02-Aug-2023 12:00 AM
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ज्ञान के क्षेत्र की आलोचना अर्थहीन है। कोई उपकरण ऐसी सूरत में स्वयं की आलोचना कर ही कैसे सकता है, जब आलोचना के लिए उसके पास अपने ही प्रयोग के अलावा कोई चारा ही न हो।
फ्रीड्रिख़ नीत्शे1
अपने धर्म, अपनी संस्कृति, विश्व-दृष्टि और चाल-चलन के प्रति बेगानेपन की अनुभूति, या कुछ मामलों में तो अपनी ‘खुदी’ से ही ‘नफ़रत’ का एहसास; और उसके साथ पश्चिम से जुड़ाव के एक गहरे, जुनूनी, या घमण्डी मिथ्याभिमान से उपजा एक बेबुनियाद और भौंडा आधुनिकतावाद... सबसे बड़ी त्रासदी है बुद्धिजीवियों का आत्मसातीकरण- उनका, जिन्हें चिन्तक कहा जाता है और जिनके ऊपर सामाजिक विचारों और समाज की प्रकृति का मार्गदर्शन करने की ज़िम्मेदारी है... हमारी बुनियादी समस्या आम लोगों की निरक्षरता नहीं, बल्कि बुद्धिजीवियों की अर्ध-शिक्षित अवस्था है।
अली शरियती माज़िनानी2
इस संरचना (पोस्टकोलोनियलिज़्म) से जुड़े विद्वान पश्चिम के समकालीन सैद्धान्तिक चिन्तन की धाराओं में खूब पारंगत हैं। वे इस सिद्धान्तशास्त्र के मुहावरे में धड़ल्ले से लिखते हैं। लेकिन, इस ‘थियरी’ की शुरुआत तो ऐसे किसी दावे के साथ हुई ही नहीं थी। उसे तो पश्चिम की सैद्धान्तिकी से भिन्न होना था। यह दलील विडम्बनापूर्ण नहीं है तो और क्या है कि पश्चिम की सैद्धान्तिकी से अलग हटने की निशानी उसी सैद्धान्तिकी में पारंगत होने को समझा जाने लगे। इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन लोगों का उद्यम सिद्धान्तपरक है। लेकिन, उससे किसी भिन्न सैद्धान्तिकी की रचना नहीं होती।
सुदीप्त कविराज3
जर्मन दार्शनिक फ्रीड्रिख़ नीत्शे (1844-1900) का उक्त कथन कुछ पेचीदा है। सम्भवतः नीत्शे कह रहे हैं कि अगर ज्ञान (फैकल्टी ऑफ़ नॉलेज) की आलोचना करनी हो, तो उसके भीतर रह कर और खुद उसके द्वारा मुहैया कराये गये औज़ारों से करना निरर्थक होगा। उसके बाहर निकलना होगा। लेकिन, नीत्शे इस काम को नामुमकिन मानते हैं। शायद इसलिए कि उनकी निगाह में ज्ञान का मतलब एक ही है- पश्चिमी ज्ञान। चूँकि ज्ञान का दूसरा रूप या उनके संज्ञान में है ही नहीं, या फिर न के बराबर है, इसलिए ज्ञान के ग़ैर-पश्चिमी उपकरणों की सम्भावनाएँ उनके सोच के दायरे से बाहर हैं। फिर भी, उनके कथन से हमारे लिए यह चुनौती तो निकलती ही है कि क्या पश्चिमी ज्ञान की आलोचना करने लायक श्रेणियाँ और उन्हें बरतने वाले आलोचक कहीं से उपलब्ध हो सकते हैं? लेकिन, यह ‘कहीं’ कहाँ है, और अगर वह कहीं है, तो वहाँ मौजूद सामग्री कैसी है? अगर उस आलोचक की उस ‘कहीं’ और वहाँ मौजूद सामग्री तक पहुँच है भी, तो वह आलोचक कौन-सी भाषा लिखता-बोलता है? इस सामग्री को संसाधित करने के लिए जिस ज्ञानात्मकता की आवश्यकता है, क्या वह आलोचक उसमें रमा हुआ है? क्या ऐसे आलोचकों और उनकी बौद्धिक संस्कृति की हमारे इर्द-गिर्द, या कुछ दूर या भविष्य में उपस्थिति है? क्या विचारों के वि-उपनिवेशीकरण के लिए इस आलोचक और उसकी बौद्धिक संस्कृति को किसी तरीक़े से हासिल किया जा सकता है?
मार्टिन हाइडेगर (1889-1976) ने कहा था कि एक पूरी तरह से मुकम्मल आत्मनिष्ठता पैदा करना आधुनिकता की केन्द्रीय उपलब्धि है। इसके प्रभाव में मनुष्य को लगता है कि यह सारी दुनिया उसी के लिए है।4 हाइडेगर ने यह अवलोकन यूरोप को ध्यान में रख कर किया होगा। सवाल यह है कि क्या यह मुकम्मल आत्मनिष्ठता ग़ैर-यूरोपीय उपनिवेशितों को भी उपलब्ध हो सकती थी? इस सवाल का जवाब पाने के लिए हमें आत्मनिष्ठता गढ़ने की उन बौद्धिक प्रौद्योगिकियों पर ग़ौर करना होगा जो सत्रहवीं सदी से ही यूरोपीय ज्ञानमीमांसा की फ़ैक्ट्री में तैयार की जाती रही हैं। यूरोपीय विद्वता तभी से मनुष्य के आत्म को संशोधित करने या पूरी तरह से बदल डालने के उद्यम में लगी रही है। पिछले अध्यायों में कई बार यह प्रसंग आया है कि पश्चिम ने व्यक्ति और समाज के पारम्परिक आत्म को हटा कर उसकी जगह एक नया आत्म स्थापित करने के लिए भाषा, साहित्य और ज्ञान को एक औज़ार की तरह साधने की कोशिश की है। मसलन, दूसरे अध्याय ‘प्रत्यक्ष का अप्रत्यक्षीकरण’ में वाल्टर मिन्योलो द्वारा फ़्रांसिस बेकन के मंसूबों की व्याख्या के ज़रिये इंगित किया गया है कि यूरोपीय विद्वता आत्म को बदल डालने की परियोजना को बाक़ायदा एक वैज्ञानिक उद्यम की तरह देखती रही है। दोहराव का जोखिम उठा कर भी यहाँ मिन्योलो की व्याख्या का उल्लेख करना ज़रूरी है।
मिन्योलो के अनुसार मनुष्य की आत्मा के जिस बड़े हिस्से (धर्म और ईश्वर के साथ जुड़े हुए एक छोटे से हिस्से को छोड़ कर) के साथ बेकन वैज्ञानिक प्रयोग करने के हिमायती थे, वह हिस्सा उनके लिहाज़ से स्मृति, कल्पना और विवेक के तीन आयामों में बँटा हुआ था। हर पहलू का ज्ञान के एक प्रमुख अनुशासन से सीधा मेल था। बेकन के अनुसार स्मृति से इतिहास फूटता है, कल्पना से कविता और विवेक से दर्शन। इस अवलोकन से तात्पर्य यह निकलता है कि बेकन के अनुसार इतिहास, कविता और दर्शन का उपकरण के तौर पर नियोजित इस्तेमाल करके मनुष्य की आत्मा को मर्ज़ी के मुताबिक़ संशोधित किया जा सकता है। फिर एक लम्बी अवधि के दौरान उस पर क़ब्ज़े और नियन्त्रण के ज़रिये उसे एक नया आत्म दिया जा सकता है। ‘प्रत्यक्ष का अप्रत्यक्षीकरण’ में ही थामस हॉब्स के भाषा सम्बन्धी विचारों की चर्चा करते हुए आत्म की रचना में भाषा की भूमिका को रेखांकित किया गया है। हॉब्स की मान्यता थी कि मनुष्य अपने से अधिक शक्तिशाली, तेज़ और सक्षम जीवों से अधिक प्रभावशाली और ख़तरनाक इसीलिए बन पाया कि वह भाषा की रचना कर सका। भाषा के ज़रिये मनुष्य ने चिह्नों का प्रयोग करके अपनी स्मृति का विस्तार किया, और इस तरह अतीत और भविष्य दोनों को ही सम्भव बना दिया। नतीजतन, उसे आत्मचेतना प्राप्त हो सकी, जिसने उसे अपने हित के प्रति सतर्क किया।
उपनिवेशन (आन्तरिक हो या बाह्य) के सन्दर्भ में बेकन और हॉब्स के इन विचारों की जाँच करने पर उनकी अनुप्रयुक्तता (एप्लायडनैस) के एक भिन्न पहलू पर रोशनी पड़ती है। उपनिवेशितों के ऊपर जैसे ही आत्म को संशोधित या बदलने की यह प्रौद्योगिकी इस्तेमाल की जाती है, ज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में एक बिचौलिये वर्ग की रचना होने लगती है। इस बिचौलिये वर्ग को बहुत पहले पुनर्जागरण के सबसे बड़े राजनीतिक सिद्धान्तकार निकोलो मैकियावेली ने उसी समय कल्पित कर लिया था जब वे उपनिवेशन के शुरुआती दौर में स्पहानी और पुर्तगाली उपनिवेशकों को रोमन शैली का उपनिवेशन अपनाने की सलाह दे रहे थे। ‘प्रत्यक्ष का अप्रत्यक्षीकरण’ अध्याय में मैकियावेली की यह सलाह मौजूद है कि रोमनों की तर्ज़ पर किसी मुल्क को जीतने के बाद वहाँ ऐसे लोगों (प्रशासकों-प्रबन्धकों) को भेजना चाहिए जिन्हें न केवल उस क्षेत्र को राजनीतिक नियन्त्रण में रखना आता हो, बल्कि वे अपने क़ानूनों और रिवाजों को लागू करने में भी दक्ष हों। इस प्रक्रिया में भाषा-साहित्य-दर्शन-ज्ञान की प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करके औपनिवेशिक महाप्रभु उपनिवेशितों के बीच अपने प्रति निष्ठावान और यूरोपीय तौर-तरीकों में दीक्षित लोगों का एक सुगठित और केन्द्रीकृत समुदाय तैयार कर सकते हैं।
तीसरे अध्याय ‘अंग्रेज़ी के अलौकिक साम्राज्य’ में चर्चा की गयी है कि इंग्लैंड द्वारा जब आन्तरिक उपनिवेशीकरण के तहत स्कॉटलैंड और आयरलैंड पर यह प्रौद्योगिकी आज़मायी गयी तो किस तरह वहाँ भी सांस्कृतिक विचौलियों का संसार बनने लगा। अन्ततः इंग्लैंड ने उन्हें, विशेष तौर से एडम स्मिथ समेत स्कॉटिश बुद्धिजीवियों को, अपने विश्वव्यापी साम्राज्यिक प्रोजेक्ट का प्रमुख सिपहसालार बना लिया। इसी तरह उपनिवेशवाद के ज्ञानात्मक कारखाने ने अफ़्रीका में सांस्कृतिक बिचौलियों का बड़े पैमाने पर उत्पादन किया, जो आज भी नुगी वा थियोंगो के शब्दों का इस्तेमाल करें तो ‘इम्पायर ऑफ़ माइंड’ की सेवा करने में लगे हुए हैं। इस अध्याय में हम पड़ताल यह करेंगे कि ‘इम्पायर ऑफ़ माइंड’ के स्थानीय कारकुन आत्मनिष्ठता के धरातल पर किस तरह की कैफ़ियत से गुज़रते हैं। उन्हें वह मुकम्मल आत्मष्ठिता तो नसीब नहीं होती जिसकी दावेदारी हाइडेगर ने की है। भले ही उन्हें वहाँ के प्रभुवर्ग की पहले या दूसरे नम्बर की सदस्यता क्यों न मिल गयी हो। इस जाँच से हम पता लगाएँगे कि आधुनिकता के औपनिवेशिक संस्करण ने उपनिवेशित समाजों में किस तरह की आत्मनिष्ठता को जन्म दिया है। अल्बर्ट मेमी (1920-2020) और फ़्रांज फ़ानो (1925-1961) जैसे अफ़्रीकी चिन्तकों ने दिखाया है कि ऐसे समाजों में राजनीतिक प्रभुसत्ता से वंचित होने से पहले वाली आत्मनिष्ठता को औपनिवेशिक अधीनता के तहत लगातार तिरस्कार झेलना पड़ता है। यूरोपीय महाप्रभु अपनी संस्थागत डिज़ाइन कुछ इस प्रकार बनाते हैं कि इस आत्मनिष्ठता को पनपने और टिकने का अवसर ही नहीं मिलता। उसकी प्रभावकारिता का धीरे-धीरे क्षय होता चला जाता है। सत्ता, उसकी हिंसा और सांस्कृतिक अतिक्रमण के कारण पलड़ा पूरी तरह से उपनिवेशक के पक्ष में झुका रहता है। यह स्थिति देशज आत्मनिष्ठता को मजबूर कर देती है कि वह, पूरी तरह से ख़त्म हुए बिना, हाशिये के एक कोने में सिकुड़ी रहे। अपनी इसी शक्तिहीनता के कारण यह पारम्परिक आत्मनिष्ठता उपनिवेशक के साथ सांस्कृतिक मुखामुखम होते समय उपनिवेशित बुद्धिजीवी की कोई मदद नहीं कर पाती।
