06-Apr-2017 08:51 PM
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क्या दे सदा कि0 उल्फ़त-ए-गुमगश्तगाँ से आह
है सुर्म0 गर्द-ए-रह ब0-गुलू-ए-जरस तमाम
गुज़रा जो आशियाँ का तसव्वुर ब0-वक़्त-ए-बन्द
मिज़गान-ए-चश्म-ए-दाम हुए ख़ार-ओ-ख़स तमाम
-मिजऱ्ा ग़ालिब
5.1 हिन्दी कविता का मुहम्मदी झण्डा
प्रिय पाठक, यद्यपि उपन्यास में व्याख्यात्मक और आलोचनात्मक टिप्पणियों का आना कहानी-कला के नियमों के सर्वथा विरूद्ध है किन्तु यहाँ एक शब्द पर व्याख्यात्मक टिप्पणी किये बिना काम न चलेगा। वह शब्द है ‘चितारी’, जिसका प्रयोग इस उपन्यास में आगे अनेकत्र होगा।
यदि आप शष्दकोष में ‘चितारी’ न ढूँढ पायें तो इसके पहले कि आप इस अप्रिय लेखक पर ‘अप्रसिद्धत्व’ तथा ‘निरर्थकत्व’ काव्यदोष का आरोपण करें, वह सूचित करना चाहता है कि चन्द्रकान्ता के प्रथम भाग के बारहवें बयान में ‘गये चुनार क्रूर बहुरंगी लाये चार चितारी’ से प्रारम्भ होने वाली कविवर देवीसिंह-कृत कविता पर चूर्णिका लिखते समय देवकीनन्दन खत्री जी ने ‘चितारी-ऐयर’ लिखा है। यद्यपि ‘चितारी’ शब्द की व्युत्पत्ति उन्होंने नहीं बतायी किन्तु भाषावैज्ञानिकों, निरूक्तशास्त्रियों और ऐतिहासिकों के अनुसार जिस प्रकार संतूर में सौ तार होते है, सितार में सात तार होते हैं, तानपूरे में चार तार होते हैं और इकतारें में एक ही तार होता है, उसी प्रकार प्रागैतिहासिक युग में ‘चितार’ नाम का एक तत प्रजाति का वाद्य-यन्त्र होता था जिसमें यह पता नहीं लगता था कि तार हैं भी या नहीं, और यदि हैं तो कितने हैंः जैसा कि आप जानते हैं, फ़ारसी में ‘चितार’ का अर्थ है ‘क्या-कितना’। इसी ‘चितार’ के बजाने वाले को ‘चितारी’ कहते थे। ऐसे वाद्य-यन्त्र को बजाने में अद्भुत कौशल और चातुर्य की, निश्चय ही कुछ धूर्तता और वंचना की भी, आवश्यकता थीः अतः कालान्तर में ‘चितारी’ का अर्थ ‘वंचक’ हो गया और इसीलिए ‘मद्दाह’ साहब के ‘उर्दू-हिन्दी शब्दकोष’ में ‘ऐयार’ का अर्थ ‘वंचक’ दिया हुआ है।
किन्तु बहुत प्रयास करने पर भी यह नहीं पता लग सका कि ‘चितारी’ स्त्रीलिंग है या पुल्लिंग और विद्वानों का अनुभव है कि खत्री जी ने इसी कारण कविवर देवीसिंह-कृत कविता पर चूर्णिका लिखते समय ‘चितारी’ शब्द का अर्थ ‘ऐयार’ जब बता दिया तो फिर अपनी रचनाओं में इस शब्द का प्रयोग न किया और ‘ऐयार’ शब्द का ही इस्तेमाल करते रहे जिसका स्त्रीलिंग में ‘ऐयारा’ रूप उन्हें अपनी उर्दू-फ़ारसी की पढ़ाई की बदौलत बखूबी मालूम था। तथापि आप के सामने तलब किये गये इस अदने से लेखक ने इस का समाधान खोज ही लिया यद्यपि वह सल्लज भाव से यह स्वीकार करता है कि इस खोज की प्रौद्योगिकी उसकी मौलिक देन नहीं है और उसने उसे मि़र्जा ग़ालिब से लिया।
जैसा कि आप जानते हैं, एक बार मि़र्जा ग़ालिब से पूछा गया था कि ‘रथ’ शब्द ‘मुज़क्कर’ है या ‘मुअन्नस’1 और उन्होंने यह उत्तर दिया था कि ‘अगर रथ में औरतें बैठी हों तो मुअन्नस और अगर मर्द बैठे हों तो मुज़क्कर।’ बस, तरीका पता लग गया। जैसा आप जानते हैं, हिन्दी लिंग परीक्षण में स्वतःसमर्थ भाषा है, उसमें पुरूष जाता है किन्तु स्त्री जाती है। अतः यदि कोई चितारी जाता है तो वह पुरूष है और अगर कोई चितारी जाती है तो वह स्त्री है। आप से अनुरोध है कि सर्वत्र इसी प्रकार क्रियाभेद से लिंग परीक्षण करें।
अब आप पूछ सकते हैं कि इस ‘मघवा=विडौजा’ वाली खत्री-कृत चूर्णिका से जिज्ञासु को क्या लाभ है और वह कैसे जाने कि ‘ऐयार’ का क्या मतलब है? तो इस प्रश्न का समाधान निम्नलिखित हैः
चन्द्रकान्ता की संवत् 1944 (ईसवी सन् 1887) में लिखी गयी भूमिका में देवकीनन्दन खत्री जी ने आधुनिक हिन्दी में लिखे गये इस प्रथम इतिहास-ग्रन्थ के लिखने का कारण यह बताया हैः
1. मुज़क्कर = पुल्लिंग, मुअन्नस = स्त्रीलिंग 2. ‘सफ़र्दा’ = नृत्य के समय संगत का वाद्य-यन्त्र बजाने वाला।
आज हिन्दी के बहुत से उपन्यास हुए हैं जिनमें कई तरह की बातें वो राजनीति भी लिखी गयी है, राजदरबार के तरीके वो सामान भी ज़ाहिर किये गये हैं मगर राजदरबार में ऐयार (चालाक) भी नौकर हुआ करते थे जो हरफ़न-मौला, याने सूरत बदलना, बहुत-सी दवाओं का जानना, गाना बजाना, दौड़ना, अस्त्र चलाना, जासूसों का काम देना, वगैरह बहुत-सी बातें जाना करते थे। जब राजाओं में लड़ाई होती थी तो ये लोग बड़ी चालाकी से बिना खून गिराये वो पलटनों की जानें गँवाये लड़ाई खत्म करा देते थे। इन लोगों की बड़ी कदर की जाती थी। इन्हीं ऐयारी पेशे से आजकल बहुरूपिये दिखाई देते हैं। वे सब गुण तो इन लोगों में रहे नहीं सिफऱ् शक्ल बदलना रह गया सो भी किसी काम का नहीं। इन ऐयारों का बयान हिन्दी किताबों में अभी तक मेरी नज़रों से नहीं गुज़रा। अगर हिन्दी पढ़ने वाले इस मज़े को देख लें तो कई बातों का फ़ायदा हो। सबसे ज़्यादे फ़ायदा तो यह है कि ऐसी किताबों का पढ़ने वाला जल्दी किसी के धोखे में न पड़ेगा। इन सब बातों का ख़याल करके मैंने यह ‘चन्द्रकान्ता’ नामक उपन्यास लिखा।
प्रिय पाठक, यह टिप्पणी भारत के मध्यकालीन इतिहास के सन्दर्भ में लिखी गयी है। इसमें यह अप्रिय लेखक इतनी अभिवृद्धि करना चाहता है कि भारत के प्राचीन इतिहास तक इस टिप्पणी का विस्तार करने के निमित्त ‘ऐयार-चालाक’ का विस्तार ‘ऐयार-चालाक-धूर्र्त’ करना चाहिए। इन धूर्तों का वृत्तान्त भारत के प्राचीन इतिहास-ग्रन्थों कथासरित्सागर, दशकुमारचरित आदि में तथा ‘भाण’ और ‘प्रहसन’ के अन्तर्गत आने वाले नाटकों में मुख्यतः उपलब्ध है।
प्रिय पाठक, यद्यपि खत्री जी ने तत्कालीन हिन्दी समालोचकों के भय से यह नहीं बताया कि इन धूर्तो का वेश्याओं के यहाँ लगातार आना-जाना, उठना-बैठना और उनसे मेल-मुहब्बत बने रहते थे और संकेत मात्र से सिफऱ् इतना बताया है कि ऐयारों के सरताज तेज़सिंह सफ़र्दा2 का का काम बहुत अच्छा करते थे और काशी की मशहूर वेश्या नागर के यहाँ गदाधर सिंह उफऱ् भूतनाथ तथा इन्द्रदेव जैसे नामी ऐयार गाना सुनने जाया करते थे, उन पर कुरूचि को बढ़ावा देने का आरोप फिर भी लगा। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की लोकमंगल-कसौटी वाले पत्थर ने तो खत्री जी का सिर बाद में फोड़ा, साहित्यवाचस्पति महामहोपाध्याय रायबहादुर जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ कृत काव्यप्रभाकर के इस गदा-प्रहार ने उनकी कमर 1905 में ही तोड़ दी थीः
कितने लेखक तो ऐयारी के चक्कर में पड़कर पाठकों को भी ऐसे चक्कर में डाल देते हैं कि पन्ने पर पन्ने पलटते जाइये पर अय्यार की अय्यारी का खातमा ही न होगा। यदि पढ़ने वाला आशय न समझे तो लेखक की बला से! वे बिना परिस्तान में पहुँचे मध्य में ठहरना जानते ही नहीं। एक ज़ीना नीचे उतरा तो दो ज़ीने ऊपर बढ़ने की नौबत आ जाती है। एक कमरा पाने के लिए सैकड़ों किवाड़ खोलने पड़ते हैं। उधर शेर का मुँह दबाया कि दरवाज़ा खुल गया। तिलिस्मों की हद नहीं। फँूक मारी कि पुरूष से स्त्री। डुबकी लगाई कि बूढे़ से जवान आदि कहाँ तक कहें, ऐसी बेपर की उड़ातेेे हैं कि पढ़ने वाले के भी होश उड़ जाते हैं।
उपन्यास लेखकों! हम समझते हैं कि अब उपन्यास बहुत हो चुका है तथा उसकी विशेष आवश्यकता नहीं...प
अतः इस लेखक ने उपन्यास लिखने का विचार छोड़ कर कविता लिखने की सोची। किन्तु इस लक्ष्य-सिद्धी के मार्ग में उसके सामने उसका अर्ध-कचरा भाषा-ज्ञान और पूर्ण-कचरा कविता-ज्ञान एक बड़ी बाधा के रूप में खड़े थे। तभी उसे स्मरण आया कि भारतेन्दु पत्रिका के 1 अक्टूबर 1890 के अंक में अपने सम्पादकीय ‘भारतेन्दु का प्रेमालाप’ में पण्डित राधाचरण गोस्वामी ने लिखा था ः
भाषा कविता पर बड़ी विपत्ति आने वाली है, कुछ महाशय खड़ी हिन्दी की कविता का मुहम्मदी झण्डा लेकर खड़े हो गये हैं और कविता देवी का अकाल वध करना चाहते हैं जिससे जगत् में कवियों का नाम ही उड़ जाए और इन अबन्धितों को यह बन्धन भी न रहे... पप
अतः उसने प्रफुल्ल भाव से हिन्दी की कविता का मुहम्मदी झण्डा उठा लिया और यह गद्यकाव्य प्रस्तुत किया जिसका पर्यालोचन आप कर रहे हैं। उसकी अभिलाषा है कि आप उसे ‘कवि’ कहें और ‘हिन्दी साहित्य में कविता की वापसी’ कराने वालों में गिनें।
प्रिय पाठक, ‘भानु’ जी ने ‘कवि की निष्ठा और श्रद्धा’ परखने के लिए कसौटी बनायी है ः
1. कवि को किसी भी इष्ट देवता का अनन्य भक्त होने की आवश्यकता है।
2. कवि को मनसा-वाचा-कम्र्मणा राजभक्त रहना चाहिए। पपप
अतः इस कवियशः प्रार्थी ने निश्चय किया कि (1) चूँकि देवता अनेक हैं अतः वह सभी देवताओं का अनन्य भक्त हो जाएगा (2) चूँकि राजसत्ता हस्तान्तरणीय है अतः वह मनसा-वाचा-कम्र्मणा सभी भूतकालीन-वर्तमानकालीन- भविष्यकालीन राजसत्ताओं का अनन्य भक्त हो जाएगा।
आशा है आप उसे इस निष्कर्ष पर खरा पायेंगे।
5.2 खण्डपाना की गिलौरी
5.2.1
कलियुग की इकतीसवीं शताब्दी अर्थात् ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में एक समय की बात है।
उज्जयिनी में शबरस्वामी नामक एक आचार्य थे जिनकी प्रमुख ख्याति जैमिनि-कृत मीमांसा-सूत्रों पर भाष्य लिखने के नाते है जो ‘शाबरभाष्य’ के नाम से प्रसिद्ध है। शबरस्वामी के पूर्वज मूलतः कश्मीर के निवासी थे किन्तु उनके पिता दीप्तिस्वामी उज्जयिनी में आ बसे थे। शबरस्वामी का नाम शबर-स्वामी क्यों पड़ा इसका कारण ज्ञात ही है। जिस समय शबरस्वामी गर्भ में थे, उनकी माता को स्वप्न में शिव-पार्वती ने शबर-शबरी के रूप में दर्शन दिये कि वे पुत्र का नाम शबरस्वामी रखें।
शबरस्वामी की पत्नी का नाम देवस्मिता और पुत्र का नाम वराहमिहिर था। यह पुत्र बड़ा होकर भारत का अन्यतम ज्योतिर्विद् हुआ और अपने ज्योतिष के ग्रन्थों के नाते जाना जाता है।
कौशाम्बी के महाराज शूरसेन को न जाने क्यों अश्वमेध करने की सूझी। उन्होंने आचार्य शबरस्वामी को सादर आमन्त्रित किया और उनसे अपने यज्ञ का अध्वर्यु होने की प्रार्थना की। शबरस्वामी बड़ी कठिनाई से उन्हें यह समझा पाये कि कलयुग में अश्वमेध, राजसूय और वाजपेय समेत समस्त सोमयाग ही नहीं, प्रायः सारे स्त्रोत कर्म कलिवज्र्य की श्रेणी में आ चुके हैं। महाराज की समझ में यह बात आ गयी और उन्होंने अपना विचार बदल कर गंगा-यमुना के संगम पर अष्टादश-पुराण-श्रवण एवं नव-कोटि-चण्डी का महायोग आयोजित किया। इस सिलसिले में वहाँ सहस्रों वासन्त नवरात्र तक रूकना पड़ा। वैशाख में उन्होंने महाराज शूरसेन से विदा ली। चलते समय एक हज़ार ऊँटों पर लदी हुई दक्षिणा के साथ राजकुमारी अलंकारवती भी उनकी द्वितीय परिणीता के रूप में साथ थीं।
राजकुमारी अलंकारवती से आचार्य शबरस्वामी को दो बेटे हुए। बड़े का नाम भर्तृहरि था, भर्तृहरि बाद में अपने वाक्यपदीय के नाते और अपने तीन शतक-काव्यों, नीतिशतक, वैराग्यशतक तथा शृंगारशतक के नाते प्रसिद्ध हुए।
एक बार आश्विन शुक्ल-पक्ष की अष्टमी को गढ़कालिका के मन्दिर में महानिशापूजन करने के समय शबरस्वामी को एक शबर-शबरी का युग्म दिखायी दिया। इनके देखते-देखते वह जोड़ा अदृश्य हो गया और एक नवजात बालिका वहाँ वेदी पर पड़ी दिखी जो रोने की जगह शबरस्वामी को देखकर मुस्कुराती-सी लग रही थी। यह बालिका असन्दिग्ध रूप से शिव-पार्वती का प्रसाद थी और शबरस्वामी उसे उठा कर घर ले आये। बालिका का नाम उन्होंने ‘विद्योत्तमा’ रखा।
इस समय की उज्जयिनी चण्ड-प्रद्योत के समय की उज्जयिनी न थी। प्रताप और उत्कर्ष के वे दिन अब स्मृतिशेष थे। उज्जयिनी का राजसिंहासन खाली था और राजकाज मन्त्री चला रहे थे। विद्योत्तमा को शबरस्वामी जिस रात घर ले आये उसकी सुबह मंगल-हस्ती पअ घूमा और उसने महाकाल की प्रातः कालीन अर्चना से लौटते हुए शबरस्वामी को अपनी सूँड़ में लपेट कर अपनी पीठ पर बिठा लिया। मंगल-हस्ती के साथ चल रही कुमारी बालिकाओं ने उन पर अक्षत और फूल बरसाये। उज्जयिनी के राजप्रसाद के बाहर दुन्दुभियाँ बजने लगीं।
अगले दिन विजयादशमी को शबरस्वामी ‘महाराज महेन्द्रादित्य’ के नाम से उज्जयिनी के राजसिंहासन पर बैठे।
उज्जयिनी के राजसिंहासन पर बैठने के बाद शबरस्वामी ने दो विवाह किये। तीसरी पत्नी से भी आचार्य शबरस्वामी के दो बेटे हुए। बड़े का नाम भट्टार हरिचन्द्र था जो यों तो कवि के रूप में भी प्रसिद्ध हुए यद्यपि उनकी कविता का कोई नमूना हमारे पास नहीं है, किन्तु जिनकी ख्याति का मुख्य कारण यह है कि वे भारतीय इतिहास के शीर्षस्थ वैद्यों में से थे और उनकी तुलना रामायण-कालीन सुषेण वैद्य या बुद्ध-कालीन जीवक वैद्य से ही की जा सकती है। उनमें कुछ और भी खूबियाँ थीं अ जिनमें से कुछ का बयान हमें आगे करना होगा। छोटे बेटे शंकु का नाम भी यथास्थान आयेगा ही।
चैथी पत्नी के पुत्र अमरसिंह थे, जिनका अमरकोष संस्कृत का सबसे प्रसिद्ध शब्दाकोष है।
राजकाज में फँसे रहने के नाते शबरस्वामी मीमांसा-सूत्रों पर अपना भाष्य केवल बारह अध्यायों तक ही लिख पाये और शेष चार अध्यायों की व्याख्या लिख पाने के पूर्व ही उनकी मृत्यु हो गयी। उनके बाद भर्तृहरि उज्जयिनी के राजा हुए क्योंकि उनकी माँ अलंकारवती का जन्म वत्सराज उदयन के वंश में हुआ था और इस प्रकार उनमें और उनके छोटे भाई विक्रमशील में चण्ड-प्रद्योत की दुहिता वासवदत्ता का रक्त प्रवाहित हो रहा था जिसके वत्सराज उदयन के साथ भाग कर विवाह करने की कथाएँ आज भी उज्जयिनी के ग्रामवृद्ध सुनाया करते थे। राजा भर्तृहरि की प्रसिद्धि का प्रमुख कारण उनकी पत्नी की बेवफ़ाई है, जिसका पूरा विवरण नीचे दिया जा रहा है।
महाराज भर्तृहरि को एक साधु ने एक फल दिया जिसे वे यदि खा लेते तो अमर हो जाते। वे अपनी रानी पर आसक्त थे अतः वह फल उन्होंने रानी को दे दिया। रानी अपने एक नौकर पर आसक्त थी अतः वह फल उन्होंने उस नौकर को दे दिया। वह नौकर एक वेश्या पर आसक्त था अतः वह फल उसने उस वेश्या को दे दिया। वेश्या किसी पर आसक्त न थी किन्तु अपने जीवन से विरक्त थी। उसने सोचा, इस जि़ल्लत की जिन्दगी को बढ़ाना क्या, यह राजा प्रतापी और धर्मात्मा है, यह अमर होगा तो सबका कल्याण होगा, अतः वह फल उस वेश्या ने राजा भर्तृहरि को दे दिया। राजा भर्तृहरि यह देख कर और पता लगने पर पूरी कहानी जान कर विरक्त हो योगी हो गये जिनके गीत ‘भरथरी’ के नाम से आज भी गाये जाते हैं।
राजा भर्तृहरि जब योगी भरथरी हो गये तो उनके सगे छोटे भाई विक्रमशील को उज्जयिनी का राज्य मिला। उन्होंने ‘विक्रमादित्य’ का विरुद धारण किया।
महाराज विक्रमादित्य के दरबार में रत्नों के साथ-साथ नवरत्नों की भी प्रतिष्ठा थी। आचार्य वराहमिहिर ने जीविका के लिए किसी अन्य राजा का द्वार देखने की अपेक्षा अपने छोटे भाई महाराज विक्रमादित्य का दरबारी होना स्वीकार किया। यों भी उज्जयिनी का स्वरूप अन्र्तराष्ट्रीय था और संसार भर से व्यापारी, योद्धा, वेश्याएँ और विद्वान बराबर आते रहते थे। यवनों, शकों, ताजिकों, पारसीकों के ज्योतिष का आचार्य वरामिहिर बहुत सम्मान करते थे और नवीन ज्ञान की प्राप्ति के इस केन्द्र को छोड़ कर वे क्यों कहीं जाते?
