23-Mar-2022 12:00 AM
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प्रारम्भिक
हिन्दी-भाषी समाज में बैताल-पचीसी नाम से प्रसिद्ध कथा-समूह सुपरिचित हैं। इसका मूल पैशाची भाषा में लिखी गयी बृहत्कथा में है जो नष्ट हो चुकी है किन्तु जिसकी कथाएँ संस्कृत और प्राकृत के कई ग्रन्थों में अंशतः सुरक्षित हैं। इस आलेख का उद्देश्य इस बैताल-पचीसी की एक अल्प-ज्ञात प्रस्तुति का सानुवाद संस्करण उपलब्ध्ा कराना है जो योगवासिष्ठ के अन्तर्गत दी हुई है।
योगवासिष्ठ की संरचना के अनुसार यह वाल्मीकि द्वारा रचित है, इसमें एक देवदूत द्वारा सुरुचि नाम की अप्सरा को सुनायी गयी एक कहानी है जिसमें राजा अरिष्टनेमि की जिज्ञासा पर महर्षि वाल्मीकि द्वारा वे मोक्षोपाय वर्णित हैं जो मुनि वसिष्ठ द्वारा भगवान् राम को दिये गये ज्ञानोपदेश में बताये गये थे। योगवासिष्ठ इन सब कारणों से ज्ञानवासिष्ठ, महारामायण, वासिष्ठरामायण, मोक्षोपाय आदि नामों से भी जाना जाता है। जैसा कि सर्वविदित है, योगवासिष्ठ केवलाद्वैत (जिसका व्यवस्थित प्रतिपादन भगवत्पाद द्वारा हुआ है और जो इस नाते प्रायः ‘शांकर अद्वैत’ कहलाता है) का चूडामणि ग्रन्थ है और इसमें बहुत से उपाख्यान भी हैं जिनका उद्देश्य इस सम्प्रदाय के सिद्धान्तों को समझाना है। तदनुरूप ही इसमें आया यह वेतालोपाख्यान भी है।
योगवासिष्ठ के निर्वाण-प्रकरण (पूर्वाधर््ा) में सत्तरवें सर्ग से प्रारम्भ होकर चार सर्गों में यह वेतालोपाख्यान दिया गया है और इस प्रकार हितत्तरवें सर्ग में समाप्त होता है। इसमें बैताल-पचीसी की अन्य प्रस्तुतियों से कई अन्तर हैं। राजा का नाम ‘विक्रम’ नहीं दिया हुआ है और उसे केवल ‘राजा’ कहा गया है। वेताल पेड़ की डाल पर लटका हुआ नहीं मिलता और राजा की गर्दन पर सवार नहीं होता। प्रश्नों की संख्या कुल छह है और वे कथाओं के माध्यम से नहीं प्रस्तुत किये गये हैं।
अनुवाद में मैंने योगवासिष्ठ के टीकाकार स्वामी आनन्दबोध्ोन्द्र सरस्वती की टीका तात्पर्यप्रकाश का आश्रय लिया है। यह एकमात्र टीका है जो सम्पूर्ण योगवासिष्ठ पर उपलब्ध्ा है और गम्भीर पाण्डित्य तथा पाठ-निष्ठा का आदर्श उदाहरण है।
वेतालोपाख्यान
1 वेतालप्रश्न
वसिष्ठ उवाच
जीवोऽजीवो भवत्याशु याति चित्तमचित्तताम्
विचारादित्यविद्यान्तो मोक्ष इत्यभिध्ाीयते ।।1।।
मुनि वसिष्ठ ने कहा (‘हे राम,) विचार-रूपी सूर्य (के प्रकाश) के माध्यम से (अन्ध्ाकार-रूपी) अ-विद्या का अन्त होने की अवस्था में शीघ्र ही जीव अ-जीव हो जाता है और चित्त अ-चित्त हो जाता है; इस अवस्था को ‘मोक्ष’ कहते हैं। ।।1।।
(अद्वैत की शब्दावली में ‘विचार’ का तात्पर्य ब्रह्मचिन्तन से है। अ-विद्या के दूर होने पर तज्जनित जीव और चित्त आदि का मिथ्यात्व स्पष्ट हो जाता है, इसी को ‘जीव का अ-जीव होना’ तथा ‘चित्त का अ-चित्त होना’ कहा है
टीकाकार ने बताया है कि यहाँ ‘विद्या’ से कार्य-विद्या और कारण-विद्या ये दोनों अभिप्रेत हैं। अद्वैत में कार्य-कारण ज्ञान एक मिथ्या ज्ञान माना जाता है और परमार्थतः कार्य-कारण-सम्बन्ध्ा की सत्ता नहीं है। इस प्रकार कार्य-विद्या और कारण-विद्या अ-विद्या ही हैं।)
मृगतृष्णाजलमिव मनोऽहन्तादि दृश्यते
असदेव मनागेव तद्विचारात्प्रलीयते ।।2।।
अहंकार (= ‘मैं’ की अनुभूति) से मन का जन्म होता है। यह मृगतृष्णा के जल की तरह दिखायी देता है। इसकी कोई पारमार्थिक सत्ता नहीं है और यह अल्पकालिक होता है। विचार से यह लुप्त हो जाता है। ।।2।।
(पारमार्थिक सत्ता न होने, और केवल मिथ्या व्यावहारिक सत्ता होने के नाते मन को ‘अ-सत् (= जिसकी सत्ता नहीं है)’ कहा है।)
संसृतिस्वप्नविश्रान्तौ वेतालोदाहृतानिमान्
प्रश्नानाकर्णय शुभान्प्रसंगात्स्मृतिमागतान् ।।3।।
इस संसाररूपी स्वप्न की समाप्ति के निमित्त वेताल द्वारा पूछे गये इन शुभ प्रश्नों को तुम सुनो जो प्रसंगवश मुझे याद आ गये हैं ।।3।।
(‘प्रश्न’ कहने से उनके उत्तर भी समझना चाहिए।)
अस्ति विन्ध्यमहाटव्याम् वेतालो विपुलाकृतिः
स किंचिन्मण्डलम् गर्वादाजगाम जिघांसया ।।4।।
विन्ध्य के विशाल वन में एक बहुत बड़ा वेताल रहता था। वह किसी राज्य में घमण्ड से भरा हुआ हत्या की इच्छा से आया (ताकि किसी को मार कर उसे खा सके) ।।4।।
(वेताल एक नरभक्षी योनि है और यह प्रसिद्ध है कि जिन मनुष्यों की औध्र्वदैहिक क्रियाएँ विध्ािवत् सम्पूर्ण नहीं होतीं वे पिशाच होते हैं जिनके भीतर ही वेताल भी आते हें। यह भी प्रसिद्ध है कि उसे तान्त्रिक क्रियाओं द्वारा या अन्य किसी प्रकार से सन्तुष्ट करके अपने वश में किया जा सकता है और उससे तमाम काम लिये जा सकते हैं। यहाँ उसे जंगल का निवासी बताया गया है किन्तु उसके निवास की अध्ािक प्रसिद्धि श्मशान में पेड़ों पर है।)
स वेतालोऽवसत्पूर्वम् कस्मिंश्चित्सज्जनास्पदे
बहुबल्युपहारेण नित्यतृप्ततया सुखी ।।5।।
वह वेताल पहले किसी ऐसी जगह में रहता था जहाँ सज्जनों की बस्ती थी। (और इसलिए वहाँ) उसे बराबर बहुत-सी बलि भेंट में मिला करती थी जिसके नाते वह सदा ही तृप्त रहता था और इस कारण से हमेशा सुखी रहता था ।।5।।
(टीकाकार ने तात्पर्य बताया है कि जिन लोगों को प्राणदण्ड मिलता था उन्हें बेताल के भोजन के लिए उसके सामने प्रस्तुत कर दिया जाता था।)
निर्निमित्तम् निरागस्कम् पुरोऽप्यभ्यागतम् न सः
क्षुध्ाितोऽपि नरं हन्ति सन्तो हि न्यायदर्शकाः ।।6।।
वह वेताल भूखा होने पर भी किसी सामने आ पड़े मनुष्य को बिना किसी कारण के कभी नहीं मारता था यदि वह मनुष्य दोष-रहित होता था (क्योंकि) सत्पुरुष न्याय के अनुसार ही काम करते हैं ।।6।।
(जैसा कि आगे स्पष्ट होगा, ‘दोष-रहित’ का तात्पर्य उस व्यक्ति से है जिसने कोई ऐसा अपराध्ा न किया हो जिसके लिए उसे प्राणदण्ड मिलना चाहिए भले ही उसे यह प्राणदण्ड राजा द्वारा न दिया गया हो।)
स कालेनाटवीगेहो जगाम नगरान्तरम्
न्याययुक्तया जनम् भोक्तुम् क्षुध्ाासमभिचोदितः ।।7।।
एक समय वह जंगल में रहने वाला वेताल भूख से बेहाल होकर किसी दूसरे नगर में जा पहुँचा ताकि किसी मनुष्य को न्यायपूर्वक मार कर खा सके ।।7।।
(टीकाकार बताते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ कि वेताल के पुराने निवास में कोई मृत्युदण्डप्राप्त पुरुष उसको भेंट में नहीं पहुँचाया जा सका। वे यह भी समझाते हैं कि ‘न्याय-युक्ति’ से यहाँ यह तात्पर्य है कि वेताल स्वयं ही यह निधर््ाारित करने में सक्षम था कि कोई मनुष्य प्राणदण्ड के योग्य है कि नहीं और इसके लिए उसे राजाज्ञा की अपेक्षा नहीं थी। इस प्रकार यहाँ दण्ड-विध्ाान (और ज़ाहिर है कि न्याय की सम्पूर्ण प्रविध्ाि) एक ऐसे शास्त्र के रूप में प्रस्तुत है जिसके अनुसार राजकीय शक्ति ही नहीं, पराभौतिक शक्तियाँ भी चल सकती हैं और ‘अन्याय’ मनुष्य से ही नहीं, मनुष्येतर से भी हो सकता है।)
तत्र प्राप स भूपालम् रात्रिचर्याविनिर्गतम्
तमाह घनघोरेण शब्देनोग्रनिशाचरः ।।8।।
