12-Dec-2017 05:51 PM
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बांग्ला से रूपान्तर : रामशंकर द्विवेदी
केम्ब्रिज और आक्सफ़ोर्ड में भारतीय गणितज्ञ और अर्थनीति विशेषज्ञों का विशेष सम्मान होता है। रामानुजन से लेकर आज के अमर्त्य सेन तक यह परम्परा अक्षुण्ण है। ऑक्सफोर्ड को परिहास में कहा जाता है 'home of all lost causes' अर्थात् जो सब मत अथवा आदर्श विचार संसार में कहीं भी ठहर नहीं पाते हैं, आक्सफोर्ड उन्हें अपनी गोद में खींच लेता है। चाहे जिस वजह से हो वारेन हेस्टिंग्स के ही शासन काल से ऑक्सफोर्ड भारत विद्या एवं प्राच्य धर्म और दर्शन का एक केन्द्र हो गया है। शायद, बहुतों को यह याद नहीं होगा कि हेस्टिंग्स ने उन्हीं विख्यात डॉ. जोन्सन (Old Chum) से सहायता की प्रार्थना की थी कि जिससे ऑक्सफोर्ड में भारत विद्या की एक शाखा फ़ारसी भाषा-साहित्य में अध्यापक का एक पद सृजित किया जा सके। चूँकि प्राच्य विद्या अनुशीलन की एक नित्य निरन्तर प्रवाहमान धारा है इसीलिए ऑक्सफोर्ड में राधाकृष्णन और अभी हाल में परलोकगत स्वनामधन्य विमलकृष्ण मतिलाल वहाँ अपने लिए एक सम्मानजनक स्थान बना पाये थे। अभी कुछ दिन पहले इण्डियन इन्स्टिट्यूट भारत विषयक ग्रन्थों का संग्रहालय था। पन्द्रह वर्ष पहले बोडलियन लाइब्रेरी में वह संग्रह भी चला गया है। दार्शनिक डॉ. सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त केम्ब्रिज में कई वर्ष रहे थे। उन्होंने वहीं अपना शरीर छोड़ा था। किन्तु, आज उन्हें केम्ब्रिज में कोई बहुत अधिक याद नहीं करता।
राधाकृष्णन और विमलकृष्ण मतिलाल ने अपना निजी दार्शनिक सिद्धान्त निर्मित करने की ओर उतना ध्यान नहीं दिया जितना ध्यान उन्होंने विदेशियों को भारत विद्या से परिचित कराने की ओर दिया। वे दोनों लोग ही बहुत से ग्रन्थों, दार्शनिक-पत्रिकाओं और असंख्य सेमिनारों और अपने भाषणों के माध्यम से भारतीय दर्शन की रत्नराशि को पश्चिमी जगत में ले आये। इस क्षेत्र में उन्होंने स्वदेश के राजदूत का काम किया है और उन्होंने पर्याप्त सम्मान भी पाया है। और ऑक्सफोर्ड-प्रवासी स्वनामधन्य क्षुब्ध बंगाली लेखक नीरद चौधुरी मोशाय के सम्मान और प्रतिष्ठा की कहानी तो सर्वजन विदित है। किन्तु और एक प्रतिभाशाली बंगाली दार्शनिक के बारे में हम भूल ही गये हैं जिन्होंने तीस वर्ष ऑक्सफोर्ड में रहकर अपनी एक मौलिक दार्शनिक चिन्तन पद्धति बना ली थी।
बसन्तकुमार ने सात ग्रन्थों में दर्शन के इस क्रमिक विकास को विद्वत समाज के समक्ष प्रकाशित किया था। अपने कुछ सुधी, घनिष्ठ विदेशी बन्धुओं से उन्हें कुछ सम्मान और प्रेम मिला था- स्वदेश के बन्धुओं और गुणीजनों से भी शायद उन्हें कुछ प्रशंसा मिली थी, किन्तु वृहत्तर जगत् से उन्हें जो सम्मान और प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए, वह नहीं मिली। अपने वंश अथवा देश के लोगों से जो सहायता प्रत्याशित थी, वह भी उन्हें कभी नहीं मिली। इसको लेकर उन्होंने कोई दुःख व्यक्त नहीं किया। एक सच्चे दार्शनिक की तरह दुनिया की इस अवहेलना को उन्होंने स्वीकार कर लिया था। सिर्फ़ एकबार उन्होंने अपनी नाराज़गी व्यक्त की थी। जीवन के अन्तिम पर्व में उन्होंने अपने पितृपुरुषों के गोत्र (सेनशर्मा) को छोड़ना चाहा था। ताकि सारा संसार उन्हें ‘बसन्तकुमार’ के नाम से जाने। 1958 ईस्वी में ऑक्सफोर्ड में ही उनका देहावसान हुआ। उनकी अन्तिम इच्छानुसार काशी के मणिकर्णिका घाट पर एक सूर्योज्ज्वल दोपहर में उनकी मृतदेह का हिन्दुशास्त्रों के अनुसार दाह संस्कार कर दिया गया था। उनका विश्वास था इतिहास की अनेक सीढ़ियाँ पार करते हुए मानव समाज द्वन्द्वहीन एक असीम सम्भावनाओं से भरे एक नये प्रभात के सामने आकर खड़ा हुआ है। उनके सारे जीवन की अथक दार्शनिक चिन्ता और अन्वेषा इसी एक तर्कसिद्ध दार्शनिक सिद्धान्त के क्रम विकास में लगी रही। उस नयी सभ्यता की रूपरेखा हमारे लिए अनजानी है किन्तु उसका आविर्भाव निश्चित है। उनके मन में अन्तिम दिन तक यह विश्वास बना रहा था कि दुनिया एक दिन उनके इस दार्शनिक चिन्तन को स्वीकार कर लेगी।