कालान्तर में अमरसिंह, भट्टार हरिचन्द्र, शंकु सबने महाराज विक्रमादित्य के दरबार की शोभा बढ़ायी। आखि़र उनके समय में उज्जयिनी ने पाटलिपुत्र और वाराणसी को भी विद्या-केन्द्र के रूप में पीछे छोड़ दिया था। अप
5.2.2
महाराज विक्रमादित्य के राजदरबार में यो तो चितारियों का पूरा जमावड़ा था लेकिन इनमें पाँच प्रमुख थेः मूलदेव, कण्डीरक, एलाषाढ़, शश और कन्दिल। इनमें मूलदेव सबसे अच्छा चितारी माना जाता था और भारतवर्ष के अन्य चितारी उसे अपने गुरू की तरह मानते थे। इनके अतिरिक्त खण्डपाना नामक चितारी थी जिसका न कोई तोड़ था न कोई जोड़।
खण्डपाना चितारी मूलतः उज्जयिनी की रहने वाली न थी। उसके उज्जयिनी-प्रवेश की कथा इस प्रकार है।
एक समय की बात है, उज्जयिनी के बाहर एक उद्यान में ये पाँचो चितारी अपने सैकड़ों शिष्यों के साथ एकत्र थे। वे सब सौमंगलेय नामक एक बारह बरस के लड़के से द्यूतशाला में सर्वस्व हार चुके थे और किसी के पास रात के भोजन की व्यवस्था न थी। जाडे़ के दिन थे और ठण्ड ने भूख के साथ मिल कर समस्या को कठिनतर बना दिया था क्योंकि सबके कपड़े भी इस जुए में दाँव पर चढ़ चुके थे।
तभी उद्यान में एक अप्रितम सुन्दरी आती दिखी। निकट आने पर उसने बताया कि वह न तो स्वर्ग से उतरी कोई अप्सरा है न ही पाताल से निकली नागकन्या, किन्तु उसे इस धरती की भी कहना उचित न था क्योंकि वह तीन लोक से न्यारी काशी से आ रही थी। उसके साथ पाँच सौ अनुचारियों का एक समूह था। बेशक़ीमती गहनों से लदी हुई सुन्दरियों के इस झुण्ड ने इन चितारियों का ध्यान आकृष्ट किया और सबने उसे आसान शिकार समझ कर पर्याप्त धन ऐंठने की सोची।
मूलदेव ने प्रस्ताव किया कि सब मिलकर गप्पें हाँकें और जो उन गप्पों को सम्भव मानने से इन्कार करे, वह सबके भोजन की व्यवस्था करे। सबसे पहले मूलदेव ने बताया कि वह एक बार एक कमण्डलु हाथ में लिये जा रहा था कि एक हाथी ने उसका पीछा किया जिससे डर कर वह कमण्डलु में घुस गया। उसके पीछे हाथी भी उसी कमण्डलु में घुस गया और फिर छह महीने तक दोनों उसमें घूमते रहे। इस पर शश ने कहा कि यह क्यों नहीं सम्भव है जब महाभारत के अनुसार एक बाँस की नली से सौ कीचकों की उत्पत्ति कही जाती है।अपप
इस प्रकार सभी ने कुछ गप्प हाँकी जिसके प्रमाण में कोई न कोई पुराणकथा सुना कर अन्य चितारियों ने उस गप्प को सम्भव बताया। अन्त में खण्डपाना ने बताया कि वह वाराणसी के राजमहल में कपड़े धोती है और एक बार आँधी में उसके कई नौकर कपड़ो के साथ उड़ गये। तब से राजाज्ञा के अनुसार वह उनकी खोज कर रही है। आज उसने देखा कि उसके पाँच नौकर तो इसी उद्यान में मौजूद हैं और अब वह उन्हें पकड़ कर वाराणसी ले जायेगी।
सभी चितारियों ने बाध्य हो कर स्वीकार किया कि यह तो बिलकुल ही असम्भव बात है। लेकिन चूँकि किसी के पास सबको भोजन कराने के लिए पैसे न थे, सबने खण्डपाना से ही अनुरोध किया कि वह उन्हें भोजन कराये।
खण्डपाना ने स्वीकार किया और कुछ क्षण विचारमग्न रही। तभी एक शवयात्रा पास के श्मशान की ओर जाती दिखी जिसमें चलने वाले कई लोग बहुत धनाढ्य दिख रहे थे। मूलदेव एवं अन्य चितारियों से मालूम हुआ कि एक बड़े सेठ की मुत्यु हो गयी है और उज्जयिनी का पूरा श्रेष्ठि-समाज ही इस शवयात्रा में चल रहा है। शवयात्रा में सेठ के नवयुवक पुत्र के इर्द-गिर्द जुटे लोगों को देख-परख कर खण्डपाना ने ताड़ लिया कि ये सब वेशवाट3 में मँडराने वाले लफंगे हैं। खण्डपाना ने एक अनुचरी को भेजा जिसने लौट कर खण्डपाना को बताया कि ये सब उस नवयुवक को श्मशान से लौटते ही कांचनमाला नामी वेश्या के यहाँ ले जायेंगे जिसके यहाँ पिता के भय से वह नवयुवक अभी तक नहीं जा पाया था।
खण्डपाना तेज़ी से श्मशान की ओर निकल गयी। कौतूहलवश मूलदेव ने एक चेले को उसके पीछे भेजा जिसने लौटकर यह बताया कि खण्डपाना ने क्या किया।
3. वेशवाट = वेश्याओं का मुहल्ला।
खण्डपाना श्मशान पहुँची और सेठ की शवयात्रा निकट आते ही उस नवयुवक के पास जाकर बोली, ‘‘मैं कांचनमाला की बेटी हूँ’’ यद्यपि वह वाक्य धीरे से कहा गया था किन्तु यह इतने धीरे से भी न था कि आस-पास के दस-पाँच लोग इसे सुन न सकें। नवयुवक के साथी लफंगों में से एक ने तुरन्त ओठों पर उँगली रखते हुए खण्डपाना को चुप रहने का इशारा किया और उसे एक तरफ ले गया। कुछ देर उसमें और खण्डपाना में कानाफूसी हुई फिर वह सेठ के पुत्र के पास आया और उसके कान में कुछ फुसफुसाया। नवयुवक ने अपने गले से मोती की माला उतार कर दे दी। लफंगा खण्डपाना के पास लौटा और उसे वह माला थमा दी।
खण्डपाना जब उद्यान में वापस पहुँची तो उसके हाथ में सभी चितारियों के कई दिनों तक का भोजन का इंतजाम था। सब चितारियों ने मुक्तकण्ठ से खण्डपाना को सर्वश्रेष्ठ चितारी स्वीकार किया। उन सब की सिफ़ारिश से महाराज विक्रमादित्य तक खबर पहुँची और उन्होंने तत्काल खण्डपाना को अपनी सेवा में आने का आमन्त्रण दिया जिसे खण्डपाना ने स्वीकार कर लिया।
5.2.3
खण्डपाना का नाम खण्डपाना क्यों था इस विषय में बहुत जानकारी नहीं है। उसका खुद का कहना यह था कि चूँकि उसके हाथ का पान खण्ड-शर्करा4 से भी घुलनशील, खण्ड-लवण से भी पाचक और खण्डाभ्र से भी उत्तेज़क होता था इसलिए उसे खण्डपाना कहा जाने लगा। अनेक विद्वानों का अनुमान है कि जैसे गुलाबजल का आविष्कार नूरजहाँ ने ही किया था उसी प्रकार गिलौरी का आविष्कार खण्डपाना ने ही किया था। जो भी हो, यह सच है कि राजकुमारी विद्योत्तमा ने जब बाल्य पार किया और कैशोर में कदम रखा तो खण्डपाना चितारी उनकी ताम्बूलकरंकवाहिनी5 नियुक्त हुई।
यह भी सच है कि खण्डपाना की गिलौरियाँ उज्जयिनी में प्रसिद्ध थीं और यह भी सच है कि खण्डपाना राजकुमारी विद्योत्तमा की ताम्बूलकरंकवाहिनी थी और यह भी सच है कि ये गिलौरियाँ राजकुमारी विद्योत्तमा के मुँह में तो हरदम भरी रहती थीं किन्तु किसी और को ये राजकुमारी विद्योत्तमा की अनुमति से ही मिल पाती थीं। महाराज विक्रमादित्य जब कुमार विक्रमशील थे तो अपनी छोटी बहन विद्योत्तमा को ‘श्यामा’ कह कर चिढ़ाया करते थे हालाँकि उसका रंग खरे सोने की तरह चम्पर्ई था। वे कभी-कभी कहते, ‘श्यामा, खण्डपाना को मेरी ताम्बूलकरंकवाहिनी बना दो।’ कुमार विक्रमशील जब भी विद्योत्तमा को ‘श्यामा’ कहते, वह पलट कर उन्हें ‘बेताल’ कहती हालाँकि कुमार विक्रमशील जैसा सुदर्शन पुरुष कहीं देखने में न आता था। वह जवाब में महाराज विक्रमादित्य से कहती, ‘क्यों, क्या मुझे चन्द्रापीड और पत्रलेखा की कहानी नहीं मालूम? एकाध गिलौरी खानी हो तो मैं दिलवा देती हूँ लेकिन इस भरोसे में मत रहना कि खण्डपाना पोटारत के लिए सुलभ है। समझे बैताल!’ अपपप
राजकुमारी विद्योत्तमा ने जब बाल्य पार किया और कैशोर में कदम रखा तो चतुःसमुद्रान्त पृथिवी में धूम मच गयी। पुष्करद्वीप, शाकद्वीप, क्रौंचदीप, कुशदीप, शाल्मलद्वीप, लक्षद्वीप, जम्बूदीप से राजकुल पर राजकुल विवाह के सन्देश भेजने लगे।
महाराज विक्रमादित्य बोले, ‘श्यामा, मेरा तो नाक में दम हो गया। सुन, ऐसा करते हैं, एक स्वयंवर करवा देते हैं। सब लड़-भिड़कर तय कर लेंगे कि कौन तेरा हाथ थामेगा।’
पर विद्योत्तमा ने कहा, ‘धिग्बलं क्षत्रियबलं, ब्रह्मतेजोबलं बलम्; सुन रे बैताल, मैं तो किसी विद्वान से विवाह करूँगी।’
चतुःसमुद्रान्त पृथिवी में खलबली मच गयी। एक-एक राजा के दरबार में सौ-सौ विद्वान् थे। दरबारों से विद्वान लम्बी छुट्टी पर उज्जयिनी जाने लगे। सप्तद्वीप में राजदरबार विद्वानों से खाली होने लगे।
एक-एक राजा के आश्रय में सौ-सौ आश्रम थे। कितने छात्र बिना समावर्तन6 के ही आश्रम छोड़ कर जाने लगे। कितने गुरू विद्यागौरव से झुकी कमर लिए उज्जयिनी में पहुँचने लगे। सप्तद्वीप में आश्रम छात्रों और गुरूओं से खाली होने लगे। पर विद्योत्तमा ने कहा, ‘मैं तो उसी विद्वान् से विवाह करूँगी जो मुझे शास्त्रार्थ में जीत ले।’
4. खण्ड-शर्करा = मिसरी, खण्ड-लवण = काला नमक, खण्डाभ्र = कामकेलि में दन्तक्षतों की पंक्ति।
5. ताम्बूलकरंकवाहिनी = पनडब्बा रखने वाली सेविका जिसके जिम्मे पान लगा कर देना होता है।
विद्वान् आते और शास्त्रार्थ में विद्योत्तमा से पराजित हो जाते।
विद्योत्तमा ने कैशोर पार किया और यौवन में कदम रखा। महाराज विक्रमादित्य की चिन्ता बढ़ने लगी। चिन्ता महामति गुणनिधि की भी बढ़ने लगी जो पाटलिपुत्र, तक्षशिला, काशी, कांची, कश्मीर के विद्याकेन्द्रों में अपनी विद्वता का डंका बजा आये थे किन्तु अपने शहर उज्जयिनी में ही विद्योत्तमा से नीचा देख चुके थे। महामति गुणनिधि ने निश्चय किया कि इस विद्योत्तमा को किसी महामूर्ख के गले न मढ़ा तो नाम बदल देंगे। उन्होंने महामूर्ख की खोज शुरू की।
यद्यपि यह उनके मन का गुप्त विचार था, खण्डपाना चितारी को पता लग ही गया। उसने विद्योत्तमा से कहा, ‘राजकुमारी, यह बुड्ढ़ा गुणनिधि तो बड़ा बद-मआश लग रहा है। मैंने सुुुुना है कि अब वह किसी महामूर्ख की खोज में है जिससे वह तुम्हारा विवाह करा दे।’
विद्योत्तमा ने कहा, ‘तुझे कैसे पता लगा खण्डपाना?’
