ज़िन्दों के लिए एक ताज़ियतनामा’ ख़ालिद जावेद
05-Sep-2018 01:19 PM 6453

हम एक साँप बनाना चाहते थे। या वह एक नुक़्ता था जो साँप हो जाना चाहता था मगर रास्ते में उसने अपना इरादा बदल दिया और अपनी दिशा बदल दी।
अब वह कुछ और हो गया है। अपने अधूरेपन में लटका, हवा में इधर-उधर डोलता हुआ।
क्लेमण्टे
पेट में किसी तूफ़ान की तरह लगातार बढ़ते हुए तेज़ दर्द से होश खोते होते हुए, उसने पहले तो सड़क के एक तरफ़ दौड़ लगायी, फिर ख़तरनाक ट्रेफ़िक की कोई परवाह किये बगैर, सड़क के उस पार, दूसरी तरफ़, इस पार भी बहुत दूर तक दौड़ा। यहाँ भी वही जगमगाता हुआ बाज़ार, साफ़-सुथरी दुकानें और खूबसूरत चमचमाते हुए घर। बाक़ायदा शहरी मन्सूबा बन्दी के तहत बनवाये गये तक़रीबन एक जैसे घर जैसे एक ही डिज़ाइन की क़ब्रें। हर क़ब्र एक-दूसरे की नक़ल या हर मौत एक-दूसरे का चर्बा।
वह मायूसी से एक बिजली के खम्बे से टिक कर खड़ा हो गया और हाँपने लगा।
उसने सोचा राजपथ से उतरकर इन गलियों में निकल जाना चाहिए जो एक-दूसरे को नब्बे डिग्री के कोण से काट रही हैं। शायद इधर मिल जाए। वह शाहराह से हटकर जल्दी-जल्दी एक गली में घुसता चला गया। सामने बड़ा-सा पार्क था। यह गलियाँ भी अन्दर से शाहराह की तरह चमक रही थी। हर तरफ़ बिजली के बल्ब लटक रहे थे, किसी भी कोने में, कहीं भी कोई तारीकी नज़र न आयी। वह तारीकी के लिए तड़प रहा था। काश कोई ख़ाली दीवार होती। किसी मकान का कोई अन्धोरा पिछवाड़ा ही होता।
वह चोरों की तरह मकानों के आगे-पीछे चक्कर लगाने लगा। मगर किसी मकान की कोई पीठ न थी। मकानों के जिस्म पर सिर्फ़ उनके चेहरे ही चेहरे थे। हर तरफ़ गज़ब की सफ़ाई थी।
’जीवितों के लिए शोक-पत्र

सारा शहर साफ़-रौशन और चमकता हुआ जैसे अभी-अभी लाण्ड्री से लाया गया सफ़ेद कलफ़ लगा कुत्र्ता-पाजामा हो। उसने सूँघा। चारों तरफ़ से कपड़े धोने वाले खुशबूदार साबुन की तेज़ महक आ रही थी।
काश कहीं से कोई बदबू का झोंका भी आ जाता। उसने सोचा मगर ठीक उसी वक़्त, पार्क में लगे हुए फूलों के पौध्ेा हवा में लहराने लगे। साबुन में फूलों की खुशबू भी मिल गयी। अब वह और भी घबरा गया।
सामने वाली गली में चलना चाहिए। उसने सोचा और एक हस्यास्पद जल्दबाज़ी के साथ किसी परेशान हाल मेंढक की तरह उछलता-कूदता वह सामने वाली गली में आ गया। मगर यहाँ भी बिल्कुल उसी तरह का पार्क, वैसी ही खुशबू। पार्क में बैठे हुए उसी क़िस्म के लोग, हँसते-बोलते और काना-फूसी करते हुए।
नाली नाली कहाँ है ? उसने किसी नाली की तलाश में नज़रें दौड़ायी मगर तमाम नालियाँ शायद पाताल में बह रही थीं।
जानवर ? जानवर कहाँ है ?
मगर तमाम जानवर शायद गन्दगी के नाम पर काटे जा चुके थे।
सुअर ही नहीं, कुत्ते और बिल्ली तक नहीं।
अफ़सोस कि उसने अभी तक किसी कुत्ते को नहीं देखा और न कहीं से उसके भौंकने की आवाज़ आयी। मायूस होकर वह धम से ज़मीन पर बैठ गया और अब उसे महसूस हुआ जैसे वह ज़मीन पर नहीं, एक तनी हुई उजली सफ़ेद चादर पर बैठा था। चादर जो हवा में लटकी थी। शायद बैठते वक़्त उसे चक्कर आ गया था। वह फ़ौरन उठकर खड़ा हो गया और दोनों हाथ खला में फैला दिये ताकि आने वाले चक्करों से लड़ सके। दर्द अब बढ़ रहा था। चक्कर उसके करीब आ रहे थे। वह ज़ोर-ज़ोर से हाथ हिला-हिलाकर, चक्करों को अपने से दूर हटाने की कोशिश करने लगा। फिर वह आगे बढ़ा और इसी तरह झूमता, चकराता, बायीं तरफ़ वाली पतली गली में जाने लगा मगर जल्द ही यह गली फिर उसी बड़ी रौशन सड़क से जाकर मिल गयी जहाँ से वह इधर आया था।
उसने एक बार फिर दौड़ते हुए खतरनाक ट्रेफ़िक को पार किया और सड़क के दूसरे किनारे पर आ गया। वह आहिस्ता-आहिस्ता दक्षिण की तरफ़, फुटपाथ पर चलने लगा। फुटपाथ के किनारे बस गुब्बारे ही गुब्बारे या फिर चाट के ठेले, ही ठेले जहाँ पकी-पकाई औरतें, अश्लील अन्दाज़ में अपने लिपिस्टिक लगे होंठ खोल-खोलकर गोल-गप्पे खा रही थीं।
एक जगह रुककर उसने आसमान की तरफ़ उन्हीं औरतों की नक़ल में फ़ोहश अन्दाज़ में मुँह खोलकर देखा। आसमान काला और सुर्ख़ हो रहा था। उसके मुँह में दिसम्बर का कोहरा भर गया। उसकी नाक से पानी बहने लगा। उसे एक के एक कई छींके आयीं और वह तकलीफ़ से बिलबिला उठा। उसे महसूस हुआ जैसे इन छींकों में एक चमकता चाकू उसके पेड़ू में धँस गया हो, सारा जिस्म हिल रहा था।
कहीं कोई गड्ढ़ा, कोई तालाब, कोई पोखर ?
कहीं कोई गटर, कोई नाली ?
मगर नहीं अब दुनिया में ऐसी चीज़ें कहाँ।
कहीं कोई कूड़ाघर ?