वहाँ उसे (उस देश का) राजा मिल गया जो रात की गश्त पर निकला था। उस रात में घूमने वाले उग्र वेताल ने बहुत ऊँची आवाज़ में कहा ।।8।।
(प्राचीन भारत में राजा स्वयं भी रात को छिपकर घूमते थे ताकि खुद देख सकें कि राज्य की वास्तविक स्थिति क्या है और केवल गुप्तचरों की सूचनाओं पर भरोसा करके न रह जाये।)
वेताल उवाच
राजँल्लब्ध्ाोऽसि भीमेन वेतालेन मयाध्ाुना
क्व गच्छसि विनष्टोऽसि भव भोजनमद्य मे ।।9।।
वेताल ने कहा
हे राजन्, अब तुम मुझ भयानक वेताल की पकड़ में आ गये हो। जाते कहाँ हो, अब तुम मरे, अब तुम मेरा भोजन बनो ।।9।।
(यह केवल ध्ामकी है क्योंकि अभी यह तय नहीं हुआ कि राजा न्यायतः वध्य था या नहीं।)
राजोवाच
हे रात्रिचर निन्र्याय्यम् माम् चेदत्सि बलादिह
तत्ते सहस्रध्ाा मूधर््ाा स्फुटिष्यति न संशयः ।।10।।
राजा ने कहा
ऐ रात में घूमने वाले वेताल, यदि तुम मुझे अन्यायपूर्वक केवल अपने बल के नाते खा जाते हो, तो निश्चत ही तुम्हारा सिर फट कर हज़ार टुकड़े हो जायेगा ।।10।।
(‘अन्यायपूर्वक’ से तात्पर्य है बिना न्याय किये, अर्थात् बिना यह निश्चय किये कि मैं ऐसा अपराध्ाी हूँ जिसे मृत्युदण्ड मिलना चाहिए।
‘सिर फट जाने’ की चेतावनी वैदिक काल से चली आ रही है और प्रायः उन शास्त्र-विवादों में दी जाती थी जो वैदिक विद्वानों की सभा में होते थे। इन शास्त्र-विवादों को ‘ब्रह्मोद्य’ कहते थे। यह चेतावनी प्रायः ऐसा प्रश्न करने वाले को जो प्रश्नकर्ता के अध्ािकार-क्षेत्र के बाहर हो, या किसी प्रश्न का उत्तर न दे पाने पर भी पराजय न स्वीकार करने वाले को दी जाती थी। बृहदारण्यकोपनिषद् (तृतीय अध्याय) में ब्रह्मोद्य के दौरान याज्ञ्यवल्क्य द्वारा गार्गी और शाकल्य को दी गयी चेतावनियाँ प्रसिद्ध हैं। डपबींमस ॅपज्रमस ने अपने शोध्ापत्र ज्ीम बेंम व िजीम ैींजजमतपदह भ्मंक में बहुत से उदाहरण वैदिक साहित्य से लेकर पाली साहित्य तक से एकत्र किये हैं; यह शोध्ापत्र इण्टरनेट पर उपलब्ध्ा है।
यहाँ इस चेतावनी के द्वारा राजा ने वेताल के सामने ब्रह्मोद्य की चुनौती दी है जिसे वेताल ने स्वीकार किया है और आगे इस आख्यान में ब्रह्मचर्चा ही है जिसके माध्यम से अद्वैत वेदान्त की कुछ बातें सामने लायी गयी हैं।)
वेताल उवाच
न त्वामद्यहमन्याय्यम् न्यायोऽयम् हि मयोच्यते
राजासि सकलाशाश्च पूरणीयास्त्वयार्थिनाम् ।।11।।
वेताल ने कहाः
मैं तुम्हें अन्यायपूर्वक नहीं खाऊँगा। मैं यह न्याय बता रहा हूँ; तुम राजा हो, और तुम्हें अपने याचकों की समस्त आशाओं को पूरा करना ही चाहिए ।।11।।
(यहाँ वेताल ने ‘न्याय’ स्वतः ही घोषित किया है और वह यह है कि राजा को किसी भी याचक की याचना पूरी ही करनी चाहिए अन्यथा वह राजत्व से च्युत और इस प्रकार अन्यायी राजा होगा जिसे वेताल मार कर खा सकता है। ऐसे ‘न्याय’ के उदाहरण भारतीय साहित्य में बिखरे पड़े हैं। रघु द्वारा निधर््ान होने पर भी कौत्स को चैदह करोडत्र स्वर्णमुद्रा देना, शिबि द्वारा कबूतर की जान बचाने के लिए अपना मांस काटकर देना, हरिश्चन्द्र द्वारा विश्वामित्र की दक्षिणा पूरी करने के लिए श्मशान में नौकरी करना, ये सब ऐसे ही न्याय के उदाहरण हैं।
यहाँ वेताल की आशा यह है कि उसके प्रश्नों का सही उत्तर मिलेगा और राजा होने के नाते इस राजा को यह याचना पूरी ही करनी चाहिए अन्यथा वह राजा होने के योग्य न रहेगा और तब अयोग्य होने पर भी राजा बनने के नाते वेताल द्वारा वध्य होगा।
प्रतीत होता है कि टीकाकार के सामने जो पाठ था उसमें ‘किल’ शब्द था जिसकी व्याख्या में उन्होंने यह कहा है कि इसका तात्पर्य है, ‘ऐसा ध्ार्मशास्त्र में प्रसिद्ध है’। फिर आगे उन्होंने इस प्रसिद्धि को स्पष्ट करते हुए बताया है कि अज्ञानी भले ही अनेक अपराध्ा करे, ज्ञानी तो अपराध्ा करता ही नहीं, और अगर करे भी तो रक्षणीय है। हमारे अपने समय में फ्रान्स में ज्याँ जेने को दिया गया क्षमादान ऐसे ही न्याय का एक उदाहरण है। प्राचीन ध्ार्मशास्त्रों में ब्राह्मण को प्राणदण्ड न देने की हिदायत का भी मूल इसी न्याय में है।)
ममैतामर्थिताम् राजन् सम्भवार्थाम्प्रपूरय
प्रश्नानिमान्मयोक्तांस्त्वम् सम्यगाख्यातुमर्हसि ।।12।।
मेरी यह याचना पूरी करना सम्भव है, हे राजन् तुम इसे पूरा करो। मेरे द्वारा पूछे गये इन प्रश्नों का तुम्हें ठीक से बयान करना चाहिए, अर्थात् उनका समाध्ाान करना चाहिए ।।12।।
(वेताल ने यह बताया है कि वह कोई ऐसे सवाल नहीं पूछने जा रहा है जिनका जवाब देना सम्भव ही न हो, अर्थात् वह छलपूर्वक केवल राजा का वध्ा करने के लिए ऐसा नहीं कर रहा है और उसकी याचना न्यायोचित है।)
कस्य सूर्यस्य रश्मीनाम्ब्रह्माण्डान्यणवः कृशाः
कस्मिन्स्फुरन्ति पवने महागगनरेणवः ।।13।।
(वेताल का प्रथम प्रश्न है) किस सूर्य की किरणों के ये सारे ब्रह्माण्ड छोटे-छोटे सूक्ष्म कण हैं? (वेताल का द्वितीय प्रश्न है) किस वायु में महाकाश के ध्ाूलिकण उड़ते हैं? ।।13।।
(यहाँ ‘सूर्य की रश्मि के रेणु (= कण)’ से तात्पर्य ‘त्रसरेणु’ से है जो उन ध्ाूलिकणों का नाम है जिन्हें खिड़की से आ रही सूर्य किरणों में देखा जा सकता है। ये प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में तौल के न्यूनतम मान के रूप में स्वीकृत थे। तात्पर्य यह है कि वह सूर्य इतना विशाल है कि एक ब्रह्माण्ड उसकी किरण में एक त्रसरेणु के बराबर है। इसी प्रकार ‘महाकाश’ वह आकाश है जिसमें सारे आकाश समाते हैं और इस प्रकार वह सम्पूर्ण ‘स्पेस’ को बताता है। आकाश केवल खालीपन है अतः उसके कण से तात्पर्य ‘खालीपन के टुकड़े’ हुआ। ये टुकड़े जिस वायु में उड़ रहे हैं वह कौन सी वायु है?)
स्वप्नात्स्वप्नान्तरंगच्छंछतशोऽपि सहस्रशः
त्यजन्न त्यजति स्वच्छम् कः स्वरूपम्प्रभास्वरम् ।।14।।
(वेताल का तृतीय प्रश्न है) वह कौन है जो एक सपने से दूसरे सपने में सैकड़ों-हज़ारों बार जाता हुआ अपने स्वच्छ प्रकाशमान् स्वरूप को छोड़ता हुआ भी नहीं छोड़ता? ।।14।।
(इस प्रश्न और आगे आये इसके समाध्ाान को ठीक से समझने के लिए बृहदारण्यकोपनिषद् (चतुर्थ अध्याय, तृतीय ब्राह्मण) को उसके शांकर भाष्य सहित पढ़ना चाहिए जिसमें स्वप्नावस्था से जागरावस्था में आत्मा के संचरण का वर्णन है। यहाँ जागरावस्था को भी एक दूसरा स्वप्न ही बताया गया है जो केवलाद्वैत के उत्तमाध्ािकारियों के लिए वास्तविक उपदेश है। भगवत्पाद ने बृहदारण्यकोपनिषद् (4-3-19) के भाष्य में स्पष्ट कहा हैः जागरितेऽपि यद्दर्शनम् तत् स्वप्नमेव मन्यते श्रुतिः (= जो जागरित अवस्था में देखा जाता है वह भी श्रुति के अनुसार स्वप्न ही है)।)
रम्भास्तम्भो यथा पत्रमात्रमेवम्पुनः पुनः
अन्तरन्तस्तथान्तश्च तथा कोऽणुः स एव हि ।।15।।
(वेताल का चतुर्थ प्रश्न है) जैसे केले के पेड़ के तने में एक छिलका उतरने के बाद फिर दूसरा छिलका ही मिलता जाता है (और उसके भीतर क्या है यह सूक्ष्मता के नाते अदृश्य ही रह जाता है) वैसे ही (उस केले के तने के भीतर के अदृश्य सूक्ष्म तत्व की तरह) केवल अणु जैसा वह कौन है? ।।15।।
