और विषय के रूप में हिन्दी का चुनाव किया। बाद में किसी अफ़सरी क़वायद में यह आदेश निरस्त हो गया और मेरे पिता को एम.ए. न करना पड़ा किन्तु इस बहाने घर में एम.ए. हिन्दी के लिए सारा साहित्य, जिसमें पाठ्यपुस्तकों के अतिरिक्त भी बहुत सी उत्कृष्ट सामग्री थी, आ गया।
हर कोई जानता है कि संस्कृत में आचार्य परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए जितनी योग्यता चाहिए उससे दशमांश से भी कम में संस्कृत में एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण की जा सकती है। किन्तु फिर भी भारत के स्वतन्त्र होने के बाद लगातार संस्कृत की शास्त्रीय शिक्षा का अपमान क्यों होता रहा है, इसकी चर्चा में न उलझ कर मैं आपके सवाल की ओर मुड़ता हूँ यद्यपि मेरे ‘परिवेश’ का यह एक ज़रूरी हिस्सा है।
मैं आठवीं कक्षा में था जब मेरे विज्ञान-शिक्षक मुझे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में बुलाने लगे जिसका वे ही संचालन करते थे। कुछ दिन बाद मैंने वहाँ जाना बन्द कर दिया जिसका कारण शायद व्यायाम-मूलक खेलों के प्रति मेरी अरुचि रही होगी किन्तु उनका स्नेह यथावत् रहा। वे बेहद मृदुभाषी और बहुत अच्छे शिक्षक थे।
इस बीच मकान मालिक की ओर से इस रिहाइश को छोड़ने का दबाव बढ़ने लगा और हम लोग एक परिचित के खाली पड़े मकान के एक हिस्से में बतौर किरायेदार आ गये। यह मकान ‘पठान टोला’ में पड़ता था और हम लोगों के पास दो बड़ी तथा एक छोटी, ये तीन कोठरियाँ थीं जिनमें से निचली मंजि़ल की बड़ी कोठरी रसोई के काम आती थी। शौचालय न था जिसे मेरे पिता ने पहुँच कर जगह के अभाव में दरवाजे़ के बाहर बनवाया और दरवाजे़ में घुसते ही जो थोड़ी सी खुली जगह थी उसमें हैण्ड पाइप लगवा कर जल की व्यवस्था की गयी- यही हमारा स्नानगृह भी था। किराया दस रुपये महीना था जो शायद रियायती ही रहा होगा किन्तु इससे अध्ािक दे पाने की स्थिति भी मेरे पिता की न थी। इस समय मैं नवीं कक्षा में आ गया था और हमारा विद्यालय भी, जो अब तक एक किराये के मकान में चलता था, अपने नये भवन में पहुँच गया।
‘नया भवन’ कहने से जो आशय है, उसे कुछ स्पष्ट करना आवश्यक है। हर शहर की तरह हमारे शहर में भी अंगरेज़ों ने प्रशासकीय रिहाइश पुरानी बसावट से दूर रखी थी। यह इलाक़ा अब तकनीकी तौर पर गाँध्ाीनगर कहलाता है किन्तु इसका प्रचलित नाम अभी भी ‘पक्के’ ही है क्योंकि पूरे शहर में केवल वहीं की सड़क पक्की थी। पुरानी बसावट, जिसमें हम तब रहते थे, आज भी ‘पुरानी बस्ती’ के नाम से जानी जाती है और उसका आखि़री छोर ‘दक्खिन दरवाज़ा’ कहलाता है क्योंकि हमेशा से नामौजूद शहरपनाह का दक्खिनी सिरा यही था। पक्के और दक्खिन दरवाज़े के बीच एक सड़क है जिसके दोनों तरफ़ उस समय सिर्फ़ खेत थे। उन्हीं खेतों में कुछ ज़मीन ली गयी थी जिसमें एक निर्माणाध्ाीन इमारत में हमारा स्कूल पहुँचा। खेल के घण्टों में हम सब विद्यार्थी श्रमदान कार्यक्रम के तहत ईंटें ढोते थे और विद्यालय बनता जाता था। अपने श्रम से बनाये विद्यालय में पढ़ने का गर्व मुझमें अभी भी वर्तमान है यद्यपि आज शायद इसे बाल-श्रम का क़ानूनी जामा पहनाया जाय।
नवीं में पहुँचने के साथ ही मुझे चश्मा लगा। हुआ यों कि किसी यात्रा के दौरान गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर मेरे पिता ने मुझसे प्लेटफ़ार्म पर लगी घड़ी देख कर समय बताने को कहा जो कुछ दूरी पर रहने के कारण मैं न बता पाया। उतनी बड़ी घड़ी से समय न बता पाना निश्चय ही दृष्टिदोष का सूचक था और यह आशंका जाँच में सही निकली। बाद में मुझे पिता जी ने बताया कि उनका भी चश्मा कुछ इसी प्रकार से लगा था। स्पष्टतः यों कि एक बार अपने सामने एक बुजुर्ग को देख कर न पहचानते हुए भी उन्होंने प्रणाम किया। ये बुजुर्ग महाराज पाटेश्वरीप्रतापनारायण सिंह थे। एक ब्राह्मण बालक द्वारा प्रणाम किये जाने पर एक ध्ार्मभीरु क्षत्रिय का आश्चर्य और ग्लानि स्वाभाविक थे और महाराज ने तुरन्त उनकी आँखों की जाँच करवा कर चश्मा बनवा दिया।
नवीं कक्षा में उन दिनों कला, विज्ञान, वाणिज्य, आदि ‘ध्ााराओं’ में से किसी एक का चुनाव करना पड़ता था जो भविष्य की आपकी शिक्षा का स्वरूप तय करता था। मेरे विद्यालय में कला के अतिरिक्त किसी ध्ाारा में तैरने की सुविध्ाा नहीं थी किन्तु मेरे पिता ने ‘साइंस’ के दबदबे के बावजूद मुझे किसी और विद्यालय में भेजना नहीं चाहा जिसका कारण शायद यह रहा हो कि मैं कुल ग्यारह बरस का था और वे अपनी निगरानी के बाहर मुझे नहीं भेजना चाहते थे। जो भी हो, मैंने अर्थ-शास्त्र, नागरिक-शास्त्र और संस्कृत के वैकल्पिक विषयों के साथ दाखि़ला लिया। अनिवार्य विषय गणित से भी बचने का रास्ता शायद था, किन्तु उसे पढ़ने की सुविध्ाा थी, अतः वह बना रहा।
नवीं में पढ़ते हुए ही मैंने अपनी पहली कविता लिखी जिसकी प्रथम पंक्ति थीः ‘पर्यंक-त्याग क्यों ओ बोले’। आगे की पंक्तियाँ मुझे याद नहीं हैं। मेरे ख़याल में छन्द या भाषा की दृष्टि से इस कविता में कोई त्रुटि नहीं थी किन्तु मैंने उसे न तो लिपिबद्ध किया न किसी वरिष्ठ साहित्य-प्रेमी को सुनाया, और वह मेरे कुछ सहपाठियों के ही बीच पढ़ी-सराही गयी। शायद कुछ और कविताएँ भी इसी भावभूमि पर रची गयी होंगी। इसी समय में जेब में इलायची-लोंग रखने लगा था जिसकी बहुत दिनों बाद परिणति तम्बाकू का पान खाने में हुई- यह आदत एकाध्ा बार छूटने के बावुजूद आज तक क़ायम है।
पण्डित उदित नारायण मिश्र का नाम ऊपर आ चुका है। उनके परिवार से हमारे परिवार की निकटता अभी भी वर्तमान है। इन मिश्र जी के पुत्र पण्डित बलराम प्रसाद मिश्र, ‘द्विजेश’ नाम से ब्रजभाषा में और ‘जैश’ नाम से उर्दू में कविता करते थे। मेरी समझ में वे रीतिकाल के अन्तिम महत्वपूर्ण कवियों में से थे और मैंने उस हैसियत से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की जन्म-शती पर भारत भवन द्वारा किये गये आयोजन में रीतिकाल पर बोलते हुए उनकी कविताओं को उद्धृत भी किया है। वे अच्छे सितार-वादक भी थे और महदी हसन समेत कई संगीत-कर्मियों के कैरियर में उनकी भूमिका रही है। मैंने नवीं-दसवीं में उन्हें शय्या-सीमित लाचार हालत में देखा है और मैं दसवीं में था जब उनका काशी-लाभ हुआ। ‘द्विजेश’ जी के पुत्र पण्डित प्रेमशंकर मिश्र, जिन्हें मैं ‘चाचा जी’ कहता था, भी अच्छे कवि थे तथा बस्ती और फिर अयोध्या, के साहित्य-समाज में संरक्षक की भूमिका उनकी बनी रही। वे मेरे इन्हीं स्कूली दिनों से मेरा उत्साह-वधर््ान करने लगे थे और अपनी साहित्यिक बैठकों में ताउम्र बुलाते रहे। ये मेरे पितृव्य पण्डित जयदेव शुक्ल के घनिष्ठ मिश्र थे।
दसवीं की परीक्षा मैंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी जो हमारे ‘पिछड़े हुए’ विद्यालय के लिए गौरव की बात मानी गयी। परीक्षा-परिणाम आने के बाद शहर में इसका कुछ चर्चा था और शायद मैंने भी इसी सुर में कहीं कुछ कह दिया जिसके लिए मेरे पिता जी ने मुझे बहुत डाँटा। स्कूल में एक पुस्तकालय भी था जिसकी अनेक पुस्तकों के साथ मैंने अलेक्जें़ण्डर ड्यूमा के ज्ीम ज्ीतमम डनेामजममते का हिन्दी अनुवाद तीन तिलंगे भी पढ़ा। इसका पता चलने पर मेरे एक शिक्षक ने इस उपन्यास पर मेरी प्रतिक्रिया जाननी चाही जिसका उत्तर समीक्षक के रूप में मेरे कैरियर की शुरुआत कहा जा सकता है।
इसी कक्षा में मैंने वाद-विवाद और निबन्ध्ा-लेखन जैसी प्रतियोगिताओं में कई पुरस्कार प्राप्त किये जिनमें विजेता को एक शब्दकोष देने का प्रचलन था किन्तु अनेक डिक्शनरियाँ देना बेतुका समझ कर पुरस्कार-हेतु पुस्तकों का चुनाव मेरे पिता पर छोड़ दिया गया जिन्होंने कई अन्य पुस्तकों के साथ हिन्दी अनुवाद-सहित काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण का भी चुनाव किया। पन्त जी की ग्राम्या भी मुझे इसी सिलसिले में मिली थी। इस समय प्राप्त शब्दकोष भी मेरे पास बहुत दिन तक रहे और मैंने इनसे बहुत काम लिया।
मैंने ऊपर अपने पिता के बारे में बताया है कि वे आठवीं कक्षा तक के छात्रों को पढ़ाने के वेतन-मान में दसवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों को संस्कृत पढ़ाते थे। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं था कि उनकी शास्त्र-पिपासा शान्त हो गयी थी। वे ग़मेरोज़गार से थोड़ी भी फ़ुरसत पाने पर अपने छात्र-जीवन में एकत्र की गयी पुस्तकों को अकेले में चुपचाप पढ़ा करते थे। इनमें व्याकरण, न्याय, अद्वैत वेदान्त आदि के प्रायः सभी आकर-ग्रन्थ थे और मैंने बाद में पाया कि उनमें से अनेक का मूल्य उनकी मासिक छात्रवृत्ति के बराबर तक जा पहुँचता था। आज मैं कोई छात्र नहीं बता सकता जो अपनी छात्र-वृत्ति का एक मामूली-सा भी हिस्सा पुस्तकों पर ख़र्च करता हो। बहरहाल, कहना यह है कि मेरे दसवीं पास करने के बाद गरमी की छुट्टियों में पहली बार उन्होंने मुझे कुछ ऐसा पढ़ाने की सोची जो वे मुझे पढ़ाना चाहते थे।
काशी के पण्डितों में अध्ययन का एक अलिखित वरीयता-क्रम था। प्रथम कोटि का छात्र व्याकरण पढ़ता था, द्वितीय कोटि का न्याय, फिर मीमांसा आदि आते थे, और बहुत बाद में कहीं साहित्य आता था; वेद सबसे अन्त में थे और मात्र जीविका-निर्वाह के लिए रटाये जाते थे। इस हिसाब से मेरे पिता प्रथम कोटि में थे किन्तु कुछ सोच कर उन्होंने पहले मुझे न्याय पढ़ाना शुरू किया। मैंने कुछ ध्यान न दिया और कोई दो सप्ताह बाद उन्होंने निराश होकर मुझे साहित्य पढ़ने के लिए कहा जिसके लिए ये ही काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण मुझे सौंपे गये चूँकि ये हिन्दी अनुवाद सहित थे। मैंने शास्त्र-विवेचन पर तो कोई ध्यान नहीं दिया किन्तु दोनों ग्रन्थों में श्ाृंगार-रस के जो भी उदाहरण थे वे मैंने याद कर लिए। मैंने क्या पढ़ा इसका कोई इम्तिहान मेरे पिता ने न लिया किन्तु साहित्य के अध्ययन में उपयोगी मान कर मुझे उन्होंने छन्दःशास्त्र का एक प्रारम्भिक ग्रन्थ श्रुतबोध्ा अलग से रटा दिया था जो कालिदास का लिखा है किन्तु जैसा कि मुझे बहुत बाद में पता चला, वह मूल ग्रन्थ का ‘अश्लीलांश-विवर्जित’ संस्करण था। थोड़ा बड़े होने पर जब मैंने पिता जी का पुस्तकालय खँगालना शुरू किया तो संस्कृत काव्यों और नाटकों के भी सभी आकर-ग्रन्थ मुझे उसी में मिले और मेरा यह भ्रम दूर हो गया कि उन्हें साहित्य में रुचि नहीं थी। किन्तु यद्यपि मेरे पास सभी शास्त्रों के आकर-ग्रन्थ मौजूद थे, शास्त्र गुरु के बिना नहीं पढ़े जा सकते और मैकाले की नाव में चढ़ने के बाद उसे किसी गुरु तक खे ले जाने का दम मुझमें नहीं रहा। मुझे इस बात का बेहद मलाल है कि मैं घर में ही गुरु की उपस्थिति से कोई लाभ नहीं उठा सका और विध्ािवत् शास्त्राध्ययन से महरूम रहा किन्तु मैं अपनी अक्षमता के आगे विवश था।
इन गर्मियों में ही मेरा जनेऊ हुआ। यह वेदारम्भ से समावर्तन तक के चार संस्कारों का एकांकी अभिनय था जिसमें एक विद्यार्थी के रूप में मुझे भिक्षाटन भी करना था। परम्परा के अनुसार पहली भीख मेरी मात ने दी, फिर एकत्र स्त्रियों ने और तब उपस्थित जनसमाज ने। अन्त में एक प्रहसन शामिल था, जिसमें मुझे उच्चतर विद्याध्ययन हेतु काशी भाग जाने की जि़द करनी थी और यह कह कर मुझे मनाया जाना था कि मेरा विवाह शीघ्र करा दिया जायेगा। यह सम्भवतः नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का हठ करने वाले बालक को गार्हस्थ्य की ओर उन्मुख करने का लौकिक प्रारूप होगा। अस्तु, गायत्री मन्त्र का उपदेश प्राप्त करने के बाद अब मैं द्विज हो गया था, जिसका व्यावहारिक अर्थ यह था कि मैं अब रसोई में घुसने का अध्ािकारी था और मेरा छुआ अन्न अन्य पंक्तिपावन ब्राह्मण ग्रहण कर सकते थे जिसके प्रमाण के रूप में मुझे उपस्थित सम्बन्ध्ाियों में से पाँच लोगों को भोजन परोसना था। इसी के साथ मेरा स्वयं का किसी पंक्तिपावन चैके से बाहर का अन्न खाना वर्जित हो गया था।
हमारा स्कूल दसवीं के आगे था ही नहीं और अब मुझे किसी दूसरे स्कूल में भेजना अनिवार्य हो गया। जि़ले का इकलौता सरकारी स्कूल भी उच्चतर माध्यमिक स्तर की शिक्षा देता था किन्तु उसमें कला के विद्यार्थियों को गणित पढ़ने की सुविध्ाा शायद न थी और मेरे पिता मुझे गणित पढ़ाना चाहते थे अतः इसके लिए ख़ैर काॅलेज का चुनाव किया गया, जो उन दिनों पढ़ाई के मामले में बस्ती का सबसे प्रतिष्ठित विद्यालय था। इसके संस्थापक अब्दुल ख़ैर नामक एक बड़े ज़मींदार थे। इसकी ख्याति का मुख्य आध्ाार इसके प्रध्ाानाचार्य मक़बूल (अहमद) साहब थे जिनकी जि़ले भर में मशहूर बेंत से मैं हमेशा बचा रहा और जिनका अपरिमित स्नेह मुझे तब तक प्राप्त रहा जब तक वे जिये। यद्यपि बारहवीं तक पहुँचते-पहुँचते मुझमें कुछ उद्दण्डता आ गयी थी और मैं कुछ कक्षाओं से हाजि़री के बाद उठकर सड़क पर घूमने निकल जाता था, मेरे अध्यापकों ने मुझे कोई दण्ड न दिया और प्रिन्सिपल साहब के कानों तक भी यह बात न पहुँची।
यहाँ मैंने हिन्दी और अंगरेज़ी के अनिवार्य विषयों के साथ गणित, संस्कृत और इतिहास विषयों का चुनाव किया। अंगरेज़ी की पढ़ाई कुछ रुकावटों के साथ शुरू हुई। हुआ यों कि हमारे अध्यापक अनवारुल हक़ साहब ने शेली की । स्ंउमदज कविता को प्रथम पाठ के रूप में पढ़ाना शुरू किया यद्यपि पाठ्य-पुस्तक के हिसाब से उसे कहीं बारहवें दरजे में जाकर पढ़ना था और उसमें तल्लीन होकर बहुत समय बिता दिया जिसके बाद वे जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली में अध्यापक होकर चले गये और फिर हमारे सेक्शन को अंगरेज़ी पढ़ाने वाला कोई न था। फिर कोई महीने भर बाद इफ़्ितख़ार अहमद साहब आये जिन्होंने भी अपनी कोई प्रिय कविता लेकर कुछ समय बिताया और ये भी किसी अन्य पद पर नियुक्त होकर चले गये। इसके बाद जो अंगरेज़ी के अध्यापक आये उनका नाम इस समय याद नहीं है किन्तु उन्होंने पाठ्य पुस्तक को नियमित क्रम से शुरू और ख़त्म किया। एक छात्र के रूप में शायद मुझे पहले दोनों अध्यापकों से पढ़ने में जि़यादा मज़ा आया था।
ख़ैर कालेज का वातावरण कुछ भिन्न था। परिसर में एक मस्जिद थी और शुक्रवार का मध्यावकाश डेढ़ घण्टे का होता था। बहुत से सहपाठी उर्दू-भाषी थे। उर्दू साहित्य में मेरी रुचि का बीज कुछ पहले से वर्तमान था, जो यहाँ अंकुरित हुआ यद्यपि उसको सही ढंग से पढ़ने की क्षमता मुझमें बहुत बाद में आयी जब मैंने लिपि सीखी।
इस समय मेरी चोटी बहुत लम्बी थी और मेरे एक सहपाठी फ़ज़्लुल हक़ मुझे देखते ही ‘मैया कबहिं बढ़ेगी चोटी’ पढ़ना शुरू कर देते थे। इस तरह की कुछ और छेड़खानियाँ भी होती थीं किन्तु इन सबसे किसी कटुता की उपज नहीं हुई और तब से अब तक मुझे यह हँसी-खेल ही लगा। सिर्फ़ एक बार की खटक मुझे याद है जब शायद 1960 में पहली बार हाकी में भारत को पाकिस्तान ने पराजित किया और मैंने कुछ चेहरों पर सन्तुष्टि का भाव देखा।
दसवीं के परीक्षा-परिणाम के चलते किसी सरकारी योजना के तहत मुझे सोलह रुपये मासिक की एक छात्रवृत्ति मिली थी, जो घरेलू बजट में एक गण्य योगदान की हैसियत से शामिल हुई। घर से यह विद्यालय दूर था और शुरुआत में मुझे पचीस पैसे रिक्शा किराये के मिलते थे किन्तु यह शीघ्र ही भारी बोझ साबित हुआ और मैं पैदल आने-जाने लगा। कुछ देर से घर लौटने के बावजूद घर पहुँचते ही पढ़ाई शुरू करनी पड़ती थी, विशेषतः इसलिए कि गणित के सवाल हल करने होते थे और कुंजियों का उपयोग तब ‘अण्डरग्राउण्ड’ हुआ करता था जिस तक कुछ कामचोर विद्यार्थी ही पहुँचने की कोशिश करते थे। घर पर पढ़ाई का यह तरीक़ा था कि दो चटाइयाँ आमने सामने ज़मीन पर बिछती थीं और बीच में एक ईंट के ऊपर एक लालटेन रखी जाती थी। गाँव की तरफ़ से भी कुछ विद्यार्थी मेरे ही यहाँ रहकर पढ़ते थे और अलग-अलग कक्षाओं तथा स्कूलों के हम छह विद्यार्थी एक साथ अपनी किताबों-कापियों से जूझते थे। कक्षा की दृष्टि से इस घरेलू विद्यालय में मैं वरिष्ठ था और पढ़ाई के समय गुरु की भूमिका में होता था किन्तु रात को सोते समय यह भूमिका उलट जाती थी क्योंकि इनमें से कुछ विवाहित थे और दाम्पत्य में अर्जित वह ज्ञान बाँटने में समर्थ थे, जो मेरे पास न था।
शायद यह समझाने की ज़रूरत पड़ेगी कि ये लोग कैसे मेरे यहाँ रहकर पढ़ते थे। उन दिनों लोग अपने बच्चों को परिचितों के अभिभावकत्व में छोड़ देने का अध्ािकार भी रखते थे और भरोसा भी। छात्रावास जैसी चीजे़ं हमारे शहर में न थीं, न ऐसे अभिभावक-रहित वातावरण में किसी को यक़ीन ही था। मेरे पिता को सभी अपने से अच्छा अभिभावक मानते थे और हमारे घर में चटाई पर लुढ़का रहना अपने बच्चों के लिए बिस्तर पर लेटने से अध्ािक हितकर मानते थे। कोई न कोई बराबर अपने बेटे को हमारे यहाँ पढ़ने के लिए छोड़े रहता। इनमें बड़े ज़मींदारों से लेकर छोटे किसानों तक के लड़के शामिल थे और साथ ही रहते थे। जो जीवित बचे हैं, वे आज भी मेरी माता से प्राप्त भोजन और स्नेह को कृतज्ञता-पूर्वक स्मरण करते हैं। जहाँ तक विवाहित होने की बात है, लड़कों की शादी प्रायः सत्रह-अठारह की उम्र तक कर दी जाती थी और प्रायः सभी दूल्हे विद्यार्थी ही होते थे।
हमारे क़स्बे में नगरपालिका द्वारा स्थापित एक वाचनालय था, जिसमें रोज़ शाम को मैं जाकर दैनिक समाचार पत्र और पत्रिकाएँ पढ़ा करता था। ध्ार्मयुग में उन्हीं दिनों बच्चन जी की ‘लाडो बाँस की बनाऊँ बँसिया कि लठिया’ से शुरू होने वाली कविता छपी थी, जिसका मैंने बारहवीं की परीक्षा देते समय हिन्दी के परचे में हिन्दी के आध्ाुनिक साहित्य पर निबन्ध्ा लिखने में उपयोग किया था। जिस संस्कृत विद्यालय में मैं एक दिवसीय अध्ययन कर चुका था, उसमें भी एक पुस्तकालय था जिसका सदस्य न होने के नाते मैं उसे वाचनालय की तरह इस्तेमाल करता था। देवकीनन्दन खत्री के सारे उपन्यास मैंने वहीं पढ़े। इध्ार मेरी अंगरेज़ी अच्छी करने के चक्कर में मेरे पिता ने ‘ब्लिट्ज़’ नामक साप्ताहिक मेरे लिए मँगवाना शुरू किया जिसका दाम तब पचीस पैसे हुआ करता था। अंगरेज़ी की योग्यता में जो भी परिवर्तन आया हो, इस साप्ताहिक की गुलाबी प्रगतिशीलता मुझमें गदहपचीसी तक हावी रही। जिनका परिचय इस ‘गदहपचीसी’ शब्द से नहीं है, उनकी जानकारी के लिए बता दूँ कि यह मनुष्य-जीवन के प्रारम्भिक पचीस वर्षों के काल-खण्ड का नाम है जिसमें मनुष्य अपने को सर्वज्ञ और शेष सभी को मूर्ख मानता हुआ बिना किसी की परवाह किये गध्ो की तरह रेंकता हुआ सबको बताता रहता है कि दुनिया को कैसे चलाना चाहिए और जिसके बीतने के बाद दुनिया उसे चलाने लगती है। कुछ लोग उम्र बीतने के बाद भी इस मनःस्थिति से नहीं उबर पाते और पर-उपदेश करते ही रह जाते हैं- इन्हें अंगरेज़ी में ‘पब्लिक इण्टेलेक्चुअल’ कहा जाता है।
बारहवीं की परीक्षा देते समय एक विचित्र समस्या से सामना करना पड़ा। हम लोगों की गणित शिक्षा का माध्यम हिन्दी था, जिसका तात्पर्य यह था कि पुस्तक में ‘साइन’ की जगह ‘ज्या’ और ‘कोसाइन’ की जगह ‘कोज्या’ आदि लिखा होता था। अध्यापक बोलते हिन्दी में थे किन्तु तकनीकी अंश अंगरेज़ी में लिखते थे। परीक्षा में जो परचा आया, वह था तो एक ही किन्तु विकल्प के आध्ाार पर अंगरेज़ी और हिन्दी दोनों में था। विकल्प की बाध्यता के चलते मैंने उत्तर हिन्दी में लिखने शुरू किये किन्तु जब भी अभ्यासवश ेपदम लिखूँ, काट कर ‘ज्या’ लिखना पड़े। आध्ो घण्टे से ऊपर बीत गया, और मैं इस लिखने-काटने में ही फँसा रहा। अन्त में घबड़ा कर मैंने सब काट-कूट कर पूरी तरह अंगरेज़ी में ही परचा हल करना शुरू किया और ईश्वर-कृपा से बचे समय में भी पूरा परचा हल कर पाया। क़स्बाई साँसों को महानगरीय हवा में झोंकने का यह दुस्साहस परीक्षा परिणाम आने तक मेरी रातों की नींद हराम करता रहा क्योंकि मुझे भय था कि मेरी अंगरेज़ी कमज़ोर साबित होगी और मेरे नम्बर कट जायेंगे।
परीक्षा के बाद की गर्मियों में मेरी एक बहिन का विवाह हुआ। हमारी बिरादरी में उस समय तक दहेज़ का प्रचलन नहीं था किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि बेटी की शादी में कुछ ख़र्च ही नहीं होता था। इस विवाह के वित्तपोषण की जिन लोगों ने प्रतिज्ञा की थी, वे सब विवाह के पाँच दिन पूर्व रिक्तपाणि कलहरत दिखे और लम्बी गर्मागर्म बहस का कोई परिणाम न निकलता देख कर मेरे पिता ने यह जि़म्मा उठा लिया। इसे पूरा करने के लिए वे अब तक की नौकरी में बचाये सत्रह सौ रुपये डाकख़ाने से निकाल लाये तथा प्रायः हर परिचित से सौ दो सौ रुपयों का उध्ाार इकट्ठा किया, जिसे चुकाने में कई बरस लगे। विवाह सकुशल सम्पन्न हुआ किन्तु पहली बार मैंने संयुक्त परिवार में आ चुकी असंयुक्तता का प्रत्यक्ष और दुस्सह अनुभव किया।
इस सारी स्कूली पढ़ाई के दौरान गर्मियों की छुट्टियाँ अध्ािकतर गाँव में बीतती थीं, कभी वह मेरा अपना गाँव होता था, कभी मेरे ननिहाल का गाँव बेलवा (तिवारी), जो गोरखपुर (अब नये बन गये जि़ले महराजगंज) में है। ननिहाल से जब भी लौटता, मेरी बोली का पुरबिहापन और चटक रहता जिसके लिए मेरे बड़े भाई लोग मुझे चिढ़ाते। भैंस को उसकी पीठ पर बैठे हुए चराना जैसे मज़े मैंने अपने ममेरे भाइयों के साथ ही किये हैं। घुघली स्टेशन पर ट्रेन रात को पहुँचती थी और हम सब प्लेटफ़ार्म पर चादर बिछाये हुए मामा द्वारा भेजे गये ‘टायर’ की प्रतीक्षा करते थे, जो पौ फटने के पहले हमें गाँव तक पहुँचा देती थी। ‘टायर’ एक बैलगाड़ी होती थी, जिसमें पहिये पुराने टायरों के होते थे। यह हमारी तरफ़ की लकड़ी के बने पहियों वाली बैलगाडि़यों से अध्ािक चैड़ी और सुविध्ााजनक होती थी। कभी-कभार गाड़ीवान की बग़ल में बैठकर मैं गाड़ी हाँकने की डींग मारने में भी समर्थ होता था। अपने गाँव पर कभी-कभार हेंगे पर खड़ा होकर खेत की मिट्टी बराबर करने और ‘दौरी चलाने’, अर्थात् बाँस की बड़ी टोकरी में बँध्ाी रस्सी पकड़ कर दूसरी ओर की रस्सी पकड़े हुए बच्चे के सहयोग से तालाब से पानी उलीच कर खेत सींचने, के अतिरिक्त कोई कृषिकार्य नहीं किया। दोनों जगह अध्ािकतर समय भाभियों के बीच चुहलबाज़ी में बीतता था।
परीक्षा-परिणाम आशानुरूप अच्छा ही आया और मेरे पिता ने अब मुझे विश्वविद्यालयीय पढ़ाई के लिए प्रयाग भेजने का निश्चय किया। बचपन और स्कूल, दोनों ही पीछे छूट चुके थे।
उदयनः आप बचपन के अपने मित्रों के बारे में कुछ बताइये। आप बचपन के उन दिनों में पढ़ने के अलावा और क्या-क्या किया करते थे, मेरा मतलब है कि क्या आप कोई ऐसा खेल भी खेलते थे जिसमें आप अपने दोस्तों के साथ समय गुज़ारते हों?