खण्डपाना बोली, ‘मेरी चेलिन माधवसेना के यहाँ यह छिप कर रात को वेशवाट में जाता है। उसी से डींग हाँक रहा था।’
विद्योत्तमा ने कहा, ‘फिर बता क्या करूँ?’
खण्डपाना बोली, ‘राजकुमारी, वैसे पति तो महामूर्ख ही अच्छा होता है। मेरी मानो तो किसी महामूर्ख ही से विवाह करो।’
विद्योत्तमा ने कहा, ‘फिर तू ही खोज न कोई महामूर्ख। मैं तो इन विद्वानों से ऊब गयी। सब ‘अजर्घाः’, ‘वर्वरी’, ‘अचीकमत’7 रट कर आ जाते हैं और समझते हैं कि मैं उनसे विवाह कर लूँगी।’
खण्डपाना बोली, ‘एक अच्छा-सा खोजा तो है मैंने। चल कर देख लो, अगर तुम्हें भी पसन्द हो तो उसी को पल्लू में बाँध लेना। यह मैं उसकी तस्वीर बना लायी हूँ। इस युवक का नाम मेधारुद्र8 है।’
विद्योत्तमा ने हाथ बढ़ाकर तस्वीर ले ली। तस्वीर देखते ही उसकी वही दशा हुई जो स्वप्न में अनिरूद्ध को देखकर जागने के बाद उषा की हुई थी, अर्थात् वह मूच्र्छित हो गयी, फिर उठी और इधर-उधर देखती हुई ‘हाय’ कह कर मूच्र्छित हो गयी।
खण्डपाना ने अपने बटुए से लखलखा निकाल कर विद्योत्तमा को सुँघाया, उसके मुँह पर पानी के छींटे दिये और धीरे-धीरे विद्योत्तमा को होश आ गया। उठ कर विद्योत्तमा ने खण्डपाना से कहा, ‘सखी, बड़ा ताप चढ़ रहा है।’
खण्डपाना ने कहा, ‘ताप नहीं, तेरा सर। यह ताप तो अब तभी शान्त होगा जब यह तस्वीर वाला नौजवान तुझे अपनी बाँहों में खींच लें।’
विद्योत्तमा ने शर्म से सिर नीचा न किया। सिफऱ् एक आह भरी और बोली, ‘सखी, ....।’ फिर आगे आवाज़ न निकली और विद्योत्तमा गुमसुम बैठी शून्य में ताकती रह गयी।
खण्डपाना ने कहा, ‘राजकुमारी, तूने तो अच्छी मुसीबत पाल ली। डेढ़ दफ़ा लम्बी साँस लेगी, तीन दफ़ा हाय करेगी, तब एक शब्द मुँह से निकालेगी। अब इस समय तेरे शिशिरोपचार की मैं क्या व्यवस्था करूँ? यह एक जड़ी मेरे पास है, इसे घिस कर तुझे पिलाती हूँ, इससे चैबीस घण्टे तो अपनी देह पर काबू रख पायेगी ही। धीरज रख और मेरे साथ आज रात गढ़कालिका के मन्दिर में चल।’
जड़ी घिस कर विद्योत्तमा को पिलाने के बाद खण्डपाना चितारी ने राजकुमारी विद्योत्तमा से जो कहा वह इतनी नीची आवाज़ में था कि बीच-बीच में आती हुई खण्डपाना की खिलखिलाहट के अलावा इस लेखक को कुछ सुनायी न दिया। बीच-बीच में विद्योत्तमा भी मुस्कुराती हुई दिखायी दी और अन्त में उसने सहमति में सिर हिलाया। किन्तु इस लेखक को विश्वास है कि आगे का घटना-क्रम इस कानाफ़ूसी, खिलखिलाहट और मुस्कुराहट के रहस्य को प्रकट करने में सहायक सिद्ध होगा।
6. समावर्तन=विद्याध्ययन पूरा होने के बाद का संस्कार, जो ब्रह्मचर्याश्रम की समाप्ति बताता है और जिसके बाद गार्हस्थ्य में प्रवेश की अनुमति है।
5.2.4
महाराज विक्रमादित्य की दिनचर्या व्यस्त थी। प्रथम यामार्ध9 में वे पिछली रात में किये गये रक्षा-विधान और पिछले दिन-रात के आय-व्यय का जायजा लेते थे। द्वितीय यामार्ध में शहर और गाँव के लोगों का कामकाज देखते, तीसरे में स्नान और भोजन करते, यही समय कुछ पढ़ने-लिखने का भी था। चैथे यामार्ध में कल की वसूली को खज़ाने में जमा करवाते और कर्मचारियों को नये काम सौंपते। पाँचवे यामार्ध में मन्त्रियों को चिट्ठी लिख कर उनके काम समझाते और गुप्तचरों को सौंपे जाने वाले कामों पर विचार करते। छठे यामार्ध में कभी आराम करते, कभी मनोविनोद, कभी मन्त्रणा। सातवें यामार्ध में फौज का मुआयना करते, आठवें यामार्ध में सेनापति के साथ बैठ कर मन्त्रणा। इतने में दिन बीत जाता और संध्या-वन्दन का समय हो जाता।
रात के प्रथम यामार्ध में गुप्तचरों को बुलवाते, उनसे सूचनाएँ लेते और उन्हें नये काम सौंपते। द्वितीय यामार्ध में स्नान और भोजन करते, यही समय कुछ पढ़ने-लिखने का भी था। तीसरे यामार्ध के प्रारम्भ में एक तुरही बजती और सबको मालूम हो जाता कि महाराज अब गाना-बजाना सुनते हुए नींद की गोद में चले जायेगें और पूरे दो यामार्ध सोयेंगे। छठे यामार्ध के प्रारम्भ में फिर एक तुरही बजती और महाराज उठकर सोचने लगते कि शास्त्र क्या कहता है और करना क्या है। सातवें यामार्ध में मन्त्रणा होती और गुप्तचरों को रवाना किया जाता। आठवाँ यामार्ध प्रारम्भ होते ही ऋत्विक्, आचार्य, पुरोहित आ धमकते और महाराज की स्वस्तिकामना करते, चिकित्सकों, रसोई के अधिकारियों, ज्योतिषियों से बातचीत होती और फिर दिन निकलते-निकलते एक गाय की, जिसके साथ उसका बछड़ा और उसका साँड़ भी होता, परिक्रमा कर के महाराज अपने आस्थान10 में पहुँच जाते। पग
किन्तु इस दिनचर्या के अपवाद महाराज की अस्वस्थता के अतिरिक्त और भी थे। चितारियों के कहीं भी किसी भी समय महाराज के समीप पहुँचने पर रोक न थी। सो एक दिन छठे यामार्ध में, जब महाराज आराम कर रहे थे, मूलदेव चितारी उनके पास पहुँचा। महाराज ने जँभाई लेते हुए कहा, ‘क्या है मूलदेव? अच्छी खबर लाये हो या बुरी?’
मूलदेव ने कहा, ‘महाराज, खबर अच्छी भी है और बुरी भी। अच्छी यों कि राजकुमारी विद्योत्तमा ने अन्ततः एक युवक को पसन्द कर लिया है और उससे विवाह करेंगी। बुरी यों कि वह युवक महामूर्ख है।’
महाराज ने पूछा, ‘कैसे मालूम हुआ, क्या खण्डपाना ने बताया?’
मूलदेव ने कहा, ‘नहीं महाराज, खण्डपाना राजकुमारी विद्योत्तमा की चितारी है, वह भला राजकुमारी की बातें किसी दूसरे को क्यों बताने लगी। कैसे मालूम हुआ, यह महाराज न पूछते तो अच्छा था, लेकिन जब पूछ रहे हैं तो मैं बता देता हूँ। मेरा वेशवाट में आना-जाना तो महाराज से छिपा नही है।’
महाराज मुस्कुराये। उन्हें स्वयं जब कभी वेशवाट में जाना होता, गुप्तवेश में जाते थे और साथ में मूलदेव ही रहता था। मूलदेव ने आगे कहा, ‘तो वहाँ खण्डपाना की चेलिन माधवसेना है। उससे खण्डपाना को पता लगा कि महामति गुणनिधि इस फेर में है कि राजकुमारी विद्योत्तमा का विवाह किसी महामूर्ख से करा दें। खण्डपाना ने यह बात राजकुमारी विद्योत्तमा को बतायी। राजकुमारी विद्योत्तमा ने फिर खण्डपाना से कहा कि वे शास्त्रार्थ में पण्डि़तों को पराजित करते-करते ऊब चुकी हैं और अब उनका मन इस खेल में नहीं लगता। खण्डपाना ही उनके योग्य कोई सुदर्शन युवा उनके लिए ढूँढ़ दे तो वे अब विवाह करने के लिए तैयार हैं। राजकुमारी ने खण्डपाना से ये बातें अपनी हमराज सखी के नाते कही थीं, लिहाजा उन्होंने अपने मन और तन की हालत के बारे में भी बहुत कुछ कहा जिसका जि़क्र मैं ग़ैरज़रूरी समझ कर छोड़ता हूँ।
तो मुख़्तसर कि़स्सा यह है कि खण्डपाना एक नौजवान की तस्वीर बना कर ले आयी जिसको देखते ही राजकुमारी को उस नौजवान से इश्क हो गया और वे उससे मिलने के लिए तड़पने लगीं। सो आज रात उस नौजवान से मिलवाने खण्डपाना राजकुमारी को गढ़कालिका के मन्दिर में ले जायेगी। ये सब बातें मुझे माधवसेना की चेटी परभृतिका से मालूम हुई जो मेरी चेलिन है।’
महाराज ने पूछा, ‘यहाँ तक तो सब ठीक ही लग रहा है। तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि वह युवक महामूर्ख है?’
मूलदेव ने कहा, ‘महाराज, वह गढ़कालिका के मन्दिर में सात दिन से देवी-मूर्ति के सामने ध्यान लगाये निश्चल बैठा है और एक ही रट लगाये है, ‘देवी, मुझे विद्या दो।’ भला इस तरह कभी विद्या प्राप्त हो सकती है, विना गुरू के, विना अध्ययन किये, विना अभ्यास किये?’
महाराज ने इस पर कुछ न कहा। थोड़ी देर बाद बोले, ‘देखने-सुनने में कैसा है?’
मूलदेव ने कहा, ‘महाराज, इस बारे में तो मैं यही कह सकता हूँ कि स्वयं महाराज के अतिरिक्त मुझे वैसा सुदर्शन व्यक्ति आज तक दिखायी नहीं दिया। हाँ, रंग थोडा साँवला ज़रूर है।’
महाराज मुस्कुराकर बोले, ‘यह तो बुरा नहीं। श्यामा के लिए श्याम ही ठीक है। भला इस युवक का नाम, कुल-गोत्र आदि कुछ पता है?’
7. पुराना श्लोक है, अजर्घाः यो न जानाति, यो न जानाति वर्वरीः, नाचीकमत जानाति, तस्मै कन्या न दीयते, अर्थात जो ‘अजर्घाः’, ‘वर्वरी’, और ‘अचीकमत’, इन शब्दों को व्याकरण से सिद्ध न कर सके, उससे कन्या का विवाह नहीं करना चाहिए (क्योंकि उसका व्याकरण-ज्ञान अधूरा है)।
8. शब्दकोषों के अनुसार कालिदास का नाम मेधारुद्र है।
मूलदेव ने कहा, ‘महाराज, गढ़कालिका के पुजारी जी से पता लगा कि इस युवक ने आने पर यह कहा था कि उसका नाम मेधारुद्र है और वह एक दरिद्र परिवार से है। उसका गाँव कोसल-क्षेत्र में मनोरमा नदी के किनारे कहीं पड़ता है। उसके पिता सोमदत्त बड़े विद्वान थे। उनके घर में तीन जठराग्नियाँ सदा ही प्रज्जलित रहती थीं, स्वयं उनकी, उनकी पत्नी की और उनके पुत्र मेधारुद्र की। अग्निहोत्र की अग्नि के साथ ऊपर सूर्य की अग्नि को मिला कर उनका मानना था कि वे पंचाग्निसेवी तपस्वी ही थे। चूँकि चूल्हे में आग हमेशा न जल पाती थी, उसकी गिनती न होती थी।
मेधारुद्र का यज्ञोपवीत कुलपरम्परा के अनुसार पाँचवे वर्ष में करने के बाद सोमदत्त ने उसे वेदाभ्यास कराना प्रारम्भ किया। मेधारुद्र नवें वर्ष में जब पहुँचा तो उसके माता-पिता का देहान्त हो गया। जीवन-यापन के लिए वह ग्रामणी11 की भैंसे चराने लगा और इसलिए उसे मेधारुद्र माहिषिक12 के नाम से भी जाना जाता था। वह ग्यारहवें वर्ष में पहुँचा तो एक दिन ग्रामणी की पत्नी ने उससे सैरिभासन13 के बारे में जिज्ञासा प्रकट की। प्रथम प्रयोग से इस जिज्ञासा का जो समाधान मेधारुद्र ने किया उससे सन्तोष जताते हुए मुदा-मीलित-नयना ग्रामणी-पत्नी ने द्वितीय प्रयोग हेतु उससे अनुरोध किया। अनुरोध का अनुपालन करते हुए सैरिभासन-पूर्वरंग-विधान के अन्र्तगत मेधारुद्र ने मदनागाराघ्राणोत्तर-निजमुखोन्नमन किया तो सामने प्रेक्षक के रूप में ग्रामणी को पाया। परिणामतः मेधारुद्र कटि-काछनी सँभालता भागा और ग्रामणी ने कमरिया का त्याग तथा लकुट का संग्रह करते हुए उसे खदेड़ा। दौड़ने में बेहद तेज़ मेधारुद्र दूर निकल गया और फिर गाँव लौटने की अपेक्षा उसने वाराणसी आकर ही दम लिया।
वाराणसी में रह कर उसने बहुत दिनों में छूटा हुआ अध्ययन पुनः प्रारम्भ किया और कुछ दिन सत्रों में खा कर तथा मठों में रात बिताकर अपना गुज़ारा किया। बाद में अनंगसेना वेश्या इस पर रीझ गयी और इसे खाने-पीने-रहने की चिन्ता न रही। समय पा कर मेधारुद्र ने वेद-वेदांग समेत षड्-दर्शन तथा व्याकरण में निपुणता प्राप्त की और अनंगसेना के सानिध्य में नाट्यशास्त्र का अध्ययन किया।
किन्तु अनंगसेना की छोटी बहिन रतिसेना अभी उपश्यामिका14 ही थी कि मेधारुद्र के साथ एक दिन पकड़ी गयी। परिणामतः अनंगसेना ने इसे अपने यहाँ से निकाल दिया। अनंगसेना का काशी में क्या प्रभाव है, महाराज अच्छी तरह जानते हैं। मेधारुद्र पर अनंगसेना के कोप की चर्चा वेशवाट में ही नहीं, काशी के श्रेष्ठि-समाज, साधु-समाज और पण्डित-समाज में भी फैल गयी। अब मेधारुद्र को सत्रों में भोजन और मठों में रात्रिवास के अवसर भी न रहे तथा जुआड़ी और पियक्कड़ भी इससे कतराने लगे। अब इसके पास अन्नप्राप्ति का एक ही रास्ता बचा रह गया। ये बरसात के दिन थे और पूरब में कुछ जगह यह प्रथा है कि बरसात के दिनों में गुड़ मिले आटे से जनांगो की आकृति बना कर किसी महामूर्ख ब्राह्मण को स्त्रियाँ दान में देती हैं। ग यह उस से अपना गुज़ारा करने लगा और इसकी प्रसिद्धि काशी में ‘महामूर्ख’ के रूप में हुई।
वाराणसी से कुछ ही दूरी पर सारनाथ में बौद्धों का बड़ा भारी अड्डा है। यह एक दिन घूमते-घूमते सारनाथ पहुँच गया। वहाँ बातों ही बातों में आचार्य दिग्नांग नामक एक बौद्ध विद्वान् से यह उलझ गया और उन्होंने इसे शास्त्रार्थ की चुनौती दे डाली। आचार्य दिग्नांग के चेलों की भीड़ इकट्ठा हो गयी। आचार्य दिग्नांग ने हाथ चमका चमका कर समाँ बाँधना शुरू किया और उनके चेलों ने तालियाँ पीटकर इसको ‘हार गया, हार गया’ करते हुए खदेड़ दिया। इसने वहीं कसम खायी कि उस रास्ते से ही नहीं गुज़रेगा जिस रास्ते आचार्य दिग्नांग से सामना हो जाय। लाचार, इसे काशी से ही नहीं, काशी के आस-पास से भी विदा लेनी पड़ी।
वाराणसी से चलते समय यह माँ अन्नपूर्णा के दर्शन करने गया। माँ ने इसे आदेश दिया कि यह सभी बावन सिद्धपीठों में उनका दर्शन करने के बाद उज्जयिनी पहुँच कर गढ़कालिका के मन्दिर में प्रतीक्षा करेः वे उसे यहाँ अभीष्ट वर देंगीं। इस बीच मैंने पता लगाया है कि मेधारुद्र के वाराणसी छोड़ने के बाद अनंगसेना का मन संसार से विरक्त हो गया और उसने आचार्य दिग्नांग से दीक्षित हो कर प्रव्रज्या ले ली। रतिसेना ने भी वाराणसी छोड़ दी और कोई नहीं जानता कि वह कहाँ गयी। इन बातों को चार बरस हो चुके हैं और इस समय इस युवक की अवस्था इक्कीस बरस की है। यह युवक कहता है कि उसके पूर्वज याज्ञवल्क्य को स्वयं भगवान् भास्कर ने वेदापदेश किया था और उनका कोई मानव गुरू न था। इसने संकल्प किया है कि ठीक वैसे ही यह मानव गुरू के भरोस न रहेगा और जब माँ इसे वर देंगी तो यह उनसे कवित्वशक्ति का वरदान माँगेगा।’
थोड़ी देर विचारमग्न रहने के बाद महाराज फिर बोले, ‘ठीक है मूलदेव, तुम जाओ और रात को गढ़कालिका के मन्दिर में मौजूद रहना। अभी जाते हुए ज्योतिषी जी को भेजना।’
मूलदेव गये और आचार्य वराहमिहिर आये। महाराज ने प्रणाम कर के पूछा, ‘गढ़कालिका के मन्दिर में देवी-मूर्ति के सामने ध्यान लगाये मेधारुद्र नामक एक युवक बैठा है। क्या उसका विवाह श्यामा के साथ करना उचित होगा?’