(तात्पर्य यह है कि जो कुछ इन्द्रियग्राह्य है वह अ-वास्तविक है और शुद्ध ब्रह्म तक तर्क-बुद्धि द्वारा नहीं पहुँचा जा सकता।)
ब्रह्माण्डाकाशभूतौघसूर्यमण्डलमेरवः
अपरित्यजतोऽणुत्वम् कस्याणोः परमाणवः ।।16।।
(वेताल का पंचम प्रश्न है) वह कौन सा अणु है जिसके परमाणु इन सारे ब्रह्माण्डों के आकाशों में विराजमान समस्त सत्तावान् समूह, सूर्यमण्डल, तथा मेरु पर्वत हैं किन्तु जो अपना अणुत्व नहीं त्यागता? ।।16।।
(तात्पर्य यह है कि वह तत्व अत्यन्त सूक्ष्म है और अपनी सूक्ष्मता का त्याग भी नहीं करता, फिर भी जिन्हें हम अतिस्थूल समझते हैं, वे उसके सूक्ष्मतर अंश ही हैं।)
कस्यानवयवस्यैव परमाणुमहागिरेः
शिलान्तर्निबिडैकान्तरूपमज्जा जगत्तयी ।।17।।
(वेताल का षष्ठ प्रश्न है) वह कौन सा परमाणु के आकार का महापर्वत है जिसके कोई अवयव नहीं है और (फिर भी) जिसके बिना किसी छिद्र वाली शिला-ही-शिला आकृति की मज्जा यह त्रैलोक्य है? ।।17।।
(इस प्रश्न और उसके समाध्ाान को ठीक से समझने के लिए बृहदारण्यकोपनिषद् (4-5-13) को ध्यान में रखना ठीक रहेगा जिसमें याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा है कि यह आत्मा नमक के ढेले की तरह भीतर से बाहर तक नमक-ही-नमक है।)
इति कथयसि चेन्न मे दुरात्मस्तदिह निगीर्य भवन्तमात्मघातिन्
फलमिव तव मण्डलम् ग्रसेयम्प्रसभमुपेत्य जगद्यथा कृतान्तः ।।18।।
हे दुरात्मन्, यदि तुम यह मुझे नहीं बताओगे (अर्थात् मेरे इन प्रश्नों का सही उत्तर नहीं दोगे) तो हे आत्महत्यारे, मैं तुझे निगल कर तेरे इस राज्य को भी बलपूर्वक वैसे ही खा जाऊँगा जैसे इस त्रैलोक्य को काल पहुँच कर खा जाता है ।।18।।
(यहाँ वेताल ने अपने को मृत्यु से समीकृत किया है जो समस्त प्राणियों का वध्ा करती है किन्तु उस पर हत्या का दोष नहीं लगता क्योंकि वह किसी की आयु पूरी होने पर ही उसे मारती है और इस प्रकार न्यायपूर्वक ही काम करती है। राज्य को खा जाने की ध्ामकी के पीछे वेताल का तर्क यह जान पड़ता है कि राजा को यह समझ में आये कि वेताल के प्रश्नों का सही उत्तर न देकर उसकी याचना को न पूरा करने पर राजा राजपद के अयोग्य होते हुए भी उस पर अनध्ािकार आसीन होने के नाते अपराध्ाी होगा और इस नाते प्रजापालन के अपने कर्तव्य में भी असमर्थ होगा। इन्हीं सम्भावित अयोग्यताओं के चलते वेताल ने राजा को तिरस्कार-पूर्वक ‘दुरात्मा’ और ‘आत्मघाती’ कहा है।)
इस ऋषिप्रणीत वाल्मीकिरचित वासिष्ठ महारामायण में देवदूतोक्त मोक्षोपायों में निर्वाण-प्रकरण के पूर्वाधर््ा के अन्तर्गत ‘वेतालप्रश्न’ नामक सत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ।
2 वेतालप्रथमप्रश्नोत्तरवर्णन
श्रीवसिष्ठ उवाच
इत्युक्तवति वेताले वक्तुम्प्रश्नान् विहस्य सः
उवाच वचनम् राजा दन्तांशुध्ावलाम्बरः ।।1।।
श्री वसिष्ठ ने (भगवान् राम से) कहा
वेताल के ऐसा कहने पर राजा हँसा जिसके नाते उसके कपड़ों तथा आकाश को उज्जवल करती हुई उसके दाँतों की चमक की किरणें बिखर गयीं और तब वेताल के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए राजा ने कहा ।।1।।
(टीकाकार का कहना है कि राजा की इस हँसी का कारण यह है कि वेताल ने प्रथम प्रश्न में केवल प्रसिद्ध ब्रह्माण्डों के ही उस महासूर्य की किरणों में त्रसरेणु होने की बात की है जबकि आगे राजा द्वारा बताये जा रहे करोड़ों गूढ ब्रह्माण्ड भी उसी सूर्य की किरणों में त्रसरेणु हैं। इस प्रकार वेताल की अल्पज्ञता सूचित होती है और इसी पर राजा हँसता है। राजा ने अपने उत्तर में वेताल के प्रश्न को भी सुध्ाार दिया है।
‘अम्बर’ का अर्थ ‘वस्त्र’ भी होता है और ‘आकाश’ भी। यद्यपि मूल में यह शब्द एक ही बार प्रयुक्त हुआ है, टीकाकार ने दोनों अर्थ लिये हैं।)
राजोवाच
आस्ते कदाचिच्चेदम् हि ब्रह्माण्डमजरम् फलम्
उत्तरोत्तरदशगुणभूतत्वक्परिवेष्टितम् ।।2।।
राजा ने (वेताल से) कहा
यह जो कभी पुराना न पड़ने वाला ब्रह्माण्ड है (जिसमें हम और तुम रहते हैं) यह एक फल है जो एक दूसरे से दसगुने आकार के छिलकों में लिपटा हुआ है। ।।2।।
(टीकाकार ने स्पष्ट किया है कि यहाँ जो ‘अजर = कभी पुराना न पड़ने वाला’ कहा गया है वह ‘अज्ञानी’ की दृष्टि से है, अर्थात् जिसे व्यावहारिक सत्ता के मिथ्यात्व की जानकारी नहीं है, वह इस ब्रह्माण्ड को कभी क्षीण न होने वाला समझता है किन्तु ऐसा है नहीं, जैसे ही ब्रह्मज्ञान होता है, ब्रह्म की सत्ता के अतिरिक्त अन्य सत्ताओं का मिथ्यात्व स्पष्ट हो जाता है। यहाँ शायद याद कर लेना चाहिए कि मीमांसा-शास्त्र जगत् को नित्य मानता है, अर्थात् उसका कभी नाश नहीं होता (उसके भीतर की वस्तुएँ अनित्य हो सकती हैं)।
टीकाकार के अनुसार यहाँ यह बताया गया है कि ब्रह्माण्ड को भूमि, जल आदि के आवरणों ने लपेट रखा है।)
तादृशानां सहस्राणि फलानि यत्र सन्ति हि
अत्युच्चैस्तादृशी शाखा विपुला चलपल्लवा ।।3।।
ऐसे ही हज़ारों-हज़ार फल जिसमें लगे हुए हैं वह एक बहुत बड़ी बेहद ऊँची डाल है जिसके पत्ते डोलते रहते हैं।।3।।
(टीकाकार के अनुसार यहाँ ‘पत्ते’ से आशय भुवनों से है।
इस अनुष्टुप् में दूसरे चरण ‘फलानि यत्र सन्ति हि’ में प्रथमाक्षर ‘फ’ के आगे र-गण (= गुरु, लघु, गुरु) आ जाने के नाते छन्द की दृष्टि से पाठ में थोड़ी न्यूनता है। अतः इसे आर्ष प्रयोग ही मानना चाहिए। इस ओर ध्यान दिलाने के लिए मैं डा बलराम शुक्ल का आभारी हूँ।)
तादृशानां सहस्राणि शाखानाम् यत्र सन्त्यथ
तादृशोऽस्ति महावृक्षो दुर्लक्ष्यो विपुलाकृतिः ।।4।।
ऐसी हज़ारों-हज़ार शाखाएँ जिसमें हैं ऐसा एक बहुत बड़ा वृक्ष है जिसे देखना बहुत कठिन है।।4।।
(‘देखना बहुत कठिन है’ से यह तात्पर्य लेना चाहिए कि उसका विस्तार उनकी नज़रों से ओझल है जो किसी एक ब्रह्माण्ड में बैठे हैं जो उस वृक्ष के एक पत्ते में सीमित होता है।)
तादृशानां सहस्राणि सन्ति यत्र महीरुहाम्
तादृशम् वनमत्युच्चैरनन्ततरुगुल्मकम् ।।5।।
ऐसे हज़ारों-हज़ार वृक्ष जिसमें है ऐसा एक अनन्त वृक्षों वाला वन है।।5।।
(टीकाकार ने यह बताया है कि इन तीन श्लोकों में फल और शाखा आदि से ग्रन्थकार ने चैदह पदार्थों का निर्देश किया है। वे चैदह पदार्थ ये हैंः
1. यह ब्रह्माण्ड जिसमें हम रहते हैं।
2. ऐसे हज़ारों-हज़ार ब्रह्माण्डों के भीतर के पंचीकृत महाभूत।
(‘भूत’ का अर्थ ‘सत्तावान्’ होता हैः यहाँ ‘सत्ता’ का तात्पर्य व्यावहारिक सत्ता है जिसके भरोसे हम जीव और जगत् के लिए ‘है’ का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि पारमार्थिक सत्ता तो केवल ब्रह्म की है, शेष सभी सत्ताएँ मिथ्या हैं। इस प्रकार इन पाँच महाभूतों से ‘(व्यावहारिक) सत्ता’ की शुरुआत होती है जिसे हम ‘सृष्टि’ कहते हैं।
पंच महाभूतों की अवध्ाारणा का मूल औपनिषदिक है। तैत्तिरीयोपनिषद् (ब्रह्मानन्दवल्ली, प्रथम अनुवाक, प्रथम मन्त्र) के अन्तर्गत आया हैः
...तस्माद्वा एतस्मादात्मनः आकाशः सम्भूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अंगः पृथिवी।...
