यह वह मगध नहीं (तुमने जिसे पढ़ा है किताबों में) - मिथलेश शरण चौबे
साहित्य स्वाभाविक रूप से सत्ता का प्रतिपक्ष होता है, कविता के बारे में हमारे सयाने कवि यह कहते ही हैं | लोकप्रिय, तात्कालिक और प्रलोभन की त्रयी के सरलीकृत विचार से ग्रस्त सत्ता के बरअक्स साहित्य उत्कृष्ट, दीर्घकालिक और औदात्य के सघन प्रतिरूप को रचते हुए, जीवन में इनकी सम्भवता का जटिल स्वप्न देखने की अभीप्सा देने का काम करता है | ज़ाहिर तौर पर साहित्य और सत्ता की निकटता का कोई सूत्र बनता नज़र नहीं आता | दोनों के विपरीत विधान तो इसके लिए जवाबदेह हैं ही, उनकी प्रकृति में विन्यस्त भिन्नता से यह मेल कदाचित दुष्कर ही है | इसके बावजूद भी अनेक लेखक सत्ताओं के निकट रहते हैं | उनको किसी कोटि में विभक्त न कर, लेखक ही मानकर यह स्पष्ट करना चाहिए कि वे अपने साहित्यकर्म से सत्ता के मूल चरित्र में किंचित भी परिवर्तन नहीं करा सकते बल्कि सत्ता उनकी सम्भव सामर्थ्य का, अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए हर क्षण इस्तेमाल कर ही लेगी | गोर्की और एजेरा पाउंड जैसे महान रचनाकारों के उदाहरण विश्व साहित्य में मौज़ूद हैं जिनसे ज्ञात होता है कि सत्ता की निकटता से लेखक के सृजनकर्म में कोई सकारात्मक इज़ाफ़ा नहीं हो सकता, इसके विपरीत लेखक की लेखकीय उपस्थिति धुँधली और संदेहास्पद ही अधिक हुई है | इस क्रम में हिन्दी के श्रेष्ठ कवि श्रीकान्त वर्मा को भी देख सकते हैं जिन्होंने इतिहास के सहारे अपनी कविता में शासन की दुर्नीतियों को प्रश्नांकित किया है |

 

        दरअसल राजनीति, जिसमें नैतिक दृष्टि अनिवार्यतः होनी चाहिए, कभी कहीं रही भी है और अब भी रहती हो ; अपने स्वभाव में ही अनेक संकीर्णताओं, भेदों, अतिक्रमणों और सत्ता की छाया में सभी को लाने के उपक्रम में संलग्न रहती है | उसके इस उपक्रम में मनुष्य के सामाजिक धर्म के ऊपर राजनीति को आक्रान्त करने की अहमन्य चेष्टा भी निरन्तर होती है | गाँधी जी राजनीति की इस कदर व्याप्ति के विरुद्ध थे और मानते थे कि इससे मनुष्य के सामाजिक गुण-धर्म गौण हो जाते हैं | साहित्य और कलाओं में यह स्थिति और भी विचलनकारी है क्योंकि समाज इन सृजनकर्मियों से निरपेक्षभाव की उम्मीद करता है | इस उम्मीद में सही-गलत, नैतिक-अनैतिक, औचित्य-अनौचित्य के फ़र्क का जवाबदेह भाव भी शामिल है | अगर लेखकों-कलाकारों द्वारा किसी राजनीति की पक्षधरता प्रकट होती है तो इनकी कवायद इस बात की रहेगी कि अपनी पक्षधर राजनीति को बेहतर बताते हुए, उसकी खामियों को छुपाया जाए | इस स्थिति में लेखकीय नैतिकता से विचलित होना सहज है | साहित्य और राजनीति के सम्बन्ध को लेकर इस तरह की बहुत सारी बातें हिन्दी के श्रेष्ठ कवि, अगाध अध्येता और विचारक कमलेश की क़िताब रूसी संस्कृति : उद्भव और विनाश पढ़कर विचार में आती हैं |
 