9. एक ‘यामार्ध‘, जिसे ‘मुहूर्त’ भी कहते हैं, डेढ़ घण्टे का होता है और इस प्रकार एक ‘याम’, जिसे ‘प्रहर’ भी कहते हैं, तीन घण्टे का। दिन के चैबीस घण्टों में इस प्रकार आठ याम होते हैं। ‘आठों याम’ का मुहावरा इसी कारण प्रचलन में था और मध्यकाल में अनेक ग्रन्थ ‘अष्टयाम’ शीर्षक से लिखे गये हैं जो भगवान के किसी विग्रह की आराधना हेतु दिनचर्या बताते थे, अर्थात इतने बजे से इतने बजे तक भगवान का भोजन का समय है और इतने बजे से इतने बजे तक शयन का इत्यादि।
आचार्य वराहमिहिर विद्योत्तमा को कभी चिढ़ाते न थे और बचपन में विक्रमशील के कान अनेक बार इस बात पर उमेठ चुके थे कि वह विद्योत्तमा को ‘श्यामा’ कह कर चिढ़ाता था। वे स्वयं विद्योत्तमा को स्नेह और सम्मान से ‘मेधा’ कह कर बुलाते थे क्योंकि वह सरस्वती की अवतार-स्वरूपा ही थी और उम्र में उनसे बहुत छोटी होने पर भी अनेक अवसरों पर गूढ़ शास्त्रीय गुत्थियों को सुलझाने में उनकी सहायता करने में समर्थ थी। किन्तु यह अवसर दो भाईयों के बीच विद्योत्तमा के प्रति स्नेह-प्रदर्शन हेतु उपयुक्त सम्बोधन पर विवाद का न था। उन्होंने उँगलियों पर कुछ देर गणना की, फिर बोले, ‘महाराज, मेधा का विवाह तो मेधारुद्र से ही होगा किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि बीच में वियोग की एक लम्बी अवधि आयेगी, जिसमें मेधारुद्र को प्राणभय भी है। यदि उस मारकयोग से इसकी निष्कृति हो गयी तो इसके जैसा यशस्वी कवि भारतवर्ष में दूसरा नहीं हैः जब कवियों की गिनती की जायेगी तो कनिष्ठिका पर इसका नाम आयेगा और चूँकि मेधारुद्र के बराबर का कवि कोई दूसरा हो ही नहीं पायेगा इसलिए अनामिका उँगली का ‘अनामिका’ नाम सर्वदा सार्थक ही रहेगा।’ महाराज ने कुछ उद्विग्न स्वर में पूछा, ‘तो क्या करूँ, श्यामा का विवाह इसके साथ करूँ या न करूँ?’
आचार्य वराहमिहिर बोले, ‘महाराज, मैंने कहा न, मेधा का विवाह तो मेधारुद्र से ही होगा। इसमें आप के करने या न करने का कुछ नहीं है। बल्कि मेरी गणना तो यह कहती है कि जिस मारकयोग की बात मैं कर रहा हूँू, उसमें कुछ हद तक आप भी कारण होंगे और कुछ हद तक विद्योत्तमा भी।’
महाराज अब अपनी बेचैनी छिपा न सके। घबड़ा कर बोले, ‘तो क्या मैं यह समझूँ कि मैं अपनी प्रिय बहिन के सुहाग को मृत्यु के मुँह में ढकेलूँगा और उसमें श्यामा सहयोग करेगी?’
आचार्य वराहमिहिर ने कहा, ‘महाराज, नियति का लिखा कोई टाल नहीं सकता। फिर भी, जहाँ तक मैं समझता हूँ, चिन्ता की कोई बात नहीं है। अन्त भला तो सब भला और मैं जहाँ तक देख सकता हूँ, यह विवाह न केवल अवश्यम्भावी है, अपितु इसका परिणाम शुभ है।’
महाराज ने पूछा, ‘अच्छा, यह तो बताइये कि जिस उद्देश्य से यह युवक सात दिन से देवी-मूर्ति के सामने ध्यान लगाये बैठा है, वह पूरा होगा या नहीं?’
आचार्य वराहमिहिर ने मुस्कुरा कर कहा, ‘महाराज, ग्रह-नक्षत्र भी भगवती त्रिपुरसुन्दरी की आज्ञानुसार ही चलते हैं। मैं नक्षत्रसूची15 भला इस बारे में क्या कह सकता हूँ? यह माँ के दरबार की बात है, जो वे चाहेगीं, करेंगी।’
महाराज ने फिर कुछ न पूछा। कुछ देर बाद उन्होंने कहा, ‘ठीक है, अब आप जाएँ।’
वराहमिहिर गये। महाराज ने महामत्य को बुलाया और कहा, ‘आज मैं शेष समय भगवदाराधना में बिताऊँगा। आप राजकाज की ज़रूरी बातें मेरी ओर से देख लें।’ उस दिन चैत्र शुक्ल अष्टमी थी। महामत्य ने अनुमान लगाया कि महाराज आज महानिशापूजा करेंगे।
5.2.5
वासन्त नवरात्र की महाष्टमी, चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी की रात में लगभग डेढ़ प्रहर बीत चुका था। महाराज विक्रमादित्य ने अपना ‘अपराजित’ नामक खड्ग हाथ में लिया और पलंग के सिरहाने की दीवाल में एक जगह उसकी नोक लगायी। एक रास्ता निकल आया और महाराज एक दूसरी कोठरी में घुसे। पलँग के सिरहाने की दीवाल अपनी जगह वापस आ गयी
10. आस्थान = दफ़्तर।
भीतर घनघोर अँधेरा था लेकिन महाराज ने अपराजित की मूठ दबायी और तेज़ रोशनी हो गयी। इस कोठरी में न कोई सामान था न कोई दरवाज़ा दूसरी तरफ निकलने के लिए दिखायी देता था। एक काले संगमरमर की पट्टी कोठरी में इस तरह बिछायी हुई थी कि बाकी तीन तरफ की दीवालों तक पहुँचने के लिए उसे पार करना ज़रूरी था। इन दिवालों में से हर दिवाल में किसी धातु की बनी दो-दो मूर्तियाँ जड़ी हुई थीं। इन मूर्तियों का भाव यह था कि दो सिपाही दीवाल के सहारे सिर टिकाये पैर फैलाये सो रहे हैं। मूर्तिकार ने यथार्थ का अनुकरण करने की सफल चेष्टा की थी, यहाँ तक कि न जाने कैसे सिपाहियों के खर्राटों की आवाज़ साफ़ सुनायी दे रही थीं। महाराज अपनी दाहिनी तरफ की दीवाल की ओर बढ़े और जैसे ही उनका पैर उस तरफ की काले संगमरमर वाली पट्टी पर पड़ा, अचानक उधर के दोनों सिपाही उठ खडे़ हुए और अपनी तलवारें म्यान से बाहर निकाल कर महराज पर वार करना चाहा। महाराज ने इसका तो कुछ ख़्याल न किया लेकिन फुर्ती से अपना अपराजित उनसे छुला दिया। अपराजित का स्पर्श होते ही दोनों सिपाहियों ने तलवारें नीची कर के महाराज को सिर झुकाते हुए प्रणाम किया और फिर कुछ हट कर अपनी तलवारों को ऊँचा करते हुए उनकी नोकें आपस में इस तरह मिलायीं जैसे कोई द्वार बना कर महाराज को मार्ग दे रहे हों। ऐसा होते ही दीवार पूरी सरक गयी और आगे एक अच्छी चैड़ी छत वाली सुरंग दिखायी दी। इस सुरंग के मुहाने पर एक बड़ा-सा धातुनिर्मित रथ सारथी और घोड़ों से सजा हुआ मौजूद था। महाराज उस पर बैठ गये और अपराजित को सारथी के सिर से छुलाया जिसके बाद रथ तुरन्त चल पड़ा। रथ के चलते ही पीछे की दीवाल सरककर अपनी जगह वापस आ गयी।
रथ की रफ़्तार बेहद तेज़ थी। इसके पहिये और घोड़े किसी पटरी पर थे जिसके ऊपर यह सरकते हुए भाग रहा था यद्यपि बीच-बीच में सारथी का चाबुक तेज़ी से घोड़ों पर पड़ता। कुछ दूर चल कर सारथी ने रास खींची और सामने एक दीवाल दिखायी दी। इसमें भी दो सिपाहियों की वैसी ही मूर्तियाँ जड़ी हुई थीं। महाराज ने रथ से उतर कर उसी तरीके से इस दीवाल को भी हटा कर रास्ता किया। अब महाराज महाकाल के मन्दिर में महाकाल के सामने थे। महाराज ने महाकाल को प्रणाम किया और फिर गर्भगृह की एक दीवाल में एक जगह अपराजित छुलाया जिससे एक रास्ता निकल आया। महाराज मन्दिर के बाहर दूर तक फैले श्मशान में निकल गये।
उज्जयिनी का यह महाश्मशान प्रतिकल्पा16 के अनगिनत उजाड़-बसाव का साक्षी था और इसका आकार उज्जयिनी नगरी को देखते हुए बहुत बड़ा था। जलती-बुझती चिताओं को पार करते, बिखरी हड्डियों और पसरी चर्बी से अपने को बचाने की कोई चेष्टा न करते हुए महाराज तेज़ी से बढ़ते गये और दूर एक ऐसे हिस्से में पहुँचे जहाँ रात की कौन कहे दिन में भी कोई आता न था। यहाँ एक पीपल के पेड़ में उलटी लटकी हुई एक लाश दिखायी दी। महाराज ने उसके पास जाकर प्रणाम किया और बोले, ‘बेतालभट््ट मुझ संकटग्रस्त की सहायता करो।’
मुर्दे ने लटक-लटके कहा, ‘क्या है महाराज विक्रमादित्य?’