अर्थात्, ‘‘उस आत्मा से आकाश हुआ। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, और जल से पृथिवी की उत्पत्ति हुई।’’ इस अंश पर शांकर भाष्य से आगे की बातें समझने में आसानी होगीः
जो ‘शब्द’ गुण वाला और समस्त मूर्त पदार्थों को अवकाश देने वाला है उसे ‘आकाश’ कहते हैं। इस आकाश से अपने गुण ‘स्पर्श’ और अपने पूर्ववर्ती आकाश के गुण शब्द सहित दो गुणों वाले वायु की उत्पत्ति हुई। इस वायु से अपने गुण ‘रूप’ और अपने पूर्ववर्ती वायु के दो गुणों (शब्द तथा स्पर्श) सहित तीन गुणों वाले ‘अग्नि’ की उत्पत्ति हुई। इस अग्नि से अपने गुण ‘रस’ तथा अपने पूर्ववर्ती अग्नि के तीन गुणों (शब्द, स्पर्श तथा रूप) के सहित चार गुणों वाले जल की उत्पत्ति हुई। इस जल से अपने गुण ‘गन्ध्ा’ और अपने पूर्ववर्ती जल के चार गुणों (शब्द, स्पर्श, रूप तथा रस) के सहित पाँच गुणों वाली पृथिवी की उत्पत्ति हुई।
पाठक का ध्यान इस ओर गया होगा कि भारतीय ग्रन्थों में अनेक जगहों पर सृष्टि को ‘वाक्’ से उत्पन्न बताया गया है। इस कथन के पीछे प्रथम महाभूत आकाश का शब्दगुणात्मक होना ही है। यह भी स्मरणीय है कि ब्रह्मसूत्र के श्रीकण्ठ-भाष्य के आध्ाार पर अप्पय्य दीक्षित द्वारा विकसित शांकर अद्वैत के अविरोध्ाी ‘शिवाद्वयवाद’ में ‘आकाश’ को शक्ति से समीकृत किया गया है।
आगे बढ़ने के पहले एक बात की तरफ कुछ इशारा करना उचित जान पड़ता है। कुण्डलिनी-साध्ाना के अन्तर्गत शिवशक्तिसामरस्य के स्थान सहस्रार-चक्र और मनस्तत्त्व के स्थान आज्ञा-चक्र के पहले जिन पाँच चक्रों- मूलाध्ाार, मणिपूर, स्वाध्ािष्ठान, अनाहत, और विशुद्ध-का उल्लेख आता है, उनमें विपरीत क्रम से ये ही पंचमहाभूत स्थित हैं, अर्थात् मूलाध्ाार-चक्र में पृथिवी, मणिपूर-चक्र में जल, स्वाध्ािष्ठान-चक्र में अग्नि, अनाहत-चक्र में वायु और विशुद्ध-चक्र में आकाश स्थित हैं किन्तु यह क्रम केवल भगवत्पाद की सौन्दर्यलहरी में मिलता है और इस विषय पर उपलब्ध्ा अन्य सभी ग्रन्थ नीचे से ऊपर जाते हुए मूलाध्ाार, स्वाध्ािष्ठान, मणिपूर, विशुद्ध तथा आज्ञा का क्रम बताते हैं। स्पष्ट है कि भगवत्पाद ने अपनी सौन्दर्यलहरी में तैत्तिरीयोपनिषद् का औपनिषदिक क्रम वर्तमान रखा है और अन्य ग्रन्थ उससे विचलित हुए हैं। इस बात को ध्यान में न रखने के नाते सौन्दर्यलहरी के कई व्याख्याकार भी असमंजस में पड़े हैं।
इस प्रकार पंच महाभूत ये हैंः आकाश, वायु, तेज (जिसे अग्नि भी कहा गया है), जल और पृथिवी। ये ‘अ-पंचीकृत, (या शुद्ध) महाभूत हैं और इन्हें ‘तन्मात्रा’ भी कहा जाता है। ‘तन्मात्रा’ संज्ञा के प्रयोग के साथ प्रायः उस महाभूत का गुण-विशेष जुड़ा होता है- अर्थात् पृथिवी गन्ध्ा-तन्मात्रा’ कहलायेगी, जल को ‘रस-तन्मात्रा’, अग्नि को ‘रूप-तन्मात्रा’, वायु को ‘स्पर्श-तन्मात्रा’, तथा आकाश को ‘शब्द-तन्मात्रा’ कहेंगे। इन तन्मात्राओं अर्थात् शुद्ध महाभूतों की उपस्थिति मायाशबलित ब्रह्म (जिसे ‘कार्यब्रह्म’ या ‘ईश्वर’ अथवा ‘सगुण ब्रह्म’ भी कहते हैं और जो शुद्धब्रह्म अथवा निर्गुण ब्रह्म में माया के मिश्रण से सृष्टि-स्थिति-संहार आदि कार्यों के लिए व्यवहारतः प्रकट होता है) की इच्छा से होती है। इनमें प्रत्येक में पाँच तत्व होते हैं जिनका विवरण इस प्रकार हैः
(अ) आकाश के पाँच तत्व- काम, क्रोध्ा, शोक, मोह और भय
(ब) वायु के पाँच तत्व- चलन (= हिलना), वलन (= लपेटना), ध्ाावन (= तेजी से दौड़ना), प्रसारण (= फैलाना) और आकुंचन (= सिकोड़ना)
(स) तेज के पाँच तत्व- क्षुध्ाा, तृषा, आलस्य, निद्रा और कान्ति
(द) जल के पाँच तत्व- शुक्र (= वीर्य), शोणित (= खून), लाला (= लार), मूत्र और स्वेद (= पसीना)
(इ) पृथिवी के पाँच तत्व- अस्थि, मांस, नाडी, त्वचा और रोम
इस प्रकार कुल पचीस तत्व होते हैं। सृष्टि के निमित्त इन शुद्ध महाभूतों के स्थूल रूपों की अवतारणा के लिए इनका ईश्वरेच्छा से पंजीकरण होता है। इसका मोटे तौर पर यह तात्पर्य है कि प्रत्येक महाभूत में अन्य महाभूतों का आठवाँ हिस्सा मिला दिया जाता है। इस प्रकार जब हम सृष्टि में प्रयुक्त ‘आकाश’ कहते हैं तब इसका तात्पर्य यह है कि शुद्ध आकाश के दो भाग किये गये हैं और उसका केवल एक भाग ही इस स्थूल आकाश में वर्तमान है, शेष आध्ो में चैथाई-चैथाई वायु, तेज, जल और पृथिवी मौजूद हैं, अर्थात् स्थूल आकाश में आध्ाा शुद्ध आकाश है, आठवाँ भाग वायु है, आठवाँ भाग तेज है, आठवाँ भाग जल है, और आठवाँ भाग पृथिवी है। यह ‘पंचीकृत आकाश’ है, इसी प्रकार अन्य महाभूतों के बारे में भी समझना चाहिए।
3. इन हज़ारों-हज़ार ब्रह्माण्डों के भीतर की ऐसे पंचीकृत महाभूतों में स्थित गन्ध्ा-तन्मात्रा, अर्थात् अ-पंचीकृत पृथिवी नामक महाभूत।
4. उस गन्ध्ा-तन्मात्रा के भीतर की रस-तन्मात्रा, अर्थात् अ-पंचीकृत जल नामक महाभूत।
5. उस गन्ध्ा-तन्मात्रा के भीतर की रूप-तन्मात्रा, अर्थात् अ-पंचीकृत अग्नि नामक महाभूत।
6. उस गन्ध्ा-तन्मात्रा के भीतर की स्पर्श-तन्मात्रा, अर्थात् अ-पंचीकृत वायु नामक महाभूत।
7. उस गन्ध्ा-तन्मात्रा के भीतर की शब्द-तन्मात्रा, अर्थात् अ-पंचीकृत आकाश नामक महाभूत।
8. उस शब्द-तन्मात्रा के भीतर स्थित हिरण्यगर्भ का मन।
9. उसके भीतर स्थित अनन्त भूत-मात्राएँ जिनका कोई नाम नहीं है।
10. उनके भीतर के कल्यकाल (= वे समय जिनकी गणना की जा सकती है)।
11. उन कल्यकालों के भीतर ब्रह्मा की आयु बताने वाले दिन।
12. ब्रह्मा की उन आयुओं के भीतर विष्णु की आयु बताने वाले दिन।
13. विष्णु की उन आयुओं के भीतर रुद्र की आयु बताने वाले दिन।
14. ऐसे अनन्त करोड़ ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र-त्रय के सत्ता-व्यवहार की स्फूर्ति का प्रवर्तक मायाशबल (= सगुण) ब्रह्म।
पल्लव से मूल तक जाता हुआ यह सृष्टि-क्रम निश्चय ही परम्परा-प्राप्त होगा किन्तु मैं कोई ऐसा सन्दर्भ नहीं खोज पाया जहाँ से टीकाकार ने इसे जस-का-तस लिया हो। फिर भी, गन्ध्ा-तन्मात्रा से हैरण्यगर्भ मन तक के षट्चक्र तो पहचाने ही जा सकते हैं।)
तादृशानाम् सहस्राणि वनानाम् यत्र सन्त्यथ
तादृगस्ति बृहच्छंगमत्युच्चैर्भरिताकृति ।।6।।
ऐसे हज़ारों-हज़ार वन जिस पर स्थित हैं ऐसी एक बहुत ऊँची भरपूर पहाड़ी चोटी है ।।6।।
(टीकाकार का कहना है कि यहाँ ‘पहाड़ी चोटी’ कहने से पहाड़ ही समझना चाहिए और ‘भरपूर’ कहने से उस पहाड़ का बड़ा विस्तार बताया गया है।)
तादृशानाम् सहस्राणि शृंगाणाम् यत्र सन्त्यथ
तादृशोऽस्त्यतिविस्तीर्णो देशो विपुलकोटरः ।।7।।
ऐसी हज़ारों-हज़ार चोटियाँ (= पहाड़) जिसमें मौजुद है ऐसा एक बहुत बड़े खोखल वाला देश है ।।7।।
(‘कोटर’ साध्ाारणतया किसी बड़े पेड़ के तने में मौजूद खोखल को कहते हैंः यहाँ ‘ढेर सारी जगह’ अर्थ लेना ठीक है।)
तादृशानाम् सहस्राणि देशानाम् यत्र सन्त्यथ
तादृगस्ति बृहद्द्वीपम् महाह्रदनदीयुतम् ।।8।।
ऐसे हज़ारों-हज़ार देश जिसमें स्थित हैं ऐसा एक बहुत बड़ा बड़े-बड़े तालाबों और बड़ी-बड़ी नदियों वाला द्वीप है ।।8।।
(टीकाकार ने बताया है कि तालाब और नदी कहने का तात्पर्य आविर्भूत और अनाविर्भूत प्राणवायु से है जिसमें बहाव होता है।)
तादृशानाम् सहस्राणि द्वीपानाम् यत्र सन्त्यथ
तादृगस्ति महीपीठम् विचित्ररचनान्वितम् ।।9।।
ऐसे हज़ारों-हज़ार द्वीप जिसमें स्थित हैं ऐसा एक विचित्र रचनाओं से भरा हुआ पृथिवी-तल है ।।9।।
(‘विचित्र रचनाओं से भरा’ से तात्पर्य है कि उस पृथिवी-तल में जो द्वीप हैं वे अलग-अलग विशेषताओं वाले हैं।)
तादृशानाम् सहस्राणि पृथ्वीनाम् यत्र सन्त्यथ
तादृगस्ति महास्फारम् महाभुवनडम्बरम् ।।10।।
ऐसे हज़ारों-हज़ार पृथिवीतल जिसमें स्थित हैं ऐसा एक बहुत बड़े फैलाव वाला विशाल भुवन-जाल है ।।10।।
(‘भुवनडम्बर = भुवन-जाल’ कहने से ‘जगत्’ समझना चाहिए।)
तादृशानाम् सहस्राणि जगताम् यत्र सन्त्यथ
तादृगस्ति महच्चाण्डम् चण्डमम्बरपीठवत् ।।11।।
ऐसे हज़ारों-हज़ार जगत् (= भुवन-जाल) जिसमें स्थित हैं ऐसी एक बहुत विशाल अण्डाकृति है जो आसमान के फैलाव जैसी लगती है ।।11।।
(मूल में आये ‘चण्ड’ का अर्थ यहाँ ‘विशाल’ ही लेना ठीक है।)