वागीश जीः पढ़ाई और रोज़गार के सिलसिले में जगहें और इर्दगिर्द बदलते रहते हैं और इस प्रकार हम सतत विस्थापित होते रहते हैं। मैं इस विस्थापन की प्रक्रिया से बहुत नैरन्तर्य में नहीं गुज़रा हूँ, किन्तु काल-प्रवाह में बहना हर आदमी की मजबूरी है। मेरे कई मित्र लगभग पचास बरस से मेरे मित्र हैं किन्तु ज़ाहिर है कि इसका यह भी एक कारण है कि देशकाल ने हमारी पारस्परिकता को सम्भव बनाये रखा है।
बचपन के कुछ दोस्तों के नाम याद रह गये हैं। हरेराम नाई थे, उनकी पत्नी को मैं उनके विवाह के पहले से जानता था और विवाह होने के बाद पूरी अकड़ के साथ ‘भौजी’ के पद पर आरूढ़ होकर उन्होंने मेरे कर्तव्यों और अपने अध्ािकारों को पुनः परिभाषित किया। अब ये दोनों इस दुनिया में नहीं हैं। मेरे घर पर रहकर पढ़ने वाले ठाकुर ध्ाीरेन्द्र पाल हैं, जो अपनी ज़मींदाराना ठसक से बेख़बर कच्चे फ़र्श पर बेतकल्लुफ़ पालथी मारे हाथ में रोटी लेकर खाते हुए फूले नहीं समाते थे- वे बनारस में बस गये और कुछ बरसों तक अगर संयोगवश हम दोनों बस्ती में मौजूद हुए तो मिल जाते थे मगर इध्ार अरसा हो गया कोई ख़बर नहीं है। मेरे घर पर रहकर ही पढ़ने वाले रामसबद यादव हैं जो हमेशा इस ताक में रहते थे कि कब नमक या माचिस की ज़रूरत पड़े और वे किताब बन्द कर बाज़ार की ओर भागें; ये अभी-भी गाँव जाने पर दिख जाते हैं। किन्तु जिन दोस्तों से अभी-भी सम्पर्क है, वे प्रायः सभी मेरे वयस्क होने के बाद मिले हैं।
हाँ, मेरे एक ‘बचपन के मित्र’, जो बचपन से आज इस बुढ़ापे तक मेरे मित्र हैं और बराबर मिलते हैं, अम्बिकेश्वर मिश्र हैं, जो पूर्वोल्लिखित ‘द्विजेश’ जी के प्रपौत्र हैं। इनके साथ कैशोरोन्मेष के रोमांच में अभी-भी वापसी मुमकिन हो जाती है। इनके पितामह पण्डित उमाशंकर मिश्र, जो ‘द्विजेश’ जी के बड़े पुत्र थे, उस इकलौते खेल में मेरे दीक्षागुरु थे, जिसे मैं खेलना चाहता था। यह खेल शतरंज का था। मैंने जिस रूप में इसे सीखा था, वह ‘अन्तर-राष्ट्रीय’ नहीं है, पुराना तरीक़ा था जिसे आप ‘फ़ारसी’ तरीक़ा कह सकते हैं; इसमें ‘क्वीन’ नहीं थी, ‘वज़ीर’ था। लेकिन फिर इस तरह से खेलने वाले लोग नहीं मिले और मेरी दिलचस्पी इतनी गहरी नहीं रही कि मैं ऐसे बुजुर्गों की तलाश में भटकूँ जो मुझे इसका अभ्यास कराते रह सकें। यों, मैंने गुल्ली-डण्डा भी खेला है और मेरे पितृव्य मेरे लिए क्रिकेट का बल्ला भी लखनऊ से लाये थे, भले ही हम ‘विकेट’ का काम ईंटों के एक ढेर से लेते थे।
‘वक़्त गुज़ारने’ के लिए मेरी पसन्द किताबें ही रही हैं और इनमें लुगदी से लेकर उच्चभ्रू तक का साहित्य शामिल है। इसके बाद गपबाज़ी ही रही है, जिसमें मुझे लड़कपन में बुजुर्गों से बात करना अच्छा लगता था और अब बुढ़ापे में नौजवानों से बात करना अच्छा लगता है।
उदयनः आपने स्कूल से आगे की पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से की है। आपके समय में वहाँ का परिवेश कैसा था? उन दिनों इलाहाबाद में कई हिन्दी और उर्दू लेखक भी रहा करते थे। क्या आपकी उनसे भी भेंट हुआ करती थी? क्या बातें हुआ करती थीं?
वागीश जीः अपना ‘परिवेश’ तो कुछ हद तक मैं अपने साथ बस्ती से ले कर ही चला था। मेरे एक मौसा जी इलाहाबाद में दारागंज मुहल्ले में रहते थे। वहाँ एक मन्दिर था जिसका नाम ‘समाध्ाी जी का मन्दिर’ था। इसके महन्त जी की शायद कुल आमदनी इस मन्दिर की कोठरियों को किराये पर उठाने से ही थी। इसी की एक कोठरी में मेरे मौसा जी किराया अदा करने के अलावा मन्दिर के अवैतनिक पुजारी की हैसियत से अपनी सेवा देने के बदले रहा करते थे। उनके परिवार में मेरी मौसी के अलावा उनके पुत्र और पुत्रवध्ाू थे जो मेरे भैया-भाभी हुए। मेरे मौसा और भैया दोनों ही छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर घर ख़र्च चलाते थे और उनकी आर्थिक स्थिति हमसे भी कमज़ोर थी। लेकिन दिल बहुत बड़ा था और हमारी बिरादरी के राजा-रंक-फ़क़ीर तीर्थ-यात्रा से लेकर हाईकोर्ट-यात्रा तक के सिलसिले में इलाहाबाद पहुँचने पर उन्हीं की कोठरी के सामने वाले बरामदे में रसोई से बची जगह में पड़ाव डालते थे। इन्हीं के यहाँ हम लोग पहुँचे।
‘हम लोग’ से मतलब मैं और मेरी माता। गये तो हमलोग मौसा जी के यहाँ ही थे किन्तु दीर्घकालिक निवास के लिए ज़ाहिर है कि जगह नहीं थी। उनकी कोठरी के ठीक बग़ल में एक छोटी कोठरी ख़ाली थी, जो हम लोगों ने किराये पर ले ली। शीघ्र ही मेरी माता ने यह महसूस किया कि भोजन का भार मौसा जी पर डालना अन्याय होगा और हमने अपनी रसोई अलग कर ली जिसमें मेरे एक सहपाठी विश्वनाथ मिश्र भी शामिल थे, जो बस्ती से हमारे ही भरोसे हमारे काफि़ले में शामिल हो गये थे। उनको भी बग़ल की एक कोठरी मिल गयी। तीन कोठरियों, तीन परिवारों, और दो रसोइयों वाली इस इकाई में जितना अपनापन था, बहुत से संयुक्त परिवारों में दुष्प्राप्य है।
अपनापन भरपूर था, लेकिन मुड़ कर देखने पर बहुत से रिक्त स्थान दिखायी देते हैं जिनकी पूर्ति के बिना आज मेरी रहन में सहन मुश्किल होगी। मन्दिर में बहुत से किरायेदार थे और शौचालय के नाम पर पिछवाड़े जो टूटा-फूटा निर्माण था, उसमें जाने का साहस कुछ कुलीन वीरांगनाओं की विवशता ही दिला पाती थी। दारागंज की अध्ािकांश जनता के जुलूस में शामिल हम मन्दिर के मर्द रहबासी सुबह-शाम लोटा हाथ में लिए उस मैदान में जाया करते थे, जिसमें मेला लगता है। निकटतर विकल्प रेलवे का पुल था, जो विश्वविद्यालय पहुँचने की दूरी को भी कुछ कम कर देता था। पानी के लिए मन्दिर में एक कुँआ था, जिसकी बँध्ाान स्नानगृह का भी काम देती थी। इसकी तली से पानी खींच लेने में सहायता के लिए एक चर्खी लगी थी- इसी में से घड़ा-बालटी भर कर घर के भीतर रसोई से लेकर स्त्रियों के नहाने तक के लिए पानी बटोरा जाता था। मेरी कोठरी में एक चटाई भर की जगह थी जिस पर सिर गड़ाये मैं तब तक एक लालटेन के सहारे पढ़ता रहता था जब तक सोने का समय न हो जाय और फिर वह चटाई बिस्तर का काम देती थी। किसी और फर्नीचर के लिए न जगह थी, न पैसा था। लेकिन एक कस्बाई किशोर के लिए यह सब न अप्रत्याशित था न कष्टप्रद।
उन दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय उत्तर भारत का सर्वाध्ािक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय था। हम लोग इस ‘भारत के आक्सफ़ोर्ड’ में घुस पाने पर सीना फुलाये रहते थे यद्यपि हमें यह पता नहीं था कि ‘आक्सफ़ोर्ड’ होने में क्या गौरवास्पद है। मैं जब प्रवेश के लिए आवेदन करने गया और अँगरेज़ी, गणित तथा संस्कृत विषयों के चुनाव के साथ फ़ार्म भरा तो मुझे उम्मीद नहीं थी कि यह चुनाव स्वीकृत हो जायेगा और प्रवेश मिलने पर राहत की जो साँस मैंने ली, वह आज भी याद है।
पढ़ाई का ख़र्च एक बड़ी समस्या थी और बस्ती में मेरे पिता द्वारा मुझे इलाहाबाद भेजने की सोचना उनके दुस्साहस का ही प्रमाण माना गया था। मुझे प्रवेश के बाद एक दिन अचानक यह सूचना मिली थी कि मैंने बारहवीं की परीक्षा में उत्तर प्रदेश में प्रथम स्थान प्राप्त किया है और खुशी के मारे मैंने घर पर तार भेज दिया जिसका पहुँचना एक बड़ी बेचैनी का सबब हुआ क्योंकि तार प्रायः केवल अशुभ समाचार भेजने के काम आते थे। कुछ अंगरेज़ीदाँ लोगों ने तार पढ़ कर जब असली ख़बर सुनायी तो मेरे पिता ने जो पत्र मुझे भेजा उसका आशय यह था कि अगर यह ख़बर झूठी निकले तो मुझे मायूस नहीं होना चाहिए। कुछ समय बाद इसका एक भौतिक लाभ भी सामने आया जब भारत सरकार ने ‘नेशनल स्काॅलरशिप’ नाम से एक छात्रवृत्ति प्रारम्भ की और मेरा चयन उसके लिए स्वतः ही हो गया। यह वज़ीफ़ा बहुत राहतबख़्श था- बी.ए. में पढ़ते हुए पचहत्तर रुपये महीना, एम.ए. में जाने पर सौ रुपये महीना और रिसर्च करने पर दो सौ रुपये महीना मिलने का वादा था। शर्त केवल एक थी- हर साल प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होना था। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के मेरे पाँच साल इसी के भरोसे मेरे पिता को मेरी पढ़ाई के चलते बिना किसी गम्भीर आर्थिक संकट में डाले गुज़रे।
इन पाँच वर्षों में मैं ‘डेलीगेसी’ छात्र रहा, अर्थात् मैं छात्रावास में नहीं रहा और इस पूरी अवध्ाि में मेरी माता मेरे साथ रहीं अतः ‘घर से बाहर’ होने का आभास नहीं हुआ। बी.ए. का दूसरा साल बीतते-बीतते एक सुयोग के तहत चैथम लाइन्स में एक बहुत बड़े मकान में रहने को मिल गया। यह बहराइच की एक रियासत का पुराना मकान था, जिसका एक हिस्सा मेरे एक सहपाठी को रखवाली के नाम पर रहने को दिया गया और हम लोग उनके साथ नत्थी हो गये। अब बड़ा-सा हाता था, पेड़ थे, बड़ा कमरा था और यहाँ तक कि पानी की एक टोंटी थी। सबसे बढ़ कर बिजली थी चाहे उसके पुराने पीतल मढ़े स्विच इस्तेमाल के समय झटका देते थे। मेरे साथ ध्ाीरे-ध्ाीरे दो तीन और सहपाठी हमारी रसोई में शामिल हो गये और बस्ती का परिवेश कुछ और घना हो गया। इलाहाबाद पहुँचते समय गेहूँ सत्रह रुपये मन था और छोड़ते समय सत्ताइस रुपये मन, लेकिन वे दिन अभी कुछ आगे आने वाले थे, जब ऐसी गणनाएँ मेरी दैनन्दिन चिन्ता का विषय होतीं।
वज़ीफ़े और गोल्ड मेडल के साथ ही मेरा शुमार अब बी.ए. प्रथम वर्ष के पढ़ाकू छात्रों में था और मेरे कई पढ़ाकू सहपाठी मेरे मित्र बन गये। इनमें से सन्तोष खरे मेरे बहुत घनिष्ठ मित्र रहे और इनसे मैं दो चार बार दिल्ली में भी मिला हूँ, जब ये भारतीय विदेश सेवा में अफ़सरी करते हुए कभी-कभार मन्त्रालय के किसी कमरे में आबाद हुए। इनके पिता पुलिस के बड़े अफ़सर थे, शिक्षा कान्वेण्टी थी, पले-बढ़े लखनऊ में थे और इस प्रकार हम मध्यवर्ग के दो छोरों पर थे। मैं कमीज़ और पाजामा पहनता था, इन्होंने मुझे समझाया कि पाजामा के साथ कुर्ता और कमीज़ के साथ पैन्ट पहना करो। इस नसीहत पर मैंने साल भर बाद अमल किया जब पुराने कपड़े फट जाने के नाते नये कपड़े सिलाने की मजबूरी सामने आयी और इस प्रकार दूसरे साल में मैं हाफ़ बुश्शर्ट और पैण्ट में हो गया। इनका ‘पढ़ाकूपन’ भी जि़क्रतलब है। ये ‘साइन्स’ के विद्यार्थी थे, किन्तु चमचमाते परीक्षा-परिणाम के बावजूद इन्होंने बी.ए. में दाखि़ला लिया क्योंकि ‘बी.एस.सी. में पढ़ना पड़ता’। शुरू में इनके भी वे ही विषय थे, जो मेरे थे किन्तु इन्होंने गणित भी इसी ‘पढ़ना पड़ेगा’ के तर्क पर छोड़ दी और राजनीति-विज्ञान ले लिया। अब ये अंगरेज़ी और संस्कृत में मेरे सहपाठी रह गये थे। संस्कृत शायद ही इन्होंने कभी पहले पढ़ी होगी। बहरहाल, हम लोग ‘सेमिनार’ कक्षाओं में, जिन्हें ट्युटोरियल समझना चाहिए, हाजि़री ख़त्म होते ही छुट्टी माँग कर निकल जाते थे। ‘लेक्चर’ के दौरान हम पिछली बेंच पर बैठते थे और प्रायः एक दूसरे की काॅपियों पर कुछ-न-कुछ - मसलन चिरकीन के शेर- लिखा करते थे। इम्तहान में ये कम हाजि़री की बदौलत बड़ी मुश्किल से बैठ पाते थे। परीक्षा के कोई एक महीने पहले, फ़रवरी में एक दिन नारियल फोड़ कर ये पढ़ाई शुरू करते थे। बी.ए. के दूसरे साल में हमारे कोर्स में शेक्सपियर की ज्ूमसजिी छपहीज थी, जो उनके पास थी नहीं और इम्तिहान के एक दिन पहले उन्होंने मुझसे माँग कर कुछ उलटा-पलटा। बहरहाल, ये बी.ए. का गोल्ड मेडल मुझसे छीनने में कामयाब रहे यद्यपि पहले साल में मैं ही शीर्ष-स्थान पर था। यह दूसरी बात है कि मैंने कभी इसका श्रेय इनको नहीं दिया और हमेशा इनसे यही कहा कि अगर मेरा गणित का परचा ख़राब न हुआ होता तो तुम कभी मुझसे आगे न बढ़ पाते। इनके कई राज़ नश्वरता का ध्ार्म-निर्वाह करते हुए मेरे साथ इस दुनिया से चले जायेंगे।
कई और दोस्त भी थे- एक और सन्तोष कुमार थे, जो फि़राक़ साहब के घर आने-जाने लगे और उनके चटपटे कि़स्सों को हमारे उत्सुक कानों तक पहुँचाने लगे। कई से बाद में मैत्री की पुनः स्थापना हुई- इलाहाबाद में हिन्दी के आखि़री झण्डाबरदार सत्यप्रकाश मिश्र इन्हीं में से हैं और उदय प्रकाश अरोड़ा भी जो प्राचीन इतिहास में प्रोफ़ेसर हुए और प्राचीन यूनान के भारत-विख्यात विशेषज्ञ के रूप में जाने गये। मेरे सभी अध्यापकों का वात्सल्य मुझे प्राप्त था- इनमें डाॅ. बनवारी लाल शर्मा विशेष उल्लेखनीय हैं, जो सर्वोदयी आदर्शों के प्रति अपनी अखण्ड प्रतिबद्धता के नाते भी अनेक की श्रद्धा के अध्ािकारी थे। मेरे सहपाठी और मित्र राम जी लाल श्रीवास्तव ने इलाहाबाद के गणित विभाग को बड़ी ऊँचाई तक पहुँचाया और शोध्ा तथा अध्यापन के क्षेत्र में मेरे आदर्श हैं।
अंगरेज़ी विभाग में फि़राक़ साहब का एक विशेष व्याख्यान सुनना और सिनेट हाल में आयोजित एक मुशाइरे में उनकी भागीदारी का गवाह बनना भी मेरे नसीब में रहे। किन्तु इलाहाबाद के सर्वप्रसिद्ध साहित्य-जगत् से मेरा परिचय कुछ ऐसा ही दर्शक-दीर्घा का परदा पकड़ लेने का रहा। निराला जी के दर्शन का साहस बटोरते-बटोरते उनके देहान्त की ख़बर आ गयी। पढ़ते हुए साहित्यिक चर्चा जिस एक विभूति से हो पाती थी, वे मेरे गणित के अध्यापक प्रोफ़ेसर त्रिविक्रम पति थे, जो संस्कृत के आशु कवि थे और बाद में पुरी के संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति हुए। मेरे इनके बीच पुल बनाने का काम संस्कृत ने ही किया यद्यपि अंगरेज़ी विभाग में भी इनका बहुत सम्मान था और अंगरेज़ी साहित्य में भी मेरी रुचि के ये प्रेरणा-स्रोत थे। इनके साथ इलाहाबाद में तो नहीं किन्तु जबलपुर में मैंने काफ़ी-हाॅउस की गोष्ठियों में भी भाग लिया और श्री हरिशंकर परसाई के साथ कुछ उठना-बैठना इन्हीं की संगत में हुआ।
बी.ए. में मेरे अध्यापकों में श्री विजयदेवनारायण साही थे, जिनसे मैंने बर्नार्ड शा का ।तउे ंदक ज्ीम डंद तथा गाल्सवर्दी का ैजतपमि पढ़ा। किन्तु वे हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक हैं, यह मैंने इलाहाबाद छोड़ने के बाद जाना। श्री प्रकाश चन्द्र गुप्त अंगरेज़ी में मेरे सेमिनार टीचर थे किन्तु प्रगतिशील लेखक संघ में उनका क्या रुतबा था, यह मुझे बहुत बाद में नामवर जी से पता चला।
उर्दू साहित्य से मेरा उन दिनों का परिचय प्रकाश पण्डित के पाकेट-बुक संस्करणों के अलावा एक पत्रिका ‘उर्दू साहित्य’ के माध्यम से था, जो डाॅ. जाफ़र रज़ा निकाला करते थे और जिसके पुराने अनबिके अंक मैं फ़ुटपाथ से बहुत कम दामों में ख़रीद लेता था।
मैं अब स्कूली छात्र न रह कर विश्वविद्यालय में पहुँच गया हूँ इसका पहला एहसास तब हुआ जब एक छात्र आन्दोलन के चलते विश्वविद्यालय अनिश्चित काल के लिए बन्द हुआ। उन दिनों लोहिया जी की समाजवादी युवजन सभा का विश्वविद्यालय में बोलबाला था और मेरे साथ पढ़ने वाले श्री ब्रजभूषण तिवारी बाद में चल कर बड़े समाजवादी नेता बने। किन्तु मेरा कोई निकट परिचय छात्र नेताओं से नहीं था और मैं राजनीतिक सक्रियता से स्वभावतः सदा दूर रहा हूँ। यों, मैंने नेहरू जी का भाषण इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सुना है।
एम.ए. करने के लिए मैंने गणित चुना क्योंकि मुझे यह मालूम था कि मैं इसे ‘स्वाध्याय’ से नहीं सीख पाऊँगा। कुछ ऐसा हुआ कि उसी वर्ष इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने चालीस वर्षों से चले आ रहे पाठ्यक्रम का पुनर्नवीकरण करने का निश्चय किया। इसके पहले अंगरेज़ी विभाग में मेरे एक अध्यापक स-सन्तोष मुझे बता चुके थे कि किस प्रकार उन जैसे अध्यापकों के संघर्ष के बाद डी.एच. लारेन्स जैसे ‘नये’ लेखक पाठ्यक्रम में शामिल किये जा सके थे और किस प्रकार शेक्सपियर पढ़ने के लिए जी. विल्सन नाइट और एल.सी. नाइट्स जैसे ‘नये’ समीक्षकों की पुस्तकें पढ़ना ठीक रहेगा। यह करना बहुत कठिन न लगा था।
किन्तु गणित में इस आध्ाुनिकीकरण का परिणाम एक अफरातफरी के रूप में आया। इस अफरातफरी को गणित पढ़ने-पढ़ाने वाले ही समझ सकते हैं किन्तु एक उदाहरण से इसका अन्दाज़ा लग सकता है। ‘हाइन-बोरेल थियरम’ पहले हाबसन की पुस्तक से पढ़ाया जाता था, अब उसे रूडिन की पुस्तक से पढ़ना था। हम लोग अपने अध्यापक के पास गये और उनसे कहा, ‘समझ में नहीं आ रहा है’। उनका उत्तर था, ‘मैं बीस साल से इसे पढ़ा रहा हूँ, मेरी समझ में नहीं आ रहा तो तुम्हारी समझ में क्या आयेगा’।
एम.ए. की पढ़ाई और इम्तिहान एक अधर््ास्वप्न की तरह हैं। पाठ्यपुस्तकें बहुत कठिन लगती थीं, सहायक निर्देशन बहुत अपर्याप्त लगता था। मैंने परीक्षा छोड़ने की सोची जिसका अर्थ था, वज़ीफ़े से हाथ ध्ाोना, किन्तु इसी वर्ष मेरे पिता एक, उस समय दुःसाध्य, रोग -प्लूरिसी- से ग्रस्त हुए और मैंने उन्हें अतिरिक्त चिन्ता में डालने की अपेक्षा भगवान भरोसे परीक्षा में बैठने का निर्णय लिया। प्रथम श्रेणी कैसे आयी और वज़ीफ़ा कैसे बचा, मैं नहीं जानता।
एम.ए. मैंने 1965 में पूरा कर लिया। इसी वर्ष मेरा विवाह हो गया क्योंकि मैं उन्नीस वर्ष का हो रहा था और गृहस्थाश्रम में प्रवेश की उम्र निकल रही थी। मैं अब नौकरी करने के लायक़ भी हो चुका था और कुछ महाविद्यालयों से इसकी पेशकश भी हुई किन्तु मैंने ‘रिसर्च’ करने का तै कर रखा था और उसी पर डटा रहा।
इस ‘डटे रहने’ का मतलब समझना ज़रूरी है। अध्यापन करते हुए पी.एच.डी. हासिल करना कठिन न था। किन्तु सच यह है कि यह ‘नया गणित’ समझ में भले ही न आता था, इसका आकर्षण दुर्निवार था और उत्तर भारत के किसी विश्वविद्यालय में इसकी गुन्जाइश न थी। ले दे कर मैंने एक ही जगह के बारे में सुना था, जहाँ इसके जानने वाले मौजूद थे- टाटा इन्स्टीट्यूट आॅफ़ फ़न्डामेण्टल रिसर्च, बम्बई। लेकिन मैं था तो कच्चा घड़ा ही- शोध्ा के लिए मैं टाटा इन्स्टीट्यूट में चयनित न हो सका।
यह एक बड़ा संकट था और मेरे ऊपर मेरे अध्यापक डाॅ भट्ट का बहुत बड़ा ऋण है, जिन्होंने मुझसे कहा कि मैं उनके साथ शोध्ा-छात्र के रूप में पंजीकृत हो जाऊँ और फिर जब भी मुझे मनोनुकूल शोध्ा-संस्थान मिले, मैं छोड़ कर चला जाऊँ। इससे मेरा दो सौ रुपये का वज़ीफ़ा बचा रह गया जिसके भरोसे मैं इलाहाबाद में एक साल और टिक पाया।
इस दौरान मुझे आई.आई.टी. कानपुर का भी नाम सुनायी पड़ा और अगले साल यद्यपि मैं बम्बई विश्वविद्यालय और आई.आई.टी. कानपुर, दोनों जगह चयनित हुआ, मैंने आई.आई.टी. कानपुर चुना। यह उन दिनों एक अमेरिकन विश्वविद्यालय ही था और मुझे शोध्ा-निर्देशक के रूप में कार्नेगी-मेलन के प्रो. एस.पी. फ्ऱैन्कलिन प्राप्त हुए, जिनसे मैंने गणित के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ सीखा। यहीं से मैं एक विजि़टिंग फ़ेलो के रूप में टाटा इन्स्टीट्यूट भी गया, जहाँ बिताया गया एक साल मुझे इस ‘नये गणित’ के और क़रीब ले आया।
फिर मुझे आई.आई.टी. दिल्ली में नौकरी मिल गयी और मैंने वहाँ बयालीस साल नौकरी करने के बाद सेवानिवृत्ति प्राप्त की।
उदयनः इलाहाबाद में अध्ययन के दौरान क्या आपने कुछ लिखना भी शुरू किया है? क्या विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में कुछ ऐसे उपन्यास और कविता-संग्रह आदि थे जिन्हें पढ़कर आप चमत्कृत हुए हों और साहित्य के प्रति आपका आकर्षण कई गुना हो गया हो? आपने एक जगह कहा कि आप अपने मित्र के साथ कक्षा की आखि़री पंक्ति में बैठकर चिरकीन के शेर एक दूसरे को देते थे, यानी तब तक आपका उर्दू शाइरी से परिचय अच्छा ख़ासा हो चुका होगा। क्या आप शाइरी के साथ उर्दू गद्य भी पढ़ रहे थे?