महाराज बोले, ‘बेतालभट्ट, मेरी छोटी बहिन श्यामा मेधारुद्र नामक एक युवक का चित्र देखकर उस पर रीझ गयी है। वह महामूर्ख गढ़कालिका के मन्दिर में हठ कर के बैठा हुआ है कि देवी उसे बिना अध्ययन किये, बिना अभ्यास किये, बिना गुरू के पास गये, वाक्सिद्ध बना दें। आचार्य वराहमिहिर का ज्योतिष यह बताने में असमर्थ है कि वह वाक्सिद्ध होगा या नहीं। मैं नही चाहता कि विद्योत्तमा जैसी विदुषी किसी महामूर्ख की पत्नी बने। माँ के दरबार में आप की सीधी पहुँच है, आप मेरी सहायता करें।’
मुर्दे ने लटके-लटके कहा, ‘ठीक है महाराज, मैं माँ के पास जा कर उनका मन टटोलता हूँ, जैसा आदेश होगा, करूँगा। आज मैं जिस शव में वास कर रहा हूँ उसके गले में सुबह से पड़ी माला के फूल अब सूख चुके हैं। इसमें से एक फूल तोड़ लो। यदि कल सुबह तुम्हें माँ के नित्यार्चन के समय यह फूल खिला हुआ मिले तो समझना कि तुम्हारी प्रार्थना माँ ने स्वीकार कर ली है। और एक बात और अब तुम कुमार विक्रमशील नहीं हो, महाराज विक्रमादित्य हो। तुम्हारा इस तरह बिना किसी को बताये राज-प्रसाद से अनुपस्थित होना, श्मशान में आना ठीक नहीं। आगे से मेरी ज़रूरत पड़े तो मैं एक सरल उपाय बताता हूँ। जब अपराजित नाम का खड्ग मैंने तुम्हें दिया था तो उसके साथ एक अँगूठी भी दी थी और कहा था कि बिना इस अँगूठी को पहने अपराजित हाथ में न पकड़ना नहीं तो धोखा खाओगे। तुमने ध्यान दिया होगा कि उस अँगूठी पर खुदे विष्णुसहस्रनाम का एक पारायण करते ही उस पर के अक्षर बदल जाते हैं और विष्णुसहस्रनाम की जगह राधासहस्रनाम आ जाता है।’
महाराज बोले, ‘हाँ और मैंने यह भी देखा कि उस राधासहस्रनाम का एक पारायण करते ही उस पर के अक्षर बदल जाते हैं और राधासहस्रनाम की जगह फिर से विष्णुसहस्रनाम आ जाता है।’
मुर्दे ने लटके-लटके कहा, ‘हाँ, बिल्कुल ठीक है। ऐसा करना कि फिर मुझसे मिलना चाहो तो अपराजित के फलक पर उस अँगूठी को रखना और उस अँगूठी पर खुदे विष्णुसहस्रनाम का एक पारायण करना। उस पर के अक्षर बदल जायेंगे और विष्णुसहस्रनाम की जगह कालीसहस्रनाम का एक पारायण करना, मैं आ जाऊँगा और तुम्हारी सहायता करूँगा।’
महाराज बोले, ‘महती कृपा बेतालभट्ट! यदि उचित समझें तो यह भी बता दें कि आपने यह क्यों कहा था कि बिना इस अँगूठी को पहने अपराजित हाथ में न पकड़ना नहीं तो धोखा खाओगे।’
11. ‘ग्रामणी’ एक राजकीय पद होता था और ‘मुखिया’ से तुलनीय है। वैदिक साहित्य में यह प्रमुख असैनिक पद प्रतीत होता है। लौकिक साहित्य के अन्तर्गत गाथासप्तशती में इसका उल्लेख कई बार आया है।
12. माहिषिक = भैंस चराने वाला या भैंसें रखने वाला। ‘माहिषिक’ के कुछ और अर्थ भी हैं जो इस कहानी में आगे इस्तेमाल किये गये हैं।
13. सैरिभासन = वह रतिबन्ध जो भैंस और भैंसे की रतिमुद्रा के अनुकरण में हो।
14. सोलह वर्ष की स्त्री को ‘श्यामा’ कहते हैं और उसके निकट पहुँची तेरह चैदह से पन्द्रह वर्ष की स्त्री ‘उपश्यामिका’ कहलाती है।
मुर्दे ने लटके-लटके कहा, ‘यदि उस अँगूठी को पहने बिना अपराजित को कोई छूता है तो उसे वह नाग बन कर डस लेगी और उसकी मृत्यु हो जाएगी। यदि तुम बिना किसी को जान से मारे बेहोश करना चाहो, तो उसे अपराजित छुला कर ऐसा कर सकते हो क्योंकि उस समय तुम्हारी ऊँगली में अँगूठी होगी ही। तुमने ध्यान दिया होगा कि अपराजित की मूठ दबाने से तेज़ रोशनी निकलती है और उससे आस-पास सभी की आँखें बन्द हो जाती हैं लेकिन तुम बखूबी देख सकते हो। तुमने यह भी पाया होगा कि अपराजित लोहे में भी ऐसे घुल सकता है जैसे मोम में।’
महाराज बोले, ‘हाँ, यह तो आपने अपराजित देते ही समय बताया था।’
मुर्दे ने लटके-लटके कहा, ‘अपराजित में बहुत खूबियाँ हैं जो समय-समय पर तुम्हें अपने आप पता लगेंगी। अब तुम्हें वापस जाना चाहिए। तुम जिस रास्ते आये हो उससे लौटने की आवश्यकता नहीं, मैं तुम्हें अपनी पीठ पर लाद कर तुम्हारे शयनागार में पहुँचा देता हूँ।’
महाराज ने कहा, ‘बेतालभट्ट, मैं चाहता था कि मैं गढ़कालिका के मन्दिर में उपस्थित रहता और स्वयं देख सकता कि श्यामा के लिए मेधारुद्र अनुरूप है या नहीं। इससे मुझे यह भी प्रत्यक्ष जानने का अवसर मिल जायगा कि माँ ने मेधारुद्र पर अनुग्रह किया या नहीं।’
मुर्दे ने लटके-लटके कहा, ‘महाराज, आपने कहा है कि विद्योत्तमा मेधारुद्र का चित्र देखकर उस पर रीझ गयी है। मेधारुद्र को प्रत्यक्ष देखकर वह अपने को संयत न रख पायेगी। अपनी माँ, बेटी और बहिन की शृंगारचेष्टा अपनी आँखों से देखना अनुचित है। आप महादेवी से अनुरोध करें कि वे आज रात गढ़कालिका के मन्दिर में छिप कर उपस्थित रहें।’
बेताल पेड़ से उतर आया और महाराज विक्रमादित्य को अपनी पीठ पर लाद कर उड़ा। पलक झपकने में महाराज अपने पलँग पर थे।
5.2.6
वासन्त नवरात्र की महाष्टमी, चैत्र शुल्क पक्ष की अष्टमी में रात को सिंहल-नरेश की पुत्री और उज्जयिनी-नरेश महाराज विक्रमादित्य की महादेवी मदनलेखा अपने पलँग से उठीं और पलँग के सामने की दीवाल की ओर बढ़ी। इस दीवाल पर उकेरी आकृतियाँ पलँग से तो भित्तिचित्र जैसी दिखती थीं किन्तु निकट से ध्यानपूर्वक देखने पर यह साफ़ दिखायी पड़ता था कि दीवाल से शीशा जड़ा हुआ था और उस शीशे के पीछे किसी धातु के बने बहुत से युगनद्ध विभिन्न रतिमुद्राओं में शिल्पांकित थे। प्रत्येक युगनद्ध के नीचे एक पतली सी दरार थी।
महादेवी मदनलेखा एक युगनद्ध के सामने खड़ी हो गयीं जिसमें विपरित बन्ध के सन्दंश प्रकार का शिल्पांकन था। उन्होंने युगनद्ध के नीचे की दरार में अपनी कटार मूठ तक पूरी डाल दी और उसे ऊपर-नीचे हिलाया। एक खटके की आवाज़ आयी जैसे कोई ताला खुल गया हो। इतना कर के वे फिर वहाँ से हट गयीं और वापस पलँग पर आ कर बैठ गयीं। उधर युगनद्ध हरकत में आ गया था और अब शिल्पांकन सन्दंश से बदल कर भ्रमरक का हो गया। कुछ देर बाद भावशान्ति के साथ ही दीवाल के नीचे फ़र्श से एक पटिया नीचे झूल गयी।
महादेवी मदनलेखा पलँग से उठ कर उस युगनद्ध के नीचे फिर आ पहुँची। झूली हुई पटिया के नीचे उतरने के लिए सीढि़याँ दिखायी दे रही थीं किन्तु महादेवी ने उनकी ओर ध्यान न दिया और युगनद्ध के नीचे की दरार में अपनी कटार दुबारा मूठ तक पूरी डाल कर फिर से पलँग पर वापस आ कर बैठ गयीं। उधर झूली हुई पटिया अपनी जगह वापस आ चुकी थी और युगनद्ध फिर हरकत में आ गया था। अब शिल्पांकन भ्रमरक से बदल कर प्रेंखोलितक का हो गया था। कुछ देर बाद भावशान्ति के साथ ही दीवाले के नीचे फ़र्श से एक दूसरी पटिया नीचे झूल गयी।
महादेवी मदनलेखा पलँग से उठ कर उस युगनद्ध के नीचे फिर आ पहुँचीं। झूली हुई पटिया के नीचे उतरने के लिए सीढि़याँ दिखायी दे रही थीं जिनसे उतर कर वे एक सुरंग के मुहाने में खड़ी थीं। सामने किसी धातु का बना एक कर्णीरथ था। महादेवी उसके भीतर लगी हुई गद्दी पर बैठ गयीं और कटार की नोंक कर्णीरथ को खींचने वाले मनुष्य के पुतले के सिर से छुलायी। ऐसा करते ही वह पुतला नीचे बिछी पटरियों पर कर्णीरथ को खींचता हुआ तेज़ रफ़्तार से भागने लगा।
थोड़ी देर बाद कर्णीरथ रूक गया और महादेवी उतर गयीं। सामने ही ऊपर जाने के लिए सीढि़याँ दिखायी दीं। ऊपर पहुँचने पर एक युगनद्ध में पे्रंखोलितक का गतिशील शिल्पांकन दिखायी दिया। महोदवी ने बिना भावशान्ति की प्रतीक्षा किये अपनी कटार युगनद्ध के नीचे की दरार में मूठ तक पूरी डाल दी। युगनद्ध की गति रूक गयी और दीवाल में एक रास्ता निकल आया। महादेवी उससे बाहर आ गयीं। अब वे गढ़कालिका के मन्दिर की एक दीवाल के भीतर छत के पास चिनी हुई एक सँकरी सी कोठरी में थीं। कोठरी में सब तरफ खिड़कियाँ थीं जिनसे न केवल हवा और रोशनी आती थी अपितु बाहर का दृश्य भी साफ़ देखा जा सकता था। महादेवी मन्दिर के गर्भगृह में खुलने वाली एक खिड़की के साथ बने हुए आसन पर बैठ गयीं।
15. नक्षत्रसूची = ज्योतिषीः प्रायः तिरस्कार जताने के लिए प्रयुक्त होता है।
5.2.7
राजकुमारी विद्योत्तमा ने जब बाल्य पार किया और कैशोर्य में कदम रखा तो उन्होंने महाराज विक्रमादित्य से अपने लिए स्वतन्त्र निवास के रूप में वही महल माँगा जिसमें कभी चण्ड-प्रद्योत की बेटी राजकुमारी वासवदत्ता रहती थीं। पहले तो महाराज विक्रमादित्य हिचकिचाये क्योंकि सैकड़ों वर्ष बीत जाने के बाद भी लोगों को यह भूला न था कि राजकुमारी वासवदत्ता इसी महल से उज्जयिनी की सीमा के बाहर हो कर वत्सराज उदयन के साथ भाग निकली थी और सैकड़ो वर्ष बीत जाने के बाद भी लोगों को यह पता न था कि राजकुमारी वासवदत्ता इस महल से किस रास्ते उज्जयिनी की सीमा के बाहर हो ली थी, किन्तु फिर उन्हें लगा कि वे यदि इस प्रार्थना को स्वीकार नहीं करते तो विद्योत्तमा यह समझेगी कि वह अपने भाई की उतनी लाड़ली बहिन नहीं जितनी वासवदत्ता अपने पिता की लाड़ली बेटी थी, अतः उन्होंने मन मार कर यह महल विद्योत्तमा के रहने के लिए दे दिया था। राजकुमारी वासवदत्ता के भागने के बाद से ही उनका यह महल बन्द पड़ा था। लेकिन इसकी मज़बूती ऐसी थी और उनमें रहने के लिए महाराज महेन्द्रादित्य को बड़े पैमाने पर पुननिर्माण कराना पड़ा था। जहाँ चण्ड-प्रद्योत के राजप्रासाद की और इमारतें लगभग खण्डहर हो चुकी थीं इस महल को खोलने के बाद इसमें मामूली सफ़ाई से ही काम चल गया और महल ऐसा चमकने लगा जैसे वह राजकुमारी वासवत्ता के समय में ही अभी हो।
जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, राजकुमारी विद्योत्तमा ने जब बाल्य पार किया और कैशोर्य में कदम रखा तो खण्डपाना चितारी उनकी ताम्बूलकरंकवाहिनी नियुक्त हुई। खण्डपाना चितारी को महल में घूमते-फिरते एक कक्ष में बहुत से वाद्य-यन्त्र दिखायी दिये। सभी वाद्य-यन्त्रों पर वासवदत्तायाः17 लिखा था और कुछ पर बाद में दूसरे अक्षरों में उदयनस्य बढ़ा कर उदयनस्य वासवदत्तयाः18 बनाया गया था। खण्डपाना ने अनुमान लगाया कि यह वही कक्ष है जिसमें राजकुमारी वासवदत्ता वत्सराज उदयन से वीणावादन की शिक्षा लिया करती थी।
खण्डपाना संगीत और नृत्य की मर्मज्ञ थी। उसने बारी-बारी से सभी वाद्य-यन्त्रों को बजाना शुरू किया जिनमें से अनेक इन सैकड़ों वर्षों में दुर्लभ वाद्य की श्रेणी में आ चुके थे। एक मृदंग कुछ विचित्र-सी ध्वनि कर रहा था। उत्सुकतावश खण्डपाना ने उसे खोल कर देखा। उसमें से एक भुर्जपत्र पर लिखी पुस्तक निकली जिसमें इस महल के तहखानों और सुरंगों का पूरा हाल दिया था। इस पुस्तक की हस्तलिपि वही थी जिसमें कुछ वाद्य-यन्त्रों पर बाद में दूसरे अक्षरों में वासवदत्तायाः के आगे उदयनस्य बढ़ाया गया था। पुस्तक के अन्त में वासवदत्तायाः स्वहस्तः19 लिखा था।
इन सुरंगो में से एक का मुहाना उज्जयिनी की सीमा के बाहर गढ़कालिका के मन्दिर में खुलता था। वासन्त नवरात्र की महाष्टमी, चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी में रात को खण्डपाना चितारी और राजकुमारी विद्योत्तमा इसी सुरंग के रास्ते गढ़कालिका के मन्दिर में दाखिल हुईं। ज़ाहिर है कि किसी ने उन्हें जाते हुए नहीं देखा और वे सीधे देवी-मूर्ति के पीछे एक पत्थर की पटिया हटा कर मन्दिर में निकल आयीं।
विद्योत्तमा पùिनी थी किन्तु इससे यह निष्कर्ष निकालना भूल होगी कि वह रात को मुरझा जाती थी। इस रात में भी उसके नेत्रों के नीलकमल प्रफुल्ल थे, अधरों के रक्तकमल से रस टपकने के कगार पर था और उरोजों के स्वर्णकमल अपनी उत्तुंगता, गुरुता तथा कठोरता से सुमेरू पर्वत की चोटियों को परास्त कर रहे थे। भौंरों ने उसके मुख-कमल पर मँडराना छोड़ा न था और वह जब अपने हाथ से उनको हटाना चाहती तो वे उसके हस्त-कमल पर झपट पड़ते।
खण्डपाना ने उसके अंगराग में जो चन्दन मिश्रित किया था उसकी गन्ध से कृष्णसर्प भागे चले आते किन्तु यह देखकर कि विद्योत्तमा के केशपाश में कितने ही कृष्णसर्प बाँध लिये गये हैं, वे भयभीत होकर नागलोक में वापस भाग जाते।
काम अनंग होकर उसके अंगों में शरण पा रहा था। हिमकर पृथिवी पर अपने कर बिखेरते हुए उसके सौन्दर्य-साम्राज्य का करद सामन्त होना स्वीकार कर रहा था। देवी-मूर्ति के सामने जो युवक ध्यान लगाये बैठा हुआ था उसकी सूरत दीपकों के प्रकाश में साफ़ दिखने लगी। विद्योत्तमा और खण्डपाना ने अपनी आवाज़ को भारी बनाते हुए कहा, ‘वत्स मेधारुद्र, देवी तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हैं। वर माँगो, क्या चाहते हो?’