अगर पारम्परिक आत्मनिष्ठता थोड़ी-बहुत शक्ति के साथ भी सक्रिय रहती तो मातहती की स्थितियों में भी औपनिवेशिक आधुनिकता द्वारा थमायी गयी आत्मनिष्ठता के साथ कहीं कम या कहीं ज़्यादा होड़ कर सकती थी। लेकिन, उसके बेअसर हो जाने का नतीजा यह निकलता है कि ऐसा बुद्धिजीवी अपने महाप्रभुओं की भाषा, ज्ञानात्मकता, संस्कृति, शिष्टता, अभिरुचियाँ, संस्थागत बन्दोबस्त, राज्य-संरचना- यानी उपनिवेशवाद का पूरा पैकेज एकतरफ़ा और लाज़िमी तौर पर आत्मसात करने के लिए मजबूर हो जाता है। यह मजबूरी उसकी शख़्सियत और उसके चिन्तन-जगत में एक विच्छिन्नता पैदा कर देती है। चूँकि, दूसरी तरफ़ उनका देशज आत्म पूरी तरह से ख़त्म नहीं होता, इसलिए वे स्वाभाविक रूप से उसके सम्पर्क में भी बने रहते हैं। इस जटिल स्थिति का परिणाम यह होता है कि इस तरह के बुद्धिजीवी अक्सर स्मृतियों का आविष्कार करते रहते हैं, जिससे उन्हें अपने प्राक्-औपनिवेशिक अतीत के साथ एक मनगढ़न्त निरन्तरता की अनुभूति होती रहती है। इस स्थिति के गर्भ से दुचित्तेपन (स्किज़ोफ्ऱेनिया) का जन्म होता है।5 पश्चिम की आलोचना जिस गहन मौलिकता की माँग करती है, वह ऐसे दुचित्ते बुद्धिजीवियों के बस की बात नहीं हो सकती। इस अध्याय के केन्द्र में इसी उपनिवेशित बुद्धिजीवी का वह उत्तर-औपनिवेशिक उत्तराधिकारी है जिसे समाज-वैज्ञानिक कहा जाता है। ईरानी चिन्तक अली शरियती (1933-1977) ने इस शख़्सियत के सन्दर्भ में कहा है कि दुनिया में औपनिवेशिक आधुनिकता की सोहबत में पले ग़ैर-पश्चिमी बुद्धिजीवियों से इस प्रकार की श्रेणियाँ मुहैया कराने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। उनकी आत्मनिष्ठता औपनिवेशिकता की सामग्री से गढ़ी गयी है। परम्परा ने उन्हें जो आत्म (खुदी) प्रदान किया है, वह दरअसल उनके ‘अन्य’ के रूप में काम करता है। नतीजतन, परम्परा से उनका सम्पर्क संशय, तिरस्कार, नाजानकारी और कई बार उससे घृणा करने की त्रासदी से गुज़रते रहने के लिए अभिशप्त रहता है।
यह अध्याय आठ हिस्सों में विन्यस्त है। पहला हिस्सा उपनिवेशवाद से विरासत में मिले समाज-विज्ञान के उस संसार के बारे में चर्चा करता है, जो इस दुचित्ते बुद्धिजीवी का कारागार है। अध्याय का आठवाँ हिस्सा इस कारागार के अदृश्य पहरेदारों के बारे में है, जो युरोकेन्द्रीय ज्ञानात्मकता के ख़िलाफ़ किसी भी तरह का वास्तविक विद्रोह नहीं होने देते। इस बन्दीगृह से निकलने की कोशिश तो दूर, उत्तर-औपनिवेशिक समाज-वैज्ञानिक में इसके भीतर रह कर सारा जीवन गुज़ार देने की अभूतपूर्व निष्ठा दिखायी देती है। इस जेल का बन्दोबस्त है ही ऐसा। इसका ब्योरा पहले और आठवें हिस्से के बीच पेश किया गया है। पश्चिमी सामाजिक सिद्धान्त की अभूतपूर्व शक्ति उसकी इस क्षमता में निहित है कि वह अपना विरोध और आलोचना करने की आकर्षक विधियाँ भी मुहैया कराता है। इन विधियों का पालन करते हुए आलोचना का झण्डा उठाने वालों के लिए भी यह कारागार एक सुन्दर गद्देदार जगह मुहैया कराता है। किसी ने मार्क्सवाद के नाम पर, किसी ने सेकुलरवाद, किसी ने उदारतावाद और किसी ने नारीवाद के नाम पर इस जेल को ही अपना प्रारब्ध मान रखा है। क्रान्ति, समाज-परिवर्तन, सामाजिक-न्याय और नया समाज बनाने की दावेदारियाँ करने वाले क़ैदी इस जेल में मज़े से रहते हैं। इन्हीं में वे भारतीय विद्वान भी शामिल हैं जिन्हें ‘पोस्टकोलोनियल’ कहा जाता है। सुदीप्त कविराज का उक्त अवलोकन इन्हीं विद्वानों के बारे में है जो अली शरियती द्वारा इंगित किये गये ‘अनुकूलन’ के एक जटिल और विडम्बनापूर्ण रूप की नुमाइंदगी करते हैं। ‘पश्चिम की सैद्धान्तिकी से अलग हटने’ की निशानी अगर ‘उसी सैद्धान्तिकी में पारंगत होना’ बन जाए तो एक बार फिर नीत्शे द्वारा दी गयी चुनौती के सामने पूर्व-उपनिवेशितों की विफलता साबित हो जाती है। (इस पुस्तक के उपसंहारात्मक अध्याय में भाषाई उपनिवेशन के ज़रिये जिन सांस्कृतिक बिचौलियों के नियोजित उत्पादन की चर्चा की गयी है, उसकी श्रेणी में इन ‘पोस्टकोलोनियल’ विद्वानों का शुमार भी किया जा सकता है)।
समाज-विज्ञान का कारागार
पश्चिमी सामाजिक सिद्धान्त के वाहक समाज-विज्ञान और उसके तन्त्र को समझने के लिए उसके तीन आयामों पर ग़ौर करना होगा। पहला, उसका अकादमिक मर्म क्या है; दूसरा, उपनिवेशवाद और समाज-विज्ञान के इतिहास किस तरह परस्पर गुँथे हुए हैं; और तीसरा, वह संस्थागत बन्दोबस्त किस प्रकार का है जिसके ज़रिये उपनिवेशित समाजों को यह समाज-विज्ञान थमाया गया। यहाँ इन पहलुओं पर संक्षेप में प्रकाश डालने की कोशिश की गयी है। समाज-विज्ञानों की निर्मिति अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में उस समय हुई जब उपनिवेशवाद का सूरज पूरी बेरहमी से चमक रहा था। अठारहवीं सदी में विभिन्न ज्ञानात्मक श्रेणियाँ आज की तरह एक-दूसरे से अलग-अलग नहीं दिखती थीं। एक तरफ़ दर्शनशास्त्र था, और दूसरी तरफ़ प्राकृतिक विज्ञान थे। इन दोनों के बीच में आर्थिक स्थिति, राजनीति, धर्म, सभ्यता और संस्कृति जैसे विषयों पर उपलब्ध अत्यन्त सीमित तथ्य-सामग्री (डेटा) के आधार पर विचार-विमर्श हुआ करता था।6 अनुसंधान की विधियाँ और संहिताएँ भी बनने के दौर में थीं। इस पूरे उद्यम पर न्यूटन-देकार्तवादी चिन्तन का रुतबा ग़ालिब था। न्यूटन और देकार्त को अपने-अपने ईसाई ईश्वर में अगाध विश्वास था।7 न्यूटनीय मॉडल अतीत और भविष्य के बीच एक रैखिक समरूपता के ज़रिये वर्तमान का संधान करने पर यक़ीन करता था। देकार्तवादी मॉडल की आस्था ज्ञाता और ज्ञातव्य, प्रकृति और मनुष्य, पदार्थ और मस्तिष्क, भौतिक और भावातीत के बुनियादी द्विभाजन में थी। अगर इस मॉडल में फ़्रांसिस बेकन का चिन्तन भी जोड़ लिया जाए, तो कहा जा सकता है कि पश्चिमी सामाजिक सिद्धान्त का संस्थाकरण एक ऐसे कार्य-कारण-व्याख्यात्मक विज्ञान के तहत किया जा रहा था, जो अर्निश प्रायोगिकता पर टिका हुआ था। ऑगस्त कॉम्त तो मानते थे कि न्यूटन द्वारा गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त की खोज ‘सोशल रिसर्च’ का ही एक बेहतरीन नमूना है।8 इन दो सदियों में एडम स्मिथ से कार्ल मार्क्स तक हुए यूरोपीय ज्ञानात्मकता के विकास-क्रम में जब पॉलिटिकल इकॉनॉमी (राजनीतिक आर्थिकी) का परिप्रेक्ष्य प्रभावी हुआ तो सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक चिन्तन के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर तथ्यों की खोज करने वाले अनुसंधानों की आवश्यकता महसूस होने लगी। दर्शनशास्त्र के भीतर से एक अनुशासन के तौर पर अर्थशास्त्र का उदय होना शुरू हुआ।9 इसी के बाद ज्ञान के विभिन्न अनुशासन धीरे-धीरे अपनी शक्ल-सूरत प्राप्त करने लगे। विश्वविद्यालयीय प्रणाली के ज़रिये इनका प्रसार हुआ, पर इस प्रक्रिया में कुछ देर लगी। मसलन, ब्रिटेन में 1940 तक केवल लन्दन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स में ही समाजशास्त्र का विभाग अलग से था। उच्च-शिक्षा के दूसरे संस्थानों में समाजशास्त्र, सामाजिक अध्ययन और अर्थशास्त्र के मिले-जुले विभाग होते थे।
समाज-विज्ञान और उसके आनुशासनिक विकास में द्वितीय विश्व-युद्ध (1939-1945) एक विभाजक रेखा की तरह आता है। इसी दौरान दिखने लगा था कि राष्ट्रवादी दावेदारियाँ औपनिवेशिक हुक़ूमतों को ख़ात्मे की तरफ़ धकेल रही हैं। (भारत 1947 में राजनीतिक रूप से आज़ाद हुआ। लेकिन, गोवा पुर्तगाल के क़ब्ज़े से साठ के दशक में मुक्त हुआ। ब्रिटेन ने अपने अफ़्रीकी उपनिवेशों को 1960 से 1968 के बीच में छोड़ा। वेस्ट इंडीज़ के ज़्यादातर ब्रिटिश उपनिवेशों ने राजनीतिक आज़ादी के लिए सत्तर और अस्सी के दशकों का इन्तज़ार किया। हांगकांग को 1997 में जा कर स्वतन्त्रता मिली।) विश्व-युद्ध से हुई तबाही और उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलनों के दुहरे दबाव में यूरोपीय शक्तियों ने हाथ से निकलते जा रहे देशों की आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं को अपने मंसूबों के मुताबिक़ गढ़ने के लिए समाज-विज्ञानों को मोर्चे पर लगाया। उपनिवेशवादियों के लिए ज़रूरी यह था कि नये-नये आज़ाद हुए देश अपनी ‘पोस्टकोलोनियलिटी’ पश्चिम की मर्ज़ी के मुताबिक़ कल्पित करें। राजनीतिक सम्प्रभुता मिलने को ही ‘पोस्टकोलोनियलिटी’ का आगाज़ मान लिया जाए। पश्चिम के इस मंसूबे को कामयाब करने में समाज-विज्ञानों ने केन्द्रीय भूमिका निभायी। जिन विद्वानों से उम्मीद की जाती थी कि वे औपनिवेशिकता के विभिन्न रूपों की शिनाख़्त करके उनके ख़िलाफ़ चेतावनी देंगे, उन्होंने यूरोपीय उपनिवेशिकों के ज्ञानात्मक बन्दोबस्त को स्वीकार कर लिया। इसका कारण साफ़ था। औपनिवेशिक निज़ाम के तहत उनकी बौद्धिकता की इमारत इसीलिए तैयार की गयी थी। नतीजतन, उपनिवेशित रह चुके समाजों के लिए पश्चिमी सामाजिक सिद्धान्त ही ज्ञान का एकमात्र रूप रह गया।
अकादमिक मर्म : इमानुएल वालरस्टीन ने दुनिया में ज्ञानोत्पादन के विन्यास पर अकादेमीय दृष्टि से विचार किया है।10 वे बताते हैं कि 1945 तक तमाम बहस-मुबाहिसे के बाद पश्चिमी जगत ने ठोस रूप से तय कर लिया था कि ज्ञान के समग्र क्षेत्र को मुख्य तौर पर दो विराट ज्ञानात्मक संस्कृतियों में बाँट कर व्यवस्थित किया जाएगा। एक होगी दर्शनशास्त्र की संस्कृति, और दूसरी होगी विज्ञान की संस्कृति। दर्शनशास्त्र की ज़िम्मेदारी उत्तम और सुन्दर का संधान करने की होगी, और विज्ञान की इजारेदारी सत्य के संधान पर रहेगी। समाज-विज्ञान की दुनिया को इन दोनों के बीच जगह मिलेगी, ताकि वह अपने प्रयासों से सत्य और सुन्दर के बीच एकता, तारतम्यता और समरसता की स्थापना कर सके। यह अलग बात है कि ज्ञान की दो विराट संस्कृतियों के बीच फँसे रहने के कारण यह क्षेत्र सदैव के लिए दुविधाओं में फँसने के लिए अभिशप्त हो गया।