वागीश जीः ‘चिरकीन की शाइरी’ से तात्पर्य उर्दू की उस कविता से है, जो मल-मूत्र विसर्जन को अपनी विषय-वस्तु बनाती है। जुगुप्सा-अश्लील और व्रीडा-अश्लील रचनाएँ विशेषतः किशोरों में लोकप्रिय होती हैं और शायद स्वीकृत भाषिक व्यवहार की मर्यादा को तोड़ने के नाते कोई ‘विद्रोह’ भी बताती हों, यद्यपि इसकी व्यापकता और गुपचुप पहुँच अनेक सुरुचिसम्पन्न सहृदयों तक है। जिस वक़्त की बात मैंने की है, ऐसी रचनाओं से परिचय का आशय उर्दू साहित्य से परिचय नहीं था, यह छात्रों के बीच वाचिक परम्परा से उपलब्ध्ा साहित्य था, जिसमें हम भी पंक्तियाँ जोड़ने के लिए स्वतन्त्र थे। वैसे, आज चिरकीन का एक सुसम्पादित दीवान छप चुका है और व्रीडा-अश्लील उर्दू शाइरी के शलाका-पुरुष जाफ़र ‘ज़टली’ का भी सुसम्पादित दीवान उपलब्ध्ा है। जाफ़र ज़टली को फ़र्रुख़सियर ने एक उपहासात्मक कविता लिखने के अपराध्ा में मृत्युदण्ड दे दिया था।
फ़ारसी-उर्दू परम्परा में ऐसे साहित्य की स्वीकार्यता अन्य साहित्यों की तुलना में सम्भवतः कुछ अध्ािक रही है। जाफ़र का ‘ज़टली’ उपनाम औरंगज़ेब की बेटी जे़बुन्निसा द्वारा दिया गया। बताया जाता है और सुनते हैं कि बेदिल की तीन हज़ार ग़ज़लें इस ‘ज़टल’ की विध्ाा में थीं, जिनमें से कम-से-कम एक तो मैंने उनके छपे हुए कुल्लियात में भी देखी है। सौदा, इन्शा, रंगीं आदि की कई रचनाएँ इस कोटि की हैं। किन्तु यह सब मैंने बाद में जाना, छात्रावस्था में हमारी पहुँच देवनागरी लिपि में छपे उर्दू साहित्य तक थी, जिसमें यह सब सिरे से ग़ायब था।
मैं कह आया हूँ कि ‘उर्दू साहित्य’ नाम की पत्रिका मैं पढ़ता था, जिसमें समकालीन उर्दू साहित्य देवनागरी लिपि में उपलब्ध्ा होता था। क़ाज़ी अब्दुस्सत्तार के कई उपन्यास मैंने उसमें पढ़े और बहुत-सा अन्य उर्दू गद्य भी।
पुस्तकालय का मैंने भरपूर उपयोग किया। बहुत सा अंगरेज़ी साहित्य और अंगरेज़ी में उपलब्ध्ा यूरोपियन साहित्य पढ़ा, सब गिनाना सम्भव नहीं है। विश्वविद्यालय के अतिरिक्त आज़ाद पार्क में एक अंगरेज़ों के ज़माने से चला आ रहा सार्वजनिक पुस्तकालय भी था, वहाँ मैं प्रायः सात बजे सुबह पहुँच जाता था और दोपहर को कुछ देर के लिए पुस्तकालय बन्द होने पर पार्क में ही बैठा रहता था कि तीसरे पहर पुस्तकालय खुलने पर फिर उसमें बैठ सकूँ। बहुत-सी पुरानी पुस्तकें वहाँ मिलीं।
मैं सबकुछ पढ़ता था और साहित्य में ऊँच-नीच की तमीज़ मुझमें नहीं थी। किन्तु शायद वे सभी किताबें ‘अच्छी’ ही रही होंगी। उपन्यास, नाटक, निबन्ध्ा, इतिहास, जो मिल जाय पढ़ता था। मैंने ‘जासूसी दुनिया’, ‘तिलिस्मी दुनिया’, ‘सजनी’, ‘साजन’, ‘शेरबच्चा’, सबकुछ पढ़ा है। बच्चन जी की ‘मध्ाुशाला’ पढ़ी तो उनकी पैरोडी में लिखी गयी किसी ‘कोल्हू’ कवि की ‘पौशाला’ भी पढ़ी। अज्ञेय जी का ‘शेखर’ पढ़ा तो कुशवाहा कान्त और प्यारे लाल आवारा के उपन्यास भी पढ़े।
जहाँ तक लिखने की बात है, मैंने इलाहाबाद में कुछ गीत लिखे थे, जिन्हें मैंने बाद में एक मित्र को दे दिया और उनके बल पर उन्होंने कई कवि सम्मेलनों में वाहवाही लूटी। बी.ए. के दूसरे साल में इलाहाबाद में भयंकर शीतलहर आयी थी और चूँकि मेरे पास गर्म कपड़े नहीं थे, मैं हाफ़ बुश्शर्ट पहने हुए कक्षा में पहुँचता था। प्रोफ़ेसर यदुपति सहाय (फि़राक़ साहब के छोटे भाई) शेक्सपियर पढ़ाते थे, उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मुझे ठण्ड नहीं लगती। अपनी इज़्ज़त बचाते हुए मैंने जवाब तो ‘नहीं’ ही दिया किन्तु मैंने फिर अंगरेज़ी में एक नाटिका ज्ीम ब्वसक ॅंअम लिखी, जिसमें शीत-लहर में काँपते हुए एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार के सभी सदस्य टेनिस खेलने और माडलिंग जैसे विभिन्न कारणों से ध्ाीरे-ध्ाीरे कम कपड़ों में आ जाते हैं। वैसे, मेरा उस ज़माने का लिखा एक अंगरेज़ी निबन्ध्ा विश्वविद्यालय की पत्रिका में छपा था।
किन्तु मुझे ‘लेखक’ कुछ बाद में अज्ञेय जी ने अपनी पत्रिका ‘नया प्रतीक’ में छाप कर बनाया।
उदयनः अज्ञेय ने आपकी कौन सी रचना प्रकाशित की थी? क्या तब तक आप अज्ञेय से मिल चुके थे? कम से कम इलाहाबाद में उन्हें देख चुके थे? आपने लिखने की शुरुआत तो की थी गीत से, आलोचना कब और कैसे आ गयी? क्या किन्हीं ऐसे आलोचकों की रचनाओं का पठन आप करने लगे थे, जिनके कारण आपके लेखन की दिशा बदल गयी?
वागीश जीः इलाहाबाद में मैं 1961-66 रहा। अज्ञेय जी इलाहाबाद उसके पहले छोड़ चुके थे यद्यपि यह बात भी मुझे बाद में पता चली। उन दिनों भी इलाहाबाद में बहुत से बड़े लेखक थे किन्तु मेरी बहुत दिलचस्पी साहित्यकारों में नहीं थी। अज्ञेय जी अगर होते भी तो मैं उनसे मिलने शायद ही गया होता। साहित्य में भी पढ़ने पर ही ध्यान था। गीत लिखे ज़रूर, और आज मैं यह भी कह सकता हूँ कि वे बहुत ख़राब नहीं थे किन्तु उन्हें छपवाने या गीतकार बनने का कोई ख़याल नहीं आया, और जैसा मैंने बताया, उन्हें अपने एक मित्र को मैंने दे दिया था, सो आज उनके और मेरे सिवा कोई नहीं जानता कि मैंने कभी गीत लिखे भी थे।
अज्ञेय जी ने ‘प्रतीक’ तो इलाहाबाद से ही शुरू किया था किन्तु ‘नया प्रतीक’ उन्होंने ‘प्रतीक’ के कोई बीस बरस बाद दिल्ली से निकाला था। वे ‘दिनमान’ छोड़कर अमरीका चले गये थे और वहाँ से लौटने के बाद उस सबसे किनाराकशी करके रह रहे थे। मेरे ख़याल में उनके इर्दगिर्द साहित्यकों के जो नाम चले आ रहे थे उनमें से पण्डित विद्यानिवास मिश्र से ही उनका कुछ सम्पर्क बना रह गया था। बहरहाल, जब उन्होंने ‘नया प्रतीक’ निकालने की सोची तो वे किसी ऐसे लेखक की खोज में थे जो विज्ञान पर कुछ लिख सके और पण्डित जी ने उन्हें मेरा नाम सुझाया, जिसके परिणाम-स्वरूप गणित पर मेरे तीन लेख उन्होंने ‘नया प्रतीक’ में छापे। थोड़ा बहुत आना-जाना भी शुरू हुआ, जो यद्यपि मात्रा में कम था, वे मुझे इस लायक़ तो समझते ही थे कि मेरी बात ध्यान से सुनें।
मेरा यह ‘विज्ञान-लेखक’ का परिचय कुछ दिन चला। जोशी जी ने ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में मेरी एक लेख-माला उस समय की कणभौतिकी पर छापी थी और फिर मुझसे प्रायः हर विषय पर लेख माँग लेते थे। यह सिलसिला उनके ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ छोड़ने के बाद ही ख़त्म हुआ।
पण्डित विद्यानिवास मिश्र मेरे निकट सम्बन्ध्ाी थे और उन्हें इस बात की जानकारी थी कि साहित्य में मेरी कुछ रुचि है। उन्होंने मुझे मुक्तिबोध्ा जी की ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ की प्रति छपने के तत्काल बाद दी थी। मैं जब गीत छोड़कर ‘नयी कविता’ लिखने लगा तो उन्होंने एक बार ‘ध्ार्मयुग’ में और एक बार ‘आलोचना’ में भेजने के लिए कविताएँ भी लीं किन्तु दोनों बार वे उनके काग़ज़ों में ही दबी रह गयीं और मैंने कोई तगादा न किया, फलतः मैं ‘नया कवि’ भी न बन सका।
जब कमलेश जी ने जार्ज फ़र्नाण्डीस के लिए ‘प्रतिपक्ष’ निकाला तो उन्होंने उसमें साहित्य के लिए भी जगह बनायी। मेरी कविताओं को उन्होंने कुछ सुध्ाारा किन्तु मैंने ही उनसे कहा कि कहीं श्रीकान्त वर्मा और कहीं रघुवीर सहाय बनने से अच्छा है कि कवि ही न बना जाय और वे भी इससे सहमत हुए। किन्तु मेरी मौखिक रायदिहानियों को उन्होंने इस लायक़ माना कि उन्हें मैं लिखूँ और मुझसे रामकुमार के एक कहानी-संग्रह पर, आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की ‘पुनर्नवा’ पर, तथा सर्वेश्वर जी की ‘कुआनो नदी’ पर लिखवा कर उन्होंने छापा। इन्हीं को पढ़कर नामवर जी ने मुझसे ‘कुआनो नदी’ पर ‘आलोचना’ के लिए लिखवाया। इसे मेरे ‘मुख्य ध्ाारा का आलोचक’ बनने की शुरुआत कहा जा सकता है। फिर मुझ पर अशोक जी (श्री अशोक वाजपेयी) की नज़र पड़ी और मेरा अध्ािकांश लेखन उन्हीं के नाते सामने आया।
उदयनः आपके लेखों और निबन्ध्ाों के पाठकों को यह समझने में शायद ही मुश्किल हो कि हिन्दी आलोचना में आपके प्रवेश के साथ ही कुछ नया होना शुरू हो गया। मैं आपके ही दिये प्रत्यय का इस्तेमाल करूँ तो कह सकता हूँ कि आप हिन्दी के उन आलोचकों में हैं जो पश्चिम से संवादरत भले हों पर उससे दहशतज़दा नहीं हैं। इसका बड़ा कारण आपका भारतीय पारम्परिक काव्यशास्त्र का अध्ययन और उस पर निरन्तर चिन्तन रहा है। आपने जिन लेखकों का अपने पिछले कुछ जवाबों में उल्लेख किया है, उनमें वे लेखक हैं, जो दहशतज़दा नहीं हैं। लेकिन आपकी आलोचना की स्थिति इनसे अलग है। उसमें आप पश्चिम की अध्ाुनातन चिन्तन ध्ाारा को भारतीय पारम्परिक चिन्तन के आलोक में देखने का प्रयत्न करते हैं। लेकिन साथ ही इस प्रक्रिया में पारम्परिक चिन्तन के भी नये आयामों को उद्घाटित करते चलते हैं। वे कौन से लेखक हैं, जो आपके इस तरह लिखने के ढंग के पूर्ववर्ती हों।
वागीश जीः आपके प्रश्न के अन्तिम वाक्य ने मुझे मुश्किल में डाल दिया है क्योंकि अगर मैं यह कहता हूँ कि ऐसा कोई लेखक नहीं है तो यह एक विकत्थन होगा, जो मेरा घटियापन बतायेगा और यदि मैं किसी लेखक का नाम बताता हूँ तो उससे पूरी बात सामने नहीं आती। इसलिए मैं थोड़े विस्तार के साथ आपके प्रश्न में निहित जिज्ञासा पर बात करता हूँ। मेरी उम्मीद है कि इसमें ‘मैं’ और ‘मेरा’ नहीं होगा किन्तु आपकी पृच्छा तक इस उत्तर की पहुँच होगी।
सबसे पहले मैं ‘दहशतज़दा’ को थोड़ा स्पष्ट करता हूँ। आपने कहा है कि मैंने जिन लेखकों के नाम लिये हैं, उनमें वे लेखक (भी) हैं जो दहशतज़दा नहीं हैं। मैं इससे पूर्ण सहमत हूँ और यह कहना चाहूँगा कि कोई भी आध्ाुनिक भारतीय लेखक इस अर्थ में ‘दहशतज़दा’ नहीं है कि उसने भारतीय चिन्तन या क्षमता को पश्चिम के चिन्तन या क्षमता से कमतर माना हो। वस्तुतः प्रायः सभी का शक्ति भर प्रयास यही रहा है कि भारतीय पारम्परिक चिन्तन को सबल बताया जाय। किन्तु इस ‘स-बल’ होने में ‘बल’ क्या है, इसकी समझ अलग-अलग थी।
मैं एक उदाहरण से प्रारम्भ करना चाहता हूँ। यद्यपि ‘पिलो बुक्स’ सब जगह हमेशा से मौजूद रही हैं, भारत अकेला देश है जहाँ काम को ध्ार्म और अर्थ के समकक्ष एक पुरुषार्थ माना गया और फलतः इस पर एक शास्त्र की आवश्यकता स्वीकार की गयी जिसके अनुपालन में कई ग्रन्थों की रचना हुई। इनमें से कामसूत्र आज भी उपलब्ध्ा है। किन्तु यह उपलब्ध्ाि कैसे सम्भव हुई? इसका अंगरेज़ी अनुवाद रिचर्ड बर्टन ने 1883 में छापा जिसे ‘अश्लीलता’ के भय के नाते सार्वजनिक रूप से उपलब्ध्ा नहीं कराया जा सकता था। पण्डित दुर्गाप्रसाद महामहोपाध्याय की इच्छा हुई कि मूल ग्रन्थ भी उपलब्ध्ा कराया जाय। यह ‘इच्छा’ निश्चय ही इस कारण थी कि भारत में जो सोचा गया वह जस-का-तस सामने आये, उसे पश्चिमी शीशे में उतारने के बाद नहीं। इसके लिए उन्होंने कठिन परिश्रम से कई पाण्डुलिपियाँ इकट्ठा कीं और एक सुसम्पादित संस्करण तैयार किया, जिसमें सर्वप्रशंसित ‘जयमंगला’ टीका भी थी। भारतीय चिन्तन में उनकी अडिग आस्था थी, यह मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
किन्तु हम फिर देखते हैं कि अन्ततः जब इसे उन्होंने 1891 में छाप लिया तो फिर कुछ विद्वानों को भेजा जिनमें अनेक पश्चिमी भारत-विद् थे।1 इसके साथ एक पत्र भी था, जिसमें उन्होंने कुछ दिलचस्प बातें कही हैं। वे लिखते हैं कि यद्यपि यह ग्रन्थ केवल संस्कृतज्ञों की समझ में आ सकता है किन्तु ‘वर्तमान व्यवहार के अनुसार’ वे इसे सार्वजनिक रूप से उपलब्ध्ा नहीं करवा रहे हैं। यह ‘वर्तमान व्यवहार’ क्या हो सकता है, इस पर थोड़ी-सी रोशनी तब पड़ती है, जब हम देखते हैं कि वे इस ग्रन्थ के बारे में यह लिखते हैं कि इसमें यद्यपि कहीं-कहीं थोड़ी-सी अश्लीलता आ गयी है किन्तु उतनी हरगिज़ नहीं है जितनी कालिदास, भारवि, माघ और श्रीहर्ष के काव्यों में है।
अब यह ‘अश्लीलता’ क्या है, जिसे महामहोपाध्याय जी ने एक ‘निर्बलता’ के रूप में देखा है? जिन काव्यों के नाम उन्होंने गिनाये हैं, वे सभी भारतीय साहित्य के गौरव-ग्रन्थ हैं और उस समय तक इन पण्डित जी समेत अनेक विद्वानों के प्रयास से छापकर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध्ा कराये जा रहे थे। भारतीय काव्यशास्त्र में अश्लीलता पर विचार भी हुआ है और उसे दोष ही माना गया है किन्तु इन काव्यों को उदाहरण के रूप में नहीं शामिल किया गया है।2 इन सबको दरकिनार करते हुए उन्होंने वही मानदण्ड चुना जो विक्टोरियन इंग्लैण्ड के थे और जिनके चलते रिचर्ड बर्टन के अनुवाद को इंग्लैण्ड तथा अमरीका में 1961 के पहले छापना ग़ैर-क़ानूनी था यद्यपि उन्होंने इसी पत्र में प्राचीन आचार्यों के प्रमाण से यह भी लिखा है कि भगवत्पाद ने कामसूत्र पढ़ कर इस विषय पर एक ग्रन्थ लिखा था। आगे चल कर हम देखते हैं कि कालिदास में अश्लीलता महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भी खोजी और रामविलास शर्मा ने भी, भले ही उन्होंने इसे ‘दरबारीपन’ के तहत समेटा जैसे किसान और मज़दूर की काम में कोई रुचि ही न होती हो।
भारतीय चिन्तन के सन्दर्भ में सवाल तो ये उठने चाहिए थे कि वेद के जिन मन्त्रों पर टीका लिखने में सायण को हिचक नहीं हुई उनका अनुवाद करने में अंगरेज़ भारत-विद् क्यों ठिठक गये किन्तु हम देखते हैं कि हमारे विद्वान् लज्जित हैं और यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हमारे ग्रन्थों में
1. इस प्रकाशन में अन्तिम अध्ािकरण पर टीका अनुपलब्ध्ा होने के नाते छप नहीं सकी थी। पण्डित जी के पुत्र केदारनाथ शर्मा ने उसे भी हासिल करके पुस्तक के 1900 में प्रकाशित दूसरे संस्करण में शामिल किया तथा कुछ भारत-विदों की प्रतिक्रियाएँ भी शामिल कीं। यह 1900 वाला संस्करण भी सार्वजनिक नहीं था और समय के साथ दुष्प्राप्य हो चला किन्तु सौभाग्य से यतीन्द्र मिश्र के नाते अयोध्या राज-परिवार के निजी पुस्तकालय में मुझे यह मिल गयी और मेरे अनुरोध्ा पर वे इसे भारत सरकार की पुनर्मुद्रण योजना के लिए प्रो. कुटुम्ब शास्त्री को देने के लिए तैयार हो गये, जिसके नाते आज यह राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान से सहज उपलब्ध्ा है।
2. कालिदास-कृत कुमारसम्भव के अष्टम सर्ग की स्थिति कुछ भिन्न है और आनन्दवद्र्धन ने इसमें अश्लीलता की सम्भावना पर अलग से बात की है। उस पर कुछ विस्तार से मैं अपने एक पुराने लेख में चर्चा कर चुका हूँ।
कुछ ‘मिलावट’ हो गयी है। यह ‘मिलावट’ का विचार भी अ-भारतीय विद्वत्ता की देन है जिसकी बुनियाद बाइबिल और कुर्आन का शुद्ध पाठ प्राप्त करने के लिए किये गये क्रूर प्रयासों में है।
बहरहाल कुल मिलाकर हुआ यह है कि हमने अपनी सैनिक पराजय को एक सांस्कृतिक पराजय के रूप में मान लिया और यह स्वीकार किया कि यह अंगरेज़ी रहन-सहन की विजय है। हिन्दुओं ने यहाँ से शुरू किया कि यह बहुदेव-वाद पर एकेश्वर-वाद की जीत है और राजा राम मोहन राय यह साबित करने में लग गये कि हमारे ग्रन्थ तो उपनिषद् हैं और देखो कि ये एकेश्वरवादी हैं। कुछ ऐसा ही स्वामी दयानन्द ने घोषित किया जब उन्होंने कहा कि हमारे ग्रन्थ तो वेद हैं और पुराण ‘पोपलीला’ हैं। ये सारे प्रयत्न एक वंशवृक्ष तैयार करने के थे जिसमें यह दिखाना था कि एकेश्वर-वाद से लेकर सारे पश्चिमी आदर्श हमारे यहाँ पहले से मौजूद हैं। आज भी हममें से अनेक वेदों में पर्यावरण-चेतना, मानव-अध्ािकार आदि के समकालीन दस्तावेज़ों से लेकर क्वाण्टम फिजि़क्स तक के समीकरण खोजते फिरते हैं। हमने यह जानने की कोशिश बन्द कर दी कि हमारे यहाँ क्या सोचा गया और यह जताने में लग गये कि पश्चिम की सोच हमने पहले ही सोच डाली थी, अर्थात् हमारी सोच भी वही है जो पश्चिम की। इसी को मैंने ‘दहशतज़दा’ होना कहा है।
अपने लेखन में मेरा कुल प्रयास इतना ही रहा है कि किसी विषय पर हमारे आचार्यों ने क्या कहा है इससे नज़र न हटायी जाय। इस प्रक्रिया में मैंने उन विचारों के स्फोरण का भी प्रयास किया है और इस सिलसिले में कभी-कभार पश्चिमी चिन्तन की शब्दावली से सामना भी हो गया है। न मैंने पश्चिमी वैचारिकता के वर्चस्व (= ेनचतमउंबल) को स्वीकार किया है न ही भारतीय वर्चस्व की स्थापना का प्रयास किया है, सिर्फ़ यह किया है कि भारतीय चिन्तन की उपेक्षा नहीं की है।
इस सिलसिले में जिन लेखकों का जि़क्र मेरे लिखने में आया है उनमें मैंने आचार्य चन्द्रध्ार शर्मा गुलेरी से लेकर आचार्य गोविन्द चन्द्र पाण्डेय तक के गम्भीर चिन्तन से लाभ उठाया है और जहाँ-जहाँ मुझे उनकी दृढ़ता लरज़ती दिखी है, उसे सामने भी लाया हूँ। लेकिन अगर मैंने किसी लेखक का नाम लिया है तो उसके अध्ययन और परिश्रम से प्रभावित हो कर ही। मैं सभी का अध्ामर्ण हूँ।
उदयनः आपने भारतीय सभ्यता को ‘पेगन सभ्यता’ भी कहा है। आपके मन में इसे ‘पेगन’ कहने का एकमात्र आध्ाार ‘बहुदेववाद’ नहीं हो सकता। आप इसे ‘पेगन सभ्यता’ क्यों कहते हैं? क्या सभी पेगन सभ्यताओं में कुछ लक्षण सामान्य हुआ करते हैं? अगर हाँ, तो वे कौन से लक्षण हैं?