युवक ने आँखे खोलीं और कहा, ‘देवी यदि प्रसन्न हैं तो मुझे विद्या दें।’
खण्डपाना ने उसी बनावटी आवाज़ में कहा, ‘वत्स मेधारुद्र, देवी तुम्हारी तपस्या से अति प्रसन्न हैं। वे तुम्हें विद्या ही क्यों विद्योत्तमा देती हैं। आँखें बन्द करो, यह उनका प्रसाद-ताम्बूल ग्रहण करो फिर आँखे खोलो, तुम्हें मूर्तिमती विद्योत्तमा दिखायी देगी।’गप
इतना कह कर खण्डपाना देवी-मूर्ति के सामने आयी और अपने हाथ में पहले से तैयार गिलौरी बढ़ायी। मेधारुद्र की आँखें बन्द थी और वह सिर झुकाये गिलौैरी का प्रसाद लेने के लिए हाथ थोड़ा-सा आगे बढ़ाये हुए था। तभी खण्डपाना की घिग्घी बँध गयी और वह जहाँ की तहाँ खड़ी रह गयी। हड्डियों के एक ढ़ाँचे ने न जाने कहाँ से प्रकट होकर उसके हाथ से गिलौरी ले ली।
16. ऐसा माना जाता है कि उज्जयिनी प्रत्येक कल्प में विद्यमान रहती है इसलिए इसका नाम ‘प्रतिकल्पा’ भी है।
खण्डपाना डरी कि यह ढ़ाँचा अब उसकी कुछ और दुर्गति करेगा लेकिन उस ढ़ाँचे ने खण्डपाना की ओर कोई ध्यान न दिया और देवी-मूर्ति के आगे उस गिलौरी को अपनी अंजलि में लिये हुए सिर झुका कर खड़ा हो गया। गिलौरी उठकर देवी-मूर्ति के मुँह तक पहुँची और फिर कुछ चबायी कुचली हुई अवस्था में एक अँगूठी के साथ ढ़ाँचे की अंजलि में वापस आ गयी जैसे माँ काली ने इस नैवेद्य को स्वीकार कर लिया हो। अब इस चबायी-कुचली हुई गिलौरी को ढ़ाँचे ने खण्डपाना के हाथ में वापस ठूँस दिया और उसे अँगूठी थमाते हुए देवी-मूर्ति के सामने आँखें बन्द किये हाथ पसारे मेधारुद्र की ओर आगे बढ़ाने का इशारा किया।
गिलौरी अब माँ के प्रसाद-ताम्बूल में वस्तुतः बदल चुकी थी और खण्डपाना की देह में मचलती हुई शरारत की जगह आश्चर्य ने डेरा डाल लिया था। विस्मयाविष्ट भाव से यन्त्रचालित-सी खण्डपाना आगे बढ़ी और आँखे बन्द किये हुए प्रणामावनत मेधारुद्र के दाहिने हाथ की अनामिका उँगली में अँगूठी पहनाते हुए उसकी आगे बढ़ी हुई अंजलि में उस गिलौरी को रख दिया।
मेधारुद्र ने श्रद्धा और विश्वास के साथ वह गिलौरी मुँह में रख ली। उसका मुख दिव्य आभा से देदीप्यमान हो उठा और उसके मुँह से बोल फूटेः
ऊँकारपंजरशुकीमुपनिषदुद्यानकेलिकलकण्ठी
मागमविपिनमयूरीमार्यां विभावये गौरीम्।।20
यद्यपि विस्मयाविष्ट खण्डपाना कुछ बोलने की स्थिति में न रह गयी थी, जिस बनावटी आवाज़ में वह पहले बोल रही थी उसी में वह हड्डियों का ढ़ाँचा बोला, ‘वत्स मेधारुद्र, देवी तुम पर प्रसन्न होकर आज्ञा देती हैं कि तुम आज उनके दास के रूप में स्वीकार किये गये। वे तुम्हारा नाम आज से ‘कालिदास’ रखती हैं। उनका यह भी आदेश है कि तुम उनके ककारादि कालीसहस्रनाम का जप करो, वह मेधा-साम्राज्य-प्रद स्तोत्र है। यह सहस्रनाम इसी अँगूठी पर अंकित है जो उन्होंने कृपा-प्रसाद के रूप में तुम्हें दी है।’
इतना कह कर वह हड्डियों का ढाँचा जैसे अचानक प्रकट हुआ था, वैसे अचानक अदृश्य हो गया। न तो एकटक आँखें गड़ाये मेधारुद्र की छवि को अपनी दृष्टि की तूलिका से अपने दिल की गहराइयों में उकेरती हुई विद्योत्तमा को और न ही आँखें बन्द किये देवी के प्रसाद-ताम्बूल की प्रतीक्षा करते हुए मेधारुद्र को इस सारे घटना-क्रम का कुछ आभास हुआ। यों भी बिना बेताल की इच्छा के लौकिक प्राणियों को उसका दर्शन कहाँ हो सकता था। न तो झरोखे से झाँकती महादेवी को और न ही गर्भगृह में एक खंभे के पीछे साँस रोककर छिपे मूलदेव को बेताल की उपस्थिति-अनुपस्थिति का पता लगा। उन दोनों ने तो यही देखा कि खण्डपाना ने एक चबायी-कुचली हुई गिलौरी मेधारुद्र के हाथों पर रख दी तथा मेधारुद्र ने श्रृद्धा और विश्वास के साथ वह गिलौरी मुँह में रख ली। खण्डपाना की इस दिल्लगी पर ये दोनों अपनी हँसी मुश्किल से रोक सके।
किन्तु इस सारे घटना-क्रम से न केवल खण्डपाना का साहस लौट आया था अपितु उसे यह भी भरोसा हो चला था कि उसकी बनायी योजना को दैवी अनुमति भी प्राप्त है। अतः पूर्ण आत्मविश्वास के साथ उसने विद्योत्तमा को चुटकी काट कर सचेत किया। परिणामतः इधर मेधारुद्र ने आँखें खोलीं उधर विद्योत्तमा प्रकट हुई। इसका परिणाम भी खण्डपाना की आशा और अनुमान के अनुरूप ही हुआ। विद्योत्तमा और मेधारुद्र की नज़रें एक दूसरे से ऐसे बँध गयीं जैसे कामेश्वर द्वारा कामदहन के बाद कामेश्वरी के कृपाकटाक्ष से पुनरूज्जीवित काम और रति की नज़रें एक दूसरे को देख कर बँध गयी थीं।
यद्यपि विद्योत्तमा और मेधारुद्र की बेसुधी ने उनकी ज़बानें बन्द रखीं, खण्डपाना आगे बढ़ी और मेधारुद्र को चुटकी काटकर सचेत करती हुई उसके कान में देर तक फुसफुसाती रही। अन्त में मेधारुद्र के बोल फूटे और उसने कहा, ‘खण्डपाना, जैसा तुमने कहा है, वैसा ही करूँगा।’
अब खण्डपाना ने विद्योत्तमा को फिर चुटकी काट कर सचेत किया, उसका हाथ थामा और उसे वापस देवी-मूर्ति के पीछे वाली उस पत्थर की पटिया की ओर घसीटा जिसमें सुरंग का मुहाना खुलता था। यद्यपि विद्योत्तमा ने इतनी ही दूरी में तीन बार पाँव में ठेस लगने का बहाना बना कर अनेक अतिरिक्त क्षण मेधारुद्र उफऱ् कालिदास की ओर मुड़ने के लिए पा लिये, अन्ततः खण्डपाना के आगे उसकी एक न चली और उसे खण्डपाना के साथ सुरंग में घुसना ही पड़ा।
सुरंग में घुसते ही खण्डपाना ने कहा, ‘चल पùिनी, तेरे पù के पùनाल की खोज तो हो गयी, अब...’
किन्तु खण्डपाना का वाक्य पूरा न हो सका क्योंकि विद्योत्तमा ने उसे इतने ज़ोर की चुटकी काटी कि वह सी....ई...ई...ई के अलावा आगे कुछ न कह सकी।
17. ‘वासवदत्ता का’।
18. ‘उदयन की वासवदत्ता का’।
5.2.8
महामति गुणनिधि कई दिनों से किसी महामूर्ख की खोज में भटक रहे थे। उनके शिष्य अशोकदत्त ने सूचना दी कि उज्जयिनी की सीमा के बाहर शिप्रातट पर एक महामूर्ख मौजूद है। अशोकदत्त के साथ महामति गुणनिधि उज्जयिनी की सीमा के बाहर शिप्रातट पर पहुँचे। उन्होंने देखा कि एक नौजवान एक पेड़ पर चढ़ा हुआ पूरी मस्ती में गा रहा हैः
बड़ा नीक लागेला भँइसिया क दहिया, बनलि रहे ससुरारि
अँगुरी के सनवाँ बोलावे सरहजिया, लोगवा देला सब गारि।।21
और हाथ में कुल्हाड़ी लिये जिस डाल पर बैठा है उसी को काट रहा है। महामति गुणनिधि की खोज पूरी हो गयी। उन्होंने नौजवान से डपट कर पूछा, ‘तुम कौन हो?’
नौजवान ने पेड़ पर चढ़े-चढ़े मस्ती में जवाब दिया, ‘मेरा नाम कालिदास है।’
महामति गुणनिधि ने डपट कर कहा, ‘ठीक है कालिदास, तुम सरकारी पेड़ काटने के अपराध में गिरफ़्तार किये जाते हो। तुम्हें मैं महाराज विक्रमादित्य के दरबार में ले चलता हूँ।’
नौजवान गिड़गिड़ाने लगा, ‘मुझे बचाइए, मैं राजाओं से बहुत डरता हूँ।’
महामति गुणनिधि ने कुछ नरम पड़ते हुए कहा, ‘प्राण बचाना चाहते हो तो मैं जैसा कहूँ, वैसा ही करना।’
नौजवान ने वैसा ही करना स्वीकार किया जैसा महामति गुणनिधि ने कहा।
महामति गुणनिधि कालिदास को ले कर चले और समझाना प्रारम्भ किया कि प्राण बचाने के लिए क्या करना होगा। अशोकदत्त ने महामति गुणनिधि के प्रत्येक वाक्य पर उत्साहपूर्ण समर्थन में प्रशंसात्मक सहमति देना प्रारम्भ किया।
वहीं थोड़ी दूर पर एक दूसरे पेड़ के नीचे एक मजमा लगा हुआ था। देखने में पताका-वेश्या22 जैसी लगती एक युवती ढोल बजा रही थी और गा रही थी ः
दुलहा जे जाला आपन गवन करे, आपन बियाह करे हो
मालिनि आरती उतारेले, हमहूँ त रउरा साथे चलबों हो।।
छोड़ मालिनि आस मोर, छोड़ मालिनि पास मोर हो
गउरी बियाहि घर अइबों त तोहरो समेति लेबों हो।।
नाहीं छोड़ब आस तोहर, नाहीं छोड़ब पास तोहर हो
गउरी बियाहि घर अइबऽ त हमरा बिसारि दिहबऽ हो।।
होइ जइबों बेइली अइसन होइ जइबों गुलाब अइसन हो
हरवा के ओर में समाइ जइबों हम रउरा साथे चलबों हो।।
हमरो तो सरहज हउवें बारी हो खियाली हउवें हो
हरवा उतारि खेलवा करी लगिहैं हमहूँ लजाइ जइबों हो।।23
19. ‘वासवदत्ता ने अपने हाथ से लिखाः प्राचीन ताम्रशासनों आदि में ‘स्वहस्त’ का प्रयोग आजकल के ‘बक़लम खुद’ के अर्थ में प्रयुक्त होता था।
अशोकदत्त ने महामति गुणनिधि से कहा, ‘देखिये गुरू जी, यह कौड़ी की तीन छोकरी तो ऐसा अलाप रही है जैसे महाराज इसे ही राजकुमारी की शादी में गाने के लिए बुलायेंगे। हःहः ही ही’ और इतना कह कर उस युवती की ओर एक भद्दा इशारा करते हुए आँख मारी जिसके प्रत्युत्तर में उस युुवती ने भी वैसा ही भद्दा इशारा करते हुए आँख मारी।
महामति गुणनिधि अपने इस मुँहलगे शिष्य की ग्राम्य-विदग्धता से अच्छी तरह परिचित थे। उन्होंने इस इशारेबाज़ी पर कोई गौर नहीं किया। अगर वे ग़ौर करते भी तो इस पताका-वेश्या में खण्डपाना को पहचानना उनके लिए असम्भव था क्योंकि उसने अपना रूप और स्वर पूरी तरह बदल रखे थे।
5.2.9
दूसरे दिन छठे यामार्ध में महाराज विक्रमादित्य के पास मूलदेव पहुँचा। महाराज ने गढ़कालिका के मन्दिर की सारी कहानी सुनी। महाराज रह-रह कर मुस्कुरा रहे थे और मूलदेव को न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि महाराज को इस कहानी का कुछ आभास पहले से है। मूलदेव ने इस सूचना के साथ अपनी बात समाप्त की कि महाकाली ने मेधारुद्र पर कृपा कर के उन्हें अप्रतिम वैदुष्य और कवित्वशक्ति का वरदान दिया है और मेधारुद्र का नाम बदल कर कालिदास रख दिया है।
तभी महामति गुणनिधि ने महाराज विक्रमादित्य के पास पहुँचने की अनुमति चाही। अनुमति मिल गयी। पहुँच कर उन्होंने निवेदन किया, महाराज, वाराणसी से पण्डितशिरोमणि कालिदास कई दिनों से उज्जयिनी में पधारे हुए हैं। राजकुमारी विद्योत्तमा के समतुल्य ही उनका पाण्डित्य है, राजकुमारी विद्योत्तमा के अनुरूप ही उनका आभिरूप्य है। यदि अनुमति हो तो राजकुमारी से उनके शास्त्रार्थ का आयोजन किया जाए।’
महाराज मुस्कुरा कर बोले, ‘विद्योत्तमा से पूछ सकते हैं।’
राजकुमारी विद्योत्तमा ने खण्डपाना चितारी से सन्देश भिजवाया कि वे पण्डितशिरोमणि कालिदास के साथ शास्त्रार्थ के लिए तत्काल तैयार हैं।
महामति गुणनिधि ने निवेदन किया, ‘महाराज, एक समस्या है। पण्डितशिरोमणि ने संकल्प किया है कि आज से, अर्थात् रामनवमी से, वे मौनव्रत पर चल गये हैं और वैशाख शुक्ल पक्ष की नवमी, अर्थात् माँ जानकी की जयन्ती, तक पूरे एक मास मौनव्रत पर ही रहेंगे। यदि इस बीच शास्त्रार्थ का आयोजन किया जाता है तो वे केवल संकेतों में बात कर सकेंगे।’
महाराज मुस्कुरा कर बोले, ‘विद्योत्तमा से पूछ देखते हैं।’
राजकुमारी विद्योत्तमा ने खण्डपाना चितारी से सन्देश भिजवाया कि वे एक मास तक प्रतीक्षा नहीं करना चाहतीं। उन्हें यह स्वीकार है कि पण्डितशिरोमणि कालिदास केवल संकेतों में बात करेंः वे भी केवल संकेतों में बात करेंगीं।
अगले दिन शास्त्रार्थ का निश्चय हो गया। अब तक सब कुछ महामति गुणनिधि की इच्छानुसार ही हुआ था किन्तु एक बात उनके मन की न हुई। वे इस शास्त्रार्थ में स्वयं निर्णायक रहना चाहते थे किन्तु राजकुमारी विद्योत्तमा ने कहलवाया कि उन्हें खण्डपाना चितारी के अतिरिक्त कोई निर्णायक स्वीकार न होगा। महामति गुणनिधि को अपनी योजना निष्फल होती दिखी क्योंकि खण्डपाना चितारी राजकुमारी विद्योत्तमा की सखी थी और उन्हें यह निश्चय हो गया कि वह राजकुमारी विद्योत्तम को ही विजयी घोषित करेंगी। किन्तु वे असन्तोष न जता सकते थे क्योंकि खण्डपाना चितारी के सर्वतोमुख पाण्डित्य में सन्देह की कोई गुंजाइश न थी। लाचार महामति गुणनिधि ने असन्तोष न जताया।
5.2.10
दूसरे दिन शास्त्रार्थ देखने के लिए उज्जयिनी के सारे विद्वान भी एकत्र थे और जो विद्वान् नहीं थे वे भी। महाराज विक्रमादित्य की धीरता असन्दिग्ध थी किन्तु यदि उनके मन की प्रसन्नता रह-रह कर मुस्कुराहट में प्रकट हो जाती थी तो इसके कारण थे। कल प्रातःकाल महाकाली के नित्यार्चन के समय बेताल का दिया मुरझाया फूल खिल गया था और गढ़कालिका के मन्दिर में घटे घटना-क्रम के बारे में महादेवी तथा मूलदेव की सूचनाएँ एकदम मिलती थीं सिवाय इसके कि विद्योत्तमा और मेधारुद्र की पहली मुलाकात के महादेवी-कृत वर्णन में विद्योत्तमा की कामविह्वल दशा का विवरण अधिक विशद और चित्रात्मक था जबकि इस प्रसंग का मूलदेव-कृत वर्णन सपाटबयानी का श्रेष्ठ उदाहरण माना जा सकता था। विशेषतः जब महाराज को खण्डपाना द्वारा परिहास में अपना जूठा पान मेधारुद्र को खिला देने का ध्यान आता गप तो वे बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोक पाते। इस दिल्लगी की याद विद्योत्तमा की सखियाँ मेधारुद्र का हमेशा दिलाती रहेंगीं, इसमें उन्हें कोई सन्देह न था। शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ।
20. कालिदासकृत नवरत्नमाला से; ‘जो ऊँकार के पिंजरे के भीतर रहने वाली तोती है, जो उपनिषदों के बग़ीचे में कूकती कोयल है, जो
आगमों के वन में विहार करती हुई मोरनी है, उस देवी गौरी का मैं ध्यान करता हूँ।’