तादृशानाम् सहस्राणि यच्चाण्डानि करण्डकाः
तादृशोऽस्ति गतस्पन्दो विपुलाब्ध्ािश्च सागरः ।।12।।
ऐसी हज़ारों-हज़ार अण्डाकृतियाँ जिसके (आकार के) सामने छोटी पिटारियों की तरह हैं, ऐसा एक बहुत बड़ा जल से भरपूर निःस्पन्द समुद्र है ।।12।।
(‘निःस्पन्द’ कहने से यह तात्पर्य प्रतीत होता है कि उसमें ज्वार-भाटा आदि से होने वाली घट-बढ़ नहीं होती।)
तादृशसागरलक्षाणि तरंगो यस्य पेलवः
तादृशः स्वविलासात्मा निर्मलोऽस्ति महार्णवः ।।13।।
ऐसे लाखों-लाख समुद्र जिसमें एक हलकी-सी लहर हैं ऐसा एक निर्मल महासागर है जिसका सारा विलास उसी के भीतर है ।।13।।
(तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि उस महासागर का कोई तट नहीं है, वह एक सम्पूर्ण इकाई है।)
तादृगब्ध्ािसहस्राणि यस्योदरजलान्यथ
तादृशोऽस्ति पुमान्कश्चिदत्युच्चैर्भरिताकृतिः ।।14।।
ऐसे हज़ारों-हज़ार महासागर जिसके पेट में मौजूद हैं ऐसा एक बहुत बड़ा भरपूर देह वाला पुरुष है ।।14।।
(टीकाकार ने कहा है कि यह पुरुष ‘विष्णु’ है। साध्ाारणतया विष्णु की प्रसिद्धि एक महासागर के भीतर रहने की है, किन्तु यहाँ महासागर को उनके पेट के भीतर दिखाया है। यह स्मरण कर लेना चाहिए कि विष्णु जगत् की स्थिति के देवता हैं जैसे ब्रह्मा उसकी सृष्टि और रुद्र उसके संहार के देवता हैं।)
तादृशानाम् नृणाम् लक्षैर्यस्य मालोरसि स्थिता
प्रध्ाानः सर्वसत्तानाम् तादृशोऽस्ति परः पुमान् ।।15।।
ऐसे लाखों-लाख पुरुषों की माला जिसके सीने पर पड़ी हुई है, ऐसा एक परम पुरुष है जो सभी सत्ताओं का प्रध्ाान है ।।15।।
(टीकाकार ने बताया है कि यह परम पुरुष ‘रुद्र’ है। शिव के गले में नरमुण्डों की माला लटकी रहती है, यह प्रसिद्धि है ही। ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र का यह वधर््ािष्णु तारतम्य काश्मीर शैव दर्शन समेत सभी शैव-शाक्त दर्शनों में स्वीकृत है।
‘सभी सत्ताओं का प्रध्ाान’ कहने से यह आशय है कि सभी सत्ताएँ उसी से उद्भूत होती हैं। तकनीकी तौर पर यह शैव दर्शनों में स्वीकृत छत्तीस तत्वों में से ‘सदाशिव’ नामक तत्व है। किन्तु इसका यह अर्थ न लगा लेना चाहिए कि योगवासिष्ठ शैव दर्शनों का यथातथ अनुयायी है। शैव दर्शनों में एक ही सत्ता का विस्तार ब्रह्म है और संकोच जगत् है, अतः जगत् अवास्तविक नहीं है। यहाँ केवलाद्वैत का प्रतिपादन है और इस प्रकार इस जगह ‘सत्ता’ से तात्पर्य ‘व्यावहारिक सत्ता’ से है जो केवल प्रतीत होती है, है नहीं।)
तादृशानाम् सहस्राणाम्पुरुषाणाम्महात्मनाम्
स्फुरन्ति मण्डले यस्य स्वतनूरुहजालवत् ।।16।।
ऐसे हज़ारों-हज़ार परमपुरुष जिसके घेरे में उसकी देह के रोमों की तरह स्फुरणशील हैं- ।।16।।
(टीकाकार के अनुसार यहाँ ‘रोम’ कहकर ग्रन्थकार ने मुण्डकोपनिषद् (1-1-7) के इस कथन की ओर इशारा किया हैः यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि तथाऽक्षरात् सम्भवतीह विश्वम् (= जिस प्रकार सत्तावान् पुरुष से केश और लोम निकलते हैं उसी प्रकार अक्षर पुरुष से यह विश्व निकलता है)। इस प्रकार यहाँ जिस महासूर्य का वर्णन है वह उपनिषदों में वर्णित ‘अक्षर पुरुष’ है।)
तादृशोऽस्ति महादित्यः शतमन्यासु दृष्टिषु
या एताः कलनास्सर्वास्ता एतास्तस्य दीप्तयः ।।17।।
-ऐसा एक महासूर्य है जिसकी दीप्तियाँ ही अन्य दृष्टियों में ये सैकड़ों (= अनन्त) कलनाएँ (= गिनाये गये अर्थात् प्रकट किये गये पदार्थ) हैं जो रुद्र से ब्रह्माण्ड तक सब ऊपर कही गयी हैं ।।17।।
(‘कलना’ मुख्यतः शैव दर्शनों का शब्द है और सृष्टि से संहार तक की प्रक्रिया का सूचक है जिसे करने के नाते ही परदेवता के ‘काली’ और ‘काल’ नाम विख्यात हैं।
टीकाकार ने बताया है कि यहाँ ‘अन्य दृष्टि’ कहने से यह तात्पर्य है कि प्रत्यग्दृष्टि (= जिनकी दृष्टि अन्तर्मुखी होती है, अर्थात् जो अपने अन्तःस्थित ब्रह्म पर दृष्टि रखते हैं, वे) ही अपनी ‘दूसरी दृष्टि’, अर्थात् पराग्दृष्टि (= बाहरी नज़र, जिससे सभी लोग देखते हैं) से इस सम्पूर्ण सृष्टि-श्ाृंखला को भी देख पाते हैं- तात्पर्य यह है कि ज्ञानियों को ही ऊपर बतायी गयी सृष्टि-प्रक्रिया प्रत्यक्ष होती है। उनके इस कथन को इस बात से हम समर्थित कर सकते हैं कि मुण्डकोपनिषद् (1-1-6) में कहा गया हैः यत्तद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णमचक्षुः श्रोत्रम् तदपाणिपादम्। नित्यम् विभुम् सर्वगतम् सुसूक्ष्मम् तदव्ययम् यद्भूतयोनिम् परिपश्यन्ति ध्ाीराः (= वह जो अदृश्य, अग्राह्य, अगोत्र, अवर्ण, तथा आँख, कान, हाथ, और पैर से विहीन है, जो नित्य, विभु, सर्वगत, अत्यन्त सूक्ष्म है, उस अव्यय को जो सभी अस्तित्ववान् पदार्थों का कारण है, विवेकी पुरुष सब ओर देखते हैं।))
अस्यादित्यस्य दीप्तीनाम्ब्रह्माण्डास्त्रसरेणवः
मया चित्सूर्य इत्युक्तः सर्वमेतत्तपत्यसौ ।।18।।
इसी आदित्य की रश्मियों के त्रसरेणु ये सारे ब्रह्माण्ड हैं (जिनका अभी तक वर्णन किया गया)। मैंने यह ‘चित्सूर्य; का वर्णन किया है, यह सब कुछ को तपाता है (अर्थात् सब कुछ इसी से प्रकाशित है) ।।18।।
(‘चित् = चेतनता’ ब्रह्म की एक शक्ति है जिसे मोटे तौर पर वह शक्ति समझना चाहिए जो ब्रह्म को सृष्टि की ओर उन्मुख करती है, अर्थात् यह माया का ही एक नाम समझना चाहिए। केवलाद्वैत के ग्रन्थों में इसका प्रथम स्पष्ट उल्लेख मेरी जानकारी के अनुसार सर्वज्ञात्ममुनि ने संक्षेपशारीरक में किया है। कामचलाऊ तौर पर इस चित्सूर्य को मायाशबलित ब्रह्म या सगुण ब्रह्म समझना चाहिए। शिवाद्वैत और शाक्ताद्वैत में यही ‘चित्’ या ‘माया’ देवी से समीकृत है।)
विज्ञानात्मैव परमो भास्करो भाविताशयः
इमे ये भुवनाभोगास्तस्यैव त्रसरेणवः ।।19।।
यह कामना से प्रेरित सूर्य विज्ञान-स्वरूप ही है, ये सारे ब्रह्माण्ड इसी के त्रसरेणु हैं ।।19।।
(‘विज्ञान’ के कई अर्थ हो सकते हैं, यहाँ जो अभिप्रेत है वह इक्कीसवें श्लोक की व्याख्या में टीकाकार ने स्पष्ट किया है।
मूल में इस सूर्य को ‘भाविताशय’ कहा गया है। इस शब्द का अर्थ मैंने ‘कामना से प्रेरित’ किया है। ऐसा अर्थ लेने के पीछे मेरे मन में भगवत्पाद के कनकध्ाारा स्तोत्र का यह अन्तिम श्लोक हैः
स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहम् त्रयीमयीम् त्रिभुवनमातरम् रमाम्
गुणाध्ािका गुरुतरभाग्यभाजिनो भवन्ति ते भुवि बुध्ाभाविताशयाः
अर्थात्, ‘‘इस पृथिवी पर किसी कामना से प्रेरित होकर जो बुद्धिमान् व्यक्ति इस कनकध्ाारा स्तोत्र के श्लोकों द्वारा वेदत्रयी-स्वरूपा, त्रिभुवन की जननी, लक्ष्मी देवी की प्रतिदिन स्तुति करते हैं, वे गुणों में बढ़े-चढ़े और बड़े भाग्य के अध्ािकारी होते हैं’’।
यहाँ ‘आशय’ का तात्पर्य ‘कामना’ से है और ‘भावित’ का अर्थ वह है जो वैद्यक में प्रचलित है, किसी सुगन्ध्ा या अन्य विशेषता को प्राप्त करने के लिए औषध्ाियों को किसी ध्ाुँए या रस में ‘बसाया’ जाता है, यही ‘भावित’ करना होता है। स्तुति स-काम या अ-काम हो सकती है; कनकध्ाारा स्तोत्र भगवत्पाद द्वारा एक निधर््ान ब्राह्मणी को ध्ान-प्राप्ति करा कर उसकी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए रचा गया था जिसके फलस्वरूप उसके घर में देवी ने स्वर्ण-वर्षा की। ‘भाविताशय (= स-काम)’ व्यक्ति बुध्ा भी हो सकते हैं और ‘अ-बुध्ा’ भी। यहाँ ‘बुध्ा’ विशेषण उन भाविताशयों के लिए आया है जो अपनी कामना-पूर्ति के लिए इस स्तोत्र का आश्रय लेते हैं क्योंकि वे अपनी कामना-पूर्ति के लिए सही माध्यम का चुनाव करते हैं।
योगवासिष्ठ के इस श्लोक में आया सूर्य ‘स-काम ब्रह्म’ है जिसने सृष्टि करने की इच्छा की है। इस स्थिति को तैत्तिरीयोपनिषद् (2-6) में सोऽकामयत बहु स्याम् प्रजायेयेति (= उस ब्रह्म ने कामना की कि मैं बहुत हो जाऊँ, प्रजा उत्पन्न करूँ) से समझाया गया है। अतः इस ‘स-गुण ब्रह्म’ को ‘भाविताशय’ कहा गया है।
‘भाविताशय’ के इस तात्पर्य तक पहुँचने के लिए मैं डा. बलराम शुक्ल और स्वामी मिथिलेशनन्दिनीशरण जी का आभारी हूँ।)
विज्ञानपरमार्कस्य भासा भान्ति भवन्ति च