वागीश जीः आपके इस प्रश्न का उत्तर तो दरअसल मेरी एक अबतक न लिखी गयी पुस्तक में ही मिल सकता है जिसमें मैंने ‘पेगन’ पर मेरे मन में जो कुछ है उसे विस्तार से ले आने की सोची है। फि़लहाल कुछ बातें ये हैं।
पहली बात यह कि मैंने यह कहा है कि भारतीय सभ्यता एकमात्र पेगन सभ्यता है, जो जीवित है। ऐसा कहने के पीछे मेरे मन में यह है कि जो सभ्यताएँ आज ‘पेगन’ कही जाती हैं वे सबकी सब हमारे पास गै़र-पेगन विचारकों के माध्यम से ही मौजूद हैं। प्राचीन ग्रीस और प्राचीन रोम के बारे में हम जो कुछ जानते हैं, वह सब उनके ईसाई-करण के बाद के चिन्तकों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। प्राचीन अरब सभ्यता के बारे में केवल वही मालूम है जो उसके इस्लामीकरण के बाद लिखा गया, यही बात प्राचीन ईरानी, प्राचीन तुर्की, आदि सभ्यताओं के बारे में सच है। ये सब सभ्यताएँ आज नामौजूद हैं और इनका ग़ैर-पेगन पुनर्लेखन ही अवशेष है। यह एक सार्वत्रिक ;न्दपअमतेंसद्ध प्रवृत्ति है कि हम अपने वर्तमान को किसी ‘गौरवशाली अतीत’ से जोड़ना चाहते हैं, या यों कहिए कि अपने अतीत पर गौरव का प्रक्षेपण करते हुए उसके ‘सन लैम्प’ की ध्ाूप में अपना वर्तमान सेंकना चाहते हैं। अपना पूर्वज गर्ग या शाण्डिल्य को बताना, अपने को सूर्यवंशी या चन्द्र-वंशी कहना, ये सब इसी के उदाहरण हैं। इसी प्रकार ऐसे जातीय पुनर्लेखनों के पीछे भी अपने जातीय अतीत को कुछ स्वीकृत उच्चताओं तक पहुँचाने की महत्त्वाकांक्षाएँ कार्यरत होती हैं। उदाहरण के लिए वर्तमान अरब इतिहास जब इस्लाम को अपने सुदूर अतीत के पूर्वज हज़रत इब्राहीम का दीन बताता है तो वह यही कह रहा होता है कि उसके पूर्वज इस्लाम की ज्ञान-ज्योति से सर्वथा वंचित नहीं थे और इस्लाम सबसे नया आलमी मज़हब न होकर सबसे पुराना आलमी मज़हब है।
पश्चिम में चूँकि यूरोप का एक बड़ा भाग प्राचीन रोमन साम्राज्य का अंग था और ईसाई-करण के बाद भी रोम केन्द्रीय रहा इसलिए न केवल मूल बाइबिल की जगह उसका लैटिन अनुवाद मानक पाठ (त्र अनसहंजम) स्वीकृत हुआ अपितु प्राचीन रोम की भी पुनःसंरचना करके उसको अपना अतीत घोषित करने की तमन्ना जगी। बाद में आने वाले ‘होली रोमन एम्पायर’ भी इसी तमन्ना की उपज है।
वर्तमानकालिक ज्ञान-सम्पदा इस कारण से पूर्णतया एकध्ा्रुवीय है। यद्यपि अमेरिका आदि के पुराने बाशिन्दे एकदम से उच्छिन्न नहीं हुए, उनको हम ग़ैर-पेगन विश्लेषकों के ही माध्यम से जानते हैं। भारत में स्थिति थोड़ी भिन्न है। यद्यपि हमारे वर्चस्वशाली बुद्धिजीवी वर्ग में प्राचीन और वर्तमान भारत उतना ही मौजूद है जितना वह ग़ैर-पेगन पश्चिमी विद्वत्ता में समा पाया है, उस विद्वत्ता के बिना भी वह अभी मौजूद है, बशर्ते कि हम उसकी ओर से आँखें न मूँदें।
तो ‘सभी पेगन सभ्यताओं’ की बात करने में यह संकट तो है ही कि ‘यूनानोमिस्र रोमाँ, सब मिट गये जहाँ से’ किन्तु भारत अभी मौजूद है और कोई भी सामान्यीकरण करने में एक खोखलापन अनिवार्यतः रहेगा। फिर भी हम देख सकते हैं कि ‘बहुदेववाद’ एक सामान्य लक्षण है। इन सभी सभ्यताओं के पास कोई एक ईश्वर नहीं है, कोई एक पैग़म्बर नहीं है, कोई एक कि़ताब नहीं है। इन सबके पास एक ‘परम्परा’ है। मैं भारत की बात अभी करता हूँ किन्तु उसके पहले एक उड़ती नज़र प्राचीन रोम पर डाल लेते हैं।
मैं इसके लिए लियोतार (श्रमंद.थ्तंदबवपे स्लवजंतकए 10 ।नहनेज 1924.21 ।चतपस 1998) की एक पुस्तक स्प्ठप्क्प्छ।स् म्ब्व्छव्डल् के अन्तर्गत च्ंहंद ज्ीमंजतपबे शीर्षक से कही गयी बातों का आश्रय लेने से प्रारम्भ करूँगा। इसमें लियोतार ने बताया है कि किस प्रकार रोमन संकल्पना में नीवीमोचन से लेकर संवेशन और भावशान्ति तक रतिक्रिया के प्रत्येक चरण के नियामक देवता थे और किस प्रकार ईसाई चिन्तक सेण्ट आगस्टाइन ने इस संकल्पना का उपहास किया है। लियोतार ने कहा है कि इस पेगन संकल्पना में प्रत्येक कृत्य एक स्वतन्त्र दैवी कृत्य था, जबकि ईसाई विचार में सब कुछ एक ही शक्ति से संचालित था। इससे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि ‘पेगन = बहुदेववादी’ बहुलता का समर्थक है जबकि ग़ैर-पेगन मज़ाहिब एकशक्यात्मक होते हैं।
इस प्रकार जिस ‘बहुलता = स्वतन्त्रता’ के राजनीतिक समीकरण को आज हम एक वांछनीय के रूप में स्वीकार करते हैं, उसकी बुनियाद यह ‘बहुदेववाद’ ही ठहरता है। सत्ता-विमर्श में एक-तन्त्र से छूट कर जन-तन्त्र की ओर ले जाने वाली हमारी सारी छटपटाहटें ‘एकदेव-वाद’ के पाश से छूट कर ‘बहुदेव-वाद’ की शरण में जाने की छटपटाहटें हैं। सभी आख्यानों के चालक बनने की तमन्ना रखने वाले जितने भी अभ्याख्यान (त्र उमजं.दंततंजपअम) हैं, वे सभी वैविध्य-विरोध्ाी हैं और इस वैविध्य-विरोध्ा में ही एकदेव-वाद का तार्किक अस्तित्व है। ये अभ्याख्यान देवोपासना के वैविध्य को अस्वीकार करते हुए किसी एक मज़हब को ही स्वीकार्य मानने से शुरू हुए और वेष-परिवर्तन के साथ लूई चैदहवें के ‘मैं ही फ्रान्स हूँ’ या माक्र्सवाद जैसी अनेक सर्वग्रासी योजनाओं में समय-समय पर प्रकट होते रहे हैं।
‘कालरेखाख्यान (त्र ीपेजवतल)’ इसी की सर्जना है। यह मनुष्य के रैखिक अतीत को किसी एक बिन्दु पर दोफाड़ करती है और यह कहती है कि इस बिन्दु से मनुष्य की चेतनावस्था है तथा इसके पहले उसकी अचेतनावस्था थी। इस चेतनावस्था में मनुष्य को ले आने वाला एक संदेसिया होता है जिसके पास एक सन्मार्ग-दर्शी कि़ताब होती है, जिसका प्रकाशन उसी एकदेव से हुआ है। इस सन्मार्ग पर चलने से अनन्त सुख और इस पर न चलने से अनन्त दुःख प्राप्त होता है। अब ज़ाहिर है कि जो इस सन्मार्ग पर नहीं चलता वह दुःख को सुख पर वरीयता देने वाला मूढ है और उसे इस मूढता से बाहर निकालना एक सत्कृत्य है, जिसकी सेवा में उपदेश से लेकर शस्त्र तक का प्रयोग वैध्ा है। इसी से ‘आलमी मज़हब (त्र ूवतसक तमसपहपवद)’ की शब्दावली बनती है जिसके न मानने वाले ‘पेगन’ कहलाते हैं।
यह एकदेव-वाद या अभ्याख्यान अपने को ‘चर्च मिलिटैण्ट’ में मूर्त करता है और इसका घोष-वाक्य है ‘चर्च के बाहर मुक्ति नहीं (त्र मगजतं म्बबसमेपंउ दनससं ेंसने)। ‘चर्च-निरपेक्षता (त्र ेमबनसंतपेउ)’ इस अभ्याख्यान की दूसरी उपज है। यह एकदेव-वाद को उलटे चश्मे से देखने के द्वारा अपने को परिभाषित करता है और इस प्रकार उसमें उलटा लटकने में अपनी इयत्ता सीमित करता है। कालरेखाख्यान और चर्च-निरपेक्षता, दोनों ही एकदेववाद-संज्ञक अभ्याख्यान के परजीवी हैं, इनके पास अपनी कोई बौद्धिक पूँजी नहीं है और ये किसी वैचारिक विकल्प को प्रस्तुत नहीं करते। ये उतने ही हैं जितना एकदेव-वाद है। परिणामतः ये सभी उसी सर्वग्रासिता (त्र जवजंसपजंतपंदपेउ) की पुनःप्रस्तुति करते हैं जो एकदेव-वाद की प्रस्तुति है और वैसी ही विश्व-नियन्त्रणा की योजनाओं को सामने ले आते हैं जैसी एकदेव-वाद सामने ले आता है। ये सब गैस-चैम्बर तैयार करने की तकनीकियाँ हैं। हम याद कर लें कि लियोतार ने ‘एकदेव-वाद = अभ्याख्यान’ से परिचालित होने को ‘माडर्न’ कहा है और इसी के प्रतिपक्ष में ‘पोस्ट-माडर्न’ शब्द रखा जो ‘पेगन’ की अपेक्षा अध्ािक लोकप्रिय हुआ।
इतनी दूर तक मैंने जो कुछ कहा वह ‘पेगन’ की पश्चिमी समझ के अनुसार है और ‘एक बनाम बहुत’ की गणनात्मकता से निधर््ाारित है। अपने इस रूप में भी हमें यह काम्य होना चाहिए और हमें उन कोशिशों के विरोध्ा में खड़ा होना चाहिए जो हमारे सनातन को कालाख्यानात्मक में तथा हमारे उपासना-समभाव को चर्च-निरपेक्षता में घटाने का प्रयास करती हैं। इसके लिए हमें अपने ग्रन्थों को अपने बाप-दादा की तरह पढ़ना होगा जिसका तात्पर्य सीध्ो-सीध्ो यह है कि हमारे पुरुषार्थ वेदार्थ से उद्भूत हैं जिन तक पहुँचने का रास्ता हमारे रामायण-महाभारत जैसे इतिहास-ग्रन्थों और पुराणों में निर्दिष्ट है। यहाँ यह नहीं भुलाना चाहिए कि जिन्हें एक प्राचीन शब्दावली का उपयोग करते हुए मैंने अभी ‘इतिहास-ग्रन्थ’ कहा है वे ही वैकल्पिकतया ‘काव्य’ कहलाते हैं। भारत एक काव्य-चेतन देश है।
दुर्भाग्यवश अंगरेज़ी शासनकाल में हमारे यहाँ इस काव्य-चैतन्य से रहित ठीक लियोतारी अर्थ में ‘माडर्न’ वैचारिकता विकसित और वर्चस्व-शाली हुई। एक सूत्र-वाक्य में हम इसे ‘मैकाले चैतन्य’ कह सकते हैं (जिसका यह अर्थ नहीं कि यह मैकाले के बाद उपजी)। इसके तहत भारत को उसी प्रकार ‘सभ्य = यूरोप-सम’ बनना था जिस प्रकार रूस बना था। यह ग़ौरतलब है कि इस मैकाले चैतन्य का प्रत्यक्ष उद्देश्य भारत को चर्च-गामी बनाना नहीं था (यद्यपि मैकाले के नीति-पत्र में इसकी आशा व्यक्त की गयी है) अपितु भारतीयों को वह शिक्षा देना था जो इंग्लैण्ड के लोगों को मिल रही थी और इस प्रकार इसके पीछे ‘समान अध्ािकार’ का सिद्धान्त भी कार्य-रत था। इसका उद्देश्य हमारा अपकार नहीं था और आज जब हम सिलिकान वैली में अपनी उपस्थिति जैसी उपलब्ध्ाियों पर गर्व करते हैं तो इसी मैकाले चैतन्य के प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर रहे होते हैं। किन्तु हमारी सैनिक और राजनीतिक पराजय ने हमें इतना हतप्रभ कर दिया था कि हमने अपना काव्य-चैतन्य तिरस्कृत कर दिया और परदेसी ताक़त की जड़ को परदेसी रहन-सहन तथा परदेसी सोच-विचार में खोजने लग गये।
मैं एक उदाहरण देता हूँ। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पितामह द्वारकानाथ ठाकुर अपनी शाहख़र्ची के नाते ‘प्रिन्स’ कहलाते थे। इस शाहख़र्ची में अंगरेज़ों के साथ पार्टीबाज़ी भी शामिल थी जिसमें उनके परिवार की भागीदारी अनिवार्य न थी। उन्होंने तत्कालीन ब्राह्मण-समाज के नियमों के विरुद्ध जाकर विदेश-यात्रा भी की जहाँ से लौटने के बाद उनकी माता और उनकी पत्नी ने घर में घुसने से उन्हें मना कर दिया और वे चुपचाप घर के बाहरी हिस्से में रहने लगे तथा पूर्ववत् पार्टीबाज़ी करते रहे। उनकी प्रसिद्धि एक चिन्तक की नहीं है, सिर्फ़ एक रईस की है।
उनके पुत्र देवेन्द्रनाथ अपने अध्ययन और मनन के नाते ‘महर्षि’ कहलाते हैं। उनके मन में हिन्दू समाज की गहरी चिन्ता थी और वे ब्रह्म-समाज के प्रमुख स्तम्भ थे। इस चिन्ता के तहत उन्होंने पाया कि हिन्दू समाज की अवनति का एक कारण मूर्ति-पूजा है और स्वयं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हुए उन्होंने घर से सारी मूर्तियाँ बाहर फिंकवा दीं। उन मूर्तियों को लेकर उनके परिवार की एक स्त्री घर से बाहर उसी हिस्से में रहने लगी जिसमें द्वारकानाथ ठाकुर रहते थे। इस ‘पितृसत्तात्मकता’ को आप आकस्मिक न मानें, यह उनके एकदेव-वाद की अनिवार्य परिणति है जिसे उन्होंने उपनिषदों के गम्भीर अध्ययन के बाद पाया था और इस निर्णय पर पहुँचे थे कि एकमात्र ‘ब्रह्म’ को मानने वाले हिन्दू किसी भी प्रकार एक ही ईश्वर को मानने वाले ईसाइयों से हेय नहीं हैं। यह उन्होंने कैसे किया? निश्चय ही वे ऐसा इसलिए कर पाये कि उपनिषदों में नाना-त्व का निषेध्ा है और भगवत्पाद ने ब्रह्म की सत्ता के अतिरिक्त सभी सत्ताओं को मिथ्या कहा है। भगवत्पाद ने मूर्ति में विष्णु-त्व की स्वीकृति को भी मिथ्या (= ‘अध्याय’) कहा है। इन सब बातों ने महर्षि देवेन्द्रनाथ का रास्ता आसान कर दिया। फिर ज़ाहिर है कि उन्हें यह मानने में कोई कठिनाई नहीं हुई कि सभी ध्ार्म एक ही बात कहते हैं। इसलिए वे चर्च-निरपेक्ष भी थे और अपनी दैनन्दिन उपासना में उन्होंने उपनिषदों के मन्त्रों के अतिरिक्त हाफि़ज़ की ग़ज़ल भी शामिल कर रखी थी जिसका तात्पर्य यह है कि वे यह मानते थे कि औपनिषदिक चिन्तन ‘सूफ़ीवाद’ से तो संगत है किन्तु मूर्ति-पूजा से नहीं। इस तरह से सोचने पर यह आत्मगौरव सहज उपलबध्ा था कि चूँकि कालरेखा पर उपनिषद् पहले अवतरित हुए इसलिए भारत ज्ञानसूर्य का उदयाचल है। ऐसा ही वंशवृक्ष दाराशुकोह ने भी अपनी पुस्तक मजमअ-उल-बहरैन में बना लिया है कि क़ुर्आन में सम्पूर्णतया अवतरित होने के पहले उपनिषदों में भी ईश्वरीय ज्ञान अवतरित हुआ था। ‘ज्ञान का बाप’ खोजने की यह तमन्ना एकदम से नयी भी नहीं थी।
किन्तु उन जैसे चिन्तकों ने एक सवाल नहीं उठाया जो ज़रूरी था- वह यह कि अगर भगवत्पाद मूर्तिपूजा को मिथ्या मानते थे तो उन्होंने इतनी सारी देवस्तुतियाँ क्यों लिखी हैं और बदरीनाथ तथा पशुपतिनाथ जैसे मन्दिरों में अर्चना-पद्धति का निधर््ाारण क्यों किया है। भगवत्पाद ने ही गृहस्थों की दैनन्दिन चर्या में पंचदेवोपासना- विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश, और दुर्गा की उपासना- का प्रचलन करवाया है। वे तान्त्रिक उपासना के भी परमगुरु माने जाते हैं। हम कैसे कह सकते हैं कि वे बहुदेववादी नहीं थे? हमें जो खोजना चाहिए वह यह कि भारत में बहुदेववाद की ऐसी संकल्पना कैसे बन सकी जो नाना-त्व के निषेध्ा की अविरोध्ाी हो? यह खोज शुरू करने के पहले भी हम भाँप सकते हैं कि ऐसा बहुदेव-वाद वह नहीं होगा जिसके विरुद्ध मज़हबी एकेश्वर-वाद हथियारबन्द है। किन्तु इध्ार ध्यान देने की जगह हमारे प्रतिष्ठित चिन्तक एक ऐसे शास्त्रार्थ में उलझ गये जिसकी बुनियादी शर्तें पूरा करने के लिए ही उन्हें अपने आचार्य-वचनों को तोड़-मरोड़ कर पेश करना पड़ा।
मैं यह मानता हूँ कि अपनी अंगरेज़-परस्ती के बावजूद द्वारकानाथ ‘पेगन’ थे और अंगरेजि़यत से छुटकारा पाने को बेचैन देवेन्द्रनाथ ‘ग़ैर-पेगन’ जिनके लिए मैंने ऊपर ‘दहशत-ज़दा’ का प्रयोग किया है। इस ‘दहशत-ज़दा’ वर्ग में हमारे बहुत से बड़े नाम शामिल हैं जिनके भरोसे हम आज भारत को उसका ‘प्राचीन गौरव’ वापस दिलाना चाहते हें।
तो आप का यह कहना सही है कि जब मैं भारतीय सभ्यता को ‘पेगन’ कहता हूँ तो इसका कारण ‘केवल बहुदेव-वाद’ नहीं हो सकता। लेकिन यह इसी अर्थ में सही है कि एकदेव-वाद के विरोध्ा में बहुदेव-वाद को मैं एक गणनात्मक अवध्ाारणा के रूप में नहीं प्रस्तुत कर रहा हूँ। हमें ध्यान देना चाहिए कि ‘पहाड़ खड़े हैं’ और ‘घोड़े खड़े हैं’ में ‘खड़े हैं’ एक ही बात नहीं कहता- ‘घोड़े खड़े हैं’ में यह कहा जा रहा है कि घोड़े इस समय चल नहीं रहे हैं जब कि पहाड़ खड़े हैं’ का तात्पर्य यह है कि वे अपने स्वरूप में हैं। ऐसा ही विवेक ‘बहुदेव-वाद’ का तात्पर्य समझने के लिए भी आवश्यक है।
वस्तुतः जब मैं भारतीय सभ्यता को ‘पेगन’ कहता हूँ तो मेरे मन में ‘एक-त्व’ या ‘बहुत्व’ की गणनात्मकता नहीं है, ‘अ-द्वैत’ है जो गणनात्मकता पर आध्ारित न होकर अ-गणनीयता पर आध्ाारित हैं। मैं इसे स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ।
अद्वैत- प्रतिपादन के लिए हमारे आचार्य श्रुति को ही प्रमाण मानते हैं किन्तु उससे अविरोध्ाी स्मृति, युक्ति, आदि का भी सहारा लेते हैं। कालिदास का मेघदूत भी प्रमाण-वाक्य के रूप में अमलानन्द सरस्वती ने ब्रह्मसूत्र की अपनी परिमल-नाम्नी व्याख्या में दिया है। तो इस प्रमाण-संग्रह को पढ़ने-समझने के लिए कुछ मार्ग-दर्शन भी हमारे आचार्यों ने किया है। अप्पय्य दीक्षित ने सिद्धान्तलेशसंग्रह में यह सवाल उठाया है कि अद्वैत के कुछ आचार्य एक ही जीव मानते हैं तो कुछ अनेक जीव मानते हैं, कुछ ईश्वर को जीव से भिन्न मानते हैं तो कुछ के मत में ईश्वर भी एक जीव ही है, इस प्रकार उनमें अनेक मतभेद हैं। फिर अद्वैत का सिद्धान्त क्या है? इसका उत्तर उन्होंने यह दिया है कि आचार्यों का तात्पर्य ब्रह्मात्मैक्य का ज्ञान करना है न कि अपनी बतायी प्रक्रिया को स्थापित करना; जिसको जिस प्रक्रिया से ज्ञान हो जाय उसके लिए वही प्रक्रिया स्वीकार्य है। इसी प्रकार हम देखते हैं कि उपनिषदों में सृष्टि-प्रक्रिया अलग-अलग तरीक़ों से बतायी गयी है, किसी में जल की उत्पत्ति पहले है अग्नि की बाद में, किसी में अग्नि की पहले है, जल की बाद में, तो फिर कौन-सी सही मानें? इसका उत्तर यही है कि उपनिषद् का तात्पर्य सत्य ब्रह्म का ज्ञान कराना है न कि मिथ्या जगत् का, अतः जिस प्रक्रिया से जगत् का परिचय प्राप्त हो जाय उसी को स्वीकार कर लेना चाहिए। झुटपुटे में रस्सी देख कर कोई कहता है कि यहाँ साप है, कोई कहना है कि यहाँ माला है, प्रकाश दिखाने पर वे दोनों ही जान जाते हैं कि यहाँ रस्सी है, तो क्या प्रकाश दिखाने वाला यह बताता है कि यहाँ साँप था या माला थी? जिसे साँप नज़र आया वह भी जान गया कि यहाँ रस्सी है, जिसे माला नज़र आयी वह भी जान गया कि यहाँ रस्सी है, अब अगर वे प्रकाश दिखाने वाले से यह जानना चाहें कि यहाँ साँप था या माला थी तो यह फ़ैसला करना प्रकाश दिखाने वाले का काम नहीं है, वह तो यही कह सकता है कि चाहे तुम्हें साँप दिखा चाहे माला दिखी, दोनों ही मान्य हैं किन्तु है तो रस्सी ही।
तो जब गीता में भगवान् कृष्ण यह कहते हैं कि ‘‘सर्वध्ार्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज (= सभी ध्ार्मों को छोड़ कर मेरी शरण में आ जाओ)’’, तो हमारा कोई टीकाकार इसका यह अर्थ नहीं बताता कि सब मन्दिरों से मूर्तियाँ फिंकवा कर केवल पार्थसारथी कृष्ण की मूर्ति लगे जबकि सभी आलमी मज़हब ऐसी ही किसी घोषणा से प्रारम्भ करते हैं और इसका अर्थ यह बताते हैं कि तुम अपने उपास्य की उपासना छोड़ो और मेरे द्वारा बताये गये उपास्य की उपासना करो। हमारी मान्यता है कि ब्रह्म नीरूप है और उपासक की रुचि के अनुसार उपासना हेतु रूप-ध्ाारण करता है, यह उपासक की रुचि है कि वह इस उपास्य को ध्ानुधर््ाारी राम के रूप में अवतरित करे या वंशीध्ाारी कृष्ण के रूप में। तुलसी मस्तक तब नवै, ध्ानुष-बाण लेहु हाथ, तो ठीक है भई, मैं वंशी फेंकता हूँ, और ध्ानुष-बाण पकड़ लेता हूँ, न तो मेरे हाथ में वंशी थी, न ध्ानुष-बाण है, तेरी आँख को जैसा अच्छा लगे, मुझे देख।
भगवान् राम के एक उपासक सूरकिसोर जी हुए हैं। ये मिथिला-वासी थे और अपने को जनक मानते हुए भगवान् को अपना दामाद मानते थे। वे अयोध्या तक जाते थे किन्तु उसकी सरहद के भीतर कभी नहीं घुसते थे क्योंकि हमारे लोकाचर में अनेक लोग बेटी की ससुराल इसलिए नहीं जाते थे कि ऐसा करने में उसके गाव का पानी पीना पड़ सकता है और बेटी का ध्ान खाना वर्जित है, इसी आचार के अध्ाीन अनेक लोग दामाद का छुआ भोजन नहीं ग्रहण करते। कहते हैं कि उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर एक बार भगवान् राम प्रकट हुए और उनसे कोई वर माँगने को कहा। सूरकिसोर जी ने अस्वीकार कर दिया क्योंकि दामाद से कुछ लेने पर वे नरकगामी होते। सूरकिसोर जी के पुत्र प्रयाग दास जी इस रिश्ते को निभाते हुए जानकी जी को बहिन और अपने को ‘भगवान् राम का साला’ बताते थे तथा भक्त-समाज में ‘मामा प्रयाग दास’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनकी ये पंक्तियाँ बहुविदित हैंः
नीम के नीचे खाट पड़ी है, खाट के नीचे करवा
प्राग दास अलमस्ता सोवै, राम लला का सरवा।।
हमारे निकट अतीत में भी भगवान् राम की एक उपासिका उन्हें कौसल्या-भाव से पूजती थीं और इस हैसियत से भगवान् के डायपर नियमित रूप से बदलती थीं। एक और उपासक थे जो अपने को गुरु वसिष्ठ मानते थे और इस हैसियत में पूजा के समय माला पहले खुद पहनते थे तथा बाद में भगवान् की मूर्ति को आशीर्वाद-स्वरूप पहनाते थे। यही हमारा ‘बहुदेव-वाद’ है और हम इसी अर्थ में बहुदेव-वादी है। हमारे यहाँ परम तत्व नीरूप है इसलिए हम मूर्तिपूजा को मिथ्या मानते हैं, किन्तु जब वह उपास्य है तब वह हमारी इच्छा के अनुसार रूप-ध्ाारण करने को विवश है। हमसे बढ़ कर कौन जानता है कि पत्थर की मूर्ति देवता नहीं है, उसे हमने ही गढ़ा है। हमारे यहाँ कहावत ही है, मानो तो देव, नहीं पत्थर। किन्तु पत्थर में हम देवता का अभ्यास नहीं कर सकते, पत्थर को देवता मान नहीं सकते, इसे हम नहीं स्वीकार करते।
कुछ समय पूर्व अख़बारों में ऐसे चित्र छपे थे जिनमें बहुत सी महिलाएँ ‘कोरोना मैया’ की पूजा करती दिख रही थीं और उनकी मूढता पर हमारे बुद्धिजीवियों ने प्रचुर मात्रा में आन-लाइन बत्तीसियाँ निपोरीं। क्या वे स्त्रियाँ स्वास्थ्य-विभाग द्वारा चलाये गये टीकाकरण अभियान का विरोध्ा कर रही थीं जैसा अमेरिका जैसे कुछ देशों में टीका लगवाने को विकल्प मानते हुए उसे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से समीकृत करके कुछ लोगों ने किया? भारत में ताक़त की सबसे निचली सीढ़ी पर ढकेला हुआ आदमी भी कृषि से लेकर चिकित्सा तक के किसी क्षेत्र में आध्ाुनिक विद्वत्परिषद् के सभी आग्रहों का स्वागत करता है बशर्ते कि उसे कोई दूसरी ताक़त पारलौकिक या इहलौकिक भय दिखा कर उन आग्रहों से दूरी बनाने पर उसे विवश न करे। किन्तु हम ‘साइन्टिफि़क टेम्पर’ को पेनिसिलिन के इन्जेक्शन की तरह नहीं घोंप सकते। मनुष्य को अपने देवता ईजाद करने की छूट होनी चाहिए, दिये गये मज़हबी खाँचों के बीच आवाजाही को ध्ाार्मिक स्वतन्त्रता मानना-मनवाना कपट के अतिरिक्त कुछ नहीं।
