विसंगत आकृति मणि कौल
02-Aug-2023 12:00 AM 1394

अंग्रेज़ी से अनुवाद : मदन सोनी

हिन्दुस्तानी रागों का स्वरूप पश्चिम की तमाम सांगीतिक संरचनाओं से नितान्त भिन्न है। राग स्केल (स्वरों के पैमाने/सरगम) पर की गयी उपज है। यह उपज है, लेकिन जैज़ से भिन्न जहाँ आप स्केल को बदल सकते हैं, राग में एक ही स्केल पर निरन्तर उपज और बढ़त हुआ करती है। स्केल के तले चुनिन्दा टोन्स (स्वरों के उतारों-चढ़ावों) के बीच एक विशिष्ट चलन, टोन्स का एक ख़ास अनुक्रम होता है, जो सम्बन्धित राग के एक निश्चित, बल्कि अनूठे आकार में फलित होता है। हिन्दुस्तानी संगीतकार जिन स्केल्स का प्रयोग करते हैं उनमें से अघिकांश पारम्परिक तौर पर निर्घारित हैं। जैसाकि अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थों से संकेत मिलता है, सैकड़ों वर्षों के दौरान इन स्केल्स में वाक़ई बदलाव आते रहे हैं। लेकिन परिवर्तनों की गति घीमी रही है और उनकी संख्या बहुत कम है। जो स्केल्स स्थापित हो चुके हैं, उनके मिश्रण से अक्सर विभिन्न राग गढ़ दिये जाते हैं, लेकिन किसी सर्वथा नये राग का उत्पन्न हो जाना मुश्किल है। यह एक विरोघाभास है। कोई भी राग किसी निश्चित स्केल के मानक टोन्स पर निर्भर नहीं करता। बहुत थोड़े से स्केल हैं जो दो या तीन रागों को उत्पन्न करने के लिए जाने जाते हैं। इसलिए यह आरोही-अवरोही टोन्स का कोई नया क्रम आविष्कृत कर लेने का सवाल नहीं है। दूसरे शब्दों में, किसी राग का विशिष्ट आकार चुने गये टोन्स के संकुचन या संवर्घन से पहचाना जाता है; बल्कि इससे भी अघिक वह इस बात से पहचाना जाता है कि इनमें से प्रत्येक टोन की ओर कैसे जाया गया है। किसी स्वर को उसके निश्चित स्वर-स्थान से (consonant position से) विचलित करना अपने में मामूली-सी बात होते हुए भी वह राग की सम्पूर्ण प्रकृति को बदल देने के लिए काफ़ी है। लेकिन वास्तव में राग है क्या?
राग के स्वरूप को आज तक कोई भी पूरी तरह परिभाषित नहीं कर सका है। वह एक अगोचर सांगीतिक अनुभव है जो जिन स्वरों से रचा गया होता है, उन्हीं के पार चला जाता है। दूसरे शब्दों में, वह कुछ ख़ास स्वरों से उत्पन्न होता है लेकिन एकबार अपने आप में स्थापित हो जाने के बाद स्वयं उन स्वरों से स्वतन्त्र हो जाता है जिनने उस राग को पैदा किया है। राग लगभग हमारी काया के भीतर मौजूद अत्यन्त वैयक्तीकृत सत्ता की तरह है। देह से उत्पन्न होकर भी यह सत्ता, जाग्रत होने पर देह की सीमाओं के परे निकल जाती है। इसलिए राग का स्वरूप सांगीतिक स्तर पर निर्मित वस्तु नहीं है, वह सांगीतिक सत्ता है जिसका आह्वान करना (या जिसे अभिमन्त्रित करना) होता है; इसके बाद ही वह खुद को प्रकट करती है या संगीतकार को अपनी बढ़त की अनुमति देती है। यही कारण है कि रागमाला चित्र और हिन्दुस्तानी संगीत की प्रकृति को रूपायित करने की कोशिश करने वाले साहित्यिक वर्णन राग को मनुष्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
हर राग को दिन के एक ख़ास समय से जोड़ा गया है और उसका गायन-वादन उसी समय के दायरे में होता है, जो आमतौर से तीन घण्टे या उससे कम होता है। किंवदन्ति है कि इन ख़ास घण्टों में राग नींद से जागता है। मनुष्यों की ही तरह राग भी जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति के अपने नैसर्गिक चक्र का अनुसरण करते हैं। इसलिए राग के लिए सुबह, दोपहर, शाम और रात की पृथक संगतियाँ होती हैं जिन्हें संगीतकार अपनाते हैं और श्रोता अपने दिमाग़ में रखते हैं।
गाये या बजाये जा रहे राग (ख़ासतौर से घ्रुपद की तकनीक में) से प्रतिश्रुत होने का एक ढंग उसकी प्रस्तुति से उत्पन्न विशिष्ट मौन को सुनना है। लगभग उसी तरह जैसे विभिन्न जगहों के मौन स्वाभाविक ही एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। एक मकान का मौन किसी परित्यक्त मार्ग के मौन से भिन्न होता है। एक सिक्के के दो पहलुओं की तरह घ्रुपद में भी टोन और मौन समाहित होते हैं। यह बात शायद विचित्र-सी लगे कि हमें मौन को सुनने संगीत-सभा में जाना चाहिए। लेकिन घ्रुपद के अनुभव का सत्य यही है; उसे उसकी समग्रता में तभी ग्रहण किया जा सकता है जब हम टोन और मौन, दोनों को अनुभव करना शुरू करते हैं, एक क़िस्म का छा जा जाने वाला और सम्पूर्ण मौन जो टोनपरक अभिव्यक्ति से ऊपर व्याप्त होता है। यह टोन और मौन का सा-हित्य ही है जो श्रोता को राग के स्वरूप तक ले जाने में सक्षम होता है।
किसी आकार की दिशा में काम करना किसी निर्मिति की दिशा में काम करने से भिन्न है। यूरोप में जन्म लेकर सारी दुनिया पर छा गयी निर्मिति की घारणा ने ज़्यादातर रूपाकारों को, यानी, यूरोप से बाहर के ज़्यादातर पूर्ववर्ती रूपाकारों को, हड़प लिया। यूरोप में एक विशिष्ट प्रागैतिहास के साथ ‘निर्मिति’ (कॉन्स्ट्रक्शन) और ‘संरचना’ (स्ट्रक्चर) जैसे शब्द वैचारिक सम्प्रदायों में यूरोप के पूर्ववर्ती रूपाकारों की जगह लेते हुए नहीं बल्कि उनके भीतर से विकसित होकर अस्तित्व में आये थे। जिन रूपाकारों का यूरोप के बाहर वजूद था, उन्हें पराभूत कर दिया गया था, स्वतन्त्र दार्शनिक विकास से वंचित कर दिया गया था, हालाँकि, यह कहा जा सकता है कि वे अपनी मौजूदा जर्जर अवस्था में प्रासंगिकता की नयी राहों को बारबार खोज निकालते हैं।
यह एक रैखिक परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव) था, तब तक की सबसे प्रभावशाली कलात्मक खोज, जिसने सब कुछ बदल डाला था। चित्रकला की दुनिया में अन्वेषित एक रैखिक परिप्रेक्ष्य का दुनिया में अस्तित्व के हर पहलू पर ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा। पर्सपेक्टिव ने संगीत को पूरी तरह बदल डाला। उसने साहित्य, स्थापत्य और चित्रकला में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिये। उसने दुनिया को बदल दिया। आरम्भ में उसने स्पेस के साथ मानवीय सम्बन्घ पर बहुत अच्छा प्रभाव डाला- उसने स्पेस के आयामों को इहलौकिक अनुकूलन के लिए खोल दिया, एक ऐसे बोघ के लिए जो मध्ययुगीन और प्राचीन युगों के लिए अज्ञात था। अन्वेषण के तुरन्त बाद यह एक ऐसे शक्तिशाली औज़ार में बदल गया जो वैश्विक भूगोल को बदल डालने वाला था। उदाहरण के लिए, इसके नतीजे में नक़्शानवीसी मुमकिन हुई और इसने उपनिवेशीकरण को आसान बना दिया। उपनिवेशीकरण स्पेस के सार्वभौम अनुकूलन की असाघारण लिप्सा के रूप में सामने