कोई नहीं सुनता !
हस्तिनापुर में सुनने का रिवाज़ नहीं
 
         कविता अनसुने को श्रवण की परिधि में लाती है, अदेखे को दृश्यमान करती है | रूसी कविता में यह कवायद कुछ अधिक प्रखरता से घटित हुई तब, मार्क्स के विचारों के अनुपालन का दावा करती लेनिन और स्तालिन की कम्युनिस्ट सत्ताओं के दौर में, जब अभिव्यक्ति की आज़ादी का अतिक्रमण किया गया | लेखक ने फ्रान्सीसी - मार्क्विस दे कस्तीन के हवाले से ‘अन्धी राजभक्ति’ तथा रूसी उपन्यासकार ब्लादिमीर नैबेकोव के पत्र के ज़रिये अभिव्यक्ति की ‘अमित सम्भावनाओं’ के नगण्य रह जाने से इसे स्पष्ट किया है |

 

        वैचारिक असहमति की वजह से ही अर्सैनी तर्कोव्सकी की कविताएँ प्रकाशित होना बन्द हुईं और बाद में नोबल से सम्मानित हुए इओसिफ ब्राद्सकी को गिरफ़्तार किया गया जिसका विश्वभर के साहित्यकों ने विरोध किया | नाट्य निर्देशक व्सेवोलोद मेयरहोल्ड को, जिन्होंने रंगमंच में बड़े परिवर्तन किये, गिरफ़्तार किया गया और उनकी पत्नी विख्यात अभिनेत्री जिनैदा राइख की हत्या हुई |

 

        दरअसल उस दौर में रूस में शासन ही मुखर हुआ करता था, उससे इतर आवाज़ों को सेंसरशिप से गुज़रना पड़ता था | प्रकाशन पर अत्यन्त कठोर नियन्त्रण था | लेखकों, संस्कृतिकर्मियों सहित सामाजिक विचारकों, दार्शिनकों, इंजीनियर व वैज्ञानिकों से मिलकर बने वर्ग ‘इन्टेलिजेंशिया’ को समाप्त करने के लिए उन पर अत्याचार किये गए | यह वह वर्ग था जिसकी स्वतन्त्र आवाज़ थी जिसमें सत्ता को प्रश्नांकित करना भी शामिल था | इससे सम्बद्ध लगभग सौलह सौ लोगों को एकसाथ देशनिकाला दिया गया | वे प्रतिभाशाली और कर्मशील थे इसलिए फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका आदि अपने प्रवासी देशों में सक्रियता से वहाँ की उत्कृष्टता में अपार समृद्धि हो सकी | इसी दौर में रूसी भाषा में जिसकी अपने इतिहास और संस्कृति से अविच्छिनता है, अत्यन्त प्रतिभाशाली और मौलिक कवि हुए | पुश्किन, जिनकी कविता में रूसी कविता का चरमोत्कर्ष रहा तथा अलेक्सान्द्र ब्लोक जो प्रतीकवाद के प्रवर्तक हैं | इनके कुछ बरस बाद थोड़े से ही समयान्तराल में चार महान कवि रूसी भाषा में हुए : अन्ना आख्मातोवा, बोरीस पास्तेरनाक, मारीना त्स्वेतायेवा और ओसिप मान्देलश्ताम  | ये सभी कवि मूलतः और अन्ततः कविकर्म में ही संलग्न रहे और अपनी भाषा व कविता को अपने जीवन के ऊपर स्थापित किया | चारों एक दूसरे के मित्र थे, परस्पर प्रेम और आदर से इस कदर भरे हुए कि एक दूसरे पर कविताएँ लिखीं  तथा आत्मकथात्मक गद्य में गर्मजोशी के साथ याद करते हैं | इनके अलावा छह और कवि हुए जिन्होंने रूसी कविता को समृद्ध किया : निकोलाई गुमिल्योव, वेलिमीर ख्लेब्निकोव, सेर्गेई येसेनिन, ब्लादिमीर मायकोव्स्की, निकोलाई ज़बोलोत्स्की और इवान बूनिन | इनमें से उन सबने जो स्वतन्त्र आवाज़ थे तथा सत्ता के निकट नहीं थे ; उस दौर के तिरस्कार, प्रकाशन व रोजगार वंचित होने के अभिशाप को भोगा, साइबेरिया दास श्रम शिविरों में निर्वासन को भोगा और अन्त में ऐसे अमानवीय जीवन से बलात हत्या या आत्महत्या के ज़रिये मुक्त हुए | क्रूर अत्याचारों, अभावों व मानसिक-शारीरिक आघातों के बावजूद कविकर्म के निर्वाह में संलग्न रहे व ‘रूसी जाति की मानवीयता को बचाए रखा |’
 