नहीं सारे कूड़े के ढेर फूलों के बाग़ान में बदल चुके थे।
उसकी नज़र सामने लगे चमकते हुए साईन बोर्ड पर पड़ी जहाँ सुर्ख़ रंग का फाँसी का फन्दा बना हुआ था और तहरीर थी।
सड़क पर सिगरेट पीने वाले का जुर्माना सजाए-मौत है। फ़िज़ा को किसी तरह गन्दा करने वाले को जनपथ पर फाँसी दी जाएगी।
वह बुरी तरह ख़ौफ़ज़दा हो गया। उसे सर्दी लगने लगी। उसकी चमड़े की पुरानी जैकिट में बड़े-बड़े सुराख़ हो गये थे। इन सुराख़ों से सर्द हवा और कोहरा अन्दर पहनी हुई मुद्दतों से मैली उसकी नीली कमीज़ में सीने के पास आ गये। इस नीली कमीज़ में भी छेद थे। कोहरा उसके सीने के बालों को गीला करने लगा। उसके बरसों पुराने जूतों में ठण्डी हवा आकर बैठ गयी। उसने यूँ ही एक बार फिर आसमान की तरफ़ देखा। एक पल को चाँद नज़र आया मगर उसके देखते ही चाँद अचानक कोहरे की क़नात के पीछे चला गया।
वह फुटपाथ से उतरकर कोलतार की स्याह सड़क पर आ गया।
दर्द इसी तरह आगे बढ़ रहा था जैसे एक ख़राब छड़ी की सुई, रुक-रुककर झटके लेकर आगे बढ़ती है।
रात ज़्यादा हो गयी थी। बाज़ार बन्द होने लगा। सड़क पर चहल-पहल कम होने लगी मगर पुलिस बढ़ने लगी। सफ़ाई की हिफ़ाज़त करने के लिए, चप्पे-चप्पे पर सफ़ेद वर्दियाँ पहने पुलिस वाले मौजूद थे। उनकी वर्दियाँ साबुन और फूलों की खुशबू से महक रही थीं। और वे इतनी ज़्यादा सफ़ेद थीं कि कोलतार की काली सड़क इनके चमकते हुए अक्स से, नाक़ाबिले यकीन हद तक सफ़ेद नज़र आती थी। वह सड़क पर सिगरेट-बीड़ी पीने वालों या फ़िज़ा में गन्दगी फैलाने वालों को यहीं शार-ए-आम पर फाँसी देने की तैयारी करके निकले थे। उनके हाथों में सफ़ेद चिकनी रस्सियों के फन्दे थे। वह अपने आप में खुद मुक्तफ़ी जल्लाद भी थे। इसी लम्हे उसे महसूस हुआ जैसे उसका पेट फट जायेगा। वह पागलों की तरह दायीं तरफ़ वाली गली में भागने लगा जैसे यमदूत उसका पीछा कर रहा हो।
सामने उसे एक घर नज़र आया जिसकी खिड़कियों से रौशनी बाहर आ रही थी। रौशनी में उसने अपनी बेढंगी और डोलती हुई परछाई को गौर से देखा और फिर जल्दी-जल्दी कुछ न सोचते हुए उस घर के दरवाजे़ पर ज़ोर-ज़ोर से दस्तकें देने लगा।
दरवाज़ा अभी अन्दर से बन्द न था। वह उसके हाथों के ज़ोर से खुल गया।
उस कमरे में दो मर्द और दो औरतें खाने की मेज़ पर बैठे थे।
उसने इनके सामने हाथ जोड़ दिये।
‘बस। पेशाब करने के लिए.... यक़ीन करें। खुदा के लिए कि बस पेशाब करने के लिए।’ वह घिघिया रहा था। कोई मेज़ से उठा तक नहीं।
दोनों मर्द जुड़वाँ थे और औरतें भी। दोनों की उम्रों में भी फ़र्क न था। वे एक मनहूस और न समझ में आने वाली एक जैसी खाने की मेज़ पर तारी थे। वे अपना शोरबा पीने में मगन थे।
‘मैं पेशाब करने के लिए आपके घर चला आया हूँ, मुझे अहसास है कि यह एक असभ्य और ग़लत बात है। आपका घर, जनाब कोई आम पेशाबघर नहीं, जहाँ कोई ऐरा-गै़रा मुँह उठाये घुसा चला आये। मगर आप मुझे एक बिन-बुलाया या ग़रीब मेहमान समझकर माफ़ कर दें। मुझे बहुत तकलीफ़ है। मेरा मसाना फटा जा रहा है। मेरे गुर्दे में पथरी है। बराहे मेहरबानी मुझे पेशाबघर का रास्ता दिखा दें। मैं ज़िन्दगी भर आपका एहसानमन्द रहूँगा। आप लोगों के क़दम धो-धोकर पीता रहूँगा।’
उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे। उसने अपने दोनों हाथों से पेट पकड़ लिया और तकलीफ़ की शिद्दत से दोहरा हो गया मगर फ़ौरन इस अन्दाज़ को बदतमीजी़ समझते हुए उसने पेट पर से हटाकर दोबारा उनके सामने हाथ जोड़ दिये।
मर्द ने अपने हमशक्ल की तरफ़ और औरत ने अपनी हमशक्ल की तरफ़ देखा। फिर वे चारों सफ़ेद छत की तरफ़ देखने लगे।
‘मैं मजबूर हूँ, बेहद मजबूर और शदीद बीमार। मुझ पर रहम कीजिये।’ उसने सर्दी और तकलीफ़ की शिद्दत से कँपकँपाते हुए मिन्नत की। मगर उसकी यह कँपकँपाहट सर्दी खाये हुए, बुख़ार में मुब्तिला किसी कुत्ते के जैसी थी।
‘हम तुम्हें पुलिस के हवाले करने जा रहे हैं। बताओ तुम कहाँ से आये हो।’
उन चारों ने एक साथ कहा। मर्दाना और जनाना आवाज़ों ने मिलकर इस जुमले को एक भुतहे शोर में तब्दील कर दिया।
‘नहीं। ख़ुदा के लिए नहीं।’ तक़रीबन यकसा आवाज़ों के इस आसेबी शोर से घबराकर उसने इल्तिजा की।
‘मेरा यक़ीन कीजिये मैं चोर नहीं, एक शरीफ़ आदमी हूँ। शायद इस दुनिया में, मैं भी कहीं रहता ही होऊँगा मगर आज मैं भटक गया हूँ। अपने घर जाने का रास्ता भूल गया हूँ। यह शहर मुझे अजनबी लग रहा है। शायद मैं बहुत दिन तक सोता रहा हूँ या बेहोश रहा हूँ या फिर मुमकिन है कि मेरी अक़्ल और याददाश्त दोनों ही खराब हो गये हैं मगर इतना मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ कि आप यकीन करें कि आपके घर में सिर्फ़ पेशाब करने के लिए ही आया हूँ। बाहर सड़कों पर, चैराहों पर, गलियों में मुझे कहीं भी अवामी पेशाबघर नज़र नहीं आये। मैंने उन्हें बहुत ढूँढा। शाम से इधर-उधर ठोकरें खाता फिर रहा हूँ। गलियों-गलियों भटक रहा हूँ मगर सड़क पर पेशाब करने की सज़ा फाँसी है। वे सब फाँसी का सफ़ेद फन्दा लिए हुए शिकारी कुत्तों की तरह मेरी तलाश में हैं।’
यह कहते-कहते अपने दोनों हाथ जोड़े वह उनके सामने घुटनों के बल बैठ गया और किसी भीगे हुए, कमज़ोर और बीमार बिल्ले की मानिन्द काँपने लगा। उन सबके कपड़ों से साबुन और फूलों की मिली-जुली खुशबू आ रही थी। इसी खुशबू पर कभी-कभी भुने हुए करमकल्ले की बू हावी हो जाती थी।
एक मर्द ने खाने वाली सफ़ेद चमकती हुई छुरी उठायी और कुर्सी से उठकर, उसके करीब आ गया। ‘ज़लील चोर, तुझे नहीं मालूम कि घरों में टाॅयलेट नहीं होते ? वह गुर्राया।’
क्या मतलब ? इस बार दर्द से नहीं, हैरत से उसकी आँखे फूटकर रह गयीं। ‘चलो पुलिस को फ़ोन करो।’ मर्द ने दूसरे मर्द से कहा।
दूसरे मर्द ने पहली औरत से कहा, ‘चलो पुलिस को फ़ोन करो।’
पहली औरत ने दूसरी औरत से कहा, ‘चलो पुलिस को फ़ोन करो।’
जुड़वा इंसान उसे हमेशा भयानक और रहस्यमय लगते थे। इससे उनकी ताक़त, नफ़रत और तरहुद में ज़बरदस्त इज़ाफा हो जाता था, वह ख़ालिक़े कायनात की खुलेपन के खिलाफ़ नज़र आते थे। अगर एक शख़्त आपको ज़मीन पर गिराकर ज़िबाह कर रहा हो तो आप उसके दूसरे साथियों से कम अज़ कम रहम की भीख माँग सकते हैं। या आँखों ही आँखों में इल्तिजा कर सकते हैं। मगर इत्तिफ़ाक से वे सब एक-दूसरे के हमशक़्ल हों या जुड़वाँ हो तो यह क़तई नामुमकिन है।
‘नहीं, मुझे माफ़ कर दें। मैं इनके हाथों क़त्ल होना नहीं चाहता। मैं मरना नहीं चाहता, मैं चोर नहीं।’ वह उसी तरह घुटनों के बल उनके सामने हाथ जोड़े बैठा रहा।
उसके मुँह से बार-बार लरज़ती हुई आवाज़ में यह अल्फ़ाज निकल रहे थे। ‘पेशाब, बस पेशाब, मैं बेकूसूर हूँ, बीमार हूँ।’
‘तुम पागल हो, घरों में ऐसी चीजे़ बनाने से गन्दगी और बीमारियाँ फैलती हैं। अब कोई ऐसी घिनौनी और गलीज़ हरकतें नहीं करता। चलो निकलो। अपने दिमाग़ के इलाज के लिए अस्पताल जाओ।’
फिर वह चारों एक साथ बोले।
मगर जुमले के शोर में वह कुछ भी न समझ सका और उसी तरह उनके सामने पड़ा बिलबिलाता रहा।