इमा जगदहर्लक्ष्म्यः क्वचिल्लक्ष्म्यो रवेरिव ।।20।।
इस विज्ञान-रूप सूर्य के ही प्रकाश में ये ब्रह्माण्ड स्पन्दवान् और सत्तावान् होते हैं। जगद्-रूपी दिन के ये ऐश्वर्य (उस) सूर्य के ही ऐश्वर्य हैं ।।20।।
(‘त्रसरेणु’ सूर्य के प्रकाश में ही गतिशील और अस्तित्व-वान् होते हैं, यदि सूर्य की सत्ता न हो तो त्रसरेणु का भी पता न चले। आशय यह है कि ब्रह्माण्डों से बने इस जगत् की सत्ता और स्पन्द तभी हैं जब चित्सूर्य प्रकाशित हो, जब वह मायाशबलित ब्रह्म अपनी सत्ता खोकर शुद्ध ब्रह्म में समाहित होगा तब यह जगत् भी लुप्त हो जायेगा।)
विज्ञानमात्रकचितात्मनि जन्तुजाते त्रैलोक्यमण्डपमणेरविकासभाजि
चिज्जन्मनोर्भवनसम्भ्रमतावलेखाः सन्तीह रे न मनागपि शान्तमास्स्व ।।21।।
त्रैलोक्य-मण्डप की मणि-स्वरूप, चित् से जन्म लेने वाले इस सूर्य के अविकसित रहने पर केवल विज्ञान से ही खींचे गये (अर्थात् प्रकट किये गये) अपने को सत्तावान् समझने वाले जन्तुजाल में इस चित्सूर्य के सत्तावान् होने (जिससे उस जन्तुजाल के लिए जन्म, मरण, बन्ध्ान, मोक्ष, जैसी) की भ्रमात्मक रेखाएँ वर्तमान होती हैं; हे वेताल, उनका कोई पारमार्थिक अस्तित्व नहीं है, तुम (अपने प्रथम प्रश्न का उत्तर पा चुके हो अब) चुप बैठो ।।21।।
(टीकाकार ने कहा है कि ‘विज्ञान’ का अर्थ है ‘शास्त्र द्वारा प्राप्त वह ज्ञान जो उस अखण्डाकार ब्रह्म से ही सर्वेक्य का ज्ञान है; यह ज्ञान उत्तमाध्ािकारियों को ही हो पाता है और अन्य के लिए यह अस्फुट रहता है और जगत् की पृथक् सत्ता के भान के नाते जन्म (= बन्ध्ान) और मोक्ष की प्रतीति कराता है।
इस प्रकार ‘विज्ञान’ विवेकी के लिए ब्रह्मज्ञान है और अविवेकी के लिए अविद्या। इस ‘अविकसित’ विज्ञान के द्वारा अविवेकी ब्रह्म और जगत् की पृथक् सत्ता मानता हुआ, ‘मैंने जन्म लिया, मैं बन्ध्ान में हूँ, मेरा मोक्ष होगा’ आदि भ्रमात्मक अवध्ाारणाओं के फेर में पड़ा रहता है जबकि इसी विज्ञान के विकसित हो जाने पर विवेकी इन सबके मिथ्यात्व को समझता हुआ अपना और ब्रह्म का ऐक्य मानता है, वह ‘नित्यमुक्त (= ंसूंले ंसतमंकल सपइमतंजमक)’ है।
मेरे विचार में ‘विज्ञान’ के विषय में टीकाकार की बात को समझने के लिए यहाँ बृहदारण्यकोपनिषद् (4-5-13) के शांकर भाष्य को भी ध्यान में रखना चाहिए जिसमें भगवत्पाद ने कहा है कि आत्मा भूत-मात्रा (= तन्मात्रा) के संसर्ग से विशेष विज्ञान को प्राप्त करता है और तब विद्या के द्वारा इस ‘विज्ञान’ के नष्ट हो जाने पर पुनः अपनी संज्ञा-हीनता को प्राप्त कर लेता है।)
इस ऋषिप्रणीत वाल्मीकिरचित वासिष्ठ महारामायण में देवदूतोक्त मोक्षोपायों में निर्वाण-प्रकरण के पूर्वाधर््ा के अन्तर्गत ‘वेतालप्रश्नोत्तरवर्णन’ नामक इकहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ।
3 वेतालप्रश्नभेद
राजोवाच
कालसत्ता नभःसत्ता स्पन्दसत्ता च चिन्मयी
शुद्धचेतनसत्ता च सर्वमित्यादि पावनम् ।।1।।
राजा ने कहा
काल और आकाश की (स्थूल) सत्ताएँ, स्पन्द की सत्ता, चित् से निष्कृष्ट चिदाभास की सत्ता, और शुद्ध चेतन की सत्ता, ये सब पवित्र - ।।1।।
(वेताल का द्वितीय प्रश्न था कि किस महावायु में महागगन के कण बहते हैं। टीकाकार के अनुसार पहले तो यही सोचना चाहिए कि ‘महागगन’ से क्या तात्पर्य है क्योंकि ‘गगन = आकाश’ वैसे तो एक ही है किन्तु घड़े के भीतर की जगह ‘घटाकाश’ कहलाती है और मठ के भीतर की जगह ‘मठाकाश’। अतः सोचना चाहिए कि यहाँ ग्रन्थकार क्या कहना चाहते हैं। एक तो यही आकाश है जिसे हम देखते-जानते हैं, फिर चूँकि उसमें ‘महा’ लगा हुआ है अतः उससे उस ‘महाकाश’ का भी अभिप्राय हो सकता है जो महाकाल की चिच्छक्ति से संवलित मायाकाश है, फिर सूत्रात्मा का वह आकाश भी अभिप्रेत हो सकता है जो स्पन्दशक्ति-प्रध्ाान है, या फिर उस सूत्रात्माकाश से निकाला हुआ जीवाकाश हो सकता है जो शुद्ध चिदाभास है।
टीकाकार की इन बातों को समझने के लिए विद्यारण्य स्वामी की पंचदशी (चित्रदीप-प्रकरण, श्लोक 2-4) को सामने रख लेना सुविध्ााजनक होगाः
परमात्मा में कल्पित जगत् की प्रक्रिया इस प्रकार हैः
जैसे चित्र बनाने के लिए कपड़ा पहले ध्ाो कर साफ कर लिया जाता है, फिर उस पर माँड़ चढ़ाते हैं, तब उस पर आकृतियाँ खींची जाती हैं और तब उन आकृतियों को रँगते हैं (जिसके बाद वे चित्र कहलाती हैं), इसी प्रकार जगत् भी चार ही अवस्थाओं से गुज़र कर बनता है। परमात्मा जब स्वतः होता है (जैसे ध्ाुला हुआ कपड़ा) तो उसे ‘चित्’ कहते हैं, जब वह माया से युक्त होता है (जैसे माँड़ चढ़ाया कपड़ा) तब उसे ‘अन्तर्यामी’ कहते हैं, जब वह सूक्ष्म सृष्टि से युक्त होता है (जैसे वह माँड़ दिया कपड़ा जिस पर खाके खिंच गये हों) तब उसे ‘सूत्रात्मा’ कहते हैं, और जब वह स्थूल सृष्टि (= ब्रह्माण्ड आदि) से युक्त हो जाता है (जैसे खाके रंगे जाने के बाद ‘चित्र’ कहलाने लगते हैं) तब उसे ‘विराट्’ कहते हैं।
और इतना और जोड़ लेना चाहिए कि सूत्रात्मा की स्थिति अ-पंचीकृत महाभूतों वाली है और विराट् की स्थिति पंचीकृत महाभूतों वाली- इन दोनों प्रकार के पंचमहाभूतों का जि़क्र ऊपर आ चुका है। जिन चार आकाशों का उल्लेख टीकाकार ने किया है वे विपरीत् क्रम से परमात्मा की इन्हीं विराट्, सूत्रात्मा, अन्तर्यामी, और चित्, अवस्थाओं के आकाश हैं।
यहाँ ‘कालसत्ता’ और ‘नभः-सत्ता’ विराट् की (स्थूल) सत्ता के अन्तर्गत हैं, ‘स्पन्दसत्ता’ क्रियाशक्ति-प्रध्ाान सूत्रात्मा की (सूक्ष्म) सत्ता है, और शुद्ध चेतन परमात्मा से निष्कृष्ट चिदाभास (= जो चेतन जैसा लगता है किन्तु है नहीं) की सत्ता अन्तर्यामी की सत्ता है जिसके रजःकण ही वे निर्दोष कण हैं जो अनेक कल्पित विकारों के चलते परमात्मा की वायु में स्फुरणशील हैं। चिदाभास को विद्यारण्य स्वामी की ऊपर बतायी गयी चित्र की उपमा में उन चित्रों से समीकृत करना चाहिए जिनके वस्त्राभरण आदि दिखाये जाते हैं जैसे राजा और सैनिक आदि, यद्यपि वे उस चित्रपट में ही होते हैं और वास्तविक नहीं हैं; इसके विपरीत जडाभास उन चित्रों से समीकृत होगा जिनके वस्त्राभरण आदि नहीं दिखाये जाते, जैसे पर्वत आदि- ये भी चित्रपट में ही हैं और वास्तविक नहीं हैं।)
परमात्मामहावायौ रजः स्फुरति चंचलम्
कुसुमांग इवामोद्स्तदतद्रूपकम् स्वतः ।।2।।
- परमात्मा रूपी वायु में (कल्पित) रजःकणों की तरह स्वतः स्फुरण करने के नाते चंचल हैं; (इन्हें ऐसा समझना चाहिए) जैसे फूल की सुगन्ध्ा फूल से भिन्न भी है और अ-भिन्न भी (वैसे ही ये परमात्मा से भिन्न भी हैं, और अ-भिन्न भी) ।।2।।
(ये दो श्लोक मिल कर एक वाक्य बनाते हैं और वेताल के द्वितीय प्रश्न के उत्तर को पूरा करते हैं।)
जगदाख्ये महास्वप्ने स्वप्नात्स्वप्नान्तरम् व्रजत्
रूपम् त्यजति नो शान्तम्ब्रह्मशान्तत्वबृंहणम् ।।3।।
(वेताल का तीसरा प्रश्न था कि वह कौन है जो स्वप्न से स्वप्न में जाता हुआ अपने रूप को त्यागते हुए भी नहीं त्यागता, उसके उत्तर में कहते हैं कि) यह एक महास्वप्न है जिसे हम ‘जगत्’ कहते हैं। इसमें एक स्वप्न से दूसरे स्वप्न में जाता हुआ (= विविध्ा जन्म-मृत्यु, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, बन्ध्ा-मोक्ष, आदि की काल्पनिक अवस्थाओं से गुज़रता हुआ और इस प्रकार रूप-परिवर्तन की प्रतीति कराता हुआ) यह आत्मा अपने (इस जगत्-स्वप्न से मुक्त अतः) शान्त स्वरूप का परित्याग नहीं करता। वह केवल ज्ञान होने के नाते अपने इस शान्तत्व (= माया-जन्य क्रियाशीलता से रहित होने की अवस्था) की वृद्धि करता रहता है (और इसी नाते ‘ब्रह्म’ कहलाता है क्योंकि उससे बड़ा कुछ भी नहीं है) ।।3।।
(यहाँ बृहदारण्यकोपनिषद् चतुर्थ अध्याय, तृतीय ब्राह्मण के मन्त्र 17, 18, 19 आदि को शांकर भाष्य सहित देखना हितकर होगा जिसमें आत्मा के स्वप्नावस्था, जागरावस्था, आदि में संचरण का विस्तार से वर्णन किया गया है।)
रम्भास्तम्भो यथा पत्रमात्रमेवान्तरान्तरम्
अन्तरन्तस्तथेदम् हि विश्वम्ब्रह्मविवत्र्यपि ।।4।।