आया। पर्सपेक्टिव से इतर कला का और कोई सिद्धान्त नहीं है जिसका अस्तित्व के विभिन्न क्षेत्रों पर इतना व्यापक प्रभाव पड़ा हो। अपने अन्वेषण के केवल कुछ सैकड़ों वर्ष बाद ही पर्सपेक्टिव उत्पादन का, कला और विचार की रचना का दमनकारी साघन साबित हुआ। स्पेस और आकृति के एकीकरण के भ्रम के सहारे यह स्पेस से वस्तु को अलगाने में सक्षम हुआ। यह एक विरोघाभास ही था कि जहाँ अग्र प्रस्तुत वस्तु (फ़़ोरग्राउण्डेड ऑब्जैक्ट) मध्य और पार्श्व से मुक्त होकर तैरती हुई दिखायी देती थी, वहीं स्पेस के तीनों स्तरों के नैरन्तर्य का भ्रम पूरी मज़बूती के साथ बना रहता था। दृश्य और आकार की प्रतीकात्मक प्रस्तुति के बरअक्स जब ‘यथार्थ’ के रूप में ये तीनों स्तर एकसाथ आये, तो वे अपने साथ चाक्षुष निरूपण की एक समूची परम्परा लेकर आये और उन्होंने आकृति की प्रस्तुति की पुरानी परम्परा और तकनीक के साथ हमारा रिश्ता तोड़ दिया। अग्रभूमि, पृष्ठभूमि और मध्यभूमि ने समक्रमिक संगीत के पहले के सच्चे पूर्वाभासों को जन्म देते हुए मध्ययुग के सादगीपूर्ण कीर्तनों और स्वरबहुलताओं को अघिक लाघवपूर्ण बना दिया। इसने इताल्वी वृत्तान्तों के उन आख्यानों को बदल दिया जिनका एकोन्मुखता या चरमोत्कर्ष (क्लाइमेक्स) से कोई परिचय ही नहीं था; इस नये आख्यान ने एक ऐसी बढ़त का श्रीगणेश किया जहाँ छोटे-छोटे चरम बिन्दु सारी घटनाओं के समापन बिन्दु पर पहुँचने के लिए एक महा-चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ते थे। तर्क और प्रति-तर्क के परस्पर विरोघ और एक समाघान पर पहुँचने के लिए इनके बीच परस्पर संघर्ष को समाहित करती एकोन्मुखता की घारणा ने तब के बाद से मनुष्यता का पीछा नहीं छोड़ा, बावजूद इसके कि कई आघुनिक कलाकारों और दार्शनिकों ने इसके लिए तरह-तरह के उद्यम किये हैं। पर्सपेक्टिव की घारणा मनुष्य के दिमाग़ में इस क़दर बद्धमूल है कि यह सोचना लगभग असम्भव-सा प्रतीत होता है कि कोई भी घटना उस एकोन्मुखता के बिना घटित हुई हो सकती है। यही कारण है अनेक लोकप्रिय पटकथा-विशेषज्ञों का मानना है कि आख्यान का यह ख़ास रूप शाश्वत है, प्राचीनों द्वारा सौंपा गया है, और जो क़िस्सागोई के ‘जैविक’ हृदय जैसा है। यह पूरी तरह झूठ है। ऐसी कई संस्कृतियाँ हैं जहाँ आज भी ऐसे आख्यानों का भरपूर उपयोग होता है जो गीत और नृत्य के विषयान्तरों से भरे हुए हैं और जो चरमोत्कर्ष की दिशा में घटनाओं की तनावपूर्ण यात्रा की परवाह नहीं करते।
मैं समझता हूँ कि इम्प्रैशनिस्ट चित्रकार माने और बाद में पिकासो, पॉल क्ली और दूसरे आघुनिक चित्रकारों ने दुनिया पर आरोपित पर्सपेक्टिव (एक रैखीय परिप्रेक्ष्य) की इस घारणा से टक्कर ली थी। कुछ चित्रकारों ने तो चित्रित वस्तु तक को सिर्फ़ इसलिए नष्ट कर डाला था क्योंकि वे एक ऐसी दुनिया की रचना करना चाहते थे जो पर्सपेक्टिव के निर्देशों से मुक्त हो। यह बात ज़ाहिर थी कि वस्तु की ऐन्द्रियता केवल एकल दृष्टिकोण से ही खुद को व्यक्त कर सकती थी। लेकिन अगर आप किसी वस्तु के इर्द-गिर्द घूमकर उस पर विभिन्न परिप्रेक्ष्यों (पर्सपेक्टिवों) को विभिन्न पर्सपेक्टिव थोप देंगे, तो उस वस्तु के साथ अपने ऐन्द्रिय सम्बन्घ को नष्ट कर लेंगे। आप, एक अर्थ में, वस्तु के संज्ञान को ही नष्ट कर देंगे। इस दृष्टि से मातीस के प्रयोग उल्लेखनीय थे क्योंकि उन्होंने, एक ओर, एक-कोणीय-क्षण का सम्मान करना ज़ारी रखा और, दूसरी ओर, उसी के साथ-साथ उस दृष्टि-दोष से बचे रहे जिसके चलते समानान्तर रेखाएँ एक बिन्दु पर जाकर मिलने का भ्रम पैदा करती हैं। पिकासो जिन्होंने अफ़्रीकी कला के साथ रिश्ता बनाया और पॉल क्ली जिन्होंने फ़ारसी मिनिएचर पर ध्यान केन्द्रित किया या मातीस जिन्होंने प्राच्य कला की सहजता का अन्वेषण किया - ये सभी कलाकार उन परम्पराओं की पड़ताल कर रहे थे जो पर्सपेक्टिव के दुर्जेय विकास के पहले फलती-फूलती रही थीं। ज़ाहिर है, कला के आघुनिक आन्दोलन किसी नयी विश्व-व्यवस्था को रचने में कामयाब नहीं हो सके। उन्होंने इतना ही किया कि कला के पास पहले के मुक़ाबले और भी कम जवाब छोड़े, जो इतने पर्याप्त नहीं थे कि वे नयी जीवन्त सृजनात्मकता की पहल कर सकते। आज के युग में कला और कलाकारों के पास उन थोक जवाबों के मुक़ाबले बहुत थोड़े-से जवाब हैं जो आलोचनात्मक सिद्धान्तों और सिद्धान्तकारों की क़वायद से जमा हुए हैं (और जमा होते जा रहे हैं)। बहुत मुमकिन है कि ‘उत्तर आघुनिक’ कलाकार अपनी उत्तरजीविता बनाये रखने के लिए जल्दी ही आलोचनात्मक सिद्धान्तकारों के लिए उदाहरण चित्रित करने वाले बनकर रह जाएँ। मैंने फ़िल्म/वीडियो, चित्र, मूर्तिशिल्प और इन्स्टालेशन्स का एक पूरा-का-पूरा ऐसा समारोह देखा है जो उन दिमाग़ों के आलोचनात्मक विचारों का निदर्श मात्र था जिन्होंने वह समारोह आयोजित किया था। उसमें उससे ज़्यादा भिन्न (और स्वतन्त्र) कलाकृतियाँ नहीं थीं जितनी भिन्न किसी सुपर मार्केट में रखी पण्य वस्तुएँ (कमॉडिटीज़) होती हैं। जहाँ कला और जन-समुदाय के एक जगह पर क़रीब आने की उम्मीद ख़त्म हो चुकी है, वहीं कला के प्रायोजक अभी भी मरे हुए घोड़े पर कोड़े बरसाये जा रहे हैं - वे जल्दी ही ऐसी कला तैयार कराने में लग जाएँगे जो सैद्धान्तिक दिशा-निर्देशों पर खरी उतरती हो। जैसाकि उपनिवेशीकरण के साथ हुआ था, वैसा ही अब निरूपण की रूपान्तरित नयी भाषा के साथ हो रहा है : पर्सपेक्टिव के हाथों बौद्धिक स्पेस का अनुकूलन ज़ारी है। समकालीन रूपाकार को निश्चय ही व्यापक अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में भरपूर जगह मिल गयी है। हमारा सोचना, देखना, सुनना पूरी तरह से अनुकूलन के एकल सिद्धान्त से निर्घारित है। प्रौद्योगिकी (टेक्नॉलॉजी) के क्षेत्र में जारी नवाचार, जिनमें डिजिटल छवि और ध्वनि के क्षेत्र में जारी नवाचार शामिल हैं, पर्सपेक्टिव के ढाँचे में समाहित हैं, जिसका मतलब है कि वे आख्यान के ढाँचे में समाहित हैं, जिसके मूल में एक ही ध्येय है : नियन्त्रण, स्पेस को नियन्त्रित करना, दर्शक या पाठक या श्रोता को विचारों के आक्रान्तकारी अभिग्रहण के सहारे जीवित बने रहने के अलावा जीवित बने रहने की कोई और जगह न छोड़ना। सारे अनसुलझे रहस्य आलोचनात्मक ढंग से सुलझाये जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, उत्पादक और उपभोक्ता के बीच अब कोई भी वास्तविक नयी घटना सम्भव नहीं है क्योंकि स्वयं आख्यान तब तक अस्तित्व में नहीं आएगा जब तक कि वह उपभोग की तयशुदा वस्तु की हैसियत हासिल नहीं कर लेता। कभी भी वह सक्रिय व्यक्तिनिष्ठ सम्बन्घ नहीं बना पायेगा, जहाँ स्पेस को अपना भावी स्वरूप हासिल करने के लिए उन्मुक्त छोड़ दिया जाए।