तो जैसा मैंने कहा, हम बहुदेव-वादी हैं क्योंकि हम अपने देवता ईजाद कर सकते हैं। हम कालिदास के मेघदूत में उल्लिखित महाकाल की अर्चना की भी स्वतन्त्रता माँगते हैं और ‘एड्स देवी’ तथा ‘कोरोना मैया’ की अर्चना का भी। हमारे देवताओं की संख्या अनन्त-शक्य (= चवजमदजपंससल पदपिदपजम) है, जब हम उनकी संख्या ‘तैंतीस करोड़’ बताते हैं, तो हम यही कह रहे होते हैं।
यहाँ मैं आपका ध्यान ‘तान्त्रिक उपासना’ पर समास में छप चुके अपने एक लेख की ओर दिलाना चाहता हूँ। उसमें मैंने विद्यारण्य स्वामी की पंचदशी से एक उद्धरण दिया है जिसके अन्तर्गत उन्होंने कहा है कि पेड़, पत्थर, नदी, हल, कुल्हाड़ी, सभी ईश्वर हैं किन्तु इनको पारमार्थिक सत्य मान कर इनके बीच विवाद करने वाले सर्वथा भ्रम में रहते हैं। सत्य तो अद्वैत ही है। यह अद्वैत ज्ञानस्वरूप है, जब हम ब्रह्म से अपनी अभिन्नता को पहचान लेते हैं, हमें इस संसार का मिथ्या-त्व स्पष्ट हो जाता है। इस नाते मूर्ति-पूजा से लेकर ब्रह्म-साक्षात्कार तक सब कुछ अपने को ही पहचानना है जिसके नाते योगवासिष्ठ में एक स्तोत्र दिया हुआ है जिसकी टेक हैः ‘‘मह्यमेव नमो नमः (= मुझे ही बार-बार नमस्कार है)’’।
इसका यह अर्थ नहीं है कि हम शरीरवान् की शरीर के ध्ार्माध्ार्म से संलिप्तता से इनकार करते हैं। पुराणों में कथा आती है कि जब विष्णु ने वराह अवतार ध्ाारण करके ध्ारती को उबारा तो कुछ देर वराह-शरीर में ही रह गये और देवताओं ने यद्यपि बारहा याद दिलाया कि देवकार्य समाप्त हुआ, अब इस देह से निकलें, इसी वराह-शरीर के सुखभोग में लगे रहे। अन्ततः भगवान् शिव ने शरभावतार ध्ाारण किया और उनकी वराह-काया का संहार किया।3 किन्तु हम देह और देही में अन्तर करने वाले लोग हैं। बृहदारण्यकोपनिषद् में मध्ाु-काण्ड के अन्तर्गत ब्रह्म को ‘मध्ाु’ कहा गया है। अब जब
3. कुछ जगह वराह-अवतार की जगह नृसिंह-अवतार का उल्लेख है और बताया गया है कि हिरण्यकशिपु के वध्ा के बाद भी विष्णु अपना रौद्र रूप नहीं समेट पा रहे थे। बात वही है, वराह वाली कथा में शरीर के काम-वश हो जाने की ओर इशारा है, नृसिंह वाली कथा में शरीर के क्रोध्ा-वश हो जाने की ओर इशारा है, नृसिंह वाली कथा में शरीर के क्रोध्ा-वश हो जाने की ओर। यही बात गुरु गोरखनाथ वाली उस कहानी में भी है जिसमें उन्होंने ‘‘जाग मछिन्दर गोरख आया’’ की गुहार लगा कर अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ को योगिनियों से बचाया था।
हमारे आचार्यों का देह-विचार एक स्वतन्त्र निबन्ध्ा का विषय है, उसे मैं यहाँ नहीं छेड़ रहा हूँ।
दुर्गासप्तशती में महिष-वध्ा के पूर्व देवी महिष से कहती हैं ‘‘गर्ज गर्ज क्षणम्मूढ मध्ाु यावत् पिबाम्यहम् (= हे मूढ, तू थोड़ी देर गरज ले, जब तक मैं मध्ाु-पान करती हूँ’’, तो इसमें हम यह संकेत पाते हैं कि अज्ञान के नाश हेतु ब्रह्मविद्या को आत्मसात् करना होता है, किन्तु जो उपासक यहाँ ‘मध्ाु = शराब’ समझ कर शराब की आहुति देते है, उनको पथभ्रष्ट मान कर उनको दण्डित करने के लिए हमने कोई व्यवस्था नहीं बनायी है क्योंकि यदि किसी श्रद्धा देवी में है, तो वह चाहे जैसे भी व्यक्त हो, अन्ततः वह स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले ही जायेगी। आज चाहें, तो लियोतार के ‘मुल्यों का बहुदेव-वाद (= चवसलजीमपेउ व िअंसनमे)’ की बग़ल में इसे रख सकते हैं किन्तु उसके बिना भी बात समझ में आनी चाहिए। तत्व-ज्ञान के लिए कोई एक ही राह है, यह हमारे यहाँ कभी नहीं स्वीकार किया गया।
तकनीकी तौर पर हम कहते हैं कि ब्रह्मसूत्र का शांकर-भाष्य केवलाद्वैती है और श्रीकण्ठ का भाष्य (शिव) विशिष्टाद्वैती, किम्तु अप्पय्य दीक्षित ने श्रीकण्ठ-भाष्य पर अपनी टीका में बताया है कि इस विशिष्टाद्वैत का पर्यवसान अद्वैत में ही है। अद्वैत ही तत्व है किन्तु शिवकृपा के बिना अद्वैत-वासना नहीं जागृत होती। इस अर्थ में शिवोपासना, अर्थात् कोई भी प्रतीकोपासना, आवश्यक मानी गयी है। इसी अर्थ में हम मूर्तिपूजक हैं।
विद्यारण्य स्वामी ने कहा है कि माया कामध्ोनु है और ईश्वर तथा जीव इसके दो बछड़े हैं, ये माया का द्वैत-रूपी दूध्ा पी कर चाहे जितना बढ़ सकते हैं, किन्तु तत्व तो अद्वैत ही है। श्ाृंखला चाहे लोहे की हो चाहे सोने की, स्वतन्त्रता उसको तोड़ने से ही मिलती है। रुद्र एक हैं कि ग्यारह? दोनों उत्तर स्वीकार्य हैं और ‘न एक, न ग्यारह’ भी, क्योंकि रुद्र गणना के परे हैं। हमारे यहाँ ‘गणदेवता’ की परिकल्पना यही बताती है, आठ वसु हैं, दो सौ तुषित, चैंसठ आभास्वर। फिर आप तय करते रहिए कि सूर्य एक है कि बारह हैं, वायु एक है कि उनचास हैं।
‘निश्चय’ करना अन्तःकरण की एक वृत्ति का काम है जिसे ‘बुद्धि’ कहते हैं। किन्तु अन्तःकरण परिसीमन और बन्ध्ान के द्वारा जीव को परिभाषित करता है। याद रखने की बात है कि ‘करण’ का अर्थ ‘इन्द्रिय’ होता है जिनके माध्यम से हम कुछ करते हैं। ‘अन्तःकरण’ मन और बुद्धि जैसी उन इन्द्रियों के लिए प्रयुक्त होता है जो हमारी हाथ-पाँव, आँख-नाक जैसी बाह्य इन्द्रियों से भिन्न हैं। ‘अहम्’ और ‘अहंकार’ में अन्तर इसी अन्तःकरण के नाते है- ‘अहम्’ ममेतर को अ-पारमर्थिक मानना है जबकि ‘अहंकार’ मामकीकरण है जिसके तहत ध्ाृतराष्ट्र ने भगवद्गीता के प्रथम श्लोक में संजय से लड़ाई का हाल पूछते हुए अपने पुत्रों को ‘मामक’ कहते हुए उन्हें ‘पाण्डव = पाण्डु-पुत्रों’ से अलग किया था और जब अर्जुन ने तीसरे अध्याय में भगवान् से पूछा कि आप कभी कर्म करने को कहते हैं, कभी कहते हैं कि नहीं करना चाहिए, निश्चय करके मुझे बताइये, तो वह इसी ‘बुद्धि’ से परिचालित था। भगवान् के पूरे उपदेश को सुनकर के ही उसका ‘संशय’ दूर होता है और वह कहता है कि जैसा आप कहते हैं वैसा ही करूँगा। यह अहंकार मायात्मक होता है और इसमें से ‘कार’ के विलोपन को ही तत्व-ज्ञान कहते हैं। मिजऱ्ा बेदिल का यह बेहद खूबसूरत शेर इसी बात को कहता हैः
अ़दम-म दाद जि़ जौलाँगह$ए$दिलदार सुराग़
ख़ाक$ए$रह गश्तम $ओ$नक़्श$ए$क़दमे पैदा शुद।।
ख्‘मेरे’ विलोप ने ही मेरे माशूक़ की सैरगाह का पता दिया। विलुप्त हो कर मैं राह की ध्ाूल बन गया और (उस ध्ाूल में उस माशुक़ के) क़दमों के निशान उभर आये।,
हमें याद रखना चाहिए कि माया त्रिगुणात्मिका है और ‘गुण’ का अर्थ है बन्ध्ान। द्वैत-वासना इसी ‘तिरगुन फाँस’ का नाम है। इसलिए सत्व में आबद्ध व्यक्ति को रजस् या तमस् में आबद्ध व्यक्तियों पर हँसने का कोई अध्ािकार नहीं है, गुण (= बन्ध्ान) के पार जाना लक्ष्य हे न कि एक गुण से मुक्ति पा कर दूसरे गुण में आबद्ध होना।
इसी अर्थ में हम मूर्तन को मिथ्या मानते हैं और चाहे तो कोई इस पर सीना फुला सकता है कि हम मूर्तिपूजक नहीं हैं। किन्तु यह हमें मूर्तियाँ तोड़ने का अध्ािकार नहीं देता और न ही उसे हमारा कर्तव्य निधर््ाारित करता है। इसका यह अर्थ नहीं कि द्वैत-वासना का भारत में कोई उदाहरण ही नहीं है। कुछ वैष्णव ऐसे हैं जो शिव को जीव मानते हैं और शिवमूर्ति को प्रणाम करने से इनकार करते हैं। यह वही बात है कि ख़ालिक़ को सिजदा फ़र्ज़ है लेकिन मख़लूक़ को सिजदा गुनाह है, और उसी द्वैत-वासना से परिचालित है। सौभाग्यवश ऐसे मताग्रह हमारे यहाँ हाशिये पर ही रहे हैं, और राजदरबारों में प्रतिष्ठा-प्राप्ति हेतु स्वमत के माहात्म्य-कथन के रूप में ही स्वीकार्य रहे।
मैं इस बात को कालिदास के एक श्लोक से और स्पष्ट करना चाहता हूँः
एकैव मूर्तिर्बिभिदे त्रिध्ाा सा सामान्यमेषाम्प्रथमावरत्वम्
विष्णोर्हरस्तस्य हरिः कदाचिद् वेध्ाास्तयोस्तावपि ध्ाातुराद्यौ ।।
ख्एक ही मूर्ति तीन में बँटी है, इन तीनों में ही ‘पहले होना’ और ‘पीछे होना’ एक ही साथ मौजूद हैं। कभी विष्णु से शिव पहले होते हैं कभी शिव से विष्णु, कभी ब्रह्मा ही इन दोनों से पहले होते हैं और कभी ये ही दोनों ब्रह्मा से पहले होते हैं।,
यह कुमारसम्भव के सातवें सर्ग का चैवालीसवाँ श्लोक है। इसे प्रकाशिका नाम की टीका में प्रक्षिप्त माना गया हे क्योंकि यह ‘नायक-प्रभाव’ का अंग नहीं है- अर्थात् चूँकि इस काव्य के नायक शिव हैं इसलिए उनका उत्कर्ष ही कवि को दिखाना चाहिए किन्तु यहाँ उन्होंने नायक की बराबरी में दो और बिठा दिये। इसका खण्डन करते हुए विवरण नाम की टीका में कहा गया है कि इस श्लोक से तो नायक का परमोत्कर्ष सूचित होता है क्योंकि यह उनके परमेश्वरत्व को बता रहा है। विवरण में समझाया गया है कि जैसे बच्चों के खेल में कभी एक बच्चा राजा बन जाता है और दूसरा उसका मन्त्री, फिर दूसरी बार खेलते हुए जो पहले मन्त्री बना था वह राजा बन जाता है और जो पहले राजा बना था वह मन्त्री बन जाता है, किन्तु इससे यह नहीं तय होता कि उन दो बच्चों में कौन अध्ािक महत्वशाली है, उसी प्रकार एक क्रीडाभाव से ही यह सृष्टि-स्थिति-संहार का विध्ाान भी देखना चाहिए- पार्थक्य केवल अभिनेता को दी गयी भूमिका में होता है और किसी अभिनेता को उसके द्वारा किये गये अभिनय के आध्ाार पर किसी वास्तविक मुक़दमे में आप जवाबदेह नहीं ठहरा सकते। संक्षेप में, हमें ‘रील लाइफ़’ और ‘रियल लाइफ़’ में अन्तर करना सीखना चाहिए और यह स्वीकार करना चाहिए कि किसी अभिनेता को अगर एक फि़ल्म में हीरो का रोल मिला है तो दूसरी फि़ल्म में वह ‘कैरेक्टर’ का भी रोल पा सकता है।
इस ‘रील लाइफ़’ को ही अद्वैत-सिद्धान्त में ‘व्यावहारिक सत्ता’ कहा गया है और ‘रियल लाइफ़’ को ‘पारमार्थिक सत्ता’ कहते हैं। जब हम कहते हैं कि ब्रह्म सत्य है तो हमारा यह कहना है कि ब्रह्म की सत्ता पारमार्थिक है, जब हम कहते हैं कि जगत् मिथ्या है, तो हमारा कहना है कि जगत् की सत्ता व्यावहारिक है। इन दोनों सत्ताओं का घालमेल ही द्वैत-वासना है।
कालिदास ने यह श्लोक क्यों लिखा है? प्रसंग यह है कि भगवान् शिव देवी पार्वती से विवाह हेतु बरात लेकर आये हैं और इस श्लोक के पहले वाले श्लोक में कहा गया है कि कन्यापक्ष की ओर से भगवान् विष्णु तथा भगवान् ब्रह्मा उनके स्वागत में जयघोष करके उनकी महिमा बढ़ा रहे हैं। अवश्य ही कालिदास ने पाया कि कुछ लोग इस अभ्यर्थना का यह तात्पर्य निकालेंगे कि उन्होंने यहाँ त्रिमूर्ति में तारतम्य स्थापित करते हुए शिव को सर्वश्रेष्ठ बताया है। ऐसा कोई भ्रम न हो, इसीलिए उन्होंने यह लिखा है। इससे हमारे आध्ाुनिक साहित्य-चिन्तकों को यह तय करने में असुविध्ाा होगी कि कालिदास शैव थे या वैष्णव, किन्तु जैसा कि प्रकाशिका टीका से स्पष्ट है, ऐसा कुछ पुराने लोगों में भी समझा गया है और ‘तारतम्य’ के निर्वाह को इस श्लोक के माध्यम से खण्डित करने का दोष कालिदास पर एक साहित्य-शास्त्रीय मान्यता के आध्ाार पर लगाया भी गया। विवरण टीका ने साहित्य-शास्त्र के अखाड़े में उतर कर इस अरोप का खण्डन कर दिया है। किन्तु कालिदास को यह लिखना पड़ा इससे यह तो साबित होता ही है कि द्वैत-वासना से अभिभूत लोग भारत में प्राचीन समय में भी रहे हैं।
इस प्रकार यह न समझना चाहिए कि जब मैं भारतीय सभ्यता को ‘पेगन’ कहता हूँ तो इसका तात्पर्य यह है कि मैं यह दावा कर रहा हूँ कि भारत में ग़ैर-पेगन लोग रहे ही नहीं हैं। आखि़र आलमी मज़हब किसी रिक्ति में तो उपजे नहीं। नीत्शे ने जब ‘अपोलो बनाम डायोनिसस’ की बात उठायी है तो उन्होंने ‘पेगन’ ग्रीक अतीत में ही ‘पेगन’ और ‘ग़ैर-पेगन’ दोनों की मौजूदगी की बात की है। मैं भारतीय सन्दर्भ में ‘पेगन = अद्वैत-वासना’ और ‘ग़ैर-पेगन = द्वैत-वासना’ की शब्दावली का प्रयोग करूँगा।
तो जिसे मैंने अभी ‘रील-लाइफ़’ या ‘व्यावहारिक सत्ता’ कहा है, उसके अन्तर्गत हम सभी द्वैत-वासना से परिचालित होते हैं। यह द्वैत-वासना ही हमारा दैनन्दिन अनुभव है। भला हममें से कौन यह अनुभव करता है कि वही अन्य जीव है, या वही ईश्वर है? इस द्वैत-वासना के स्वीकार के लिए किसी शास्त्र के प्रमाण की आवश्यकता नहीं, यह हम अपने बल पर ही मानते हैं। हम अपने से भिन्न और अध्ािक शक्तिशाली ईश्वर को स्वतः स्वीकार करते हैं। व्यवहारतः हम सभी द्वैत-वादी हैं। शास्त्र से प्राप्त ज्ञान तो अद्वैत-वासना को ही जगा सकता है और हमें इस व्यावहारिक सत्ता में डूबे रहने से उबार कर पारमार्थिक सत्ता की ओर उन्मुख करा सकता है।
मैंने ऊपर कहा है कि यह अद्वैत गणनात्मकता को बहुत से घटा कर एक पर ले आना नहीं है। इस बात को ठीक से समझना चाहिए। एक अद्वैत वह है जिसमें सारी सत्ताएँ अस्तित्वहीन हैं, यह ‘अ-भावाद्वैत’ कहलाता है। एक अद्वैत वह है जिसमें हमारी सत्ता सभी सत्ताओं से पृथक् है, या यों कहिए कि सभी सत्ताएँ हमारे अनुभव से बाहर हैं, यह ‘भावाद्वैत’ कहलाता है। ये दोनों ही अद्वैत गणना पर आध्ाारित हैं। भारत में ये अद्वैती भी रहे हैं, कहा जाता है कि बौद्ध अ-भावाद्वैती हैं और योगी भावाद्वैती। द्वैत, भावाद्वैत, अ-भावाद्वैत, ये सभी गणना पर आध्ाारित हैं। किन्तु जब मैं अ-द्वैत कह रहा हूँ तो मेरा तात्पर्य उस अ-द्वैत से है जिसे हम शांकर अद्वैत के नाम से जानते हैं और जो कभी-कभी ‘पूर्णाद्वैत’ या ‘केवलाद्वैत’ के नाम से जाना जाता है। यह गणना पर आध्ाारित नहीं है, इसका मानना है कि एक ही पूर्ण है, गणनात्मकता की सर्जना करने वाली आगे की सारी गिनतियाँ ‘रील लाइफ़’ की गिनतियाँ हैं। ‘एक’ कोई शुरुआत नहीं है, एक पारमार्थिक है, शुरुआत व्यावहारिक। इसे ही ‘अजात-वाद’ कहते हैं, किसी का जन्म ही नहीं हुआ तो मृत्यु कहाँ से होगी, बन्ध्ान कहाँ से होगा और मोक्ष कहाँ से होगा। उस पूर्ण सत्ता में ही सभी सत्ताएँ अध्यारोपित हें।
इस पूर्णाद्वैत या अजात-वाद के मूधर््ान्य ग्रन्थ योगवासिष्ठ (निर्वाण प्रकरण पूर्वाधर््ा, सर्ग 21) में काकभुशुण्डि ने महर्षि वसिष्ठ से अपने दीर्घ जीवन का बयान करते हुए कहा है ः
गरुडवाहनं विहगवाहनं विगहवाहनं वृषभवाहनं
वृषभवाहनं गरुडवाहनं कलितवानहं कलितजीवितः।।
ख्(मैंने एक लम्बी जि़न्दगी जी है और अनेक बार) मैंने विष्णु को ब्रह्मा होते, ब्रह्मा को शिव होते, शिव को विष्णु होते अपनी जि़न्दगी में देखा है।,
यद्यपि हमारे आध्ाुनिक चिन्तक इसे अतार्किक बतायेंगे कि अनेक महाप्रलयों और सृष्टियों को काकभुशुण्डि अपने इकलौते जीवन में देख सकते हैं, यह ठीक वही बात है जो कालिदास ने कही है। हम भी यही कह रहे होते हैं जब हम राम-कथा की विभिन्न प्रस्तुतियों में मौजूद आँकड़ों के बीच का फ़र्क़ समझाते हुए यह कहते हैं कि ये विभिन्न कल्पों में होने वाले रामावतार की कथाएँ हैं क्योंकि रामावतार तो प्रत्येक कल्प की प्रत्येक चतुर्युगी के त्रेता में होता है। इसी अनन्त-पुनरावर्ती समय-संकल्पना को हम ‘चाक्रिक’ बता कर सेमिनारों में यह कहते हैं कि भारतीय काल-चिन्तन उन अन्य संस्कृतियों के काल-चिन्तन से भिन्न है जो काल को ‘रैखिक’ मानते हैं। किन्तु इन ज्यामितीय चित्रणों के माध्यम से किस प्रकार काल की चक्रात्मकता अद्वैत-वासना को और काल की रैखिकता द्वैत-वासना को रूपायित करती है इस पर हम ध्यान नहीं देते। पुनर्जन्म की अवध्ाारणा भी इसी प्रकार अद्वैत-वासना को रूपायित करती है।
मैं फिर दुहराता हूँ कि पूर्णाद्वैत गणनात्मकता पर आध्ाारित नहीं है। चाहने पर, जिसे मैंने अभी तक भारतीय ‘बहुदेव-वाद’ कहा है, उसे ‘अदेव-वाद’ भी कह सकते हैं क्योंकि हमारा मीमांसा-शास्त्र घोषित करता है कि देवता स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखते, वे उन मन्त्रों के बाहर सत्ताहीन हैं जिनका आश्रय ले कर हम उनके लिए यज्ञ करते हैं। एक तरह से वे एक ‘भाषिक क्रीडा’ की निर्मिति हैं।
मैंने अभी ‘भाषिक क्रीडा’ शब्द का इस्तेमाल किया। आप चाहने पर लियोतार के संदहनंहम हंउम की बग़ल में इसे रख सकते हैं और किसी जर्नल में छापे जाने योग्य एक परचा भी तैयार कर सकते हैं। मैंने यह स्वीकार करने में कभी संकोच नहीं किया कि मेरे मन में कुछ ‘उत्तर-आध्ाुनिकतावादी’ चिन्तकों के प्रति सम्मान का भाव है और अगर मेरी स्मृति ध्ाोखा नहीं देती तो हिन्दी के सेमिनारों में शायद मैंने ही उन लोगों का जि़क्र करना शुरू किया था। किन्तु जहाँ भी मैंने भारतीय चिन्तन को पश्चिमी चिन्तन के रू-ब-रू रखा है, मेरा उद्देश्य यह जताने का नहीं रहा है कि ‘हमारे यहाँ यह भी था’। मैं वेदों में मानवाध्ािकार या क़्वान्टम फिजि़क्स, या वहदत-उल-वुजूद खोजने के सर्वथा विरुद्ध हूँ। मेरे ऐसे पाश्र्व-टिप्पनों को आप ऐसा कौतुक भी मान सकते हैं जिसका उद्देश्य डालर का भाव रुपये में बताने वाला टेबुल तैयार करना नहीं है, किन्तु मैं यह ज़रूर जानना चाहता हूँ कि आखि़र वह कौन सा तर्क है जिसके अध्ाीन हिन्दी साहित्य के छात्र को विखण्डन-सिद्धान्त (= क्मबवदेजतनबजपवद ज्ीमवतल) पढ़ाना तो उचित माना गया है किन्तु शब्द-बोध्ा की किसी भी भारतीय प्रविध्ाि से परिचित कराना गै़र-ज़रूरी समझा गया है। जितने भी मज़हबी खाँचे आज हमें ‘ध्ार्म’ कह कर पेश किये जाते हैं, सब इसी द्वैत-वासना से परिचालित हैं। वर्तमान पश्चिमी चिन्तन में जिस ‘अन्य (= वजीमत) की बात उठती रहती है, वह इसी द्वैत-वासना को व्यक्त करने का एक तरीक़ा है। इस ‘अन्य’ की उपस्थिति के बिना ये खाँचे तैयार नहीं हो सकते। परिणामतः इनमें उस ‘अन्य’ का भय भी अनुस्यूत होता है और भय-प्रसूत द्वेष तथा हिंसा भी उनकी तामीर करते हैं। जिस प्रकार रस्सी में दिखने वाले साँप का विष किसी भी प्रतिविष से नहीं दूर हो सकता, उसी प्रकार यह भय भी ‘पड़ोसी से प्यार करो’ जैसे उपदेशों से दूर नहीं हो सकता क्योंकि पड़ोसी है तो ‘अन्य’ ही चूँकि वह एक चैहद्दी से परिभाषित राजनीतिक इकाई है और तब उससे अपनी चैहद्दी बचानी भी है और अगर मुमकिन हो तो उसकी चैहद्दी में घुसपैठ भी कर लेनी चाहिए ताकि अपनी चैहद्दी कुछ और फैल सके। अकारण ही नहीं कौटल्य ने अर्थशास्त्र में पड़ोस के राजा को ‘अरि’ कहा है।
हमारे उपनिषद् घोषित करते हैं, ‘‘द्वितीयाद् वै भयम् (= दूसरे से ही भय होता है)’’ और याज्ञवल्क्य जनक को अ-भय होने का उपदेश करते हैं। यदि आप मूर्ति-पूजक हैं तो आप देख सकते हैं कि प्रायः प्रत्येक मूर्ति का एक हाथ अभय-मुद्रा में होता है। इसी द्वैत-वासना से प्रसूत भय से मुक्ति के लिए हमारा बहुदेववाद प्रयत्नशील है।
किन्तु हमें पढ़ाया जाता है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती को ज्ञान इसलिए हुआ कि उन्होंने देखा कि गणेश-मूर्ति पर चूहे दौड़ रहे हैं और गणेश जी अपनी ‘रक्षा’ नहीं कर पा रहे हैं। यह कौन सी शिक्षा है? गणेश जी को हिन्दुओं ने उनकी चूहे मारने की शक्ति के नाते देवमाला में प्रथम पूज्य रखा है?
अस्तु, मैं समझता हूँ कि मैंने भारतीय सभ्यता को जब ‘पेगन’ कहा है तो उसके अन्तर्गत ‘भारतीय बहुदेव-वाद’ के बारे में अपनी समझ को कुछ हद तक मैं बता पाया हूँ। किन्तु ‘पेगन’ का अर्थ-विस्तार कुछ अन्य दिशाओं में भी है। मै। इसकी समकालीन अर्थच्छटाओं की बात नहीं करूँगा और मेरे दिमाग़ में चंहंद कपमज या दमवचंहंदपेउ जैसी चीज़ें नहीं हैं। मैं इसके पुराने इस्तेमाल की ही बात कर रहा हूँ। ‘पेगन’ दो चीज़ों का प्रतिपक्ष था, वह ‘ईसा का लश्करी (= ैवसकपमत व िब्ीतपेज)’ नहीं था और वह ‘खुदावन्द के शहर (= ब्पजल व िळवक)’ का शहरी नहीं था। ग़ैर-लश्करी और ग़ैर-शहरी होने की ये छवियाँ भी हमारी भारतीयता में उपस्थित हैं। ‘विश्व-विजय’ हमारा लक्ष्य नहीं रहा है। हमने कोई लश्कर कहीं नहीं भेजा है, यहाँ तक कि जिस एकमात्र पन्थ-बौद्ध ध्ार्म- ने भारत के बाहर पहुँच बनायी, उसने भी ऐसा शस्त्रबल के आध्ाार पर नहीं किया, जब कि आलमी मज़हब अपने फैलाव के लिए लश्कर ज़रूर भेजते हैं। हमारी बौद्ध ग्रन्थ-राशि तिब्बती, चीनी, जापानी, आदि में अनूदित की गयी है किन्तु हमने कोई ‘किताब’ बाहर नहीं भेजी है। हमारे आचार्यों का तो यह दावा है कि ‘‘अवचनम्बुद्धवचनम् (= बुद्ध ने कुछ कहा ही नहीं)’’ (तथागतगुह्यसूत्र)। आचार्य नागार्जुन माध्यमिककारिका में लिखते हैं, ‘‘न क्वचित् कस्यचित् कश्चिद्धर्मो बुद्धेन देशितः (= भगवान् बुद्ध ने कहीं भी किसी को भी किसी भी ध्ार्म का उपदेश दिया ही नहीं)। हम कैसे मान लें कि बुद्ध एक पैग़म्बर थे?