कोलकाता में आज भी दो-चार जन ऐसे हैं जो ‘मल्लिकदा’ की याद बनाये रखे हैं। बसन्तकुमार अपने बचपन के दोस्तों में ‘मल्लिकदा’ के नाम से ही परिचित थे। स्नेहप्रवण, मृदु स्वभाव, अर्थ के सम्बन्ध में असाधारण रूप से निःस्पृह ‘नदिया’ का यह व्यक्ति जब ‘परिचय’ लेखक वर्ग की गोष्ठी में सुधीन्द्रनाथ दत्त अथवा धूर्जटिप्रसाद के साथ तर्कयुद्ध में उतरता था, उसके चेहरे की आभा बदल जाती थी। उस समय वह एक कठोर युक्तिवादी नैयायिक हो जाता था, चिन्तन की ज़रा-सी भी अलग प्रणाली को वह व्यक्ति क्षमा नहीं करता था। 1930 ईस्वी की उस दौर की बौद्धिक मण्डली ने अपनी ‘परिचय’ गोष्ठी ने अपने मल्लिकदा को एक वाक्य में अपना नेता स्वीकार कर लिया था। किन लोगों द्वारा यह स्वीकृति दी गयी थी? शाहिद सुहराववर्दी, धूर्जटिप्रसाद, सुधीनदत्त, हीरेन मुखर्जी, किरण मुखोपाध्याय, सुशोमन सरकार, अवनी बनर्जी, अपूर्वचन्द, हुमायुँ कबीर, तुलसी गोस्वामी - इन लोगों जैसे तीक्ष्णधी बुद्धिजीवी तार्किकों ने। तीस वर्ष बाद स्मृतिचारण करते हुए धूर्जटिप्रसाद ने कहा था, सुधीनदत्त के घर में प्रति शुक्रवार को यह अड्डा जमता था, कथा-चर्चा-विवेचना, तर्क-निर्भर स्त्रोत की तरह प्रवाहित होता रहता था उस अड्डे पर। बसन्तकुमार मल्लिक, एम.ए. (ओक्सन) उस अड्डे में नियमित रूप से आते थे... मल्लिकदा सम्भवतः घण्टाभर के लगभग चुपचाप सुनते रहते थे, उसके बाद खूब शान्त भाव से कहते थे, ‘प्लीज’, यही होता था उनके भयंकर तर्कयुद्ध का प्रारम्भ। उसके बाद हम लोग उनके किसी एक तर्क गुच्छ पर झपट पड़ते थे। तब मल्लिकदा कहते थे, ‘इतिहास इस बात का समर्थन करता है।’ इस पर हम लोग उत्तर देते थे, ‘किन्तु, मल्लिकदा हमारा इतिहास तो दूसरी बात कहता है। सच बात कहने में कोई हर्ज नहीं है, हमारे लिये तो इतिहास का कोई मूल्य ही नहीं है।’ ‘जी हाँ, तब तो कोई बात ही नहीं है,’ यह कहते हुए मल्लिकदा दरवेश अथवा सन्देश खाने लगते थे। पर अधिक देर नहीं। थोड़ी देर बाद, विशुद्ध साहबी अँग्रेज़ी में अपनी युक्तियों का जो सौध वे हमारे सामने खड़ा कर देते थे, उसकी मैंने कोई तुलना आज तक तो प्राप्त की नहीं है। हम कम उम्र के लोगों ने यह आविष्कार कर लिया था कि इस तरह का तीक्ष्णधी, विश्लेषण धर्मी, युक्तिनिष्ठ मनीषी हमारे देश में बहुत कम लोग हैं।’ धूर्जटिप्रसाद ने आगे और भी लिखा है, बसन्तकुमार ने जो सात पुस्तकें लिखी थीं, उन्होंने उन पुस्तकों को अच्छी तरह पढ़ने की कोशिश की थी, ऑक्सफोर्ड में उनके बारे में चर्चा भी की थी किन्तु, विषय इतना दुरूह था कि इसे वे अच्छी तरह समझ नहीं सके थे। फिर भी बसन्तकुमार को वे आधुनिक भारत का एक अन्यतम सूक्ष्म विचारशील दार्शनिक मानते हैं। वैज्ञानिक सत्येन्द्र बोस इस दार्शनिक के विशेष बन्धु थे और उन्हीं के अनुरोध से दार्शनिक कृष्णचन्द्र भट्टाचार्य के छोटे बेटे कालिदास भट्टाचार्य को इस दर्शन की जानकारी मिली थी और उन्होंने उनकी मृत्यु के बाद उन पर एक बहुत सुन्दर प्रबन्ध लिखा था।
बसन्तकुमार के युक्ति तर्क की असाधारण प्रवणता कलकत्ता के विद्वतसमाज में प्रसिद्ध थी। इस सम्बन्ध में देवीप्रसाद चटोपाध्याय ने एक सुन्दर कहानी लिखी थी। एक मानवभक्षी बाघ ने एक बार बसन्तकुमार को खाना चाहा। बसन्तकुमार ने उससे कहा- एक विशेष युक्तितर्क उनके दिमाग़ में है, अगर वे उसे किसी को न सुनाए तो उन्हें शान्ति नहीं मिलेगी। बाघ उसे सुनने के लिए राज़ी हो गया कि उसके बाद वह उन्हें खा जाएगा। लगभग एक घण्टा भाषण देने के बाद बसन्तकुमार थोड़ा रुके, बाघ उन्हें खाने के लिए आगे बढ़ आया। बसन्तकुमार ने उससे कहा, मैंने अभी जो युक्ति तर्क प्रस्तुत किये, उनकी एक सहायक युक्ति है, उसे ध्यानपूर्वक सुनो, उसके बाद अपने काम में लगना। बाघ वापस जाकर अपने पंजे गड़ाकर बैठ गया। बसन्तकुमार ने अब अपना भाषण प्रारम्भ किया। थोड़ी देर बाद बाघ ने दो जम्हाई लीं। बसन्तकुमार उस समय अपना भाषण धारा प्रवाह देते जा रहे थे। थकी आँखों से वह बसन्तकुमार की ओर देखता जा रहा था, उस समय उसका दिमाग़ चक्कर खाने लगा था। दो घण्टे के बाद वह दार्शनिक थोड़ा रूका। बाघ धुँधली दृष्टि से लड़खड़ाते हुए उसकी ओर बढ़ आया। बसन्तकुमार ने हाथ उठाकर उसे रोकते हुए कहा, अब तक तो प्रतिपक्ष के तर्क प्रस्तुत किये गये, अब मैं असली युक्ति तर्कों की प्रस्तुत कर रहा हूँ। बाघ के दिमाग़ में तब तक भीषण दर्द शुरू हो चुका था। थके पैरों से वह लौट गया और थोड़ी देर में ही तर्कों के प्रवाह से वह बेजान हो गया। काफ़ी देर भाषण देने के बाद बसन्तकुमार ने बाघ को हिला-डुलाकर देखा, बाघ तब तक मर चुका था। उसके बाद बसन्तकुमार दूसरे श्रोता की खोज में निकल पड़े।
वैद्य सन्तान बसन्तकुमार वाणी एवं लेखनी से सारे जीवन युक्ति का जाल बुनते रहे। चालीस वर्षों की गहरी, एकनिष्ठ साधना के फलस्वरूप उन्होंने एक मौलिक, दार्शनिक सिद्धान्त की रचना की थी। वे जिस किसी के भी सम्पर्क में आए, उन सभी लोगों ने एक वाक्य में उनकी मनीषा एवं असाधारण आकर्षक व्यक्तित्व की प्रशंसा की है। किन्तु जीवन के विभिन्न दौर में स्वजन आत्मीय एवं मित्रों से आवश्यक सहायता और समर्थन बहुत थोड़े ही मिले हैं। फिर भी उनकी जीवन-व्यापी साधना एक अर्थ में सफल कही जाएगी कि उन्होंने सात ग्रन्थों का एक दार्शनिक सौध खड़ा कर दिया। उनकी अन्तिम पुस्तक उनकी मृत्यु के बाद निकली। 80 वर्ष की उम्र में मृत्यु-शैया पर लेटे-लेटे वे इस पुस्तक के प्रूफ़ देख गये। इस दृष्टि से वे भाग्यवान हैं, कारण जो लोग मौलिक चिन्तन का कारोबार चलाते हैं, उनमें ऐसे बहुत से मनीषी हैं, जिनके काम अधूरे रह जाते हैं।
उनकी सांसारिक असफलता के बारे में सोचते हुए थोड़ा अचरज में पड़ना पड़ता है। 70 वर्ष पहले ऑक्सफोर्ड की डिग्री उनकी जेब में थी, कलकत्ता अर्थात् तत्कालीन भारत के विदग्धतम आधुनिक समाज में उनकी गतिविधियाँ खूब स्वच्छन्द थीं। वे वहाँ एक सम्मानित बन्धु और अतिथि जैसे थे। ऑक्सफोर्ड जैसे अत्यन्त विशिष्ट पण्डित समाज में उन्हें कुछ अधिक सम्मान मिला था। उन्होंने चार वर्ष ऑक्सफोर्ड में पढ़ाया भी था।
ऐसा लगता है कि उनका सारा उद्बुद्ध चिन्तन और प्रयास दार्शनिक चिन्तन में इतना सराबोर था कि सम्मान और भौतिक सम्पत्ति अर्जित करने के लिए जिस दुनियादारी की ज़रूरत होती है, उसकी ओर उनका ध्यान था ही नहीं।
किन्तु कौन है ये बसन्तकुमार मल्लिक? दुनियादारी की कसौटी पर विफल इस दार्शनिक का जीवन एक अर्थ में बहुत विचित्र था। स्कॉटिशचर्च कॉलेज के भूतपूर्व प्राचार्य डॉ. आरकुहर्ट ने अपने एक संस्मरण में राधाकृष्णन से उनकी तुलना करते हुए कहा है, राधाकृष्णन ने तो पूरे विश्व में यश और सम्मान प्राप्त किया था किन्तु इस निरभिमानी दार्शनिक का शान्त, एकान्त जीवन एक अर्थ में और भी विविधतापूर्ण था।
1879 ईस्वी की 27 मई को बसन्तकुमार का एक निर्धन सम्भ्रान्त वैद्यवंश में जन्म हुआ था। काँचरापाड़ा के हालीशहर में उनका बचपन बीता था। उस समय उनके पिता रेलवे के एक मामूली कर्मचारी थे। बसन्तकुमार के बचपन में उन पर उनकी दादी का गम्भीर प्रभाव पड़ा था। इस बुद्धिमती, स्नेहशील, दृढ़ चरित्र की महिला ने अपने प्रतिभावान नाती को पहचान लिया था। बसन्तकुमार जीवन भर उनके स्नेहिल स्वभाव और कहानी कहने की असाधारण क्षमता को कभी नहीं भूल पाये। उनके पिता कुछ शिथिल स्वभाव के व्यक्ति थे, मात्र 39 वर्ष की उम्र में अत्यधिक मद्यपान के कारण उनकी मृत्यु हो गयी। ग़रीबी में उन्हें अपनी पैतृक ज़मीन नदिया जिला के मेहरपुर गाँव में मिली। मल्लिक परिवार नदिया जिला में खूब प्रसिद्ध था। उनके पूर्व पुरुष एक स्वाधीन राजा के समान थे, उन्हें मुगल सम्राट की ओर से ‘मल्लिक’ उपाधि मिली थी। घर में घनश्याम एवं राधारानी के विग्रह कई सौ बरसों से स्थापित थे। शिशु बसन्तकुमार खोल बजाते हुए कीर्तन में विभोर हो जाता था, सभी उसके मीठे स्वभाव के कारण उससे प्रेम करते थे। फिर भी देखा यह जाता था कि यह आनन्दमग्न शिशु अपने को सभी से अलग कर एकान्त में घण्टों अकेला बैठा रहता था। मेहरपुर स्कूल से बसन्तकुमार ने 1896 ईस्वी में इन्ट्रेन्स परीक्षा पास की। अनेक आर्थिक कष्टों के होते हुए भी आज के स्कॉटिश चर्च कॉलेज में उन्होंने पढ़ना शुरू किया। अनेक विघ्न-बाधाओं के बीच उन्होंने 1902 में दर्शनशास्त्र में ऑनर्स के साथ स्नातक कक्षा उत्तीर्ण की। इसी समय से उनके मन में मौलिक दार्शनिक विचार का अंकुर दिखायी देने लगा था, इस विचार को लेकर स्कॉटिश चर्च कॉलेज के दर्शन विभाग के अध्यापक आरकुहर्ट के साथ उन्होंने लम्बी चर्चा की। उनके मन में एक तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई, ज्ञानगुणी जनों का तीर्थ स्थान ऑक्सफोर्ड जाकर दर्शनशास्त्र की पढ़ाई करें। पर यह कार्य कैसे हो, एक असहाय, सम्बलहीन 1902 ईस्वी का बंगाली छात्र कहाँ से सहायता पाएगा और कहाँ है सुदूर स्थित ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय। इसी बीच 1900 ईस्वी में परिवार के गुरुजनों की मध्यस्थता से उन्होंने विवाह कर लिया था। किन्तु, अन्तिम समय तक कुछ हो नहीं सका। स्त्री लावण्यप्रेमी के साथ उनका विशेष सम्पर्क नहीं था। विवाह के बाद ही वह अपने पिता के यहाँ चली गयी। 1962 ईस्वी में निःसंग इस स्त्री की मृत्यु हो गयी। इन सब चीज़ों के लिए बसन्तकुमार ने अपने को कभी क्षमा नहीं किया। हालाँकि अचरज की बात यह है कि अपनी ससुराल हजारीबाग में वे बीच-बीच में जाकर रहते थे। ससुराल के लोगों से उनके अच्छे सम्बन्ध थे।
वे एक नया सत्य आविष्कार करने के मार्गदर्शक हैं, यह निर्भीक विश्वास एवं दायित्वबोध उन्हें जीवन भर बना रहा था। चेतन और अवचेतन मन में वे प्राणपण से मार्ग खोजते हुए चलते रहे थे। कॉलेज के मेस में सर्वत्र वे दार्शनिक युक्तियाँ एवं सिद्धान्त की चर्चा करते रहते थे। धीरे-धीरे वे द्वन्द्ववाद की ओर आकृष्ट हो गये और इस क्षेत्र में ही उन्हें अपनी जीवन साधना का विषय खोजने से मिल गया। काँट एवं हीगेल पढ़कर वे सन्तुष्ट नहीं हुए। उनके वंश में शैवधर्म के प्रति खिंचाव बराबर बना रहा था। काशी विश्वनाथ मन्दिर के संचालन के लिए मल्लिक परिवार का अर्थदान बराबर पहुँचता रहता था। क्रमशः वही पारिवारिक ऐतिह्य उन्हें अर्निदिश्य भाव से निषेधात्मक दृष्टि से सच्चे मूल्य एवं तात्पर्य को खोजने की ओर प्रोत्साहित करता। वे समझ गये उनके जीवन का एक विशेष उद्देश्य और मूल्य हैं, हालाँकि उस समय उन्हें भयानक आर्थिक कष्ट था, थी धनी आत्मीय लोगों की अवज्ञा और थी उन जैसे विफल युवकों के प्रति समाज की दया। बीच में कई वर्ष तक वे स्कॉटिश चर्च कॉलेज होस्टल के सुपरिण्टेण्डेण्ट रहे थे।
इसी समय उनके जीवन में एक बड़ा सुअवसर आया। नेपाल के महाराजा शमशेर जंग बहादुर अपने बेटे के लिए एक गृहशिक्षक की तलाश में थे। किसी सूत्र से उन्हें बसन्तकुमार के बारे में पता चला और उन्होंने उन्हें नेपाल आने के लिए आमन्त्रित किया। 1909 ईस्वी में नेपाल दरबार में उनका नया जीवन आरम्भ हुआ। इस कर्मदक्ष, परिश्रमी, तीक्ष्णधी युवक से नेपाल नरेश अत्यन्त सन्तुष्ट हुए, उसे नेपाल के विदेश मन्त्रालय से जोड़ दिया। ब्रिटिश राज्य के साथ उस समय नेपाल के अच्छे सम्बन्ध नहीं चल रहे थे, इस युवक की विलक्षणता और परामर्श के कारण नेपाल की विदेश नीति निर्धारण का अच्छा फल निकला। उनकी अपने दर्शनशास्त्र से संगतिपूर्ण न्यायनीति का यही पहला सफल प्रयोग था। नेपाल की सम्प्रभुता की रक्षा करते हुए ब्रिटिश सरकार के साथ बाद में हुई सन्धि को पूरा करने में बसन्तकुमार का बहुत बड़ा योगदान था। इधर नेपाल दरबार में उनकी ख्याति और समृद्धि के साथ उनके शत्रुओं की संख्या भी धीरे-धीरे बढ़ने लगी। फिर भी उस दरबार में उनके गुणग्राहियों का भी अभाव नहीं था। नेपाल से जब कभी थोड़े दिनों के लिए देश आते थे तो धन और चीज़़ें आदि आत्मीयजनों को मुक्तहस्त से बाँट दिया करते थे। अपने लिए कुछ विशेष चीज़ें नहीं रखते थे। नेपाल महाराज को पता था कि ऑक्सफोर्ड में पढ़ने की उनकी कितनी तीव्र इच्छा है। लॉर्ड कर्ज़न उन दिनों ऑक्सफोर्ड के चांसलर थे। महाराज शमशेर राणा ने उन्हें पत्र लिखकर सारी व्यवस्था ठीक कर दी। 1912 ईसवी में हिमालय की स्निग्ध शीतल गोद छोड़कर बसन्तकुमार कानून पढ़ने के लिए एक्स्टर कॉलेज के छात्र हो गये। कानून का यह ज्ञान भविष्य में नेपाल के काम आने वाला था। महाराज की ऐसी ही इच्छा थी। अब पश्चिम के विद्याकेन्द्र में बैठकर अपनी विचारधारा के मूल्य निरूपण का समय आ गया था।
ऑक्सफोर्ड का छात्र-समाज सदा किसी-न-किसी हीरो की तलाश में व्यस्त रहता है। जिस छात्र का व्यक्तित्व, उसकी बुद्धि की चमक छात्र समाज को आलोकित करने लगती है, फिर वे लोग उसका कौन-सा देश है, उसके शरीर का रंग कैसा है, उसकी जात-पाँत क्या है, इन सब चीज़ों को लेकर दिमाग़ ख़राब नहीं करते। पेरिस के छात्रवर्ग का भी यही गौरवमय इतिहास है। इसीलिए देखने को यह मिला है कि भारत और श्रीलंका के काफ़ी छात्रों को ऑक्सफोर्ड की छात्रयूनियन में विशेष महत्व प्राप्त हुआ है। हमारे हुमायुँ कबीर, त्रास्काइट नेता पाकिस्तान के तारिक अली ऑक्सफोर्ड यूनियन के प्रेसीडेंट थे। ऑक्सफोर्ड के छात्र समाज का महत्व पूरे ब्रिटेश में है। 80 वर्ष पहले नेपाल राज्य की आर्थिक सहायता से बसन्तकुमार जब ऑक्सफोर्ड पहुँचे, उनकी उम्र तैंतीस की थी। उनके एक अमरीकी सहपाठी का कहना था कि उस समय छात्र समाज में यह अफ़वाह फैल गयी थी कि शान्त-शिष्ट यह भारतीय ‘कूटनीति’ में ब्रिटिश ‘राज’ से भी श्रेष्ठ है। पहले विश्वयुद्ध तक ऑक्सफोर्ड के विद्वत समाज की जो संस्कृति थी, उसमें बसन्तकुमार ने गिलबर्ड मरे, कवि रोबर्ट ब्रिजेस जैसे व्यक्तियों का सानिध्य प्राप्त किया था। उनके बहुत से छात्र मित्रों में कवि रोबर्ट ग्रेव्स घनिष्ठतम थे। अँग्रेज़ी साहित्य के विख्यात समालोचक एवं ग्रन्थसूची विशेषज्ञ फेडी वेटसन ने प्रस्तुत लेखक को एक पोस्टकार्ड में लिखा था, 'Basant was my monitor and preceptor', इससे यह समझ में आता है, तत्कालीन छात्र समाज पर उनका कितना प्रभाव था। इसी समय वे जॉन मथाई, तुलसी गोस्वामी, अवनी बनर्जी, किरण मुखर्जी, के.एम. पणिक्कर के सम्पर्क में आये। बाद के युग में साहिद सुहराववर्दी, मुहम्मद अली छागला, इतिहासकार ताराचन्द, अपूर्वकुमार चन्द - ये सभी वहाँ के छात्र थे। कवि रोबर्ट गेव्स ने अपनी आत्मकथा ;गुडबॉय टू ऑल दैटए 1929द्ध में लिखा है, बसन्तकुमार से परिचित होने के बाद वे दर्शनशास्त्र की ओर आकर्षित हुए, ‘एक समय तो ऐसा आया कि मैं मनोविज्ञान यहाँ तक कि काव्य की अपेक्षा दर्शनशास्त्र को लेकर उन्मत्त हो गया था।’ इन्हीं सब प्रतिमावान व्यक्तियों के सानिध्य और इनके बन्धुत्व के कारण बसन्तकुमार का मनोजगत मानो अपना एक परिमण्डल और केन्द्र खोजने में सफल हुआ था। उनके अपने कमरे में उनकी परिचर्चा-गोष्ठी होती थी, कभी-कभी रोबर्ट ग्रेव्स अथवा वेटसन के घर में अथवा लेडी अटोलाइन के प्रशस्त कक्ष अथवा उनके बगीचे में। कभी-कभी आधी रात को वह सभा भंग होती थी। तब छात्रों को यह चिन्ता सताने लगती थी कि कॉलेज का फाटक बन्द हो जाने के बाद किस तरह से कॉलेज में छिपकर घुसा जा सकेगा। यह विवेचना चक्र ऑक्सफोर्ड में इतना प्रसिद्ध हो गया था कि 1958 ईस्वी में उनकी मृत्यु के बाद टाइम्स पत्रिका ने एक लम्बी प्रशस्ति में यह कहा था कि युद्धोत्तर युग के कई उज्ज्वल व्यक्तियों ने उनकी उस अतुलनीय चर्चाओं से सचमुच की शिक्षा ग्रहण की थी। 'Received from his incomparable talk the most stimulating part of their education in Oxford'. रॉबर्ट ग्रेव्स के साथ बाद में उनकी मित्रता भंग हो गयी। ग्रेव्स अमरीकी महिला कवि लोरा राइडिंग के द्वारा एक समय गम्भीर भाव से प्रभावित हो गये थे हालाँकि उन्होंने विवाहित जीवन नहीं बिताया था। सुनने में आया है एक भारतीय दार्शनिक के इस प्रभाव को लोरा अच्छी नज़र से नहीं देखती थी। 1957 ईस्वी में उनकी आत्मकथा के द्वितीय संस्करण में बसन्तकुमार की कोई चर्चा ही नहीं है।
1915 ईस्वी में कानून में ऑनर्स के साथ उन्होंने एल.एल.बी. की डिग्री प्राप्त की। अब वे नृतत्वशास्त्र और दर्शनशास्त्र की चर्चा में मग्न हो गये। इसी समय उनके जीवन में एक घटना घट गयी। उस समय वे इंग्लैण्ड के एक गाँव में थे। बहुत दिनों से जो द्वन्द्ववाद उनकी जाग्रत चिन्ता पर अधिकार किये हुए था, सहसा उसका स्पष्ट रूप उनके सामने उस प्रसन्न प्रभात में प्रकाशित हो उठा। इस नये आविष्कार के आनन्द से आत्मविभोर होकर वे गाँव छोड़कर तुरन्त ऑक्सफोर्ड चले आये। वह दिन (11 नवम्बर, 1918) पहले विश्वयुद्ध की समाप्ति का पहला दिन था। पूरा इंग्लैण्ड युद्ध समाप्त होने की वजह से उत्सव मनाने में पागल था। वर्षा और उत्सव में मग्न नर-नारियों की भीड़ को पार करता हुआ यह दार्शनिक सीधा कवि रोवर्ट ब्रिजेस के घर गया। यह अच्छी खबर देने। एक वृहत् दर्शन के आलोक में उसके लिए अब सब कुछ स्पष्ट और उज्ज्वल था।
इसी समय कई महिलाओं से उनका परिचय हुआ। मेरी नेईवार, नोरा बोल्टनए हिल्डा ओलडेन, वेनीफ्रेड लुइस एवं मेरी वाकर। ये सभी महिलाएँ उच्च शिक्षिता एवं व्यक्ति स्वातन्त्र्य परायणा थीं, ये सभी उनकी दर्शन चर्चा संगोष्ठियों में जाती थीं और इस भारतीय दार्शनिक की असाधारण प्रतिभा से चकित होकर अनुप्राणित होती थीं। इन कई विदेशी महिलाओं ने बसन्तकुमार के प्रवास जीवन में विशेष स्थान प्राप्त किया था। 1923 ईस्वी में तत्कालीन ऑक्सफोर्ड की स्नातकोत्तर डिग्री, वेचलर ऑफ साइंस के लिए (जिसका बाद में नाम हो गया डी. फिल अर्थात् डॉक्टरेट डिग्री) उन्होंने एक थीसिस प्रस्तुत की। अपने कई दार्शनिक विचारों के मूल विषयों को उन्होंने The problem of freedom इस शीर्षक से लिपिबद्ध किया। परीक्षकों ने उनके मौलिक अवदान की उल्लसित हृदय से प्रशंसा की। उनके मत से विश्व इतिहास और मानव समाज में तीन स्तरों का विकास हो रहा है- द्वन्द्व, निर्माण और समन्वय। हेगेल ने जिस विकासवाद का प्रतिपादन किया है, उससे यह विचार भिन्न है। इसी थीसिस में द्वन्द्ववाद पर उनका मौलिक नीति चिन्तन बीजरूप में लिपिबद्ध था। इसके मूल में दो तत्व हैं- प्रतिविरोध और द्वन्द्व (संघर्ष) में दोनों पक्षों का समान दायित्व और व्यक्ति के जीवन पर वे इसका प्रयोग करते थे। विश्वविद्यालय के नियमानुसार इस स्नातकोत्तर डिग्री के लिए उन्हें आवेदन की अनुमति और प्रमाण पत्र दिया गया था। ऑक्सफोर्ड में एम.ए. के लिए कोई परीक्षा अलग से नहीं है। खैर जो भी हो, फिर उन्हें यह डिग्री नहीं मिली, कारण उसी वर्ष उन्हें भारत लौट आना पड़ा। इतिहास की गति-प्रकृति को लेकर उनके पूरी तरह नये विश्लेषण ने ऑक्सफोर्ड के विद्वत समाज में हलचल मचा दी थी और भारत वापस आते समय नये आविष्कार के आनन्द से उनका मन भरपूर था। दुःख सिर्फ़ इस बात का था कि उन्हें अपने ऑक्सफोर्ड के प्रिय मित्रों को छोड़कर जाना पड़ रहा है।
कई आशाएँ लेकर वे लौट आये। कई दिन बड़े आनन्द से बीते। पुराने परिचितों, बन्धु-बान्धवों और आत्मीय जनों से भेंट हुई। उन्हें ऐसा लगा कि अब वे अपना काम आरम्भ कर सकते हैं। किन्तु देश की स्थिति उस समय एकदम अनुकूल नहीं थी, स्वाधीनता आन्दोलन के कारण पूरा बंगाल उन्मादग्रस्त था, पुलिस के अत्याचार से पूरा कलकत्ता पीड़ित था। आमदनी का कोई स्रोत नहीं, रहने की भी कोई स्थायी व्यवस्था नहीं, नेपाल राजदरबार उनके लिए बन्द द्वार की तरह था। वे समझ गये कि अन्ततः निराहार रहना शायद उनके भाग्य में वदा है। कई बार तो मकान का किराया चुकाना भी उनके लिए मुश्किल हो जाता था। चूँकि कलकत्ता और ऑक्सफोर्ड की डिग्री होते हुए भी यह व्यक्ति कोई कमाई नहीं कर रहा था- आत्मीयजनों में से कोई इसे अच्छी नज़र से नहीं देख रहा था। काफ़ी समय बाद 1929 ईस्वी में नेपाल राज ने उन्हें फिर से बुलाया। कई साल बाद वे कलकत्ता वापस आये थे, उन्होंने जो रुपया इकट्ठा किया था उससे उन्होंने काँचरापाड़ा के पास पलाशी नाम से विदित एक एक सौ बीघा का खेत खरीदकर संथालों के द्वारा खेती कराना आरम्भ किया। इसी समय 1932 ईस्वी में उन्होंने ‘परिचय’ की महफिल में जाना आरम्भ किया था और घूर्जटिप्रसाद ने बताया है कि मल्लिकदा एकबार कई सेर आलू और बड़े दो बैंगन ‘परिचय’ के गुणग्राहियों के लिए लेकर आये थे। वे कहा करते थे अपनी mutual abstention नीति का प्रयोग कर आजकल मैं खेती में लगा हुआ हूँ। तर्क चिन्तन के साथ बीच-बीच में लिखना-किन्तु जो उनके जीवन का काम था, उस दर्शनशास्त्र के सौध-निर्माण का अवसर एवं परिवेश उनके लिए कहाँ था।
इसी समय सुदूर स्वीडन से एक अप्रत्याशित पत्र आया। 1936 ईस्वी में स्वीडन के राजनैयिक से एक राजकर्मचारी ने उनकी तलाश कर उन्हें एक पत्र दिया। स्वीडन से श्रीमती लिलियन हस ने लिखा था कि 1912 ईस्वी में बसन्तकुमार ऑक्सफोर्ड में जिस घर में कुछ दिन रहे थे, उसी घर में वे बालिका की उम्र में अपनी गवर्नेस के साथ रहा करती थीं, इस समय वे एक दुःसाध्य बीमारी से ग्रस्त हैं, उनकी बड़ी इच्छा है स्वामी के साथ एकबार भारत जाकर उनसे एकबार भेंट कर आएँ। दार्शनिक प्रवर बसन्तकुमार किसी भी तरह यह याद नहीं कर पाये कि किस लड़की को उन्होंने आज से पच्चीस वर्ष पहले उसके बचपन में देखा था। फिर भी उन्होंने पत्र में लिखा कि वे आजकल अस्वस्थ हैं और इस स्थिति में स्वीडिश दम्पत्ति को आमन्त्रित करने में अक्षम हैं। इसके बाद की घटना तो और भी आश्चर्यजनक है। फिर भारी अनुरोध के साथ पत्र आया मल्लिक जिससे स्वीडन आकर कुछ दिन रहें और अपना स्वास्थ्य ठीक कर लें, साथ में जहाज का टिकिट भी था। उनके पूरे जीवनभर हमें यह देखने को मिलता है कि इस देश की हों या पश्चिम की महिलाएँ, उनके व्यक्तित्व की प्रतिमा से सदा आकर्षित रही हैं। पता चला है, अर्थसंकट में होते हुए भी वे जब यूरोप जाने की जोड़तोड़ कर रहे थे, उनके मित्रों ने उनकी सहायता की थी, और किसी एक विख्यात अध्यापक की स्त्री ने गुप्त रूप से उन्हें हार और अपनी सोने की चूड़ियाँ भेज दी थीं। अन्त में 1934 ईस्वी के सितम्बर में खिदिरपुर किंग जार्ज डेक से हम्बुर्ग जाने वाले एक जर्मन जहाज पर उन्होंने अपनी यूरोप यात्रा प्रारम्भ की। यह उनकी अन्तिम यात्रा थी। फिर वे देश वापस लौटकर नहीं आ पाये।
डॉक्टरों की राय को अस्वीकार कर फ्राड हास ने हमबुर्ग में उनका स्वागत किया। स्टॉकहोम पहुँच जाने के बाद लिलियन के पति वैज्ञानिक डॉ. हेरल्ड हास उन्हें अपने घर ले गये। बसन्तकुमार वहाँ छह महीने रहने के बाद अपने को विशेष स्वस्थ महसूस करने लगे। इसी समय उनके पास आकर खड़े हो गये उनके पुराने दौर के कई मित्र और महिलाएँ। इन्हीं लोगों ने उनके प्रवासी जीवन को सहज और सार्थक बनाया था। अब दिन समाप्त होने को आये था। फिर भी कई शताब्दियों की विचारधारा से धन्य इस विश्वविद्यालय में आकर उन्होंने नये उत्साह से अपने चिन्तन और अध्ययन का पुनर्मूल्यांकन प्रारम्भ किया। डॉ. राधाकृष्णन उस समय स्पोल्डिंग प्रोफेसर थे। मल्लिक ने उनके साथ इस विषय पर चर्चा की। राधाकृष्णन ने उन्हें सुझाव दिया कि पश्चिम के पाठकों के लिए जो विषय ग्राह्य हो, उसी को लेकर वे अपनी पहली पुस्तक लिख डालें। उस समय हिन्दू एवं मुसलमानों के विरोध को लेकर भारत एवं इंग्लैण्ड में भी कई तरह की चर्चाएँ हो रही थीं।
1939 ईस्वी में युद्ध के ठीक पहले डॉ. राधाकृष्णन के सहयोग से जॉर्ज एलेन एण्ड उनविन ने हिन्दू-मुस्लिम समस्या पर लिखी उनकी पुस्तक प्रकाशित की ‘व्यक्ति और समूह’। लेकिन एक तरह से इस विषय के लिए यह समय प्रतिकूल था। युद्ध उस समय द्वार पर था। यूरोप उस समय जीवन-मरण की समस्या से पीड़ित था। पुस्तक को जो आदर मिलना चाहिए था, वह उसे बाज़ार में नहीं मिला।
इसके बाद प्रायः लगातार एक वर्ष लिखते हुए दर्शनशास्त्र पर उनकी पहली पुस्तक 1940 ईस्वी में प्रकाशित हुई। उसका शीर्षक था ‘द रियल एण्ड द नेगेटिव’ (सत्य और असत्य) इस पुस्तक का थोड़ा अधिक आदर हुआ। ‘विस्डम फ्रॉम द ईस्ट’ (पौर्वात्य सभ्यता का विवेक) इस शीर्षक से टाइम्स लिटरेरी सप्लिमेंट ने इस पुस्तक पर एक लम्बी समालोचना निकाली। दर्शनशास्त्र की एक अभिजात पत्रिका ‘फिलॉसॉफ़ी’ ने कहा- इस कार्य की तुलना हीगेल के दार्शनिक सिद्धान्त से होनी चाहिए। उनका मूल वक्तव्य इस प्रकार है : विश्व जगत् का विकास विशेष रूप से तीन तरंगों में जारी रहता है। अनादि कालोद्भव प्रथम तरंग, अविच्छिन्न गुण सम्पन्न और उसके बाद आता है विच्छिन्नतावादी पर्व। इस समय मानव समाज, यह दुनिया संघर्ष पर्व के अधीन होती है। मनुष्य-मनुष्य में, जाति-जाति में मतभेद, संघर्ष और विरोध इस स्तर पर यह सभी प्रवृत्तियाँ प्रत्याशित हैं। इसके बाद पुनः आएगा अविच्छिन्नतावादी प्रवाह। आज के मानव समाज का विशेष दायित्व यह है कि इस विरोध पर्व को तुरन्त समाप्त करे, युद्ध, मतान्तर और रिक्तता का स्तर पार कर, एक ऐक्यधर्मी (या सामरस्यधर्मी) स्तर विकसित होना चाहिए।
‘माइथोलॉजी एण्ड पॉसिबिलिटी’ (मिथकविद्या और सम्भावना) उनका अन्तिम ग्रन्थ था (1960)। यह ग्रन्थ उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ था। फिर भी मृत्यु शैया पर वे पुस्तक का पहला प्रूफ़ देख रहे थे। भारतीय और पश्चिम के समालोचकों ने उनके दर्शन को गम्भीर रूप से स्वीकार किया है, यह माना है कि उनका दर्शन प्राच्य विचारधारा और आदर्श से अनुप्राणित है।
उनके दर्शन, उनकी आलोचना का अनुसरण करना मुश्किल है, किन्तु बीच-बीच में उनकी रचनाएँ भावी-दृष्टि की प्रभा से आलोकित हैं। काव्यात्मक गुणों से सम्पन्न हैं। उनकी अत्यन्त दुरूह पहली पुस्तक का अन्तिम अंश अद्भुत आत्मिक सौन्दर्य से अनुप्राणित है।
देश के पाठकों के लिए उस अंश का एक दुर्बल अनुवाद (अशोक देब चौधुरी ने इस अंश का बांग्ला में अनुवाद किया था, मैंने बांग्ला से हिन्दी में, अनु.) मैंने इस प्रकार किया है :
‘इसके बाद एक सभ्य मनुष्य का निवास स्थल महाविश्व के अन्तःस्थल में होगा, किसी सरोवर के तट पर नहीं, गगनचुम्बी पर्वत शिखर पर नहीं। हरे-भरे वृक्षों से सुशोभित दिगन्तव्यापी किसी अंचल में नहीं। जो स्वप्नसृष्टि उसे हर क्षण, युग-युगान्तर में, जन्म जन्मान्तर में राह दिखाती आ रही है, उसके मूल में है अमरत्व में विश्वास- उसका देवत्व उसे सभी पहेलियों और रहस्यों के पार ले जाएगा। ध्वंस के भय से मुक्त यह महाविश्व उस दिन उसके घर का आँगन होगा, उसके हर पदक्षेप में होगा सफलता का निश्चित विश्वास, क्योंकि उसे पता है कि जाग्रत अथवा निद्रित अवस्था में वह सदा अपने घर और अपने आत्मीयजनों के समीप है। इतना पथ पार करने के बाद सत्य-सुन्दर-शान्ति के रहस्य को उद्घाटित करने का यह दीर्घ प्रयास है। इसी की महासृष्टि का अंगीभूत यह मानव शिशु अपार धैर्य के साथ प्रतीक्षा करता रहता है। श्वास अवरुद्ध होने का भय हर क्षण उसकी चेतना में बना रहता है।’
उनके विश्वदर्शन के केन्द्र में है विश्वशान्ति की वाणी। हिन्दू-मुस्लिम समस्या को लेकर उन्होंने पुस्तक लिखी ‘व्यक्ति और समूह’ 1939 ईस्वी में। गाँधीवाद को लेकर उन्होंने एक पुस्तक लिखी- ‘गाँधी, एक भविष्यवाणी’ 1948 ईस्वी में। अपना विशाल दर्शन सौध-निर्माण करने के मध्यपथ में उन्हें लगा कि विश्वशान्ति के बारे में अपना चिन्तन और अन्तर्दृष्टि अपनी मृत्यु से पहले मानव समाज के समक्ष प्रकाशित करना आवश्यक है। उसका परिणाम हुआ, ‘द टॉवरिंग वेव’ (1953 ईस्वी में)। दूसरे विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में लिखी हुई साहित्यिक गुण सम्पन्न एक अपूर्व स्वप्न-सृष्टि; अपनी जीवन-व्यापी साधना की सच्ची स्वीकृति उन्हें एकबार ही मिली थी। कई अध्यापकों के प्रयास से ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में उन्होंने अपने दर्शन विषय को अतिथि अध्यापक के रूप में चार वर्ष पढ़ाया था। इसके अतिरिक्त जर्मनी के हाइडलवर्ग विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग ने उन्हें आमन्त्रित कर सम्मानित किया था।
जिन पाँच महिला शिष्यों ने बसन्तकुमार मल्लिक की 1937 से लेकर उनकी मृत्यु के समय 1958 तक देखभाल की है, उनसे मेरा परिचय 1965 ईस्वी में ऑक्सफोर्ड में हुआ। वे उस समय ऑक्सफोर्ड से दूर ओविंग नामक एक गाँव में रह रही थीं। जब भी मैं उनके यहाँ गया हूँ एक आत्मीय के रूप में ही उन लोगों ने मुझे ग्रहण किया है। दूसरे महायुद्ध के समय बसन्तकुमार 16 नम्बर पोलस्टेड राडे, ऑक्सफोर्ड में रहते थे। उस समय उनका निवास स्थान भारतीय, विशेषकर बंगाली छात्रों के लिए एक तीर्थस्थान हो गया था। विशेषकर रविवार की शाम को वे चाय की महफ़िल में आ जाया करते थे। भारत प्रेमी ये महिलाएँ इन छात्रों का कितने जतन से स्वागत, सत्कार करती थीं, यह बात बहुतों ने कही है। फिर कई लोग थे, जिन्हें ऑक्सफोर्ड में जब तक जगह नहीं मिलती थी, तब तक वे दस-पन्द्रह दिन इसी घर में रहा करते थे। अर्थशास्त्री ऋषिकेश बनर्जी, ग्रन्थागार विज्ञानी रंगनाथन, अध्यापक अमलेन्दु बसु, अध्यापक पद्मनाभ जेनी एवं और भी कई लोग इन महिलाओं के अतिथि वत्सल स्वभाव की बात कह गये हैं। डॉ. राधाकृष्णन भी हर सप्ताह चर्चा के लिए यहाँ आया करते थे। फिर भी उस विवेचना चक्र के मुख्य तारका रहते थे बसन्तकुमार मल्लिक। उनकी बुद्धि की प्रभा के आगे प्रोफेसर प्राइस और राधाकृष्णन दोनों म्लान हो जाते थे। यह बात मैंने उस आलोचना सभा में भाग लेने वाले एक बंगाली अध्यापक के मुँह से सुनी थी।
1958 ईस्वी में मृत्यु के बाद उनकी अन्तिम इच्छा के अनुसार उनकी मृत देह का संस्कार काशी के मणिकर्णिका घाट पर हिन्दू रीति-रिवाज़ के अनुसार किया गया था। उसके बाद से उनकी पाँच शिष्याओं में से एक शिष्या श्रीमती विन वाराणसी में 1970 ईस्वी तक रही थीं। इंग्लैण्ड में 1981 ईस्वी में उनकी मृत्यु हुई। बसन्तकुमार के जीवनकाल में ही इंग्लैण्ड में 1955 ईस्वी में बसन्त कुमार मल्लिक ट्रस्ट का गठन कर दिया गया था, जिससे उनके ग्रन्थ और अप्रकाशित पाण्डुलिपियाँ प्रकाशित होती रहें, उनके दार्शनिक विचारों का प्रचार होता रहे। सम्प्रति मैं यह देख रहा हूँ कि उनके दार्शनिक दृष्टिकोण के प्रति उत्सुकता बन रही है। न्यूयार्क में ‘ग्रेट पीस जर्निज़ ग्लोबल सम्मिट’ संस्था में मल्लिक के दार्शनिक अवदान को लेकर चर्चा हो रही है। दिल्ली से दो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं मेकिंग ऑफ़ द पीस : अ लॉजिकल एण्ड सोसाइटल फ्रेमवर्क एकॉर्डिंग टू बसन्तकुमार मल्लिक ;1985द्ध और इकॉलॉजी, कल्चर एण्ड फिलासॉफी : मेटाफ़िज़िकल पर्सपेक्टिव फ्रॉम बसन्तकुमार मल्लिक ;1988द्धण्
श्रीमती मेरी वाकर इस समय (जब यह संस्मरण लिखा गया- 30 मई, 1992) भी उसी गाँव में रह रही हैं, मल्लिक की दार्शनिक विद्या की शिष्याओं में वही एकमात्र जीवित व्यक्ति हैं। इस गाँव की ‘वुडलैण्ड्स’ नामक लता से आच्छादित कुटीर मेरा खूब जाना-पहचाना है। छोटा-सा गाँव, खूब साफ़-सुथरा, सवेरे-सवेरे बच्चे-बच्चियाँ, घोड़े पर चढ़कर घूमने जाते हैं। रविवार की सुबह गिरजा के सामने, उसके बाद गाँव के पब पर गाड़ियों की भीड़ लग जाती है। पब का नाम है ब्लेक ब्वाय; सुनने में आता है गृहयुद्ध के समय ;1642.49द्ध वह लड़का इसी पब में प्यास के मारे अपने साज-सामान के साथ आया करता था। इस समय यहाँ पर श्रीमती मोल अकेली रहती हैं- भारत अनुरागिनी इस महिला की एक मात्र आकांक्षा यह है कि बसन्तकुमार मल्लिक का दर्शन पूरी दुनिया में स्वीकृति प्राप्त कर ले। पूरे घर में फैली रहती हैं मल्लिक की अपनी किताबें- भारत सम्बन्धी एवं दुनिया के विभिन्न देशों के दर्शनशास्त्र सम्बन्धी असंख्य ग्रन्थ और उनकी पाण्डुलिपियाँ भी रखी रहती हैं। अतीत की स्मृतियों को वहन करती हुई विषाद की एक गन्ध इस घर के हर कमरे और कोने-कोने में फैली हुई है। घर के पीछे एक सुन्दर-सा बगीचा है, ट्यूलिप, होलीहोक और सभी तरह के सैकड़ों फूल वहाँ खिले रहते हैं।
इस घर में आते ही मुझे मित्र बसन्तकुमार मल्लिक को लक्ष्य कर एक यन्त्रणादायक क्षण में लिखी गयी रोबर्ट ग्रेव्स की वह असाधारण कविता बराबर याद आ जाती है- उसका शीर्षक है- ‘टू एम. इन इण्डिया’ . असहाय, सम्बलहीन मल्लिक भग्नहृदय से भारत में अपने दिन काट रहे हैं। पश्चिमी गोलार्द्ध के और एक छोर से ग्रेव्स ने अंकित की है दोनों लोगों की क्या स्थिति है, इसकी कथा। यह कविता अब सहज प्राप्य नहीं है, कारण, मल्लिक के प्रिय मित्र रोब (रोबर्ट ग्रेव्स) ने स्वयं ही इसे छपाना बन्द कर दिया है। भारतीय मित्र को लेकर इंग्लैण्ड के किसी बड़े कवि की लिखी सम्भवतः यही एकमात्र कविता है। विषाद से भरी इस सुन्दर कविता का मैं अनुवाद दे रहा हूँ :
सुदूर भारत में, वटवृक्ष की छाँव में तुम पùासन में बैठे हो,
चिन्ता के दुर्भेद्य जाल से आच्छन्न है तुम्हारा हमारा एकान्त
गंगा की पवित्र, विशाल ऊष्मा-सी भरी धारा को
जो अपनी सन्तानों की रक्षा कर रही है, तुम देखे जा रहे हो।
मैं यहाँ इंग्लैण्ड में निःसंग हूँ, अपने घुटनों पर चिबुक रखे हुए
अन्यमनस्क स्थिति में हाथों की मुट्ठियाँ बाँधे अपनी रोज़मर्रा की अभ्यस्त जगह पर
चुपचाप प्रतीक्षा करता हुआ,
जहाँ ओइलो वृक्ष छोटी नदी की धार में झुका हुआ है-
भारत में अपने घर में तुम प्रवासी हो
मैं भी आज यहाँ अपने घर में कैद हूँ
सामाजिक प्रथाओं की निष्ठुरता देखकर तुम स्तब्ध हो,
इतनी शताब्दियों के जीर्ण-शीर्ण आचारों में दुःख देने की कितनी शक्ति है।
तुम्हारे मेरे मन में कोई महत्त्वाकांक्षा, कोई यशोलिप्सा नहीं है,
मित्रता के अलावा और क्या है हमारे मन में?
विशाल सागर विशाल महादेश तो कोई बाधा है नहीं
हमें पता है बिना देखे भी बन्धुत्व अक्षय रहता है
अपवाद-कलंक-निन्दा का कोई अन्त नहीं है।
बन्धुत्व के हाथ फैले ही रहते हैं
घृणा की नमकीन मिट्टी से -
बन्धुत्व पके फल की तरह पुष्ट रस से भरा रहता है
सिर्फ़ निर्मल हवा ही नहीं, तिक्त मिट्टी भी उसका सहारा होती है।
बन्धु, वटवृक्ष के नीचे थोड़ी और प्रतीक्षा करो,
कल्पना करो, जैसे तुम ओइलो वृक्ष के नीचे हो,
और मैं यहाँ गंगा के तट पर
प्रतीक्षा करो, प्रातः के जलप्रवाह में
सहसा तुम देखोगे वही संकेत
जिससे तुम हँस पड़ोगे
और तुम्हारी हँसी की चमक से
हँस पड़ूँगा मैं भी।