विद्योत्तमा ने एक उँगली उठायी।
अशोकदत्त महामति गुणनिधि के कान में फुसफुसाया, ‘गुरू जी देखिए, यह महामूर्ख समझ रहा है कि राजकुमारी यह कह रही हैं कि वे इसकी एक आँख फोड़ देंगीं। अब देखना चाहिए कि यह महामूर्ख इसका क्या जवाब देता है। हः हः ही ही।’
कालिदास ने दो उँगलियाँ उठायीं।
अशोकदत्त महामति गुणनिधि के कान में फुसफुसाया, ‘गुरू जी देखिए, यह महामूर्ख कह रहा है कि अगर तुम मेरी एक आँख फोड़ोगी तो मैं तुम्हारी दोनों आँखें फोड़ दूँगा। हः हः ही ही।’
खण्डपाना ने निर्णय दिया, ‘राजकुमारी ने पूर्वपक्ष उपस्थित किया कि ब्रह्म एक है। पण्डितशिरोमणि कालिदास ने उत्तरपक्ष उपस्थित किया कि यद्यपि ब्रह्म एक है, उपाधि-भेद से वह ईश्वर और जीव के रूप में अपने को व्यक्त करता है। दूसरे शब्दों में, वह द्रष्टा-दृश्य, ज्ञाता-ज्ञेय के रूप में अपने को प्रस्तुत करता है। जब तक वह एक ब्रह्म शिवा-शिव की उभयता में नहीं बदलता, सृष्टि नहीं होती। प्रथम चक्र में पण्डितशिरोमणि कालिदास ने विजय प्राप्त की।
विद्योत्तमा ने पंजा दिखाया।
अशोकदत्त महामति गुणनिधि के कान में फुसफुसाया, ‘गुरू जी देखिए, यह महामूर्ख समझ रहा है कि राजकुमारी यह कह रही है कि वे इसे चाँटा मारेगीं। अब देखना चाहिए कि यह महामूर्ख इसका क्या जवाब देता है। हः हः ही ही।’
कालिदास ने मुट्ठी दिखायी।
अशोकदत्त महामति गुणनिधि के कान में फुसफुसाया, ‘गुरू जी देखिए, यह महामूर्ख कह रहा है कि अगर तुुम मुझे चाँटा मारोगी तो मैं तुम्हें घूँसा मारूँगा। हः हः ही ही।’
खण्डपाना ने निर्णय दिया, ‘राजकुमारी ने पूर्वपक्ष उपस्थित किया कि यद्यपि एक ब्रह्म शिवा-शिव उभयात्मक है, जब तक यह उभयात्मक रूप पाँच कोषों में आकृति नहीं ग्रहण करता, सृष्टि-चक्र नहीं चल सकता। पण्डितशिरोमणि कालिदास ने उत्तरपक्ष उपस्थित किया कि यद्यपि यह इस एक ब्रह्म का शिवा-शिव-उभयात्मक रूप पंच-कोषात्मक है, इन पाँच कोषों का एकीकृत होना आवश्यक होता है, उदाहरण के लिए सुषुप्ति की अवस्था में प्राणमय कोष रहता है किन्तु अन्नमय कोष नहीं किन्तुु सर्वदा सुषुप्तावस्था तो नहीं रह सकती। संहार के समय तो वे पाँच कोष एक ब्रह्म में विलीन होते ही हैं। सृष्टि और संहार के रहस्यवेत्ता पण्डितशिरोमणि कालिदास ने द्वितीय चक्र में भी विजय प्राप्त की। अब तीसरे चक्र की जय-पराजय का महत्व नहीं रहा और तीसरे चक्र की आवश्यकता नहीं है। पण्डितशिरोमणि कालिदास को महाराज विजयपत्र अर्पित करने का आदेश दें।’
महाराज ने पण्डितशिरोमणि कालिदास को विजयपत्र अर्पित करने का आदेश दिया। सभा उठ गयी।
यद्यपि निर्णय महामति गुणनिधि की आशंका के विपरित और उनकी इच्छा के अनुकुल हुआ था, उन्हें न जाने क्यों यह लग रहा था कि कहीं कुछ गड़बड़ हुई है। पूर्वपक्ष में कोई गूढ़ता न थी, उत्तरपक्ष में कोई चमत्कार न था। कुल मिलाकर खण्डपाना की भूमिका विचित्र लग रही थी। तथापि उन्हें इसमें सन्देह न था कि विद्योत्तमा का विवाह अन्ततः एक महामूर्ख से हो ही गया है। अतः पण्डितसमाज से मिली हुई बधाइयों का उन्होंने खुले दिल से स्वागत किया और सफलता का श्रेय अपने शिष्य अशोकदत्त को देने में कोई कृपणता नहीं बरती।
5.2.11
यद्यपि विद्योत्तमा के लिए अभीष्टवर की खोज पूरी हो चुकी थी, वराहमिहिर ने विवाह का मुहूत्र्त वैशाख शुक्ल नवमी जानकी जयन्ती के बाद वैशाख शुक्ल दशमी को ही निर्धारित किया और इस प्रकार मिलने में एक मास का अन्तराल पड़ ही गया। यह समय कालिदास ने मौन में तो नहीं बिताया किन्तु वे वाल्मीकि-रामायण का अनवरत पारायण करते रहे क्योंकि वे जानते थे कि मात्र कवित्वशक्ति प्राप्त कर लेने से ही कोई कवि नहीं हो जाता, कवि होने के लिए आदिकवि की कविता का अभ्यास अनिवार्य है।
21. भोजपुरी का प्रसिद्ध विरहा; ऐसी ससुराल सदा ही बनी रहे जहाँ भैंस का अत्यन्त स्वादिष्ट दही खाने को मिलता है, जहाँ सलहज इशारे से बुलाती है, और जहाँ के सब लोग गाली देते हैं। भारत के बहुत से अन्य क्षेत्रों की तरह, भोजपुरी-भाषी क्षेत्र में भी रिश्ते में बहनोई, ननदोई आदि लगने वाले को दिल्लगी के तौर पर गालियाँ देने की परिपाटी है।
इस समय में विद्योत्तमा की शिक्षा को अधिक परिपूर्ण बनाने की सघन प्रक्रिया भी चली। विभिन्न रतिबन्धों के प्रशिक्षण हेतु महादेवी मदनलेखा उसे अपने शयनागार में ले जातीं और दीवाल में जड़े युगनद्धों को उनके नीचे की दरार में मूठ तक अपनी कटार डाल कर सक्रिय करतीं। प्रतीत होता है कि वे कटार को ऊपर-नीचे न करती थीं क्योंकि यद्यपि युगनद्ध भावशान्तिपर्यन्त सक्रिय होते थे, फ़र्श की कोई पटिया झूल कर किसी सुरंग का मुहाना न बताती थी। उधर खण्डपाना को चेलिन माधवसेना आ कर विभिन्न वैशिक एवं औपनिषदिक24 प्रयोगों की, अपद्रव्य निर्माण की तथा चैंसठ पांचाली कलाओं की शिक्षा देती। खण्डपाना ने विद्योत्तमा को वात्स्यायन-सूत्रों के साथ-साथ दत्तक-सूत्रों और पौरूरवस सूत्रों का उपदेश किया तथा अनेक गुप्त और लुप्त कलाओं एवं प्रयोगों को राजकुमारी वासवदत्ता की पुस्तकों से सीख कर सिखाया। एक मास की इस प्रतीक्षावधि को प्रशिक्षावधि में बदलती हुई राजकुमारी विद्योत्तमा इन योग्य गुरूओं की योग्य शिष्या सिद्ध हुई।
विवाह हुआ और समागम की प्रथम रात्रि आयी।
(प्रिय पाठक, बहुत प्रयत्न करने पर भी इस अप्रिय लेखक के हाथ खण्डपाना की डायरी के वे पन्ने न लग सके जिनमें समागम की इस प्रथम रात्रि का विवरण दर्ज था। सुना जाता है कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उन पन्नों को ऐसा गायब किया कि आधुनिक हिन्दी साहित्य के किसी भी रचनाकार की उनतक पहुँच न हुई। अतः यह विवरण यहाँ नहीं दिया जा सका। अस्तु, अनुमानतः निम्नलिखित दोहा इस प्रकरण की समाप्ति पर ही अंकित थाः
सुरति ढीकुली लेज ल्यौ, मन ही ढोलनहार।
कँवल कुँआ में पे्रम-रस, पीवै बारंबार।।
समागम की प्रथम रात्रि के बाद प्रातः काल खण्डपाना ने विद्योत्तमा से पिछली रात के बारे में सवाल किया। प्रत्युत्तर में विद्योत्तमा ने खण्डपाना से कहाः
कान्ते तल्पमुपागते विगलिता नीवी स्वयं बन्धनाद्
वासश्च श्लथमेखलागुणधृतं किंचिन्नितम्बे स्थितम्
एतावत्सखि वेद्मि केवलमहो, तस्यांगसंगे पुनः
कोऽसौ काऽस्मि रतं च कीदृशमिति स्वल्पापि मे न स्मृतिः।।25
खण्डपाना ने कहा, ‘तो तुझे सिखाना-पढ़ाना सब बेकार गया। मुझे पहले से ही मालूम था कि ऐसा ही होगा।’
महादेवी मदनलेखा के प्रश्न के उत्तर में तो विद्योत्तमा ने इतना भी न कहा, सिफऱ् सिर नीचे झुका लिया। किन्तु महादेवी मदनलेखा की जिज्ञासा अनुपशमित न रही क्योंकि विद्योत्तमा के शरीर-चिह्न अपनी कहानी उनसे कह गये।
दिन किसी तरह बीता। समागम की द्वितीय रात्रि आयी।
जैसा कि बताया जा चुका है, विद्योत्तमा ने केवल वात्स्यायन का ‘कामसूत्र’ ही नहीं पढ़ा था, उसने राजर्षि पुरूरवा द्वारा उर्वशी के सहस्रवर्षीय साहचर्य के बाद लिखे गये ‘मनसिजसूत्र’ और ‘कादम्बरस्वीकरणसूत्र’ गपप भी पढ़ रखे थे और फलतः उसे मालूम था कि समागम की द्वितीय रात्रि को कापिशायन-प्राशन कितना हितकर होता है। उसने कालिदास पर कटाक्षपात करते हुए कहा, ‘प्रिय, उधर उष्ट्रिका26 में मदिरा है, जरा ढालना।’
22. पताका वेश्या - ऐसी वेश्या जिसका शुल्क अत्यन्त कम हो और अतः जिसके ग्राहक मुख्यतः निर्धन वर्ग से आते हों।
23. यह सुचिता रामदीन द्वारा सम्पादित तथा मारीशस से प्रकाशित (मारीशस में प्रचलित भोजपुरी लोकगीतों का संग्रह) संस्कारमजरी के पृ 428-429 पर दिये गये एक गीत का एक टुकड़ा है, गीत की पृष्ठ भूमि यह है कि विवाह के लिए जा रहे वर का एक मालिन से पूर्व-प्रेम हैः (मालिन कहती है) ऐ विवाह के लिए जा रहे वर, मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी। (वर का प्रत्युतर है) मेरी आशा और मेरी निकटता छोड़ो, मैं विवाह के बाद लौटूँगा तो तुम्हें भी अपना लूँगा। (मालिनी कहती है) न तो मैं तुम्हारी आशा छोडूँगी न तुम्हारी निकटता, तुम लौटोगे तो मुझे भूल जाओगे, मैं तो बेला और गुलाब बन जाऊँगी और तुम्हारे हार में एक ओर गुँध कर (छिपी हुई) चली चलूँगी। (वर का प्रयुत्तर है) मेरी सलहज अभी चढ़ती जवानी में है और बहुत नटखट है, वह मेरा हार उतार लेगी और मुझसे खेलने लगेगी (इस तरह वह मेरी और तुम्हारी यह चोरी पकड़ लेगी।) और मैं शर्मिंदा हो जाऊँगा।
कालिदास ने इधर उधर, कहीं उष्ट्रिका न दिखी। उन्होंने पूछा, ‘उष्ट्रिका कहाँ रखी है?’
कालिदास के मुँह में खण्डपाना की गिलौरी ठुँसी हुई थी। वे जो बोले वह यों सुनायी पड़ा, ‘उट्रिका कहाँ रखी है?’
विद्योत्तमा ने कहा, ‘वह क्या है, तुम्हारे पीछे।’
कालिदास ने फिर इधर उधर देखा है, कहीं उष्ट्रिका न दिखी। उन्होंने फिर पूछा, ‘उष्ट्रिका तो यहाँ कहीं नहीं है।’
कालिदास के मुँह में खण्डपाना की गिलौरी अभी ठुँसी ही हुई थी। वे जो बोले वह यों सुनायी पड़ा, ‘उष्टिका तो यहाँ कहीं नहीं है।’
विद्योत्तमा ने खीझ कर कहा, ‘थूको उस खण्डपाना छिनारी की गिलौरी को। तुम इस गिलौरी के नाते ‘उष्ट्रिका’ ठीक से बोल तक तो पा नहीं रहे हो, कभी ‘ष’ गायब हो जाता है, कभी ‘र’। तुम्हारा क्या भरोसा करूँ?
उष्टेª लुम्पति षं वा रं वा, तस्मै दत्ता विकटनितम्बा
किं न करोति स एव ममेष्टः, किं न करोति स एव सभेंग।। गपपप
कालिदास ने इसके उत्तर में तो कुछ न कहा किन्तु गिलौरी उन्होंने थूकी नहीं। विद्योत्तमा की खीझ बढ़ गयी। उसने कहा, ‘न जाने तुम्हें इस गिलौरी में क्या स्वाद मिल रहा है कि न तो तुम्हें कापिशायन-प्राशन की सुध रही है, न अधरसुधा-प्राशन की। कहाँ मैंने सोचा था कि आज तुम्हें स्वाधिष्ठानसुधा-प्राशन कराऊँगी।’
कालिदास ने इसके उत्तर में भी कुछ न कहा और गिलौरी चुभलाते रहे।
विद्योत्तमा की खीझ का पार न रहा। उसने कहा, ‘तुमने तो नागरिकता भी खो दी, पामरों27 की राह पकड़ ली है। इस गिलौरी में आखि़र कौन सा रस भरा है जो तुम एक माहिषिक की भाँति अपनी वाणी के परिभ्रंश से बेखबर मुस्कुराये चले जा रहे हो। निर्लज्ज।’
विद्योत्तमा पलँग की दूसरी पाटी पकड़ कर मुँह दूसरी ओर कर के सो गयी।
कालिदास मुँह में गिलौरी ठूँसे-ठूँसे विद्योत्तमा को उसकी जुल्फ़ें सहलाते हुए मनाते रहे। विद्योत्तमा का मान बढ़ता ही गया।
रात बीतती गयी।
सुबह-सुबह विद्योत्तमा की आँखें झपकने लगीं। सुषुप्ति ने तनाव की जगह आलस्य को जगाया, आलस्य ने कठोरता की जगह मृदुता को, मृदुता ने मान की जगह काम को। विद्योत्तमा ने सपने में कालिदास को जगाया और उनका मुँह चूमने चली। और झटके से वह चैतन्य हो गयी। कालिदास वहाँ न थे। खण्डपाना की गिलौरियों से भरा पानदान खाली हो चुका था और उगालदान भरा हुआ था।
24. किसी भी पुरूषार्थ की सिद्धि हेतु बने शास्त्र में एक ‘औपनिषदिक प्रकरण’ होता है जिसमें रहस्यात्मक उपाय बताये जाते हैंः ये उपाय ही ‘औपनिषदिक प्रयोग’ है। काम-पुरूषार्थ की सिद्धि हेतु बने काम-शास्त्र में तथा अर्थ-पुरूषार्थ की सिद्धि हेतु बने अर्थ-शास्त्र में यह विविधि योगों का उपदेश है जो आयुर्वेद, ज्योतिष और मन्त्र-विद्या पर आधारित होते हैं। मोक्ष-पुरूषार्थ की सिद्धि हेतु बने मोक्ष-शास्त्र में यह वही है जिसे हम ‘उपनिषद्’ के नाम से जानते हैं। धर्म-पुरूषार्थ की सिद्धि हेतु बने धर्म-शास्त्र में यह विविध काम्य प्रयोगों की वर्णना है जिसके प्राचीनतम ग्रन्थ सामविधान, यजुर्विधान आदि है।
’वैशिक प्रयोग’ वे प्रयोग हैं जिनका ज्ञान वेश्याओं तक सीमित है। अपद्रव्य उन कृत्रिम पदार्थों को कहते हैं जो फिलहाल ‘सेक्स ट्वाय’ के नाम से जाने जाते हैंः ‘चैंसठ पांचाली कलाएँ’, शय्या-विहार की चैसठ कलाएँ हैं। विशेष विवरण के लिए देखिए वात्स्यायन-कृत कामसूत्र।
5.2.12
समागम की द्वितीय रात्रि के बाद प्रातः काल खण्डपाना ने विद्योत्तमा से पिछली रात के बारे में सवाल किया। प्रयुत्तर में विद्योत्तमा ने दो बूँद आँसू टपका दिये।
खण्डपाना ने कहा, ‘ठीक है, मैं समझ गयी। तुझे मान करना सिखाया था, अतिमान से रोका था। लेकिन तू ठहरी राजा की बेटी, गुस्से पर क़ाबू न पा सकी। अब बता क्या करूँ?’
विद्योत्तमा ने कहा, ‘चाहे जैसे हो सखी, उन्हें मना कर मेरे पास ले आ।’
खण्डपाना ने कहा, ‘कह तो रही है ‘चाहे जैसे’ लेकिन जब इतना क्रोध करती है तो मेरा भरोसा ही क्या? खैर बता क्या-क्या बात हुई।’
विद्योत्तमा ने रात की बात शब्दशः सुना दी।
खण्डपाना ने सिर पीट लिया और बोली, ‘सत्यानाश जाये, तूने उसे ‘माहिषिक’ कह कर गजब कर दिया। तुझे मालूम नहीं, यह बचपन में भैस चरा कर ही अपना गुज़ारा करता था।’
विद्योत्तमा का मुँह सफ़ेद पड़ गया। बड़ी मुश्किल से आवाज़ निकली, ‘सखी, आग लगे मेरी जीभ को, मुझे यह कहाँ मालूम था। अब क्या होगा?’