अम्बेडकर जी ने जाति-व्यवस्था में जो दोष गिनाये हैं उनमें एक यह भी है कि इसने हिन्दू ध्ार्म को एक आलमी मज़हब बनने से रोक दिया- हम किसी को हिन्दू नहीं बना पाते क्योंकि सवाल यह उठ जाता है कि इस नौ-हिन्दू को किस जाति में शामिल करें। मेरे ख़याल में बात इतनी सीध्ाी नहीं है और मघों (= शाकद्वीपी ब्राह्मणों) तथा शकों का समावेशन आदि इसके विरुद्ध जाते हैं। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना के बारे में भी यही कहा जाता है कि मुहम्मद तुग़लक ने होयसल साम्राज्य की पराजय के बाद उसके दो सामन्तों-हरिहर और बुक्क- को मुसलमान बना लिया था जिनकी हिन्दू ध्ार्म में ‘घर-वापसी’ करके उनसे विद्यारण्य स्वामी ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना करवायी। किन्तु अम्बेडकर जी का यह कहना बिलकुल सच है कि हिन्दू ध्ार्म एक आलमी मज़हब नहीं है क्योंकि ऐसे उदाहरण विरल हैं और प्रायः एक मन्थर सामाजिक स्वीकृति के या कभी-कभार विद्यारण्य स्वामी जैसे महापुरुषों के व्यक्तिगत प्रताप के सूचक हैं तथा किसी ऐसी सरल और उजागर उन-सांख्यिकीय प्रविध्ाि को नहीं बताते जैसी आलमी मज़हबों को उपलब्ध्ा है। अगर यह जाति-व्यवस्था के नाते है तो मेरी समझ में यह जाति-व्यवस्था का एक हितकारी प्रभाव माना जाना चाहिए। सनातन में ‘अन्य’ की अवध्ाारणा नहीं है, इसलिए ‘अन्य’ को ‘स्व’ में बदलने की कोई तकनीकी भी कल्पित नहीं की गयी है।
ग़ैर-शहरी होने का मतलब भी समझना चाहिए। ‘राध्ाा नागर’ किस अर्थ में ‘नागर’ हैं? निश्चय ही अपने नगर-निवास के नाते नहीं, जिसके जीवन में मथुरा और द्वारका की जगह नहीं है और जो वृन्दावन-विहारी के साथ विहार के अतिरिक्त उनके भौतिक ऐश्वर्य की सहचारिणी रही नहीं, उन्हें हम ‘शहरी’ तो कदापि नहीं मान सकते। वे ‘नागरी’ हैं किन्तु किसी ऐसे अर्थ में जो निकुंज-लीला से, यमुना के कछार से, और उन बारह वनों से संगत है जिनके बीच वृषभानु और नन्द बसे हुए हैं।
‘शहर’ क्या है? बाइबिल में हज़रत आदम के दो बेटों- आबेल और केन - की कथा दी हुई है। केन अपने भाई आबेल की हत्या के लिए जाना जाता है। इसी केन ने ‘शहर’ की शुरुआत की है जो ‘देहात’ के प्रतिपक्ष में उभरा। ‘खुदावन्द के शहर’ की गौरवमय उपस्थिति रोमन सम्राट् थिओडिसस
यहाँ हम देखते हैं कि पाणिनीय व्याकरण के अनुसार ‘नगर’ शब्द की व्युत्पत्ति ऊषसुषिमुष्कमध्ाो रः (अष्टाध्यायी 5-2-107) सूत्र पर कात्यायन के वार्तिक नगपांसुपाण्डुभ्यश्च के आध्ाार पर है। ‘नग’ का तात्पर्य है ‘वृक्ष’ और ‘पर्वत’। ‘नगर’ उस जगह को कहेंगे जहाँ बहुत से पेड़ हों और बहुत से पहाड़ हों। इससे किसी ऐसी जन-संकुल जगह का तात्पर्य कैसे निकलता है जहाँ अट्टालिकाओं और राजमार्गों की भरमार हो, यह बताना आसान नहीं है। ‘नगर’ और ‘ग्राम’ कभी-कभार पर्यायवाची भी समझे गये हैं- (कुमारसम्भव के सातवें सर्ग के पचासवें श्लोक में) कालिदास लिखते हैं कि बरात ले कर शिव जी हिमवान् के ‘नगर’ गये, टीकाकार विवरण में अगले ही श्लोक का अर्थ समझाते हुए लिखते हैं कि वे हिमवान् के ‘ग्राम’ गये। ‘ग्राम’ की व्युत्पत्ति ‘भोजन करना’ का अर्थ देने वाली ‘ग्रसु’ ध्ाातु से करते हैं और इस प्रकार ‘ग्राम’ वह जगह ठहरती है जहाँ खाने-रहने को मिल जाय। बहरहाल, यह सत्य है कि ‘नगर’ से वैदग्ध्य और कला-नैपुण्य जुड़े हुए हैं तथा ‘नागरिक’ का प्रतिपक्ष ‘ग्रामीण’ भी रहा है।
मैं फिर लियोतार की ओर मुड़ता हूँ और उनके एक निबन्ध्ा स्मेेवदे पद च्ंहंदपेउ4 की ओर आपका ध्यान दिलाता हूँ। ‘पेगन’ शब्द को पश्चिमी चिन्तक श्चंहनेश् से बना मानते हैं जो श्चवसपेश् अर्थात् ‘शहर’ की शहर-पनाह के बाहर की जगह थी जहाँ ये ‘ग़ैर-शहरी’ पेगन रहते थे। इसके लिए संस्कृत शब्द ‘उपकण्ठ’ है किन्तु कुमारसम्भव (सप्तम सर्ग, श्लोक 51) देखने से सिर्फ़ इतना पता लगता है कि यह बस्ती से बाहर की जगह थी जहाँ निकल कर नगर-वासी आगन्तुक का स्वागत करते थे- इसके निवासी ‘ग़ैर-शहरी’ होते थे, ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता। शहर-पनाह इनकी घुसपैठ से बचाने के लिए नहीं थी।
इस सिलसिले में मैं इतना ही कह सकता हूँ कि संसार के अन्य लोगों की तरह ही हमारे भी नगर राजशक्ति और अर्थशक्ति के केन्द्र रहे हैं किन्तु इनकी काम्यता हमारे यहाँ सीमित रही है। मनुष्य-जीवन का तीन-चैथाई ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, और संन्यास- हमारी परिकल्पना में नगर-वास से असम्बद्ध रहा है और बचे हुए एक-चैथाई, अर्थात् गार्हस्थ्य, से न केवल जीविका अपितु सम्मान का
4 ज्ीम स्लवजंतक त्मंकमत ;मकपजमक इल ।दकतमू ठमदरंउपदद्ध ठसंबाूमसस च्नइपेीमतेए 1989 में संकलित
भी अध्ािकारी रहा है। इस गार्हस्थ्य में भी, उच्चतम सम्मान के अध्ािकारी-ब्राह्मण- के पास जीविका का मुख्य साध्ान भिक्षाटन निधर््ाारित था। कहने के लिए राहिबों (= उवदो) और दरवेशों के उदाहरण कोई दे सकता है किन्तु सच यही है कि इनका महत्व उसी हद तक रहा है जिस हद तक ये राजसत्ता के अनुषंग के रूप में एक संघटित शक्ति की हैसियत से अपनी भूमिका निभाते रहे हैं। यहाँ ऐसे संघटन नहीं रहे हैं, यहाँ तक कि उत्तर-मध्य काल में साध्ाुओं की जो सेनाएँ बनीं, वे भी केवल किराये पर उपलब्ध्ा टुकडि़यों के रूप में ही बन पायीं।
हर हाल में, ‘प्रान्तीय (= चतवअमदबंस)’ के प्रति जो तिरस्कार पश्चिम में रहा है, वह भारत में अनुपस्थित था। राजशेखर ने जिस कवि-सभा का उल्लेख किया है उसमें देशभाषा के कवि भी उपस्थित होते थे।
लियोतार के जिस निबन्ध्ा का मैंने अभी उल्लेख किया उसमें दिये गये पेगनों के कई अभिलक्षण हमारे अभिलक्षणों के सिलसिले में विचारणीय हैं। हम देखते हैं कि उन पेगनों की देवमाला देवों के ताक़तवर होने से परिभाषित है। यहाँ जिन देवों से ध्ान और रक्षा की याचनाएँ की जाती रही हैं, उनकी ताक़त के बारे में किसे सन्देह हो सकता है किन्तु हम पाते हैं कि इन्द्र हमेशा इस चिन्ता में रहते हैं कि कोई प्रतापी मानव सौ अश्वमेध्ा न कर डाले और उनका इन्द्र-पद न छीन ले। हम देवों को ध्ामकियाँ भी देते रहते हैं। रेणु जी के एक उपन्यास- जहाँ तक याद है, परिती परिकथा- में एक व्यक्ति देवी को एक ‘पचरा’ गाकर तुष्ट कर रहा है जिसके अन्त में वह कह रहा है कि अगर देवी ने उसकी बात नहीं मानी तो फिर उनकी कोई पूजा नहीं करेगा। मैंने कई जगह बृहदारण्यकोपनिषद् से वह अंश उद्धृत किया है जिसमें यह कहा गया है कि मनुष्य देवों के पशु हैं- यदि देवार्चन के फलस्वरूप मनुष्य को सुख प्राप्त होता है तो देव भी अपने पोषण के लिए मनुष्यों की अर्चना पर आध्ाारित हैं। चारे के बदले में दूध्ा का यह विनिमय एक व्यावसायिक विनिमय है जिसकी चाक्रिकता से छुटकारा ही अद्वैत है। आपको लग सकता है कि मैं लोक-मानस की बात कम और शास्त्र-चिन्तन की बात अध्ािक कर रहा हूँ किन्तु भारत में शास्त्र और लोक में आवाजाही किसी अध्ािकार-पत्र की मुहताज नहीं रही है। उदाहरण के लिए रामचरितमानस हिन्दी समाओचना के सारे प्रयासों के बावुजूद अभी लोक-मानस से विस्थापित नहीं हुआ और उसमें गोस्वामी जी सहज भाव से लिखते हैं कि देव स्वार्थी होते हैं। यह प्रसंग तब का है जब रावण-वध्ा के बद देवगण भगवान् राम की स्तुति करने आये हैं और गोस्वामी जी हमें याद दिलाते हैं कि ये वही देव हैं जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए भगवान् के राज्याभिषेक में विघ्न डालते हुए उन्हें वन में भटकने और विविध्ा कष्ट सहने के लिए बाध्य किया। बिना उपनिषद् पढ़े लोग कैसे इन देवों को स्वार्थी मान लेते हैं?
हमारी मिथकीय संकल्पना देवों और दैत्यों को भी मनुष्य की तरह योनियों के रूप में स्वीकार करती है जिनके बीच रिश्तेदारियाँ मुमकिन हैंः देवराज इन्द्र की पत्नी पौलोमी पुलोमा नामक दैत्य की बहिन हैं और उनकी पुत्री जयन्ती शुक्राचार्य नामक ऋषि की पत्नी है जिसकी सन्तान देवयानी का विवाह ययाति नामक मनुष्य राजा से हुआ है तथा जिसकी सौत शर्मिष्ठा नाम की दैत्य-पुत्री है। देव अन्ततः सृष्टि के ही अंग हैं अतः उसी आख्या (= दंततंजपवद) की उपज हैं जिसकी उपज मनुष्य हैं- जिस प्रकार मनुष्यों के लिए मोक्ष काम्य है उसी प्रकार देवों के लिए भी।
यहाँ यह कहा जा सकता है कि चूँकि वेद अ-पौरुषेय हैं अतः जिस आख्या की बात मैंने अभी की है, उसको मनुष्य-कृत नहीं मान सकते। किन्तु हम इस पर तो ध्यान दे ही सकते हैं कि सृष्टि को ‘अद्वैत = अजात-वाद’ के अनुसार चित्त ही रचता है और चित्त-नाश ही सृष्टि का विलोप है। अन्ततः आख्या ही सर्जना है।
‘आख्या’ एक काव्य-चेतना है जिसके साथ ‘छल’ अनिवार्यतः जुड़ा हुआ है। ‘छल’ भी लियोतार के इस निबन्ध्ा में चर्चित है। हमारे यहाँ छल एकतरफ़ा नहीं है, न केवल देव मनुष्यों को छलते हैं और इन्द्र गौतम ऋषि का वेष ध्ाारण करके गौतम-पत्नी अहल्या का शीलभग्न करते हैं अपितु मनुष्य भी अश्वमेध्ा यज्ञ की मन्त्रसम्पदा में से गणानां त्वा ... निकाल कर उससे गणपति की पूजा कर सकते हैं। कौशाम्बी-राज उदयन का पुत्र नरवाहन दत्त विद्याध्ारों का राजा बन सकता है और इन्द्र समेत छह देवता कुन्ती-पुत्र बन सकते हैं। अवतार की अवध्ाारणा न केवल विष्णु को पशु और मनुष्य के शरीर ध्ाारण करने पर बाध्य करती है अपितु दादू जी को सनक ऋषि का अवतार भी बताती है- आवागमन का लोकस्वीकृत स्वरूप इस अवध्ाारणा को साध्ाारण मनुष्यों तक बढ़ाता है।
देह-परिवर्तन का वस्त्र-परिवर्तन से यह साम्य वस्तुतः देह की अवध्ाारणा को ही एक छल के रूप में प्रस्तुत करता है और हम सबको वेष परिवर्तन करते हुए अभिनेता बताता है। इस ‘नट-कल्पना’ को जो शास्त्रीय आध्ाार प्राप्त हैं- उदाहरण के लिए शिवसूत्र का प्रथम सूत्र ‘‘नर्तक आत्मा (= आत्मा एक अभिनेता है)’’- उनको मैंने अनेकत्र अपने लेखों में दिया है किन्तु हम इतना तो बहुत आसानी से देख सकते हैं कि जो लोग शिव को ‘नट-राज’ और कृष्ण को ‘नट-वर’ कहते हैं, वे सृष्टि को एक नाटक के रूप में समझते हैं और इस प्रकार एक काव्य-चैतन्य से चेतन हैं।
आपके इस प्रश्न का उत्तर अब बहुत लम्बा खिंच रहा है और इसमें संवाद की जगह एकालाप की गन्ध्ा आने लगी है। मैं यहाँ अब विराम लेना चाहता हूँ किन्तु उसके पहले एक बात कहना चाहूँगा। मैंने ऊपर ‘आख्या (= दंततंजपवद)’ समीकरण दिया है। इसे आप एक अंगरेज़ी शब्द का अनुवाद करने की लालसा मान सकते हैं। किन्तु हमारे यहाँ एक शब्द है ‘ख्याति’ जिसका अनुवाद अंगरेज़ी में इसका शास्त्रीय तात्पर्य समझाते हुए मततवत किया जाता है किन्तु जिसे मैं दंततंजपवद के बर-अक़्स उसके एक अ-पर्यायवाची के रूप में रखना चाहता हूँ। हम सत्य को एक ‘ख्याति’ के माध्यम से ही देख पाते हैं जिसकी कई सैद्धान्तिक प्रस्तुतियों में से मैं केवल ‘अनिर्वचनीय ख्याति’ का नाम यहाँ लूँगा। ‘ख्याति’ अनिर्वचनीय है क्योंकि यह न तो ‘है’ और न ही ‘नहीं है’। ‘ख्याति’, ‘आख्या’, ‘आख्यान’ , ‘संख्या’, ये सभी एक ही मूल ध्ाातु से व्युत्पन्न शब्द हैं। हम ‘पेगन’ हैं तो इसी ‘ख्याति’ को स्वीकार करने के नाते। यह हमारा कौशल भी है और हमारी सीमा भी। इसी ‘ख्याति-चेतना’ को मैंने ऊपर ‘काव्य-चेतना’ कहा है। हमारी दुनिया एक ख्याति है।
उदयनः मैं सोचता हूँ कि जिसे हम ‘पेगन सभ्यता’ कहते हैं उसमें ऐसा कुछ होता ही नहीं जिसे दैवीय न स्वीकार किया जाय या जो सत्य न हो। लेकिन वह दैवीय या सत्य, अविद्या से आवृत रहता है। कलाएँ और साहित्य कुछ क्षणों के लिए अविद्या के इस आवरण को अनावृत करते हैं और क्षण भर या कुछ अध्ािक के लिए पाठक मायिक वस्तुओं को उनके वास्तविक रूप में अनुभव कर लेता है। मानो क्षण भर के लिए माया के ऊपर पड़ा परदा हट गया हो। इस तरह की पेगन दृष्टि रेनेसाँ के बाद की यूरोपीय कला में भी, कम-से-कम चाहना के स्तर पर, पायी जा सकती है। हमारे समय में पेगन चेतना किन रूपों में उद्घाटित होती आपको नज़र आती है? एक का जि़क्र आपने किया है- मिजऱ्ा बेदिल की कविता। एक और का जि़क्र आप लियोतार के हवाले से कर रहे हैं- उत्तर-आध्ाुनिक कलाएँ और चिन्तन।
वागीश जीः मैं आपके प्रश्न की चिन्ता और उसकी पूर्व-पीठिका से पूर्ण सहमत होते हुए भी उसकी शब्दावली पर कुछ स्पष्टीकरण के साथ ही प्रारम्भ करना उचित मानता हूँ।
हम ‘दैवीय’ शब्द से प्रारम्भ कर सकते हैं। इसका तात्पर्य ईश्वर का स्वातन्त्र्य और जीव का पारतन्त्र्य लिया जाता है, अर्थात् यह कि मनुष्य स्वयं कुछ नहीं करता, अपितु उससे सबकुछ ईश्वर ही करवाता है। मैं इस तात्पर्य को ग़लत नहीं कहता और इसके समर्थन में बहुत से शास्त्रीय प्रमाण भी दे सकता हूँ। लेकिन इसे जस-का-तस स्वीकार करते ही वह सवाल उठता है जिसे पश्चिम में च्तवइसमउ व िजीम म्अपस कहा जाता है- यानी यह कि अगर ईश्वर सर्वसमर्थ है तो फिर दुनिया में बुराई है ही क्यों? क्यों ऐसा है कि मनुष्य को उसके पुण्य-पाप के लिए दण्ड मिलता है, अगर वह खुद कुछ करने में समर्थ ही नहीं है?
अतः हम सोचने पर विवश हे कि यह स्वातन्त्र्य और पारतन्त्र्य किस अर्थ में है? मान लीजिए हम यहाँ से शुरू करते हैं कि ईश्वर ने यह सृष्टि की। यदि इसका अर्थ यह है कि उसने जगत् का आरम्भ किया, अर्थात् उसके द्वारा सृष्टि के पहिले सृष्टि थी ही नहीं तो स्वभावतः यह प्रश्न उठता है कि तब उसने मनुष्य को इस लायक़ बनाया ही क्यों कि वह कोई पाप करे और फिर दण्ड भुगते?