कोसल में प्रजा सुखी नहीं
क्योंकि कोसल सिर्फ़ कल्पना में गणराज्य है
         
         ये सभी रूसी कवि पचास बर्षों की समृद्ध रूसी कथा साहित्य की परम्परा के बाद सम्भव हो सके थे और उनमें उसी भाषा और स्वतन्त्र रचनात्मकता से समझौता नहीं करने का गहरा बोध भी था | रूसी समाज के प्रति अत्यन्त सम्वेदनशील, काव्यकला में कुशल, नयी काव्य प्रविधियों के आविष्कर्ता इन कवियों की मनुष्यता में असंदिग्द्घ आस्था ने इन्हें तत्कालीन रूसी शासन की कठोरताओं का स्वाभाविक भोक्ता बना दिया था | रूसी समाज जनों के बीच बहुपठित कवियों को अपनी दुर्दशा से कहीं बढ़कर रूसी जन की स्वच्छन्दता को अतिक्रमित करने की शासन प्रणाली से बचाकर, उसमें उम्मीद भरने की भावना उमड़ती रहती थी | कविता आखिरकार किसी फौजी किस्म की कार्यावाही तो नहीं कर सकती लेकिन वह इस उम्मीद और स्वतन्त्रता बोध के पुनर्वास की आकांक्षा के रूप में अपनी लोकतान्त्रिक भावना तो प्रकट कर ही सकती है |

 

         जैसे ही हम सत्ताओं का गुणगान करते हैं, प्रकट रूप से हम लोकतन्त्र की सम्भावना को छीजने लगते है | शासन को निरन्तर प्रश्नांकित करना लोकतन्त्र की सम्भवता का आरम्भिक सूत्र है | ऐसा न करते हुए भक्ति की हद तक यशोगान करना लोकतन्त्र को नहीं समझने के स्थूल अभाव का ही साक्ष्य है | रूसी कवियों ने काल्पनिक गणराज्य को गहरे महसूस किया और उसके लिए आत्मोत्सर्ग किया जबकि वे सुविधाजनक जीवन और सत्ता की कृपा भी आसानी से चुन सकते थे | जो सत्ता के निकट रहे, भले ही किसी सद्प्रयोजन से, उन्हें अन्त में और बहुत ज़ल्द ही हताशा का सामना करना पड़ा | मायकोव्स्की इसके प्रमाण हैं जिन्हें स्तालिन सर्वश्रेष्ठ, सबसे प्रतिभाशाली कवि मानते थे, जिनसे उनकी निकटता थी और जो बोल्शेविक पार्टी के सदस्य रहे; उन्होंने छत्तीस वर्ष की आयु में गोली मारकर आत्महत्या कर ली |
 
चाहता तो बच सकता था
मगर कैसे बच सकता था
जो बचेगा
कैसे रचेगा  
 
        इन महान कवियों के अलावासामान्य रूसी कवि भी काव्य कौशल में निष्णात होते हैं |’ रूसी जन में अपनी भाषा व काव्य के प्रति अगाध प्रेम मिलता है | कविताओं को तो कण्ठाग्र करने तक प्रेम मिलता है | अप्रकाशन की स्थिति में हाथ से लिखकर या टाइप कर छायाप्रतियाँ निकालकर रूसी पाठक आपस में बाँटते-पढ़ते थे | हर तरह के अन्य से दूर रूसी कवियों में लिखने के प्रति ज़बरदस्त ज़िद मिलती है | मारीना कहती ही हैं : लेखक के जीवन में मुख्य चीज़ है – लिखना | लिखने में सफल होना नहीं बल्कि कुछ लिख सकना |’ रूसी कवियों का जीवन इसी ज़िद को पूरा करने की मर्मभरी गाथा है जिसमें निर्वासन, फाँसी, हत्या, आत्महत्या, पुत्री की भूख से मौत, पति की गिरफ्तारी, रहने-खाने का संकट, लिखने के एकान्त के लायक एक कमरा व मेज तक नहीं होना और निरन्तर अत्याचारों की क्रूरता  | इन सबके बीच अपने प्रेम के लिए, प्रकृति के लिए, रूसी जन के लिए, अत्याचारों के खिलाफ़ एक सामान्य जीवन जी सकने के लिए कविकर्म निरन्तर चलता रहा |
        
       यह किताब मुख्यतः कविताओं को समझने योग्य सांस्कृतिक दृष्टि जानने के उपक्रम में लिखी गयी है | किताब का अधिकांश हिस्सा महान रूसी कवियों की कविताओं और गद्यांशों से भरा पड़ा है | लेखक ने न केवल शासन संस्कृति के बारे में बल्कि कविताओं के बारे में भी अपनी संक्षित व्याख्या के साथ ही उनपर श्रेष्ठ लिखे को उद्धृत किया है | कवियों व कविताओं पर तो स्वयं कवियों के परस्पर विचार हैं साथ ही भाषाशास्त्री रोमन याकोब्सन का निबन्ध शामिल है | कथालेखक वसिली ग्रासमैन के उपन्यास ‘लाइफ एण्ड फेट’ व ‘एवरीथिंग फ्लोज’ में वर्णित साइबेरियाई श्रम शिविरों और प्रताड़नाओं के हवाले, उस दौर की भयावहता को प्रकट किया है | इस क्रम में विक्टर श्कोलोव्सकी, जॉन ग्रे, लेश्येक कोलाकोव्स्की जैसे विचारकों व सिद्धान्तकारों के निबन्धों को भी शामिल किया गया है |

 

      जो राजसत्ताएँ सर्वाधिकारवादी प्रणाली को बलपूर्वक लागू करती हैं, उनमें एक निर्धारित ढाँचे में जीवन को सीमित करना पड़ता है | वहाँ स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं होता, वहाँ केवल निर्देशों का पालन अनुशासन में करना होता है | मनुष्य जीता नहीं, जीने के बताए गए अभिनय को, बताए गए की परिधि में चरितार्थ करता है | लेखक, कलाकार, बौद्धिक समुदाय को न सिर्फ़ अपनी आवाज़ को मुखर करना होता है बल्कि उनको भी स्वर देना होता है जो खुद अपनी यातनाओं को व्यक्त नहीं कर पाते हैं | साथ ही उन्हें लोकतान्त्रिक जीवन की सम्भवता के लिए अनेक तरहों से जूझना पड़ता है, शासन को प्रश्नांकित करना जिनमें से एक है |

 

       लेखक ने रूस के भारत आकर्षण और भारत में रूस के उस दौर की उजली छवि को प्रस्तुत कर, अँधेरे कौनों को छिपाने के सामूहिक यत्न को भी प्रश्नांकित किया है | हालाँकि यहाँ आक्षेप की मुद्रा नहीं, इस स्थिति के साक्षात से भविष्य के लिए एक सजगता का भाव ही मिलता है | रूस के उस दौर के सर्वाधिकारवाद को क्या हम वर्तमान में विश्व के कई देशों में घटित होते नहीं देख पा रहे हैं ? भारत में ही, निरन्तर सत्ता में बने रहने की बलवती आकांक्षा के लिए अलोकतान्त्रिक तरीकों को अपनाना, लेखकों-संस्कृतिकर्मियों सहित सत्ता से असहमति जताने वालों को लांछित करना, देशनिकाले की फब्तियों से अपमानित करना, सामाजिक कार्यकर्ताओं को नक्सलाईट बताना तथा पानसरे-दाभोलकर-कालबुर्गी-गौरी लंकेश की हत्याओं से, भक्ति के कोलाहल से क्या किसी सर्वाधिकार की चेष्टा ध्वनित नहीं होती ?

 

       यह किताब रूसी कवियों के उत्कृष्ट काव्यलेखन व उनके लेखकीय संघर्ष को जानने के लिए तो पढ़ी ही जा सकती है, प्रायोजित छवि निर्माण से विलग वास्तविकता से रूबरू होने तथा किसी भी राष्ट्र पर मँडराते सांस्कृतिक संकट के भयावह पूर्वानुमान के लिए भी इसे पढ़ा जाना चाहिए, यह जानते हुए भी कि ‘मनुष्य की यातना का पूरा विवरण कभी शब्दों में नहीं समा सकता |’
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क़िताब -  रूसी संस्कृति : उद्भव और विनाश
लेखक  -  कमलेश
प्रकाशन -  रज़ा पुस्तकमाला, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली      
 
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