तब वह मर्द जिसके हाथ में खाने वाली चमकती हुई छुरी थी, उसके और क़रीब आया। चमकती हुई छुरी का सफ़ेद दस्ता उसके सिर पर पड़ा। वह एक खाली डिब्बे की तरह पीछे दरवाज़े की तरफ़ खुद-ब-खुद लुढ़कता चला गया। वह एक मामूली कीड़े की तरह घर से बाहर फेंक दिया गया।
दरवाज़ा एक तेज़ आवाज़ के साथ अन्दर से बन्द कर दिया गया।
वहाँ, ज़मीन पर औंधो पड़े-पड़े उसने अपने सिर के क़रीब ताँबे के एक ख़ाली कटोरे को रखा हुआ महसूस किया और ख़ला से टपकती हुई ख़ून की भयानक बूँदों की डरावनी ‘टप-टप’ को सुना जो वक़्फ़े-वक़्फे़ से कटोरे में गिरती थीं।
बहुत देर बाद दोनों हाथ ज़मीन पर टेककर वह बड़ी मुश्किल से उठ सका। उसे लगा जैसे पेट का दर्द ग़ायब हो गया है। अब पेशाब भी शायद नहीं लग रही थी। मगर सिर बुरी तरह दुख रहा था और आँखों में तारे नाच रहे थे। वह कोहरे की चादर में लिपटा हुआ, डगमगाता हुआ दिशाहीन आगे बढ़ने लगा। सड़कों पर ट्रेफ़िक का शोर ख़त्म हो रहा था। सन्नाटा छा रहा था मगर सर्दी बढ़ने लगी। सर्दी का अपना शोर था। इस शोर को उसके कान नहीं बल्कि उसकी खाल सुन रही थी। जिस तरह साँप आवाजे़ सुनता है। उसके फेफड़े और दिल सर्दी के इस काले भयानक शोर से सहमकर सिकुड़ जाते थे। अब उसे फिर अपने पेट में दर्द महसूस हुआ और इस असर का खुलासा भी कि उसके पेट में रहने वाला दर्द, उसके दुखते हुए सिर को दिलासा देने के लिए कुछ लम्हों के लिए पेट और पेड़ू से रेंगता हुआ, ऊपर सिर की तरफ़ आया था और अब वापिस अपने असल ठिकाने की तरफ़ जा रहा था।
उसे बहुत ज़ोर से पेशाब की हाजत हुई। उससे बर्दाश्त न हो सका। बगैर कुछ सोचे और अपनी जान की परवाह किए वह अपने काँपते हाथों की उँगलियों से पतलून की फ़्लाई के बटन खोलने लगा।। वह अब इस सुनसान सड़क पर पेशाब कर देने के लिए तैयार था।
चप्पे-चप्पे पर झूमते हुए फाँसी के फन्दों को वह इस तरह भूल गया जैसे वह रस्सी के नहीं, बल्कि धूल और ख़ाक से बने हुए फन्दे थे और जिन्हें कभी उसने ख़्वाब में देखा था। मगर फ़्लाई के बटन खोलते ही उसे यह भयानक अहसास हुआ जैसे वहाँ सिर्फ़ बर्फ़ का एक टुकड़ा था। पेशाब की हाजत बर्फ़ की जलती हुई आग बन गयी थी। एक ठण्डा बर्फ़ का गहरा जख़्म। उसकी उँगलियाँ बर्फ़ के इस जहन्नम में सुन होकर कटने लगीं, खुली हुई फ़्लाई में दिसम्बर की आधी रात की सर्द हवाएँ और कोहरे की उड़ती हुई धज्जियाँ दाखिल होने लगी।
शायद लाशऊरी तौर पर खौफ़ की वजह से यहाँ पेशाब न उतर रहा हो। उसने सोचा और उसे एक बार फिर सड़कों पर मार्च करते हुए, सफ़ेद वर्दी में लिपटा, साबुन और फूलों की खुशबू से नहाये हुए हाथों में फाँसी के फन्दे उठाये हुए जल्लाद याद आ गये।
उनका ख़्याल आते ही वह घबरा गया और फ़्लाई के बटन बन्द करना भूल गया। बुरी तरह परेशान और बेहाल होते हुए वह जल्दी-जल्दी बड़ी सड़क की तरफ़ जाने वाले रास्ते पर चलने लगा।
चलते-चलते एक जगह ठिठक गया। यह एक सिनेमा हाॅल था। वह खुशी और उम्मीद से भर गया। यहाँ तो हर हाल में पेशाबख़ाना होगा। उसे जगत टाकीज़ में कतार से बने हुए पेशाबख़ाने याद आ गये। अभी रात का शो छूटने में कुछ वक़्फ़ा था। सिनेमा हाॅल का चैकीदार अन्दर से बन्द ताले खोलने की तैयारी करते नज़र आया। वह झपटता हुआ चैकीदार तक पहुँचा। यहाँ भी साबुन और फूलों की महक मौजूद थी। चैकीदार ने उसे ग़ौर से देखा।
‘एक मिनट के लिए दरवाज़ा खोल दो भाई’ उसने आग्रह किया।
‘अब क्या भाड़ झोंकने आये हो, फ़िल्म खत्म हो रही है। अगर एक घण्टा पहले आते तो चुपके से बाल्कनी में बिठा देता। सिर्फ़ दस रुपये में। अब क्या हो सकता है। अब तो हीरोइन अपनी जान दे भी चुकी है। फ़िल्म खत्म हो गयी।’
‘मैं फ़िल्म देखने नहीं आया मुझे पेशाब करना है।’
‘क्या पागल है तू।’
‘नहीं भाई। मेरे गुर्दे में पथरी है। मेरा पेट फटा जा रहा है। मैं कहीं मर न जाऊँ। मुझे हाल के अन्दर किसी पेशाबख़ाने तक पहुँचा दो। बस पेशाब करके अभी आ जाऊँगा।’ वह और भी शिद्दत के साथ गिड़गिड़ाया।
‘चल-चल। आगे बढ़। यहाँ अब पेशाबख़ाने नहीं बनाये जाते, आगे बढ़, वरना पुलिस को बुलाता हूँ।’
गार्ड ने अपना डण्डा हाथ में उठाते हुए उसे बुरी तरह धुत्कारा।
उसने नज़र उठायी तो सिनेमाहाल के ऊपर विशाल पोस्टर हवा में फड़फड़ा रहा था। उसे यह हिलता हुआ पोस्टर फाँसी के फन्दे जैसा नज़र आया। वह किसी खौफ़ज़दा जानवर की तरह वहाँ से भड़क कर भागा।
इस तरह भागने की वजह से उसके जिस्म के निचले हिस्से में बुरी तरह चुभन होने लगी जैसे नोंकदार ककरी वहाँ आकर फँस गयी हो। यह भयानक चुभन कभी उसके पेडू तक पहुँचती और कभी नाफ़ तक। दर्द और तकलीफ़ की इसी हालत में दूर तक भागता चला गया। पता नहीं यह शहर उसके भागते हुए क़दमों की आवाज़ सुन रहा था या नहीं मगर उसने भागते-भागते दूर कहीं रेल की सीटी ज़रूर सुन ली।
वह रुक गया और अपनी साँसे दुरुस्त करने लगा।
रेलवे-स्टेशन चलना चाहिए। वहाँ तो ज़रूर पेशाबघर होंगे। जाने कहाँ-कहाँ से मुसाफ़िर आते-जाते रहते हैं। उसने अपने दिल को तसल्ली दी और उसे एक बार फिर अपना बचपन याद आ गया जब रेलवे-स्टेशनों पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा होता था।
‘बम पुलिस मर्दाना’ ‘बम पुलिस ज़नाना।’ एक बार फिर क़रीब ही कहीं, रेल की सीटी सुनायी दी और उसने आवाज़ से अन्दाज़ा लगाते हुए, सड़क से उतरकर दाँयी तरफ़ चलना शुरू कर दिया। उसका अन्दाज़ा गलत नहीं निकला, वह एक छोटे-से मगर जगमगाते हुए रेलवे-स्टेशन के सामने खड़ा था।
भीड़ नहीं थी। इक्का-दुक्का मुसाफ़िर ही नज़र आ रहे थे। स्टेशन पर ग़जब की सफ़ाई थी, इमारत सफ़ेद थी और गोया इत्र की खुशबुओं में बसी हुई थी। वह दौड़ता हुआ अन्दर आया। जैसे उसकी ट्रेन छूट रही हो। प्लेटफ़ार्म सुनसान पड़ा था। एक सफ़ेद पट्टी के मानिन्द जिसके नीचे लोहे की बेड़ियाँ दूर तक बिछी हुई नज़र आ रही थीं और लाल-हरे सिग्नलों का एक जाल था। वह प्लेटफ़ार्म के एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ता चला गया। कई जगह उसने खोंचे वालों से टकराकर ठोकरें और गालियाँ भी खायी मगर जिसकी तलाश थी, वह नज़र नहीं आया।
मजबूर होकर, थके हुए उसने एक बूढ़े मुसाफ़िर की तरफ़ देखा। बूढ़ा अपना एक अजीब सा बैग, जो तक़रीबन एक फुटबाल की तरह था और जिस पर गधो के कान बने हुए थे, काँधो पर डाले लोहे की पटरियों को खामोशी से तके जा रहा था।
उसने पूछा, ‘जनाब यहाँ टाॅयलेट किस तरफ़ है ?’
‘क्या’ बूढ़े के मुँह से एक सीटी-सी निकली।
‘टाॅयलेट, मेरा मतलब है पेशाब वगैरह करने के लिए।’
बूढ़े ने उसे और उसने बूढ़े को ग़ौर से देखा।
बूढे़ का चेहरा एक गहरे ज़ख्म के निशान की वजह से दो हिस्सों में बटा हुआ था। लगता था जैसे यह एक चेहरा न होकर दो चेहरे हैं, जो एक साथ उसे रहस्यमय अन्दाज़ में घूर रहे थे। यह एक लम्बा ज़ख्म था, जो पेशानी से लेकर ठोरी तक जा रहा था। एक गुलाबी सफ़ेद लकीर।
‘मुझे पेशाब करना है। मेरा पेड़ू फूल रहा है। मेरे गुर्दे में पथरी है। अगर मैंने पेशाब नहीं किया तो मर जाऊँगा। मेहरबानी करके मुझे बताएँ कि मैं कहाँ पेशाब करूँ ?’
उसने तोते की तरह रटे-रटाये जुमले अदा किये।
‘तुम कहाँ से आये हो ?’ बूढे़ की आवाज़ वाकई एक सीटी की तरह थी।
‘जनाब-यक़ीन करें। इस वक़्त मुझे याद नहीं आ रहा। दर्द की शिद्दत ने दिमाग कुन्द कर दिया है। मेरा दिल बैठा जा रहा है।’ उसने लरज़ती आवाज़ में जवाब दिया।
‘क्या तुम भूल गये कि अब इस दुनिया में कहीं कोई पेशाबख़ाना नहीं।’
‘आप मज़ाक कर रहे हैं। मैं बहुत तकलीफ़ में मुब्तिला हूँ।’
‘मैं तुम्हें मज़ाक करने वाला आदमी नज़र आता हूँ। मज़ाक मेरे रुतबे की चीज़ नहीं। देखते नहीं मैं कितना संजीदा हूँ। मैं एक प्रोफ़ेसर हूँ।’ सीटी बहुत ज़ोर से गूंँजी।
‘ओह माफ़ कीजिएगा। भला मुझे क्या पता। मैं तो पेशाब....’
क्या तुम अन्धो हो। मेरे चेहरे पर इल्म-ओ-दानिश का यह ज़ख़्म नहीं देखते। ‘हर सच्चे प्रोफ़ेसर के चेहरे पर यह ज़ख्म होता है।’
उसने अपने कानों में एक के बाद एक कई खतरनाक सीटियों को सुना। उसी वक्त एक बेहद तेज़ रफ़्तार ट्रेन शोर मचाती दिल दहलाती और पटरियाँ हिलाती गुज़री। वह इस स्टेशन पर रुकी नहीं। ट्रेन के गुज़र जाने के बाद, उसे इतना सन्नाटा महसूस हुआ जैसे वह सांय-सांय करते हुए एक जंगल में खड़ा था।
‘देखो अहमक आदमी। स्टेशन के बाहर पुलिस वालों की चैकी है। अगर तुमने उनसे अपनी इस वाहियात और भद्दी ख़्वाहिश का ज़िक्र किया तो तुम्हें फ़ौरन फाँसी दे दी जाएगी। गन्दगी में वृद्धि करने वाले पर कोई मुक़दमा नहीं चलाया जाता बस फौरन फाँसी दे दी जाती है।’
बूढ़े की साँसों के दरम्यान बजने वाली सीटियों से एक खौफ़नाक बोली बरामद हो रही थी। न जाने क्यों एक पल के लिए उसके पेड़ू में चुभने वाली कँकरी शायद इधर-उधर हो गयी।
दर्द कुछ हद तक काबिले बर्दाश्त महसूस हुआ। ‘तो जनाब क्या इस शहर के लोग फ़ितरी ज़रूरियात रफ़ा नहीं करते ?’ उसने डरते हुए सवाल किया।
‘हाँ, अगरचे मुझे इल्म है कि तुम या तो पागल हो या फिर कोई जासूस। मगर मैं तुम्हारे हर सवाल का जवाब दूंँगा। जबसे यूनिवर्सिटी ने मुझे रिटायर किया है। लोगों ने मुझसे सवाल करना बन्द कर दिये हैं। जब बहुत दिनों तक किसी प्रोफ़ेसर से सवाल नहीं पूछा जाता तो उसके चेहरे पर लगे हुए इल्म-ओ-दानिश के ज़ख़्म में ख़ारिश होनी शुरू हो जाती है और ख़ारिश बजाये खुद एक गन्दगी है।’
बूढ़ा रुका और फिर कुछ इस तरह बोलना शुरू कर दिया जैसे मजमे को सम्बोधित कर रहा हो।
‘ज़माना हो गया, ज़माना हो गया। जब इंसान गन्दगियों की पोटली अपने साथ लिए-लिए फिरते थे। इंसान के पास एक जिस्म का होना ही सबसे बड़ा गुनाह था। जिस्म के संस्कार और कर्म ही रूह को बन्धन में डालते थे। सारी मुसीबतों की जड़ आदमी का जिस्म ही था। ध्यान से सुनो। पेट को क्यों बार-बार पकड़ रहे हो। वह तो कुछ भी नहीं है। एक धोखा, फ़रेब, माया या मरीचिका। इंसान के साथ जिस्म की यह झंझट दुनिया की शुरुआत से ही चली आ रही थी और इसीलिए वह जन्नत से नीचे फेंका गया और रूह की निजात मुश्किल होती चली गयी।’ उसने बूढ़े को पागल समझा और प्लेटफ़ार्म की सफ़ेद, बेदाग पट्टी पर पालती मारकर बैठ गया। इस तरह बैठने में उसका पेट और भी तन गया। पतलून कमर पर बूरी तरह फँसने लगी। उसकी साँस सीने में न समा रही थी। वह फ़ौरन दोबारा उठकर खड़ा हो गया। बूढ़ा बहुत ऊँचे कद का था। वह उसके सामने बौना नज़र आता था। उसने मुँह ऊपर उठाकर मजबूरन बूढ़े की बेतुकी तक़रीर सुनना शुरू कर दी। सिर्फ़ इस उम्मीद पर कि शायद अपनी दिल की भड़ास निकालने के बाद बूढ़ा उसे पेशाब से निपटने का कोई तरीक़ा बता ही दे।
‘सुनो, बहुत ग़ौर से सुनो’, सीटी गरजी।
इंसान का जिस्म गन्दगी की पोटली है और गन्दगी ख़्वाहिशात का ज़खीरा है। इश्क और मुहब्बत के नाम जिस्म अपनी गलीज़ ज़रूरतों पर हमेशा परदा डालता आया। मगर माद्दे से छुटकारा पाना फिलहाल मुमकिन नहीं इसलिए शहरी योजनाकारों ने साईंस, मज़हब और फ़लसफ़े के साझे के जरिये, सबसे पहले ‘मुहब्बत’ के कूड़े को झाड़ू लगाकर शहर बदर कर दिया और इस तरह और इसी क़िस्म की दूसरी कोशिशों से, आख़िरकार जिस्म को उसके लक्षणों से यकसर पाक कर दिया। सारे जानवर पाताल में डाल दिये गये। यह आधुनिक साईंस समाज मुकम्मल तौर पर सब्ज़ी खोर है। गोश्त के मानी, नयी नस्ल, पुरानी फरसूद। लुग़ात में ढूँढती फिरती है।
‘आप मेहरबानी करके, मुझे किसी अस्पताल का रास्ता ही दिखा दें। मैं बीमार हूँ वहाँ मैं अपने पेट में भरे हुए इस मनहूस पेशाब से छुटकारा पा सकता हूँ।’
उसने बूढ़े की बातों को नज़र अन्दाज़ करते हुए बेचैनी के साथ इल्तिजा की।
‘तुम बीमार नहीं हो। तुम्हारी रूह बीमार है। अब दरम्यान में बोले तो तुम्हारा अन्जाम बहुत बुरा होगा।’
बूढ़े ने उसे खौफ़नाक नज़रों से घूरा। उसके चेहरे का वह गहरा, लम्बा जख़्म किसी ज़हरीले साँप की खाल की तरह चमकने लगा। रात शायद आधी से भी ज़्यादा गुज़र चुकी थी। अचानक प्लेटफार्म पर सर्द हवाओं के झक्कड़ चलने लगे। लोहे की पटरिया और हरे-लाल सिग्नल कोहरे में छिपकर रह गये।
उसके सिर के बाल गीले होने लगे। खड़े-खड़े, मुँह ऊपर उठाये, उसे फिर चक्कर-सा आने लगा। फटे हुए जूतों के अन्दर उसके थके हुए पाँव बुरी तरह सूज रहे थे। पेशाब न आने की वजह से उसके पूरे जिस्म पर सूजन चढ़ती जा रही थी। गुर्दों में टीस उठने लगी।
वह दर्द पर काबू पाने के लिए बार-बार अपने निचले, खुश्क और पपड़ी जदा होंठ को दाँतों में दबा लेता। अस्पताल अब लोग सिर्फ़ अपनी रूह का इलाज करवाने जाते हैं। बलगम, खाँसी, छींक, पस और जरासीम से जिस्म ने छुटकारा पा लिया है। अस्पताल पागलखानों में तब्दील हो चुके हैं।’
यकबारगी उसका जी चाहा कि वह उस पागल बूढ़े को मार-मारकर कीमा बना दे जो इतनी देर से उसे बेवकूफ बनाकर दिमाग़ खाये जा रहा है मगर इस वक़्त उसमें शायद हाथ ऊपर उठाने की भी ताकत न थी। वह हिम्मत करके, बस यह तन्ज़ ही कर सका।
‘जनाब, क्या अब लोग मरते नहीं यहाँ ?’