खण्डपाना ने कहा, ‘देख, कोशिश करती हूँ। याद रखना, तूने कहा है, ‘चाहे जैसे उन्हें मना कर मेरे पास ले आ।’ फिर मुझे कुछ मत कहना।’
विद्योत्तमा ने कहा, ‘चाहे जैसे उन्हें मना कर मेरे पास ले आ। मैं कुछ न कहूँगी।’
5.3 चित्रकर्मा की चूक
5.3.1
खण्डपाना कालिदास की खोज में निकली तो किन्तु उनसे वह मिल न सकी। पता लगा कि महाराज ने कालिदास को अपने खास महल में बुलाया है।
महाराज विक्रमादित्य उस दिन प्रातःकाल अत्यन्त प्रसन्न थे। उनकी प्रिय बहिन को उसका मनचाहा वर मिल गया था और महादेवी मदनलेखा के अनुसार दोनों ने सुखपूर्वक रात बितायी थी। लगे हाथ यह आशा भी बँध गयी थी कि उनके दरबार के नवरत्नों में एक वाक्सिद्ध कवि की अभिवृद्धि होगी। आज उन्होंने कालिदास को एक अन्य नवरत्न, चित्रकर्मा, की कला का चमत्कार देखने को बुलाया था और उन्हें अपनी निजी चित्रशाला में ले आये थे।
चित्रों पर पर्दे पड़े हुए थे। महाराज एक चित्र का पर्दा हटाते, कालिदास चित्रकर्मा की तारीफ़ के पुल बाँधते। महाराज चित्र पर पर्दा डालकर आगे बढ़ते और दूसरे चित्र का पर्दा हटाते, कालिदास फिर चित्रकर्मा की तारीफ़ के पुल बाँधते।
विविध चित्रों को देखते-सराहते कालिदास एक चित्र के पास पहुँचे। महाराज ने पर्दा हटाया। यह चित्र महादेवी मदनलेखा का था। देखते ही कालिदास के मुँह से निकला, ‘वाह, वाह, क्या बात है। लगता है, साक्षात् महादेवी मदनलेखा सामने पर्यंक पर सुखासीन हैं।’
तभी एक प्रतीहारी आयी और सिर झुका कर बोली, ‘महाराज, महामात्य आस्थान में आये हैं और निवेदन कर रहे हैं कि प्रत्यन्त प्रदेश में शकों की गतिविधियों के बारे में कुछ सूचना आयी है जिस पर महराज का तत्काल आदेश वांछित है।’
महाराज कुछ हिचकिचाये, फिर कहा, ‘प्रिय कालिदास, तुम मेरे बहनोई और महादेवी के ननदोई हो। मेरी निजी चित्रशाला में विचरण के तुम सर्वथा अधिकारी हो। तुम कुछ देर यहाँ चित्रकर्मा के चित्रकर्म पर अपनी पारखी नज़र डालो, मैं अभी आया।’
25. सखी, क्या बताऊँ। प्रिय जैसे ही पलँग पर आया, मेरी नीवी अपने-आप खुल गयी और ढीली पड़ चुकी करधनी के सहारे किसी तरह वस्त्र थोड़ा-सा टिका रह गया। फिर वे कौन हैं, मैं कौन हूँ और रति कैसी हुई, इसकी मुझे कोई याद नहीं।
26. उष्ट्रिका-मिट्टी की बनी ऊँट की शक्ल की सुराही जिसमें मदिरा रखी जाती है।
महाराज चले गये और कालिदास उस चित्र पर नज़रें गड़ाये उसे देखते रहे। न जाने क्यों उन्हें यह लग रहा था कि कहीं कुछ कमी है। उन्होंने निकट जा कर चित्र को छू कर देखा। उनकी उँगली चित्र में बने बाँये पैर के अँगूठे पर पड़ गयी। चित्र दीवाल में पीछे धसक गया और उसकी जगह एक दूसरा चित्र सामने आ गया।
यह चित्र भी महादेवी का ही था किन्तु पूर्णतया विवस्त्रावस्था में। स्पष्ट था कि इसके लिए महादेवी को चित्रकर्मा के सामने विवस्त्रावस्था में बैठना पड़ा होगा।
कालिदास ने थोड़ी देर गौर किया, फिर स्वगत ही बोले, ‘आखि़र स्त्री-सुलभ लज्जा ने महादेवी को विवश किया कि वे अपने जघन-प्रदेश को चण्डातक28 से ढँके रखें। कलाकार से कुछ छिपाना उन्हें ठीक न था।’
इतना कहकर कालिदास आगे बढ़े और चित्रांकित महादेवी के स्मर मन्दिर में नीचे दाहिनी ओर एक तिल बना दिया। अब उन्होंने अपनी उंगली चित्र में बने बाँये पैर के अँगूठे पर रखी। चित्र दीवाल में पीछे धसक गया और उसकी जगह को पहले चित्र ने आकर फिर आच्छादित कर लिया।
कालिदास ने चित्र पर पर्दा डाला और अगले चित्र की ओर बढ़े। तभी एक प्रतीहारी इस संदेशे के साथ चित्रशाला में घुसी कि महादेवी ने अपने ननदोई कालिदास को अन्तःपुर में बुलाया है।
5.3.2
महाराज जब चित्रशाला में वापस आये तो उन्हें एक प्रतीहारी ने सूचना दी कि महादेवी ने कालिदास को अन्तःपुर में बुलाया है और महाराज से भी अनुरोध किया है कि वे वहीं पधारें। यों तो महाराज विक्रमादित्य की कई रानियाँ थीं और वे चेटी-संग या वेश्या संग से भी परहेज़ न करते थे किन्तु सिंहलेश-पुत्री महादेवी मदनलेखा का स्थान सबसे अलग था। वे राज्यकार्य मे उनके महामात्य से भी अधिक सहायक थीं, उनके स्वास्थ्य की देख-रेख में राजवैद्य भट्टारक हरिचन्द्र से भी अधिक सजग थीं, उनके भोजन को लेकर सूपकार बल्लव से भी अधिक सतर्क थीं, उनकी सेवा मे उनके चेट मधुमंगल से भी अधिक तत्पर थीं, उनकी सुरक्षा में उनके खड्ग अपराजित से अधिक सावधान थीं। रूप में उर्वशी भी उनके सामने तुच्छ थी, शय्या में रम्भा भी उनकी बराबरी न कर सकती थीं। पातिव्रत्य में वे अरून्धती थीं तो शील में रूक्मिणी। महाराज विक्रमादित्य उनसे बतियाते तो बतियाते ही रहते, उनको निहारते तो निहारते ही रहते। आज भी, यद्यपि वे उनके पास ही जा रहे थे, उनके चित्र को एकान्त में भरपूर देखने का लोभ वे संवरण न कर सके। कुछ देर देखने के बाद उन्होंने ऊपर का चित्र हटा दिया और नीचे के चित्र में महादेवी के अनावृत शरीर की रूपछटा को ऐसे देखने लगे जैसी पहली बार देख रहे हों।
तभी उन्हें जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो। उन्हें खूब याद था कि उनके बहुत आग्रह के बाद भी महादेवी ने चित्रकर्मा के सामने चण्डातक उतारने से इनकार कर दिया था और पूर्णतः अनावृत अवस्था में न प्रस्तुत हुई थीं। परिणामतः जघन-प्रदेश का तिल चित्र में न आ पाया था। प्रायः इस अपूर्णता को लेकर वे महादेवी को यह कहकर चिढ़ाया भी करते थे कि यह चित्र उनकी पत्नी का नहीं, उनकी साली का है। किन्तु आज वह अपूर्णता पूर्णता में बदल गयी थी। इसमें तो कोई सन्देह न था कि यह तिल कालिदास ने ही बनाया था किन्तु प्रश्न यह था कि इस गोपनीय शरीर-लक्षण का कालिदास को पता कैसे लगा। इस प्रश्न के सम्भव उत्तरों की संख्या बहुत न थी। महाराज को निश्चय हो गया कि कालिदास महादेवी का जार है।
क्रोध से उनका शरीर और मन जल उठा। इतना बड़ा धोखा, इतने निकट के आत्मीयों द्वारा!
राजदाराभिमर्श का एक ही दण्ड था, मृत्युदण्ड। वह कैसे दिया जाय?
27. कामशास्त्रीय सन्दर्भ में ‘नागरिक’ का अर्थ ‘रसिक’ और ‘पामर’ का अर्थ ‘अरसिक’ है।
टिप्पणियाँ और सन्दर्भ
प काव्यप्रभाकर, नागरीप्रचारिणीसभा पृ. 129-130
पप भारतेन्दु-काल के भूले-बिसरे कवि और उनका काव्यः लेखक डाॅ. रामनिरंजन परिमलेन्दु ; प्रकाशक नागरी-प्रचारिणी सभा, वाराणसीः 2002, पृ. 302
पपप काव्यप्रभाकर, नागरीप्रचारिणीसभा पृ. 690।
पअ राजसिंहासन खाली रहने पर नये राजा के चुनाव की अनेक विधियों का उल्लेख प्राचीन संस्कृत साहित्य में मिलता है। इनसे से एक विधि मंगल हस्ती की भी थी। एक हाथी राजधानी में घुमाया जाता था। वह जिसे उठा कर अपनी पीठ पर बिठा ले उसे ही राजा बना दिया जाता था। योगवासिष्ठ में गाधि ब्राह्यण की कथा के अन्तर्गत एक चाण्डाल का राजा के रूप में चयन इसी प्रकार हुआ है।
अ पादताडि़तक नामक भाण में भिषक् हरिचन्द्र का नाम एक प्रमुख विट के रूप में मिलता है। साथ ही, लज़्ज़तुन्निसा नामक एक ग्रन्थ में, जो एक कामशास्त्रीय ग्रन्थ होने का दावा करता है और किन्हीं मुहम्मद अब्दुल लतीफ़ मुज़्दरी महदूनी का लिखा या उनके द्वारा प्रतिलिपित है, में कहा गया है कि कोका पण्डित का वास्तविक नाम ‘हरिचन्द्र’ था। (इस ग्रन्थ का श्रंदमज थ्पदम द्वारा किया गया अँग्रेज़ी अनुवाद ‘क्लासिक्स बुक्स’ द्वारा मुम्बई से 2002 में प्रकाशित हुआ है) इन आधारों पर मैंने इस चरित्र की कल्पना की है।
अप इस अनुच्छेद में बहुत कुछ मनगढ़त है किन्तु वराहमिहिर, भर्तृहरि, विक्रमादित्य, वैद्यराज हरिचन्द्र, शंकु और अमरसिंह, शाबरभाष्य के रचयिता शबरस्वामी के पुत्र थे, इस सम्बन्ध में यह श्लोक पण्डितों में प्रसिद्ध है ः
ब्राह्मण्यामभवद् वराहमिहिरो ज्योतिर्विंदामग्रणी
राजा भर्तृहरिश्च विक्रमनृपो क्षत्रात्मजायामभृत्
वैश्यायां हरिचन्द्रवैद्यतिलको जातश्च शंकुःकृती
शूद्रायामरः षडेव शबरस्वामिद्विजस्यात्मजाः।।
और इनमें से वराहमिहिर, अमरसिंह तथा शंक का उल्लेख विक्रमादित्य के नवरत्नों में है। भर्तृहरि सम्बन्धी कथाएँ भी लोकप्रचलित हैं।
अपप आचार्य हरिभद्र सूरि के धूर्ताख्यान के आधार पर।
अपपप बाणभट्ट की कादम्बरी में चन्द्रापीड की ताम्बूलकरंकवाहिनी का नाम पत्रलेखा है। कामसूत्र की जयमंगला टीका में चन्द्रापीड और पत्रलेखा की रति का उल्लेख है और उसे ‘पोटारत’ के उदाहरण के रूप में रखा गया है (कामसूत्र, साम्प्रयोगिक अधिकरण, अभ्यास 10)। किन्तु कादम्बरी के उपलब्ध अंश में ऐसे किसी सम्बन्ध का संकेत प्रत्यक्ष नहीं है। सम्भवतः जयमंगला-कार ने किसी भिन्न स्रोत के आधार पर ऐसा लिखा है।
पग कौटल्य के अर्थशास्त्र, प्रथम अधिकरण, ‘राजप्रणिधि’ शीर्षक अध्याय 19 के आधार पर लिखा गया।
ग इस प्रथा के उल्लेख के लिए देखिए कथासरित्सागर, प्रथम लम्बक, द्वितीय तरंग में वर्ष उपाध्याय की कहानी।
गप कालिदास के महामूर्ख से महाकवि बनने की कई कहानियाँ प्रचलित हैं; उनमें से एक यह भी है कि यह सिद्धि एक दासी द्वारा परिहास में अपना जूठा पान खिला देने के नाते मिली थी।
कालिदास के चरवाहा होने का भी उल्लेख इन्हीं कथाओं में है।
गपप इन दोनों ग्रन्थों का संग्रह चैखम्बा से प्रकाशित कामकुंजलता में किया गया है।
गपपप जैसा कि पादप्पिणी में बताया गया था, ‘उष्ट्रिका’ का अर्थ है, मिट्टी की बनी ऊँट की शक्ल की सुराही जिसमें मदिरा रखी जाती हैै। इस अर्थ में प्रयोग के लिए देखिए, शिशुपालवध, 12-26। विद्योत्तमा और कालिदास से सम्बन्धित इस प्रसिद्ध कथा के पुर्नलेखन में मैंने कुछ दूरारूढ शब्द-क्रीडा का सहारा लिया है। इस टिप्पणी में यथासम्भव उस शब्द-क्रीडा की व्याख्या का प्रयास किया गया है किन्तु यदि पाठक यहाँ आप्टे का संस्कृत शब्दाकोष साथ रखेंगे तो अच्छा रहेगा।
28. ‘चण्डातक’ एक बिकिनी-नुमा वस्त्र होता था।
इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध पद्य यह है उष्टेª लुम्पति षं वा रं वा तस्मै दत्ता निविड़नितम्बाः, किं न करोति स एव हि रूष्टः, किं न करोति स एव हि तुष्टः, देखिए प्रो रमेन्द्र मोहन बोस द्वारा सम्पादित अभिज्ञानशकुन्तलम् (चतुर्थ संस्करण कलकत्ता 1963) की भूमिका में पृ प्। इस की दूसरी पंक्ति को मैंने बदल कर किं न करोति स एव ममेष्टः, किं न करोति स एव सभेंगः कर दिया है। इस पद्य के विद्योत्तमा कृत होने की कोई सूचना नहीं है किन्तु मैंने इसे विद्योत्तमा-कृत मान लिया है और इसकी पहली पंक्ति में आये ‘निविडनितम्बा’ की जगह ‘विकटनितम्बा’ लिख कर यह कल्पना की है कि संस्कृत की प्रसिद्ध कवयित्री विकटनितम्बा वस्तुतः विद्योत्तमा ही थी (यद्यपि विद्वानों ने विकटनितम्बा का समय कालिदास के बहुत बाद निर्धारित किया है)। इस प्रकार मैंने पहले आये कान्ते तल्पमुपागते... वाले शार्दूलविक्रीडित को, जिसे ‘विकटनितम्बा’ का भी बनाया माना जाता है और ‘अमरूक’ का भी, विद्योत्तमा का वाक्य बनाया है। ‘विकटनितम्बा’ का अर्थ है, ‘विशाल नितम्बों वाली’।
मेरे द्वारा पुननिर्मित पद्य का अर्थ यह होगा ‘जो व्यक्ति ‘उष्ट्र’ में कभी ‘ष’ का लोप कर देता है, कभी ‘र’ का, उसे मैं ‘विकटनितम्बा’ दे दी गयी हूँ। वह व्यक्ति मेरा इष्ट है, किन्तु यदि ‘इष्ट’ में ‘र’ का लोप मान लिया जाय, तो यह मेरा ‘रिष्ट’ हो जायेगा, वह व्यक्ति सभा में ‘इंग’ है किन्तु यदि ‘इंग’ में ‘ष’ का लोप मान लिया जाये, तो वह सभी में ‘षिंग’ हो जायेगा।’
‘उष्ट्र’ का अर्थ अब हम ‘ऊँट’ समझते है किन्तु ‘उष्ट्र’ का अर्थ ‘भैंसा’ भी होता है, इस प्रकार ‘उष्ट्रिका’ का अर्थ ‘भैंस’ भी हुआ। ‘इष्ट’ का अर्थ ‘चाहा हुआ’ है, ‘रिष्ट’ का अर्थ ‘लाभकर’ भी है, ‘हानिकर’ भी। ‘इंग’ का अर्थ है ‘विस्मयकारी’, ‘षिंग’ का अर्थ ‘लम्पट’, ‘स्त्रीलोलुप’ है। इस तरह खींच-तान कर मैंने पद्य में कुछ अर्थ ठूँसने की चेष्टा की है, त्रुटियों के लिए विद्वान् क्षमा करेंगे।