भारतीय चिन्तन में इस समस्या को यों प्रस्तुत किया गया है कि यदि सृष्टि-रचना में पूर्णतः ईश्वर-स्वातन्त्र्य को स्वीकार करते हैं तो उस पर ‘वैषम्य’ और ‘नैर्घृण्य’ के आरोप लगते हैं, अर्थात् यह सामने आता है कि ईश्वर कुछ जीवों के प्रति उदार होकर उनसे पुण्य करवाता है तथा फलतः उनकी सुख-प्राप्ति का विध्ाान करता है और कुछ अन्य जीवों के प्रति अनुदार होकर उनसे पाप करवा कर उनके दुःखभोग का विध्ाान करता है। यह उसका ‘वैषम्य = पक्षपात’ हुआ और इससे उसका ‘नैर्घृण्य = निर्दयता’ भी प्रमाणित है। इसका समाध्ाान यह निकाला गया कि ईश्वर स्वतन्त्र नहीं है।
ब्रह्मसूत्र के प्रथम अध्याय का समापन करते हुए इस बारे में जो कुछ कहा गया है उसे मैं भगवत्पाद के भाष्य के अनुसार प्रस्तुत करने का प्रयास करता हूँ। सृष्टि अनादि है, अर्थात् जब भी ईश्वर सृष्टि करता है, उसके पहले हो चुकी सृष्टि संस्कार-रूप में वर्तमान होती है- भले ही उसका प्रलय हो चुका है, वह ऐसा ही है जैसे नमक पानी में घुल कर भी अपनी सत्ता नहीं खोता। इस प्रकार सृष्टि और उसमें के जीव अपने कर्मों के साथ ईश्वर की प्रत्येक सृष्टि के पहले से मौजूद होते हैं, ईश्वर केवल इस अव्यक्त सृष्टि को व्यक्त करता है तथा जीवों को उनके कर्मानुसार फलभोग के लिए प्रकट करता है।
इन सब बातों को समेटने वाला दार्शनिक नाम ‘ब्रह्मकारणवाद’ है, अर्थात् यह सिद्धान्त कि सृष्टि-स्थिति-संहार का कारण ब्रह्म है, न कि उससे अलग कोई सत्ता जिसे हम ‘माया’ जैसा कोई नाम दे सकें और इसके अन्तर्गत यह मान्यता शामिल है कि यह सब ‘लीलाकैवल्य’ है, केवल एक खेल जिसका कोई प्रयोजन नहीं है, अतः यह ‘कर्म’ नहीं है जिसका कोई फल होता है। इस लीलाकैवल्य को ‘आनन्द’ भी कहा गया है। इसे आप आलमी मज़हबों द्वारा स्वीकृत सृष्टि-प्रक्रिया के बर-अक्स रख सकते हैं जो एक स-प्रयोजन मनुष्य-केन्द्रित प्रक्रिया है।
आप इस बात को सरलता-पूर्वक समझ सकते हैं यदि आप ऊपर आये एक शब्द ‘काव्य-चेतना’ की ओर ध्यान दें। जैसा कि आप जानते हैं, वाल्मीकि ‘आदि-कवि’ हैं तथा रामायण ‘आदि-काव्य’। किन्तु हम पाते हैं कि उन्हें वही ‘राम-कथा’ काव्य-बद्ध करने को मिली है जो उन्हें नारद ने सुनायी है। तो वाल्मीकि क्या करते हैं? वे उस कथा को कहते हैं और इस कहने में ही वह कथा ‘सीता-चरित’ में बदल जाती है- सीतायाश्चरितम्महत्। सृष्टि केवल यही है, अनादि का काव्य-निबन्ध्ान, न कि कोई ‘आरम्भ’। इस अर्थ में ही ईश्वर कवि है और सृष्टि उसकी कविता- देवस्य पश्य काव्यम् न ममार न जीर्यति (अथर्ववेद, 10-8-32)- देव की इस कविता को देखो जो न मरती है न पुरानी पड़ती है।
इस काव्य-चेतना के तहत ईश्वर-स्वातन्त्र्य का निरास है किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि यह जीव-स्वातन्त्र्य की प्रतिष्ठा है। यह एक ‘समतल-पीठ (= समअमस चसंलपदह पिमसक)’ की रचना कही जा सकती है जिसे अद्वैत का एक सम्प्रदाय इस प्रकार कहता है कि ईश्वर भी जीव है किन्तु बहुत बारीक़ी में न जाकर आप विद्यारण्य स्वामी से उस उद्धरण का स्मरण कीजिए जो ऊपर बातचीत में आ चुका है और जिसमें उन्होंने कहा है कि ईश्वर और जीव दोनों ही माया-रूपी कामध्ोनु के दो बछड़े हैं। इन दोनों बछड़ों की कुलेलों का मैदान यही काव्य-चेतना है।
तो जैसे ईश्वर एक कवि है, वैसे ही हम भी हैं। ईश्वर अपने खेल की एक आचार-संहिता बनाता है जिसे ‘नियति’ कहते हैं और जैसा कि मम्मट ने कहा है, कवि की निर्मिति इस नियति के बनाये नियमों के अध्ाीन नहीं होती। ‘कवि की स्वतन्त्रता’ यही है जिसे आजकल इस तरह पेश किया जाता है कि कवि यह चुनने के लिए स्वतन्त्र होना चाहिए कि वह किस राजनीतिक दल को सत्तारूढ कराने के लिए अपनी कविता लिखे।
इस ‘काव्य-चेतना’ को आप चाहें तो उस दंततंजपवद की बग़ल में रख सकते हैं जिसे पेगनों की एक प्रमुख शक्ति के रूप में लियोतार समेत कई पाश्चात्य चिन्तकों ने पहचाना है। किन्तु यह न भूलें कि ये ‘पेगन’ आलमी मज़हबों के अभ्याख्यानों से कुचले जा चुके जीवाश्मों के रेखावशेषों से अध्ािक कुछ नहीं हैं।
मैं यहाँ आपको यह याद कराना चाहता हूँ कि अनेक सभ्यताओं में मृत्युदण्ड देने की विध्ाियों में से कुछ ऐसी थीं जो उच्चकुलीनों के लिए सुरक्षित थीं। उदाहरण के लिए मध्यकालीन यूरोप में एक ही वार में सिर का ध्ाड़ से अलग करना केवल उच्चकुलीनों के लिए सुरक्षित था- ब्रिटिश सम्राट चाल्र्स प्रथम का सिर इसी तर्क पर एक वार में सिर से अलग किया गया और फ्रांसीसी क्रान्ति ने अपने ‘समता-सिद्धान्त’ के तहत यह अध्ािकार सभी तक बढ़ाने के लिए ही गिलोटिन का स्वीकार किया था। तुर्कों और मंगोलों में उच्चकुलीनों का खून नहीं बहाया जाता था- तुर्क सरदारों की जान उनका गला उन्हीं की कमान की डोरी से घोंट कर ली जाती थी तो मंगोल सरदारों की देह को कालीन में लपेट कर उस पर घोड़े दौड़ा देते थे।
आलमी मज़हब पेगनों को ध्ार्मापराध्ाी मानने के नाते उनका नाश करने को प्रतिबद्ध होते हैं और इस प्रक्रिया के लिए उनके द्वारा अपनाये गये उपाय मृत्युदण्ड देने की विध्ाियों के ही रूपान्तर हैं। उन सभ्यताओं की चर्चा न करें जिन्हें ‘कुलीन’ नहीं माना गया- जैसे अफ़रीकन, या अमेरिन्डियन - तो यह साफ़ दीखता है कि ग्रेको-रोमन सभ्यताओं को क़ालीन में लपेट कर उन पर घोड़े दौड़ाये गये हैं और भारतीय सभ्यता की साँसें उसी की कमान की डोरी से उसका गला कस कर रोकी गयी हैं। आज हमारे ग्रन्थों के सुसम्पादित संस्करण पश्चिमी पाठशोध्ान की प्रक्रियाओं से तैयार हुए हैं और उनके अध्ययन के लिए पाश्चात्य अध्ययन-विध्ाियों का ही सम्मान है, प्राचीन टीकाकार अविश्वसनीय माने जाते हैं।
मैंने अभी जो कहा है- अर्थात् ग़ैर-पेगन सभ्यताओं द्वारा पेगन सभ्यताओं को मृत्युदण्ड देना- उसके सिलसिले में आपका ध्यान उस चर्चा की ओर भी जाना चाहिए जो दरीदा के सेमिनारों के मरणोत्तर प्रकाशनों के क्रम में आये मृत्युदण्ड पर दो खण्डों में प्रकाशित उनके चिन्तन ने उकसायी है। इस चर्चा के दौरान नीत्शे की यह बात भी उभर कर सामने आयी कि दण्ड-नीति वस्तुतः एक अर्थनीतिक माडल पर ढाली गयी नीति है- राज्यसत्ता जैसे एक साहूकार के दिये गये क़र्ज़ की अदायगी करवाने में साहूकार की ओर से अपनी शक्ति का विनियोजन करती है, वैसे ही वह एक पीडि़त की ओर से उस क़र्ज़ की अदायगी करवाती है जो पीड़ा के रूप में पीड़क पर चढ़ा हुआ है।
तो यह क़र्ज़-अदायगी पीड़ा पहुँचाने से ही हो सकती है और इस क्रम में प्रतिशोध्ा को नैतिक और वैध्ाानिक आध्ाार देना ही दण्ड-नीति है जिसका निबन्ध्ान समाज और राज्य का काम बन जाता है। दण्ड-नीति की यह प्रतिशोध्ा-मूलकता पेगन और ग़ैर-पेगन की ख़ेमाबन्दी के पहले की है किन्तु इस ख़ेमाबन्दी के बाद हुआ यह कि गै़र-पेगन ख़ेमे अपने ख़ेमे के लिए सारी ज़मीनें तलब करने लगे और किसी भी ऐसी आबादी को जो उनके तहत नहीं आती थी, मात्र इसलिए अवैध्ा घोषित करने लगे कि उसकी जीवन-पद्धति भिनन है। इस अवैध्ाता के नाते पेगन आबादियों पर मृत्युदण्ड लाजि़म माना गया और उसकी वे सभी विध्ाियाँ अपनायी गयीं जिनकी ओर मैंने अभी संकेत किया है।
इस सिलसिले में यह दिलचस्प है कि पीड़ा-हरण का एक सरल उपाय - मुआवज़ा - इस सन्दर्भ में भी अपनाया गया। जैसा कि आपको मालूम है, अतीत और वर्तमान की कई सभ्यताओं में प्राण-हरण समेत बहुत से अपराध्ाों का प्रतिशोध्ान ध्ान देकर किया जा सकता था। चर्चाध्ाीन सन्दर्भ में यह कि विध्ार्मी को विध्ार्मी बने रहने की छूट है बशर्ते कि वह इसके लिए महसूल दे सके। इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण ‘जिज़या’ है किन्तु यदि आप ध्यान से देखें तो ध्ाार्मिक गतिविध्ाियों से सारी सरकारी वसूलियाँ वस्तुतः सेक्युलरिज़्म को अदा किये जाने वाले वे महसूल हैं जो गै़र-सेक्युलर बने रहने की छूट के लिए तावान के तौर पर जमा करवाये जाते हैं।
हम ‘काव्य-चेतना’ पर लौटें। नियति के नियमों से रहित यह कवि-निर्मिति निश्चय ही ‘देव-हीन- है जिसे आप चाहें तो लियोतार के हवकसमेेदमेे की बग़ल में रख सकते हैं जो पेगनों के एक अभिलक्षण के रूप में उन्होंने पहचाना है, किन्तु कुल मिलाकर यह अभ्याख्यान का अस्वीकार ही है। जिसे सामान्य समझ में ‘दैव’ कहा जाता है उसके लिए हमारे यहाँ का शब्द ‘प्रारब्ध्ा’ है, हम अपने सुख-दुःख को अपना ‘प्रारब्ध्ा’ कहते हैं। यह ‘प्रारब्ध्ा’ क्या चीज़ है? कर्म-सिद्धान्त के अनुसार हमारे कर्म तीन प्रकार के हैंः ‘क्रियमाण’ वह कर्म है जो किया जा रहा है, ‘संचित’ वह जो किया जा चुका किन्तु जिसका फल-भोग अभी प्रारम्भ नहीं हुआ, और ‘प्रारब्ध्ा’ वह जिसका फल-भोग प्रारम्भ हो चुका है। ईश्वर सृष्टि में जीवों को इसी प्रारब्ध्ा के साथ प्रकट करता है और यही ‘प्रारब्ध्ा’ दैव है। थोड़े विस्तार के साथ आप यह सब योगवासिष्ठ के मुमुक्षुव्यवहार-प्रकरण की शुरुआत में पढ़ सकते हैं जहाँ ‘दैव’ और ‘पौरुष’ की परस्पर टकराहट का वर्णन है।
तो आपका यह कहना सही है कि पेगनों के लिए सबकुछ दैवी होता है किन्तु इसका तात्पर्य भारतीय पेगनों के लिए वही नहीं है जो ग्रेको-रोमन पेगनों के लिए है। भारतीय पेगनों के लिए सृष्टि कोई आरम्भ नहीं है, पुनः-प्रकटन है अतः वे ‘दैव’ को ‘प्रारब्ध्ा’ के रूप में पहचानते हैं और यह जानते हैं कि यद्यपि वे प्रारब्ध्ा को कथमपि परास्त नहीं कर सकते, यदि वे ज्ञानाग्नि को प्रज्वलित कर सकने में समर्थ हुए तो उनके संचित और क्रियमाण कर्म भस्म हो जायेंगे और जिस प्रकार भुने हुए दाने बीज नहीं बन सकते, उसी प्रकार ये दग्ध्ा कर्म भी फल-भोग को उपस्थित नहीं कर सकते। मोक्ष इसीलिए एक ‘पुरुषार्थ’ कहलाता है कि पुरुष अपने प्रयास से इस ज्ञानाग्नि को प्रज्वलित कर सकने में समर्थ है। इसके विपरीत, ग्रेको-रोमन समझ में सृष्टि एक प्रारम्भ है, फलतः उसमें दैव का स्वातन्त्र्य अपने वैषम्य और नैर्घृण्य के सहित वर्तमान है और उस काव्य-चेतना को जन्म देता है जिससे ग्रीक ट्रैजिडी बनती है।
इस ग्रेको-रोमन काव्य-चेतना के बर-अक्स, आलमी मज़हबों का ईश्वर चूँकि क्षमादान की शक्ति भी रखता है, उनमें तौबा करके गुनाहों को माफ़ करवाया जा सकता है, और इस प्रकार एक तरफ़ तो भारतीय पेगन की संकल्पना का ईश्वर उस मुन्सिफ़ से अलग है जो कि़यामत के दिन दोज़ख़ और जन्नत बाँटता है और दुसरी ओर नीत्शे के अर्थ-नीतिक माडल का एक और अध्याय- क़र्ज़-माफ़ी और उसका शर्तनामा- भी खुलता है। यह अ-प्रासंगिक नहीं कि मृत्यु-दण्ड पर सेमिनार के पहले दरीदा का सेमिनार क्षमादान पर था और मैं चाहता हूँ कि इन विषयों पर चल रहे समकालीन पश्चिमी चिन्तन का कुछ जि़क्र हमारे यहाँ भी हो ताकि ‘ग्लोबल सत्ता-विमर्श’ के नाम पर जो ख़ाली चुल्लू का उथलापन हिन्दी में लगातार मथा जा रहा है, उसमें कुछ गाम्भीर्य आ सके। किन्तु सम्भवतः यह एक दुराशा मात्र है।
काव्य-चेतना पर लौटें और काव्य-रचना की बात करें। पश्चिम में इस पर विचार हुआ है कि ग्रीक ट्रैजिडी और उत्तर-कालीन ट्रैजिडी में क्या अन्तर है और उसकी बारीकी में घुसने से बचते हुए मैं एक उद्धरण में- जो सम्भवतः डब्ल्यू एच आडेन से है- उसे समेटता हूँः ग्रीक ट्रैजिडी ‘ऐसा ही क्यों है’ की ट्रैजिडी है जबकि उत्तरकालीन ट्रैजिडी ‘ऐसा ही क्यों है जबकि वैसा भी हो सकता था’ की ट्रैजिडी है। इस सन्दर्भ में आप एक जायज़ सवाल उठा सकते हैंः क्या भारत में ‘ट्रैजिडी’ लिखी गयी है या उसके लिखने की गुंजाइश है?
ज़ाहिर है कि यह सवाल सीध्ो-सीध्ो ‘दैव’ की समझ पर आध्ाारित है और ग्रीक तथा पेगनोत्तर पश्चिमी साहित्य के बारे में इससे निकाला गया नतीजा आडेन से उद्धरण में मैं अभी समेट चुका हूँ। भारतीय साहित्य के सन्दर्भ में फिर हमारा उत्तर स्पष्ट ही हैः जिस हद तक प्रारब्ध्ा है उस हद तक हमारे यहाँ ग्रीक ट्रैजिडी सम्भव है, जहाँ प्रारब्ध्ोतर है, वहाँ हमारे लिए कोई ट्रैजिडी लिखना सम्भव नहीं है।
मैं एक उदाहरण से इसे स्पष्ट करता हूँ जिसे मैंने बहुत पहले अभिज्ञान-शाकुन्तल पर लिखे गये एक लेख में भी दिया था यद्यपि वह लेख मुख्यतः इस नाटक पर लिखी गयी एक ग़लत-बयानियों से भरी किताब की प्रतिक्रिया में लिखा गया था। मैंने उसमें कहा था कि इस नाटक में ऊपर से देखने पर शाप भले ही शकुन्तला को दिया गया है, वस्तुतः यह शाप दुष्यन्त को दिया गया है क्योंकि उसी का स्मृतिभ्रंश होता है और इस शाप का कारण उसकी वह गर्वोक्ति है जिसमें उसने शकुन्तला से कहा है कि इसके पहले कि शकुन्तला उसकी दी हुई अँगूठी पर खुदे उसके नाम के अक्षरों को प्रतिदिन एक के हिसाब से गिन सके, उसके दूत शकुन्तला को राजमहल ले जाने के लिए आश्रम में पहुँच जायेंगे। यह ठीक वही चीज़ है जिसे ीनइतपे कहा जाता है और जो ग्रीक ट्रैजिडी में प्रमुख कारक है। दुष्यन्त का स्मृतिभ्रंश, अँगूठी का खो जाना, फिर उसका मिलना और दुष्यन्त का पश्चाताप और शकुन्तला का विरहिणी-जीवन, यहाँ तक प्रारब्ध्ा है- जैसा कि शकुन्तला ने सातवें अंक में कहा है, पूर्व-जन्म के कर्मों का फल-भोग। इसी प्रारब्ध्ा को रघुवंश में सीता ने भी पहचाना है जब उन्हें राम के आदेश से वन में लक्ष्मण अकेला छोड़ रहे हैं।
‘प्रारब्ध्ा’ के रूप में दैव को पहचानने का तात्पर्य यह है कि आप न केवल पीडि़त हैं अपितु पीड़क भी आप ही हैं, आप अपने कर्मों का फल भोग रहे हैं और अपने कष्टों के लिए अपने से इतर देवों को दोष नहीं दे सकते, उनको कोसने या उनके आगे गिड़गिड़ाने की सारी सम्भावनाएँ समाप्त हैं। जब ईश्वर में न ही वैषम्य है और न ही नैर्घृण्य, तब ‘हा दैव’ कह कर रोना भी निष्फल है और ‘अबकी राखि लेहु भगवान्’ की पुकार भी। यदि एक ही कृत्य से गज की प्राणरक्षा भी होती है और ग्राह का शाप-मोचन भी, तो गजेन्द्रमोक्ष स्तोत्र उनके प्रारब्ध्ा की पटकथा के क्षणविशेष के उन्मीलन का माध्यम मात्र है, वह सूत्रध्ाारीय निर्देश जो ऐन मौक़े पर खलनायक का अभिनय कर रहे अभिनेता को नायक का अभिनय कर रहे अभिनेता से पिटवाता है।
मेरी समझ में दर्द की शिद्दत के लिहाज़ से विपत्ति-भोग के मूल में पराये दैव की बनिस्बत अपने प्रारब्ध्ा को पहचानना अध्ािक त्रासद है- आप अपने से भाग कर कहाँ जा सकते हैं और वह कौन-सा न्याय-विध्ाान हो सकता है जो आपको अपने से राहत दिला सके? जिन दो कथाओं का मैंने अभी उल्लेख किया उनमें ओत-प्रोत त्रास जन-मानस में उतर चुका है- दुष्यन्त का वह नाम कोई नहीं जानता जिससे उसके चक्रवर्तित्व की मुनादी होती होगी क्योंकि शब्दकोष हमें बताते हैं कि ‘दुष्यन्त’ नाम तो इस नाते है कि उसने शकुन्तला पर अनुचित दोषारोपण किया, और हमारे अवध्ाी-भोजपुरी क्षेत्र में विवाह-गीत गाते समय भले ही राम जैसा दुलहा काम्य हो, अभी एक पीढ़ी पहले तक कोई अपनी बेटी की शादी अगहन में करने को तैयार नहीं होता था क्योंकि सीता जी का विवाह अगहन में हुआ था। किन ट्रैजिडियों का शोक इतनी गहराई तक पैठा है?
हमारे साहित्य-शास्त्र में काव्यानन्द को ब्रह्मानन्द-सहोदर मानते हुए रसास्वाद को सर्वथा ‘आनन्द-मय’ माना गया और इसी को लपकते हुए पश्चिमी तथा उनसे दहशतज़दा आध्ाुनिक भारतीय साहित्य-चिन्तक यह घोषित करते हैं कि भारतीय साहित्य में ट्रैजिडी नहीं है। मैं ऊपर कह आया हूँ कि इस ‘आनन्द’ को हमें ‘लीलाकैवल्य’ समझना चाहिए। थोड़ा सा ध्यान ‘शोक’ पर भी देना होगा क्योंकि एक तरफ़ तो हमारा आदिकाव्य कहता है कि शोक का श्लोक में बदलना ही कविता है- शोकः श्लोकत्वमागतः- और दूसरी तरफ़ हमारा साहित्य-शास्त्र कहता है कि आनन्द ही कविता का प्रयोजन है- काव्यम् ... परनिर्वृतये (मम्मट)।
बृहदारण्यकोपनिषद् (4-3-22) का भाष्य लिखते समय भगवत्पाद ने कहा है कि शोक, अ-रति, और काम, ये पर्याय-वाची हैं। इस पर ग़ौर करने से हमें काम-दहन की कथा पर सोचने के लिए भी एक राह मिलती है और इसे समझने की भी कि काम की पत्नी का नाम ‘रति’ क्यों है किन्तु मैं इन मोड़ों को नज़रन्दाज़ करते हुए यहाँ सिर्फ़ साहित्य-शास्त्र की बात करता हूँ। सबसे पहले यह कि आपने सुना ही होगा कि हमारे प्रायः सभी काव्य-शास्त्री श्रृृंगार को रसराज मानते हैं और यह भी कि हमारे आध्ाुनिक साहित्य-चिन्तक यह बताते हैं कि देखिए एक ‘दूसरी ध्ाारा’ भी है जिसे आप भवभूति में पा सकते हैं जिन्होंने कहा कि करुण ही मूल रस है। अब मैं आपसे पूछता हूँ कि यदि काम और शोक पर्याय हैं तो श्रृंगार को मूल रस मानने में और करुण को मूल रस मानने में क्या अन्तर है? और यदि अ-रति भी काम का पर्याय है तो अभिनवगुप्त के इस कथन में ही कौन-सा नयापन आ जायेगा कि सभी रसों का पर्यवसान शान्त रस में होता है? क्या ये सभी शब्दपरिवर्तन के साथ श्रृंगार को ही रसराज नहीं कह रहे हैं?
‘काम’, ‘शोक’, ‘अ-रति’, ये किस प्रकार पर्याय हैं? भगवत्पाद कहते हैं कि इष्ट से वियोग ही शोक कहलाता है अतः काम का ही रूपान्तर शोक हुआ (क्योंकि ‘कामित’ और ‘इष्ट’ एक ही तो हैं), यदि काम न हो तो शोक क्यों होगा? इसी प्रकार अ-रति भी काम का ही रूपान्तर है। भगवत्पाद यहाँ साहित्य-शास्त्र पर बात नहीं कर रहे हैं किन्तु क्या वे यह नहीं कह रहे हैं कि करुण और शान्त वस्तुतः श्रृंगार के ही बदले हुए नामरूप हैं? इसके आगे भी, आप ध्यान से देखें तो क्रोध्ा के मूल में भी काम ही है, जब कामना की पूर्ति में बाध्ाा पड़ती है तभी क्रोध्ा का उदय होता है और यों हम रौद्र रस को भी श्रृंगार का ही वेष-परिवर्तन कह सकते हैं। इस विवेचन को और रसों तक भी बढ़ाया जा सकता है और मैं समझता हूँ कि रस-सिद्धान्त में श्रृंगार के प्राध्ाान्य की स्वीकृति का कारण यही है चाहे इसे साफ़-साफ़ इस तरह न कहा गया हो। क्या यह अकारण है कि हमारे दो सर्वोपजीव्य काव्य रामायण और महाभारत, क्रमशः करुण और शान्त रस के काव्य माने जाते हैं?
इस परिप्रेक्ष्य में ट्रैजिडी को देखिए। ट्रैजिडी विध्ााता से आँख मिलाने का नाम है और सवाल यह है कि किसी आँख पहले झपकती है-ूीव इसपदो पितेज- अगर विध्ााता की पहले झपकी तो ग्रीक ट्रैजिडी है, अगर आपकी तो पेगनोत्तर पश्चिमी ट्रैजिडी। लेकिन अगर आपने दैव को प्रारब्ध्ा के रूप में पहचाना है तो आप पाते हैं कि जिसे आप विध्ााता समझ रहे हैं, वह तो आप खुद ही हैं। आप अगर खुद से ही आँख मिला रहे हैं तो किसकी आँख पहले झपकेगी? जैसा कि मिजऱ्ा बेदिल ने कहा हैः
हुस्न बे-परवा स्त इँजा, क़ासिदी दरकार नेस्त
ना0$ए$अहवाल$ए$मजनूँ तुर्र0$ए$लैला बस स्त
ख् हुस्न (= माशूक़) को कोई परवाह नहीं है (कि आशिक़ की क्या दशा है)। यहाँ किसी संदेसिये की ज़रूरत नहीं, मजनूँ का हाल बताने को तो लैला का जूड़ा ही यथेष्ट है (जो अपनी पेचीदगी में मजनूँ की सारी तड़प समेटे हुए है) ,
इसलिए ट्रैजिडी का लिखना भी यहाँ अलग है और अगर हमारे यहाँ ‘एन्टिगनी’ या ‘हैमलेट’ नहीं लिखा गया तो इसका यह मतलब नहीं कि हमने दैव से सामना नहीं किया, हमने उसे प्रारब्ध्ा के रूप में पहचाना है और भरपूर मुक़ाबिला किया है।
जैसा कि भगवत्पाद ने इसी प्रसंग में कहा है, काम ही कर्म का मूल है। क्या हमने कभी इस पर ग़ौर किया है कि हमारे सारे अवतार क्यों किसी-न-किसी कर्म के परिणाम होते हैं? योगवासिष्ठ हमें बताता है कि नृसिंहावतार में हिरण्यकशिपु का वध्ा करने के बाद भी विष्णु का क्रोध्ा शान्त नहीं हुआ और उन्होंने एक ब्राह्मणी का वध्ा कर डाला जिसके नाते उन्हें रामावतार में सीता-वियोग सहना पड़ा, स्वयं योगवासिष्ठ की आवश्यकता इसलिए पड़ी है कि एक अन्य कर्म के परिणाम में विष्णु अपनी सर्वज्ञता कुछ समय के लिए खो बैठते हैं और इस अल्पज्ञता के निवारणार्थ ही वसिष्ठ ने राम को वह उपदेश दिया है जो सागवासिष्ठ में संकलित है। प्रारब्ध्ा-भोग की इस अनिवार्यता को ही मैंने ऊपर ‘भरपूर मुक़ाबिला’ कहा है। इस मुक़ाबिले में उम्मीद और नाउम्मीदी की जगह नहीं क्योंकि लड़ाइयाँ भले ही जीती या हारी जा सकें, युद्ध अनादि है जिसका अन्त तभी होगा जब पक्ष-प्रतिपक्ष, तक़दीर-तदबीर, दैव-पौरुष का द्वैत समाप्त होगा।
लेकिन जब तक द्वैत है, तब तक मुक़ाबिला भी है। यही मुक़ाबिला ग्रीक ट्रैजिडी में दैव से मुक़ाबिला बनकर दैव को शर्मसार होने पर मजबूर कर देता है। ग्रीक पेगन को उसका दैव सिर्फ़ ताक़त के बल पर दबाता है, किसी औचित्य-विध्ाान के तहत नहीं। यहाँ मैं ग्रीक ट्रैजिडी के सिलसिले में एक और बात की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ।
‘ट्रैजिडी’ की अनेक व्युत्पत्तियों में से एक पर ग़ौर कीजिएः यह ‘बकरे का गीत’ है, उस बकरे का जिसकी बलि दी जाने वाली है। ग्रीक पेगनों ने दैव और मनुष्य का सम्बन्ध्ा वही निधर््ाारित किया जो क़साई और बकरे का है। इस दैवी चरित्र को सटीक तौर पर इस भारतीय व्यंग्योक्ति से समझ सकते हैं ः
सिंहान्नैव गजान्नैव व्याघ्रान्नैव च नैव च
अजापुत्रं बलिं दद्याद्देवो दुर्बलघाटकः।।
ख् सिंहों की बलि नहीं, हाथियों की नहीं, और बाघों की तो बिलकुल नहीं। बकरी के बच्चे की बलि देनी चाहिए! देवता भी कमज़ोर को ही मारते हैं। ,
तो यह कमज़ोर की आह है, और बे-असर। एन्टीगनी को आध्ाुनिक पुनर्वाचनों और पुनर्लेखनों में प्रायः क्रेआन की निरंकुश सत्ता का विरोध्ा करती हुई वीरांगना के रूप में समझा गया है किन्तु अगर आप मूल नाटक को देखेंगे तो यह सार्वभौम वंचना की कथा है जिसमें एन्टीगनी और क्रेआन दोनों ही यह नहीं समझ पाते कि देव उनके नाश पर क्यों तुले हुए हैं और मारे जाते हैं- जैसे बकरा नहीं समझ पाता कि वह क्यों मारा जाता है।
बकरे की बलि का विध्ाान भारतीय याज्ञिक प्रक्रियाओं में भी है- उसकी बलि प्रजापति के लिए होती थी और जैसा कि श्वेताश्वतरोपनिषद् (4-5) में कहा गया है, माया एक बकरी है। मायाजन्य प्रजाएँ मायाजन्य प्रजापति की ही आहुति हैं। आप पूछ सकते हैं कि बकरे को ग्रीक पेगनों के छुरे से न मार कर भारतीय पेगनों के छुरे से मारने पर बकरे को क्या फ़र्क़ पड़ेगा किन्तु यहाँ मुद्दा बकरे के पशु-अध्ािकारों का नहीं है जैसे एन्टीगनी का मुद्दा मानव अध्ािकारों का नहीं था भले ही आज उस नाटक का मंचन इस सन्दर्भ में किया जाता है।
यह अध्ािकार का नहीं, पीड़ा का प्रश्न है। भगवान् बुद्ध ने जब कहा कि दुःख है, तो उनका यह उपदेश नहीं था कि दुःख को सहने से इनकार करना मनुष्य का अध्ािकार है, उनका उपदेश यह था कि दुःख का कारण है और उससे छूटने का उपाय भी है। ‘अध्ािकार’ और ‘कत्र्तव्य’ एक राजनीतिक निविदा के अंग हैं और दैव की कोई पेगन अवध्ाारणा उसे एक राजनीतिक निविदा के तहत नहीं परिकल्पित करती।
‘दैव’ पर मैं शायद काफ़ी कुछ कह चुका हूँ। आपके प्रश्न में आयी एक और शब्दावली पर कुछ सफ़ाई देना मेरे लिए ज़रूरी होगा। अविद्या या माया के पास वह आवरण-शक्ति तो रहती ही है जिसका आपने जि़क्र किया किन्तु एक विक्षेप-शक्ति भी होती है, अर्थात् मन्दान्ध्ाकार न केवल रस्सी के वास्तविक स्वरूप पर परदा डालता है अपितु उसे एक सर्वथा भिन्न वस्तु- साँप के रूप में प्रकट भी करता है। ठीक इसी प्रकार शब्द की वाच्यार्थ से भिन्न अर्थ बताने वाली शक्ति, जिसके लक्षणा, व्यंजना आदि भेद हम काव्य-शास्त्र में पढ़ते है, वाच्यार्थ पर आवरण डालती हैं और विक्षेप के माध्यम से अन्य अर्थ प्रकट करती है। साहित्य और कला का काम ऐसी ही आवरण और विक्षेप की शक्तियों के विनियोजन से चलता है और इस प्रकार वे भी माया-सदृश से ही कुछ सिरजते हैं। कला-सर्जना को इस आध्ाार पर भी मैं एक समान्तर मायालोक का बनाने वाला मानता हूँ।
आपने यह बिलकुल ठीक कहा कि यूरोपीय रेनेसाँ के समय में ऐसी पेगन चाहना पायी जाती है और इस बात को यूरोपीय रेनेसाँ के अध्येताओं ने बराबर लक्षित किया है कि इस रेनेसाँ के पीछे की प्रेरणा ग्रेको-रोमन पेगन कला की चेतना तक पहुँचने की आकांक्षा है।
जहाँ तक आपके प्रश्न के अन्त में पूछी गयी यह बात है कि बेदिल की कविता या उत्तर-आध्ाुनिक कला-चेतना के अतिरिक्त मैं पेगन सर्जना को कहाँ देखता हूँ, मैं यह स्पष्ट करना आवश्यक मानता हूँ कि कविता का चरित्र ही प्रदत्त अभ्याख्यान को प्रश्नांकित करना है चाहे वह किसी भी समय क्यों न लिखी गयी हो। मिल्टन का ‘पैराडाइज़ लास्ट’ और गोएटे का ‘फ़ाउस्ट’ इसलिए नहीं बड़ी रचनाएँ हैं कि वे ईसाई सदसद्विवेक का यथातथ अनुकरण करती हैं, अपितु इसलिए हैं कि वे उस सदसद्विवेक को प्रश्नांकित करती हैं, उसकी सपाटबयानी में रोड़े अटकाती हैं। दुर्भाग्यवश हिन्दी साहित्य में ‘पुनर्जागरण’ का अर्थ हुआ विक्टोरियन मूल्यों का स्वीकार और ‘व्यवस्था-विद्रोह’ का तात्पर्य हुआ कुछ पार्टियों के मैनिफ़ेस्टो से अनुकूलन। इस प्रकार हमारे साहित्य का अध्ािकांश एक अभ्याख्यान से संचालित होता है न कि किसी अभ्याख्यान के विरुद्ध, और फलतः पेगन सर्जनात्मकता का प्रतिपक्ष बन कर उभरता है।
उदयनः आपने पिछले सवाल के जवाब में शाकुन्तल का जि़क्र किया, उससे मुझे याद आया कि आप अभिज्ञानशाकुन्तलम् की टीका लिख रहे थे। मैंने उसके कुछ पन्ने पढ़े भी थे। इस टीका को लिखने के पीछे क्या प्रेरणा थी ? आपको पता ही है कि शाकुन्तल की कुछ टीकाएँ पहले ही प्रकाशित हो चुकी हैं। अगर उसके बाद भी आप ऐसे टीका लिखने की ओर प्रवृत्त हुए तो उसका कोई विशेष प्रयोजन अवश्य होना चाहिए।
वागीश जीः आपका कहना ठीक है कि शाकुन्तल की कई टीकाएँ पहले प्रकाशित हो चुकी हैं। मैंने वे सभी देखी हैं। आपके इस प्रश्न का उत्तर भी इसी में निहित है कि मैं एक नयी टीका लिखने की ओर क्यों प्रवृत्त हुआ। इन सब टीकाओं को देखने के बाद जो मुझे लगा उसे मैं इसे क़तए के माध्यम से व्यक्त कर सकता हूँ जो जहाँ तक मुझे मालूम है ‘साइल’ देहलवी का हैः
दर$ए$मयख़ान0 चैपट है, तहज्जुद को हुई चोरी
निरे टूटे हुए शीशे, फ़क़त जूठे पियाले हैं
गुमाँ किस पर करे मयकश, इध्ार वाइज़ उध्ार सूफ़ी
ख़ुदा रक्खे, मुहल्ले में सभी अल्लाह वाले हैं ।।
ख् दर$ए$मयख़ान0 = शराबख़ाने का दरवाज़ा; शीशा = मदिरा रखने का बर्तन; तहज्जुद = आध्ाी रात को पढ़ी जाने वाली उस अतिरिक्त नमाज़ का समय जिसे विशेष ध्ार्मप्रवण मुसलमान पढ़ते हैं और जो उन पाँच नमाज़ों से अतिरिक्त है जो सभी मुसलमानों को पढ़नी होती हैं; गुमाँ = गुमान = सन्देह; मयकश = शराब पीने वाला जिसके पास शराब पीने की तमीज़ है; वाइज़ = ध्ार्मोपदेशक जो शराब से दूर रहने का उपदेश देते है; सूफ़ी = सांसारिक सुख की ओर से निःस्पृह अध्यात्म-रत त्यागी पुरुष ,
टीका लिखने का क्या उद्देश्य होता है? मूल के आशय को स्पष्ट करना, जो उसमें छिपा है, उसको सामने ले आना ता कि पाठक को कुछ सोचने का अवसर मिले। प्राचीन टीकाकार इसी उद्देश्य से लिखते थे, एक नयी टीका लिखने का अर्थ था कि पुरानी उपलब्ध्ा टीका में कुछ कहने से बाक़ी रह गया है जिसे जोड़ना चाहिए, या कहीं कुछ ग़लतफ़हमी है जिसे दूर करना चाहिए। ये टीकाएँ प्रौढ काव्यरसिकों के लिए होती थीं जिनमें टीकाकार अपनी स्थापना के समर्थन में कोश, व्याकरण, और काव्यशास्त्र आदि से प्रमाण देता था किन्तु उसका अपना कोई आग्रह नहीं होता था। शाकुन्तल की नयी टीकाएँ तब लिखी गयीं जब वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में पाठ्यपुस्तक के रूप में निधर््ाारित हुआ।
इन नयी टीकाओं के आग्रह कुछ और भी थे। मैं एक उदाहरण से इसे स्पष्ट करने की शुरुआत करता हूँ। यह तो शायद आपको मालूम ही होगा कि शाकुन्तल की अनेक वाचनाएँ प्रचलित हैं जिन्हें बंगाली, मैथिली, देवनागरी, दाक्षिणात्य, काश्मीरी, नेपाली, आदि कहा जाता है और इन वाचनाओं के भीतर भी कई-कई रंगलेख हैं। तो चूँकि कलकत्ता में इसकी आध्ाुनिक पढ़ाई शुरू हुई, इसलिए पहले बंगाली वाचना ही सामने आयी। इसके तृतीय अंक में दुष्यन्त और शकुन्तला के बीच कुछ पे्रमालाप है जिसे ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने अश्लील माना और वे किसी ऐसी पाण्डुलिपि की खोज में लगे जिसमें अश्लीलता न हो। बताया जाता है कि भारतेन्दु जी ने उन्हें एक पाण्डुलिपि भेजी जो बंगीय पाठ से भिन्न थी। उसने यह अंश संक्षिप्त था। किन्तु विद्यासागर जी की कसौटी पर फिर भी यह खरा न उतरा क्योंकि इसमें इंगुदी शब्द मौजूद था जो बांगला-भाषी कानों में एक अश्लील संकेत भेजता था अतः उन्होंने इसे बदल दिया।
यह एक आध्ाुनिक सम्पादक का साहसिक काम है। किन्तु अन्य सम्पादकों की भी मूल समस्या ‘वास्तविक पाठ’ तक पहुँचने की रही है और इसकी दो ही तकनीकें सबके पास रही हैंः पहली यह मान्यता कि जो पाण्डुलिपि जितनी पुरानी होगी उतनी ही वह मूल के निकट होगी और दूसरी यह समझ कि कालिदास जैसा महाकवि कैसा लिखता होगा। ज़ाहिर है कि दूसरी तकनीक में ‘समसामयिकता’ की बड़ी भूमिका रही है और पहली मान्यता में यह भुला दिया गया है कि जो पाण्डुलिपि सोलहवीं शताब्दी की है वह हो सकता है कि किसी आठवीं शताब्दी की पाण्डुलिपि की उत्तराध्ािकारिणी हो और इस प्रकार किसी चैदहवीं शताब्दी की पाण्डुलिपि से प्राचीनतर पाठ को बताती हो।
मेरी समझ में इन तकनीकों का अच्छा उपयोग प्रो शारदारंजन राय, प्रो गजेन्द्र गडकर, और प्रो रमेन्द्र वसु के संस्करणों में हुआ है तथा सबसे अध्ािक परिश्रम के साथ पहले न इस्तेमाल की गयी पाण्डुलिपियों के आध्ाार पर पुनर्ग्रथित (त्र तमबवदेजतनबजमक) संस्करण प्रो दिलीप कुमार कान्जिलाल ने 1980 में निकाला था यद्यपि कलकत्ता संस्कृत कालेज की निष्क्रियता के चलते यह संस्करण उचित सम्मान के साथ छापा नहीं गया। उनका आग्रह था कि बंगाली वाचना प्राचीनतम है। ये सभी सम्पादन अंगरेज़ी माध्यम में हैं और अब प्रायः सभी दुर्लभ हो चले हैं।
इध्ार प्रो वसन्त कुमार भट्ट ने कुछ और पाण्डुलिपियों के आध्ाार पर कई संस्करण निकाले हैं तथा पाँच प्रमुख वाचनाओं- काश्मीरी, मैथिली, बंगाली, देवनागरि, और दाक्षिणात्य- के साथ अपना एक पुनर्ग्रथन भी एक ही जिल्द में अीाी 2020 में राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान से निकाला है। उनका यह आग्रह है कि काश्मीरी वाचना प्राचीनतम है। संस्कृत के दो-चार रसिक शायद उनकी पीठ ठोंक दें किन्तु भारत का वर्चस्वशाली वर्ग इतना संस्कृत-द्वेषी है कि मुझे नहीं लगता कि उनकी इस साध्ाना को उल्लेख-योग्य भी माना जायेगा।
कई विद्वानों ने राघव भट्ट की प्राचीन टीका के साथ अपने टिप्पन जोड़कर छापा है, इनमें सबसे समादृत संस्करण प्रो काले का है। पुराने अन्दाज़ में लिखी गयी टीकाओं में जीवानन्द विद्यासागर और न्यायपंचानन की टीकाएँ तथा कुछ बाद में लिखी गयी एक बहुत अच्छी टीका किशोरकेलि नाम से हैं। मेरे अपने छात्र-जीवन में जो संस्करण मैंने पढ़ा था वह हिन्दी माध्यम में था और सम्भवतः वह किशोरकेलि ही थी जिसमें प्रो तैलंग के बहुत अच्छे टिप्पन थे। प्राचीन टीकाओं में मुझे श्रीनिवासाचार्य की टीका बहुत अच्छी लगती है यद्यपि उसका बहुत प्रचार नहीं हुआ।
मैंने जब टीका लिखने की सोची तो सभी ‘तकनीकों’ को छोड़ दिया और यह मान कर चला कि कालिदास के हस्त-लेख को खोज निकालने की ललक व्यर्थ है। तब यही रास्ता बचता था कि सभी पाठों को समान आदर दिया जाय और एक समावेशी पाठ स्वीकार किया जाय जिसमें जो कुछ कालिदास का लिखा माना गया है, वह सब एकत्र हो और अगर किसी पद्य के एक से अध्ािक पाठ उपलब्ध्ा हैं तो उनमें से एक को अपनी समझ के अनुसार स्वीकार करके अन्य पाठान्तरों पर भी विचार हो। मैं सभी वाचनाओं और रंगलेखों को एक अप्राप्य रंगलेख पर टीकाएँ ही मान कर चला, जिसमें पुनर्वाचना की पुनर्वाचना की पेगन तड़प थी, न कि सभी पुनर्वाचनाओं को विनष्ट करके किसी मूल को खोज निकालने का गरबीला उत्साह- जैसे हज़ारों साल तक सम्पूर्ण भारत की सर्जनात्मक मेध्ाा ने इस नाटक से लगातार अनुप्राणित होते हुए एक गौरव-वास्तु की साज-सँभाल की हो। तब मुझे इस नाटक का एक पुनर्ग्रथन करते हुए अपने पूर्वजों के इस रचनात्मक दुलार को समझना था, न कि कोई उत्खनन। यह एक ेपउनसंजपवद की तमन्ना थी, ं बवससंहम तिवउ बवचपमे व िं दवद.मगपेजपदह वतपहपदंस ।
यह ‘ग्रहणशील पुनर्ग्रथन (त्र मबसमबजपब तमबवदेजतनबजपवद)’ की पद्धति कोई नयी नहीं है किन्तु मेरा दृष्टिकोण बहुत विनम्र था और उसमें भारतीय रचनात्मकता की परख की लालसा थी, न कि पाठोद्धार या पाठ-सुध्ाार की। आप कह सकते हैं कि मेरे लिए कालिदास सम्पूर्ण भारत की कला-साध्ाना की रूपाकृति थे, न कि कोई एक नाटककार। मेरे सोचे गये बहुत से कामों की तरह यह भी अध्ाूरा ही रहा और उन सभी अध्ाूरे कामों की तरह ही इसमें भी मुझे पढ़ने-सोचने का खूब मौक़ा मिला किन्तु उस टीका की भूमिका के रूप में लिखा गया एक कोई सौ पृष्ठों का अंगरेज़ी में लिखा गया अप्रकाशित निबन्ध्ा मौजूद हे जिसमें कुछ बातें आ गयी हैं।
उस निबन्ध्ा में मैंने एक स्थापना सामने रखी थी जिसका उल्लेख यहाँ कर देता हूँ। वह यह थी कि अभिज्ञानशाकुन्तल प्रत्यभिज्ञा-दर्शन की नींव में है और इसके शीर्षक को ‘अभिज्ञान = शकुन्तला’ पढ़ना चाहिए जहाँ कि ‘अभिज्ञान’ का अर्थ ज्ञान-शक्ति और क्रिया-शक्ति का सम्मिलित रूप है जैसा कि अभिनवगुप्त ने कहा है। इस सोच के साथ मेरी जानकारी में इस नाटक पर काम नहीं हुआ है यद्यपि भारतीय परम्परा में कालिदास क्रमदर्शन के एक दुर्बोध्ा ग्रन्थ चिग्दगनचन्द्रिका के लेखक माने जाते हैं और उनके देवीस्तोत्र भी समादृत हैं।
लेकिन मैं आपसे पलट कर एक सवाल पूछता हूँ। आपने पूछा है कि ‘इतनी टीकाओं के रहते हुए’ मैंने एक टीका लिखने की क्यों सोची। यह सवाल कभी शेक्सपियर के बारे में किया गया है जिसके नाटकों के अध्ययन की एक इण्डस्ट्री ही है? कभी किसी ने पूछा है कि ‘एन्टीगनी’ के पचासों पुनर्वाचन और पुनर्लेखन क्यों होते चले आ रहे हैं? हिन्दी के आलोचक अपनी मित्रमण्डली के साहित्य से फ़ुरसत पाते हैं तो मुक्तिबोध्ा को हिन्दी का आदि कवि बताते हैं। हमारे साहित्यचिन्तन की ऐसी सीमा क्यों है?
उदयनः आप यह ठीक कह रहे हैं कि हिन्दी आलोचना का दायरा निरन्तर सीमित होता जा रहा है। वहाँ कब कौन-सा कवि आदिकवि हो जाये, इसका ठिकाना नहीं। पर हम उस ओर जाने की जगह कुछ और देर कालिदास पर ही ठहरे रहें। आपके उपन्यास में भी कालिदास का अनुपस्थित ग्रन्थ केन्द्र में है। संयोग से वह उपन्यास भी लिखा जा रहा है। क्या अब उस ग्रन्थ और उपन्यास के विषय में कुछ कहेंगे?
वागीश जीः आपने उपन्यास की चर्चा करके एक दुखती रग को छेड़ा क्योंकि मेरी अध्ाूरी लेखन-योजनाओं में से शायद यह एक है जिसे मैं पूरा होता देखना चाहूँगा।
सबसे पहले कालिदास का ‘अनुपस्थित ग्रन्थ’। वह मशहूर कहानी आपको मालूम ही है जिसके अनुसार विद्योत्तमा नामक राजकुमारी का यह प्रण था कि वह ऐसे विद्वान से विवाह करेगी जो उसे शास्त्रार्थ में पराजित कर सके और ऐसा कर पाने में असमर्थ पण्डितों ने छल से उसका विवाह कालिदास से करा दिया जो एक अनपढ़ चरवाहे थे और इस हद तक नासमझ थे कि जिस डाल पर बैठे थे उसी को काट रहे थे। सुहागरात को विद्योत्तमा को कालिदास के मूर्ख होने का पता चला तो उसने कालिदास को शयनकक्ष के बाहर ढकेल दिया जिसके बाद कालिदास ने काली-आराध्ान से कवित्व-शक्ति प्राप्त की जिसके नाते उनका नाम ‘कालिदास’ पड़ा। इसके बाद वे जब घर लौटे तो विद्योत्तमा ने दरवाज़ा खोलने पर इनसे पूछाः ‘‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः? (= क्या कोई ख़ास बात है?)’’ और फिर कालिदास ने इसी वाक्य से शब्द लेकर अपने तीन काव्य रचे- कुमार-सम्भव का प्रथम शब्द ‘अस्ति’ है, मेघदूत का ‘कश्चिद्’, और रघुवंश का ‘वाग्’।
अब कालिदास का एक ग्रन्थ ऋतुसंहार है जिसका प्रथम शब्द ‘प्रचण्ड-सूर्य’ है किन्तु मुझे एक पाठान्तर में यह ‘विशेष-सूर्य’ मिला। इसने मेरा दिमाग़ इस तरफ़ मोड़ा कि सम्भवतः कुछ काव्य-रसिक इस कहानी में यह बढ़ाना चाहते हैं कि कालिदास ने विद्योत्तमा के वाक्य के चैथे शब्द ‘विशेष’ से प्रारम्भ होने वाले एक और काव्य-ग्रन्थ की रचना भी की है। मैंने इस ‘अनुपस्थित ग्रन्थ’ को केन्द्र में रखकर उपन्यास सोचना शुरू किया।
कालिदास के काव्य-ग्रन्थों में कुछ ‘अनुपस्थित’ है, यह बात दबे-छिपे ढंग से चली आ रही है। कुमार-सम्भव को ‘पूरा करते हुए’ उसमें नौ सर्ग जोड़ कर सत्रह सर्गों का एक कुमार-सम्भव बहुत पहले से मौजूद है। रघुवंश में भी उसके प्राप्त उन्नीस सर्गों से कुछ अध्ािक सर्ग होने की बात की जाती रही है। इन बातों ने मेरा ध्यान इस ओर दिलाया कि मेघदूत एक विरही की ओर से है और कालिदास का लिखा माना गया घटकर्पर एक विरहिणी की ओर से जो मेघदूत का ‘पूरक’ माना जा सकता है।
इन ‘अनुपस्थितियों’ और ‘पूरकों’ के अलावा कालिदास की कई ‘उपस्थितियाँ’ भी चली आ रही हैं। वे प्राकृत के एक बड़े कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं, काश्मीर-शैव दर्शन के अन्तर्गत क्रम-दर्शन का एक गूढ ग्रन्थ चिद्गगनचन्द्रिका उनका लिखा हुआ माना जाता है, ज्योतिष और छन्दःशास्त्र के ग्रन्थ उनके नाम पर हैं। विक्रमादित्य और भोज जैसे लोकमानस में बसे हुए राजाओं से उनका जुड़ाव लोकस्वीकृत है। इन सारी उपस्थितियों और अनुपस्थितियों के घालमेल में मुझे एक औपन्यासिक सम्भावना दिखी।
इस सम्भावना की नींव में मैंने एक विदूषकीय जिज्ञासा रखी। रघुवंश में आता है कि वरतन्तु के शिष्य कौत्स ने अपनी शिक्षा के समापन के बाद गुरुदक्षिणा के आदेश हेतु गुरु से आग्रह किया। गुरु ने कहा कि दक्षिणा की कोई ज़रूरत नहीं है किन्तु कौत्स हठ करने लगे जिससे चिढ़ कर गुरु ने उनसे प्राप्य गुरुदक्षिणा को चैदह करोड़ स्वर्णमुद्राओं पर निधर््ाारित किया। कौत्स महाराज रघु के पास यह चैदह करोड़ माँगने पहुँचे किन्तु देखा कि वे एक यज्ञ में सर्वस्व-दान कर के बैठे हुए हैं। वे लौटने लगे किन्तु रघु ने उनसे प्रयोजन पूछा और जान लेने पर कहा कि आप ख़ाली हाथ लौट कर मेरी बदनामी मत करवाइये, दो एक दिन रुकिए। चूँकि प्रजा कर दे चुकी थी, उस पर अतिरिक्त कर-भार तो लादा नहीं जा सकता था, अतः रघु के सामने ध्ान-उगाही का केवल एक ही मार्ग बचा था, किसी अविजित राज्य पर आक्रमण करके उससे वसूली करना, और पृथिवी पर कोई अविजित राज्य बचा न था अतः उन्होंने स्वर्ग पर आक्रमण करने की सोची और यह प्रयोजन जान कर इन्द्र के कोषाध्यक्ष कुबेर ने उनका ख़ाली ख़ज़ाना रातोंरात सोने से भर दिया।
कालिदास लिखते हैं कि यह सोना चैदह करोड़ से अध्ािक था। राजा ने याचक को सब देना चाहा किन्तु उसे केवल चैदह करोड़ ही चाहिए थे सो उसने उससे अध्ािक लेने से मना कर दिया। जिस ‘विदूषकीय जिज्ञासा’ की बात मैंने की है वह यह थी कि आखि़र फिर वह सोना गया कहाँ? रघु उसे रख नहीं सकते थे क्योंकि उसे मँगवाने का प्रयोजन केवल कौत्स की याचना को पूरा करना था। इन्द्र को लौटाया नहीं जा सकता था क्योंकि चाहे लड़ाई हुई न हो, था तो यह लड़ाई में हारा हुआ ध्ान ही और तब इन्द्र ही इसे किस मुँह से वापस ले लेते और रघु उन्हें क्यों देते? और थोड़ा सोचिए तो निःस्पृह नहर्षि वरतन्तु को ही उस चैदह करोड़ का क्या करना था जिसकी माँग उन्होंने चाहत के नाते नहीं सिर्फ़ चिढ़ के नाते की थी? तो किसी को भी लुभाने में नाकाम कुबेर से आये इस सोने को कहाँ होना चाहिए?
मैंने इस जिज्ञासा को ‘विदूषकीय’ इसलिए कहा कि आध्ाुनिक विद्वत्ता इसी प्रकार के ज्तमेंनतम भ्नदज का एक प्रकार है- वह यह मानने को तभी तैयार होगी कि कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया था जब कोई कुरुक्षेत्र के मैदान में उस रथ के पहियों के निशान दिखा दे जिस पर वे दोनों सवार थे। इस विद्वत्ता का स्वाँग (= ेपउनसंजपवद) भरते हुए उसके स्व-कल्पीत श्रेष्ठय ;त्र ेनचतमउंबलद्ध पर प्रश्नात्मक होना भी इसकी औपन्यासिकता में अनुस्यूत है।
जिसे मैंने अभी ‘ख़ज़ाने की खोज’ कहा, वह वस्तुतः एक ऐसे रास्ते पर चलने से तुलनीय है जिसके अन्त में एक मन्जि़ल है और आपके पौरुष की सफलता इसमें है कि आप उस मन्जि़ल तक पहुँच जाँय। यह एक तिलिस्मी इमारत में छिपाये ख़ज़ाने की खोज ही है और मैंने अपने उपन्यास को एक तिलिस्मी उपन्यास की ही शक्ल दी है। लेकिन अगर आप ज़रा-सा भी ग़ौर करें तो यही हमारी आध्ाुनिक सोच भी है, उदाहरण के लिए हमारे राजनीतिक वास्तु के मूल में कुछ सिद्धान्त हैं और जब हम ‘ध्ाार्मिक स्वतन्त्रता’ कहते हैं तो हमारा आशय यह होता है कि हम कुछ तात्विक ;त्र मेेमदजपंसद्ध पहचानों के प्रदर्शन हेतु स्वतन्त्र हैं। इसे ‘ध्ाार्मिक’ कहना ठीक नहीं, यह ‘मज़हबी’ है, आप यह बताने को स्वतन्त्र हैं कि आपने कौन-सा ‘मज़हब = पन्थ’ अपने लिए चुना है।
इसके विपरीत भारतीय चिन्तन में यद्यपि ‘तत्व-ज्ञान’ शब्द स्वीकृत है, जो ‘तत्व’ है वह ‘नेति, नेति = यह नहीं, यह नहीं’ से परिभाषित है- रास्ते हैं लेकिन कोई मन्जि़ल नहीं है। अतः कोई सनातन-ध्ार्मी यदि रामानन्दी तिलक लगाता है तो वह यह दावा नहीं करता कि बिना रामानन्दी तिलक लगाये कोई सनातन-ध्ार्मी नहीं हो सकता। भारतीय तत्व-चिन्तन उस पुराण-वर्णित शिव-लिंग की तरह है जिसके मूल का पता लगाने निकले देव थक-हार कर असफल लौटे क्योंकि वे जो खोज रहे थे वह था ही नहीं। तत्व-चिन्तन को इस प्रति-मूलात्मक ;त्र ंदजप.विनदकंजपवदंसद्ध विचार-सरणि में परिकल्पित कर पाना भारत की अपनी विशेषता है।
आप सोचिए कि जब हमारे चिन्तकों ने सृष्टि को मिथ्या कहा है तो वे क्या कह रहे हैं? वे सर्जना की पारमार्थिकता से इनकार करते हैं और उसकी सत्ता को स्वाप्निक बताते हैं। इसका मतलब यह है कि सृष्टिकर्ता भी स्वाप्निक है। जितना भी इन्द्रियाध्ाारित ज्ञान है, वह ज्ञाता और ज्ञेय समेत अ-वास्तविक है। यही कला और कलाकर्मी के लिए सच है। तो ‘यथार्थ’ की ज़न्जीर से मुक्त यह कला-जगत् स्वतः स्वायत्त है, यह न कुछ उद्घाटित करता है न सूचित, न परदा डालता है न हटाता है- जो है वही है और आप उसे चाहे हस्ती कहें चाहे हस्ती का फ़रेब, उसकी सत्ता के बारे में कोई नयी जानकारी नहीं पा सकते। जैसा कि पहले इस बातचीत में आ चुका है, मन्त्रों के बाहर देवताओं की कोई सत्ता नहीं है। ठीक इसी प्रकार, कला के बाहर कोई यथार्थ नहीं है। अगर है, तो वह कला का विषय नहीं है। साहित्य न दर्पण है, न मशाल।
मैंने अभी जिसे ‘यथार्थ की ज़न्जीर’ कहा है उसको थोड़ा और समझाता हूँ। जब हम ‘यथार्थ’ कहते हैं तो हमारा आशय यह होता है कि कोई सत्ता कहीं है जो हमारी भाषा से स्वतन्त्र है और जिसका बयान हम अपनी भाषा में कर रहे है। यह शब्द और अर्थ की सत्ताओं को बिलगाना है, अर्थात् यह कहना कि अर्थ कोई वस्तु है जिसके लिए शब्द एक सूचक का काम करता है। तब शब्द और अर्थ का वह ‘साहित्य = सहित होना’ सम्भव नहीं रहेगा जिसकी हमें चाहत है। इसलिए हमें शब्द और अर्थ की एक ही सत्ता स्वीकार करनी होगी जिसमें उनका भेद कल्पित है और केवल अपनी समझ की सुविध्ाा के लिए है, जैसे कि ‘क’ अक्षर की आकृति में वर्णमाला के ‘क’ की सत्ता का स्वीकार।
तो ज़ाहिर है कि मेरे उपन्यास में रघु क यह ख़ज़ाना उनके ज़माने से शुरू नहीं हुआ और मैं इसकी स्वाप्निकता को उनके त्रेता-युग से पीछे शकुन्तला के कृत-युग तक ले गया हूँ जहाँ इसके होने को लेकर कुछ अनिर्णीत मुझे कहना है। उपन्यास मैं पूरा लिख नहीं सका हूँ इसलिए उसके रूपाकार के बारे में कुछ तय-शुदा नहीं बता सकता किन्तु मैं उसे इस अर्थ में ‘अनैतिहासिक’ मानता हूँ कि उसमें इतिहास को कोई शक्ति न मान कर एक ऐसे खोजी के रूप में मैंने देखा है जो एक कन्वेयर बेल्ट पर चली आ रही हर बोतल से इस उम्मीद में शराब ढाल रहा है कि उसमें का जिन्न निकल कर सलाम ठोंकता हुआ पूछेगा, ‘‘आक़ा, क्या हुक्म है?’’
जैसा कि आप जानते ही हैं, इस उपन्यास के पाँच सौ से अध्ािक पृष्ठ लिखे पड़े हैं। मैंने इसे तीन खण्डों में परिकल्पित किया था किन्तु अब मैं कोई सौ पृष्ठ और लिख कर इसका प्रथम खण्ड बना लेना चाहता हूँ चाहे बाक़ी दोनों न भी लिख पाऊँ। देखिए क्या बन पाता है। फि़लहाल फ्ऱान्सीसी क्रान्ति से सम्बन्ध्ाित अध्याय में बहुत कुछ लिखने को रह गया है और अन्य कई अध्यायों में भी कहानी के इध्ार-उध्ार झूल रहे तार कसने ज़रूरी हैं।