‘नहीं मरते, मौत पुरानी चीज़ हो गयी। सिर्फ़ जो गन्दा होगा और गन्दगी फैलायेगा, वही मरेगा। मौत तारीख के गन्दे कूड़ेदान में कहीं पड़ी होगी जिसे कुतरने के लिए अब इस दुनिया में चूहे भी नहीं।’
अचानक प्रोफ़ेसर का लहजा राज़दाराना हो गया। वह अपनी आवाज़ को तकरीबन एक सरगोशी की हद तक ले गया और फिर अचानक बुलन्द आवाज़ में फट पड़ा।
अब यह पाक ओ साफ़ शहर एक अज़ीम अमरत्व के साये में है। जैसे ही जिस्मानी मजबूरियों और उसके दोषों और आलायशों पर काबू पा लिया गया वैसे ही मौत दुम दबाकर भाग गयी। हा-हा।’
बूढ़े ने गला फाड़ एक भयानक कहकहा लगाया। एक साथ कई हज़ार खतरनाक सीटियाँ फ़िजा में गूँजी और उसके कांधो पर लटके हुए थैले पर बने हुए गधो के कान ज़ोर-ज़ोर से हिलने लगे।
‘तो अब बच्चे नहीं पैदा होते ?’ वह खौफ़ज़दा होते हुए कराहा।
‘क्यों नहीं पैदा होते। मगर वह अब मरेंगे नहीं। उनकी उम्र बढ़ती जायेगी। वह पुरोन होते जाएँगे। सिर्फ़ पुराने मगर मौत उनको कभी नहीं आयेगी जैसे मैं हमेशा ज़िन्दा रहूँगा।’
‘तो बगैर गन्दगी के बच्चे कैसे पैदा ?’
बच्चे अब माँओ के पेट में नहीं बल्कि साफ़-सुथरे फूलों के बाग में पैदा होते हैं। उनके लिए औरत के गन्दे जिस्म की कोई ज़रूरत नहीं। बस अपने ज़हन और रूह में बच्चे पैदा करने की ख़्वाहिश का कवीतर होना ज़रूरी है। नई दुनिया मुकम्मल तौर पर मर्दों की दुनिया है। हमने औरत की अन्दायेनिहानियों को मुर्दा करके, महज़ परछाईयों में बदल दिया है। वह अब गन्दे खून में लिथड़े हुए, महीनों के कपड़ों से मुक्ति पा चुकी है। औरत ही तो गुनाह का उत्प्रेरक है। मगर अब कोई शरीफ़ और नेक औरत मुहब्बत का गुनाह नहीं कर सकती। सब कुछ पाक-साफ़ हो गया।’
‘देखिये- प्रोफ़ेसर साहब, बहुत हो गया। आपने मुझ गरीब बीमार का जी भरके मज़ाक उड़ा लिया। मगर अब तो खुदा के वास्ते मुझे बस इतना बता दें कि मैं पेशाब कहाँ करूँ ?’
‘उसे कुछ और नहीं सूझा तो वह बूढ़े के आगे भी अपने दोनों हाथ जोड़कर मिन्नत समाजत करने लगा। दोनों हाथ जो सर्दी और तकलीफ़ से लगातार काँप रहे थे। प्रोफ़ेसर के चेहरे का ज़ख्म एक बार फिर किसी साँप की तरह कुलबुलाने लगा।
बूढ़ा प्रोफ़ेसर अपने इस लम्बे गहरे ज़ख्म के बाइस, जो उसके चेहरे को दो बराबर हिस्सों में तक़सीम करता था, तक़रीबन एक शैतान या बदरूह की तरह नज़र आया।
‘इंसानों के ज़िस्म अब बस देखने में ही जिस्म नज़र आते हैं। किसे नहीं मालूम कि देखी हुई चीज़ सच्ची और असल नहीं होती। जिस्म अब पूरी तरह ज़हन बन चुके हैं। क्या यह विकास की अज़ीमतरीन मंज़िल नहीं। जिस्म अब हर क़िस्म की ग़िलाज़त और गन्दगी से पाक है। वह इंसान की रूह का एक सच्चा अक्स है।’
शैतान ने सीटीनुमा आवाज़ निकालते हुए खुलासा किया।
‘मगर मैं पेशाब’ वह जुमला पूरा न कर पाया कि प्रोफे़सर बोल उठा।
‘देखो अगर तुम वाक़ई हुकूमत के जासूस हो तो अब तक तुम्हें यह खूब अन्दाज़ा हो गया होगा कि मैं इस क़वी तरक्कियाती प्रोजेक्ट का दिल से कायल हूँ, जिसके तहत शहरी योजना और महकमा ए सेहत के सहयोग के ज़रिये सारी दुनिया में सफ़ाई की मुहिम चलायी जा रही है। साईंस, फ़लसफ़ा और मज़हब से ताल्लुक़ रखने वाले तमाम दानिश-वरान भी इस महान प्रोजेक्ट के हामी हैं। और अगर तुम जासूस नहीं हो तो वाकई तुम्हें अस्पताल जाना चाहिए जहाँ अब सिर्फ़ ज़हनी इमराज़ का इलाज होता है। जिस्म के किसी हिस्से में होते हुए दर्द का नहीं। दर्द महज़ एक वहम है। दिमाग़ी फ़ितूर, रूह हर दर्द से परे है। तुम जिस्म नहीं। एक रूह हो। सिर्फ़ रूह।’
बूढ़ा प्रोफ़ेसर किसी तरह खामोश होने का नाम ही नहीं लेता था। प्लेटफार्म कुछ ज़्यादा सुनसान हो गया था। हर तरह़ से ताज़ा साबुन और फूलों की तश्हुद आमेज़ और बेरहम महक आने लगी। एक लम्हे के लिए, वाक़ई, उसने भी खुद को पागल तसव्वुर किया। उसका जी बेतहाशा पेशाब की खरांद सूँघने को चाहा। वह अपने जिस्म की तमाम ताक़त अपने हलक में लाते हुए बोला।
‘सूअर के बच्चे, खब्बीस शैतान, मैं तेरे मुँह में पेशाब करने वाला हूँ।’
यह कहते हुए, वह एक वहशी की तरह बूढ़े की तरफ़ झपटा मगर फ़ौरन ही लड़खड़ाता हुआ पीछे हट गया। उसे महसूस हुआ जैसे बूढ़े के चेहरे का लम्बा ज़ख्म साँप की तरह उसकी तरफ़ लपका था। उसी वक़्त फ़िज़ा में एक सीटी गूँजी और उसने साफ़ देखा कि वह इधर को चले आ रहे थे। फाँसी के फन्दे हाथ में लिए। सफ़ेद वर्दी वाले, उसकी तरफ़ आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ रहे थे। मगर वह मरना नहीं चाहता। वह शार-ए-आम पर फाँसी के फन्दे में झूलना नहीं चाहता।
2
वह प्लेटफ़ार्म से रेलवे लाईन पर इस तरह कूदा जैसे एक खौफज़दा और रंग बदलता हुआ गिरगिट एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर कूदता है। वह कोहरे से लदी हुई रेलवे-लाईन पर दूर तक भागता चला गया। दूर अँधोरे में गिरता-पड़ता, फिसलता और ठोकरें खाता। उसके जूतों के झिल्ली जैसे तले लोहे की सख्त ठण्डी पटरियों से रगड़ खाकर, चिथड़े-चिथड़े होकर हवा में उड़ रहे थे। पटरियों का ठण्डा बेरहम लोहा उसके पैरों के पंजों और एड़ियों पर भयानक ज़र्बा56 लगा रहा था, जिसकी धमक सीधी उसके दिल तक जा रही थी।
उसके आस-पास से मुसाफ़िर और मालगाड़ियाँ गुज़रती रहीं। वह भागता रहा और उसके मसाने में इकट्ठा पेशाब उछल-उछलकर उसके पेडू, पसलियों, सीने और यहाँ तक कि दिल को भी डुबोने लगा। हवा बहुत तेज़ थी। उसकी जैकिट फड़फड़ा रही थी। वह कोहरे के उठते हुए बगूलों के अन्दर दाखि़ल हो रहा था। उसे महसूस हुआ जैसे बूँदा-बाँदी भी शुरू हो गयी हो या मुमकिन है कि यह कोहरे की परतों के बीच फँसी हुई ओस की बूँदें हों। सर्दी उसके ऊपर कोड़े की तरह बरस रही थी।
क्या उसे इल्म था कि जल्द ही वह एक पेट फूले हुए लावारिस कुत्ते की तरह मरने वाला था?
उसे अब यह मालूम था कि अब कहीं कोई ऐसा ज़िन्दगी बख़्श मुकाम नहीं था, जहाँ खरांद हो और इंसानी सीलन हो जिस पर दीवाना वार चीटिंयाँ उमड़ी चली आती हों और जहाँ मर्दाना कमज़ोरी को दूर करने वाली सस्ती दवाओं के घटिया इश्तहारात चस्पा हों और जिसकी दीवारों पर तवायफ़ों और बुरी औरतों के फ़ोन नम्बर और पते लिखे हों।
नहीं, अब वह कहीं नहीं होगा, न किसी होटल में, न किसी स्कूल में, न किसी इबादतगाह के हुजरे में और न जुँए खाने या किसी शराब खाने में।
लोहे की पटरियों पर चढ़ता-उतरता वह इस तरह चला जा रहा था जैसे अपनी खुदकुशी का पीछा कर रहा हो। हालाँकि वह अभी मरना नहीं चाहता। मगर खुद उसके तआकुब में स्याह कोहरे को चीरती हुई टार्चें थी। भूरे वज़नी बूट और सफ़ेद महकती हुई वर्दियाँ थीं और फाँसी के झूलते हुए फंदे थे, मगर वह फाँसी से नहीं मरना चाहता था। इससे अच्छा था कि उसका मसाना फट जाता या वह किसी रेलगाड़ी के सामने आकर कट जाता या किसी पहाड़ से टकरा जाता। और यकीनन सामने एक काला ऊँचा पहाड़ आ रहा था। तेज़ हवाओं के झक्कड़ इसी पहाड़ से आ रहे थे। पहाड़ जैसे सर्दी से जलकर और स्याह हो रहा था और अपनी चट्टानों की दरारों में से कोहरे का धुआँ उंडेल रहा था। इस पहाड़ के रास्ते में सुरंगे थीं। जो काली-काली रात से भी ज़्यादा काली और अन्धोरी थी। एक उजाड़, बेरौनक लम्बी मालगाड़ी सुरंग से होकर निकल रही थी जैसे एक अन्धा अजगर रेंगता हुआ जा रहा हो। काला पहाड़ मालगाड़ी के बन्द और अँधोरे डिब्बों में गरजने लगा।
गरज से उसके कान बन्द हो गये। जब मालगाड़ी का आख़री डिब्बा भी सुरंग के दहाने से निकल गया वह भी उसके पीछे-पीछे काली सुरंग में दाखि़ल हो गया।
यहाँ आकर उसने खुद को, टार्चों की रौशनी से महफूज़ पाया। मालगाड़ी सुरंग से निकलकर कहीं दूर जा चुकी थी। बहुत दूर उसने उसे सीटी देते हुए सुना मगर सुरंग में उसकी गुज़री हुई धुएँ से भरी आवाज़ अभी तक फँसी हुई थी। वह अँधोरी सुरंग में हल्के-हल्के चलता रहा। उसका जी मालिश कर रहा था। पेट पहले से भी ज़्यादा फूल आया था। चलने में यह फूला हुआ वज़नी पेट ज़ोर-ज़ोर से हिलता था। उसका कलेजा मुँह को आने लगा। शदीद प्यास से उसने अपने बदन को तेज़ी के साथ खुश्की में फँसता हुआ महसूस किया।
वह सुरंग की दीवार की तरफ़ मुँह करके खड़ा हो गया और पतलून की फ्लाई में हाथ डाल दिया जिसके बटन पहले से ही खुले हुए थे। मगर वहाँ तो वही बर्फ़ की जलती हुई क़ाश। उसने अपनी पूरी ताक़त के साथ ज़ोर लगाया। उसके गुर्दे फट जाने के क़रीब थे। रीढ़ की हड्डी के गुरिये अपनी जगह छोड़ रहे थे। मगर पेशाब की एक बूँद भी बाहर न आयी।
वह समझ गया कि गुर्दे की पथरी नीचे आकर कहीं फँस गयी है। उसे फ़ौरी तौर पर आॅपरेशन की ज़रूरत थी। मगर अब अस्पताल कहाँ। सिर्फ़ पागलखाने थे। उसे मुकम्मल हो गया कि वाकई वह एक कुत्ते की ज़लील मौत मर जायेगा। सिसक-सिसक कर और एड़ियाँ रगड़-रगड़कर।
सुरंग में दिसम्बर की भयानक और वहशतनाक हवाएँ एक ताण्डव कर रही थीं। हाथ को हाथ सुझाई नहीं देता था। अब उसे अपनी मौत का मुक़ाम तय कर ही लेना चाहिए।
यहाँ ?
नहीं यहाँ नहीं। काले पहाड़ की इस सुरंग में तो हरगिज़ नहीं।
आगे-आगे, अभी उसे और आगे चलते जाना चाहिए। चिथड़ा-चिथड़ा होते जूतों के साथ इस तारीक और पत्थर की सुरंग में उसके पैरों की धमक सदियों पुराने किसी वहशी गीत के जैसी थी। उसे कुछ याद करना चाहिए। यही वक़्त है, अपना मुकद्दर तो काली सुरंग के इन पथरीले आयीनों में वह देख आया। अब मायूसी का जश्न कब तक मनाये। मगर अभी एक जिस्म उसके साथ है। वह इस मायूसी का बिलबिला-बिलबिला कर जश्न मनाता है। रूदन करता है। जिस्म बीमार है, थककर चूर हो रहा है और पता नहीं कब सड़ना भी शुरू हो जाये।
यही वक़्त है उसे कुछ याद करना चाहिए। कोई दुआ। कोई तौबा कि मौत आसान हो। उसे कुछ याद करना चाहिए। यूँ ही चलते-चलते। फूले और सूजे हुए मसाने के दर्द के अन्दर खुद को गुम करते हुए। उसे किसी पुरानी याद के बारे में सोचना चाहिए लेकिन इतना तो उसे मालूम है कि उसके अन्दर एक बुरा ज़मीर है। उस के दुखते हुए सिर में यह बुरा ज़मीर अपने अजीबो-गरीब अहसासात के साथ ज़िन्दा था। इस ज़मीर का शिकार करने के लिए कोई दुआ नहीं थी। मगर उसे यह ज़रूर याद कर लेना चाहिए कि मुहब्बत के अज़ीम, पाकीज़ा, इंसानी और सफ़ेद बर्फ़ के तूदे जैसे सोते सूख गये। और फिर उसकी पहली मुहब्बत बड़ी आसानी के साथ शिकार कर ली गयी, दूसरी मुहब्बतों के ज़रिये।
बस वे दो बदनसीब, खला में ताकती आँखें रह गयीं। वे आँखें जो मुहब्बत करती थी।। वे आँखें सुबह के मद्धम होते हुए तारे देखकर बेनूर हो जाती हैं। वे आँखें उन रास्तों को याद करती हैं जहाँ से होकर मुहब्बत गुज़री। मगर उसको अब कुछ भी नहीं याद। उसके जिस्म की खाल न अँधेरे का स्पर्श महसूस करती है और न रौशनी का। खाल सुन्न हो गयी है। सुरंग के काले पत्थर जैसी हो गयी है।
सुरंग की दीवारों से रगड़ खा-खाकर वह चलता रहा। दूर एक सिरे पर, अन्धोरा कुछ कम हो रहा था। हवा ने अपना रूख़ बदल लिया। अब वह बजाये पूरब के उत्तर की तरफ़ से आ रही थी। एक बिल्कुल अलग हवा। सुरंग का दूसरा दहाना आ रहा था। आखि़र कार वह सुरंग से बाहर निकल आया और घटा टोप अँधोरे में रेलवे लाईन को पार कर अपनी मौत का मुक़ाम तलाश करने के लिए एक तरफ़ चल दिया।
‘छपाक की आवाज़ के साथ उसके पैर पानी में उतरे। वह रुका नहीं, पानी में चलता रहा। पानी उसके जूतों में भर गया और वे बहुत भारी हो गये। उसके पैर सुन्न होने लगे। मगर वह चलता रहा मौत उसके पैरों तक आ पहुँची थी। उसकी पिंडलियों पर इस काले पोखर की ज़ोकें आकर चिमट गयी और उसका खून पीने लगी। वह पानी से बाहर आया। उसके जूतों को आबी सीवार और काई के रेशों ने जकड़ रखा था। कुछ फ़ासले पर रौशनी नज़र आयी जैसे कहीं ऊँचाई पर बहुत-सी मोमबत्तियाँ जल रही थीं।
कोई बस्ती थी, छोटी-सी बस्ती।
धीरे-धीरे उसने गाने की आवाज़ सुनी कोई गा रहा था। शायद औरतें गा रही थी। ढोल भी बज रहा था और घुँघरू भी। कभी-कभी दरम्यान में सारंगी की आवाज़ भी बुलन्द होती। सारंगी की आवाज़ हमेशा इंसानी आवाज़ की भोंडी नक़ल करती है।
मगर इन आवाज़ों के साथ एक ख़ामोशी भी थी, उसने इस खामोशी को अपने कान के बहुत अन्दर सुना। उसने एक गहरी साँस ली तो खामोशी और सघन हो गयी। मगर शायद उसने साँस नहीं ली थी। साँस खुद उस तक चलकर आयी थी।
‘मैं कहाँ आ गया ?’ क़तार से बने हुए छोटे-छोटे टूटे-फूटे मकानों के क़रीब आते हुए उसने अपने आपसे बात की। मगर उसका दिल अपनी खुदकलामी से भर आया। अब इस खामोशी में उसकी अपनी खामोशी का ईमानदार हिस्सा भी शामिल हुआ। रात गुज़रने वाली थी। इस वक़्त रात हमेशा ख़ामोश होती है। वह इन्तज़ार करती है कि तारे मद्धम पड़ जाएँ।
वह उन मकानों के एक दम सामने आ गया। हर मकान उदास था। हर मकान के ऊपर जीने जा रहे थे। अन्धोरी, तंग सीढ़ियाँ हर मकान की बालाई मंज़िल पर हिलती और टिमटिमाती हुई रौशनी थी। वहाँ घुँघरू थे, ढोल थे, घटिया गीत थे और इंसानी आवाज़ की नक़्ल करती हुई सारंगी थी।
यह ज़िला वतनों की बस्ती थी ?
दर्द और मायूसी से बेहाल होते हुए, अपनी अध-खुली आँखों से उसने देखने की कोशिश की। उसके हाथ पत्थर के हो गये। उनसे सुरंग के पत्थर की बू आ रही थी।
वह तवायफ़ों के कोठों के सामने खड़ा था। अपने पत्थर जैसे भारी मगर मौत जैसे हल्के पैरों के साथ उसने एक कोठे की सीढ़ियाँ चढ़ना शुरू कीं।
3
वह खिड़की के पट खोले, चुपचाप, अन्धोरे में आसमान को ताक रही है। रात अब ख़त्म होने वाली है। इस वक़्त रात हमेशा खामोश होती है। वह इन्तज़ार करती है जब तारे मद्धम पड़ जाएँ।
सीलन-ज़दा, अफसुर्दा सी कोठरी में मोमबत्ती की रौशनी उसके आधो चेहरे पर पड़ रही थी, यह आधा चेहरा बेहद हसीन है। चमकती हुई रौशन और बहुत सुतवा नाक, एक बड़ी मासूम और तेज़ कत्थई आँख और एक छोटा-सा सफ़ेद कान, जो खामोशी को सुनते रहने के बाइस कभी-कभी पीला होने लगता है। आधो चेहरे पर जो आधो होंठ नज़र आते हैं, वह गहरे जामुनी रंग के हैं। यह आधा चेहरा बहुत रौशन है, मगर सुबह के सितारे की मानिन्द इसकी चमक बार-बार मद्धम होती है फिर बढ़ जाती है।
बराबर वाले कोठे पर साज़िन्दों ने रात का आखरी साज़ छेड़ दिया। थके हुए घुँघरूओं की ताल पर उदास भारी कूल्हे ढोल की तरह बजने लगे। फूहड़ और फोहश गीत फ़िज़ा में भद्दी-भद्दी आवाज़ों के साथ उभरने लगे, मगर इनमें ‘असल अश्लीलता’ का तत्त्व ग़ायब है। इन नंगे गीतों में एक क़ाबिले रहम किस्म की महरूमी और मायूसी है। यह गन्दे ऊल-जलूल गीत किसी शय के खो जाने का शोकगीत महसूस होते हैं।
वह इन गीतों को सदियों से सुनती आयी है मगर आज वह इन्हें नहीं अपने बहुत क़रीब आती हुई खामोशी को सुन रही है। वह खामोशी की चाप का इन्तज़ार कर रही है और यह यक़ीनन क़दमों की चाप है। वह मुड़ी और लकड़ी के कमज़ोर से दरवाजे़ को देखने लगी जो इस तरह हिल रहा है जैसे ज़लज़ला आ गया हो। वह अन्दर आया है। वह जिसकी पुरानी जैकिट में बड़े-बड़े सुराख हैं, वह जिसके जूते चिथड़े-चिथड़े हो रहे हैं और वह जिसकी पतलून की फ़्लाई के बटन खुले हुए हैं, दिसम्बर की सर्द काली हवाओं और कोहरे से उसका चेहरा स्याह हो रहा है। उसके सिर के बाल उड़कर पीछे की तरफ़ गुट्टी तक जा पहुँचे हैं, जिसकी वजह से उसका माथा एक छोटे-से सपाट पत्थर की तरह नज़र आता है जिस पर न जाने कब का निकला हुआ खून जमकर काला पड़ चुका है और वह जिसकी पिण्डलियों में ज़हरीली जोंके लिपटी हुई है, और जिसके पेट का निचला हिस्सा एक फूलता हुआ गुब्बारा बनता जा रहा है।
वह आते ही लड़की के सामने अपने दोनों हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।
‘मैं यहाँ मरने आया हूँ, मैं एक पेशाबख़ाने में मरना चाहता हूँ। मेरी आख़री उम्मीद यही कोठा है। यहाँ तो वह ज़रूर होगा।’
‘हाँ, सिर्फ़ मेरे कोठे पर है।’
लड़की ने उदासी के साथ कहा और मोमबत्ती की रौशनी में उसके चेहरे का दूसरा आधा हिस्सा भी सामने आ गया है, बेशुमार दानों और फँुसियों से भरा हुआ है जैसे किसी डबलरोटी के आधो टुकड़े पर लातादाद मोटे-मोटे लाल-लाल चींटे चिपके हुए हों। इन दानों और फुँसियों में उसकी आँख, नाक, कान और होंठ महज़ एक भ्रम बनकर रह गये हैं।
मगर उसने इस चेहरे को नहीं देखा, वह अपने दोनों हाथ उस तरह जोड़े-जोड़े, लड़की के आधो हसीन चेहरे से रहम की भीख माँग रहा है।
‘तुम पेशाबख़ाने में क्यों मरना चाहते हो ?’
‘क्योंकि इस साफ़-सुथरी, पाकओ साफ़ और शफ़्फाफ दुनिया में किसी और जगह, एक सड़ते हुए और फूलते हुए पेट वाले कुत्ते की ज़लील मौत मरने से बेहतर है कि तवायफ़ के कोठे पर बने पेशाबखाने में दम तोड़ दिया जाए।’
‘इधर देखो, अपना चेहरा सामने लाओ, मैं तुम्हारा इन्तज़ार कर रही थी।’
उसने अपना मुँह उठाकर लड़की को गौर से देखा। लड़की जिसका आधा चेहरा दुनिया का सबसे खूबसूरत चेहरा था और आधा चेहरा इतना भयानक और दोषपूर्ण।
वह उसे पहचानने की कोशिश करने लगा। उसकी आवाज़ उसे जानी-पहचानी सी महसूस हुई जैसे कोई खोई हुई शय वक़्त के सदियों पुराने टीलों के पीछे से किसी को पुकारती है, मगर उसके दुखते हुए ज़ख्मी सिर में एक बुरा ज़मीर है, बुरा ज़मीर हमेशा याददाश्त को ही धुत्कारता है।
‘मैंने कितनी बार प्यार किया। मैंने तुम्हारे उस कान पर भी बोसा दिया है, जो बचपन में बुरी तरह बहता था।’
लड़की ने बरसों पुराने विषाद के साथ कहा।
‘तुम कौन हो’ उसने कुछ खौफ़ज़दा और कुछ बेयक़ीनी के साथ पूछा।
‘मैं ? मैं एक ग़रीब ज़लील तवायफ़ हूँ, जिसके कोठे पर कोई नहीं आता। मैं फाँसी के फ़न्दे से छिपकर इस सीलन भरी कोठरी में रहती हूँ। अगर किसी को पता भी चल जाए तो वे डरते हैं क्योंकि मेरे जिस्म का एक हिस्सा खतरनाक और घिनौनी बीमारियों का खज़ाना है।
‘क्यों ?’
‘क्योंकि मेरे पास एक ज़िन्दा योनि है। अब शायद ही किसी औरत के पास यह हो। यह जो नाच रही है, इसके पास मुर्दा अन्दाये-निहानियाँ हैं या महज़ उनकी परछाईयाँ। मर्द यहाँ ज़हनी सम्भोग करने के लिए आते हैं। उनके लिंग सिर्फ़ लरजते हुए तारीक साये हैं। इन औरतों के गीतों में गोश्त और खाल की बू नहीं, वह अपने भारी और चर्बी के कूबड़नुमा कूल्हों पर, अपने बाल बिखराकर, ज़ोर-ज़ोर से दोहत्तड़ मारती हैं और वे फटे हुए ढोल की तरह बजते हैं।’
‘तुम पता नहीं क्या कह रही हो। मेरा पेट फटा जा रहा है। मेरे जिस्म का सारा खून बर्फ़ बनकर जम गया। मैं जल्द ही मरने वाला हूँ।’
‘तुम हमेशा से ही खुदगर्ज़ हो। ज़िद्दी और खुदग़र्ज़। तुमने कभी मेरी बात नहीं सुनीं।’
‘मगर मैं मरने वाला हूँ।’
‘तुम नहीं मर सकते।’
‘तुम क्या जानो।’
‘मैं जानती हूँ, मैंने तुमसे मुहब्बत की है।’
‘मैं नहीं पहचानता। मुझे पानी दो, मैं रेगिस्तान का खुश्क पहाड़ हूँ।’
‘मैं तुम्हारे साथ उस दिन से हूँ जब तुम माँ के पेट में थे।’
लड़की ने मिट्टी की सुराही से ताँबे के बदरंग प्याले में पानी उँडेला। वह प्याला उसके होठों तक आ पहुँचा।
पानी पीते ही अचानक उसका दर्द जानलेवा हो गया। उसे महसूस हुआ जैसे हलक़ से लेकर मेदे तक वह पानी पत्थर में तब्दील हो गया। उसे एक भयानक उल्टी आने को हुई और उसे लगा जैसे उसकी आँतें हलक़ से बाहर आ जाएँगी। दाँतों से अपनी ज़ुबान को बुरी तरह काटता हुआ वह दोहरा होता चला गया है। उसने अपने मुँह में खून का ज़ायका महसूस किया। उसकी आँखों की सफ़ेद पुतलियाँ बाहर आने लगीं, उसकी नाभि ऊपर उभर आयी और पेडू इस तरह फूलने लगा जैसे किसी गुब्बारे में हवा भरते-भरते वह फटने वाला हो। उसका पूरा जिस्म अकड़ गया है। वह पहाड़ी सुरंग का काला पत्थर बन गया है।
लड़की अब उसके बहुत क़रीब आ गयी है।
‘मुझे अपनी बाहों में कसकर पकड़ लो, पूरी ताक़त से अपने सीने से लगा लो।’
‘नहीं, वह धीरे से सिसका फिर रोने लगा।’
‘मैं मरना नहीं चाहता। मैं मर जाऊँगा।’
‘तुम नहीं मरोगे क्योंकि तुमने कभी किसी से मुहब्बत नहीं की। डरो नहीं मैंने अपनी सारी पाकीज़गी और मुहब्बत अपने जिस्म के एक अलग हिस्से में तुम्हारे लिए बचपन से सम्भाल कर रखी है। मैं तुम्हारी हूँ।’
‘वह उसके क़रीब आयी। बहुत क़रीब। मोमबत्ती की लौ भड़कने लगी, वह ख़त्म हो रही है। उसका मोम पिघलकर ईंटों के बदरंग फ़र्श पर जमता जा रहा है।
वह जैसे ही उसके क़रीब आयी। उसने उसे सूँघा और पहचान लिया।
लड़की ने कसकर अपने जिस्म से उसका जिस्म मिला दिया जैसे दो चट्टानें आपस में मिलती है। लड़की के हाथ-पैर उसे मिट्टी के बने हुए महसूस हुए। लड़की ने उसका जख़्मी, ठोकर खाया हुआ माथा अपने एक नर्म, गोल और बड़े से पिस्तान पर रखा, जिसमें से जामुन के पुराने तेज़ सिरके की खुशबू आ रही है। लड़की ने अपने आधो जामुनी होंठ, उसके ख़ुश्क, पपड़ी ज़दा स्याह होठों पर रख दिये।
लड़की ने अपनी आधी रौशन, सुतवाँ नाक से एक गहरी साँस ली और उसकी एक बड़ी-सी कत्थई रंग की आँख बन्द हो गयी। लड़की के मिट्टी जैसे हाथ-पाँव ने उसके जिस्म को चारों तरफ़ से जकड़ लिया। वह बुख़ार में जल रही है।
मोमबत्ती बुझ गयी, खिड़की में, आसमान पर एक सफ़ेद लकीर नमूदार हुई। अचानक उसने महसूस किया जैसे वह पेशाब कर रहा हो। उसका दर्द कम होने लगा। उसके सूजे हुए गुर्दे और पेडू अपनी जगह पर आते जा रहे हैं। पेट का तनाव कम हो रहा है, वह हल्का होता जा रहा है। इस मोजज़े पर उसका दिल खुशी से भर आया। उसे नींद आने लगी। लड़की के बदन के नमक से उसकी पिंडलियों में चिमटी हुई जोंकें बेजार होकर फ़र्श पर गिरती जा रही हैं।
‘मुझे नींद आ रही है।’ उसने लड़की के कान में कहा।
‘सो जाओ, कितना थक गये हो।’ लड़की ने मुहब्बत और खुलूस से कहा। उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं। वह जो अपनी आँखें बन्द करता है, वही अन्धोपन को महसूस कर सकता है।
‘मुझे न जाने कितनी रातों सेनींद नहीं आयी।’ लड़की ने उसके खुश्क और खुरखुरे बालों को सहलाया और सूँघा, जिनमें से ऐसी महक आ रही है जो जाड़ों की खामोश और मलाल अंगेज़ बारिश में दरख़्तों से गिरे हुए, पीले पत्तों से आती है।
‘तुम मेरे ख़्वाबों में आकर जागते थे, जब मैं बेख़बर सोते हुए तुम्हें प्यार करती थी।’
लड़की के मुँह से एक गहरी साँस बाहर आयी जैसे उसने सूखी, किरकिरी मिट्टी उगली है।
वह बेकाबू होकर उससे लिपट गया।
‘जानती हो, उन्होंने मुझे पेशाब नहीं करने दिया। मैं कितना रोया।’
‘जानती हूँ, अब भूल जाओ।’ लड़की की उदास और कमज़ोर आवाज़ जैसे बहुत दूर से आयी है। उसके जिस्म में अब कहीं दर्द का नामोनिशान तक नहीं बचा है। वह हवा की तरह हल्का-फुल्का हो गया है। जैसे वह अभी-अभी पैदा हुआ है। इसी औरत की पसली से। उसी लम्हें लड़की की गिरफ़्त उसके जिस्म पर से अचानक ढीली होती हुई महसूस हुई।
फ़िजा में उभरने वाले गन्दे गीत और फ़ोहश साज़ खामोश हो गये और इसके साथ ही सारंगी ने भी आख़री हिचकी ली है। सुबह की सफे़दी की शक्ल में एक सन्नाटा खिड़की के रास्ते अन्दर चला आया है।
‘क्या हुआ ?’
‘कुछ नहीं।’
वह उसके जिस्म पर से इस तरह फिसल गयी है जैसे पानी किसी काई ज़दा चिकनी चट्टान से फिसलता है।
‘क्या हुआ तुम्हें यह क्या हो गया।’ वह घबराकर घुटनों के बल बैठता हुआ, उस पर झुक आया।
‘कुछ भी नहीं, मैं बस मर रही हूँ।’
उसने गौर से देखा। लड़की का आधा खूबसूरत चेहरा बिल्कुल पीला पड़ चुका है और दूसरा हिस्सा अब नज़र ही नहीं आ रहा है। उसके पेट का निचला हिस्सा एक गुब्बारे की तरह फूल रहा है जैसे उसमें लगातार हवा भरती जा रही हो।
‘मगर क्यों, तुम क्यों मर रही हो।’ वह बेतुके अंदाज़ में रोने लगा।
‘रोओ मत, तुम्हारे गुर्दों का सारा पेशाब अब मेरे अन्दर है।’ वह उस सच्ची खुशी के साथ बोली जो किसी को सिर्फ़ मौत के वक़्त ही महसूस हो सकती है।
‘यह कैसे मुमकिन है ?’
‘इसलिए कि मुझे तुमसे मुहब्बत थी।’
उसके मुँह से निकली हुई आवाज़ ऐसी थी जैसे उसने एक सूखी और किरकिरी, इंसानी मिट्टी में मिले हुए खून को थूका हो। उसके आधो होंठ पर एक उजली मुस्कुराहट फैल गयी। उसकी एक कत्थई आँख ने खुद पर झुके हुए चेहरे को, हमेशा के लिए अपने अन्दर डुबो दिया।
‘जो मुहब्बत करते हैं, उन्हें मरना पड़ता है’ लड़की ने अपने नन्हें से ज़र्द कान के बहुत अन्दर सुना और दम तोड़ दिया।
उसकी सफ़ेद शलवार पर खून की कुछ बून्दें तेज़ी के साथ इकट्ठा होती जा रही हैं।
उसका जिस्म अकड़ता जा रहा था। यहाँ तक कि वह पहाड़ की सुरंग के पत्थरों जैसा हो गया।
वह लड़की की लाश के पास दोज़ान बैठ गया है। सुबह के उजाले की चमक बढ़ गयी है और इस चमक के साथ तवायफ़ों के कोठों का सन्नाटा और भी गहरा हो गया है।
वह मुहब्बत को पहली बार देख रहा है। उसकी आँखों के अन्दर से दो नयी आँखें निकल रही हैं जो पुरानी आँखों को आराम से खा रही हैं।
उसे अच्छी तरह मालूम है कि कभी न कभी वह यहाँ ज़रूर पहुँचेंगे। उनके हाथों में उसकी गर्दन की नाप का सफ़ेद फन्दा होगा मगर वह यहीं बैठा रहेगा। उनकी तरफ़ से पीठ किये यहीं बैठा रहेगा। इसी लाश के पास, मुहब्बत के इसी कूड़े के पास, तवायफ़ की यह कोठरी जो इस शहर का इकलौता कूड़ाघर होगा जो इस शहर या दुनिया की ज़ालिमाना, बे-हिस और गै़र-इंसानी सफ़ाई के मुँह पर थूकेगा।
वह यहीं बैठा रहेगा। अभी वह मरेगा नहीं। अभी उसे मुहब्बत करना नहीं आयी, जिस दिन वह मुहब्बत करना सीख जाएगा, वह भी मर जायेगा। इसी खूबसूरत कूड़ाघर में दफ़न हो जाएगा वरना एक मनहूस अमरता उस पर हावी रहेगी। अमरता न तो मुहब्बत को पसन्द करती है और न मौत को।
उसे अमरता के काले, अश्लील खंजर से अपनी पीठ को बचाये रखना है।

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