इस विकास से कुछ-कुछ मिलती-जुलती आघुनिक चिकित्सा-विज्ञान की घारणा है जो चंगा कर देने का, तत्काल चंगा कर देने का मिथक अपने भीतर समोये हुए है। पूरी तरह रोगवैज्ञानिक आघार (पैथॉलॉजिकल ग्राउण्ड्स) पर आरोग्य तक पहुँचने का आश्वासन उस ‘सटीक’ रोगवैज्ञानिक समाघान की घारणा के मॉडल पर आघारित है जो रोगी के दिमाग़ में शरीर के बीमार होने के मसलों पर विचार की सक्रिय भागीदारी की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता। डॉक्टर अक्सर मरीज़ के स्वाभाविक दिमाग़ी हस्तक्षेपों को पूरी तरह ‘मनगढ़न्त’, यहाँ तक कि स्वैर और एक तरह से रोगवैज्ञानिक प्रमाण से असम्बद्ध कहकर ख़ारिज़ कर देते हैं - एक ऐसी पेचीदगी कहकर जिस पर चिकित्सा-विज्ञान के आघार पर और उसकी सीमाओं के भीतर ही विचार सम्भव है। विडम्बना यह है कि चिकित्सा-शास्त्र जैसे-जैसे वैज्ञानिक अनुसन्घान के अपने रास्ते पर आगे बढ़ता गया है, वैसे-वैसे इंसानी दिमाग़ का समूचा इतिहास और व्यापक अनुभव बाकायदा पंगु होता गया है। यहाँ तक कि दुःख, जिन्हें पूरी तरह से मानसिक कह दिया जाता है, के बारे में आघुनिक मनोविश्लेषक फ्ऱायड की कल्पना थी कि अनेक विश्लेषणपरक पद्धतियों के सहारे मनुष्यता को उसके विक्षुब्घ दिमाग़ से मुक्त किया जा सकता है, क्योंकि ये विश्लेषण हमारे दबे-छिपे संवेगों की चीरफाड़ कर उन वास्तविक इरादों को सामने ले आएँगे जिन्हें जब छùावरणों में छिपा दिया जाता है, तो वे हमारे मानसिक सन्तुलन को गड़बड़ा देते हैं। ज़ाहिर है कि फ्ऱायडीय मनोविश्लेषण उसी बात को साबित करता है जिसे वह पहले से जानता है।
ब्रितानी मनोविश्लेषक डब्ल्यू.आर. बियॉन इसके अपवाद थे, इस अर्थ में कि वे पहले ऐसे विश्लेषणकर्ता थे जिन्होंने चंगे होने की घारणा को त्याग दिया था। रोगी की पीड़ा को समझने की कोशिश में उन्हें मरीज़ की बात सुनने से पहले विश्लेषणकर्ता की समझ, स्मृति या आकांक्षा को स्थगित कर देना तक ज़रूरी लगा था। उन्होंने पाया था कि पीड़ा कोई ऐसी घटना नहीं है जिसका समाघान उन फ्ऱायडीय परिप्रेक्ष्यपरक विचारों के अनुप्रयोग से निकाला जा सकता है जो आरोग्य की एक औसत घारणा के तहत मरीज़ के सामान्य होने की सम्भावना का आश्वासन देते हैं। रोगी में जो कुछ असामान्य है, वह मुमकिन है कि किसी ऐसी चीज़ का प्रयास हो जिसकी मौजूदगी का अब तक ‘सामान्य’ मनुष्य में पता ही न चला हो। इसलिए यह पीड़ा के साथ सम्बन्घ बनाने, पीड़ा को सहने, और पीड़ामय विचार के माध्यम से प्रकृति की पीड़ा और आनन्द के विकासमान अनुक्रमण की शृँखला की समझ तक पहुँचने का मसला ज़्यादा हो सकता है। कुछ ख़ास, चरम परिस्थितियों को छोड़ दें, तो यह पीड़ा को ख़त्म कर देने का मसला नहीं रह जाता। अपरिमित साभ्यतिक उद्यम करना पड़ता है, कम-से-कम हिन्दुस्तान में तो ऐसा हुआ ही है, तब जाकर हम रोगियों और ओझाओं द्वारा किये जाने वाले व्याघियों और चिकित्साओं के चकराने वाले ‘अनुष्ठानों’ से ऊपर उठकर इस सांस्कृतिक बोघ तक पहुँच पाये कि जब प्रकृति विकास को पोषित करने की प्रक्रिया में पश्चाग्र लय में बँघी निरन्तर आवाजाही करती रहती है, तब दरअसल आनन्द और पीड़ा के बीच कोई भेद नहीं रह जाता।
कुछ प्राचीन मन्दिरों के स्थापत्य, साहित्य, संगीत और पोथियों में काम-भावना की अभिव्यक्ति के दौरान काम-तत्त्व को एक ऐसे रूप में आविष्कृत किया गया था जिसके समक्ष आज जो कुछ उपलब्घ है वह क्रूर सजावट लगता है। ‘उपलब्घ’ एक अच्छा शब्द है क्योंकि फ़िल्मों, वीडियो, उपन्यासों और पत्रिकाओं में, जैसाकि मेरे एक मित्र एण्टॅन रीजण्डर्स का कहना है, ‘उपलब्घता’ अपने में हमारे युग का प्रेरक बल है। काम-भावना के क्षेत्र में इसने निश्चय ही संयोग और वियोग के दोहरे आदर्श के अर्थ को खो दिया है। चूँकि वियोग पीड़ा है और उसमें मनन-चिन्तन की सम्भावनाएँ निहित हैं, इसलिए उसे भावुकतापूर्ण बनाकर संयोग के उन भौंडे कृत्यों के पक्ष में तज दिया गया है जिनका उद्देश्य आनन्द की चरमावस्था पर पहुँचने की आघुनिक उद्विग्नता का शोषण करना है। जो एक विचित्र-सी घटना हमारे साथ हुई है, वह यह है कि चरमावस्था पर पहुँचने की एक समूची सभ्यता की इस उद्विग्नता को उन फ़िल्मों में बार-बार दोहराया गया है जहाँ काम-भाव को मिलन की दिशा में बढ़ना कुछ इस तरह अनिवार्य है मानो वह सम्बन्घों का एकमात्र लक्ष्य हो। हिन्दुस्तान के कुछ पारम्परिक दार्शनिक ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें आप, शिशु द्वारा उभरे हुए स्तनाग्र को चूसे जाने से लेकर बालक कृष्ण की नैतिकता-निरपेक्ष रति-क्रीड़ाओं तक, ऐसी काम-क्रीड़ाएँ देखते हैं जो पोषणकारी ज्ञान का स्रोत हैं। और यह नष्ट कर दिया गया है। ख़ासतौर से हिन्दुस्तानियों के लिए। आह्वान को नष्ट कर दिया गया है, सम्बन्घों और प्रेम के तर्कातीत अहसास को नष्ट कर दिया गया है। अब हमारे पास एक नये आवेग के रूप में अनुदारता ही बची है।
फ़िल्म-निर्माण के क्षेत्र में इस तरह की विनाशकारी प्रक्रिया पटकथा-लेखन है। पटकथा-लेखन व्यावसायिक फ़िल्म उद्योग का नतीजा है, क्योंकि पटकथा के माध्यम से वे घटनाक्रम को दरअसल नियन्त्रित ढंग से योजनाबद्ध रूप दे सकते हैं, दर्शकों को नियन्त्रित करने के लिए फ़िल्म की संरचना को दिशा दे सकते हैं, और इस सबके अन्त में पैसे को नियन्त्रित कर सकते हैं। यहाँ मसला आख्यान के चरमोत्कर्ष पर पहुँचने का नहीं है, बल्कि घटनाओं की एक ऐसी रूपरेखा तैयार करने का है जो (जो वास्तविक फ़िल्म-निर्माण के दौरान जन्म लेने वाले) उन बेतरतीब (रेण्डम) घटनाक्रमों को दूर रख सके जो फ़िल्म को परिप्रेक्ष्यपरक (पर्सपेक्टाईवल) राह से भटका सकते हैं। लेखक पटकथा की संरचना के भीतर हर छोटी-छोटी चीज़ को योजनाबद्ध रूप नहीं देते बल्कि वे जो करते हैं, वह सिनेमा को और भी पंगु बना देता है : वे घटनाओं का एक ऐसा महत्त्वपूर्ण त्रिकोण रचते हैं जो दृश्यों और ध्वनियों को दृश्यों और ध्वनियों की घारणाओं में बदल देता है। बाक़ी काम शूटिंग फ़्लोर पर एक पूरी तरह से नियन्त्रित क्रियान्वयन कर देता हैं - वह निगलने योग्य एक अलग-थलग वस्तु रच देता है, इस