(वेताल का चैथा प्रश्न यह था कि केले के तने की तरह कौन है, इसके उत्तर में कहते हैं कि) जैसे केले के तने के भीतर कितनी भी दूर तक जाया जाय, छिलके के भीतर छिलका ही मिलता है, वैसे ही इस विवर्तनशील ब्रह्म के भीतर विश्व है, अर्थात् बाहर से भीतर यह विश्व एक ही है ।।4।।
(टीकाकार ने स्पष्ट किया है कि ‘अपि = भी’ से यह समझना चाहिए कि यद्यपि यह जगत् ब्रह्म का विवर्त है, कुछ गौण कारणों से इसे ब्रह्म का परिणाम भी कह सकते हैं। ‘विवर्त’ का तात्पर्य ऐसा परिवर्तन है जिसकी भिन्न सत्ता न हो, जैसे समुद्र में तरंग, और ‘परिणाम’ का तात्पर्य है ऐसा परिवर्तन जिसकी स्वतन्त्र सत्ता हो, जैसे दूध्ा से दही। केवलाद्वैत का स्वीकृत सिद्धान्त ब्रह्म को विवर्तनशील मानता है किन्तु भगवत्पाद ने ब्रह्मसूत्र (2-3-14) के भाष्य में उपासनार्थ ब्रह्म को परिणामशील स्वीकार किया है, और यहाँ उसी ओर इशारा है।)
स ब्रह्मात्मादिभिः शब्दैर्यदेताभिर्विगीयते
शून्यमव्यपदेशम् ते न तत्किंचिंन्न किंचन ।।5।।
(इसी चैथे प्रश्न के उत्तर को समझाते हुए कहते हैं कि) वह जो भीतर से बाहर से एक ही है, (यद्यपि) ‘ब्रह्म’, ‘आत्मा’ जैसे शब्दों से बताया जाता है, वस्तुतः शून्य है, वह व्यपदेश-हीन है, वे शब्द कुछ नहीं हैं, वह ब्रह्म (शब्दों से बताया जा सकने वाला) ‘कुछ’ नहीं है ।।5।।
(‘व्यपदेश’ का अर्थ ‘भाषिक व्यवहार’ होता है; ब्रह्म को ‘व्यपदेश-हीन’ कहने का अर्थ यह है कि वह किसी शब्द का वाच्य नहीं है।
टीकाकार ने स्पष्ट किया है कि (चूँकि शब्द श्रोत्र नामक इन्द्रिय से ग्राह्य है इसलिए) ‘ब्रह्म’ आदि शब्दों से बताये जाने पर उस परम तत्व की जो गोचरता (= इन्द्रियग्राह्यता) प्रतीत होती है वह अ-वास्तविक है क्योंकि वह परम तत्व सभी ध्ार्मों से शून्य है। तात्पर्य यह है कि अग्नि की प्रतीति हमें स्पर्श से इसलिए होती है कि उसमें दाहकता का ध्ार्म है, इसी प्रकार कोई भी प्रतीति किसी-न-किसी ध्ार्म के नाते होती है। ब्रह्म नामक परम तत्व किसी भी ध्ार्म से रहित है अतः हम उसे ‘ब्रह्म’ कहने भर से उसकी प्रतीति नहीं कर सकते, हम ‘अग्नि’ को एक नाम इसलिए दे पाते हैं कि उसमें कुछ ऐसे ध्ार्म हैं जो जल या वायु में नहीं हैं और उनकी पहचान की जा सकती है। परम तत्व में कोई ध्ार्म नहीं है अतः उसे ‘ब्रह्म’ आदि नामों से बता कर उसे भाषिक व्यवहार में बाँध्ाना केवल हमारी व्यावहारिक विवशता है।)
या या विभाव्यते सत्ता सा सानुभवनिर्मितान्
रम्भास्तम्भवदेतावंचिन्मात्रममलम् ततम् ।।6।।
(चैथे प्रश्न के उत्तर को ही स्पष्ट करते हैं कि) जो भी सत्ता प्रतीत होती है वह अनुभव की बनायी होती है (और उन अनुभव-जन्य निर्मितियों का परित्याग करती रहती है)। वस्तुतः ये सारी सत्ताएँ केवल ‘चित्’ भर हैं, जैसे केले का तना भीतर से बाहर तक छिलका ही छिलका है और इस प्रकार एक ही तत्व के आवरण का विस्तार है ।।6।।
(टीकाकार ने उदाहरण देकर स्पष्ट किया है। ‘पट (= कपड़ा) की सत्ता क्या है? केवल ‘तन्तु (= ध्ाागा)’ की सत्ता क्योंकि तन्तु ही बुने जाने के बाद पट कहलाने लगता है। फिर तन्तु की सत्ता क्या है? केवल ‘कार्पास (= कपास)’ की सत्ता, फिर वह भी केवल उसके फल की सत्ता है, फिर वह भी उसके बीज की सत्ता है। इस प्रकार जो भी सत्ता प्रतीत होती है वह केवल अनुभव-जन्य है और एक अनुभव-जन्य आकार को छोड़ कर दूसरे अनुभव-जन्य आकार में समाती जाती है। यह ठीक वैसा ही है जैसे केले के तने के छिलके उतरते जाते हैं। सभी अनुभूत व्यावहारिक सत्ताओं के उतर जाने के बाद केवल ‘चित्’ बचा रहता है जो जगत् के रूप में बुना जाकर विस्तृत हुआ।)
सूक्ष्मत्वादप्यलभ्यत्वात् परमात्मा परोऽणुकः
अनन्तत्वादसावेव प्राप्तो मेर्वादिमूलताम् ।।7।।
(आगे इसी को समझाते हैं) सूक्ष्मता के नाते, अलभ्यता के नाते, वह परमात्मा (जिसे ‘चित्’ कहा गया) अत्यन्त छोटा है फिर भी अनन्त होने के नाते मेरु पर्वत आदि के मूल में है (अर्थात् विशालता की सत्ता उसी की सत्ता है और इस प्रकार उस अणु-रूपी परमात्मा के ही परमाणुओं के रूप में ये ब्रह्माण्ड आदि होते हैं) ।।7।।
(इसी से पाँचवें प्रश्न का भी उत्तर मिल गया जो यह था कि ब्रह्माण्ड आदि किस अणु के परमाणु हैं
इस सूक्ष्मता और अलभ्यता को ‘अणु’ से बताने का तर्क समझने के लिए छान्दोग्योपनिषद् (6-13-2) का शांकर भाष्य देखना चाहिए जिसमें भगवत्पाद ने पानी में घुले नमक की सूक्ष्मता और अलभ्यता को नमक की ‘अणिमा’ कहा है।)
अणोरप्यत्यनन्तस्य पुंसोऽस्य जगदाद्यपि
परमाणुरिवाभाति प्रतीतत्वादरूपवत् ।।8।।
(इसी को समझाते हैं कि) प्रतीतत्व के नाते उस अणु होते हुए भी अनन्त पुरुष को ये जगत् आदि परमाणु जैसे अ-रूप लगते हैं ।।8।।
(टीकाकार बताते हैं कि अणुतर (= और भी छोटे होते जाते) चित्कणों से परिच्छिन्न होने के नाते ये ब्रह्माण्ड आदि स्वप्न-ब्रह्माण्ड जैसे निःस्वरूप लगते हैं जो सूक्ष्म नाडी-छिद्रों से झाँक रहे हों।
टीकाकार की इस बात को समझने के लिए बृहदारण्यकोपनिषद् (4-3-20) को ध्यान में रखना चाहिए जिसमें स्वप्न का स्थान ‘हिता’ नामक नाडियों को बताया गया है। भगवत्पाद ने यहाँ कहा है कि सूक्ष्म शरीर स्फटिक की भाँति स्वच्छ होता है और इन नाडियों के भीतर के रंगीन रस की आभा पड़ने से विभिन्न आकृतियों वाला भासित होता है; यही टीकाकार के शब्दों में ‘स्वप्न-ब्रह्माण्डों का नाडीछिद्रों से झाँकना’ है।)
परोऽणुरेषोऽलभ्यत्वात्पूरकत्वान्महागिरिः
सर्वावयवरूपोऽपि निरस्तावयवः पुमान् ।।9।।
(अब छठे प्रश्न का उत्तर देते हैं जो परमाणुमहागिरि के बारे में था) यह परमात्मा-पुरुष अलभ्य (= इन्द्रियों से अग्राह्य, जिसे देखना-सुनना-छूना-सूँघना-चखना सम्भव नहीं है) होने के नाते सूक्ष्म है और सभी स्थूलताओं को भरने के नाते महान् पर्वत की तरह विशाल है। यह सभी अवयवों का रूप है और इसका कोई अवयव नहीं है ।।9।।
(टीकाकार बताते हैं कि इसका सभी अवयवों का रूप होना आरोपित है (जैसे रस्सी में साँप आरोपित होता है) और चूँकि इसका वर्णन ‘नेति नेति (= यह नहीं, यह नहीं) के द्वारा किया गया है इसलिए इसके अवयव-रूप होने का भी खण्डन हो गया।)
अस्य वै ज्ञप्तिमात्रस्य मज्जामात्रंजगत्तयी
विज्ञानमात्रमध्यम् हि साध्ाो विद्धि जगत्तयम् ।।10।।
(इसी को आगे बढ़ाते हैं) यह केवल विज्ञान है और इसकी मज्जा ही यह त्रैलोक्य है। हे सज्जन वेताल, तुम इस त्रिलोकी को केवल विज्ञान के बीच वर्तमान समझो ।।10।।
(तात्पर्य यह है कि इस त्रैलोक्य की भौतिक सत्ता केवल प्रतीयमान हे, वास्तविक नहीं है।)
विज्ञानमात्रकलनाकलितम् जगन्ति शान्तस्वभावसुकुमारमनन्तरूपम्
वेतालबालक पदम् तदलंघनीयमेवम् स्वयं समनुभावय शान्तमास्स्व ।।11।।
(अब सभी प्रश्नों के समाध्ाान के बाद समापन करते हैं) हे बालक (= अल्पबुद्धि) वेताल, ये सारे जगत् केवल विज्ञान की गिनती से गिने गये हैं (= अविद्या द्वारा प्रादुर्भूत तन्मात्राओं के संसर्ग से प्राप्त विशेष ज्ञान द्वारा प्रकट किये गये हैं), इनका स्व-भाव शान्त और सुकुमार है तथा ये अनन्त रूपों वाले हैं। तुम उस स्थान (= स्व-भाव) को जहाँ पहुँचना असम्भव है (अर्थात् जो उपाय-प्राप्य नहीं है), स्वयं समझो और शान्त हो जाओ ।।11।।
(टीकाकार के अनुसार ग्रन्थकार का आशय यह है कि वेताल जैसे अल्पबुद्धि उस परम तत्व को स्वयं नहीं समझ सकते और राजा का कहना है कि उनके द्वारा दिये गये इस उपदेश से ही वेताल यह समझ सकेगा कि वह वस्तुतः उस परम तत्व से अभिन्न है। वह तत्व वेताल की इस मिथ्या किन्तु व्यावहारिक सत्ता की तरह उग्र और भयंकर नहीं है, शान्त और सुकुमार है और वेताल को उससे एकात्म हो कर अपनी उग्रता छोड़ देनी चाहिए।)
इस ऋषिप्रणीत वाल्मीकिरचित वासिष्ठ महारामायण में देवदूतोक्त मोक्षोपायों में निर्वाण-प्रकरण के पूर्वाधर््ा के अन्तर्गत ‘वेतालप्रश्नभेद’ नामक बहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ।
4 वेतालाख्यान
श्रीवसिष्ठ उवाच
इति राजमुखाच्छुत्वा वेतालः शान्तिमाययौ
भावितात्मतया तत्र विचारोचितया ध्ािया ।।1।।
वसिष्ठ जी ने (हगवान् राम से) कहा-
राजा के मुँह से यह (ज्ञानोपदेश) सुन कर अपने वास्तविक स्वरूप को वेताल ने विचार-बुद्धि से समझ लिया और शान्त हो गया ।।1।।