1945 से पहले की दो सदियों में इतिहास, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र के अनुशासनों का वजूद ‘सभ्य समाज के लिये, सभ्य समाज द्वारा और सभ्य समाज के बारे में’ था। ज़ाहिरा तौर पर सभ्य का मतलब निर्विवाद रूप से यूरोपीय ही हो सकता था। उपनिवेशकों के लिए ग़ैर-यूरोपीय दुनिया दो हिस्सों में बँटी हुई थी। एक हिस्सा वह था, जिसमें ‘आदिम लोग’ (जैसे, अफ़्रीकी और ‘इंडियन’) बसते थे। उनका अध्ययन करने के लिए उन्होंने एक अलग तरह का अनुशासन, एंथ्रोपोलॅजी या मानवविज्ञान तैयार किया था। इसकी पद्धतियाँ और परम्पराएँ भी समाज-विज्ञान के दूसरे अनुशासनों से भिन्न थीं। ग़ैर-यूरोपीय दुनिया के दूसरे हिस्से के बारे में उपनिवेशिकों की मान्यता थी कि किसी ज़माने में इनकी संस्कृतियाँ नफ़ीस और विकसित थीं- जैसे चीन, भारत और अरब-इस्लामी विश्व। इन ‘उच्च-संस्कृतियों’ के लिए उपनिवेशकों ने ओरिएंटल स्टडीज़ या प्राच्यशास्त्र की शुरुआत की थी। इसके किरदार को वे, समाज-विज्ञानों का हिस्सा न मान कर, मानववादी अध्ययन की श्रेणी में रखते थे।
वालरस्टीन के मुताबिक़ ये अनुशासन या तो ‘इडियोग्राफ़िक’ थे, या ‘नोमोथेटिक’। अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र की तिकड़ी को नोमोथेटिक इसलिए कहा जाता है कि वह भौतिकी (फ़िज़िक्स) को अपना प्रारूप मानते हुए सार्वभौम नियमों की खोज करने के एजेंडे का भरसक पालन करती है।11 इतिहास को इडियोग्राफ़िक इसलिए कहा जाता है कि वह सार्वभौम नियमों की खोज न करके आख्यानपरक भावचित्रों के ज़रिये अतीत के ज्ञान को वस्तुनिष्ठ ढंग से हासिल करने का दावा करता है। वस्तुनिष्ठता का यह दावा ही इतिहास-लेखन की प्रौद्योगिकी को परिभाषित कर देता है। इतिहासकारों से लाज़िमी तौर पर उम्मीद की जाती है कि वे अपना आख्यान रचते समय उसके प्रमाण भी देते चलेंगे। ये प्रमाण अभिलेखागारों से आने चाहिए, और उनका नियन्त्रण और पुष्टीकरण विद्वज्जनों द्वारा होना ज़रूरी है। इतिहास-लेखन की यह प्रौद्योगिकी कुछ इस तरह से डिज़ाइन की गयी कि उसके दायरे से दार्शनिक, काल्पनिक, मिथकीय और निगमनात्मक तत्त्व पूरी तरह से बाहर निकल जाते हैं। कुल मिला कर अगर अनुशासनों की नोमोथेटिक तिकड़ी फ़िज़िक्स और केमिस्ट्री के नक़्शे-कदम पर चल कर विज्ञान बनना चाहती है, तो इतिहास-लेखन वस्तुनिष्ठता की खोज के जरिये विज्ञान के निकट पहुँचना चाहता है। वालरस्टीन ने इस प्रवृत्ति को ‘हिस्ट्री इन सर्च ऑफ़ साइंस’ करार दिया है।12 एंथ्रोपोलॅजिस्टों और प्राच्य-अध्येताओं को लगता था कि वे ग़ैर-आधुनिक दुनिया के उन बाशिन्दों का ‘वस्तुनिष्ठ’ अध्ययन कर रहे हैं, जो ‘अन्य’ हैं, ‘बरबर’ हैं। वे अपने काम को नोमोथेटिक के बजाय इडियोग्राफ़िक श्रेणी में डालना पसन्द करते थे।
बहरहाल, समाज-विज्ञान अपने इन छह बुनियादी अनुशासनों (इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीतिविज्ञान, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र और प्राच्यशास्त्र) पर खड़ा है। समझा जाता है कि अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र काफ़ी-कुछ वैज्ञानिक रवैया अपनाते हुए समाज के ऐसे नियमों और संरचनाओं की खोज करेंगे जो कमोबेश समरूप होंगे। इतिहास, मानवशास्त्र और प्राच्यशास्त्र मनुष्य के सामाजिक व्यवहार की विभिन्नताओं को रेखांकित करेंगे। इन छह अनुशासनों का विन्यास कुछ इस तरह किया गया कि इससे पूर्व-उपनिवेशकों और पूर्व-उपनिवेशितों के बीच तीन तरह के दरारनुमा विभाजन अपने-आप स्पष्ट हो कर उभर आयें। पहला विभाजन था अतीत (इतिहास) और वर्तमान (अर्थशास्त्र, राजनीतिविज्ञान और समाजशास्त्र) के बीच। दूसरा विभाजन था पश्चिम का सभ्य समझा जाने वाला संसार (इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीतिविज्ञान और समाजशास्त्र) और शेष विश्व (‘आदिम समुदायों’ के लिए मानवशास्त्र एवं ग़ैर-पश्चिमी ‘उच्च सभ्यताओं’ के लिए प्राच्यशास्त्र) के बीच। तीसरा विभाजन केवल आधुनिक पश्चिमी दुनिया पर लागू होता था। यह विन्यास था बाज़ार के तर्क (अर्थशास्त्र), राज्य के तर्क (राजनीतिविज्ञान) और सिविल सोसाइटी के तर्क (समाजशास्त्र) के बीच बँटवारा। शुरू में इन अनुशासनों की सीमाएँ ग़ैरलचीली थीं, लेकिन जल्दी ही मानव-समाज की जटिलताओं के कारण ये अनुशासन परस्परव्यापी होते चले गये। नये-नये अनुशासन पैदा होने से उनकी संख्या बढ़ती चली गयी। नतीजतन, बहुअनुशासनीयता और अन्तर-अनुशासनीयता की मात्रा बढऩे लगी।
वालरस्टीन के हवाले से ही ‘बर्बरों की प्रतीक्षा’ वाले पहले अध्याय में दिखाया जा चुका है कि 1945 तक ज्ञानोत्पादन का यह विश्वव्यापी विन्यास मुख्य रूप से (लगभग 95 फ़ीसदी) दुनिया के पाँच देशों, फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन, जर्मनी, इटली और संयुक्त राज्य अमेरिका के विश्वविद्यालयों में ही केन्द्रित था। ज़्यादातर विद्वान भी इन्हीं देशों के थे, और उनके द्वारा किया जाने वाला ज्ञान का संधान निस्संकोच पश्चिम के सामाजिक और व्यक्तिगत अनुभव की रोशनी में किया जाता था।13 इसे सार्वभौम बनाने में प्रमुख भूमिका उस विश्वविद्यालयीय प्रणाली ने निभायी जो कांटियन-हुम्बोल्टियन विचार की देन थी (पहले अध्याय में इसकी भी चर्चा है)। यूरोपीय प्रबोधन की प्रमुख हस्ती और जर्मन दार्शनिक इमानुएल कान्ट (1724-1804) की सैद्धान्तिक कारीगरी ने पुनर्जागरण की अकादमियों को आधुनिक विश्वविद्यालय का रूप देने में निर्णायक भूमिका निभायी। उनकी रचना द कॉन्फिलक्ट ऑफ़ फ़ैकल्टीज़ (1798) ने उन प्राथमिकताओं को रेखांकित किया, जिनके आधार पर भविष्य में यूरोपीय समाज को शिक्षित किया जाना था। विश्वविद्यालय के संकायों का पदानुक्रम क्या होगा, उनकी कक्षाओं में क्या पढ़ाया जाएगा, और अध्यापन-शिक्षण की इस गतिविधि का नियन्ता और लाभार्थी कौन होगा- इसकी बुनियादी रूपरेखा कान्ट की इस रचना में मिलती है। इसी आधार पर आगे चल कर जर्मनी के शिक्षा मन्त्री के रूप में विल्हेल्म वॉन हुम्बोल्ट (1767-1835)14 ने जर्मन शिक्षाप्रणाली में सुधारों का ठोस और व्यावहारिक ख़ाका तैयार किया। उस यूरोपीय विश्वविद्यालय की रचना हुई, जो उपनिवेशवाद के ज़रिये सारी दुनिया में स्थापित हुआ, और आज भी उच्च-शिक्षा का एकमात्र संस्थागत रूप बना हुआ है। हुम्बोल्ट उस जर्मन रोमांटिसिज़म की प्रमुख हस्तियों में से एक थे, जिसे प्रबोधन और आधुनिकता का आलोचक माना जाता था, और कान्ट प्रबोधन के सबसे बड़े बचावकर्ता थे। लेकिन, प्रबोधन आधारित यूरोपीय ज्ञानात्मकता के संस्थागत बन्दोबस्त को खड़ा करने में दोनों की संयुक्त भूमिका थी।
कान्ट ने अपनी इस रचना में विश्वविद्यालय के संकायों को ‘उच्च’ और ‘निम्न’ श्रेणी में फ़िट करते हुए दो सम्बन्धों की व्याख्या की : विश्वविद्यालय के भीतर संकायों के आपसी सम्बन्ध, और विश्वविद्यालय के साथ राज्य के सम्बन्ध। कान्ट का विचार था कि धर्मशास्त्र, विधि और औषधि संकायों का ‘उच्च’ महत्त्व होना चाहिए, और दर्शनशास्त्र का ‘निम्न’। ‘उच्च’ संकायों के साथ राज्य के सम्बन्धों के विषय में कान्ट की राय एकदम स्पष्ट थी। इन संकायों में किन उसूलों की रचना होगी, किस प्रकार होगी, उन्हें सार्वजनिक किया जाएगा या नहीं, उनका लोगों के ऊपर क्या असर पड़ेगा- इन तमाम विषयों का निर्धारण कान्ट की निगाह में इन संकायों के अध्यापकों और सरकार के बीच अनुबन्ध के मुताबिक़ होना था। कान्ट इस मामले में भी स्पष्ट थे कि इस अनुबन्ध में सरकार की मर्ज़ी ही चलनी है। दरअसल, कान्ट विश्वविद्यालय की सांगठनिक आयोजना संयोग पर छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। आयोजना को इस हिसाब से तैयार किया जाना था कि सरकार के लक्ष्यों की पूर्ति में सहायक हो सके। जहाँ तक दर्शनशास्त्र की ‘निम्न’ फ़ैकल्टी का सवाल था, कान्ट का कहना था कि इसे सरकार के प्रति जवाबदेह न हो कर अपना एजेंडा स्वयं तय करना होगा। कुल मिला कर कान्ट का आग्रह यह था कि विश्वविद्यालय सरकार द्वारा नियन्त्रित (कंट्रोल) किया जाना चाहिए, पर आदेशित (कमांड) नहीं।15
पश्चिमी बुद्धिजीवी की जिस बौद्धिक स्वतन्त्रता और स्वायत्तता की चर्चाएँ हमेशा होती रहती हैं, उसका मर्म इसीलिए राज्य के नियन्त्रण और आदेश के बीच कहीं फँसा रहता है। कुछ विद्वानों की राय है कि कान्ट दर्शन को निचले संकाय में डालने के प्रति अनमने थे, क्योंकि विश्वविद्यालय को स्वतन्त्रता और स्वायत्तता देने का लक्ष्य वेधना चाहते थे और वह शासनमुखापेक्षी हो कर पूरा नहीं हो सकता था। लेकिन, यह तर्क केवल एक व्याख्या ही प्रतीत होता है। कान्ट ने जिस खुली शैली में सरकार के निर्णयकारी नियन्त्रण की संस्तुति की है, उससे नहीं लगता कि वे ऐसा चाहते होंगे। कुल मिला कर सरकार और विश्वविद्यालय के बीच के सम्बन्धों का विन्यास कान्ट सरकार की इच्छा के अनुसार ही बनाना चाहते थे, न कि विद्वानों के संसार की मर्ज़ी के मुताबिक़। कान्ट के इन इरादों से बेकन के उस विमर्श की याद आ जाती है जो ज्ञान को राजसत्ता की सेवा में लगाने के लिए प्रतिबद्ध था।
हुम्बोल्ट ने अपना काम वहीं से शुरू किया, जहाँ कान्ट ने छोड़ा था। मार्टिन बरनाल के मुताबिक़ उन्होंने एक ऐसी विश्वविद्यालयीय प्रणाली का मानचित्र तैयार किया, जिसमें छात्र और अध्यापक के बीच मैरिट आधारित सम्बन्ध थे। विश्वविद्यालय के विभागों (चर्च की शब्दावली के प्रभाव में उस समय विभागों को सेमिनार के नाम से बुलाया जाता था) का लक्ष्य होता था अधिक से अधिक सरकारी धन पाने के लिए युक्तियाँ खोजते रहना। अकादमीय जरनलों को इस तरह डिज़ाइन किया जाता था कि विभिन्न अनुशासनों की विशिष्ट शब्दावली का इस्तेमाल करके विद्वानों और आम जनता के बीच एक खाई बनायी जा सके। हुम्बोल्ट द्वारा किये गये जर्मनी के शिक्षा-सुधारों के बारे में बरनाल की दिलचस्पी का मुख्य कारण यह लगता है कि इसी दौर में जर्मनी रोमांटिक राष्ट्रवादियों के नेतृत्व में ‘हेलेनोमीनिया’ से ग़ुज़र रहा था। इसके दो पहलू थे : मिस्र के अफ़्रीकी और एशियायी किरदार से नस्लवादी नफ़रत, और यूनानियों को मिस्र से काट कर यूरोप के पूर्वज की तरह देखते हुए उनकी देवता सरीखी भव्यता का गुणगान। जर्मनी के शिक्षा मन्त्री और नयी विश्वविद्यालयीय प्रणाली के रचनाकार के तौर पर हुम्बोल्ट इस ‘हेलेनोमीनिया’ के अग्रणी नायक थे। वैसे भी हुम्बोल्ट और रोमांटिकों के बीच चोली-दामन का साथ था। दोनों की दिलचस्पी यूनानी भाषा और जर्मन भाषा के बीच समानताएँ खोजने में थी। ‘हेलेनोमीनिया’ दोनों को प्रिय था। जर्मन मानस को यूनानी गौरव के साथ जोडऩे का एक और उपयोग था। नेपोलियन की फ़ौजों से पिटे हुए और फ़्रांसीसी संस्कृति के सामने हीनभाव के शिकार जर्मन राष्ट्रवाद के पुनरुत्थान का उपाय भी यहीं से निकलता था।16 बहरहाल, जर्मन ज़मीन पर बनी इस विश्वविद्यालीय प्रणाली ने उत्साहपूर्वक ग्रीक-स्टडी की शुरुआत की। ब्रिटेन समेत यूरोप के अन्य देशों ने भी इस नयी संस्था को हाथों-हाथ लिया। इससे उन्हें उच्च शिक्षा का एक सुचिन्तित औज़ार और ‘हेलेनोमीनिया’ एक साथ मिल रहा था। यूरोप से उपनिवेशवाद के ज़रिये यह विश्वविद्यालय उत्तरी अमेरिका पहुँचा। एशिया, अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के उपनिवेशों में इसकी कलमें लगाई गयीं। इन्हीं विश्वविद्यालयों के ज़रिये सारी दुनिया के दिमाग़ में ग्रीस$रोम=यूरोप और हेलेनिक$रोमन$ईसाई=पश्चिम के मनगढ़न्त समीकरण मज़बूती से स्थापित किये गये।
यहाँ युरोपियन विश्वविद्यालय प्रणाली और आम तौर से पश्चिमी शिक्षा-प्रणाली के ईसाई पहलुओं को एक बार फिर तथ्यात्मक दृष्टि से रेखांकित करने की आवश्यकता है। प्रबोधनकालीन यूरोप में जो कांटियन-हुम्बोल्ड्टियन युनिवर्सिटी बन रही थी, वह न केवल अपने मर्म में, बल्कि अपने संस्थागत स्वरूप में पूरी तरह से चर्च-नियन्त्रित शिक्षा-प्रणाली की निरन्तरता में थी। चन्द्रकान्त राजू ने अपने एक लेख में आधुनिक और बुद्धिवादी कही जाने वाली पश्चिमी शिक्षा के इस पहलू पर तथ्यात्मक रोशनी डाली है। राजू के अनुसार सबसे पुराने पश्चिमी विश्वविद्यालयों की नींव चर्च द्वारा मुसलमानों के ख़िलाफ़ किये गये क्रुसेड्स के दौरान डाली गयी थी। इनके तीन मक़सद थे। पहला, ज्ञान के क्षेत्र में मुसलमानों से प्रतियोगिता करना- यानी न केवल पुल बनाने की प्रौद्योगिकी सीखना, बल्कि टोलेडो की लाइब्रेरी में रखी हुई अरबी पुस्तकों का अनुवाद करना, और यह करते हुए उनके पाठ में उस ज्ञान को यूनानी ज्ञानात्मकता की उपलब्धि बताने वाले जाली तथ्यों को घुसेडऩा। इन लाइब्रेरियों का दूसरा मक़सद था चर्च के जड़सूत्रीय रवैये पर परम आस्था रखने वाले मिशनरियों की फ़ौज तैयार करना। इनका तीसरा मक़सद था चर्च के प्राधिकार में पूरी तरह से निष्ठा रखने वाले शिक्षितों की पीढ़ियाँ तैयार करना, ताकि जब चर्च अपने जड़सूत्रों में तब्दीली करे, तो उन्हें बिना किसी बहस के मान लिया जाए। राजू के अनुसार ये तीनों पहलू मिल कर मानस पर नियन्त्रण की बौद्धिक प्रौद्योगिकी की रचना करते थे।
राजू बताते हैं कि उच्च-शिक्षा के सभी प्रतिष्ठित पश्चिमी संस्थान पूर्ण रूप से चर्च के स्वामित्व और नियन्त्रण में ही चलते थे। यह स्थिति सदियों तक जारी रही- चाहे वह ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय हो, कैम्ब्रिज हो या पेरिस का विश्वविद्यालय। चर्च की इन पर इजारेदारी थी। बीसवीं सदी शुरू होने से सिर्फ़ तीस साल पहले 1871 में ब्रिटिश संसद ने सेकुलर शिक्षा का पहला विधेयक पारित किया। इसका उच्च-शिक्षा से कोई सम्बन्ध नहीं था। यह केवल प्राथमिक शिक्षा के लिए था, ताकि औद्योगिक श्रम की सप्लाई सुलभ हो सके।17 वैसे भी शिक्षा अपने सेकुलर रूप में भी ईसाइयत से ओतप्रोत थी। आख़िरकार सेकुलर का विचार भी तो चर्च के भीतर ही पनपा था।
उपनिवेशवाद के लिए उपयोगिता : भारतीय समाजशास्त्री रामकृष्ण मुखर्जी ने 1948 के अपने संस्मरण में उत्तरी अफ़्रीका के एक छात्र से पेरिस में हुई बातचीत के दौरान उसके कथन को इस प्रकार उद्धृत किया है : ‘आज हम ‘ट्राइबल’ माने जाते हैं और हमारा अध्ययन ‘एंथ्रोपोलॅजिस्ट्स’ करते हैं। लेकिन, कल जब हम आज़ादी प्राप्त कर लेंगे तो हम ‘पीपुल’ हो जाएँगे, और तब हमारा अध्ययन करने के लिए ‘सोसियोलॅजिस्ट्स’ और ‘पॉलिटिकल साइंटिस्ट्स’ आएँगे।’18 इस उद्धरण को अगर एक रूपक की तरह देखा जाए तो समाज-विज्ञान के विभिन्न अनुशासनों के साथ उपनिवेशवाद का उपयोगितावादी रिश्ता समझ में आने लगता है। इसके केन्द्र में हमेशा ग़ैर-यूरोप या ‘आदिम’ समाजों या यूरोप के ‘अन्य’ का अध्ययन रहा है। तलाल असद ने अपनी रचना ‘एंथ्रोपोलॅजी एण्ड द कोलोनियल एनकाउंटर’ में दिखाया है कि ब्रिटिश फ़ंक्शनल एंथ्रोपोलॅजी ‘आदिम’ समाजों के विस्तृत नृजातीय विवरण मुहैया कराने का दावा करती है, लेकिन इसके साथ-साथ वह औपनिवेशिक प्रणाली की सत्ता-संरचनाओं को पुष्ट करने की भूमिका भी निभाती रहती है। इस एंथ्रोपोलॅजी ने अफ़्रीका में अंग्रेज़ों द्वारा किये जा रहे अप्रत्यक्ष शासन की प्रणाली (कथित ‘पारम्परिक’ राजनीतिक संस्थाओं के ज़रिये) को लागू करने और न्यायसंगत ठहराने में योगदान करने का काम भी किया है।19 दूसरी तरफ़, समाज-विज्ञान को यूरोप से बाहर रह रहे युरोपियनों के साथ अलग तरह का सुलूक करना था। इसीलिए 1926 में आयी बेलफ़ोर रपट ने कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और दक्षिण अफ़्रीका को ‘उपनिवेशित’ श्रेणी से बाहर कर दिया था। जॉन डार्विन के अनुसार इस रपट के बाद ब्रिटेन ने मान लिया कि ये ‘सेटलर कोलोनियाँ’ किसी भी तरह से उसकी मातहत न हो कर ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल की सदस्य के रूप में सांविधिक दृष्टि से बराबर की हैसियत रखती हैं।20 नतीजतन, ब्रिटिश कोलोनियल ऑफ़िस ने इनकी तरफ़ ध्यान देना बन्द कर दिया। वैसे भी ऐतिहासिक रूप से सेटलर कॉलोनियों में गोरे शासकों का ज़ोर अधीनस्थ देशज प्रजा का अध्ययन करने में कम, और जाति-संहार करने पर ज़्यादा रहता था। राष्ट्रमण्डल के भारत जैसे दूसरे सदस्य देशों में साभ्यतिक-सांस्कृतिक मिशन का कार्यान्यवन जारी रहा। किसी भी तरह से देखा जाए तो यह एक नस्लवादी फैसला था। ‘सेटलर कोलोनियों’ में गोरे बसते थे, जो पैदाइशी ‘सभ्य’ और ‘आधुनिक’ थे, लेकिन भारत जैसे उपनिवेशों को अंग्रेज़ी भाषा और पश्चिमी ज्ञानात्मकता के औज़ारों से सभ्य और आधुनिक बनाया जाना बाक़ी था।
उपनिवेशवाद और समाज-विज्ञान के अन्तरंग सम्बन्धों के विकास को दो हिस्सों में बाँट कर सही परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। पहला चरण है वह जब सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में जॉन लॉक अमेरिका के उपनिवेशन के समर्थन में तर्क जुटा रहे थे, अठारहवीं सदी में स्कॉटिश प्रबोधन के शीर्ष विद्वान एडम स्मिथ सभ्यता के विकास को चार चरणों में बाँट कर उपनिवेशवादियों के साभ्यतिक मिशन को जायज़ ठहरा रहे थे, और उन्नीसवीं सदी में कार्ल मार्क्स स्मिथ के सभ्यता-विमर्श को अपनाते हुए एशियायी समाजों के बारे में अपनी यूरोकेन्द्रित थीसिस का प्रवर्तन कर रहे थे। यह चरण ग़ैर-यूरोपीय दुनिया की यात्राओं के यूरोपीय वृत्तान्तों (प्राच्यशास्त्र का शुरुआती रूप) के ज़रिये संसाधित हो रहा था। दूसरा चरण उस समय शुरू होता है, जब यूरोपीय महाप्रभुओं को लगने लगा था कि उनके राजनीतिक साम्राज्य के दिन लदने वाले हैं। यह है द्वितीय विश्व-युद्ध के इर्द-गिर्द की अवधि। इस दौर में उपनिवेशवादी योजनाएँ बनाते हुए दिखते हैं कि ग़ैर-यूरोप को पश्चिमी आधुनिकता के साँचे में ढालने की परिघटना कैसे सुनिश्चित की जाए। 1938 में ही कोलोनियल सेक्रेटरी मैलकम मैक्डोनाल्ड इस तर्ज़ पर सोचने लगे थे कि उपनिवेशों में राष्ट्रवादी अभिजनों को सत्ता-हस्तान्तरण करने के लिए तैयार करने का सुसंगत कार्यक्रम कैसे बनाया जाए।21 यह गारंटी करने के लिए उपनिवेशवादियों ने एंथ्रोपोलॅजी, सोसियोलॅजी और इकॉनॉमिक्स जैसे अनुशासनों का योजनाबद्ध इस्तेमाल किया। फ्रांसीसी, जर्मन, ब्रिटिश और अमेरिकी एंथ्रोपोलॅजी द्वारा उपनिवेशवाद की सेवा करने के प्रकरणों पर विद्वज्जन काफ़ी प्रकाश डाल चुके हैं। लेकिन, सोसियोलॅजी और इकॉनॉमिक्स की साम्राज्यिक भूमिकाओं की चर्चा नहीं की जाती। बजाय इसके, इन दोनों अनुशासनों के विकास को द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद हुए उच्च-शिक्षा और लोकोपकारी राज्य के विस्तार से जोड़ दिया जाता है। हक़ीक़त यह है कि पश्चिम द्वारा थमाये गये प्रारूप के मुताबिक़ राज्य और समाज बनाने और इस प्रकार ‘कोलोनियलिटी’ की निरन्तरता सुनिश्चित करने के साभ्यतिक-सांस्कृतिक प्रोजेक्ट में इन अनुशासनों की भूमिका एंथ्रोपोलॅजी से कम नहीं है। वैसे तो इनके औपनिवेशिक उपयोग के तथ्य प्रथम विश्व-युद्ध से ही मिलने शुरू हो जाते हैं, लेकिन द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद तो उपनिवेशवाद एंथ्रोपोलॅजी और ओरिएंटलिज़म से कहीं ज़्यादा अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र पर ही निर्भर नज़र आता है।
रॉबर्टो मार्शियोनैटी और मारियो सेड्रिनी ने इकॉनॉमिक्स एज़ सोशल साइंस में समाज-विज्ञान के सर्वाधिक प्रभावशाली और विज्ञान-सम्मत समझे जाने वाले अनुशासन अर्थशास्त्र की साम्राज्यिक भूमिका पर विस्तृत और गहन प्रकाश डाला है।22 यह एक ऐसी रचना है, जिसमें यूरोप के दार्शनिक चिन्तन, साहित्य-रचना, साभ्यतिक चिन्तन और उसकी आधार-सामग्री का सीधा सम्बन्ध अर्थशास्त्र की निर्मिति से जुड़ता दिखता है। अर्थशास्त्र के केन्द्र में ‘होमो इकॉनॉमिकस’ नाम की विमर्शी गढ़न्त है। ‘होमो इकॉनॉमिकस’- यानी कोई फैसला लेने से पहले तर्कसंगत ढंग से अपने हर क़दम के फ़ायदे-नुक़सान का आकलन करने वाली एक ऐसी काल्पनिक शख़्सियत, जिसे केन्द्रस्थ करके अर्थशास्त्र के मॉडल और सिद्धान्त तैयार किये जाते हैं। इस गढ़न्त के पीछे प्राच्यशास्त्र और मानवशास्त्र द्वारा दी गयी ग़ैर-यूरोपीय समाजों की वह जानकारी है, जिसके आधार पर एडम स्मिथ और कार्ल मार्क्स ने अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में पॉलिटिकल इकॉनॉमी का शीराज़ा खड़ा किया था। यह ‘होमो इकॉनॉमिकस’ पहली बार 1719 में डैनियल डिफ़ो की साहित्यिक कृति ‘द एडवेंचर ऑफ़ रॉबिन्सन क्रूसो के पृष्ठों पर कल्पित किया गया था। जेम्स जॉयस ने लिखा है कि क्रूसो ‘अंग्रेज़ों की औपनिवेशिक विजय का वास्तविक प्रतीक है .... एक रेगिस्तानी द्वीप पर जेब में सिर्फ़ एक चाकू और एक पाइप के साथ अकेला फँस जाने वाला क्रूसो वास्तुकार, बढ़ई, सान रखने वाला, खगोलविद्, नानबाई, जहाज-निर्माता, कुम्हार, साज़ बनाने वाले मोची, किसान, दर्जी, छाता बनाने वाले और पादरी की भूमिकाएँ एक साथ निभाता है। वह ब्रिटिश उपनिवेशक का सच्चा नमूना है। और, फ्ऱाइडे (क्रूसो का विश्वस्त आदिवासी सेवक जो ‘एक अशुभ दिन’ उस द्वीप पर पहुँचता है) उपनिवेशित नस्लों का प्रतीक है।’23
मार्शियोनैटी और सेड्रिनी ने विस्तार से दिखाया है कि किस तरह फ्ऱेंच और अंग्रेज़ी में छपे ग़ैर-यूरोपीय क्षेत्रों के यात्रा-वृत्तान्तों के आधार पर लॉक, दिदेरो, रूसो, मोंतेस्क्यू, मोंटेन, स्मिथ और मार्क्स ने सभ्य और असभ्य सभ्यताओं, समाजों और राष्ट्रों का द्विभाजन तैयार करके उपनिवेशवाद को उसका तर्क प्रदान किया। दोनों लेखकों ने निष्कर्ष निकाला है :
अर्थशास्त्र का साम्राज्यिक किरदार नवउदारतावादी इकॉनॉमिक्स की देन न हो कर उस क्लासिकल इकॉनॉमिक्स की देन है, जिसकी नींव एडम स्मिथ ने रखी थी। अर्थशास्त्रीय साम्राज्यवाद की जड़ें गहरी हैं। इसका प्रमाण इस अनुशासन की आधारशिला के एक केन्द्रीय आयाम से मिलता है, जिसका ताल्लुक़ प्राचीन, बाज़ार-पूर्व समाजों और ख़ासकर आदिम आर्थिक जीवन के अध्ययन से है। क्लासिकल इकॉनॉमिक्स का शीराज़ा दो बातों पर खड़ा है : सामान्यता की परिकल्पना और उसकी बुनियादी श्रेणियों की सार्वभौम प्रयोज्यता। मानवीय इतिहास की एक ख़ास समझ से निकलने वाले परिप्रेक्ष्य को आरोपित करने की प्रक्रिया में अर्थशास्त्र पश्चिमी समाजों की भूमिका को मानक के रूप में पेश करता है। इस प्रकार अर्थशास्त्र इतिहास के विभिन्न समाजों और उनकी अर्थव्यवस्थाओं की जगह तय करता चला जाता है।24
स्मिथ ने अपनी रचना वेल्थ ऑफ़ नेशंस में बाज़ार-पूर्व समाजों में होने वाले वस्तु-विनिमय को अर्थव्यवस्था की श्रेणी में रखने से इंकार कर दिया। इस तरह अनुमान-आधारित पद्धति का बेजा इस्तेमाल करते हुए उन्होंने इन समाजों में होने वाले आर्थिक विनियम को हर तरह की सैद्धान्तिक प्रासंगिकता से वंचित कर दिया। इस विनिमय की सर्वाधिक मानीख़ेज़ अभिव्यक्ति उपहार देने-लेने में होती थी। स्मिथ की इस कारिस्तानी का परिणाम यह निकला कि आधुनिकता के ‘अन्य’ या ग़ैर-आधुनिक का अर्थशास्त्र की दुनिया से विलोपन हो गया। मार्शियोनैटी और सेड्रिनी ने इसे पश्चिमी अर्थशास्त्र का ‘ओरिजिनल सिन’ करार दिया है। (इसी अध्याय में आगे चल कर स्मिथ के सभ्यता-विमर्श के अनुयायी कार्ल मार्क्स द्वारा एशियायी समाजों के बारे में किये गये सिद्धान्त-निरूपणों की चर्चा की गयी है। मार्क्स ने इस सिलसिले में अपनी तथ्य-सामग्री औरंगजेब के ज़माने में भारत की यात्रा करने वाले फ़्रांस्वा बर्नियर के वृत्तान्तों से ली थी।) पॉलिटिकल इकॉनॉमी के तहत स्मिथ और मार्क्स जैसे महारथियों द्वारा ग़ैर-यूरोपीय समाजों में कुछ भी सकारात्मक देखने से इंकार करने का परिणाम यह निकला कि यूरोपीय मानस के लिए मानवता के ‘असभ्य’ हिस्से को किसी भी तरह की स्वतन्त्रता देने के बारे में सोचना भी मुश्किल हो गया।
द्वितीय विश्व-युद्ध के इर्द-गिर्द जैसे-जैसे औपनिवेशिक राज्य-व्यवस्थाओं के ख़ात्मे के दिन नज़दीक आने लगे, वैसे-वैसे साम्राज्यिक ताक़तों द्वारा अपनी योजनाओं को अंजाम देने के लिए अर्थशास्त्र के साथ-साथ समाजशास्त्र को भी मोर्चे पर तैनात किया जाने लगा। सोसियोलॅजी और उपनिवेशवाद के सम्बन्धों के इतिहास पर विस्तृत रोशनी डालने वाले जार्ज स्टीनमेट्ज़ ने बताया है कि जिस कालखण्ड (चालीस के दशक के मध्य से साठ के दशक की शुरुआत तक) को ‘डिकोलोनाइज़ेशन’ की अवधि कहा जाता है, वह दरअसल ‘कोलोनियल रिसर्च’ और ‘इम्पीरियल सोसियोलॅजी’ का दौर था। यूरोपीय महाप्रभु इसके ज़रिये एक नया बन्दोबस्त कायम करना चाहते थे। इसके केन्द्र में विकासवाद था, जिसके माध्यम से उपनिवेशित समाजों की ‘पोस्टकोलनियलिटी’ को ‘आधुनिक’ और पश्चिम के अनुकूल बनाया जाना था। भारत में तो ‘डिवेलपमेंटल कोलोनियलिज़म’ का यह सिलसिला 1939 से ही शुरू कर दिया गया था। नयी ज़िम्मेदारियाँ निभाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने अपने कोलोनियल ऑफ़िस के स्टाफ़ में बढ़ोतरी की, भारतीय कोलोनियल सर्विस में भी कर्मचारियों और अफ़सरों की संख्या बढ़ाई गयी। 1945 के बाद फ्रांस ने अपने अफ़्रीकी उपनिवेशों के प्रशासन में सैकड़ों नये अफ़सर और तकनीशियनों को जोड़ा। ब्रिटेन और फ्रांस ने नये क़ानून बनाए, जिनके तहत औपनिवेशिक विकास परियोजनाओं में तीस करोड़ डालर के बराबर निवेश अंग्रेज़ों की तरफ़ से और एक अरब फ़्रांक का निवेश फ़्रांसीसियों की तरफ़ से किया गया। इस दौर में वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और तकनीशियनों के साथ-साथ समाजशास्त्रियों और सांख्यकीविदों पर धुआँधार रकम ख़र्च की गयी। फ़्रांसीसी और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के सन्दर्भ में स्टीनमेट्ज़ ने इसे ‘इम्पीरियल फ़ील्ड’ की संज्ञा दी है।25
उपनिवेशों की समस्याओं को हल करने में समाजशास्त्रियों की मदद लेने से ले कर उपनिवेशों में कथित रूप से ‘ऑटोनॉमस’ समाज-विज्ञानों की फंडिंग करने की यह कहानी विस्तृत और गहन है। फ़्रांसीसियों ने इस मक़सद के लिए जो संस्थागत ढाँचा खड़ा किया, उसमें ओआरएसटीओएम (ऑफ़ीस डि ला रिसर्चे साइंटीफ़ीक एट तकनीक औत्रे-मे) और आईएफ़एएन (इंस्टीटत्त्ूट फ़्रांस्वा डि’अफ़्रीका नुआर) का स्थान प्रमुख था। अंग्रेज़ों ने चालीस के दशक में ही कोलोनियल रिसर्च कमेटी और फिर 1944 में कोलोनियल सोशल साइंस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीएसएसआरसी) की स्थापना की। इस संस्था की स्थापना में उपनिवेशवाद के जाने-माने पैरोकारों लॉर्ड हेली और लॉर्ड लुगार्ड से लेकर फ़ेबियन समाजवाद के अनुयायी बुद्धिजीवियों तक की भूमिका थी। इसके ज़रिये उपनिवेशों में अनुसंधान के लिए पाँच लाख पाउण्ड प्रति वर्ष ख़र्च किये जाने लगे। उन दिनों के लिहाज़ से यह बहुत बड़ी रकम थी।26 इसके अलावा इसी दौरान यूनेस्को, इंटरनैशनल अफ़्रीका इंस्टीट्यूट, विभिन्न प्राइवेट फ़ाउंडेशनों और युनिवर्सिटी फ़ंडों के ज़रिये कोलोनियल रिसर्च में बड़े पैमाने पर निवेश किया जा रहा था। इस काम में जिन समाजशास्त्रियों को लगाया गया था, उनकी एक समूह के रूप में संरचना की ख़ास बात यह थी कि कई मसलों पर अलग-अलग रवैया अख़्तियार करने के बावजूद वे बिल्कुल एक जैसे संस्थानों में प्रशिक्षित हुए थे, सम्मेलनों में उनकी आपसी मुलाकातें नियमित रूप से होती थीं, और एक जैसी संस्थाओं और सरकारी कमेटियों में वे साथ-साथ भाग लेते थे। न केवल उनकी रचनाएँ प्रकाशित करने वाली पत्रिकाएँ समान थीं, वे नौकरियाँ भी एक जैसे शोध संस्थानों में करते थे। सीएसएसआरसी, आएफ़एएन और ओआरएसटीओएम की गतिविधियों में वे साथ-साथ भागीदारी करते थे। रिसर्च के लिए दिया जाने वाला धन वामपन्थी समझे जाने वाले समाजशास्त्रियों को भी मिलता था, और दूसरे रुझान रखने वालों को भी। वामपन्थियों में पिएर बोर्दियो और जार्ज बैलेंडियर जैसी हस्तियाँ थीं, और ग़ैर-वामपन्थियों में नोबर्ट एलियास और जैक गुडी जैसे नाम थे। ब्रिटेन और फ़्रांस के बीच अगर कोई अन्तर था, तो यह कि संस्थागत दृष्टि से ब्रिटेन विश्वविद्यालय और कॉलेजों के ज़रिये अपनी योजनाएँ ज़मीन पर उतारना पसन्द करता था, और फ़्रांस की प्राथमिकता शोध संस्थानों को माध्यम बनाने की थी।
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद औपनिवेशिक सोशल साइंस के तन्त्र ने एक और बड़ी ज़िम्मेदारी संभाली। यह थी उपनिवेशों में अफ़सर के रूप में भेजे जाने वालों को प्रशिक्षित करने की ज़िम्मेदारी। सबसे पहले ऑक्सफ़र्ड और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालयों को इसकी बागडोर थमायी गयी। इसके बाद लन्दन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एण्ड अफ़्रीकन स्टडीज़ (एसओएएस) और लन्दन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स (एलएसइ) ने इस काम में उत्साह से भागीदारी करनी शुरू की। इस प्रशिक्षण की संरचना को समझने के लिए एलएसइ द्वारा दी जाने वाली कोलोनियल ट्रेनिंग की पाठ्यक्रम सम्बन्धी विवरणिका पर लिखी यह इबारत मददगार हो सकती है : ‘जो छात्र कोलोनियल फ़ील्ड में विशेषज्ञता हासिल करना चाहता है, उसे समाजशास्त्र के सामान्य सिद्धान्तों से परिचित होना होगा। यूरोप और अमेरिका के अत्यधिक उद्योगीकृत समाजों की जाँच-पड़ताल के लिए जो पद्धतियाँ उपयुक्त हैं, वे ही लाज़िमी तौर पर उपनिवेशित क्षेत्रों के लिए उपयोगी होंगी।’ ध्यान रहे कि इन्हीं यूरोपीय संस्थाओं में भारत जैसे देश के अनगिनत ‘प्रतिभाशाली’ समाज-वैज्ञानिकों को ट्रेनिंग मिलनी थी। उन्हें ही तो कोलोनियल अफ़सरों द्वारा अधूरे छोड़े गए साभ्यतिक मिशन को आगे बढ़ाना था।
उपनिवेशितों के लिए ‘विमर्शी दासता’ : ‘कोलोनियल रिसर्च’, ‘इम्पीरियल सोसियोलॅजी’, और ‘डिवेलपमेंटल कोलोनियलिज़म’ से बनने वाली ‘पोस्टकोलनियलिटी’ दरअसल ‘विमर्शी दासता’ के लिए दी जाने वाली दावत थी। इसमें परोसे जाने वाले समाज-विज्ञान की असलियत बौद्धिक स्वायत्तता की तलाश करने वाली निगाहों से नहीं बच सकती थी। एशिया और अफ़्रीका में भारतीय समाजशास्त्री बिनय कुमार सरकार (1887-1949), मलेशियायी चिन्तक सैयद हुसैन अलतास (1928-2007), नाइजीरियाई राजनीतिशास्त्री क्लॉड एके (1939-1996) और चीनी मानवशास्त्री फ़ी शियाओ तंग (1910-2005) ऐसे ही दृष्टि-सम्पन्न उदाहरण थे। लातिनी अमेरिका के सन्दर्भ में वाल्टर मिन्योलो ने जानकारी दी है कि 1958 में एडमुंडो ओ’गोरमन ने अपनी रचना ‘द इन्वेंशन ऑफ़ अमेरिका : एन इनक्वारी इनटू द हिस्टोरिकल नेचर ऑफ़ द न्यू वर्ल्ड एण्ड द मीनिंग ऑफ़ हिस्ट्री’ में उन मुद्दों पर प्रकाश डाला था जो आगे चल कर अस्सी के दशक में एडवर्ड सईद द्वारा उठाये गये।27 इन उदाहरणों पर ग़ौर करने से पता चलता है कि बौद्धिक गुलामी के अन्देशों के ख़िलाफ़ विभिन्न मुक़ामों से सटीक और पर्याप्त चेतावनी दी गयी थी।
बिनय कुमार सरकार ने 1937 में प्रकाशित अपनी रचना द पॉज़िटिव बेकग्राउंड ऑफ़ हिन्दू सोसियोलॅजी के ज़रिये प्राच्यवादी भारतविद्या की सुव्यवस्थित आलोचना पेश की। देशज समाज-चिन्तन की पैरोकारी में लगे हुए सैयद फ़रीद अलतास की मान्यता है कि अपने विमर्श के हिन्दूपन पर ज़ोर देने के बावजूद यूरोकेन्द्रीयता को बेनक़ाब करने के मामले में सरकार का चिन्तन अपने ज़माने से आगे था। उन्होंने ओरिएंट और ऑक्सीडेंट में फ़र्क़ करने पर आधारित पश्चिमी सामाजिक सिद्धान्त को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि यूरोपीय विद्वान हिन्दुओं के सकारात्मक, यथार्थवादी और सेकुलर सिद्धान्तों और संस्थाओं को नज़रअन्दाज़ करते हैं। वे भारत की प्राचीन और मध्ययुगीन परिस्थितियों की तुलना यूरोपीय और अमेरिकी समाजों की आधुनिक और समकालीन स्थितियों से करने की चालाकी दिखाते हैं। उनके द्वारा आदर्श और यथार्थ के बीच के अन्तराल की भी उपेक्षा की जाती है।28 1947 में प्रकाशित अपनी सम्पादित रचना ‘द डायलेमा ऑफ़ चाइनीज़ इंटलेक्चुअल’ में फ़ी शियाओ तंग ने दावा किया कि एक चीनी मर्द या औरत खुद को जिस तरह से परिभाषित करता/करती है, वह पश्चिमी व्यक्तिवाद से मूलतः भिन्न है। समाजशास्त्रीय बहसों में लगे चीनी प्रोफ़ेसरों की आलोचना करते हुए फ़ी का कहना था कि पश्चिमी समाजशास्त्र के जो सिद्धान्त वे चीन में लाये हैं, उनका चीन के सामाजिक यथार्थ से कोई ताल्लुक नहीं है। पचास और साठ के दशक में मलेशियायी विद्वान सैयद हुसैन अलतास ने ‘कैप्टिव माइण्ड’ की थीसिस का सूत्रीकरण किया था। इसका सीधा मतलब है ‘पश्चिमी ज्ञानात्मकता के कारागार में बन्द मानस’। अलातास ने बन्दी मानस की संरचना के जिन आयामों को रेखांकित किया है, उनमें अहम है बौद्धिक गतिविधियों के दौरान अपनी देशज परम्पराओं का न केवल संज्ञान लेने से इंकार करना, बल्कि उनके प्रति बेगानेपन की स्थिति में रहना।29
क्लॉड एके ने अपनी विख्यात कृति सोशल साइंस एज़ इम्पीरियलिज़म में उन मक़सदों को पूरी तरह से बेनक़ाब कर दिया, जिनके लिए पश्चिम द्वारा समाज-विज्ञान का एक औज़ार की तरह इस्तेमाल किया जाता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि अफ़्रीका के उत्तर-औपनिवेशिक वर्तमान पर उसके अधीनस्थ अतीत का असर कायम है। औपचारिक राजनीतिक आज़ादी हासिल कर लेने भर से ‘पोस्टकोलोनियलिटी’ की दावेदारियाँ नहीं बनतीं। उन्होंने कहा कि ‘मेरी थीसिस यह कि .... विकासशील देशों के बारे में पश्चिमी विद्वत्ता साम्राज्यवादी है, क्योंकि यह (1) विकासशील देशों पर पूँजीवादी मूल्य, पूँजीवादी संस्थाएँ और पूँजीवादी विकास थोपती है, या थोपने की कोशिश करती है; (2) वह समाज-वैज्ञानिक विश्लेषण का ज़ोर इस बात पर रखती है कि विकासशील देश पश्चिम की नक़ल कैसे बनें; (3) वह ऐसी विचार-प्रक्रियाओं, कार्यक्रमों और अस्पष्टताओं को बढ़ावा देती है, जिनसे पूँजीवाद और साम्राज्यवाद का हित साधन होता है।’ क्लॉड एके ने यह तो माना कि समीर अमीन और पॉल बरान ने आर्थिक विकास के सन्दर्भ में साम्राज्यवादी पहलुओं पर प्रकाश डाला है, लेकिन वहाँ भी उनका विमर्श ज़रूरी स्पष्टता और प्रभाव के साथ सामने नहीं आ पाया है। एके ने चिन्तन की समूची वंशावली पर ही आलोचनात्मक नज़रिये से दोबारा सोचने का आह्वान किया। यद्यपि क्लॉड एके मार्क्सवाद के प्रति हमदर्दी रखते थे, लेकिन उन्होंने उसकी बौद्धिक मातहती से इंकार करते हुए प्रचुर मात्रा में सबूत जुटा कर दिखाया कि यूरोप से आयातित मार्क्सवादी आस्थाओं (प्रगति, आधुनिकता, क्रान्ति और भविष्योन्मुख वैकासिक रूपान्तरण वग़ैरह) पर अब सवालिया निशान लग चुका है। एके ने निष्कर्ष निकाला कि पश्चिमी समाज-विज्ञान अफ़्रीका को अधीनस्थ और अल्पविकसित रखने में प्रमुख भूमिका निभा रहा है। अगर वाल्ट डब्ल्यू. रोस्तोव की भाषा का इस्तेमाल किया जाए तो क्लॉड एके की उँगली ‘नॉन-कम्युनिस्ट मेनीफ़ेस्टो’ की आवश्यकता पर रखी हुई थी।30
प्रश्न यह है कि पश्चिमी समाज-विज्ञान के साम्राज्यिक इरादों की गम्भीरता और स्पष्टता से की गयी यह आलोचना भी उपनिवेशित रह चुके समाजों के बुद्धिजीवियों को बौद्धिक दासता के जाल में फँसने से क्यों नहीं रोक पायी? इस प्रश्न का पहला उत्तर तो राजनीतिक सम्प्रभुता के लिए चलाये गये आन्दोलनों और संघर्षों के ज्ञानात्मक आधार में खोजा जाना चाहिए। ऐसा करते ही साफ़ हो जाता है कि उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलन पश्चिमी ज्ञानात्मकता और यूरोपीय भाषाओं की श्रेष्ठता के प्रति गहरी कृतज्ञता के साथ चलाये जा रहे थे। ज़्यादातर राष्ट्रवादी अभिजनों का बौद्धिक प्रशिक्षण पश्चिम की सोहबत में ही हुआ था। आज़ादी प्राप्त करने के बाद उनका सपना अपने-अपने देशों को पश्चिम जैसा बनाने का ही था। इसलिए उन्होंने उपनिवेशन के दौरान कायम की गयी आधुनिक शिक्षा-प्रणाली, पश्चिमी भाषाओं के वर्चस्व और पश्चिमी समाज-विज्ञान के अनुशासनों की पढ़ाई की संस्थागत व्यवस्था को आमूलचूल बदल डालने के बजाय उत्साह से उसका समर्थन किया। नतीजा यह निकला कि पश्चिमी ज्ञानात्मकता की आलोचना एक व्यक्तिगत प्रयास बन कर रह गयी। उसने संस्थागत रूप कभी ग्रहण नहीं किया।
कोलोनियल समाज-विज्ञान का स्थायी अकादमीय और संस्थागत विन्यास जब बन कर तैयार हुआ, उससे काफ़ी पहले अठारहवीं सदी से ही उपनिवेशितों की दुनिया में यूरोपीय विद्वानों, शिक्षाविदों और प्रशासकों के नियोजित प्रयासों से आधुनिक शिक्षा और उसके संस्थानों के पैर धीरे-धीरे जमते जा रहे थे। 1856 में भारतीय उपमहाद्वीप के तीन प्रेसीडेंसी महानगरों बम्बई, कलकत्ता और मद्रास में उच्च-शिक्षा के ब्रिटिश केन्द्रों की तर्ज़ पर विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रारूप पर बने ढाका विश्वविद्यालय में 1929 में अर्थशास्त्र, राजनीति-विज्ञान, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र और भूगोल के पाठ्यक्रम शुरू कर दिये गये। दक्षिण एशिया के अन्य देशों में भी इसी तरह का संस्थागत और अकादमीय घटनाक्रम चल रहा था। अफ़गानिस्तान के काबुल विश्वविद्यालय में 1939 से ही ये विषय पढ़ाये जा रहे थे। अध्यापन की बागडोर तुर्की के शिक्षकों के हाथ में थी, और तुर्की के समाज-वैज्ञानिक परिदृश्य पर फ़्रांसीसी और जर्मन परम्पराओं की गहरी छाप थी। बर्मा के रंगून विश्वविद्यालय की स्थापना ऑक्सफ़र्ड और कैम्ब्रिज युनिवर्सिटियों के प्रारूप पर 1920 में हुई थी। नेपाल के त्रिभुवन कॉलेज की स्थापना 1918 में अंग्रेज़ों के हाथों हुई थी। समाज-विज्ञान के पहले विषय के रूप में 1943 में इस कॉलेज में अर्थशास्त्र की पढ़ाई शुरू हुई।
डच उपनिवेशिकों द्वारा प्रशिक्षित इंडोनेशियाई विद्वान और शिक्षक 1920 से ही इंडोनेशिया में समाज-विज्ञान का अध्यापन कर रहे थे। मलेशिया और सिंगापुर में रैफ़्लेस कॉलेज 1929 से औपनिवेशिक प्रशासन के लिए दूसरी पंक्ति के कर्मचारी तैयार करने हेतु समाज-विज्ञान पढ़ाई जा रही थी। मानवशास्त्र, इतिहास, क़ानून और भाषाविज्ञान में उच्च-स्तरीय अनुसंधान करने का काम औपनिवेशिक विद्वानों और प्रशासकों के पास था। 1949 में रैफ़्लेस कॉलेज और किंग एडवर्ड कॉलेज ऑफ़ मेडिसन को मिला कर मलाया विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी। 1958 में इस युनिवर्सिटी के दो स्वायत्त सम्भागों को कुआलालाम्पुर और सिंगापुर में कायम किया गया। बाद में इन्हें स्वतन्त्र विश्वविद्यालयों का दर्जा मिल गया। फ़िलीपींस में अमेरिकी उपनिवेशन के दौरान समाज-विज्ञान के विभिन्न अनुशासनों की पढ़ाई शुरू हुई। वहाँ की शिक्षा-प्रणाली पूरी तरह से अमेरिका की नक़ल पर स्थापित की गयी थी। सदी की शुरुआत से ही बहुत से फ़िलीपीनी छात्रों को अमेरिका भेज कर स्नातक स्तर से ही शिक्षा दिलवायी गयी। इन छात्रों ने लौट कर पश्चिमी सिद्धान्तशास्त्र को फ़िलीपीनी विद्वत्ता का एकमात्र रूप बना दिया।
चीन और जापान औपचारिक रूप से उपनिवेशित नहीं थे। लेकिन, ज्ञानोत्पादन के क्षेत्र में यूरोकेन्द्रीयता से निजात पाना उनके लिए भी नामुमकिन साबित हुआ। जापान में मीजी सुधारों (1886-1912) की अवधि में समाज-विज्ञानों ने अपनी घुसपैठ की। इसमें जर्मनों और अमेरिकनों की प्रमुख भूमिका थी। चीन में 1902 में येन फ़ू द्वारा हरबर्ट स्पेंसर की रचना प्रिंसिपल्स ऑफ़ सोसियोलॅजी के चीनी भाषा में अनुवाद से पश्चिमी समाज-विज्ञान की शुरुआत हुई।31 कालान्तर में कम्युनिस्ट-क्रान्ति के दौरान मार्क्सवाद के ज़रिये चीन में युरोकेन्द्रित ज्ञानोपार्जन की मात्रा बढ़ती चली गयी। चीन का पारम्परिक ज्ञान धीरे-धीरे मार्क्सवाद के प्रभुत्व में केवल एक छौंक की तरह रह गया।
पश्चिमी ताक़तों ने विश्वविद्यालयीय प्रणाली के साथ-साथ पूर्व-उपनिवेशितों के बीच शोध संस्थानों का जाल भी बिछाया। 1968 में प्रकाशित सेमिनार पत्रिका के तहत ‘एकेडेमिक कोलोनियलिज़म’ शीर्षक के तहत हुई एक विस्तृत चर्चा में गिरजा कुमार ने भारत के बारे में तथ्य मुहैया कराये हैं। इनसे जानकारी मिलती है कि 1947 के बाद भारत में स्थापित समाज-विज्ञान के अनुसंधान संस्थानों को या तो आंशिक रूप से या पूरी तरह विदेशी आर्थिक सहयोग (मुख्य तौर पर अमेरिकी) से ही स्थापित किया गया था। इंडियन इंस्टीट्यूशन फ़ॉर पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन (आईआईपीए) अपने पहले पाँच वर्षों में अमेरिकी धन पर ही चलाया गया। सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डिवेलपिंग सोसाइटीज़ (सीएसडीएस) को भी अपने शुरुआती वर्षों में अमेरिकी मदद मिली। चाहे अहमदाबाद का इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट (आईआईएम) हो, या नयी दिल्ली का इंडियन लॉ इंस्टीट्यूट (आईएलआई) हो, इन सभी की नींव विदेशी पैसे ही पड़ी। गिरजा कुमार के अनुसार आज़ादी के बाद की देश की राजधानी दिल्ली विदेशी मदद से चलने वाले अनुसंधान संस्थानों से भरी हुई थी। इनमें इंडियन इंस्टीट्यूशन ऑफ़ पब्लिक ओपीनियन, इंस्टीट्यूट ऑफ़ कांस्टीट्यूशनल एण्ड पार्लियामेंटरी स्टडीज़ और इंडिया इंटरनैशनल सेंटर के नाम भी शामिल थे।
इन संस्थाओं को कौन चलाता था? गिरजा कुमार के मुताबिक़ इनका संचालन ऑक्सफ़र्ड, कैम्ब्रिज, एलएसई और एसओएएस में प्रशिक्षित भारतीय विद्वानों के हाथ में था। एसओएएस से इतिहास-लेखन का प्रशिक्षण ले कर आये विद्वानों की तरफ़ से भारतीय इतिहास के साम्राज्यिक दौर को नफ़ीस ढंग से जायज़ ठहराने की कोशिश भी की जाती थी। ‘पोस्टकोलोनियल’ ज़मीन पर चलाये जा रहे इस बौद्धिक प्रोजेक्ट में हार्वर्ड, कोलम्बिया, येल, एमआईटी जैसे प्रतिष्ठित अमेरिकी संस्थानों से पढ़ कर आये विद्वानों की भी उल्लेखनीय भूमिका थी। ज़ाहिर है कि दक्षिण एशिया के सबसे बड़े नव-स्वतन्त्र देश भारत के बौद्धिक तन्त्र पर एंग्लो-अमेरिकी छाप गहरायी से लगी हुई थी। भारतीय समाज-विज्ञान ब्रिटेन को मातृ-देश की तरह देखता था, जिसके साथ अमेरिकी सम्पर्कों के जुड़ाव ने इसे ‘एंग्लो-अमेरिकी डोमिनियन’ का ‘सब-कल्चर’ बना दिया था। अमेरिकी पाठ्यपुस्तकों को सस्ती दरों पर छाप कर भारत के शिक्षा-बाज़ार में बेचा जा रहा था। अकादमीय मसलों में औपनिवेशिक मानस ही काम कर रहा था। विदेशी संस्थानों में प्रशिक्षण लेकर आये विद्वानों को भारत में प्रशिक्षित अनुसंधानकर्ताओं के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा तरजीह दी जाती थी। यूरोपीय अवधारणाओं के मुताबिक़ भारतीय स्थितियों की समझ बनाने का चलन आम था। स्थिति इतनी अफ़सोसनाक थी कि उस समय इस रवैये के विकल्प के बारे में सोचा तक नहीं जा सकता था।
समाज-विज्ञान शोध में न किसी तरह की भारतीयता थी, और न ही इसकी कोई ज़रूरत महसूस की जाती थी। कई अकादमीशियनों की हैसियत का आधार, उनका कोई मौलिक शोध-कार्य न हो कर विदेशी रिसर्च इंस्टीट्यूट्स से उनका सम्पर्क था। वे नियमित रूप से इन संस्थानों में होने वाले सेमिनारों और कांफ्ऱेंसों में भाग लेने जाते रहते थे। भारत के विश्वविद्यालय और शोध संस्थान चौबीसों घण्टे दिन-रात विदेशी विद्वानों और विदेशी एजेंसियों के निरीक्षण और निगरानी के लिए बिल्कुल खुले हुए थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के ऊपर फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन और रॉकफ़ेलर फ़ाउंडेशन की विशेष कृपा थी। उसके लॉ स्कूल, युनिवर्सिटी लाइब्रेरी और चीन-अध्ययन विभाग में इन दोनों प्रतिष्ठानों का पैसा खूब आता था। दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स की संस्थागत डिज़ाइन लन्दन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स की नकल में बनायी गई थी। 1968 यानी आज़ादी के बीस साल बाद भी हालत यह थी कि राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और एंथ्रोपोलॅजी में कोई उल्लेखनीय काम नहीं हुआ था। गिरजा कुमार द्वारा वी.एम. दाण्डेकर के हवाले से निकाला गया निष्कर्ष दृष्टव्य है :
यह जानकर बिल्कुल ताज्जुब नहीं होता कि भारतीय समाज और जीवन के बारे में ज़्यादातर शोध-गतिविधियाँ विदेशी एजेंसियों और शक्तियों का भारत सम्बन्धी ज्ञान बढ़ाने के लिए आयोजित की जाती हैं। ये प्रोजेक्ट चाहे विदेशी शक्तियों द्वारा शुरू किये गये हों, या भारतीयों द्वारा स्वतन्त्र रूप से चलाये जा रहे हों, उनका नतीजा एक ही था। भारत में होने वाले ज़्यादातर अनुसंधानों की निरर्थकता के बारे में किसी को सन्देह नहीं रह गया है। .... इस मौजूदा रवैये को अगर बदलना है तो अगले पाँच साल के लिए अकादमिक कामकाज के लिए विदेशी मदद पर कुछ रोक लगानी चाहिए। इस अवधि के लिए पूर्ण प्रतिबन्ध लगा देना और भी उचित होगा। इसी तरह हमें विदेशी विशेषज्ञों या सलाहकारों और विज़िटिंग प्रोफ़ेसरों के आगमन को भी रोक देना चाहिए। समाज-वैज्ञानिकों की विदेश यात्राओं को इस प्रतिबन्ध से छूट देना ठीक नहीं होगा। यह लेखक गोखले इंस्टीट्यूट ऑफ़ पॉलिटिक्स एण्ड इकॉनॉमिक्स के निदेशक वी.एम. दाण्डेकर के साथ पूरी तरह सहमत है कि विदेश यात्रा को मूलाधिकारों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। अकादमिक अॅटॉर्की (पूर्ण स्वनिर्भरता) अकादमीशियनों की मौजूदा पीढ़ी के सर्वाधिक उचित नारा होगा।32
जिस बहस में भाग लेते हुए गिरजा कुमार और दाण्डेकर के ये ‘रैडिकल’ विचार सामने आये थे, उसमें रजनी कोठारी, सतीश सबरवाल, योगेन्द्र सिंह, पुण्य श्लोका राय और जे.डी. सेठी जैसे विद्वानों ने भी हिस्सा लिया था। कम-से-कम एक बात पर तो इन सभी में सहमति थी ही कि भारत में ज्ञानोत्पादन की प्रक्रियाओं पर पश्चिम के संस्थागत, व्यक्तिगत और अवधारणागत वर्चस्व को किसी न किसी प्रकार कम किया जाना चाहिए। ‘विमर्शी दासता’ के विभिन्न पहलू इन सभी लोगों के सामने साफ़ थे। चेतावनियाँ हवा में तैर रही थीं। ज्ञानोत्पादन के वि-उपनिवेशीकरण की तरक़ीबें भी बतायी जा रही थीं। कोठारी ने तो एक लम्बा चार सूत्रीय कार्यक्रम भी पेश कर दिया था।33 लेकिन, ध्यान देने की बात है कि इन सभी विचारों में कहीं भी पश्चिमी सामाजिक सिद्धान्त, उसके अनुशासनात्मक विन्यास और उसके बुनियादी तत्त्व-चिन्तन को लेकर कोई बेचैनी नहीं थी। इन विद्वानों में से आज शायद ही कोई हमारे बीच हो, लेकिन उनकी सदिच्छाओं के प्रति आदर रखते हुए यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए कि उनके लिए ज्ञान का एकमात्र रूप पश्चिमी ज्ञान ही क्यों था? वे अंग्रेज़ों के भारत आने से पहले के उन दरवाज़ों को खोलने के लिए उत्सुक क्यों नहीं थे, जिन्हें मैकॉले की शिक्षा सम्बन्धी टिप्पणी ने यह मान कर बन्द कर दिया था कि अब भारतवासियों में उन्हें खोलने की उत्सुकता कभी पैदा नहीं होगी? जिस ‘अकादमिक अटॉर्की’ की अपील गिरजा कुमार ने की थी, उसमें पश्चिमी सामाजिक सिद्धान्त के बरक्स स्वनिर्भरता के पहलू क्यों नहीं थे?
1. नीत्शे का यह कथन उनकी रचना द विल टू पॉवर से. संजय सेठ (2012), बियोंड रीज़न : पोस्टकोलोनियल थियरी एण्ड द सोशल साइंसेज़, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयार्क में उद्धृत : 33-34.
2. ईरानी समाजशास्त्री और क्रान्तिकारी विचारक अली शरियती के इन विचारों के लिए देखें, इस्माईल ज़ीनी (2018), ‘स्पोक्समेन ऑफ़ इंटलेक्चुअल डिकोलोनाइज़ेशन : शरियती इन डॉयलॉग विद अलातास’, डस्टिन जे. बायर्ड और सैयद जावेद मीरी (सं.), अली शरियती एण्ड क्ऱयूचर ऑफ़ सोशल थियरी : रिलीजन, रेवोल्यूशन, एण्ड द रोल ऑफ़ द इंटलेक्चुअल, ब्रिल, बोस्टन : (अध्याय-4)
3. सुदीप्त कविराज (2014), ‘ऑन द एडवांटेजिज़ ऑफ़ बीइंग अ बारबेरियन’, इन्वेंशन ऑफ़ प्राइवेट लाइफ़ : लिटरेचर एण्ड आइडियाज़, परमानेंट ब्लैक, रानीखेत : 11-21.
4. इस कथन के लिए देखें हाइडेगर का निबन्ध ‘द एज ऑफ़ द वर्ल्ड टाइम’ जो उनकी रचना द क्वेश्चन कंसर्निग टेक्नोलॉजी एण्ड अदर एस्सेज़ (1977), अनु. विलियम लोविट, हार्पर टॉर्चबुक, न्यूयार्क में संकलित है.
5. भारत में सेकुलर-राष्ट्रवाद की आलोचना के सन्दर्भ में मेमी-फ़ानो प्रारूप वाली इस औपनिवेशिक आत्मनिष्ठता के प्रतिपादन के लिए देखें, आदित्य निगम (2006), द इंसरेक्सशन ऑफ़ लिटिल सेल्व्ज़ : द क्राइसिस ऑफ़ सेकुलर-नैशनलिज़्म इन इंडिया, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नयी दिल्ली.
6. ब्रिटिश अर्थशास्त्री विलियम पेटी (1623-1687) से पहले पश्चिम में अनुसंधान के लिए तथ्य और आँकड़े जमा करने का कोई ख़ास चलन नहीं था. पेटी ने लन्दन और पेरिस की आर्थिक स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए आँकड़े एकत्रित करके दिखाया कि इस ज़रिये प्रामाणिक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं. सामाजिक रुझानों का पता लगाने के लिए सर्वेक्षण करने की विधि का जब-तब प्रयोग होता था. इसका एक उदाहरण फ़्रांसीसी क्रान्ति के बाद मिलता है जब आँरी ग्रेगुआ ने एक प्रश्नावली तैयार करके वकीलों, डॉक्टरों, बुद्धिजीवियों और राजनेताओं के बीच वितरित की ताकि उन्हें फ्रेंच की पातुआ (उपभाषाओं) के बारे में उनकी राय प्राप्त हो सके. इसी सर्वेक्षण के आधार पर फ़्रांस की पातुआ या उपभाषाओं का संहार किया गया।
7. न्यूटन भौतिकशास्त्री होने के साथ-साथ एक धर्मप्राण ईसाई भी थे. उन्हें मिथकशास्त्र में गहरी दिलचस्पी थी, और वे कीमियागीरी भी करते थे. देकार्त की शुरुआती शिक्षा एक जिसूट विद्यालय में हुई थी. अपने-आप में सम्पूर्ण और स्वतन्त्र आत्म की शिनाख़्त करने का बौद्धिक एजेंडा उन्हें वहीं से प्राप्त हुआ था. संशयवाद से छुटकारा प्राप्त करने की उनकी सबसे बड़ी कसौटी यही थी कि वे ईश्वर का अस्तित्व संशयविहीनता के साथ प्रमाणित कर सकें.
8. पार्थ नाथ मुखर्जी (2004), ‘इंट्रोडक्सशन : इंडीजीनियटी एण्ड यूनीवर्सलिटी इन सोशल साइंस’, पार्थ नाथ मुखर्जी और चन्दन सेन गुप्ता (सं.), इंडीजीनियटी एण्ड युनिवर्सलिटी इन सोशल साइन्स : अ साउथ एशियन रेस्पांस, सेज, नयी दिल्ली : 15.
9. अर्थशास्त्र को अलग से एक अनुशासन के रूप में स्थापित करने का श्रेय अल्फ्ऱेड मार्शल (1842-1924) को जाता है. 1885 से पहले अर्थशास्त्र दर्शन और इतिहास के पाठ्यक्रम का अंग हुआ करता था. 1903 में मार्शल की कोशिशों से कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के अलग अध्ययन और डिग्री की शुरुआत हुई.
10. यह विवरण इमानुएल वालरस्टीन की दो रचनाओं की मदद से तैयार किया गया है, इनमें पहली है 2004 में प्रकाशित द अनसर्टेनिटी ऑफ़ नॉलेज, टेम्पल युनिवर्सिटी प्रेस, फ़िलाडेल्फ़िया; और दूसरी उनके एक व्याख्यान की शक्ल में है जिसे उन्होंने 25 मार्च, 1997 को टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ में दिया था. इसका शीर्षक है ‘सोशल साइंस एण्ड द क्सवेस्ट फ़ॉर अ जस्ट सोसाइटी’. इसे पढऩे के लिए देखें, पार्थ नाथ मुखर्जी और चन्दन सेन गुप्ता (सं.)(2004), पूर्वोद्धृत.
11. उल्लेखनीय है कि प्राकृतिक विज्ञानों की दुनिया में समाज-विज्ञान द्वारा किया जाने वाला विज्ञान होने का दावा हमदर्दी से नहीं देखा जाता. भौतिकशास्त्रियों और रसायनशास्त्रियों की निगाह में इस तरह के दावे बोगस हैं. समाज-वैज्ञानिक भी मानते हैं कि उनकी तथ्य-सामग्री (डेटा) की वस्तुनिष्ठता उस तरह की नहीं होती जिस तरह प्राकृतिक विज्ञानों में पायी जाती है, लेकिन इसके बावजूद वे अपनी वैज्ञानिक क्षमताओं के लगातार विकास की उम्मीद जताते रहते हैं.
12. इतिहास-लेखन के अनुशासन की स्थापना का श्रेय जर्मन इतिहासकार लियोपोल्ड वान रैंके (1795-1886) को दिया जाता है. अभिलेखागारीय अनुसंधान की पद्धति की स्थापना उन्होंने ही की थी.
13. देखें, इमानुएल वालरस्टीन (1997), ‘यूरोसेंट्रिज़म एण्ड इट्स अवतार्स : द डिलेमा ऑफ़ सोशल साइंसेज़’, सोसियोलॅजीकल बुलेटिन, खण्ड 46, अंक 1 : 21-39.
14. इस पुस्तक में विल्हेल्म वॉन हुम्बोल्ट का बार-बार ज़िक्र आता है. दरअसल, युरोकेन्द्रीयता के संरचना में हुम्बोल्ट का योगदान बहुमुखी था. हुम्बोल्ट ने जावा की कावी भाषा के विशद अध्ययन में हर्डर के नक़्शे-क़दम पर चलते हुए ‘राष्ट्र-भाषा-नस्ल’ के त्रिकोण को पुष्ट किया.
15. देखें, टिमोथी बाहटी (1987), ‘हिस्ट्रीज़ ऑफ़ द युनिवर्सिटी : कान्ट एण्ड हुम्बोल्ट’, एमएलएन, खण्ड 102, अंक 3 : 437-460. कान्ट के विश्वविद्यालय सम्बन्धी विचारों की विश्लेषणात्मक चर्चा (कान्ट के सम्बन्धित उद्धरण सहित) वाल्टर मिन्योलो (2000) ने भी अपनी रचना ‘द रोल ऑफ़ द ह्यूमैनिटीज़ इन द कॉरपोरेट युनिवर्सिटी’, मॉडर्न लेंग्वेज एसोशिएशन (एमएलए), खण्ड 115, अंक 5 : 1238-1245 में की है.
16. इस विवरण के लिए देखें, मार्टिन बरनाल (1987), ब्लैक एथेना : द अफ्ऱोएशियाटिक रूट्स ऑफ़ क्लासिकल सिविलाइज़ेशन, खण्ड-1, द फ़ेब्रिकेशन ऑफ़ एंशिएंट ग्रीस 1785-1985, रटगर्स युनिवर्सिटी प्रेस, न्यू ब्रंसविक : छठा अध्याय.
17. देखें, सी.के. राजू (2019), ‘हाउ टू ब्रेक द वेस्टर्न हैजेमनी परपचुएटिड बाइ युनिवर्सिटी : डिकोलोनाइज़्ड कोर्सिज़ इन मैथेमेटिक्स, हिस्ट्री एण्ड फ़िलॉसोफ़ी ऑफ़ साइन्स’, स्टडीज़ इन ह्यूमैनिटीज़ एण्ड सोशल साइन्सेज़, खण्ड 26, अंक 2, शरद : 86-109.
18. इस उद्धरण के लिए देखें, रोमा चटर्जी (2004), ‘एन इंडियन एंथ्रोपोलॅजी? : व्हाट काइण्ड ऑफ़ ऑब्जेक्ट इज़ इट?’, पार्थ नाथ मुखर्जी और चन्दन सेन गुप्ता (सं.), पूवोद्धृत : 162.
19. तलाल असद (सं.)(1973), एंथ्रोपोलॅजी एण्ड द कोलोनियल एनकाउण्टर, ह्यूमैनिटीज़ प्रेस, अटलांटिक हाइलैंड्स, एनजे.
20. जॉन डार्विन (1999), ‘अ थर्ड ब्रिटिश इम्पायर? द डोमीनियन आइडिया इन इम्पीरियल पॉलिटिक्स’, जूडिथ एम. ब्राउन और डब्ल्यू.आर. लुइस (सं.), द ऑक्सफ़र्ड हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इम्पायर, खण्ड 4, क्सलैरेंडन प्रेस, ऑक्सफ़र्ड : 64-87.
21. देखें, जार्ज स्टीनमेट्ज़ (2013), ‘अ चाइल्ड ऑफ़ द इम्पायर : ब्रिटिश सोसियोलॅजी एण्ड कोलोनियलिज़्म, 1940ज़ टू 1960ज़’, जरनल ऑफ़ द हिस्ट्री ऑफ़ बिहेवियरल साइंसेज़, खण्ड 49, अंक 4ः 353-378.
22. रॉबर्टो माशि्र्ायोनैटी और मारियो सेड्रिनी (2017), इकॉनॉमिक्स एज़ सोशल साइंस : इकॉनॉमिक्स इम्पीरियलिज़्म एण्ड द चैलेंज ऑफ़ इंटरडिसिप्लिनरिटी, रौटलेज, लन्दन और न्यूयार्क.
23. जेम्स जॉयस का यह कथन उनके 1912 में प्रकाशित लेख ‘डैनियल डिफ़ो’ से. उक्त रचना में उद्धृत : 48.
24. रॉबर्टो मार्शियोनैटी और मारियो सेड्रिनी (2017), पूर्वोद्धृत : 191.
25. जार्ज स्टीनमेट्ज़ (2017), ‘सोसियोलॅजी एण्ड कोलोनियलिज़्म इन द ब्रिटिश एण्ड फ्ऱेंच इम्पायर्स, 1945-1965’, द जरनल ऑफ़ मॉडर्न हिस्ट्री, अंक 69 : 601-648; केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर केन्द्रित रचना के लिए देखें, जार्ज स्टीनमेट्ज़ (2013), पूर्वोद्धृत.
26. सीएसएसआरसी की गतिविधियों के बारे में विस्तार से जानने के लिए देखें, डेविड एस. मिल्स (2002/1), ‘ब्रिटिश एंथ्रोपोलॅजी एट द एण्ड ऑफ़ इम्पायर : द राइज़ एण्ड फ़ाल ऑफ़ कोलोनियल सोशल साइंस रिसर्च कौंसिल, 1944-1962’, रेव्यू डी’हिस्तोइर डेस साइंसेज़ ह्यूमेनेस, खण्ड 6, अंक 1 : 161-188.
27. वाल्टर डी. मिन्योलो (2003), द डार्कर साइड ऑफ़ रिनैसाँज़ : लिटरेसी, टेरिटोरियलिटी, एण्ड कोलोनाइज़ेशन, द यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन प्रेस, एन आर्बर (दूसरा संस्करण : अन्तिम अध्याय)
28. बिनय कुमार सरकार की यह रचना 1937 में इलाहाबाद से प्रकाशित हुई थी. 1985 में इसे दिल्ली के मोतीलाल बनारसीदास ने प्रकाशित किया. इस चर्चा के लिए देखें, सैयद फ़रीद अलतास (2006), आल्टर्नेटिव डिस्कोर्स इन एशियन सोशल साइंसेज़ : रिस्पोंसेज़ टू यूरोसेंट्रिज़्म, सेज, नयी दिल्ली : 26.
29. सैयद हुसैन अलतास (2004), ‘द कैप्टिव माइंड एण्ड क्रियेटिव डिवेलपमेंट’, पार्थ नाथ मुखर्जी और चन्दन सेनगुप्ता (सं.), इंडीजीनिटी एण्ड युनिवर्सलिटी इन सोशल साइंस : अ साउथ एशियन रिस्पांस, सेज, नयी दिल्ली : 83-98.
30. क्लॉड एके (1979), सोशल साइंस एज़ इम्पीरियलिज़्म : द थियरी ऑफ़ पॉलिटिकल डिवेलपमेंट, इबादान युनिवर्सिटी प्रेस, इबादान. विचारों के वि-औपनिवेशीकरण में एके के योगदान की समीक्षा के लिए देखें, ओ जेरेमैया आरौसेगबे ((2008), ‘द सोशल साइंसेज़ एण्ड नॉलेज प्रोडक्शन इन अफ़्रीका : द कंट्रीब्यूशन ऑफ़ क्लॉड एके’, अफ़्रीका स्पेक्सट्रम, खण्ड 43, अंक 3 : 333-351; ‘नॉन-कम्युनिस्ट मेनिफ़ेस्टो’ के लिए देखें वाल्ट डब्ल्यू. रोस्तोव की विख़्यात रचना (1961), द स्टेजिज़ ऑफ़ इकॉनॉमिक ग्रोथ : अ नॉन कम्युनिस्ट मेनिफ़ेस्टो, कैम्ब्रिज़ युनिवर्सिटी प्रेस, कैम्ब्रिज.
31. इस विवरण के लिए देखें, सैयद फ़रीद अलतास (2005), ‘इंडीजिनाइज़ेशन : फ़ीचर्स एण्ड प्रॉब्लम्स’, यान वान ब्रेमन, इयल बेन-आरी और सैयद फ़रीद अलतास (सं.), एशियन एंथ्रोपोलॅजी, रौटलेज, लन्दन और न्यूयार्क : 227-243.
32. इस विवरण के लिए देखें, गिरजा कुमार (1968), ‘सर्वीट्यूड ऑफ़ द माइंड’, सेमिनार, ‘एकैडेमिक कोलोनियलिज़्म’, अंक 112 : 20-24.
33. रजनी कोठारी द्वारा प्रस्तुत इस कार्यक्रम के लिए देखें, सेमिनार के इसी अंक में उनका लेख, ‘द टास्क विदिन’ : 14-19.