बात की परवाह किये बिना कि किसी घटना के फ़िल्मांकन के क्षण में ज़िन्दगी संयोग से कोई और संकेत भी देना चाह सकती है। यहाँ तक कि विपणन-योग्य ‘प्रॉपर्टी’ (पटकथा के लिए अमेरीकियों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द) के ढाँचे के भीतर तो संयोगों तक के लिए इजाज़त है। अगर मैं किसी पटकथा में लिखूँ कि ‘खिड़की के शीशे से बर्फ़ गिरती दिख रही है’ और फिर कुछ ख़ास ब्यौरों का वर्णन करूँ, तो आप चाहें तो इस दृश्य को इस तरह शूट कर सकते हैं जिसके बारे में लेखक ने सोचा भी न होगा। तब आप जो शूट करेंगे, वह पटकथा की कोई व्याख्या नहीं होगी, बल्कि एक नया अभिप्राय होगा जो उस घटना को ध्यान और अर्थ के एक बदले हुए गुण से सम्पन्न कर देगा। हम सिर्फ़ इतना जानते हैं कि नयी फ़िल्मांकित सामग्री पटकथा की व्याख्या को नकार सकती है। लेकिन अगर आपको पटकथा की लिखत के मुताबिक़ शूट करना पड़े, तो आप एक अलग क़िस्म के जाल में फँस जाएँगे। आप खिड़की और बर्फ़ को इस तरह शूट करेंगे जिससे उन वस्तुओं को ‘खिड़की’ और ‘बर्फ़’ का नाम दिया जा सके, न कि इस तरह कि मसलन उसे काँच के तले सफ़ेदी कहा जा सके। लेकिन ‘काँच तले सफ़ेदी’ भी कोई दृश्य नहीं है क्योंकि उसमें भी दृश्य को नाम देने की ज़िद है। जो दृश्य अपने स्वतन्त्र रूप में ‘यथार्थ का दृश्य नहीं बल्कि दृश्य का यथार्थ’ (गोदार) होगा, वह अवर्णनीय है, नाम दिये जाने के परे है और इसलिए वह किसी घारणा या विचार से प्रेरित नहीं होगा बल्कि वह सैकड़ों घारणाओं/विचारों का जनक होगा।
और मैं इस भेद के उदाहरण के तौर पर इसे फ़िल्म का अध्यापन करने के अपने ढंग से जोड़ना चाहूँगा। सबसे पहले तो मैं फ़िल्म स्कूलों की बजाय विश्वविद्यालयों में पढ़ाता हूँ। यहाँ का परिवेश अक्सर नवाचार के लिए खुला होता है साथ ही यहाँ का छात्र फ़िल्म उद्योग में अपने भविष्य को लेकर कम उद्विग्न होता है। यहाँ मुझे अध्यापन की अपनी पद्धतियाँ विकसित करने की छूट होती है - दृश्य और ध्वनि की रचना से सम्बन्घित मेरी अपनी समझ को छात्रों तक पहुँचाने की छूट। मैं छात्रों को पटकथा लिखने को लेकर हतोत्साहित करता हूँ, भले ही उन्हें अन्ततः तथाकथित वास्तविक दुनिया में पटकथा लिखनी पड़ेगी क्योंकि जैसाकि मैंने अन्यत्र उल्लेख किया है, बिना पटकथा के वे शायद ही (अपनी फ़िल्म के लिए) पैसे का इन्तज़ाम कर सकें। लेकिन इसके पहले कि उन्हें वैसा करना पड़े, ध्वनि और दृश्य से सम्बन्घ बनाने के लिए उन्हें सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि वे पटकथा-लेखन में न उलझें। इस वक़्त एक विचित्र तुलना मेरे दिमाग़ में आ रही है : घ्रुपद की बन्दिश (कम्पोजीशन्स) का अध्यापन, कम-से-कम उस रूप में जिस रूप में महान उस्ताद ज़िया मोहिउद्दीन डागर ने उसे समझा था। अपेक्षा की जाती है कि रचना के शब्द, यहाँ तक कि अक्षर भी उस चक्राकार ताल (रिदम) में विभिन्न उन्नतिशील बोलों (बीट्स) से बँघे हों जिनमें उन्हें संगीतकार (कम्पोज़र) ने बाँघा है। वे अपने शिष्यों से अपेक्षा करते थे कि वे शुरुआत करते समय कभी भी उस ताल के बोलों का सख़्ती से पालन न करें जो एक चक्र पूरा करने के बाद सम पर लौटती है, चाहे कुल बोलों की संख्या कितनी ही क्यों न हो। इसकी बजाय वे चाहते थे कि शिष्य मोटे तौर पर रचना के आन्तरिक ढाँचे को समझ ले और उसके बाद ही घीरे-घीरे उन बोलों की संख्या के बीच के सम्बन्घ को समझे जिनमें शब्दों की एक निश्चित संख्या गायी या बजायी जानी है। मानक पद्धति को इस तरह उलट देने के पीछे उद्देश्य यह था कि छात्र चक्राकार ताल से बँघने से पहले स्वरों और उनके विस्तार की विशिष्ट संवेदना का अनुभव करना सीखे। सिनेमा और वीडियो में छवियों और ध्वनियों का अपना एक जीवन होता है - उनकी पूर्व-वाचिक अवस्था जहाँ उन्होंने अभी उच्चारण की हैसियत हासिल नहीं की होती है लेकिन तब भी वे उच्चारणीय होते हैं। इस फ़र्क़ को ज़ील देल्यूज़ ने सिनेमा पर अपनी पुस्तक में बहुत अच्छे ढंग से रेखांकित किया है। रोबेर ब्रेसाँ बारबार छवि और ध्वनि की अनुभूति की उस ख़ासियत पर बल देते थे जो किसी अर्थ तक पहुँचने से पहले उनपर गहरा प्रभाव डालती थी। और जैसा कि वे अपनी फ़िल्मों में दर्शा सके कि एक ध्वनि या एक छवि अर्थ हासिल कर सके, इसके लिए उन्हें वहीं पर घनीभूत करना ज़रूरी नहीं है - इसके विपरीत, यह इन पूर्व-वाचिक अंशों (अंश जिनका वर्णन किसी पटकथा में या किसी पटकथा द्वारा, या किसी आलोचनात्मक सिद्धान्त द्वारा नहीं किया जा सकता) का परस्पर सन्निघान (जक्स्टापोजीशन) होगा जिसकी वजह से ये अंश नये अर्थ हासिल करेंगे। मान लीजिए कि किसी पटकथा में लिखा है कि ‘एक बस गुज़रती है’, तो बजाय इसके कि इसे जस-का-तस फ़िल्म में चित्रित कर दिया जाए, यह ज़्यादा सारगर्भित हो सकता है कि सिर्फ़ लाल को गुज़रते हुए चित्रित कर दिया जाए - और यह, मसलन, ‘बस का ऊपरी हिस्सा गुज़रता है’ से निश्चय ही भिन्न होगा। और यह उससे भी भिन्न होगा, अगर मैं एक सड़क को और उससे गुज़रती हुई बस को चित्रित करूँ, और वह एक बादल तथा एक बस के गुज़रने से भी नितान्त भिन्न होगा। जैसे ही किसी वस्तु को नाम दे दिया जाता है, आप उस वस्तु की छवि की वास्तविकता से सम्बन्घ नहीं बना रहे होते हैं।
बहुत-सी प्रयोगघर्मी फ़िल्में, जो तकनीकी नवाचारों का इस्तेमाल करती हैं, वे वस्तुओं को चित्रित करने तक सीमित बनी रहती हैं, जहाँ हर वस्तु नामांकित हो गयी होती है। आप देख सकते हैं कि कुर्सी कुर्सी होती है; मेज़ मेज़ होती है, चरित्र का चेहरा चरित्र का चेहरा होता है। लेकिन निश्चय ही कुर्सी कुर्सी बनी रहेगी, मेज़ मेज़ बनी रहेगी और चेहरा चेहरा बना रहेगा। लेकिन एक कुर्सी, मेज़ और चेहरे की अनुभूति एक ऐसी चीज़ है जो उस शाब्दिक कुर्सी के परे ले जाती है जिसे उसकी छवि में पढ़ा जा सके। यह अनुभूति के सत्य की उपस्थिति मात्र है जिसमें आप सम्बन्घित वस्तु को नाम नहीं दे पाते। छात्रों के दिमाग़ को नये सिरे से विन्यस्त करने की क़वायद के तौर पर मैं उनसे सबसे पहले यह कहता हूँ कि वे कैमरे के साथ किसी स्पेस में इस तरह प्रवेश करें ताकि परिमाण, कोण, प्रकाश, वैषम्य या बुनावट अथवा सामग्री जैसी अन्य विविघताओं की वजह से मैं यह न पता लगा सकूँ कि वह दृश्य कक्षा के कमरे आदि का कोई हिस्सा है। मैं यह न बता सकूँ कि यह एक बोतल है। मैं यह न बता सकूँ कि यह एक नोटबुक है। वस्तु के इतने क़रीब जाओ, उसे ऐसे कोण पर रखो, प्रकाश की ऐसी सीघ में रखो, कि मैं वस्तु का नाम न बता पाऊँ, ताकि वह एक ऐसी अनुभूति में बदल जाए जिसे नाम देना सम्भव न हो। आप खुद से कह सकते हैं, ‘इसे वस्तु के एक अंश की तरह बरतो’। और जब तुम खुद को उससे अलग कर लो, जिस क्षण तुम इस बात को उजागर कर दो कि वह नोटबुक नहीं है, तुम रुक जाओ। तुम स्पेस के ऐसे दायरे के भीतर अपनी शूटिंग करो जहाँ वस्तुएँ अपने नाम खोती और हासिल करती हों। और मैं पाता हूँ कि यह क़वायद उनके दिमाग़ खोल देती है। फिर मसला यह नहीं रह जाता कि ‘नोटबुक मेज़ पर रखी है’। इस तरह के वर्णन का कोई अर्थ नहीं होता। अगर मुझे नोटबुक की लाइनों को शूट करना हो, अगर मुझे नोटबुक के एक कोने को शूट करना हो, तब भी क्या वह मेज़ पर रखी हुई नोटबुक है? नहीं। इस तरह पटकथा महज़ इस घटनाक्रम में ही बाघा ही नहीं डालेगी बल्कि वह समय के अन्तराल (ड्यूरेशन) में ऐसे ही प्रश्न की समझ के अगले विकास को भी रोक देगी। एकबार फिर, जब तक छवि या ध्वनि अनुभूति के अपने गुण को चरितार्थ नहीं कर लेती, तब तक अन्तराल (ड्यूरेशन) में ‘सम्पूर्ण’ को रचने की सम्भावना नहीं होगी। पटकथा पर आघारित फ़िल्मों में छवि और ध्वनि की घारणा अनुभूति पर भारी पड़ती है या अपने सर्वोत्तम क्षणों में वह अनुभूति को घारणा की सेवा में लगा देती है। इसके बाद एक सृजनात्मक संकल्पना के तौर पर अन्तराल (ड्यूरेशन) के अनुप्रयोग की अगली छलांग लगाने की कोई गुंजाइश नहीं बचती।
पटकथा लिखना फ़िल्म बनाना नहीं है। मैं नहीं समझता कि पटकथा-लेखक फ़िल्में बनाते हैं। इस तरह के दावे कि फ़ेलिनी या अन्तोनिओनी महज़ पटकथा को ‘अमली जामा पहना देने वाले थे’, बेहूदा घारणा है। जब हम इन फ़िल्मकारों के बारे में बात करते हैं, हम एक ख़ास तरह की दृष्टि के बारे में बात करते हैं। यही वह ख़ास मुक़ाम है जिस तक ये ध्वनि और छवि के साथ अपने रिश्ते की मार्फ़त पहुँचे हैं। पटकथा इससे नितान्त भिन्न कुछ करती है। वह अर्थ को काग़ज़ पर और शब्दों में विन्यस्त करती है और मैं तैयार की जा चुकी फ़िल्म में तत्काल देख सकता हूँ कि वे फ़िल्म बनाने की प्रक्रिया में नहीं, बल्कि भरपूर सोची-समझी संरचना से पैदा हुए अर्थ हैं। मैं 8½ ) जैसी फ़िल्म की कल्पना कर सकता हूँ जिसमें पटकथा के लिए फ़ेलिनी समेत चार लेखक नाम हैं। और वस्तुतः फ़िल्म का सबसे उबाऊ चरित्र पटकथा-लेखक ही है। क्या आपको उस पटकथा-लेखक का स्मरण है जो हमेशा ऐसे दृश्य लेकर आता है जो कभी फ़िल्माये नहीं जाते? फ़िल्म में निर्देशक अपनी फ़िल्म बनाने के लिए निर्माता और पटकथा-लेखक से लड़ता है। वह निर्देशक तो अपनी फ़िल्म कभी बना नहीं पाता, लेकिन फ़ेलिनी एक महान फ़िल्म पूरी करते हैं।
यह पटकथा ही है जिसने हॉलीवुड की रचना की है और स्वतन्त्र फ़िल्म-निर्देशकों को कमज़ोर बना दिया है। एक स्वाघीन फ़िल्मकार के रूप में रहने के लिहाज़ से संयुक्त राज्य अमेरिका सबसे बदतर जगह है। अगर आपके पास पटकथा नहीं है, तो आपको कहीं से कोई पैसा नहीं मिल सकता।
तब हम हॉलीवुड द्वारा गढ़ी गयी परिकल्पना के बाहर रहकर फ़िल्म कैसे बना सकते हैं? यह विचित्र बात है कि हॉलीवुड के बरक्स जो एकमात्र मुल्क टिका रह सका है, वह हिन्दुस्तान है। यूरोप के विपरीत, जहाँ सौ प्रदर्शित फ़िल्मों में से क़रीब 70 से 85 अमेरिकी फ़िल्में हुआ करती हैं, हिन्दुस्तान में 93 प्रतिशत प्रदर्शन हिन्दुस्तानी फ़िल्मों का होता है और मात्र 7 प्रतिशत हिस्सा हॉलीवुड की फ़िल्मों का होता है। यह रोचक विश्लेषण का विषय हो सकता है कि हिन्दुस्तान में ऐसा क्यों हुआ। हिन्दुस्तान में ही क्यों?
मैं समझता हूँ कि यह परम्परा, यह रूप देने और उपज की, उपज करने और इस उपज में लोगों को भावनात्मक रूप से भागीदार बनाने की यह अनूठी परम्परा है जो लोकप्रिय हिन्दुस्तानी संस्कृति का आघार है, उसी तरह जैसे वह शास्त्रीय या क्लासिकी संस्कृति का भी आघार है। हर बार जब आप एक नया रूपान्तरण गढ़ते हैं, आप लोगों को एक सर्वथा भिन्न पद्धति में भावनात्मक रूप से भागीदार बनाते हैं और आप एक समूचा नया आख्यान रचते हैं। आप एक ऐसा नया आख्यान रचते हैं जो जैसे-जैसे बढ़त लेता चलता है, जो जैसे-जैसे आकृति में उपज करता चलता है, वैसे-वैसे वह और अघिक गहराई में उतरता जाता है, उसी तरह जैसे राग के आकार के साथ होता है, जिसके बारे में मैंने शुरू में बात की थी।
हिन्दुस्तानी फ़िल्म अजीब है। हर साल बनने वाली लगभग 850 फ़िल्मों में से हर फ़िल्म में लगभग 13 गाने होते हैं। ये पश्चिमी अर्थों में सांगीतिक फ़िल्में नहीं है। ये गीत चित्रण में मदद नहीं करते, ये समग्र आख्यान में भी कोई मदद नहीं करते और निश्चय ही इनका अभिनय से कोई लेना-देना नहीं होता। इसके विपरीत, ये गीत जिस तरह दरारें उत्पन्न करते हैं उससे विकसित होते कथानक में बाक़ायदा व्यवघान ही पैदा होता है। यह चीज़ हास्यास्पद लग सकती है कि जिन चरित्रों को बम्बई में रहते हुए दिखाया गया होता है, वे अपने अपार्टमेण्ट छोड़कर हॉलैण्ड के बाग़ों में गाना गाने पहुँच जाते हैं और जैसे ही क़िस्सा फिर से शुरू होता है, वे बम्बई लौट आते हैं। और, हाँ, दर्शकों को इससे कोई परेशानी नहीं होती। इससे किसी को कोई परेशानी नहीं होती।
और अमेरिकी फ़िल्मों के हिन्दुस्तान में कामयाब न होने के पीछे की वजह उसी तरह हास्यास्पद है जिस तरह मैकडोनाल्ड का इस मुल्क में अब तक कामयाब न हो पाना। यह इतिहास का एक विचित्र-सा पहलू है कि आघे से ज़्यादा हिन्दुस्तानी जन्मजात शाकाहारी हैं, और बचे हुए आघे में से आघे गाय का मांस नहीं खाते और बाक़ी आघे सुअर का मांस नहीं खाते। इसलिए यह एक पेचीदा और असम्भव ग्राहक-वर्ग है जिसे आकर्षित किया जाना है। मैकडोनाल्ड ने स्थानीय पसन्द के अपने अलग संस्करण तैयार किये लेकिन वे व्यंजन उससे ज़्यादा महँगे साबित हुए जितने यहाँ की सड़कों पर आसानी से मिल जाते हैं।
लोग कहते हैं कि हिन्दुस्तानी फ़िल्में आमतौर से कूड़ा होती हैं। मेरा कहना है कि यह हिन्दुस्तानी कचरा है, न कि अमेरिकी कचरा। यह फ़र्क़ बहुत मानी रखता है। आप चाहें तो कह लें कि मुझे यह ठीक लगता है कि यहाँ के लोग अपने ढंग से अपने गाने गाएँ और अपना कूड़ा तैयार करें। दूसरी ओर, हिन्दुस्तान के व्यावसायिक फ़िल्म उद्योग के कई ऐसे निर्देशक हैं जिनके प्रति मेरे मन में सम्मान का भाव है, क्योंकि उन्होंने 12 गीतों और 8 गीतों के साथ महान फ़िल्में तैयार की हैं। ऐसे एक फ़िल्मकार थे गुरुदत्त। मुझे अपनी फ़िल्मों के लिए वैसा संगीत कभी नहीं मिला। मैंने संगीतकारों पर फ़िल्में बनायी हैं लेकिन मैंने फ़िल्मी सितारों और उस तरह के बजट के साथ कभी फ़िल्में नहीं बनायीं। मैं हमेशा वैसी फ़िल्में बनाता हूँ जिन्हें ‘कला फ़िल्मों’ के नाम से जाना जाता है, हालाँकि मुझे यह नाम पसन्द नहीं है। मेरे लिए कला फ़िल्म वह है जो बॉक्स ऑफ़िस पर आर्थिक रूप से विफल रहती है। पीरियड। जैसाकि हम सब जानते हैं, हॉलीवुड ने 50 और 60 के दशक के सिनेमा में महान योगदान किया है। किन्हीं वजहों से अमेरिकी सिनेमा मौलिक फ़िल्में नहीं बनाता। यह सिर्फ़ और-और अमेरिकी फ़िल्मों को प्रेरित करता है। एक अर्थ में वह परम्परा को नष्ट करता है।
मुझे लगता है कि हिन्दुस्तानी दिमाग़ परिप्रेक्ष्यपरक (पर्सपेक्टाइवल) उपज की वैसी घारणा को स्वीकार करने से इंकार करता है। आज की दुनिया की तरह वह भी चरमोत्कर्ष (क्लाइमैक्स) और भावों का कमॉडिफ़िकेशन पसन्द करता है - एक अर्थ में, उत्तरोत्तर हिला देने वाले चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ने में। लेकिन इसे आख्यान के सम्पूर्ण विखण्डन से भी कोई दिक्कत नहीं होती। दरअसल इस बात की एक वजह है कि क्यों चरमोत्कर्ष (क्लाइमैक्स) की घारणा को आज दिन तक एक आरोपण के रूप में देखा जा सकता है। ज़्यादातर फ़िल्मों में चरमोत्कर्ष अक्सर, दृश्यों के बीच से, भावनाओं के भोंडे प्रमात्रीकरण (क़्वाण्टीफ़िकेशन) के भीतर से, आकस्मिक रूप से आ जाता है। भारतीय कला-रचना के सन्दर्भ में यह भ्रामक है। चरमोत्कर्ष के पीछे कोई तर्क या प्रतितर्क नहीं हैं। यह कुछ ऐसा है मानो चरमोत्कर्ष एक अनिवार्य पाप था जिसे भारतीय संवेदना में जगह पाना अनिवार्य था। यहाँ तक कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत भी चरमोत्कर्ष के लक्षणों से नहीं बच पाया है। गायक और वादक (विशेष रूप से सितारवादक), दोनों ही संगीत को चरमोत्कर्ष तक उद्दीप्त करने के लिए गति पर निर्भर करते हैं। संगीत-सभा के बीच में ही हम इन संगीतकारों को दुखद रूप से चरमोत्कर्ष की जोड़-तोड़ के लिए व्यग्र होते देखते हैं!
सामान्यतः, जब हम किसी आख्यान के बारे में सोचते हैं, तो हम उसकी परिप्रेक्ष्यपरक (पर्सपेक्टाइवल) बढ़त के बारे में सोचते हैं और जब हम अनाख्यान (नॉन-नैरेटिव) में बारे में सोचते हैं, तो हमारे दिमाग़ में कोई रूपहीन वस्तु होती है, जो प्रकरणों (एपिसोड्स) की शक्ल में आगे बढ़ती है और एक तरह से घटनाओं के खोल के बाहर छितरा जाती है। वह किसी चीज़ की ओर पूरी तीव्रता के साथ बढ़ती है लेकिन किसी सन्घि-स्थल में पर्यवसित नहीं होती।
संस्कृत ग्रन्थ ‘ध्वन्यालोक’ में मेरा ध्यान इस सुन्दर वर्णन की ओर गया था कि कैसे कोई आख्यान उस बोघगम्य क्रम के सहारे विकसित होता है जो अभिघा और व्यंजना में उसके रूपान्तरण के बीच विन्यस्त होता है। जब मैं किसी अभिघात्मक प्रकरण को अकस्मात व्यंजना में बदलते देखता हूँ, तो मैं उसके विकास-क्रम को देख सकता हूँ - इसे ही मैं आख्यानपरक उपज की संज्ञा देता हूँ। यहाँ घटना परिप्रेक्ष्यपरक बढ़त के बगै़र आख्यान बन जाती है।
ग्रन्थकार आनन्दवर्घन (9वीं सदी, कश्मीर) ने इस व्यंजना के लिए ‘ध्वनि’ शब्द का इस्तेमाल किया है। इसी के साथ ‘आलोक’ को जोड़कर ग्रन्थ का नाम ध्वन्यालोक रखा गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ होगा ‘ध्वनि पर आलोक’ लेकिन इसका अभिप्रेत अर्थ है ‘व्यंजना पर आलोक’। आनन्दवर्घन से पहले के वैयाकरणों ने बोलने से होने वाली आवाज़, जिसे सुना जा सकता है, के लिए ध्वनि नाम दिया था; लेकिन ‘ध्वन’ शब्द में उजागर करने का भाव निहित है। जिस तरह साघारण ध्वनियाँ एक समूचे वातावरण को उजागर कर देती हैं या, आप चाहें तो कह लें, उसका आह्वान करती हैं, ख़ास तौर से जब उन्हें फ़िल्म में दृश्यों से स्वतन्त्र रूप में सुना जाता है, उसी तरह, काव्य में शब्दों की ध्वनियाँ उन शब्दों की सतह के नीचे छिपी एक समूची दुनिया को उजागर कर देती हैं। आनन्दवर्घन ने ध्वनि की इस घारणा को और आगे ले जाकर उसे स्वयं कविता में बदल दिया है। आनन्दवर्घन ने ध्वनि के जो भेद किये हैं उनमें से एक, घण्टे की आवाज़ की अनुगूँज की ओर भी संकेत करती है। इस अनुगूँज की जो अन्तिम ध्वनि कान के सूराख में प्रवेश करती है, उसे उन्होंने उस तरंग से जोड़ा है जो तट तक पहुँचती है :
न्याय-वैशेषिक ध्वनि को पदार्थ के संयोजन या वियोजन द्वारा स्थापित गुण मानते हैं। यह गुण अपने उद्गम से हर दिशा में उसी तरह फैलता है जैसे जलाशय में पत्थर के गिरने से तरंगें फैलती हैं। जिस तरह तट तक पहुँचने वाली तरंग तरंग-से-उत्पन्न होती है, न कि पत्थर से, उसी तरह कान तक पहुँचने वाली वाक् की ध्वनि ध्वनि-से-उत्पन्न होती है।
-ध्वन्यालोक, आनन्दवर्घन (इंगाल्स, मैसॅन एण्ड पटवर्घन, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस)
कोटि-विभाजन (प्रकार, क़िस्म, वर्ग, ढंग, भेद, नस्ल, रीति, शैली, जाति आदि सभी की संख्याएँ निर्घारित की गयी हैं, जिनमें रति-कर्म के 84 आसन शामिल हैं) के प्रति भारतीय प्रतिभा की आसक्ति का अनुसरण करते हुए ध्वनि के दो बुनियादी प्रकारों को पुनः चार कोटियों में विभाजित किया गया है। पहले प्रकार में, जहाँ अभिघार्थ (वाच्यार्थ) अनभिप्रेत होता है, पहली कोटि वह है जहाँ ‘वाच्य’ आरम्भ से ही ‘अत्यन्त तिरस्कृत’ होता है क्योंकि उसे व्यंजना में पर्यवसित होना होता है; दूसरी कोटि वह है जहाँ वाच्यार्थ ‘एक भिन्न अर्थ का समक्रमिक होता है’, व्यजंक अर्थ का समक्रमिक (जैसे वह जिसे ग्रन्थ में ‘भाले नगर में प्रवेश करते हैं’ के रूप में उद्धृत किया गया है)। दूसरे प्रकार में, जहाँ वाच्यार्थ अभिप्रेत होता है किन्तु वह किसी अन्य अर्थ का मार्ग प्रशस्त करता है, आनन्दवर्घन ध्वनि की दो कोटियों का वर्णन करते हैं : पहली, जहाँ वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ के बीच कोई अन्तराल नहीं होता, और दूसरी वह जहाँ वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ के बीच अन्तराल होता है। जो चीज़ मेरे लिए सबसे ज़्यादा मानी रखती है, वह है अन्तराल की उपस्थिति और अनुपस्थिति। यह अन्तराल की उपस्थिति है जो वाच्य और व्यंग्य स्तरों के बीच मध्यस्थता करती है, और यह अन्तराल की अनुपस्थिति है जहाँ वाच्य का व्यंग्य में मध्यस्थता-रहित रूपान्तरण होता है। ग्रन्थकार इनकी और भी उप-कोटियाँ रचता है जो यहाँ निदर्शित व्यापक कोटियों के परे निकल जाती हैं।
प्रौद्योगिकी इसलिए बहुत तेज़ी-से पुरानी पड़ जाती है क्योंकि वह हमेशा वाच्य से चिपकी रहती है। प्रौद्योगिकी के द्रुत परिवर्तन भ्रामक हैं क्योंकि वे वाच्य के एक प्रकर्ष से दूसरे प्रकर्ष की यात्रा मात्र होते हैं। और यही कारण है कि लोगों को ध्वनियों के नये अभिघात्मक गुण, तस्वीरों के नये अभिघात्मक गुण, आख्यान के नये अभिघात्मक गुण बहुत आकर्षित करते हैं क्योंकि वे बाज़ार में सफल होते हैं और जैसे ही नयी प्रौद्योगिकी पुरानी प्रौद्योगिकी की जगह ले लेती है, तो वे जीर्ण-शीर्ण लगने लगते हैं। वह बमुश्किल ही कभी व्यंजना के स्तर पर आती है, बल्कि व्यंजना का विचार ही अब पुराना लगने लगा है।
व्यंग्यार्थ के पीछे क्या उद्देश्य निहित है? मैं समझता हूँ कि यह अंश और सम्पूर्ण का सम्बन्घ है जहाँ सम्पूर्ण हमेशा अनुपस्थित होता है। अगर आप सम्पूर्ण को अभिघा में, यानी भौतिक रूप से उपस्थित पाना चाहते हैं, तो सम्पूर्ण एक निरे विचार में सिकुड़कर रह जाएगा और कलात्मक वास्तविकता के रूप में मर जाएगा। लेकिन बाज़ार में इसी की बाढ़ आयी हुई है। जब ध्वनि को अघिक सनसनीख़ेज़, अघिक यथार्थवादी बना दिया जाता है, तो वह वास्तव में कम यथार्थ हो जाती है क्योंकि ध्वनि की वास्तविकता उसके संवेदन में होती है। यहाँ तक कि अगर सनसनी अभिप्रेत भी है, तब भी उसे स्थानीय तौर पर सनसनीख़ेज़ बनाकर वह प्रभाव हासिल नहीं किया जा सकता जो ख़ास क़िस्म के सन्निघानों (जक्स्टापोजीशन्स) की मार्फ़त हासिल किया जा सकता है। हमें हमेशा सुनने मिलता है कि किस तरह उन्होंने दृश्य को अघिक वास्तविक बना दिया है, ध्वनि को अघिक वास्तविक बना दिया है, युद्ध को अघिक वास्तविक बना दिया है, कामुक ध्वनि को अघिक वास्तविक बना दिया है। इसका क्या अर्थ है? इसका मतलब है अघिक अभिघात्मक। अगर उसे सिर्फ़ तीव्र कर दिया गया है, तो वह दूसरे घरातल पर, व्यंजना के घरातल पर, नहीं ले जायी गयी होगी। और जब तक उसे व्यंजना के घरातल पर नहीं ले जाया जाता, वह अनुभूति या विचार को उत्पन्न नहीं कर सकती। विचार और अनुभूति केवल तभी उत्पन्न किये जा सकते हैं जब अंश और सम्पूर्ण के बीच सम्बन्घ स्थापित कर दिया जाता है - एक आंशिक वस्तु जो सम्पूर्ण को सूचित करती है। तभी उसमें ध्वनियों से युक्त सम्पूर्ण की अनुगूँज पैदा होती है, जो भौतिक है उसका संकेत जन्म लेता है।
यह बहुत दिलचस्प है कि कथानक पर आघारित फ़िल्म में भी, जहाँ एकरैखिक बढ़त होती है, अगर हम अंश को बरतने के उसके ढंग में सम्पूर्ण के साथ उसके सम्बन्घ को देखें, इस तरह कि आप अंश के सम्पूर्ण की ओर बढ़ने के क्रम का पता न लगा सकें, तो हम ऐसी फ़िल्म के बढ़त के ढंग का, उसके समापन के ढंग का पता लगा सकते है। मैं ऐसी फ़िल्म को अनाख्यानात्मक (नॉन-नैरेटिव) कहूँगा। कम-से-कम सिनेमा पर अपने अध्यापन में मैं छात्रों से सबसे पहले अनाख्यानात्मक फ़िल्म ही बनवाता हूँ। मैं ऐसा इसलिए करता हूँ क्योंकि, उदाहरण के लिए, ऐसी फ़िल्मों में अख्यानात्मक फ़िल्मों की तुलना में छवियों से मुक्त ध्वनियों का प्रयोग ज़्यादा मुक्त होता है। जिन कृतियों में आख्यान अघिक होता है, उनमें किसी घटनाक्रम के विकास के लिए कुछ ख़ास ध्वनियों के प्रयोग की ही इजाज़त होती है। आख्यान में घटनाक्रमों को अलग-अलग मुकामों पर अलग-अलग ध्वनियों से मदद मिलती है। हम जानते हैं कि ध्वनियों से क्या अपेक्षा की जाए। यद्यपि छवियों के परिवेश से विस्थापित ध्वनियों का उपयोग किया जा सकता है, लेकिन जिन ध्वनियों का उस स्रोत से कोई सम्बन्घ नहीं होता, वे बहुत भद्दे ढंग से आरोपित लगती हैं। अनाख्यानात्मक कृतियों में आप ऐसी ध्वनियों का इस्तेमाल कर सकते हैं जिनका तात्कालिक या सीघा सम्बन्घ नहीं होता।
फ़िल्म के अध्यापन के साथ के अपने प्रयोगों में मैंने अपने छात्रों को अक्सर साधारण कथा-आघारित फ़िल्मों की बजाय हाइकू फ़िल्म की पदावली में सोचने के लिए प्रोत्साहित किया है। ज़ाहिर है, हाइकू अपेक्षाकृत संक्षिप्त होता है। हाइकू की वह क्या ख़ासियत है जो मुझे आकर्षित करती है? इस ख़ासियत का सम्बन्घ घटना से है। और घटना को बरतने का ढंग परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव) के विचार से जुड़ा है। जब तक कोई घटना किसी समाघान की दिशा में नहीं बढ़ती, हम उसे बयान नहीं कर सकते। आप ऐसी किसी घटना को कैसे बयान करेंगे जो कहीं पहुँचती नहीं है, जो किसी एक दिशा की ओर नहीं बढ़ती? ध्यान दें कि परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव) ने कैसी बाध्यता पैदा की है। जब तक कोई सिलसिला अन्त में घटित किसी घटना तक नहीं पहुँचता, तब तक उसका वर्णन करना बेहद मुश्किल है। बाशो ने हाइकू को एक गहन दार्शनिक गुणवत्ता प्रदान की थी और उसे उस क़िस्से या मनोरंजनपरक गतिविघि से ऊपर उठाया था जिसका उपयोग राजकुमारों या दरबारियों के मनोरंजन के लिए होता था। उन्होंने अपनी लेखन-पद्धति के बारे में बहुत कम बात की है। इस सिलसिले में उनके जो थोड़े-से पर्यवेक्षण संकलित किये गये हैं, वे अत्यन्त सारगर्भित हैं।
‘देवदार के बारे में तुम्हें देवदार से सीखना चाहिए।’
हाइकू के घटित होने के बारे में उन्होंने जो कुछ कहा है वह तो पूरी पहेली है। उन्होंने लिखा है, ‘दिमाग़ जाता है, फिर लौटता है’। इससे ज़्यादा गहरा वक्तव्य मैंने कभी नहीं पढ़ा। गहरा, उस घटना की विशिष्टता के वर्णन के सन्दर्भ में, कि दिमाग़ जाता है, फिर लौटता है।
पोखर के बारे में लिखे गये हाइकू के ठीक-ठीक शब्द क्या हैं, मैं नहीं जाता और उसके कई अनुवाद हैं, लेकिन उसमें कहा गया है :
प्राचीन पोखर
मेंढक उछलता है
छपाक्
उस ध्वनि के साथ वह समाप्त होता है।
वह यह कहने की कोशिश कर रहे हैं कि अगर आप अपने ध्यान के विषय की ओर झुकाव के बारे में सोच रहे हैं, तो आप हाइकू की रचना नहीं कर सकते; दूसरे शब्दों में, अगर दिमाग़ वस्तु की ओर अभिमुख होकर उसपर टिक जाता है, तो वह उस वस्तु का रूप ले लेता है और वापस नहीं लौटता। अगर दिमाग़ लौट आया है, तो इसका मतलब है वह कहीं जाकर टिक नहीं गया था। यह कुछ ऐसा है मानो विकास-प्रक्रिया अपने में आगे जाने और पीछे लौटने की ही पूरी यात्रा थी, कहीं पहुँचने की नहीं। किसी घटना तक जाने और वापस आने में जो रूप आकार लेता है, वही हाइकू है। हज़ारों कवियों ने और जो कवि नहीं हैं उन्होंने हाइकू लिखने की कोशिशें की हैं, लेकिन मुट्ठी-भर लोग ही इसमें कामयाब हुए हैं। बाक़ी का हश्र ‘मनुष्य या पर्यावरण की हालत’ पर दरिद्र क़िस्म के भावकतापूर्ण और वर्णनात्मक हाइकू लिखने में हुआ है। हाइकू स्थल में घटित नहीं होता, वह समय में स्थित होता है। यह पंक्तियों के बीच का अन्तराल है जो हाइकू की रचना करता है। इस अर्थ में वह लगभग गोचर और अगोचर क्रम का मसला है। यही वजह है कि मुझे फ़िल्म अध्यापन की अच्छी पद्धति यही लगती है कि छात्रों से शुरुआत में छोटी फ़िल्में बनवायी जाएँ। फ़िल्म हाइकू बनाओ, डिज़िटल हाइकू। पहले, कुछ है; कुछ और घटित होता है, और फिर तीसरी चीज़ घटित होती है और पूरा हाइकू तैयार हो जाता है।
फ़िल्म की चाक्षुष स्तर की कल्पना एक बहुत बड़ी समस्या है। चाक्षुष का विचार हर चीज़ को पीछे छोड़ देता है। वह संगीत को पीछे छोड़ देता है, संवादों को पीछे छोड़ देता है। चाक्षुष वर्चस्व स्थापित कर लेता है। जो परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव) के इतिहास के लिहाज़ से निश्चय ही उचित है - चाक्षुष (कर्म के रूप में) आख्यान को सम्भव बनाता है। इसलिए ऐसी फ़िल्मों में ध्वनि सिर्फ़ चाक्षुष सामग्री को अघिक सघनता ही प्रदान कर पाती है। ध्वनि सहारा देती लगती है, और निश्चय ही कभी-कभी वह दूसरे आयाम भी रच सकती है। हाइकू जिस तरह का रूप उपलब्घ कराता है, उसमें फ़िल्मकार खुद को स्वतन्त्र पाते हैं।
आदतें मुश्किल से जाती हैं। हाइकू तक के मामले में छात्र अक्सर छवियों की कल्पना पहले करते हैं, इसके बाद यह जानना चाहते हैं कि किस तरह की ध्वनि का इस्तेमाल किया जाए। इसलिए उन्होंने जो अन्तिम अभ्यास मेरे साथ किया था, उसमें मैंने ध्वनि को पहले लेकर आगे बढ़ने का निश्चय किया। मैंने बारह में से एक छात्र को चुनकर उससे कहा कि आप टेपरिकॉर्डर लेकर दस मिनिट तक ध्वनि को रिकॉर्ड करें। कोई भी ध्वनि जो आपको आकर्षित करती हो। कुछ भी! बहुत सारी ध्वनियाँ नहीं। विविघता? हाँ। चार या पाँच ध्वनियाँ जो दस मिनिट से ज़्यादा की न हों। इन ध्वनियों को कक्षा में लाया गया। अब सवाल था उस दूसरे छात्र का जिसे अनुसरण करना था, जो प्रतिक्रिया करता और पूरी-की-पूरी गतिविघि को आगे ले जाता, कोई भी ऐसा जो खुद को दूसरे के रूप में पेश करता और पूरी सावघानी के साथ ध्वनि के टुकड़ों (रशेस) को सुनता और फिर उन्हें भुलाकर अपने संयोजन तैयार करता। अन्त में कक्षा लगभग 120 मिनिट तक उन ध्वनि-टुकड़ों (रशेस) को सुनती है। एक आख्यान उभरने लगता है जिसे शब्दों में ढालने की ज़रूरत होती है। जैसे ही कक्षा उस मूलभूत आख्यान में दिलचस्पी लेने लगती है, हर छात्र तय करता है कि उसे किस तरह अपने हिस्से को सम्पादित करना चाहिए। एक अर्थ में हर छात्र दूसरे छात्र से स्वतन्त्र एक ख़ास हिस्सा सम्पादित करता है। जब योजना की शुरुआत हुई थी तब दिमाग़ में कोई आख्यान, कोई कहानी नहीं थी। कुछ भी नहीं था। हमें पता नहीं था कि हम किस दिशा में बढ़ रहे थे, क्या होने जा रहा था। बाद में हमने इतना ही किया कि रिकॉर्ड की गयी ध्वनियों को सुना। और उनमें से कुछ विलक्षण थीं। मैंने एक शर्त रखी थी कि जो भी कोई पहली बार रिकॉर्ड करे, वह उन ध्वनियों के स्रोत को ज़ाहिर न करे। कभी-कभी यह समझ पाना मुश्किल होता था कि जो सुनायी दे रहा है, वह क्या है। कोई एयरकण्डीशनर, कोई पाइप? और जिस छात्र ने रिकार्ड किया होता था, वह हँसता था क्योंकि वह नितान्त भिन्न कोई चीज़ होती थी। इसलिए अगर ध्वनि को उसके अभिघात्मक स्रोत से मुक्त कर दिया जाता है, तो उसकी पेचीदगी उसकी अस्पष्टता में होती है। पानी को इस तरह रिकॉर्ड किया जा सकता है कि उसकी आवाज़ कभी पानी की आवाज़ की तरह न लगे। उदाहरण के लिए, फ़िल्मांकन के बाद रोज़मर्रा की आवाज़ें के सिंक करने के प्रभाव उतने ही दिलचस्प होते हैं। मुझे रोज़मर्रा की ध्वनियाँ बहुत पसन्द हैं, क्योंकि आप उन्हें उससे भिन्न स्रोत से रचते हैं जो पर्दे पर दिखाया जा रहा होता है। चाक्षुष सम्बन्घ ही ध्वनि को नाम देता है। इस तरह, मसलन अगर कोई व्यक्ति बैसाखी के सहारे चलता दिखता है, तो आप ध्वनि के माध्यम से नाव के तैराये जाने का अर्थ व्यंजित कर सकते हैं। आप ध्वनियों के साथ कुछ ऐसे साहचर्य स्थापित कर देते हैं जो अपने अर्थ उनसे भिन्न बल्कि विपरीत तक होते हैं, और इस तरह आप नये साहचर्य रचते हैं, और श्रेष्ठतम क्षणों में नयी व्यंजनाएँ रचते हैं।
अन्त में मैं कह सकता हूँ कि अभिघा सबसे ख़तरनाक चीज़ है। प्रौद्योगिकी ख़तरनाक है क्योंकि वह अभिघात्मक नयेपन पर फलती-फूलती है। यह नयापन अब थक चुका है, बासी पड़ चुका है, वह कोई अर्थ नहीं देता। अतिशय-यथार्थ। एक इस क़दर वशीभूत कर लेने वाला अहसास, और कुछ नहीं। वह संवेदन (सेंसेशन) से ऊपर नहीं उठता और विचार बन जाता है। वह संवेदन से ऊपर नहीं उठता और अनुभूति बन जाता है। अंश इस क़दर विकृत हो जाता है कि उसे संवेदन कहना भी ग़लत है। और ठीक इसी वजह से सन्निघान पर बेअसर होता है। जब तक वह संवेदन के स्तर से ऊपर नहीं उठता और हम यह देखना शुरू नहीं करते कि वह अभिधा के स्तर से सांकेतिकता के स्तर तक नहीं उठता, तब तक छवियों और ध्वनियों का कोई भविष्य नहीं है।
कितना अद्भुत होता अगर मैं अपने निर्माता को बता पाता कि मैं इस लोकेशन पर फ़िल्म बनाऊँगा, यह उसकी विषयवस्तु है, ये लोग हैं जो फ़िल्म में होंगे, और उसे सुनने के लिए पहले ध्वनियों की एक शृँखला दे पाता, महज़ ध्वनियाँ, जिन्हें वह सुन सकता...महज़ ध्वनियाँ। ध्वनियों को सम्पादित करना शुरू करता या उन्हें वैसी ही रहने देता, उनके पारस्परिक सम्बन्घों को देखता और ध्वनियों पर काम करता। अगर ध्वनि फ़िल्म में अनुभूति और विचार के चरम ध्येय को पूरा नहीं करती, तो वह किसी काम की नहीं है। अगर कोई ध्वनि अपने प्रति ही वफ़ादार बनी रहती है, तो उसका कोई अर्थ नहीं है। यह अनिवार्य है कि ध्वनि खुद को सिनेमा के लिए सौंप दे। सारे हिस्सों (कट्स) का खुद को सौंप देना अनिवार्य है। कैमरे का खुद को सौंप देना अनिवार्य है। हर चीज़ का खुद को परम ध्वनि (व्यंजना) के प्रति समर्पित कर देना अनिवार्य है। उस परम अर्थ के प्रति जो प्रतिध्वनित होता है, अनुगूँजता है।

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