(यहाँ तात्पर्य यह है कि उपदेश सुन कर उस पर विचार करने से वेताल को अपनी वेताल-सत्ता का मिथ्यात्व ज्ञात हो गया और उसने अपने को ब्रह्म के रूप में जान लिया।
संस्कृत के मूल-वाक्य में ‘भावितात्मता’ बुद्धि का विशेषण है और शब्दशः अनुवाद होगा ‘अपने वास्तविक स्वरूप, अर्थात् परमात्मा, का तत्व-ज्ञान जिसमें व्याप्त किया गया है, ऐसी बुद्धि’।)
उपशान्तमना भूत्वा मत्वैकान्तमनिन्दितम्
बभूवाविचलध्यानी विस्मृत्य विषमाम् क्षुध्ााम् ।।2।।
वह वेताल शान्त मन वाला हो गया और अपने को ब्रह्म से एकाकार (अतः) अ-निन्दित समझता हुआ अविचल ध्यान में समाध्ािस्थ हो गया, अपनी कष्टदायक भूख उसे भूल गयी ।।2।।
(यहाँ ऐसा इशारा लगता है कि वेताल अपनी इस अवस्था में अपने वेताल-शरीर की भौतिकता से भी ऊपर उठ चुका है।)
एतद्राम मयोक्तम् ते वेतालप्रश्नजालकम्
एवंकमेण चिदणौ तेनेदं संस्थितम् जगत् ।।3।।
हे राम, मैंने यह तुमसे वेताल के प्रश्नों का जाल बताया। (जैसा उस राजा ने बताया था) उसी क्रम से (यह समझ लो कि) उस अत्यन्त सूक्ष्म ‘चित्’ में यह संसार स्थित है ।।3।।
(यह स्मरण रखना चाहिए कि इस समय कुछ कारणों से भगवान् राम अज्ञान-ग्रस्त हैं और महर्षि वसिष्ठ उन्हें ज्ञानोपदेश कर रहे हैं।)
चिदणोः कोशगम् विश्वम् विचारेण विलीयते
कायो वेतालकस्येव शिष्यते यत्पदम् तु तत् ।।4।।
हे राम, उस ‘चित्’ नामक अत्यन्त सूक्ष्म तत्व की मंजूषा में यह सारा विश्व विचार के बाद वैसे ही लुप्त हो जाता है जैसे वेताल का शरीर। फिर इस विश्व-विलोपन के बाद जो बचता है वही वह चित् नामक तत्व परमात्मा या ब्रह्म है ।।4।।
(टीकाकार ने समझाया है कि ‘वेताल’ कोई वास्तविक जीव नहीं, अल्पबुद्धि बालकों के भय की उपज है और इस भय-जन्य भ्रम के दूर होने पर स्वतः लुप्त हो जाता है- इसी प्रकार विश्व भी अज्ञान-जन्य भ्रम के दूर होने पर अपनी सत्ता की मिथ्या वास्तविकता त्याग देता हे और केवल ब्रह्म की सत्ता रह जाती है।)
संहृत्य सर्वतश्चित्तम् स्तिमितेनान्तरात्मना
स्वभावापतितम् कुर्वन्निरिच्छन् तिष्ठ शान्तध्ाीः ।।5।।
हे राम, सब ओर से चित्त हटा कर, अन्तरात्मा को स्थिर रखो और अपने स्व-भाव में उस चित्त को ढालते हुए कोई भी इच्छा न करते हुए शान्तबुद्धि रहो ।।5।।
(‘स्व-भाव’ से तात्पर्य है ‘मैं ब्रह्म हूँ’ का अनुभव करना।)
आकाशविशदम् कृत्वा मनसैव मनो मुने
तिष्ठैकशमशान्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।।6।।
हे मुनि, मन से ही मन को आकाश जैसा विस्तार दे कर, एक ही वस्तु में सभी मनोवृत्तियों का शमन कर के अपने को शान्त रखो (और इस प्रकार) सभी चीज़ों को एक समान देखो ।।6।।
(तात्पर्य यह है कि सब कुछ ब्रह्म है, इसका अनुभव करो, सुख-दुःख से ऊपर उठो।
यहाँ महर्षि वसिष्ठ ने भगवान् राम को ‘मुनि’ इसलिए कहा है कि वे उन्हें मनन करने को कह रहे हैं।)
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो यथाप्राप्तानुवर्तिनः
राज्ञो भगीरथस्येव दुःसाध्यमपि सिद्धति ।।7।।
हे राम, जिस व्यक्ति की बुद्धि (लालसाओं के वशीभूत होकर चंचल न बनकर) स्थिर होती है, जो मोह में नहीं पड़ता, जो उसे जो कुछ मिलता है उसी के अनुसार रहता है (और लोभवश कुछ ऐसा नहीं चाहता जो उसे न मिल सके) उसके अन्य लोगों द्वारा न सिद्ध हो सकने वाले कार्य भी सिद्ध हो जाते हैं जैसे महाराज भगीरथ के हुए ।।7।।
(टीकाकार के अनुसार यहाँ यह इशारा है कि स्वर्ग से गंगा को उतार लाने का जो कार्य दिलीप और अंशुमान् जैसे प्रतापी न कर सके, उसे भगीरथ ने कर दिखाया।)
सम्पूर्णशान्तमनसः परितृप्तवृत्तेर्नित्यम् समे सुखमयात्मनि तिष्ठतोऽन्तः
सिद्धन्ति दुर्लभतरा अपि वांछितार्था गंगावतार इव सागरखातवस्तु ।।8।।
हे राम, जिस व्यक्ति का मन सम्पूर्ण रूप से शान्त होता है, जिसकी वृत्तियाँ पूरी तरह तृप्त हैं, जो अपने भीतर के सुखमय सम रूप में वर्तमान रहता है, उसकी चाहत के अतिदुर्लभ कार्य भी सिद्ध हो जाते हैं जैसे (महाराज भगीरथ के चाहने पर उनके पूर्वज) सगर के पुत्रों द्वारा खोदी हुई खाइयों में माँ गंगा का (स्वर्ग से) उतरना) ।।8।।
(अब इस सर्ग की समाप्ति के आगे भगीरथ की कथा आती है जिसकी प्रसिद्ध प्रस्तुति हम वाल्मीकिकृत रामायण (बालकाण्ड, सर्ग 38-44) के आध्ाार पर यहाँ दे रहे हैं; इसे महर्षि विश्वामित्र ने भगवान् राम को सुनाया थाः
अयोध्या के महाराज सगर की दो पत्नियाँ थींः एक विदर्भराज की पुत्री केशिनी और दूसरी अरिष्टनेमि की पुत्री सुमति जो गरुड की बहन थी। (यह स्पष्ट नहीं है कि ये अरिष्टनेमि वही हैं या नहीं जिनका नाम योगवासिष्ठ के प्रारम्भ में आया है। रामायण के टीकाकार इन्हें कश्यप मुनि बताते हैं जिसके आध्ाार पर सुमति की माता का नाम विनता सिद्ध होता है।) सन्तान-प्राप्ति की इच्छा से इन सब ने महर्षि भृगु को सेवा से प्रसन्न किया जिन्होंने वर दिया कि एक पत्नी से एक ही पुत्र होगा जिससे वंश चलेगा और एक पत्नी से साठ हज़ार पुत्र होंगे जो महाप्रतापी होंगे। केशिनी ने एक ही किन्तु वंशध्ार पुत्र का चुनाव किया और सुमति ने साठ हज़ार पुत्रों का। केशिनी से असमंज नामक पुत्र हुआ जो अत्याचारी था और छोटे बच्चों को सरयू नदी में डुबा कर अपना मनोरंजन करता था। उसे राजा ने निर्वासित कर दिया। असमंज का पुत्र अंशुमान् ध्ार्मात्मा था।
कालान्तर में महाराज सगर ने अश्वमेध्ा यज्ञ करने की ठानी किन्तु इन्द्र ने यज्ञ का घोड़ा चुरा लिया। (यह प्रसिद्ध है कि जो सौ अश्वमेध्ा कर लेता है वह इन्द्र हो जाता है अतः इन्द्र अश्वमेध्ा में बाध्ाा डालते हैं।) सगर ने अपने साठ हज़ार पुत्रों को घोड़ा खोजकर लाने को कहा जिन्होंने सारी पृथिवी खोद डाली और रसातल तक पहुँच गये जहाँ महर्षि कपिल तपस्या कर रहे थे। उनके पास ही इन लोगों ने घोड़े को चरते देखा जिसे इन्द्र ने वहीं छिपा रखा था। इन सब ने महर्षि कपिल को ही चोर समझा और उन पर हमला किया जिससे रुष्ट होकर महर्षि ने इन सबको भस्म कर दिया। इनके न लौटने पर सगर ने अपने पौत्र अंशुमान् को घोड़े की खोज में भेजा जिसने रसातल तक पहँुचकर अपने पितृव्यों को भस्मीभूत पाया और शोकाकुल हो कर उनका तर्पण करना चाहा किन्तु उसे वहाँ कहीं जल न मिला। तब उसके पितृव्यों के मामा गरुड ने सारी कहानी बतायी और कहा कि इनका उद्धार तभी होगा जब इनकी भस्म गंगाजल में प्रवाहित होगी। लाचार अंशुमान् घोड़े को ले कर लौट आया और सगर का यज्ञ पूरा हुआ।
गंगा हिमालय की पुत्री और पार्वती की बड़ी बहन थीं जिन्हें देवताओं ने ध्ार्मकार्य हेतु स्वर्ग में बुला रखा था। उन्हें स्वर्ग से पृथिवी पर उतार लाने के लिए अंशुमान् और उनके बेटे दिलीप ने बहुत प्रयास किये किन्तु वे सफल न हुए। अन्ततः दिलीप के बेटे भगीरथ की तपस्या के फलस्वरूप गंगा पृथिवी पर शिव की जटाओं से गुज़रती हुई आयीं और भगीरथ के रथ के पीछे-पीछे चलती हुई उनके पूर्वजों की भस्म को बहा ले गयीं जिससे उनको स्वर्गप्राप्ति हुई।
योगवासिष्ठ की प्रस्तुति इससे थोड़ी अलग है और उसमें भगीरथ द्वारा गंगा को उतार लाना उनके ब्रह्मचिन्तन, राज्यत्याग, संयोगतः एक अन्य राज्य की प्राप्ति आदि के अन्त में उनकी तपस्या और तदनन्तर प्राप्त वरदान के परिणाम के रूप में वर्णित है।
पाठकों के लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि भारतीय फ़ारसी कविता के शीर्षपुरुष मिजऱ्ा बेदिल ने अपनी मसनवी इफऱ्ान (= ज्ञान) में गंगावतरण की कथा को कुछ साध्ाारण भिन्नताओं के साथ प्रस्तुत किया है जिसमें गंगा में भस्म बहाने से स्वर्ग-प्राप्ति यथावत् है। भारतीय इस्लाम के सन्दर्भ में यह एक महत्वपूर्ण सूचना है, विशेषतः इसलिए भी कि मिजऱ्ा बेदिल ने यह मसनवी औरंगज़ेब के शासनकाल में लिखी थी और वे उसके सामन्त शुकरुल्ला खान के आश्रय में थे।)
इस ऋषिप्रणीत वाल्मीकिरचित वासिष्ठ महारामायण में देवदूतोक्त मोक्षोपायों में निर्वाण-प्रकरण के पूर्वाधर््ा के अन्तर्गत ‘वेतालाख्यान’ नामक तिहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ।